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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
आगे सत्पुरुषोंकी वाणी जीवोंके उपकारार्थ ही प्रवर्तती है, ऐसा कहते हैं,प्रबोधाय विवेकाय हिताय प्रशमाय च ।
सम्यकतत्त्वोपदेशाय सतां सूक्तिः प्रवर्त्तते ॥ ८ ॥ अर्थ-सत्पुरुषोंकी उत्तम वाणी जो है, सो जीवोंके प्रकृष्टज्ञान, विवेक, हित, प्रशमता और सम्यक् प्रकारसे तत्त्वके उपदेश देनेके अर्थ प्रवर्तती है । भावार्थयहां प्रकृष्टज्ञानका अभिप्राय पदार्थोंका विशेषरूप ज्ञान होना है, और विवेक कहने से आपापरके भेद जाननेका अभिप्राय लेना चाहिये, क्योंकि पदार्थोंके ज्ञान विना आपापरका भेद ज्ञान कैसे हो ? एवम् पदार्थोंका ज्ञान आपापरके ज्ञान विना निष्फल है । तथा हितशब्दका अभिप्राय सुखका कारण समझना, क्योंकि भेदविज्ञान भी हो, उसमें सुख नहिं उपजै तो भेदज्ञान कैसा ? तथा प्रशम कहनेका अभिप्राय कपायोंका मंद होना है, सो जिस वाणीसे कषाय मंद ( उपशम भावरूप ) न हों, वह वाणी दुःखकी कारण होती है, उसे ग्रहण करना योग्य नहीं है । तथा सम्यक् तत्त्वोपदेशका अर्थ यथार्थ तत्त्वार्थके उपदेश का जानना है । जिसमें मिथ्या तत्त्वार्थका उपदेश हो, वह वाणी सत्पुरुषोंकी नहीं है । इस प्रकार पांच प्रयोजनोंकी सिद्धिके अर्थ सत्पुरुषोंकी वाणी होती है। यहां यह आशय भी ज्ञात होता है, कि, हम जो यह शास्त्र रचते हैं, सो सर्वज्ञकी परंपरासे जो उपदेश चला आता है, वह ही समस्त जीवोंका हित करनेवाला है, उसीके अनुसार हम भी कहते हैं । सो इसमें भी उक्त पांच प्रयोजनोंको विचार लेना, और जो इन पांच प्रयोजनोंके अतिरिक्त वचन हों सो सत्पुरुषोंके वचन न जानने ॥ ८ ॥
आगे इसी अभिप्रायको अन्य प्रकारसे कहते हैं, -
तच्छ्रुतं तच्च विज्ञानं तद्ध्यानं तत्परं तपः ।
अयमात्मा यदासाद्य स्वस्वरूपे लयं व्रजेत् ॥ ९ ॥
अर्थ- वही शास्त्रका सुनना है, वही चतुराईरूप भेद विज्ञान है । वही ध्यान वा तप है; जिसको प्राप्त होकर यह आत्मा अपने स्वरूपमें लवलीन होता है । भावार्थ - आत्माका परमार्थ (हित ) अपने स्वरूपमें लीन होना है, सो जो शास्त्र पढना, सुनना, भेदज्ञान करना, ध्यान करना, महान् तप करना, तथा खरूपमें लीन होनेका कारण होता है; वही तो सफल है अन्य सब निष्फल खेद मात्र है ॥ ९ ॥
. आगे कहते हैं कि, संसारको निःसार जानकर इसमें लीन नहीं होना और अपने हितको नहीं भूलना, -
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दुरन्तदुरिता क्रान्तनिःसारमतिवञ्चकम् ।
जन्म विज्ञाय कः खार्थे मुह्यत्यङ्गी सचेतनः ॥ १० ॥