Book Title: Bhagwati Sutra Part 09
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 712
________________ ६८८ भगवतीने खलु यूयं श्रमणोपासकम् अवहेलयत, निन्दत, खिसयत, गईध्वम्, अवमन्यध्वम्, अयं भावः - मा दीलयत' इति - जा विकुलादिममद्घाटनपूर्वकं मा निर्भत्सयत, ' मा निन्दत' इति मनसा कुत्सितशब्दपूर्वकं मा अनादरं कुरुत, ' मा खििसत' इति हस्तमुखादिविकारपूर्वकं क्षुद्रवचनेन मा प्रकोपयत, 'मा गर्दध्वम्' इति - जनसमक्षं दोषाविष्करणपूर्वकं मा गर्दा कुरुत, 'मा अवमन्यध्वम्' इति तद्योग्य प्रतिपश्यकरणेन अवहेलनयाsपमानं मा कुरुत । तत्र कारणमाह-' संखे णं समणोवासर पियधम्मे चैव दधम्मे चेत्र सुदक्खु जागरियं जागरिए ' शङ्खः खलु श्रमणोपासकः धर्मा एव - यो धर्मो यस्य स तथाविधः, दृढधर्मा एव दृढो धर्मों यस्य स खिंसह, गरहह, अवमन्नह ' हे आर्यो । आप लोग श्रमणोपासक शंख की अवहेलना मत करो, निंदा मत करो, उनसे नाराज मत होओ, उनकी गर्दा मत करो और उनका अपमान मत करो जाति, कुल आदि के मर्मका उद्घाटन करते हुए, जो भर्त्सना की जाती है उसका नाम हीलना - अवहेलना है मनमें ही जो कुत्सित शब्द बोलकर अनादर का भाव प्रकट किया जाता है उसका नाम निन्दा है हस्त मुख आदि के विकार पूर्वक जो क्षुद्र वचन कह कर कुपित किया जाता है उसका नाम खिंसना है । अन्य जनों के समक्ष दोषों को प्रकट करते हुए जो निन्दा की जाती है उसका नाम गह है। तथा यथायोग्य आदर नहीं करने से जो अपमान का भाव प्रदर्शित किया जाता है उसका नाम अवमानना है । सो आप लोग इनमें एक भी बात न करें। क्यों कि कारण यह है कि 'संखेणं समणोवासए पियधम्मे देव, दधम्मेव सुक्खु जगरियं जागरिए ' इन श्रमणोपासक शंख ने कि जो प्रिय है गरद्दह, अवमन्नह ” से आये ! तमारे शा श्रावनी अवहेलना १२वी જોઈએ નહી, નિંદા કરવી જોઈએ નહી, તમે તેના પ્રત્યે નારાજ થશે। મા, તેની ગાઁ કરશે! નહીં અને તેનું અપમાન કરશે! નહી.. (જાતી, કુલ આદિના સમ પ્રકટ કરીને જે ભટ્સના કરવામાં આવે છે તેનું નામ હીલનાઅવહેલના છે મનમાં જ કુત્સિત શબ્દાનુ ઉચ્ચારણ કરીને અનાદરના ભાવ પ્રકટ કરવે તેનું નામ નિા છે. હાથ, મે મહિના હાવભાવ પૂર્વક કરવા ક્ષુદ્ર વનાનું ઉચ્ચારણ કરીને સામેની વ્યક્તિને અધિક કુપિત કરી તેનું નામ નારાજગી છે. અન્ય લેાકા સમક્ષ દોષા પ્રકટ કરીને જે નિદ્યા કરવામાં આવે છે તેનું નામ ગીં છે ચેાગ્ય આદર નહી કરીને જે અપમાન કરાય છે તેનું નામ अनार छे.) “ संखेण समणोवासर पिवधम्मे चैव वुढधम्मेब .

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