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रायचन्द्र जनशास्त्रमालायाम्
पश्चात् दिव्यध्वनिसे अभ्युदय निश्रेयस्का मार्ग धर्म प्रवर्त्ताना प्रगट किया है । फिर कैसा है प्रभु ? योगीश्वरोंको मनोवांछित फल देनेकेलिये कल्पवृक्षके समान है । इस विशेष - णसे योगीश्वरोंको मोक्षमार्गके साधनेवाले ध्यानकी वांछा होती है, सो उनको यथार्थ ध्यानका मार्ग बतानेवाला है, अर्थात् जो ध्यान हम करते हैं, वही ध्यान तुम करो; इस प्रकार परंपराय ध्यानका मार्ग जानकर योगीश्वरगण अपनी वांछाको पूर्ण करते हैं, ऐसा आशय जनाया है ॥ २ ॥
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'आगे आचार्य अपने नामके निमित्तसे स्मरणमें आये हुए अष्टम तीर्थंकर श्रीचन्द्रप्रभदेवको प्रार्थनारूप वचन कहते हैं,
भवज्वलनसंभ्रान्तसत्त्वशान्तिसुधार्णवः ।
देवश्चन्द्रप्रभः पुष्यात् ज्ञानरत्नाकरश्रियम् ॥ ३ ॥
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि, चन्द्रप्रभदेव हैं, सो ज्ञानरूप समुद्रकी लक्ष्मीको पुष्ट करो | कैसे हैं चन्द्रप्रभदेव ? संसाररूप अग्निमें भ्रमते हुए जीवोंको अमृतके समुद्रके समान हैं । भावार्थ - यहां रूपकालंकारकी अपेक्षासे कहा है कि, चन्द्रप्रभदेव चन्द्रमाखरूप हैं | जैसे चन्द्रमा समुद्रको बढानेका कारण होता है, भगवान् भी ज्ञानरूपी समुद्रको बढाने के लिये एक कारण हैं । अतः (इसीकारण ) यह प्रार्थना की है। तथा इस ग्रंथका नाम 'ज्ञानार्णव' रक्खा है, सो इसकी पुष्टताकेलिये भी प्रार्थना की है । और जगत्के प्राणी संसारतापसे तपायमान हो रहे हैं; उनकेलिये चन्द्रप्रभभगवान् चन्द्रमाके समान हैं । तथा ज्ञानरूपी अमृतकी बर्षाकरके तापको मिटानेवाले हैं ॥ ३ ॥ आगे विघ्नको नष्टकरके शान्ति करने में सोलहवें तीर्थंकर श्रीशान्तिनाथ भगवान् कारण हैं, इस कारण उनको नमस्कार करते हैं, -
सत्संयमपयः पूरपवित्रितजगत्रयम् ।
शान्तिनाथं नमस्यामि विश्वविघ्नौघशान्तये ॥ ४ ॥
अर्थ – आचार्य कहते हैं कि, मैं समस्त विघ्नोंके समूहकी शान्तिकेलिये श्रीशान्तिनाथ तीर्थंकर भगवान्को नमस्कार करता हूं । कैसे हैं प्रभु ? सम्यक्चारित्ररूप जलके प्रवाहसे पवित्र किया है जगत्का त्रय जिनने - ऐसे हैं । भावार्थ - शान्ति कार्योंमें शान्तिनाथ तीर्थंकरको प्रधान मानते हैं, इस कारण शास्त्रकी आदिमें विघ्ननिवारणार्थ उनको नमस्कार करना युक्त है । तथा चक्रवर्तिपदको त्यागकर संयम ग्रहण किया, इस कारण अन्य जनोंके संयमकी रुचि उत्पन्न करके उन्हें पवित्र किया, इस हेतुसे भी यह विशेषण युक्त है ॥ ४ ॥