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प्रमैयचन्द्रिका टीका श० १२ १०१ सू०२ शङ्खश्रावकचरितनिरूपणम् ६७७ पोसहसाला, जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ' ततः खलु स पुष्कलिः • श्रमणोपासकः, यत्रैव शङ्ख श्रमणोपासकः आसीत् , तत्रैव उपागच्छति, ‘उजागच्छित्ता गमणागमणाए पडिक्कमइ' उपागत्य, गमनागमनाम्-ऐर्यापथिकीम् , प्रतिक्रामति, 'पडिक्कमित्ता संखं समणोवासगं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता, एवं वयासी'-अतिक्रम्य, शङ्ख श्रमणोपासकं वन्दते, नमस्यति, वन्दित्वा, नमस्यिवा, एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण अबादीव-'एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हेहिं से विउले असण जाव साइमे उवक्खडादिए' भो देवानुपियाः! एवं खलु-पूर्वोक्तविचारानुसारम् अस्माभिः, तत् विपुलम्-प्रचुरम् , अशन यावत्-पान खादिमस्वादिमम् उपस्कारितम् , 'तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! तं विउलं असण जाव समणोवासए जेणेव पोसहसाला-जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छह' इस प्रकार से उत्पला के मुख से सुनकर वे पुष्कली श्रम णोपासक जहां पौषधशाला थी, और उसमें भी जहां वे श्रमणोपासक शंख पाक्षिक पौषध लेकर बैठे हुए थे वहां गये 'उचागच्छित्ता गमणागमणाए पडिक्कमह' वहां जाकर उन्होंने गमनागमन संबंधी-ऐ-पथिकी प्रतिक्रमण किया 'पडिकमित्ता संखं समणोवासग चंद, नमंसह, वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्याली' प्रतिक्रमण करके फिर उन्होंने श्रमः
णोपासक शंख को चन्दन किया, नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार ., करके फिर वे उनसे इस प्रकार कहने लगे- एवं खल देवाणुप्पिया !
अम्हेहिं से विउले असण जाव साइमे उचक्खडाविए' हे देवानुप्रिय ! हमलोगोंने विपुलमात्रामें अशन, पान, खादिम और स्वादिमरूप चारों प्रकारका आहार तैयार करवाया है 'तं गच्छामो ण देवाणुप्पिया। ." तएण' से पोक्खली समणोवासए जेणेव पोसहसाला, जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ" त्या२ मा त पुसी श्रमपास, ज्या पोष५ હતી ત્યાં ગયો ત્યાં જઈને જ્યાં શંખશ્રમણોપાસક, પાક્ષિક પૌષધ વ્રતની माराधना री २ह्या छता, त्यां गये.. “ उवागच्छित्ता" त्यो धन “गमणागमणाए पडिकमिइ” तो गमनागमन विषय (मर्या4ि81) प्रतिभा ४यु “पडिकमित्ता" प्रतिमा ४शन "संख' समणोवासगं वंदइ, नमसइ, पंदित्ता, नमसित्ता एवं वयासी " तेथे श्रास भने । ४२री भने नमः२ ४ा. पानमः४१२ ४शन तेरे तन मा पमाणे धु-“ एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं से विउले असण जाव साइमे स्वक्खडाविए" से - દેવાનુપ્રિય! અમે અશન, પાન, ખાદિમ અને સ્વાદિમ રૂપ ચારે પ્રકાશન मा२ तैयार ४२।०३। छ. " त गच्छामो ण देवाणुप्पिया ! त विउल' असण