Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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___आचारास्त्रे इह-शरीरे जन्मनि संसारे वा विषमुक्तस्य-परिग्रहममत्वादिरहितत्वेन वि-विविधप्रकारैः प्रकर्षेण च मुक्तस्य-वैराग्यभावनया शरीराधनुरागरहितस्य, विरतस्य= सावधव्यापाररहितस्य मुनेः मार्गः नरकनिगोदादिगत्यागतिरूपः पन्थाः नास्ति न विद्यते । विरतस्य मुनेः कर्मणः शरीरस्य चासत्त्वान्न नरकादिगतिषु गमनं भवत्यतस्तस्य स मार्गों नास्तीत्याशयः । इति ब्रवीमि-न मया स्वमत्या प्रोक्तम् , यद्भगवत्सकाशान्मया श्रुतं तत् सर्व त्वां ब्रवीमि-कथयामि ॥ सू० ३ ॥ सावध व्यापारों से निवृत्त किया जाता है आत्मा जिसकी स्थिति में, अथवा निपुण आचरण में यत्नवाला किया जाता है आत्मा जिसके द्वारा उसका नाम आयतन है, वह रत्नत्रयस्वरूप है, यह आत्मा का निजधर्म है। इसके साथ दिया गया “ एक" विशेषण यह बतलाता है कि इसकी जोड़का
और कोई पदार्थ इस दुनिया में नहीं है। यह एक-असहाय-सर्वोत्कृष्टधर्म है । एकायतन में जो रत-लवलीन है, अर्थात् रत्नत्रय की अच्छी तरह से आराधना करने में तत्पर है वह एकायतनरत है। तथा " इह" शरीर, जन्म अथवा संसार में "विप्रमुक्तस्य" परिग्रह एवं ममत्वादि से रहित होनेसे जो “वि" विविध प्रकारों से और "प्र" प्रकर्ष से "मुक्तस्य" वैराग्यभावना से शरीरादिक के अनुराग से रहित है ऐसे सावध व्यापारों से रहित मुनि का मार्ग-नरकनिगोदादिक का गतिआगतिरूप मार्ग नहीं होता है, कारण कि विरत मुनि के तज्जातीय कर्म एवं शरीर का असत्त्व होने से नरकादि गतियों में गमन नहीं होता है ।
એકાયતનસ્વરૂપ રત્નત્રયમાં રત બનેલા છે બધા સાવદ્ય વ્યાપારોથી નિવૃત્ત કરાય છે આત્મા જેની સ્થિતિમાં, અથવા નિપુણ આચરણમાં યત્નવાળો બનાવી દેવામાં આવે છેઆત્મા જેનાથી તેનું નામ આયતન છે. તે રત્નત્રયસ્વરૂપ છે. આ આત્માના नियम छे. तेनी साथे २५पामा मायेत "एक" विशेष मे मतावे છે કે તેની જોડને કોઈ પદાર્થ દુનિયામાં છે જ નહિ. તે એક અસહાય સર્વે ત્કૃષ્ટ ધર્મ છે. એકાયતનમાં જે તત્પર છે. અર્થાત્ રત્નત્રયની સારી રીતે આરાधना ४२वामा तत्५२ छ त मेरायतनरत छ. तथा “इह " शरी२, सन्म अथवा ससारमा “विप्रमुक्तस्य' पनि ममत्वाविधी २डित डोपाथी ते "वि विविध प्राथी “प्र" प्रपथी “ मुक्तस्य" वैशय भावनाथी शरीरात પ્રત્યેની મમતાથી રહિત છે એવા સાવધ વ્યાપારથી રહિત મુનિને માર્ગ–નરક નિગેદાદિકની ગતિ-આગતિરૂપ માર્ગ-હોતું નથી, કારણ કે વિરત-મુનિનાં તજજા તીય કર્મ અથવા શરીરમાં આસક્તપણું ન હોવાથી નરકાદિ ગતિમાં તેનું ગમન
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૩