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ज्ञानार्णवः । अर्थ-श्रीमत् कहिये शोभायमान निर्दोष भट्टाकलंक नामा आचार्यकी पवित्र वाणी है, सो हमको पवित्र करो और हमारी रक्षा करो । कैसी है वाणी ? अनेकान्त स्याद्वादरूपी
आकाशमें चन्द्रमाकी रेखासमान आचरण करती है। भावार्थ-भट्टाकलंक नामक आचार्य स्थाद्वाद विद्याके अधिकारी हुए, उनकी वाणीरूपी चन्द्रमाकी किरणें स्याद्वादरूपी आकाशमें प्रकाश करती हैं ॥ १७ ॥ आगे आचार्य महाराज अपनी कृतिका प्रयोजन प्रगट करते हैं
भवप्रभवदुर्गारक्लेशसन्तापपीडितम् । ___योजयाम्यहमात्मानं पथि योगीन्द्रसेविते ।। १८ ।।
अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि, इस ग्रंथके रचनेसे संसारमें जन्म ग्रहण करनेसे उत्पन्न हुए दुर्निवार क्लेशोंके सन्तापसे पीडित मैं अपने आत्माको योगीश्वरोंसे सेवित ज्ञान ध्यानरूपी मार्गमें जोड़ता हूं । भावार्थ-यहां अपना प्रयोजन संसारके दुःख दूर करनेहीका जनाया है ॥ १८ ॥
न कवित्वाभिमानेन न कीर्तिप्रसरेच्छया।
कृतिः किन्तु मदीयेयं स्ववोधायैव केवलम् ॥ १९॥ अर्थ-यह ग्रन्थरूपी मेरी कृति (कार्य) है, सो केवल मात्र अपने ज्ञानकी वृद्धिके लिये है । कविताके अभिमानसे तथा जगत्में कीर्ति होनेके अभिप्रायसे नहिं की जाती है । भावार्थ-यहां आचार्य महाराजने ग्रन्थ रचनेमें लौकिक प्रयोजन साधनेका निषेध किया है ॥ १९ ॥ आगे सत्पुरुषोंके शास्त्र रचनेका विचार किस प्रकार होता है सो दिखाते हैं:
अयं जागर्ति मोक्षाय वेत्ति विद्यां भ्रमं यजेत् । आदत्ते समसाम्राज्यं स्वतत्त्वाभिमुखीकृतः ॥ २०॥ न हि केनाप्युपायन जन्मजातकसंभवा । विषयेषु महातृष्णा पश्य पुंसां प्रशाम्यति ॥ २१ ॥ तस्याः प्रशान्तये पूज्यैः प्रतीकारः प्रदर्शितः। जगजन्तूपकाराय तस्मिन्नस्यावधीरणा ॥ २२॥ अनुद्विग्नैस्तथाप्यस्य स्वरूपं बन्धमोक्षयोः। कीय॑ते येन निर्वेदपद्वीमधिरोहति ॥ २३ ॥ निरूप्य सच्च कोऽप्युच्चैरुपदेशोऽस्य दीयते ।
येनादत्ते परां शुद्धिं तथा त्यजति दुर्मतिम् ।। २४ ॥ अर्थ-सत्पुरुष ऐसा विचारते हैं कि, यह प्राणी अपना निजखरूप तत्त्वके सन्मुख