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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् __ अर्थ-आचार्य महाराज उत्प्रेक्षा करते हैं कि, देखो चन्द्रमा जगत्को प्रसन्न क-' रता है और तापको नष्ट करता है । एवम् सूर्य पीडित करता है, अर्थात् तापको उत्पन्न । करता है । इसी प्रकार जीवोंके गुणदोष खभावसे ही हुआ करते हैं । ऐसा मैं मानता हूं ॥ ३४ ॥ फिर भी कहते हैं,
दूषयन्ति दुराचारा निर्दोषामपि भारतीम् ।
विधुविम्बश्रियं कोकाः सुधारसमयीमिव ॥ ३५ ॥ अर्थ-जो दुष्ट पुरुष हैं वे निर्दोष वाणीको भी दूपण लगाते हैं । जैसे; सुधारसमयी चन्द्रमाके विम्बकी शोभाको चक्रवाक दूषण देते हैं कि, चन्द्रमा ही चकवीसे हमारा विछोह करा देता है ॥ ३५॥ आगे आत्माकी शुद्धिका उपाय बतलाते हैं,
अयमात्मा महामोहकलङ्की येन शुद्धयति ।
तदेव खहितं धाम तच ज्योतिः परं मतम् ।। ३६ ॥ अर्थ-यह आत्मा महामोहसे ( मिथ्यात्व कपायसे ) कलंकी और मलीन है, अतः जिससे यह शुद्ध हो; वही अपना हित है, वही अपना घर है और वही परम ज्योति वा प्रकाश है । भावार्थ- मलिनता नष्ट होनेसे उज्वलता होती है । यह आत्मा निश्चयसे तो अनंतज्ञानादि प्रकाशखरूप है, परन्तु मिथ्यात्वकषायादिसे मलिन हो रहा हैं । इस कारणसे जब मिथ्यात्वकषायरूपी मैल नष्ट हो, तब निज खरूपका प्रकाश हो सकता है। मिथ्यात्वकषायादिकके नष्ट करनेका उपाय जिनागममें कहा है वही जानना ॥ ३६ ॥
विलोक्य भुवनं भीमयमभोगीन्द्रशङ्कितम् ।
अविद्याव्रजमुत्सृज्य धन्या ध्याने लयं गताः ॥ ३७॥ अर्थ-इस जगतको भयानक कालरूपी सर्पसे शङ्कित देखकर अविद्याव्रज अर्थात् मिथ्याज्ञान और मिथ्या आचरणके समूहको छोड निजखरूपके ध्यानमें लवलीन हो जाते हैं, वे धन्य कहिये महाभाग्यवान् पुरुष हैं ॥ ३७ ॥
हृषीकराक्षसाक्रान्तं स्मरशार्दूलचर्वितम् ।
दुःखार्णवगतं विश्वं विवेच्य विरतं वुधैः ॥ ३८॥ अर्थ-जो बुद्धिमान् हैं, उन्होंने इस जगत्कों इन्द्रियरूपी राक्षसोंसे व्याप्त तथा कामरूपी सिंहसे चर्वित और दुःखरूपी समुद्र में डूवा हुआ समझकर छोड दिया। भावार्थजिस जगह राक्षस विचरें, सिंह व्याघ्र भक्षण कर जावें और जहां दुःख ही दुःख दिखाई पडे, उस जगह विवेकी जन किस लिये बसें । ॥ ३८॥