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भंगवतीसो ५४८ भोगभोगान् भुञ्जानो विहर्तुं प्रभुः, केवलं परियारिड्रिए, णो चेवण मेहुणवत्तियं' केवलं-विशेषस्त्वयम्-परिचारद्धा-परिचारः स्त्रीशब्दश्रवणरूप-संदर्शनादिरूपः ऋद्धिः सम्पत्तिः परिचारद्धिस्तया परिवारद्धा वा वनितादिपरिजन-परिचारणामात्रेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहत प्रभुः किन्तु नो चैव खलु मैथुनपत्ययिकं मैथुनविषयकं यथा भवति तथा न मैथुनवृत्त्या दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहत्तु प्रभुरिति भावः ॥ सू० १ ॥
__मूलम्-"चमरस्त णं भंते ! असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो सोमस्स महारपणो कइ अगमहिसीओ पण्णत्ताओ? अजो! चत्तारि अग्गमाहिसीओ पण्णताओ, तंजहा-कणगा, कणगलया, चित्तगुत्ता, वसुंधरा। तत्थणं एगमेगाए देवीए, एगमेगं देवीसहस्सं परिवारो पण्णत्तो पभूणं ताओ एगमेगा देवी, अन्ने एगमेगं देवीसहस्सं परिवारं विउवित्तए, एवामेव सपुत्वावरेण वजाये जा रहे हैं ऐसे गीतो को सुनने में एवं नृत्यों को देखने में जो अपना समय व्यतीत करता है यही उसका उस समय का दिव्य भोग भोगों को भोगना है। यही बात 'केवलं परियारिडीए, नो चेव णं मेहु. णवत्तियं' इस सूत्र पाठ द्वारा प्रकट की गई है। इसका तात्पर्य ऐसा है कि असुरेन्द्र असुरकुमारराज वह चमर स्त्री शब्द श्रवणरूप एवं उनके रूपों को देखने आदिरूप परिचार से एवं संपत्तिरूप ऋद्धि से अथवा देवी परिजनरूप परिवार द्वारा की गई परिचारणामात्र से दिव्य भोग भोगों को भोगने के लिये तो समर्थ है पर वह मैथुन आदि निमित्तक दिव्य भोगों को भोगने के लिये वहां समर्थ नहीं है ।सू० १॥ વામાં આવે છે. આ રીતે તે નાટ્ય, સંગીત આદિરૂપ દિવ્ય ભેગે ભેગવવામાં પિતાનો સમય વ્યતીત કરે છે. એ જ વાત સૂત્રકારે નીચેના સૂત્રમાં વ્યક્ત *श 2-" केवलं परियारिड्ढीए, नो चेव णं मेहुणवत्तिय " मानना भावार्थ આ પ્રમાણે છે–અસુરેન્દ્ર, અસુરકુમારરાજ ચમર દેવીઓના મધુર ગીતને શ્રવણ કરવા રૂપ અને દેવીઓનાં રૂપોને દેખવારૂપ પરિચાર દ્વારા અને સંપતિરૂપ અદ્ધિ દ્વારા અથવા પરિજન રૂપ પરિવાર દ્વારા કરતી પરિચારણરૂપ દિવ્ય ભેગોને ભોગવવાને જ સમર્થ હોય છે. પરંતુ મૈથુન આદિ મિમિત્તક દિવ્ય ભેગોને ભેગવવાને તે સમર્થ હોતે નથી. એ સૂત્ર ૧૫