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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
करनेसे मोक्षके अर्थ जागता है । मोह निद्राको छोडकर सम्यग्ज्ञानको जानता है । तथा भ्रम कहिये - अनादि अविद्याको छोडकर उपशमभावरूपी ( मन्दकपायरूपी ) साम्राज्यको ग्रहण करता है ॥ २० ॥ और देखो कि, पुरुषोंके विषयोंमें महातृष्णा है । वह तृष्णा कैसी है ? कि, जन्मसे ( संसारसे) उत्पन्न हुए आतंक (दाहरोग) से. वह उपजी है, सो किसी भी उपाय से नष्ट नहिं होती ॥ २१ ॥ उस तृष्णाकी प्रशान्तिके अर्थ पूज्यपुरुषोंने प्रतीकार ( उपाय ) दिखाया है, और वह जगतके जीवोंके उपकारार्थ ही दिखाया है । किन्तु यह जीव उस प्रतीकारकी अवज्ञा (अनादर ) करता है ॥ २२ ॥ तथापि उद्वेगरहित पूज्यपुरुषोंके द्वारा इस प्राणीके हितार्थ वन्धमोक्षका स्वरूप वर्णन “किया जाता है, जिससे यह प्राणी वैराग्यपदवीको प्राप्त हो ॥ २३ ॥ इस कारण कोई अतिशय समीचीन उपदेश विचार करके इस प्राणीको देना चाहिये, जिससे यह प्राणी उत्कृष्ट शुद्धताको ग्रहण करे और दुर्बुद्धिको छोड दे । भावार्थ - सत्पुरुष इस प्रकार विचारकर जीवोंके संसारसम्बन्धी दुःख दूर करनेकेलिये ऐसा उपदेश देते हैं, वा शास्त्रांकी रचना करते हैं ॥ २४ ॥
आगे ग्रंथकर्त्ता आचार्य महाराज कहते हैं कि, हमको भी यही विचार हुआ है, - अहो सति जगत्पूज्ये लोकविशुद्धि |
ज्ञानशास्त्रे सुधीः कः खमसच्छास्त्रैर्विडम्बयेत् ॥ २५ ॥
अर्थ — अहो ! जगत्पूज्य और लोकपरलोकमे विशुद्धिके देनेवाले समीचीन ज्ञानशास्त्रोंके होते हुए भी ऐसा कौन सुबुद्धि है, जो मिथ्याशास्त्रोंकेद्वारा अपने आत्माको विडंबनारूप करे || २५ ॥
आगे मिथ्याशास्त्रोंके रचनेवालों पर आक्षेप तथा उनके बनाये शास्त्रोंका निषेध करते हैं, - असच्छास्त्रप्रणेतारः प्रज्ञालयमदोद्धताः ।
सन्ति केचिच्च भूपृष्ठे कवयः स्वान्यवञ्चकाः ॥ २६ ॥ स्वतत्त्वविमुखैः कीर्त्तिमान्नानुरञ्जितैः ।
कुशास्त्रच्छद्मना लोको वराको व्याकुलीकृतः ॥ २७ ॥
अर्थ- इस पृथ्वीतलमें बुद्धिके अंशमात्रसे मदोन्मत्त होकर असत् शास्त्रोंके रचनेवाले अनेक कवि हैं । वे केवल अपनी आत्मा तथा अन्य भोले जीवोंको ठगनेवाले ही हैं ॥ २६ ॥ तथा आत्मतत्त्वसे विमुख, अपनी कीर्ति से प्रसन्न होनेवाले मूढ़ हैं । और उन्हीं मूढोंने इस अज्ञानी जगत्को अपने बनाये हुए मिथ्याशास्त्रोंके बहानेसे व्याकुलित कर - दिया है ॥ २७ ॥
अधीतैर्वा श्रुतैज्ञतैः कुशास्त्रैः किं प्रयोजनम् । यैर्मनः क्षिप्यते क्षिप्रं दुरन्ते मोहसागरे ॥ २८ ॥
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