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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् '
अर्थ – आचार्य महाराज कहते हैं कि, मकरालय कहिये समुद्र अपार है, तौ भी अनेक समर्थ पुरुष उसे भुजाओंसे तैर सकते हैं; परन्तु यह ज्ञानार्णव योगियोंको रंजायमान करनेवाला अथाह है, सो हम ऐसोंसे नहिं तैरा जा सकता । भावार्थ - यह ज्ञानार्णव अपार है, अतः हम ऐसे इसका पार कैसे पायें ? ॥ १२ ॥
आगे इसी अर्थको सूचित करने को फिर भी कहते हैं, - महामतिभिर्निःशेषसिद्धान्तपथपारगैः ।
क्रियते यत्र दिग्मोहस्तत्र कोऽन्यः प्रसर्पति ॥ १३ ॥
अर्थ --- जहां बड़ी बुद्धिवाले समस्त सिद्धान्त मार्गके पार करनेवाले भी दिशा भूल जाते हैं, वहां अन्य जन किस प्रकार पार पा सकते हैं ? भावार्थ - यह ज्ञानार्णव अथाह है इसमें बडे बडे बुद्धिमान् भी चकरा जाते हैं, फिर अन्यका तो कहना ही क्या ? || १३ || आगे पूर्वके महाकवियोंकी महिमा और अपनी लघुता दिखाते हैं, -
वंशस्थम् ।
समन्तभद्रादिकवीन्द्रभाखतां स्फुरन्ति यत्रामलसूक्तिरश्मयः । व्रजन्ति खद्योतवदेव हास्यतां न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता जनाः ॥ १४ ॥ अर्थ - जहां समन्तभद्रादिक कवीन्द्ररूपी सूर्योकी निर्मल उत्तम बचनरूप किरणें फैलती हैं, वहां ज्ञानलवसे उद्धत पटवीजन के ( जुगनूके) समान मनुष्य क्या हास्यताको प्राप्त नहिं होंगे ? अवश्य ही होंगे ! भावार्थ- सूर्य के सामने खद्योत कीटका प्रकाश क्या' प्रकाश कर सकता है ? ॥ १४ ॥
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अनुष्टप् ।
अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाचित्तसम्भवम् । कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ १५ ॥
अर्थ — जिनके वचन जीवोंके काय वचन मनसे उत्पन्न होनेवाले मलोंको नष्ट करते हैं, ऐसे देवनन्दीनामक मुनीश्वरको ( पूज्यपादखामीको ) हम नमस्कार करते हैं ॥ १५ ॥ जयन्ति जिनसेनस्य वाचस्त्रैविद्यवन्दिताः । योगिभिर्यत्समासाद्य स्खलितं नात्मनिश्चये ॥ १६ ॥
अर्थ — जिनसेन आचार्य महाराजके वचन हैं, सो जयवन्त हैं। क्योंकि योगीश्वर उनके वचनोंको प्राप्त होकर आत्माके निश्चयमें स्खलित नहीं होते, अर्थात् यथार्थ निश्चय करले - ते हैं । तथा उनके वचन न्याय व्याकरण और सिद्धान्त इन तीन विद्याओंके ज्ञातापुरुषोंकेद्वारा बन्दनीय हैं ॥ १६ ॥
श्रीमद्भट्टाकलङ्कस्य पातु पुण्या सरखती ।
अनेकान्तमरुन्मार्गे चन्द्रलेखायितं यया ॥ १७ ॥