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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०११ उ०१ सू० १ उत्पले जीवोत्पातनिरूपणम्
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पुच्छा, गोयमा ! बंधए वा, वधगावा, अवैधगावा' नवरं ज्ञानावरणीयदि कर्मापेक्षया आयुष्यस्य कर्मणः को विशेषः ? इति पृच्छा, भगवानाह - हे गौतम | उत्पलस्थो जीवः एकपत्रावस्थायाम् एकत्वात् आयुष्यस्य कर्मणो बन्धको वा भवति, अन्धको वा भवति, द्वयादिपत्रावस्थायां तु बहुत्वात् उत्पलस्था जीवाः आयुष्यस्य कर्मणो बन्धका वा भवन्ति, अबन्धका वा भवन्ति । ' अहदा वधए य, अबंधस्य ' अथवा बन्धकश्च भवति, अवन्धकश्च भवति, ' अहवा बधए य, अवधगाय ' अथवा बन्धकश्च भवति, अवन्धकाश्च भवन्ति, 'अहवा बंधगाय, अवंधण्य' अथवा बन्धकाश्व भवन्ति, अवन्धवश्च भवति, 'अहवा वधगाय, अवधगाय,' एते अटु भंगा' अथवा प्रकट करते हुए मूत्रकार कहते हैं - 'नवरं आउयस्तपुच्छा - गोगना ! बंघए वा अबधए वा बंधना य अबधगा वा' भदन्त ! ज्ञानावरणीयादि कर्मो की अपेक्षा से आयुष्यकर्म में क्या विशेषता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं - हे गौतम! उत्पलस्थ एक जीव एक पत्रावस्था में अकेला होने से एक होने से आयुष्य कर्मका बंधक भी होता है, अथना अवधकभी होता है. द्वयादिपन्नावस्था में बहुता होने से उत्पलस्थ वे सब जीव आयुष्य कर्म के बंधक भी होते हैं। ' अहवा बंधए य अबंधए य' अथवा एक जीव बंधक और एक जीव अबंधक होता है अहवा 'बंधए य अबंधगा य' अथवा एक जीव बंधक होता है और अनेक जीव अबंधक होते हैं । 'अहवा बंधगा य, अबंधए य' अथवा अनेक जीव बंधक होते हैं और एक जीव अबंधक होता है 'अहवा बंधगा य अबंधगा य एए अट्ठ भंगा' अथवा अनेक जीव-बंधक होते हैं और દ્વારા વ્યક્ત કરી છે-- - " नवरं आउयस्त पुच्छा गोयमा ! बंधवा, अबंधपत्रा गावा, अबंधा वा " गोतम स्वाभीने प्रश्न- हे भगवन् ! ज्ञानाવરણીય આદિ કર્મની અપેક્ષાએ આયુષ્ય કમ'માં શી વિશેષતા છે ? મહાવીર પ્રભુના ઉત્તર-હે ગૌતમ! ઉત્પલની એક પત્રાવસ્થામાં ઉત્પલમાં જે એક જીવ હાય છે તે આયુક`ના અંધક પણુ હાય છે અને અષધક પણ હાય છે યાદિ પત્રાવસ્થામાં તે ઉત્પલમાં જે અનેક જીવા હાય છે તે मषां आयुर्भुना मध च होय छे भने म ध णु डयि छे, " अहवा
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बंधए य अचघर य” अथवा भेड़ व मध भने होय छे, " अहवा बंध य अधगा य" अथवा खेल अव होय छे भने भनेउ-लव- होय छे. " अहवा मेघगा य, अधए य. ? अथवा
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