________________
प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ११ उ० ९ सू०२ शिवराजर्षिचरितनिरूपणम् ३३९ संधुक्खेइ' शरकेण अरणि मथित्वा अग्नि पाडयति-उत्पादयति, पाडयित्वा, अग्नि संधुक्षयति-उद्दीपयति, 'संधुक्खेत्ता, समिहा कट्ठाई पक्खिवइ, पक्खिवित्ता अग्गि उज्जालेइ, उज्जालेत्ता'-अग्निसंधुक्ष्य उद्दीप्य समित्काष्ठानि पक्षिपति, प्रक्षिप्य अग्निम् उज्ज्वालयति, उज्ज्वाल्यं ततः किमित्याह-'अग्गिस्स दाहिणे पासे, इत्यादि, 'अग्गिस्स दाहिणे पासे' अग्नेश्च दक्षिणे पार्थे 'सत्तंगई समादहे' सप्ताङ्गानि अग्रे वक्ष्यमाणस्वरूपाणि समादधाति स्थापयति' 'सकह, बक्कलठाणं' सकथातत्समयप्रसिद्धमुपकरणविशेषम्, वल्कलं-वृक्षत्वचाम्, स्थान-ज्योति स्थानम् दीपपात्रस्थानं वा, 'सिज्जाभंडकमंडलु' शय्यामाण्डम्-शय्योपकरणम् , कमण्डलु तापस-जलपात्रम्, 'दंडदारं तहप्पाणं' दण्डदारु-काष्ठदण्डं तथा आत्मानं स्वकम् पाडेइ' घिस कर उसने अग्नि को उसमें से तैयार किया बाहर निकाला --'पाडेत्ता अग्गि संधुक्खेई' अग्नि को उत्पन्न कर के उसने उसे धोंका, 'संधुक्खित्ता समिहाकट्ठाई पक्खिवई' धोंककर उसने लकडिकों के छोटे २टुकड़ों को उस अग्निमें डाला. 'पक्विवित्ता अग्गिं-उज्जाले' डालकर उसने उस अग्नि को खूब प्रज्ज्वलित कियो बाद में 'अग्गिस्स दाहिणे पासे' इत्यादि. उसने उस अग्नि की दक्षिण दिशा के पास में इन सात अंगों को स्थापित किया- 'सकह, वक्कलं ठाण' संकथा को-उपकरण विशेष को, वल्कल-छाल को, स्थान-ज्योतिःस्थान अथवादीपपात्रस्थान को, 'सिज्जाभंड, कमंडल' शय्यो-भाण्ड को शय्यो पकरण को कमण्डलु को-तापसजलपात्र को, 'दंडदारूं, तहप्पाणं' दण्डदोरू-काष्ठ दण्ड को तथा अपने आप को इस प्रकार से इन वस्तुओं નિ થન કાષ્ઠ કહે છે. સામાન્ય રીતે અરણીના લાકડાં આ કાર્ય માટે १५२।य छे.) “ महेत्ता अग्गि पाडेइ " मा शत मे महान सीन तो भनि पेटायो, “ पाडेता अग्गि सधुक्खेइग त्य.२ ५छी भुटान मशिन विलित " संधुक्खिता सेमिहाकट्ठाई पक्खिवई" त्या२ माह तो तमा सभिधी नाया. " पविखवित्ता अगि उज्जालेइ" मा शत समिधा भी अभिन ५५ ४ प्रaralad र्या त्या२ मा “अगिरस दाहिणे पासे" त्या तेरे मशिनी क्षिशि त२५ नायनी सात परतु भूमी- "सकह , वक्कल , राण" (१) स४था-6५४२ विशेष (४४), (२) વકલ-છાલનાં વસ્ત્ર, (૩) સ્થાન એટલે કે જ્યોતિ સ્થાન , અથવા દીપપાત્ર स्थान, “सिज्जाभडं, कमंडलु” (४) शय्यामा-शय्यानां B५४२ (५) भ3
पात्र), "देडदारू, तहप्पाणं (6) 18-निर्मित है मा छ वरतमान અગ્નિની દક્ષિણ દિશામાં ગઠવીને સાતમે પોતે પણ એજ દિશામાં