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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
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हैं । अतएव जितने स्त्रीके खरूप हैं, वे तो परमात्माकी शक्तिके रूप हैं और जितने पुरुषके स्वरूप हैं, वे सब परमात्माके रूप हैं । इसप्रकार लक्ष्मी और परमात्माके संयोगरूप आलिंगनसे परमात्माको सुख होता है ।" ऐसी कपोलकल्पना करके उसका व्यवहार करते हैं । और कोई २ तो श्रीराम ऐसी संज्ञा रखकर स्त्री पुरुपका आकार (मूर्ति) स्थापनकर पूजते तथा ध्यान करते हैं । कोई २ लक्ष्मीनारायण कहते हैं, कोई राधाकृष्ण कहते हैं, और कोई गोपीनाथ कहते हैं । तथा कई एक शिवमती पार्वतीका स्थापन करते हैं। कोई २ केवल शिवजीके लिंग तथा पार्वतीकी जननेन्द्रियको ही स्थापनकर पूजते हैं । सो इनके माने हुए स्वरूपको तो ज्ञानलक्ष्मी शब्दसे निराकरण किया । नैयायिक कहते हैं कि - " ज्ञान और आत्मा भिन्न २ पदार्थ हैं और इनकी एकता जो समवायनामक एक भिन्न पदार्थ है, सो करता है" । परन्तु भिन्न पदार्थकी की हुई एकता कदापि नहीं हो सकती, क्योंकि एकता तो तादात्म्यरूप होती है, सो ही होती है । इस कारण घनाश्लेषके कहनेसे उन नैयायिकोंकी कल्पनासे भी भिन्नता दिखाई है । सांख्यमती प्रकृति और पुरुपका संयोग होनेसे आत्माको ज्ञानसुख होना कहते हैं, सो इनसे भी ज्ञानलक्ष्मीके दृढ आलिंगन अर्थात् तादात्म्य भावसे ही सुख होता है, इस प्रकार भिन्नता दिखाई है । एवम् अन्यान्य मतवाले जो परमात्माको अन्यप्रकार कहते हैं, उन सबका भी निराकरण इसी विशेषणसे जानना चाहिये; क्योंकि परमात्माके ज्ञानानन्दरूपतासे परमानन्द है अन्य प्रकारसे नहीं है । फिर कैसा है परमात्मा ? निष्ठित परिपूर्ण हो गये हैं, अर्थ प्रयोजन जिसके, ऐसा कृतकृत्य है । इस विशेषणसे जो नैयायिक कहते हैं कि, परमात्मा वा ईश्वर है सो समस्त कार्यका कर्ता है अर्थात् सृष्टिको बनाता वा विगाड़ता रहता है, सो इस मान्यका खंडन किया है । क्योंकि जो कुछ भी कार्य करता रहता है, वह कृतकृत्य कदापि नहीं हो सकता । फिर कैसा है वह परमात्मा ? कि-अज है, अजन्मा है, अर्थात् उसका कभी जन्म नहिं होता । इस विशेषणसे जो राम कृष्ण आदि परमात्माके अवतारोंको मानते हैं, उनकी कल्पनाका निषेध किया है | क्योंकि परमात्माका फिर कभी संसार में जन्म नहिं होता । फिर कैसा है परमात्मा ? अव्यय कहिये नाशरहित अर्थात् अविनाशी है । इस विशेषणसे जो कोई परमात्माका नाश मानते हैं, तथा सर्वथा अभाव ही मानते हैं; उनकी कल्पनाको मिथ्या ठहराया है । इस प्रकार इन चार विशेषणों करके समस्तमतोंसे भिन्न जैसा यथार्थ स्वरूप परमात्माका है, उसे प्रकट करके आचार्य महाराजने नमस्काररूप मंगलाचरण किया है । अन्यमती जो कल्पना करके कहते हैं, सो यथार्थ नहीं है । और जो अयथार्थ हैं सो वस्तु नहीं है, तथा अवस्तुको नमस्कार करना योग्य नहीं है ॥
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यहां कोई अन्यमती प्रश्न करे कि - " हम भी तो परमात्मा इन ही विशेषणोंके सहित