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ज्ञानार्णवः । अर्थ-उन शास्त्रोंके पढ़ने, सुनने व जाननेसे क्या प्रयोजन (लाभ ) है, जिनसे जीवोंका चित्त (मन) दुरन्त तथा दुर्निवार मोह समुद्रमें पड़ जाता है ।। २८ ॥
क्षणं कर्णामृतं सूते कार्यशून्यं सतामपि । . कुशास्त्रं तनुते पश्चादविद्यागरविक्रियाम् ॥ २९ ॥ अर्थ-कुशास्त्र यद्यपि सुननेमें क्षणभरकेलिये कर्णको अमृतसमान आनन्दका प्रसव करता है, परन्तु कालान्तरमें वह सत्पुरुषोंके कार्यसे अविद्यारूपी विपके विकारको बढ़ाता है, अर्थात् विपयोंकी तृप्णाको बढ़ाता है ॥ २९ ॥ । ___अज्ञानजनितश्चित्रं न विद्मः कोऽप्ययं ग्रहः ।
. उपदेशशतेनापि यः पुंसामपसर्पति ॥ ३० ॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि, यह बडा आश्चर्य है, जो जीवोंका अज्ञानसे उत्पन्न हुआ यह आग्रह (हठ) सैकड़ों उपदेश देनेपर भी दूर नहिं होता ? हम नहिं जानते कि, इसमें क्या भेद है । भावार्थ-एक बार मिथ्याशास्त्रकी युक्ति भोले जीवोंके मनमें ऐसी प्रवेश हो जाती है कि, फिर सैकडों उत्तमोत्तम युक्तिये सुने, तो भी वे चित्तमें प्रवेश नहिं करती हैं । अर्थात् ऐसा ही कोई संस्कारका निमित्त है कि, वह मिथ्या आग्रह कभी दूर नहिं होता ॥ ३०॥ आगे कहते हैं कि, सत्पुरुपोंको शास्त्रोंके भले बुरे गुणोंका विचार करना चाहिये,
सम्यग्निरूप्यसद्वृत्तैर्विवद्भिर्वीतमत्सरैः।
अत्र मृग्या गुणा दोषाः समाधाय मनःक्षणम् ॥ ३१ ॥ अर्थ-ऐसे सदाचारी पुरुप जिन्हें मत्सर कहिये द्वेष नहीं है, उन्हें उचित है कि, इस शास्त्र तथा प्रवृत्तिमें मनको समाधान करके गुणदोपको भले प्रकार विचारें ।। ३१ ॥
खसिद्ध्यर्थं प्रवृत्तानां सतामपि च दुर्धियः।
देषवुद्ध्या प्रवर्तन्ते केचिजगति जन्तवः ॥ ३२॥ अर्थ-इस जगतमें अनेक दुर्बुद्धि ऐसे हैं, जो अपनी सिद्धिके अर्थ प्रवृत्ते हुए सत्पुरुपोंपर टेपवुद्धिका व्यवहार करते हैं । भावार्थ-दुष्ट जीव सत्पुरुषोंसे द्वेष रखते हैं॥३२॥
साक्षास्तुविचारेषु निकषग्रावसन्निभाः।
विभजन्ति गुणान्दोषान्धन्याः स्वच्छेन चेतसा ॥ ३३ ॥ अर्थ-वे धन्य पुरुप हैं जो अपने निष्पक्ष चित्तसे वस्तुके विचारमें कसोटीके समान हैं और गुणदोपोंको भिन्न भिन्न जानलेते हैं ॥ ३३ ॥ आगे कहते हैं, कि जीवोंके गुणदोष खभावहीसे होते हैं;
प्रसादयति शीतांशुः पीडयत्यंशुमाञ्जगत् । नि निसर्गजनिता मन्ये गुणदोषाः शरीरिणाम् ॥ ३४ ॥