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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ११ उ०१ सू०१ उत्पले जीवोत्पातनिरूपणम् २६५
अथाप्ट.विंश संवेधद्वारमाश्रित्य गौतमः पृच्छति-सणं भंते ! उपएलजीवे पुढवी जीवे पुणरवि उप्पलजीवे ति केवाय कालं से वेज्जा ? के वश्यं कालं गतिरागति करेजा ?' हे भदन्त ! स खल्ल उत्पलजीव उत्पलजीवत्वं परित्यज्य पृथिवीजीवो भवेत् पृथिवी जीवतया उत्पधेत, अथच पुनरपि उत्पलजीवो भवेत् उत्पलजीवतया उत्पद्यत इति भवान्तराद पुनस्तद् भवमहणे कियन्तं काल से वेत? कियन्तं काळं गतिमागदि गमनागमनं कुर्याद ? भगवानाह-'गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो सवग्महणाई, उक्कोसेणं असंखेन्जाई भवग्गणाई' हे गौतम ! स उत्पलजीवः भवादेशेन भवप्रकारेण भवापेक्षयेत्यर्थः जघन्येन द्वे भवग्रहणे-एकं पृथिवीकायिकत्वे, बतो द्वितीयम् उत्पलत्ये, तदनन्तरं मनुष्यादिगति गच्छेदिति भावः । रूप से स्थिति जघन्य से लो अन्तर्गत की होती है और उत्कृष्ट से असंख्यात काल की होती है। इस प्रकार यह २७ छा अनुबंधछार है।
अब गौतम २८ चे संवेधवार को आश्रित करके प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'सेणं भंते! उपएलजीचे पुरुधोजीधे पुणरवि उप्पलजीवे त्ति केवइयं कालं वेज्जा ? देवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा' हे भदन्त ! उत्पल का जीव उत्पलइए पर्याय ने छकर घदि पृथिवी जीवरूप से उत्पन्न हो जाता है और बाद में उस पर्याय को छोडकर वह पुनः उसी उत्पल जीष रूप से उत्पन्न हो जाता है इस प्रकार भयान्तर से पुनः उसी अबके ग्रहण करने में वह कितने कोलका सेवन करता है ? किसने कोल तक वह गमनागमल करता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' हे गीलम ! 'अथादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई उको संखेज्जाई बबणादणाई' यह उत्पल जीय भयकी अपेक्षा से फलले कम दो मयप्रक्षण तक-एक पृथिवी कायिक में और
२८ मा सवारी ५३५४ा-गौतम स्वाभानी प्रश्न- ‘से भंते ! पप्पलादे पुषी सीने पुणरवि उप्पलजीवे त्ति फेवइयं काल सेवेज्जा' केवइय झालं गतिरागति' कारेमा १" जन् ! ५। ७ ५३३५ पर्यायन છેડીને પૃથ્વીકાયિક જીવ રૂપે ઉત્પન્ન થઈ જાપ, તો આ રીતે ભવાન્તર કરીને ફરીથી એજ ભવને ગ્રહણ કરવામાં તે કેટલા કાળનું સેવન કરે છે? કેટલા કાળ સુધી તે ગમનાગમન કરે છે?
महावीर प्रभुन। उत्तर- “गोयमा" हे गौतम । “ भवादेसेणं जहन्नेण दो भगाहणाई, उससेण' असंखेज्जाई भवगहणाई" a Grand १ ભવની અપેક્ષાએ ઓછામાં ઓછા બે ભવગ્રહણ પર્યત-એક પૃથ્વીકાયિકમાં
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