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ज्ञानार्णवः । जन्मजातङ्कदुर्वारमहाव्यसनपीडितम् ।
जन्तुजातमिदं वीक्ष्य योगिनः प्रशमं गताः ॥ ३९ ॥ अर्थ संसारसे उत्पन्न दुर्निवार आतंक (दाहरोग) रूपी महाकष्टसे पीडित इस जीवसमूहको देखकर ही योगीजन शान्तभावको प्राप्त हो गये । भावार्थ-संसारमें जीवोंको प्रत्यक्ष दुःखी देखकर ज्ञानी जन क्यों मोहित हों ? ॥ ३९ ॥
भवभ्रमणविभ्रान्ते मोहनिद्रास्तचेतने।
एक एव जगत्यस्मिन् योगी जागर्त्यहर्निशम् ॥ ४०॥ अर्थ-संसार भ्रमणसे विभ्रान्त और मोहरूपी निद्रासे जिसकी चेतना नष्ट हो गई है, ऐसे इस जगत्में मुनिगण ही निरंतर जागते हैं । भावार्थ-जैसे निरन्तर भ्रमण करनेसे शरीर खेदखिन्न हो जाता है, तो उसके निमित्तसे प्रगाढ़ निद्रा आती है और तब यह जीव अपनेको भूल जाता है । ऐसा समझकर ज्ञानीजन निरन्तर सावधान ही रहते हैं ।। ४०॥
रजस्तमोभिरुद्भूतं कषायविषमूछितम् ।
विलोक्य सत्त्वसन्तानं सन्तः शान्तिमुपाश्रिताः ॥४१॥ अर्थ-जो सत्पुरुष हैं, वे रज कहिये ज्ञानावरण, दर्शनावरण, कर्म और तम कहिये मिथ्याज्ञानसे अथवा रजोगुण तमोगुणसे कम्पायमान् तथा कपायरूपी विपसे मूर्छित इस सत्त्वसन्तान कहिये जगत्को देखकर शान्तभावको ग्रहण करते हैं ॥ ११ ॥
मुक्तिस्त्रीवक्रशीतांशु द्रष्टुमुत्कण्ठिताशयः ।।
मुनिभिर्मथ्यते साक्षाविज्ञानमकरालयः ॥ ४२॥ अर्थ-मुक्तिरूपी स्त्रीके मुखरूपी चन्द्रमाके देखनेको उत्सुक हुए मुनिजन साक्षात् विज्ञानरूपी समुद्रका मथन करते हैं । भावार्थ-लोकमें ऐसी प्रसिद्धि है कि, नारायणने समुद्रको मथकर चन्द्रमाको निकाला है । सो यहां अलंकारिक रीतिसे कहा है कि, मुनिजन मुक्तिरूपी स्त्रीके मुखरूपी चन्द्रमाको देखनेकी अभिलापासे ज्ञानरूपी समुद्रको मथन करते हैं। क्योंकि ज्ञानके ध्यानसे मोक्षकी प्राप्ति होती हैं ॥ ४२ ।।
उपर्युपरि संभूतदुःखवहिक्षतं जगत् ।
वीक्ष्य सन्तः परिप्राप्ता ज्ञानवारिनिधेस्तटम् ॥ ४३ ॥ अर्थ-वारंवार उत्पन्न हुई दुःखाग्निसे क्षय होते जगत्को देखकर सन्तपुरुष ज्ञानरूपी समुद्रके तटपर प्राप्त हुए हैं। भावार्थ-संसारकी दुःखरूपी अमिके बुझानेको ज्ञान ही कारण है ।। ४३ ॥