Book Title: Bhagwati Sutra Part 09
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 721
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १२ उ० १ सू०४ शङ्खश्रावकचरितनिरूपणं' ६९७ भवादीत् 'कोहवस णं भंते! जीवे कि बंब, कि पकरेड़, कि चिणाह, किं उबचिणाइ ? ' हे मदन्त ! क्रोधवशाः खलु क्रोधस्य वशात् - आर्त :- क्रोधवशवर्ती सन् मीनः कियत्संख्यकं कर्मवध्नाति १ कि कर्म प्रकरोति ? *ि कर्मचिनोति ? किं कर्मचयं करोति ? किं कर्म उपचिनोति ? किं कर्मोपचर्य करोति ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'संखा ! कोहवसट्टे णं जीवे आउयवज्जाश्रो सत कम्मपगडीओ सिटिओ, एवं जहा पढमसए असंवुडस्स अणगारस्स जाव अणुपरियहइ ' हे ! कोधवशाः क्रोधवशवर्ती खल जीवः, आयुष्करजी:- आयुष्ककर्मवर्जयित्वा सप्तकर्मप्रकृतीः शिथिलवन्धनबद्धा: - शिथिलबन्धनै वडाद्भवन्ति तर्हि ताः सप्तशिथिलबन्धनवद्धाः कर्मप्रकृती ढबन्धनद्धाः करोति, इत्यभिप्रायेणाह - वं पूर्वोक्तरीत्या, यथा प्रथमशतके मथमोद्देशके असवृतस्य अनगारस्य प्रकरणे प्रतिपादितं तथैव अत्रापि प्रतिपत्तव्यम्, यावत् स संसारकान्तारे अनुपर्यटति-परिबंध, किं पकरे, किं चिणाह, कि बचिणाह' हे भदन्त । क्रोध के बश से दुःखी हुआ जीव-क्रोधवशवर्ती बना हुआ जीव कितनी कर्म प्रकृतियों का बंध करता है ? किल कर्म को वह करता है ? किस कर्म का वह च करता है ? किस कर्म का वह संचय करता है ? और किस कर्म का यह उपचय करता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - संखा ! कोहसणं जीवे आयथज्जाओ सप्तकम्मपगडीओ सिविलयंत्रणवदाओ एवं जहा पढमसए असंतुस्स अणगारस्स जाव अणुपरिग्रहद्द ' है शंख ! क्रोधवशवर्ती हुआ जीव शिथिल बन्वन से बद्ध हुई आयुसिंबाय सात कर्म प्रकृतियों को गाढवन्ध से बंधी हुई बना लेता है। इस विषय का कथन प्रथमशतक में असंवृत अनंगार के प्रकरण में किया जा चुका है। सो वैसा ही कथन यहां पर भी समझना चाहिये ! ऐसा चिणाइ, किं उवचिणाइ ? " हे भगवन् ! धने वशवती थयेसेो व टली ક્રમ પ્રકૃતિને ખધ કરે છે? તે કયુ' ક્રમ કરે છે? તે કયા કના ચય કરે છે? તે કયા ક`ના સચય કરે છે ? અને તે કયા કમ્'ના, ઉપચય કરે છે ? भडावीर अलुन। उत्तर- " संखा ! कोहवसट्टेणं जीवे आउयवनाओ सन्त कम्मपगडीओ सिढिळघणबद्धाओ एवं जहा पढमसए असंवुडस्त अणगारस्स नाव अणुपरियट्ठइ " हे शोधने अधीन मनेसेो लव शिथिस अन्ध वडे "ખાયેલી આયુ સિવાયની સાતે કપ્રકૃતિએને ગાઢ બન્ધ વડે માંધેલો કરે છે. પહેલા શતકના અસવૃત 'અણુગારના પ્રકરણમાં આ વિષયને અનુલક્ષીને જે કથન કરવામાં આવ્યું છે, તે સમસ્ત કથન અહી પણ અહેણુ કરવુ જોઇએ. એવા ક્રોધી જીવ આ સસાર રૂપી અટવીમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે, भ० ८८

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