Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपागच्छीय श्री जिनचन्द्रसूरीश्वरविरचिता (प्राकृत) सम्पादक मुनि जयानंदविजय Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेग शब्द का अर्थ संवेग रंगशाला नामक इस ग्रंथ में स्पष्ट रूप से दर्शाया है = संवेग यानि भव-संसार का भय और मोक्ष की अभिलाषा संसार का भय रोग को मिटाता है, मोक्ष की अभिलाषा आत्म शक्ति को प्रकट करती है। हमारे दैनिक क्रियाओं के सूत्रों में भी संवेग की बातें। 'अनेक प्रकार से आयी हुई है उसमें सर्वश्रेष्ठ सूत्र प्रार्थना सूत्र और उसमें प्रथम प्रार्थना 'भवनिव्वेओ' । भव निर्वेद्र संसार पर अरुचि अर्थात् संसार का भय, भय जनक पदार्थ पर ही अरुचि होती है। दुक्खक्खओकम्मक्खओ = दुःखों का क्षय-कर्मों का क्षय अर्थात् मोक्षाभिलाषा। ऐसे अनेक प्रकार के शब्दों के प्रयोग। द्वारा संवेग रसायण की बातें गुंथी हुई है। जयानद Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शत्रुजयतीर्थाधिपति श्री आदिनाथाय नमः प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरेभ्यो नमः वैक्रमीय ११२५ वर्षे श्री तपागच्छीय-वजशाखीय-नवाङ्गी वृत्तिकारगुरुभ्रातृ श्री अभयदेवसूरिसमभ्यर्थित-श्री जिनचन्द्रसूरिशेखर विरचिता श्री सचेगरङ्गशाला प्राकृत ॐ आशीर्वाद र श्रीविद्याचन्द्रसूरीश्वराः मुनिराजश्रीरामचन्द्रविजयः 3 सम्पादक र मुनिश्रीजयानन्दविजयः प्रकाशक र श्री गुरु रामचंद्र प्रकाशन समिति भीनमाल 9) मुख्य संरक्षक र मु. श्री जयानंदविजयजी आदि ठाणा की निश्रा में २०६५ में पालीताणा में चातुर्मास एवं उपधान करवाया उस प्रसंगे लेहर कुंदन ग्रुप श्रीमती गेरोदेवी जेठमलजी कुंदनमलजी बालगोता परिवार मेंगलवा, मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, हरियाणा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीतराग देव का ध्यान करने वाला स्वयं वीतराग होकर कर्मों या वासनाओं से मुक्त हो जाता है। इसके विपरीत रागी देवों का आलंबन लेने वाला या ध्यान करने वाला काम, क्रोध, हर्ष, विषाद, राग, द्वेषादि दोष प्राप्त कर स्वयं सरागी ही रहता है। *to KO भरमग्रह पूर्ण होने के बाद देव पृथ्वी पर आयेंगे। ऐसा कहा जाता है, तो क्या आज किसी आचार्यदेव के पास देव आते है ? और उन देवों के पास कोई सहायता ली जा सकती है ? मेरे अनुभवानुसार कोई भी देव आज के इस क्षेत्र के आचार्य के पास आवे यह बनने जैसा नहीं दिखता। देव वर्तमान में तात्त्विक दृष्टि से नहीं आते फिर मदद की बात कहां रहती है। भरमग्रह पूर्ण होने के बाद देव पृथ्वी पर आयेंगे ऐसा जाना नहीं है। - प्रश्नोत्तर कर्णिका कल्याण मासिक वर्ष ३६ अं. ४-५, जुलाई-अगस्त १९८०. ਬਹੁਰਿੰਣਾ ਦਾਬ ਵਦਾ ਧਦ ਦੌਰਗ ਸਗਰ ਦੇ । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य सहायक आ. श्री विद्याचंद्रसूरीश्वरजी के शिष्य एवं मुनिराज श्री रामचंद्रविजयजी के कृपापात्र मुनिराज श्री जयानंदविजयजी मुनि श्री दिव्यानंदविजयजी मुनि श्री वैराग्यानंदविजयजी मुनि श्री तत्त्वानंदविजयजी मुनि श्री रैवतचंद्रविजयजी मुनि श्री अमृतविजयजी आदि ठाणा एवं राष्ट्रसंत शिरोमणी आ. श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी के आज्ञा. शा. दी. प्र. वि. साध्वीश्री मुक्तिश्रीजी की सुशिष्याएँ सा. श्री कुशलप्रभाश्रीजी सा. श्री वसंतबालाश्रीजी सा. श्री मुक्तिप्रज्ञाश्रीजी सा. श्री मुक्तिरत्नाश्रीजी सा. श्री मुक्तिदर्शिता श्रीजी सा. श्री मुक्तिरिद्धिश्रीजी सा. श्री मुक्तिसिद्धिश्रीजी - सा. श्री मुक्तिप्रियाश्रीजी चातुर्मास प्रारंभ आषाढ सुदि १३ बुधवार, १६ / ७ /०८ चातुर्मास समापन कार्तिक सुदि १५ गुरुवार, १३/११/०८ O आदि ठाणा का शाश्वत तीर्थ शत्रुंजय क्षेत्रे पालीताना नगरे २०६५ में चातुर्मास एवं उपधान करवाया उस समय की ज्ञान खाते की आय में से... लेहर - कुंदन ग्रुप मंगलवा, मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, हरियाणा श्रीमती गेरोदेवी जेठमलजी कुंदनमलजी बालगोता परिवार मेंगलवा... २०० प्रतियाँ : एक सद्गृहस्थ, थराद ܘܘ ܗܘܘ ܡܟ ܠܟ ܠܟ ܠܘܡܘܢܕ ܘܢ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संरक्षक (१) सुमेरमल केवलजी नाहर, भीनमाल, राज. के. एस. नाहर, २०१ सुमेर टॉवर, लव लेन, मझगांव, मुंबई-१०. (२) मीलियन ग्रुप, सूराणा, मुंबई, दिल्ली, विजयवाडा. (३) एम. आर. इम्पेक्स, १६-ए, हनुमान टेरेस, दूसरा माला, ताराटेम्पल लेन, लेमीग्टन रोड, मुंबई-७. फोन : २३८०१०८६. (४) श्री शांतिदेवी बाबुलालजी बाफना चेरीटेबल ट्रस्ट, मुंबई. महाविदेह भीनमालधाम, पालीताना-३६४२७०. (५) संघवी जुगराज, कांतिलाल, महेन्द्र, सुरेन्द्र, दिलीप, धीरज, संदीप, राज, जैनम, अक्षत बेटा पोता कुंदनमलजी भुताजी श्रीश्रीमाळ, वर्धमान गौत्रीय आहोर (राज.) कल्पतरू ज्वेलर्स, ३०५, स्टेशन रोड संघवी भवन, थाना (प.) महाराष्ट्र. (६) दोशी अमृतलाल चीमनलाल प्रांचशो वोरा थराद पालीताना में उपधान करवाया उस निमित्ते। - (७) शत्रुजय तीर्थे नव्वाणुं यात्रा के आयोजन निमित्ते शा. जेठमल, लक्ष्मणराज, पृथ्वीराज, प्रेमचंद, गौतमचंद, गणपतराज, ललीतकुमार, विक्रमकुमार, पुष्पक, विमल, प्रदीप, चिराग, नितेष बेटा-पोता कीनाजी संकलेचा परिवार मेंगलवा, फर्म - अरिहन्त नोवेल्हटी, GF3 आरती शोपींग सेन्टर, कालुपुरटंकशाला रोड, अहमदाबाद. पृथ्वीचंद अन्ड कं., तिरुचिरापली. (८) थराद निवासी भणशाळी मधुबेन कांतिलाल अमुलखभाई परिवार. (९) शा कांतीलाल केवलचंदजी गांधी सियाना निवासी द्वारा २०६३ में पालीताना में उपधान करवाया उस निमित्ते. (१०) 'लहेर कुंदन ग्रुप' शा जेठमलजी कुंदनमलजी मेंगलवा (जालोर) (११) २०६३ में गुडामें चातुर्मास एवं उपधान करवाया उस समय पद्मावती सुनाने के उपलक्ष में शा चंपालाल, जयंतिलाल, सुरेशकुमार, भरतकुमार, प्रिन्केश, केनित, दर्शित चुन्नीलालजी मकाजी काशम गौत्र त्वर परिवार गुडाबालोतान जयचिंतामणि १०-५४३ संतापेट नेल्लुर-५२४००१ (आ.प्र.) (१२) पू. पिताश्री पूनमचंदजी मातुश्री भुरीबाई के स्मरणार्थे पुत्र पुखराज, पुत्रवधु लीलाबाई पौत्र फुटरमल, महेन्द्रकुमार, राजेन्द्रकुमार, अशोककुमार मिथुन, संकेश, सोमील, बेटा पोता परपोता शा. पूनमचंदजी भीमाजी रामाणी गुडाबालोतान् 'नाकोडा गोल्ड' ७०, कंसारा चाल, बीजामाले, रूम नं. ६७, कालबादेवी, मुंबई-२ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) शा सुमेरमल, मुकेशकुमार, नितीन, अमीत, मनीषा, खुशबु बेटा पोता पेराजमलजी प्रतापजी रतनपुरा बोहरा परिवार, मोदरा (राज.) राजरतन गोल्ड प्रोड. के. वी. एस. कोम्प्लेक्ष, ३/१ अरुंडलपेट, गुन्टूर A.P. (१४) एक सद्गृहस्थ, धाणसा. (१५) गुलाबचंद डॉ. राजकुमार छगनलालजी कोठारी अमेरीका, आहोर (राज.) (१६) शांतिरूपचंद रविन्द्रचंद, मुकेश, संजेश, ऋषभ, लक्षित, यश, ध्रुव, अक्षय बेटा पोता मिलापचंदजी महेता जालोर, बेंगलोर. (१७) वि.सं. २०६३ में आहोर में उपधान तप आराधना करवायी एवं पद्मावती श्रवण के उपलक्ष में पिताश्री थानमलजी मातुश्री सुखीदेवी, भंवरलाल, घेवरचंद, शांतिलाल, प्रवीणकुमार, मनीष, निखिल, मित्तुल, आशीष, हर्ष, विनय, विवेक बेटा पोता कनाजी हकमाजीमुथा, शा. शांतिलाल प्रवीणकुमार एन्ड को. राम गोपाल स्टीट, विजयवाडा. भीवंडी, इचलकरंजी (१८) बाफना वाडी में जिन मन्दिर निर्माण के उपलक्ष में मातुश्री प्रकाशदेवी चंपालालजी की भावनानुसार पृथ्वीराज, जितेन्द्रकुमार, राजेशकुमार, रमेशकुमार, वंश, जैनम, राजवीर, बेटा पोता चंपालाल सांवलचन्दजी बाफना, भीनमाल. नवकार टाइम, ५१, नाकोडा स्टेट न्यु बोहरा बिल्डींग, मुंबई-३. (१९) शा शांतिलाल, दीलीपकुमार, संजयकुमार, अमनकुमार, अखीलकुमार, बेटा पोता मूलचंदजी उमाजी तलावत आहोर (राज.) राजेन्द्र मार्केटींग, पो.बो. नं.-१०८, विजयवाडा.. (२०) श्रीमती सकुदेवी सांकलचंदजी नेथीजी हुकमाणी परिवार, पांथेडी, राज. राजेन्द्र ज्वेलर्स, ४-रहेमान भाई बि. एस. जी. मार्ग, ताडदेव, मुंबई-३४. (२१) पूज्य पिताजी श्री सुमेरमलजी की स्मृति में मातुश्री जेठीबाई की प्रेरणा से जयन्तिलाल, महावीरचंद, ___ दर्शन, बेटा पोता सुमेरमलजी वरदीचंदजी आहोर, जे. जी. इम्पेक्स प्रा. लि.-५५ नारायण मुदली स्ट्रीट, चेन्नई-७९. (२२) स्व. हस्तीमलजी भलाजी नागोत्रा सोलंकी की स्मृति में हस्ते परिवार बाकरा (राज.) (२३) मुनिश्री जयानंद विजयजी की निश्रा में लेहर कुंदन ग्रुप द्वारा शत्रुजय तीर्थे २०६५ में चातुर्मास उपधान करवाया उस समय के आरधक एवं अतिथि के सर्व साधारण की आय में से सवंत २०६५. (२४) कुंदन गुप, मेंगलवा, चेन्नई, दिल्ली, मुंबई. (२५) शा सुमेरमलजी नरसाजी - मंगलवा, चेन्नई. (२६) शा दूधमलजी, नरेन्द्रकुमार, रमेशकुमार बेटा पोता लालचंदजी मांडोत परिवार बाकरा (राज.) मंगल आर्ट, दोशी बिल्डींग, ३-भोईवाडा, भूलेश्वर, मुंबई-२ (२७) कटारीया संघवी लालचंद, रमेशकुमार, गौतमचंद, दिनेशकुमार, महेन्द्रकुमार, रविन्द्रकुमार बेटा पोता सोनाजी भेराजी धाणसा (राज.) श्री सुपर स्पेअर्स, ११-३१-३A पार्क रोड, विजयवाडा, सिकन्द्राबाद. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) शा नरपतराज, ललीतकुमार, महेन्द्र, शैलेष, निलेष, कल्पेश, राजेश, महीपाल, दिक्षीत, आशीष, केतन, अश्वीन, रींकेश, यश, मीत बेटा पोता खीमराजजी थानाजी कटारीया संघवी आहोर (राज.) कलांजली ज्वेलर्स, ४ / २ ब्राडी पेठ, गुन्टूर - २. (२९) शा लक्ष्मीचंद, शेषमल, राजकुमार, महावीरकुमार, प्रविणकुमार, दिलीपकुमार, रमेशकुमार बेटा पोता प्रतापचंदजी कालुजी कांकरीया मोदरा (राज.) गुन्टूर. (३०) एक सद्गृहस्थ ( खाचरौद ) (३१) श्रीमती सुआदेवी घेवरचंदजी के उपधान निमित्ते चंपालाल, दिनेशकुमार, धर्मेन्द्रकुमार, हितेशकुमार, दिलीप, रोशन, नीखील, हर्ष, जैनम, दिवेश बेटा पोता घेवरचंदजी सरेमलजी दुर्गाणी बाकरा. हितेन्द्र मार्केटींग, 11-X-2-Kashi, चेटी लेन, सत्तर शाला कोम्प्लेक्स, पहला माला, चेन्नई - ७९. (३२) मंजुलाबेन प्रवीणकुमार पटीयात के मासक्षमण एवं स्व. श्री भंवरलालजी की स्मृति में प्रवीणकुमार, जीतेशकुमार, चेतन, चिराग, कुणाल, बेटा पोता तिलोकचंदजी धर्माजी पटियात धाणसा. पी. टी. जैन, रोयल सम्राट, ४०६-सी वींग, गोरेगांव (वेस्ट) मुंबई - ६२. (३३) गोल्ड मेडल इन्डस्ट्रीस प्रा. ली., रेवतडा, मुंबई, विजयवाडा, दिल्ली. (३४) राज राजेन्द्र टेक्सटाईल्स, एक्सपोर्टस लिमीटेड, १०१, राजभवन, दौलतनगर, बोरीवली (ईस्ट), मुंबई, मोधरा निवासी. (३५) प्र. शा. दी. वि. सा. श्री मुक्तिश्रीजी की सुशिष्या मुक्ति दर्शिताश्रीजी की प्रेरणा से स्व. पिताजी दानमलजी, मातुश्री तीजोबाई की पुण्य स्मृति में चंपालाल, मोहनलाल, महेन्द्रकुमार, मनोजकुमार, जितेन्द्रकुमार, विकासकुमार, रविकुमार, रिषभ, मिलन, हृितिक, आहोर । कोठारी मार्केटींग, १०/११ चितुरी कॉम्पलेक्ष, विजयवाडा. (३६) पिताजी श्री सोनराजजी, मातुश्री मदनबाई परिवार द्वारा समेतशिखर यात्रा प्रवास एवं जीवित महोत्सव निमित्ते दीपचंद उत्तमचंद, अशोककुमार, प्रकाशकुमार, राजेशकुमार, संजयकुमार, विजयकुमार, बेटापोता सोनराजजी मेघाजी कटारीया संघवी धाणसा. अलका स्टील ८५७ भवानी पेठ, पूना नं. २. सह संरक्षक (३७) शा समरथमल, सुकराज, मोहनलाल, महावीरकुमार, विकासकुमार, कमलेश, अनिल, विमल, श्रीपाल, भरत फोला मुथा परिवार सायला (राज.) अरुण एन्टरप्राइजेस ४ लेन ब्राडी पेठ, गुन्टूर - २. (३८) शा तीलोकचंद मयाचन्द एन्ड कं. ११६, गुलालवाडी, मुंबई - ४ (३९) शा भंवरलाल जयंतिलाल, सुरेशकुमार, प्रकाशकुमार, महावीरकुमार, श्रेणिककुमार, प्रितम, प्रतीक, साहील, पक्षाल बेटा पोता-परपोता शा समरथमलजी सोगाजी दुरगाणी बाकरा (राज.) जैन स्टोर्स, स्टेशन रोड, अंकापली - ५३१००१. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) शा गजराज, बाबुलाल, मीठालाल, भरत, महेन्द्र, मुकेश, शैलेस, गौतम, नीखील, मनीष, हनी बेटा-पोता रतनचंदजी नागोत्रा सोलंकी साँथू (राज.) - फूलचंद भंवरलाल, १८० गोवींदाप्पा नायक स्ट्रीट, चेन्नई - १ (४१) संघवी भंवरलाल मांगीलाल, महावीर, नीलेश, बन्टी, बेटा पोता हरकचंदजी श्री श्रीमाल परिवार आलासन राजेश इलेक्ट्रीकल्स ४८, राजा बिल्डींग, तिरुनेलवेली - ६२७००१. (४२) भंसाली भंवरलाल, अशोककुमार, कांतिलाल, गौतमचंद, राजेशकुमार, राहुल, आशीष, नमन, आकाश, योगेश, बेटा पोता लीलाजी कसनाजी मु. सुरत. फर्म : मंगल मोती सेन्डीकेट, १४/१५ एस. एस. जैन मार्केट, एम. पी. लेन, चीकपेट क्रोस, बेंगलोर - ५३. (४३) स्व. मातृश्री मोहनदेवी पिताजी श्री गुमानमलजी का स्मृति में पुत्र कांतिलाल जयन्तिलाल, सुरेश, राजेश सोलंकी जालोर. प्रविण एण्ड कं. १५-८-११०/२, बेगम बाजार, हैदराबाद - १२. (४४) शा. कान्तीलालजी, मंगलचन्दजी हरण, दसपा, मुंबई. (४५) शा. ताराचन्दजी भोनाजी, आहोर, मुंबई. महेता नरेशकुमार एन्ड कां. 1st, भोइवाडा लेन, गुलालवाडी, मुंबई-२. (४६) श्रीमती फेन्सीबेन सुखराजजी चमनाजी कबदी मुंबई धाणसा, गोल्डन कलेक्शन, नं-५ चांदी गली, ३रा भोईवाडा, भूलेश्वर, मुंबई - २. (४७) शा भंवरलाल, सुरेशकुमार, शैलेषकुमार, राहुल बेटा पोता तेजराजजी संघवी कोमतावाला भीनमाल, एस. के. मार्केटींग, राजरतन इलेक्ट्रीकल्स, के. सी. आई. वार्यर्स प्रा. लि. १६३, गोविंदाप्पा, नायकन स्ट्रीट, चेन्नई - ६००००१. (४८) बल्लु गगनदास विरचंदभाई परिवार थराद. (४९) शा जेठमलजी सागरमलजी की स्मृति में मुलचंद, महावीरकुमार, आयुषी, मेहुल, रियान्सु, डोली, प्रागाणी ग्रुप-संखलेचा, मंगलवा. राज रतन एसेंबली वर्क्स, १४६/११६९, मोतीलाल नगर नं.- १. सांई मंदिर के सामने, रोड नं.-३, गोरेगांव (वेस्ट), मुंबई - १०४. संखलेचा मार्केटींग, ११-१३-१६, समाचारवारी स्ट्रीट, विजयवाडा - १. ― प्राप्तिस्थान शा देवीचंद छगनलालजी 'सुमतिदर्शन' नेहरू पार्क के सामने, भीनमाल- ३४३०२१. फोन : (०२९६९) २२०३८७ श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन पेढ़ी साँयूं. ३४३०२६. फोन : २५४२२१ श्री विमलनाथ जैन पेढ़ी बाकरा, राजस्थान -३४३०२५. महाविदेह भीनमाल धाम तलेटी हस्तगिरि लिंक रोड, पालीताणा (सौराष्ट्र ) - ३६४२७० फोन : (०२८४८) २४३०१८ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि को राजादि का संसर्ग अच्छा नहीं। उसिणोदगतत्तभोइणो धम्मट्ठियस्स मुणिस्स हि मतो। संसग्गि असाहु राइहिं असमाहि उ तहागयस्स वि॥ टी. चिदण्डोद्धृतोष्णोदकभोजिनः यथोक्तानुष्ठायिनोऽ पि राजादिसंसर्गवशाद् असमाधिरेव अपध्यानमेव स्यात्, न कदाचित् स्वाध्यायादिकं भवेदिति । ___- सूयगडांग वृत्ति . Y उष्ण तप्त जल का ही उपयोग करने वाला धर्म में स्थिर लज्जायुक्त ऐसे मुनि के लिए राजादि का संसर्ग अच्छा नहीं है। ऐसे साधुको भी असमाधि हो जाती है। टीकार्थ :- तीन उकाले वाले पानी का ही उपयोग करने वाले शास्त्रोक्त अनुष्ठान का आचरण करनेवाले साधु राजादि के संसर्ग से असमाधि-दुर्ध्यान ही होता है स्वाध्यायादि कभी नहीं कर सकता। - प्रभु तुजशासन अतिभलु पेज ३१ स्वेच्छा से राजनेता आते हो तो कोई अशास्त्रोक्त नहीं है। परंतु उनको बुलवाना उनकी राजनीति को ही प्रोत्साहन देना है। चतुर्विध संघ सोचें। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णता जीव अपूर्ण है, शिव पूर्ण है। अतः अपूर्णता के घोर अंधकार में से पूर्णता के उज्ज्वल प्रकाश की ओर जाने का उपक्रम करें। क्योंकि समग्र धर्मपुरुषार्थ का ध्येय पूर्णता की प्राप्ति है। यही अंतिम ध्येय है, आखिरी मंज़िल है। फलस्वरुप, आत्मा की ऐसी परिपूर्णता प्राप्त कर लें कि कभी अपूर्ण होने का अवसर ही न आये। अपूर्णता का प्रादुर्भाव होने की संभावना ही न रहे ! युग-युगांतर से मोह और अज्ञान की गहरी खाई में दबी चेतना को, पूर्णता की प्रकाश-किरण आकर्षित करती रहती है। ___ अपूर्णः पूर्णतामेति अपूर्ण पूर्णता पाये ! ग्रंथकार महात्मा ने कैसी गहन-गंभीर फिर भी मृदु बात का सूत्रपात किया है ! एक ही पंक्ति में, गागर में सागर भर दिया है। आत्मा की पूर्णता प्राप्त करने हेतु कर्मजन्य पदार्थों से रिक्त हो जाएँ ! ज्ञानसार Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला दो शब्द . दो शब्द आत्मा से परमात्मा बनने के लिए संवेग का मार्ग ही संपूर्ण निर्विघ्न मार्ग है। आत्मा शब्द संसारवर्ती जीवों के लिए विशेष प्रयुक्त होता है और परमात्मा शब्द मुक्ति के जीवों के लिए विशेष प्रयुक्त होता है। संसार से मुक्त होने वाला ही मुक्ति में पहुँच सकता है। संसारी आत्मा बंधन में है। बंधन अनेक प्रकार के हैं। सभी बन्धनों का मूल बंधन कर्म है। कर्म है तो दूसरे बंधन है। कर्म नहीं तो एक भी बंधन नहीं। हर समझदार आत्मा मूल की ओर लक्ष्य देता है। रोग हो तो रोग का मूल कारण नष्ट होते ही रोग नष्ट हो जाता है अतः रोग के मूल कारण को दूर करने के लिए प्रयत्न किया जाता है। वैसे ही संसार का मूल कारण जो कर्म उसको दूर करने के लिए प्रत्येक समझदार व्यक्ति को प्रत्यन करना चाहिए यह सिद्धांत निश्चित है। जगत में उपचार अनेक प्रकार के है। जो उपचार जहाँ कार्य कर सके वहाँ उसी उपचार को करना हितकर है। कर्म को भी रोग की संज्ञा दी हुई है। कर्मरोग को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के उपचार अनंतानंत तीर्थंकर भगवंतों ने दर्शाये हैं। उन सभी उपचारों में सर्व श्रेष्ठ उपचार प्रत्येक भव्यात्मा के लिए एक ही है। और वह है 'संवेग रसायण का पान करना।' यह 'संवेग रसायन' दो कार्य करता है। रोग को मिटाता है और शक्ति को प्रकट करता है। संवेग शब्द का अर्थ संवेग रंगशाला नामक इस ग्रंथ में स्पष्ट रूप से दर्शाया है-संवेग यानि भव-संसार का भय और मोक्ष की अभिलाषा संसार का भय रोग को मिटाता है, मोक्ष की अभिलाषा आत्म शक्ति को प्रकट करती है। हमारे दैनिक क्रियाओं के सूत्रों में भी संवेग की बातें अनेक प्रकार से आयी हुई है उसमें सर्वश्रेष्ठसूत्र प्रार्थना सूत्र और उसमें प्रथम प्रार्थना "भवनिव्वेओ" भव निर्वेद संसार पर अरुचि अर्थात् संसार का भय, भय जनक पदार्थ पर ही अरुचि होती है। दुक्खक्खओ-कम्मक्खओ दुःखों का क्षय-कों का क्षय अर्थात् मोक्षाभिलाषा। ऐसे अनेक प्रकार के शब्दों के प्रयोग द्वारा संवेग रसायण की बातें गुंथी हुई है। जिन पदार्थों से, व्यक्तियों से स्थान से जिसे भय लगता है वह उन-उन से दूर रहने के लिए सतत प्रयत्नशील होता है। यह अटल नियम है। जिन आत्माओं को संसार भय जनक है ऐसा खयाल आया वे आत्माएँ संसार से भयभीत बनी थीं, बन रही हैं और बनेगी। संसार से भयभीत आत्मा को संसार बंधन स्वरूप लगता है, बंधन का कारण कर्म है तो अब कर्म से मुक्त बनने के लिए प्रयत्न करना और कर्म रोग है रोग को मिटाने के लिए रोग का निर्णय किया जाता है। जगत में एक न्याय प्रचलित है लोहा लोहे से कटता है। वैसे कर्म को मिटाने के लिए कर्म ही करना। कर्म के दो भेद है शुभ-अशुभ। अशुभ को दूर करने के लिए शुभ कर्म करना। शुभ कर्म काया से, वचन से, एवं मन से होते हैं। इन तीनों योगों से शुभ कर्म करने के लिए अतीव विस्तृत मार्गदर्शन इस 'संवेगरंगशाला' नामक ग्रंथ के अन्दर प्राप्त होता है। संवेग के रंग रूप शुभ कर्म से अशुभ कर्म रूप कचरा निकल जायगा फिर शुभ कर्म भी अल्प मानसिक प्रयास से दूर हो जायेंगे। कर्म दूर होते ही आत्मा अपने मूल स्वभाव में आकर अपने स्वयं के घर में स्वगृह में जाकर निवास करेगा। यह ग्रंथ वि.सं. ११२५ में रचा गया है। रचनाकार श्री जिनचंद्रसूरिजी नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरीश्वरजी के बड़े गुरुभ्राता है। अतः इन्होंने आगम ग्रन्थों का अमृत खोज-खोजकर इस संवेगरंगशाला में भर दिया है। आ.श्रीमुक्तिप्रभ सूरीश्वरजी की प्रस्तावना में इस ग्रंथ के विषय में विचार व्यक्त किये है। जो इस संपादन में वे प्रस्तावनाएँ दी है। जहां-जहां पूर्व प्रकाशित में अशुद्धियाँ दृष्टिगोचर हुई उसे सुधारने का उपयोग किया है। फिर भी भूले रह गयी हो और पाठकवर्ग के ध्यान में आवे तो संपादक को सूचित करने की कृपा करें। इस ग्रंथ में निम्न बातें हैं जिसमें इसके बाद रचे गये ग्रंथों में परावर्तन हुआ है। जैसे वंकचूल की कथा में उसे युद्ध में रोग की बात लिखी है अन्य कथाओं में कौए से बोटा हुआ पानी पीने से रोग होने की बात आयी है। रानी द्वारा मुझ पर बलात्कार किया ऐसा राजा को कहने का वर्णन है। पृ. २५ आर्य महागिरि की कथा में स्थूलभद्रजी के वर्णन में उपकोशा के घर चातुर्मास का वर्णन है जब कि अन्य कथाओं में कोशा के घर का वर्णन आता है। पृ. ११० । आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति सूरि में सांभोगिकपना पृथक होने का वर्णन अन्य कथानकों में आता है इसमें नहीं है। पृ. ११० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द संवेगरंगशाला अर्णिका पुत्र आचार्य के वर्णन में अन्य ग्रंथों में नदी में गिराने पर शूलि पर लेने का एवं खून के बिन्दू जल में गिरने पर चिंतन का वर्णन आता है जो इसमें नहीं है। पू. १५० वसुराजा की कथा में पाठक द्वारा परिक्षा का वर्णन इसमें नहीं है। नारद का शिष्यों को पढ़ाने का वर्णन अन्य कथानकों में नहीं है। पू. १६१ बाहुबली की कथा में इन्द्र द्वारा दोनों भाईयों को समझाने का वर्णन इसमें नहीं है। इसमें दंडरत्न हाथ में आने का वर्णन है जब कि अन्य कथानकों में चक्ररत्न को याद करने का एवं फेंकने का वर्णन है। पू. १६८ स्थूलभद्र सूरि की कथा में यहां तीन पुत्रियों के स्मरण शक्ति की बात है। अन्य कथाओं में सातों बहनों के स्मरण शक्ति की बात है पृ. १९० दृढप्रहारी की कथा में अन्य कथाओं में चार हत्या की बात है। इसमें तीन की बात है। पृ. १९२ इस प्रकार कथाओं में परिवर्तन हुआ है। यह ग्रंथ नामानुसार आत्मा में संवेगरंग को उत्पन्न करने वाला, वृद्धि करने वाला और इसके उपदेश द्वारा स्व पर कल्याण करने वाला उत्कृष्टतम ग्रंथ है। आराधक आत्मा को इस ग्रंथ का वांचन, मनन, चिंतन एवं इस पर आचरण कर ग्रंथकार के परिश्रम को सफल बनाकर स्व कल्याण करना चाहिए। ताडपत्र पर इस ग्रंथ को लिखवाने वाले की जो प्रशस्ति दी है। इससे ऐसा लगता है कि उस समय ज्ञान लिखवाने वाले अति अल्प होंगे। जिससे लिखवाने वाले की ऐसी प्रशस्ति लिखी गयी है। उसने लिखवाने की उदारता की तभी यह ग्रंथ हमको उपलब्ध हुआ है। पाठक गण इसे पढ़कर आत्म कल्याण साधे । यही । जालोर, वि.सं. २०६४ अषाड सुद १४ दि. २९/७/२००७ - इस ग्रंथ का भाषांतर हिन्दी में छपवाने के बाद मूल प्रत भी छपवाने का विचार हुआ। अतः इसे छपवाया है। इसमें अशुद्धियों को सुधारने का प्रयत्न किया है। पत्रकार में ३०८९ का श्लोक छपा ही नहीं था। पाटण भंडार में से मुनि श्री | जंबुविजयजी द्वारा श्लोक प्राप्त हुआ सो दीया है। फिर भी अशुद्धि रही हो तो विबुध वर्ग संपादक को सूचित करने का प्रयत्न करें। इस ग्रंथ में मंगलाचरण में श्रुत देवी को नमस्कार करने की बात है। श्रुत देवता के काउस्सग्ग का प्रचलन हो जाने से नमस्कार किया गया है। श्रुत देवता को नमस्कार कर फिर गुरु भगवंत को नमस्कार यह कितना योग्य है? इस पर चिंतन मनन आवश्यक है। वही स्पष्टीकरण यहाँ भी समझा जा सकता है। जयानंद प्रतिमा शतक में इसका जो स्पष्टीकरण किया है। वहाँ स्पष्ट किया है कि श्रुत देवता को नमस्कार कर गुरु महाराज को नमस्कार तो अयोग्य होगा, यह नमस्कार जिनवाणी को है ऐसा श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी के मंगलाचरण में स्पष्टीकरण किया वि.सं. २०६५ फागण सुद १३ शंखेश्वर - जयानंद Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला प्रस्तावना प्रस्तावना जेमां पदे-पदे वाक्ये-वाक्ये ने श्लोके - श्लोके संवेगनी छोळो उछळी रही छे, एवा आ ग्रन्थनुं नाम संवेगरंगशाळा छे. आ ग्रन्थरत्ननी रचना करनार समर्थतार्किक महावादी श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरिजी कृत संमतितर्क ग्रन्थ पर असाधारण टीका | लखनार पू. आचार्यदेव श्री अभयदेवसूरि महाराजना वडील गुरुबन्धु पूज्यपाद आचार्यदेव श्री जिनचन्द्रसूरिजी महाराज छे. आ ग्रन्थ खास करीने एज पुण्यात्माओने लाभ करनार निवडशे के जे हृदयथी एम माने छे के हुं आत्मा छु, अनादिकाळथी संसार समुद्रमां रखडी रह्यो छं, हुं शाश्वत छं, पण मारी वर्तमान अवस्था अशाश्वत छे. मारी आ अनंत | रखडपट्टीनो अंत लाववो होय तो 'संवेग' गुणनो वेग मारे वधारवो जोईए. विना संवेग मारा संसारनो अंत आववानो नथी; | केम के वगर संवेगे लांबाकाळ सुधी पण तपेलुं तप, सेवेलुं शील कायकष्ट रूप छे, आचरेलुं अनुपम चारित्र एने मेळवेलुं घणुं बधुं ज्ञान पण खरेखर फोतरा खांडवा जेवुं छे. आ वात ग्रन्थकारना शब्दोमां जोईए तो — सुचिरं पि तवो तवियं, चिन्नं चरणं सुयं पि बहु पढियं । जइ नो संवेगरसो, ता तं तुसखण्डणं सव्वं ।। एसो पण वांचनार एम पूछशे के, संवेग एटले शुं? तेनो उत्तर पण ग्रन्थकार नीचेना शब्दोमां आपे छेपुण संवेगो, संवेगपरायणेहिं परिकहिओ । परमं भवभीरुत्तं, अहवा मोक्खाभिकंखित्तं ।। तीर्थंकर भगवंतोए संवेगनो अर्थ आ प्रमाणे कहेलो छे. अत्यंत संसारनो भय अथवा मोक्षनी अभिलाषा. अत्यंत | संसारनो भय एटले चारे गतिनो भय. चारे गतिमां नरकगति अने तियंच गतिनो भय तो लगभग बधा ज मनुष्योने छे. कोईने पूछीए के, सुखी युरोपियनना कुतरा तरीके जन्म लेवो छे? तो ते तरत ज ना पाडशे. आपणे कहीए के, मोटरमा बेसवा मळशे, | दररोज माणस नवडावशे, सारं सारुं खावानुं मळशे. वगेरे वगेरे भौतिक सुखो बतावीए तो पण ते ना ज पाडशे. केम के | तिर्यंच- पशु के ढोर थवुं कोईने गमतुं नथी. ज्यारे नरकमां तो दुःख ने दुःख ज होय छे. त्यां जवानुं मन कोने थाय? त्यारे रही | बाकीनी बे गति. एक मनुष्य अने बीजी देवगति आ मनुष्यगतिमां पण दीन-दुःखी अने कंगाळकुलमां जन्म लेवानुं कोई | इच्छतुं नथी. तेमज देवलोकमां पण बीजा स्वामी देवोनी गुलामी करवी पडे. तेना हुकमथी पशु थई तेने पीठ उपर बेसाडवा | पडे. तेवुं कोईने पसंद नथी. त्यारे संसारी जीवने शुं पसंद छे ? संसारनुं भौतिक सुख. तेनी सामे संवेग गुण आपणने कहे छे के, आ संसारना सुखोने मोक्षरूप सुख मेळववा खातर लात मारता शीखो. अने आ शिक्षण तमारा हैयामां परिणाम पामे ए माटे आ ग्रन्थनुं पुनः पुन वांचन, मनन अने निदिध्यास करो. आ संवेग गुण मेळववानी जेने इच्छा थती नथी. तेने आ ग्रन्थकार दुर्भव्य के अभव्य तरीके ओळखावे छे. आ उपरथी समजी शकाशे के, आ संवेग गुणनी जीवनमां केटली आवश्यकता छे? कहेवुं होय तो एम पण कही शकाय के, मंत्रोमा जेम नमस्कार महामंत्र सर्वश्रेष्ठ छे, पर्वतोमां जेम श्री शत्रुंजय सर्वश्रेष्ठ छे, देवोमां जेम वीतराग परमात्मा सर्वश्रेष्ठ छे तेम सर्व गुणोमां शिरोमणि भावने भजनार आ संवेग गुण गुणोमां सर्वश्रेष्ठ छे. आ ग्रन्थमां चार मुख्यद्वारनुं कथन करवामां आव्युं छे. संवेगगुणनी प्राप्ति थया पछी आराधना कया क्रमे करवी | अथवा ए गुणने प्राप्त करवा पण आ आराधना केवी रीते करवी तेनुं आमां स्पष्ट वर्णन छे. आ चार द्वारो (१) परिकर्मविधि द्वार (२) परगणसंक्रमण द्वार (३) ममत्वउच्छेद द्वार अने (४) समाधिलाभ द्वार छे. आ चारे मुख्य द्वारोमां पेटाद्वारो पहेलाना १५, बीजाना १०, त्रीजाना ९ अने चोथाना ९ छे. ते पेटाद्वारोनुं वर्णन विस्तारथी छे, जे जिज्ञासुओने वांची जवा भलामण छे. पहेला परिकर्मविधिद्वारमां आत्माने ते ते द्वारोमां बतावेली आराधना द्वारा संस्कारी बनाववानो छे. मोहराजानुं साम्राज्य गजबनुं छे. जीवने क्यां अने क्यारे फसावी दे, तेनो पत्तो नथी. माटे एना संकजामां जीव फसाई न जाय तेनी सावधानी माटे आ बधा पेटा द्वारोनी विधिपूर्वक आराधना करवानी कही छे. आ द्वारमां साधु अने श्रावकना उपकरणोनुं जेम वर्णन छे, तेम गुरु पासेथी ग्रहणशिक्षा अने आसेवनशिक्षा लाई Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला प्रस्तावना आत्माना सम्यग् दर्शन, ज्ञान अने चारित्रनो विकास करनारा गुणोनुं पण वर्णन छे. अहिं ग्रहणशिक्षानो अर्थ ए समजवानो छे के, गुरु महाराज पासेथी साधुपणुं अने श्रावकपणुं शी रीते आराधवं एनी समजण लेवी अने आसेवन शिक्षानो अर्थ ए छे के, ए समजणने जीवनमां जीवीने आत्मसात् करवी. आ शिक्षाओ विनय विना आवती नथी माटे पेटाद्वारमा विनयद्वार पण पाडवामां आव्युं छे. विनयनो भंग करी जे साधु के श्रावक धर्ममा आगळ वधवा मागे छे, ते कदी पण आगळ वधी शकतो नथी. केम के परमात्मानं शासन विनयने धर्मना मूळ तरीके ओळखावे छे. उत्तराध्ययन सूत्र जे प्रभुभाषित छे, तेना ३६ अध्ययनोमां पहेलुं अध्ययन विनय अध्ययन छे. केम के विनय न होय तो बाकीना अध्ययनमा बतावेला गुणो जीवनमा यथार्थरूपे आवी शकता नथी. माटे ज प्रथम अध्ययन विनयर्नु राखवामां आव्युं छे. आ सिवायना बीजा प्रथम मुख्यद्वारना पेटाद्वारो जे समाधिद्वार, मनोनुसिट्ठीद्वार, अनियतविहारद्वार, राजद्वार वगेरे द्वारो जे बताववामां आव्या छे ते जिज्ञासुओने ग्रन्थमां जोई लेवानी अमारी भलामण छे. प्रत्येक पेटाद्वारनुं वर्णन जो करवामां आवे तो प्रस्तावना ज स्वयं एक ग्रन्थ बनी जाय. हवे बीजं द्वार परगणसंक्रमण नामनुं छे. एना पेटाद्वारो १० छे. दरेके दरेक द्वारमा गुरुआज्ञानी मुख्यता, कषायने वोसिराववानी 'भावना, साधुने सर्वथा स्त्री परिचयनो त्याग, दश प्रकारनी सामाचारीनुं विधिपूर्वक पालन वगेरे बताववामां आव्युं छे. __ आ आचारोमा ज्यां ज्यां स्खलना थाय छे, त्यां त्यां गुरु-शिष्यभावमां खामी आवे छे. एक गच्छना आचार्य बीजा | गच्छना आचार्य उपर जेवो वात्सल्यभाव राखवो जोईए तेवो राखी शकता नथी अने साधक सामाचारीनुं पालन करवामां | शिथिल बनवाथी स्वच्छंदी बने छे. त्रीगँ मूलद्वार ममत्व उच्छेद नामनुं छे. आना नव पेटाद्वारो छे. तेमां शरूमा आलोचनाविधानद्वार मूकवामां आव्युं छे आत्माने हळवो करवा माटे प्रत्येक साधु अने श्रावके करेला पापर्नु प्रायश्चित्त लेवानुं होय छे. तेमां प्रायश्चित्त केवी रीते लेवू, एना आपनारनी लायकात, लेती वखतनी विधि वगेरेनुं वर्णन विस्तारथी करवामां आव्युं छे. आलोचना नही लेनार साधु के श्रावक सशल्य कहेवाय छे, अने शल्यवाळो साधना करे तो पण ज्यां सुधी शल्यनी आलोचना न ले त्यां सुधी शुद्ध थतो नथी. वगेरे वगेरे घणो सुंदर विचार आमां करवामां आव्यो छे. आ द्वारमा शय्या-संथारो वगरे क्या करवो, प्रत्याख्यान आदि द्वारा शरीर, ईन्द्रियोने अने मनने केवी रीते काबुमां लेवा, खमवा खमाववा द्वारा ए कषायोने केवी रीते अंकुशमां राखवा तेनुं आबेहूब वर्णन करवामां आव्युं छे: अहिं शय्या शब्दनो अर्थ वसति समजवानो छे. साधुनी वसति केवी होय? आजु बाजु पाडोश होय ते पण केवो होय? स्त्रीना शब्दो ज्यां न संभळाय. रूप न देखाय वगेरे वगेरे वातोनुं वर्णन करी साधकने खूब खूब सावचेत रहेवा सूचन करवामां आव्युं छे. छेल्लुं चोथु समाधिलाभ द्वार छे. आना पेटाद्वारो नव छे. आ दरेक पेटाद्वारोना अवान्तर द्वारो पण आपवामां आव्या छे. अमांना एक एक द्वार आराधना माटे ध्यान खेंचे तेवा छे. तेमां पण चतुःशरणगमन, सुकृतअनुमोदन ने दुष्कृत-निंदा द्वारो, जे पेटाद्वारोमां पण अवांतर द्वारो छे-ते सविशेष ध्यान खेंचे तेवा छे. ___ अरिहंत आदिनुं शरण शा माटे स्वीकारवानुं छे? ए तारको राजकुलमा जनम्या हता. सुखसामग्रीमां उछरी मोटा थया हता. ऋद्धिना ढगला वच्चे एमनुं जीवन पसार थई रह्यु हतुं. माताना गर्भमां आवतां जेमने ईन्द्रादि देवताओ नमता हता, तेमणे पण माथाना वाळ उखेडी लोच करी स्वपर हितार्थे प्रवज्यानो स्वीकार कर्यो अने ज्यां सुधी घाती कर्मोनो क्षय न थयो त्यां सुधी पलांठी वाळीने तेओ बेठा पण नहीं. आवा परमात्माने शरणे एटला माटे ज जवानुं छे के "संसारना गमे तेटला सुंदर मनमोहक के सानुकूल सुखो मळे तो पण ते त्याज्य छे" आवी बुद्धि आवे त्यारे ज आ परमात्माने शरणे साची रीते जई शकाय छे. बाकी परमात्मानुं शरणुं मळतुं नथी. ए वात निश्चित छे. आ रीते परमात्मानुं शरणुं प्राप्त करनार जे पुण्यशाली आत्मा भूतकाळना दुष्कृतोनी गर्दा करे, सुकृतोनी अनुमोदना करे अने आत्माने अरिहंतमय बनाववा तेनुं ध्यानादि करे छे अने अवश्य संघयणादि सामग्री संपन्न होय तो ते, ते ज भवमां अथवा बहु ज थोडा भवमां सकलकर्मनो क्षय करी मुक्तिपदने पामे संसार ए कर्म राजाए ऊभो करेलो निर्दयता अने निष्ठुरतापूर्वकनो तमाशो छे. संसारी जीवो ए तमाशो के नाटक भजवनारा नाटकीआ छे. चार गति ए नाटकशाळानी रंगभूमि छे. कर्मराजा ए नाटकनो सूत्रधार (मेनेजर) छे. ग्रंथकार कहे छे IV Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला प्रस्तावना . के आ निर्दय एवा कर्मराजाने पनारे जो तमारे न पडq होय तो संवेगगुणना स्वरूपने आ ग्रन्थमाथी गुरुमुखे सांभळो, सांभल्या पछी समजो, समज्या पछी श्रद्धा करो अने पछी जीवनमा उतारवा सतत प्रयत्नशील बनो. आ रीतनो प्रत्यन सतत चालु हशे तो कर्मराजा तमारा पगमां नमतो आवशे. अहिं तमे मुक्तिना सुखनो नमुनो चाखशो अने ज्यां सुधी मुक्तिमां नहिं जाओ त्यां सुधी संसारना सुखो तमारी पगचंपी करशे, अने त्यारे तमारे तो एनी साथे अणबनाव रहेशे तेमज बहु नजीकमां तमे सकल कर्मनो क्षय करी मुक्तिपदना भोक्ता बनशो. आ ग्रन्थनी खूबी ए छे के द्वारो अने पेटाद्वारोना वर्णनमां सिद्धान्तसिद्ध दृष्टांतो आपीने ते द्वारो अने पेटाद्वारोनी समजण खूब ज सुंदरी रीते आपी छे. आ ग्रन्थनी वात कोई प्राचीन ग्रन्थमाथी ग्रन्थकारे लीधेली होय तेम जणाय छे. केम के रचयिता पू.जिनचंद्रसूरिजी महाराज छे. अने जे वात करवामां आवी छे ते भगवान महावीरना स्वहस्तदीक्षित शिष्य महसेन राजर्षिनी छे. भगवान महावीर निर्वाण पाम्या पछी भगवान गौतमस्वामीजीने केवळज्ञान थाय छे. तेमने आ लघु-बंधु पोतानी वृद्धावस्थामां कंपते शरीरे पूछे छे के ज्यारे शरीर विशिष्ट तपनी आराधनामां उपयोगी न रहे त्यारे अंतिम आराधना केवी रीते करवी? एना खुलासा सविस्तर रीते भगवान गौतमस्वामीजी महाराज कहे छे ए ज आ ग्रन्थनो विषय छे. ट्रॅकमां संवेगरंगशाळा एटले मोहनी सामे विंझाती शमशेर. एनी एक एक गाथामां मोहनी वेदना अने चीत्कारना डुसकां संभळाय छे. एमां संभळाय छे शिवसुंदरीना पायलनो झंकार. एनी गौरवगाथा एटले क्रूर अने विकराल एवा कालने क्रूर थप्पडो. एमां आपेली कथाओमां शेताननी शेतानियत जेम संभळाय छे तेम वीरनी वीरता पण वर्णवाय छे अने कायरोनी कायरतानी कमनसीब कहाणी पण छे. संवेगरंगशाळाना श्लोको एटले मोहनी छाती उपर उपराउपरि गोठवायेली तोपो कहो के तीर कामठां कहो, आजनी भाषामां बोंब कहो के जुना जमानानी बंदूको कहो. जे कहेवू होय ते कहो पण ए वात चोक्कस छे के आ ग्रन्थ वांचनार भव्य जीव थोडा कालमा निजना मोहनो नाश अने स्व-स्वरूपनी अनुभूति करे छे. मोहमां पागल बनेला कायरोनी कमनसीब कथा सांभळी कर्मनी क्रूरता भरी कतल करनारा पण कंपी उठे छे. बीजी बाजु वीरपुरुषोए मोहनी सामे बतावेल शौर्यनां सन्मान पण स्थळे-स्थळे देखाय छे. टुंकमां संवेगरंगशाळा आपणनें कहे छे, "ओ मोहनिद्रमा मस्त बनेला मानवी! तुं तारी आत्मानी आंखने उघाड, उठ, बेठो था. मात्र बेठा थये नहि चाले पण ऊभो था अने आ ग्रन्थमां | बतावेला बळवान शस्त्रो स्वीकारी मोहनी सामे लडाई लडवा मांड. ओ अज्ञानना अंधकारमा अथडाता मानवी! जरा विचार कर, विचार कर. क्यां तारी आराधनानी उत्तम सामग्री अने क्यां तारी मोहमस्तता? आ मोहस्तीने मारीने मूळ स्वरूपने प्रगट करवं होय तो आ ग्रन्थ- पुनः पुन रटण कर." आ ग्रन्थ एटले रत्नत्रयीनी पांगरेली वसंतऋतु, मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्रनी पानखरऋतु. आ कथा कोई कल्पनाना गुंथेला तार नथी पण आत्माने हितकार तथ्यो, पथ्य छे. संसार शेतरंजनी पाशवलीला आ ग्रन्थ आबेहूब दर्शावे छे. बारमी सदीनी प्रथम पच्चीसीमां लखायेल आ ग्रन्थ ए मात्र कोई पुस्तक के पानाओना ढग नथी. सिद्धांत के नियमोनी यादी नथी. मात्र अहेवालोनो हिमालय नथी पण संसार सागर पार करवा कर्ममत्स्योनी कतल करनार होडी छे. मात्र होडी ज नहि पण मुक्ति महालयमां सादि अनंतकाल पर्यंत महालवा माटे, महान् यानपात्र छे. एनो एक एक श्लोक मोहनी सामे मशीनगन छे. एनुं एक-एक पद कर्म सामे रीवोल्वर छे. एनो एक एक अक्षर ए मिथ्यात्वमातंगने महात करवा मृगादिराज छे. एनो एक एक अधिकार अविरतिने उखेडवा एने कषायवृक्षोने कापवा कुहाडो छे. - वधुं शुं कहीए! आ ग्रन्थ एटले साक्षात् मिथ्यात्वनुं मोत, अविरतिनी विरति (विराम) अने कषायोनी कुटिलानी क्रूर कहाणीना कथन साथे तेनी करपीण कतल तेमज मन, वचन अने कायाना योगनो अयोग छे. - आचार्य देव श्री रामचंद्र सूरीश्वरजी के शिष्यरत्न मुनिराज श्री मुक्तिविजयजी. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला -: પ્રવેશ ઃ :- પૂ. મુનિરાજ શ્રી મિત્રાનંદવિજયજી મહારાજ લેખક :- પૂ. प्रवेश સંવેગરંગશાળા ઃ- શાસ્ત્ર ગ્રંથનું આ પાવન નામ મારા કાનમાં ૨૬ વર્ષથી ગુંજતું થયું હતું, તે સમયે ગાંભીર્યાદ ગુણરત્નોના સાગર પરમ પૂજ્ય આચાર્ય ભગવંત શ્રીમદ્ વિજયમેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજે આ ગ્રંથને લોહીના કણેકણમાં પચાવી દીધો હતો. એમ કહીએ તો અતિશયોક્તિ નથી. તેઓશ્રી સં. ૧૯૯૯ના આસો સુદી એકમની બપારે બે વાગે પાંચ પાંચ પૂ. આચાર્યદેવો, સેંકડો સાધુ-સાધ્વીઓ તથા વિશાળ શ્રાવક-શ્રાવિકા વર્ગની હાજરીમાં કાળધર્મ પામ્યા ત્યારે તેઓશ્રીને જે અદ્ભુત સમાધિ હતી. તેમાં આ ગ્રંથરત્નના મનન-ચિંતનનો મોટો ફાળો હતો. તે પૂજ્ય પુરુષ ૧૧-૧૧ વર્ષથી અનેક રોગોની સામે ઝઝુમી રહ્યા હતા. છેલ્લી અવસ્થામાં એક બાજુ રોગોએ માઝા મૂકી હતી ત્યારે બીજી બાજા તેઓએ આ ગ્રંથરત્નનું પરિશીલન કરી ચિત્તની સમાધિને સહેજ પણ ખંડિત થવા દિધી ન હતી. છેલ્લી ૨-૫ મિનિટ પહેલાં તેઓશ્રીના ગુરુવર્ચ સંઘસ્થવિર પૂ. બાપજી મહારાજ સિદ્ધિસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબે પૂછયું, ‘મેઘસૂરીજી! સમાધિનું લક્ષ છે ને? શું વિચાર કરો છો?' ત્યારે મેદસૂરીશ્વરજી મહારાજ તરફથી જવાબ મળ્યો – 'સાહેબા આપે સૂચવેલી સંવેગરંગશાળાનું ચિંતન ચાલે છે.' ગુરુ મહારાજે પરમતોષ માન્યો અને ૨ કે ૫ મિનીટમાં જ સંવેગના રંગે રંગાયેલો એ પાનવ આત્મા દેહપિંજર છોડી ગયો. ત્યારે હું ત્યા જ ઊભો હતો. બાળ સાધુ હતો. નૂતન મુનિ હતો. 'સંવેગરંગશાળા'ની ત્યારે ગવાતી ગૌરવગાથા સાંભળી આ ગ્રંથ પ્રત્યે મારા મનમાં અર્હોભાવ જાગ્યો હતો. અને તેથી જ્યારે સં. ૨૦૨૨ની સાલમાં પંડિત શ્રી બાબુભાઈ સવચંદ આ ગ્રંથરત્નની પ્રેસોપી લઈને પરમપૂજ્ય ભોદધિતારક આ.ભ. શ્રીમદ્ વિજય પ્રેમસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબ પાસે આવ્યા અને એના સંશોધનાદિ માટે મને સોંપવાની વાત કરી. ત્યારે હું સહજ રીતે એ માટે લલચાચો હતો. પણ ત્યારે હું ધર્મસાહિત્યના ‘રસબંઘ’ ગ્રંથના સંશોધન સંપાદનાદિ કાર્યમાં તથા કર્મસાહિત્યના ‘ખવગસેઢી’, ‘હિઈબંધો’ વિગેરે ગ્રંથોના પ્રકાશન તેમજ તે પ્રસંગે ચોજાયેલ જૈન સાહિત્યના પ્રદર્શનના કાર્યમાં ખૂબ ગુંથાયેલો હતો. તેથી પૂ. આચાર્ય ભગવંતે તે કાર્યનો ભાર મને ન સોંપ્યો. ખૂબ જ આનંદની વાત છે કે ટુંક સમયમાં જ પૂજ્ય પરમ તપસ્વી મુનિરાજ શ્રી હેમેન્દ્રવિજયજી મહારાજે તથા પંડિત શ્રી બાબુભાઈ સવરચંદભાઇએ સુંદર રીતે સંશોધન, સંપાદન કરી આ ગ્રંથ તૈયાર કર્યું અને તે આજે આપ સહુના હાથમાં આવી રહ્યો છે. પરમપૂજ્ય આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજયમેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબ, પૂ. મુનિરાજ શ્રી હેમેન્દ્રવિજયજી મહારાજના દાદાગુરુ થાય, પોતાના દાદાગુરુજીને પરમ સમાધિ આપનાર આ ગ્રંથરત્ન પ્રત્યે ગુરુભક્ત મુનિરાજશ્રીને ખૂબ આત્મીયતા હતી । અને છે. આ ગ્રંન્થનું શ્લોક પ્રમાણ ૧૦,૦૫૩ છે તેમાં ૩૦૦૦ શ્લોક પ્રમાણ ગ્રન્થ પૂર્વે છપાઈ ગયો હતો. પણ તે પ્રાયઃ અશુદ્ધ છપાો હતો. બાકીનો ૭૦૫૩ શ્લોક પ્રમાણ ગ્રન્થ અપ્રગટ હતો. તેની કાળજીપૂર્વક પ્રેસ કોપી હસ્તપ્રતોના આધારે પૂ. તપસ્વી મુનિવરશ્રીએ પંડિત બાબુભાઈ પાસે કરાવી હતી. તેઓશ્રીને આ ગ્રન્થ પ્રત્યે ખૂબ જ મમતા જાગી. પ્રેસ કોપી થતી ગઈ તેમ તેઓ વાંચતા ગયા અને સંવેગના રંગથી રંગાતા ગયા. સાથે તેઓને આયંબીલનો તપ પણ ચાલુ જ હતો. મોક્ષમાર્ગની આરાધનાની ગંભીર વાતો મોક્ષાર્થી જીવોને હૃદયંગમાં બની જાય એમાં શું નવાઈ? પંડિત શ્રી બાબુભાઈનો સહયોગ સાધી તેઓશ્રીએ અથાગ પરિશ્રમથી આ ગ્રન્થનું સંશોધન સંપાદન કર્યું છે. ગ્રન્થરનું ગુણનિષ્પન્ન નામ : સંવેગરનો રંગ લગાડવા માટે આ ગ્રન્થ શાળા જેવો છે. સંવેગરંગ એટલે મુક્તિનો અભિલાષ, મોક્ષની લગની, મોક્ષ માર્ગની આરાધનાનો ભાવ, સુરનરના સુખોમાં દુઃખનું દર્શન, અને માત્ર એક મુક્તિના સુખનો અભિલાષ, સંસારના રંગને કારણે જીવો સંસારની ચાર ગતિમાં બે સીતમ ત્રાસ વેઠી રહ્યા છે. એ રંગને હઠાવી સંવેગનો રંગ લગાડવા તાલિમ-શિક્ષા જોઈએ. આ ગ્રન્થ, એ શિક્ષા આપતી શાળાની ગરજ સારે છે. એથી આ ગ્રન્થનું નામ થથાર્થ છે. ગ્રન્થના રચયિતા જિનચંદ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજે સુંદર વિષયોની પસંદગી કરી એની રજુઆત એવા માર્મિક શબ્દોમાં કરી છે કે વાંચતા હરકોઈ મોક્ષાર્થીને સંવેગનો રંગ લાગ્યા વિના અને સંસાર પ્રત્યે નફરત છુટચા વિના રહે નહીં. VI Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला પ્રવેશ . ગ્રન્થ રચના માટે વિજ્ઞપ્તિ : આ “સંવેગરંગશાળા' ગ્રન્થની રચના માટે નવાંગી ટીકાકાર મહર્ષિ શ્રીમદ્ અભયદેવસૂરીશ્વરજી મહારાજે પોતાના વડિલ ગુરુબંધુ સૂરિશેખર શ્રી જિનચંદ્રસૂરિશ્વરજી મહારાજને વિનંતી કરી હતી. વિનંતી કરનાર મહાપુરુષનું જૈન શાસનમાં વિશિષ્ટ કોટિનું સ્થાન અને માન હતું એટલે તેઓશ્રીની વિનંતી પણ વડિલ ગુરુબંધ આગળ તેવો જ આદર પામે એમાં નવાઈ શી? ગ્રન્થકાર મહર્ષિ : ‘સંવેગરંગશાળા' ના રચયિતા ગ્રન્થકાર મહર્ષિ શ્રી જિનચંદ્રસૂરીશ્વરજીનું જન્મસ્થાન માતાપિતા, જન્મ સંવત, દીક્ષા સંવત અંગે ખાસ કશી માહિતી મળતી નથી પરંતુ આચાર્ય મહારાજશ્રી દેવભદ્રસૂરીશ્વરજીએ રચેલા મહાવીરચરિત્ર, કથાર–કોષ તથા પાર્શ્વનાથ ચરિત્રની પ્રશસ્તિઓ માંથી સંવેગરંગશાળા તથા તેના રચયિતા અંગે કાંઈક માહિતી મળી શકે છે. તેથી એ પ્રશસ્તિઓના ઉપયોગી અંશોનું અહિં ગુજરાતી અવતરણ આપવામાં આવે છે. જે જિજ્ઞાસુઓને કાંઈક સંતોષપ્રદ થશે. “વિશિષ્ટ ગુણરત્નોના ભંડાર, મિથ્યાત્વરૂપ અંધકારથી અંધ બનેલા લોકો માટે સૂર્યસમા અને દૂર ફગાવી દીધો છે વૈરભાવ જેમણે એવા શ્રી વજસ્વામી મહારાજા થયા. તેઓશ્રીની પરંપરામાં ચાંદ્રકુલમાં મુનિઓના નાયક શ્રી વર્ધમાનસૂરિ નામના આચાર્ય થયા. તેઓ અનુપમ ઉપશમભાવના ઉત્પત્તિસ્થાન સમા અને સંચમ ગુણના ભંડાર હતા. મહાદેવના અટ્ટહાસ્ય જેવા ઉજવળ યશથી સાધી (ભરી) દીધી છે. દિશાઓ જેમણે એવા તે મુનિપતિને જગતમાં પ્રસિદ્ધ, સૂર્યચંદ્ર જેવા બે વિશિષ્ઠ શિષ્યો હતા. તેમાંના પહેલા શિષ્ય શ્રીજિનેશ્વરસૂરિ સંસારસાગરના મોજાઓથી ખળભળી ગયેલા ભવ્યજીવોને તારવા સમર્થ મોટા જહાજ સમાન હતા. અને બીજા શિષ્ય પૂર્ણિમાના ચંદ્ર જેવા સુંદર પ્રશંસાપાત્ર બુદ્ધિવાળા અને વ્યાકરણ તેમજ છંદશાસ્ત્રના રચયિતા બુદ્ધિસાગરસૂરિ નામના હતા. એકાંતવાદનો વિલાસ કરી રહેલા વાદીરૂપ હરણીયાઓના નાશ માટે સિંહસમાન એ બુદ્ધિસાગરસૂરિના પહેલા શિષ્ય જિનચંદ્રસૂરિ થયા. તેમણે સંવેગરંગશાળાની રચના કરી. એ કેવળ કાવ્યરચના નથી કરી પણ ભવ્યજીવોને આશ્ચર્ય પમાડનારી સંયમપ્રવૃત્તિ કરી છે. બુદ્ધિસાગરસૂરિના બીજા શિષ્ય સ્વપર શાસ્ત્રના જ્ઞાતા, વિશુદ્ધ સિદ્ધાન્તની પ્રરૂપણા કરવામાં કુશળ, અને સમગ્ર પૃથ્વીમંડળમાં પ્રસિદ્ધ અભયદેવસૂરિ થયા. જેઓએ નવાંગવૃત્તિ રચવા વડે કરીને અલંકારને ધારણ કરનારી, લક્ષણવંતી, સુંદરપદોવાળી એવી ‘સરસ્વતી’ને સ્ત્રીની જેમ પ્રસન્ન બનાવી. તેમના શિષ્ય પ્રસન્નચંદ્રસૂરિ થયા. જેઓ ચંદ્રની જેમ લોકોના મનને આનંદ આપનારા અને સઘળાય શાસ્ત્રોના અર્થને સમજાવવામાં નિપુણબુદ્ધિવાળા હતા. તેમના કહેવાથી સુમતિવાચકના શિષ્યલેશ નામના શિષ્ય ગુણચંદ્રમણિએ આ વીરચરિત્ર રચ્યું. તેમજ સુંદર અને આશ્ચર્યકારક લક્ષણોથી યુક્ત સિદ્ધ અને વીર નામના ભાઈઓ કે જેઓ આ (વીર) તીર્થપતિ પ્રત્યે પૂર્ણભક્તિ ધારણ કરનારા હતા તેઓએ બાળ જીવો સમજી શકે એવું આ ચરિત્ર રચાવ્યું. વિ. સં. ૧૧૩ન્ના જેઠ સુદ-૩ ને સોમવારે આ ચરિત્ર રચના સમાપ્ત થઈ.” - ગુણચંદ્રગણિરચિત મહાવીર ચરિત્રની પ્રશસ્તિનું અવતરણ. “ચાંદ્રકુલમાં ગુણગણથી વૃદ્ધિ પામતા શ્રી વર્ધમાનસૂરિના શિષ્યો જિનેશ્વરસૂરિ અને બુદ્ધિસાગરસૂરિ થયા. તેમના જિનચંદ્રસૂરિ અને અભયદેવસૂરિ નામના શિષ્યો શીત-ઉષ્ણ કિરણોથી ચંદ્ર-સૂર્યની જેમ જગતમાં પ્રસિદ્ધ હતા. તેમના શિષ્ય સઘળાય શાસ્ત્રોના અર્થમાં પાર પામેલી છે મતિ જેમની એવા નામથી અને અર્થથી પ્રસન્નચંદ્રસૂરિ થયા. તેમના સેવક અને સુમતિવાચકના શિષ્યલેશ-નામના શિષ્ય દેવભદ્રસૂરિએ આ કથાર–કોષ રચ્યો. સંઘમાં ધુરંધર ગણાતા સિદ્ધ અને વીર નામના ભાઈઓની વિનંતીથી ચરમતીર્થંકર શ્રી વીરભગવાનનું ચરિત્ર રચ્યું અને વળી જેમણે સંવેગરંગશાળા નામનું આરાધનારત્ન (શાસ્ત્ર) પરિકર્મિત-સંસ્કારિત કરીને ભવ્યજીવોને યોગ્ય બનાવ્યું. અને અમલચંદ્ર ગણિએ એની પહેલી પ્રતિ (પ્રથમાદશી વિ.સં. ૧૧૫૮ માં લખી'' - દેવભદ્રાચાર્યરચિત કથારત્નકોષની પ્રશસ્તિનું અવતરણ. “તે ભગવાનનું ઈન્દ્રોને પણ વંદનીય શાસન ચાલતું હતું ત્યારે ચાંદ્રકુલમાં મોટી ગણાતી વજશાખામાં પ્રસિદ્ધ અને જ્ઞાન દર્શન ચારિત્ર ગુણનિધિ શ્રી વર્ધમાનસૂરિ થયા. જેમનું નામ સાંભળતાંની સાથે લોકો રોમાંચ અનુભવતા હતા. તેમને જગતમાં પ્રસિદ્ધ, સૂર્ય-ચંદ્ર જેવા આચાર્ય જિનેશ્વરસૂરિ અને બુદ્ધિસાગરસૂરિ નામના શિષ્યો હતા. તેમને વળી પ્રસિદ્ધ જિનચંદ્રસૂરિ અને અભયદેવસૂરિ નામના શિષ્યો હતા. સિદ્ધાંતની સંસ્કૃત ટીકાઓ-વિવેચનાઓ રચીને જેમણે ભવ્યજીવો ઉપર ઉપકાર કયોં છે. તે અભયદેવસૂરિના ગુણલવને પણ વિસ્તૃત કરવા કોણ સમર્થ છે? તેમના શિષ્ય સર્વગુણના વિધાન પ્રસન્નચન્દ્રસૂરિ હતા. તેમના ચરણ કમલને સેવતા અને વાચક સુમતગણિના શિષ્ય સંવેગરંગશાળા નામનું આરાધનાશાસ્ત્ર જગતમાં પ્રસિદ્ધ કર્યું. તેમજ વીરચરિત્ર અને કથારત્નકોષની રચના કરી. સોનાના ઇંડા (કળશ)થી શોભતા મુનિસુવ્રતસ્વામીના મંદિરથી તેમજ વીર પરમાત્માના મંદિરથી શોભતા ભરૂચમાં આમદત્ત ના મંદિર (ઘર)માં રહેલા દેવભદ્રસૂરિએ આ પાર્શ્વનાથ VII Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला प्रवेश ચરિત્ર રચ્યું. એનું પ્રથમ પુસ્તક અમલચંદ્ર ગણિએ વિ.સં. ૧૧૬૮માં લખ્યું. આમાં જે કાંઈ અનુચિત હોય તેની આચાર્યોએ ક્ષમા આપવી અને એને સુધારી લેવું.” - દેવભદ્રીય પાર્શ્વનાથ ચરિત્રની પ્રશસ્તિનું અવતરણ. આ ઉપરાંત સંવેગરંગશાળા ગ્રન્થની પશ્ચિકા પણ જોવા જેવી છે તે આ પ્રમાણે છે: “શ્રીમદ્ જિનચંદ્રસૂરિએ રચેલી અને તેમના શિષ્ય પ્રસન્નચન્દ્રસુરિની અભ્યર્થનાથી ગુણચંદ્રમણિથી પરિષ્કાર પામેલી તેમજ જિનવલ્લભગણિથી સંશોધિત થયેલી સંવેગરંગશાળા આરાધના સમાપ્ત થઈ.” આ ત્રણે પ્રશસ્તિઓ તથા સંવેગરંગશાળા ગ્રન્થની પુષ્પિકા ઉપરથી ફલિત થાય છે કે આ ગ્રન્થના રચયિતા જિનચંદ્રસૂરિ છે. તેઓ વજસ્વામીની પરંપરામાં થયેલ બુદ્ધિસાગરસૂરિના શિષ્ય હતા. આ ગ્રન્થની રચના કર્યા પછી તેમના શિષ્ય પ્રસન્નચન્દ્રસૂરિના કહેવાથી સુમતિવાચકના શિષ્ય શ્રી ગુણચંદ્રગણિએ (આચાર્ય થયા પછી દેવભદ્રસૂરિ નામ) એને સંસ્કારયુક્ત બનાવી અથતિ સુધારો વધારો કરી સંકલિત કરી અને જિનવલ્લભગણિએ તેનું સંશોધન કર્યું. જૈન સાહિત્યના ઈતિહાસમાં મોહનલાલ દલિચંદ દેસાઈએ આ ગ્રંથના રચયિતા તરીકે દેવભદ્રસૂરિનો નિર્દેશ કર્યો છે. તે ઉપરની પ્રશસ્તિઓથી બિનપાયાદાર ઠરે છે. ગ્રન્થવરજી: મહસેન રાજા ભગવાન મહાવીરદેવના સ્વહસ્તે દીક્ષિત થયેલા રાજર્ષિ હતા. તેમણે ભગવાન મહાવીર પરમાત્માનું નિવણ સાંભળ્યું. આથી તેમને અંતિમ સમયે વિશેષ આરાધના કરવાનો મનોરથ ઉત્પન્ન થયો. તેમણે ગણધર મહારાજા શ્રી ગૌતમસ્વામીજીને વિશેષ આરાધના કઈ રીતે કરવી તે માટે પૂછયું. તેના જવાબમાં મહસેન રાજર્ષિને ઉદેશીને, ચતુર્વિધ સંઘ સામાન્ય તેમજ વિશેષ આરાધના કઈ રીતે કરી શકે તે વિષયનું નિરૂપણ શ્રી ગૌતમસ્વામીજી કરે છે. તે આરાધનાનો અધિકાર ગ્રન્થકાર મહર્ષિ જિનચન્દ્રસૂરિ મહારાજા સંવેગરંગશાળામાં પોતાના લઘુ ગુરુબંધુ નવાંગીટીકાકાર શ્રી અભયદેવસૂરિ મહારાજાની વિનંતીથી વર્ણવે છે. આમાં સામાન્ય-વિશેષરૂપે જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને તપની આરાધના ચાર સ્કંધ રૂપે સાધુ ભગવંતો તથા ગૃહસ્થોશ્રાવકોના દષ્ટાન્તોપૂર્વક વર્ણવી છે. ત્યાર બાદ મોક્ષનગરમાં પ્રવેશ કરવામાં કારણરૂપ વિશેષ આરાધનાનાં ચાર મૂળદ્વારો આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યાં છે. (૧) પરિક્રર્મવિધિ (૨) પરાણસંક્રમણ (૩) મમત્વવિચ્છેદ (૪) સમાધિલાભ ૧. પહેલા પરિકર્મવિધિદારના ૧૫ પેટાદારો નીચે મુજબ છે. ૧. અરિહ દ્વાર: અરિહ એટલે યોગ્ય આરાધનાને લાયક કોણ થઈ શકે તેનું વર્ણન કરી ગૃહસ્થમાં વંકચૂલનું અને સાધુમાં ચિલાતીપુત્રનું દષ્ટાન્ન આપ્યું છે. ૨. લિંગ ધાર: ગૃહસ્થ માટે તેમજ સાધુ માટે આરાધનામાં ઉપયોગી વેષ-પહેરવેશનું વર્ણન કર્યું છે. સાધુને મહપત્તિ, રજોહરણ, શરીરને કાર્યોત્સર્ગદ્વારા વોસિરાવવું, અચેલપણું તથા કેશલોચનું સ્વરૂપ જણાવી લિંગયુક્ત તથા ગુણયુક્ત હોવા છતાં ગુરુ ઉપર દ્વેષ કરનાર આરાધક બનતો નથી. આ વિષય પર ફૂલવાલક મુનિનું દષ્ટાત વર્ણવ્યું છે.. 3. શિક્ષાલાર : સાધુ અને શ્રાવકને ઉદ્દેશીને ગ્રહણશિક્ષા અને આસેવનશિક્ષા દષ્ટાન્તો સાથે આપી છે. બન્ને શિક્ષાઓનું પરસ્પર સાપેક્ષપણું, મોક્ષ માટે તેની સાધના, શ્રાવકની સવારમાં ઉઠતા ભાવવાની ભાવના, દિનકૃત્ય તથા શ્રાવકના ગુણોનું વિવેચન છે. ૪. વિનચક્કાર: વિનયનું મહત્ત્વ દષ્ટાન્તો સાથે વર્ણવ્યું છે. ૫. સમાધિલાર: સમાધિના પ્રકારો, તેનું સ્વરૂપ, સમાધિનું માહાભ્ય નમિરાજર્ષિના દષ્ટાન્તપૂર્વક વર્ણવવામાં આવ્યું છે. ૬. મનોઝનુશાક્તિ દાર:- મનને વસુદત્તના દષ્ટાન્તપૂર્વક શિખામણ આપવામાં આવી છે. ૭. અનિયતવિહાર ાર :- અનિચતવિહારનું સ્વરૂપ તથા તેનો વિધિ વર્ણવવામાં આવ્યો છે. ૮. રાજ દાર: આ રાજાને આશ્રયીને અનિયતવિહાર દ્વાર છે. સ્વરાજ્યમાં તીર્થ-દર્શનથી લોકો ધર્મની પ્રશંસા કરે. તેઓને ધર્મની પ્રાપ્તિ, ભવના સ્વરૂપનું ચિંતન, દેવગુરુ આદિ ધર્મ-સામગ્રીની દુર્લભતાનો ખ્યાલ, ઉત્તમ મનોરથો, પતિને વસતિદાન, આ લોક પરલોકમાં વસતિદાનના VIII Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला પ્રવેશ . લાભો, સાધુ અને શ્રાવક માટેનો લાભ વિધિ, તેના ગુણોનું વર્ણન, દુર્ગતાનારી તથા મુલકમુનિનું દષ્ટાન્ન અને દર્શન વિશુદ્ધિ આદિ છ ગુણોનું વર્ણન કર્યું છે. ૯. પરિણામ લાર :- આ દ્વાર તેના આઠ પેટાદ્વારોના વર્ણનપૂર્વક સાધુ-શ્રાવકને આશ્રયીને વર્ણવ્યું છે. તેમાં (૧) આ ભવ પરભવના ગુણની વિચારણા (૨) પુત્રને શિખામણ (૩) કાલવિગમન-શ્રાવકની પ્રતિમાઓ (૪) પુત્રને સમજાવવું-પુત્રપ્રતિબોધ (પ) સુસ્થિત ઘટના (૬) આલોચનાદાન (0) આયુષ્યનું પરિજ્ઞાન (૮) અનશન-સંથારા દીક્ષાનો સ્વીકાર વગેરે બાબતોનો તથા તેને લગતા વિષયો-ધર્મજાગરિકા, ધમરાધનાના શુભ મનોરથો, પુત્રને શિખામણ નહિ આપવામાં વજ અને કેસરીનું દષ્ટાંત, કાલવિગમનની શરૂઆત અને તેમાં પૌષધશાળાકરણ, મુનિસેવન દર્શન આદિ શ્રાવકની ૧૧ પ્રતિમાનું વર્ણન, સમ્યકત્વ વગર ધમનુષ્ઠાનની નિષ્ફળતાઅંધપુત્રનું દષ્ટાંત, સામાયિકના પાંચ ગુણોનું વર્ણન, સાધારણ દ્રવ્યના ઉપયોગ માટેના દસ સ્થાનોનું સુંદર વર્ણન, આલોચનાના વિષયોનું સ્વરૂપ-આયુષ્યપરિજ્ઞાનના દ્વારો. ૧. દેવતા ૨. શુકન ૩. ઉપશ્રુતિ ૪. છાયા ૫. નાડી ૬. નિમિત્ત છે. જ્યોતિષ ૮. સ્વપ્ન ૯. અરિષ્ટ ૧૦. યંત્રપ્રયોગ ૧૧. વિદ્યાદ્વાર વિવેચવામાં આવ્યા છે. ૧૦. ત્યાગદ્વાર: સહસમલ્લના દષ્ટાંતપૂર્વક આ દ્વાર વિવેચ્યું છે. ૧૧. મરણ વિભક્તિકાર :- આ દ્વારમાં સત્તર પ્રકારના મરણનું સ્વરૂપ વર્ણવી તેમાંના વૈહાનસ અને ગૃધ્રપૃષ્ઠ મરણ ઉપર જયસુંદર-સોમદત્તનું દષ્ટાંત આપ્યું છે. ૧૨. અધિeગત મરણવારા :- આમાં પંડિત મરણનું માહાત્મય ગાઈને તેના પર નંદ અને સુંદરીની રસમય કથા આપી છે. પંડિત મરણનો પ્રભાવ-ફળ વગેરે દર્શાવી આ દ્વાર પૂર્ણ કરવામાં આવ્યું છે. ૧૩. શીતિકાર: શીતિદ્વાર અથત શ્રેણિદ્વાર. આમાં શ્રેણિના વર્ણનમાં ભાવશ્રેણિ ઉપર સ્વયંભૂદત્તનું દષ્ટાંત આપવામાં આવ્યું છે. ૧૪. બાવળાલાર :- કદંર્પ વિગેરે ભાવનાઓનું સ્વરૂપ વર્ણવ્યું છે. પ્રશસ્ત અપ્રશસ્ત ભાવનાઓના પ્રકારો પુષ્પચૂલા વગેરેના દષ્ટાંતો સાથે નિર્દેશ્યા છે. ૧૫. સંલેખનાદાર:- આમાં અનશનનો વિધિ તથા ગંગદત્તનો પ્રસંગ આપ્યો છે. ૨. બીજા પરાણસંક્રમણલારના ૧૦ પેટી દારો આ પ્રમાણે છે. ૧. દિશાદ્વાર : આ દ્વારનું સ્વરૂપ વર્ણવી દિશાનો અવગ્રહ (આચાર્ય પદ) નહિ આપવા ઉપર શિવભદ્રસૂરિનું દષ્ટાંત. ૨. ક્ષામણાદ્વાર - દ્વારના સ્વરૂપનું વર્ણન તથા ક્ષમાપના નહિ આપવા ઉપર નચશીલસૂરિનું દષ્ટાંત. ૩. અનુશાન્તિકાર : દ્વારના સ્વરૂપનું વિવેચન, સ્ત્રીસંગના દોષો-સંસર્ગજન્ય દોષોનું વર્ણન અને એના પર સહમાલિકાનું દષ્ટાંત આપ્યા બાદ (૪) પરગણસંક્રમણવિધિદ્વારનું સ્વરૂપ, (૫) સુસ્થિતગવેષણાદ્વાર, (૬) ઉપસંપદાદ્વાર, (0) પરીક્ષાહાર, (૮) પ્રતિલેખનાહાર, (૯) પૃચ્છાદ્વાર તથા (૧૦) પ્રતિપૃચ્છાદ્વારનું સ્વરૂપ વર્ણવી બીજા પરગણસંક્રમણદ્વારની પૂર્ણાહુતિ કરવામાં આવી છે. ૩. ત્રીજા મમત્વવિચ્છેદ દારના નવ પેટા કારણે નીચે મુજબ છે. (૧) આલોચનાવિધાન (૨) શય્યા (૩) સંતારક (૪) નિયમક (૫) દર્શન (૬) હાનિ (6) પ્રત્યાખ્યાન (૮) ખમાવવું (૯) ખમવું. આ દ્વારોના સ્વરૂપનું વર્ણન છે. આલોચના વિધાનહારના ૧૦ પેટાદ્વાર ૧. કેટલા કાળે આલોચના આપવી, ૨. કોને આપવી, ૩. કોણે આપવી, ૪. નહિ આપવામાં ક્યા દોષો, ૫. આપવામાં ક્યા ગુણો, ૬. કેવી રીતે આપવી, . આલોચનાનો વિષય, ૮. ગુરુએ કેવી રીતે અપાવવી, ૯. પ્રાયશ્ચિત્ત, ૧૦. ફળ-આ દ્વારોના સ્વરૂપવર્ણન પ્રસંગે આચાર્ય મહારાજના ૩૬ ગુણોનું વર્ણન અને ક્ષામણાદ્વાર ઉપર ચંડરુદ્રાચાર્યનું દષ્ટાંત આપી બાકીના શથ્યાદિ દ્વારોનું સ્વરૂપ સમજાવી આ ત્રીજું દ્વાર પૂર્ણ કરવામાં આવ્યું છે. IX Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला प्रवेश ૪. ચૌથા સમાધિલાભદારના નવ પેટા દ્વારો નીચે મુજબ છે. (૧) અનુશાસ્તિદ્વાર, (૨) પ્રતિપત્તિદ્વાર, (૩) સારણાદ્વાર, (૪) કવચદ્વાર, (૫) સમતાદ્વાર (૬) ધ્યાનદ્વાર, (૭) લેશ્યાદ્વાર, (૮) ફળદ્વાર, (૯) વિજહનાદ્વાર, અનુશાસ્તિદ્વારમાં એના ૧૮ પેટાદ્વારોનું વર્ણન છે. તે દ્વારો આ પ્રમાણે છે. ૧. અઢાર પાપસ્થાનક, ૨. આઠમદસ્થાન, ૩. ક્રોધાદિ કષાયો, ૪. પ્રમાદદ્વાર, ૫. પ્રતિબંધ, ૬. સમ્યક્ત્વસ્થિરત્વ, ૦. અરિહંતાદિષટ્કભક્તિમાનપણું, ૮. પંચનમસ્કારમાં તત્પરપણું, ૯. સમ્યજ્ઞાનોપયોગ, ૧૦. પંચમહાવ્રત, ૧૧. ક્ષપકને ચતુઃ શરણગમન, ૧૨. દુષ્કૃતગાંકરણ, ૧૩. સુકૃત અનુમોદના, ૧૪. બાર ભાવના, ૧૫. શીલપાલન, ૧૬. ઈન્દ્રિયદમન, ૧૦. તપમાં ઉદ્યમ, ૧૮. નિઃશલ્યતા. આ બધાં દ્વારો દૃષ્ટાંતો સાથે વર્ણવ્યાં છે. તે પછી પ્રતિવૃત્તિ વગેરે દ્વારોનું વિવેચન ક્યું છે અને અંતે મહસેન રાજર્ષિના મનોરથો અને તેમણે કરેલો અનશનનો પ્રારંભ, તેમની ઈન્દ્રે કરેલી પ્રશંસા અને દેવાદિએ કરેલા ઉપસર્ગો અને તેમાં રાજર્ષિનું નિશ્ચલપણું રાજર્ષિના ભાવિભવનું વર્ણન કરી, ગ્રન્થકર્તાએ પોતાના ગુર્વાદિની પરંપરા દર્શાવીને ગ્રન્થની સમાપ્તિ કરી છે. બારમા સૈકાના બહુશ્રુતગીતાર્થ સંવિગ્નશિરોમણિ આચાર્ય ભગવંત શ્રી જિનચંદ્રસૂરિ મહારાજે રચેલ, શ્રી સંઘના પરમપુણ્યોદયે સ્વ. આ. વિજયમનોહરસૂરિ મહારાજ સાહેબના પરમ વિનેય શિષ્યરત્ન પં. વિબુધવિજયજી ગણિવરની શુભ પ્રેરણાથી તેમના ગુરુભાઈ પરમતપસ્વી મુનિભગવંત શ્રી હેમેન્દ્રવિજયજી તથા પંડિત બાબુભાઈ સવચંદના સંશોધન-સંપાદનથી આ મહાન ગ્રન્થ શ્રીસંઘના કરકમલમાં આવી રહ્યો છે. એક પણ મોક્ષાર્થી આત્મા આ ગ્રન્થના વાંચન-શ્રવણથી બાકાત ન રહે. વ્યાખ્યાનમાં પણ આ ગ્રન્થ સર્વત્ર વંચાય અને વર્તમાનકાલીન શ્રીસંઘને ભગવાન જિનેશ્વરદેવના માર્ગની આરાધનાનું જ્ઞાન અને શ્રદ્ધાબળ પ્રાપ્ત થાય એજ એક અભિલાષા. ખંભાત દહેવાણનગર, ઢોકળ કુઈ, પોષ સુદ ૬. સિદ્ધાંતમહોદધિ ૫. પૂ. સ્વર્ગત આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજય પ્રેમસૂરીશ્વરજી મહારાજાનો પ્ર. પ્ર. શિષ્યાણુ મિત્રાનંદવિજય X Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला संपादकीय સંપાદકીય સંવેગવંશાળા'નું સંશોધન-સંપાદન કરતાં પરમાત્માના શાસન પ્રત્યે અમારા અંતરમાં જે અહોભાવ પ્રગટ્યો છે તેનો અનુભવ અમે જ કરી રહ્યા છીએ. જગતને એ કેવી રીતે બતાવીએ? કારણ, શબ્દ દ્વારા એનું વર્ણન કરવું અતીવ મુશ્કેલ છે. પણ અમને ખાત્રી છે કે આ ગ્રન્થનું જે કોઈ નિકટ મુક્તિગામી આત્મા વાંચન કરશે તેને જરૂર જૈનશાસન પ્રત્યે અને શાસનના સ્થાપક અરિહંતદેવો પ્રત્યે અહોભાવ પ્રગટશે. આ ગ્રન્થની સુંદર વિષય-સંકલના અને મોક્ષમાર્ગનું મૌલિક વિવેચન જોતાં એમ લાગ્યું કે હવે પૂ. આચાર્ય ભગવંતો તથા વિદ્વાન મુનિપ્રવરો આદિ આ ગ્રન્થ વ્યાખ્યાનમાં વાંચે તો આજે જે ધર્મશ્રદ્ધાના પાયા હચમચી ગયા જેવું દેખાય છે તે પાછા સ્થિર બની જાય. જૈન શાસનની માર્મિકતાને દર્શાવતો આ ગ્રન્થ એક આરિસા સમો છે. પથ્થરદિલમાં પણ સંવેગરસની સેર પ્રગટાવવાની શક્તિ આ ગ્રન્થમાં છે. સૂરિશેખર શ્રીજિનચંદ્રસૂરિવિરચિત સંવેગરંગશાળા ગ્રન્થનું સંપાદન અમે કરી શક્યા તે અમે અમારું અહોભાવ્ય સમજીએ છીએ. ગ્રન્થ અંગેનું વર્ણન આમુખ, પ્રસ્તાવના અને પ્રવેશમાં થયું છે. હજુ એનું વર્ણન કરવું હોય તો ઘણું થઈ શકે એમ છે. ગ્રન્થનું નામ જ એની મહત્તા પુરવાર કરે છે. પણ એ વિષયમાં અમે ઊંડા નહિં ઉતરતાં સંપાદન અંગે સંક્ષેપમાં નિવેદન કરીશું. આ ગ્રન્થ પ્રથમ શ્રીજિનદત્તસૂરિ પ્રાચીન પુસ્તકોદ્ધાર ફંડ તરફથી ગ્રન્થાંક ૧૩ તરીકે સંસ્કૃત છાયા સાથે ૩૦૦૦ શ્લોક પ્રમાણ છપાયો હતો. પણ તેમાં મુદ્રણની તેમજ છાયા વિગેરેની અશુદ્ધિઓ હતી. આથી પૂ. મુનિરાજ શ્રી હેમેન્દ્રવિજયજી મહારાજ ૧૦,૦૫૩ શ્લોક પ્રમાણ સમગ્ર ગ્રન્થ છપાવવાની ભાવનાવાળા હતા. તેઓએ તેની પ્રેસકોપીનું કાર્ચ લગભગ પાંચેક વર્ષ પહેલા મને (પં. બાબુભાઈને) સોંપ્યું હતું. અનેક કાર્યો વચ્ચે પણ ૨૦૨૨માં તે કાર્ય પૂર્ણ કરી પૂ. મુનિરાજશ્રીને મેં પ્રેસકોપી સોંપી. ત્યાર બાદ તેઓશ્રી આખી પ્રેસકોપી વાંચી ગયા. પૂ. આચાર્યદેવો આદિને વંચાવી. કેટલાક શક્તિ સ્થળો અમે બન્નેએ તાડપત્રની પ્રતની ફોટો કોપી ઉપરથી સધાય છે. આ પ્રત જેસલમેરના ભંડારમાં લખાયેલી. જેની ફોટો ફીલ્મ આગમપ્રભાકર પૂ. મુનિરાજશ્રી પુણ્યવિજયજીએ પૂ. મુનિરાજ શ્રી હેમેન્દ્રવિજયજીને બતાવેલી. ત્યારબાદ આગમ પ્રભાકર પૂ. મુનિરાજશ્રી પુણ્યવિજયજીએ ફોટોફિલ્મ ઉપરથી ફોટો કોપી કરાવી આપી. જે ફોટો કોપી હાલ શ્રી જૈન વિદ્યાશાળાના ભંડારમાં હયાત છે. આ ગ્રન્થની પ્રેસકોપી જૈન વિદ્યાશાળામાં સ્વ. સંઘસ્થવિર પ. પૂ. આ. . વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબના હસ્તલિખિત ભંડારની હસ્તલિખિત પ્રત ઉપરથી કરવામાં આવી હતી. પ્રેસકોપી કરતી વખતે બીજી એક પ્રત પૂ. આગમપ્રભાકર મુનિરાજશ્રી પુણ્યવિજયજી તરફથી મળી હતી પણ તે બહુ મદદરૂપ બની શકી ન હતી. સંશોધનમાં બે પ્રતિઓનો ઉપયોગ કરવામાં આવ્યો છે. (૧) જેસલમેરના ભંડારની પ્રતની ફોટોકોપી જેનો ઉલ્લેખ અમે ઉપર કરેલ છે. (૨) હસ્તલિખિત પ્રત પાનાં ૨૩૩, પ્રત નં. ૪૬૦૫ આગમ પ્રભાકર મુનિરાજ શ્રી પુણ્યવિજયજી તરફથી મળેલી. આ રીતે પ્રેસકોપી કરતી વખતે બે પ્રતિઓ અને સંશોધન કરતી વખતે બીજી બે પ્રતિઓના આધારે આ ગ્રન્થનું મેટર અમે તૈયાર કરેલ છે. આ ગ્રંથની રચના વિ.સં. ૧૧૨૫માં થયેલ છે. અને જે પ્રતિ ઉપરથી અમે સંપાદન કર્યું તે વિ.સં. ૧૨૦૩ માં લખાયેલી છે આથી ગ્રન્થકારના સમયની નજીકના જ સમયની પ્રતિ મળી જવાથી આ સંપાદન પ્રાયઃ શુદ્ધ થઈ શકયું હશે એવી અમારી ધારણા છે. જો કે કેટલાંક શક્તિ સ્થળો જેનો નિર્ણય કરી શક્યા નથી તે એમને એમ જ રહેવા દીધાં છે પણ તે બહુ જ અલ્પ છે. આ સંપાદનમાં પૂ. આચાર્ય દેવો આદિ, આગમપ્રભાકર પૂજ્ય મુનિરાજ શ્રી પુણ્યવિજયજી તથા અન્ય મહાનુભાવોએ જે સહકાર આપ્યો છે તે સર્વના અમે ત્રણી છીએ. આ મહાન ગ્રન્થના સંપાદનમાં ઘણી ઘણી કાળજી રાખવા છતાં મંદમતિપણાથી, દ્રષ્ટિદોષથી અથવા પ્રેસદોષ આદિથી જે કાંઈ ક્ષતિઓ રહી ગઈ હોય તે બદલ મિથ્યાદુકૃત અપર્ણ કરીએ છીએ. દસ હજાર શ્લોક પ્રમાણ આ સંવેગરંગશાળા ગ્રન્થ પોતાના નામ પ્રમાણે અદભુત આત્મિક સુખને અપાવનારો ગ્રન્થ છે. આ શાસ્ત્ર અમારા માટે તો દીપકની ગરજ સારી છે. આનું સંપાદન કરતા અમને એમાંથી દિવ્ય પ્રકાશ મળ્યો છે. દરેક મોક્ષાર્થી જીવોને એક વાર લક્ષપૂર્વક વાંચવા અથવા સાંભળવાની અમારી ખાસ વિનંતિ છે. લી. સંપાદકો વૈશાખ શુક્લ તૃતીયા સ્વ. આચાર્યદેવ વિજયમનોહરસૂરિ-શિષ્યાણ અમદાવાદ, હેમેન્દ્રવિજય પં. બાબુભાઈ સવચંદ શાહ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला विगत मङ्गलाचरणम् संसारवने धर्मदुर्लभता आराधनाधिकारी स्वरूपम् रचनाप्रयोजनम् नगरीवर्णनम् महसेननृपवर्णनम् नृपक्रीडावर्णनम् पुरुषागमनम् नृपपश्चात्तापः पूर्वभववर्णनम् पुण्यपापस्वरूपचिन्तनम् महसेनं जातिस्मरणज्ञानस्य प्राप्तिः महसेननृपचिन्तनम् श्री वीरजिनागमनम् धर्मदेशना क्षमायाचना हितशिक्षावर्णनम् विषविकार वर्णनम् पुत्रानुशास्तिः देव्यंनुशास्तिः दीक्षा हेतुप्रयाणः दीक्षाग्रहणम्- प्रभुद्वारानुशास्तिः श्रीगौतम गणधर स्तुतिः श्रीगौतमधर्मोपदेशः आराधनास्वरूपम् सामान्य आराधना स्वरूपम् दर्शन सामान्याराधना चारित्रस्य सामान्याराधना सामान्यतपाराधना संक्षेपविशेषाराधना स्वरूपम् मधुनृपदुष्टान्तः सुकोशलनृप दृष्टान्तः विस्तृत आराधना स्वरूपम् चतुर्थः मूलद्वारनामानि मरुदेवा दृष्टान्तः मुनिमहसेनस्य पृच्छा क्षुल्लकमुनि दृष्टान्तः प्रथमः परिकर्मविहिद्वारेपन्द्रह प्रतिद्वारम् प्रथम अर्हद्वारवर्णनम् बदकचुल दृष्टान्तः वङ्कचुलनियमग्रहणम् नियमप्रतिपालनम् अनुक्रमणिका पृष्ठ विगत १ २ २ चिलातिपुत्र दृष्टान्तः आराधनाधिकारो वर्णनम् द्वितीय लिङ्गद्वारवर्णनम् ३ ३ मुहपत्त्यादिलिङ्गप्रयोजनम् ४ ४ ५ ७ ७ ६ १० ११ १२ १३ १४ १४ कुलवालकस्य दृष्टान्तः तृतीय शिक्षाद्वार स्वरूपम् सुरेन्द्रदत्तस्य दृष्टान्तः आसेवनशिक्षा स्वरूपम् ज्ञानक्रिया सापेक्ष उपादेयता आर्यमङगू आचार्य दृष्टान्तः अङ्गारमर्दकस्य दृष्टान्तः ग्रहण आसेवन शिक्षाभेदाः साधु - गृहस्थाभ्यो सामान्य आचारधर्मः गृहस्थस्य विशेषाराधना साधुविशेषाराधनाः चतुर्थ-विनयनामकद्वारम् श्री श्रेणिकनृप दृष्टान्तः स्तेनप्राप्तये अभयकथित जीर्ण श्रेष्ठिकन्याकथा १५ १६ १६ १७ कन्याकथायाः भावोपलम्भद्वारेण १७ स्तेनप्राणप्राप्तिः विद्यादानस्वीकारश्च १७ समाधि नामक पञ्चमद्वारवर्णनम् नमिराजर्षि दृष्टान्तः घष्टम् मनः अनुशास्तिद्वार १८ १८ वसुदत्त दृष्टान्तः अनियतविहारनामक सप्तमद्वारवर्णनम् १८ १६ दुर्गतानारी दृष्टान्तः अनियतविहारकरणे गुणाः १६ १६. श्रीसेलकसूरि दृष्टान्तः २० पृष्ठ ३४ ३४ ३५ ३५ ३६ ३८ ३६ ४१ ले ४७ ४८ ४६ ४२ ४२ चतुर्थः पुत्रप्रतिबोधकद्वारम् पंचम सुस्थितघटनाद्वारम् ४३ ४३ षष्टम् आलोचनाद्वारम् ४३. सप्तमम् आयुपरिज्ञानद्वारम् ४४ सात्मम् आयुः परिज्ञानद्वारे ४५ एकादशप्रतिद्वारवर्णनम् अनशन प्रतिपत्तिद्वारम् परिणामद्वारम् त्यागद्वारवर्णनम् ४६ ४६ सहस्रमल्ल दृष्टान्तः मरणविभक्तिद्वारम् जयसुंदर सोमदत्त दृष्टान्तः उदाविनृपः दृष्टान्तः ४६ ५२ ५७ ५८ ६० ६१ ६१ नृपस्यानियतविहार नामकाष्टमद्वारवर्णनम् ६२ वसतिदानस्यगुणाः ६४ ६६ विगत जिन भवन जिनबिम्ब २१ वसतिदाने ताराचन्द कुरुचन्द दृष्टान्तः २२ परिणाम नामक नवमद्वारम् ७१ २२ धर्मजागरिकाः इहभव - परभव हितचिन्तनम् ७१ २२ पुत्रशिक्षादापनम् ७२ २४ पुत्रस्याशिक्षणे दोषोपरि बज्रकेसरि दृष्टान्तः ७३ कालनिर्गमनद्वारम् २४ ७५ २५ एकादश पडिमावर्णनम् ७६ ७७ २७ मिथ्यात्वे अन्धपुत्रस्य दृष्टान्तः २८. साधारणद्रव्यविषयवर्णनम् ७८ साधारणद्रव्यव्ययविषये जिनपूजा आगमलेखन साधु-साध्वी स्वरूपम् साधारणद्रव्यव्ययविषये श्रावकश्राविका स्वरूपम् साधारणद्रव्यव्ययविषये पौषधशाला स्वरूपम् दर्शनकार्यस्वरूपम् अधिगतमरणद्वारम् सुन्दरीनन्ददृष्टान्तः श्रेणिद्वारम् स्वयम्भूदत्त दृष्टान्तः भावनाद्वारम् पुष्पचुल दृष्टन्तः आर्यमहागिरि दृष्टान्तः एडकाक्षनगरोत्पत्तिवर्णनम् दशार्णकूटस्य गजाग्रपदनामोत्पत्तिः संलेखनाद्वारम् गङ्गदत्तस्य दृष्टान्तः परगणसंक्रमनामक द्वितियद्वारम् प्रथम दिशाद्वारम् आचार्यस्य योग्यतावर्णनम् शिवभद्राचार्य दृष्टान्तः क्षामणाद्वारम् क्षमापनाद्वारम् नयशीलसूरि दृष्टान्तः अनुक्रमणिका पृष्ठ ७६ ७६ το το το ८१ ८२ ८२ ८३ ८४ ८६ ८६ ८७ ६४ ६४ ६५ ६६ ६७ ६७ €€ १०१ १०२ १०५ १०६ १०८ ११० ११० १११ ११२ ११२ - ११५ ११८ ११८ ११८ ११६ १२० १२० १२१ XII Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला १६५ १२६ १६७ १६७ १२६ १६७ १६८ १३१ १६६ २०१ २०४ २०४ १३४ १३४ २०६ २०८ १३८ १७३ २१२ विगत तृतीय अनुशास्तिद्वारम् महिलासङ्गे दोषाः सुकुमारिका दृष्टान्तः सिंहगुफावासीमुनि दृष्टान्तः प्रवर्त्तिन्यैः अनुशास्तिः साध्वीवर्गानुशास्तिः वैयावृत्तस्य माहात्म्यम् संसर्गजन्यगुणदोषणवर्णनम् शिष्यस्य गुरुं प्रति कृतज्ञता परगणसंक्रमणाय अनुमतियाचनम् सुस्थितगवेषणाद्वारम् उपसंपवार स्वरूपम् परीक्षाद्वार स्वरूपम् प्रतिलेखनाद्वार स्वरूपम् हरिदत्तमुनि दृष्टान्तः पृच्छाद्वारम् प्रतीच्छाद्वारम् ममत्वव्युच्छेदद्वारम् आलोचनाविधानद्वारम् लज्जाअत्यागे-त्यागे कपिलविप्रदृष्टान्तः आलोचनाविधानद्वारम् सुरतेजनरसुन्दरयोः दृष्टान्तः द्वितीय शय्याद्वारम् गिरिसुयजुगल दृष्टान्तः तृतीय संस्तारकद्वारम् गजसुकुमाल दृष्टान्तः अर्णिकापुत्तस्य दृष्टान्तः चतुर्थःनिर्यामकद्वारम् पञ्चम दर्शनद्वारम् षष्ठमहानिद्वारम् सप्तमपानकपरिकर्मयुक्तप्रत्याख्यानद्वारस्वरूपम् अष्टमक्षामणाद्वारम् नवम स्वयंक्षमापनाद्वारम् चण्डरुद्राचार्य दृष्टान्तः चतुर्थसमाधिलाभद्वार प्रारम्भमङ्गलाचरणम् अनुशास्तिद्वारम् अट्ठारसपावठाणद्वारम् प्राणिवधत्यागस्वरूपम् प्राणिवधेश्वश्रृस्नुषयाः दृष्टान्तः अलीकवचनस्वरूपं वसुनृपदृष्टान्दाः पृष्ठ | विगत १२२ | अदत्तादानस्वरूपम् १२४ श्रावकपुत्रवसुदत्त दृष्टान्तः १२५ मैथुन स्वरूपम् १२५ गिरिनयरनिवासिनी दृष्टांतः परिग्रह स्वरूपम् १२६ लोहनन्दजिनदास दृष्टांतः १२७ क्रोध स्वरूपम् १२८ प्रसन्नचन्द्र दृष्टान्तः मान स्वरूपम् १२६ बाहुबली दृष्टान्तः माया स्वरूपम् १३३ वणिक्पुत्र दृष्टान्तः १३३ लोभ स्वरूपम् कपिल दृष्टान्तः | प्रेम (राग) स्वरूपम् १३६ अर्हमित्रस्य दृष्टान्तः १३७ द्वेष स्वरूपम् १३८ | धर्मरूचि दृष्टान्तः कलह स्वरूपम् १४० हरिकेशीबल दृष्टांतः १४१ | अभ्याख्यानपापस्थान स्वरूपम् १४४ अङ्गर्षे दृष्टान्तः १४७ अरतिरति स्वरूपम् १४७ क्षुल्लककुमार मुनि दृष्टान्तः १४८ पैशुन्य स्वरूपम् १५० सुबन्धुसचिवचाणक्योः दृष्टान्तः | परपरिवाद स्वरूपम् १५१ सुभद्रा दृष्टान्तः १५२ मायामृषावाद स्वरूपम् १५३ कुटक्षपक दृष्टान्तः मिथ्यादर्शनशल्यस्वरूपम् १५४ जमालिदृष्टान्तः १५४ मदनामकद्वितीयद्वारम् १५५ जातिमेदविप्रपुत्र दृष्टान्तः कुलमदेमरिचि दृष्टान्तः रूपमदविषये काकन्दीवास्तव्य१५७ भ्रात्रोः दृष्टान्तः १५७ बलमदे मल्लदेवस्य दृष्टान्तः १५७ श्रुतमदे स्थूलभद्रदृष्टान्तः १५७ तपमदस्वरूपम् १५६ दृढप्रहारिदृष्टान्तः १६० लाभमदस्वरूपम् ढंढणकुमारदृष्टान्तः अनुक्रमणिका पृष्ठ विगत १६२ | ऐश्वर्यमदस्वरूपम् १६५ १६३ धनसारपुत्रस्यदृष्टान्तः १६३ धनसारपुत्रस्यदृष्टान्तः १६६ १६४ तपमद-ऐश्वर्यमदस्थाने बुद्धिबलमद १६५ प्रियतामदस्वरूपम् १६६ १६६ क्रोधादिनिग्रहनामक तृतीयद्वारम् १६७ प्रमादत्यागनामक चतुर्थद्वारम् १६७ मद्यस्वरूपम् मद्यमासादिस्वरूपम् १६८ अभयकुमारेण मांसस्य महर्घत्वस्थापनम् २०१ विषयस्वरूपम् १६६ कण्डरिकस्यदृष्टान्तः २०३ १७० कषायस्वरूपम् १७० निद्रास्वरूपम् १७१ अगडदत्तस्यदृष्टान्तः २०५ १७२ विकथास्वरूपम् १७२ गुणकरस्त्रियादिकथास्वरूपम् १७२ द्यूतस्वरूपम् २०६ अन्यप्रकारेखमादस्य अष्टस्थानानि .२०६ १७४ सर्वप्रतिबन्धत्यागनामक पञ्च्मम्द्वारम् २११ १७६ षष्टमम् सम्यक्त्वद्वारस्वरूपम् १७६ अरिहंतादिभक्तिद्वारम् २१३ कनकरथनृपदृष्टान्तः २१३ २१४ अष्टमम् पञ्चनमस्कारद्वारम् १७७ श्रावकपुत्रदृष्टान्तः २१७ श्रीमतीदृष्टान्तः हुण्डिकयक्षदिदृष्टान्तः २१८ सम्यग्ज्ञानोपयोगनामक षष्टम्द्वारम् यवमुनिदृष्टान्तः २२० पञ्चमहाव्रतनामक दशमंद्वारम् २२१. अहिंसामहाव्रतस्वरूपम् २२२ मृषावाद विरमणस्वरूपम् २२२ अदत्तादानविरमणस्वरूपम् २२३ मैथुनविरमणस्वरूपम् २२३ २२४ कामसुखस्य अशुभत्वं दृष्टांताः च १८६ महिलानां दुर्गुणाः २२५ महिलानां दोषाः च . १८७ गर्भावस्थास्वरूपम्। २२५ १६० चारुदत्तदृष्टान्तः १६२ महिलासंसर्गे दोषाः त्यागे गुणाः १६२ तद्विषये उपदेशः च । अभ्यन्तरबाहयग्रन्थयोःस्वरूपम् महाव्रतस्यभावनास्वरूपम् २२६ १६३ महाव्रतानाम् अरक्षणे दोषाः २३० १७६ १७८ १७८ २१८ १५० २१६ १८० १६१ moc WW000 १५५ २२४ १८६ २२६ २२८ २२८ १६३ १६१ Xiill Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला अनुक्रमणिका पृष्ठ २३१ ليه २६५ ليه २६५ ليه ليه ليه ليه ه २७२ * २४० २७५ २४१ २७५ २४२ २७६ २७६ २४३ २४३ २७८ २७८ विगत | विगत पृष्ठ उज्झिकादिदृष्टान्तः द्वितीय प्रतिपत्तिद्वारे धर्मध्यानचिंतनम्। २६४ चतुःशरणस्वीकारवर्णनम् २३१ तृतीय सारणाद्वारम् चतुःशरणस्वीकारवर्णनम् चतुर्थः कवचद्वारम् दृष्कृतगर्हाद्वारम् पञ्चमम् समताद्वारस्वरूपम् २६६ क्षामणे उपदेशः २३५ षष्टम्ध्यानद्वारम् २६६ सुकृतानुमोदनाद्वारम् २३८ सप्तम्लेश्याद्वारम् २७० भावनापटलद्वारम् २३६ जम्बूफलभक्षकदृष्टान्तः २७० अनित्यभावनास्वरूपम् २४० अष्टम्फलद्वारम् २७१ नग्गइनपदृष्टान्तः २४० अष्टम्फलद्वारम् अशरणभावनास्वरूपम् नवमम् विजहनाद्वारम् अनाथीमुनिदृष्टान्तः २४१ | आराधनाकृतां प्रशंसा संसारभावनास्वरूपम् महसेनकृता गौतमगणधरस्तुतिः तापसश्रेष्ठिनादृष्टान्न्तः | महसेनस्य आराधनायै चिन्तनम् २७६ एकत्वभावनास्वरूपम्. २४२ महसेनस्य अनशनप्रारम्भः परसहायानिच्छोपरी वीरविभुदृष्टान्तः इन्द्रकृता प्रशंसा अन्यत्वभावनास्वरूपम् २४३ विगत पृष्ठ सुलसपरिहासेन शिवस्य वैराग्यम् परीक्षायै देवाकृतोपसर्गवर्णनम् २७७ अशुचिभावनास्वरूपम् २४४ | महसेनस्यश्चिलत्वम् शुचिवोद्रस्य दृष्टान्तः २४४ सर्वार्थसिद्धौ उत्पत्तिः अर्थकामानाम् अशुभत्वम् २४५ महसेनस्यभाविभाव कथनम् २७८ आश्रवसंवर-निर्जराभावनानां स्वरूपम् २४५ गौतमगणधरदर्शित लोकस्वरूपभावनास्वरूपम् २४६ महसेनस्यागामीभववर्णनम् २७६ शिवराजर्षेःदृष्टान्तः २४६ स्थविरकृता गौतमस्तुतिः २७६ बोधिदुर्लभंभावनास्वरूपम् २४६ ग्रन्थकर्तुगुर्वादीनां नामादिवर्णनम्वणिपुत्रदृष्टान्तः २४७ ग्रन्थरचनावर्णनम् सुवर्णस्याष्टगुणैः धर्मगुरुः परीक्षा २४८ लेखकप्रशस्तिः। २८० सद्गुरोःस्वरूपम् शीलपालनद्वारे शीलस्वरूपम् २५० इन्द्रियदमनद्वारस्वरूपम् इन्द्रिय-अविजये भद्रादीनां दृष्टान्ताः चक्षुरिन्द्रिय विषयेसमरधीरदृष्टान्तः २५३ घ्राणेन्द्रियविषेय गन्धप्रियकुमार २५४ रसनेन्द्रिय अविजयेसोदासनृपदृष्टान्तः स्पर्शेन्द्रियअविजयेविप्रसुतदृष्टान्तः २५४ तपोद्वारे तपःकरण-अकरणयोः गुणदोषाः २५५ निःशल्यताद्वारे शल्यानांस्वरूपम् २५५ ब्रह्मदत्तचक्रीदृष्टान्तः २५६ मायाशल्ये पीठमहापीठदृष्टान्तः २५८ मिथ्यात्वशल्योपरीनन्दमणियारदृष्टान्तः द्वितीय प्रतिपत्तिद्वारप्रारम्भः श्री सङ्घस्य माहात्म्यम् क्षमापना च द्वितीय प्रतिपत्तिद्वार क्षमापना २६२ विराधनायाः क्षामापना २६२ पापगर्दा २६३ २८० २५१ २५२ २५४ २५६ २६१ २६१ XIV Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १ से १६ ।। णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स || ।। अचिन्त्यमहिमानिधान श्रीशङ्ङ्केश्वरपार्श्वनाथाय नमः ।। ।। अनन्तलब्धिनिधानाय श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वराय नमः ।। सिरिजिणचन्दसूरिविरइआसंवेगरंगसाला मङ्गलाचरणम्. “मङगलाचरणम्" ॥८॥ usu | रेहड़ जेसिं पयनह-परंपरा उग्गमन्तरविरुइरा । नमिरसुरमउडसंघट्ट - खुडियवररयणराइ व्व | अहव सिवपहपलोयण - मणजणहत्थप्पईवपंति व्व । तिहुयणमहिए ते उसभ - प्पमुहतित्थाहिये नमह | अज्ज वि य कुतित्थियहत्थि - सत्थमच्चत्थमोत्थरइ जस्स । दुग्गनयवग्गनहनिवह - भीसणो तित्थमयनाहो तं नमह महावीरं, - 2 अणंतरायं पि परिहरियरायं । सुगयंपि सिवं 4 सोमं पि चत्तदोसोदयारम्भं जे निव्वाणगया वि हु, नेहदसावज्जिया वि दिप्पंति । ते अप्पुव्यपईवा, जयन्ति सिद्धा जयपसिद्धा अइसयसहस्ससुंदर-मयरंदुद्दामसुयसरोयस्स । जिणमुहसरप्पसूयस्स 'मूलनालाइयं जेहिं | पालित - परुविन्ते, निच्वं पंचप्प - यारमायारं । गुणगणहरे गणहरे, ते गोयमपभिइणो वंदे | अणवरयसुत्तदाणा - गंदियमुणिभमरनियरपरियरिए । निच्चं चरणपहाणे, करिणो व्य थुणामि उज्झाए कारुण्णपुण्णहियए-धम्मुज्जयजंतुजणियसाहेज्जे । दुज्जयनिज्जियमयणे, मुणिणो पणमामि 'नवनिहिणो गुणरायरायहाणिं, नमामि सव्यन्नुणो महावाणिं । भीमभवागडनिवडंत - जंतुनिरयज्जरज्जुं व तं जयइ पवयणं 7 पव- यणं व सारं जमंगिणो दद्धुं । वसह व्व उप्पहं पत्थि - या वि लग्गंति मग्गंमि ॥११॥ चिन्तारघट्टसंजोयणेण, सुहझाणवसहसेणीए । जे भवकूवादाय-ड्ढिऊणमुड्ढं पराणिति आराहणाघडीमा - लियाए आराहगंगिवग्गुदयं । निज्जामगे गुरू ते, मुणिणो य नमामि सविसेसं | सुगइगममूलपयवी - चउखंधाराहणा इमा जेहिं । संपता ते वंदे, मुणिणो गिहिणो य अभिणंदे | आराहणाभगवई, जयउ जए जं दढं समारूढा । नावं व भव्यभविणो, तरन्ति रुदं भवसमुद्द सा जयइ य सुयदेवी, जीए पसाएण मंदमइणो वि । कइणो भवंति नियइच्छि-यत्थनित्थारणसमत्था सयलजणसलहणिज्जं, पयविं जेसिं पयप्पभावेण । पत्तोम्हि विबुहपणए, ते नियगुरुणो पणिवयामि इत्थं समत्थथोयव्य-सत्थविसयाए पत्थुयथुईए । करडिघडाए सुहडो व्व, दलियपच्चूहपडियक्खो मंदमई वि सयमहं महन्तगुणगणगुरूण सुगुरूण । चरणपसाएणं भव्य - हियकए किं पि जंपेमि [जुम्मं ] ॥१९॥ ॥१०॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ 1 राजते येषां पदनखपरम्परा, उद्गमद्रविरुचिरा । नम्रसुरमुकुटसङ्घट्ट - खण्डितवररत्नराजिवत् ||१|| अथवा शिवपथप्रलोकनमनोजनहस्तप्रदीपपङ्क्तिवत् । त्रिभुवनमहितान् तान् ऋषभ - प्रमुखतीर्थाधिपान् नमत ||२|| अद्यापि च कुतीर्थिकहस्तिसार्थ-मत्यर्थमाक्रामति यस्य । दुर्गनयवर्गनखनिवह-भीषणस्तीर्थमृगनाथः ।।३।। तं नमत महावीर-मनन्तरायमपि परिहृतरागम् । सुगतमपि शिवं, सोममपि त्यक्तदोषोदयारम्भं ||४|| ये निर्वाणगता अपि खलु, स्नेहदशावर्जिता अपि दीप्यन्ते । ते अपूर्वप्रदीपा जयन्ति सिद्धाः जगत्प्रसिद्धाः ।।५।। ॥१॥ mn m ॥४॥ ॥५॥ F 1. दूग० । 2. अणंतरायंपि परिहरियरायं' इति पदे अनन्तरागमपि परिहृतरागम् इति पदसंस्कारे विरोधो वर्त्तते तथाऽपि अनन्तरायमपि परिहृतरागम् इति पदसंस्कारकरणेन तत्परिहारोभवति । 3. सुगयं पि सिवं' इत्यत्र यः सुगतः सः कथं शिवो भवितुमर्हति इति विरोधो भवेत्, तथापि शोभनं गतं ज्ञानं यस्य सः = सुगत इति तात्पर्यग्रहणेन सुगतोऽपि शिवः - कल्याणकारी भवतीति विरोधपरिहारो भवत्येव । 4. 'सोमंपि चत्तदोसोदयारंभ' इत्यत्र सोमःचन्द्रः दोषायाः-रात्रेः उदयस्य आरम्भक एव इति विरोधो वर्त्तते किन्तु सोमः सौम्यः भगवान् दोषाणं-रागादिदोषाणाम् उदयस्य यो आरम्भः सः त्यक्तः सः त्यक्तदोषोदयारम्भो भवत्येव । एवमन्यत्रापि यथातत्थ्यं पदघटना कार्या । 5. थूल0 1 6 तव० । 7. प्राजनम् । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २०-५० संसारवने धर्मदुर्लभता-आराधनाधिकारीस्वरूपम् “संसारवने धर्मदुर्लभता " ॥२५॥ ॥२६॥ इह हि वियंभंतकयंतसीह - हम्मन्तजन्तुमिगनिवहे । विलसिरदुद्दतिंदिय - सावयउप्पंकलल्लक्के | विक्कंतकसायविलास - प्पसंकुले मयणवणदवरउद्दे । दुव्यासणाविसप्पिर- गिरिसरियापूरदुग्गंमि निबिडदुहविडविकिण्णे, वियडंमि भवाडवीकडिल्लंमि । दीहद्धमद्धगेहिं व संचरंतेहिं सत्तेहिं | गंभीरनीरनीरहि-निहित्तमुत्ताहलं व मणुयतं । जुगसमिलानाएणं, लद्धूणं कह वि दुल्लंभं तत्थ वि कहिंपि सविसेस - दुल्लहं ऊसरे व्व वरसस्सं । मरुभूमीए कप्प - हुमं व सुकुलाइ लहूणं तत्थ विय भाविभद्दत्तणेण, सेसत्तणेण य भवस्स । अबलत्तणेण दुज्जय-तरदंसणमोहणिज्जस्स सुगुरूवएससवणा, सयं पि वा कम्मगंठिभेएणं । तडितडपालंबं पिव, गुरुगिरिसरिहीरमाणेहिं रोरेहि व निहाणं, सुवेज्जमिव विविहवाहिविहुरेहिं । अवडंतो पडिएहिं समत्थ- हत्थावलंबं व | सविसेसपुन्नपयरिस - लब्धं सव्यन्नुधम्ममकलंकं । निज्जियचिंतामणिकप्प- पायवं पाविउं परमं हियमेव गवेसेयव्य-मप्पणो तं च जं न अहिएण । वाहिज्जइ नियमेणं, कहिंपि कत्तो वि कइया वि ॥२९॥ [तीहिं विसेसयं ] तं च तहाविहमणुवम - मऽच्चंतेगंतियं परं मोक्खे | मोक्खो य कम्मखयओ, कम्मखओ पुण विसुद्धाए ॥३०॥ आराहणाए आरा-हियाए ता तीए सइ हियत्थीहिं । जइयव्यमुवेयमुवाय - विरहओ होइ नो जेण ॥३१॥ [जुम्मं] ॥२७॥ ॥२८॥ सा पुण काउमणेहि वि, तदत्थपयडणसमत्थसत्थाणि । मोतुं 1 अभिउतेहि वि, नाउं तीरइ न जं सम्मं ॥३२॥ तम्हाऽऽराहणसत्थं, सुपसत्थमहत्थहेउपरिकिण्णं । गिहिसाहूभयविसयं, वोच्छमहं तुच्छबुद्धी वि "आराधनाधिकारीस्वरूपम्” શો आराहणमिच्छंतो य, तिगरणं पढममेवं रुंभेज्जा । अनिरुद्धं जेण इमं किं असुहं तं न जं कुणइ तहाहि असमंजसं भमंतो, निरंकुसं विविहविसयरण्णंमि । अरइरइकुमइकरिणी - कसायकलभोरुजूहजुओ कयबहुगुणतरुभंगो, पमायमयमत्तमणकरी एस । अवगुंढइ अप्पाणं, पए पए बहुविहरएणं अत्थनिरवेक्खवित्ती, पइक्खणऽन्नन्नयन्नकयघडणा । असइ व्व विलसमाणी, वाणी वि अणत्थपत्थारी असमंजसवावारो, सव्वत्थ समंतओ वि अनिरुद्धो । तत्तायगोलकप्पो, काओ वि न होज्ज कुसलकरो एक्केक्कं पि इमेसिं, लोगदुगावायवीयमऽनिरुद्धं । किं पुण तस्समवाओ, जएज्ज ता तन्निरोहकए सो पुण पसत्थगंथप्रत्थ- चिंतणा - विरयणाऽऽइणा चेव । सम्मं पारद्धेणं, संजायड़ नन्नहा जम्हा अत्थेहाए तस्सेव माणसं, भासणेण पुण वयणं । होइ च्चिय सुनिरुद्धं, तल्लिहणाईहिं पुण काओ एवं च कम्मबंधेक्क - हेउपडिरुद्धजोगपसरस्स । होही महप्पणो च्चिय, उवयारो पत्थुयपबंधा इह (य) तन्निरोहजणिओ, एसुवयारो परोऽणुभवसिद्धो । संवेगवण्णणे पुण, पए पर पसमसुहलाभो तह संवेगसनिव्येय - पमुहपरमत्थवित्थरो जत्थ । दुल्लम्भो सुमिणंमि वि, वणिज्जइ तं परं सत्यं | जत्थ पुणाऽणाइभव - भासवसेणं सयं पि संसिद्धा । तह सुकर च्चिय गोवाल - बालविलयाइयाणं पि कामत्थऽज्जणविसंया, निवनीईगोयरा तह उवाया । देसिज्जंति बहुहा, सत्थं तमणत्थयं मण्णे | इह संवेगाऽऽइहियऽत्थ - देसगस्सेव एत्थ सत्थस्स । सवणपरिभावणेसुं, निच्चं पि बुहेहिं जड़यव्यं | संवेगगब्भसुपसत्थ- सत्थसवणं हि होड़ धण्णाणं । सवणेऽविधम्मतरगाणं चेव ता समरसाऽऽपत्ती अवि य जह जह संवेगरसो, वणिज्जइ तह तहेव भव्याणं । भिज्जंति खित्तजलमिम्म- याऽऽमकुंभ व्व हिययाई ॥४९॥ सारोऽवि य एसो च्चिय; दीहरकालंपि चिन्नचरणस्स । जम्हा तं चिय कंडं, जं विंधइ लक्खमज्झे वि ॥५०॥ 1. अभियुक्तेः । ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥३४॥ ॥३५॥ E મા ॥३८॥ ॥३९॥ ॥४०॥ ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ "જો ॥४७॥ ॥४८॥ 2 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५१-८२ रचनाप्रयोजनम् - नगरीवर्णनम्, सुचिरं पि तवो तवियं, चिन्नं चरणं सुयं पि बहुपढियं । जइ नो संवेगरसो, ता तं तुसखंडणं सव्वं ॥५१॥ तह संवेगरसो जइ, खणं पि न समच्छलेज्ज 'दिवसंतो । ता विहलेण किमिमिणा, बज्झाडणट्ठाणकट्टेणं ॥५२॥ पक्खंतो मासंतो, छम्मासंतो व बच्छरंतो वा । जस्स न स होज्ज तं जाण, दूरभव्यं अभव्यं वा ॥५३॥ रूवे चक्खू मिहुणे, हियालिया रसवईए जह लवणं । तह पलोगविहीए, सारो संवेगरसफासो ॥५४॥ एसो पुण संवेगो, संवेगपरायणेहिं परिकहिओ । परमं भवभीरुतं, अहवा मोक्खाऽभिकंखितं ॥५५॥ “रचनाप्रयोजनम्" - ता तव्युड्ढिकए च्चिय, न केवलं कम्मवाहिविहुराणं । भवियाणमप्पणो च्चिय, चिरगुरुयेज्जोवएसाओ ॥५६॥ मेलित्तु वयणदव्ये, भावाऽऽरोगेक्कहेउमारद्धं । आराहणारसायण-मेयं अजरामरत्तरं ॥५७॥ किंचपरिगलइ पावसलिलं, ठियस्स आराहणाससिपहाए । जीवससिकंतमणिणो; पइक्खणं दिव्वजोइस्स ॥५८॥ | संवेगसारमेसा, वायंत-सुणंत-भावमाणाणं । काही कलुस पि मणं, विमलं कयगप्फलं व जलं ॥५९॥ एतो च्चिय ललियपया, अकुडिल-कोमल-सुहडत्थकलिया योअक्खंडलक्खणवरा, सुवण्णरयणुज्जलसरीरा ॥६०॥ सुइसुहयभद्दसद्दा, विविहालंकारकलियसव्वंगा । उल्लसियपसन्तरसा पगिट्ठपरलोयविसयकरा ॥६१॥ बहुभावविरयणाउ, उप्पायंती परं पराणंदं । परिहरियअसग्गाहा, अणत्थबहुला य न कहिं पि ॥२॥ बहुएहिंतो उपजीवि-यऽत्थसारा महाभुजिस्सेव । करणविहीए वि हु कय-परिस्समा मूलकालाओ ॥३॥ अप्पसमरइपराणं, निच्वं पि हु विहियमोहणासाणं । नाणाऽभोगरयाणं, उदग्गवयसंगयाणं च ॥६४॥ समणवियडढविलासीण, काण मणहरणकारणं न इमा । नयणसुहदाइणी भाव-णिज्जवयणा य नो होही ॥६५॥ [छहिं कुलयं] एवं चिय दूरुज्झिय-निययपरिग्गहपसंगवंछाणं । सुगिहत्थाण वि निव्वुइ-निमित्तमेसा कह न होही ॥६६॥ किंचजह य अणंतरजायं पि, किं पि कट्ठिट्ठगोवलाइदलं । साडणसंधणविहिणा, काऊणं अवचिओवचियं ॥६॥ आकारंतरविहिणा, ठवेइ सुविसिट्ठमंदिरतेण । अइनिउणसुत्तहारो, तहेव अहयं पि उवउत्तो ॥६८॥ सुयदिट्ठचिर पमेयं, किं पि पारद्धगंथपाउग्गं । गाहा-सिलोग-गाहऽद्ध-कुलगपमुहं परक्यं पि ॥९॥ अवणयणदाणविहिणा, कहिंपि काऊण अवचिओवचियं । दाराणुगुणत्तेणं, एत्थं कथयि ठविस्सामि ॥७०॥ सपबंधेसु य नियकव्य-गब्वचागत्थमवरकइरइयं । पक्खिवमाणो तक्करण-सचित्तजुत्तो वि होइ लहू ॥७१॥ केवलमुवयारकए, परेसिमेसो महं समारंभो । सो य सपरोभयउत्तीहिं, जुत्तिजुत्तत्तणमुवेइ ૭૨ दीसइ य जेण सविसेस-गाहगे आगयम्मि वणियजणो । सपरोभयहट्टपयट्ट-भंडविच्छडडववहारी ॥७३॥ एसा य पत्थुयारा-हणेह संवेगरंगसालत्ति । भण्णइ विणिच्छियत्था, गुणनिप्फण्णेण नामेण ॥७४॥ एसा य जहा रण्णा, महसेणेणं नवल्लदिनेणं । जइगिहिविसया पुट्ठा, सिट्ठा जह गोयमेणं च ॥५॥ जह तं सम्मं आराहिऊण, सो पाविही य नेव्याणं । तह एत्थ कहिज्जतं, अवहियचिता निसामेह. ॥७६॥ “नगरीवर्णनम्" - अत्थि धणधण्णपडिपुण्ण-पउरपुरगामनियहरमणिज्जो । रमणिज्जवलावन्न-जुवइरेहन्तदिसिचक्को ॥७७॥ दिसिचक्कागयनेगम-कीरन्तविचित्तभूरियवहारो । ववहारज्जियबहुधण-जणकारियपवरसुरभवणो सुरभवणतुंगसिंगग्ग-धवलधयनिवहभरियनहविवरो । नहविवरट्टियनेयर-परिभावियरम्मयगुणोहो ॥७९॥ रम्मयगुणोहरंजिय-पंथियकीरन्तवासपरिवंछो । कच्छो नाम जणवओ, जंबूदीवम्मि भरहद्धे गोविंदसयाणुगयो, बहुहलिओ णेगअज्जुणो जो य । एगहरिहलियअज्जुण-मवमन्नड़ भारहकहं पि. तत्थ जुवइ व्य सुविया, दिणअरमुत्ति व्य पउरपहकलिया । सुविभत्तवन्नसन्ना, पच्चक्खा सद्दविज्ज व्य ॥८२॥ 1. हिययंतो पाठां0 1 2. हितालिका = हितश्रेणिः । 3. काष्ठेष्टकोपलादिदलम् । 4.०चर पाठां । 5. यतिगृहिविषया। 6. यथा युवती संवृताङ्गोपाङ्गा भवति तथा नगरी अपि प्राकारेण सुवृता-सुरक्षिता । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८३-११२ महसेननृपवर्णनम् - नृपक्रीडावर्णनम् ॥८७॥ ॥८९॥ ॥९०॥ ॥९१॥ ॥९२॥ ॥९३॥ जा वहड़ गरुयपरिहा - सलिलाउलसालवलयपरिखित्ता ॥ जलनिहिजगईवेढिय - जंबुद्दीवस्स समसीसिं |जा निच्चपयट्टविसट्टनट्ट - कलगेयवड्ढियाऽऽणंदा । परचक्कभयविमुक्का, कयजुगलीलं विडंबेड | अइगुरुयरिद्धिवित्थरपरिगयजणदिज्जमाणदाणाए । वेसमणो वि हु मण्णे, जीए समणो व्व पडिहाइ सा हिमसेलसमुज्जल- महन्तपासायरुद्धदिसिपसरा । सिरिमाला नामेणं; अहेसि नयरी सुरपुरि व्य पउमाणणाहिं सुपओहराहिं, वियसंतकुवलयच्छीहिं । बहिया पुक्खरिणीहिं, अन्तो नारीहिं जा सहइ | बहुसाहियाओ विस्सुय - कड़कुलकलियाओ काणणालीओ । बहिया अन्तो पवराओ, जीए छज्जन्ति य सहाओ ॥ ८८ ॥ परमेक्को च्चिय दोसो, तीए पुरीए गुणालिकलियाए । खिष्पंति मग्गणा जं, परम्मुहा धम्मवंतेहि निम्मलजसोवलंभे, अत्थितं संगई य साहूसु । रागो सुयम्मि चिन्ता, निच्चं चिय धम्मकम्मम्मि | साहम्मिएसुं वच्छल्ल - या य रक्खा दुहत्तसत्तेसु । सुगुणज्जणम्मि तण्हा, निवासिणो जत्थ लोअस्स पालेड़ तं च पणमन्त - भूयमणिमउडमसिणपयपीढो । अच्चन्तपयंडपयाव - विजियसारइयदिवसयरो | तिक्खकरवालनिद्दय - निद्दारियदसिरवेरिकरिकुंभो । पुरपरिहुव्भडभुयडंड - चंडिममुसुमूरिय विपक्खो " महसेननृपवर्णनम्"रूवविणिज्जियमयणो, ससिवयणो कमलपत्तसमनयणो । अच्चंतपउरसेणो, राया नामेण महसेणो सोहग्गचायविउसत्तणेण, एगो वि णेगरूवो व्य । रामामग्गणविबुहाण, हिययगेहेसु जो चुत्थो | डिंडीरपिंडपंडुरछत-च्छन्नंतरं दिसाचक्कं । छज्जइ य विजयजत्तासु, जस्स विहियऽट्टहासं च उज्झियपरिग्गहाणं, वज्जियविसयाण भिक्खुवित्तीण । सुमुणीण व सत्तूणं, जो धम्मगुरुत्तणं पत्तो पग्गहियखग्गपसरंत, - नीलकंतिच्छडुब्भडो हत्थो । जस्स रणे उग्गयधूम, - केउसोहं समुव्यहइ तं नत्थि जं न जाणइ, स महप्पा बुद्धिपगरिसवसेण । किंतु निद्दक्खिन्नत्तं खलत्तणं पि हु न जाणेइ ॥९९॥ अच्वंतहयगयो वि हु, पउरविपत्ती वि जं स नरनाहो । बहुकरिवरपरिकिण्णो, सुहिओ वि य तं महच्छरियं ॥ १००॥ एक्को च्चिय से दोसो, जं सुगुणड्ढो वि तेण सिट्ठजणो । अकरो चाइयवसणो, अनासदंडो कओ सव्यो ॥१॥ तस्स य रन्नो मुहचंद - चंदिमाविजियकोमुइमयंका । निम्मेररूवरायन्त - चारुसिंगारससिरीया उत्तमकुलसंभूया, सुसीलयालंकिया विगयपणया । भत्ता सुगुणाऽऽसत्ता, भज्जा नामेण कणगवई ××n ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९७॥ ww રો nu | नीसेसकलाकोसल-कलिओ रूवी गुणालओ सोमो । पडिबिंबो इव रण्णो य, अहेसि पुत्तो [ 3 ] जयसेणो ॥४॥ | सुविसुद्धबुद्धिपगरिस - निच्छियनीसेससंसयत्थेसु । नयगब्भमहत्थपसत्य - सत्थपरिभावणपरेसु ॥५॥ | संधिविग्गहजाणाऽऽसणाइ - गुणछक्कपणिहियमणेसु । नियसामिकज्जसाहण - बहुमण्णियजीवियव्येसु F | अवरोप्परगाढपरूढ-पणयपरिचत्तविण्ओगेसु । सुकईसु व अपुव्यत्थ - चिंतणच्छिन्नछे ॥७॥ ॥८॥ मंतीसु धणंजयजय - सुबंधुपमुहेसु विस्सुयजसेसु । आरोवियरज्जभरो सो य णिवो कीलइ जहिच्छं तहाहि“नृपक्रीडावर्णनम्” |कयाइ मंजुगुजिउब्भडप्पडंतनेउरं, विसंठुलुच्छलंततारहारलट्ठकंठियं; | अवंगहारतुट्टदीहकंचिदामसुत्तयं, विचित्तयं पलोयए पणंगणाण नट्टयं | कयाइ गाढरुट्ठट्ठमत्तहत्थिकंधरं समारुहितु पाणिपल्लवेण धारिअंकुसो । सलीलमाययप्पहेसु काणणेसु कीलिउं जणोवरोहकायरो समन्दिरे नियत्तए |कयाइ भूरिचंचरीयपिज्जमाणदाणयं, गयिंदमंडलिं सुवेगयं तुरंगवग्गयं । | विसिट्ठमट्ठकट्ठसिट्ठयं सुसंदणुक्करं पगिट्ठलद्धसासए महाभडे य पेच्छए - | कयाइ पुण्णपावबन्धमोक्खजुत्तिजुत्तयं, अणेगभंगसंगयं भवस्सरूवसूयगं । निरंतरं तदत्थदिन्नचित्तउ सविम्हयं, असेसदोसनासयं निसामए य आगमं ॥८३॥ ॥८४॥ ॥८५॥ ॥८६॥ ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ 1. धर्मवदिभः मार्गणाः = याचकाः पराङ्मुखाः क्षिप्यन्ते इति विरोधो भासते अपि तु धर्मवद्भिः धनुर्वद्भिः मार्गणाः = बाणाः पराङ्मुखाः क्षिप्यन्ते इत्यर्थग्रहणेन विरोधपरिहारो भवति । 2. निधारियदरिय ताडपत्रीय प्रत में पाठान्तर है। 3. अंगयहारनुत्तदीहकंचिदामसुत्तयं पाठां० । ताडपत्रियप्रतमें 'रयंगहार' पाठांतर है। 4. प्रकृष्टलब्धस्वाशयान् । 4 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ११३-१४८ इय पुव्यभवज्जियभूरि- पुन्नपब्भारपुण्णवंछस्स । वोलेंति वासरा तस्स राइणो विविहकीलाहिं "पुरुषागमनम्” अह अन्नया कयाई, अत्थाणीमंडवे निसन्नस्स । सव्वेयरतरुणीधुव्व - माणसियचारुचमरस्स | दूरदिसागयसामंत- मंडलीपणयचलणकमलस्स । अन्नन्नसेवगजणे, सणियं पक्खित्तचक्खुस्स | कंपिरतणुणा सियसिररुहेण, सक्खा जरापणिहिण व्व । कंचुइणा संलतं, सिग्धं उवसप्पिऊणेवं जयउ जयउ देवो, माणमीलंतरामा -मुहकुमुयमयंको, सोक्खवल्लीण कंदो । कुवलयदलदीह-रच्छीलच्छीए लीला - लसभुयपरिसतो सव्वसंपत्तिजुत्तो पुरुषागमनम् . ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥३२॥ विन्नवणिज्जमिमं पहु ! पडिहयपडियक्खलक्ख ! अम्हाणं । अंतेउरट्ठियाणं, सव्वत्तो दिन्नदिट्ठीगं | परपुरिसपलोयणवाउलाण, कत्तो वि झत्ति संपत्तो । वणवारणो व्व एगो, पुरिसो अनिवारणो भीमो विसो व्व खग्गधेणूए, संगतो गिरिवरो व्य गरुयं गो । उब्भडभुयदंडुब्बद्ध - वीरवलओ अयुद्धमणो कणगवईए देवीए वासभवणम्मि णिययगेहे व्व । नाहो व्व सो पविट्ठो, अवगन्नियकंचुड़समूहो णिसियऽग्गखग्गधाया वि, तत्थ न कमंति यज्जथंभे व्व । दप्पुब्भडा वि सुहडा, तम्मुहपवणेण निवडन्ति ॥२२॥ करुणाए च्चिय मन्ने, न पहरियं तेण अम्ह पुरिसाणं । अन्नह कयन्तकप्पस्स, तस्स कत्तो भवे खलणा ॥२३॥ अस्सुयमदिट्ठपुव्यं, इय एरिसकज्जमिन्हिमावडियं । एतो उयरिं देवो, आइसइ जयं तयं कुणिमो इय सोच्या कोयभरुब्भवन्त - भालयलभिउडिभीमेण । पुणरुतफुरुफुरन्ता - हरेण तंडवियभमुहेण सामंतसुहडसेणावईसु, निव्यडियपुरिसयारेसु । नवकुवलयदलदीहा, चक्खू खित्ता महीवड़णा अह तं कयंतजणणिं व भीसणं पेच्छिऊण सामंता । संखोहवसा जाया, चित्ताऽऽलिहिय व्व सव्ये वि ॥२७॥ सेणावइसुहडेहि वि, तव्यइयरसवणचत्तमाणेहिं । सुस्समणेहि व संली - णयाए दिण्णं मणो झत्ति ૫રા राया वि सहं सुण्णं व, पेच्छिउं पाणिकलियकरवालो । धी सेवगाहमा ! विफल-विहियपोरिसफडाडोवा ॥२९॥ अवसरह तुरियमेत्तो, चक्खुप्पसराउ इय पयंपतो । आबद्धपरियरो लहु, नीहरिओ रामभवणातो | अह चंडचवलमंगल - विस्संभरपमुह अंगरक्खेहिं । भालयलघडियकरसं - पुडेहिं भत्तीए विण्णत्तो | देव पसीयह वियरह, आएसं अम्ह एत्थ पत्थावे । विरमह सयं न जुत्तो, पढमं चिय पत्थणाभंगो | जइ वि सयं न नियत्तह, खणमेक्कं तह वि पेच्छगा होह । चक्खुक्खेवा हि पहूण, हुन्ति पारद्धविग्घहरा ॥३३॥ | इय सविणयप्पयंपिय-सवणमणागोवसन्तपरिकोवो । दरकंपियाए दिट्ठीए, पत्थियो तेऽणुमन्नेइ तो चायकुंतकरवाल- भल्लिसेल्लाइपहरणसमेया । निव्विवरवम्मभूसिय-तणुणो चंडाइणो चलिया पत्ता य कमेणंते - उरंमि दिट्ठो य तत्थ सो पुरिसो । आसीणो सेज्जाए, देवीए समं ततो भणिओ | रे रे पुरिसाऽहम! सामि - सालमहिलं मलिच्छसमसील । कामिंतो तुममिन्हिं, पड़ससि कीणासवयणम्मि ॥३७॥ | नियदुच्चरिएण वि तुह, हयरस्स, जड़ वि हु न पहरिडं जुतं । तह वि हु नियपहुचित्ताणु - वित्तिओ हम्मसि निरुतं ॥ ३८ ॥ नवरं एव ठिए वि हु, खामेसु नराहिवं विणयपणओ । जड़ जीवियं समीहसि, अहवा सवडंमुहो होसु ॥३९॥ मुंचसु भवणऽव्भन्तर - मुवदंससु पोरिसं खणं एक्कं । जावऽज्जवि निवडइ नो, कयन्तदिट्ठि व्य बाणाऽऽली ॥४०॥ | इय जंपिऊण अच्चन्त - मच्छरुच्छाहभूरिसंरंभा । जाय न ते पहरंति, वज्जरियं ताव तेण इमं |हंहो बालिसरुवा ! खरनहरविभिन्नकुंभिकुम्भस्स । किं कीरड़ केसरिणो, कुविएण वि हरिणनिवहेण किंवा उब्भडतंडविय- चंडमणिफारफणकडप्पेण । विहगाहिवस्स कीरइ, रुसिएण वि भुयगवग्गेण ता मुयह विहलसंरंभ - निब्भरं पहरणप्फडाडोवं । सामत्थाणणुरूवो हि, विक्कमो होइ मरणाय जं च नियसामिभज्जं, कामिज्जंतं पलोइउं तुब्भे । असमंजसं पयंपह, एवं पि विमूढयाए फलं नियसामत्थेण जओ, तग्गिहिणीए मए पवन्नाए । सामित्तमवक्कतं, दूरे च्चिय तुम्ह नरवइणो एवं च उववइत्तण- दोसो वि हु मज्झ विज्जइ न को वि । तुम्हारिसाण वि पुरो, एवं इह आवसंतस्स ॥४७॥ अह बाढममरिसो भे, को वारइ मम तणुम्मि पहरेह । किंतु न सो एस जणो, सत्थगणो पक्कमति जत्थ॥४८॥ ॥३४॥ ॥३५॥ સદ્દો . ॥४४॥ ॥४५॥ ॥४६॥ 1. वृषः - कृष्णः । 5 ॥३०॥ ॥३१॥ ॥४१॥ જા "જો Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १४६-१८६ पुरुषागमनम् इय जंपियावसाणे, उग्गीरियपहरणा दढं कुविया । ते नावडंति जा ताव, थंभिया तेण पुरिसेण ॥४९॥ | अह वज्जलेवघडिय व्य, पत्थरुक्कीरिय व्व सव्वे वि । जाया निच्चलतणुणो, सो पुण कीलितु खणमेगं ॥५०॥ कणगवई 'पाणीए, गहिऊणं पट्टिओ अयुद्धमणो । मुणितो य इमो सव्यो, युत्ततो भूमिनाहेण ॥५१॥ तो तेण चिंतियमिमं किं कोई इमो सुरो व्य खयरो व्य । होज्ज व विज्जासिद्धो, एवंविहसत्तिसंजुत्तो ॥५२॥ जइ ताव सुरो किं तस्स, माणुसीए इमीए किर कज्जं । अह खयरो सो वि न भूमि - गोयरिं नूण वंछेज्जा ॥५३॥ | विज्जासिद्धो वि विसिट्ठ - रूवपायालजुवइपमुहासु । संतीसु दिव्यनारीसु, कह इमं अणुसरेज्ज धुवं ॥५४॥ अहवा पासविसप्पिर - कयन्तवसजायधाउखोहस्स । कस्स न कस्स व हिययं, काउमकज्जं अभिलसेज्जा ॥५५॥ किं वा इमिणा सो को वि, होउ जुज्जइ न संपयमुवेहा । भज्जंपि अरक्खन्तो, कह रक्खिस्सामि महिवलयं ॥५६॥ देसंतरेसु वि इमो, मज्झ कलंको चिरं पवित्थरिही । एतो च्चिय रामो वि हु, सीयाए कए गओ लंकं ॥५७॥ ता जावज्जवि णो दूर - देसमणुसरइ सो दुरायारो । ताव सयमेव गंतूण, तं अणज्जं निगिण्हामि ॥५८॥ थंभणपमुहं चिरसिक्खियं च, विज्जाबलं परिक्खामि । इति चिंतिय कड़वयसुहड-संगओ पट्ठिओ राया ॥५९॥ अह भूमिवई मुणिउं चलियं, चलिओद्धरसिन्धुरभीमयरं । मयराइधयाउलभूसिरहं, रहसुब्भडसेवगरुद्धदिसं ॥६०॥ दिसिचक्कपवट्टतुरंगगणं, गणनायकदण्डवईहिं जुयं । जुवईजणकायरखोभकरं, करहोहपरोवियवक्वरयं रयजाणवसुक्खयखोणिरयं, रयणुब्भडभूसणवित्थरियं । छुरियाइमहाउहदिन्नभयं भयकंपिरबालयचत्तपहं पहसंतपढंतसुमागहयं, हयहेसियतासि असिंखलयं । लयणग्गगयं गिहिसच्चवियं, वियसन्तमहाभडलोयणयं ॥६३॥ नगरीउ बहुं चउरंगबलं बलवन्तविपक्खखएक्कसहं । सहसच्चिय पावियभूरिमहं, महसेणणुमग्गिण नीहरियं ॥६४॥ अह तेण समग्गेण वि, परियरिओ पवरतुरगमारुढो । ऊसियसियायवत्तो, राया जा जाइ थेवपहं ताव पुरिसेण तेणं, दरदलियकयोलमीसि हसिऊणं । नरनाहं मोत्तूणं, थंभियमवरं बलं सयलं राया वि चित्तलिहियं व, पेच्छिउं तं समग्गमवि सेन्नं । परिचिन्तिउं पवत्तो, अच्चन्तं विम्हयाउलिओ अहह ! महापायो कह, एवंविहमंतसत्तिसंजुत्तो | कह वा विबुहनिसिद्धं, अकज्जमेयं विहं कुणड़ मन्ने एरिसग च्चिय, ते वि हु थंभाइकारिणो मंता । तेणन्नोन्नाणुगमो, समसीलत्तेण जाओ सिं अहवा किमणेण विचिंतिएण, सुमरामि थंभणि विज्जं । एयस्स थंभणट्ठा, चिरपढियं सुगुरुमूलम्मि तो सव्यंगनिवेसिय- रक्खामंतक्खरोऽनिलनिरोहं । काउं नासापेरंत - निमियथिरलोयणंबुरुहो | पउममयरंदसंदोह - सुंदरुद्दामपसरियमऊहं । थंभणकरपरमक्खर - मारद्धो सुमरिउं राया अह खणमेत्तंमि गए, तत्तोहुत्तं पलोयए जाव । दरपहसिरेण तेणं, पजंपियं ताव पुरिसेण ॥६९॥ ॥६२॥ ॥६५॥ ॥६६॥ ॥७५॥ एक्कं ॥७६॥ ॥७७॥ ॥७८॥ ॥७९॥ हे नरवर! जीव चिरं, पुव्वं मंदा गई ममं हुंता । तुह थंभणविज्जाए, संपइ पवणोवमा जाया ता जड़ कज्जं भज्जाए, अत्थि एज्जाहि सिग्घयेगेण । इय सो पयंपमाणो, तुरियं गंतुं पयट्टो त्ति अहह कहं चिरसिक्खिय-विज्जा वि हु विहलिया ममेयाणिं । विहलिज्जउ अहव परं, मोत्तूण परक्कम इय चिंतिऊण राया, अविचलचित्तो पवड्ढिउच्छाहो । खग्गसहाओ सहसा, लग्गो तस्साणुमग्गेण एसो वच्चइ राया, एसा देवी इमो य सो पुरिसो । इय जंपिरे जणम्मि, ताणि गयाई सुदूरपहं | पइसमयकसाहयतरल-तुरयलहुभूरिलंघियद्वाणो । थेवंतरेण राया, जाव न तं पावइ मणुस्सं ताय निरब्भा विज्जु व्य, झति देवी अदंसणीभूया । सो वि य पुरिसो थाणु व्य, निच्चलो संठिओ समुहो ॥८०॥ |एगागिणं च तं पेच्छि-ऊण भूमीवई विचिंतेइ । किं सुमिणमिमं माया व, होज्ज दिट्ठीए बंधो वा ॥८१॥ | अहवा किमणेण विगप्पिएण, इममेव ताव पुच्छामि । अमुणियसीले पुरिसे, पहरिउमवि जुज्जइ न जम्हा ॥८२॥ तो भणियमणेण सविम्हएण, भो भो अणन्तसामत्थ! भज्जा न केवलं चिय, हरिया तुमए मम मणं पि ॥ ८३ ॥ ता कहसु को तुमं ? किं, तए कुलं मण्डियं मलिणियं ? च । एरिसमाहप्पेणं, अकज्जकरणेण य इमेणं ॥ ८४ ॥ | तेणावि ईसि हसिऊण, जंपियं भो नरिंद! सच्चमिणं । विहियं उभयं पि मए, कुलमइलणमेक्कमेव तए ॥ ८५ ॥ नियगिहिणि पि हु नीसेस -नयरलोगस्स पेच्छमाणस्स । अवगणियावजसेणं, अरक्खमाणेण हीरन्तिं મો 1. यद्यपि 'पाणिं मि' इति प्रयोगो भवेत्, तथापि आर्षत्वात् स्त्रीलिङ्गे सप्तमी - एकवचनम् । ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ 6 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १८७-२२१ नृपपश्चात्तापः - पूर्वभववर्णनम् . इय गुरुयकुलकलंकं, न पेच्छसि अप्पणो तुम मुद्ध! । मह पुण पोरिसवित्तिं पि, दोसपक्खम्मि पक्खियसि ॥८७॥ अहवा पदोसपलोयणंमि, जायइ जणो सहस्सक्खो । जच्वंधो व न पेच्छइ, गिरिवरगुरुए वि नियदोसे ॥८८॥ एवंविहेण तुमए, तह कह वि हु मइलियं कुलं सयलं । यह विमलिज्जड़ नो सुक्य-जलहरासारवरिसे वि ॥८९॥ निस्सामन्नपरिक्कम-रहियाणं भद्द! तुज्झ सरिसाणं । नामुक्कित्तणमेतं, युच्चइ भूमीवइत्तं पि ॥०॥ को या इह तुह दोसो, ते अवरज्झंति इत्थ चिरपुरिसा । असमत्थं पि तुम जे, भूमीपालं पटुंति ॥१॥ को वा तेसिं दोसो, नरिंद! तुम्हारिसाण कुमईणं । एस च्चिय होइ गई, विसयव्यामोहियमणाणं । ॥९२॥ इय सोच्चा नरनाहो, लज्जामउलंतनयणसरसिरुहो । परिभाविउं पचत्तो, पओससमउ व्य विच्छाओ ॥३॥ "नृपपश्चात्तापः" - थी मज्झ जीवियं पोरिसं च, बलबुद्धिपगरिसत्तं च । जेण मए वयणिज्जं, उवणीया पुव्यपुरिसा वि ॥१४॥ अप्पा न केवलो च्चिय, लहुयत्तं लंभिओ अधन्नेण । लहुईकया महन्तो, सिक्खागुरुणो वि भयवन्तो ॥१५॥ किं जाएण वि तेणं? जाएण वि जीविएण किं तेण? । नियपुव्यपुरिसलाघव-लेसंमि वि जो पयट्टेज्जा ॥१६॥ सच्वं च विसयमोहिय-मईणमिच्चाइ जं भणियममुणा । कहमन्नहमेवंविह-विडंबणा मज्झ जाएज्जा? ॥१७॥ तहाहिसत्थस्साविसओऽयं, न मंततंतेसु कुसलया अत्थि । उज्जोगिणो वि मज्झं, किं बलमेत्तो परं होही ॥९८॥ एवं च संपयं इह, तावसदिक्खा निसेविउं जुता । कह दंसिस्सामि मुहं, नियत्तिउं नयरिलोयस्स ॥१९॥ इय गरुयविसायपिसाय-याउलिज्जन्तमाणसो राया । जा मुयइ नेव खग्गं, ता गहियो तेण हत्थम्मि ॥२०॥ भणिओ य महायस! मुयसु, सोगमित्तो कयं विचित्तेणं । परिहासेणं माइंद-जालमेयं न परमत्थो ॥१॥ |तहाहि “पुरुषवक्तव्यम्-पूर्वभववर्णनम्" - नाहं पुरिसो न य मज्झ, तुज्झ दइयाए कज्जमवि किं पि । न य सामन्नपरिक्कम-विक्कंतो होसि तं राय! ॥२॥ किंतु इय वइयरेणं, तियसो हं पढमदेवलोगाओ । तुज्झ पडिबोहणत्थं, पुव्वप्पणएण 'आओ म्हि ॥३॥ किं या मित्त! न सुमरसि, जमुणानइपरिसरम्मि पुव्वभवे । जं आसि तुमं हत्थी, बहुलक्खणसंगयसरीरो ॥४॥ |सत्तंगपरिद्राणो, महानरिन्दो व्य विसयपडिबद्धो । पवहन्तदाणपसरो, सरोसपडिदन्तिभंगकरो। ॥५॥ बहुकरिकुलपरियरिओ, वियरन्तो तेसु तेसु ठाणेसु । करिपिसियलालसेहिं, सबरजुवाणेहिं, दिट्टो सि ॥६॥ तो तेहिं वारिबंधण-पमुहोवाएहिं सरपहारेहिं । परिवारब्भूयं तुह, विणासियं गयकुलमसेसं अपमत्तयाए गइकोसलेण, दुराउ परिहरन्तेण । तुमए तेसिमवाए, चिरकालं रक्खिओ अप्पा अह अन्नया कयाई, सलिलोयारम्मि तुज्झ गहणत्थं । तेहिं खड्डा खणिउं, उवरि छइया तणाईहिं ॥९॥ खित्ता तदुवरि धूली, तह जह भूमीए सा समा जाया । तो तरुगहणनिलुक्का, पलोइउं ते पवत्त ति ॥१०॥ तुममवि असंकियमणो, पुव्यपवाहेण पाणियं पाउं । इंतो धस ति पडिओ, तीए खड्डाए विवसंगो ॥११॥ अइपंडिओ सि चिरजीविओ सि, रे! इण्हिं कत्थ वच्चिहिसि । इय कलकलं करता, सबरजुवाणा य संपत्ता ॥१२॥ तो तेहिं निद्दयं दारि-ऊण कुम्भत्थलाउ थूलाइं। मोत्ताहलाई गहियाई, जीयमाणस्स 4दसणा य ॥१३॥ अह तिक्खयेयणापबल-जलणजालाकलावसंतत्तो । जीवित्ता खणमेगं, झत्ति तुम मरणमणुपत्तो ॥१४॥ उववन्नो य नईए, गंगाए परिसरम्मि सारंगो । तत्थ वि बालो वि तुमं, सजूहनाहेण हणिओ सि ॥१५॥ तत्तो मगहाविसए, सालिग्गामम्मि सोमदत्तस्स । विप्पस्स सुओ जाओ, नामेणं बंधुदत्तो ति ॥१६॥ बंभणजणपाओग्गो, कलाकलायो य अहिगओ तुमए । जागविहिपरमकुसल-तणेण लद्धा पसिद्धी य ॥१७॥ कीरंति जत्थ कत्थ वि, सग्गत्थं अहब रोगसमणत्थं । जागा तेसु य पढम, तं निज्जसि पउरलोगेण ॥१८॥ कहसि य जागस्स विहिं, पयट्टसे विविहपावठाणाई । अगणियपरलोयभओ, हुणसि सहत्थेण छागे य ॥१९॥ एवं वच्चंतेसुं, दिणेसु एगम्मि अवसरे रन्ना । पारम्भिओ महन्तो, तुरंगमेहो महाजागो ॥२०॥ आहूओ तत्थ तुमं, रन्ना सक्कारिओ य भत्तीए । पगुणीकया य अस्सा, सुलक्खणा जागकज्जेणं ॥२१॥ 1. आगतः । 2. सलिलावतारे । 3. मुक्ताफलानि । 4. दन्तौ । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २२२-२५६ पूर्वभववर्णनम् ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ अभिमंतिया य तुमए, वेयपसिद्धेण ते विहाणेण । एत्थन्तरंमि तारिस- जागविहिं पेच्छमाणस्स | कत्थवि दिट्ठ एवंविहं ति, ईहाइणो करेंतस्स । जायं जाइस्सरणं, एक्कस्स तुरंगपोयस्स दिट्ठं च पुव्यजम्मे, जागविहिवियक्खणेण हुंतेण । जं हुणिया भयविहुरा, बहुसो वि गवाइणो तेण दट्ठूण वइयरमिमं ताहे परिचिन्तियं भयत्तेण । धम्मच्छलेण पावं, अहो कहं उयचिणन्ति जणा साहंति य मुद्धाणं, जागे निहया वयंति सग्गंमि । तिप्पिज्जंति य तियसा, जलणम्मि हुणिज्जमाणम्मि ॥२६॥ न मुणंति इमं पाया, जइ जागहया वयन्ति सग्गम्मि । सग्गाभिलासिणो सयण-बंधुणो ता वरं हुणिया ॥२७॥ अहवा पयंडपासंड-कूडपडियस्स मुद्धलोयस्स । को दोसो अवरज्झति, एत्थ वेइयउवज्झाया ता एयं पाविट्ठ, सुदुट्ठचेट्ठ हणामि उवझायं । जइ पुण जियन्ति एए, जागनिमित्तागया तुरया इय चिंतिऊण तेणं, वच्छयले खरखुरप्पहारेणं । तह पहओ सज्ज तुमं, जह मुक्को जीवियव्येण पवियंभियपाणिवहा - भिलासवससंविढत्तपायेणं । घडियालए य जातो, नेरइओ पढमनरयम्मि छव्विहपज्जत्तीए, पयडसरीरो मुहुत्तमज्झम्मि । जा चिट्ठसि ताव लहुं, पकुणन्ता किलकिलारावं परमाहम्मिय - असुरा, अच्चन्तं निद्दया महाकूरा । बीभच्छा भयजणगा, समागया तत्थ ठाणम्मि दुक्खं वज्जघडीए, किं रे चिट्ठसि विणिस्सरसु बाहिं । इइ जंपिऊण वज्जं -कुसेहिं कड्ढिन्ति तुह देहं ॥३४॥ तत्तो निसियाए कप्पणीए, कम्पन्ति सुहुमखंडेहिं । अंगं करुणसरेणं, तुह विरसं आरसंतस्स ॥३५॥ अइसहुमखंडिए वि हु, पुणो वि मिलिए तणुम्मि सूए व्व । भयविहुरो नासन्तो, घेप्पसि तेहिं तुमं सहसा ॥३६॥ तो वज्जकुंभियाए, हेट्ठा पज्जलियतिव्यजलणाए । पक्खिप्पसि पागत्थं, अणिच्छमाणो हढेण तुमं तत्थ य अच्चतं दज्झ - माणदेहो तिसाए अभिभूओ । वाहरसि विरससद्दं, तेसिं पुरतो तुमं एवं तुम्भे जणणीजणगा, भाया सयणा य बंधवा पहुणो । सरणं ताणं तुज्झे, तुब्भे च्चिय देवया मज्झ ता मुयह खणं एक्कं, पायह सलिलं पसीयह इयाणि । इय भणिए हिट्ठमणा, ते महुरगिराए जंपंति ॥४०॥ रे! वज्जकुंभियामज्झ-भागओ कड्दिउं वरागमिमं । पाएह वारि सिसिरं, तहत्ति पडिवज्जिउं अवरे तत्ततउतंबसीसय- रसभरियं भायणं गहेऊणं । सिसिरं ति पयंपंता, पायन्ति तुमं महापाया ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३७॥ ॥३८॥ ॥३९॥ ॥४१॥ ॥४४॥ ॥४६॥ ॥જો अह तेण जलणतुल्लेण, दज्झमाणस्स वलियगीवस्स । तुज्झ अणिच्छन्तस्स वि, भेत्तुं संडासएण मुहं निसिरंति तमाकंठं, तो तेण कढिज्जमाणसव्यंगो । मुच्छानिमीलियच्छो, धस ति णिवडसि महीवीदे खणलद्धचेयणो असि - वणम्मि सिसिरं ति जायसंकप्पो । वच्चसि तत्थ वि छिज्जसि, पयंडतरुपत्तखग्गेहिं ॥४५॥ तत्तो पुणो वि तेहिं, रंगतरंगभंगुरावत्ते । वेयरणीनइनीरे, खिप्पसि पज्जलियजलणाभे तत्थ वि विज्जुड्डामर - महल्लकल्लोलपेल्लणवसेण । उब्बुड्डणबुड्डणचलण - खलणवाउलियसव्वंगो जरतरुदलं व कहवि हु, तीए किलेसेण पत्तपरतीरो । अच्छंतो असुरेहिं, घेत्तूणं हरिसियंगेहिं जोत्तिज्जसि वसभो इव, रहम्मि अच्चन्तभुरिभारम्मि । विज्झसि पइक्खणं कुंत तिक्खधाराए आराए अह तत्थ परिस्सन्तो, जा गंतुं नेव सक्कसि कहिं पि । ता उग्गमोग्गरेहिं, चूरिज्जसि तं महाभाग ! अप्फालिज्जसि वियडे, सिलायले भिज्जसे य कुन्तेहिं । छिज्जसि करवत्तेहिं, पीलिज्जसि चित्तजंतेसु अप्फालिज्जसि वियडे - मंसखण्डाई जलणपक्काई । ताडिज्जसि पुणरुतं, विचित्तदंडप्पहारेहिं ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५४॥ ॥५५॥ | असुरविउब्वियगरुयंग-पक्खि अइतिक्खनक्खचंचूहिं । पहणिज्जसि करुणसरं, रुयमाणो उड्ढकयबाहू इय नरयउब्भवदुहं, अणुभूयं जं तए नरवरिंद! । तं सव्वं परिकहिउं, जयपहुणो च्चिय तरन्ति परं एवं सागरमेगं निवसित्ता भीसणम्मि नरयम्भि । दुखाइं असंखाई, विसहिय तत्तो मओ सन्तो तुममुववन्नो भरहे, नयरे रायग्गिहम्मि रोरकुले । पुत्तत्तणेण तत्थ वि, अणेगरोगाउलसरीरो | समयाणुरुवभोयण - रोगपडीयारसयणपरिहीणो । अच्चन्तं दीणमणो, भिक्खावित्तीए जीवन्तो तरुणतं संपत्तो, तत्थ वि अच्चन्तदुक्खिओ सन्तो । परिचिंतिउं पवत्तो, धी धी मह जीविअव्यस्स जं सरिसे वि हु मणुअत्तणम्मि, तुल्ले अ इंदिअग्गामे । भिक्खाए जियामि अहं, इमे अ धन्ना पविलसन्ति ॥५९॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५८॥ 1. सद्यः शीघ्रम्, सज्ज स्थानके भट्ट ! पाठांतर । ॥४२॥ ॥४३॥ 8 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २६०-२६६ पूर्वभववर्णनम् ॥६२॥ ॥६७॥ ॥६८॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ एगे वहन्ति सोगं, अज्ज न अम्हेहिं किंपि दिन्नं ति । अज्ज न किं पि हु लद्धं, अहं तु एवं किलिस्सामि ॥ ६० ॥ छड्डिज्जइ धम्मकए, एगेहिं समुद्धरा वि नियरिद्धी । बहुठाणजज्जरं पि हु, न चइज्जड़ कप्परं पि मए ॥ ६१ ॥ एगे खियन्ति चक्युं सन्तीसु वि नेव पवरतरुणीसु । संकप्पोवगयासु वि, अहं तु तोसं परिवहामि जच्चकणगच्छविं पि हु, एगे जंपंति असुइयं देहं । रोगसयविहुरियं अप्प - णो य तमहं तु सलहेमि કો जय जीव नन्द एवं एगे थुव्यन्ति मागहजणेण । अक्कोसिज्जामि अहं तु निन्निमित्तं पि भिक्खमओ ॥६४॥ परुसं पि पयंपन्ता, जगन्ति एगे जणाण परितोसं । आसीसाउ दिन्तो वि, अद्धचंदं लहामि अहं ॥६५॥ इय पउरपावणिहिणो, निहीणचिट्ठस्स रोगविहुरस्स । पव्वज्ज च्चिय उचिया, जम्हा तीए वि किच्चमिणं ॥ ६६ ॥ मलमलिणसरीरतं, भिक्खावित्तीय भूमिसयणं च । परवसहीसु निवासो, सया वि सीउण्हसहणं च निक्किंचणया खन्ती, परपीडावज्जणं किसतणुत्तं । जम्मसमणन्तरं चिय, एयं तु सहावसिद्धं मे एयं च कुणइ सोहं परमं लिंगिस्स न उ गिहत्थस्स । अणुरूवट्ठाणगया, सच्चं दोसा वि होन्ति गुणा ॥६९॥ इय चिन्तिऊण तुमए, परमं वेरग्गमुव्यहन्तेण । गहिया तावसदिक्खा, कयं च दुक्करतवच्चरणं अह पज्जन्ते मरिउं, जंबुद्दीयंमि भारहे वासे । वेयड्ढम्मि गिरिवरे, रहनेउरचक्कवालपुरे चण्डगइनामधेयस्स, पवरविज्जाहरस्स भज्जाए । विज्जुमईए गब्मे, पाउब्भुओ सुयत्तेण उचियसमए पसूओ, कयमभिहाणं च कुलिसयेगो ति । अच्चन्तसुरुवतणू, कुमारभावं समणुपत्तो | सिक्सविओ सयलकला - कलायकोसल्लमप्पकालेण । नहगमणप्पमुहाओ, विज्जाओ वि हु अणेगाओ अह जणनयणाणन्दं, मणस्सिणीमाणकुमुयमायंडं । तरुणत्तणमणुपत्तो, रेहसि मयरद्धओ व्य तुमं समवयमित्ताणुगतो, गउ व्य तियचच्चरेसु सरसीसु । निस्संक्कं भमसि पुरे, पउरेसुं काणणेसुं पि अह अन्नया कयाई, तुमए 'ओलोयणट्ठिया दिट्ठा | हेमप्पहविज्जाहर-धुया सुरसुंदरीणामा तीसे य जोव्यणेणं, लायण्णेणं च रूवविहवेणं । सोहग्गेण य हिययं सुहय! तुहायड्ढयं दूरं तीए वि हु तुह दंसणवसेण, वियसन्तणयणकमलाए । कुसुमाउहो वि वज्जा - उहो व्य मयणो पवित्थरिओ ॥७९॥ नवरं समीवसंठिय-सहीण लज्जाए रुंभियवियारा । नीलुप्पलमुवदंसइ, सा तुह अग्घायणमिसेण कसिणाए रयणीए संकेओ सूइओ इमीए त्ति । हरिसभरनिब्भरंगो, तुमं गतो णिययभवणंमि तो कयदिणकायच्यो, णियणियगेहेसु पेसियवयस्सो । खग्गसचिवो निसीहे, नीहरिओ णिययगेहातो केण वि अमुणिज्जन्तो, तेणेवोलोयणेण सणियपयं । पविसित्ता सेज्जाए, तीए समीये निसन्नो सि सो एस दिवसदिट्ठो, पवरजुवाणो त्ति जायहरिसाए । नियदइयणिव्विसेसा, तुज्झ क्या तीए पडिवत्ती ॥८४॥ अह अवरोप्परसविलास - वयणगोट्ठीए गमिय खणमेगं । तुमए भणियं हे सुयणु !, विसरिसं दीसइ तुहेमं ॥८५॥ तहाहि ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ ॥७६॥ ॥७७॥ ॥७८॥ ॥८०॥ ॥८१॥ ૫૫ ૫૮૫ ॥८६॥ ॥८७॥ ॥८८॥ ॥८९॥ ॥९०॥ ॥९१॥ ॥९२॥ ॥९३॥ तं णत्थि ओसहं नत्थि, सो मणी सा न विज्जए विज्जा । 4 विज्जा वि नत्थि ते जे, न तत्थ वावारिया पिउणा ॥ ९४ ॥ ॥ | पम्मुक्कपाणभोयण - ण्हाणविलेवणपमोक्खकायव्वो । सोगभरगब्भिरगिरो, रुयइ य पासट्ठिओ सयणो जणणी वि से अविच्छिन्न-सोगवसनिस्सरन्तनयणजला । नज्जइ दिट्ठिजुगोइन्न-सिन्धुगंगापवाह व्य ॥९५॥ ॥९६॥ 1. गवाक्षेस्थिता । 2. केशचयः । 3. कटाह । 4. वैद्याः । | कह पहसियससिजोण्हा - देहसिरी कह व भुयगभीमोऽयं । रेहड़ 2 चिहुरचओ तुह, वेणीबंधेण संजमिओ | कह लक्खणेहिं लक्खि-ज्जसे तुमं विज्जमाणनाह व्व । अप्पत्तपणइसंगम - सुहं च कह नज्जइ सरीरं ता कहसु सुयणु ! परमत्थं किं सो पई तए चत्तो | अहवा चत्ता सि तुमं, अन्नासत्तेण तेणेव अह तीए थेवमउलिय- लोयणनलिणाए जंपियं एयं । हे सुहय! सुणसु एत्थं, परमत्थं विसरिसत्तम्मि आरुढजोव्यणा हं, इहेव विज्जाहरिंदपुत्तेणं । कणगप्पहनामेणं, उब्बूढा गाढपणएणं परिणयणाणंतरमवि, मह दोसा वेयणीयवसओ वा । दाहज्जरेण गहिओ, स महप्पा जलणतुल्लेण तो उब्वेल्लइ कंपइ, दीहं नीससइ विरसमारसइ । सिहितावियलोह' कवल्लि - मज्झखित्तो व्य अणवरयं पारद्धा य अणेगे, तप्पिउणा रोगपसमणनिमित्तं । विविहोसहप्पओगा, परिचत्तासेसकज्जेणं 9 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २६७-३३४ पूर्वभववर्णनम् तप्पणइजणो वि दढं, तम्मइ निम्मायपेमसव्वस्सो । तिव्ववणहव्यवाहोव-दद्धखाणु ब्व विच्छाओ ॥९७॥ इय तस्स आवयाए, विमणुम्मणयम्मि नयरिलोयम्मि । कीरन्तेसु य विविहेसु, देवउवजाइयसएसु ९८॥ अवि अहिययरं बुडिंढ, बच्चंते पड़खणं पि दाहजरे । पम्मुक्कजीवियासे, नियत्तमाणम्मि वेज्जगणे ॥९॥ तेण परिचिन्तियमिमं, अहो न केणइ कहंपि साहारो । कीरड़ विहुरावडियस्स, थेवमेत्तं पि जीवस्स ॥३०॥ अइवच्छला वि निद्धा वि, बंधवा जणणिजणगसहियावि । आवयकूवावडियं तडट्ठिया, आवयकुवावडियं चेव सोयंति॥१॥ थेवं पि जत्थ जायइ, जियस्स कत्तो वि नो परित्ताणं । तत्थवि वसंति लोगा, अहो महं मोहमाहप्पं ॥२॥ जड़ कह वि य दाहजरो, ममं इमो उसमेज्ज थेपि । ता उज्झियसयणधणो, जिणदिक्खं अणुसरामि ति ॥३॥ अह विहिवसेण दिव्यो-सहाइविरहे वि सो णिरायंको । जाओ संतो सयणे, मोयाविय बहुपयारेहिं ॥४॥ पवज्जं पडिवन्नो, गुणसागरसूरिणो सयासंमि । छट्ठट्ठमाइदुक्कर-तवचरणपरो य विहरित्था ॥५॥ इय भो महायस! तए, मह विसरिसरुवयं समुद्दिस्स । पुढें जं तं सिटुं, सव्वं पि मए जहावित्तं ોદી | एवं सोच्चा महसेण-राय! तुमए विचिंतियं तइया । थी थी अणज्जज्जा -सत्तं पुरिसत्तणं मज्झ ॥७॥ थी थी बुद्धीए वि हु, निवडउ वज्जासणी गुणगिरिंमि । सत्थत्थपारगत्तं पि, जाउ पायालमूलंमि पविसउ दरीए उत्तम-कुलजम्मसमुभयो य अभिमाणो । नीई वि वराई पुरिस-पवरमवरं अणुसरेउ ॥९॥ जो वंतमिमं तेणं, पुरिसप्पवरुतमंगरयणेण । सेविउमहं समीहामि, सारमेओ व्व निल्लज्जो ॥१०॥ सो धण्णो क्यपुण्णो, सफलं तस्सेव माणुसं जम्मं । सरयणिसायरधवला, पत्ता तेणं चिय पसिद्धी ॥११॥ णियकुलनहयलचंदो, सो च्चिय कणगप्पभो परं एक्को । लीलाए जेण दलिओ, घोरमहामोहपडिवक्खो ॥१२॥ हे पावहियय! एवंविहाण, पुरिसाण सुणिय सच्चरियं । परमणीपरिभोगे, सुमुणिणिसिद्धे कहं रमसि ॥१३॥ जाउ वि लडहलायन्न-पुन्नसव्वंगियाउ पयईए । सोहग्गसमुग्गाओ, मणहरसव्वंगचेट्ठाओ ॥१४॥ पयईए च्चिय सद्दाइ-विसयसुंदेरसीमभूमीओ । दीसंतकंतसव्वंग-संगिसिंगारगरुईओ ॥१५॥ वम्महनिहीसु तासु वि, मा मण! तं रमसु णिययरमणीसु । पवणपकंपिरपिप्पल-पत्तसमुत्तालचित्तासु ॥१६॥ अन्नं च - जाणसि तुच्छमिह सुहं, जाणसि दुक्खं पि मेरुगिरिगरुयं । जाणसि य चलं जीयं, जाणसि तुच्छाओ लच्छीओ ॥१७॥ जाणसि अथिरा नेहा, जाणसि खणभंगुरं समत्थमिमं । तह वि हु गिहवासं कीस? जीव! नो चयसि एताहे ॥१८॥ इय निरवग्गहवेरग्ग-मग्गपडिलग्गचित्तपसरेण । आबद्धक्रयलंजली, भणिया सा ससिमुही तुमए ॥१९॥ हे सुयणु! तुमं जणणी, तुज्झ पई जो य सो ममं जणगो । जस्सुद्धरिओऽहमकिच्च-कूवया चरियरज्जूए ॥२०॥ एत्तो य मह विरागो, यट्टइ संसारिएसु किच्चेसु । तुममऽवि महाणुभाये! पइमग्गं अणुसरेज्जासु ॥२१॥ जेण खरपवणताडिय-पल्लवचलमाउयं चला लच्छी । तडितरलं तारुण्णं, विसया वि विसं व दुहजणगा ॥२२॥ पियजणजोगो वि वियोग-विहरिओ रोगभंगुरं गत्तं । अक्कमइ पइखणं परम-दारुणा वेरिणि व्य जरा ॥२३॥ अणुसासिऊण एवं, तीए गेहाओ झत्ति नीहरिओ । तेणं चिय मग्गेणं, गतो तुमं णिययभवणम्मि ॥२४॥ तत्थ य ठियस्स तुज्झं, संसारासारयं णियंतस्स । वेयालियपुत्तेणं, पढिया एक्का इमा गाहा રો जह किंपि कारणं पा-विऊण जायइ खणं विरागमई । तह जइ अवट्ठिया सा, हवेज्ज ता किं न पज्जतं ॥२६॥ एयं च तुम सोच्चा, सविसेससमुल्लसंतसुहभायो । जाए पभायसमए, अलहन्तो मंदिरम्मि रइं ॥॥ कड़वयजणपरियरिओ, वणलच्छिं पेच्छिउं विणिक्वन्तो । अह एगत्थुज्जाणे, चारणसमणो तए दिह्रो ॥२८॥ जो पसत्थगुणयणमण्डणो, मोहमल्लदढदप्पखण्डणो । देहकंतिभुसियदिसामुही, पावलोगसंगतिपरंमुहो ॥२९॥ जोगमग्गनिग्गहियमाणसो, कम्मवेरिजयपयडसाहसो । सोमयाए जणचित्तरंजणो, महिगतो व्य छणहरिणलंछणो॥३०॥ संगओ. भव्वलोयपायडियमग्गओ। कोहमाणभयलोहवज्जिओ, नेव वाइनिवहेण निज्जिओ ॥३१॥ एक्कचलणनिमियंगभारओ, सूरसंमुहकयऽच्छितारओ । सेलरायसिहरं व निच्चलो, काउस्सग्गगतो सत्तवच्छलो॥३२॥ तं एवंविहगुणसं-गयं मुणिं पेच्छिउं वियसियच्छो । पाएसु तुमं पडिओ, एवं भणिउं पवत्तो य ॥३३॥ भयवं! सिवमग्गुवदं-सणेण मम संपयं कुण पसायं । तुह पयजुयचिन्तामणि-पलोयणं होउ मा विहलं ॥३४॥ 10 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३३५-३७० महसेननृपचिन्तनम् ॥३५॥ ॥३६॥ एवं भणिए पारा - विऊण उस्सग्गमुग्गकरुणाए । जोगो त्ति कलिय तेणं, भणियं भो भव्य ! निसुणेसु एत्थं अणोरपारे, संसारे दुक्खलक्खपउरम्भि । पाविज्जइ मणुयत्तं, जीवेहिं कहवि तुडिजोगा तत्थ वि आरियदेसो, देसे वि हु वरकुलाइसामग्गी । तत्थ वि सोहग्गोवरि - मंजरिसरिसो य जिणधम्मो ||३७|| जम्हा नरसुरलच्छी, लब्भइ मणुयत्तमवि य तुडिजोगा । न वि लब्भड़ जिणधम्मो, अचिन्तचिन्तामणीकप्पो ॥ ३८ ॥ एवं च रयणनिहिलाभ - संनिभं पाविऊण तं कह वि । जो नेइ विफलमइतुच्छ - विसयवासंगवामूढो | सोऽणंतवारमणवरय - जम्मजरमरणवारिपडिहत्थं । बहुरोगमयरभीमं - भवन्नवं सेवइ वरागो ॥३९॥ ॥४०॥ को नाम किर सकण्णो, सुदीहकालं किलिस्सिउं कह वि । पत्तो सुवण्णकोडिं, हारति तं कागणीए कए ॥ ४१ ॥ किंच - ૫૪૫ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५४॥ धम्मत्थकाममोक्खा, चउरो किर होंति एत्थ पुरिसत्था । ताण पुण सेसपुरिसत्थ- हेउभावो वरो धम्मो ॥४२॥ तं पुण मिच्छत्ततमोह-मोहिओ णो जहट्ठियं जीवो । नाउं सक्को परिपीय - पउरमइरारसो व्व नरो ता भो महायस! तुमं, उज्झियमिच्छत्तसव्यकायव्यो । जिणमेक्कं चिय देवं, मुणिणो गुरुणो य सरिऊण ॥ ४४ ॥ पाणिवहमुसावायं, अदत्तमेहुणपरिग्गहारंभं । मुंचसु इमम्मि मुक्के, जीवो मुच्चइ भवभएण ॥४५॥ न य एत्तोच्चिय धम्मो, अन्नो भुवणतए वि अत्थि वरो । न य एयविउत्तेणं, मोक्खसुहं लब्भइ कहं पि ॥ ४६ ॥ न य निस्सारस्स, सरीरयस्स एयस्स धुवविणासिस्स । धम्मोवज्जणमेक्कं, मोत्तूणऽवरं फलं अस्थि ॥४७॥ | खरपवणपहयपउमिणि-दलग्गलग्गंबुबिंदु व्य चलस्स । न य धम्मजणणविरहे, किं पि फलं जीवियस्सावि ॥४८॥ | पडिपुन्नमिमं धम्मज्जणं च, नो सव्यविरतिविमुहेण । काउं तीरइ न य एय- विरहेणं लब्भए मोक्खो ॥४९॥ न य तदभावे च सुहं, नीसेसकीलेसलेसपरिहीणं । एगन्तियमच्चन्तिय-मणतमन्नत्थ संभवइ इय एवंविहसोक्खं, मोक्खं जड़ वंछसे तुमं लद्धं । ता जिणदिक्खानावं घेत्तूण भवन्नवं तरसु इय बुत्ते हरिसवसुच्छलन्त - पुलएण भतिपणएण । तुमए गहिया दिक्खा, तस्स समीवे मुणिवरस्स | अह पढियसयलसत्थो, सुणिउण मइमुणियसव्यपरमत्थो । छज्जीवरक्खणपरो, गुरुकुलवासम्मि णिवसन्तो ॥ ५३ ॥ विविहतवच्चरणाई, कुणमाणो गुरुगिलाणबालाणं । उवयारे वट्टन्तो - निंदन्तो पुव्यदुच्चरियं अपुव्यापुव्वगुणज्जणम्मि, अब्भुज्जमं परिवहन्तो । सविसेसपसमपीऊस - पसमियासेसकोहग्गी निग्गहिइंदियवग्गो, चिरकालं पालिऊण पव्वज्जं । कयपज्जन्ताणसणो, देवो जातोऽसि सोहम्मे सा वि सुरसुंदरी तद्दिणाउ, आरम्भ विहियपव्वज्जा । पुव्यसिणेहवसेणं, तुह देवित्तेण उववन्ना जातो च मए सद्धिं, पडिबंधो कोइ तुज्झ अइगरुओ । खणमवि वियोगदुक्खं, असहंताण य गतो कालो ॥ ५८ ॥ चवणसमए य तुमए, नीओऽहं केवलिस्स पासम्मि । आपुच्छिओ य भयवं, पुव्यभवे भाविजम्मं च तेणावि गयपमोक्खा, अस्संखसुतिक्खदुक्खपडिबद्धा । पुव्यभवा परिकहिया, इमो य भाविनरिंदभवो तो तुमएऽहं भणिओ, जोडियकरसंपुडेण ससिणेहं । मा काहिसि वंझमिमं, अपच्छिमं पत्थणं सुहय! जड़या हं नरनाहो, होमि महाविसयसंगवामूढो । गयपमुहभवेहिं तया, तुमए पडिबोहियव्यो त्ति पावट्ठाणपसत्तो, अपत्तजिणधम्मसारचारितो । मा निवडिस्सामि पुणो वि, दुक्खवसीमासु कुगईसु पडियन्नमिमं च मए, चुओ तुमं एस पत्थिवो जातो । सा पुण देवी भज्जा, कणगवई नाम तुह जाता ॥ ६४ ॥ पाएण नेव सुहिणो, सोउं पि हु अहिलसन्ति धम्मगिरं । इय सुदुहट्टस्स मए, तुह सिट्ठी एस वुत्तन्त ॥६५॥ ता सोऽहं तुह मित्तो, सो य तुमं ते इमे य पुव्वभवा । जं बहुगुणोववेयं तं इत्तो कुण महाभाग ! “महसेनस्यचिन्तनम्” ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५९॥ ॥६०॥ ॥६९॥ ॥६२॥ F Fl इय कहिए महसेणो, जाई सरिऊण निरवसेसंपि । मुच्छानिमीलियच्छो, निद्दोवगओ व्व ठाड़ खणं | अह सिसिरपवणपरिलद्ध - चेयणो भालनिमियकरकमलो । सायरकयप्पणामो, राया तं भणिउमादत्तो पडिवन्नभरुव्वहणेण, सुहय! तुमए न केवलं सग्गो । समलंकिओ विरायड़, ओइन्नेणेह धरणी वि जड़ वि तुह पणयवच्छल्लयाए, तुच्छं तिलोयदाणमवि । पच्चुवयारी होहामि, कहमहं तह वि इइ कहसु ॥७०॥ ॥६९॥ 11 ॥६७॥ ॥६८॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३७१-४०६ श्रीवीरजिनागमनम् ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥८५॥ भणियं सुरेण जड़या, जिणपयमूले पवज्जिहिसि दिक्खं । पच्चुवयारी नरवर !, होहिसि निस्संसयं तइया ॥७१॥ एवं काहं ति पयंप - माणमुवलद्धसुद्धसम्मत्तं । मोतुं सगिहम्मि नियं, जहागयं पडिगओ तियसो राया वि विम्हियमणो, नियनियठाणत्थसुहडकरितुरगं । भवणं देवं च पलो-इऊण चिंतेउमादत्तो देवाणमहो सत्ती ! तहाविहं दंसिऊण उड्डमरं । तह उवसामं नीयं, जह न मुणइ पेच्छगो वि जणो एवंविहं सुपामत्थ- सुन्दरं सुरभयं सरन्तस्स । माणुस्सएस किच्चेसु, जीव कह तुज्झ रमइ मई | कह वा वि वंतपित्तासुईसु, दुग्गन्धमलविलीणेसु । भोगेसु पडिबन्धो, उप्पज्जइ तुज्झ निल्लज्ज ! किं वा खणभंगुररज्ज - विसयवावारचिंतणं मोतुं । अणवरयमिमं चिय मोक्ख - हेउभूयं ण पत्थेसि किं होही तं सुदिणं, सव्वं संगं जहिं विमोत्तूणं । मिगचारियं चरिस्सामि, सुमुणिपयसेवणासत्तो का होही सा सुनिसा, जीए कंडूयणट्टया वसभा । घट्टिस्सन्ति ममंडगं, उस्सग्गट्ठियस्स थाणुं व को वा सो सुमुहुत्तो, होही खलियाईदोसपामुक्कं । आयारप्पमुहमहं, जम्मि सुत्तं पढिस्सामि को वा सा वेला वि हु, होही जीए य पक्खिविस्सामि । देहविणासपसते वि, करुणभरमंथरं दिट्ठि | कइया व थेवखलिए वि, परुसवयणेहिं बोहिओ सन्तो । हरिसभरनिब्भरंगो, गुरुण सिक्खं गहिस्सामि होही य को स समओ, जम्मि इह - परभयेसु णिरयेक्खो । आराहणमाराहिय, पाणच्चायं करिस्सामि इय संवेगोवगओ राया जा चिन्तए रवी ताय । सविसेसमणिच्चं उय - संसिउं अत्थमणुपत्तो | 1 सूरारुणकरपहकर - करंबिओ सहड़ तयणु जियलोओ । जयकवलणमणकीणास - चक्खुपहपसररुद्धो व कुणह जणा! अत्तहियं, एस विसप्पड़ तमो कयंतो व्य । इय विहगकलयलेणं, कहड़ व संझा वियंभंती ॥ ८६ ॥ विहलियदोसावेसो, अवहत्थियतमभरो मुणिजणो व्व । विप्फुरइ पयडमाहप्प-निम्मलो तारयसमूहो | कालपरिणामविहडिय - पुव्यदिसासिप्पिसंपुढल्लसिओ । मुत्ताहलनिउरंबो व्य, सीयकिरणो वि उग्गमइ एवं विह निसिसमए, जाए काउं पओसकिच्चाई | सुहसेज्जाए निसन्नो, नरनाहो चिंतए एवं | पुरनगरखेडकब्बड - मडंबगामासमाइणो धन्ना । ते जेसु जिणो विहरति, भुवणगुरु सिरिमहावीरो जड़ सो भययं भुवणेक्क- बंधवो एज्ज एत्थ नयरीए । ता पव्वज्जं घेतुं, दुक्खाण जलंजलिं देमि इय नरवइणो चिन्तागयस्स, निद्दाए अविरइए व्य । पडिवक्खकोवियाए, चिन्तापसरो पडिनिरुद्धो अह पच्छिमरयणीए, अत्ताणं दुग्गपव्ययसिरम्मि । आरोहियमुत्तमबल - जुएण पुरिसेण सुमिणम्मि दट्ठूणं नरनाहो, मंगलजयतूरघोसपडिबुद्धो । चिन्तन परमब्भुदओ, होही धुवमज्ज मह को वि किंतु मम पव्ययारोहणेण, जो वट्टिओ महाभागो । उवयारेण स नज्जइ, परमब्भुदएक्कहेउ ति एवं विगप्पमाणस्स, भूमिनाहस्स झत्ति आगंतुं । सिररइयपाणिकमला, पडिहारी भणिउमाढत्ता | देव! दुवारे उज्जाण - पालया तुम्ह दंसणट्ठाए । करकलियकुसुममाला, चिट्ठन्ति किमेत्थ कायव्यं रन्ना जंपियमाणेहि, झत्ति तो सा पडिच्छिउं आणं । उज्जाणपालगे लहु, घेत्तुं पत्ता निवसमीयं उज्जाणपालगेहिं, कयप्पणामेहिं अप्पिउं कुसुमे । सिरसि विरइयंजलीहिं, पयंपियं जयसि तं देव ! " श्रीवीरजिनागमनम् " ॥८७॥ ॥८॥ ॥८९॥ ॥१॥ રા यद्धाविज्जसि य जओ, तइलोक्कदिवायरो महावीरो । तिहुअणसरपरिसरकुमुय - विब्भमब्भमिरजसपसरो ॥४००॥ छत्तत्तयपिसुणियसग्ग- मच्चपायालपवरसामितो | सालत्तयपरिवेढिय - मणिमयसीहासणासीणो | हरिसुद्धरसुरपक्खित्त- पउरकुसुमंजलीहिं अग्घविओ । संसयवुच्छेयसमत्थ- सत्थवित्थरियधम्मकहो | सहरिससुरवइकरविहुय - कुमुयहिमगोरचामरुप्पीलो । उम्मिल्लपवरपल्लय - कंकेल्लिपसाहियदियंतो | मायंडपयंडपरिप्फुरंत-भामंडलोवहयतिमिरो । सुरपहयदुंदुहीरव - पयडियअप्पडिमरिउविजओ गणणाइक्कन्तसुरासुरिंद- संदोहपणयपयपउमो । सयमेव समोसरिओ, सरणागयवच्छलो भयवं | एवं सोच्चा अच्चन्त - पहरिसुप्पन्नबहलपुलयंगो । करकमलनिलीणं पिव, मन्नतो तिहुयणसिरिं पि રા ॥४॥ 1. पहकर समूहः । ॥७५॥ ॥७६॥ ॥७७॥ ॥७८॥ ॥७९॥ ॥८०॥ ॥८१॥ ॥८२॥ ॥८३॥ ॥८४॥ ॥९०॥ ॥९१॥ ॥९२॥ ॥९३॥ m××n ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९७॥ ॥९८॥ ॥९९॥ ॥५॥ F 12 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४०७-४४२ धर्मदेशना सो एस जिणो सुमिणम्मि, जेण आरोहिओ म्हि गिरिसिहरे । संसारपारगामी, भवामि एत्तो त्ति चिन्ततो ॥७॥ अद्धत्तेरसलक्ने, रययस्स पणामिउं नियो तेसिं । पीईदाणं तो सिग्घ-मेव करिकन्धरारूढ़ो सयलंतेउरपुरलोय-परिगओ मागहेहिं थुव्वंतो । निक्खंतो णयरीओ, वंदणवडियाए जयगुरुणो ॥९॥ दूराउ च्विय छत्ताइ-छत्तमालोइउं च हिट्ठमणो । पम्मुक्कायचिंधो, पंचविहाभिगमसंजुत्तो ॥१०॥ असरणे पविसित्ता, उत्तरदिसिसंठिएण दारेण । हरिसवसवियसियच्छो, सामि तिपयाहिणेऊण ॥११॥ महिविठ्ठचुंबिणा मत्थ-एण पुणरुतविरइयपणामो । भालयलारोवियपाणि-पल्लवो थुणिउमाढतो ॥१२॥ जय विमलकेवलालोय-दलियमिच्छत्तभीमतमपसर! । पसरंतुब्भडकलिकाल-मेहविद्दवणखरपवण! ॥१३॥ खरपवणबलिंदियतुरय-वग्गनिग्गहणतिहुअणपसिद्ध! । तिहुयणपसिद्धसिद्धत्थ-रायकुलकमलमायंड! ॥१४॥ मायंडुड्डामरगुरुपयाव-पडिहयकुतित्थिविप्फुरण! । रणरोगासिवपसमण-सहेक्कनामग्गहण! देव! ॥१५॥ देविन्दविन्दवन्दिय! दढरागद्दोसदारुकवत्ति! । करयत्तिनिव्वुईसुह! जयसि तुमं जिण! महावीर! ॥१६॥ उयसंग्गवग्गनिक्खोभयाए, कह मेरुणोयमा होज्ज । तुह देव! चलियचलणं-गुलीए हलहलियसिहरेण ॥१५॥ कह तेजसोमयासु वि, उवमिज्जसि नाह! तं रविससीहिं । दिणरयणीण विरामे-जेसिं सिरी दूरमुवरमति ॥१८॥ कह या तेण तुलिज्जति, तुह जिण! गंभीरिमावि जलनिहिणा । जो दुट्ठसत्तक्यखोभ-णं पि णो गोविउं तरति॥१९॥ इय दूरमसारिच्छे, उवमाणे जड़ परं भुवणनाह! । तुमए च्चिय तुममुवमि-ज्जसि ति मह चित्तसंवित्ती ॥२०॥ एवं थोऊण जिणं, गोयमपमुहे य गणहरे नमिउं । राया पसन्तचित्तो, तयणु निविट्ठो महीपट्टे ॥२१॥ तो जयगुरुणा नरतिरिय-देवसाहारणाए वाणीए । पारद्धा धम्मकहा, कहिउं पीऊसवुट्ठिसमा ॥२२॥ कहं “धर्मदेशना" - हंहो देवाणुपिया, जइ वि हु तुझेहिं जलहिपभढें । रयणं पिय मणुयत्तं, संपत्तं कहवि तुडिजोगा ॥२३॥ जइ वि हु मणवंछियसयल-वत्थुसत्थेक्कसाहणसमत्था! । चिन्तामणि व्य भुयदंड-चंडिमावज्जिया लच्छी ॥२४॥ जइ वि हु णो पेच्छिज्जति, तुच्छे पि हु पुन्नपगरिसवसेण । इट्ठवियोगाणिट्ठ-प्पओगपमुहं च किंपि दुहं ॥२५॥ जइ यि हु विसट्टकन्दोट्ट-दामदीहच्छियासु तरुणीसु । उवरमइ न थेवं पि हु, अच्चन्तं गाढपडिबंधो ॥२६॥ रागद्दोसविउत्तं, खणमेक्वं तह वि माणसं काउं । परिचिंतह एयाणं, सरुवमिय णिउणबुद्धीए ॥२७॥ एत्थ भवम्मि पत्तं पि, कह वि मणुयत्तमकयधम्मेण । एमेव हारियं पुण, पाविज्जति कहवि तुडिजोगा ॥२८॥ पुढवाइएसु जम्हा, जीयो परिवसति कालमस्संखं । तं चेव अणंतगुणं, वणस्सइम्मि गतो सन्तो ॥२९॥ न्नासु वि विविहासुं, निंदियजोणीसु णेगवारा तो । जीवस्स भमन्तस्स, कत्तो च्चिय एयसंपत्ती ॥३०॥ अवि लमन्ति समत्थाई, सेसमणवंछियाई कज्जाइं। सिवसोक्खसाहणखम, एयं पण नण दल्लंभं जा वि हु गरुयकिलेस-प्पसाहिया दुक्खरक्खणिज्जा य । सयणनरनाहतक्कर-तिक्क्यसाहारणा लच्छी ॥३२॥ आवयणिबंधणाए संमोहकरीए एगभवियाए । सरयभं व चलाए, विहलो तीए वि परितोसो ॥३३॥ जं पि य कहपि संपड़, इट्ठवियोगाइ नावडइ दुक्खं । किं एत्तियमेतेण वि, तस्साभायो सया जातो ॥३४॥ जम्हा सिद्धे मोत्तुं, अन्नो सो नत्थि तिहुयणे वि जणो । सारीरमाणसाई, जस्स वियंभंति न दुहाई ॥३५॥ एतो च्चिय मुणिवसभा, सव्यं संगं वियज्जिउं दूरे । अब्भुज्जमन्ति भवभीरु-माणसा मोक्खसोखत्थं ॥३६॥ जड़ पुण इट्टवियोगाइ, नेव थेयं पि होज्ज इह दुक्खं । तो नो रेज्ज दुक्कर-तवचरणं को वि मोक्खकए ॥३७॥ एयं च चिन्तह दढं, पडिबंधो जो य एस रमणीसु । सो किंपाकफलं पिय, मुहमहुरो अंतविरसो य ॥३८॥ अस्संखभयपरंपर-परिचयकरी सुहासयविदारी । सुमुणिजणवज्जणिज्जा, मणसा वि य नेव सरणिज्जा ॥३९॥ जं किं पि एत्थ वसणं, दुक्खं जं किं पि जं च वयणिज्जं । सव्वस्स तस्स मूलं, एसा च्चिय गिज्जए एक्का॥४०॥ भवसायरस्स पारं, ते च्चिय पत्ता पवित्तिया धरणी । तेहिं चिय सच्चरिएण, जेहिं चत्ता इमा दूरं ॥४१॥ इय भो महाणुभावा!, सुणिउणबुद्धीए चिन्तइत्ताणं । अणुसरह सरहसं धम्म-सारवावारमणवरयं ॥४२॥ 1. तककुय-याचक । 13 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४४३-४७५ क्षमायाचना, हितशिक्षावर्णनम् - विषविकार वर्णनम् एवं जिणेण कहिए, सविसेससमल्लसन्तसहभायो । राया क्यप्पणामो, णिडालतडघडियकरकमलो ॥४३॥ जंपिउमाढतो जाय, नाह रज्जे ठयामि नियपुत्तं । ताव तुह पायमूले, पव्यजं संपयज्जामि ॥४४॥ भणियं तिहुयणगुरुणा, जुज्जइ तुम्हारिसाण राय! इमं । नहि विन्नायसरूया, रमंति थेवं पि संसारे ॥४५॥ अह पणमियजिणचरणो, राया गंतूण निययभवणम्मि । सामन्तमंतिपमुह, पवरजणं वाहारावेति ॥४६॥ “क्षमायाचना" एवं “हितशिक्षावर्णनम्" :भणइ य स गग्गरगिरं, अहो ममिन्हिं पव्यज्जिउं दिक्खं । जाया बुद्धी ता अहि-यइत्तदप्पाउ मोहा या ॥४७॥ जं वट्टियमवयारे, तुम्ह मए किंपि कहवि तं सव्यं । खमियव्वं तुब्भेहिं, बुड्ढिं नेयं च रज्जमिमं ॥४८॥ एवं ते अणुसासिय, महाविभूईए पुण्णदियहमि । जायम्मि सुहमुहुते, रज्जम्मि ठवेई जयसेणं ॥४९॥ सामंतमंतिमंडल-पमुहपहाणेण परियणेण समं । पणमित्ता सप्पणयं, कयंजली तमणुसासइ य. ॥५०॥ जइ यि हु पयडीए च्चिय, सच्चरियालंकियस्स तुह वच्छ! । नो अस्थि सिक्वणिज्ज, तहयि अहं किं पि जंपेमि॥५१॥ सामी मंती रटुं, जुग्गं कोसो बलं सुही चेव । अन्नोन्नुवगारेणं, पुत्तय! सत्तंगरज्जमिमं ॥५२॥ अवलंबिऊण सत्तं. बद्धीए जहोचियं च चिंतिता । सत्तंगस्स वि एयस्स, लाभहे जएज्ज तुमं ॥५३॥ तत्थप्पाणं पढम,. ठवेज्ज विणए तओ अमच्चे उ । तत्तो भिच्चे पुत्ते य, तयणु पच्छा पुण पयाओ ॥५४॥ उत्तमकुलप्पसुई, रूवं रमणीमणोहरणचोरं । सत्थपरिकम्मिया तह, मई य भुयबलं वच्छ! ॥५५॥ एसो य संपयं जो, विवेयमायंडगुंडणपयंडो । जोवणतमो वियंभइ, मोहमहामेहपडलघणो ॥५६॥ जा य बुहसलहणिज्जा, पयई आणा य पणइसिरवूढा । एयाणेक्केक्कं पि हु, सुदुज्जयं किं पुण समूहो ॥५॥ गरुयविहलंघलत्तण- कारणदारेण दारुणो भुवणे । लच्छीमओ विपुत्तय! पुरिसं लहुएइ सयराहं ॥५८॥ किंचसुइयायदिट्ठिहरणे, नराण लच्छीए को विसंयायो । जं न कुणति गरलसहो-यरा वि मरणं तमच्छरीयं ॥५९॥ अन्नं चपुवकयकम्मपरिणति-वसेण विहयो कुलं वरं रुवं । संपज्जड़ रज्जं पि हु, गुणहेऊ ण उण विणयगुणो ॥६०॥ ता उज्झिऊण दप्पं, विणयं सिक्नेसु नो मयं भयसु। विणयोणयाण पुत्तय!, जायन्ति गुणा महग्पविया ॥६१॥ भुवणयलम्मि वियंभइ, विउसाणणकोणपहयजसपडहो । धम्मो कामो मोक्खो, कला य विज्जा य विणयाओ॥६२॥ विणएण लब्भड़ सिरी, लद्धा वि पलाइ दुव्विणीयस्स । नीसेसगुणाहाणं, विणओ च्चिय जीयलोगम्मि ॥६३॥ किं बहुणा णत्थि जए, तं जं नो जायए इमाहितो । तम्हा सिक्खसु विणयं, पुत्तय! कल्लाणकुलभवणं ॥६४॥ तहासत्तट्ठिईए गोत्तट्टिईए, धम्मट्टिईए अविरोहा । अत्थस्स अज्जणं जं, वद्धणमह रक्खणं जं च ॥६५॥ सम्मं च जं सुपत्ते, विणियोगो रायवित्तमिय चउहा । एत्थं पि पयट्टेज्जासु, परमपयत्तेण पुत्त! तुमं ॥६६॥ सामं भेयं च उव-प्पयाणमह दंडमिय चउब्भेयं । निवनीई पियपुत्तय!, आराहेज्जासु झत्ति तुमं દળી किंतुपढमाए असज्झे च्चिय, कज्जे बीयाइयाओ नीईओ । वावारेज जहकम, विचारइता जहाजोगं जं सामनए सन्ते, सन्ते पुरिसाण भेयविन्नाणे । दाणे य संपडन्ते, को दंडे आयरं कुणइ ॥६९॥ अणुवत्तेज्जसु नीइं, पाणप्पियपणइणिं व णिच्वंपि । अन्नायं पुण रुंभेज्ज, सव्वहा दुट्ठसत्तुं य ॥७०॥ "विषविकारः वर्णनम्" - वत्थन्नपाणभुसण-सेज्जाजाणाइएसु अपमत्तो । पेहेज्ज विसविगारं, च भिंगारायाइपक्खीहिं ॥७१॥ पयडीए भिंगराओ, सुगो तहा सारिया इमे विहगा । सन्निहियपन्नगविसा, करुणं कुव्यन्ति उव्यिग्गा ॥७२॥ झत्ति विरज्जन्ति विसं, दट्टेणं लोयणा चकोरस्स । नच्वइ फुडं च कुंचो, मरइ पुण मत्तकोइलओ ॥७३॥ भोत्तुमहिलसियमन्नं, थेवं हि परिक्खणत्थमग्गीए । पक्विविऊणं सम्म, तल्लिंगाई पि पेहेज्जा ॥७४॥ धुमाभा जाला से, नीलतं अग्गिणो य फोडरयो । तल्लग्गमच्छियाईण, निच्छियं होइ मरणं च ॥७५॥ 14 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४७६-५०६ पुत्रानुशास्तिः न तहा सुस्सिन्नतं, जलाविलत्तं तहा विवन्नतं । सिग्धं च सीयलतं, जायइ विसभावियन्नस्स ॥७६॥ नीरस्स कोइलाभा, सविसस्स दहिस्स पुण भवे सामा । आयंबा दुद्धस्स य, मज्झम्मि होति रेहाउ ॥७७॥ पमिलाणतं विसदसियस्स, सव्यस्स अल्लदव्वस्स । सक्कस्स' विवन्नतं, विवरीयत्तं खरमिऊणं ૭૮ળા पाउरणत्थरणाणं, झामप्पहमंडलाण बाहुल्लं । लोहमणिपमुहाणं तु, होइ मलपंककलुसत्तं ॥७९॥ एवं सामनेणं, नाऊणं पुत्त! सुत्तजुत्तीए । विसदूसियदव्वाई, दूरेणं परिहरेज्ज तुमं ૮૦ “पुत्रानुशास्तिः " - अच्चन्तगूढमतो, परिभागविऊ य देसकालाणं । सारत्थाणमदाई, दाई वि कहिं पि पत्तविऊ ॥८१॥ सुपरिक्खियज्जकरो, विसेसओ संधिविग्गहविऊ य । उचियन्नू य क्यन्नू, पियंवओ 'सव्यख्नेयन्नू ॥२॥ जियनिद्दछुहपिवासो, सव्यपरीसहसहो सुसाहुव्य । अदुराराहो गुणियच्छ-लो य तं वच्छ! होज्ज सया ॥३॥ मा पेछेज्ज य मड़रा-मिगयाजूयाणि पुत्त! तत्तो जं । दीसंति सुणिज्जन्ति य इह-परलोगुब्भवाडवाया ॥४॥ कोउयमेतं मोत्तुं, थीसु वि मा काहिसि अइपसंगं । वीसासं च बहुविहा, ताहिंतो वि हु जओ दोसा ॥५॥ तह कोहलोभभयदोह-थंभचवलत्तवज्जिओ होज्जा । मच्छरपेसून्नपरो-वतावअलियत्तवज्जी य ૮દ્દો सव्वासमवन्नाणं, णियणियठिइठावगो य होज्जाहि । दुट्ठाण णिग्गहं सिट्ठ-पालणं तह रेज्ज सया ॥८७॥ तहाजइ होहिसि तिक्खकरो, उब्वियणिओ रवि व्य होहिसि ता । अच्वन्तमिउको, पुण पराभवट्ठाणमिंदु व्य ॥८८॥ ता तिक्खमिउरं तं, पुत्त! पयत्तेण दूरमुज्झित्ता । सव्वत्थ दव्यखेत्ता-इयाण बट्टेज्ज अणुरुवं ॥८९॥ दीणाणमणाहाणं, परेहिं परिपीडियाण भीयाणं । सज्जो रेज्ज जणगो व्य, सव्वजत्तेण पडियारं ॥१०॥ तह विविहयाहिणिहिणो, अजं कल्लं व धुवविणासिस्स । मा देहस्सावि कए, अहम्मकम्मे रमेज्जासि ॥११॥ को नाम कुलपसूओ, तुच्छसुहलेसमोहियमईओ । निस्सारसरीरकए यि, पाणिणो पुत्त! पीडेज्जा ॥९२॥ गुरुदेवातिहिपूया-पडिवत्तिपरो य दव्यभावसुई । होज्जसु पियदढधम्मो, धम्मियवच्छल्लकारी य ॥१३॥ सव्वाओ वि पवित्ती, सव्यसत्ताण सुहकए चेव । न य तं धम्माभाये, भवेज्ज ता पुत्त धम्मपरो ॥४॥ तह वच्छ तुम मह किं गुणस्स, रयणीदिणाणि योलिन्ति । इय सइ संनिहियमई, नासि दुही उभयलोगे वि ॥१५॥ संवासं सीलगुणड्ढएहि, तह संकहं वियड्ढेहिं । पीई अलुद्धबुद्धीहिं, वच्छ! निच्वं चिय करेज्जा . ॥१६॥ अप्पपसंसं च चएज्ज, पुत्त सप्पुरिसनिंदियं अहमं । विसमुच्छा इव पुरिसं, जा कुणइ विवेयनिस्सारं ॥१७॥ अप्पपसंसा हि नरस्स, होइ चिंधं खु निग्गुणत्तस्स । जड़ तस्स गुणा हुंता, ता नूण जणो वि सलहंतो ॥९८॥ सयणे व परजणे वा, परपरिवाओ विवज्जणिज्जो ति । अप्पहियमहिलसन्तो, परगुणदंसी सया होज्ज ॥१९॥ परगुणमच्छरभावो, सगुणपसंसा य पत्थणाकरणं । अविणीयत्तं पुत्तय! इमाइं गरुयं पि लहुइंति ॥५००॥ परनिन्दापरिहारो, सपसंसालज्जणं अणत्थितं । सुविणीयत्तं च पुणो, इमाई लहुयं पि गरुइंति ॥१॥ परगुणगहणं छन्दाणु-वत्तणं हियमकक्कसं वयणं । सुपसन्नसरूवत्तं, अमंतमूलं वसीकरणं રા अन्नं च पुत्त! तुझं, पढम चिय जह जरा किर मणम्मि । अल्लियई तओ देहे, तह कायव्वं तया वच्छ! ॥३॥ निव्वाहियमगहणं, विणाववाएण जोव्वणं जेण । दोसनिहाणे जम्मे, किमिव न पत्तं फलं तेण ॥४॥ एस सुसीलसहायो, सत्थत्थविऊ य एस एस खमी । एस गुणी इइ कस्सवि, धन्नस्साघोसणा भमइ ॥५॥ तह वच्छ तह सयम्मी, निवेसियव्यो गुणाण पब्भारो । दोसाण दुक्किराणवि, जह अवगासो च्चिय न होई ॥६॥ हियमियभोयणभोई य, तह हवेज्जासि जह न वेज्जेहिं । वाहिज्जसि किंतु धरेसि, नीतिमित्तेण ते पासे ॥४॥ किं बहुणापयडियपभूयपव्यो, पासनिवेसियसुपत्तसंताणो । पयइसरलो सुवंसो व्य, पुत! वट्टसु तुम दूरे ॥८॥ सोमो नयणाऽऽणंदी, कलालओ पइदिणं पवड्ढंतो । पुत्त! पयाणं चन्दो व्य, जलहिणो होज्ज बुढिकए ॥९॥ 1. सर्वखेदज्ञः = सर्वप्रकारगजशिक्षादिवेत्ता । 2. स्वस्मिन् । 3. दुष्किराणाम्-दुःखेन दूरीकर्तुं शक्यानामित्यर्थः । 15 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५१०-५४२ देव्यनुशास्तिः - दीक्षा हेतुप्रयाणः पयईए चेव गरुओ, पयईए चेव दढपइट्ठाणो । पयईए थिरसहायो, पयईए सुवण्णरयणपहो ॥१०॥ सुविसुद्धजाइवंसो, विबुहाणुगतो य लोयमझमि । मेरु व्य तुमं पुत्तय!, अचलपहुत्तं चिरं धरसु ॥११॥ गम्भीरिमोदयालं-कितो य गुणमणिणिही पडिच्छंतो । बहुनइनिवहं जलहि ब्य, मा हु लंघेज्ज मज्जायं ॥१२॥ इय महसेणनरिंदो, विविहजुत्तीहिं सिक्खविय पुतं । सामंतमंतिपमुहं, सप्पणयं भणइ पुरलोयं ॥१३॥ एतो तुभं एसो, सामी चक्खू य मेढीभूतो य । ता एयस्साणाए, ममं व बट्टेज्जह सया वि ॥१४॥ हासेण व कोहेण य, लोहेण व जं च दूम्मिया तुब्भे । रज्जोवगएण मए, तं पि य खमियव्यमेताहे ॥१५॥ “देव्यनुशास्तिः' - कणगवई वि य भणिया, देवि! तुम चयसु संपड़ पमायं । अणुसरसु सव्वविरई, विरमसु संसारवासाओ ॥१६॥ किमिह पडिबन्धठाणं, सयणे य धणे य जोव्वणे य जहिं । अणवरयकयविणासो, वसति समीवे च्चिय कयन्तो ॥१७॥ अहपव्वज्जब्भुज्जय-नियवाणीवज्जताडिया देवी । बाहप्पवाहयाउल-विलोयणा जंपए एवं ॥१८॥ देवी-थेरत्तसमुचियमिमं, को संपड़ पत्थुयत्थपत्थायो । राजा-तं होज्ज न या को मुणति, तडिल्लयाचंचले जीए ॥१९॥ देवी-दुस्सहपरीसहे कह, सहिही तुह सुंदरा सरीरसिरी । राजा-किं सुंदरत्तमेयाए, अट्ठिचम्मावणद्धाए ॥२०॥ देवी-कइयवि दिणाणि निवसह, सगिहे च्चिय कीस ऊसुगा होह । राजा-बहुविग्घे सेयत्थे, खणंपि कह णिवसिउं जुतं? ॥२१॥ देवी-पेंच्छह तहावि नियपुत्त-रज्जलच्छीए पवरविच्छड्डे । राजा-संसारंमि भमंतेहिं, णंतसो किं ठियमदिढें ॥२२॥ देवी किं दुकोण इमिणा, संतीए समुद्धराए रिद्धीए । राजा-सरयभभंगुराए, इमीए को तुज्झ वीसंभो ॥२३॥ देवी-पंचप्पयारपवरे, अपत्तकालेवि चयसि किं विसए । राजा- मुणियसरुयो को ते, सरेज्ज पज्जंतदुक्खकरे॥२४॥ देवी-तड़ पव्वज्जोवगए, सुचिरं परिदेविही सयणवग्गो । राजा- नियनियकज्जाई इमो, परिदेवड़ धम्मणिरवेक्खो॥२५॥ इय पव्वज्जापडिकूल-जंपिरं पेच्छिउं नियो देविं । जंपड़ महाणुभाये!, एत्थ वि किं तुह रई जाया ॥२६॥ किं पम्हटुं जं मज्झ-ययणओ इय भवाओ तइयभवे । गहिया तुमए दिक्खा, पम्मुक्काउसेससंगाए ॥२॥ सोहम्मदेवलोए, देवित्तेणं च मज्झ उववन्ना । इण्डिं पुणो वि भज्जा, परुढदढपेमपडिबद्धा ૨૮ના इय जंपिरे नरिंदे, देवी अणुसरिय पुव्वभववित्तं । आबद्धकरयलंजलि-मल्लविउमिमं समाढता ॥२९॥ | नरनाह! जुण्णगोणि व्य, विसयपंकमि नूण 'खुत्ता हं । उवएसरज्जुणायड्ढि-ऊण तुमए समुद्धरिया ॥३०॥ इण्डिं चिय विप्फुरियं, विवेयरयणेण इण्हिं निन्नट्ठा । घरवासवासणा विय, इण्हिं मोहो मह पलीणो ॥३१॥ ता जह पुव्वं तह संपयं पि, पडिवज्जिमो समणदिक्खं । सुमिणोवमेण एत्तो, पज्जत्तं गेहवासेणं ॥३२॥ “दीक्षाहेतुः प्रयाणः" - इय तीए जंपियंमि, राया सविसेसवढिउच्छाहो । कयमज्जणोवयारो, परिहियफलिहुज्जलदुगूलो ॥३३॥ मोयावियचारगरुद्ध-बद्धअवराहकारिनरवग्गो । सव्वत्थ वि णयरीए, उग्घोसावियअमाघाओ રા कारावियजिणमंदिर-पूयासक्कारपेच्छणाइमहो । सुकाइपरिच्वाया, धम्मियजणजणियपरितोसो ॥३५॥ सम्माणियपणइजणो, जंमग्गिरतक्कुयाण दिण्णधणो । उचियपडियात्तिपुव्यय-संभासियपयइवग्गो य ॥३६॥ पासायसिहरपरिसंठिएहिं, हरिसुल्लसंतपुलएहिं । पेहिज्जतो णयरी-जणेहिं दढमणिमिसच्छीहिं सब्भूयाहिं महत्थाहिं, हिययपरितोसकरणदक्खाहिं । वेयालियणिवहेणं, गिराहिं पवराहिं थुव्वंतो ૨૮ देवीए समं राया, सहस्सनरवाहिणीए सिबियाए । आरुहिऊण पयट्टो, गंतुं जिणपायमूलंमि ॥३९॥ तयणु गहिरदुंदुहीभेरिभंकारसम्मिस्सआदूरियाऽसंखसंखुब्भवाऽऽरावरुद्धंबरं, जुगविगमसमीरपक्खुद्धखीरोयनिग्घोससंकार किङ्करेहिं हयं तूरचाउव्यिहं । पहरिसवसनीसरंतंडसुजलाविलच्छेण संखोहपल्हत्थकंचीकलावेण सव्यायरं, | बहविहकरणंऽचियं नच्चियं वाररामाजणेणं जणाणंदसंदोहदाणक्खमेणं परं [दण्डओ छन्दो] ॥४०॥ इय परमविभूईए, राया संपप्प ओसरणभूमिं । ओयरिउं सिबियाओ, सामि तिपयाहिणेऊण ॥४१॥ जय भवभयवारण! सिवसुहकारण! दुज्जयणिज्जियविसमसर! सिरियीरजिणेसर! पणयसुरेसर! थुइपरलोयहं दुरियहर!॥४२॥ 1. मग्ना । 2. शुल्कादिपरित्यागात् । 3. याचकेभ्यः । 16 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५४३-५७८ दीक्षाग्रहणम्-प्रभुद्वारानुशास्तिः - श्रीगौतमगणधरस्तुतिः - श्रीगौतमधर्मोपदेशः इइ थुणिऊणं उज्झइ, रयणालंकारकुसुमसंभारं । पुव्युत्तरदिसिभाए, तओ जिणं विन्नवड़ एवं ॥४३॥ जयगुरु! भवजलहितो, पब्वज्जाजाणवत्तदाणेणं । कणायर! उत्तारेसु, संपयं जणमणाहमिम ॥४४॥ “दीक्षा एवमनुशास्तिः" - एवं भणिए भुवणेक्क-भाणुणा तेसिं निययहत्थेण । दिन्ना दिखा अस्संख-दुक्खनिम्मोक्खणसमत्था एवमणुसासियाणि य, दिक्नेयमहो महंतपुन्नेहिं । लद्धा तुम्हेहिं जओ, तम्हा एतो पयत्तेण ॥४६॥ पाणिवहो अस्सच्चं, अदत्तमेहुणपरिग्गहारंभो । जोगकरणत्तिगेणं, जाजीवं चिय विमोत्तव्यो ૪ जइयव्यं जहसत्तीए, कम्मनिम्महणमूलहेमि । निच्वं पमायविरहा, बारसविहतवविसेसंमि ૪૮ धणधन्नाइयदव्ये, खेते पुरखेडकब्बडप्पमुहे । काले सरयाईए, ओदइयाइम्मि भावे य ॥४९॥ थेवं पि नेव रागो, न या पओसो मणमि थरियव्यो । जम्हा मूलं एए, पसरंतमहाभवदुमस्स ॥५०॥ इय सुचिरं सिक्खविउं, कणगवई चन्दणाए उवणीया । पहुणा महसेणो पुण, समप्पिओ थेरसाहूण ॥५१॥ तो विहरइ स महप्पा, गामागरनगरमंडियं वसुहं । थेराण समीयंमि, सुतं अत्थं च गिण्हतो । ॥५२॥ अह अन्नया कयाई, केवलिपज्जायपालणं काउं । पावापुरीए नाहो, सिवमयलमणुतरं पत्तो ॥५३॥ तो तेण चिन्तियमिम, अहो कयंतस्स किंपि नासज्झं । जं तारिसा वि पहुणो, विणासधम्मतणमुवेति ॥५४॥ जइ ते विनमंतसुरिंदविंद-मणिमउडलीढपयपीढा । चलणग्गचालियाचल-डोल्लावियसघरधरणियला। ॥५५॥ धरणियलछत्तसुरसेल-दण्डकरणप्पहाणसामत्था । कंकेल्लिपमुहवरपाडि-हेरसिरिपायडिस्सरिया ॥५६॥ अंगीकिज्जति अणिच्चयाए, अच्चंतदुन्निवाराए । ता निस्सारसरीरम्मि, मारिसे होज्ज का गणणा ॥५७॥ अहया ते जयगुरुणो, असोयणिज्जा जएक्कमहणिज्जा । भेतूण कम्मगंठिं, जे पत्ता सासयं ठाणं अहमेव सोयणिज्जो, जो अज्जवि निबिडकम्मनिगडेहिं । अच्वंतनिगडिओ चा-रगे व्व चिट्ठामि संसारे ॥५९॥ को. वा विसेसलाभो, इओ जराजज्जरस्स मे होही । जेण न काउं तीरंति, निच्चं तवचरणवायारा ॥६०॥ तम्हा जुत्ता इन्हिं, सविसेसाजराहणा मह विहेउं । सा य कह निच्छियत्था, सुवित्थरत्था य नायव्या ६१॥ किं वा एएण विचिन्तिएण, बच्चामि गणहरिंदस्स । उप्पन्नकेवलस्स. गोयमपहणो समीवंमि। ॥६२॥ पुच्छामि तं च आराहणाए, भेयप्पभेयसहियाए । गिहिसाहुगोयराए, विहाणमेगग्गचित्तोऽहं ॥६३॥ तो मुणिऊण सवित्थर-मसेसमयि तब्विहाणमुवउत्तो । सयमायरामि पकमि, सव्वसत्ताण य परेसिं ॥४॥ पढमं सम्मं नाणं, पच्छा कणं परोवएसो य । अमुणियजहट्ठियत्था, परमप्पाणं च नासिंति ॥६५॥ इय चिन्तिऊण वच्चड़, स महप्पा गोयमस्स पासंमि । कलिविजयबद्धलक्खो, पच्वखो धम्मराउ ब्ब ॥६६॥ "श्रीगौतमगणधर स्तुतिः' - तवसुसियतणुत्तणओ, सणियं क्यभूमिचरणविन्नासो । जुगविगमसुसियसुरसरि-पवहोऽनिलचलतरंगो व्य, ॥६॥ थविरतवसपकंपिर-करचरणसिरोदराइसव्यंगो । अणवरयं पावरयं, सरीरलग्गं व विधुणंतो ॥६८॥ जुगमेत्तनिहियनयणो, गन्तूणं गोयमं गणहरिन्दं । तिपयाहिणापुरस्सर-मभिवंदइ विणयपणयंगो ॥६९॥ हरिसयसवियसियच्छो, भालयलमिलंतमउलकममलो । सब्भूयाहिं गिराहिं, थुई च काउं समाढतो .. ॥७०॥ जय तेलोक्कदिवायर! जयगुरु! जिणवीरपढमवरसिस्स! । भीमभवजलणसंतत्त-गतसत्ताण जलवरिस! ॥१॥ जय हिमवन्तमहाऽचल-महंतरंगंतनयतरंगाए । जणगत्तणेण निम्मल-दुवालसंगीसुरसरीए ॥७२॥ जय अक्खीणमहाणस-तावसजणजणियपरमपरितोस! । अच्वंतपसिद्धपभूय-लद्धिसुसमिद्धिसंपन्न! ॥७३॥ जयधम्मधुराधरणेक्क-वीर! जय विजियसव्यजेयव्य! । जय सव्वायरसुरजक्ख-रखपणिवइयपयकमल! ॥४॥ जय जगचूडामणिणा, जिणेण तित्थत्तणेण वागरिय! । निम्मलछत्तीसगुणालि-निलय! भयवं! कुण पसायं ॥५॥ भेयप्पमेयदिटुंत-जुत्तिजुत्तं सवित्थरं नाह! । गिहिसाहुगोयरं मह, कहेहि आराहणविहाणं . . इय कहिऊणं विरए, फुरंतमणिकंतदंतदित्तीए । धवलिंतो व्य नहयलं, गोयमसामी भणइ एवं . ॥७॥ “श्रीगौतमगणधरोपदेशः" - भो! भो देवाणुप्पिय!, पहाणगुणरयणणिरुवमनिहाण! । सविसुद्धबुद्धिकुलभवण! सुट्ठ पुढे तए एयं ॥८॥ 17 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५७६-६१२ आराधनास्वरूपम्-सामान्यआराधना स्वरूपम् - दर्शनसामान्याराधना - चारित्रस्य सामान्याराधना |न हु कल्लाणपरंपर-परंमुहाणं कयाइ पुरिसाण । जायइ सुदिट्ठपरमत्थ-पेहणुप्पेहणा बुद्धी ॥७९॥ ता निरुवमधम्माऽऽधार-धरियदुद्धरपगिट्ठतवभार! । महसेणमहामुणि! सिस्स-माणमेयं निसामेसु ૮૦ इय एसा जह रन्ना, महसेणेणं पवन्नदिक्नेणं । जइगिहिविसया पुट्ठ ति, जं पुरा भणिय वुत्तं तं ॥८१॥ हुणा सिट्ठा जह गोयमेण, महसेणमुणिवरिट्ठस्स । आराहणा तहाऽहं, जहासुयं तं निदंसेमि રા आराहणेह सिवपुर-परमपहो पहयरागदोसेहिं । अणुवकयपराणुग्गह-परेहिं भणिया जिणिंदेहिं ॥८३॥ सा य महाजलजलनिहि-निहित्तरयणं व कहवि तुडिजोगा । ववहारनयमएण वि, कहं पि जइ लब्भइ जिएहिं॥८४॥ ता तीए उत्तरोत्तर-पगिट्ठयारोहणेण पइसमयं । अप्पा विसिट्ठकिच्चेसु, निच्चसो संठयेयव्यो ॥८५॥ एवं च इमं मणुयत्तणं पि, विहलं न होड़ संपत्तं । जिणसमयपसिद्धक्कम- 'कमढस्स व दंसणं ससिणो ॥८६॥ क्यमेत्थ पसंगेणं, नाणस्स य दंसणस्स चरणस्स । तवसो य णिरइयारं, कीरइ आराहणं जीए ટળી “आराधना स्वरूपम् एवं ज्ञानस्य सामान्याराधना" - सा चउरोधा आराहणेह, भण्णइ इमा य दुविगप्पा । सामन्नविसेसवसा, तत्थ य सामन्नओ भणिमो ॥८॥ जो जत्थ सए पढणाइ- अवसरो तस्स तत्थ चेव सया । विणएण सबहमाणं, उवहाणपुरस्सरं तह य ॥८९॥ जं जतो य अहीयं, तस्स तओ धुवमनिण्हवणपुव्वं । सुत्तत्थतदुभयाणं, अणन्नहाकरणओ तह य ॥९०॥ जा सुठठु वायणा पुच्छ-णा य परियट्टणा पवणया । तस्सेव य परमेगग्ग-याए अणुपेहणा जा य ९१॥ जा उ य दिया राओ य, वा वि एगस्स परिसुवगयस्स । अह सुहपसुत्तगस्स य, जागरमाणस्स अहवा वि ॥९२॥ उद्धट्ठियस्स अहवा, अह व निसन्नस्स अह निवन्नस्स । कत्थइ थिरस्स चलिरस्स, या वि अह खलियपडियस्स॥९३॥ सुत्थस्स दुत्थियस्स् य, सवसस्स परव्यसस्स य तहेव । छीए य वियंभणे खास-णेय, अहवा वि किं बहुणा ॥९४॥ जह वा तह वा परिसंठियस्स, अणुवरयचित्तवित्तिस्स । तग्गहणधारणापार-तंतवित्तीउ तत्तेण ॥९५॥ सम्मन्नाणगुणड्ढेसु, पुरिसरयणेसु जं च निच्चं पि । भत्तिबहुमाणकरणं, सन्नाणाराहणा एसा ॥९६॥ “दर्शनसामान्याराधना" - जा पुण सरुवगुविलत्तणेण, दुक्खोयलक्षणिज्जेसु । जीवाजीवप्पमुहेसु, सव्वसत्भूयभावेसु ॥९७॥ अणुवकयपराणुग्गह-परपरमेसरजिणप्पणीयत्ता । कहवि अबोहे वि परं, भवियव्वमिमेहिमिय भावा ॥९८॥ निस्संसयपडिवत्ती, निच्चं चिय जं च कुच्छियमयं पि । एयं पि इयगुणेणं, सुमयं ति न कंनकारितं ॥१९॥ विहियाणुट्ठाणफलंमि, तह य जं संसयस्स परिहरणं । जल्लमलाविलगत्तेसु, जईसु न दुगंछणं जं च ॥६००॥ जो य कुतित्थियअइसय-दसणाउ न विम्हओ जा य । धम्मियगुणोववूहा, जं गुणदुत्थे य थिरिकरणं ॥१॥ जं च तहाविहसाहम्मिएसु, वच्छल्लमिह जहाथामं । अरिहप्पणीयपवयण-पभावणं जं च बहुभेयं ॥२॥ इणमेव य णिग्गंथं, पवयणमट्ठो अयं खु परमट्ठो । सेसो हु पुणो अणट्ठोति, भावणा जा य भावेण ॥३॥ निम्मलसम्मत्तगुणड्ढ-पुरिसरयणेसु, जं च निच्चं पि । भत्तिबहुमाणकरणं, दंसणआराहणा सा उ ૪ "चारित्रस्य सामान्याराधना" - तह जा असेससावज्ज-जोगपरिवज्जणेण सुपवित्ती । पंचसु महव्वयेसु, दसप्पयारे य जइधम्मे ॥५॥ पडिलेहणा-पमज्जण-पमुहाए चक्कवालरूवाए दसभेयाए तह जा, जइसामायारीए आसेवा ॥६॥ अहवादसविहवेयावच्चे, नवसु य तह बंभचेरगुतीसु । जा पिण्डविसुद्धीए, गुत्तितिगे समिइपणगे य ॥७॥ दव्यं खेत्तं कालं, भावं याऽऽसज्जऽभिग्गहग्गहणे । इंदियदमणे कोहाइ-निग्गहे जा य पडिवत्ती ॥८॥ जमणिच्चयाइविसए, दुवालसण्हमह पंचवीसाए । पंचमहव्ययविसयंमि, भावणं भावणाण सया जं च विसेसाभिग्गह-गहणसरुवाण भिक्खुपडिमाण । सम्मं दुवालसण्हं पि, पालणं जा य सामइए ॥१०॥ छेयोवट्ठावणिए, परिहारविसुद्धिए य चरणमि । जा सुहुमसंपराए, पडिवत्ती तह अहक्खाए ॥११॥ सच्चरणरयणपडिपुन्न-पुरिससीहेसु जं च निच्वं पि । भत्तिबहुमाणकरणं, सा चरणाराहणा भणिया ॥१२॥ 1. कच्छपस्य । 18 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६१३-६४७ सामान्यतपाराधना - संक्षेपविशेषाराधना स्वरूपम् - मधुनृपदुष्टांतः "सामान्यतपाराधना" - न जहा मणस्स खेओ, तहाविहा जह न देहबाहा वि । इंदियवग्गो वि हु वियल-भावमावज्जए न जहा ॥१३॥ रुहिरपिसियाइधाऊण, जह य न जायइ तहाविहोवचओ। न य अवचओ वि सहसा, न वायपित्ताइखोभो य॥१४॥ पारद्धाणं संजम-गुणाण जायइ जहा न परिहाणी । किंतु जह उत्तरोत्तर-मुस्सप्पणमेव ताण भवे ॥१५॥ तह जा तये पवित्ती, अणसणप्पभिइंमि छविहे बज्झे । पायच्छित्तप्पमुहे, इयरंमि वि छबिहे चेव ॥१६॥ इहलोयपारलोइय-सव्वासंसाण दूरपरिहरणा । बलवीरियपुरिसकाराण, णिच्चमणिगृहणविहीए ॥१७॥ जिणदेसियं ति जिणसेवियं ति, तित्थेसरतणकर ति । भवसूयणं ति निज्जर-फलं ति सिवसुहनिमित्तं ति ॥१८॥ जहचिंतियत्थसंपाडणं ति, दुक्कचमक्कारजणगं ति । निस्सेसदुट्ठनिग्गह-रं ति करणाण दमणं ति ॥१९॥ देवाणं पि हु आकंपगं ति, निस्सेसविग्घहरणं ति । आरोग्गर ति सुम-गलं ति किच्वं ति काऊण ॥२०॥ कायव्ये च्चिय बहुहा, इममि परमारहं ति एहिं खु । हेऊहिं जो य करणु-ज्जमो तवे प्रमसंवेगो ॥२१॥ जं च विचित्ततयोगुण-मणिरोहणगिरीसु पुरिससीहेसु । भत्तिबहुमाणकरणं, तं च तवाराऽऽहणं जाण ॥२२॥ इय सामन्नेण निदं-सियावि एसा विसेसचिन्ताए । संखेववित्थरवसा, दुवियप्पाऽऽराहणा होइ ॥२३॥ “संक्षेपविशेषाराधना" - तत्थ य संवेणं, ताव इमा जं मुणिय दढमऽसुहं । समणं व सावयं या, सवित्थराऽऽराहणाणुचिअं ॥२४॥ अच्वंततिब्बगेलन्न-पत्तमप्पत्तचित्तसंतावं । दिन्नालोयणमुद्धय-सल्लं गुरुणो भणाविंति ॥२५॥ तदसंपत्तीए पुणो, अवलंबियसाहसो सयं चेव । काऊण भूमिगोचिय-चिइवन्दणपमुहकायव्वं ॥२६॥ भालयलधरियकरसंपुडो य, धरिऊण माणसुच्छंगे । अरहते भगवंते, सिद्धे य भणेइ सो एवं ॥२७॥ भावारिनिहंताणं, भगवंताणं नमोऽरिहंताणं । परमाइसयसमिद्धाणं, तह य नमो सव्वसिद्धाणं ૨૮ एसोऽहमिहगओ ह, वन्दामि ते य तत्थ चेव ठिया । पासंत यंदमाणं, अप्पडिहयनाणउन ॥२९॥ तह पुव्यं पि हु सक्किरिय-गीयसंविग्गसुकडजोगीणं । पुरओ गुरुण सव्यं, मिच्छत्तं मे पडिक्कंतं ૩૦ जीवाजीवाइपयत्थ-रुइसरुवं च ताण चेव पुरो । सम्मत्तं पडिवन्नं, भवगिरिणिद्दलणदढकुलिसं ॥३१॥ इण्हिं पि ताण पुरओ, सविसेसमसेसयं पि मिच्छत्तं । तिविहं तिविहेण पडि-क्कमामि भवभमणहेउमऽहं ॥३२॥ सम्मत्तं पुण पुणरवि, तेसिं समीवंमि संपवज्जामि । तत्थ वि पडिवत्ती किर, पुरा वि एसा महं आसि ॥३३॥ भावारिचक्कअक्कमण-पत्तसभूयनामधेयवरा । अरिहंता भगवंतो, देवा साहू य गुरुणो ति । सा चेव इयाणिं पि हु, सविसेसा मज्झ होउ पडिवत्ती । एवं वयाणि वि पुणो, विसेसओ संपवज्जामि ॥३५॥ तह मेतीभावो मह, समत्तसत्तेसु आसि पुट्विं पि । संपड़ सविसेसो सो, तुम्हाण पुरो हवउ मज्झ ॥३६॥ इइ कट्ठ सव्वसत्ते, खामेमि खमंतु तह महं ते वि । मित्ती चेव महं ताण-मुवरि मणसा वि न पओसो ॥३७॥ तह पडिबन्धो दव्वाइ-गोयरो सव्वहा वि वोसिरिओ। जाव इमम्मि वि देहे, योसिरिओ मज्झ पडिबन्धो ॥३८॥ इय पडिहयपडिबन्धो. तिविहं च चउव्विहं च आहारं । सागारमणागारं, पच्चक्खड़ सो भवबिग्गो ॥३९ तत्तो य पंचपरमेट्ठि-मंतमच्वंतभत्तिसंजुत्तो । परिवत्तंतो कालं, रेज्ज सज्झाणसंपन्नो ૪૦ एत्थ य महुनरनाहो, संखित्ताराहणाए दिटुंतो । अन्नो सुकोसलमुणी, मुणियव्यो निच्चलपइन्नो ॥४१॥ तहाहि 'मधुनृपदृष्टातः' अहिगयजीवाइपयत्थ-वित्थरो परमसम्मद्दिट्ठी य । किं बहुणा आगमभणिय-सयलसावयगुणाणुगओ ॥४२॥ महुराउरीए राया, आसि महू सो य अन्नया धन्नो । कीलानिमित्तमुज्जा-णमुवगतो परिमियबलो य ॥४३॥ तत्थ रमतो सो हेरिऊण, सत्तुंजएण पडिरिउणा । पडिरुद्धो भूरिबलेण, भाउणा रामदेवस्स ॥४४॥ साहिक्नेयं भणिओ य, रे लहुं चयसु भुयबलयलेयं । जड़ जीयत्थी ता मत्थ-एण उव्वहसु मे आणं ॥४५॥ आ पाव! कहं इय जंपिऊण, अज्जवि तुमं धरसि जीयं । इइ तज्जतो आबद्ध-भिउडिभीमो महराया ॥४६॥ आवरणविरहियंगो, दप्पुद्धरपवरसिन्धुरारुढो । जुज्झेण संपलग्गो, तेण समं, जीयणिरवेक्खो ॥४७॥ 19 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६४८-६८४ सुकोशलनृपदृष्टान्तः तो भिन्नकुंभिकंठयं, पडंतदंतिमिंठयं । 'यलंतपीलुपट्ठयं, तुटुंतसारियट्ठयं ૪૮ दंतग्गदट्ठउट्ठयं, मरंतलट्ठवंठयं । सडंतसारखग्गयं, पलाणभीरुवग्गयं ॥४९॥ छिज्जन्तअंगरक्खयं कुंतग्गभिन्नकवयं । भज्जन्तभूरिसंदणं, पहारदाणदारुणं ॥५०॥ सव्वत्थ लोहियारुणं, अणेगरुंडभीसणं । काऊण सत्तुपक्खयं, महूनियो विलक्खयं ॥५१॥ अणवरयवेरिपम्मक्क-सत्थसंघायघायविहलंगो । नीहरिऊण रणाओ, कुंजरपट्टिट्टिओ संतो ॥५२॥ वेरग्गमग्गपडिलग्ग-माणसो माणसोयपरिचत्तो । अच्वंतमहासत्तो, चिन्तिउमेवं समाढतो ॥५३॥ आसि किर मज्झ बज्झ-ट्ठिईए रज्जं पि भुंजमाणस्स । जिणवयणामयभाविय-मणम्मि सुमणोरहा एए ॥५४॥ अज्जं चयामि कल्लं, चयामि भवसयनिबन्धणं रज्जं । गेण्हामि य परमपएक्क-हेउं सव्वन्नुणो दिक्खं ॥५५॥ अइयारपंकमुक्कं, पालिता तं च अंतकालम्मि । आराहणविहिमणहं, आराहिस्सामि जहविहिणा ॥५६॥ इण्डिं च न फासुयमही, न य संथारो न चेव निज्जमगा । अहह अथक्के जाया, अतक्किया मे इमाऽवत्था॥५॥ अहया एयावस्थस्स, मह किमिन्हेिं पि दीहचिन्ताए । करिपिट्ठी संथारो, अप्पा निजामओ होउ ॥५८m इय चिंतिऊण चत्ताणि, तेण लहु दव्वभावसत्थाणि । अप्पा य तक्खणं चिय, णिवेसिओ परमसंवेगे ॥५९॥ हरिकरिरहनरनिवहा, अंतेउरिया य विविहभंडारा । सनगनगरागरधरा, तिविहं तिविहेणं योसिरिया योसिरियं सव्वं पि हु, अट्ठारसपावठाणपडलं मे । नीसेसदव्यखेत्ताइ-गोयरो तह य पडिबन्धो तो धम्मज्झाणरओ, रोद्दट्टज्झाणवज्जिओ धीमं । गरहियचिरदुच्चरिओ, निरुद्धसब्विन्दियप्पसरो ॥६२॥ पडियन्नाणसणविही, खामियनीसेससत्तसंताणो । मज्झत्थो भत्तीए, कयंजली भणिउमाढतो ॥६३॥ | भावारिविणासीणं, सव्वन्नूणं नमोऽरिहंताणं । कम्मकलावविमुक्काणं, नमो नमो सव्यसिद्धाणं ૬૪ धम्मायाररयाणं, आयरियाणं नमामि सव्वेसिं । सुतप्पवत्तगाणं, उवज्झायाणं च पणमामि ॥६५॥ खन्ताइगुणजुयाणं, नमामि भावेण सव्यसाहूणं । इय पंचनमोक्कारं, कुणमाणो मरणमणुपत्तो ॥६६॥ तो सत्तसागराऊ, जाओ स सणंकुमारकप्पम्मि । भासुरबोंदी देयो, सुहपणिहाणप्पभायेणं ॥६ ॥ इय महनरिन्दसंतिय-मक्खाणयमक्खयं समासेण । एत्तो सकोसलमहा-मणिस्स यत्तव्वयं भणिमो ॥६८॥ “सुकोशलनृपदृष्टान्तः" - साकेयमहानगरे, राया नामेण आसि कित्तिथरो । भज्जा से सहदेवी, सुकोसलो नाम ताण सुओ। ॥६९॥ अह अन्नया क्याई, जायविरागो सुकोसलं रज्जे । ठविऊण सुगुरुमूले, पव्वज्जं गिण्हइ नरिन्दो ૭૦થી गहणासेवणरूवं, सिक्खं दुविहं पि सम्ममुवउत्तो । आसेवंतो विहरड़, अममो गामागराईसु ॥७१॥ एगम्मि य पत्थावे, साकेयपुरे समागओ सो य । भिक्खट्टाए पविट्ठो, सहदेवीए य दिट्ठो य રા मा मम पुत्तं उग्गाहिऊण, समणं इमो मुणी काही । इइ चिन्तिऊण तीए, पुराओ निद्धाडिओ सहसा ॥७३॥ अहह कहं एयाए, हीलिज्जइ नियपहू वि पावाए । इय गाढसोगगग्गिर-गिराए रुन्नं च धाईए ॥७४॥ पुट्ठा सुकोसलेण य, अम्मो! तं कीस रुयसि? मे कहसु । तीए वुत्तं पुत्तय!, कहेमि जड़ सोउमिच्छसि तं ॥५॥ जस्स पसाएण इम, रायसिरि चाउरंगबलकलियं । पत्तो सि सोवि देवो. कित्तिथरो रायरिसिपवरो ॥७६m चिरकालाओ एत्था-गओ लहुं वेरिओ व्ब नयराउ । एयाए तुज्झ जणणीए, अज्ज नीसारिओ यच्छ! ॥७॥ एवंविहववहारो, हीणकुलेसु वि न दीसए कहवि । तिहुयणसलाहणिज्जे, तुम्ह कुले होड़ चुज्जमिणं ॥८॥ एवंविहं च नियसामिणो वि, दटुं पराभवं पुत्त! । अन्नं काउमसक्का, दुक्खं रुन्नेण अवणेमि ॥७९॥ एवं सोच्चा विम्हइय-माणसो सो सुकोसलो राजा । पिउणो वन्दणहेडं, नीहरिओ झत्ति नयराओ '૮૦ अन्नन्नकाणणेसुं, पलोयमाणेण निउणदिट्ठीए । दिट्ठो य तेण तरुणो, हेट्ठिओ कित्तिथरसाहू ॥८१॥ ताहे सुकोसलो परम-हरिसवसनिस्सरंतरोमंचो । अच्चन्तभत्तिसारं, पडिओसाहुस्स चलणेसु ૮૨ भणिउमिमं च पयत्तो, भयवं! गेहम्मि हुयवहपलित्ते । पिउणो नियपियपुत्ते, विमोत्तु किं जुज्जए गमणं ॥८३॥ अणवरयजम्ममरणग्गि-पउरजालाकलावदज्झन्ते । जं लोए इह मोत्तुं, ममं तुमं ताय! पव्वइओ ૮૪ 1. पीलु = हस्ती । 2. त्रुट्यगजपर्याणपृष्ठकम् । 3. वण्ठः – योधः दासः इत्यर्थः । 4. अनघसरे। 20 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विस्तृतआराधनास्वरूपम् चतुर्थः मूलद्वारनामानि. संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६८५-७२१ ॥८५॥ ॥८६॥ ॥८७॥ ॥८८॥ अज्जवि कुणसु पसायं, दिक्खाहत्थावलंबदाणेण । भीमभयकुवकुहरम्मि, निवडमाणस्स मे ताय ! | अच्चन्तनिच्छयं पिच्छि-ऊण परमं च भवविरागित्तं । दिन्ना से पव्वज्जा, कित्तिधरेणं मुणिवरेण सहदेवी पुण नाउं सुकोसल दिक्खियं अइदुहट्टा । मरिऊणं मोंग्गिल्ले, गिरिम्मि वग्घी समुप्पन्ना ते पुण दोवि मुणिवरा, तवनिरया संजमम्मि उज्जुत्ता ॥ दुस्सहमहापरीसह - रिउसंगरविजयजयपयडा अप्पडिबद्धविहार, विहरन्ता तम्मि चेव गिरिपयरे । संपत्ता अह जाओ, वरिसायालो तहिं तेसिं तो गिरिगुहाए मज्झे, सज्झायज्झाणझोसियसरीरा । चाउम्मासं वसिउं, निस्सरिया सरयकालम्मि अह सा वग्घी अच्चन्त - पुव्ययेरेण जायपरिकोवा । ते गच्छन्ते पिच्छिय, अभिमुहमभिधाविया सहसा | मुणिणो वि अयुद्धमणा, तं इंतिं पासिउं महासत्ता । अव्यो तिव्युवसग्गो, उचट्ठिओ सावयक ओत्ति काउं पच्चक्खाणं, सागारमदीणवित्तिणो धीरा । अवलंबियबाहुलया, नासग्गसंगिदिट्ठिया ॥८९॥ ॥९०॥ ॥९१॥ ॥९२॥ ૫૧૫ ॥९४॥ ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९७॥ sn मेरु व्य निप्पकंपा, काउस्सग्गे ठिया य चिट्ठन्ति । जा ताय अवक्खंद, दाऊण सुकोसलो ती वग्धीए सिध्घमयणीए, पाडिओ भक्खिउं समारद्धो । सम्ममहियासमाणो, भावेइ इमं च स महप्पा सारीरमाणसेहिं, दुक्खेहिं अभिद्दुयम्मि संसारे । सुलहमिणं जीवाणं, जं किर दुक्खेहिं सह जोगो | कहमन्नहेह खंदग - मुणिनाहो पंचसाहुसयसहिओ । अच्वंतं जन्तपीडण - पीडाए मरणमणुपत्तो कह वा उस्सग्गगयस्स, चत्तदण्डस्स दंडसाहुस्स । सीसं छिन्नं एमेव, जमुणरन्ना परुट्टेण ता एत्थ भवसमुद्दे, सुलहाउ चेव आवयाओ दढं । भव-सयदुहनिम्महणो, दुलहो पुण नवरि जिणधम्मो ॥ ९९ ॥ सो पुण कहकहवि, मए चिन्तारयणं व कामधेणु व्व । कप्पहुमो व्व पत्तो, दुल्लहलंभो वि सुकयवसा ॥७०० ॥ | इय एसो च्चिय सफलो, मज्झ अणायरणदोसपरिहीणो । सच्चरणगुणपहाणो, जम्मोडणाइम्मि संसारे केवलमेक्कमिमं चिय, चित्तं परितयइ जमहमेयाए । वग्धीए कम्मबन्धस्स कारणत्तेण उ 2 वयेमि एत्तो च्चिय ते नमिमो, जे मुणिणोऽणुत्तरं गया मोक्खं । जम्हा ते जीवाणं न कारणं कम्मबंधस्स सोएमि न अप्पाणं, एयं सोएमि कम्मपरतन्तं । जिणवयणबाहिरमई, दुक्खसमुद्दम्मि निवडन्तिं इय चिन्तयरस्स य से, सरीरकम्ममलतब्भवाऊहिं । समगं पिव तं समसीसि - गाए सहस च्चिय पहीणं तो उत्तरोत्तरपवड्ढ - माणज्झाणानलेण दड्ढम्मि । सयलम्मि वि कम्मवणे, अन्तगडो केवली होउं समएण गतो सिद्धिं, रायरिसिसुकोसलो महासत्तो । किं वा सुप्पणिहाणेक्क - बद्धलक्खाण दुस्सज्झं | गाढाउरत्तसंपन्न - साहुगिहिगोयरा समक्खाया । संखेवेणं आरा - हणा इमा कम्मनिम्महणी ॥१॥ '॥२॥ | वित्थरओ पुण आरा - हणाए सुसिलिट्ठबरपुरीए व्व । चत्तारि चेव मूल-द्दारानं भवन्ति एयाई ॥३॥ ॥४॥ ॥५॥ F ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ " विस्तृताराधना स्वरूपम्” ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ परिकम्मविही १ परगण - संकमणं २ तह ममत्तउच्छेओ ३ । तत्तो समाहिलाहो ४, जहक्कमेणं जहत्थाई ॥१०॥ | इय पत्थुयत्थवित्थर - पत्थायणकरणपढमठाणाणि । एयाइं चत्तारि वि, मूलद्दाराई भण्णंति ॥११॥ एएसु य चउसु वि अरिह- लिंगसिक्खाइं नामधेयाइं । पडिदाराई पन्नरस, दस नव नव हुंतऽणुक्कमसो ॥१२॥ ताइं पुण नियनिय - मूलदारवित्थरपरूवणावसरे । वोच्छं नवरमिमाणं, अत्थववत्था इमा नेया इह परिकम्मविहीए, अरिहद्दाराई चायदारतं । जा वि विमिस्सा का वि हु, विभागपरिकीत्तणेणं च गिहिसाहूभयविसया, होही वत्तव्यया तदुवरिं तु । पायं साहुगय च्चिय, जम्हा संजायविरइमई वड्ढन्तपरमसड्ढो, सड्ढो वि हु कुणड़ कालमऽन्तम्मि । अणवज्जं पवज्जं पवज्जिउं ते णिसामेह अलमिन्हि पसंगेणं, आराहणमेयमऽन्तकालम्मि । अइयारपंकमुक्कं न थेवपुन्नो जणो लहड़ जह नाणदंसणाण, य सारो चरणं भवे जहुद्दिनं । चरणस्स य सारो जह, निव्वाणमणुत्तरं भणियं निव्याणस्स य सारो, अव्याबाहं जहा सुहं बिन्ति । तह सव्वपवयणस्स वि, सारो आराहणा जेण : सुचिरं पि निरइयारं, विहरिता नाणदंसणचरिते । मरणे विराहइत्ता, अनंतसंसारिणो दिट्ठा आसाय गबहुलाणं, विराहगाणं च नाणचरणाणं । पोग्गलपरियट्टद्धं, उक्कोसं अंतरं जम्हा ॥१६॥ 1. अवन्याम् । 2. व्रजामि= प्राप्नोमि इत्यर्थः । 21 ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरुदेवा दृष्टान्तः - मुनिमहसेनस्य पृच्छा - क्षुल्लकमुनिदृष्टान्तः ॥२२॥ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७२२-७५५ दिट्ठा मिच्छादिट्ठी, अमाइणो तक्खणेण सिद्धा य । आराहियमरणंता, मरुदेवाई महासत्ता "मरुदेवा दृष्टान्तः" "રા રજા ॥२५॥ ॥२६॥ રા किर मरुदेवी नामं, अहेसि भज्जा नरेन्दनाभिस्स । सा उसभजिणे पव्वज्ज-मुवगए सोगसंतत्ता | अणवरयविर्णितंगुय-पवाहपक्खालियाणणा रुयइ । जंपड़ य ममं पुत्तो, उसहो परिभमइ एगागी वसइ य सुसाणसुन्नहर - रण्णपमुहेसु भीमठाणेसु । अच्चन्तनिद्धणो इव, पडिभवणं भमइ भिक्खं च एसो पुण से पुत्तो, भरहो हरिकरिरहुब्भडं एवं । भयवसनमंतसामन्त - मण्डलं भुंजए रज्जं हा हा हयास! हयविहि ! एवंविहवसणमुवणमिंतस्स । मज्झ सुए तुह निग्धिण ! का कित्ती को व फललाभो ॥२७॥ इय एवं अणवरयं कयप्पलावाए सोयविहुराए । तीए रोयंतीए, अच्छीसुं निवडिया नीली अह तिहुयणेक्कपहुणो, उप्पन्ने विमलकेवलालोए । तियसेहिं विरइयम्मि, मणिमयसिंहासणसणाहे ओसरणे चक्कवई, भरहो सोऊण केवलुप्पायं । मरुदेवीए समेओ, करेणुगाए समारूढो जिणवन्दणत्थमिंतो, छत्ताइच्छत्तपमुहमिस्सरियं । दट्ठूणं जयगुरुणो, सविम्हयं भणिउमादत्तो अम्मो ! पेच्छ नियसुयं ससुराऽसुरतिजयपूयणिज्जपयं । भुवणच्छेरयभूयं परमिस्सरियं च एयस्स सलहिज्जंता तुमए, जा मह रिद्धी पुरा पयत्तेण । सा तुह सुयरिद्धीए, न कोडिलेसे वि निव्यडइ तहाहि, पेच्छ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३४॥ ॥३५॥ ॥३६॥ छत्तत्तिगचिन्धबन्धुरं, बहलसाहकंकेल्लिमणहरं । भुवणलच्छिविछड्डसासणं, अम्म! रम्ममेयस्स आसणं पंचरायमणिरइयगोउरं, रुप्पहेममणिसालसुंदरं । जाणुमेत्तकुसुमोहभूसियं, नियसु अम्म! ओसरणभूमियं इंतजन्तसुरगणविराइयं, वरविमाणमालाहिं छाइयं । दुंदुहीथणियसद्दणिब्भरं, पेच्छ अंब! खणमेक्कमंबरं नियसु एत्थ पणमन्तमत्थया, संथुणंति जिणमिंदसत्थया । एत्थ पेच्छ नच्चंत अच्छरा, सहरिसं च गायंति किन्नरा ॥३७॥ अह जिणवाणीसवणुब्भवन्त - हरिसंसुपूरहयनीली । मरुदेवी पेच्छंती, छत्ताइच्छत्तमऽमलच्छी तं किं पि सुहज्झाणं, पडिवन्ना जेण तक्खणेणाऽवि । विद्धंसियसयलरया, सिवसोक्खसिरिं समणुपत्ता ॥३९॥ इय निरुवमसुहहेडं, पज्जन्ताराहणाफलं सोच्चा । संसयवाउलचित्तो, सविणयपणओ भणइ सिस्सो મળો ॥४०॥ ॥४१॥ " महसेनस्य पृच्छा” जइ पवयणस्स सारो, मरणन्ताराहणा मुणिवराण । किं दाणिं सेसकाले, जयन्ति तवनाणचरणेसु गुरुराह ॥४२॥ ॥४३॥ | जावज्जीवपइन्ना - निव्वहणाराहणा जओ भणिया । पढमं तीए भंगे, सा कत्तो तस्स मरणंते तेण जहासत्तीए, आराहिंतेण सेसकालम्मि । मरणंते होयव्यं, मुणिणा दढमऽप्पमत्तेण परिजविया वि न सिज्झइ, पहाणसेवं विणा जहा विज्जा । तह पव्वज्जाविज्जा, मरणंताराहणाए विणा ॥ ४४ ॥ पुव्यमणब्भत्थकमो, रिउभडगहमम्मि जड़ वि परिहत्थो । सुहडो वि जयपडायं, न हरड़ जह समरसीसम्मि ॥ ४५ ॥ तह उग्गपरीसहसंकडम्मि, न लहइ मुणी वि मरणन्ते । आराहणविहिमणहं, पुव्यमणब्भत्थसुहजोगो | कयकरणा वि सकज्जं, अच्चंतपमाइणो न साहिति । परिवडियविरइबुद्धी, आहरणं खुड्डगो एत्थ “क्षुल्लकमुनिदृष्टान्तः” ॥४६॥ ॥४७॥ तहाहि ॥५०॥ ॥५१॥ महिमण्डणाऽभिहाणे, नयरे नाणाइगुणमणिनिहाणो । सिरिधम्मघोससूरी, समोसढो बाहिरुज्जाणे पंचसयाई मुणीणं, परिवारो तस्स निम्मलगुणाणं । तप्परिवुडो य रेहड़, सुरसहिओ सो सुरिन्दो व्य रयणायरे व्व नवरं, वडवग्गी सुरपुरम्मि राहु व्व । परितावकरो भीमो, तग्गच्छे ससहरसरिच्छे सिस्सो अइकलुसमई, निद्धम्मो सीलपसमगुणवियलो । असमाहिकरो साहूण-मासि नामेण रुद्दो ति मुणिजणनिन्दियकज्जे, भुज्जो भुज्जो समायरंतं तं । तज्जंति करुणाए, समणा इय महुरवयणेहिं पवरकुलवढिओ वच्छ!, तं सि तह दिक्खिओ सुगुरुणा तं । एवंविहस्स तुह निन्दि-यत्थकारितणमजुत्तं ॥५३॥ एवं महुरगिराए, वारिज्जतो वि विरमइ न जाय । दुच्चरियाओ निठुर गिराए ता तेहिं पुण भणिओ ॥५४॥ रे दुस्सिक्ख दुरासय!, काहिसि जड़ दुट्ठच्चेट्ठियमियाणिं । धम्मववत्थाचूरय !, गच्छा निच्छुभिस्सामो ॥५२॥ ॥५५॥ ॥४८॥ ॥४९॥ 22 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७५६-७६३ ॥५७॥ क्षुल्लकमुनिदृष्टान्तः एवं च तज्जिओ सो, रुट्ठो साहूण मारणनिमित्तं । सयलमुणिजोग्गजलभा - यणम्मि परिविड़ विसमुग्गं ॥ ५६ ॥ अह जाए पत्थाये, पियणत्थं जाय तं जलं जइणो । गिण्हंति ताव तग्गुण - तुट्ठाए देवयाए इमं भणियं भो भो समणा!, एत्थ जले तुम्ह दुट्ठसिस्सेण । रुद्देण विसं खित्तं, ता मा एयं पिविज्जाह एवं सोच्चा समणेहिं, तं जलं तेण दुट्ठसिस्सेण । समगं तव्वेलं चिय, तिविहं तिविहेण वोसिरियं अह सो मुणिजणमारण- परिणामज्जियपयंडपावभरो । तज्जम्मे च्चिय अच्चंत तिव्बरोगाउलसरीरो उज्झियजिगिंददिक्खो, इओ तओ परगिहेसु णिवसन्तो । बहुपावकम्मपसरो, भिक्खावित्तीए जीवन्तो | पव्वज्जापरिभट्ठो अद्दट्ठव्यो सुदुट्ठचेट्ठो य । सो एसो ति जणेणं, कित्तिज्जन्तो समक्खं पि अट्टदुहट्टोयगओ, पए पए रुद्दज्झाणझाई य । वाहिसिहिविहुरदेहो, अड़कूरमई मओ सन्तो | सव्यपुढवीण पाउग्ग-पावबन्धेवकहेउभूयासु । अच्चन्तखुद्दनिन्दिय - तिरिक्खजोणीसरूवासु पत्तेयं पत्तेयं, एगंतरियासु अंतरगईसु । आहिंडिय आहिंडिय जहक्कमं नरयपुढयीसु अइतिक्खदुक्खलक्खक्खणीसु घम्माइयासु सत्तसु वि । उप्पन्नो नेरइओ कयउक्कोसाउयनिबन्धो तत्तो जलथलखहयर - जोणीसु अणेगसो समुप्पन्नो | बितिचउरिन्दियजाइसु, जाओ य बहुसु अइबहुसो तत्तो जलजलणाऽनिल - पुढवीसुमऽसंखकालमुप्पन्नो । एवं वणस्सइम्मि वि, नवरमणंतं तहिं कालं तत्तो बब्बरमायंग - भिल्लचम्मयररयगपमुहेसु । संयुत्थो सव्वत्थ वि, जणवेसो दुक्खजीवी य ॥५८॥ ॥५९॥ ॥६०॥ ॥६९॥ ॥६२॥ Fl ॥६४॥ ॥६५॥ ॥६६॥ ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ तहा ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ ॥७६॥ ॥७७॥ ॥७८॥ ॥७९॥ ॥८०॥ ॥८१॥ कहिं पि सत्थदारिओ, कहिं पि लेट्ठचूरियो । कहिं पि रोगदूमिओ, कहिं पि विज्जुझामिओ कहिं पि धीवराहओ, कहिं पि जायदाहओ । कहिं पि अग्गिदद्धओ, कहिं पि गाढबद्धओ कहिं पि गब्भसाविओ, कहिं पि सत्तुमारिओ । कहिं पि जन्तपीलिओ, कहिं पि सूलकीलिओ कहिं पि वारिवूढओ, कहिं पि गड्डछूढओ । सहंतओ महादुहं गतो य मच्चुणो मुहं इय भूरिभवपरंपर- दुहसहणुप्पन्नकम्मलहुभाओ । पयणुकसायत्तेण य, चुन्नउरे पवरनयरम्मि | वेसमणसेट्ठिगेहिणि-वसुभद्दाए य पुत्तभावेण । उप्पण्णो नियसमये, गुणागरो से कयं नामं वड्ढिउमाढत्तो सो, गत्तेणं बुद्धिवित्थरेणं पि । अह अन्नया कयाई, समोसढो तत्थ तित्थयरो वन्दणयडियाए जणो, गुणागरो वि य समागतो तुरियं । वन्दित्ता जयनाहं, उबविट्ठो धरणिवट्ठम्मि संसयसहस्समहणी, सिवसुहजणणी कुदिट्ठितमहरणी । कल्लाणरयणधरणी, पयट्ठिया देसणा पहुणा पडिबुद्धो पउरजणो, पडिवन्नो केणवि विरइधम्मो । मिच्छत्तमुज्झिऊणं, केणवि गहियं च सम्मतं सो पुण गुणागरो गरुप - हरिसपब्भारपुलइयसरीरो । जयगुरुकयप्पणामो, समुचियपत्थायमुवलब्भ भणिउमिमं पारद्धो, भयवं! साहेसु पुव्यजम्मम्मि । किमहं होंतो त्ति महन्त - मेत्थ कोउहलं मज्झ अह जयपहुणा तस्सो- वयारमवलोइऊण नीसेसो । रुद्दयखुड्डयमाई, परिकहिओ पुव्ववुत्तन्तो इय सो सोउं भयविहुर - माणसो जायगाढपरितायो । जंपड़ इमस्स पावस्स, नाह! किं होज्ज पच्छितं जयगुरुणा भणियं साहु-विसयं बहुमाणपमुहसुहकिच्चं । मोत्तुणं नो भद्दय!, अन्नेणं अत्थि इह सुद्धी ॥८४॥ तो पंचसाहुसयविसय- वन्दणप्पभिडविणयकिच्चपरो । गहिओ अभिग्गहो तेण, घोरसंसारभीएणं परिवालइ य जहुतं, जत्थ य दिवसे न होंति पंचसया । साहूणं पडिपुन्ना, तत्थ न सो भोयणं कुणइ ॥ ८६ ॥ इय छम्मासे पालिय, अभिग्गहं तयणु संलिहियदेहो । मरिऊण बंभलोए, देवत्तेणं समुप्पन्नो ओहिबलेणं तत्थ वि, मुणिऊणं पुव्यकालयुत्तंतं । सविसेसजयगुरुसाहूण, वन्दणाइम्मि वट्टन्तो अइवाहिय देवत्तं, तओ चविता पुरीए चम्पाए । नरनाहचन्दरायस्स पुत्तभावेण उप्पन्नो | पुव्यभवसाहुदढपक्ख-वायभावेण तत्थवि स धीमं । मुणिणो दठ्ठे जाई, सरेइ तोसं च उव्वहड़ एतो च्चिय पियसाहु त्ति, नामधेयं पिऊहिं से विहियं । तरुणत्तणमणुपत्तो, पडिवज्जइ सो य पव्वज्जं ॥९१॥ तत्थवि य समत्थतवंस्सि - लोयविस्सामणाइकरणपरो । विविहाभिग्गहगहणेक्क- बद्धलक्खोऽपमाई य संलेहणं करिता, पज्जन्ते सुक्कपमुहकप्पेसु । तियससुहमणुभवित्ता, जहक्कमं जाय सव्यट्ठे ॥८२॥ ૫૮૩૫ ॥८५॥ મા ॥८८॥ ॥८९॥ ॥९०॥ ॥९२॥ ॥९३॥ 23 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७६४-८२७ प्रथम परिकर्मविहिद्वारे पन्द्रहः प्रतिद्वारम् - प्रथम अर्हद्वारवर्णनम् सव्युक्किट्ठे सोक्खं, अणुभुज्जिय एत्थ लद्धमणुयत्तो । कयपव्वज्जो निरवज्ज-विहियआराहणविहाणो ॥९४॥ | | निम्महियमोहजोहो, 'मुसुमूरियभवनिमित्तकम्मंसो । असुरसुरविहियमहिमो, हिमगोरं सियपुरं पत्तो ॥१५॥ इय खुड्डगनाएणं, पव्वज्ज उवगया वि दक्खा वि । आराहणाविहाणं, काउं पारिंति न पमत्ता ॥१६॥ जे पुण जह एसो च्चिय, तह पइभवविहियपवरसामन्ना । आराहणजयलच्छिं, ते लीलाए च्चिय लहन्ति ॥९॥ ता निक्कलंकपवज्ज-पालणा मरणकालविसयाए । आराहणाए जणग-तणेण णिच्चं पि कायव्या ॥९८॥ एवं सोच्चा सिस्सेण जम्पियं पुव्यमकयसामन्ना । नणु मरुदेवी सिद्धा, भणियमिणं किमिह तत्तं ति ९९॥ गुरुराहपुवमभावियचित्तो, आराहेइ जड़ कोइ मरणंतं । खत्तयनिहिआहरणेण, तं न सव्वत्थ वि पमाणं ॥८००॥ तहाहिजड़ कीलगखिवणत्थं, दरं खणंतेण भूमिवट्ठम्मि । केणवि नरेण पत्तो, रयणनिही कहवि देववसा ता किं तेणउन्नेण वि, तहा खणंतेण सो लहेयव्यो । अविसेसेण महीए, तम्हा सव्वत्थ नेगन्तो ॥२॥ इय जइ सा मरुदेवी, पुवमणभत्थकुसलकम्मा वि । सिद्धा कहंपि किं एव-मेव सिज्झउ जणो सव्वो ॥३॥ पालियमूलपइन्नो, तम्हा कमवढमाणसुहभायो । कुज्जाऽऽराहणमते, पज्जत्तमइप्पसगण તેના आराहणं च विहिणा, काउं पडिपुण्णमीहमाणेण । मुणिणा वा गिहिणा वा, परिकम्मेयव्यओ अप्पा ॥५॥ पढम पि रोगिणा इव, विसेसकिरियत्थिण ति दंसेमि । परिकामविहीणामं, पुबुद्दिटुं महादारं ॥६॥ तप्पडिबधाई पुण, पन्नरस हवन्ति संगयगुणाई । जाइं पडिदाराइं, जहक्कम ताणि कित्तेमि ॥७॥ "पन्द्रहः प्रतिद्वारम्' - अरिहो' लिंग सिक्खा' विणय समाही मणोणुसट्ठी य अणिययविहारदारं', रायद्दारं च परिणामों ॥८॥ चाओ° मरणविहत्ती", अहिगयमरणं च२ सीइदारं च३, तह भावणाण दारं, चरिमं संलेहणादारं५ ॥९॥ “अर्हद्वारवर्णनम्" - अरिहो जोग्गो भन्नइ, सो पुण आराहणाए नायव्यो । सामन्तमन्तिसत्थाह-सेट्ठिकोडुंबियाईणं ॥१०॥ राईसरसेणावड़-कुमारपभिईणमडहवमऽन्नयरो । तेसिमऽविरुद्धकारी, विरुद्धसंसग्गिपरिहारी ॥११॥ जो जड़णो चिन्तामणि-कप्पे ति करेइ तीए बहुमाणं । पत्थेइ थिरणुराओ, जो जइसज्झत्तमच्वत्थं ॥१२॥ आराहणाऽरिहेसु य, जो वच्छल्लं करेइ अणवरयं । भावेइ दुल्लहत्तं, तीए धम्मे पमाईणं ॥१३॥ आलोएड य निच्चं, मच्, पच्चूहभीहियत्थाणं । तस्स य निरोहसाहण-माराहणमेव भावेड़ ॥१४॥ अरिहन्तेसु य पूया-सक्कारं कुणइ निच्चमुज्जुत्तो । भावेइ य गुणगुरुयं, तेसिं गुणमणिकरंडाणं ॥१५॥ पवयणपसंसणाए, रमेह विरमेइ धम्मनिन्दाओ । गुणगुरुगुरुभत्तीए, सत्तीए सज्जड़ निच्वं । ॥१६॥ सुमणे समणे वन्दड़, सुटु निन्देइ णिययदुच्चरियं । गुणसुट्ठिएसु रज्जड़, सज्जड़ सइ सीलसच्चेसु ॥१॥ | वज्जेइ कुसंसग्गिं, संसग्गिं कुणइ सीलवन्तेहिं । निच्वं पि गुणे गिण्हइ, परस्स सन्ते वि नो दोसे ॥१८॥ दुट्ठपमायपिसाए, निहणेइ हणेइ इंदियमइंदे । ताडेइ य दुच्चरियं, मणमक्कडमुक्कदुपयारं ॥१९॥ नाणं सुणेइ नाणं गुणेइ, नाणेण कुणइ किच्चाई । नाणाहिएसु रज्जई, अणुसज्जइ नाणदाणम्मि ॥२०॥ अकुसलखओवसमओ, निययं कुसलाणुबन्धओ चेव । इइ गुणसत्तो सत्तो, सो च्विय आराहणा-अरिहो ॥२१॥ तह कुगईपहसहाए, जिणइत्तु परेसि कहमवि कसाए । पसमेइ पसंतमणो, जो सो आराहणा-अरिहो ॥२२॥ अणुवसमपरे वि परे, कुणमाणो सम्ममुवसमोवायं । आराहणारिहत्तं, लहई च्चिय सुद्धभावाओ ॥२३॥ आराहणाठिएण वि, कसायसल्लं समुद्धरेयव्यं । जो पढम पि तमुद्धरई, तदरिहो सो वि नायव्यो ॥२४॥ | जो य न तहारिहेणं मन्नो अन्नस्स तदरिहो सो वि । ईयरो वि तदरिहो, जड़ कहमयि वयहरणडणुन्नाओ ॥२५॥ | इहरा आराहणसंठियस्स, संधाणुगम्ममाणस्स । धणवइपओसकणा, मालिन्नं पवयणस्स भवे ॥२६॥ संमाणदाणसिक्खावणाहिं, ठिइधरियपरिअणच्चाई । जो सो वि तदरिहो खलु, इहरा लोगम्मि परिवाओ ॥२७॥ 1. भञ्जित । 2. ज्ञानाधिकेषु । 3. मान्यः । 24 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८२८-८६३ वङ्कचुलदृष्टान्तः तदसामत्थे पुण सव्व-हा वि धम्मियविसिट्ठलोयमओ । जह तह तप्परिचाई वि, तदरिहो होइ विन्नेओ ॥२८॥ तह पयईए विणीओ, पयईए चेव साहसेक्कथयो । पयईए सुकयन्नू, निच्चियनिग्गुणभवठिई य ॥२९॥ तत्तो य तविरत्तो, पयईए चेव अप्पहासो य । पयईए अद्दीणो, पयई पडिवन्नसूरो य રેલી आराहणाए जो वि य, ठियं जणं जणियपावपरिहारं । सोउं दटुं च भये, तभत्तिरसिज्जमाणमणो ॥३१॥ होहं अहं कहंपि पि हु, कयावि कमचिन्नपुन्नसामन्नो । किं मन्ने पुन्नेहिं, सव्वन्नुविहीए इयरुयो। इय यासणापहाणो, धीबलिओ थिरपसन्तपयई य । सिट्ठजणस्स बहुमओ, नेओ आराहणा-अरिहो ॥३३॥ अहवा अच्वंतचंडमणवयण-कायकिरिया वि कुरकम्मा वि । अणवरयं महुमेरय-पिसियाडसणलालसमणा वि ॥३४॥ थीबालवुड्ढमारण-चोरिक्कपरिस्थिसेवणपरा वि । अलिउल्लावाभिरती वि, धम्मविहिओवहासा वि, ॥३५॥ होऊण पुवकाले, किं पि हु वेरग्गकारणं पप्प । पच्छा पच्छायावा, परमोवसमं पवज्जति ॥३६॥ जे ते विं हुंति आरा-हणाए अरिहा सुहासया धीरा । रायसुयवंकचूली, चिलाइपुत्ताइणो व्य धुवं વરૂણો तहाहि- 'वङ्कचुलस्य दृष्टान्तः' । सुविभत्ततियचउप्पह-चच्चरदेवउलभवणरमणिज्जे । सिरिपुरनगरे राया, अहेसि नामेण विमलजसो ॥३८॥ वइरिकरिकुंभनिन्भेय-लग्गहिरारुणुब्भडच्छायो । परिकुवियजमकडक्खो व्य, जस्स खग्गो रणे सहइ ॥३९॥ जस्स य जिणमुणिचलणु-प्पलेसुभसलतणं समुव्वहइ । भत्तिवसेण य मणिमउड-किरणटिविडिक्कियं 'सीसं ॥४०॥ तस्स य भज्जा निरुवम-रूवाइगुणोवहसियसुरदयिया । सयलंतेउरपवरा, नामेण सुमंगला देवी ॥४१॥ जमलगजायत्तणओ, पुत्तो नामेण पुप्फचूलो से । धूया य पुप्फचूला, दोन्नि वि अन्नोन्नणिद्धाणि ॥४२॥ नवरं अणत्थसत्थं, उप्पायंतो पुरम्मि सव्वत्थ । भन्नइ स पुष्पचूलो, जणेण किर वंकचूलि ति ॥४३॥ नामेण इमेणं चिय, संपत्तो सो पसिद्धिमन्नदिणे । तदुवालंभायन्नण-रुटेणं सो नरिंदेणं ॥४४॥ निव्विसओ आणतो, ताहे नियपरिजणेण परियरिओ । तीए विय भइणीए, सहिओ नयराउ नीहरिओ ॥४५॥ लंघित्ता नियदेसं, बच्चंतो पउरगिरिसणाहाए । हरिनहराऽऽहयकुंजर-विमुक्कसिक्कारभीमाए ૪દ્દા नीरंधगरुयतरुवर-पडिरुद्धाइच्चकंतिपसराए । पसरंतसरहसहरिस-रवसवणपलाणसीहाए ॥४७॥ सीहावलोयणाउल-मयउलकीरंतदरिपवेसाए । वेसाए व्व सया वि हु, महाभुयंगेहिं कलियाए . ॥४८॥ अडवीए निवडिओ सो, कत्थ वि य अदिस्समाणमग्गाए । तण्हाछुहाकिलंतो य, जंपिउं एयमाढतो ॥४९॥ रे पुरिसा! उच्चतरुमि, आरुहिताऽवलोयह दिसाओ । किं अत्थि एत्थ कत्थ वि, जलासओ वसिममहवा वि॥५०॥ तव्ययणेणाऽऽरुढा, पुरिसा उच्चम्मि पवरतरुसिहरे । अवलोइउं पवत्ता, दिसिवलयं णिउणदिट्ठीए . ॥५१॥ अह थेवभूमिभागे, मसिकोइलगवलसामलसरीरा । जलणं पज्जालिन्ता, भिल्ला आलोइया तेहिं . ॥५२॥ सिटुं च इमं नरवड़-सुयस्स तेणावि जंपियं भद्दा! गच्छह एसिं समीये, पुच्छह मग्गं वसिमहुत्तं ॥५३॥ डय सोऊणं परिसा. गया समीवम्मि तेसिं भिल्लाणं । आपच्छिउं पवता. मग्गं भिल्लेहि तो भणिया ॥५४॥ कतो तुब्भे एत्था-गया तहा कस्स संतिया किं वा । देसंतरं समीहह, गंतुं साहेह ताव इमं ॥५५॥ पुरिसेहिं जंपियं सिरि-पुराओ नामेण वंकचूलि ति । विमलजसरायपुत्तो, पिउअवमाणाउ नीहरिओ ॥५६॥ परदेसं बच्चतो, इहागतो तस्स सेवगा अम्हे । मग्गस्स पुच्छणट्ठा, तुम्ह समीवं समणुपत्ता ॥५॥ भिल्लेहिं जंपियं भो!, तं दंसह अम्ह नरवइस्स सुयं । पडियन्नं पुरिसेहिं, बलिऊण य दंसिओ कुमरो ॥५८॥ अह दुराउ च्चिय मुक्क-कंडकोदण्डपमुहसत्थगणा । भिल्ला नमिउं कुमरं, चिंतेउमिमं समाढता ॥५९॥ एवंविहसुंदरराय-लक्खणालंकिओ इमो अम्ह । जड़ कहवि होइ सामी, ता जायइ सव्वसंपत्ती इय चिन्तिऊण तेहिं, निडालतडघडियपाणिकोसेहिं । सविणयपणयं भणियं कुमार!, विन्नवणियं सुणसु ॥१॥ चिरसमुवज्जियपुन्नेण, नूणं तुम्हारिसा पवरपुरिसा । दीसंति ता पसीयह, आगच्छह अम्ह पल्लीए ॥२॥ कुणह नियपायपंक्य-पवित्तियाए य तीइ रज्जं च । सामिवियलाण अम्हं, एतो सामी तुमं चेव ॥३॥ 1. मण्डितम् । 2. प्रसरच्छरभसहर्षरवश्रवणपलायितसिंहायाम् । 3. जनाकुलं वासयुक्तं स्थानम् । 4. वासस्थानाभिमुखम् । 25 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८६४-६०० वङ्कचुलदृष्टान्तः इय सप्पणयभत्थण-पल्हत्थियनियकुलव्ववत्थेण । पडिवन्नं कुमरेणं, विसयासंगीण किमकिच्वं ૬૪ अह परियणेण सहिओ, पहिट्ठचित्तेहिं तेहिं भिल्लेहिं । दंसिज्जमाणमग्गो, पडुच्च पल्लिं पयट्टो सो ॥५॥ अच्वंतनिबिडदुमदुग्गमेण, सणियं पहेण गच्छंतो । सीहगुहापल्लीए तीए अदूरम्मि संपत्तो ॥६६॥ | दिद्रा य कुमारेणं, दंसणमेते वि दिनभरिभया । विसमगिरिदुग्गलग्गा, कयन्तजणणि व्व सा झत्ति ॥६॥ अवि यएगत्थनिहियकुंजर-महंतदंतोवरइयपरिवेढा । अन्नत्थ मंसविक्क्य-मिलन्तजणजणियहलबोला ॥६८॥ एगत्थ बिंदपग्गहिय-पहियकीरंतकरुणरुन्नरवा । अन्नत्थं विणासियजंतु-रुहिरविलफिलियमहिवट्ठा ॥६९॥ एगत्थ घोरसरघुरु-हुरन्तकोलेयनिवहदुप्पेच्छा । अन्नत्थुल्लंबियपिसिय-भक्खणुम्मिलियसउणिकुला ॥७०॥ एगत्थ परोप्परवइर-भावजुझंतभीमभिल्लभडा । अन्नत्थ लक्खविंधण-पयट्टएगग्गधाणुक्का ॥७१॥ जत्थ य दुहत्तजणमारणम्मि, धम्म वयन्ति निक्करुणा । गिज्जड़ य परममंडण-मऽकित्तिमं परजुवइसंगे ॥७२॥ सलहिज्जड़ मइविभवो, विसिट्ठ [विसत्थ] जणवंचणम्मि दढवरं । वुज्झइ हियभासिम्मि, तव्विवरीए य मित्तत्तं ॥७३॥ जह तह भासित्तणमडवि, वन्निज्जड़ वयणकोसलतेण । सत्तवियलो ति भन्नड़, नयाणुवत्ती वि मूढेहिं ॥४॥ इय एवंविहलोएण, संकुलाए य तीए पल्लीए । अच्चन्तपाववसगो, नरयकुडीए व्य स पविट्ठो ॥५॥ ठविओ य सबहुमाणं, चिरपल्लीयइपयम्मि भिल्लेहिं । निययपरक्कमवसओ, जाओ अचिरेण पल्लिवई ॥७६॥ अवगणियकुलायारो, अविचिन्तियजणगधम्मववहारो । अवहत्थियलज्जभरो, विस्सुमरियसाहुधम्मगिरो ॥७७॥ | वणवारणो व्य अणिवा-रणो सया तेण भिल्ललोएण । परियरिओ अणवरयं, पाणिवहाईसु वटुंतो ॥८॥ | पच्चासन्नपुरागर-मडंबकब्बडविणासणुज्जुत्तो । थीबालबुड्ढवीसंभ-घायदिन्नावहाणो य ॥७९॥ निच्वं जूयपसंगी, निच्चं चिय मज्जमंसउवजीयी । तत्थेव य जायरई, कालं योलेइ लीलाए ૮૦થી अह अण्णया कयाइ, वच्चंता कहवि सत्थपभट्ठा । कइवयसिस्सपरिवुडा, संपत्ता तत्थ आयरिया जाओ य तम्मि समए, निवडंतद्दामसलिलपब्भारो । तंडवियसिहंडिकुलो, पढमो च्चिय पाउसाऽऽरंभो रेहन्ति जम्मि पल्लव-पसाहिया साहिणो महीपटुं । अवगुंठियं व छज्जइ, निरंतरं हरियपडएण ॥८३॥ गिरिसिहरेहितो तुंग-लोलकल्लोलरवनिहेण जहिं । गिम्हं व सवंतीओ, महानईओ पलोट्टंति ૮૪ जम्मि य पउरजलाउल-महिमंडलदुग्गमग्गपरिभग्गा । दुराउ च्चिय सुमरिय-दइया पहिया नियत्तंति ॥५॥ इय एवंविहरुवं, परिसायालं पलोइउं सूरी । समणे सुगुणपहाणे, महुरगिराए इमं भणइ ૮દ્દા भो भो महाणुभावा!, उब्मिन्नतणंकुरा मही जाया । कुंथुपिवीलियपउरा, ता एत्तो जुज्जइ न गंतुं ॥८७॥ जम्हा जिणेहिं कहिया, सारो धम्मस्स एत्थं जीवदया । तबिरहम्मि य दिक्खा, निरत्थिया कुनिवसेव व्य ॥८८॥ एतो च्चिय वासासुं, सुप्पडिलीणंगुवंगवावारा । कुम्मु व्य महामुणिणो, एगट्ठाणम्मि निवसति ॥८९॥ । जामो पल्लीए, इमाए किर एत्थ वंकचलि ति । विमलजसभवइसओ, सम्मइ भिल्लाण नाहो ति ॥९०॥ तं मग्गिता वसहिं, अइलंघेमो इमं वरिसयालं । एवं च निक्कलंक, अणुचिण्णं होइ सामण्णं ॥९१॥ पडियन्नं समणेहिं, तओ गया वंकचूलिणो गेहे । गबुग्गीवेण मणाग-मेतयं तेण पणिवइया ॥९२॥ दिन्नासीसेण य मुणिवरेण भणियं अहो महाभाग! । अम्हे सत्थब्भट्ठा, संपड़ गंतुं च असमत्था ॥१३॥ | जिणसासणसरवराय-हंसनरनाहविमलजसपुत्तं । सोऊण तुम इहई, समागया ता महाभाग! ॥१४॥ उवणेहि किंपि वसहिं, चाउम्मासं जहा इह यसामो । पयमेत्तं पि न गंतुं, कप्पइ एत्तो तवस्सीणं अह पावपरिगएण वि, अणज्जसंगइसमुत्थदोसाओ । तेणं भणियं भययं!, नो यसिउं जुज्जए एत्थ ॥१६॥ जेणं इह मंसासी, पाणियहाऽभिरयमाणसो कूरो । लोगोऽणज्जो खुद्दो, न साहुसंवासजोगो ति ॥९॥ तो मणिवइणा भणियं, अहो महाभाग! किमिह लोगेण । जीवाण रकखणं चिय, कायव्वं सव्वजत्तेणं ॥९८॥ कुंथुपिपीलियपडलाऽऽउलम्मि, नवहरियसलिलकलियम्मि । भूमितले वच्चंता, जड़णो धम्माउ भस्संति ॥१९॥ ता दंसेसु निवासं, साहिज्जं कुणसु अम्ह धम्मम्मि । उत्तमकुलप्पसूयाणं, दूसणं पत्थणाभंगो ॥९००॥ 1. 'केदी' इति भाषायाम् 2. रुधिरव्याप्त० । 3. कोलेय = शूकर० । 26 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वङ्कचुलनियमग्रहणम् संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६०१-६३५ ॥॥ nu n ॥४॥ एवं सोच्चा नरवइ - सुएण भणियं कयंजलिउडेण । भयवं । देमो वसहिं, परं न एत्थाऽऽवसंतेहिं तुम्हेहिं थेवमेत्ता वि मज्झ लोयस्स धम्मसंबंधा । कहियच्या नूण कहा, किंतु सकज्जम्मि जइयव्यं जम्हा तुम्भं धम्मे, वन्निज्जई सव्वजीयपरिरक्खा । अस्सच्चवयणविरई, परधणगिहिणीपरिच्चाओ | महुमज्जमंसपरिभोग - वज्जणं निच्चमिंदियजओ य । एव करते य धुवं, सीयइ अम्हाण परिवारो अहह ! कहं सकुलक्कम-संबद्धजिणिदधम्मसव्वस्सं । विस्सुमरइ दुस्संगइ - गसिओ वि हु अज्ज विन एस ॥५॥ इय चिंतंतेण मुणी- सरेण पडिवज्जिया ववत्था से । 1 धम्मविवरंमुहम्मि वि, जणम्मि जुत्त च्चिय उवेहा ॥६॥ तो यंकचूलिणा पण- मिऊण तेसिं समप्पिया वसही । सज्झायझाणणिरया, ठिया य ते तत्थ भयवंतो ॥७॥ | कुव्यंति विविहदुक्कर - तवचरणमणुत्तरं अहिज्जंति । नयभंगगहणमागम - मणुपरियट्टंति य तदत्थं भावेंति भावणाओ, पालिंति वयाइं निरइयाराई । मुणिणो महाणुभावा, सुगुरुसमीवट्ठिया संता तत्तो ॥८॥ ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ | संथववसथेयुप्पन्न - भत्तिणा वंकचूलिणा सम्मं । णिययपहाणपरियणो, वाहरिऊण य इमं भणितो हंभो देवाणुपिया !, खत्तियकुलसंभवं ममं सोच्चा । माहणवणियप्पमुहो, विसिट्ठलोगो इहं एही तम्हा एत्तो न गिहम्मि, जीवघाओ न मंसपरिभोगो । नो मज्जपाणकीला, कायव्या किंतु पल्लिबहिं एवं च कए एए वि, साहुणो दूरमुक्कविचिकिच्छा । गिण्हंति तुम्ह भवणेसु, भत्तपाणं जहावसरं जह आणवेड़ सामी, तह काहामो त्ति तेहिं पडियन्नं । बोलाविंति य दिवसे, मुणिणो वि सकज्जउज्जुत्ता ॥१४॥ अह मुणिवइणा नाउं, विहारकालं ममत्तरहिएण । सेज्जायरो त्ति विहिणा, कहियमिमं वंकचूलिस्स भो नरवइसुय! तुह वसहि- दाणसाहेज्जमेक्कमासज्ज । एत्तियदिणाई बुत्था, एत्थं अम्हे समाहीए एतो पुण पडिपुण्णा वट्टइ अवही विहारसमओ य । संपत्तो लक्खिज्जइ इमेहिं पच्चक्खलिंगेहिं पेच्छसु 2 वइउक्कंता, कच्छा उच्छूणमिन्तजंतेहिं । सव्वत्तो सगडेहिं, अक्कंता सयलमग्गा वि | थेवसलिलाउ पव्यय - नईउ वसभा वि जायदढथामा । सुक्कसलिला य पंथा, गामा उपव्यायचिक्खल्ला ॥१९॥ ता भो महायस! तुमं, परमुवयारि त्ति भन्नसे एवं । गामन्तरगमणट्ठा, अणुजाणसु संपयं अम्हे | जम्हा गोउलसारइय- मेहभमरउलसउणिसुमुणीणं । हुन्ति अनियत्ताओ, वसहीओ सहावओ चेव इय भणिउं मुणिवइणो, गंतुं संपट्ठिया सह मुणीहिं । तेसिमणुव्वयणट्ठा, पल्लिवई पट्टिओ ताहे अह सूरीहिं समं चिय, ताव गओ जाव निययसीमंतं । तो बंदिऊण सूरिं, पयंपिउं एवमाऽऽदत्तो भयवं! एतो उवरिं, एसा परदेससंतिया सीमा । ता गच्छह वीसत्था, अहं पि सगिहम्मि बच्चामि वज्जरियं मुणिवइणा, नरवइसुय! जा तए सह ववत्था । धम्माकहणसरुवा, आसी सा संपयं पुन्ना ता तुज्झ अणुन्नाए, धम्मुवएसं पयंपिडं किं पि । 4 वंछत्थि वच्छ ! बुच्चउ, किंवा पुव्वं पिव निसेहो उच्चालियचलणा एत्थ सूरिणो केत्तियं कहिस्संति । इय चिंतिऊण तेणं, पयंपियं भणसु सुकरं ति एत्थन्तरम्मि सूरी, सविसेससुयोवओगओ गाउं । जेहिं नियमेहिं जायड़, इमस्स धम्मुम्मुहा बुद्धी. जत्तो पच्चक्खं चिय, उप्पज्जइ आवयापडिग्घाओ । मुणइ य एयं णियमा, नियमाण फलं इमाणं ति ॥२९॥ ॥२०॥ ॥२७॥ ૫રા ― ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ “चङ्कचुलनियमग्रहणम्” ॥३०॥ तो कहड़ जहा भद्दय!, जीये घाओ न ताव दायव्यो । जाय न सत्तट्ठपए, पच्छाहुतं नियत्तो सि एगो एसो नियमो, बीओ पुण मा अनायनामाणि । भक्खिहसि फलाणि तुमं, अच्चन्तछुहाऽभिभूओ वि ॥३१॥ तइओ पुण गरुयनरिंद- अग्गमहिसी न कामियव्य त्ति । भोतव्यं नेव य काय - मंसमेसो चउत्थो ति एए चउरो वि तुमं, जाजीयं सव्वजत्तओ नियमे । पालेज्जसु एयं चिय, जम्हा पुरिसाण पुरिसवयं किंच ॥३२॥ ॥३३॥ | माणेक्ककणगमुत्ता-हलाई महिलाण मंडणं एयं । पडिवन्नपालणं पुण, सम्पुरिसाणं अलंकारो छिज्जउ सीसं परिगलउ संपया बन्धवा वि विहडंतु । पडिवन्नपालणे सुपुरि-साण जं होइ तं होउ 1. धर्म विपराङ्मुखे । 2. वृत्युत्क्रान्ताः । 3. म्लानकर्दमाः = शुष्ककर्दमाः । 4. वाञ्छाऽस्ति । 27 ॥२५॥ ॥२६॥ ॥३४॥ ॥३५॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६३६-६७२ नियमप्रतिपालनम् सदसदविसेसणं पि हु, एत्तो च्चिय वुच्चइ इह नराणं । अन्नह समम्मि पंचिं-दियत्तणे होज्ज कह भेदो ॥३६॥ इय मुणिवइणा भणिए, सम्ममभिग्गहचउक्कमाऽऽदाय । काऊणं च पणाम, भिल्लवई पडिगओ सगिहं ॥३७॥ सिस्सजणेण परिवुडा, मुणिवइणो वि य जहाभिमयदेसं । इरियासमिइजुत्ता, सणियं गंतुं पयट्ट ति ॥३८॥ इयरस्स य पावपओयणेसु, अणवरयकरणपउणस्स । नाणाविहवसणसया-उलस्स वच्चन्ति दियहाई ॥३९॥ अह अन्नया कयाई, अत्थाणीमंडवे निसण्णण । तेणं पयंपियमिम, चिरमिह यवसायरहियस्स ૪૦ वोलंति वासरा मे, ता भो पुरिसा! पुरं व नयरं वा । गामं सत्थं 'युचियं, सव्वत्थ पलोइउं एह ॥४१॥ जेण तयं लुटेउं, बच्चामो सेसज्जचाएण । महुमहणं पि विमुंचड़, लच्छी ववसायपरिहीणं ૪૨ आयन्निऊण एवं तहत्ति पडिसुणियसासणा झत्ति । पुरिसा जहुत्तठाणाई, हेरिऊणाऽऽगया बिन्ति ॥४३॥ नाह! निसामेहि महा-सत्थो बहुसारवत्थुपडिपुण्णो । अमुगपहेणं एही, दोण्हं दिवसाणमुवरिम्मि ૪૪ ता जड़ चट्टाबंधं काउं, अच्छह अणागयं तब्भे । ता पावेह जहिच्छिय-लच्छीविच्छड्डमचिरेण । ॥४५॥ एवं सोचा कइवय-दिणाणमुचियं गहाय पाहेज्जं । नियपरियणपरिकिन्नो, पल्लिवई तं गओ ठाणं ॥४६॥ सो पुण सत्थो अक्सउण-दोसओ तं पहं विमोत्तूण । मग्गंतरेण लग्गो, पत्तो य समीहियपएसं ૪૭ भिल्लाहियो य तप्पह-पलोयणं कुणइ अणिमिसच्छीहिं । नवरं पुव्याणीयं, संबलगं निट्ठियं सव्यं ૪૮ના ताहे विच्छायमुहो, पीडिज्जतो छुहाइ पडिवलिओ । पत्तो पल्लिसमीये, तत्तो गंतुं अचाइंतो ॥४९॥ सिसिरतरुच्छायाए, नवकिसलयसत्थरे समकिलंतो । पामुक्कनीसहंगो, विस्सामं काउमाढतो ॥५०॥ परियणपुरिसा य गया, सव्वत्तो कंदमूलफलहेउं । अह एगत्थ पएसे, तेहिं अवलोयमाणेहिं ॥५१॥ फारफलभारभज्जिर-साहासयसंकुलो महासाही । किंपागनामधेओ, दिट्ठो अच्चन्ततुट्टेहिं ॥५२॥ फलाणि तत्तो विपाकपिंगाणि । उवणीयाणि य सिरियंक-चुलिणो विणयपणएहिं ॥५३॥ भणियं च तेण हंभो!, फलाणि एयाणि किमभिहाणाणि । दीसन्तसुंदराई, न कयाइ वि दिट्ठपुव्वाइं ॥५४॥ तेहिं भणियं सामी, न याणिमो नामधेयमेयाणं । पागवसेणं केवल-मणुमाणेमो रसं पवरं ॥५५॥ “नियमप्रतिपालनम्" - पल्लिवइणा वुत्तं, हवंति जइ अमयनिव्विसेसाणि । अमुणियनामाणि इमाणि, तहवि भुंजामि न फलाणि ॥५६॥ तव्वेलावतगमेग-मेव मोत्तुं च छुहकिलंतेहिं । आढ़त्ताइं ताई, भोत्तुं पुरिसेहिं सेसेहिं । ॥५७॥ मुहमुहरेसुं तेसुं, विसएसु व परिणइम्मि विरसेसुं । भुंजेउं सुत्तेसुं, विसवसओ चेयणा नट्ठा ॥८॥ अह पमिलाणच्छिजुया, अन्तो च्चिय मुज्झमाणनिस्सासा । निदाइउं पवत्ता, सुहसेज्जाए पसुत्त व्य ॥९॥ अह तज्जीयं घेत्तुं व, चोरो इव दिणयरो गओ अत्थं । तग्गमणं पि य पक्खीहिं, पिसुणियं वाउलरवेणं ॥६०॥ कुणमाणो जीयलोयं, कंकमरसरंजियं व सव्यत्तो । कयचक्कयायविहरो, संझाराओ पवित्थरिओ गवलगुलियासमप्पह-पडसंछाइयतणु व्य पंसुलिया । ताविच्छगुच्छकसिणा, वियंभिषा तिमिररिंछोली ॥२॥ निच्चविडप्पगसिज्जंत-चंदपब्भट्ठसगलपडलं य । एक्कसरियाए सव्वत्थ, पसरियं तारयाजालं ॥६३॥ तो तिजयविजयदिक्खिय-वम्महमुणिसयणफलिहफलयं व । तियसभवणंगणु-छंगपुन्नकलहोयकलसो व्य ॥६४॥ गयणसरोवरवियसंत-सहस्सपत्तं व रयणिरमणीए । 'रोयण-थोर-थवक्को व्य, उग्गओ तुहिणाकिरणो वि ॥५॥ ताहे गमणडणुकूलं, येलं कलिऊण पल्लिनाहेण । सुत्त ति मन्नमाणेण, बोहिया ते गुरुगिराए ॥६॥ पुणरुत्तं जंपिया वि हु, न जाय थेवं पि देन्ति पडिवयणं । ताव समीवे ठाऊण, निउणमवलोइया सव्वे ॥६॥ | निन्नट्ठजीवियव्ये, सब्वे दठूण चिंतियं तेण । अमुणियनामफलाणं उपयोगफलं अहो एयं ॥८॥ अहमऽवि एयमऽवत्थं, इमाई भोत्तुं फलाणि वच्चंतो । जड़ निक्कारणवच्छल्ल-मुणिवइनियमो न मे हुन्तो ॥६९॥ ते गुरुणो गुणनिहिणो, तमतरुसिहिणो जयंतु जाजीवं । जेहिं नियमप्पयाण-च्छलेण जीयं च मे दिन्नं ॥७॥ इय सुचिरं गुरुमुवहि-ऊण अच्चन्तसोगविहुरंगो । तप्पहरणाइउवगरण-मेगठाणम्मि ठविऊण ॥१॥ भडचडयरपरिखित्तो, पुब्बिं भमिऊण पल्लिमज्झम्मि । कह संपड़ एगागी, तत्थ वि मयसव्वपरिवारो ॥७२॥ 1. वा उचितम्। 2. वट्टाबन्धं = मार्गरोधनम् । 3. श्रमक्लान्तः । 4. पंसुलिया = दुराचारिणी स्त्री। 5. राहुः । 6. झगिति । 7. गोरोचनस्थूलस्तबकवत्। 28 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६७३-१०१० नियमप्रतिपालनम् दंसिस्सामि मुहमहं, लोगाणं पयडमेव वच्चंतो । इय चिंततो चलिओ, जाए रयणीए मज्झम्मि ॥७३॥ अह सिग्घं चिय पत्तो, निययगिहे खग्गमेत्तयसहाओ । केणावि अनज्जंतो, सेज्जाभवणम्मि य पविट्ठो ॥७४॥ |पेच्छइ य पज्जलन्त - प्पईयपसरन्तकंतिपडलेण । सेज्जाए निययभज्जं, पुरिसेण समं सुहपसुतं ताहे भालयलसमुल्लसंतरंगन्ततिवलिविगरालो । दन्तग्गभागनिठुर - दट्ठोट्ठो गाढकोवेण ॥७५॥ ॥७६॥ ॥७७॥ ॥ ७८ ॥ ॥ ७९ ॥ ॥८०॥ ॥८१॥ ॥८४॥ ॥८६॥ ॥८७॥ મો ॥८९॥ ॥९०॥ K | विप्फारियफारारुण - नयणुब्भडकंतिपडलपल्लवियं । आयड्ढिऊण खग्गं, चिंतेउमिमं समादत्तो को अज्ज एस कीणास - नयणमणुसरिउमिच्छइ वरागो । जो मइ जीवंते वि हु, मम भज्जं सेवइ अणज्जो किं वा इमा वि पाया, मम भज्जा चत्तलज्जमज्जाया । पुरिसाहमेण केण वि, सद्धिं एवं प्रसुत ति | एत्थ ट्ठियाणि दोन्नि वि, इमाणि खंडेमि मंडलग्गेण । अहवा लोयविरुद्धे, इत्थीए वहे कहं एस | विक्कंतुक्कडपरचक्क - करिघडाडोवविहडणपयंडो । वावारिज्जइ बहुसमर - पत्तकित्ती महाखग्गो तो एयं चिय एक्कं हणामि इइ जाय देइ नो घायं । ता चिरगहियाभिग्गह- मणुसुमरड़ झति स महप्पां ॥८२॥ ताहे पच्चोसक्किय, सत्तट्ठपयाई जाय पहरेइ । उवरिं पीढिउक्खलणे, खग्गेण खडक्कियं ताव m अह भाउजायादेह - भारपीडिज्जमाणबाहाए । विहडंतनिबिडनिद्दा - भराए भगिणीए तं सोच्चा चिरकालं जीवउ मज्झ, भाउगो यंकचूलिनामो सो । सज्झसवसप्पबुद्धाए, तीए वि [ अ ] जंपियं सहसा ॥ ८५ ॥ आयन्निऊण एवं विचिंतियं यंकचूलिणा ताहे । अहह ! कहं मम भगिणी, सा एसा पुप्फचूला ति जीए अच्चतं गाढ- पणयवसओ ममं सरंतीए । सुहिसयणजणणि-जणगाइणो वि पुव्यं परिच्चत्ता हा ! कहमेयमियाणिं, हणिऊणं निययजीवियन्महियं । अइगरुयपावकारी, जीवंतोऽहं सयमलज्जो कत्थ व पसत्थतित्थे, गयस्स केण व तयोविसेसेण । हुंता सुद्धी भइणी-विणासजायाउ पावाओ इय चिन्तिऊण भइणीए, कंठमासज्ज मन्नुभरविहुरो । रोविउमारद्धो णियय-पावचेट्टाए संतत्तो कह कह वि पुप्फचूलाए, विम्हयाऽऽक्खित्तचित्तपसराए । उववेसिऊण सेज्जाए वंकचूली इमं भणिओ ॥९१॥ भाउग ! विच्छायमुहो, तत्थ वि नीसेसपरियणविहीणो । तत्थवि पच्छन्नो च्चिय, गिहे किमेवं पविट्ठोऽसि ॥९२॥ किं वा जंबूणयसेल - सारसत्तो वि गरुयपयई वि । सहस च्चिय मं अवलंबि- ऊण एवं परुन्नोऽसि किंच तुहागमणम्मि, पडिभवणदुवारबद्धधवलधया । 'हल्लम्फलियजणाउल - रच्छा पल्ली इमा हुंता अच्वन्ताऽणिट्ठसमुभये वि, गाढावयानिवडणे वि । दूरे परुन्नमन्नह - मुहरागो विहु न ते हुतो तो तेण तीए कहियो, सव्यो परियणविणासवुत्तन्तो । परपुरिसबुद्धियाया-रियासिपडिखलणवत्ता वि एवं च जंपियं भइणि! नेव सोएमि परिजणविणासं । सोएमि पुण इमं जं, तुमं मए इय हया हुंता एत्तो च्चिय इण्हिं पि हु, वइयरमिममेव सुमरमाणो हं । बाहप्पवाहमित्तं खलिउं न तरामि नयणेसु केण पुण कारणेणं, एवं काऊण पुरिसनेवच्छं । भाउजायाए समं भइणि! पसुत्तासि कहसु ममं तीए भणियं भाउग! तुमए पगयम्मि विजयजत्ताए । एत्थागया नडा नच्च - णऽट्टया तेहिं पुट्ठाऽहं अच्छइ इह पल्लिवई, न वत्ति तो चिंतियं मए एयं । जइ नत्थि त्ति कहिस्सं, ता सोच्चा कोइ रिउपुरिसो ॥१॥ साहिस्सइ सीमालाणं, तुम्ह पडिबद्धगाढवेराणं । ते पुण लद्धोगासा, मा पल्लिं विद्दविस्संति तेण मए भणियमिमं अच्छड़ सो पल्लिमउडमाणिक्को । सयमेव वंकचूली, नवरं कज्जन्तरासत्तो कं वेलं पेच्छणयं, दंसेमो मे पयंपियं तेहिं । वृत्तं च मए रयणीए, जेण सोडणाउलो नियड़ पारद्ध तेहिं तहेव, तयणु कयपुरिसचारुनेवच्छा । भाउजायाए समं, तुमं व तहियं निसन्नाऽहं अह मज्झरतसमए, उचियं दाउ नडाण दायव्यं । निद्दाघुम्मिरनयणा, इमाए सद्धिं पसुत्तम्हि एतो उचरिं न मुणेमि, किंपि नवरं खडक्कयं सोच्चा । जीवउ भाया सुचिरं ति जंपमाणी विद्धाऽहं ॥७॥ एवं सोच्चा य ईसिं, पसन्तसोगो पुणो पुणो तेसिं । नियमाण फलं एयं ति चिन्तयन्तो गमइ कालं | अह परिवारविरहओ, पराऽऽगरे लुंटिउं अपारन्तो । दट्ठूण परियणं सीय-माणमुप्पन्नसंतायो खत्तखणणं विमोत्तूणं, एत्तो मे नन्थि जीवणोवाओ । इ निच्छिऊण एगो वि, सो गओ नयरिमुज्जेणिं ॥१०॥ 1. औत्सुक्यवज्जनाकुल । ॥९४॥ ॥१०००॥ ॥२॥ ૫ ॥४॥ ॥५॥ En ॥८॥ ॥९॥ 29 ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९७॥ ॥९८ ॥ ॥९९॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १०११-१०४८ नियमप्रातपालनम् धणवन्तलोयमन्दिर-पवेसनीहरणदारपडिदारे । पेहिता य पविट्ठो, मुसणट्ठा गरुयगेहम्मि ॥११॥ अह तम्मि नयरि दीसंत-बाहिराकारसुंदर सोच्चा । कलहं परोप्परं महिलि-याण चिंतेउमारद्धो ॥१२॥ नूणं न तह बहुधणं, अत्थि गिहे एत्थ कलहकरणाओ । 'छुल्लुच्छलंति ऊणाई, जेण लोए वि पयडमिणं ॥१३॥ संते वि हु थोवधणे, मुटे का होज्ज मज्झ संपत्ती । नहि बिंदुणा भरिज्जइ, अइगरुएण वि नईनाहो ॥१४॥ इय तं मोत्तूण घरं, स महप्पा सयलनयरिपयडाए । गणियाए देवदत्ताए, मंदिरम्मि गओ झत्ति ॥१५॥ खत्तं च पाडिऊणं, कयकरणो रयणरम्मभित्तिम्मि । वासभवणे पविट्ठो, अच्छिन्नजलंतदीवम्मि ॥१६॥ दिट्ठा य सुहपसुत्ता, सेज्जाए गाढकोढसुढिएण । एगेण नरेण समं, सा गणिया भीसणंगेण ॥१७॥ अहह! कहं एवंविह-धणवित्थारा वि पेच्छ दविणट्ठा । कुर्हि पि अभिगमती एसा इय वट्टइ अणज्जा ॥१८॥ अहवा अहं अणज्जो, जो एत्तो वि हु धणं समीहामि । ता पज्जतं इमिणा परमिस्सरगिहमणुसरामि ॥१९॥ ताहे समग्गवणिय-प्पहाणसेट्ठिस्स मंदिरे खत्तं । पाडिता सणियगई, झत्ति पविठ्ठो भवणमझे ૨૦ पेच्छइ य तहिं सेटिं, करसंपुडधरियखडियसंपुडयं । पुत्तेण समं लेक्खग-मडणुक्खणं चिय करेमाणं ॥२१॥ एत्थ य एगम्मि विसोवगम्मि, कहमवि अपुज्जमाणम्मि । रुट्ठो जंपइ सेट्ठी, रे! रे! कुलकवलणकयन्त! ॥२२॥ अवसर दिट्ठिपहाओ, मा गेहे मज्झ वसिहिसि खणं पि । एत्तियमेतऽत्थखयं, नाऽहं पिउणो वि हु सहिस्सं ॥२३॥ एवं पयंपमाणं, उब्भडकोवारुणच्छिविच्छोहं । तं पेच्छिऊण चिंतइ पल्लिवई विम्हिओ संतो ॥२४॥ जो एगविसोवगविप्प-णासमऽवलोइऊण पुत्तमऽवि । निस्सारिउं समीहड़, सो जड़ मुसियं गिहं मुणइ ॥२५॥ ता नूण मरइ धणविप्पणास-वसजायहिययसंघट्टो । एवं च किविणपिउणो, न मारणं जुज्जइ इमस्स ॥२६॥ वच्चामि मंदिरे नरवइस्स, गिण्हामि वंछियं तत्तो । न हु विरमइ तण्हा वार-णस्स, तणुविरयनीरेण ॥२७॥ एवं परिभायेंतस्स, तस्स रयणी विराममणुपत्ता । अरुणो विप्फुरिओ पुच्च-दिसिमुहे घुसिणतिलउ व्व ॥२८॥ अह सणियं चिय तत्तो, नियत्तिउं सो गओ अरण्णम्मि । पुट्ठसरीरं गोहं, घेत्तुं च समागओ नयरिं ॥२९॥ मुक्का य तेण तत्पुच्छ-बद्धदढदोरगेण अप्पाणं । संजमिऊणं गोहा, निवभवणारोहणनिमित्तं निठुरचरणावटुंभओ य, सो लंघिऊण गिहभित्तिं । पासायं आरुढो, पल्लिवई तयणु तुट्ठमणो ॥३१॥ तं उज्झिऊण सणियं, आढत्तो पविसिउं भवणमज्झे । तव्वेलं पुण तत्थ य, रन्नो उपरि विहियकोवा ॥३२॥ मणिभूसणकंतिकडप्प-निहयतिमिरा नरेंदवरभज्जा । सेज्जागया पलोइय, तं जंपिउमेयमाऽऽरद्धा ॥३३॥ को भद्द! तुमं? चोरो म्हि, वंकचूलि ति भुवणजणपयडो । मणिकणगचोरणडट्ठा, इहागओ तेण इय भणिए ॥३४॥ परियुत्तं देवीए, न तुम चोरो हिरन्नमाईणं । चोरिउमिच्छसि निग्घिण!, जेणं मम संपयं हिययं ॥३५॥ तेणं पयंपियं सुयण!, मा तुम एवमुल्लवसु जेण । को सुचिरजीवियउत्थी, फणिपहुमणिमभिलंसइ घेत्तुं ॥३६॥ अह तस्स मयणसच्छह-सरीरसुंदेरहरियहिययाए । इत्थीसहावओ च्चिय, अच्वन्तं तुच्छबुद्धीए રૂથી कुलंगजणावलोयण-परंमुहाए अणंगविहुराए । तीए भणियं भद्दय!, दूरुज्झियपडिसयविगप्पो ॥३८॥ अभिगमसु ममं संपड़, सेसा तुह चिन्तियत्थसंपत्ती । एतो च्चिय नीसेसा, सविसेसा होहिइ अचिरा ॥३९॥ किं नो पेच्छसि अच्वंत-निम्मलुम्मिल्लरयणपहपसरं । आभरणमालियं एत्थ सुहय!, एयाए तं सामी ॥४०॥ इय तीए गिरं सोउण, जंपियं यंकचूलिणा सुयणु! । का सि तुम किमिहेच्छसि, को या तुह पाणनाहो त्ति ॥४१॥ तीए भणियं भद्दय!, महानरिंदस्स अग्गमहिसी हं । कयकोया नरनाहे, एवं एत्थावसामि ति ॥४२॥ पुव्वग्गहियाभिग्गह-मणुसरिऊणं पयंपियं तेण । जइ नरवड़णो भज्जा, ता मह जणणि ब्व होसु तुमं ॥४३॥ ता मा महाणुभावे! पुणरवि एवं समुल्लविज्जासि । मइलिज्जड़ जेण कुलं, कुलप्पसूयाण तमऽकिच्वं ॥४४॥ अहह महामुद्ध!, किमेव-मडणुचियं वाउलो व्य वाहरसि । इय निभच्छंतीए तीए, सकोवाए भणिओ सो ॥४५॥ जं सुमिणे वि न पेच्छसि, भूवइभज्ज पि तमहुणा पत्तं । किं मूढ! नोव जसि, पडिभणियं तेण एत्ताहे ॥४६॥ अम्ब! विमुंच ग्गाहं, मणसावि हु चिंतियं न जुत्तमिमं । वरमुग्गविसं खइयं, मा क्यमेवंविहमज्जं ॥४७॥ वयणपडिकूलणावस-सविसेसविसप्पमाणकोवाए । पयडक्वरेहिं भणियं, देवीए तं पडुच्च इमं ॥४८॥ 1. 'छलकाय छे' भाषायाम् । 2. 'वसो' इति भाषायाम् (आज की भाषामें नया पैसा के समान)। 3. अल्यविरजोनीरेण । 4. दूरोज्झितप्रतिश्रयविकल्पः । | 30 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १०४६-१०८६ नियमप्रतिपालनम् होसि वसे मज्झ तुम, हयास! नृणं विडम्बिओ संतो । जाइस्सइ सग्गं नग्ग-खवणओ नवरि विग्गुत्तो ॥४९॥ अह तेणं सा भणिया, अम्बा अम्ब ति पुव्यमुल्लविउं । तुममेव संपयं कह, जायं भणिऊण सेवेमि ॥५०॥ एयं च तदुल्लायं, कडगंडतरिओ समग्गमयि सोच्या । देवीपसायणट्ठा, चिरागओ चिंतए राया ॥५१॥ अच्छरियमहो! सम्माण-दाणनंदिज्जमाणहियया वि । नावत्थाणं बंधड़, इत्थी एगत्थ पुरिसम्मि ॥५२॥ कलग्गया वि ह. अणरत्तमणं मम पि मोत्तण । अमणिज्जंतं पि जणं, कामिउमिच्छइ इमा एवं ॥५३॥ धी! थी! पडिबंधो सव्व-हेव रामासु सुहविरामासु । अहह! कहं सुकुला वि हु, विहुरे खिप्पंति एयाहिं ॥५४॥ अज्जवि कोवि सुपुरिसो, एसो चोरो न जो मुयड़ मेरं । पत्थितो वि इमीए, सामभेयाइभणिईहिं ॥५५॥ अज्जऽवि रयणाधारा, धरणी अज्जवि न एइ कलिकालो । दीसंति जेण एवं-विहाई वरपुरिसरयणाइं ॥५६॥ जे किर करिकुंभत्थल-मेक्कपहारेण चेव खंडंति । ते वि हु अबलालोयण-सरपहरहया किलिस्संति ॥५॥ एसो य महासत्तो, इमीए इय पत्थिओ वि थेवं पि । सववत्थं नो चूरड़, ता इत्तो होइ दट्ठव्यो ॥५८॥ इय जाव निवो चिंतइ, ताव विणिच्छयकएण देवीए । भणियं किं रे! नियमा, नो काहिसि मज्झ वयणं ति ॥५९॥ | तेणाऽवि जंपियं सहरि-सेण एवं ति अह परुट्ठाए । वाहरियं देवीए, रे पुरिसा! रायसव्वस्सं हीरंतं किमुवेक्खह, धावह एसो इहाडजवसइ चोरो । इय सोच्चा सब्बत्तो, समागया जामरक्खभडा ॥१॥ असिचक्कचावहत्था, न जा पहारं कुणंति ता रन्ना । भणिया हंहो! चोरं, ममं व रक्खेज्जह इमं ति ॥६२॥ अह तेहिं पडिरुद्धो, अनुभियचित्तो महागइंदो व्य । विगमेड़ वंकचूली, रयणिं करकलियकवालो ॥३॥ देवीए विहियकोयो, सेज्जाभवणे गओ य नरनाहो । कह कह वि लद्धनिद्दो, पासुत्तो पच्छिमनिसाए ॥६४॥ अह जायम्मि पहाए, वज्जतेसुं पहायतूरेसु । अवसरनिवेयगेणं, पढियमिमं मागहसुएण ॥६५॥ अप्पडिहयप्पयायो, समत्थतेयस्सितेयनिम्महणो । अक्लंडमंडलधरो, पडिहयदोसाअरपयासो ॥६६॥ पवियंभमाणकमला-यरो य अचले पइट्ठिओ उदए । समग्गपयासपरो, जयसि तुमं देव! सूरो व्य ॥६॥ सुणिऊण इमं राया, कयपाभाइयसमग्गकायव्यो । अत्थाणे आसीणो, निसिवित्तंतं समरमाणो ॥६८॥ यंकचूली कयप्पणामेहिं । सो देव एस चोरो ति, जंपमाणेहिं उवणीओ ॥६९॥ दठ्ठण य से रूवं, विम्हइयमणेण चिंतियं रन्ना । एवंविहाए कह आ-गिईए चोरो हज्जेसो ॥७०॥ जइ सच्वं चिय चोरो, ता किं देवीए नो कयं वयणं । पायं न भिन्नचित्ताण, होइ कत्थ वि जओ खलणा ॥१॥ अहवा किमऽणेण विगप्पिएण, इममेव ताव पुच्छामि । इइ चिंतिऊण सुसिणिद्ध-चक्नुणा पेखिओ रन्ना ॥७२॥ तेण य कओ पणामो, दवावियं आसणं च उचियं से । तहियं आसीणो सो, पुट्ठो सयमेव नरवइणा ॥७३॥ हंहो देवाणुप्पिय!, कोऽसि तुमं किंच असरिसं कम्म । अच्वन्तनिंदणिज्ज, पारद्धं तेण तो भणियं . ॥७४॥ सीयन्तपरियणभत्थियाण, पुरिसाण खीणविहवाणं । न हु णवरि कायराणं, गरुयाण वि चलइ मइविहवो ॥५॥ कोऽसि तुमं जं च तए, पुटुं तत्थ वि न किं पि वत्तव्यं । एवंविहकिरियाए, पायडिए णियसरुवम्मि ॥६॥ रन्ना भणियं मा भणस, एरिसं होसि तं न सामन्नो । ता अच्छउ ताव इम, कहेसु रयणीए वित्तंतं ॥७७॥ | देवीए उल्लावो, नूणं रन्ना वियाणिओ सव्यो । इइ निच्छिऊण तेणं, पयंपियं देव! निसुणेसु ॥८॥ तुह गेहं मुसिउमणो, अहं पविट्ठो तहिं च देवीए । दिट्ठो कहपि एन्तो वि, देव अन्नो न वित्तंतो ॥७९॥ पुणरुतं पुच्छिओ वि हु, जाव इमं चिय स जंपड़ महप्पा । सप्पुरिसयाए तुट्टेण, ताव भणियं नरिंदेण ॥८०॥ तो भद्द! बरेसु वरं, तुट्ठोऽहं तुज्झ सुद्धचेट्टाए । तो वंकचूलिणा भाल-बट्टकयपाणिकोसेण ॥१॥ विन्नतं एसो च्चिय, देव! वरो सव्वहा न कायव्यो । देविं पडुच्च कोयो, जं सा जणणी मए भणिया ॥८२॥ पडियन्नमिमं रन्ना, तओ वियंभंतगाढपणएण । पुत्ते ब्व पक्खवायं, अच्वंतं उव्वहंतेण ॥३॥ विओ महंतसामंत-संतिए सो पयम्मि दिन्नो य । करितरयरयणविहयो, समप्पिओ सेवगजणो य ॥८४॥ एवं च पत्तविहवो, सो चिंतइ ते समग्गगुणनिहिणो । एरिसकल्लाणाणं, निबन्धणं सूरिणो जाया ॥५॥ कहमन्नहा तहाऽहं, जीवंतो कह व मज्झ सा भइणी । कह वा इण्डिं एवं-विहं च लच्छिं अणुहवन्तो ॥८६॥ 1. ननक्षपणकः = नगसाधुः । 2. विगोपितः 31 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १०८७-१११८ नियमप्रतिपालनम् हा मन्दबुद्धिणो मह, परंमुहस्स वि महाणुभावेहिं । कहमुवयरियं तेहिं, परोक्यारेक्कनिरएहिं Rળા ते च्चिय चिंतामणिणो, कप्पदुमा कामधेणुणो य धुवं । नवरं निप्पुण्णेणं, मए न मुणिया मणागं पि ॥८॥ इय ते च्चिय मणिवडणो, सहे व्च सयणे व्य जणणिजणगे व्द । देवे व्च् समरमाणो, अणवरयं अह अन्नम्मि अवसरे, दमघोसा नाम सूरिणो दिट्ठा । अच्वंतपहिडेणं, पणिवइया ते य भत्तीए ॥९०॥ जोगो ति कलिय नेहिं, उवइट्ठो अरिहधम्मपरमत्थो । अणुहवसिद्धो ति पर-प्पमोयओ तेण गहिओ य ॥११॥ जाया य समीवग्गाम-वत्तिणा परमधम्मकुसलेण । जिणदाससावगेणं, सह मेती तेण य समं सो ॥१२॥ नयभूरिभंगगंभीर-मणुदिणं आगमं निसुणमाणो । वच्छल्लं कुणमाणो, सयणेसु व तुल्लधम्मसु ॥९३॥ निव्वत्तितो जिणमंदिरेसु, सव्यायरेण पूयाई । पुव्वग्गहियाभिग्गह-नियहं च सया वि चिन्तितो ॥९४॥ जहभणियं जिणधम्मं, परिपालिन्तो पमायविरहेण । सज्जणसलाहणिज्जं, सामंतसिरिं समणुहवइ ॥९५॥ अन्नम्मि य पत्थावे, नवइवयणाओ पउरबलकलिओ । कामरूवनरिंदं पड़, चलिओ सो विजयजत्ताए कालक्कमेण पत्तो, रिउणो देसस्स सीमभागम्मि । एत्थंतरम्मि पत्तो, पडिसत्तू वि हु तओ तत्थ ॥९७॥ ढलंतचारुचामरं, फुरंतछत्तडामरं । थिणंतसंदणोहयं समुल्लसंतजोहयं ॥९८॥ ढुक्कन्तमत्तवारणं, भडाण तुट्ठिकारणं । हिंसन्तआसघट्टयं, पढंतभूरिभट्टयं ॥१९॥ रसंततारतूरयं, चोइज्जमाणसूरयं । वज्जंतजुद्धढक्कयं, अन्नोन्नमुक्कहक्कयं ॥११००॥ थुव्वंतचित्तविंधयं अन्नोन्नघायसंधयं । संनद्धबद्धकवयं, नदन्तजोड्डसंखयं ॥१॥ फुरन्ततिक्खखग्गयं, दलाण ताण लग्गयं । पयंडकोवकारणं, परोप्परं महारणं રા तओ य नट्ठकायरं, हयाऽऽसजोहकुंजरं । पहारजालजज्जरं, पडतदेहपंजरं ॥३॥ किरासि जं महाबलं, परेसिं संतियं बलं । रणाऽऽगयं समग्गय, खणेण तं पि भग्गयं आसि रणंगणक्कडो, राया कामरूओ महाभडो । अह सो विखणेणनिज्जिओ. लह पाणेहिं कओ विवज्जिओ॥५॥ वंकचूली वि खरपहरभिन्नंगओ, विजियपडिवक्खु, समराउ लहुनिग्गतो । पतु उज्जेणिनयरीए घायाऽऽउरो, तस्स आगमणि तुट्ठो दढं नवरो ॥६॥ वेज्जसत्थेण से वणचिकिच्छा क्या, नेव जाया मणागपि नीरोगया । रोहपत्ता वि बिहडन्ति पाया पुणो, चत्तजीयाऽऽसओ तेण धुवमप्पणो ॥७॥ तो पुणो सोगगग्गिरसरो भूवई, भणड वेज्जे अहो मज्झ सेणावई । जेण केणावि दिव्योसहेणं लहुं, होइ नीरोगु तं देह एतो बहुं ળી तयणु वेज्जेहिं सत्थाई संचिंतिउं, निउणबुद्धीए अवरोप्परं निच्छिउँ । |कायमसोसहं संसियं सोहणं, तस्स घायव्वणाणं च संरोहणं ॥९॥ अहजिणधम्मणुरत्तिण निरुवमतिण, कायमंसु पडिसिद्ध तिण । वरि जीविउ बच्चउ नियम म मुच्चउ, तो वि एउ सुमरंतएण ॥१०॥ अह जड़ पुण निब्भरपणय-जुत्तजिणदासययणओ कुणइ । ओसहमिमं ति रन्ना, पुरिसं पेसित्तु गामाउ ॥११॥ आहूओ इंतो पुण, देविदुगं पेच्छिऊण । जिणदासो पुच्छइ कीस, रुयह ताहिं च संलतं ॥१२॥ मयनाहाणं सोहम्म-कप्पदेवीणमिण्डिं अम्हाणं । मरिऊण वंकचूली, अभुत्तमंसो हवइ नाहो ॥१३॥ जड़ पुण तुह वयणाओ, कहंपि किर कायमसमऽसिही सो । ता नूणं भग्गनियमो, पडिही अन्नत्थ कुगईए ॥१४॥ एएण कारणेणं, रोएमो निब्भरं महाभाग! । एवं च तुमं सोच्चा, जं जुत्तं तं रेज्जासु ॥१५॥ आयन्निऊण एवं, विम्हियचित्तो गओ स उज्जेणिं । दिट्ठो य वंकचूली, नरवइवयणाणुरोहेण ॥१६॥ भणिओ य सुहय! नो कीस, कुणसि तं कायमंसपरिभोगं । जायारोग्गसरीरो, पायच्छित्तं चरेज्जासि ॥१७॥ तेणं पयंपियं धम्म-मित्त! एवं तुमंपि उवइससि । जाणन्तनियमभंगे, पच्छित्तं कं गुणं जणइ ॥१८॥ 1. स्तनत्स्यन्दनौघकम् । 2. हेषारवं कुर्वदश्वघट्टकम् । 3. स्तूयमानचित्र = आश्चर्यकारिवेधकम् । 32 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १११६-११५३ चिलातिपुत्रदृष्टान्तः जइ नियम भंजित्ता, तप्पायच्छित्तमणुचरेयव्यं । ता पढम चिय जुत्तो, नो काउं नियमभंगो ति ॥१९॥ तो कहियं नरवड़णो, जिणदासेणं जहा इमो देव! । अवि चयइ जीवियव्यं, न पुणो नियम चिरग्गहियं ॥२०॥ एत्तो पारत्तहियं, ता कीरउ देव वंकचूलिस्स । निच्छियभाविरमरणे, किमकिच्चेणं कएणिमिणा ॥२१॥ एवं युत्ते रन्ना सुय-निहिणो साहुणो समाहूय । पज्जतविहिसणाहो, कहाविओ धम्मपरमत्थो ॥२२॥ अह सो साहुसमीये, आलोइयसयलपुव्वदुचरिओ । खामियसमग्गजीयो, विसेसपडिवन्नवयनिवहो ॥२३॥ पंचपरमेट्ठिमंतं, परिवत्तंतो समुज्झियाहारो । मरिऊण अच्वुयम्मि, देवो जाओ महिड्ढीओ ॥२४॥ जिणदाससावगो वि य, सगामहत्तं पुणो णियत्तंतो । तं तह देविजुयलं, रोयंतं पेच्छिउं भणइ ॥२५॥ मंसम्मि अभुत्ते च्चिय, किं तुब्भे रुयह ताहिं तो कहियं । सविसेसविहियधम्मो, देवो अन्नन्थ सो जाओ ॥२६॥ अम्हे निप्पुन्ना उ, संपयमऽवि पाणनाहरहियाओ । जम्हा तहट्ठियाओ, सोगं तेणं रेमो ति રળી अह जिणदासो दिव्यं, देविड्ढिं यंकचूलिणा लद्धं । जिणधम्मपहावेणं, नाउं एवं विचिंतेइ ૨૮ नमिरपरमपेमुब्भन्तदेविंदविंदु-भडकणयकिरीडुग्घट्ठपायाडरविंदो । जयइ जिणसमूहो देसिओ जेण धम्मो, सिवसुरपुरलच्छि-हत्थदाणेक्कदच्छो ॥२९॥ खणमडवि परिसुद्धं पालिऊणंडतकाले, कलिकलिलमडसेसं खालिङ जप्पभावा । पवरगइमुवेती वंचूलि ब्य जीवा, स जयउ जयपुज्जो वीयरागाण धम्मो ॥३०॥ इय वंकचूलिचरियं, निवेइयं संपयं परिकहेमि । पुव्वं चिय उक्खितं, चिलाइपुत्तस्स वित्तंतं ॥३१॥ "चिलातिपुत्रदृष्टान्तः" - भूमिपइट्ठियनयरे, नामेणं आसि जन्नदेवो ति । विप्पो पंडियमाणी, जिणसासणखिसणाऽऽसत्तो ॥३२॥ जो जेण जिप्पड़ इहं, सो सिस्सो तस्स इइ पन्नाए । वायम्मि निज्जिओ पवर-बुद्धिणा साहुणा सो यं ॥३३॥ पव्यापिओ य णवरं, पव्वज्जं देवयाए उज्झन्तो । पडिसिद्धो अह जाओ, निच्चलो साहुधम्ममि ॥३४॥ तहडयि हु जाइमएणं, दुगुंछभावं मणागमुव्यहइ । पडिबोहिओ य तेणं, नीसेसो निययसयणजणो ॥३५॥ भज्जा पुण तस्स परुढ-गाढपेम्माडणुबंधदोसेण । काराविउं समीहइ, तं पव्वज्जापरिच्चायं ॥३६॥ सो पुण निच्चलचित्तो, सद्धम्मपरो गमेइ दियहाई । अह अन्नवासरम्मि, दिन्नं से कम्मणं तीए ॥३७॥ तद्दोसेणं मरिऊण, स देवलोए सुरो समुप्पन्नो । इयरी वि य पव्वइया, तन्निवेएण संतता आलोयणं अकाउं, मया समाणी सुरेसु उप्पन्ना । अह जन्नदेवजीवो, चइऊणं रायगिहनयरे ॥३९॥ धणसत्थवाहगेहे, चिलाइनामाए दासचेडीए । तेण दुगुंछादोसेण, पुत्तभावं समणुपत्तो ॥४०॥ विहियं च जणेणं से, चिलाइपुत्तो ति 'गुत्तमभिहाणं । इयरी वि तओ चइउं, तस्सेव धणस्स भज्जाए ॥४१॥ पंचण्ह सुयाणुवरिं, नामेणं सुंसुमा सुया जाया । सो य चिलाईपुत्तो, बालग्गाहो कओ तीसे ॥४२॥ अच्चन्तकलहकारि ति, दुविणीओ ति सत्थवाहेण । निच्छूढो गेहाओ, परियडमाणो गओ पल्लिं ॥४३॥ आराहिओ य बाढं, पल्लिवई गाढविणयओ तेण । अह पल्लिवइम्मि मए, मिलिऊणं चोरनिवहेण ॥४४॥ जोगो ति कलिय विहिओ, पल्लीनाहो महाबलो सो य । अच्वन्तनिग्घिणो हणइ, गाभपुरनयरसत्थाई ॥४५॥ एगम्मि य पत्थावे, तेणं चोराण एयमुवइटुं । रायग्गिहम्मि नयरे, सत्थाहो अत्थि धणनामो ॥४६॥ तस्स य धूया नामेण, सुंसुमा सा य मज्झ तुम्ह थणं । ता एह तत्थ जामो, अवहरिउं तं च एमो ति ॥४७॥ पडियन्नं चोरेहि, रयणीए ततो गया य रायगिहे । ओसोयणी च दाउं, झत्ति पविट्ठा धणस्स गिहे ॥४८॥ मुटुं चोरेहिं गिहं, गहिया सा सुंसुमा वि इयरेण । सत्थाहो सुयसहिओ, अन्नत्थ लहुं अवक्कंतो ॥४९॥ पावियसमीहियत्थो, सट्ठाणं पट्ठिओ य पल्लीवई । अह उग्गयम्मि सूरे, पंचहि वि सुएहि परिकिन्नो ॥५०॥ दढदेहबद्धकवओ, नरवड़बहुसुहडपरिवुडो सिग्छ । तम्मग्गेणं लग्गो, धूयानेहेण सत्थाहो . ॥५१॥ भणिया य रायसुहडा, धणेण धूयं ममं नियत्तेह । दव्वं तुम्हं दिन्नं, इय भणिए धाविया सुहडा ॥५२॥ इंते य ते पलोइय, नट्ठा चोरा धणं विमोत्तूण । घेत्तूण य तं सुहडा, जहागयं पडिगया सव्वे ॥५३॥ 1. गोत्रम् = गुणवाचकम् । . ॥३८॥ 33 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधनाधिकारोवर्णनम् संवेगरंगशाला श्लोक नं. ११५४- ११८६ ॥५४॥ सुयसहिओ सत्थाहो, गंतुं एक्को परं समारद्धो । संपत्तो य समीवे, अचिरेण चिलाइपुत्तस्स मा होउ इमा कस्स वि, इइ सीसं सुंसुमाए घेतूण । सो सिग्घमवक्कतो, विमणो वलिओ य सत्थाहो ॥५५ ॥ अह अडवीए मज्झे, चिलाइपुत्तेण परिभमन्तेणं । दट्ठूण साहुमेगं, उस्सग्गट्ठियं महासत्तं ॥५६॥ जंपियमहो महामुणि!, संखेयेणं कहेसु मह धम्मं । इहरा तुज्झ वि सीसं, फलं व असिणा लुणिस्सामि ॥५७॥ मुणिणा उ निब्भएण वि, उवयारं से मुणितु भणियमिणं । उवसम-विवेग - संवर - पयतियं धम्मसव्यस्सं ॥५८॥ घेत्तुं च इमं सम्मं, एगंते सो विचिंतिउं लग्गो । उवसमसद्दत्थो घडड़, सव्वकोहाड़चायम्मि ॥५९॥ દ્દા ॥६१॥ ॥६२॥ सो कुद्धस्स कहं मे, ता कोहाड़ मए परिच्चता । परिहारे धणसयणाण, होइ नूणं विवेगो वि ता किं खग्गेणं मे, किं वा सीसेण मज्झ एत्ताहे । इंदियमणसंवरणे य, संवरो णिच्छियं घडड़ ता तं पि अहं काहं, इइ चिंतन्तो विमुक्कअसिसीसो । नासग्गनिहियदिट्ठी, निरुद्धमणकायवावारो परिभावेंतो पुणरुत-मेव एयाणि तिन्नि वि पयाणि । काउस्सग्गेण ठिओ, सुनिच्चलो कंचणगिरि व्य अह रुहिरगंधलुद्धाहिं, कुलिसतिक्खग्गचंडतुंडाहिं । 'मुइंगलियाहिं लहुं, सव्वत्तो भोत्तुमारद्धो | अवि य Em ॥६४॥ आपायसीसं सयलं पि देहं, मुइंगलियाहि विभक्खिऊण । विणिम्मियं चालणियासमाणं, तहावि झाणाउ न कंपिओ सो॥ ६५ ॥ पयंडतुण्डाहिं पिवीलियाहिं, खद्धेसरीरम्मि मुणिस्स तस्स । छिद्दाई रेहंति समत्थपाय - निस्सारदाराणि व दीहराणि ॥ ६६ ॥ अड्ढाइएहिं दियहेहिं धीमं, सम्मं समाराहिय उत्तिम । सुरालयं सो सहसारनामं, पत्तो सुचारितधणो महप्पा ॥६७॥ अच्चंतचंडमणवयण - काय इच्चाइ जं पुरा वुत्तं । तं साहरणं भणियं एतो पगयं निसामेह દ્દા “आराधनाधिकारीवर्णनम् ” ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ mn ॥७७॥ ॥७८॥ सुविणिच्छियपरमत्थो, अणज्जजणकज्जवज्जणुज्जुत्तो । इय गुणवंतो आराह - णाए अरिहो हवेज्ज गिही किंतु सुदंसणमूलं, पंचाणुव्ययसमन्नियं तह य । तिगुणव्वओववेयं, चउसिक्खावयसणाहं च समणोवासयविसयं, धम्मं परिपालिउं निरइयारं । दंसणपमुहेक्कारस- पडिमाओ तह य फासिता बलविरियाणं हाणिं, वियाणिउं कुणड़ अन्तकालम्मि । आराहणं जिणाणा - णुसारओ सुद्धपरिणामो संविग्गं गीयत्थं, साहूं पिव गुरुजणं समासज्ज । पंचसमिओ तिगुत्तो, अणिगूहियसत्तबलविरिओ | पइदिणपवड्ढमाणुत्त-रोत्तरऽच्चन्तपरमसंवेगो । सम्ममवगम्म रम्मं, सुत्तत्थेहिं जिणिदमयं तप्पारतंतजोगा, 2 अणुसोयं वज्जिऊण जत्तेण । पडिसोयलद्धलक्खो, जुत्तो य पमायपरिहारे संते बलम्मि अणहे, संते विरियम्मि चरणकरणखमे । संते पुरिसक्कारे, संतम्मि परक्कमे तह य चरिऊण चिरं चरणं, बलविरियाईसु हायमाणेसु । हत्थं पच्छिमकालम्मि, चेव आराहणं कुज्जा इहरा बलविरियाईसु, संतेसु वि अहिलसेज्ज जो मूढो । आराहणमिह तमहं, मन्ने सामन्ननिव्विण्णं जइ पुण वाही होज्जा, सिग्घं पारद्धधम्मविग्घकरी । माणुसतेरिच्छियतियस-संभवा अहव उवसग्गा अणुकूला या सत्तू, चारितधणावहारिणो होंति । दुब्भिक्खं वा गाढं, अडवीए विप्पणट्ठतं जंघाबलं व हीएज्ज, होज्ज वि गेलन्नमिंदियाणं वा । अपुव्यधम्मगुणअज्ज - णम्मि सत्ती व न हवेज्जा | अन्नम्मि वावि एया-रिसम्मि आगाढकारणे जाए । आराहणं करेज्जा, ता सिग्घं चिय न वयणिज्जं जे पुण सयं कुसीला, कुसीलसंगम्मि चेव हरिसपरा । निच्वंपि चंडदंडा, न हु ते आराहणा- अरिहा तह पयइनिग्घिणमणा - कसायकलुसा पवड्ढियामरिसा । अणियत्तचित्ततण्हा, मोहोवहया नियाणकडा जे वि य अच्चासायण- निरया जिणसिद्धसूरिपमुहाणं । परवसणदंसणुप्पज्ज - माणमाणसपमोया य सद्दाइविसयगिद्धा, सद्धम्मपरम्मुहा पमायपरा । सव्वत्थ निरणुतावा, न ते वि आराहगा होंति तह जे न केवलं चिय, अधम्मवंता सयं सहावेण । जे वि य पच्चूहपरा, धम्मपराणं पराणं पि |चेइयसाहारणदव्य-दोहदुट्ठा ठिया य रिसिघाए । जे जे य जिणवरागम - उस्सुत्तपरूवणपरा य ॥७९॥ ॥८०॥ ॥८१॥ mn ॥८३॥ ॥८४॥ ॥८५॥ મા ॥८७॥ ॥८८॥ | सरयससिलच्छिसच्छह-जिणसासणजसविणासगा जे य । जे वि य 4 वइणीविद्धंसकारिणो किर महापाया ॥ ८९ ॥ | 1. पिपीलिकाभिः । 2. अणुसोयं = अनुस्त्रोतः शदीराद्यनुकूलाचरणम् इत्यर्थः । 3. हत्थं = शीघ्रम् । 4. व्रतिनी = साध्वी० । 324 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ११६०-१२२३ द्वितीयलिङ्गद्वारवर्णनम् - मुहपत्त्यादिलिङ्गप्रयोजनम् परलोगनिप्पिवासा, इह लोगे चेव सुट्ठ पडिबद्धा । निच्वं पसतचित्ता, अट्ठारसपावठाणेसु ९०॥ जं च विसिट्ठजणाणं, असंमयं जं च धम्मसत्थाणं । तत्थ वि जे गाढरया, पडिसिद्धाऽऽराहणा तेसिं ॥११॥ सत्थग्गिविसविसइय-सावयसलिलाइवसणपत्तो जो । आह स कहमाराहओ, सिग्धं मारिन्ति एयाई ॥९२॥ गुरुराहनणु संखेवाराहण-माराहइ सो वि पुयभणियमिणं । जह महुराया जह वा, सुकोसलो रायरिसिपवरो ॥१३॥ अवि यजो किर धीबलकलिओ, उवसग्गप्पभवभयममन्नंतो । झत्ति उवट्ठियमेत्ते, उवसग्गे अह व पत्ते वि ॥१४॥ जावडज्जवि किर सबलो, ताव च्चिय आयहियविइण्णमणो । सम्म अमूढलक्खो, जीवियमरणेसु य समाणो ॥९५॥ अवि संभवंतमरणे, रणे व्य सुहडो अभिन्नमुहरागो । आराहणं स संवे-वओवि कुज्जा महासत्तो ॥१६॥ इय सुत्तवृत्तजुत्तीजुयाए, संवेगरंगसालाए । परिकम्मविहीपामोक्ख-चउमहामूलदाराए 8ળી आराहणाए पन्नरस-पडिदारमयस्स पढमदारस्स । वित्थरओ परिकहियं, पढममिमं अरिहदारं ति ॥९८॥ "द्वितीय लिङ्गद्वारवर्णनम्" - आराहणाए अरिहो, निदंसिओ संपयं च जेणेसो । लिंगिज्जड़ लिंगेणं, लेसुद्देसेण तं भणिमो ॥९९॥ निच्वकरणीयजोगा, परलोयपसाहगा जिणुद्दिट्ठा । जे आसि पुरा अह ताण, चे सविसेसमत्तम्मि ॥१२००॥ सम्म उज्जमणं जं, संवेगरसाइरेगओ गाढं । आराहणअरिहत्ते, आराहणलिंगमिणमेव ॥१॥ उस्सग्गियं च तं साव-गस्स निक्खित्तसत्थमुसलतं । ववगयमालावन्नग-विलेवणुव्वट्टत्तणतं च अप्पडिकम्मसरीरतणं च, पइरिक्कदेसवत्तितं । लज्जाछायणमेतो-वहित्तसमभावभावित्तं રા पाएण पइखणं पि हु, सामाइयपोसहाइनिरयत्तं । पडिबंधच्चाइत्तं, तह भवनेगुण्णभावित्तं सद्धम्मकम्मउज्जय-जणवज्जियसन्निवेसयज्जितं । कामवियारुप्पायग-दव्याण वि अणभिलासित्तं ॥५॥ निच्वं गुरुजणवयणा-णुरागसंभिन्नसत्तधाउत्तं । परिमियफासुयपाणन्न-भोगवतितमणुदियहं દા एमाइ गुणब्भासत्तणं खु, आराहगस्स इह गिहिणो । लिंगं अह जइणो वि हु, सामन्नेणं इमं मुहणंतग १, रयहरणं २, बोसट्टसरीरया ३, अचेलक्कं ४ । सिरलोय ५, पंचभेयो उस्सग्गियलिंगकप्पो सो॥८॥ संजमजत्तासाहण-चिंधं जणपच्चओ ठिईकरणं । गिहिभावविवेगो वि य, लिंगग्गहणे गुणा होन्ति . ॥॥ तं लिंगं जहाजायं, अव्यभिचारी सरीरपडिबद्धं । उवही पुण थेराणं, चोद्दसहा सुत्तणिट्ठिो ॥१०॥ ____ "मुहपत्त्यादिलिङ्गप्रयोजनम्" - सीसोवरिकायपमज्जणा य, मुहमरुतमाऽऽईरक्वट्ठा । रयरेणुरक्खणअट्ठा, दिटुं मुहणंतगं मुणिणो [दारं] ॥११॥ रयसेयाणमउगहणं, मद्दवसुकुमारया लहुत्तं च । जत्थेए पंच गुणा, तं रयहरणं पसंसंति ॥१२॥ इरिया ठाणे निक्वेव-विवेगे तह य निसियणे सयणे । उव्वत्तणमाईसुं, पमज्जणट्ठाए रयहरणं [दारं] ॥१३॥ अभंगसिणाणुब्बट्टणाणि, तह केसमंसु संठप्पं । वज्जेइ दंतमुहनासि-यच्छिभमुहाइसंठवणं ॥१४॥ जल्लमलदिद्धदेहो, लुक्खो कयलोयविगयसिरसोहो । जो रूढनक्खरोमो, सो गुतो बंभचेरम्मि [दारं] ॥१५॥ जुन्नेहिं मलिणेहि य, पमाणजुत्तेहिं थोवमुल्लेहिं । चेलेहिं संतेहि वि, जियरखट्ठा अचेलक्कं ॥१६॥ | गंथच्चाओ लाघव-मप्पा पडिलेहणा गयभयत्तं । वेसासियं च रूवं, अणायरो देहसोक्नेसु । ॥१७॥ जिणपडिरूवं विरिया-यारो रागादिदोसपरिहरणं । इच्चेवमाडइबहुया, आचेलक्के गुणा होंति [दारं] ॥१८॥ पयडमहासत्तत्तं, जिणबहुमाणो तदुतकरणेणं । दुक्खसहत्तं नरगाइ-भावणाए य निव्वेओ ॥१९॥ आणक्खिया य लोएण, अप्पणो होइ धम्मसद्धा वि । न य सुहसंगो पच्छा-पुरकम्मविवज्जणं चेय ॥२०॥ देहम्मि वि अममतं, भूसाचाओ य निम्वियारतं । अप्पा य होइ दमिओ, लोयम्मि गुणा इमे इहरा ॥२१॥ जाएज्ज संकिलेसो, बाहिज्जन्तस्स जूयलिक्खाहिं । कंडुयणे पुण णियमा, तासिं संघट्टमाऽऽईया ॥२२॥ इय पंचरुवसामन्न-लिंगमुवदंसियं समणविसयं । एत्तो सविसेसं पि हु, तमऽहं दोण्हं पि पकहेमि ॥२३॥ 1. विश्वास्यं = विश्वासयोग्यम् । 2. आणक्खिया = परीक्षा । 3. लोचेन । 35 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १२२४-१२५६ कुलवालकस्य दृष्टान्तः नाणाऽऽइगुणगणाडगर-गुरुपयपंकयपसायणपरत्तं । थेवे वि हु अवरा पुणो अत्तणो गरिहा ॥२४॥ सविसेसाऽऽराहणकरण-निरयमुणिसक्कहासवणयंछा । अइचारपंकपम्मुक्क-मूलगुणसेवणाऽभिरई ॥२५॥ पिंडविसुद्धिपमुहप्पहाण-किरियासु बद्धलक्खत्तं । पुवपडियन्नसंजम-निरवज्जुज्जोगसंजुत्तं ॥२६॥ एमाइ गुणकलावो, विसेसलिंगत्तणेणमऽवसेओ । समणाण गिहत्थाण य, हियाभिकंखीण जहजोग्गं ॥२७॥ नवरं एवंविहगुण-जुआ वि कहमवि य कोहपडिबद्धा । चोयणवसेण सुगुरुसु, सुगईपहसत्थवाहेसु ૨૮ कुव्यंति जे पओसं, 'उक्कलिज्जति कुलवालो व्य । आराहणामहाधण-निहाणलाभाओ ते अचिरा ॥२९॥ तहाहि "कुलवालकमुनि दृष्टान्तः" आसि चरणाऽऽड्गुणमणि-रोहणगिरिणो विसिट्ठसंघयणा । निज्जिणियमोहमल्ला, महल्लमाहप्पदुद्धरिसा ॥३०॥ संगमसीहा नामेण, सूरिणो भूरिसिस्सपरिवारा । तेसिं सिस्सो एगो, मणागमुस्सिंखलसहायो ॥३१॥ कुणमाणो वि हु दुक्कर-तयोविहाणाऽऽइंणिययबुद्धीए । आणासारं चरणं, न पवज्जइ कुग्गहवसेण ॥३२॥ चोइंति सूरिणो तं,दुस्सिक्ख! किमेवमऽफलमप्पाणं । उस्सुत्तकट्ठचेट्टाए दुट्ठ! सन्तावमुवणेसि ॥३३॥ आणाए च्विय चरणं, तब्भंगे जाण किं न भग्गं ति । आणं चडइक्कमंतो, कस्साऽऽएसा कुणसि सेसं ॥३४॥ एवं सासिज्जतो, गुरुसु वेरं स उव्वहइ घोरं । अह अन्नया क्याई, तेणेक्केणं समं गुरुणो ॥३५॥ एक्कम्मि गिरिवरम्मि, सिद्धसिलावंदणत्थमाउडरुढा । सुचिरं च तं नमंसिय, सणियं ओयरिउमाऽऽरद्धा ॥३६॥ अह तेण दुव्विणीएण, चिंतिअं नूण एस पत्थावो । ता दुव्ययणणिहाणं, हणामि आयरियमेयमऽहं ॥३७॥ जड़ एत्थ वि पत्थावे, उहियो एस निस्सहायो वि । ता जाजीयं निभ-च्छिही ममं दुट्ठसिक्खाहिं ॥३८॥ | इय चिंतिऊण पट्ठि-ट्ठिएण महई सिला परिम्मुक्का । सूरीणं हणणट्ठा, दिट्ठा य कहंपि सा तेहिं ॥३९॥ तो ओसरिउं सिग्घं, पयंपियं रे महादुरायार! । गुरुपच्चणीय! अच्वंत-पावमिय यवसिओ कीस ॥४०॥ न मुणसि लोगठिई पि हु, उवयारिसु जं रेसि वहबुद्धिं । जेसुवयारे थोयं, समग्गतइलोक्कदाणं पि ॥४१॥ मन्नंति उवयारं, ताण वि सीसा उ केवि अवणीए । उठिंति वहाय परे, तुमं व सुचिरोवचरिया वि ॥४२॥ | अहया कुपतसंगहवसेण, एसेव नूण होइ गई । नु क्याइ महाविसविस-हरेण सह निव्वहइ मेत्ती ॥४३॥ इय एवंविहगुरुपाव-कम्मनिम्मूलदलियसुक्यस्स । सव्वन्नुधम्मपालण-दूराजोग्गस्स तुह पाय! ॥४४॥ होही एत्तो इत्थी-सयासओ नूण लिंगचाओ वि । एवं सविउं सूरी, जहागयं पडिनियत्तो ति ॥४५॥ तह काहं जह एयस्स, सूरिणो भवइ ययणमस्सच्चं । इय चिंतिउं कुसिस्सो, सो य गओडरन्नभूमीए ॥४६॥ जणसंचारविरहिए, एगम्मि तावसाऽऽसमम्मि ठिओ । कूले नईए उग्गं, तवं च काउं समाढतो ॥४७॥ पत्ते य परिसयाले, तत्तवतुट्ठाए देवयाए नई । मा हीरिही जलेणं ति, वाहिया अवरकूलेण ૪૮. अह कूलंऽतरलग्गं, दठूण नई जणेण से विहियं । तद्देसगेण गुतं, अभिहाणं कूलवालो त्ति ૪૬a तप्पहपयट्टसत्थाओ, लद्धभिखाए जीवमाणस्स! । लिंगच्चागो जाओ, जह से तह संपयं भणिमो ॥५०॥ चंपाए नयरीए, असोगचंदो ति पत्थियो अत्थि । सेणियनरिंदपुत्तो, विक्कमअक्कन्तरिउचक्को ॥५१॥ हल्लविहल्ला से लहुग-भाउणो तेसिं सेणिएण वरो । हत्थी हारो दिन्नो, अभएण वि पव्ययंतेण ॥५२॥ खोभं कुंडलजुयलं, जणणीतणयं पणामियं तेसिं । अह खोमहारकुंडल-विराइए करियराऽऽरुढे ॥५३॥ ते चंपाए तियच्चच्रेसु, दोगुंदुगे व्य कीलंते । दटुं असोगचंदो, भणिओ भज्जाए सामरिसं ધો रायसिरी परमत्थेण, देव! एएसिं तुज्झ भाऊण । जेणेवमऽलंकरिया, करिखंधगया पकीलंति । ॥५५॥ तुह पुण मोत्तुं आयास-मेक्कमऽन्नं न रज्जफलमऽत्थि । ता तुममेए पत्थेसु, हत्थिप्पमुहाई रयणाई। ॥५६॥ | रन्ना पयंपियं कह, मयच्छि! पिउणा पणामियाई सयं । लहुभाईणमिमाइं, मग्गन्तो नेव लज्जामि ॥५७॥ तीए भणियं का नाह!, एत्थ लज्जा परं बहुं रज्जं । दाऊणमिमेसिं करि-पमोक्खरयणाई लिंतस्स ॥५८॥ इय पुणरुत्तं तीए तज्जिजंतो महीवई सम्मं । एगम्मि अवसरम्मि, हलविहल्ले इमं भणइ ॥५९॥ 1. उक्कलिजंति = भृश्यन्ते । 2. येषामुपकारे 36 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १२६०-१२६७ कुलवालकस्य दृष्टान्तः भो! तुब्भमहं सविसेस-मडवरकरितुरयरयणदेसाई । देमि ममं च समप्पह, ताव इमं हत्थिवररयणं ॥६०॥ आलोचिऊण देमो त्ति, जंपिउं ते गया णिययठाणे । मा णेहिइ हढेणं ति, भयवसा रयणिसमयम्मि ॥६१॥ हत्थिम्मि समारुहिउं, अमुणिज्जन्ता जणेण णीहरिया । वेसालीए पुरीए, चेडगरायं समल्लीणा ॥६२॥ नाया असोगचंदेण, तदणु विणएण दूयवयणेहिं । हल्लविहल्ले पेसेहि, सिग्घमिइ चेडगो भणिओ ॥३॥ अह चेडगेण भणियं, नीणेमि कहं इमे हढेणाहं । सयमेव तुमं संबो-हिऊण उचियं समाचरसु ॥६४॥ | एए तुमं च जम्हा, धूयसुया मज्झ नत्थि हु विसेसो । गेहाऽऽगय ति णवरं, बला न सक्केमि पेसेउं ॥६५॥ एवं सोच्चा रुट्टेण, तेण पुणरवि य चेडगो भणिओ । पेसेसु कुमारे अहव, जुज्झसज्जो लहुं होसु ॥६६॥ |पडिवन्ने जुज्झे चेडगेण, काउं समग्गसामग्गिं । येसालीए पुरीए असोगचंदो लहुं पत्तो ૬ળી जुज्झेण संपलग्गो, णवरं चेडगमहामहीवड़णा । कालप्पमुहा दस अवर-माउगा भाउगा तस्स ॥६८॥ दसहिं दिवसेहिं पहिया, अमोहमेक्कं सरं खिवंतेण । किर से एक्कदिणंडतो एक्सरनेवनियमो ति ॥१९॥ एक्कारसमे य दिणे, भयभीएणं असोगचंदेणं । चिंतियमहो इयाणिं, जुझंतो हं विणस्सामि ॥७॥ ता जुज्झिउं न जुज्जइ, इइ ओसरिउं रणंडगणाउ लहुँ । कुणइ स अट्ठमभत्तं, सुरसन्निज्झाऽभिलासेण ॥७१॥ | अह सोहम्मसुरिंदो, चमरो वि य पुव्यसंगयं सरिउं । तम्मूले संपत्ता, पयंपिउं एवमाउडढता ॥७२॥ भो भो देवाणप्पिय!, कहेस किं ते पियं प्रयच्छामो । रन्ना भणियं मारेह, चेडयं वेरियं मज्झ ॥७३॥ सक्केण जंपियं परम-सम्मद्दिढेि इमं न मारेमो । सण्णिज्झं तस्स तुज्झ य, जइ भणसि ता कुणिमो ति ॥७४॥ एयंपि होउ इइ जंपिऊण रन्ना असोगचंदेण । चेडगनियेण सद्धिं, पारद्धो समरसंरंभो ॥७५॥ अप्पडि हयसुरवइपाडि-हेरपायडपहावदुप्पेछो । रिउपक्वं निहणतो, सो पत्तो चेडगं जाय ॥७६॥ तो आयन्नं आयड्ढिऊण, चायं कयंतदूओव्य । तं पड़ अमोहविसिहो, पामुक्को चेडगनियेण ॥७७॥ तं च तदंतरचमरिंद-रइयफालिहसिलापडिक्खलियं । अवलोइऊण सहसा, विम्हइओ चेडयनरिंदो ૭૮ खलिए अमोहसत्थे, एतो नो मज्झ जुज्झिउं जुत्तं । इइ चिंतिउं पविट्ठो, वेगेण पुरीए मज्झम्मि ॥७९॥ किंतु गयं से निहणं, असुरिंदसुरिंदनिम्मिएहिं बहुं । रहमुसलसिलाकंटग-रणेहिं चउरंगमऽवि सेन्नं ॥८०॥ नयरीरोहं काउं, असोगचंदो ठिओ चिरंकालं । उत्तुंगसालकलिया, न वि भज्जड़ सा कहंपि पुरी ॥१॥ एगम्मि य पत्थावे, राया तं भंजिउं अपारंतो । जा सोइंतो अच्छड़, ता पढियं देवयाए इमं ॥८२॥ 'समणे जड़ कूलवालए, मागहियं गणियं लग्गिस्सई । राया य असोगचंदए, वेसालिं नगरिं गहिस्सई' ॥८३॥ हरिसवियसंतवयणो, पाउं अमयं व सवणपुडएहिं । ययणमिमं नरनाहो, तं समणं पुच्छए लोयं ૮૪ अह कहमवि लोगाउ, नईकूलट्ठियमिमं वियाणित्ता । पणतरुणीण पहाणं, मागहियं वाहरावेइ ॥५॥ भणइ य भद्दे! तं कूल-बालगं समणमेत्थ आणेहि । एवं रेमि तीए, पडियन्नं विणयपणयाए ॥८६॥ तो कवडसाविया सा, होउं सत्थेण तं गया ठाणं । वंदित्ता तं समणं, सविणयमेवं पयंपेड़ ॥८७॥ गिहनाहे सग्गगए, जिणिंदभवणाई यंदमाणाऽहं । सोउं तुब्भे एत्थं, समागया वंदणट्ठाए તેવા ता अज्जं चिय सुदिणं, पसत्थतित्थं व जं तुमं दिट्ठो । एत्तो कुणसु पसायं, भिक्खागहणेण मुणिपवर!॥८९॥ तुम्हारिसे सुपत्ते, निहित्तमप्पंपि दाणमचिरेण । सग्गाऽपवग्गसोक्खाण, कारणं जायए जेण ॥९०॥ इय बहुभणितो सो कूल-वालओ आगओ य भिक्ट्ठा । दिन्ना य मोयगा दुट्ठ-दव्यसंजोइया तीए ॥१॥ तमोगाउणंतरमवि, अइसारो से दढं समुप्पन्नो । तेण विबलोऽतरंतो, काउं उव्वत्तणाइं पि ॥९२॥ तीए भणियं भयवं, उस्सग्गडववायवेइणी अहयं । गुरुसामिबंधुतुल्लस्स, तुज्झ जइ किंपि पडियारं ॥९३॥ काहं फासुयदव्येहिं, होज्जा एत्थ वि असंजमो कोई । ता अणुजाणसु भंते, वेयावच्चं करेमि ति .. ॥९४॥ पगुणसरीरो सन्तो, पायच्छित्तं इहं चरेज्जासि । अप्पा हि रखियव्यो, जत्तेणं जेण भणियमिमं ॥९५॥ सव्वत्थ संजमं संज-माउ अप्पाणमेव रक्खेंतो । मुच्चड़ अड्वायाओ, पुणो वि सोही न याऽविरई ॥६॥ इय सिद्धंताभिप्पाय-सारवयणाणि सो निसामित्ता । मागहियं अणुजाणइ, व्यावच्चं रेमाणिं Reળી 37 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १२६८-१३३३ कुलवालकस्य पतनः - तृतीयशिक्षाद्वारस्वरूपम् तो उव्यत्तणधावण-निसियावणपमुहसबकिरियाओ । कुणइ समीवत्थिया सा, अणवरयं तस्स परितुट्ठा ॥८॥ कड़वयदिणाई एवं, पालित्ता ओसहप्पयोगेण । पगुणीकयं सरीरं, तवस्सिणो तस्स लीलाए ९९॥ अह पवरुब्भडसिंगार-सारनेवत्थसुंदरंगीए । एगम्मि दिणे तीए, सवियारं सो इमं युत्तो ॥१३००॥ "कुलवालकस्य पतनः" - पाणनाह! निसुणेसु मे गिरं, गाढरुढपडिबंधबंधुरं । मं भयाहि सुभरासिणो निहिं, मुंच दुक्करमिमं तयोविहिं ॥१॥ किं अणेण तणुसोसकारिणा, पइदिणं पि विहिएण वेरिणा । पत्तमेव फलमेयसंतियं, मं लहित्तु पई कुंददन्तियं॥२॥ किं वरन्नमिममस्सिओ तुमं, दुट्ठसावयसमूहदुग्गमं । एहिं जामु नयरं मनोहरं, रइसरुवहरिणच्छिसुंदरं ॥३॥ मुद्ध! धुत्तनिवहेण वंचिओ, अच्छसे जमिह सीसलुंचिओ। किं विलासमडणुवासरं तुम, नो करेसि भवणे मए समं ॥४॥ तुज्झ थेवविरहे वि निच्छियं, निस्सरेइ मह नाह! जीवियं । ता उवेहि सममेय पच्चिमो, दूरदेसगयतित्थं वंदिमो ॥५॥ एतिएण वि समत्थपावयं, तुज्झ मज्झ चिय वच्विही खयं । पंचरूवविसए य भुंजिमो, जाव नाह! इह किंपि जीविमो॥६॥ इय सवियारं मंजुल-गिराहिं, तीए पयंपिओ संतो । सो संखुद्धो परिचत्त-धीरिमो मुयइ पव्यज्जं ॥७॥ अच्चन्तहरिसियमणा, तो तेण समं समागया रन्नो । पासे असोगचंदस्स, पायवडिया य विन्नवह सो एस देव! मुणिकूल-बालगो मज्झ पाणनाहो ति । जं कायव्वं इमिणा, तं संपइ देह आएसं asiા रन्ना भणियं भद्दय!, तह कुण जह भज्जए इमा नयरी । पडियज्जइ सो वयणं, तिदंडिरूवं च काऊण ॥१०॥ पविसइ पुरीए मज्झे, मुणिसुव्वयनाहथूहमह दटुं । चिन्तेइ नेव भज्जड़, धुवमेयपभावओ नयरी ॥११॥ ता तह रेमि अवन्ति, जह इमं नयरिवासिणोमणुया । इइ चिन्तिऊण भणियं, हंहो लोगा! इमं थूभं ॥१२॥ जड़ अवणेह लहुं चिय, ता पचक्कं सदेसमणुसरइ । इहरा नयरीरोहो, न फिट्टिही जावजीवं पि ॥१३॥ संकेइओ य राया, अवसरियव्वं तए वि थूभम्मि । अवणिज्जते दूरं, घेत्तुं णियसव्वसेन्नं ति ॥१४॥ अह लोगेणं भणियं, भयवं! को एत्थ पच्चओ अत्थि । तेणं पयंपियं थूभे, थेवमेतम्मि अवणीए ॥१५॥ जइ प्रच्चक्कं वच्चड़, ता एसो पच्चओ ति इइ वुत्ते । लोगेणं आरद्धं, अवणेउं थूभसिहरऽग्गं ॥१६॥ अवणिज्जते तम्मि, बच्वंतं पेच्छिऊण रिउसेन्नं । संजायपच्चएणं, अवणीयं सव्वडवि थूभं ॥१७॥ तो भग्गा पलिऊणं, रन्ना नयरी विडम्बिओ लोगो । अवडम्मि नियडिओ चेड-गो य जिणपडिमामाउडदाय॥१८॥ इय एवंविहगिरिगरुय-पावरासिस्स भायणं जाओ । जं कूलवालगो सुगुरु पच्वणीयत्तदोसेण ॥१९॥ जं च सुदुक्कतवचरण-कणनिरओ वि रन्नवासी वि । भग्गपइन्नो जाओ, तमसेसं गुरुपओसफलं . ॥२०॥ तेणं सविसेसमिणं, लिंगं गुरुपयपसायणारुवं । आराहणाऽरिहाणं, भन्नइ कयमिह पसंगेण ॥२१॥ इय निव्वुइपहसंदणसमाए, संवेगरंगसालाए । परिकम्मविहीपामोक्ख-चउमहामूलदाराए ॥२२॥ आराहणाए पन्नरस-पडिदारमयस्स पढमदारस्स । लिंगाभिहाणमेयं, अक्खायं बीयपडिदारं ॥२३॥ पुव्युत्तलिंगजुत्ता वि, सम्ममाऽऽराहणं न पावेंति । जम्हा विणा इमीए, ता एतो भण्णए सिक्खा ॥२४॥ "तृतीयशिक्षाद्वारस्वरूपम् - ग्रहणशिक्षास्वपम्" - गहणाऽऽसेवणतदुभय-भेएहिं सा भवे तिहा तत्थ । नाणब्भाससरुवा, सिक्खा बुच्चइ गहणसिक्खा ॥२५॥ सा य जहन्नेण जइस्स, सावयस्स य पडुच्च सुत्तत्थे । अट्ठ उ पवयणमाया, जाय भवे तुच्छमइणो वि ॥२६॥ उक्कोसेणं साहुस्स, सुत्तओ अत्थओ य होइ इमा । पययणमायाइबिंदु-सारपुव्यावसाण ति ॥ ॥ जावं छज्जीवणियं, उक्कोसा सुत्तओ गिहत्थस्स । अत्थं पडुच्च पिंडेस-णावसाणा स किर जेण ॥२८॥ पवयणमायाऽहिगम, विणा वि सामाइयं कह रेज्ज । छज्जीवणियानाणं, विणा य कह रक्खड़ जीवे ॥२९॥ पिंडेसणउत्थविन्नाण-विरहओ कह व देज्ज समणाणं । फासुयएसणियाइं, पाणाऽसणवत्थपत्ताई ॥३०॥ इय घोरभवऽन्नवतरण-तरीसमुद्दामपायडपहावं । पुन्नाऽणुबंधिपुण्णाण, कारणं परमकल्लाणं ॥३१॥ मुहपरिणई महुरं, पमायदढसेलवज्जडमणवज्जं । जमरणरोगपसमण-मणहारिरसायणविहाणं ॥३२॥ जिणवयणं पढमं सुद्ध-मडविकलं सुत्तओ पढेयव्यं । पच्छा सुसाहुपासे, सोयव्यं अत्थओ सम्म 1. त्वया 38 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १३३४- १३६८ सुरेन्द्रदत्तस्य दृष्टान्तः ॥३५॥ ॥३६॥ ॥३७॥ ॥३८॥ ॥३९॥ पढिय - सुणियं पि एक्कसि, जत्तेण पुणो पुणो हु पेहेज्जा । आजम्ममऽप्पणो तयणु-बंधथिरीकरणहेउ ति ॥ ३४ ॥ तं किं पि परमतत्तं, इमं मए पावियं सुपुन्नेहिं । एवं च भावसारं, बहुमन्नेज्जाऽणवज्जं तं भद्दं समंतभद्दस्स, तस्स पायडियसुगइमग्गस्स । जिणवयणस्स भगवओ, भवंति जत्तो गुणा एए आयहियपरिन्ना भाव-संवरो नवनवो य संवेगो । निक्कंपया तयो भाव - णा य परदेसियत्तं च नाणेण सव्यभावा, जीवाऽजीवाऽऽसवाइणो सम्मं । नज्जंति आयहियं, अहियं च भवे इह परे य आयहियमऽयाणंतो, मुज्झइ मूढो समाइयइ पावं । पावनिमित्तं जीवो, भमड़ भवसायरमनंतं जाणंतस्सायहियं, अहियनियत्ती य हियपवित्ती य । होइ जओ ता निच्चं, आयहियं आगमेयव्यं सज्झायं कुव्यंतो, पंचिंदियसंवुडो तिगुत्तो य । संवरइ असुहभावे, रागद्दोसाऽऽइए घोरे [दारं ] जह जह सुयमऽवगाहड़, अइसयरसपसरनिब्भरमऽउव्यं । तह तह पल्हाड़ मुणी, नवनवसंवेगसद्धाए [ दारं ] ॥४२॥ आयोवायविहिन्नू, विज्जा तवनाणदंसणचरिते । विहरड़ विसुद्धलेसो, जावज्जीवं पि निक्कंपो [दारं ] ॥४३॥ बारसविहम्मि वि तवे, सब्भिन्तरबाहिरे कुसलदिट्ठे । नऽवि अत्थि नऽवि य होही, सज्झायसमं तवकम्मं [दारं ] ॥ ४४ ॥ सज्झायभावणाए य, भाविया होंति सव्वगुत्तीओ । गुत्तीहिं भावियाहिं, मरणे आराहओ होइ [दारं ] ॥४५॥ आयपरसमुत्तारो, आणावच्छल्ल दीवणा भत्ती । होइ परदेसियते, अव्वोच्छिती य तित्थस्स ॥४६॥ ॥४०॥ ॥४१॥ अन्नं च ॥५०॥ ॥५३॥ ॥५४॥ ॥५६॥ ॥५७॥ उवएसमंडतरेण वि, कामत्थे कुसलो सयं लोगो । धम्मो उ गहणसिक्खं, विणा न ता तीए जइयव्वं ॥४७॥ अत्थाऽऽइसु अविहीए, तदभावो चेव जड़ परनराणं । रोगचिगिच्छाऽऽहरणा, धम्मे अविही अणत्थकए ॥ ४८ ॥ ता निच्चं धम्मऽत्थी, जत्तपरो होज्ज गहणसिक्खाए । निम्मोहं धम्मिजणे, पवित्तिहेऊ तदुज्जोओ ॥४९॥ नाणं चिंतारयणं, नाणं कप्पहुमो परो लोए । तह सव्वगयं चक्खू, धम्मस्स य साहणं नाणं जस्सेह न बहुमाणो, अफल च्चिय तस्स धम्मकिरियाऽवि । पेक्खणगेक्खणकिरिया, जह जच्चंधस्स लोयम्मि ॥ ५१ ॥ अन्नं च विणा नाणं, जो वट्टइ कामचारओ किच्चे । लहड़ न तस्सिद्धिं सो, न सुहं न परं गई वाऽवि ॥५२॥ इय मोत्तूण पमायं, पढमं चिय कज्जसाहणमणेण । सम्मं सया वि जत्तो, कायव्यो नाणगहणम्मि अन्नं च पत्थुयइत्थे, एत्थं नीसेसनयमयाणं पि । संगाहिणो नया दोन्नि, नांणकिरियाऽभिहाणाओ तत्थ किर नाणनयमय - मेयं जं सव्वहा वि कज्जत्थी । गहणस्सिक्खाए च्चिय, जएज्ज सम्मं सड़ तहाहि ॥५५॥ | हे ओवाएयत्थे, विन्नाए चेव गहणसिक्खाए । सम्मं बुहेहिं जइयव्यं, अन्नहा फलविसंवाओ फलसाहणेक्कहेऊ, सन्नाणं चिय नराण नो किरिया । मिच्छानाणपवत्ताणं, फलविसंवायभावाओ इय इहलोगफलं पड़, जह भणियं तह भवंतरफलं पि । आसज्ज सो च्चिय विही, जिणनाहेहिं जओ भणियं ॥ ५८ ॥ 'पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । अन्नाणी किं काही, किंवा नाही छेयपावयं' इह जह खाओवसमिग-नाणस्स तहेव खाइगस्साऽवि । संमं विसिट्ठफलसाह-गत्तणं होड़ विन्नेयं जम्हा अरिहन्तस्स वि, संसारसमुद्दपारपत्तस्स । दिक्खापडिवन्नस्स वि, पगिट्ठतवचरणवंतस्स नो ताव सिद्धिगमणं, केवलनाणं न जाव उप्पन्नं । जीवाऽऽइसमत्थपयत्थ- सत्थवित्थारणसमत्थं | तम्हा इहपरलोइय-फलसंपत्तीए कारणमऽवंझं । सन्नाणं चिय तत्तो, तम्मि पयत्तो न मोतव्यो नाणं विणा न गोरव - मेइ नरो इंददत्तपुत्तोव्य । नाणाउ तस्सुओ च्चिय, सुरिंददत्तो व्य गउरविओ तथाहि" सुरेन्द्रदत्तस्य दृष्टान्तः" इंदपुरे इव रम्मे, इंदपुरे वरपुरम्मि नरनाहो । नामेण इंददत्तो, इंदो इव विबुहमहणिज्जो सिरिमालिपमुहपुत्ता, बावीसमणंगचंगरूवधरा । बावीसाए देवीण - मत्तया तस्स य अहेसि एगम्मि य पत्थावे, अमच्चधूया रइ व्य पच्चक्खा । दिट्ठा तेणं गेहे, कीलंती विविहकीलाहिं तो पुच्छिओ परियणो, कस्पेसा तेण जंपियं देव ! । मंतिसुया अह रन्ना, तदुवरि संजायरागेण ॥५९॥ 1. विद्वान् । 39 ॥६०॥ ॥६९॥ ॥६२॥ દ્દો ॥६४॥ ॥६५॥ ॥६६॥ ॥६७॥ ॥६८॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १३६६-१४०५ सुरेन्द्रदत्तस्य दृष्टान्तः विविहपयारेहि मग्गिऊण, मंतिं सयं समुव्यूढा । परिणयणाणंडतरमवि, खित्ता अंतउरे सा य ॥६९॥ अन्नन्नपवररामा-पसंगवासंगओ य नरवइणो । विस्सुमरिया चिरेण य, दटुं 'ओलोयणठियं तं ॥७॥ जंपियमऽणेण ससहर-सरिच्छपसरंतकतिपब्भारा । का एसा कमलच्छी , लच्छी विव सुंदरा जुबई ॥१॥ कंचुइणा संलतं, सा एसा देव मंतिणो धूया । जा परिणिऊण मुक्का, तुब्भेहिं पुवकालम्मि । , तीए समं तं निसीहिणिं वत्थो । उउण्हाय ति तय च्चिय, पाउभओ य से गब्भो ॥७३॥ अह सा पुचमडमच्चेण, आसि भणिया जहा तुहं पुत्ति! । पाउब्भवेज्ज गब्भो, जं च नरिंदो समुल्लवइ ॥७४॥ तं साहेज्जसु तइया, महं ति तीए वि सव्यवुत्तंतो । सिट्ठो पिउणो तेणावि, भुज्जखंडम्मि लिहिऊण ॥७५॥ | पच्चयकरण मुक्को, पइदियहं सारवेइ अपमत्तो । जाओ य तीए पुत्तो, सुरिंददत्तो क्यं नामं ॥६॥ तम्मि य दिणे पसूयाणि, तत्थ चत्तारि चेडरूवाणि । अग्गियओ पव्वयओ, बहुली तह सागरयनामो ७७॥ | उवणीओ पढणत्थं, लेहाऽऽयरियस्स सो अमच्चेण । तेहिं चेडेहिं समं, कलाकलावं अहिज्जेइ ॥८॥ ते वि सिरिमालिपमुहा, रन्नो पुत्ता न किंचिवि पढंति । थेवं पि कलाऽऽयरिएण, ताडिया निययजणणीए ॥७९॥ साहेति रोयमाणा, एवं एवं च तेण हणियम्ह । अह कुवियाहिं भणिज्जड़, उज्झाओ रायमहिलाहिं ॥८॥ हे कूडपंडिय! सुए, अम्हाणं कीस हणसि णिस्सटुं । पुत्तरयणाइं जह तह, न होंति एयं पि नो मुणसि ॥८१॥ हो! होउ तुज्झ पाढणविहीए, अच्वंतमूढ! विहलाए । जो न सुए थेवं पि हु, ताडितो वहसि अणुकंपं ॥८२॥ | इय ताहिं फरुसवयणेहिं, तज्जिएणं उहिया गुरुणा । अच्वन्तमहामुक्खा, जाया ताहे नरिंदसुया ॥३॥ राया वि वइयरमिम, अयाणमाणो मणम्मि चिन्तेइ । अच्चंतकलाकुसला, मम चेव सुया परं एत्थ ॥८४॥ सो पुण सुरिंददत्तो, कलाकलावं अहिज्जिओ सयलं । अगणेतो समवयचेड-रूवविहियं पि पच्चूहं ॥५॥ अह महुराए नयरीए पव्ययगनराहियो निययधूयं । पुच्छइ पुत्ति! तुह वरो, जो रोयइ तं पणामेमि ॥८६॥ तीए पर्यपि ताय!, इंददत्तस्स संतिया पुत्ता । सुव्यंति कलाकुसला, सूरा धीरा सुरुवा य ॥८७॥ तेसिं एक्कं सुपरिक्खिऊण, राहापवेहविहिणाऽहं । जइ भणसि ता सयं चिय, गंतूण तहिं वरेमि ति ॥८८॥ पडिवन्नं नरवडणा, ताहे पउराए रायरिद्धीए । सा परिगया पयट्टा, गंतु नयरम्मि इंदपुरे ॥८९॥ तं इंतिं सोऊणं, तुट्टेणं इंददत्तनरवइणा । कारविया नियनयरी, उभवियविचित्तधयनिवहा ९०॥ अह आगयाए तीए, दवाविओ सोहणो य आवासो । भोयणदाणप्पमुहा, विहिया उचिया पवित्ती वि ॥११॥ विन्नत्तो तीए निवो, राहं जो विधिही सुओ तुज्झ । सो च्चिय मं परिणेही, एतो च्चिय आगयाऽहमिहं ॥१२॥ रन्ना भणियं मा सुयणु!, एत्तिएणाऽवि तं किलिस्सिहसि । एक्केक्कपहाणगुणा, सव्वे वि सुया जओ मज्झ ॥१३॥ उचियपएसे य तओ, सव्वेयरभमिरचक्कपंतिल्लो । सिरिरइयपुत्तिगो लहु, महं पइट्ठाविओ थंभो ॥१४॥ अक्खाडओ य रइओ, बद्धा मंचा क्या य उल्लोया । हरिसुल्लसन्तगतो, आसीणो तत्थ नरनाहो ॥९५॥ उपविट्ठो नयरिजणो, आहूया राइया निययपुत्ता । वरमालं घेत्तूणं, समागया सा वि रायसुया ॥९६॥ अह सव्वपुत्तजेट्ठो, सिरिमाली राइणा इमं वुत्तो । हे वच्छ! मणोयंछिय-मडवंझमेत्तो कुणसु मज्झ ॥९७॥ धवलेसु नियकुलं पर-मुन्नई नेसु रज्जमडणवज्जं । गिण्हाहि जयपडायं, सत्तूणं विप्पियं कुणसु ॥९८॥ एवं रायसिरिं पिच, पच्चक्खं निब्बुइं नरिंदसुयं । परिणेसु कुसलयाए, राहावेहं लहुं काउं ॥१९॥ एवं च वुत्तु सो रायपुत्तु, संजायखोहु निन्नट्ठसोहु । पस्सेयकिन्नु अइचित्तसुन्नु दीणाऽऽणणत्थु पगलंतकच्छु ॥१४००॥ विच्छायगत्तु नं लच्छिचत्तु, लज्जायमाणु पिहलाऽभिमाणु । हेटुं नियंतु पोरिसु मुयंतु, ठिउ थंभिउ व्य दढजंतिउ च ॥१॥ पुणरवि भणिओ रन्ना, संखोहं उज्झिऊण हे पुत! । कुणसु समीहियमऽत्थं, केत्तियमेतं इमं तुज्झ ॥२॥ संखोहं पुत! कुणंति, ते परं जे कलासु न वियड्ढा । तुम्हारिसाण स कहं, अकलंककलाकुलगिहाणं ॥३॥ इय संलतो चिट्ठिम-मडवलंबिय सो मणागमवियड्ढो । कह कहवि धणुं गेण्हइ, पकंपिरेणं करऽग्गेण ॥४॥ सव्वसरीराऽऽयासेण, कहवि आरोविऊण कोदंडं । जत्थ व तत्थ व बच्चउ, मुक्को सिरिमालिणा बाणो ॥५॥ 1. गवाक्षस्थिताम् 2. अत्यन्तम् । 40 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १४०६-१४४१ आसेवनशिक्षास्वरूपम् थंभे अन्मिट्टिता, झडत्ति, सो भंगमुवगतो तयणु । लोगो कयतुमुलरयो, निहुयं हसिउं समारद्धो દા एवं सेसेहि वि नर-वइस्स पुत्तेहिं कलाविउत्तेहिं । जह तह मुक्का बाणा, न कज्जसिद्धी परं जाया ॥७॥ लज्जामिलंतनयणो, वज्जाडसणिताडिओ व्व नरनाहो । विच्छायमुहो विमणो, सोगं काउं समाढत्तो ॥८॥ भणिओ य अमच्चेणं, देव! विमुंचह विसायमऽन्नो वि । अत्थि सुओ तुम्हाणं, ता तंपि परिक्वह इयाणिं ॥९॥ रन्ना भणियं को पुण, समप्पियं मंतिणा तओ भुज्जं । तं वाइऊण रन्ना, पयंपियं होउ तेणाऽवि ॥१०॥ अच्वंतपाढिएहिं पि, इमेहिं पावेहिं जं समायरियं । सो वि हु तमाऽऽयरिस्सइ, थी थी एवं विहसुएहिं॥११॥ जड़ पुण तुह निब्बंधो, विन्नासिज्जउ तदा सुओ सो वि । तो मंतिणोवणीओ, सुरिंददतो सउज्झाओ ॥१२॥ अह तं भूमीवइणा, विचित्तपहरणपरिस्समकिणंकं । उच्छंगे विणिवेसिय, पयंपियं जायतोसेणं ॥१३॥ पूरेसु तुम मम वच्छ!, वंछियं विधिऊण राहं च । परिणेसु निव्वुई राय-कन्नेगं अज्जिणसु रज्जं ॥१४॥ ताहे सुरेंददत्तो, नरनाहं नियगुरुं च नमिऊण । आलीढट्ठाणठिओ, धीरो घणुदंडमाऽऽदाय ॥१५॥ | निम्मलतेल्लाऊरिय-कुंडयसंकंतचक्कगणछिटुं । पेहिन्तो अवरेहि, हीलिज्जन्तो वि कुमरेहिं ॥१६॥ अग्गीययप्पमुहेहिं, रोडिज्जन्तो वि तेहिं चेडेहिं । गुरुणा निरूविएहिं, पासट्ठिएहिं च पुरिसेहिं ॥१०॥ आयड्ढियनग्गेहिं, जइ चुक्कसि ता वयं हणिस्सामो । इइ जंपिरेहिं दोहिं, तज्जिज्जतो वि पुणरुतं ॥१८॥ लक्खुम्मुहकयचक्खू, एगग्गमणो महामुणिंदो व्य । उवलद्धचक्कविवरो, राहं विंधड़ सरेण लहुं ॥१९॥ | विद्धाए तीए खित्ता, वरमाला निव्वुईए से कण्ठे । आणंदिओ नरेंदो, जयजयसद्दो समुच्छलिओ ॥२०॥ विहिओ वीवाहमहो, दिन्नं रज्जं पि से महीवइणा । एवं सुरेंददतो, नाणाउ गउरवं पत्तो ॥२१॥ इय नाणनयमएणं, जत्तो निच्चं पि गहणसिखाए । कायव्यो इहपरभव-सुहदाणअवंझहेऊए ॥२२॥ | एयरहिया न जम्हा, किरियाजुत्ता वि होंति जणपुज्जा । अचंतकलावियला, निवसुयसिरिमालिपमुह व्य ॥२३॥ इय ताव गहणसिक्खा, निदंसिया इन्हेिं पुव्बउद्दिट्ठा । किरियाकलावरुवा, बुच्चइ आसेवणासिक्खा ॥२४॥ एयाए विणा वणमालईए, कुसुमोग्गमो व्य विहवाए । रुवाऽऽइगुणगणोइय, होड़ विहला गहणसिक्खा ॥२५॥ __ "आसेवनशिक्षास्वरूपम्" जोगतिगेणासेवण-सिक्खं चिय सम्ममायरन्तस्स । गहणस्सिक्खा जायइ, न अन्नहा जेण पयडमिणं ॥२६॥ गुरुचरणपसायणओ, असेसवक्नेयवज्जणुज्जमओ । सुस्सूसणपडिपुच्छण-पमुहगुणपउंजणेणं च . ॥२७॥ बहुबहुतरबहुतमबोह-संभवा परमपगरिसमुवेइ । गहणस्सिक्खा न उ अन्न-हा वि सिरिमालिणो व्व धुवं ॥२८॥ | एवं जाया वि अभिक्खणं पि, मणवयणकायकिरियाहिं । आसेविज्जन्त च्चिय, वड्ढइ एसा थिरा य भवे ॥२९॥ ता होइ अहन्ता वि ह, हंतीए अहंतियाए हन्ता वि । न ह होड जप्पभाया. भव्याण इमा गहणसिक्खा ॥३०॥ तीए च्विय एक्काए, नमोऽत्थु सद्धिभूमीए । आसेवणसिक्खाए, भवतरुपलवानलसमाए ॥३१॥ एत्थ य किरियानय-मयमेयं जं सव्वहा वि कज्जत्थी । किरियाए च्चिय सम्म, जएज्ज निच्चं चिय तहाहि ॥३२॥ हेओवादेयऽत्थे, विन्नाए उभयलोगफलसिद्धिं । इच्छन्तेण मड़मया, जइयव्यं चेव जत्तेण ॥३३॥ जम्हा पवित्तिलक्खण-पयत्तविरहे न नाणिणो वि इहं । अहिलसियवत्थुसिद्धी, दीसह अन्नेहि वि जमुत्तं ॥३४॥ किरिय च्चिय फलजणणी, नो नाणं संजमउत्थविसयाण । विन्नाया वि सुनिउणं, न नाणमेत्ता सुही होइ ॥३५॥ तिसिओ वि हु सलिलाइय-मवलोयन्तो वि जाव न पयट्टो । पिवणाऽऽइकिरियाए, 'तत्तित्तिफलं न ता लहइ॥३६॥ |अग्गट्ठियइट्ठरसोववेय-भोयणतडोवविठ्ठो वि । हत्थमवावारिन्तो, नाणी वि हु मरइ भुक्खाए ॥३०॥ अइपंडिओ वि वाई, आहसिय परं गतो निवसभाए । वयणमयावारिन्तो, न लहइ अत्थं सलाहं च ॥३८॥ इय इहलोयफलं पड़, जह वुत्तो तह भवन्तरफलं पि । आसज्ज सो च्चिय विही, जओ जिणिंदेहिं भणियमिणं ॥३९॥ चेइयकूलगणसंघे, आयरियाणं च पवयणसुए य । सव्येसु वि तेण कयं, तवसंजममुज्जमन्तेण ॥४०॥ इय जह खाओवसमिग-चरणस्स तहेव खाइगस्सावि । सम्म पगिट्ठफलसाह-गत्तणं होइ विन्नेयं ॥४१॥ 1. तत्तृप्तिफलम्। किंच 41 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १४४२-१४७८ ज्ञानक्रियासापेक्षउपादेयता - आर्यमङगूआचार्यदृष्टान्तः ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४६॥ ॥४७॥ जम्हा अरिहन्तस्स वि, पत्तस्स वि विमलकेवलाऽऽलोयं । नो ताव नाणओ च्चिय, संपज्जइ मुत्तिसंपत्ती ॥४२॥ | जाव न समत्थकम्मिं - धणग्गितुल्ला परा विसुद्धिकरी । लहुपंचऽक्खरसंगिरण-मेतकालप्पमाणट्ठिई |नीसेसाऽऽसवसंवर- रूवा एत्थं अपत्तपुव्वा य । सेसकिरियापहाणा, पत्ता चारितकिरियत्ति नायं च एत्थ सो च्चिय, सुरिंददत्तो न जड़ मुणन्तो वि । राहं विंधतो ता, परे व्व हीलापयं हुंतो ॥४५॥ तम्हा इहपरलोइय-फलसंपत्तीए कारणमऽयं । आसेवासिक्ख च्चिय, ता इह जत्तो न मोत्तव्यो एवं च नाणकिरिया - नएहिं उद्दिट्ठमुभयपक्खे वि । सिद्धंतुद्दिट्ठविचित्त - जुत्तिनिविहं निसामेत्ता एगत्थ मांसलाऽऽमोय - मणहरं फूडियकेयईकोसं । अन्नत्तो दरविदलिय - मवलोइय मालईमउलं तग्गंधलुद्धओ महु-यरो व्व दोलायमाणमणपसरो । सिस्सो पुच्छइ सट्ठाण - जुत्तिगरुयत्तणे 'भंतो किं तत्तमेत्थ गुरुणा, पयंपियं हंत उभयसिक्ख ति । गहणाऽऽसेवणरूवा, अन्नोन्नसवेक्खयाए जओ आसेवणाए सिक्खा, न गहणसिक्खं विणा भवइ सम्मं । सहला न गहणसिक्खा वि, इह विणाऽऽसेवणासिक्खं ॥५१॥ संमतं पि जओ इह, सुयाऽऽणुसारेण जा पवित्ती उ । सुत्तऽत्थगहणपुव्या, किरिया तेणेह सिवजणणी ॥५२॥ किंच"ज्ञानक्रियासापेक्षउपादेयता" ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ सुयनाणम्मि वि जीवो, वट्टन्तो सो न पाउणइ मोक्खं । जो तयसंजममइए, जोए न चएड़ वोढुं जे ॥५३॥ 'हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया । पासंतो पंगुलो दड्ढो, धायमाणो य अंधओ' ॥५४॥ 'संजोगसिद्धीए फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो य पंगू य वणे समेच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ' ॥५५॥ नाणं नयणसमाणं, चरणं चरणप्पवित्तिपडिरूवं । दोण्हं पि समाजोगे, सिवपुरगमणं जिणा बिंति ॥५६॥ सिक्खादुगोउवएसो, जड़ ता मुणिणो वि यन्निओ एवं । सविसेसं समणोवास- एण ता तत्थ जइयव्यं ॥५७॥ एतो च्चिय वन्निज्जइ, ते च्चिय धन्ना जयम्मि सप्पुरिसा । जे निच्चमऽप्पमंता, नाणी य चरितजुत्ता ॥ ५८ ॥ परमत्थम्मि सुदिट्ठे, अविनट्ठेसु तवसंजमगुणेसु । लब्भड़ गई विसिट्ठा, कम्मसमूहे विट्ठम्मि ॥५९॥ लक्खिता दक्खो लक्ख - णिज्जभावे उ गहणसिक्खाए । लक्खाणुरूचमह अणु - सरेज्ज आसेवणासिक्यं ॥६०॥ जड़ ताव गहणसिक्खा, एक्क च्चिय फलवई हवेज्ज इहं । ता नहि सुयनिही सो वि हु, महुरामंगू तहा हुंतो ॥ ६१ ॥ तहाहि-“आर्यमङ्गआचार्यदृष्टान्तः” महुराए नयरीए, जुगप्पहाणो सुयस्स य निहाणो । अणवरयसिस्ससुत्तत्थ - कहणपडिबद्धवावारो अगणियपरिस्समो भव्य सत्तसद्धम्मदेसणाईसु । नामेण अज्जमंगू, आसि सूरी जणपसिद्धो ॥७०॥ सो पुण जहुत्त किरिया - कलाववियलो सुहाभिलासी य । सावयकुलपडिबद्धो, पग्गहिओ गारवतिएण | अणवरयभत्तजणदिज्ज - माणपाणऽन्नवत्थलाभेण । तत्थेव चिरं युत्थो, चिच्चा अब्भुज्जयविहारं अह सिढिलियसामन्नो, निस्सामन्नं पमायमुवचिणिउं । अकयनियदोससुद्धी, मरिऊणं आउविगमम्मि तीए चेव पुरीए निद्धमणाऽसन्नजक्खभवणम्मि । अच्वंतं किव्विसिओ, जक्खो होऊण उप्पन्नो मुणिऊण विभंगेणं, पुव्यभवं तो विचिंतिउं लग्गो । हा हा पावेण मए, पमायमयमत्तचित्तेण पत्तं पि विचित्ताऽइसय - रयणपडिपुन्नजिणमयनिहाणं । तक्कहियपवित्तिपरं - मुहेण विहलत्तमुवणीयं | माणुस्सखेत्तजाई - पमोक्खसद्धम्महेउसामग्गिं । चरणं पमायभट्ठ, एत्तो कत्तो लहिस्सा मि हा जीव ! पाव! तइया, इड्ढीरसगारवाण विरसतं । सत्थइत्थजाणगेण वि, न लक्खियं किं तए आसि ॥ ७१ ॥ मायंगनिव्विसेसं, किव्विसियसुरत्तणं इमं पत्तो । जाओऽम्हि चिरमऽजोग्गो, विरइपहाणस्स धम्मस्स धी धी सत्थत्थपरि-स्समो ममं धी मईए सुहुमत्तं । धी धी परोवएस - प्ययाणपंडिच्चमच्वंतं धी भाववियलकिरिया - कलायमणुदिणमणुट्ठियं तं पि । वेसानेवत्थं पिव, परचित्तपसायंणामेत्तं इय एवं नियदुच्चरिय - मणुखणं परमजायवेरग्गो । निंदंतो दिवसाई, गमेइ 2 गोतीनिहित्तो व्य अह तेण पएसेणं, उच्चारमहिं पडुच्च वच्चते । दट्ठूण निययसिस्से, मुणिणो पडिबोहण डाए जक्खपडिमामुहाउ, दीहं निस्सारिडं ठिओ जीहं । तं च मुणिणो पलोइय, पइदियहं भणिउमादत्ता जो कोई एत्थ देवो, जक्खो रक्खो व किन्नरो वाऽवि । सो जंपर पयडं चिय, न किंपि एवं वयं मुणिमो ॥ ७८ ॥ ॥७२॥ ॥७५॥ ॥७६॥ ॥७७॥ 1. भ्रान्तः । 2. गोत्ती = कारागृहम् । ॥६२॥ En ॥६४॥ ॥६५॥ ॥६६॥ ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ ॥७३॥ ॥७४॥ 42 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १४७६-१५१२ अङ्गारमर्दकस्य दृष्टान्तः - ग्रहण-आसेवन शिक्षाभेदाः - साधु-गृहस्थाभ्यां सामान्य-आचारधर्मः तो सविसायं जक्खेण, जंपियं भो तवस्सिणो सोऽहं । तुब्भाण गुरु किरियाए, मंगुलो अज्जमंगु ति ॥७९॥ | तेहिं युत्तं हा सुयनिहाण!, सिक्खादुगम्मि वि सुदक्ख! । कह हीणजक्खजोणिं, गतोऽसि चोज्जं महंतमिमं ॥८०॥ तेणं भणियं नो किं पि, चोज्जमिह साहुणो महाभागा! । एस च्चिय होइ गई, सिढिलियसद्धम्मकम्माण ॥८१॥ साययपडिबद्धाणं, इड्ढिरससायगारयगुरुणं । सीयविहारीणं मारि-साण जिमिंदियजियाण इय मह कुदेवजोणिं, जाणित्ता साहुणो महासत्ता! । जइ सुगईए कज्जं, ता दुलहं संजमं लद्धं ૮૨ परिहरिपमाया, निज्जियाउणंगजोहा । चरणकरणरत्ता, नाणवंताण भत्ता | परिचइयममत्ता, मोक्नमग्गे पसत्ता । विहरह लहुभूया, भूयरक्खं कुणंता ॥८४॥ भो भो देवाणुप्पिय!, संमं संबोहिया तए अम्हे । इइ जंपिऊण मुणिणो, पडियन्ना संजमुज्जोयं ॥५॥ इय पुन्ना यि हु पंछिय- सोग्गतिफलसाहिगा गहणसिक्खा । आसेवणसिक्खाए, रहिया नो जायइ कहं पि ॥८६॥ आसेवणसिक्खा वि हु, असहाय च्चिय गुणाय नो भणिया । अंगारमद्दगस्स व, सम्मं सन्नाणसुन्नस्स ॥८॥ तथाहि “अङ्गारमर्दकस्य दृष्टान्तः" - अत्थि पुरं गज्जणयं, सुसाहुगणपरिवुडो विजयसेणो । सूरी सद्धम्मपरो, तत्थ ठिओ मासकप्पेण ॥॥ पच्छिमरयणीसमए, सीसेहिं तस्स सुमिणओ दिट्ठो । पंचसयकलहकलिओ, कोलो वसहीए किल पत्तो ॥८९॥ विम्हियमणेहिं तेहिं, सुमिणडत्थं पुछिया य तो सूरी । तेहिं कहियं एही, गुरुकोलो साहुगयसहिओ ॥९॥ | अह उग्गयम्मि सूरे, सोमग्गहसंगओ रविसुओ व्य । कप्पतरुसंडमंडल-सहिओ एरंडरुक्खो व्य ॥१॥ |पंचसयसुमुणिजुत्तो, आयरिओ रुद्ददेवनामोत्ति । पत्तो साहुहिं कया, उचिया से सव्वपडियत्ती ॥१२॥ अह वत्थव्या मुणिणो, परिक्खणउट्ठा निसिम्मि कोलस्स । गुरुवयणेणं विविउं, काइयभूमिम्मि अंगारे ॥१३॥ पच्छन्नपएसगया, पलोयमाणा य जाय चिट्ठति । पाहुणगसाहुणो ताव, पट्ठिया काइयमहीए ॥९४॥ अंगारक्कमणुप्पन्न-किसिकिसाडडरायसवणओ चेव । मिच्छा मि दुक्कडं हा, किमेयमेवं ति जंपंता ॥९५॥ अंगारकिसकिसारय-ठाणम्मि विरइऊण चिंधाई । गोसे पहिस्सामो, होज्ज किमेयं ति बुद्धीए ॥९६॥ विणियत्तंति जवेणं, तेसिं गुरू पुण तदारवे तुट्ठो । एए वि जिणेहिं अहो, जीवा कहिय ति भासंतो ॥९॥ खरययरं अंगारे. मदंतो काइयामहिम्म गओ। एसो य वइयरो तेहिं, संसिओ निययसरिस्स ॥९८॥ तेणाऽवि जंपियं भो, तवस्सिणो एस सो गुरु कोलो । एए वि महामुणिणो, सिस्सा एयस्स गयकलहा ॥१९॥ तो पत्थाये पाहुणग-साहुणो विजयसेणसूरिहिं । जहदिगृहेउजुत्तीहिं, बोहिऊणं इमं भणिया ॥१५००॥ भो भो महाणुभाया! तुम्ह गुरू एस निच्छियमऽभव्यो । जइ मोक्वकंखिणो ता, चएह एयं लहुं चेव · ॥१॥ जम्हा गुरुणो वि हु उप्पहम्मि, लग्गस्स मूढबुद्धिस्स । चागो विहिणा जुत्तो, इहरा दोसप्पसंगाओ ॥२॥ एवं सोच्चा तेहिं, उयायओ उज्झिओ इमो झत्ति । क्यउग्गतवविसेसेहिं, पाविया देवलच्छी वि . ॥३॥ अंगारमद्दगो पुण, सन्नाणविवज्जियत्तणेण चिरं । कट्ठाणुट्ठाणपरो वि, दुखभागी भवे जाओ इय भो देवाणुपिया!, गहणाऽऽसेवणसरूयसिक्खासु । दोसु वि जएज्ज सम्म, तुममाराहणमभिलसंतो ॥५॥ "ग्रहण-आसेवन शिक्षाभेदाः" - एवं तदुभयसिक्खा, भणिया वि पुणो हवेज्ज दुवियप्पा । सामन्नविहिसरुवा, सविसेसविहीसरुवा य ॥६॥ एक्केक्का वि य दुविहा-जइगिहिविसयत्तणेण नायव्या । ताव गिहत्थाणमऽहं, भणामि सामन्नविहिसिक्वं ॥७॥ "साधु-गृहस्थाभ्यां सामान्य-आचारधर्मः" - यवहारसुद्धी जणणिंदणिज्ज-यावारचागनिष्फन्ना । कालुस्सवियलसद्धम्म-कम्मपरिवालणसरुवा संखाण व धवलपहा गभीरया, विय महासमुदाणं । चंदाण सिसिरजोण्ह व्व, नयणसोह ब्व हरिणीणं ॥९॥ उच्छृण महुरया विय, सुस्साययकुलपसूइसब्भावे । जड़ वि हु सिद्धा सा तेसिं, तह वि एवं समवसेया ॥१०॥ | नाणयययुड्ढसेवा, सत्थडभासो परोवयारितं । सच्चरियजणपसंसा, दक्खिन्नपरायणतं च ॥११॥ | उत्तमगुणाणुरागो, अणूसुगतं अखुद्दभायो य । परलोयभीरुयत्तं, सव्वत्थ अणक्खपरिहारो ॥१२॥ 1. सद्गति० 2. खरकतरम् = गाढम् इत्यर्थः निर्णय सागर से प्रकाशित में ये दो गाथाएँ की हुई है। 42 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थस्य विशेषाराधना Kn ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १५१३-१५४६ | गुरुदेवाऽतिथिपूयण-मपक्खवाएण नायदरिसितं । असदऽग्गहवज्जणया, सपणयपुव्वाऽभिभासितं वसणम्मि सुधीरतं, संपत्तीए 'अणुत्तुणत्तं च । सगुणपसंसालज्जण - मत्तुक्करिसस्स परिहारो नयविक्कसमालित्तं, लज्जालुत्तं सुदीहदरिसितं । उत्तमकमवत्तित्तं, पडियन्नभरेक्कथवलत्तं | उचियठि परिवालण - मज्दुराराहत्तणं जणपियत्तं । परपीडापरिहारो, थिरयासंतोससारतं अणवरयगुणऽब्भासो, परत्थसंपाडणेक्करसियत्तं । पयइए विणीयत्तं, हिओवएसोवजीवित्तं गुरुजणरायाऽऽईणं, अवन्नवायाऽऽइकारिपरिहरणं । इहपरलोयाऽपायाऽऽइ - चिन्तणं चेव अइनिउणं एमाइगुणगणो सावगेहिं, इह परभवे य हियहेऊ । अप्पाणयम्मि निच्चं, निवेसियव्यो पयत्तेण | इय गुणजोगाराऽऽहिय - सामन्नविही गिही अ जत्तेण । साहेड़ विसेसविहिं पि, नूण तदऽवंझहेउत्ता सामन्नगुणाऽसत्तो, किमडलं धरिडं नरो विसेसगुणे । न हु सरिसवं पि वोढुं, असमत्थो मंदरं धरिही लोगट्ठिइपगिट्ठो, एवं चिय भूमिगाऽणुसारेण । सामन्नविहीसिक्खं, सुस्समणो वि हु अणुसरेज्ज अह पुव्वसूइयं चिय, संखेयेणं विसेसविहिसिक्यं । सुस्सावगसाहुगयं, भणामि दुविहं पि सुविभत्तं " गृहस्थस्य विशेषाराधना " तत्थ य. सामन्नविहि- प्पवित्तिअब्भहियजोग्गयगयस्स । गिहिणो विसेससिक्खा, पढमं चिय युच्चए ताव | सम्ममवगयस्स जिणमय - मऽणुदिणवड्ढन्तसुद्धपरिणामो । परिणाममंगुलं जाणि - ऊण घरवासवासंगं |पडुपवणंऽदोलियकयलि - पत्तपडिबद्धतोयबिंदु व । सुविणिच्छिऊणं भंगुर - माऽऽउं तारुन्नमऽत्थं च पयइविणीओ पयईए, भद्दओ पयइपरमसंविग्गो । पयईउदारचित्तो, पयइजहुक्खित्तभरधवलो निच्चं चिय साहम्मिय - वच्छल्ले जुन्नचेइउद्धारे । परपरिवायच्चाए, जएज्ज सुस्सायगो मइमं निद्दाविरमम्मि तहा, सम्मं कयपंचमंगलविहाणो । अणुसरणपुव्ययं उट्ठि-ऊण उचियं च काऊण संखेयेणं पि हु वीय - रायपडिमाउ वंदिउं सगिहे । गच्छेज्ज साहुवसहिं, करेज्ज आवस्सयाइ तहिं एवं हि कीरमाणे, जिणाणमाऽऽणा क्या हवइ सम्मं । गुरुपरतंतत्तं सुत्त - अत्थसविसेसनाणं च | जहठियसामायारी - कुसलत्तम सुद्धबुद्धिविगमो य । गुरुसक्खिओ य धम्मो, संपुण्णविही य होइ कया साहूण असइ वसही - संकिन्नताइकारणेहिं या । गुरुणा समणुन्नाओ, पोसहसालाईसु वि कुज्जा सज्झायं काऊणं, खणं अपुव्यं पढेज्ज सुत्तं पि । तत्तो य विणिक्खमिउं, होऊण य दव्यभावसुई पढमं नियगेहे च्चिय, निच्चं चिइवंदणं समयविहिणा । विभवाऽणुसारिपूया, पुव्यमऽणुट्टेज्ज गोसम्मि तयणंतरं तु जड़ ता, तहाविहं तस्स नऽत्थि गिहकिच्चं । ता तव्येलं चिय कय- सरीरसुद्धी सुनेवत्थो |पुप्फाइपवरपूयंग-वग्गहत्थेण परियणेण समं । बच्चेज्ज जिगिंदगिहे, पंचविहाभिगमपुव्यं च ॥३८॥ ॥ ३९ ॥ ૫૪૫ ॥४१॥ ॥४२॥ तत्थ पविसितु विहिणा, उदारपूयापुरस्सरं सम्मं । चिइवंदणं करेज्जा, पणिहाणंडतं सुसंविग्गो अह कारणेण केणऽवि, जिणवरभवणम्मि अहव नियगेहे । पोसहसालाए या हवेज्ज सामाइयाऽऽइ कयं तो साहुसमीयम्मि, गंतुं किइकम्मपुव्यगं सम्मं । कुज्जा पच्चक्खाणं, खणं च जिणवयणसवणं च भत्तीए तहा काउं, बालगिलाणाइगोयरं पुच्छं । तक्किच्चं च समग्गं, संपाडेज्जा जहाजोग्गं अणइक्कमणेण कुलक्कमस्स, लोगाऽववायविरहेण । ततो वित्तिनिमित्तं ववहारमऽणिदियं कुज्जा भोयणकाले य गिहं, आगम्म चउव्विहाए पूयाए । 2 पुप्फाऽऽमिसवत्थेहिं, थोत्तेहिं य भावसारेहिं संपूऊण विहिणा, जिणबिंबं तयणु साहुमूलम्मि । गंतूण भणइ एवं, अणुग्गहं कुणह मे भंते! असणाऽऽईदव्याणं, गहणेण भवाऽवडे निवडियस्स । जयजीययच्छलेहिं, दिज्जउ हत्थावलंबो मे संपट्टियसंघाडग-पट्ठिठिओ जाइ जाय नियदारं । एत्थंतरमन्ने वि हु, गिहट्टिया अभिमुहा इंति वंदंति य तो सड्ढो वि, जायसड्ढो पमज्जिउं पाए । दाऊण आसणं कुणइ, संविभागं जहाविहिणा वंदणपुव्वं अणुगच्छिऊण, तत्तो गिहे समागम्म । भुंजाविय जणयाई, चिंतिय गोणाई पेसाई देसंडतराऽऽगयाणं, चिंतं काऊण सावगाणं पि । पडियग्गिउं गिलाणे, ताहे उचियप्पएसम्मि | 1. अनुत्तानत्वं = गर्वरहितत्वम् इत्यर्थः । 2. पुष्पनैवेद्यवस्त्रैः (यहां पर भी प्रथम पुष्प पूजा का विधान दर्शाया है)। 3. प्रेष्यादीन् । ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ૨૫ ॥३३॥ ॥३४॥ ॥३५॥ ॥३६॥ ॥३७॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ "જા ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ 44 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १५५०-१५८५ साधुविशेषाराधनाः ॥५१॥ ॥५२॥ उचियाऽऽसणोवविट्ठो, पच्चक्खाणं च सरिय जहगहियं । कयपंचनमोक्कारो, सुसाबगो तयणु भुंजेज्जा ॥५०॥ भोत्तूण तओ विहिणा, पुरओ घरचेइयाण ठाऊण । तव्यंदणं करिता, पच्चक्खड़ दिवसचरिमाऽऽई खणमेत्तं सज्झायं, अपुव्यपढणं च किंचि काऊणं । पुणरवि वित्तिनिमित्तं ववहारमऽणिदियं कुज्जा संझासमयम्मि पुणो, पूयं काऊण जिणवरिंदाणं । सारथुइथोत्तपुव्यं, सगिहम्मि वि वंदणं कुज्जा तो जिणभवणे गंतुं, वंदेज्जा पूइऊण जिणबिंबे । सामाइयपडिक्कमणाऽऽइ, गोसभणियं पिव करेज्जा साहुसमीवे अकए य, तम्मि गच्छेज्ज साहुवसहीए । वंदणमालोयणयं खामणयं पि य तहिं काउं गिण्हड़ पच्चक्खाणं, खणमिह सवणं च धम्मसत्थस्स । विस्सामणाऽऽई विहिणा, भत्तीए करेज्ज साहूणं संदिद्धपए पुच्छिय, सावगवग्गस्स काउमुचियं च । गिहगमणं विहिसुयणं, विहेज्ज गुरुदेवसरणं च उक्कोसबंभयारी, परिमाणकडो व होज्ज नियमेण । कंदप्पाइविउत्तो, पइरिक्कम्मि य तुयट्टेज्जा उद्दाममोहवसओ, पयट्टिउं कहवि अहमकिच्चम्मि । उवसन्तमोहयेगो, चिन्तेज्जा भावसारमिमं मोहो दुहाण मूलं मूलं च विवज्जयस्स सव्वस्स । एयस्स वसं पत्ता, सत्ता मन्नंति हियमऽहियं जस्स वसेणं पि य कामिणीण, वयणाऽऽइयं असारं पि । चंदाईहुयमिज्जइ, धिरत्थु ही तस्स मोहस्स ॥ ६१ ॥ इत्थीकडेवराणं, 2 सतत - चिन्तं तओ तहा कुज्जा । जह मोहाऽरिजयाउ, संवेगरसो समुच्छलइ तहाहि ॥५८॥ ॥५९॥ ॥६०॥ Em ॥५३॥ ॥ ५४ ॥ ॥५५॥ ॥ ५६ ॥ ॥५७॥ ॥६३॥ ॥६४॥ ॥६९॥ ॥७०॥ जं ताव कामिणीणं, मणोहरं हरिणलंच्छणच्छायं । वयणं तं पि हु मलगलिर - विवरसत्तयसमाउत्तं विच्छिन्नथोरथणया, मंसचया पोट्टमऽसुइमंजूसा । मंसट्ठिनसाविरयण-मेत्तं सेसं पि हु सरीरं जं पि य पयईए च्चिय, दुग्गंधिमलाऽऽविलं विलीणं च । पयइअहोगतिदारं, बीभच्छं कुच्छणिज्जं च ॥६५॥ अइलज्जणीयमंगुल - रूवं ति ठइज्जइ य किर रमणं । तम्मि वि रमेज्ज जो नणु, स केण अव्यो विरज्जेज्ज ॥ ६६ ॥ एवं गुणाण सीमंतिणीण, रमणम्मि जे विरतमणा । जम्मजरामरणाणं, दिन्नो हु जलंऽजली तेहिं ॥६७॥ इय जेण जेण बाहा, हवेज्ज तं तस्स तस्स पडिवक्खं । पुव्वाऽचरनिसिसमए, सम्मं भावेज्ज किं बहुणा ||६८ || तित्थयरप्पडिवत्तिं, पंचविहाऽऽयारसारगुरुभत्तिं । सुविहियजइजणसेवं, सम-समहियगुणसमावासं अप्पुव्वगुणसमज्जण - मऽप्पुव्यापुव्वतरसुयऽब्भासं । अप्पुव्वत्थाऽहिगमं, अपुव्वाऽपुव्यसिक्खगहं सम्मत्तगुणविसुद्धिं जहगहियवएस निरइयारतं । अंगीकयधम्मगुणा - विरोहिगिहकज्जकारितं धम्मे च्चिय धणबुद्धिं समधम्मिसु चेव गाढपडिबंधं । आगमविहिविहियाऽतिहि-प्पयाणपरिसेसभोइतं इहलोयसिढिलभायं, परलोयाराहणेक्करसियत्तं । चरणगुणलंपडतं‍, जणवायाऽभिगमभीरुतं | संसारमोक्खपरमत्थ- दोसगुणभावणाणुसारेण । पइवेलं चिय सम्मं, परमं संवेगरसगमणं सव्वत्थ विहिपरत्तं जिणसासणपरमसमरसाऽऽपत्तिं । संवेगसारसमइय-सज्झायज्झाणरसियत्तं एमाइ उत्तरोत्तर - गुणगणमऽवियन्हमाणसो धीमं । आराहेंतो सम्मं, गमेज्ज कालं कुलपसूओ एवं च गुरुं पि गिरिं, आरुहड़ पयंपएण जह कोई । आराहणागिरिं तह, सम्मं धीरो समारुहिही | एवं धम्मऽत्थिगिहत्थ - गोयरा इह विसेसविहिसिक्खा । बुत्ता एत्तो बुच्चइ, मुणिविसया सा समासेण ॥७८॥ " साधु विशेषाराधना " ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ ॥७६॥ ॥७७॥ ॥८०॥ ॥८॥ नवरं समयविऊहिं, सा च्चिय भणिया विसेसविहिसिक्खा । जा किर पइदिणकिरिया, जईण पुण सा इमा नेया ॥ ७९ ॥ | पडिलेहणापमज्जण-भिक्खिरियालोयभुंजणा चेव । पत्तगधुवणवियारा, थंडिलमाऽऽवस्सयाऽऽइया जा वि य इच्छामिच्छ-प्पमुहा उवसंपयाऽवसाणाओ । सुविहियजणपाउग्गा, सामायारी दसपयारा पढउ सयं पाढेउ य, परे वि तत्तं पि चिंतउ पयत्ता । जइ नत्थि विसेसविहिम्मि, आयरो ता मुणी वसणी ॥ ८२ ॥ इय गुणदोसपरिक्खं, काउं अवगम्म तह गहणसिक्खं । समणुसरेज्ज अभिक्खं, सम्मं आसेवणासिक्खं ॥८३॥ एवं च सप्पभेओ - भयसिक्खजुओ हवेज्ज धम्मऽत्थी । सव्यो वि सव्वया वि, किं पुण आराहणाचित्तो ॥ ८४ ॥ आराहणा वि न जओ, पायं तह सम्ममरिहइ होउं । एमेव अत्थिणो वि हु, पुव्यमऽणब्भत्थजोगस्स ॥८५॥ 1. चन्द्रादिभिः उपमीयते । 2. स्वतत्त्वचिन्ताम् = स्वरूपचिन्तनम् । 3. विवरसप्तक० । 4. स्थग्यते = आच्छाद्यते । 5. लंपडत्तं = लम्पटत्वं 45 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १५८६-१६१८ चतुर्थ-विनयनामकद्वारम् - श्री श्रेणिकनृपदृष्टान्तः तम्हा तदत्थिणा सव्वहा चि, एयासु भणियसिक्खासु । जइयव्यं जत्तेणं, एतो य :यं पसंगेण ॥८६॥ इय धम्मुवएसमणो-हराए, संवेगरंगसालाए । परिकम्मविहीपामोक्ख-चउमहामूलदाराए ॥८॥ आराहणाए पनरस-पडिदारमयस्स पढमदारस्स । तइयं सिक्खादारं, समत्तमेयं सभेयं पि ૮૮ आराहगो न पुब्बुत्त-सिक्खदक्खो वि विणयविरहेण । होइ कयत्थो जत्तो, एत्तो युच्वइ विणयदारं ॥८९॥ “चतुर्थ विनयद्वारवर्णनम्" - विणओ य पंचरुवो, परुवियो नाणदरिसणचरित्ते । तवविणओ य चउत्थो, चरिमो उवयारिओ विणओ ॥१०॥ 'काले विणए बहमाणे, उपहाणे तहा अनिन्हवणे । वंजण-अत्थ-तदभए. विणओ नाणस्स अविहो' ९१॥ 'निस्संकिय निक्कंखिय, निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उववूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ' ॥१२॥ पणिहाणपहाणस्स उ, गुत्तीओ तिन्नि पंच समिईओ । आसज्ज उज्जमंतस्स होइ विणओ चरित्तस्स ॥९३॥ भत्ती तवम्मि तह तवरएसु सेसेसु हीलणच्चाओ । जहविरिअमुज्जमो वि अ, तवविणओ एस नायव्यो ॥१४॥ काइयवाइयमाणस्सिओ अ, तिविहोवयारिओ विणओ । सो पुण सव्यो यि दुहा, पच्चक्खो तह परोक्खो ॥९५॥ तत्थ य गुणवंताणं दंसमणमेत्ते वि आसणच्चाओ । सत्तट्ठपओसप्पणम-ऽभिमुहमिन्ताण सप्पणयं ॥६॥ अंजलिकरणं पाय-प्पमज्जणं आसणोवणयणं च । आसीणेसु य तेसु, सयमुवविसणं उचियठाणे ॥९॥ इच्चाइ काइओ वाइ-ओ य नाणाहिए पडुच्च भवे । कित्तंतस्स गुणगणं, गउरवसारेहिं वयणेहिं ॥९८॥ अकुसलमणनिरोहो, कुसलस्स उदीरणं च ते चेवं । आसज्ज जं किर भवे, एसो माणस्सिओ विणओ ॥१९॥ आसणदाणाईओ पच्चक्खो, एस चेव गुरुविरहे । तक्कहियविहिपहाण-प्पवित्तिओ हवड़ य परोक्खो ॥१६००॥ इय भूरिभेयभिन्नं, विणयं निउणं वियाणिउं धीरो । आराहणाऽभिलासी सम्म कुज्जा तयं जम्हा ॥१॥ जो परिभवड़ अविणया, धम्मगुरुं जत्थ सिक्खए विजं । सा सुगहिया वि विज्जा, दुक्खेणं तस्स देइ फलं ॥२॥ |किंचसव्वत्थ लभेज्ज नरो, वीसंभं पच्चयं च बुद्धिं च । जइ गुरुजणोयट्ठ, विणयं भावेण गिण्हेज्जा ॥३॥ पव्वइयस्स गिहिस्स य, विणयं चेय कुसला पसंसंति । न हु पावइ अविणीओ, कित्तिं च जसं च लोयम्मि ॥४॥ जाणंता वि य विणयं, केई कम्माडणुभावदोसेण । नेच्छंति पउंजेउं, अभिभूया रागदोसेहिं ॥५॥ विणओ सिरीण मूलं, विणओ मूलं समत्थसोक्खाणं । विणओ हु धम्ममूलं, विणओ कल्लाणमूलं ति ॥६॥ विणएण विहीणस्स, उ, सव्वं पि, निरत्थयं अणुट्ठाणं । तं चेव विणयसारं, सयलं सहलत्तणमुवेइ ॥७॥ तह विणयविहीणम्मि सिक्खा वि निरत्थिया भवे सव्वा । विणओ सिक्खाए फलं, विणयफलं सव्वपाहन्नं ॥८॥ दोसा वि गुणा विणयाउ, होति दोसा गुणा वि अविणीए । सज्जणजणमणरंजण-जणणी मेत्ती वि विणयाओ ॥९॥ विणयपरम्मि गुरुत्तं, सम्म दंसंति जणणिजणया वि । विणयविहीणे पुण ते वि, अहह! सत्तुं विसेसेंति ॥१०॥ विणयोवयारकरणा, अदिस्सरुवा वि दिति दरिसावं । 'अविणयजणियाडणक्खा, फिडंति पासट्ठिया वि लहुं ॥११॥ पत्थरखरहियया दुक्कुहावि विणयाउ पल्हयंति लहुं । नियवच्छदंसणेण य, पसूयसुरहि व्य निभंतं ॥१२॥ विणयाओ विस्सासो, विणयाउ सयलअत्थसिद्धीओ । विणयाओ च्चिय फलदाइ-णीओ सव्याओ विज्जाओ ॥१३॥ अविणीयस्स पणस्सइ जइ न पणस्सइ न जुज्जड़ गुणेहिं । विज्जा सुसिक्खियावि हु, गुरुपरिभवबुद्धिदोसेणं ॥१४॥ अविणीयस्स उ विज्जं, गुरु वि दिंतो लहेज्ज वयणिज्जं । हारेज्ज सज्जं पि हु, पावेज्ज ततो विणासं पि ॥१५॥ विज्जा वि होइ बलिया गहिया पुरिसेण विणयवंतेण । सुकुलपसूया कुलबा-लिय व्य परं पई पत्ता ॥१६॥ संकमइ दुविणीए, गुरुपरिभवकारए य नो विज्जा । सेणियनिवे व्यं तत्थेव, संकमज्जा उ विवरीए ॥१७॥ तहाहि ___ “श्री श्रेणिकनूपदृष्टान्तः” रायग्गिहम्मि नगरे, राया नामेण सेणिओ आसि । संमत्तथिरत्तपहि व्च, सक्कविप्फारियपसंसो ॥१८॥ 1. अविनयजनितरोषाः । 2. दुक्कुहा = अरुचयः । 3. सम्यक्त्वस्थिरत्वप्रधीः । 46. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १६१६-१६५५ स्तेनप्राप्तये अभयकथित जीर्णश्रेष्ठिकन्याकथा सयलंतेउरपवर!, देवी नामेण चेल्लणा तस्स । चउविहबुद्धिसमिद्धो, मंती पुत्तो य अभओ ति ॥१९॥ | एगम्मि य पत्थावे, देवीए पत्थियो इमं भणिओ । पासायमेगखंभ, मम जोग्गं कारयेसु ति ॥२०॥ दुन्निग्गहेण इत्थी-गहेण, संताविएग नरवड़णा । पडियन्नं तव्ययणं, अभयकुमारो य आइट्ठो ॥२१॥ तो वड्ढइणा समगं थंभनिमित्तं महाडवीए गओ । दिट्ठो तहिं च रुक्खो!, सुसिणिद्धो अइमहासाहो ॥२२॥ | 'अहिट्ठिओ सुरेणं, होहि ति विचित्तकुसुमधूवेहिं । अहिवासिओ स साही, कओवयासेण अभयेण ॥२३॥ | अह बुद्धिरंजिएणं, तरुयासिसुरेण निसिपसुत्तस्स । सिटुं अभयस्स महाणु-भाव! मा छिंदिहिसि एयं ॥२४॥ बच्चसु तुमं पि सगिह, काहमहमेगखंभपासायं । सव्वोउयतरुफलफुल्ल-मणहराउडरामपरिकलियं ॥२५॥ इय पडिसिद्धो अभओ, वडढइणा सह गओ सगेहम्मि । देवेण वि निम्मविओ, आरामसमेयपासाओ ॥२६॥ तम्मि य देवीए समं, विचित्तकीलाहिं कीलमाणस्स । रइसागरावगाढस्स, राइणो जंति दियहाई अह तन्नयरनिवासिस्स, पाणवइणो कयाइ गब्भवसा । भज्जाए समुप्पन्नो, दोहलओ अंबगफलेसु तो तम्मि अपुज्जंते, पइदियहं खिज्जमाणसव्यंगिं । तं दतॄणं पुढे, तेण पिए! कारणं किमिह? ॥२९॥ परिपक्कंऽबयफलदोहलो य, तीए निवेइओ ताहे। पाणाऽहियेण भणियं, चूयफलाणं अकालोऽयं ॥३०॥ जड़ वि हु तहावि कतो वि, सुयणु! संपाडिमो थिरा होसु । निसुओ य तेण रन्नो, सव्योउयफलदुमारामो ॥३१॥ तं चाऽऽराम बाहिट्ठिएण, पेहंतएण पक्कफलो । दिट्ठो अंबयसाही ताहे जायाए रयणीए ॥३२॥ ओणामणीए विज्जाए, साहमोणामिऊण गहियाई । अम्बयफलाइं पुणरवि पच्चोणामणिसुविज्जाए ॥३३॥ साहं विसज्जिऊणं, समप्पियाई पियाए हिटेण । पडिपुन्नदोहला सा, गब्भं योढुं समाढता ૩૪ अह अवरावरतरुवर-पलोयणं राइणा कुणंतेण । पुवदिणदिट्ठफलपडल-वियलमवलोइउं चूयं ॥३५॥ भणिया रक्खगपुरिसा रे! केणेसो विलुतफलभारो । विहिओ ति तेहिं वुत्तं, देव! न तावेत्थ परपुरिसो ॥३६॥ नूणं पविट्ठो न य नीहरंत-पविसंतयस्स वि पयाणि । कस्स वि दीसंति मही-यलम्मि ता देव! चोज्जमिणं ॥३७॥ जस्साऽमाणुससामथ-मेरिसं तस्स किंपिडकरणिज्जं । नत्थि ति य चिंतंतेण, राइणा सिट्ठमऽभयस्स ॥३८॥ एवंविहऽत्थकरण-क्खमं लहुं लहसु पुत्त! चोरं ति । जह हरियाई फलाइं, तहऽन्नया दारमऽवि हरिही ॥३९॥ भूमियलनिलीणसिरो, महापसाओ ति जंपिउं अभओ। तियचच्चरेस चोरं निरूविउं बाढमाऽऽढतो योलीणाई कड़वयदिणाई पत्ता न तप्पउत्ती वि । चिंतायाउलचितो, ताहे अभओ दढं जाओ . ॥४१॥ पारद्धमउन्नदियहे नडेण नयरीए बाहि पेच्छणयं । मिलिओ पउरनरगणो अभएण वि तत्थ गंतूणं ॥४२॥ भावोवलक्खणट्ठा, पयंपियं भो जणा! निसामेह । जाव नडो नागच्छड़, ताव ममऽक्वाणयं एक्कं ॥४३॥ तेहिं पयंपियं नाह!, कहह तो कहिउमेवमाउडरद्धो । नयरम्मि वसंतपुरे, आसि सुया जुन्नसेट्ठिस्स ॥४४॥ दारिदविदुयत्तेण, नेव परिणाविया य सा पिउणा । वड्डकुमारी जाया, वरऽत्थिणी पूयए मयणं । ॥४५॥ आरामाउ सा चोरियाए, कुसुमोच्चयं रेमाणी । पत्ता मालागारेण, जंपियं किंपि सवियारं ॥४६॥ तीए वुत्तो किं तुज्झ, भइणिधूयाओ मह सरिच्छाओ । नेवऽत्थि जं कुमारि पि, मं तुम एवमुल्लयसि ॥४७॥ संलतं तेण तुमं, उव्यूढा भत्तुणा अभुत्ता य । एसि समीवे जइ मे, मुंचामि अन्नहा नेव एवं ति पडिसणिता. गया गिहं सा कयाइ तटठेण । मयणेणं से दिन्नो, मंतिस्स सुओ वरो पवरो ॥४९॥ सुपसत्थे हत्थग्गह-जोगे लग्गम्मि तेण उव्यूढा । एत्थंतरम्मि अत्थगिरि- मुवगयं भाणुणो बिम्बं ॥५०॥ कज्जलभसलच्छाया वियंभिया दिसिसु तिमिररिंछोली । हयकुमुयसंडजडं समुग्गयं मण्डलं ससिणो ॥५१॥ अह सा विचित्तमणिमय-भूसणसोहंतकन्तसव्वंगा । वासभवणम्मि पत्ता, भत्ता,एवं च विन्नत्तो ॥५२॥ तव्येलुब्बूढाए, आगंतव्यं ति मालियस्स मए । पडिवन्नमाऽऽसि पिययम!, ता जामि तहिं विसज्जेसु ॥५३॥ सच्चपइन्ना एस ति, मन्नमाणेण तेणडणुन्नाया । वच्चन्ती परिहियपवर-भूसणा सा पुराउ बहिं ॥५४॥ दिट्ठा चोरेहिं तओ, महानिही सो इमो ति भणिरेहिं । गहिया नवरं तीए, णिवेइओ निययसब्भायो ॥५५॥ 1. अधिष्ठितः । 2. विविध० । 47 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १६५६-१६६१ कन्याकथायाः भावोपलम्भद्वारेण स्तेनप्राणप्राप्तिः विद्यादानस्वीकारच चोरेहिं जंपियं सुयण!, जाहि सिग्घं परं यलेज्जासि । मुसिऊणं जेण तुमं, जहाऽऽगयं पडिनियत्तामो ॥५६॥ एवं काहं ति पयंपिऊण संपट्ठिया अहडद्धपहे । तरलतरतारयाऽऽउल-समुच्छसंतऽच्छिविच्छोहो ॥५ ॥ रणरणिरदीहदंतो, दूरपसारियरउद्दमुहकुहरो । चिरछुहिएणं लद्धाऽसि, एहि एहि ति जंपन्तो ૮ अच्चन्तभीसणंडगो, समुट्ठिओ रक्खसो सुदुष्पेक्खो । तेणाऽवि करे धरिया कहिओ तीए य समायो ॥५९॥ पामुक्का आरामे गंतूणं बोहिओ सुहपसुत्तो । मालागारो भणिओ य, सुयणु! साऽहं इहं पत्ता हाई पत्ता ॥६०॥ एवंविहरयणीए, साऽऽभूसणा कह समागया तं सि । इय तेणं सा पुट्ठा सिटुं तीए य जहवित्तं ॥६१॥ अव्वो! सच्चपइन्ना, महासईम ति भावमाणेण । चलणेसु नियडिऊणं, मालागारेण तो मुक्का પાદરા पत्ता रक्खसपासे, सिट्ठो से मालियस्स युत्तन्तो । अव्यो! महप्पभाया, एसा जा उज्झिया तेण ॥६ ॥ इति भावतेण निवडिऊण, पाएसु तेण वि विमुक्का । चोरसमीवे य गया, सिट्ठो तह पुव्ययुत्तन्तो ૬૪ तेहि वि अणप्पमाहप्प-दसणुप्पन्नपखवाएहिं । सालंकार च्विय वंदि-ऊण सगिहम्मि पट्टविया ॥६५॥ अह आभरणसमेया अक्खयदेहा अभग्गसीला य । पत्ता पइस्स पासे, कहियं सव्यं जहावित्तं ॥६६॥ परितुट्ठमणेण सम, तेण पसुत्ता समत्थरयणिं पि । जाए पभायसमए, चिंतियमिय मंतिपुत्तेण ૬ળી छंदट्ठियं सुरूयं, समसुहदुक्खं अनिग्गयरहस्सं । धन्ना सुत्तविउद्धा, मितं महिलं च पेच्छंति ૬૮ इति भावेंतेण कया, घरस्स सा सामिणी समग्गस्स । किं व न कीरइ निक्कयड-पेमपडिबद्धहिययम्मि ॥१९॥ इय पइतक्कररखस-मालागाराण मज्झओ केण । तच्वागेण कृयं दुक्क-रं ति भो! मज्झ साहेह ॥७॥ ईसालुएहिं भणियं, सामी! पइणा सुदुक्कर विहियं । परपुरिससमीये जेण, पेसिया सय्यरीए पिया . ॥१॥ भणियं छुहालुएहिं सुदुक्करं रक्खसेण चेव कयं । जेण चिरं छुहिएण वि, न भक्खिया भक्खणिज्जा वि ॥७२॥ अह पारदारिएहिं, पयंपियं देव! मालिओ एक्को । दुक्करगारी जेणं,, चत्ता सा निसि सयं पत्ता ॥७३॥ पाणेण जंपियं होउ, ताय चोरेहिं दुक्करं विहियं । पइरिक्के वि विमुक्का, ससुवन्नाजेहिं सा तड़या ॥७॥ एवं युत्ते चोरो त्ति, निच्छिउं सोऽभएण मायंगो । गिहाविऊण पुट्ठो, कहमाऽऽरामो विलुतो ति ॥५॥ तेणं पयंपियं नाह!, पयरविज्जाबलेण णियएण । कहिओ य वइयरो सेणि-यस्स एसो समग्गो यि ॥७६॥ रन्ना वि संसियं देइ, मज्झ जइ कहवि निययविज्जाओ । सो पाणो ता मुंचह, इहरा से हरह जीयं ति ॥७७॥ पडियन्नं पाणेणं, विज्जादाणं पि अह महीनाहो । सिंहासणे निसण्णो, विज्जाओ पढिउमाढतो ॥८॥ पुणरुत्तपयतुक्कित्तिया यि, रन्नो न ठंति जा विज्जा । सो ता तज्जड़ रुट्ठो, न रे! तुमं देसि सम्मं ति॥७९॥ अभएण भणियमिह देव!, नत्थि एयस्स थेवमयि दोसो । विणयग्गहिया हि विज्जाओ, ठंति फलदा य जायंति ॥८॥ ता पाणमिमं सीहासणम्मि, ठविऊण सयमऽवि महीए । होऊण विणयसारं, पढसु जहा ठंति इन्हेिं पि ॥८१॥ तह चेय कयं रन्ना संकंताओ लहुं च विज्जाओ । सक्कारिऊण मुक्को, पाणो अच्वंतपणइ व्य ॥८२॥ इय जड़ इहलोइयतुच्छ-कज्जविज्जा वि भावसारेण । पाविज्जड़ हीणस्स वि, गुरुणो अच्वंतविणएण ॥८३॥ ता कह समत्थमणवंच्छियत्थ-दाणक्खमाए विज़्जाए । जिणभणियाए दाएण विणयविमुहो बुहो होज्ज ॥८४॥ अन्नं चपत्थरकया वि देवा, साणिज्झपरा हवंति विणयाओ । जड़ ता का गणणा अन्न-वत्थुसिद्धीए धीराणं ॥८५॥ जइ वि सुयनाणकुसलो होइ नरो हेउकारणविहन्नू । अविणीयं तहयि न तं, समयऽत्थविऊ पसंसंति ॥८६॥ संमत्तनाणचारित्त-पमुहगुणहेउविणयकरणपरं । अबहुस्सुयं पि कुसला, बहुस्सुयपयम्मि ठायेति ॥८७॥ जस्स विणओ स नाणी, जो नाणी तस्स सम्मकिरियाओ। सम्मकिरियाओ जस्स उ, सो च्चिय आराहणाजोग्गो॥८८॥ तम्हा कल्लाणपरंपराए, संपाडणेक्कपडुयम्मि । विणयम्मि निमेसं पि हु, बुहेण न पमाइयव्यं ति ॥८९॥ इय संसारमहोयहि-तरीए संवेगरंगसालाए । परिकम्मविहीपामोक्ख-चउमहामूलदाराए ॥९ ॥ आराहणाए पनरस-पडिदारमयस्स. पढमदारस्स । संखेयेणं भणियं,, विणयो ति चउत्थपडिदारं ॥९१॥ 1. महासती इयम् । 2. दातरि (सप्तम्यर्थे तृतीया) 3. हेतुकारणविधिज्ञः । . 48 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १६६२-१७२४ समाधिनामकपञ्चमद्वारवर्णनम् - नमिराजर्षिदृष्टान्तः "समाधिनामकपञ्चमद्वारवर्णनम्' - 'विणयपणयस्स वि परं, समाहिविरहम्मि जेण पुरिसस्स । सग्गाऽपवग्गजणणी, न सम्ममाऽऽराहणा घडइ ॥१२॥ ता एतो दारं पिय, मणवंछियसव्वकज्जसिद्धीए । सिद्धीपुरीए पवरं,, समाहिदारं पवक्वामि ॥९३॥ सो य समाही दुविहो,, दव्चे भावे य तत्थ दव्वम्मि । पयइप्पहाणदव्यो-वओगओ जायइ समाही ॥१४॥ अहवा वि सुदुल्लंभ, पयईए सुंदरं तहा इटुं । सई रूयं च रस, गंधं फास च जहसंखें ॥९५॥ सोउं दटुं भोत्तुं, जिंपिता फासिउं समाहाणं । जं पाउणेज्ज पाणी, दव्वसमाही भये सो उ ॥९६॥ तेण न इहाऽहिगारो,, अहवा सो वि हु कहिं पि केसि पि । भावसमाहिनिमित्तं, इच्छिज्जड़ चेव जं भणियं॥९॥ 'मणुन्नं भोयणं भोच्चा,, मणुन्नं सयणाऽऽसणं । मणुन्नम्मि अगारम्मि, मणुन्नं झायए मुणी' ॥९८॥ भावम्मि समाही पुण, एगंतेणेव चित्तविजयाओ । चित्तविजओ य सम्मं, रागद्दोसाण परिहरणा ॥१९॥ तप्परिहारो य सुहेयरेसु, सद्दाइएसु विसएसु । पत्तेसु विचितेसु वि, अभिसंगपओससंचारो ॥१७००॥ तम्हा कुमग्गलग्गं, विवेयरज्जूए चडुलतुरगं व । सुदढं संजमिऊणं, माणसमुस्सिंखलपयारं जइयव्वं सब्वेण वि, सुहत्थिणा सुपुरिसेण निच्वं पि । सम्मं समाहिकरणे, विसेसओ धम्मनिरएण ॥२॥ तत्थडवि सविसेसतरं, पजंताऽऽराहणुज्जयमणेण । न तमंतरेण हि सुहं, धम्मो आराहणा य भवे ॥३॥ तहाहिअसमाहीओ दुक्खं,, दुहिणो पुण अट्टमेव न उ धम्मो । धम्मविहीणस्स पुणो, दूरे आराहणामग्गो ॥४॥ मोत्तुं समाहिमेक्कं, असेससेसंगसंगया वि जओ । सव्वा सुहसामग्गी, दावडग्गी चेव पुरिसस्स ॥५॥ जं वा तं वाऽसिस्स वि, जेण व केणं पि पाउयस्साऽवि । जत्थ व कत्थ व वासिस्स, जम्मि कम्मि वि अहव काले॥६॥ जं वा तं वा विसम, समं व संपावियस्स वि अवत्थं । परमसुहं चिय निच्चं, समाहिमंतस्स पुण निपमा॥७॥ सोक्खं च समाहिकयं, अभयं अकिलेसजं अलज्जणियं । परिणामसुंदरं सवस-मक्खयं निरुवममपावं ॥८॥ किंच-- पज्जत्तमेतिएण वि, सुसमाहिठियस्स वीरपुरिसस्स । जं सो न भरइ कस्सयि, नयावि से भरइ को वि परो ॥९॥ अवि यजे सुसमाहिम्मि रया, विया नीसेसपावठाणाओ । सुहिसयणधणाऽऽइविणास-दसणे वि हु न तेसिं मणो॥१०॥ अचलो व्य चलड़ थेवं पि, सुसंजमाउ ममत्तचत्ताण । सुसमाहिनिही भयवं, रायरिसिनमीह दिटुंतो . ॥११॥ तहाहि "नमिराजर्षिदृष्टान्तः" । नगनगराडगरवरपुर-धणधण्णसमिद्धगामरंमम्मि । नामेण विदेहाजण-वयम्मि मिहिलापुरी आसि ॥१२॥ नयविणयसच्चसरत-सतपमहप्पहाणगणकलिओ। पालेड़ तं च राया, जयभमिरजसो नमी नाम ॥१३॥ जम्मि नरेंदे रज्जं, पालिते खंडणाऽहरदलाण । करपीडणं उरोजाण, जड़ परं तरुणिलोगस्स ॥१४॥ गुणबाहाए वुड्ढी य, सद्दसत्थेसु सुम्मड़ विरोहो । उप्पेक्खा वि य दीसड़, जड़ पर सुकईण कव्येसु ॥५॥ सो एवंविहगुणवं, अणप्पमाहप्पनिहयपडिवक्खो । सहसक्खो इव, विसए, निसेवमाणो गमइ कालं ॥१६॥ अह एगम्मि अवसरे, वेयणियवसेण पलयजलणसमो । नरवइणो तस्स महा-घोरो दाहज्जरो जाओ ॥१७॥ तेण य वाउलियतणू, वज्जाउनलमुम्मुरे निवडिओ व्य । उव्वेल्लइ परियतइ, सुदीहमुस्ससइ स महप्पा ॥१८॥ वाहरिया वरवेज्जा, क्या य तेहिं च भेसहपओगा । न य पसममुवगतो से, मणागमेत्तं पि परितायो ॥१९॥ अवरे वि मंततंताऽऽइ-जाणगा जे जणे पसिद्धिगया । आहूया ते वि तहिं असाहियट्ठा य नीहरिया ॥२०॥ | नवरं पड़खणचंदण-रससिसिरमुणालियाजलद्दाहिं । अच्वंतदाहविहुरस्स, होइ से थेवमाऽऽहारो ॥२१॥ अह तन्निमित्तमणडवरय-मेव अंतेउरीहिं समकालं । पियविहरजायदुक्खाहिं, चंदणम्मि घसिज्जते । ૨૨ पयलंतकोमलभुया-परोप्परप्फिडियणगवलयभयो । अवहरियऽन्ननिनाओ, वियंभिओ रणझणाऽऽरावो ॥२३॥ तं चायण्णिय रन्ना, पयंपियं किंसमुभयो एसो । बाढमऽणिव्युइकारी, अहो निनाओ पवित्थरइ ॥२४॥ 1. विनयप्रणतस्य = विनयतत्परस्य 2. भरइ = स्मरति । 49 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १७२५-१७६१ नमिराजर्षिदृष्टान्तः ॥२५॥ રો ॥२८॥ ॥२९॥ રા ॥३३॥ ॥३४॥ ॥३५॥ F ॥३७॥ ॥३८॥ ॥३९॥ | भणियं च परियणेणं देव! रवो कणयवलयसंभूओ । अंतेउरीण चंदण - मुग्धरिसंतीणमेसो त्ति सोउं च नरवइगिरं, एक्केक्कं धरिय सेसवलयाई । अवणीयाइं अंते - उरीहिं भुयवल्लरीहिंतो खणमेत्तम्मि अइगए, पुणो वि पुच्छियमिमं नरिंदेण । किं रे! न संपयं सो, निसुणिज्जई कणयवलयरवो ॥२७॥ भणियं जणेण सामी!, परोप्परप्फिडणविरहओ इण्हिं । एगागीणं वलयाण कह रवो संभवेज्ज इहं अव्यो ! जह एयाणं, असहायाणं तहा जीयाणं पि । नूणमणत्थुप्पाओ, रवो व्य नो जायड़ कहं पि जेत्तियमेत्तो संगो, तेत्तियमेत्ता अणत्थपत्थारी । संगं विवज्जिऊणं, ता होमि अहं पि निस्संगो इय संवेगोवगयस्स, राइणो जाइसरणमुप्पन्नं । पुव्यभवचिन्नसामन्न - सुत्तमणुसुमरियं झति अणुकूलकम्मवसओ, सो वि हु दाहज्जरो अवक्कंतो । अह निययपए पुत्तं, ठविऊणं सो महाभागो पत्तेयबुद्धलिंगी, एगागी सव्यसंगमवहाय । नयरी बहियाऽऽरामे उस्सग्गेणं ठिओ भयवं तो रायरिसिम्मि नमिम्मि, तहट्ठिए हरियसव्यसार व्य । अच्चंतपणइविच्छो-हिय व्य गुरुरोगविहुर व्य कयकरुणविप्पलाया, वाउलहलबोलबहुलियदियंता । अंसुजलाऽऽविलनयणा, तब्येलं चिय अहेसि पया अह ओलंबियभुयपरिह - मऽमरसेलं व निच्चलं दट्ट्टु । नमिरायरिसिं सक्को, चिन्तेउमिमं समादत्तो पढमं पडिवन्नम्मि, सामने संपयं नमिमुणिस्स । केरिच्छा हु समाही, हवेज्ज गंतुं परिक्खामि तो कयमाहणरूयो, विउब्विरं नयरिदाहमुद्दामं । विलयंतलोयनिवहं च, कुलिसपाणी नमिं भणइ किं मुणिपुंगव ! मिहिलाए, अज्ज सुव्वंति सव्वठाणेसु । करुणप्पलावरुवा, लोयाणं विविहआरावा नमिणा भणियं सच्छाय - फुल्लफलमणहरम्मि वच्छम्मि । जह भज्जंते वाएण, पक्खिणो दुक्खिया संता ॥४०॥ कंदंति सरणरहिया, तह लोया वि हु पुरीविणासम्मि । अच्चंतसोगविहया, परिदेवन्ति बहुदुहत्ता ॥४१॥ सक्केण जंपियं पेच्छ, पेच्छ एसा कहं तुहं नयरी । कीलापासाओ वि य, डज्झइ पबलेण जलणेण ॥४२॥ अंतेउरं पि पेच्छसु, उब्भियभुयनालमुब्भडपलावं । हा नाह! रक्ख रक्ख त्ति, जंपिरं परमकरुणमयं ૫૪૫ नमिणा भणियं परिचत - पुत्तसुहिसयणगिहकलत्तस्स । जड़ मज्झ होज्ज किंचि विय, किंचणं ता तयं दज्झे ॥ ४४ ॥ तद भावे मिहिलाए, डज्झतीए वि किं नु डज्झेज्जा । एवं च पेहियाए वि, भद्द! किं वा मह पुरीए ॥ ४५ ॥ एयं हि परमसोक्खं, नूण मुमुक्यूण चत्तसंगाण । जं नत्थि पियं न य किं पि, अप्पियं मोक्खकंखीण ॥ ४६ ॥ | इय पसमसारमाऽऽयन्निऊण, नमिणो पयंपियं सक्को । संहरियनयरिदाहो, पुणो वि एवं समुल्लवड़ ॥४७॥ नाहो त्ति ताणकारि त्ति, सरणकारि त्ति परभयवसट्टो । निबिडभुयदंडमंडय - मडल्लीणो एस तुज्झ जणो ॥ ४८ ॥ तम्हा पुरीए पायारं, गोउरग्गलदुग्गमं । आउहाणि य कारिता, पव्वज्जं काउमऽरिहसि मुणिणा जंपियं हंत! सद्ध च्चिय पुरी महं । कओ य तीए पायारो, सुतुंगो खंतिलक्खणो संवरऽग्गलदुग्गम्मो, धिईकेयणसंगओ । परक्कमो धणू तत्थ तवो नारायराइयं आउहं पि कयं चारु, कम्मसत्तुविणासगं । एवं पि कयरक्खस्स, किं न पव्यइउं खमं सक्केण जंपियं भन्ते!, कारइताणमुत्तमे । पासाए विविहे पच्छा, पव्वज्जं काउमऽरिहसि नमिणा भासियं भद्द!, को करेज्ज पहे गिहं । जीवस्स जत्थऽयत्थाणं, तत्थ कुव्वेज्ज तं बुहो बज्जाउहेण संलतं, खुद्दे चोराइणो परे । हणित्ता लोगखेमत्थं, पव्वज्जं काउमऽरिहसि नमिणा जंपियं एए, मिच्छा हम्मंति निच्छियं । अखेमयाणि कम्माणि, हंतुं जुत्ताणि ताणि मे हरिणा जंपियं भंते!, जे नमंति न पत्थिवा । ते लहुं निज्जिउं सव्वे, पव्वज्जा तुज्झ जुज्जए मुणिणा युत्तमत्ताणं, जो जिणेज्ज सुदुज्जयं । सहस्सजोहिणो वीह, सो एक्को विजई परं ता अप्पणा समं ताव, जुज्झिउं मज्झ जुज्जए । निस्सेयसत्थिणो बज्झ - जुज्झेणं विहलेण किं कोहं लोहं मयं माय - मिन्दियाणि य पंच वि । जियाणि जेण सव्यंपि, जेयव्वं तेण निज्जियं अक्कमित्ता तिलोक्कं पि, कित्ती तस्स परं ठिया । सासया सिद्धिखेत्तं व, जेण एयं विणिज्जियं ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५४॥ 1. वीह = इव इह । ॥३०॥ ॥३१॥ ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५८॥ ॥५९॥ ॥६०॥ ॥६९॥ 50 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिराजर्षिदृष्टान्तः ॥६२॥ En ॥६४॥ ॥६५॥ ॥६६॥ ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १७६२-१७६२ सोच्चा एयं सहस्सक्खो, भत्तिपब्भारसंगओ । पुणो नमिं रायरिसिं, एवमाऽऽह महायसं | जइत्ता पउरे जन्ने भोइत्ता माहणाऽऽइणो । दाणं दीणाऽऽइयाणं च सामन्नं काउमऽरिहसि गिहासमं विमोत्तूण किं वा पव्वज्जमिच्छसि । पोसहाऽभिरओ राय!, एत्थेचाऽऽवससु तुमं नमिणा भासियं जन्ने, दक्खिणालक्खसुंदरे । जो कारवेज्ज तत्तो वि, संजमो गुणकारगो मासे मासे कुसडग्गेण, जो भुंजेज्ज गिहट्ठिओ । विमुक्कसव्वसंगस्स, लेसेण वि न सो समो जंपियं हरिणा राया !, सुवन्नं मणिसंचयं । कंसं दूसं च वड्ढित्ता, पव्वज्जं काउमऽरिहसि मुणिणा भणियं भद्द!, सुवन्नमणिमाऽऽइणो । केलासतुंगकूडा वि, असंखा वि पणामिया लुद्धस्स जंतुणो तित्तिं, एगस्स वि जणिति नो । इच्छा आगाससंकासा सक्का केण व पूरिउं जहा जहा भवे लाभो, लोहो होइ तहा तहा । एवं तेलोक्कलाभे वि, न होज्जा का वि निब्बुई यज्जिणा जंपियं राय ! संते भोगे मणोहरे । चिच्चा असंते पत्थितो, संकप्पेणं विहम्मसि मुणिणा भासियं मुद्ध !, वरं सल्लं वरं विसं । वरं आसीविसो सप्पो, वरं कुद्धो य केसरी वरं अग्गी य नो भोगा, चिंतिज्जंता वि जे नरं । नरयं निंति दुत्तारं भामयंति भवऽन्नवे सल्लाईणं हि जोगे वि, मच्चू एगभवो भवे । भोगाणं पत्थणेणावि, पाणी हम्मइ लक्खसो ता चत्तभोगवंछो हं, अहोगइकरं परं । कोहं हंतूण माणं च, दिन्नाऽहमगईगमं सुगईघायगं मायं, लोहं पि दुहओ भयं । विद्धंसिऊण सामन्ने, उज्जमिस्सामि एगगो | इय परमसमाही - मंतमऽच्चन्तसन्तं; बहुविहभणिईहिं, तं परिक्खित्तु सक्को । कणगमिय मुणित्ता, एगरूवं सख्यं; पयडियहरिसेणं, थोउमेवं पवतो जयसि विजियकोह !, धंसियासेसमाण!; पडिहयपसरंतु - द्दाममायापवंच 1 मुणिवर ! हयलोह - जोहसंचत्तसंगो; तुममिह परमेक्को, पुज्जणिज्जो जयम्मि तुममिह परक्को, उत्तमो उत्तमाणं; भविहसि परजम्मे, उत्तमो तं सि चेव । तिजयतिलयतुल्लं, उत्तमं सिद्धिखेतं; अणुसरिहिसि नूणं, पिट्ठकम्मऽट्ठगंठी भवति कह न सुद्धी, तुज्झ संकितणेणं; कहमुवसममेई, दंसणे वा न पावं । फुरति मणनिरोहा -ऽऽयाससज्झो अवंझो; सिवसुहजणणम्मि, जस्स एसो समाही इय थुणिय मुणिदं, वंदिऊणं च पाए; कमलकुलिसचक्काऽ - लंकिए भत्तिसारं । भसलगयलनीलं, योममुल्लंघिऊणं; सुरपुरमऽणुपत्तो, तक्खणेणं सुरेन्दो ॥८१॥ ॥८२॥ ॥८३॥ ॥८४॥ एवं नमि व्य धीरा, इहलोइयपावसंगविरयमणा । अच्वंतसमाहीए, कुणंति सव्युज्जमं जम्हा धम्मगुणनागराणं निवासनयरं परं चिय समाही । आराहणालयाए, रुंदो कंदो तह समाही | सम्मत्तनाणचारित - खन्तिपमुहा महागुणा वि फलं । देन्ति ससज्यं सम्मं समाहीगब्भ च्चिय जहुतं उवविसउ य एगंते, बन्धउ पउमासणं पयत्तेण । धरउ य सासं रुंधउ, बज्झं तह कायचेट्टं पि निमिओट्टपुडं मंथर - तारं दिट्ठि च निसउ नासग्गे । जड़ न समाही लग्गड़ तप्फलभोगी न ता जोगी ॥८६॥ | करयलनिलीणनिम्मल-फलिहं व सुदिव्यजोइणो जं च । पासंति जगं सचराचरं पि तं पि हु समाहिफलं ॥८७॥ किंच ॥८५॥ चित्तं समाहियं जस्स होइ सवसं 2 विसोत्तियारहियं । सो वहड़ निरइयारं, सामन्नधुरं अपरितंतो ते धन्ना भुवणयले समाहिबलदलियरायदोसा जे । परमं देहाऽऽहारं, आहारं पि हु अणीहंता सुविइयवत्थुसरुवा, हरिसविसायाऽऽइएहिं अप्पुट्ठा | बहुजम्मनिम्मियंपि हु, कम्मं निम्मूलयंति लहुं ता चित्तविजयलक्खण- भावसमाहीए होइ जइयव्यं । एएणं चिय एत्थं, पगयं ति कयं पसंगेण इय सुत्तवृत्तजुत्तीजुयाए, संवेगरंगसालाए । परिकम्मविहिपामोक्ख - चउमहामूलदाराए 1. न्ययस्तु । 2. विस्त्रोतसिका = दुर्ध्यानम् । 51 ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ ॥७६॥ ॥७७॥ ॥७८॥ ॥७९॥ ॥८०॥ ॥८८॥ ॥८९॥ ॥९०॥ ॥९९॥ ॥९२॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १७६३-१८२८ षष्टम् मनः अनुशास्तिद्वारं आराहणाए पनरस-पडिदारमयस्स पढमदारस्स । पंचमगं भणियमिम, समाहीनाम पडिदारं ॥९॥ एसो य समाही चित्त-विजयजणिओ वि न हु थिरो होइ । आराहगो मणं जड़ वारंवारं न सासेड़ ॥१४॥ जओ “षष्टम् मनः अनुशास्तिद्वारं" - पोयवहणं व चित्तं, चिन्तासागरगयं परिभमंतं । अन्नाणपवणपेल्लिय-विसोत्तियावीइहम्मतं ॥१५॥ पडियं मोहावत्ते, कह लग्गेज्जा समाहिवरमग्गे । जड़ जाएज्ज न सम्म अणुसासणकन्नथारो से ॥१६॥ दोसाण नासणं गुण-पयासणं ताऽणुसासणं एतो । चित्तस्स युच्चइ तयं, एवं सुसमाहिओ कुज्जा ॥९॥ हं भो! चित्त! विचित्तं, चित्तं व तुम पि वहसि बहुभाये । किंतु परतंतेहिं, मोहेइ तुमं तु अप्पाणं ॥१८॥ सड़ रुइयगीयनच्चिय-हसियाऽऽइवियारओ जणं दट्टुं । मत्तं व हियय! तह तं, वट्टसु जह नाऽसि हसणीयं ॥१९॥ मोहभुजंगमदटुं, सुविसंथुलचेट्ठियं जयमसंतं । किं न पुरत्थं पेच्छसि, विवेयमंतं न जं सरसि ॥१८००॥ चित्तचपलत्तणेणं, रसायलं विससि जासि गयणं पि । भमसि दिसिमंडलाणि वि, असंगयं पुण न तं फुससि ॥१॥ जम्मजरमरणसिहिणा, भवभवणे सव्वओ पलितमि । नाणोदहिमऽवगाहिय, सुत्थतं लहसु हियय! तुमं ॥२॥ हियय! तुमे एस कओ, भववासणवागुराए महबन्यो । ता तह पसिय इयाणिं, जह तव्यिगमो लहुँ होइ ॥३॥ किं चित्त! चिंतिएहिं, विहवेहिं अत्थिरेहिं अह न तुहं । तत्तण्हाऽवगमो ता, संतोसरसायणं पियसु ॥४॥ हे हियय! भवसरूवं, पुत्तकलत्ताऽऽइवइअरविचित्तं । चिन्तेसु इंदजालं ति, जड़ सुहं महसि अवियारं ॥५॥ भववणगयम्मि सारंग-गहणपडुयम्मि कामगुणकूडे । हिययगयमऽप्पयं किं नो, कासि जं तुह सुहमरट्टो ॥६॥ भवपभवे जइ दुख्ने, तुज्झ पओसो सुहे य मणवंछा । ता तह कुण जह न सिया, तं तं च भवे जह अणंत॥७॥ मित्ताऽमित्तेसु समा, चित्तपवित्ती जया य तुह होही । लहिहिसि तं तइय च्चिय सुहमऽवगयसयलसंतायं ॥८॥ नरयतिदियेऽरिमित्ते, भवमुक्छे दुहसुहे तणमणीसु । जइ लेठुकंचणेसु य सममऽसि ता मण! कयत्थमऽसि ॥९॥ दुव्यारमिमं मच्चु, पच्चासन्नीभवन्तमडणुसमयं! हे हियय! चिंतसु तुमं किं सेसयियप्पजालेण हे हियय! चिन्तसि तुमं, नाडणज्जजराए जज्जरिजंतिं । नियतणुकुडि पि एयं, अहह महामोहमहिमा ते॥ जत्थ जरमरणदारिद्द-रोगसोगाइदुहगणो लोए । तत्थ वि कहं तुमं मूढ-हियय! न विरागमुव्वहसि ॥१२॥ जीयं पि तणुम्मि गयाऽगयाइं सासच्छलेण कुणमाणं । किं न मणो! मुणसि जेणं, चिट्ठसि अजरामरं च तुमं ॥१३॥ सह रागेण मण! तुमं, सुहाउभिमाणाउ भमडियं सुइरं । चय तं भय तदुवसमं ईयाणिं जं मुणसि सुहभेयं ॥१४॥ अविवेयत्ता बालत्तणम्मि वियलतणाउ बुड्ढते । मण! थम्मचित्तविरहे, बहू वि विहलो नरभवो ते ॥१५॥ मयरद्धएक्कमित्तं, कुगइमहादुक्खं संततिनिमित्तं । विसयाणुगामिचित्तं मोहुप्पत्तीए हेडं च ॥१६॥ अविवेयविडविकंद, चन्दणरुक्खो व्य दप्पसप्पस्स । नीरंधमेहपडलं, सन्नाणमयंकबिंबस्स ॥१७॥ तारुण्णं पि हु तुह मण! उम्मायपरस्स निच्चकालं पि । सव्याडणत्थकए च्चिय, न धम्मगुणसाहगं पायं ॥१८॥ एयं कयं इमं पुण, करेमि काहं इमं च गिहकिच्वं । इय आउलस्स तह हियय!, यासरा जंति अकयत्था ॥१९॥ वीवाहिया न दुहिया, न पाढिओ बाढमेस बालो वि । तं तं च किंचि वि महं अज्जयिकज्जं न सिद्धं ति ॥२०॥ अज्ज इमं काहमऽहं इमं च कल्लम्मि किर करिस्सामि । एयं च तम्मि दियहे, पक्खे या अहव मासंते ॥२१॥ वरिसंडते वा एयं, काहं इच्वाइ निच्चचिन्ताहिं । हे ख्रिज्जमाणमाणस!, कृतो तुह निव्युइलयो वि ॥२२॥ एयं करेमि इन्हेिं एयं काऊण पुण इमं कल्ले । काहं को मण! चिन्तइ, सुमिणयतुल्लमि जियलोगे ॥२३॥ कत्थ गयं होसि गयं मण! काउं किं च होहिसि क्यउत्थं । थिरयाए गच्छ कुणसु य, न गयस्संडतो न य क्यस्स ॥२४॥ चिन्तासन्ताणपरं जइ चिट्ठसि चित्त! निच्वकालं पि । अच्वन्तदुरुत्तारे, ता रे! निवडसि दुहसमुद्दे ॥२५॥ हा हियय! किं न चिन्तसि, जमेस रिउरुवचरणछक्किल्लो । वित्थारियपक्खदुगो, तिलोयपउमस्स सारं व ॥२६॥ पियमाणो वि पइदिणं, अतित्तिमं चेव अक्खलियपसरो । सव्वजगजीवतुल्लो, इह कीलइ कालभमरुल्लो ॥२७॥ अधणे धणं धणे पुण, कमेण निवचक्किसक्कपययीओ । मण! मणसि तुमं लहसि य, जड़ वि तहा वि हु न ते तित्ती, ૨૮ 52 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १८२६-१८६५ मनः अनुशास्तिस्वरूपम् पविसंता सल्लं पिव, पयईए पइदिणं पि पीडकरा । जे कामकोहपमुहा, अभिन्तरसतुणो तुज्झ ॥२९॥. निच्वं देहगय च्चिय, चित्त! तदुच्छायणे न वंछा वि । बज्झारिसु पुण थावसि, अहो महामोहमाहप्पं ॥३०॥ बज्झारिसु मितत्तं, करेसि सत्तुत्तमन्तरारीसु । जड़ ताहे हियय! तुमं, अइरा साहसि सज्ज पि ॥३१॥ मुहमहुरकडुविवागेसु हियय! विसएसु कुणसु मा गिद्धिं । विहिवसयियज्जमाणा, सुतिक्खदुखाई से देन्ति ॥३२॥ |जइ पढम पि न रज्जसि, मुहमहुरऽवसाणविरसविसएसु । ता हियय! तुमं पच्छा वि, लहसि न कयावि संता॥३३॥ हिं विणा न सह, विसया वि हवंति बहकिलेसेहिं । ता तचिमहं चिन्तस., सहंडतरं किं पि हे हियय!॥३४॥ जह आवायं विसयाणं पेच्छसे जड़ तहा विवागं पि । ता चित! एतिय तुमं, न कयाइ विडंबणं लहसि ॥३५॥ विसतुल्लविसयवंछाए, कीस हे हियय! वहसि संताचं । ता किंपि चिन्तसु तुमं, होइ जओ निब्बुई परमा ॥३६॥ तह विसयासाछिडडेण, नाणजणिया गुणा गलिस्संति । ता चयसु तं तुमं मूढ-हियय! तेसिं थिरतकए ॥३७॥ विसयासावाओलि-जणियरओगुंडियं कह न हियय! । सहजायकरणवग्गस्स, लज्जसे भमिरमणिबद्धं ॥३८॥ | कामसरजज्जरे रे!, तुमंमि मणकुंभ! कम्ममलहरणं । भवसंतावखयकरं, न ठाइ सव्वन्नुवयणजलं ॥३९॥ अह तं पि ठियं कहमचि, किं नो पसमइ कसायदाहो ते । एसो किं व न भिज्जइ, जो तुह अविवेयमलगंठी॥४०॥ अणवरयगरुयदुक्खोह-मन्दरुद्दाममंथमहियस्स । तहवि तुह हिययसायर!, विवेयरयणं न उच्छलियं ॥४१॥ अवियेयपंककलुसस्स, चित्त! नो ताव तुह मई कुसला । जायइ न जाव विहिओ, सुविवेयजलाभिसेयविही ॥४२॥ हे हियय! सुंदरा वि हु, सद्दा रुवाणि रसविसेया य । गंधा फासा य वरा, ताव च्चिय तरलयंति तुमं ॥४३॥ जाव न सम्मं अवगा-हिओ तए तत्तबोहरयणिल्लो । सुहसलिलपूरपुन्नो, सुयनाणअगाहमयरहरो ॥४४॥ सद्दा 'निरु सुइसुहया रूवाणि य चक्खुहरणचोराणि । रसणासुहया य रसा, गंधा घाणिन्दियाउडणंदा ॥४५॥ फासा फरिसणसहया, संगे दाउं पि सुहमडह वियोगे । देन्ति दुहं तहडणंतं, चित्त! अलं तुज्झ ता तेहिं ॥४६॥ अइरम्म हम्मयलं, सरयससी पियजणेण संगो य । कुसुमाणि मलयजरसो, दाहिणपवणो य महरा य ॥४७॥ एयाणि समुदिताणि वि, चित्त! सरागस्स होति खोभाय । तुह विसयसंगविमुहस्स, किं पुणेयाणि काहिति ॥४८॥ किं बहुणा दाणेणं, किं या बहुणा तवेण तविएण । कट्ठाडणुट्ठाणेण यि, बज्झेण किमेत्थ बहुणा वि ॥४९॥ किं च पढिएण बहुणा, जड़ ता मण! मुणसि अप्पणो पत्थं । ता रागाइपयाओ विरमसु रमसु विरागपए ॥५०॥ कसिणाहिबिलसमीये, बहुच्छिष्टुं चारुचंदणदलेण । काउं गिहं तदन्तो य, मालईकुसुमसयणिज्जे . ॥५१॥ निदं जिगीससि तुमं, जं सुहमेयं ति कटु हे हियय! । अभिलससि विसयसंग, नीरागतं विमोत्तूणं ॥५२॥ अणहं परिणामसुहं, जइ ईसरीयत्तमीहसे हियय! । ता तुममप्पाणुगयं, घरेसु सन्नाणवररयणं ॥५३॥ घोरं तमो तुहंडतो, जा वियरइ ता तुमं निरालोयं । अह हियय! जिणमयरविं, धरेसि ता होसि साउडलोयं॥५४॥ मोहमहातमसंकुल-भयविसमगुहंतराउ तुह हियय! । न विणा नाणपईयं निग्गमुवायं परं मन्ने ॥५५॥ दव्याइसु पडिबंधं, मोतुं चित्ताउणुसरसु संवेगं । जेणाऽऽमूलाओ तुह, तुट्ठइ एसो भवपबंधो ॥५६॥ हियय! सकिलेसविहवेहिं, सुहकए कामिएहिं किं मूढ! । अप्पाणं संतोसे, निवेसिउं होसु तं सुहियं ॥५॥ जणयंति किलेसं अज्जणम्मि, मोहं समज्जियाओ पुणो । तायं परं च नासे, पयईए च्चिय विभूईओ ॥५८॥ |ता तासु कुगइगमवत्तिणीसु, रायग्गिचोरसज्झासु । हे चित्त! ततचिन्तण-पुरस्सरं चयसु पडिबन्धं ॥९॥ अट्ठियथूणाधरिए, पए पए ण्हारुबन्धणनिबद्धे । तयमंसवसाछन्नम्मि, इंदियाऽऽरक्खगुत्तम्मि ॥६०॥ अंतो सकम्मनिगडा-ऽवबद्धजीये य गुत्तिगेहे व्य । दुक्खाणुभवणठाणे, मण! कुण काए वि मा मोहं ॥१॥ सच्चित्तपमुहदव्वाइ-विसयपडिबन्धनिबिडतंतूहिं । अप्पाणमप्पणो चेय, चित्त! निच्वं पि हु समंता ॥२॥ गाढं परिवेढंतस्स, तुह कहं कोसियारकिमिणो व्य । मोक्खो पुणो वि होही, हे मूढ! इमं पि चिन्तेसु ॥६३॥ इंदियगज्झं जं किञ्चि, कत्थई एत्थ अत्थि वत्थ न तं । थिरमाह तत्थ वि जइ रमसि, मण! तुम चेव ता मूढं ॥६४॥ एक्कं निययाऽणुभवा बीयं पुण जिणवरिंदवयणाओ । करिकलहकन्नपाली-तरलतरत्तं खु पयईए ॥५॥ 1. निश्चितम्। 53 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १८६६-१८६६ |संसारसमुत्थसमत्थ-वत्थुसत्थस्स मण ! मुणित्ताणं । मा पडिबन्धं बंधसु, खणमेत्तंपि हु तुमं तत्थ मनः अनुशास्तिस्वरूपम् Fl किंच निस्सारे संसारे, सारो सारंगलोयणा चेव । इय कुब्भममइरामत्त-चित ! तुह निव्वुई कत्तो ॥६७॥ एत्थ परत्थ व जम्मे,, जंतूणं जाणि तिक्खदुक्खाणि । ताण न निमित्तमऽन्नं, मोत्तूणं मण! मयच्छीओ ॥६८॥ मुहमहुरतं पज्जंत- दारुणत्तं च पेच्छिऊण विही । पलियच्छलेण मन्ने जुवईण सिरे खिवइ छारं ॥६९॥ तहा ॥७१॥ | पम्फुल्लाणि वि सुविसाल - नेत्तपत्तोयसोहियाणि वि । लायण्णजलऽद्दाणि वि, अलयाऽलिकुलाउलाणि वि ॥७०॥ पसरंतपरिमलाणि वि, असरिसख्वसिरिपरिगयाई पि । मयपरयसलीलाऽलस - विलासिणीवयणकमलाणि | आवायमेत्तसुहदाय - गाणि होऊण किंपि ताई पि । हे मणमहुयर ! बंधाय, तुज्झ होहिन्ति पज्जते | वसफेप्फसहड्डकरंक - ण्हारुजंबालपूड़पमुहाण । बीभच्छकुदव्याण वि, रासी जं जुवईजणदेहं | रतुप्पलरंभाखम्भ - जच्चकंचणसिलासुकलसेहिं । कंकेल्लिपल्लवलया - ससिविद्दुमकुंदकलियाहिं ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७७॥ | कुवलयदलऽट्ठमीचंद - सिहिकलावेहिं उमड़ बुहो वि । तं चित्त ! तुहंडतो विप्फु-रंतरागस्स माहप्पं | कलमलगमंससोणिय - पुरीसकंकालकलुसकोट्ठासु । दीसंतसुंदरासु वि, ता मण मा रिच्च रमणीसु सद्दाऽऽइसमुदयदहे, विलसन्तं झत्ति पक्खिवित्ताणं । जुवइजणनिबिडबडिसं, मयरद्धयधीवरेण तुमं तस्संगाऽऽमिसरसियं, वेगादाऽऽगरिसिऊण मणमीण ! । तिव्वाऽणुराग अग्गीए, मूढ ! ताविज्जसि समन्ता ॥७८॥ थेवं पि हु न वियारं, कुणन्ति रमणीण हसियललियाई । जिणवयणमऽमयभूयं, जड़ मण! तुह परिणमइ सम्मं ॥७९॥ | जीए विओगडग्गिपली - विओ तुमं मण! मुहुत्तमेत्तं पि । वरिससयसमइरित्तं, परिमन्नसि समयमेत्तं पि ॥८०॥ सह तीए विप्पओगो, स कोवि तुह होहिड़ न जेण पुणो । जायड़ संजोगाऽऽसा वि, सागरोवमसएहिं पि ॥ ८१ ॥ अच्वन्तं संवासो, लब्भइ न सए वि चित्त! देहम्मि । नियजीवेणाऽवि सया, किं पुण अन्त्रेण केणाऽवि ॥८२॥ | जोगा य वियोगा वि य जीवाण धुवं जयम्मि जायाण । मण ! बुब्बुय व्य सलिले, भवन्ति न भवन्ति य खणेण ॥८३॥ जं पयइचला पाणा, चिट्ठति खणं पि तं मण ! ऽच्छेरं । न हु होइ खणाउ परं, विज्जुलयाए समुज्जोओ ॥ ८४ ॥ इट्ठेहिं विप्पओगो, जम्मसहस्साई संगमो य खणं । तह वि तुमं हे हयहियय!, महसि पियसंगमं चेव ॥८५॥ आवायमेत्तरमणीयगाण, पियसंगमाण हे हियय! | 2 भुत्ताणमऽपत्थाण व परिणामो दारुणो चेव ોદ્દો संतोसपरस्स तवे रयस्स, सव्वत्थ निरभिलासस्स । चिट्ठउ ता इह धम्मो दूरीकयदुग्गईमग्गो ॥८७॥ एत्तियमेत्तेणं चिय, हे माणस ! तुज्झ किं न पज्जतं । तम्मसि तोसकए जं, न चक्किसक्कत्तणाणं पि ॥८८॥ तह अत्थऽऽज्जणरक्खण- वयणकयं वेयणं न पावेसि । मण! परमनिव्वुई ते भवे वि संतोसओ होही ॥८९॥ संतोसाऽमयरससिच्चमाण - माणस ! सुहं सया जं ते । तमऽसंतुट्ठे कतो, इओ तओ चिन्तणाऽऽसत्ते तमुदारतं तं चिय, गुरुतणं तह तमेव सोहग्गं । सा कित्ती तं च सुहं, संतोसपरं तुमं मण! जं सव्याउ संपयाओ, संतोसपरे तुमम्मि हे चित्त ! | चक्कितसुरतेसु वि, इहरा दारिद्दमेव सया दीणत्तमेसि अत्थी, लद्धत्थं गव्वमऽपरितोसं च । नट्ठधणं पुण सोगं सुहेण चिट्ठसि मण! निरासं अन्तोसारो नीसरड़, नूणमत्थित्तणेण सममेव । अन्नह तदवत्थस्स वि, कह मण! हलुयत्तमऽत्थिस्स जं किर मयस्स भारो! तं पि फुडं जाणियं जह जियन्तो । अत्थिताउ हलुओ हुंतो तं पुण मए नत्थि ॥९५॥ | उब्वियसि दुहेहिन्तो निच्चं पि समीहसे पुण सुहाई । न य पुण कुणसि तुमं तं समीहियं लहसि मण ! जेण ॥९६॥ जं विहियं हियय! पुरा, तुमए च्चिय तमऽहुणा तुह उयेइ । मा कुण हरिसविसायं सह सम्मं परिणतिं काउं ॥ ९७॥ किंच ॥९०॥ ॥९९॥ ॥९२॥ ॥९३॥ ॥९४॥ ॥७५॥ ॥७६॥ संजोगा सविओगा, विसं व विसया वि परिणईविरसा । काओ य बहुअवाओ, रूवं खणभंगुरसरूवं ॥९८॥ एवं परोवएसं देन्तस्स जहा महं फुरड़ वयणं । तह जइ ! चित्त तुमम्मि वि, एवं ता किं न पज्जत्तं ॥९९॥ 1. रागी भव । 2. ० अपथ्यानां । 3. ० व्ययन । 54 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १६०० - १६३४ मनः अनुशास्तिस्वरूपम् ॥१॥ जं पुण्णपावरूवं, वट्टइ तुह हियय ! निबिडनिगडदुगं । सज्झाणकुंचियाए, विहाडिउं लहसु तं मुत्तिं ॥१९०० ॥ मायण्डियाउ तण्हा - विगमकए पिबसि चित्त ! चुलुएहिं । सारगवेसणहेउं, तयमुव्येढेसि कयलीए नवणीयकए सलिलं, 1 विरोलसे वालुयं च तेल्लकए । पीलसि तुमं जमीहसि, संसारे वि हु सुहाऽणुभयं ॥२॥ किं पि हु निप्फज्जन्तं, किंपि हु निप्पन्नमिह परं मुक्कं । अंकम्मि कीरमाणं, परं च विहडइ जहा भंडं ॥३॥ तह गब्भाइ अवत्थं, विविहं पावित्तु पाणिणोऽणेगे । विहडंते मुणिउं चित्त !, चिन्तसु किं पि सुहचिन्तं ॥४॥ एक्कं पि तुमं बहुवत्थु - चिन्तणा चित! पावसि बहुत्तं । तहभूयं पुण एत्तिय, कस्स न दुक्खस्स होसि पयं ॥५॥ सयलऽन्नवत्थुचिन्तं चन्तु ता चित! चिन्तसु परं तं । एक्कं पि किंपि वत्थं, जेण परं निव्युइं लहसि ॥६॥ सज्झाणबलेणं कम्म - मूलभवकाणणम्मि भग्गम्मि । मत्तमहाकरिणा इव, तुमए हे चित्त ! लहु मज्झ | रागाऽऽइएहिं पमिलाण - मेव पच्चग्गपल्लयेहिं य । कम्मेहिं पक्खीहि य, उड्डेऊणं कहिं पि गयं जम्मजरामरणेहिं पुप्फेहि व सव्वहा पणठ्ठे व । दुक्खेहिं तु फलेहिं व, खीणं जह होइ तह कुणसु कम्मजलसंगवंत - गुविलभयवल्लरिं दुहफलिल्लं । झाणऽग्गिणा मण! तुमं, जइ डहसि न रोहड़ तओ सा ॥१०॥ लच्छीए जइ न मज्जसि नयाऽवि रागाइयाण वसमेसि । रमणीहिं न हीरिज्जसि, तरलिज्जसि जड़ न विसएहिं ॥ ११ ॥ संतोसेण न मुच्चसि, आलिंगिज्जसि य जड़ न इच्छाए । पावं च जड़ न चिन्तसि, तुह चेव नमोऽत्थु ता चित्त ! ॥१२॥ ॥७॥ ॥८॥ usu तहा जड़ ताय तुमं माणस!, रागं अभिसंगचागओ जिणसि । दोसं अपीड़परिहा - रओ य मोहं तु सन्नाणा ॥१३॥ कोहं खमाए सम्मं, मिउभावाऽऽनयणओ य पुण माणं । सरलत्तणेण मायं, संतोसगुणेण लोहं तु ॥१४॥ संतोसवसं नयसि य, इंदियगामं बला वि जड़ निच्चं । जइ जीवाणं कप्पसि य, अप्पियं पियकए चेव ॥१५॥ अस्संजमम्मि अरई, रई च पुण संजमम्मि जइ कुणसि । जड़ भयसि भवभयं चिय, पावं चिय जइ दुर्गाछिहसि ॥ १६॥ जड़ वत्थुसरूऽऽवालोयणाउ, न करेसि हरिससोगाइ । तह वयणनिसिरणे जड़ सच्चं चिय चिन्तसे निच्चं ॥१७॥ जड़ जिणयरेसु भत्तिं निच्वं तप्पवयणे पुण पसतिं । सम्मं जहसत्तीए, धम्मगुणेसुं च आसतिं ॥१८॥ | कालाऽणुरुवसुंदर-किरियापरपरमसाहुबहुमाणं । दीणदुहिएसु करुणं, पावपरेसु पुण उवेहं ॥१९॥ जड़ कुणसि ता परेणं, किं किरियावित्थरेण विहलेणं । तुज्झ पसाएण ममं मुत्ती करपल्लवऽल्लीणा ॥२०॥ | मइलिज्जइ निस्सासेहिं, दप्पणी लहु जहा सुविमलो वि । धूमेणं जलणसिहा, कलुसिज्जइ जह सुबहुलेण ॥ २१ ॥ | विच्छाइज्जइ जह ससहरो वि, पसरंतरेणुपडलेण । तह मण! कुवासणाए, मलिणिज्जसि धवलमऽवि तं पि ॥ २२ ॥ जं नियमिय अप्पाणं, न रागदोसाऽऽइनिग्गहो विहिओ । न य सुहझाणग्गीए, दड्ढो कम्मेंधणपबन्धो ॥२३॥ विसएहिंता खंचिय, धरिओ सारे न इंदियग्गामो । तं किं न तुज्झ हे चित्त !, मुत्तिसोक्खम्मि वंछा वि ॥ २४ ॥ | सज्जिज्जन्ति न करिणो, न पक्खरिज्जन्ति तुरयघट्टाई । नाऽऽयासिज्जइ अप्पा, वावारिज्जड़ न खग्गं पि ॥ २५ ॥ किन्तु सुहज्झाणेणं, अरिणो रागाऽऽइणो हणिज्जन्ति । तह वि तुमं माणस! कीस, परिभवं सहसि तेहिं तो ॥ २६॥ गुरुकहिओवाएणं, पढमं सालंबणं पयत्तेण । अब्भसिऊणं जोगं, वियलियनिसेसपच्चूह ॥२७॥ | जइ बज्झविसयचिन्ता - वावारविवज्जणा निरालंबे । तत्ते परे निलीयसि, ता चित्त ! न चेव चरसि भवे ॥२८॥ पयईए चलसहावं, दुद्दतिंदियतुरंगथट्टमिणं । विसयाभिलासवेगं विवेगरज्जूए संजमिउं ॥२९॥ जड़ मण ! धरेसि सवसं, फुरन्ति रागाइसत्तुणो न तओ । इहरा उ परिभविज्जसि, लद्धप्पसरेहिं तेहिं सया ॥३०॥ जह न वरिसन्तमेहेहिं,, नेय पविसंतसरिसहस्सेहिं । उक्करिसो जलनिहिणो, न याऽवकरिसो वि तदभावे ॥३१॥ तह सयमुविंतभोगोव-भोगजोगे वि हियय! जड़ तुह वि । नोक्करिसो तदभावे, न यांऽवकरिसो वि होइ तया ॥३२॥ संपत्तपावियव्यं, सुकयप्रत्थं तह परं तुमं चेव । भोगाइकयाऽऽसंसो, दुक्करकारी वि न उण मुणी अन्नं च ॥३३॥ मोहो एस नराणं जं गिहचागा वणम्मि जोगरओ । साहइ मोक्खं ति भणंति, जेण सन्नाणओ मोक्खो ॥३४॥ 1. मथ्नासि । 55 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १६३५-१६७२ मनः अनुशास्तिस्वरूपम् मित |तं पुण गिहे व रन्ने य, होइ कज्जं पि साहइ ससज्झं । उज्झिय सेसवियप्पं, चित्त! विचिन्तेसु ता नाणं ॥३५॥ संसारुत्थपयत्था परं सुरम्मा वि न हु हरंति तुमं । जइ मण चिट्ठसि सन्नाण-पवरपागारपरिखित्तं ॥३६॥ जड़ सन्नाणतरंडं अक्खण्डं छड्डसे न कइया वि । हे हियय! हीरसि न ता, अविवेयसरिप्पयाहेण ॥३॥ जीवे सुपत्तभूए, चिटुंतिं मोहतन्तुमययहि । नेहं च निट्ठवितो, मिच्छत्ततमोविणासी य રેલી कालुस्सकज्जलं उव्य-मन्तओ जइ गिहस्स व तुहंडतो । सन्नाणपईयो जलइ, चित्त! ता किं न पज्जत्तं ॥३९॥ | गुरुगिरितडसंभूयं, विसयविरागमज्झमुद्धरक्रोधं । धम्मऽत्थिसउणरुद्धं च, परमतत्तोयएसतरूं ॥४०॥ होऊणमडणुत्तालं, सणियं चित्त! जड़ समारुहिउं । गिन्हसि सन्नाणफलं, ता आसाएसि मुत्तिरसं ॥४१॥ | रोगाण व कम्माणं, विज्जासिद्धो व्य वियरइ सुगुरु । बज्झोययारविमुहं, पसमणपरमोवएसं जं ॥४२॥ |तं झायसु चित्त! न केव-लं जओ अहिगयखओ चेव । सयलकिलेसविमुक्कं जायइ अजरामरतं पि ॥४३॥ हे चित्त! पयत्तेणं, चिन्तसु तत्तं तुम तयं किंचि । चिन्तियमेतेणं चिय, चिरं पि जेणासि सुनियुत्तं ॥४४॥ धीमं विऊ सुरुयो, चाई सूरोऽहमेव इच्चाई । दप्पजरो ता तुह मण!, जा न निलीयसि परे तत्ते ॥४५॥ अविवेयमिंठमुल्लुंठिऊण, थंभं पि भंजिय दढं पि । पुत्तकलत्ताइसिणेह-निबिडनिगडाई तोडेउं ॥४६॥ रागाऽऽइबन्धणदुमे वि, दूरमुम्मूलिऊण धम्मयणे । हे चित्त! चरसु हत्थी व, जं परं निव्युइं लहसि ॥४७॥ सक्खं जिणिन्दभणियं, इमं ति एयं च गणहरेण पुणो । तस्सीसेण य एयं, चोद्दसदसपुविणा य इमं ॥४८॥ पत्तेयबुद्धपमुहेहिं, भासियं पुयजिणवरेहि इमं । भणियं इच्चाई पर-पच्चायणवयणचिन्तणओ ॥४९॥ हे चित्त! खिज्जसि च्चिय, सयं रसाउणुभवसुन्नमेव तुमं । दव्यि व्य दिव्यभोयण-बहुविहरसपयडणपरा वि ॥५०॥ अहवा यासिज्जइ भिज्जड़ य, दव्यी रसेहिं न उण तुमं । जिणवयणमडणुसरंतं पि, मूढ! हे हियय! कहमिहरा॥५१॥ वररिसिसुहासियाई अणेगसो पढसि सुणसि तह निच्चं । भावेसि य अइनिउणं, तप्परमऽत्थं च बुज्झसि य ॥५२॥ न उण अणुभवसि पसमं, न य संवेगं न यावि निव्वेयं । न मुहत्तमेतमवि तह, तब्भावत्थेण परिणमसि ॥५३॥ जिणवयणसमरसाऽऽपत्ति-मन्तरेणं तु बज्झचरणे वि । सुविसुद्धसाहुकिरिया-सेयणरूवे जहाथामं ॥५४॥ उच्छहसि वि न मण! तुमं, पमायमयघुम्मिरं मणागं पि । एवं च लद्धपोयं पि, मूढ! बुड्डसि भयोहऽन्तो ॥५५॥ अहव न जिणवयणत्थेण केवलं न परिणमसि चेव तुमं । साभिप्पायविसरिसं, किंतु तयं उव्यवत्थिसि वि ॥५६॥ नियबोहवाहगेणं, हे हियय! कहिं पि जिणमएणाऽपि । मउलाविज्जसि बाढं, मूढ! तुमं सव्यहा वि जओ ॥५॥ कड़यवि रुहसि नहग्गे एगंतुस्सग्गतरलियं संतं । कइयवि विससि रसायल-मज्यवाए च्विय निलीणं तु ॥५८॥ उस्सग्गदिट्ठिणो तुह, अववायठिया न चेव रोयंते । अववायदिट्ठिणो उण, उस्सग्गठिया न रोयन्ति ॥५९॥ तह दव्ववेत्तकालाऽऽइयाण-मऽणुसारओ जहाविसयं । उभयपयसेवगा जे य, ते वि नो तुज्झ रोयन्ति ॥६०॥ एवं मण! निच्छयनय-ठियस्स ववहारनयठिया तुज्झ । ववहारनयठियस्स उ, रोयन्ति न निच्छयनयत्था ॥१॥ तह दव्यखेतकालाइयाण-मडणुसारओ जहाविसयं । उभयनयमयठिया जे उ, ते वि णो तुज्झ रोयन्ति ॥१२॥ उस्सग्गपमुहसमत्थ-नयमयं मयमरोयमाणस्स! । कह नज्जइ निरवज्जा, मण! जिणमयपरिणई तुज्झ ॥३॥ तव्विसए सुयनिहिणो, नो बहु पुच्छसि वि किर मए ततं । नायं ति किं पि अंसं, निरुवसमं चित्त! घेत्तूण॥६४॥ एवं च तुज्झ न गिलाण-कज्जविसया वि जायए चिन्ता । कालाऽणुरूवगुणिगोय-रं च न पमोयकरणं पि ॥६५॥ वच्छल्लथिरीकरणोव-यूहणाइ वि न चेव सव्वत्थ । अविगाणेणं चिन्तसि, साहिप्पाया जइ कहं पि ॥६६॥ एवंविहं च कुग्गह-चक्कं छेत्तुं विवेयचक्केण । सब्बोयाहिविसुद्धं, सद्धम्मे कुणसु पडिबन्धं ॥६॥ जड़ तुममिह पडिबन्धं, हुतं थेपि ता न इयकालं । होज्ज महदुक्खजालं, किं न सुयमिमं तए चित्त! ॥६८॥ एगदिवसं पि जीवो पव्वज्जमुवागओ अन्नन्नमणो । जड़ वि न पावइ मोक्खं, अवस्स वेमाणिओ होइ ॥६९॥ अहवेगदिवसमिच्चाइ-थूलं माणं जओ मुहुत्ते वि । सन्नाणपरिणईए उ, फलमिटुं होइ जमिहुतं ॥७॥ जं अन्नाणी कम्म, खवेइ बहयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गत्तो. खवेड ऊसासमेत्तेण ॥७१॥ कहमिहरा मदेवी, पुव्यं अगुणा वि तखणा चेव । सिद्धा तुमं तु हे मण!, सुनाणपरिणइगुणविहीण! ॥७२॥ 56 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १६७३ - २००८ वसुदत्तदृष्टान्तः ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ રા “वसुदत्तदृष्टान्तः” कइया वि रागरतं, कइयवि दोसेण कलुसियसरूवं । कइया वि मोहमूढं क्या वि कोहग्गिसंतत्तं कइयावि माणथद्धं क्याइ मायाए बाढमाऽऽविद्धं । कड़या वि महालोहोय - हिम्मि सव्वंगनिम्मग्गं कड्या वि वेरमच्छर- रणरणयभयट्टरोद्दझाणगयं । कइया वि दव्यखेत्ताऽऽइ-विसयचिन्ताभरक्कन्तं निच्चं पि वावडं चिय, खरपवणपणुन्नधयवडो व्य तुमं । नाऽवत्थाणं थेवं पि, लहसि कड़या वि परमत्थे ॥ ७६ ॥ | इच्चाइ चित! केत्तिय - मऽणुसासिज्जसि तुमं सयं चेव । कुसलाऽकुसलविभागं परिभावसु तह य निच्छयसु ॥७७॥ तत्तो कुसलपवितिं, निच्चं कुसलट्ठिएस बहुमाणं । कुणसु अ कुसलाऽकुसलत्थ - चायमज्झत्थभावे य ॥७८॥ | एवमऽकुसलविवज्जण - कुसलपवित्तिप्पहाणकारणओ । कज्जं पि मण! समाही - रूवं परमं चिय लहेसि ॥७९॥ इय जो निच्चं पि मणो, अणुसासइ भावसारमऽणुसमयं । 1समयं मायं कोहं लोहं, च जिणेज्ज किं चोज्जं ॥ ८० ॥ | इहरा अणप्पकुविकप्प-कप्पणाऽऽसत्तचित्तवेलविओ । हियमवि अहियं सयणं पि, परजणं मित्तमवि सतुं ॥ ८१ ॥ सब्भूयमऽसब्भूयं पि, मन्नमाणो करि व्य दुव्यारो । किं किं न पावठाणं वसुदत्तो इव करेज्ज जणो तहाहिउज्जेणीए पुरीए नरवइणो सूरतेयनामस्स । सोमप्पहो त्ति नामं, आसी उवरोहिओ विप्पो नीसेससत्थपरमत्थ- जाणगो सव्यदरिसणविहन्नू । अच्चन्तवल्लहो गुणि-जणस्स रन्नो य सुगुणो ति एगम्मि य पत्थावे, दिवं गओ सो तओ य से पुत्तो । वसुदत्तो नामेणं, तप्पयविनिवेसणट्ठाए |सयणेहिं दंसिओ नरवइस्स, नवरं लहु त्ति अपढो ति । पडिसिद्धो रन्ना सो, अन्नोय निवेसिओ तत्थ परिभूयं अप्पाणं, मन्नंतो गुरुविसायसंतत्तो । वसुदत्तो नीहरिओ, पढणडत्यं तयणु गेहाओ पयरं विज्जाखेतं, नाणाविहविउससंगयं सोच्चा । पाडलिपुत्तं लोयाओ, तत्थ गन्तुं समारद्धो कालक्कमेण पत्तो, पढियाओ तहिं च सव्वविज्जाओ । अह सिद्धवंछियऽत्थो, समागतो निययनयरम्मि ॥८९॥ तुट्ठो विज्जाए नियो दिन्ना पिउसंतिया य से भुत्ती । जाओ य सम्मओ राय - पउरलोयस्स सव्वस्स नरवइसम्माणेणं, इस्सरिएणं च सुयमएणाऽवि । तिणमिव जयं नियन्तो, कालं वोलेइ सो तत्थ इस्सरियाऽऽइलवेण वि, तरलिज्जइ माणसं अधीराणं । किं पुण कुलबलविज्जाऽऽइ - याण सव्वेसिं समवाए ॥ ९२ ॥ | अवि तीरिज्जइ जुगविगम - जलहिकल्लोलपडलमऽवि खलिउं । इस्सरियाऽऽइमहामय - विवसं तु मणो न थेयं पि॥९३॥ इय सो उम्मत्तमणो, एगम्मि दिणे नडाण पेच्छणयं । कोऊहलेणं दट्टु, निसिम्मि मित्तेहिं संलतो हे मित्त! एहि जामो नडपेच्छणयं खणं पलोएमो । दिट्ठी दट्ठव्यपलोय - णेण सहलत्तणमुवेइ तेसिं अणुवित्तीए गओ तहिं सो ठिओ य खणमेक्कं । अह तत्थ तया जुवई, विडेण सह जंपिरी एवं ॥ ९६ ॥ | अलियविउसेण पइणा, निरुद्धपसराए संपयं मज्झ । तुह सुहय! दंसणामऽय - लाभेणं निव्वुई जाया ॥९७॥ हे पेच्छणगपयट्टग!, चिरकालं जीवियं हवउ तुज्झ । जेण कओ वक्खेवो, मह पइणो कोवजलनिहिणो ॥९८॥ ता एहि सुहय! जावेस, कूडविउसो इहेव जावेइ । ताव खणं कीलित्ता, नियनियगेहेसु वच्चामो ॥९९॥ इय तीए पणयसारं, गिरमायन्निय विचिन्तियं तेण । अलियवियप्पविगप्पण-पवणपणोल्लियमणेण इमं ॥२००० ॥ नूणं सा मे भज्जा, एसा परपुरिसमणुसरड़ पावा । कूडविउसं च मन्ने, ममं च उद्दिस्स वागरड़ ॥१॥ पुव्यं पि दुट्ठसीला, लिङ्गेहि मए वियाणिया आसि । संपड़ पच्चक्खं चिय, दिट्ठा ता निग्गहामि इमं ॥२॥ | इय चिन्तेन्तो जा ताड - णट्ठया पट्ठिओ इमो तीए । ता सच्छंदपयारा सा जुवई कत्थइ गय त्ति ॥८॥ ॥९०॥ ॥९९॥ ॥९४॥ ॥९५॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥५॥ मन्ने इंतं मं पेच्छिऊण, पाया घरं गया तुरियं । इय बुद्धीए तओ सो, वेगेण गिहुम्मुहो चलिओ अह पबलकोवविवसो, जा पत्तो निययगेहदारम्मि । ताय य सरीरचिन्तं, काउं गेहम्मि पविसंती | दिट्ठा नियगा भगिणी, भज्ज ति वियाणिऊण तो तेण । आ पाये ! मज्झ गिहे, दुस्सीला वि हु कहं विससि ॥६॥ कूडविउसं ति मं दूसिऊण, पुरओ विडस्स रमिउं च । तेण सह सहरिसं आग-याऽसि इंय उल्लवंतेण ॥७॥ हा हा किमेवमेयं, को एसो किं मए कयमऽकज्जं । इइ पुणरुतं बहुजं - पिरी वि अच्चन्तुकोयवसा ॥८॥ 1. समदं । 57 શા ॥८४॥ ॥८५॥ ॥८६॥ ॥८७॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २००६-२०४५ अनियतविहारनामकसप्तमद्वारवर्णनम् अवियाणित्ता तह तेण, जट्ठिमुट्ठीहिं निठुरं पहया । सा मम्मपएसम्मि जह मुक्का जीवियव्येण अह अणुमग्गेणं चिय, समागएणं समित्तवग्गेण । पडिसिद्धो सविसेसं, कुद्धो तत्तो इमं भणइ ॥१०॥ रे पाया! तुम्हाणं, भेएणं नृणमेरिसमडकज्जं । मह भज्जाए कीरइ तेणं तुब्भे ममं खलह ॥११॥ नडपेच्छणए विधुवं, एत्तो च्चिय अहमणिच्छमाणो वि । नीओ तुम्हेहिं इमीए, कज्जनिविग्धसिद्धिकए ॥१२॥ कित्तिममेत्तीजुत्ताण, होज्ज अहया न किंचि वि अकिच्वं । परिचयह दुट्ठसीला!, ता एत्तो मज्झ चक्नुपहं ॥१३॥ एवं वसुदत्तेणं, अलीयकुवियप्पयाउलमणेण । निदोसा वि हु ते तज्जि-या तहा जह गया सगिहं ॥१४॥ कोलाहलं च सोच्चा, समागया मन्दिराओ से भज्जा । दठूण वइयरमिमं, एवं भणिउं पवत्ता य ॥१५॥ हा हा निग्घिण! निल्लज-उणज्ज! किं हणसि अप्पणो भइणिं । जेणेवंविहपावं, सोवागा वि हुन कुव्यंति ॥१६॥ एवं तीए वृत्तो, परलोगेण वि य निन्दिओ संतो । सो चिन्तेइ पुणो विह, अणप्पकविगप्पविहरमणो ॥१७॥ असई न केवलं चिय, मह भज्जा किन्तु साईणी वि भवे! । एवं वामोहिता, ममं पि जा सयमवक्कंता ॥१८॥ भइणीए विणिहयाए, पसंतकोयो ति मं वियाणित्ता । विणियारिउमाऽऽरद्धा, साहु व्य अभिन्नमुहरागा ॥१९॥ किमऽहं नियमणिं पि हु, न मुणेमि सुदूरमन्धयारे वि । जड़ एयाए नो दिट्ठि-चंचणं मह कयं हृतं ॥२०॥ इय चिन्तिऊण कुवलय-दलसामं कड्ढिऊण असिघेणुं । पावे डाइणि! भइणी-विणासजणणि! पलाइहसि ॥२१॥ कत्थेयाणिं सुरगुरुसमो वि, जो हं तए वि विभमिओ । इति जंपन्तो भज्जाए, लुणइ नासं सउट्ठउडं ॥२२॥ अह उग्गयम्मि सूरे, निसिवइयरसवणजायरोसेण । लोगेण नरिंदेण य, सो नयरीओ विणिच्छूढो ॥२३॥ एगागी य भमंतो, वइदेसाए पुरीए संपत्तो । तारापीढो राया, तहिं च आराहिओ तेण ૨૪ तुट्टेण नरिन्देणं, दिन्नं से जीवणं पहिट्ठमणो । तत्थ हिउं पवतो, अह जाए सूरगहणम्मि ॥२५॥ सो चिन्तिउं पवतो, अज्ज अहं बम्भणे निमंतित्ता । बहुभक्खं वंजणाऽऽउल-मडणेगपाणगसमाइन्नं રદા बहुविच्छित्तिसणाहं, भोयणजायं करावइस्सामि । खीरं च खीरहरियाउ, राइणो मग्गइस्साम्मि રળી जड़ सो कह विन दाही, पुणो पुणो मग्गिओ वि सप्पणयं । तो अत्ताणं हणिउं, बम्भणहच्वं पि से काह॥२८॥ एवं कूडविगप्पेहिं, भामिओ, चिन्तणं पि सच्वं च । मन्नंतो सो भोयण-वेलापत्त ति पुणरुत्तं ॥२९॥ किर सुचिरमग्गिओ वि हु, न खिरहरिओ पणामए खीरं । तो गाढकोयवसओ, छुरियाए हणइ अप्पाणं ॥३०॥ वाहरइ य उद्धकरो, बम्भणहच्चा इमा अहो लोगा! । खीरहरियस्स रन्नो, जेणं खीरं न मे दिन्नं ॥३१॥ इय खणमेगं वाहरिय, गाढघाएण हम्मिओ संतो । रोद्दज्झाणोवगओ, मरिऊणं नारगो जाओ ॥३२॥ एवं सच्छंदपयट्ठ-चित्तदोघट्टपडिहयडप्पाणो । जम्हा जीवा ठाउँ, खणं पि न सुहेण पारति ॥३३॥ तेणाडणसासणं माणसस्स, कीरइ पइक्खणं चेव । इहरोवदंसियठिईए, होइन खणं पि कुसलतं રા किंचदासं व मणं अवसं, सवस जो कुणइ तेण जयरंगे । गहिया विजयपडागा, सो च्चिय सूरो स विक्कमयं ॥३५॥ अवि नाम कहवि कीरइ, पिवणं पुरिसेण जलनिहीणं पि । पज्जलियजलणजाला-कलावमझे य सयणं पि ॥३६॥ चंकमणं पि हु तिक्खडग्ग-खग्गधाराए वीरचरिएण । पउमाऽऽसणं पि बज्झइ, तिब्बड ग्गिजलंतकुंतडग्गे ॥३७॥ न य पुण पयईए च्चिय, चलस्स कुप्पहपसज्जमाणस्स । कीरइ जओ जए माण-सस्स अकयाऽऽउहस्साऽवि॥३८॥ मत्तगइंदं पि दमन्ति, निंति सीहं पि अप्पवसिगत्तं । पक्नुहियजलहिजल-पसरमवि लहं निरंभन्ति ॥३९॥ न य सक्का अकिलेसेण, चेव पुण माणसं जिणेउं जे । अह कह वि तं पि हु जियं, जियं खु ता सव्यजेयव्यं ॥४०॥ किं बहुणा तबिज्जए, विजिओ च्चिय दुज्जओ हवइ अप्पा । सो पुण विजिओ जायइ, परमप्पा परमपयसामी॥४१॥ इय मणअलिमालइमालियाए, संवेगरंगसालाए । परिकम्मविहीपामोक्ख-चउमहामूलदाराए ૪૨ आराहणाए पनरस-पडिदारमयस्स पढमदारस्स । चित्ताणुसासणमिणं, भणियं छठें पडिदारं ॥४३॥ “अनियतविहारनामकसप्तमद्वारवर्णनम्" - अणुसासिज्जंतं पि हु, चित्तं पाएण निच्चयासाओ । पडिबन्धलेवलितं, निरभिस्संगं न भविउमडलं ॥४४॥ अनिययविहारमेत्तो, ता कित्तेमो समत्थदोसहरं । जं सोच्चा परिचइउं, आलस्समऽवस्समुज्जुत्तो ॥४५॥ 58 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २०४६-२०८१ अनियतविहारनामक सप्तमद्वारवर्णनम् वसहीसु य उवहीसु य, गामे नयरे गणे य सन्निजणे । सव्वत्थ अपडिबद्धो, विसुद्धसद्धम्मकणरई ॥४६॥ सइ अनिययं विहारं, रेज्ज साहू विसेसगुणकंखी । तित्थजत्ताड इकरणे, जएज्ज तह सावगो वि सया ॥४७॥ जम्हाऽनिययविहारो, सक्खं चिय नत्थि किर गिहत्थस्स । किन्तु गिहत्थो वि अहं, दव्वत्थयसारमरिहन्ते ॥४८॥ |निक्खमणपमुहतित्थेसु, ताव वंदामि तो पवज्जिस्सं । चिच्या संगमसेसं, आराहणमडहव पव्वजं । एवंविहबुद्धीए, पसत्थतित्थेस वच्चमाणस्स । सुट्टियगवेसणं वा, कुणमाणस्स य भवे सो वि ॥५०॥ तत्थ य जो पव्वज्जं, काउं आराहणं समीहइ से । सुट्ठियगवेसणं गण-संकमदारे निदंसिस्सं ॥५१॥ जो पुण गिहट्ठिओ च्चिय, आराहणमेक्कमेय काउमणो । सुट्ठियगवेसणविही, यत्तव्यो तस्स इह चेव ॥५२॥ अह साहुसावयाणं, सव्वाण वि जिणमयाउणुसारीणं । खित्ताओ खित्तमऽन्नं, गच्छंताणं विही एसो ॥५३॥ |किर जस्स जेण सद्धिं, मणसा वयणेण अहव काएणं । किं पि कयं कारियमणु-मयं च जं दुक्कडं अत्थि ॥५४॥ थेवं पि तं समत्थं, सम्म खामेड़ समाहिमगंतो! । मा होउ कहवि मरणा-इए वि वेराणुऽबन्धो ति ॥५५॥ जड़ ताव मुणी गंता, वंदिता सूरिणो सउज्झाए । परियायलहू पुण सेस-ए वि समणेऽभिवंदित्ता ॥५६॥ इय भणइ जहाऽहं तुज्झ, सन्तियं चेइयाण साहूणं । संघस्स य नयराईसु, गच्छंतो वंदणं काहं ॥५॥ अहया गंता जेट्ठो, तो तं वंदित्तु बिंति ठियसमणा । अम्हच्वयं करेज्जसु, चेइयसाहूण वंदणयं तत्तो चेइयभवणे, गंतुं भत्तीए चेइयाण पुरो । सम्मं तव्वंदावण-पच्चयमिह कुणइ पणिहाणं ॥५९॥ एमेव सावगो वि हु, सम्मं खामियसमत्थवत्थव्यो । सम्मं कयचेइयसूरि-साहुवंदणविहाणो य ॥६०॥ तद्दिन्नगहियनिरवज्ज-विसयसंदेसगो सपणिहाणो । गामनगरागराऽऽइसु महया जाणाइविहवेण ॥६१॥ नायडज्जियवित्तेणं, मग्गट्ठियभूरिधम्मठाणेसु । जिणसासणुन्नई निच्च-मेव परमं पकुव्वन्तो दीणाणाहाण परं,, अणुकंपादाणओ य आणंदं । उप्पायन्तो धीमं, परिभमइ समत्थतित्थेसु ॥६३॥ तत्थ गिही साहू वि य, पासित्ता चेइयाइं तो सम्म । संघो किरेस वंदइ, इय पणिहाणेण पढमं तु ॥६४॥ काऊण वंदणं संघ-संतियं चेइयाणमुवउत्तो । तो अप्पसंतियं पि हु, तदऽवत्थो च्चिय कुणइ सम्म ॥६५॥ अह दव्ववेत्तकालाऽऽइयाण, संकिन्नया भवे कहऽवि । ताहे पणिहाणाऽऽइ, संखितं पि हु कुणइ चेव ॥६६॥ अह साहुसावगजणं, नाणाऽऽइगुणागरं भणइ दटुं । अमुगत्थामे तुब्भे, वंदाविज्जह जिणवरिन्दे ॥६॥ ते वि ससंभमपाउब्भवंत-रोमंचकंचुइयकाया । महिवट्ठठवियसीसा, सुभत्तिभरनिभरमणा ॥६ ॥ जय तइलोक्कमहापहु!, पभूयगुणरयणसायर! जिणिंद! । इय देवगुणे अहवा, नमोऽत्थुणं एवमाईणि ॥६९॥ सक्कथयवयणाई, कितंति ताव जाव आगंता । भणइ पुणो आयरियाइ-पेसिए धम्मलाभाई ॥७०॥ अभिवन्दणाऽणुवन्दण-रूयं उचियट्ठिई किर जणो ता । कुणइ ततो अन्नोन्नं, विसेसपुच्छाइसु विभासा ॥१॥ इय पेरणीयपेरग-भावा, सुहजोगओ य उभएसिं । सुहबन्धो जयगुरुणो, निद्दिट्टो इट्ठसिद्धिफलो . મારા एवं सामायरिं, नाऊण विहीए जे पउंजन्ति । ते एत्थ कुसला, सेसा सब्वे अकुसला उ ॥७३॥ इय भणियविहीए गिही, हिडतो तेसु तेसु देसेसु । अप्पाणए परम्मि य, सविसेसे कुणइ धम्मगुणे ॥४॥ तहाहिदठूण सावयजणं सविसेसं दव्वभावथयनिरयं । सयमवि सविसेसं चिय, तक्करणपरायणो होइ ॥५॥ तं च तहाविहिनिरयं, पए पए पासिउं पयट्टतं । पवियंभन्ति सुहगुणा, धम्मपराणं पराणं पि ॥७६॥ | किंचतइंसणाउ सद्धा, पायमसद्धालुणो वि सद्धम्मे । सद्धालुणो सयं पुण, संजायइ तप्पवित्ती वि ॥७७॥ अथिरा जायन्ति थिरा, थिराउ गिण्हन्ति तह विसेसगुणे । अगुणा वि होंति सगुणा, सगुणा दढबहुतरगुणा य ॥७८॥ इय जिणदिक्वानिव्याण-नाणतित्थेसु सुप्पसत्थेसु । यंदंतो सव्वन्नू, सुट्ठियगुरुणो य पेहन्तो ॥९॥ ता भमति गिही जा कह वि, पाविओ सुट्ठिओ गुरु परमो । पत्ते य तम्मि हरिसु-ल्लसंतरोमंचकंचुइओ ॥८०॥ संपत्तपावणिज्जं, समत्थतित्थोहपूयपावं च । अप्पाणं मन्नतो, विहिणा आलोयणं देज्जा ॥८१॥ 59 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २०८२-२११८ दुर्गतानारीदृष्टान्तः तो गुरुजणोवइटुं, पडियज्जेज्जा य सम्म पच्छित्तं । एवं च विचिन्तेज्जा, अहो कहं पायकलुसो वि ॥८२॥ पच्छित्तदाणजलखालणेण, नीओ परं विसोहिमऽहं । निक्कारणकरुणासा-यरेण एएण मुणिवइणा ॥३॥ नूणमिमो जणणिं पि हु, जणगं पि हु बन्धयं पि मित्तं पि । अभिभविऊणं वच्छल्ल-भायतो विहरति जयम्मि॥८४॥ कहमऽन्नन्ना अदिटुं, असुयं देसंतराऽऽगयं च ममं । पियपुत्तं पिय एवं, बहुमन्नेज्जा महाभागो ॥५॥ अह परमविम्हिउप्फुल्ल-लोयणो पज्जुवासिऊण चिरं । तस्सुवएसे गिण्हिय, निमन्तइ गुरुं विहारेण ૮દ્દા इय ताय पुन्नपब्भार-पुन्नवंछस्स सावयवरस्स । कस्सवि निविग्घं चिय, वंछियसिद्धी हवेज्ज फुडं कस्स वि य तहा संपट्ठियस्स, अवि नाम अंतरा चेव । होज्जा पाणवियत्ती, उवक्कमाऽऽविहिवसेण ॥८॥ | सुहपणिहाणगुणेणं, तित्थाईणं अपूयणेणाऽवि । दुग्गयनारीए इव, तस्सज्झफलं तहवि होज्जा ॥८९॥ तहाहि "दुर्गतानारीदृष्टान्तः” कायंदीए पुरीए सुरसिर-मणिकिरणविच्छुरियचरणो । चरणपयट्टियलोगो, लोगाऽलोगप्पयासको ॥९ ॥ कुणामयखीरनिही, निहीणउत्तमजणेसु समदिट्ठी । सिद्धत्थपत्थिवसुओ, समोसढो सिरिमहावीरो ॥९१॥ पवरमणियणरुइरं, नाणाविहधुव्वमाणधवलधयं । सिंहासणाऽभिरामं, सुरेहिं रइयं च ओसरणं ॥९२॥ तत्थ य पुव्वाऽभिमुहो, ससुराऽसुरतिजयपूयणिज्जकमो । आसीणो जयनाहो, भव्यजणविबोहओ वीरो ॥३॥ असुरसुरखयरकिंनर-नरनरवइणो य पुलइयसरीरा । जिणवन्दणउट्ठमऽचिरा,, ओसरणमहिं समल्लीणा ॥९४॥ नयरीजणो वि हरिकरि-जाणविमाउडणाइएस आरूढो । उब्भडकयसिंगारो, तियससमूहो व्व सोहंतो ॥९५] धूवसमुग्गयवरगन्ध-कुसुमपडलाइवावडकरेण । किंकरनियरेण सम, झत्ति जिणं वंदिउं चलिओ ॥९६॥ अह तत्थेव पुरीए, वत्थव्वाए दरिद्दथेरीए । घेत्तूण दारुयाई, इंतीए नयरीबाहिम्मि ॥९७॥ अच्चन्तविम्हियाए, पुट्ठो एगो नरो अहो भद्द! । एगाभिमुहो लोगो, कत्थ इमो गन्तुमाऽऽरद्धो तेणं पयंपियं तिजय-बन्धुणो धुयकिलेसकलुसस्स । जम्मजरमरणवल्ली-वियाणविच्छेयपरसुस्स ॥९९॥ सिरिवीरजिणस्स पयाडरविंद-पूयणनिमित्तमेस जणो । वच्चइ सिवसुहकारण-धम्मनिसामणनिमित्तं च एवं सोच्चा सुहकम्म-जोगओ जायभत्तिपन्भारा । सा चिन्तिउं पयत्ता, किमऽहमऽपुन्ना दरिद्दा य ॥१॥ पकरेमि जेण सुविसिट्ठ-ऽणग्यपूयंडगवग्गसामग्गी । नेवत्थि जीए जिणवर-चरणुप्पलजुयलमडच्चेमि अहवा किमडणेणं सिंदु-वारकुसुमाइं पुवदिट्ठाई । मुहियालब्भाई लहुँ, घेतूण करेमि जिणपूयं ताहे ताई घेत्तुं, वड्ढंतजिणिंदपूयपरिणामा । ओसरणस्साऽभिमुहं, तुरियं गन्तुं समारद्धा अद्धपहे च्चिय, अच्चन्तं थेरभावविहरंगी। पंचत्तमवगया सा, वडढंतविसुद्धपरिणामा अह जिणपूयापणिहाण-मेत्तसुविढतकुसलकम्मेण । सोहम्मदेवलोए, अतुच्छसुरलच्छिमडणुपत्ता દો थेरतणेण मुच्छं, गय ति सुढिय ति वा विचिन्तन्तो । अणुकंपाए लोगो, जलेण सिंचइ य से अंगं ॥७॥ अपरिप्फंदं, च तयं, पलोइउं पुच्छड़ जिणं भन्ते! । किं सा जियइ मया था, वुत्तं नाहेण य मय ति ॥८॥ अह सो थेरीजीयो, देवत्तं पाविऊण तव्येलं । ओहीए मुणियनियपुव-वइयरा परमभत्तीए ॥९॥ जयगुरुचरणसरोरुह-मऽभिवन्दिय संनिहिम्मि पढेंतो । लोगस्स दंसिओ भग-वया य जह तीए थेरीए ॥१०॥ जीवो देयो एसो ति, विम्हिओ तो पयंपई लोगो । सुकयविरहे वि कह तीए, सुरसिरी एरिसी पत्ता ॥११॥ नाणं दाणं च तवो, सीलं सवन्नुपूयणं वा वि । सोग्गइनिबन्धणं नाह!, कित्तियं किर कयं तीए ॥१२॥ एयं च कहमिमीए, सयाऽवि दारिद्दरुंदकंदाए । आजम्मदुखियाए, परपेसत्तोवतताए ॥१३॥ तो जयगुरुणा कहिओ, पूयापणिहाणगोयरो सव्यो । तव्युत्तन्तो पुणरवि, लोगेणं पुच्छिओ सामी ॥१४॥ अन्नायजिणवरगुणा, पूयापणिहाणमेत्तओ चेव । कह भयवं! उप्पन्ना, सुरलोयम्मि इमा थेरी" ॥१५॥ भणियं जिणेण अमुणिय-गुणा वि मणिणो जहा पणासिंति । जररोगाऽऽइसमुदयं, तह जयगुरुओ जिणिंदा यि ॥१६॥ अच्वन्तगुणपहाण-तणेण सामन्नमेतमुणिया वि । बहुमाणपराण पराण-मडसुहकम्म पणासिंति ॥१७॥ एत्तो च्चियऽणुन्नाओ, एत्थं दव्वत्थओ गिहत्थाणं । एयविरहम्मि जम्हा, सणसुद्धी वि नेव भवे ॥१८॥ 60 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २११६-२१५५ अनियतविहारकरणे गुणाः - श्रीसेलकसूरिदृष्टान्तः ता मोक्खसोक्खमूलं, पुचडज्जियपायसेलवज्जसमं । जिणपूयापणिहाणं, निहाणमभियंछियऽत्थाण ॥१९॥ जिणपूयापरिणामो, न होइ सुहकम्मुणो अभावम्मि । अच्वंतकंतचिन्ता-मणिगहणिच्छेद मुद्धाण ॥२०॥ ता भो देवाणुपिया!, एत्तियमेत्ते वि चोज्जमुव्यहह । अज्जऽवि एस महप्पा, सिवपयमऽवि पाविही जम्हा ॥२१॥ एसो इओ चइता, कुले पहाणम्मि पाविउं जम्मं सुस्साहुसंगईए, पवज्जिही पवरपब्वज्जं ॥२२॥ तत्तो देवो होही, पुणो वि पुन्नाडणुबन्धिपुन्नेण । मणुओ एवं अट्ठम-भवम्मि नयरम्मि कणगपुरे ॥२३॥ होही पुहवीनाहो, कणगज्झयनामगो जयपसिद्धो । सो अन्नया य धन्नो, काले सरयम्मि संपत्ते રા इंदमहपेच्छणडट्ठा, महाविभूईए निग्गओ संतो । अवलोड़ऊण दडुरम-ऽहिणा महया गसिज्जंतं ॥२५॥ अहिमयि कुररेणं चण्ड-चंचुणा कुररमवि य करुणरवं । घोरेणमध्यगरेणं, गसिज्जमाणं जमेणं व ॥२६॥ परिचिन्तिही महप्पा, मंडुक्को इव इमो जणो हीणो । अहिगारिणा गसिज्जड़, भीमेण भुयंगमेणेव ॥२७॥ अहिगारी वि गसिज्जड़, कुररेण व मण्डलस्स अहिवड़णा । सो वि य सब्बग्गासेण, अयगरेणं पिय जमेण ॥२८॥ इय अणवरयं निवडत-आवयाऽवायपूरिए लोगे । भोगप्पसंगवंछा, जणस्स ही ही महामोहो ॥२९॥ जम्मणमरणविमुक्को, तइलोक्कमि न विज्जए कोई । वेरग्गं तह विन अत्थि, अहह मणुयाण मूढतं ॥३०॥ इय चिन्तिऊण रज्जं, रटुं अंतेउरं पुरं चिच्चा । समणो होही सिद्धिं च, पाविही खवियकम्मडसो ॥३१॥ एवमऽरिहंतपूया-पणिहाणं पि हु हवेज्ज मोक्खकरं । एतो य भन्नइ इहं, पूयापणिहाणओ चेव ॥३२॥ तित्थाण पूयणफलं, सड्ढो पावेज्ज अद्धमग्गे वि । पंचत्तं संपत्तो वि, कह वि तिव्याऽऽवयवसेण ॥३३॥ एवं आलोयणपरि-णओ वि संपट्टिओ गुरुसयासं । जड़ अंतरा वि असुहो, हवेज्ज आराहओ तहऽवि ॥३४॥ आलोयणापरिणओ, सम्मं संपट्ठिओ गुरुसयासे । जड़ अंतरा स कालं, रेज्ज आराहओ तह वि ॥३५॥ एवं आलोयणपरिणयस्स, संपट्ठियस्स वि गुरुसयासे । असुहो भवेज्ज अहवा, मरेज्ज आराहओ तह वि ॥३६॥ सल्लं उद्धरिउमणो, संवेगुव्येयतिव्यसद्धाए । जं जाइ सुद्धिहेडं, सो तेणाऽऽराहओ होइ वि ह. आलोयणपरिणयस्स इन्तस्स । गरुणो व अप्पणो वा. वियलते होज्ज संसोही ॥३८॥ अहवा साहुगिहीणं, दोण्ह वि साहारणे गुणे पायं । अणिययविहारजणिए, सव्वन्नुमए इमे सुणह . ॥९॥ ____ “अनियतविहारकरणे गुणाः" - दसणसोही थिरकरण, । भावणा' अइसयऽत्य कुसलतं । 'जणवयपरिक्खणा वि यं । अणिययवासे गुणा होति [दारगाहा॥४०॥ निक्खमणनाणनिव्वाण-ठाणचिड़चिन्धजम्मभूमीओ । पेच्छंतो उ जिणाणं, सुविसुद्धं दंसणं कुणइ [दारं] ॥४१॥ संवेगं संविग्गाणं, जणइ इय सुविहिओ सुविहियाण । अथिरमइणं च पुणो, जणेइ धम्मम्मि थिरीकरणं ॥४२॥ संविग्गपरे पासिय, पियधम्मपरे यऽवज्जभीरू य । सयमवि पियथिरधम्मो पायं विहरंतओ होइ [दारं] ॥४३॥ चरिया छुहा य तण्हा, सीयं उण्हं च भावियं होड़ । अहियासिया य सेज्जा, सम्म अणिययविहारेण [दारं] ॥४४॥ | सुत्तऽत्थथिरीकरणं, अइसइयत्थाण होइ उवलंभो । अइसइयसुयहराणं, पलोयणे विहरमाणस्स [दारं] ॥४५॥। निक्खमणपवेसाईसु, आयरियाणं च बहुपयाराणं । सामायारीकुसलो, जायति गणसंपवेसेण [दारं] ॥४६॥ साहूण सुहविहारो, निरवज्जो जत्थ सुलहवित्ती य । तं खेत्तं विहरंतो, नाही आराहणाजोग्गं ॥४७॥ एमाइयं गुणगणं, समीहमाणेण साहुणा निच्चं । अणिययविहारचरियाए, पट्टियव्यं सइ बलम्मि ॥४८॥ जो पुण रसाऽऽइगिद्धी-वसेण बलवं पि इह पमाएज्ज । न स केवलं मुणीहिं, मुंचेज्ज गुणेहि वि अवस्सं ॥४९॥ पच्चागयसुहभायो, सो च्चिय इह उज्जओ मुणिगुणेहिं । परिवारिज्जइ सज्जो, उभयऽत्थ वि सेलगो नायं ॥५०॥ तहाहि “श्रीसेलकसूरिदृष्टान्तः" सेलगपुरम्मि नगरे, आसी नियो सेलगो पुरा तस्स । पउमावई य देवी, ताण सुओ मड्डुगो नाम ॥५१॥ थावच्चापुत्तमुणिन्द-चलणसेवोवलद्धजिणधम्मो । सो राया नयसारं, भुंजइ निरवज्जरज्जसुहं | एगम्मि य पत्थावे, थावच्चापत्तसरिपयवित्ती । सयसरी विहरंतो, समागओ तत्थ नयरम्मि ॥५३॥ मियवणउज्जाणम्मि य, समोसढो मुणिजणोचियपएसे । मुणियाऽऽगमो य राया, समागतो वन्दणनिमित्तं ॥५४॥ तिपयाहिणापुरस्सर-मह तच्चलणुप्पले नमंसित्ता । हरिसवसपुलइयंगो, आसीणो धम्मसवणऽत्थं ॥५५॥ 61 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृपस्यानियतविहारनामकाष्टमद्वारवर्णनम् संवेगरंगशाला श्लोक नं. २१५६-२१६१ मुणिवड़णा वि हु संसार- परमनिव्वेयकारिणी तस्स । विसयविरागुप्पायण-पवणा संमोहनिम्महणी संसारसमुत्थसमत्थ-वत्थुविगुणत्तपयडणपहाणा । धम्मका सुइसुहवयण - वित्थरेणं क्या सुचिरं पडिबुद्धो नरनाहो, परमपमोउब्भवन्तरोमंचो । गुरुचरणे पणमित्ता, जंपिउमेवं समाढत्तो भयवं! जाव नियसुयं, ठयेमि रज्जम्मि ताव तुह पासे । उज्झिता रज्जमऽहं पव्वज्जं संपवज्जामि जुत्तमिणं जाणियभवठितीण, तुम्हारिसाण नरनाह! । ता एतो पडिबन्धं, मा काहिसि थेयमवि एत्थ एवं गुरुणा अणुसासिओ य, राया गओ सगेहम्मि । निययपयम्मि निवेसइ, मड्डुगनामं वरकुमारं तत्तो कयसिंगारो, सहस्सनरवाहिणीए सिबियाए । आरूढो पंथयपमुह-मंतिसयपंचगाऽणुगओ गन्तृण गुरुसमीवे, उज्झियसंगो पवज्जइ दिक्खं । संवेगसारमऽणुदिण - मुज्जमइ य धम्मकम्मेसु कालक्कमेण एक्कारसाऽवि, अंगाणि सो अहिज्जेइ । दुक्करतवकरणपरो, विहरइ य महीए वाउ व्य अह पंथगपमुहाणं, पंचन्हं मुणिसयाण सुयसूरी । तं सूरिते ठविडं साहुसहस्सेण परियरिओ विहरिता बहुकालं, पुंडरियमहानगे कयाऽणसणो । असुरसुरविहियपूओ, निव्वाणपयं समणुपत्तो सो पुण सेलगसूरी, तवोविसेसेहिं अरसविरसेहिं । पाणेहिं भोयणेहि य, जातो चम्मऽट्ठिमेत्ततणू गहिओ रोगेहिं पि य, तहाऽवि सत्ताहिओ ति विहरंतो । सेलगपुरे पहुत्तो, समोसढो मिगवणुज्जाणे पीइपडिबन्धेण य मड्डुगो, निवो वन्दणट्टया पत्तो । सोऊण य धम्मकहं, पडिबुद्धो सावगी जातो अह सो सूरिं दट्टु, सरोगमच्चंत किससरीरं च । जंपेड़ अहं भन्ते! अहापवत्तेण तेगिच्छं कामि तुम्ह एसणिय - भत्तपाणोसहाइएणं ति । पडिसुणियं मुणिवड़णा, कारविया तयणु से किरिया अह पगुणीभूयतणू वि, पबलरसगारवाऽऽइपडिबद्धो । सूरी मुणिगुणविमुहो, तत्थेव ट्ठाउमाऽऽरद्धो पंथगवज्जेहिं ततो, परिचत्तो सेसएहिं साहूहिं । अह चउमासगरयणीए, निब्भरं सुहपसुत्तो सो चउमासियाऽइयारं, खामेउं पंथगेण सीसेणं । छिक्को चलणेसु ततो, झति विउद्धो भणति कुद्धो को एस दुरायारो, मं पाएसुं सिरेण घट्टेइ । तेणं भणियं भन्ते!, पंथगनामो अहं साहू खामि चउम्मासिय- मेक्कसि खमह न पुणो इमं काहं । अह संवेगोवगओ, सूरी इय भणिउमाऽऽरद्धो ॥७६॥ रसगारवाऽऽइविसविहय - चेयणो सुटु बोहिओ तुमए । पंथय! ता कयमेत्तो, एत्थाऽवत्थाणसोक्खेण ॥७७॥ अह विहरिउमाऽऽरद्धो, स महप्पा अणिययाए वित्तीए । विहरंतो परियरिओ, पुणरऽवि पोराणसिस्सेहिं ॥७८॥ कालंडतरे य विहुणिय-रयमलो मलियपबलमोहभडो । सेतुंजपव्ययम्मि निव्वाणमऽणुत्तरं पत्तो ॥७९॥ इय दोसगुणे नाउं सीयल - उज्जयविहारचरियाए । अविहारपक्खमाऽऽसज्ज को णु बट्टेज्ज कुसलत्थी ॥८०॥ किंच ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ पडिबन्धो लहुयत्तं, न जणुवयारो न देसविन्नाणं । नाऽऽणाऽऽराहणमेए, दोसा अविहारपक्खम्मि कालाऽऽइदोसओ पुण, न दव्यओ एस कीरइ नियमा । भावेण उ कायव्यो, संथारगवच्चयाऽऽईहिं इय पावकलिलजलविब्भमाए, संवेगरंगसालाए । परिकम्मविहीपामोक्ख - चउमहामूलदाराए आराहणाए पनरस - पडिदारमयस्स पढमदारस्स । अणिययविहारनामं, सत्तमदारं समत्तमिमं “ नृपस्यानियतविहारनामकाष्टमद्वारवर्णनम् ” अणिययविहारचरिया, एसा गिहिसाहुगोयरा भणिया । संपइ नरिंदविसयं, एयं चिय किं पि कित्तेमि जम्हा को वि हु चिरभूरि- सुकयसंभारभाविकल्लाणो । नरनाहो वि य होउं, अच्वंतं पसमरसरसिओ परलोयभीरुचित्तो, सम्मं विसकप्पकलियविसयसुहो । मोक्खसुहबद्धबुद्धी, आराहणकरणमीहेज्जा तस्स सए देसे, जिणिन्दबिंबाई वंदमाणस्स । होज्ज अणिययो विहारो, परदेसे विग्घसम्भावा तहाहि ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५८॥ ॥५९॥ મો ॥६१॥ | करडिघडुब्भडसुहडोह- तुरयरहवूहपरिवुडे तम्मि । परदेसेसु वि तित्थाई, वंदिरं संपयट्टम्मि | रज्जाऽवहारमाऽऽसंकिऊण, पडिनरवई पकुप्पेज्जा । हीरेज्ज व तद्देसो, पडिरिउणा सामिरहिओ त्ति तम्हा भत्ते गुणसंगयम्मि, सत्थइत्थबोहकुसलम्मि । मंतिम्मि रज्जभारं, आरोविय अप्पतुल्लम्मि ૫૬૫ દ્દો ॥६४॥ ॥६५॥ ॥६६॥ ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ ॥८१॥ ॥८२॥ ॥८३॥ ॥८४॥ ॥८५॥ ॥८६॥ ॥८७॥ ॥८८॥ ॥८९॥ usn ॥९१॥ 62 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७॥ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २१६२-२२२८ नृपस्यानियतविहारदृष्टान्तः साहियजेयव्यगणो, सुत्थीकयमण्डलो महाकोसो । नियनियनियोगसुनिउत्त-भत्तिमन्तप्पहाणजणो ॥९२॥ अच्वंतपवरपूया-पुरस्सरं लोकपीडमरेंतो । जिणभवणाई बन्देज्ज, निययदेसे च्चिय नरिंदो ॥९३॥ अह तं अदुट्ठदोघट्ट-घट्टपडिरुद्धरायपहपसरं । सहरिसहरिहेसाऽऽरव-खरखुररवभरियनहविवरं ॥९४॥ पम्मुक्कहक्कपोक्कार-घोरपाइक्कचक्कपरिकिन्नं । पउरसियछत्तछाइय-दिणयरकरपहकराऽऽभोगं ॥९५॥ नियदेसट्ठियजिणभवणाण, पेच्छणं आयरेण कुणमाणं । दटुं धम्मपसंसं, के के मणुया न कुवंति ॥९६॥ के या उत्तमजणपूइयं ति, सोमं ति मोक्खहेउं ति । विमंसिऊण जिणधम्म-मेक्कचित्ता न गेण्हंति ॥९॥ एवं च सो महप्पा, संपाइयपवरधम्मकायव्यो । कइया वि विसयनिंदं, करेइ जिणभणियनीईए ૧ળા कइया वि महामुणिपवर-चरियमेगग्गमाणसो सुणइ । कइया वि मंतिसामन्त-संगओ कुणइ जणचिन्तं ॥१९॥ धम्मविरोहं कइया वि, पेच्छिउं सव्वहा निरंभेइ । कइया वि निययपरियण-मुवउत्तो एवमुल्लवइ ॥२२००॥ हंहो! निउणं पेहह, संसारे सारमत्थि नो किं पि। जं तडिचवलं जीयं, तरंगतरलाओ रिद्धीओ ॥१॥ अवरोप्परपडिबन्धा, बन्धा इव दिन्ति निव्वुई नेव । निच्चपगुणो य मच्चू, निस्सारो वत्थुपरिणामो ॥२॥ कम्मविवागो अच्वंत-भीसणो सोखसंभवो तुच्छो, अस्संखदुक्खकारी, सेविजंतो पमाओ य ॥३॥ दुलहो य मणुस्सभयो, दुलहा सद्धम्मकम्मसामग्गी । नीसेसदोसकारण-अतुच्छमिच्छत्तचागेण तइलोक्कचक्कचमढण-विढतजयकाममल्लमलणखमो । दुलहो देवो भवजलहि-तारगो वीयरागो वि ॥५॥ दुलहा विमुक्कसंगा, गुरुणो सव्यन्नुसासणं दुलहं । लद्धे वि एत्थ धम्म-ज्जमो न जं तं महऽच्छरियं ॥६॥ एवं समीववत्तिण-मडणुसासित्ता जणं स कइया वि । गीयऽत्थे संविग्गे, मुणिवइणो पज्जुवासेड़ ते वि य गम्भीरुत्तीहिं, जुत्तिजुत्ताहिं वागरिन्ति जहा । नरवर! पयईए च्चिय, धीमं तुम्हारिसो पुरिसो ॥८॥ जिणवयणाओ नाउं, निबन्धणं असुहकम्मबन्धस्स । अवराहकरे वि परे, न पउस्सेज्जा मणागं पि ॥ नमिरनरिंदामरमउड-लग्गरयणप्पहापहासिल्लं । चक्कधरसुरपहुत्तं पि, मोक्खकखी न कंरोज्जा ॥१०॥ सारीरमाणसाउणेग-तिवदुक्खोहखोहपउराओ । गुत्तिट्ठिओ व्य मुत्तिं, चिन्तेज्जा पयइभीमभया ॥११॥ दठूण य दुक्खत्ते, तढुक्खाऽऽलिंगिओ ब्व सव्यंगं । क्रुणापहाणचित्तो, दीणाऽऽणाहेऽणुकंपेज्जा ॥१२॥ जीवाऽजीवाइसमत्थ-वत्थुवित्थारमऽवितहं सम्मं । मन्नेज्ज जिणाणाए, सम्मत्तविसुद्धिमिच्छंतो ॥१३॥ कामो कोहो लोहो, हरिसो माणो मओ य इयरूवं । दरियाडरिछक्कमन्तर-मडलद्धपसरं सया कुज्जा. ॥१४॥ सव्वाओ वि किरियाओ, किलिट्ठचित्तस्स होंति विहलाओ । तस्साफल्लकए ता, सया विसुद्धं धरेज्ज मणं ॥१५॥ विसपरिभावियधारा-करालकरवालतच्छियंडगो व्य । संजायइ जीए परो, न तं गिरं कह वि भासेज्जा ॥१६॥ न क्याइ कुलप्पसूओ, सुहलेसविमोहिओ महासत्तो । खणभंगिसरीरेणं, किलिट्ठचेहँ अणुढेज्जा ॥१७॥ तहाचिन्ताऽणंतरसमकाल-मेव संपज्जमाणसयलत्थं । वीरस्स धरापहुणो, रज्जं पि हु भुंजमाणस्स ॥१८॥ धम्माऽभिमुहा चिन्ता, सम्म संवेगभावियमइस्स । संसारसरूवविभा-विरस्स एवंविहा होज्जा ॥१९॥ हद्धी सव्वंगं पि हु, सया वि सावज्जजीविणो मज्झ । संसारसरणकारण-यावारपरायणमणस्स ॥२०॥ | नणु होही तं किंपि हु, भविस्सपरिसं रिऊ व सा काउवि । सो मासो पक्खो वा, तमडहोरत्तं अहव दिवसो॥२१॥ दिवसे वा स महत्तो, तम्मि खणो अहव को वि सो यारो । वारे तां नक्खतं, जत्थाऽहं विइयपरमात्थो ॥२२॥ संकामिऊण पुत्ते, रज्जधुरं धीरपुरिसपन्नतं । सव्वन्नुपणीयाडणाए, पारतंतं परिवहतो ॥२३॥ संवेगगरुयगीयउत्थ-सुकिरियाणं गुरुण पयमूले । पडिवज्जिऊण दिक्खं, निरवेक्खो सव्वसंगेसु ॥२४॥ छट्टअट्ठमदसमदुवालसाऽऽइ-विविहेहिं तवविसेसेहिं । संलिहियऽप्पा तह दव्य-भावसंलेहणविहीए ॥२५॥ योसट्ठचत्तदेहो, निबद्धपउमाऽऽसणो गिरिसिलाए । थाणुमईए परिजुत्त-हरिणक्यकायकंडुयणो ॥२६॥ सव्वाऽऽहारच्चाई, जहट्ठियाऽऽराहणाविहाणेण । पंचनमोक्कारपरो, पाणच्वायं करिस्सामि રા नवरं नो जावऽज्जयि, लभामि पव्यज्जमडक्यपुन्नोऽहं । ता सगिहे च्चिय वसहिं, दाउं सेवेमि मुणिणो त्ति ॥२८॥ 63 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २२२६-२२६४ वसतिदानस्यगुणाः "वसतिदानस्यगुणाः" -. जुत्ता य इमा चिन्ता, विसेसओ वसहिदाणविसयम्मि । जं सेसदाणऽविक्खाए, यसहिदाणं चिय पहाणं ॥२९॥ वसहिअलाभे हि मुणीण, दाउमडणवट्ठियाण न तरंति । अत्ताउणुग्गहहेडं, गिहिणो भत्ता वि भत्ताऽऽई ॥३०॥ न य भेसज्ज न य ओसहं च, नो कंबलं न वत्थं च । फासुयमकयमकारिय-मडणणुमयं नेय पायं पि ॥३१॥ नो पायपुंछणं डंड-गं च मइमन्तयं विणेयं च । सत्थं पोत्थयमऽन्नं पि, साहुजणजोग्गमुवगरणं ॥३२॥ दाउं पारन्ति न सुगुरु-सेवणं नेव तव्ययणसवणं । काउं खमंति के वि हु, भवयासविरत्तचित्ता वि अणिययविहारचरियाए, आगयाणं च जइ न खेत्तम्मि । वसहीलाभो जायड, जईण ता कह ठिती तत ठिइमऽन्तरेण तक्खेत्तजा य, कह उभयलोगसंभविणो । समणाण गिहत्थाण य, पत्तेयं संभवंति गुणा ॥३५॥ तत्थ इहलोइया संजयाण असणाऽऽइलाभपभिईया । परलोयसंभवा पुण, संजमपरिपालणाऽऽईया ॥३६॥ गिहीण उ इहभविया पुण, मुणिसंगाउ कुसंगचागाई । परभविया पुण सद्धम्म-सवणपमुहा गुणाडणेगे ॥३७॥ तह ते सयं न गेहं, कुणन्ति न य कारविंति अन्नेहिं । अणुमन्नंति वि नो पर-कयं पि मणवयणकाएहिं ॥३८॥ जम्हा न सुहुमबायर-छज्जीवनिकायहणणविरहेण । जायइ गिहं कुडीरग-मेतं पि अओ च्चिय पयुत्तं ॥३९॥ अविकत्तिऊण जीये, कत्तो घरसरणगुत्तिसंठप्पं । अवि कप्पिऊण तं तह, पडिओ अस्संजयाण पहे ॥४०॥ अन्नं चजइ तुररवपुरस्सर-मडणेगजणसुगुरुसंघपच्चक्खं । चईय गिहं च करेमि, भन्ते! सामइयं इण्हिं ॥४१॥ सब्बं पि हु सावज्जं, जोगं पच्चक्खिमो उ जाजीयं । तिविहं तिविहेणं ति, महापइन्ना क्या एसा ॥४२॥ ता कह सव्वंगेहिं, छज्जीवनिकायरक्खणेक्कपरं । सक्यपइन्नं मोत्तुं, कुणंति भुणिणो गिहाऽऽइ सयं ॥४३॥ तम्हा अन्नकए च्चिय पारद्धं निट्ठियं च अन्नकए । मणवइकाएहिं सयं अकयमकारियमडह परेहिं ॥४४॥ अणणुमयं च अओ च्चिय, मूलुत्तरगुणजुयं पमाणिल्लं । थीपसुपंडगदुस्सील-वज्जमुज्झियतदाऽऽसन्नं ॥४५॥ सज्झायकालउच्चार-पासवणभूमिसंजुयं गुतं । जइजोग्गं निरवज्ज सेज्जं देज्जा जईण गिही . ॥४६॥ दव्यं नेतं कालं भावं च पडुच्च जइ तहारुवा । नो संपज्जड़ तहवि हु, चिन्तिय सारेतरविभागं ૪ળી सुहुमप्पदोसजुतं, गुरुबहुगुणसंगयं सया वसहिं । देज्ज जईणं न जं ते, तीए विणा संजमायाऽलं ॥४८॥ दुतमऽवि भवजलहिं, सेज्जाए तरइ जेण तद्दाया । सेज्जायरो ति युत्तो, एत्तो च्चिय समयकेऊहिं ॥४९॥ तत्थ ट्ठिया य जइणो, अन्नेहिंतो वि वत्थपत्ताऽऽई । जं पावंति तयं पि हु, दिन्नं प्रमत्थओ तेण ॥५०॥ जइ वि न कहिं पि हु सयं संपन्नं पुव्ववन्नियं ताणं । तह वि हु बसहीदाया, जातो तम्मूलहेउ त्ति ॥५१॥ जं मूलकारणं सो, अह उत्तरकारणाई इयरे उ । सइ मूलंडगे पायं, विसयो किर उत्तरंडगाणं ॥५२॥ बलिए मूलजुयम्मि, जहा तरू लहइ परमवित्थारं । तह वसहिमूलबलिओ, पावड़ पसरं जइजणो वि ॥५३॥ किंचवायरयवासधारा-सीयाऽऽयवमारुओवसग्गाणं । चोराण दुट्ठसावय-गणाण तह दंसमसगाण रक्खमाणो मुणिपुंगवे उ, सगिहम्मि वसहिदाणाओ । ताण मणवयणकाये, कुणइ पसन्ने सयाकालं ॥५५॥ जोगप्पसन्नयाए य, चेव जायइ सुई मई सन्ना । तह निब्बुईसुहं तणु-बलं च सुहझाणबुड्ढीकए ॥५६॥ जम्हा सुमणुन्नाऽऽलय-सयणाऽऽसणभोयणेसु पाएणं । सुमणुन्नझाणझाई, जायति साह ॥५७॥ जस्साऽऽसमम्मि मुणिणो, मुहुत्तमेतं पि विस्समन्ति सो । कयकिच्चो तेणं चिय, किमऽन्नपुन्नेण किर तस्स ॥५८॥ धन्नो तेसिं जम्मो, कुलं च धन्नं सयं पि ते धन्ना । पक्वालियपावमला, सुसाहुणो जाण ठंति गिहे ॥५९॥ जड़ पुण दुगंछिएसु, कुलेसु एयाण जणणमिह हुतं । ता कह जएक्कपुज्जा, ठायंता तग्गिहे मुणिणो ॥६०॥ पुन्नकलियाण गेहेसु, ठन्ति मुणिणो पणट्ठमयमोहा । न कयाइ रयणवुट्ठी, निवडइ पायाण गेहेसु ॥१॥ सो नाम को वि कालो, कलिकलुसवियज्जिओ जियाण भवे । गुणरयणमहानिहिणो, जम्मि गिहे ठंति वरमुणिणो॥६२॥ | सेवा वि दुल्लह च्चिय महाणुभावाण पावनिद्दलणी । छाया वि कप्पतरुणो, पुन्नेहिं विणा न संपडइ ॥३॥ अक्खण्डसंजमधुरं-धराण धीराण धम्मबुद्धीए । मुणिवसभाणं वसहिं, दितेण इमं इमं च कयं ॥४॥ 64 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २२६५-२३०२ वसतिदानस्यगुणाः ॥६५॥ ॥६६॥ ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ ॥७९॥ ॥८०॥ चारितपक्खवाओ गुणाणुरागित्तणं सुधम्मित्तं । सुद्धाण पक्खवाइ-तणं च कित्तीसमुच्छालो संमग्गवुढिकरणं, कुसंगचाइत्तणं सुसंगरई । सगिहंऽगणम्मि कप्प - हुमस्स आरोवणविहाणं कामदुहधेणुगहणं, चिन्तामणिणो य करयले धरणं । निययभवणंऽगणे च्चिय, पहाणरयणायराऽऽणयणं धम्मपवाए दाणं, पियणं अमयस्स पवरनिहिगहणं । सव्वसुहसंचयारो, विजयपडायाए गहणं च परमं च सव्यकामिय- विज्जामन्ताण साहणविहाणं । भवइ य विवेगसंगय-गुणन्नुयापयडणं च कयं तह तस्सुवस्सए संठियाण, साहूण गुणसमिद्धाणं । पायसमीवमुवागम्म, धम्मसवणं कुणंति जणा जं जं च तदाऽऽयन्नण - पच्चागयचेयणा भवियसत्ता । धम्मकिरियासु निच्चं, रमन्ति विविहासु जं च तहा ॥७१॥ पडणीया भद्दत्ते भद्दा उ दयाए जं च जहसतिं । मंसाऽऽसवाइणियमे, अन्ने पुण जं च संमते संपावियसम्मत्ता य, जं परे परमभत्तिसंजुत्ता । मणहरजिगिंदमंदिर - बिंबपइट्ठच्चणाईसु जिणहरजत्ताईसु य, महूसवेसु सया पयट्टंति । जं जं च जिणप्पवयण - प्रभावणापमुहकच्चे य जं उज्जमंति केई, गिलाणसाहम्मियाऽऽइकज्जेसु । जं च जिणाऽऽगमपोत्थय - लिहावणं केई कारिंति जं केड़ देसविरतिं गिण्हंति जं च सव्वविरहं च । जं च विचित्तेसु तवो - कम्मेसु य के वि हु रमंति ॥ ७६ ॥ सव्वाण ताण तेहिं, विहिज्जमाणाण पुन्नहेऊणं । साहूवस्सयदाया, निद्दिट्ठो मूलहेउ ति ॥७७॥ सो च्चिय राया सो चेव, रायमत्थयमणी स थिररज्जो । रज्जे जस्स जड़जणो विहरति अप्पडिहयप्पसरं ॥ ७८ ॥ रज्जे य सेसदेसाण, रायभूओ स चेव देसो वि । उव्वहड़ आरियत्तं, सुसाहुणो जत्थ विहरंति देसे पुण नयरं सेस-नयर सिरसेहरं पवित्तं च । तं चिय चरंति निच्चं, जत्थ गुणड्ढा महामुणिणो नगरे य पाडगो पाव- साडगो जइजणो जहिं वसड़ । सो चिय धन्नो, पुन्नो, सुन्नो अन्नोऽत्ति मन्नेऽहं ॥८१॥ तत्थ पुण जत्थ गीयत्थ- सुत्थियजईण जायए वसही । भवणं तं चिय एक्कं लक्खणपुन्नं खु मन्नेऽहं ॥८२॥ लच्छीए तमाऽऽवासो, तं अरिहं पवररयणवुट्ठीए । वत्थु पुरिसो वि भुवि, तस्स चेव परमत्थओ उदई ॥८३॥ कहमन्नहा मुणीणं, संजम - सिरिपरमरमणभूमीणं । तत्थाऽवत्थाणं पि हु, होज्जा जिणवयणनिरयाणं ॥८४॥ न हु होंति तत्थ दोसा, सिद्धंतुग्घोसणाझुणिगुणेण । खुद्दोवद्दवपमुहा, अब्मुदयाऽऽई य होंति गुणा ॥८५॥ जं रोगऽग्गिपिसाय - ग्गहपभिइयखुद्ददेवजा दोसा । कूरनरतिरियजा वि य, पावा पावाउ पभयंति ॥८६॥ पावस्स य पडिवक्खो, दक्खो नेओ जिणिंदसद्धम्मो । जत्थ पुण तप्पयारो, पाववियारा कुओ तत्थ ॥८७॥ | नहि बलियम्मि सपक्खे, दीसइ पडिवक्खसंभवो पायं । पभयंते सइ मायंड - मंडले तिमिरनियरो व्व इय मोक्खसाहणाऽवंझ - हेउणो नाणदंसणसमग्गा । विविहतवनियमसंजम - सज्झायऽज्झयणझाणाई सद्धम्मगुणा गुणिसेव-गस्स रन्नोऽहवा अमच्चस्स । सेट्ठिस्स सत्थवाहस्स, इब्भपमुहस्स बसहीए अन्नस्स व जस्स परं, अणुग्गहं समणुमन्नमाणस्स । चिट्टंताणं साहूण, निव्वहंति निराबाहं धम्माऽणुभावओ चेव, तस्स दोसा न होंति पावकया । हुंति य सद्धम्मकया, परमब्भुदया, विविहरूवा ॥ ९२ ॥ | अच्यंतऽणुरतकलत - पुत्तसुविणीयपरियणप्पमुहा । चउरंगबलाईया, नियनियपयवीए अणुसरिसा दाउं वसहिमिहभवे, जरंततणकयकुडीरकोणे वि । भवसोक्खनिराकंखीण, मोक्खसोक्खेक्कलक्खाणं साहूण सुविहियाणं, महाणुभावाण परमभत्तीए । चइउं मलाविलं देह-पंजरं अन्नजम्मम्मि मणिमयमहंतभासंत-भित्तिविच्छित्तिचित्तरइजणए । सुविसालसालभंजिय-मत्तालंबाइसयकलिए | नाणामणिघडणुब्भड - थंभसहस्सूसियम्मि रयणयले । अणवरयरयणमणिकंत-किरणभरनिब्भरुज्जोए गयणं डगणसंलग्गऽग्ग-तुंगतोरणमणाभिरामिल्ले । धुव्यंतधवलधयवड - मालाक लिए परमरम्मे आएसाऽणंतरतुर-माणअणुरतकिंकरसुरड्ढे । ललमाणजणियनयण-च्छणऽच्छराजणसमाइन्ने | वरयणकणगमणिमय-सयणाऽऽसणछत्तचमरभिंगारे । तह पंचवन्नमणिरयण - कुसुमदेवंऽसुयसमिद्धे चिंताऽणंतरसमकाल- संमिलंताऽणुकूलसयलऽत्थे । सव्युत्तमे विमाणे, जायति देवो महिड्ढिओ ततो य चुओ संतो, उदग्गसोहग्गरूवधारी य । जणमणनयणाऽऽणंदी, निरुवक्कमदीहनिरुयाऽऽऊ ॥८८॥ ॥८९॥ ॥९०॥ ॥९१॥ ॥९३॥ ॥९४॥ 65 ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९७॥ ॥९८॥ ॥९९॥ ॥२३००॥ ॥१॥ m Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २३०३-२३३६ वसतिदाने ताराचन्दकुरुचन्दयोःदृष्टान्तः लायन्नपुन्नगत्तो, बंदियणुग्घुस्समाणगुणनिवहो । मणिकणगरयणसयणा-सणवपासायतलललणो ॥३॥ संपज्जमाणमाणस-समीहियडत्थो महाविभूइल्लो । सव्वाऽइसयनिहाणं, दिसि दिसि पसरंतजसपसरो ૪ો पुन्नाऽणुंबंधिपुन्नो, अखंडछक्खंडभरहभोत्ता य । होज्जेह चक्कवट्टी, राया वाऽखंडमंडलिओ ॥५॥ तदमच्चो वा सेट्ठी, सत्थाहो या महिन्मपुत्तो या । संपाविऊण परमे, चारित्तगुणे ततो धन्नो तेणेव भवेणं सो, तिहिं सत्तहिं वा भवेहिं नियमेणं । काऊणं कम्मखयं, खिप्पं मोक्खं पि पाउणइ ॥७॥ इय भावसारवसही-दाणेण नरिंदपुन्नमऽकलंकं । वंछियपूरणपवणं, जं जायइ तं किमडच्छरियं अच्छरियं पुण तं जं, उवरोहेणाऽवि वसहिदाणाओ । अणवरयसाहुदसण-ईसिं पडिबन्धभावेण ॥९॥ अहमगइमुवगओ वि हु, पमायमयमोहिओ वि मुद्धो वि । पडिबुद्धो कुरुचंदो, जाई सरिऊण सयमेव ॥१०॥ तहाहि ____ “वसतिदाने ताराचन्दकुरुचन्दयोःदृष्टान्तः" कुलभवणं व सिरीए, अच्छरियाणं पि जम्मभूमि व्य । विज्जाणमागरो इय, सावत्थी, नाम आसि पुरी ॥११॥ तत्थ य नमतपत्थिव-सिररयणपहापहासिपयजयलो । नामेणाडाइवराहो भवणपसिद्धो महीनाहो ॥१२ तस्स य अप्पडिमगुणो, वेणं यम्महो व्य पच्चक्खो । समरंगणरणपरिहत्थ-याए जिण्हु व्य विण्हु व्य ॥१३॥ ताराचंदो नामेण, अत्तओ रायलखणाऽणुगतो । नियजीयनिव्विसेसो, कुरुचंदो नाम से मित्तो ॥१४॥ अह सो ताराचंदो, जुवरायपयप्पयाणकामेण । इयरकुमारेहितो, सविसेसं पहिओ रन्ना ॥१५॥ अह निवसिणिद्धसवियास-चक्नुविक्वेयगोयरीभूयं । दटुं सवत्तिजणणीए, रायसन्निहिनिसन्नाए ॥१६॥ निययसुयरज्जविग्धं, विभाययंतीए निहुयमेगते । भक्वविमिस्सं कम्मण-मुवणीयं तस्स हणणट्ठा ॥१७॥ अविगप्पिऊण तेण य, उवभुतं अह तदुत्थदोसेण । रुवबलंडगविणासी, पाउब्भूओ महावाही ॥१८॥ तेण य विहुरमडसारं, दुगुंछणिज्जं च पेच्छिय सरीरं । अच्चतसोगपत्थो, ताराचंदो विचिंतेइ ॥१९॥ अधणाण गरुयरोगाउडउराण, नियसयणपरिहवहयाण । मरणमहवडन्नदेसे, गमणं जुज्जइ सुपुरिसाण રો |ता एत्थ निवसिउं में, खणं पि न खमं विणट्ठदेहस्स । खलसविलासऽद्धच्छीहिं, निच्वं पेच्छिज्जमाणस्स ॥२१॥ तो रयणीए अनियेइऊण, नियपरियणस्स यि 'सवत्तं । गंतुं जया पयट्टो, पुव्यदिसाहुत्तमेगागी अच्चंतं विमणमणो, सणियं सणियं कमेण गच्छंतो । अन्नडन्ननगाडगरनगर-गामनियरं च पेच्छंतो ॥२३॥ सम्मेयमहागिरिपरि-सरम्मि पत्तो पुरम्मि एगम्मि । लोगो य पुच्छिओ तत्थ, को गिरि भन्नइ इमो ति ॥२४॥ लोगेण जंपियं मुद्ध!, दूरदेसाऽऽगयत्तणेण इमं । रविमिव सुविस्सुयं पि हु, जइ पुच्छसि ता निसामेसु ॥२५॥ सम्मेयमहागिरिराउ एहु!, जहिं जिणसमूह परिचत्तदेहु । निव्वाणह पत्तु सुरासुरेहिं, थुव्वंतु भत्तिभरनिब्भरेहिं ॥२६॥ पवणुल्लसंततरुपल्लवेहिं, सव्वायरेण नावइ करेहिं । आराहणत्थु पहि इन्त भव्य, जो विहगरवेहिं निमंतइ व्य॥२०॥ नासम्गनिवेसियचक्नुलक्खु, थेवं पि देहसोक्खाणडवेक्नु । एगग्गचित्तु निविग्घु जित्थु, परमक्खरु झायइ जोगिसत्थु॥२८॥ भूमिगुणेण जहिं मुक्कवेर, कीलंति दुट्ठसत्ता वि पउर । मुद्धा वि जेत्थु कयपाणचाय, देवत्तणु पावहिं गयविसाय ॥२९॥ | अइरम्मयगुणरंजिय, पडिभयवज्जिय; विलसहिं जहिं किन्नरमिहुण । | सब्बोउयकुसुमसमुद्धर, फलभरमणहर; चाउद्दिसि छज्जति वण રે एवं निसामिऊणं, अच्वंतं जायचित्तपरितोसो । सो देहं चइउमणो, चलितो तित्थं ति काऊण ॥३१॥ गयणग्गलग्गदीहर-करालसिहरोवरुद्धदिसिपसरं । अह उवउत्तो सम्म, सणियं सणियं तमाऽऽरुढो ॥३२॥ कयकचरणविसुद्धी, सरसिरुहाई गहाय सरसीओ । अंसुयसंजमियमुहो, अजियाऽऽईणं जिणिंदाणं ॥३३॥ मणिरयणभासुराणं, पडिमाणं कंतिसलिलधोयाणं । फालियसिद्धसिलाण य, पूयापभारमुवरयइ ॥३४॥ जिणपायपूयसुहसिद्ध-खेत्तगुणवड्ढमाणसुहभायो । आणन्दसंदिरऽच्छो, थुई च इय काउमाऽऽढतो ॥३५॥ इह निहणियमोहा-डणंतकालप्परुढं । पबलजणणमच्चू-वेल्लिमुल्लूरिऊणं । दरिसियसिवमग्गा, जे गया सिद्धिवासं । सिवमऽयलमडणंतं, ते जिणिंदा जयंति ॥३६॥ 1. स्ववार्ताम् । 2. इव । 3. पावहिं = प्राप्नुवन्ति। (गाथा नं. ३६-३७ निर्णयसागर प्रेस में प्रकाशित प्रत में तीन गाथा के रूप में है।) 66 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २३३७-२३७१ वसतिदाने ताराचन्दकुरुचन्दयो दृष्टान्तः पयपणइपभावे-णंपि जेसिं असेस-प्पवरसुहसणाहा हुंति लीलाए भव्या । निययकरयलं वा-उडलोइयाडलोयलोया, तिहुयणजणपुज्जा ते जिणिन्दा जयंति ॥३७॥ इय थोऊण जिणिंदे-समुच्चगिरिसिहरमऽवरमारुहइ । रोगघुणजज्जरं देह-मुज्झिउं जाव परितुट्ठो ૨૮ના ताव सरइंदुसुंदर-पसरंतुद्दामकंतिपब्भारं । सीलंडगभरक्कंतं य, दूरमोणपियकायलयं ॥३९॥ हेट्ठामुहलंबियदीह-बाहुकरनहमऊहरज्जूहिं । नरयावडनिवडियपाणि-लोयमाऽऽगरिसयंत व ૪૦ | अमराचलनिच्वलचलण-अंगुलीविमलकंतिनहमिसओ। खंतिपमोकखं दसविह-मणिधम्म पिव पयासंतं ॥४१॥ फालिहमणिरुड़रप्पह-गिरिकंदरसंठियं सुदित्ततणुं । साहं उस्सग्गगयं, पेच्छड़ सुहनिवहभूमि व ૪૨ सवसं चिय मरणं मह, ताव मुणिंदं इमं नमसामि । इति चिंतिऊण संभम-भरियडच्छो नमइ सो साहुं ॥४३॥ नमिऊण भत्तिसारं, रूयं जा नियइ विम्हइयचित्तो । ता विज्जाहरमिहुणं, गयणयलाओ समोयरियं ॥४४॥ हरिसवसवियसियऽच्छं पडियं चलणुप्पलम्मि से मुणिणो । गुणसंथवं च काउं, निसन्नमडमले महीपट्टे ॥४५॥ ताराचंदेण ततो, भणियं इह भे कुओ समागमणं । केण व कज्जेण ततो, युत्तं विज्जाहरेण इमं ॥४६॥ विज्जाहरसेणीओ, पहुणो एयस्स बंदणनिमित्तं । भणियं ताराचंदेण, भद्द! को एस मुणिसीहो ॥४७॥ परिचत्ताऽऽभरणो वि हु, दिव्यालंकारभूसियंडगो व्य । लखिज्जइ मणुओ वि हु, अमणुयमाहप्पकलिओ व्य॥४८॥ अह ख्यरेण हरिसूसियेण, अच्वपयत्तेण पुच्छिएण । पडिभणिउ निसुणि बहुगुणसणाहु, विज्जाहरसेणीहि एहु नाहु ॥४९॥ जरजम्ममरणरणरणयभीमु, सयमेव मुणिवि भवदुहु असीमु । रज्जम्मि ठवेविणु निययपुत्तु, सुस्समणु जाउ समसत्तुमित्तु॥५०॥ सा रायलच्छी अच्वंतभत्त, जिं लीलई खलमहिल व चत्त । जसु अज्ज वि विरहहुयासतत्तु, अंतेउरु विरमति नो रुयंतु ॥५१॥ पन्नत्तिपमोक्खपहाणविज्ज, दासि व्य जस्सु कज्जेसु सज्ज । चिरु वढिय नट्टिय जेम्व कित्ति, तइलोक्करंगि नच्चिय सुदित्ति ॥५२॥ तवसत्तिए जायअणेगलद्धि, जसु अणुयम रेहइ सुहसमिद्धि । जो कुणइ अखंडिउ मासखवणु, तसु तुल्लु होउ धरणीए कवणु ॥५३॥ एरिसगुणजुतउ, भवह विरतउ; चारित्तुतमरयणनिहि । एहु मुणहि मुणीसरु, पणयनरेसरु; निरुवमकरुणाऽमयरसजलहि॥५४॥ इय जंपिऊण विरए, खयरे रोमंचकंचुइयकाओ । ताराचंदो भत्तीए, तं मुणिं पणमइ पुणो वि ॥५५॥ अह तस्स तणुं गुरुरोग-जज्जरं पेच्छिउं भणइ खयरो । हंहो महायस! तुमं, न कीस एयस्स वरमुणिणो ॥५६॥ कप्पतरुकिसलयसमं, पयजुयलं नणु परामुसित्ताणं । अवणेसि रोगमेयं, अणप्पमाहप्पगुणनिहिणो ॥५५॥ एवं वुत्तो परम-प्पमोयलच्छिं समुव्वहंतो सो । परिमुसइ महामुणिणो, पयपंक्यमुत्तमंगेण ॥५८॥ अह मुणिमाहप्पेणं, तक्खणमेव य पणट्ठचिररोगो । अब्भहियसुरुवतणू, ताराचंदो दढं जातो ॥५९॥ परमपरितोससारं, तद्दियहुवलद्धजीवियव्यं व । अप्पाणं मन्नंतो य, थोउमेवं समाढतो ॥६०॥ जय निज्जियकुसुमाउह!, वज्जियसावज्जपडिबंध! । अंगीकयसंजमभर!, समाहिनिग्गहियमोहगह! ॥६१॥ सुरविज्जाहरवंदिय!, रागमहाकरिविणासवरनहर! । हरिणच्छिसुतिखकडक्ख-बाणलक्खेहि वि अखुद्ध! ॥२॥ तिव्यदुहजलणसंतत्त-सत्तपीऊसरिससंकास! । कासकुसुमप्पगासु-च्छलतजसधवलियदियंत! कलिकालुब्भडपसरंत-धंतहीरंतसिवपहपईय! । निस्सामन्नमहागुण-रयणोहनिहाण! जयसि तुमं ૬૪ रोगाऽऽउरंगचागत्थ-मित्थ मज्झागमो वि धुवमिण्हिं । सहलो जाओ तुह नाह!, पायपंक्यपभावेण ॥६५॥ ता एत्तो जयबंधव!, माया जणगो य बंधयो सयणो । तुममेवेक्को मुणिवर!, आइससु मए जमिह किच्वं ॥६६॥ अह मुणिवइणा जोग्गो ति, कलिय पाराविऊण उस्सग्गं । सम्मत्तुत्तममूलो, पंचाणुव्ययमहाखंधो ॥६॥ तिगुणव्ययसाहालो, चउसिक्खावयमहंतपडिसाहो । बहुनियमकुसुमकिन्नो, जससोरभभरियदिसिनियहो ॥६॥ सुरमणुयरिद्धिफलपडल-मणहरो पावतावपसरहरे । उवइट्ठो तस्स जिणिंद-कहियसद्धम्मकल्पतरू ॥६९॥ अच्वंतसुद्धसद्धा-वेरग्गविलग्गतिव्वभावेण । सद्दहणनाणसारं, जहोचियं तेण य पवन्नो ॥७॥ पडिबोहिऊण एवं, ताराचंद पुणो वि मुणिवसभो । मुक्छेकबद्धलक्खो, काउस्सग्गे ठिओ थिमिओ ॥१॥ ॥६३॥ 67 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसतिदाने ताराचन्दकुरुचन्दयोः दृष्टान्तः ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७५॥ | दिन्ना भणितो य इमं, अहो महाभाग ! तुममिमं भोतुं । विसकम्मणाऽऽइभोगे वि, निब्भओ भमसु निस्संकं ॥ ७४ ॥ गहिया ताराचंदेण, सायरं तयणु खयरमिहुणम्मि । गयणयलं उप्पइए, सा उवभुत्ता पहिट्टेण ओयरिओ सेलाओ, पगुणसरीरो कमेण गच्छन्तो । पुव्वमहोयहितीरे, रयणपुरं नयरमऽणुपत्तो | अइकसिणकंतकुंतल - कलावरेहंतसीसमऽइरूइरं । रूवजियकुसुमविसिहं, दट्ठूणं तं च गणियाए ॥७६॥ ॥७७॥ ॥८०॥ | रूवाऽऽगरिसिवहिययाए, मयणमंजूसनामधेयाए । भणिया जणणी अम्मो!, जइ पुरिसमिमं न आणेसि ॥७८॥ ता जीवियव्यमुज्झामि निच्छियं मा करेज्जसु विगप्पं । इय भणिए अत्ताए, रायसुओ आणीओ सगिहे ॥७९॥ | न्हाणविलेवणभोयण-पमुहपडिवत्तिपुव्यमऽह तत्थ । वुत्थो तीए सद्धि, सुचिरं सो निययगेहि व्य नवरं अत्ता जंपड़ आ पाये मुद्धि मयणमंजूसे! । समणं व निद्धणं धरसि, कीस एयं तुमं पहियं ॥८१॥ पणरमणीणं वच्छे, कुलक्कमो एस जं न धणहीणो । कामिज्जइ वज्जहरो वि, अहव मीणज्झओ वि सयं ॥८२॥ धूयाए जंपियं अम्म!, तुज्झ पायप्पसायओ होही । आसत्तयेणियं धण-मिमं पि किं काहिसि परेण દા अह निठुरेहिं वयणेहिं, तज्जिया वारिया य सा बहुसो । जा नेव तं विमुंचति, अत्ताए चिन्तियं ताव ॥८४॥ एयम्मि जीवंते पडिवज्जइ मज्झा नेव वयणमिमा । ता उग्गविसं दाउं, हणामि निहुयं ठियाऽहमिमं ॥८५॥ तो एगम्मि अवसरे, उग्गविसुम्मिस्सचुन्नयसणाहो । तंबोलबीडगो से, उवणीओ तीए पणएण ॥८६॥ गहिओ ताराचन्देण भक्खिओ वि य वियप्परहिएण । जाओ य विसवियारो, न पुव्यगुलियाऽणुभावेण ॥८७॥ हा ! कह विसप्पओगे वि, नो मओ एस संपयं पावो । इइ तीए जीयहरणं, पुणो वि से कम्मणं दिन्नं ॥८८॥ | तेणाऽवि तस्स गुलियाऽणु-भावओ नो अहेसि जियनासो । अवि अहिययरी आरोग्ग- रूवलच्छी पवित्थरिया ॥ ८९ ॥ | वज्जाऽऽहय व्य मुसिय व्य, सयणदूरुज्झिय व्य सा तत्तो । करपल्हत्थियवयणा, सोगं काउं समादत्ता ॥९०॥ भणिया ताराचन्देण, अम्म! तं कीस अज्ज कसिणमुही । पेच्छिज्जसि पढमसमुब्भ-वंतघणपाउससिरि व्य ॥९१॥ तीए भणियं हे वच्छ!, तेण कहिएण को गुणो होही । हियमऽवि सुजुत्तियं पि हु, जं काउं नेव सक्किहसि ॥९२॥ तेणं पयंपियं अम्म!, कहसु काहामऽहं तुहं वयणं । तीए युत्तं पुत्तय!, जइ एवं ता निसामेहि ॥९३॥ सुविसिट्ठलक्खणधरो, रूवी सुगुणो मणोरमसरीरो । तं वच्छ! विसयगिद्धीए, निहणमऽचिरेण पाविहसि ॥९४॥ जं वायामं न करेसि, नेव उवविससि सिट्ठगोट्ठीसु । देवभवणाऽऽसमेसु य, न कयाइ वि जं च परिभमसि ॥ ९५ ॥ अच्छिन्नविसययंछाए, वच्छ! गच्छति हरी वि मच्चुमुहं । किं पुण तुमं सरोरुह - मुणालदलकोमलसरीरो ॥९६॥ | दुल्लहलंभं पि हु वत्थु - मज्वरमिह संघडेज्ज विहिजोगा । पुरिसरयणाण तुम्हारि-साण कत्तो पुणो घडणा ॥९७॥ ता वच्छ! अहं एयाए, चेव चिंताए सोगसंतता । पइदियहहीयमाणं, दटुं तुममेव वट्टामि सच्छसहावत्तणओ, ताराचंदेण पडिसुयमिमं च । नवरं रहम्मि इयरीए, कचडमेयं ति सिहं से अह पुव्यट्ठिईए पड़ - दिणं पि वट्टंतयम्मि सा तम्मि । चिंतेइ विसाईण वि, अगोयरो एस पाविट्ठो ॥२४००॥ जड़ सत्थेण हणिज्जइ, एसो ता मरइ नूण धूया वि । अहह पडियाररहियं, केरिसगं वसणमाऽऽवडियं ॥१॥ इय सोगाऽऽउलहियया, गिहम्मि ठाउं अपारयंती सा । चेडीहिं परिवुडा नयर-परिसरं निग्गया दट्ठ nu पेच्छंती य जहिच्छं, इओ तओ जलहितीरमऽणुपत्ता । दिट्ठं च तत्थ देसं-तराऽऽगयं तीए बोहित्थं पुट्ठो तव्यासिजणो, कत्तो इममाऽऽगयं क्या जाही । तेणं वृत्तं दूराओ आगयं अज्ज निसि जाही एवं भणिए तीए वि, चिन्तियं होउ सेसचिंताहिं । इह सो आरोविज्जउ, निसाए अइनिब्भरपसुत्तो बच्चइ य दूरदेसंत - रम्मि जह तह पुणो वि न बलेज्ज । एवं च कए धूया वि, मज्झ नो जीवियं चड़ही ॥६॥ अह जाणवत्तनाहो, एगंते तीए भासिओ एवं । पुत्तसमेया अहयं, तुमए सह आगमिस्सामि तेणं पयंपियं अम्ब!, जड़ तुमं इच्छसे समागन्तुं । ता मज्झरत्तसमए, अज्जं नावं सरेज्जासि पडियन्नं तीए गया य, मंदिरे आगए य निसिमज्झे । निब्भरनिद्दासुतो, ताराचंदो ससयणिज्जे un ॥९९॥ mn ॥४॥ ॥५॥ ॥७॥ ॥८॥ usu संवेगरंगशाला श्लोक नं. २३७२-२४०६ तो विज्जाहरमिहुणं, ताराचंदो य झाणविग्घो ति । बाहिं नीहरियाई, सप्पणयं पणमिउं साहुं | साहम्मिओ त्ति संजाय - पणयभावेण तेण खयरेण । ताराचंदस्स विसाऽऽइ-दोसविद्धंसणी गुलिया 68 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २४१०-२४४६ वसतिदाने ताराचन्दकुरुचन्दयोःदृष्टान्तः धूयाए पसुताए, सणियं चेडीहिं उक्विविय नीओ । नावाए एगदेसे, सेज्जारुढो च्चिय विमुक्को ॥१०॥ भणिओ य तीए नावाए, नायगो एस मज्झ पुतो ति । एसा अहं पि एतो, तुममेक्को अम्ह सत्थाहो ॥११॥ आमं ति जाणनाहेण, जंपिए भूरिकवडभरिया सा । तज्जणदिद्धिं वंचिय, जहाऽऽगयं लहु पडिनियत्ता ॥१२॥ | मुक्कं च जाणवतं, वज्जंताऽऽउज्जघोररसिएण । बुद्धो ताराचंदो य, संभमुभंतनयणपुडो ॥१३॥ किं एयं को देसो, कत्थाऽहं को व मम इह सहाओ । इय चिंतन्तो जा नियइ, ताव पेच्छइ महाजलहिं॥१४॥ अच्वंतचंडकोदंड-मुक्ककंडं व सिग्घवेगेण । आपरियसियवडयं, गच्छंतं जाणवत्तं पि ॥१५॥ विम्हियमणो य चिन्तइ, छायाखेड्डे व इंदजालं य । अविभावणिज्जरूयं, किमिव ममाडवडियमिममडहवा॥१६॥ चिंताऽइक्कंतमध्ययण-गोयरं विहलपुरिसयावारं । अघडंतघडणरइणो, हयविहिणो विलसियं किं पि ॥१७॥ ता होउमिण्हि एयं पि, किं पि किं एत्थ विहलचिन्ताए । इति भाविऊण पुणरवि, सुतो सेज्जाए निच्चिन्तो॥१८॥ अह उग्गमंतरविमंडलम्मि, अत्ताए विलसियं नाउं । सुपसन्नवयणकमलो, सेज्जाए समुट्ठिओ संतो ॥१९॥ नावाहिवेण चिररूढ-गाढपणएण बालमित्तेण । कुरुचंदेणं दिट्ठो, झडत्ति तह पच्चभिन्नाओ ॥२०॥ आलिंगिऊण गाढं, ससंभमं पुच्छिओ य सो तेण । अच्छरियमिमं कतो, ययंस! तुह एत्थ आगमणं ॥२१॥ कत्थ व एत्तियकालं, सावत्थीओ विणिक्वमित्ताणं । भमिओ सि कह व संपड़, पुणन्नवंगो तुमं जातो ॥२२॥ ताराचन्देण ततो, ता नपरीनिग्गमाओ आरभ । कहिओ से युत्तंतो, जाय निसंते पबुद्धो ति ॥२३॥ कुरुचन्देण वि सिट्ठो, अत्ताए वइयरो समग्गो वि । तो नायतप्पवंचो, ताराचन्दो विचिन्तेड़ રા अन्नं जपंति कुणंति, अन्नमऽन्नं नियन्ति ससिणेहं । नेहरहिया विकामिति, अन्नमित्थीण थी! चरियं ॥२५॥ मायंगाण वि गंडं, जाओ चुंबंति दाणलोभेण । भभरीओ विव जुबईण, ताण किं एत्थ वयणिज्जं ॥२६॥ अहवा गिरिसिरनिवडंत-सरियकल्लोलचंचलमणाण । कवडकुडीणं रामाण, नूण एसो च्चिय सहायो ॥२७॥ इइ चिन्तिऊण भणियं, हंहो कुरुचन्द! कहसु नियवत्तं । किं एत्थ तुहाउगमणं, गमणं च पुणो कहिं होही॥२८॥ कह या ताओ, निवसति, अवि कुसलं सयलरायचक्कस्स । सुत्था सावत्थी यि य सगामपुरजणवया धणियं॥२९॥ कुरुचन्देणं भणियं, रायाऽऽएसेण एत्थ रयणपुरे । आओम्हि संपयं पुण, सावत्थीए गमिस्सामि ॥३०॥ कुसलं च रायचक्कस्स तह य नयरीए जणवयजुयाए । तुह गाढविरहदुहियं, एक्कं मोतुं महीनाहं ॥३१॥ जदियहाओ तं निग्गओ सि, तत्तो वि पेसिया पुरिसा । सव्वदिसासु रन्ना तुज्झ पउत्तीए लहणउत्थं · ॥३२॥ |ता रयणपुराऽऽगमणं, जायं मे बहुफलं महाभाग! । जं लद्धो तुममिण्हिं, पुन्नेणाऽतक्कियाऽऽगमणो ॥३३॥ इओ यताराचन्दं सयणे, पडिबुज्झिय झत्ति मयणमंजूसा । अनियंती हा पिययम!, कहिं सि इति जंपिरी जाव॥३४॥ रोविउमाऽऽरद्धा! ताय, तीए अत्ताए रयणडलंकारं । अवहरिऊणं भणिया, अच्छिन्नं रुयसि किं वच्छे! ॥३५॥ तीए कहियं पेच्छामि, एत्थ नो हिययवल्लभं अम्मो! । तो कवडेण पलोइय, सबाहिरडब्भंतरं गेहं ॥३६॥ अत्ताए आउलाए, युत्तं सो वि हुन रयणडलंकारो । दीसइ मन्ने तं गिहि-ऊण सो अज्ज नट्ठो ति ॥३७॥ आ पाविट्ठि! सुमुट्ठाऽसि, तेण जोग्गाऽसि एत्तियस्स तुमं । जा वारिया वि बहुसो, अणुरत्ता निद्धाणे पहिए॥३८॥ एमाइ पवंचपहाण-ययणनिवहेण तज्जिया तीए । तह सा जह जायभया, सहसा मोणं समल्लीणा ॥३९॥ एत्तो य जलहिपारे, पत्ता नावा समुज्झिउं तं च । कुरुचंदेण समेओ, ताराचन्दो रहारुढो ॥४०॥ वच्चता कालण, पत्तो सावत्थीनयरीबाहिम्मि । जाणियतदागमेणं, पिउणा य पवेसिओ गेहे ॥४१॥ पट्टो नियवृत्तंतं कहिओ सयलो वि से कुमारेण । तट्रेण तओ रन्ना, ओ अमच्चो उ करुचन्दो ॥४२॥ सुपसत्थवासरम्मि, ताराचन्दो निवेसिओ रज्जे । सयमऽवि कयपव्यज्जो, मरिऊण सुरालयं पत्तो ॥४३॥ पउररहजोहयारण-तुरंगवड्ढंतकोसकोट्ठारो । राया ताराचन्दो, निरवज्जं रज्जमडणुहवड़ ॥४४॥ चारणमुणिपुंगवकहिय-धम्ममेगग्गमाणसो कुणइ । अच्चन्तभावसारं, पूयइ य जिणिंदबिंबाई ॥४५॥ अह एगम्मि अवसरे, बहुस्सुया सूरिणो विजयसेणा । अणिययविहारवित्तीए, आगया तत्थ विहरंता ॥४६॥ 69 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २४४७-२४८३ वसतिदाने ताराचन्दकुरुचन्दयो दृष्टान्तः महईए विभूईए, ताराचन्देण वंदिया ते य । दिन्ना वसही सगिहे, सविसेसं धम्मसवणट्ठा ॥४७॥ तो अणवरयं नयभंग-संगयं बहुवियारभारसहं । जुत्तीहिं अविरुद्धं, सिद्धंतमविस्सम सुणइ ૪૮ળી इय अणवरयं समयं, सुणमाणेणं सया वि नवइणा । संलेहणाऽवसाणो, मुणिओ गिहिधम्मपरमत्थो ॥४९॥ पडिबुद्धा अन्ने वि य, तन्नयरिनिवासिणो बहुलोगा । सद्धम्मविमुहचित्तं, एक्कं मोत्तूण कुरुचन्दं ॥५०॥ तं च तहाविहमवलोइऊण, रन्ना विचिन्तिमिमस्स । नो उवगारो जातो, मए समं धम्मसवणेऽपि ॥५१॥ जइ पुण गेहसमीचे, ठिएहिं सूरीहिं होज्ज धम्ममई । एयस्स पड़खणं चिय, मुणिकिरियाउडलोयणवसेण ॥५२॥ ताहे वाहरिऊणं, कुरुचन्दो भासिओ नरिंदेण । हंभो देवाणुप्पिय!, जंगमतित्थं इमे गुरुणो ॥५३॥ ता एयाणं नियमन्दिरम्मि, थीपसुविवज्जिए देहि । वसहिं तयणु निसामेहि, धम्ममऽरिहंतपन्नतं ॥५४॥ धम्मो च्चिय दोग्गइमज्ज-माणमाणवसमुद्धरणधीरो । सग्गाऽपवग्गसुहफल-संपाडणकप्पविडवी य ॥५५॥ सेसं पुण खणभंगुर-मसारमच्वन्तमाऽऽहिजणगं च । पियपुत्तमित्तधणदेह-पमुहमेगंतसो मुणसु ॥५६॥ इय भणिए नरवडणा, कुरुचन्दो धम्मकम्मविमुहो वि । उवरोहेणं सगिहे, उवस्सयं देइ सूरीणं ॥५ ॥ गुरुणो धम्मुवएसे, सुणेइ पेच्छइ य विविहतवनिरयं । ईसिं पडिबन्धबंधुर-हियओ निच्वं तवस्सिजणं ॥५८॥ तह वि हु न भावसारं पडिवज्जइ वीयरायसद्धम्मं । कम्मगरुयाण किं या, रेज्ज सुगुरूण संजोगो ॥५९॥ अह कप्पसमतीए, ठाणंडतरमुवगएसु सूरीसु । ताराचन्दो राया, अहिगयजिणसमयसब्भावो ॥६०॥ कारियजिणिन्दभवणो, जतापूयाऽऽइकरणनिरयमणो । अणुकंपादाणाऽऽईसु, जहाविहाणेण वटैतो ६१॥ गेहसमीवनिवेसिय-पोसहसालाए पोसहुज्जुत्तो । अट्ठमीचउद्दसीसु, अन्नेसु य धम्मदियहेसु ॥६२॥ पासं पिव गिहवासं, कप्पिंतो पावलोयपरिहारी । पवरुत्तरोत्तरगुणेसु, चित्तवित्तिं ठवितो य ॥६३॥ बाहिरवित्तीए च्चिय चिन्तन्तो रज्जरट्ठवावारं । सच्चरिएसु पयर्ट्स, अणुमोयंतो य धम्मिजणं ૬૪ आराहणाऽभिलासी, निम्मलपरिणामसंगओ सो य । मरिऊण अच्चुए दिव्य-देवरिद्धिं समणुपत्तो ॥६५॥ कुरुचन्दो वि तहाविह-धम्मविहिवज्जिओ पमाई य । अट्टज्झाणोयगओ, मरिउं तिरिएसु उववन्नो ૬૬ तत्तो उव्यट्टिता, महाडवीए पुलिंदगो जातो । सत्थेण समं समणे, वच्चंते पेच्छिउं तत्थ ॥६ ॥ एगंतनिलुक्केणं, तेणेरिसगा पुरा मया के वि । आसी दिट्ठ त्ति विचिन्ति-रेण सरिओ सपुव्वभयो ॥६८॥ संभरिया य महागुण-मणिनिहिणो सगिहे वि धारिया मुणिणो । तेहिं पुणरुत्तदिन्ना, सरिया धम्मोवएसा वि॥६९॥ तो चिन्तिउं पवत्तो, महाणुभावेहिं तेहिं तइयाऽहं । सासिज्जन्तो वि तहा, थम्मुज्जोगं न पडिवन्नो ॥७॥ जइ वि हु महाणुभावेण, राइणा ठाविया मह गिहम्मि । गुरुणो उवयारउट्ठा, उवयारो तह वि नो जातो ॥७१॥ | गुरुकम्मणो कहं मह, एत्तो होही सुधम्मसामग्गी । अहवा किमडणेण विचिन्ति-एण एवं ठितो वि लहुं ॥७२॥ काऊण अणसणं सास-णं च धरिउं मणम्मि जयगुरुणो । झायंतो ते च्चिय सरि-णो वि साहेमि नियकज्ज॥७३॥ इय निक्कलंकसम्मत्त-संगतो उज्झिऊण आहारं । कुरुचन्दो सोहम्मे, मरिउं देवत्तमऽणुपत्तो ॥७४॥ एवं वसहिपयाणं, उवरोहकयं पि जणइ कल्लाणं । पाएण परभवम्मि वि, दंसियकुरुचन्दनाएणं ॥७५॥ ता सव्वसंगरहियाण, तियसमहियाण जयजियहियाणं । साहूण वसहिवियरण-परंमुहो कह बुहो होज्ज ॥६॥ | किंचसाहूण वसहिदाणे, तब्बहुमाणा विसुद्धिभावेणं । अकलंकचरणसेवा, कम्मखओ निब्बुई य भवे ॥७७॥ तहासोम्ममणिदंसणेणं, केई तद्धम्मदेसणाए परे । तक्कयदक्करकिरियं, दटठणडन्ने पबज्झन्ति ॥७८॥ | बुद्धा अन्ने पडिबोहयंति, कारिन्ति चेइयघराई । साहम्मियवच्छल्लं, रेन्ति साहूण विहिदाणं ॥७९॥ | एवं तित्थविवड्ढी, थिरया सेहाण तित्थवन्नो य । जीवाणमऽभयदाणं, तम्हा एयम्मि जइयव्यं ૮૦ एवं सुगुरुसमीवा-दाऽऽयन्निय भूवई विसिट्टेसु । वडेज्जा किच्चेसुं, निच्चं पि कयं पसंगण ॥८१॥ | इय करणसउणिपंजर-तुलाए संवेगरंगसालाए । परिकम्मविहीपामोक्ख-चउमहामूलदाराए ॥८२॥ आराहणाए पनरस-पडिदारमयस्स पढमदारस्स । रायाभिहाणमेयं, पडिदारं अट्ठमं भणियं ॥८३॥ 70 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २४८४-२५१५ परिणामनामकनवमद्वारम् - धर्मजागरिकाः इहभव-परभव-हितचिन्तनम् "परिणामनामकनवमद्वारम्" - पुव्युत्तगुणगणाऽलं-किओ वि न विणा विसेसपरिणामं । आराहेउं पारइ, पत्थुयमाऽऽराहणं जीवो ॥४॥ ता परिणामदारं, एत्तो भन्नइ दुहा य तं होइ । गिहिसाहुगोयरत्तेण, तत्थ गिहिवग्गविसयस्स ॥५॥ इहपरभवगुणचिन्ता', सुयसिक्खा' कालविगमणं चेव । सुयबोहणं च सुट्ठिय-घडणा' आलोयणादाणं ॥८६॥ आउपरिन्नाणं पि य', अणसणसंथारदिक्खपडियत्ती । अट्ठप्पडिदाराई, इमाइं परिणामदारस्स ॥८७॥ “धर्मजागरिकाः इहभव-परभव-हितचिन्तनम्" - तत्थ य इहभवपरभव-गुणचिन्तादारमेवमऽवसेयं । किर पुव्वदंसियगुणो, राया सामन्नमणुओ वा ૮૮ળા कारियजिणिंदभवणो, पट्टियाउणेगधम्मठाणो य । लोगदुगसलहणिज्ज-ट्ठिईए किच्चेसु वटुंतो ॥८९॥ मंदीकयविसयरई, धम्मे च्चिय णिच्चबद्धपडिबन्यो । अत्थोवज्जणगिह-विविहज्जवासंगविरयमणो ॥९०॥ सो अन्नया कयाई, पुवाऽवररतकालसमयम्मि । जागरमाणो सम्म, सुपसन्नो धम्मजागरियं ॥९१॥ गुरुसंवेगपरिगतो, भववासुब्बिग्गमाणसो धणियं । आसन्नभाविभद्दो, निउणं एवं विचिन्तेइ ॥९२॥ अणुकूलकम्मपरिणति-वसेण केणाऽवि अह उ ताव मए । अइदुल्लहो वि लद्धो, जम्मो विउलुज्जलकुलम्मि॥१३॥ अन्नडन्नगुणगणाउडरोवणेक्क-रसियंतकरणवित्तीण । जाया पुणो वि दुलहा, मायावित्ताण संपत्ती ॥१४॥ |दिवसयसत्थपरमडत्थ-गहणनिउणा य तप्पभावेणं । बद्धिविज्जाविन्नाण-पयरिसो वि य महं जातो ॥९५॥ निजभुयजुयलबलडज्जिय-मडणवज्जमऽवज्जवज्जियविहीए । विनिओइयं जहिच्छं, दविणं पि हु उचियठाणेस॥९६॥ भुत्ता कामभोगा, अभग्गपसरं मणुस्सपाउगा । निप्फाइया य पुत्ता, तदुचियकायव्यमऽवि विहियं ॥९॥ एवं सम्माणियसयल-इहभयाडविक्खणिज्जभावस्स । इहभवियभूरिसद्दाडइ-विसयसम्माणणाविसयं ॥९८॥ आलम्बणभरियस्स वि, इमस्स दुल्ललियमामगजियस्स । अहणा वि किर किमडण्णं, विज्जइ आलंबणट्ठाणं ॥९९॥ जं नेगंतेणं चिय, चिन्तामणिकप्पपायवडब्भहिए । विसयाऽऽसत्तिं मोत्तुं, धम्मे च्चिय निच्चलो होमि ॥२५००॥ अहह! कुसलस्स कस्स वि, विवेगसारस्स भविउकामस्स । पयइगरुयस्स बाढं, भववासुव्विग्गचित्तस्स ॥१॥ संते वि हु भोगाणं, समग्गसामग्गिसमुदए सबसे । तदडवत्थुचिंतणाओ, तदप्पवित्तिप्पहाणस्स . ॥२॥ जम्माउ च्चिय निच्चं, धम्मे च्चिय किच्चबुद्धिणो धणियं । परलोयविसयकिच्चेसु, चेव संजायइ पवित्ती ॥३॥ आसापिसाइयाविणडियस्स, अम्हारिसस्स तुच्छस्स । तविवरीयस्स भवा-ऽभिनंदिणो पुण इमा कुमई . ॥४॥ एयं न सुयं दिटुं पि, नेवमेयं तु नेय अणुभूयं । कत्थवि कयावि सुविणे यि, अहह! विहलो गओ जम्मो ॥५॥ ता ताव इममिममहं, इहं तहिं तं च तं च माणेमि । तदडसंमाणणजणियं, जेण ण दुक्खं खुडुक्कड़ मे ॥६॥ अहवा इमं तयं पि य, अणुभूयं किंतु परिमियं कालं । ता ताव किंपि कालं, करेमि वंछाऽणुरुयमऽहं ॥७॥ कालाइक्कमणेण य, पच्छा योच्छिन्नवंछरिछोली । सीईभूओ जं जं, काहं तं तं सुहं होही ॥८॥ को नाम किर सकन्नो, करेज्ज एवं वियप्पणमजुतं । पयईए च्चिय करिकलह-कन्नपालीचले जीए ॥९॥ तहा एयं करेमि इण्डिं, एयं काऊण पुण इमं कल्ले । काहामि को विचिंतइ, सुमिणयतुल्लम्मि जियलोए ॥१०॥ अन्नं चजड़ ता तत्तगवेसी, ता अणणुभवे वि माणियं सव्यं । अह न तहा ता तम्माण-णे वि सव्वं अणणुभूयं ॥११॥ जओहियइच्छियाई जह जह, संपज्जंतीह कह वि जीयाण । तह तह विसेसतिसियं, चित्तं दुहियं चिय वरायं ॥१२॥ किंचउवभोगोवायपरो, पसमेउं मणइ विसयतण्हं जो । नियछायडक्कमणकए, पुरोऽवरण्हे पहावइ सो ॥१३॥ तहासुट्ठ वि भुत्ता भोगा, सुट्ठ वि रमियं पिएहिं दारेहिं । सुट्ठ वि पियं सरीरं, हा जिय! कइया वि मोतव्यं॥१४॥ सुचिरं वसिउं सह बंधवेहिं, रमिऊण इट्ठमित्तेहिं । सुचिरं पि सरीरं लालि-ऊण छड्डेवि गंतव्यं ॥१५॥ 71 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २५१६-२५५२ पुत्रशिक्षादापनम् इट्ठजणो धणधन्नं, भवणं विसया य मणहरणचोरा । एगपए मोत्तव्वा तहा वि किं गयनिमीला मे ॥१६॥ अरिहं देवो गुरुणो य, साहुणो जिणमयम्मि पडियत्ती । धम्मियसंसग्गी निम्म-लो य बोहो भवविरागो ॥१७॥ एमाइ मए सम्मं, पत्तो परलोयसाहगो वि विही । भवसयपरंपरासु वि, दुल्लंभो मंदपुन्नाणं ॥१८॥ अह पत्ते तम्मि महं, महंतपुन्नेहिं संपयं धम्मो । आराहेउं जुत्तो, विसेसओ अत्तहियहेउं ॥१९॥ तं च न तह काउमणो वि, विविहगिहकिच्चनिच्चपडिबद्धो । पुत्तकलत्ताऽऽसत्तो, तरामि काउं सुनिविग्धं ॥२०॥ ता जाय अज्जवि जरा, दूरे याहीओ नेव बाहिति । जाव पबलं बलं पि हु, इंदियवग्गो समग्गो य ॥२१॥ जावडणुरागी लोगो, जाय न चवलतणं भयइ लच्छी । जाव न इट्ठविओगो, जाय वियंभेइ न क्यंतो ॥२२॥ ताव परिवारदुत्थत्त-भाविजिणधम्मखिसरक्खडट्ठा । निप्पच्चवायनिरवज्ज-कज्जसंसाहणट्ठा य ॥२३॥ नियगं कुडंबभारं, पत्ते संकामिऊण विहिपुव्वं । सिढिलियतप्पडिबंधो, तप्परिणतिदंसणकएण ॥२४॥ परमगुरुपरमपूया-संपाडणलक्खणं जहाऽवसरं । नियभत्तिसत्तिसरिसं, मोतुं दव्यत्ययं सेसे ॥२५॥ सावज्जाऽऽरंभपए, परिच्वइत्ताण तणुयमेते वि । कारावणकरणेहिं, मणेण यायाए कारणं રદા पोसहसालमडइगओ, आगमविहिसुद्धधम्मकिच्चेहिं । सम्मं भावियचित्तो, किं पि हु कालं किल गमेमि ॥२७॥ पच्छा पुत्ताऽणुमओ, संलेहणपुव्वयं जहाऽवसरं । आराहणविहिमणहं, सव्वपयत्तेण काहामि ૨૮ इय उभयलोगगोयर-गुणचिंतणदारमाउहियं पढमं । एत्तो य पुत्तसिखा-दारं लेसेण कित्तेमि ॥२९॥ "पुत्रशिक्षा दापनम" - अह पुवपवंचियउभय-लोगहियधम्मपरिणइपहाणो । सो गिहवई नियो या, उज्झिउकामो घरनिवासं ॥३०॥ रयणिविरामबिउद्धं, सव्वाऽऽयरक्यपयप्पणामं च । पुतं नियगाडभिप्पाय-संसणट्ठा इय वएज्ज ॥३१॥ पयईए च्चिय पुत्तय!, जइ वि विणीयस्स गुणगवेसिस्स । सुविसिट्ठचेट्ठियस्स य, सिक्विवियव्यं न तुह अत्थि॥३२॥ अम्मापिऊण तह वि हु, हिओवएसप्पयाणमुववण्णं । ता तं पड़ संपइ सप्प-ओयणं किं पि जंपेमि ॥३३॥ वच्छ! सुगुणा वि भइसालिणो वि, सुकुलुग्गया वि नरवसभा । उच्चणजोव्यणगहनिहय-बुद्धिणो लहु विसीयंति॥३४॥ ससिरविरयणहुयासण-पहापवाहाऽऽहयं पि अणवरयं । विरमइ न मणागं पि हु, जम्हा तारुण्णतिमिरमिमं ॥३५॥ एयम्मि य पसरते, फुरइ कुवियप्पतारयाचक्कं । पसरइ विचित्तविसया-भिलासकडपूयणानिवहो ॥३६॥ उम्मायघूयसंघा, समुच्छलंति य पावियाऽवसरा । पवियंभइ सव्वत्तो, कलुसमई वग्गुलीवग्गो ॥३७॥ सज्जो पमायखज्जोय-या वि विलसंति पत्तपहपसरा । वग्गइ कुवासणापंसु-लीण सत्थो 'अणुप्पित्थो ॥३८॥ तह वच्छ! दप्पदाह-ज्जरो वि सिसिरोवयारनिरुवसमो । जलण्हाणाऽणुतारो, दढरागमलाऽवलेवो वि ॥३९॥ तह विसयविसवियारो, अनिवारो मंततंतजंताणं । लच्छिमयंडधत्तं पि हु, असज्झमंडजणपओगाणं ॥४०॥ विसयसुहसन्निवाओ-भवा य निद्दा निसाऽवसाणे वि । अप्पडिबोहा इह वच्छ!, निच्छियं जायइ जणाणं ॥४१॥ पुत्तय! तुमंपि तरुणो, उदग्गसोहग्गसंगयसरीरो । पवरिस्सरियसणाहो य, नूणमाऽऽबालकालातो ॥४२॥ अप्पडिमरुवभुयबल-साली विन्नाणनाणसंपन्नो । एवंगुणो य एएहिं, चेव हीरिज्जसि गुणेहिं ॥४३॥ न जहा तह पट्टेज्जसु, एक्केक्को वि हु गुणो जओ एसिं । दुविणयकारणं किं, पुणेसि सव्वेसिं समवाओ॥४४॥ ता पुत्त! परित्थीपेच्छणम्मि, आजम्मचक्नुवियलेण । पमम्मजंपणम्मि, सया वि अच्वंतमूएण ૪૧ अस्सच्चवयणसवणे, बहिरेणं पंगुणा कुसंचरणे । आलस्ससंगएणं, सव्यासु असिट्ठचेट्ठासु ૪૬ | पुयाभिभासिणा पाणि-लोयपीडाविवज्जिणा णिच्वं । वितहाऽभिणिवेसपरं-मुहेण गंभीरभावेण ॥४७॥ उचियमुदारतं पि य, समुव्वहंतेण परियणपिएण । लोगाऽणुवित्तिजुत्तेण, उज्जमंतेण धम्मम्मि ૪૮ सुमरंतेणं चिरपवर-पुरिसचरियाई तदणुसारेण । संचरमाणेण सया, बढिंतेणं च कुलकित्तिं ॥४९॥ गुणकित्तणं कुणंतेण, गुणिजणाणं पमोयमडणुसमयं । थारेंतेणं धम्मिय-जणम्मि परिहारिणाऽऽणत्थे ॥५०॥ कल्लाणमित्तसंसग्गि-कारिणा कुसलसयलचेट्टेण । सव्वत्थ लद्धलक्नेण, पुत्त! होयव्यमडणवरयं ॥५१॥ इय वर्सेतो पुत्तय!, पियामहप्पमुहपुरिसकमपत्तं । माणेसु विभूइमिमं, चिरभवसुक्याउणुसारेण ॥५२॥ 1. अणुप्पित्थो = अत्रस्तः । 72 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २५५३-२५८६ पुत्रस्याशिक्षणे दोषोपरिवज्रकेसरिदृष्टान्तः | अंगीकरेसु सयलं, कुडुंबभारं विहेहि तच्चितं । अब्भुद्धरेसु बंधव-जणं पि पीणेसु पणइगणं ॥५३॥ अप्पोवरिसंकामिय-समग्गकायव्यभारमाहुणा मं । परेसु वच्छ! संपइ, तुह जुत्तं यट्टिउं एवं ॥५४॥ उक्खित्तसव्वभारस्स, तुज्झ अहयं तु संनिहिम्मि ठिओ । कल्लाणवल्लिजलकुल्लि-तुल्लसद्धम्मगुणनिरओ ॥५५॥ तुह सच्चरियकलावाड-वलोयणत्थं कियंतमवि कालं । चिट्ठामि तयणु तुह अणु-मईए संलेहणं काहं ॥५६॥ इच्वेवमाऽऽइयाहि गिराहिं कंताहिं तह मणुन्नाहिं । सुयमऽपडियज्जमाणं, दढपिइपडिबंधभावेण ॥५७॥ पडिवज्जाविय सम्म, दंसियभमीगयं पि निहिनियहं । जाणाविऊण लेक्खग-मह वहिगासंपडाडाइगयं दावाविऊण दायव्य-मत्थमुग्गाहिऊण लब्भं च । घरभारनायगत्ते, ठवेज्ज सयणाऽऽइपच्चक्खं ॥५९॥ नवरं किं पि हु वित्तं जिणभवणमहूसवाइकरणत्थं । साहारणजोग्गं किंचि, किंचि सयणाण पाउग्गं ॥६॥ किंचि सविसेससीयंत-संतसाहम्मिओवठंभऽत्थं । किंचि वि अहिणवपडियन्न-धम्मसम्माणणनिमित्तं ॥६ ॥ | भइणीधूयाजोग्गं च-किंचि दीणाडणुकंपगं किंचि । उवयारिमित्तबंधव-उद्धरणणिबंधणं किंचि ॥६२॥ धारेज्ज सहत्थे च्चिय, सुसावगो संकिलेसचागडट्ठा । इहरा जिणभवणाऽऽइसु, निउंजिउं नेव पभवेज्जा ॥३॥ इय सामन्नगिहीविही, राया पुण सोहणे तिहिमुत्ते । रज्जाऽभिसेयपुव्यं, पुत्तं सपए निवेसित्ता ॥६४॥ कुज्जा सव्वसमप्पण-मुवदंसेज्जा नयक्कम णिउणं । सामी मंती रटुं, एमाई पुवविहिणा उ ॥६५॥ सामंतमंतिसेणाऽहिवाण, पयईण सेवगाणं पि । नरवइणो वि य साहा-रणं च सिक्खं पयच्छेज्जा एवं कयकायव्यो, पत्ताऽऽरोवियसमत्थकज्जभरो । पवरुत्तरोत्तरगणे. आराहेज्जा जहाऽभिमए દળી जो पुण धम्मपवत्तो वि, निम्मलाऽऽराहणाऽभिलासी वि । पुव्युत्तविहाणेणं, नरेज्ज सुयस्स सिक्खवणं ॥८॥ नेव य मुच्छाइवसा, उवदंसेज्जा सविहववित्थारं । सो तस्स कम्मबंधाय, होज्ज यइरो व्य केसरिणो ६९॥ तहाहि "पुत्रस्य अशिक्षणे दोषोपरिवज-केसरिद्रष्टान्तः" । कुसुमत्थलंमि नयरे, धणसारो नाम आसि वरसेट्ठी । निययसमुद्धररिद्धीए, दूरमुवहसियसमणो ॥७०॥ उपजाइयसयतोसिय-देवयदिन्नो अणामयसरीरो । वड़रो नामेण सुओ, अहेसि एक्को परं तस्स ॥७१॥ सो पुण समहिगयकलो, पिउणा तरुणतणं समणुपत्तो । परिणाविओ महेसर-सेट्ठिसुयं विणयवइकन्नं ॥७२॥ | अह विज्जुलयासरयडब्भ-चंचलत्तेण सव्वभावाणं । हरिचक्किसक्कविक्कम-अगोयरत्तेण मच्चुस्स ॥७३॥ पड़खणविणाससीलतणेण, अच्वंतमा उम्मस्स । धणसारो निययपए, तं ठविउं मरणमडणुपत्तो . ॥७४॥ हा ताय! परमवच्छल!, गुणणिवहनिवास! पणइक्यतोस! । पुरलोयलोयणोवम!, कत्थ गतो देहि पडिययणं ॥५॥ हा ताय! तायसु ममं, विओगवज्जाडसणीए भिज्जतं । हिययं हिययसुहावह!, नियपुत्तमुवेहसे कीस ॥६॥ ताय! तए सग्गगए, गयाइ पंच वि इमाई सग्गंमि । गंभीरतं खंती सच्वं विणओ नओ य धुवं । ॥७७॥ ताय! तुह विप्पयोगे, न दुक्खमेक्को अहं चिय पवन्नो । विफलियमणोरहो पइ-दिणं पि नणु मग्गणगणो वि॥७८॥ इय जंपिरेण पामुक्क-दीहपोक्केण सोगविहुरेण । वरेण पारलोइय-किच्चमसेसं कयं तस्स । ॥७९॥ पइदिणदंसणसारतणेण, पेम्माऽणुबंधबुद्धीणं । कालक्कमेण ववगय-सोगाऽऽवेगो य सो जातो ૮થી पुव्यपवाहेणं चिय, कुडुंबचिंताए लोयववहारे । दाणाऽऽईसु य वट्टइ, नो खंडइ पुचपुरिसकम ॥८१॥ नवरं लच्छी तुच्छत्त-मुवगया नाऽऽगया वणियपुत्ता । देसंतरेसु चिरकाल-पेसिया लाभकज्जेण રા निहिणो सुन्नीहूया, वढिपउत्तो खयं गतो अत्थो । धन्नाऽऽइसंचया वि हु, निद्दड्ढा तिव्वजलणेण ॥३॥ जं जत्तो तं तत्तो, पुन्नविवज्जयवसेण से नटुं । सयणो वि परजणो इव, सय्यो वि परंमुहीहूओ ॥८४॥ इय छायाखेड्डे पिव, समिणुवलद्धं व सो पलोइत्ता । दव्वाइसरूवं जाय-पउरसोगो विचिंतेड ॥८५॥ परिचतकुसंगस्स वि, थीजूयविवज्जिणो वि ही! मज्झ । नायट्ठियस्स वि कहं, सव्यमऽवक्कंतमऽत्थाई ॥८६॥ अहवा वच्चउ अत्थो, विज्जुज्जोउ व्य चंचलसहायो । अनिमित्तमेव सयणा यि, कीस विवरंमुहीहूया ॥८॥ हुं नायं सयणा वि हु, धणभंगे कज्जसिद्धिविरहेण । दंसिंति कह वरागा, पणयं मइ रोरतुल्लम्मि ॥८॥ ताव च्चिय सयणा बंधवा य, मित्ता य होति मणुयस्स । जाय न मुच्चड़ कुवलय-दलदीहऽच्छीए लच्छीए॥८९॥ 73 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २५६०-२६२६ ॥९९॥ ॥९२॥ ॥९३॥ ॥९६॥ ॥१॥ m पुत्रस्याशिक्षणे दोषोपरिवज्रकेसरिदृष्टान्तः धणवज्जियस्स य ममं एत्तोऽवत्थाणमेत्थ नो जुत्तं । परमा विडंबणा का वि, पुव्यकमखंडणा जेण ॥९०॥ इइ चिंतिऊण तेणं, कहिओ खेमिलगनामधेयस्स । मित्तस्सऽन्नत्थगमा - ऽभिलसरूयो सवुत्तंतो मित्तेण जंपियं जुत-मेव देसंतरंमि तुह गमणं । नवरं अहं पि तुमए, समगं चिय आगमिस्सामि तो दो वि नियपुराओ, विणिक्खमित्ता सुवन्नभूमीए । ते सिग्घगईए गया, पारद्वा तत्थ य उवाया अत्थोवज्जणकज्जेण - ऽणेगसो अह कहं पि विहिवसओ । खेत्ताऽणुभावओ विय, उवज्जियं केत्तियं पि धणं ॥ ९४ ॥ तेण य धणेण रयणाई, अट्ठ गहियाई पवरमुल्लाई । सुमरिय गिहाय तत्तो, विणियत्ता नियपुराऽभिमुहं ॥९५॥ इंताण य अद्धपहे, अइपबलत्तेण लोहपसरस्स । खेमिलगस्स पयट्टा, समत्थरयणग्गहणवंछा कह वंचिस्सामि इमं कह व गहिसामि सव्वरयणाई । अणवरयमेगचित्तो, चिंतिउमेयं समादत्तो अह एगम्मि दिणम्मि, गामस्संडतो गयम्मि वइरम्मि । रयणऽट्ठयगंठिसमा, अंतो पक्खित्तलेट्ठदला रइया अवरा गंठी, वइरस्स इमं समप्पइत्ताणं । रयणीए वच्चिस्सं इति चिन्तेऊण पाविट्ठो सो जाव गंठिजुयलं, संजमइ ससंभ्रमं लहुं ताव । बइरो समागतो भणइ, मित्त! किं कुणसि तुममेयं ॥२६०० ॥ किं दिट्ठोऽहमऽणेणं ति, संकिएणाऽवि नियडिनिउणेण । तेणं पयंपियं मित्त!, कुडिलरूवा हि कम्मगई सच्छंदविलसियाई, विहिस्स चिंतापहे वि न पडंति । जं सुमिणे वि न दीसइ, तं पि बला कज्जमाऽऽवडइ ॥२॥ एवं विभाविऊणं, कयं मए रयणगंठिजुयलमिमं । मा एगट्ठाणठियं, पणस्सिही कहवि हत्थाओ ता नियरयणचउक्कस्स, गंठिमेगं तुमं धरसु हत्थे । अवरं च अहं धारेमि, होउ दढरक्खणा एवं | इति संसिऊण - सम्मोहमूढहियएण वइरत्थम्मि । साररयणाण गंठी, बद्धा इयरा य नियगकरे तो तत्थेव पंसुत्ता, संपत्ते कहवि मज्झरतम्मि । तं लेट्टुगंठिमाऽऽदाय, खेमिलो निग्गओ तुरियं गंतुं जोयणसत्तग-मुच्छोडड़ जाय तं रयणमंठिं । ता पेच्छड़ पुव्यनिहित्त - लेट्ठसयलाई से अंतो हा असिवतुक्कत्तिय - सच्छंदुद्दामविलसियसहाव ! । पावविहि! किमिव तुमए, मम चिंतियमन्नहा विहियं हंदि पुव्यभवुब्भूय - भूरिपावस्स दुक्खदाइतं । मित्तवियोगत्थकयं फलजणगत्तेण निव्यडियं मन्ने सुद्धसहावस्स, तस्स मित्तस्स वंचणाजणियं । पायं इह जम्मे च्चिय, उचट्ठियं पित्तपागं व एवं समुल्लवन्तो, सोगमहाभरसमोत्थयसरीरो । संजमिओ इव बज्जा - हउ व्य ठाऊण खणमेक्कं अच्वंतछुहाऽभिहओ, मग्गपरिस्समकिलामिओ बाढं । भिक्खं भमिउमऽसत्तो, गिहम्मि एगंमि य पविट्ठो ॥१२॥ भणिया तग्गिहविलया, अम्मो ! मे देहि भोयणं किंपि । आसऽग्गलाए खलियं, जावऽज्ज वि जाड़ नो जीयं ॥१३॥ | तद्दीणवयणसवणुब्भवंत-करुणाए तीए सप्पणयं । आरद्धं दाउ नवर - माऽऽगओ झत्ति गिहनाहो ॥१४॥ सो तं च पजेमंतं, पेक्खिय रोसाऽरुणच्छिविच्छोहो । आ पाये ! मड़ गेहाउ, निग्गए पोससि विडे तं ॥१५॥ | इय निब्भच्छिय गिहिणि, खेमिलमुवणेइ रायपुरिसाण । एसो अकज्जकारित्ति, तेसिं पुरतो निवेड़ता ॥१६॥ भयकंपंतसरीरो, विच्छायमुहो य सो तओ तेहिं । कहिओ जारो त्ति निवस्स, तेण वज्झो य आणतो ॥१७॥ तो विरसमाऽऽरसंतो, सो नीओ तेहिं वज्झठाणम्मि । भणितो य इट्ठदेवय - मऽणुसुमरसु रे! तुममियाणि ॥ १८ ॥ | भयवसविसंठुलंऽतक्ख - राए वाणीए किंपि जंपतो । उल्लंबिउं विमुक्को, दीहररज्जूए रुक्खम्मि | अह जावज्जऽवि नीहरड़, नेव जीयं कहंपि तुडिजोगा । ता उल्लंबणरज्जू, तुट्टा पडिओ य सो झति ॥२०॥ सिसिरवणमारुएणं, मणागमाऽऽसासिओ खणद्वेण । मरणमहाभयविहुरो, ठाणाउ तओ लहुं चलिओ जाव य केत्तियमेत्तं पि, भूमिभागं स जाइ वेगेण । ताव तमालमहातरु-तलम्मि पेच्छड़ मुणि एगं सज्झायं कुणमाणं, वरविणावेणुविजइवाणीए । तस्सवणऽक्खितकुरंग - वग्गसेविज्जमाणपयं तो अच्छरियब्भूयं तं वंदित्ता महीए उवविट्ठो । जोगो ति लक्खिऊणं, मुणिणा वि पयंपिओ एवं हंभो देवाणुप्पिय!, अणाइसंसारमऽणुसरताण | जीवाण वंछियत्था, के वि य सिज्झन्ति कह वि परं भत्ती जिणेसु मेत्ती, जिएसु तत्ती गुरूवएसेसु । पीई सीलगुणड्ढेसु, तह मई धम्मसम्म ॥१०॥ ॥११॥ ॥१९॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ 1. पत्तपागं = प्राप्तविपाकम् । ॥९७॥ ॥९८॥ ॥९९॥ ॥४॥ ॥५॥ En ॥७॥ ॥ ८ ॥ usu 74 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २६२७-२६६३ पुत्रस्याशिक्षणे दोषोपरिवज्रकेसरिदृष्टान्तः - कालनिर्गमनद्वारम् परउययारे वित्तं चितं परलोयकज्जचिंताए । धम्मपहाणो जम्मो, निरुवमपुन्नाण जइ होइ ॥२७॥ लद्धे यि दुल्लहे माणु-सत्तणे धम्मगुणविहूणाण । योलेंति जाण दियहा, विहल च्विय ताण ते नेया ॥२८॥ ताण यरमजणणं चिय, जणणे यि हु यरमडरन्नपसुभायो । धम्मगुणविरहिएहिं, जेहिं जम्मो कओ विहलो ॥२९॥ आसन्नं चिय जेसिं, महाणुभायाण भाविभद्दत्तं । धम्मपवित्तिपहाणाइं, जंति तेसिं चिय दिणाई ॥३०॥ ते च्विय धन्ना ते पुन्न-भाइणो ताण जीवियं सहलं । धम्मुज्जयाण जेसिं, रमइ मई नेव पावेसु ॥३१॥ एवं मुणिणा कहिए, नियदुच्चरिएण जायवेरग्गो । पव्यज्जं पडियज्जड़, नेमिलगो सुद्धभावेण । ॥३२॥ एत्तो य सो महप्पा, वइरो मित्ताऽवलोयणं काउं । तविरहहुयवहाऽऽउल-देहो कह कहवि दीणमणो ॥३३॥ कुसुमत्थलंमि पत्तो, कयं च से पारलोइयविहाणं । रयणविणिवट्टणेण य, जाया पउरा समिद्धी य ॥३४॥ भोगे भुंजतस्स य, जातो कालक्कमेण से पुत्तो । सुपसत्थयासरम्मि, अभिदाणं केसरि ति कयं ॥३५॥ अणुकूलयाए कम्मोदयस्स, थेवुज्जमे वि निरवज्जा । धणसंपत्ती जाया, सयणा वि हु सम्मुहीहूया ॥३६॥ तो तेण चिंतियं लच्छि-यज्जिओ सव्यहा इहं मणुओ । तूललवकासकुसुमं य, नूणं लहुयत्तणमुवेइ ॥३७॥ ता एतो उपरि मए, रक्नेयव्यं धणं सजीवियं व । एएण विणा नूणं, पुत्तो वि हु परिभवं कुणइ ॥३८॥ इति चिंतिऊण सव्यो, अत्थचओ सायरं सहत्थेण । निक्खित्तो धरणियले, सुयं पि दूरे ठविंटेण ॥३९॥ अह अन्नया कयाइ, सो खेमिलगाऽभिहाणसाहुवरो । सुत्तउत्थपारगामी, विचित्ततवसोसियसरीरो ॥४०॥ अणिययविहारचरियाए, विहरेमाणो समागतो तत्थ । वरेण यंदिओ तह, कह कहवि य पच्चभिन्नाओ ॥४१॥ अवितक्कियतदुवागम-वटुंताऽऽणंदसंदिरऽच्छेण । भणिओ य सबहुमाणं, भययं! को एस युतंतो ॥४२॥ पायेण मए तुझं, पंचत्तगमो वितक्किओ आसि । तह तेसु तेसु ठाणेसु, पेहणेण वि अदिट्ठस्स ॥४३॥ ताहे मुणिणा निच्छउम-मेय सव्या जहट्ठिया वत्ता । नियगा सवित्थरं तस्स, संसिया सच्छहियएण आयन्निऊण य इम, परमं विम्हयमुवांगओ वइरो । पडिबोहिओ य मुणिणा, विचित्तजुतीहिं वयणेहिं ॥४५॥ अब्भुयगओ य तेणं, संसारुव्येयमुव्यहंतेण । सग्गापवग्गहेऊ, धम्मो सव्यन्नुपन्नतो ॥४६॥ पालेइ निरइयारं, तं च पयत्तेण परमसाहुजणं । अच्वंतभत्तिजुतो, पइदियहं पज्जुवासइ य . ૪ળી; थेरतमि य पत्ते, तेण सुओ केसरी निययठाणे । ठविओ सयं च पवरो, पारद्धो धम्मकम्मविहि ॥४८॥ नयरं सुचिरायासेणु-यज्जियं निहिगणं महिनिहित्तं । मुच्छावसेण साहइ, पुच्छिज्जतो वि न सुयस्स ॥४९॥ अज्जं कहेमि कल्लं, कहेमि एवं पयंपड़ सया वि । जाणतो वि हु नियजीवि-यव्यमऽइथोयदियहथिरं ॥५०॥ सत्तोवरोहरहिए गिहेगदेसे य पोसहाऽऽईहिं । आराहणाभिलासेण, चित्तपरिकम्मणं कुणइ ॥५१॥ पुत्तो वि पियरमडच्वंत-थेरमुयलक्खिउं पड़खणं पि । अत्थं पुच्छड़ सो विय, अच्छइ सामाइयंमि ठिओ ॥५२॥ नो किंपि कहइ अह सो, अन्नम्मि दिणम्मि मरणमडणुपत्तो । इयरो य तेण दुक्त्रेण, दुखिओ जायवियलमणो॥५३॥ हा! हा! निहिणो धरणीए 'सोत्थया ते कहं मुहा विगया । हा! हा! अणज्ज हे ताय!, पुत्तवेरी तुमं परमो ॥५४॥ थी थी धम्मो यि हु तुज्झ, मूढ! थी थी वियेयसारो ते । इय विलवंतो संतो, मरिउं तिरियत्तणं पत्तो ॥५५॥ इय सो थम्मत्थी यि हु, जातो पुत्तस्स कम्मबंधाय । धम्मत्थीणं पुण कम्म-बंधहेउत्तणमऽजुत्तं ॥५६॥ तेणं चिय भुवणगुरु, वीरो तह परिसयालमझे वि । अन्नत्थ विहरिओ ताव-साणमडप्पत्तियं नाउं ॥५॥ ते धन्ना सप्पुरिसा, ते च्चिय सद्धम्मकम्मपडियन्ना । जे नो होति निमित्तं, जीवाणं कम्मबंधस्स ॥५८॥ बहुभवपरंपरावेर-बज्जणट्ठा सुयं ठयेऊण । जत्तेण समाहीए, ता धम्मम्मि जएज्ज गिही ॥५९॥ इय पुत्तसिक्खपडिदार-मेत्थ बीयं इमं समक्खायं । एतो य कालविगमण-पडिदारं तइयमऽक्वामि __॥६०॥ "कालनिर्गमनद्वारम्" - सो पुव्युत्तो सड्ढो, राया या पुत्तनिहियनिययपओ । तप्परिणइमयलोइउ-कामो जा किंपि किर कालं ॥१॥ अच्छिउमिच्छइ ता सव्य-सत्तसंताणबाहरहियम्मि । सच्चरियजणाऽहिट्ठिय-पेरंते पयइसोमंमि .. ॥२॥ सुविवित्तंमि पएसे, परिवाराउणुमयसुद्धचित्तेणं । परिसुद्धेण दलेण य, विड-विलयासंगपरिमुक्कं ॥६३॥ 1. सुस्थिताः = सुगुप्तं स्थिताः। 75 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशपडिमावर्णनम् संवेगरंगशाला श्लोक नं. २६६४-२७०१ सुविसिट्ठमट्ठथिरथोर - थंभमऽइघणकवाडसंपुडयं । मसिणसमभित्तिभागं, सुमट्ठमणिभूमिवट्टं च | सुकरपडिलेहपमज्जणं च पविसंतसत्तचित्तकरं । बहुसावगपाउग्गं, तिकालसाहारणसरूवं उच्चारभूमिजुत्तं, पावमहारोगिलोगपडियारं । सद्धम्मोसहसालं, पोसहसालं करायेज्जा ॥६७॥ ॥६८॥ ॥७०॥ ॥७१॥ | अहवा पारद्धविसुद्ध - धम्मकरणोचियं पुरा सिद्धं । पेहेज्ज किंपि गेहं तं चिय पगुणं करायेज्जा तत्थ य पसत्यधम्मऽत्थ- चिंतणक्खित्तचित्तवावारो । सावज्जकज्जपरिवज्ज- गुज्जओ पायमाऽऽसज्ज कइया वि वायणाए, कइया वि य पुच्छणाए कड़या वि । परियट्टणाए कड़या वि, सत्यपरमत्थचिंताए ॥६९॥ कइया वि य झाणेणं, मोणेण कयाइ संकुचियगतो । वीरासणाऽऽइणा तह, आसणबंधेण कइयावि कइया वि दुवालस भाव - णाण परिभावणेण कड़या वि । सद्धम्मकहासवणेण नेज्ज कालं समाहीए उचियसमए य मुणिणो, सिद्धंतमहारहस्समणिनिहिणो । बहुमाणभत्तिमंतो गंतूणं पज्जुवासेज्ज भोयणकाले य तहा, ताय! पसीयह अणुग्गहं कुणह । एह मह मंदिरंमी, संपइ आहारगहणडत्थं इय पुत्तेण सविणयं, आहूओ थिमियमाणसो सणियं । गंतूण घरे विहिणा, रहिओ मुच्छाए भुंजेज्जा तह पवरवीरियवसा, सइ सामत्थम्मि अत्तहियकंखी । सविसेसुज्जमजुत्तो, मइमं पडिमाउ पडिवज्जे ताओ पुण एक्कारस, संखाए सावगाण भणियाओ । दंसणपडिमाऽऽईया, जिणेहिं इय महियमोहेहिं “एकादशपडिमावर्णनम् ” ॥७२॥ ॥८१॥ ॥८२॥ दंसण' वय' सामाइय, पोसह' पडिमा अबंभ' सच्चिते' । आरंभ' पेस' उद्दिट्ठ - वज्जए" समणभूए य" [दारगाहा ] ॥७७॥ | पुव्यपवंचियगुणमणि - पसाहिओ सायगो महप्पा सो । पढमं दंसणपडिमं, पडिवज्जइ तीए पुण सम्मं ॥७८॥ मिच्छत्तपंकवियलत्तणेण, थेयं पि कुग्गहकलंकं । नाऽऽयरइ जेण मिच्छत्त-मेव तस्साहणायाऽलं ॥७९॥ | होज्ज णडणाभोगजुओ, न विवज्जयवं तहेस धम्मंमि । अत्थिक्काऽऽइगुणजुओ, सुहाऽणुबंधो निरइयारो ॥८०॥ नणु पुव्वपरुवियगुण - गणस्स सुस्सावयस्स सम्मत्ते । विज्जंते वि किमेयं, दंसणपडिमा पुणो भणिया भन्नइ इह आगारे, रायाऽभिओगाऽऽइणो वि वज्जेड़ । परिपालेड़ य सम्मं अट्ठविहं दंसणाऽऽयारं | इय सविसेसं दंसण - पडिवत्तिपहाणभावमाऽऽसज्ज । दंसणपडिमा पढमा, नायव्या साययस्स भये नणु जो निसग्गओ या, अहिगमओ वा वि जायसुहबोहो । देवगुरुतत्तगोयर - गरुयविवज्जासजणगं ति नाऊणं मिच्छतं, पच्चक्खड़ दंसणं पवज्जइ य । तं पड़ पडिवत्तिकमो को णु भवे भण्णए एसो स महप्पा दंसणनाण- पमुहगुणरयणरोहणगिरीणं । सुगुरुण भत्तिसारं, कयप्पणामो पयंपेइ तुम्ह समीये भंते!, करणेणं कारणेणऽणुमईए । मणवायाकाएहिं जावज्जीवं पि मिच्छतं पच्चक्खिऊण नीसेस - मोक्खसंपाडणेक्ककप्पतरुं । जावज्जीवं सम्मं सम्मतं संपवज्जामि अज्जप्पभिड़ं म़ज्झं, जावज्जीवं पि परमभत्तीए । सम्मत्तसंठियस्स, होउ इमा भावपडियती अंतरअरिहणणाओ, देवो अरिहं खु देवबुद्धीए । निव्वाणसाहगगुणाण साहणा साहुणो गुरुणो | जिणपहुपणीयजीवाऽऽड़ - तत्तमयसमयसत्थसद्दहणं । निव्युइपुरप्पयाणे, पउणप्पयवीपडिसमाणं होउ य मे पईदिण-मुचियपूयपुव्यं जिगिंदवंदणयं । सुसमाहियमणवइकाय - वित्तिणो तिसु वि संझासु धम्माऽभिप्पाएण य, न कप्पए किं पि मह समायरिडं । लोइयतित्थेसु ण्हाण - दाणपिंडप्पयाणाऽऽई तह अग्गिहुणणकिरिया, घडिवाहडिगाऽऽइजुत्तहलदाणं । संकंतिगहणदाणं, कन्नाहलविसयदाणं च संडपरिणयणकरणं, तिलगुलकणगकयधेणुदाणं च । कप्पासपवागोलोह - पमुहदाणं तहऽन्नं पि धम्ममईए नाऽहं दाहं जम्हा अधम्मविसए वि । धम्ममईए नियेसो, नासइ पत्तं पि सम्मत्तं जं सम्मत्तं सुत्ते, अविवज्जासो मईए निद्दिट्ठो । सो पुण पुव्युत्तेसुं पयत्तमाणस्स कह होइ नो मे संपइ कप्पड़, कुतित्थपडिबद्धदेयलिंगीसु । देवगुरुणो त्ति काउं, पडिवती धम्मबुद्धीए नो मह तेसु पओसो, मणयं पि न भत्तिमेत्तमऽवि किंतु । देवगुरुगुणविओगा, तेसु उदासत्तणं चेव को नाम किर सकन्नो, कणगगुणविवज्जिए वि वत्थुम्मि । कणगं ति महं कुज्जा, कणगडत्थी जड़ वि सो गाढं नहि अकणगं पि संतं, जणेण गहियं पि कणगबुद्धीए । कणगप्पओयणाई, साहेउमडलं परं वत्युं ોદ્દા ॥६५॥ ॥६६॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ ॥७६॥ ॥८३॥ ॥८४॥ ॥८५॥ ોદ્દો ॥८७॥ ॥८८॥ ॥८९॥ ॥९०॥ ॥९१॥ ॥९२॥ sm m××n ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९७॥ ॥९८॥ ॥९९॥ ॥२७००॥ ॥१॥ 76 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २७०२-२७३६ एकादशपडिमावर्णनम् - मिथ्यात्वे अन्धपुत्रस्यदृष्टान्तः | गयरागदोसमोहत्तणेण, देवस्स होइ देवतं । तच्चरियाऽऽगमपडिमाण, दंसणा तं च विन्नेयं | सिवसाहगगुणगणगउरवेण, सत्थइत्थसम्मगिरणेण । इह गुरुणो वि गुरुतं, होइ जहत्थं पसत्थं च एवं नियनियलक्खण- लक्खियफुडदेवगुरुसरूयस्स । तत्थुत्ततत्तपडिवत्ति - रूवसम्मत्तपडिमा मे भवउ दव्यविसुद्धा, दुल्लंभगुणप्पहाणदव्वेहिं । सत्तीए दंसणंडगाणं, गउरवेणं पगिद्वेणं खेतविसुद्धा सव्वत्थ, देवगुरुगोयरा हु पडिवत्ती । तुल्ल च्चिय मज्झ परं, सीयंतेयरविभासाओ | कालविसुद्धा सा निर- इयारपरिपालणेण जाजीयं । भावविसुद्धा वि दढं, हट्ठप्पहट्ठत्तणं जाव अहवा भावेणेवं, साइणिगहपमुहदोसगयसन्नो । उम्मत्तुक्खयचित्तो य, जाय न भवामि किं बहुणा | जाय य दंसणपडिमा - परिणामो कह वि नोवधायवसा । परिवडइ ताव मज्झं, दंसणपडिमा इमा होउ एत्तो संकं संखं वितिगिच्छं तह कुतित्थिसत्थस्स । संथवपसंसणाइ य, वज्जइस्सामि जाजीवं नरवइगणबलदेवय-अभियोगा एत्थ मोक्कला मज्झ । वित्तिअभावो पिइमाइ - पमुहगुरुनिग्गहो य तहा | इय कयपडिमापडिवत्ति - सुंदरं सावगं गुरुजणो वि । उब्बवूहड़ कयपुन्नो, धन्नो य तुमं ति जेण इहं ते धन्ना ताण नमो, ते च्चिय चिरजीविणो बुहा ते य । जे निरइयारमेयं, धरंति सम्मत्तवररयणं एयं हि परं मूलं, कल्लाणाणं तहा गुणगणस्स । एएण विणाऽणुट्ठाण - मऽफलमुच्छ्रण पुष्कं व अविय" मिथ्यात्वे अन्धपुत्रस्यदृष्टान्तः” कुणमाणो वि हु किरियं, परिच्चयंतो वि सयणधणभोए । दिंतो वि दुहस्स उरं, जिणइ न अंधो जह विपक्खं ॥ १५ ॥ तह लिंतो वि निवित्तिं, परिच्चयंतो वि सयणधणभोए । दिंतो वि दुहस्स उरं, मिच्छदिट्ठी लहड़ न सिवं ॥ १६ ॥ एत्थ य अंधक्खाणय-मेवं अक्खंति किर वसंतपुरे । नयरे राया नामेण, आसि रिउमद्दणो तस्स ॥१७॥ अंधो अहेसि पुत्तो, पढमो बीओ य दिव्यचक्खु ति । अज्झावगस्स पढणडत्थ-मप्पिया ते य नरवइणा ॥ १८ ॥ गंधव्यप्पमुहाओ कलाओ, अंधो त्ति तेण जेट्ठसुओ । जाणाविओ तदियरो, धणुवेयाऽऽईओ सव्वाओ ॥१९॥ अह परिभूयं मुणिऊण अप्पयं, विगयचक्खुणा वृत्तो । उज्झाओ कीस न मइ, सत्थं तुं सिक्खवेसि ति ॥२०॥ उज्झाएणं जंपिय-महो महाभाग ! चक्खुरहियस्स । कह तुज्झ तमऽहमुज्जो - गिणो वि पारेमि परिकहिउं ॥ २१ ॥ | अंधेणं पडिभणियं, जड़ वि हु एवं तहा वि मं अहुणा । सिक्खवसु धणुव्वेयं, अह तग्गाढोवरोहेण ॥२२॥ उचइट्ठो गुरुणा से, तेण वि नाओ सुबुद्धिविभवेण । जाओ य सद्दवेही, चुक्कड़ न कहं पि लक्खस्स ॥ २३ ॥ एवं ते दोवि सुया, कलासु कुसलत्तणं परं पत्ता । अन्नम्मि य पत्थावे, समागयं तत्थ परचक्कं ॥२४॥ अह सो कणिट्ठपुत्तो, पिउणो आणाए पवरबलकलितो । आहवविहिपरिहत्थो, चलिओ रिउचक्कमऽक्कमिउं ॥२५॥ कह जेट्ठे विज्जंते, काउमिमं जुज्जए कणिट्ठस्स । इति जंपिऊण सामरिस - मऽसमकोवं परिवहंतो रिउसेन्नं पड़ अंधो यच्च॑तो सासिओ इमं पिउणा । वच्छ! नियभूमिगाए उचियं चिय जुज्जए काउं न य सुट्ठ कलाकुसलो वि, पबलभुयजुयलबलसणाहो वि । दिट्ठिविरहेण काउं, तुममऽरिहसि समरवावारं ॥२८॥ इच्चाइभूरिवयणेहिं णेगवाराउ वारिओ वि बहुं । अवगन्निऊण अंधो, दढकंकडनू मियस करडतडपगलियमयं, निबिडगुडाऽऽडोवकप्पणाभीमं । आरुहिऊण गयवरं, निहरिओ झत्ति नयराओ | सद्दाऽणुसारपम्मुक्क- मग्गणुप्पीलछाइयदियंतो । परचक्केणं सद्धिं, जुज्झेणं संपलग्गो य अह सव्यतो सद्दाऽणु - सारनिवडंतघायसंघायं । दट्ठूण मुणियत्तत्ता, रिउणो मोणं समल्लीणा रिउसद्दं असुणतो, तत्तो अंधो पहारमऽकुणंतो । पारद्धो हणिउमऽरीहिं, सव्वओ विहियमोणेहिं मोयाविओ य कहकहवि, भाउणा सो सचक्खुणा झति । दिट्टंतोवणओ इह, पढमं चिय दंसिओ चेव ॥३४॥ पत्थुयमेत्तो भन्नड़, जाजीयं दंसणं गिही घेतुं । पच्छा य निरइयारं, दंसणपडिमं पवज्जेइ अह तं सम्मं परिपालि-ऊण तग्गुणजुओ पुणो बीयं । वयपडिमं पडिवज्जइ, तीए पुण गिण्हड़ वयाई ॥ ३६ ॥ | पाणिवहाऽलिय अद्दत्त - बंभपरिग्गहनिवित्तिरुवाई | बंधाऽऽई अइयारे, वज्जइ य इमे सुजत्तेण ॥२६॥ ॥२७॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३५॥ ॥३७॥ ાળો ॥३९॥ | सविसेसधम्मसवणाऽऽइएसु, किच्चेसु बट्टई सम्मं । अणुकंपारसरसियंडत - करणवित्ती य हवइ सया अह तइयं सामाइय-पडिमं पुव्योवइट्ठगुणकलिओ । पडिवज्जेइ महप्पा, सम्ममुदासीणयाऽऽइजुओ 77 n ww ॥४॥ ॥५॥ En ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २७४०-२७७६ मिथ्यात्वे अन्धपुत्रस्यदृष्टान्तः - साधारणद्रव्यविषयवर्णनम् उदासीणय १ मज्झत्थ २-संकिलेसविसुद्धीओ ३ । अणाउलत ४ असंगतं, ५ एए पंच गुणा इहं ॥४०॥ जेहिं तेहिं जह तह, भोयणसयणाऽऽइएहिं चित्तस्स । जो संतोसो जायइ, सा हु उदासीणया बुत्ता ॥४१॥ सामाइयपढमंगं, एसा. य विसुद्धिकारणत्तेण । भणिया जिणेहिं संपड़, भन्नइ मज्झात्थवित्ती उ ૪૨ एस सयणो परो या, इय बुद्धी पयइतुच्छचित्ताण । पयईए विउलचित्ताण, पुण इमं जयमवि कुडुंबं ॥४३॥ जम्हा अणाइनिहणे, संसारमहासरे सरंताणं । बहुभवसयअज्जियकम्म-रासिवसगाण सत्ताणं ॥४४॥ अन्नोन्नमडणेगविहो, कस्सेह न केण को व संबंधो । संजाओ इय चिंता, जा सा मज्झत्थवित्ती उ ॥४५॥ अह संकिलेसविसुद्धी, भन्नइ संवसइ जेहिं सह ताणं । अन्नाण य दुन्नयदंस-णे वि जमणक्खपरिहरणं ॥४६॥ ठाणगमसुयणजागर-लाभाऊलाभाइएसु सव्वत्थ । जो हरिसवेमणस्सा-भावो सो पुण अणाउलया ॥४७॥ अह कणयकयवरेसुं, मित्ताऽमित्तेसु सोक्खदुखेसु । बीभच्छपेच्छणिज्जेसु, तह य थुइवायनिंदासु ૪૮ अन्नत्थ य विविहमणो-वियारकारणसमागमे वि सया । समचित्तत्तं जं तं, असंगयं बिंति जयपहुणो ॥४९॥ एयाणं समुदाओ पंचण्ह गुणाण परमसामइयं । अहव उदासत्तं चिय, एक्कं तक्कारणं परमं ॥५०॥ किं बहुणासावज्जजोगवज्जण-निरवज्जजोगसेवणारुवं । सामाइयमित्तरियं, गिहिणो परमं गुणट्ठाणं ॥५१॥ इय तइयाए सम्म, करेइ सामाझ्यं स पडिमाए । मणदुप्पणिहाऽऽणाई, तहाऽईयारे य परिहरड़ ॥५२॥ पुव्यप्पडिमाजुत्तो, अट्ठमीमाईसु पयदियहेसु । पडिवज्जई चउत्थीए, पोसहं चयिहंपि गिही ॥५३॥ | अप्पडिदुष्पडिलेहिय-सेज्जासंथारगाऽऽइ वज्जेइ । सम्मं च अणणुपालण-माऽऽहाराईसु एयाए ॥५४॥ | अह पंचमपडिमाए, पोसहदिवसेसु एगराईयं । सो पडिमं पडिवज्जड़, पुव्योइयसव्वगुणजुत्तो ॥५५॥ असिणाणो दिणभोई, अबद्धकच्छो दिणम्मि क्यबंभो । रतिं परिमाणकडो, पडिमायज्जेसु दियहेसु ॥५६॥ झायइ पडिमाए ठिओ, तिलोयपुज्जे जिणे जियकसाए । नियदोसपच्चणीयं, अन्नं या पंच जा मासा ॥५॥ छट्ठीए बंभचारी, रत्तिं पि स होइ नयरि सविसेसं । जियमोहो अविभूसो, ठाइ रहे सह न इत्थीहिं ॥५८॥ चयइ य अइप्पसंग, सिंगारकहं च जाव छम्मासा । पुयाइयपडिमासु, पडिबद्धमणो य अपमाई। ॥५९॥ सत्तमपडिमाए पुणो, सचित्तमाऽऽहारमेस परिहरड़ । पुब्योइयगुणजुत्तो, अपमतो सत्त जा मासा ॥६०॥ आरंभमट्ठमीए सावज्जं कारवेइ पेसेहिं । पुव्यपवत्तं न सयं वित्तिकए अट्ठ जा मासा ॥६१॥ नवमीए पेसेहि वि, सावज्जं कारयेइ नाऽऽरंभं । धणवं संतुट्ठो पुत्त-भिच्चनिक्खित्तभारो ति ॥६२॥ लोगववहारविरओ, थेवममत्तो य परमसंविग्गो । एसो पुव्यपवंचिय-गुणजुत्तो जाय नव मासा ॥६३॥ दसमीए तदुद्देसेण, जं कडं तंपि भुंजड़ न भत्तं । छुरक्यमुंडो कोई, सिहाधरो या हवेज्ज गिही ॥४॥ पुट्ठो य निहाणाऽऽई, सयणेहिं कहेज्ज जड़ स जाणेज्जा । पुव्यपडिमासमग्गो, दस मासा जाब विहरेज्जा ॥६५॥ एगारसीए एसो, खुरेण लोएण वा वि मुंडसिरो । रयहरणोयग्गहधारी, समणभूओ दढं विहरे દૂધી नवरं सयणसिणेहे, अव्वुच्छिन्ने तहाविहे कहयि । सन्नायसन्निवेसं, दटुं बच्वेज्ज नियसयणे ૬ળી तत्थ वि सो आहारं, साह विव एसणाए उवउत्तो । कयकारियाडणमोयण-विवज्जियं चेय गिण्हेज्जा ॥६८॥ अह तस्सऽभिगमणाउ, पुव्याउत्तं तु भत्तसूयाई । कप्पइ आहारगयं, पच्छाउत्तं तु नो कप्पे ॥६९॥ तस्स य भिक्खट्ठाए, घरप्पविट्ठस्स जुज्जए योत्तुं । पडिमोवगयस्स महं, भिक्खमहो देह गिहिणो ति ॥७०॥ एवं च विहरमाणो, को सि तुम इय परेण सो पुट्ठो । सड्ढो सावगपडिमा-पडिवन्नो हं ति पडिभणइ ॥७१॥ एवं उक्कोसेणं, एक्कारस-मास जाव विहरेइ । एगाहादियरेणं, सेसासु वि इय जहन्नेणं ॥७२॥ सम्मत्तासु य एयासु, कोवि धीरो गहेज्ज पव्वज्जं । अन्नो गिहत्थभावं, वएज्ज पुत्ताऽऽइपडिबंधा ॥७३॥ गेहट्ठिओ य संतो, पायं पम्मुक्तपाववावारो । सइ सामत्थे सीयंत-जिणगिहाऽऽई पडियरेज्जा ॥४॥ “साधारणद्रव्यविषयवर्णनम्" - तदडभावे साहारण-दव्यवएण वि करेज्ज तच्चिंतं । साहारणडत्थविणिओग-विसयमिय नवरि जाणेज्जा ॥७५॥ जिणभवणं१ जिणबिंबं२, तहजिणबिंबाण पूयणं तइयं३ । जिणपययणपडिबद्धाइं, पोत्थयाणि य पसत्थाई ॥७६॥ 78 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २७७७-२८१२ जिनभवनं - जिनबिम्बं निव्वाणसाहगगुणाण, साहगा साहुणो, य५ समणीओ६ । सद्धग्मगुणाऽणुगया, सुसावगा साविगाओ तहा८ ॥७७॥ पोसहसाला ९ दंसण- कज्जं पि तहाविहं भये किंपि १० । एवं दस ठाणाई, साहारणदव्यविसओ ति "जिनभवनं" n ॥७९॥ ॥८०॥ ॥८१॥ ॥८२॥ ॥८४॥ ॥८५॥ ૫૮૬૫ ॥८७॥ બ્લો ॥८९॥ ॥९१॥ तत्थ य समणा अणियय-विहारचरियाकमेण जहसुतं । अणुपुचेण पुराईसु, मास - चउमासकप्पेण पडिबंधपरिच्चाएण, दव्वखेत्ताऽऽइएस विहरंता । तह सावगा वि वाणिज्ज - तित्थजत्ताऽऽइकज्जेण मुणियाऽऽगमपरमत्था, जिणसासणपरमभत्तिसंजुत्ता । गामाऽऽगरनगराईसु, किर चरमाणा पयत्तेण | मग्गाऽणुलग्गगामाऽऽइएसु, जिणभवणपमुहनियपक्खं । गामदुवारऽब्भासाइ- संठियं पसिणयंति जणं तव्ययणाओ अत्थि त्ति, सम्ममऽवगम्म जिणगिहाऽऽईयं । गच्छंति तत्थ विहिणा, पमोयभरपुलइयसरीरा ॥८३॥ जड़ ताय थिरा ता पढम-मेव चिअवंदणं जहुत्तविहिं । काऊणं जिणगेहम्मि, भग्गलुग्गाइ पेहंति अह ऊसुगत्तणं ता, संखित्तयरं पि पणमिउं पच्छा । तस्सडियपडियमंगं, पेहंति होज्ज तं कह वि तत्तो कुणंति सामत्थ- संभवे सायगा उ तच्चितं । तद्देसणादुवारेण, चेव मुणिणो वि जहजोग्गं | अहवा सदेसपरदेस - गामनगराऽऽगराइठाणेसु । सच्चरियजणाऽऽइन्नेसु, सावगेहिं विरहिएसु परिदुब्बलसावगसंग - एसु वा उदयिवत्थुपुरिसेसु । जं होज्ज जिणघरं जिण्ण - सिण्णपरिसडियपडियाई विहडियसंधिचयं वा, परिखीणदुवारदेसपिहणं वा । देसणपयट्टमुणिजण-मुहाउ तं अहव लोगातो सोच्या किंपि कहिं पिव, दठ्ठे सयं सायगो विचिंतेज्जा । अणुरत अट्ठिमिंजो, जिणसासणभत्तिरागेण ॥९०॥ केणाऽवि पुन्ननिहिणा, इयरूवजिणालयं कुणंतेण । परिपुंजिऊण धरिओ, नियजसपसरो अहं मन्ने किंतु इय निबिडघडणे वि, अहह ! कालेण विहियमिह खूणं । अहवा विणस्सरा च्चिय, सव्यपयत्था भवसमुत्था ॥ ९२ ॥ ता अहमऽहुणा भंजेमि, एयक्खूणं तहा कए य इमं । भयगत्तं तोणिवडिय - जणहत्थाऽऽलंबणं होही ॥९३॥ इति चिंतिऊण जड़ तं सत्तो सयमेव सुंदरं काउं । ता एक्को च्चिय कुणेड़, सक्को काउं अह न एक्को ॥९४॥ ता अन्नेसिं पि हु सावगाण, जाणाविडं तमऽत्थं तो । तव्विसयमऽब्भुवगमं, कारावेज्जा भणिइकुसलो ॥९५॥ अह जह सो तह ते वि हु, असमत्था तत्थ पत्थुए अत्थे । अन्नो वि नऽत्थि तक्कज्ज-कारओ को वि जड़ ताहे ॥ ९६ ॥ इह अंतरम्मि साहा - रणस्स दव्यस्स होइ तं विसओ । न हु साहारणदव्यं वएज्ज धीमं जहकहंपि सीयंतजिणगिहाइ वि, नो वट्टेज्जा अओ उ अन्नत्तो । दव्वाऽभावे साहा - रणं पि विवेज्जसु तहाहि जिन्नं नवीकरेज्जा, 2 सिन्नं पुण संठवेज्ज ल्हसियं च । पुणरवि संपधरेज्जा, सडियं च पुणो वि संधेज्जा ॥ ९९ ॥ पडियं समुद्धरेज्जा, लिंपावेज्जा य विगयलेवं च । विगयछुहं च छुहावेज्ज, देज्ज पिहणं च अपिहाणे ॥ २८०० ॥ तह कलसाऽऽमलसारग-पट्टथंभाऽऽइयं तदंगं च । सडियपडियं तहा पडिय - खंडिच्छिड्डुं च पायारं एमाईयं अन्नं पि, तग्गयं परिविसंठुलं दटुं । सम्मं समारएज्जा, सव्यं सव्यप्पयत्तेण | साहारणदव्येण वि, तं जिणगिहमुद्धराविषं संतं । गुणरागिपेच्छगाणं, होइ धुवं बोहिलाभकए पुढवाइयाण जड़ वि हु, होइ विणासो जिणिदगिहकरणे । तव्विसया तह वि सुदिट्ठि - णोऽत्थि नियमेण अणुकंपा ॥४॥ एयाहिंतो बुद्धा, विरया रक्खंति जेण पुढयाई । तत्तो निव्वाणगया, अबाहगा आभवमिमाणं रोगिसिरावेहाऽऽईसु, वेज्जकिरिया व सुप्पउत्ता उ । परिणामसुंदर च्चिय, चेट्ठा संबाहजोगे वि इय जिणभवणद्दारं, भणियं जिणबिंबदारमऽह भणिमो । तत्थ पुराऽऽइसु सव्यंग - संगयं अत्थि जिणभवणं ॥७॥ "जिनबिम्बं " ॥९७॥ ॥९८॥ ॥१॥ ॥२॥ m ॥५॥ En ॥९॥ किंतु न तत्थऽत्थिजिणिंद - बिंबमंतो जओ उ केणाऽवि । तमवहीरियं य होज्जा, भग्गं व विलुंगियं च तओ ॥ ८ ॥ पुव्वत्तविहाणेणं, साहारणदव्यमवि समादाय । नियसामत्थाऽभावे, सम्मं कारेज्ज जिणबिंबं कारिता जिणबिंबं, निरुवमरूवं ससिं व सोमं च । पुव्युत्तजिणगिहे तं, उचियविहीए पइट्ठेज्जा तं च गुणरागिणो केई, पेच्छिउं उच्छलंतरोमंचा । बोहिं लभेज्ज अन्ने, जिणदिक्खं तम्मि चेव भवे जड़ पुण अणज्जजणसंगएसु, खिज्जतवत्थुपुरिसेसु । पच्वंतदेसवत्तिसु सावगजणवज्जिएसुं च 1. भग्गलुगाइ = रुग्णं = जीर्णम् । 2. सिन्नं = शीर्णम् । 3. छुहावेज्ज = सुधयेत् = धवलयेत् । 79 ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २८१३-२८४५ साधारणद्रव्यव्ययविषये जिनपूजा - आगमलेखन - साधु-साध्वी स्वरूपम् । गामनगराऽऽगराइसु, जिणभवणं होज्ज नवरि जज्जरियं । जिणबिंबं पुण सव्यंग-सुंदरं दरिसणीयं च ॥१३॥ तत्थ अणारियजणकीर-माणआसायणाऽऽइदोसभया । तत्तो जिणालयाओ, तहट्ठियाओ वि कड्ढिता ॥१४॥ जिणबिंबं अन्नम्मि यि, संचारेज्जा पुराइए उचिए । अन्नत्तो संचारण-सामग्गीए पुण अभाये ॥१५॥ साहारणदव्याओ, तस्सामग्गिं करेज्ज जहजोगं । एगं च कए के के, न बोहिबीयाऽऽइणो सुगुणा ॥१६॥ इय जिणबिंबद्दारं, भणियं जिणपूयदारमऽह भणिमो । तत्थ सुचरियजणड्ढत-पमुहगुणजुत्तरोत्तेसु ॥१७॥ अणहं जिणिंदभवणं, अणहं जिणबिंबमवि परं किंतु । न कुओ यि पत्तियामेत-मयि तहिं किंपि पूर्यगं॥१८॥ "साधारणद्रव्यव्ययविषये जिनपूजा" - होइ ति सयं दटुं, पुव्युत्तविहीए अहव सोऊणं । तो मेलिय सव्ये वि हु, तप्पुरगामाइमयहरगे ॥१९॥ साहू व सावगो या, सुनिउणवयणेहिं पन्नवेज्ज जहा । इह तुम्हे चेव परं, एक्के धन्ना न अन्ने उ ॥२०॥ जाण किर सन्निवेसे, इयरुवाई विचित्तभत्तीणि । दीसंति कित्तणाई, मणोहराई तहऽन्नं च । सब्वे वि पूणिज्जा, सम्म सव्वे वि वंदणिज्जा य । सव्ये वि अच्चणिज्जा, तुम्हाणं देवसंघाया ॥२२॥ तह कीस इह न संपइ, पूया जुत्तं न चेव तुम्हाणं । पूयंडतरायकरणं, देवाणेवमाइएहिं च ॥२३॥ वयणेहिं ते सम्म, उवरोहेज्जा अणिच्छमाणेसु । अन्नत्तो पूयाऽसं-भवे य साहारणं पि धणं ૨૪ दाउं तत्थाऽऽवासिय-मालागाराऽऽइलोयहत्थेणं । पूयं धूवं दीवं च, संखसदं च कारेज्जा एवं च कए ठाणाऽणु-रागकारीण भव्यसत्ताण । कप्पदुमो ब्ब 'उत्तो, नूणं गेहंडगणे चेय ॥२६॥ दटुं पूयाऽइसयं, परमगुरुणं जिणाण बिंबेसु । बंधति बोहिबीयं, जीवा संजायबहुमाणा एवं पूयादारं, सम्म संखेवओ समक्खायं । योच्छं गुरुयएसा, पोत्थयदारं पि अह तत्थ ૨૮ “आगमलेखन" - अंगोयंगनिबद्धं, अणुओगचउक्कओवओगिं या । जोणीपाहुडजोड़स-निमित्तगभऽत्थमज्वरं या ॥२९॥ जं सत्थं जिणपवयण-परमुन्नइकारणं महत्थं च । योच्छिज्जतं दिटुं, सुयं च तं जड़ लिहावेउं सयमसमत्थो अन्नो य, नत्थि जड़ तल्लिहावगो कोई । ता साहारणदव्येण, तं लिहायेज्ज युड्ढिकए ॥३१॥ तिसरं चउस्सर बहुस्सरं च, विहिणा लिहाविऊणं च । तप्पोत्थयाई सुवियड्ढ-संघट्ठाणेसु हावेज्जा ॥३२॥ जे गहणधारणाए पडुया ओयस्सिणो यईकुसला । पइभाऽऽइगुणसमेया, ताण समप्पेज्ज विहिपुव्यं ॥३३॥ आहारवसहिवत्थाऽऽइएहिं, काऊणुवग्गहं ताण । सासणवन्ननिमित्तं, कुज्जा तव्यायणविहिं च ર૪ો अद्धरिसणीयमऽन्नेसिं, सासणं कयमिणं कुणंतेणं । थिरया नवधम्माणं, चरणगुणाणं विसुद्धी य ॥३५॥ अव्वोच्छित्ती जिणसासणस्स, भव्वाडणुकंपणं अभयं । सत्ताण य ता एत्थं पयट्टियव्यं जहासतिं ॥३६॥ पोत्थयदारं भणिऊण, भन्नई साहुदारमऽह तत्थ । वत्थाऽसणपत्तोसह-भेसज्जाऽऽइसमत्थं पि રૂણા "साधु-साध्वी" - फासुयमकयमऽकारिय-मडणणुमयं कोडिनवगपरिसुद्धं । उस्सग्गेणं मुणिपुंग-याण संजमकए देज्जा ૨૮ संजमपोसकए च्चिय, जड़ जइदाणं कहं तयट्ठाउ । एमेव पुढविकायाइ-हिंसणं होइ जुत्तं ति ॥३९॥ 'संथरणम्मि असुद्धं, दोण्ह वि गिण्हंतदितयाणऽहियं । आउर-दिटुंतेणं, तं चेव हियं असंथरणे' ૪૦ चोरहरिओवहितं, गाढगिलाणतमोमवत्तितं । एमाई अन्नं पि हु, अयवायपयं पडुच्च पुणो ॥४१॥ यत्थाऽसणाऽऽइयाणं, ओसहभेसज्जमाऽऽइयाणं च । जड़ सब्योवाएहिं अहागडाणं न संपत्ती ૪૨ तो कीयगडाऽऽईणि वि, संपाडेज्जा ह सपरसामत्था । अह अन्नतो तस्सत्ति-संभयो नेय से अस्थि ॥४३॥ संपाडेज्जा इय अंतरम्मि, साहारणेण सो सम्म । साहू वि ताणि गिण्हइ, छड्डणचित्तो अयन्नाए ૪૪ો जं उस्सग्गनिसिद्धाइं, जाइं दव्याणि संथरे मुणिणो । कारणजाए जाए, सव्याणि वि ताणि कप्पंति ॥४५॥ चोयग आह1. उप्तः। ॥३०॥ 80 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २८४६-२८७६ साधारणद्रव्यव्ययविषये श्रावक-श्राविकास्वरूपम् ॥५७॥ जं चिय पए निसिद्धं, तं चिय जइ कप्पई पुणो तस्स । एवं होइ अणवत्था, न य तित्थं नेय सच्चं तुं ॥४६॥ उम्मत्तवायसरिसं खु, दंसणं न विय कप्पडकप्पं तु । अह ते एवं सिद्धी, न होज्ज सिद्धी उ कस्सेवं ॥४७॥ आयरिय आहन वि किंचि अणुन्नायं, पडिसिद्धं वा वि जिणवरिंदेहिं । एसा हु तेसिमाउडणा, कज्जे सच्चेण होयव्यं॥४८॥ किंचदोसा जेण निरुभंति, जेण खिज्जति पुव्यकम्माई । सो सो मोक्खोवाओ, रोगाऽवत्थासु समणं व ॥४९॥ उज्जुयमग्गुस्सग्गो, अववाओ तस्स चेव पडिवक्खो । उस्सग्गा विणिवइयं धरेइ सालंबमऽयवाओ ॥५०॥ धावंतो उच्चाओ, मग्गन्नू किं न गच्छति कमेण । किं या माई किरिया, न कीरई असहओ तिक्खं ॥५१॥ उन्नयमऽवेक्ख निन्नस्स पासिद्धी उन्नयस्स निन्नाओ । इय अन्नोन्नपसिद्धा, उस्सग्गऽववाय दो तुल्ला ॥५२॥ जावइया उस्सग्गा, तावइया चेव होंति अववाया । जावइया अववाया उस्सग्गा तत्तिया चेव ॥५३॥ सट्ठाणे सट्ठाणे सेया बलिणो य होंति खलु एए । सट्ठाणपरट्ठाणा य, होति वत्थूउ निप्फन्ना ॥५४॥ संथरओ सट्टाणं, उस्सग्गो असहुणो पट्ठाणं । इय सट्ठाण परं या न होड़ वत्थु विणा किंचि ॥५५॥ अववाओ वि ठियस्स हु, गीयस्स य पुट्टकारणे नेओ । अलमडइपसंगभणणेण, पत्थुयं चेव अह भणिमो ॥५६॥ सणाऽऽइलाभे, चएज्ज साहू असुद्धए विहिणा । पगुणत्ते आलोयइ, असुद्धमऽन्नाइ जं भुत्तं । इय जह साहदारं, समणीद्दारं पि तह वियाणेज्जा । नवरं इत्थित्ताओ, तासिमडवायाण बहलतं ॥५८॥ परिपिक्कसाउफ्लभर-बदरिसमाओ हवंति अज्जाओ । गुत्तियइपरिगयाओ वि, सव्वगम्माउ पयईए ॥५९॥ ता ताण परमजत्तेण, सव्वओ निच्चरक्खणीयाण । जड़ पच्वणीयदुस्सील-लोयवसओ भवेऽणत्थो ता साहारणदव्य-प्पयाविहिणा वि सयमसामत्थे । कुज्जा संजमपच्चूह-कारिविद्धंसणं सम्म ॥६१॥ भणियं समणीदारं, सावगदारं भणामि तहियं च । धम्माणुरतचितो, धम्माउणुट्ठाणनिरओ य ॥६२॥ "श्रावक-श्राविका" - जह कहवि गुणपहाणो, सुसावओ वित्तिदुब्बलो होइ । अत्थि य वणिक्कला से, दविणविणासी य जड़ नो सो ॥६३॥ ताहे साहारणदव्यओ वि, काऊण कं पि हु ववत्थं । ववहारनिमित्तं, तस्स, मूलरासिं समप्पेज्जा ॥६॥ अह निम्विन्नाणो तह वि, अद्धपायाऽऽइ देज्ज से अहवा । जइ नो वसणोवहओ न, कलहणो नेय पिसुणो.य ॥६५॥ करकच्छाऽऽइसु सुद्धो, पवन्नदक्खिन्नविणयसारो य । ततो कम्मरंतर-ठाणे सो च्चिय धरेयव्यो ॥६६॥ समधम्मवत्तिणो वि हु, तव्यिवरीयस्स थारणे नियमा । संभवइ अप्पणो पव-यणस्स खिंसापयं लाए ॥६॥ एवं सावगदारं व, साविगादारमवि वियाणेज्जा । सविसेसमडइ विहेया, तच्चिंता अज्जियाणं व ૬ળા एवं च कुणंतेणं, तेणं जिणसासणस्स धीरेणं । अव्योच्छित्तिनिमित्तं, पमपयत्तो ओ होइ ॥६९॥ अहवाएवं विहिए विहियं, सम्मताऽऽइगुणपक्खयाइत्तं । सव्वन्नुसासणं पि य, पभावियं होइ तेणेय ॥७०॥ अविभावियसपरजणो, अणविक्खियसरिसजाइउवयारो । सहधम्मयरा मह बंध-व ति निच्वं विचिंतितो ॥१॥ साहम्मियाण सड्ढो, करेइ संसुमरणं पगरणेसु । संभासणं च दिट्ठाण, पूयणं पूगमाईहिं ॥७२॥ पडियरणं रोगाईसु विस्सामणमऽद्धगमणखिन्नाणं । ताण सुहेण सुहितं, तग्गुणउब्भावणं चेव अवराहगविण जायण च, बहुगुणअवंझलाभम्मि । यवहारे सीयंताण, सारणं धम्मकिच्चेसु ૭૪ दोसाण सेवणे या-रणं तहा चोयणं सुमहुरेहिं । वयणेहिं तेहिं परुसेहिं, चेव पडिचायण बहुसा ॥७५॥ सइ सामत्थे उवठंभ-करणमऽह वित्तिदुब्बलाणं च । पडियारकरणमडच्चन्त-वसणगत्तानिवडियाणं ॥७६॥ नीसेसधम्मकज्जुज्जयाण, साहेज्जकरणमडणवरयं । दंसणनाणचरित्ते, ठियाण सम्म थिरीकरणं ॥७७॥ इय बहुविहप्पगारं, साहम्मियवच्छलत्तणं नियमा । कुणमाणो सड्ढो तित्थ-बुढिमऽणहं जणइ भुवणे ॥७८॥ एवं पसंगपत्तउत्थ-जुत्तमऽक्वायसाविगादारं । पोसहसालादारं पि, संपयं संपवक्वामि ॥७९॥ 81 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २८८०-२६१६ साधारणद्रव्यव्ययविषये पोषधशाला स्वरूपम् - दर्शनकार्यस्वरूपम् "पोषधशाला स्वरूपम्" - सुस्सामिपरिग्गहिएसु, तहय सुविसिट्ठजणसमिद्धेसु । गामनगराऽऽगराइसु, पोसहसाला सडियपडिया ॥८॥ जड़ होज्ज होज्ज सड्ढा य, तत्थ भवभीरुणो महासत्ता । निच्चं पि छब्बिहाऽऽवस्स-याइसद्धम्मकम्मरया ॥८१॥ नवरि तहाविहलाभं-उतरायकम्मोदयस्स दोसेण । सव्यवसाया वि हु कट्ट-कप्पणा होति निव्याहा રા उद्धरिउमणा वि न चेव, सत्तिमंता तमुद्धरेउं जे । वियलियपक्खा सलहा व अप्पयं दीवए पडियं ॥३॥ ता सइ सत्तीए सयं अन्नत्तो देसणं व काऊणं । उभयाऽभावे साहा-रणाओ तं उद्धरावेज्जा ૮૪ एवं समुद्धराविय-पोसहसालो विहीए सो धन्नो । अन्नेसिं सुपवित्ती-निबंधणं होड़ नियमेण ॥८५॥ दंसाई अगणिते, पोसहसामाइयं पवत्ते उ । संवेगभावियमई, झाणउज्झयणं ,ते उ ॥८६॥ दळूण तत्थ सड्ढे, केइ निबंधति बोहिबीयाई । अन्ने उ लहुयकम्मा, एतो च्चिय संपबुज्झंति तित्थस्स वन्नवाओ, गुणरागीणं तहा पवित्ती य । अव्योच्छित्ती तित्थे अभयं घोसावियं लोए ૮૮ एतो जे पडिबुद्धा, नियमा निव्याणभायणं ते उ । ता तक्कयवहणाउ, विमोइया होंति जीया उ ૮ जइ वि नियनियगिहेसु, आणंदाईण पुरिससीहाणं । एक्केक्कगाणुवासग-दसापमोक्नेसु सत्थेसु ॥९०॥ पोसहसालाओ यन्नियाओ, न तहा वि संभवइ दोसो । सुबहूणं साहारण-पोसहसालाए भणणे वि ॥११॥ जम्हा सुबहूणं मीलगम्मि, सविसेसभाविणो सुगुणा । सम्मं अन्नोन्नकया, अणुहवसिद्ध च्विय तहाहिं । ॥९२॥ अन्नोन्नविणयकरणं, अन्नोन्नं सारणाऽऽइकरणं च । धम्मकहावायणपुच्छ-णाऽऽइसज्झायकरणं च ॥९३॥ सज्झायपरिस्संताण, तह य विस्सामणाऽऽइकरणं च । अन्नोन्नं सुहदुक्खाइ-पुच्छणं धम्मबंधूणं ॥९४॥ सुत्तऽत्थतदुभयाणं, तुट्टाणं संधणं च अन्नोन्नं । अन्नोन्नं दिट्ठस्सुय-सामायारीए परिकहणं ॥९५॥ अन्नोन्नसुयऽत्थाणं, विसयविभागम्मि ठावणं सम्मं । कायव्वं जोगविसए विहिअविहिनिरुवणं च मिहो ॥१६॥ पुच्छा य एक्कपोसह-सालामिलियाण होइ अन्नोन्नं । सड़ निव्यहंतगेयर-धम्मक्खणगोयरा ततो ९७॥ तन्निव्वहणुववूहा, इयरेसुच्छाहणं सुयविहीए । इय पेरणीयपेरग-भावेण गुणुभयो परमो ॥९८॥ । यवहारे वि. रायपत्ताऽऽडयाण निहि, । धम्मक्खणस्स करणं. पोसहसालाए एक्काए ९९॥ एवं किर सुबहूण वि, सुसावयाणं सुधम्मकरणाय । पोसहसाला एक्का, जुत्त ति क्यं पसंगेण ॥२९००॥ पोसहसालादारं, गुरुवएसेण साहियं एयं । दसणकज्जद्दारं, दरिसेमि संपयं किंपि ॥१॥ "दर्शनकार्यस्वरूपम्" - दसणकज्जं नेयं, चेइयसंघाइगोयरं जमिह । अवितक्कियं कया वि हु, विसेसकिच्चं तहारुवं |तं पुण दुविहं इहइं, अपसत्थपसत्थभेयओ जाण । तत्थाऽपसत्थगं तं, जं पडणीयाऽऽइदारेण ॥३॥ तित्थयरभवणपडिमा-भवंतभंगाऽऽइयाडणुबद्धाणं । संघोवद्दवछोभगरूवं, पडणीयकयम हवा देवादायाऽऽइकरावणाऽऽइ-विसयं च जं पसत्थं तं । तत्थ दुगे वि हु रायाइ-दंसणं संभवइ पायं ॥५॥ तं च न विणोवयारं, तदसंपत्ती जया उ अन्नतो । ता साहारणदव्याओ, तं विचिंतेज्ज उचियन्नू દા एवं च कए के के, न उभयलोगुब्भवा गुणा तस्स । इह लोयम्मि कित्ती, परलोए सुगइगामित्तं ॥७॥ चेइयकुलगणसंघे, आयरियाणं च पवयणसुए य । सब्बेसु वि तेण कयं, एत्थ जयंतेण जहजोगं साहारणस्स जम्हा, चेइयभवणाऽऽइयं इमं चेव । युत्तं दसगं विसओ, ता धन्नाणं नु एत्थ मई ॥९॥ इह होज्ज कस्सइ मई, ठाणगदसगं इमं न हु कहिंपि । वुत्तं जिणुत्तसुत्ते, न परुत्तं पुण पमाणते ॥१०॥ स इमं वत्तव्यो हंत!, समुदियं नो कहिं पि भणियमिणं । भेएणं पुण सुत्ते भणियं चिय बहुसु ठाणेसु ॥११॥ तह साहारणदव्यं, पयडं चिय ताय दंसियं सुत्ते । चेइयदव्यं साहा-रणं च इच्वाइवयणेहिं ॥१२॥ तस्स विणिओगठाणं पि, अत्थओ भणियमेव भयइ धुवं । इह पुण दसहा जिणमंदि-राइवेण तं चेय॥१३॥ विसयविभागेण फुडं, निरूवियं भव्वजणहियडट्ठाए । आगमविरोहविरहेण, कुसलबंधिक्कहेउ ति ॥१४॥ जिणभवणाऽऽइपयाणं, एक्केक्कमि वि क्या य पडिवत्ती । पुन्ननिमित्तं जायइ, किं पुण ताणं समुदियाणं ॥१५॥ साहारणं च दव्यं आरंभंतस्स तद्दिणाओ वि । जिणभवणप्पमुहेसु, जायइ सव्येसु पडिवत्ती ॥१६॥ 82 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २६१७-२६५३ चतुर्थः पुत्रप्रतिबोधकद्वारम्. जं तस्स साउणुबंधो, पधावइ पढममेव समकालं । तब्बिसयसव्वदब्ब-क्खेत्ताऽऽइसु चित्तपडिबंधो ॥१७॥ तम्हा नियदव्याओ, किंचि विहवाडणुसारओ चेय । परिचिन्तिऊण साहा-रणस्स पारंभगा जे उ ॥१८॥ जे य अणिंदियविहिणा, पइदिणमेयंनयंति परिवुड्ढिं । परिवालयंति जे वि य, अचलियचित्ता महासत्ता ॥१९॥ जे वि य पुव्युत्तकमेण, चेव जुंजंति त जहाजोगं । तित्थयरनामगोतं, कम्मं बंधति ते धीरा ॥२०॥ पइदिणतविसयपवड्ढ-माणमाणसविसेसपरिओसा । नारयतिरयगइदुगं, ते नूण नरा निरंभंति ॥२१॥ संपति क्या वि य, न बंधगा अयसनीयगोताणं । जायंति य सविसेसं, निम्मलसम्मत्तरयणधरा ॥२२॥ थी पुरिसो वा पच्छा वि, तत्थ रित्थं नियं पयच्छड़ जो । सो कल्लाणपरंपर-मऽवियप्पं पायए पमं ॥२३॥ इह लोगे च्चिय जायइ, नियजसपब्भारभरियभुवणयलो । पुण्णाऽणुबंधिसंपय-सामी भोई सुपरिवारो ॥२४॥ जंमंतरम्मि उत्तम-देवो तदणंतरं सुकुलउत्तो । पत्तो चरित्तसंपत्ति-भायणं तयणु सिद्धो वि ॥२५॥ गएणं, जड़ ता न ह तब्भवेण से मोक्खो । ता तइयसत्तमेसं, अट्ठमयं पुण न लंघेड़ ॥२६॥ जे पुण तम्मूढमणा, यामोहेणं कहिं पि केणाऽपि । नियपक्खयायवसगा, एक्कम्मि चेय जिणभवणे ॥२७॥ जिणबिंबे वा मुणिसाव-गाउडहए या वि एक्कहिं चेव । न य सव्वजिणगिहाऽऽईसु, सम्म पुचोदितविहीए॥२८॥ वेच्वंति पंचगा पव-यणस्स ते कुगतिगामिणो जेण । तारिसपवित्तिओ ते, सासणयोच्छेयमिच्छंति ॥२९॥ भणियमियकालविगमण-पडिदारं सप्पसंगमऽपि तइयं । युच्वइ चउत्थमेत्तो, पुत्तपडिबोहपडिदारं ॥३०॥ “पुत्रप्रतिबोधकद्वारं" - अह पुव्वपवंचियनिच्च-किच्वनिच्वलनिलीणनियचित्तो । केवड़ए वि हु काले, योलीणे वाहिविरहेण ॥३१॥ पुत्तपयपरिणइं पेच्छि-ऊण सविसेसवड्ढिउच्छाहो । आराहणाऽभिलासी, सुसावगो जायवेरग्गो ॥३२॥ निबिडपडिबंधबंधुर-मडणद्धरं पुत्तगं समाहूय । भववेरग्गकरीए, गिराए एवं पयंपेज्जा ॥३३॥ वच्छ! नियच्छसु पयईए, दारुणतं भवस्स एयस्स । जम्हा इह दुल्लंभ, पढमं पि जियाण मणुयत्तं ॥३४॥ मरणस्स संचयारो, जम्मो अच्चंतकट्ठसंट्ठपा । संज्झब्भरायचवला य, संपया पयइओ चेव ॥३५॥ भीमा रोगभुयंगा, विबलतं निंति थेवकाले वि । वडविडविबीयतुच्छो, साडयाओ वि य सुहाउणुभयो ॥३६॥ सुरगिरिगरुयाई आव-डंति दुक्खाई परमतिक्खाई । अणुपयमऽणुलग्गाओ, वियरंति आवयाओ वि ॥३७॥ निच्छियभाविवियोगा, सव्ये वि हु लट्ठइट्ठसंजोगा । उप्पज्जतमणोरह-पच्चूहा एइ मच्चू वि ॥३८॥ न य लक्खिज्जइ एत्तो, मरिऊणं पेच्च कत्थ गंतव्यं । एवंविहा य दुलहा, पुणो वि सद्धम्मसामग्गी ॥३९॥ ता वच्छ! न जावडज्ज वि, कवलज्जिइ मह जरापिसाईए । तणुपंजरमऽबलतं, वच्चंति न इंदियाई पि ॥४०॥ उट्ठाणबलपरक्कम-वियलत्तणमडवि न जाव आवडइ । ताव तुहाउणुन्नाए, परलोयहियं पवज्जामि ॥४१॥ अह कन्नकुहरकडुयं, विओगसंसूयगं गिरं सोच्चा । गिरिगरुयमोग्गरेणा-हओ व्य पाहाणपडिओ व्य. ॥४२॥ मुच्छानिमीलियडच्छो, ताविच्छसरिच्छआणणच्छाओ । उप्पन्नमन्नुखलिरडक्ख-राए वाणीए नियजणगं ॥४३॥ सोगविगलंतनेतो, पुत्तो जंपेज्ज ताय! हा कीस । एवमऽकंडुड्डमर-प्पायं ययणं समुल्लवसि ॥४४॥ अज्ज वि न पत्थुयउत्थस्स, को वि संपज्जईह पत्थायो । अज्झवसायाओ इमाओ, ताय! ता संपयं विरम॥४५॥ तो जणगो से जंपेज्ज, पुत्त! अच्वंतविणयपडिबंधो । संजायपलियसंगं, ममोत्तिमंगं न किं नियसि ॥४६॥ संचलियसंचयऽटुिं, न कायजलुि पि किं पलोएसि । ईसिपयासे वि न किं, विचलंतिं दंतपंतिं पि ॥४७॥ लोयणबलियं नो नयण-जुवलियं किं न पेहसे वच्छ! । बलिसंतयं सरीरत्त-यं पि निन्नट्ठला ૪૮ पवरपरक्कमनिव्वत्त-णिज्जकज्जोवजायसंदेहं । देहं बिंबं व रविस्स, पच्छिमाउडसाविलंबिस्स। ॥४९॥ पभट्ठलट्ठसोहं, न वा विभावेसि किं तुमं वच्छ! । जेणाकालं जंपसि, पत्थावे पत्थुयऽत्थस्स ॥५०॥ लक्ष्ण हि मणुयत्तं, जिणधम्मजुयं गिहीणमिणमुचियं । जं अब्भुज्जयजीविय-मते अब्भुज्जयं मरणं । किञ्चविहियं निंदियदमणं, काऊण मणोनिरंभणं जेण । लद्धं पि माणुसतं, अहह! गयं निप्फलं तस्स ॥५२॥ ता पुत्त! समणुमन्नसु, सुपुरिसचरियाऽणुरुवमऽहमिन्हेिं । मग्गं समणुसरामि, अह पुत्तो जंपए ताय! ॥५३॥ 83 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २६५४-२६८७ कत्थ इमं तुह तेलोक्क - विम्हउप्पायगं तणुसरूवं । कत्थ व तदन्नहाकरण-कारणं चिंतियमिणं ते तहाहि पञ्चमसुस्थितघटनाद्वारम् ॥५४॥ ॥५७॥ ॥५८॥ ॥५९॥ ॥६०॥ ॥६२॥ कट्ठाऽणुट्ठाणमिमा, सुकोमला तुह तणू कहं सहिही । तिव्वाऽऽयवं दुमो च्चिय विसहइ न उणो कमलमाला ||५५ ॥ जं जत्थ वत्थु जुज्जइ, काउं तं तत्थ कुणड़ किर विबुहो । किं कुणइ कट्ठकुंडम्मि, को वि बालो वि हव्यवहं ॥ ५६ ॥ एवं तुज्झ तणूए, मणहरलायन्नकंतिकलियाए । होड़ तयाऽणुट्ठाणं, कीरंतं नणु विणासाय ता ताय ! निययबलचीरिय- पुरिसकारपरक्कमे कमसो । सफलतं नेऊणं, कट्ठाऽणुट्ठाणमाऽऽयरसु अह ईसिहसणवसविहड - माणलट्ठोट्ठउडदलं किंचि । दीसंतदन्तपंतिं च पुत्तमेवं भणेज्ज पुणो वच्छ ! ममोवरि गुरुनेह - मोहिओ तेणमेयमुल्लवसि । कहमऽन्नहा विवेए, संते एवं हवड़ वयणं किं न कयं पुत्त ! मए, मणुस्सजम्मंमि जमुचियं किच्चं । सुविसिट्ठलोयहिययस्स, तुट्ठिजणयं सइ तहाहि ॥ ६१॥ अणुरुवट्ठाणवयणा नीया लच्छी सलाहणिज्जतं । आरोवियभारक्खम-खंधो य सुओ तुमं जणिओ नियवंसपसूयाणं चिरपुरिसाणं कमो य अणुसरिओ । इय कयकिच्चो संपइ, परलोयहियं करिस्सामि जं पुण बलविरियपरक्कमाण, सहलत्तणाऽऽइयं तुमए । पुव्विं ममोवइटुं तं पि न जुतं जओ वच्छ! धम्माऽणुट्ठाणस्स वि, कालो सो चेय होइ पुरिसस्स । सामत्थं जत्थ समत्थ- कज्जविसयं परिप्फुरइ | निरवज्जिंदियसामत्थ-जोगओ सइ परक्कमे चेव । सयलाण वि करणीयाण, पच्चलो जायए पुरिसो जइया पुण सयलिंदिय - वेयल्लवसेण नीसहसरीरो । इह उट्टिउं पि न तरइ, तइया किं कुणउ कायव्यं जे धम्म अत्थकामा, नूणं तरुणत्तणंमि कीरंति । परिणयवयस्स ते चेव, होन्ति गिरिणो व्य दुल्लंघा जिणवयणमुणियतत्तस्स, सयलकिरियाकलावसज्जम्मि । बलसमुदयम्मि तम्हा, नरस्स धम्मुज्जमो जुत्तो वीरियसज्झो जायइ, तवो हि तणुमेत्तसाहणो नेय । कुलिसो निद्दलइ गिरिं, कयाइ नो मट्टियापिंडो परिवज्जिओ न सामत्थ-याए काउं तरेज्ज किंपि नरो । इच्छामि सबलविरिओ, काउं धम्मे मई तेण F ॥६४॥ ॥६५॥ ॥६६॥ ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७१॥ तहा ॥७२॥ तं विन्नाणं सो बुद्धि - पयरिसो बलसमत्थया सा उ । जा उवओगं वच्चइ एगंतेणेव अप्पहिए ता पुत्त ! ममं हियइच्छियम्मि, अणुमन्निरं तुमं पि सयं । धम्मक्खणं कुणंतो, करेज्ज इहलोगक्कज्जाई ॥७३॥ जओ तहा धम्मज्झाणेण मणं, तयऽणुट्ठाणेण मणुयजम्मं पि । पसमऽज्जणेण य सुयं पुत्त! पयत्तेण सलहेज्जा इच्चाईययणेहिं पुत्तो पडिबोहिओ समाणो सो । अणुमन्नेज्जा पियरं परलोयहियऽत्थवित्तीए पुत्तपडिबोहदारं, चउत्थमेत्थं मए समक्खायं । सुट्ठियघडणापडिदार - मिहि पंचमगमऽक्खामि सद्धम्मकरणरहिए, अइक्कमंते खणे वि अप्पाणं । मुसियं मन्नड़ धीरो, पमायदढदंडचरडेहिं ॥७४॥ ॥७५॥ ॥७६॥ कुज्जा य मई सुधम्मे, जावऽज्ज वि पभवइ चिरं जीयं । संकिन्नीभूयम्मि, तम्मि किं कीरए पच्छा जइयव्यं चिय धम्म- क्खणम्मि न पमाइयव्ययं तत्थ । सद्धम्मे निरयनरे, जं जायइ जीवियं सहलं जे निच्चं धम्मरया, अमय च्चिय ते जए मया वि नरा । जीवंता वि मय च्चिय, ते उण जे पायपडिबद्धा ॥७७॥ जाइजरामरणहरं, सद्धम्मरसायणं पिबेज्ज सया । पीएण जेण जायइ, पुत्तय! मणनिव्वुई परमा ॥७८॥ ॥७९॥ ॥८०॥ ॥८१॥ “पञ्चमसुस्थितघटनाद्वारम्" ॥८२॥ ॥८४॥ अह सो अहिगयसत्तो कह कह वि तणुब्भवेणऽणुन्नातो । पइसमयमुत्तरोत्तर- वड्ढतविसुद्धपरिणामो अप्पविणासाऽऽसंकाए, मुच्चमाणो व्य रागदोसेहिं । जोगो त्ति कलिय सहसा, सरिज्जमाणो व्य पसमेण ॥८३॥ | पुव्यकयकम्मकुलसेल-दलणदंभोलिविब्भममऽदब्भं । चारिताऽऽराहणमुज्ज - एण चित्तेण पत्थिन्तो | संसारसमुत्थसमत्थ- वत्थविगुणत्तणं च भावेंतो । पेच्छन्तो सुहसुमिणे य, कम्मल्लाघववसेण जहा किर अज्ज मए पत्तो, पवित्तफलफुल्लसीयलच्छाओ । पवरतरू तच्छायाऽऽइ - एहिं आसासिओ य दढं ॥८६॥ उत्तारिओ य केणऽवि, पहाणपुरिसेण पयइभीमाओ । हत्थाऽवलंबदाणेण, सागराओ अपाराओ ॥८५॥ ॥८७॥ 84 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २६८८-३०२५ पञ्चमसुस्थितघटनाद्वारम् इच्वाइसुमिणदंसण-पमोयवसपसरमाणरोमंचो । पडिबुद्धो वि समाणो, सविम्हयं इय विचिंतेज्ज ॥८॥ एवंविहं न दिटुं, न सुयं सुमिणं नया वि अणुभूयं । ता मन्ने कल्लाणं, भावि ममं किंपि अह कहवि ॥८९॥ तप्पुन्नपगरिसागरि-सिए व्य कालक्कमेण विहरते । पुव्वगविटे सुट्ठिय-मुणिवइणो आगए सोच्वा ॥९०॥ आगमणेणं एएसिं, नूणं किं किं न भावि भदं मे । के या निसामइस्सामि, नेव सिद्धंतपरमत्थे ॥१॥ पुट्विं निसुए थिरपरि-चिए य काहामऽहं ति चिंतंतो । गच्छेज्ज गुरुसमीये, पमोयभरभरियसव्यंगो ॥१२॥ | काउं पयाहिणत्तिय-माणंद जलाउलच्छिविच्छोहो । तो पाएसु पडेज्जा, निडालताडियधरावट्ठो ॥९३॥ | अह पज्जुवासिऊणं सोउं च तदंतिए समयसारं । सो एस सुमिणदिट्ठो, सुविसिट्ठमहाफलो साही ॥९४॥ |सो च्चिय एसो हत्थाऽव-लंबदाया ममं समुदंडतो । एवं विचिंतयंतो, पत्थायम्मि भणेज्ज गुरुं ॥९५॥ भयवमडतुच्छविसप्पिर-मिच्छत्तजलप्पवाहपडहत्थं । दीसंतमहाभीसण-मोहमहावत्तसयकिन्नं ॥९६॥ अणवरयमरणजम्मण-महल्लकल्लोलवाउलियपारं । पइसमयभमिरबहुरोग-सोगमयरोरगाऽऽइन्नं ॥९७॥ पयईए गंभीरं, अणोरपारं च पयइओ चेव । पयईए य रउद्दे, अपत्तमुदं भवसमुदं ॥९८॥ | पव्वज्जज्जाणवतं, समारुहिता विलंघिउं एयं । निज्जामगेण तुमए, हत्थं वंछामि मुणिनाह! ॥९९॥ अह धम्मगुरू पसरंत-भरिकारुन्नमंथरपुडाए । अंतोफरतडणुग्गह-वससवियासाए दिट्टीए ॥३०००॥ | अणुगिण्हंतो व्य समत्थ-तित्थजलण्हाणपूयपायं च । पकरितो महुरगिराए, तं च एवं पडिभणेज्जा ॥१॥ हंभो देवाणुप्पिय! विन्नायसमत्थभवसरुवस्स । पडिववपक्वनिक्खित्त-सव्यविसयाऽभिलासिस्स રા | आसंसापकविमुक्क-चित्तवित्तिस्स जियपमायस्स । पसमरसपाणपइखण-पवड्ढमाणप्पिवासस्स રી परमूसवठाणट्ठविय-समयविहिसारमरणकालस्स । अच्वन्तं जुत्तमिमं, तुह काउं एत्थ पत्थावे રા आलोइऊण नवरं, पडिवन्नगुणाऽइयारमुज्जुत्तो । मणवंछियं महायस!, रेसु निरवज्जपव्यज्जं ॥५॥ एवं चिय गिहिणो पाउणंति, चिरचिन्नसुगिहिधम्मस्स । फलमडहया पज्जते, संथारगदिक्खगहणेण દો तदसंपत्तीए पुण, सामाइयभावपरिणया संता । सुमुणि व्य चत्तसंगा, भत्तपरिणं पवज्जेंति ॥७॥ इच्छामो अणसद्धिं ति. कटट बहमन्निउं गरुगिरं सो। चिरकालपन्नवंछो त्ति, किं पि इय जंपड़ सख्खेयं ॥८॥ अहह! न कहिंपि भयवं!, विन्नाओ वि हु मए अपुन्नेण । एत्तियमेतं कालं, अच्छउ ता दंसणं तुम्ह ॥९॥ अहवा चिट्ठउ दंसण-छायासेवाइसंभवो ताव । कह कप्पपायवं पइ-विन्नाणं पि हु अपुन्नाण ॥१०॥ सयलपुहवीपयाणं, पयडपयावो वि जह सहस्सकरो । निच्चमडविन्नाउ च्चिय, सहायतामसखगकुलस्स ॥११॥ एवं ममावि सामिय!, मोहमहातामसेक्पयइस्स् । विगुणस्स य अच्वंतं, कह व तुमं दंसणं एसि ॥१२॥ | एस पुण मोहमइलस्स, मज्झ दोसो न चेव पहु! तुज्झ । पयडो च्चिय दिणनाहो, उलुएण अदीसमाणोवि ॥१३॥ अणुपयमक्खलियप्पसर-प्पसरंतसुकंतकित्तिकोस! तुमं । इह कत्थ कत्थ तह केण, केण भयवं! न विन्नाओ॥१४॥ अवि ययासावज्जविहारी. जड वि य न विकत्थए गणे नियए । अभणंतो च्चिय नज्जड, पयड च्चिय सा गणगणाणं॥१५॥ | भमरेहिं महुयरीहि य, सेविज्जइ जह विसिट्ठगंधेणं । पाउसकालकयंबो, तह नाह! तुमं पि लोएण ॥१६॥ | कत्थ व न जलइ अग्गी कत्थ व चंदो न पायडो होइ । कत्थ व न होति पयडा, सुगुणा तुम्हारिसा पुरिसा॥१७॥ उदए न जलइ अग्गी मेहच्छइओ न दीसए चंदो । तुम्हारिसा पुण पहू, सव्वत्थ सया पभासंति ॥१८॥ अच्चतमणहरो वि हु नाडणंदं जणइ कमलसंडाण । छणससहरो न सारय-रवी वि रम्मो वि कुमुयाणं ॥१९॥ भययं! तुमं पुण महा-पसमप्पमुहप्पहाणगुणजोगा। परमपरितोसयारी, सव्वस्स वि जीवरासिस्स ॥२०॥ किं बहुणा भणिएणं, अजं मह सव्यसामिसम्माणो । अजं चिय अणुकूला, जाया भवियव्यया मज्झ ॥२१॥ अजं यद्धावणयं अज्जं सयलूसवाण समवायो । दिणमवि अज्ज कयत्थं, अज्जं चिय सुप्पभायं ति ॥२२॥ अज्जं चिय चित्तरई, अज्जं चिय परमबंधुसंबंधो । अज्ज कयत्थो जम्मो, साफल्लं लोयणाणऽज्ज ॥२३॥ अज्ज समीहियलाभो, अज्जं चिय पुन्नरासिणा फलियं । अज्ज सवंछं लच्छीए पेच्छियं किर ममाभिमुहं ॥२४॥ निरवज्जं अज्ज मए अणप्पपुन्नाण पावणिज्जं जं । तुह पावपंसुपसमण! मुणिंद! पयपंकयं पत्तं ॥५॥ 85 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३०२६-३०६० षष्टम् आलोचनाद्वारम् - सप्तमम् आयुपरिज्ञानद्वारम् इय सुट्ठियघडणानाम-धेयं पंचममिमं पडिद्दारं । यन्नियमेतो भन्नइ छठें आलोयणादारं ॥२६॥ “षष्टम् आलोचनाद्वारम्" - अह सो सुगुरुवइटुं, उवट्ठिओऽणुट्टिउं महासत्तो । सुस्सायगो विसोत्तिय-वसेण एवं न चिंतेज्जा ॥२७॥ भुज्जो भुज्जो बहुसो, बहूण सुगुरूणमंतियम्मि मए । आलोयणा वि दिन्ना, चरियाणि य पायच्छिताणि ॥२८॥ सव्वत्थ वि जयणासार-मेव किरियासु यट्टमाणस्स । थेवं पि मह नेवऽत्थि, किं पि आलोइयव्यं ति ॥२९॥ किंतु दुरवगमसुहुमाऽइ-यारसंसोहणजत्थमवि देज्जा । आलोयणं पडुच्च, चारित्ताऽइयारमिह एक्कं ॥३०॥ नाणदंसगतवविरिय-गोयराऊडलोयणं तु साहु व्य । उवरिपवुत्तविहीए, देज्जा ता देसचारित्तो ॥३१॥ पुढविदगाऽगणिपवणे, वणे य पत्तेयडणंतरूवम्मि । बितिचउपंचिंदियगोय-रं पि अइयारमाउडलोए ॥३२॥ तत्थ पुढवाऽऽइपणगे सम्म जयणा पमायदोसेणं । जं न क्या कह वि तयं, आलोएज्जा सुयविहीए ॥३३॥ बितिचउपणिंदियाणं, परितावाऽऽईण करणओ जो य । अइयारो भंगो या, वियडेज्जा तं च हियकंखी ॥३४॥ अलिए अब्भक्खाणाऽऽइ-दिट्ठिवंचणमऽदत्तदाणंमि । तुरियवए सुमिणम्मि वि, विववकिहुंडगफासाई ॥३५॥ तह सकलत्तादन्नत्थ-केलिगझंडगफासणाऽऽईयं । वीवाहपीड़करणाऽऽइ, इत्थिपुरिसाणमविसेसा |ોરદા तह य परिग्गहमाणे खिताइअइक्कम समालोए दिसिमाणाउ परेणं, सयंगमं अन्नपेसं च વરૂણ उवभोगप्परिभोगे, अणंतबहुबीयगाऽऽइभोयणओ । कम्मयओ खरकम्म, इंगालाई तहाऽऽलोए ॥३८॥ वियडे अणत्थदंडे, तेल्लाऽऽइणं पमायकरणं तुं । पावुवएसं हिंसप्प-याणमडवझाणमऽवि सम्म ॥३९॥ सामाइए फुसणाऽऽई, दुप्पणिहाणाइ छिन्नणाई य । दंडगचालणमऽविहाण-करणपमुहं समालोए ૪ના देसाऽवगासियम्मि वि, पुढविकायाऽऽइसंवराडकरणं । अजयणचीवरधुवणा-इयं च सव्वं समालोए ॥४१॥ पोसहविसए सेज्जा-थंडिलपडिलेहणाइ जं न कयं । तप्पालणं च सम्म, जं न कयं तं पि वियडेज्जा ॥४२॥ अतिहिविभागो य कओ, असुद्धअमणुन्नभत्तपाणेहिं । इयरेहिं पुण न कओ, जईण जं तं पि वियडेज्जा ॥४३॥ नियमेण गेण्हियव्या, अभिग्गहा केई धम्मियजणेणं । निरभिग्गहस्स जम्हा, न बट्टए आसिउं तस्स ॥४४॥ एएसिं जमगहणं, पमायओ भंसणा व गहियाणं । एसो उ अइयारो, भणितो आलोयणाविसओ ॥४५॥ इय देसचरणविसए, अइयारे वियडिउं अह जड़ व्य । तवविरियदंसणगए वि, नूण वियडेज्ज अइयारे ॥४६॥ तहासाहुसाहुणिवग्गे, गिलाणओसहनिरुवणं न कयं । जिणइंदमंदिराऽऽईसु, पमज्जणाई य जं न कयं ॥४७॥ चेइयभवणंडतो जं, सुत्तं भुत्तं च पीयडमह जं च । जं पाणिपायपमुह-पक्खालणं तं च वियडेज्जा ॥४८॥ तंबुलभक्खणावील-खेलसिंघाणजल्लखिवणाई । तह साहणाइयं याल-विउरणं तह जिणगिहंडतो ॥४९॥ जमडणुचियाउडसणगहणं, असक्कहा वि य जिणिंदभवणंडतो। विहिया तं सव्वं पि हु, जिणभत्तिपरो उ वियडेज्जा ॥५०॥ जं चेइयदब्बुवजीवणं च, रागाइणा कह वि विहियं । विवलायंतं चेइय-दव्यं समुवेक्खियं जं च ॥५१॥ आसायणा अवन्ना अरहंताऽऽईण जा क्या का वि । तं सम्म सव्यं पि हु, वियडेज्जा अत्तसोहिकए ॥५२॥ धम्मगुणसंजुयाणं, निच्वं उववूहणाइ जं न कयं । जं मच्छरदोसुब्भा-वणाइकणं पि तं वियडे ॥५३॥ किं बहुणा जं किंपि ह, कहिं पि पडिसिद्धकरणमिह विहियं । कायव्याणमडकरणं, करणे वि हु जं न सम्मक्यं ॥५४॥ जिणभणियाडसद्दहणं, विवरीयपरूवणं च जं विहियं । तं सव्वं भव्येणं, आलोएयव्ययं सम्म ॥५५॥ इय छटुं गिहिगोयर-माउडलोयणदाणदारमुवटुं । जंपेमि किंपि संपड़, आउपरिन्नाणदारमऽहं “सप्तमम् आयुपरिज्ञानद्वारम्" - अह दंसियविहिणालो -यणाए दिन्नाए सो गिही कोई । होज्जा सह असह वा, समग्गमाऊडराहणं काउं ॥५७॥ जो तत्थ सहू सो वि य, नीरोगंडगो तहेयरो य भवे । असहू वि य दुरियप्पो, एवं चिय होइ नायव्यो ॥५८॥ तत्थ य सहू व्व असहू, समीवसंपत्तमरणकालो जो । सो पुव्वभणियविहिणा, भत्तपरिन्नं लहु रेज्जा ॥५९॥ आसन्नाऽणासन्नं, सेसाणं पुण वियाणिउं मरणं । भत्तपरिन्नाऽऽइविही, तक्कालुचिया भवे जुत्ता ॥६०॥ 1. विवलायंतं = विपलायमानं = विनश्यद् इत्यर्थः। 2. समर्थः । 3. असमर्थः । 86 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३०६१-३०६८ सप्तमम् आयुः परिज्ञानद्वारे एकादशप्रतिद्वारवर्णनम् आसन्नेयरमच्च, कालविभागो य जइ वि सव्यन्न । न विणा नज्जइ सम्म, विसेसओ दूसमासमए ॥१॥ तस्स परिन्नाणडट्ठा, केइ उवाए तहा वि परिथूले । अहभुवइसामि तव्विसय-सत्थसामत्थजोगेणं ॥२॥ ह जलहराउ बद्री. जह दीवाउ तमोगयपयत्था । जह धुमाओ अग्गी, जह पुप्फाओ फलप्पाओ ॥६३॥ बीयाओ अंकुरो जह, तह एयद्दारसमुदयाओ वि । लक्खिज्जइ पाएणं, कुसलेहिं मरणकालो वि ૬૪ "मृत्युकालपरिज्ञानद्वारे एकादशप्रतिद्वारवर्णनम्" - देवय-सउण-उवस्सुइ,-छाया-नाडी-निमित्त-जोइसओ । सुविणग-अरिट्ठ-जंत-प्पओग-विज्जाहिं कालगमो [दारगाह]॥६५॥ अंगुट्ठखग्गदप्पण-कुड्डाइसु पवरविज्जसत्तीए । अवयारिया विहीए, तहाविहा देवया का वि साहेज्ज पुच्छियहत्थं, नवरं विहिणा दढं सुइब्भूओ। निच्चलमणो सरेज्जा, विजं तद्देवयाडहवणिं ॥६५॥ विज्जा एत्थं पुण 'ॐ नरवीरे ठ ठ' इम ति नायव्वा । रविससिगहणे एसा, अठुत्तरदससहस्साण ॥६८॥ जायेण साहियव्या, अह संपतम्मि कज्जकालम्मि । अंगुट्ठाइसु लीयइ, अट्ठोत्तरसहसजावेण ॥६९॥ तत्तो कुमारियाओ, वंछियमउत्थं नियंति निभंतं । सम्मत्तनिच्चलाणं, णवरं वंछियकरी एसा । ॥७०॥ अहव सयं चिय सक्खा, अक्खित्तमणा गुणेहिं खवगस्स । तं नत्थि जं न साहइ केत्तियमिह मरणकालं तु [देवयादारं]॥७१॥ सज्जो व गिलाणो या, सयं परेणं य आउनाणकए । सउणं निरूवएज्जा, अह पढम तत्थ सज्जकए ॥७२॥ क्यदेवगुरुपणामो पसत्थदियहमि परमसइओ । गेहे बहि व सम्मं, परिभावेज्जा सउणभावं વાછરા अहिमूसयकिमिकीडा-कीडियगिहगोहविच्छियाऽऽईणि । 'रप्फुद्देहियफोडा-मंकुणजूयाइ अरित्तं ॥७४॥ लुयमक्कडियाजालय-भमरीगिहधन्नकीडया लोणं । लेवप्फोडविवन्नं, कारणरहियं भवे अहियं ॥७५॥ उव्येयकलहझंझा, धणनासो याहिमरणवसणाई । उच्चाडणं विएसो, सुण्णघरं होइ अचिरेण ॥७६॥ अह कहवि कया वि कहिं पि, यायसो सुहपसुत्तऽवत्थस्स । चंचूए चिहुरचयं, चुंटइ ता मरणमाऽऽसन्नं ॥७७॥ वाहणसत्थोवाणह-छत्तयछायंगकुट्टणमडसंको । जस्स किर कुणड़ काओ, सो वि लहुं जममुहगमिस्सो ॥८॥ पाएहिं महिं गाढं, गावो कुदंति अंसुपुन्नडच्छा । जइ ता न केवलो च्चिय, रोगो मरणं पि तप्पहुणो ॥७९॥ इय सज्जाऽयत्थकए, सउणसरूयं पयासियं किंपि । संपड़ गिलाणविसयं पि, किंपि साहेमि निसुणेह ॥८॥ जइ पिटुंडतं चट्टइ, सुणहो बलिऊण दाहिणदिसाए । तो मरइ वाहिघत्थो एगदिणउभंतरे मुणह ॥८१॥ जड लिहइ उरं तो दोन्नि. यासरे चट्रियंमि नंगले । दियहाई तिन्नि जीवइ, णिवेइयं साणसउणेणं जड़ सव्वंगं संकोचिऊण, सोवइ निमित्तकालंमि । तो जाणह वाहिल्लो, गयजीओ तक्खणे जातो . ॥८३॥ धुणिऊण कन्नजुयलं, अंगं बलिऊण धुणइ जइ सुणओ । ता मरइ रोगगहिओ, इंदो वि न रक्खिउं तरइ ॥८४॥ याइयवयणो लाला-मुयंतओ झंपिऊण नयणजुयं । संकोचिऊण अंगं, सोवंतो जमपूर्षि नेइ ॥८५॥ वायसपक्खिसमूहो, आउरगेहस्स उवरि जइ मिलिओ । संझासु तीसु दीसइ, तो जाण विणासए जीयं ॥८६॥ यणीयगेहे. महाणसे या ठविन्ति किर कागा । चम्म रज्जं वालं हड्डं या सो यि लह मरिही [सउणदारं ॥८॥ अह एतो कित्तिज्जड़, अव्यभिचरियं उवस्सुइदारं । तत्थ पसत्थम्मि दिणे, जाए जणसुयणसमयम्मि ॥८॥ अंतो बहिं व लिंपित्तुमुदरेणऽद्दचंदणेण तओ । गंधसमुद्धरबंधुरगंधेहिं समभिवासित्ता ॥८९॥ सूरी परंपराऽऽगय-गणहरगणमणभिरामणीएण । मंतेणं कन्नजुयं, अभिमंतिता पयत्तेणं 3ળા पंचनमोक्कारेण वि, अहवा क्यदेवयागुरुपणामो गंधक्खयजुयहत्थो, सियवत्थकउत्तरासंगो ॥९१॥ आउपरिमाणकए, क्यपणिहाणो अणडन्नचित्तो य । परिपिहियकन्नकुहरो, विणिक्खमित्ता सठाणातो ॥९२॥ | उत्तरईसाणपसत्थ-दिसिमुहं अह कमेण गंतुण । चंडालवेससिप्पिय-चच्चरतियवलणदेसेसु ॥९३॥ पक्विविय अक्खए गंध-बंधुरे तो उवस्सुइसदं । अवधारेज्जा सम्म सो सद्दो उण दुहा नेओ ॥९४॥ | एगो य पयत्यंतर-यवएसा तस्सरुवगो इयरो । पढमो चिंतागम्मो फुडकहियऽत्थो च्चिय परो उ ॥९५॥ जह एस गिहत्थंभो, एवइयदिणेहिं अहव पक्रोहिं । मासेण बच्छरेण व, भज्जिस्सइ नेव या नूणं ॥१६॥ आसि असुंदरो बा, किं तु लहुं एस भज्जए लग्गो । चिरठाई वा दीयो, अहया लहुं नंदए लग्गो ॥१७॥ पीढीदीवसिहाकट्ठ-पत्तिपभिईउ जाण थीविसए । इच्वाइपयत्यंतर-ववएसा उवसुईसद्दो । ॥९८॥ 1. रप्फु = वल्मीक = राफडो इति भाषायाम्। 2. पीढी = पीढिउं (देशी)। 87 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३०६६-३१३५ आयुः परिज्ञानद्वारे एकादशप्रतिद्वारवर्णनम् एस पुमं इत्थी वा न जाइहि च्चिय इमाउ ठाणातो । न वयं गंतुं देमो, एसो वि न चेव गमणमणो ॥९९॥ | दोण्हं तिण्ह चउण्ह व, दिणाण मज्झम्मि अहव उवरिं वा । एवइयसंखदिणपक्ख - मासवरिसुवरि अंतो वा ॥ ३१०० ॥ जड़ अज्ज वि एस गमं, काही अहवा महायरेणाऽवि बहुसो वि धरिज्जतो, गमिही लहु एस न हु ठाही ॥१॥ अज्जं चिय रयणीए, कल्लं वा परतरम्मि वा दिवसे । गमणूसुगो धुवमिमो वयं पि लहु पेसणमण ति ॥२॥ तेण लहुं गमिहि च्चिय, इच्चाई तस्सरूवगो नाम । बीओ उवस्सुईए, सद्दो एवं दुगं सोच्चा m દ્દા ॥७॥ ॥८॥ निज्जामगो मुणिवरो, अहवा तप्पेसिओ परो को वि । पत्थुयगिलाणमाऽऽसज्ज, उचियकिच्चं करेज्जऽहवा ॥४॥ कन्नुग्घाडणसमणंतरं खुं जं किंपि सुणड़ तत्तो वि । आसन्नाऽणासन्नं कलिंति कालं कलाकुसला [ उवस्सुईदारं ] ॥५॥ भणियमुवस्सुइदारं दारं छायाए सपयं तत्थ । छायं बहुभेयं पि हु, वोच्छं सामन्नओ चेव आउपरिन्नाणकए, सम्मं निक्कंपमणवईकाओ । पइदिवसं पि किर नरो, निरूयएज्जा नियं छायं सम्मं वियाणड़ता, सरूवओ अप्पणो तणुच्छायं । सत्थनिदंसियविहिणा, सुहाऽसुहं तो वियाणेज्जा | आयवदप्पणसलिलाऽऽइएसु, अंगाउ जा पडिप्फलइ । संठाणमाणवन्ना - इएहिं सा खलु पडिच्छाया सा होज्ज जस्स सहसा, छिन्ना भिन्ना तहाऽऽउला सहसा । अहवूणा अहिया वा, संठाणपमाणयन्नेहिं ॥१०॥ | रज्जुसमाणाऽऽगारा व जस्स कंठप्पइट्ठिया छाया । लक्खिज्जइ अक्खिज्जइ, खिप्पं कं खड़ खयमिमो ति ॥११॥ जलतीरठिओ पट्ठीए, कयरवी पेच्छिरो नियच्छायं । भिन्नठियउत्तिमंगं, जमगेहे गच्छड़ हत्थं ॥१२॥ असिरं व बहुसिरं वा, किं बहुणा पयइविसरिससरूवं । नियछायं जो पेच्छड़, हत्थं गच्छड़ स जमगेहं ॥१३॥ छाया जस्स न दीसड़, वियाण तज्जीवियं दस दिणाणि । छायादुगं च दीसइ, जड़ ता दो चेव दिवसाणि ॥ १४ ॥ usu अहवा ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ अंतोमुहुत्तमेत्ते, दिवसे उदयाउ सम्ममुवउत्तो । अच्वंतसुईभूओ, पट्ठीए ठवेत्तु रविबिबं अहिगयसुहाऽसुहकए, नेमित्ती निप्पकंपमऽप्पाणं । धारेंतो थिरचित्तो, छायापुरिसं निरूवेज्जा तत्थ जड़ ता तमऽक्खय - सव्यंगं पासए तया कुसलं । तप्पायाणं पुण जड़, अदंसणं ता विदेसगमो ऊरूण जुगे रोगं, गुज्झो उ विणस्सए पिया नूणं । उयरे अत्थविणासो, हियए मच्चू अदीसंते दक्खिणवामभुअअदंसणे उ, जाणाहि भायसुयनासो । सीसे उ अदीसंते, छम्मासाओ भवे मरणं सव्यंगमऽदीसंतम्मि, तम्मि जाणाहि सज्जमरणं तु । एवं छायापुरिसातो, आउकालं वियाणेज्जा जो न जलदप्पणाऽऽईसु, नियछायं नियड़ नियइ वा विगियं । समवत्ती तस्स फुडं, समीववत्ती परिब्भमइ ॥२१॥ एवं छायाहिन्तो वि, सम्ममुवओगसारपारम्भो । पाएण मच्चुविसयं, कलेइ कालं कलाकुसलो [छायादारं ] ॥२२॥ एत्तो नाडिद्दारं, नाडिं च तिहा भणंति तव्विउणो । पढमो इडा परा पिं-गला य तइया सुसुमणा य ॥२३॥ वामवहा आइल्ला, दाहिणपरिवाहिणी भवे बीया । तइया पुण उभयवहा, तव्विसयं निच्छियपहाणो 2 ऊंपियवयणो निप्कंद - लोयणो मुक्कसयलयावारो । जो एहावत्थुगतो, सो जोगी लहइ फुडलक्खं सड्ढं घडियाण दुगं, वहड़ इडा पिंगला य अणुकमसो । खणमेतं खु सुसुमणा, एत्थत्थे बिन्ति अन्ने उ ॥२६॥ | गरुयक्खरछक्कुच्चार - कालपरिमाणमेगमूसासं । नीसासं वा पाणं ति, बेन्ति सुत्थं गदेहिस्स तेसिं पाणाणं तिहिं, सएहिं सट्ठीए समहिएहिं तु । जायइ बज्झा घडिया, एक्का अह तेण माणेणं |वहड़ इडा घडियापं - चगंति तं पिंगला छपाणोणं । छप्पाणे उ सुसुमणा, पइय पवाहो इमाणमिमो एत्थ य वामा चंदो, दिणनाहो दाहिणे भवे इण्हिं । कालपरिन्नोवायं, वोच्छं एयाऽणुसारेणं आउयचिन्ताऽवसरे, पाणपवेसाउ जीवियं जाण । निग्गमणे पुण मरणं, भणियमिणं परमरिसिगुरुणा चंदायए दिणेसो, अहव दिणेसायए जया चंदो । असमंजसवहगा या दो वि तया जियइ छम्मासं | जइ उत्तरायणदिणा - दाऽऽरब्भ दिणाणि पंच परिवहइ । एक्कसरो च्चिय सूरो, तो जीवति वरिसतिगमेव ॥३३॥ अह वहति दिवसदसगं, ता जीवति दोणि चेय यरिसाणि । पन्नरसदिणयहे पुण, एक्कसरे वरिसमेगं तुं ॥३४॥ अह उत्तरायणादेव, जस्स वीसं दिणाणि एक्कसरो । यहई दिणाहियो ता, छम्मासे चेव सो जियइ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३२॥ ॥३५॥ 1. यमराजः । 2. आच्छादित० 3. एतदवस्थागतः । 4. प्रतीतः । ॥३०॥ ॥३१॥ 88 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३१३६-३१७३ आयुः परिज्ञानद्वारे एकादशप्रतिद्वारवर्णनम् पणुवीसाए तिमासं, छव्वीसाए य जियइ दो मासे । सत्तावीसदिणवहे, रविम्मि पुण मासमेक्कं खु ॥३६॥ अह उत्तरायणाउ, अट्ठावीसं दिणाणि परिवहति । एक्कसरो चेव रवी, पन्नरस दिणाणि ता जियइ एगूणतीसदिणयह-रविम्मि पुण जाण दिवसदसगं नु । तीसाए दिणपणगं, एक्कतीसाए दिवसतिग ॥३८॥ बत्तीसाए दिणदुगं अह तेत्तीसाए जियइ दिणमेक्कं । अन्नं पि सप्पसंगं, किंपि पवक्खामि संवेवा ॥३९॥ सयलदिणं दिणनाहो, वहमाणो माणवाण साहेइ । उप्यायं किंपि गिहे, दिणदुगवाही य गोत्तभयं ॥४०॥ गामे गोते य भयं, तिदिणवहो कहइ चउदिणवहो उ । सत्थावत्थस्स वि जो-गिणो धुवं पाणसंदेहं ॥४१॥ पंचदिणप्पयहो पुण, मच्, 'सच्चवइ जोगिणो नृणं । वाहिं च किच्छसज्झं, दिणछक्कवहो नरवइस्स ॥४२॥ सत्ताऽहोरत्तवहो, तरगाण खयं कहेड निभंतं । अंतेउरभयजणगो, अणवरयं अट्ठदिणवाही ॥४३॥ नववासरवाही पुण, महाकिलेसं कहेइ नरवइणो । मरणं दसदिवसवहो, तंतभयं रुद्ददिणवाही ૪૪ बारसतेरसदिवस-प्पवहो कमसो अमच्चंतिभयं । कुणइ चउद्दहदिणपरि-वहो तहा मंडलभंसं ॥४५॥ पन्नरसदिणपवाही, महाभयं भणइ सव्वलोयस्स । सव्वमिमं जहभणियं, नेयव्वं चंदचारे वि ॥४६॥ जस्स रविम्मि वहते, पयईए जायए विवज्जासो । बज्झडभतरवत्थूसु, कारणविरहे वि किर एवं ૪૭થી दिव्वे सद्दे सुणई, समुद्दपुरसंभवे य अच्वंतं । अक्कोसेसु पसीयइ, हरिसिज्जइ न सुहिसद्देसु ૪૮ળા विज्झायदीवगंधं, न पडुयघाणिदिओ वि उवलभइ । उन्हे वि सीयबुद्धी, सीए पुण उन्हपडिहासो ॥४९॥ नीलच्छविमच्छीणं, रिंछोलीहिं तु आवरिज्जड़ य । मणसो य विभलतं, जायइ जस्स य अकम्हा वि ॥५०॥ इच्वाई अन्नो वि हु विवज्जओ होइ जस्स पयईए । सूरम्मि परिवहंते, तस्साऽवस्सं लहुं मरणं ॥५१॥ चंदोदए वि पयइ-विवज्जयाउणुभवणेण होइ धुवं । उद्देगरोगसोग-प्पहाणभयमाणमलणाऽऽई [नाडीदारं] ॥५२॥ भणियं नाडीदारं, एतो भोमाइअट्ठभेयं पि । सामन्नेणेव परं, निमित्तदारं पयंपेमि ॥५३॥ चंकमणठाणनिसियण-सोयणभूमिनिमित्तविरहे वि । दुग्गंधत्तं जालाओ, जस्स दावेइ विदलइ या ॥५४॥ अन्नं या कलुणक्कंद-सद्दकरणाऽऽइयं जड़ वियारं । सहसा दरिसेड़ तया, छम्मासंतो भवे मरणं ॥५५॥ सज्जं परकेसेसुं, धूमाऽग्गिफुलिंगसंभवे मरणं । सुणगेहिं अट्ठिमडगा-यययपयेसा गिहे मरणं ॥५६॥ राया वि उवक्खित्तो, हेट्ठा आराहगत्तणेण इहं । तं पि पडुच्चुप्पाए, केत्तियमेत्ते वि जंपेमि ॥५ ॥ अणभिहयतूरनाओ, सद्दो वा ताडिएसु जइ न भवे । जलमंसउल्लजलणे, अणब्भवुट्ठीए निवमरणं ॥५८॥ सक्कथयचिंधतोरण-दुवारथंभिंदकीलगाऽऽईणं । सहसा भंगो पडणाणि, मरणमडक्खंति नरवइणो ॥५९॥ कुसुमफ्लाणि अकाले, अहया जालाउ धूममुयणं च । सुंदरदुमेसु दटुं, हत्थं निच्छयसु रायवहं ॥६०॥ निसि दिवसे य निरन्भे, पेच्छंतो सुरधणुं जियइ न चिरं । गीयरवतूरसद्दा, गयणे धुवरोगमरणाय ॥१॥ पवणस्स गई फासं, न विंदइ विंदइ य विवरीयं । ससिजुयलं वा पेच्छइ, जो तं मरणूसुगं जाण, ॥२॥ गुदतालुयजीहाऽऽईसु, अनिमित्तमतक्कियं मसाऽइसयं । दटुं दुटुट्ठाणं, उवट्ठियं जाण लहु मरणं ॥३॥ जस्स य जीहडग्गम्मि, दीसइकसिणो अदिट्ठपुब्यो य । अनिमित्तो च्चिय बिंदू, सो वि न मासा परं जियइ ॥६४॥ अहया निमितविरहा-दऽतक्कियं कह वि किर सरो वि दढं । जस्स सहावाउ पडइ, चडइ वा कम्मवसगस्स॥६५॥ अइकलुणदीणविरस-तणं च कंठग्गहं च दरिसेड़ । निस्संदेह देह-तरं लहुं लहइ सो । एगा व दो व तिन्नि य, चउ पंच व जस्स होति पुरिसस्स । अइदीहराउ पिहलाउ, भालवट्ठम्मि रेहाउ ॥६॥ सो वरिसाणं तीसं, चालीसं सट्ठिमऽसिइमेक्कसयं । जीवति अणिंदियं चिय, जहासंख्ण मुणियव्वं ॥८॥ अनिमिते सहस च्चिय, जस्संडगं सव्यहा वि पुरिसस्स । पयईए परिच्चायं, काऊणं दरिसइ वियारे ॥९॥ रिज्जइ सिज्जड़ खिज्जइ, उवयाराओ वि नवि गुणं लहइ । तं पि हु अयालपत्तं, कालप्पत्तं वियाणाहि ॥७०॥ लेसुदंसेण इम, निमित्तदारं मए समक्वायं । एतो भणामि किंचि वि, सत्तमयं जोड़सद्दारं [निमित्तद्दारं] ॥१॥ जम्मि सणी नक्वत्ते, तं नक्वत्तं मुहंमि दायव्यं । चत्तारि दाहिणकरे, पाएसु य तिन्नि तिन्नि भये ॥७२॥ चत्तारि वामहत्थे, हियए पुण पंच तिन्नि सीसम्मि । लोयणजुयलंमि दुगं, गुज्झे य दुगं विणिद्दिठं ॥३॥ 1. सच्चवइ = दर्शयति । 2. एकादशदिनवाही । 3. विह्वलत्वम् = व्याकुलत्वम् । 89 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३१७४-३२१० आयुः परिज्ञानद्वारे एकादशप्रतिद्वारवर्णनम् इय रिक्खंठावणाए ठविउं सणिपुरिसचक्कम इनिउणं । जोएहु अप्पणो जम्म-रिक्खमऽहनामरिक्खं या ॥४॥ त जइ निमितकाले, हवेज्ज सणिपुरिसगुज्झदेसत्थं । तह सव्वहा वि सोम-ग्गहेहिं अजुयं अदिटुं च ॥५॥ पावग्गहेहिं पुण सं-जुयं च दिटुं च सयलदिट्ठीए । ता सज्जस्स वि मरणं, सूयइ रोगिस्स का उ कहा ॥६॥ अहया पुच्छालग्गाऽणु-सारओ णिउणजोइसविउस्स । आएसाओ जाणेज्ज, मरणकालं फुडं खु जहा ॥७॥ पिट्ठोदए वि लग्गे, कूरा लग्गत्थहियुगदसमठिया । जड़ होति अट्ठछट्ठम-रासीसु निसाऽहियो होइ ॥८॥ तो रोगी मरइ धुवं, अहया लग्गाऽहियो गहो अत्थं । उवणमइ तो वि मरणं, रोगी सज्जो वि उवणमइ ॥७९॥ चंदसणिभोमसूरा, लग्गदुवालसनवट्ठमत्था य । साहिति रोगिमरणं, जड़ बलवंतो न देवगुरु ॥८०॥ चंदो जड़ दसमगओ, रवी तइज्जे व संठिओ छठे । मरइ असुहेण मणुओ, तइए दियहे न संदेहो ॥१॥ उदयाओ उ चउत्थे, निहणे वा जड़ हवंति पावगहा । तो जाणवेंति मरणं, तइए दियहे मणुस्साणं ॥८२॥ कुरग्गहाणमुदए, पंचमए वा वि जइ ठिओ पायो । नीरोगो वि हु फिट्टइ, दसद्धदियहे न संदेहो ॥८३॥ धणमिहुणे जामित्ते, असुहगहा जइ भवंति तो याहिं । साहेति मरणमडहवा, वियाण सव्यन्नुणा भणियं [जोड़सद्दारं] ॥८४॥ इय लेसद्देसेणं, जोइसदारं पि यन्नियं किंपि । सुविणगविसयं दारं, दरिसेमि संपयं किंपि ॥८५॥ "स्वप्नवर्णनम्" - वानरी विगरालच्छी, आलिंगइ सुविणयम्मि जइ कहवि । तह मंसुकेसनहक-प्पणं च ता मरणमऽचिरेण ॥८६॥ तेल्लमसिलितअंगो, विलुलियसो य विवसणो सुविणे । खरकरहगओ जमदिस-गामी जड़ तो वि लहु मरणं॥८॥ रत्तवडखवणयाणं, सविणे दंसणमडवस्समरणाय । रत्तवसणो य सुविणे, गायंतो निच्छियं मरइ । उट्टखरजुत्तजाणं, एगागी आरुहेज्ज जो सुविणे । जग्गइ तत्थ ठिओ च्चिय, जड़ ता मरणं समासन्नं ॥८९॥ कसिणंडबरनेवत्था, कसिणविलेवणविलितगत्ता य । नारी जड़ उयगूहड़, सुविणे ता मरणमडचिरेण ॥१०॥ जग्गंतो च्चिय निच्चं, जो पासइ दुट्ठसुविणयं पुरिसो । सो मरइ यच्छरंडतो, सच्चमिणं केवलीभणियं ॥११॥ सुविणे पेएहिं समं, सुरं पियंतो सियालसुणएहिं । जो कड्ढिज्जड़ पायं, जरेण सो पाविही मरणं ॥१२॥ सुमिणे वराहरासभ-कुक्कुरकरभविगमहिसयाईहिं । जो निज्जई जमदिसं, स सोसदोसेण पुण मरिही ॥१३॥ जायइ हियए तालो, यसो या कंटइल्लवली या । जस्स सुमिणे स नासं, अणुगमिही गुम्मदोसेणं ॥१४॥ सुविणे च्विय गयजालं, जलणं तप्पिंतयस्स पुण जस्स । नग्गस्स तह घएणं, सव्यंडभंगजुत्तस्स ॥१५॥ पुरिसस्स हि हिययसरे, उट्ठाणं पाउणंति पउमाई । लहु गमिही जमगेहं, कुट्ठविणटुंऽगजट्ठी सो ॥१६॥ रत्तंबरकुसुमधये, कड्ढिज्जइ इत्थियाहि हसमाणो । जो सो गमिही पुण रत-पित्तदोसेण .पज्जन्तं ॥९॥ नेहं सह चंडालेहिं, पिबइ सुमिणे पमेहदोसा सो । जो पुण जले निमज्जड़, सो रक्खसदोसओ मरिही ॥९८॥ जो पुण मत्तो नच्चतओ य, पेएण निज्जए सुविणे । उम्मायदोसओ सो, अंते पाणे परिच्वइही ॥९॥ नयणाऽऽमएण मरिही, ससिसूरनिवायदंसणे सुमिणे । सुविणे ससिरविगहणाण, दंसणे पुण अमारीए ॥३२००॥ पूयगसक्कुलिभक्खी, मरिही पुण तव्यिहं चिय वसंतो । जलतेल्लवसामज्जाऽऽङ्-पाणओ पुण अईसारा ॥१॥ वानरखरुट्टमज्जार-बग्घविगसूयरेहिं सुविणम्मि । पेएहिं सियालेहिं व, जस्स गमो सो वि गमणमणो ॥२॥ रतकुसुमस्स पुरिसस्स, सुमिणए मुंडियस्स नग्गस्स । चंडालेहि दक्खिण-दिसाए नयणं पुणो जस्स ॥३॥ जस्स सिरे वंसलयाइ-संभयो पक्खिनिलयकरणं च । चडणं च कागगिद्धाऽऽइ-याण मुंडत्तमह सुविणे ॥४॥ सुमिणे च्चिय पेयपिसाय-इत्थीचंडालसंगमो जस्स । तह वेत्तलयातणयंस-उवलकंटगकडिल्लम्मि ॥५॥ गत्ताए मसाणेसु य, सयणं पडणं व छारपंसूसु । जलपंकखुप्पणं सिग्घ-वेगसोएण हरणं च દા तह रत्तकुसुममाला-विलेवणंडबरविभूसणविहाणं । सुमिणम्मि गीयवाइय-नट्टविहीए य करणं च जस्संगवओवुड्ढी, सुविणे अभंगणं च 4गायस्स । मंगलविवाहहासाडइ-कम्मकरणं च तह जस्स अब्भयहरणं सुमिणे य, जस्स पक्कन्नपमुहभखाण । छड्डीविरेयणं दम्म-लोहपमुहाण लाभो य वल्लीवियाणवक्कल-सव्यंगाडवेढणं च सुमिणम्मि । तत्थेव कलहकरणं, तह बंधपराजया जस्स ॥१०॥ 1. प्रेतैः = भूतैः मृतैः वा । 2. गुल्मदोषेण । 3. अमारीए = मूत्रकृच्छेण । 4. गात्रस्य । 5. छड्डी = छर्दिः वमनम् । 90 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३२११-३२४८ Kn ॥१८॥ ॥२५॥ ॥२६॥ आयुः परिज्ञानद्वारे एकादशप्रतिद्वारवर्णनम् | देवगहरिक्खचक्खु -पईवदंताऽऽड़पडणनासाऽऽई । नासो य पाणहाणं, पाओ करचरणचम्माण ॥११॥ निब्भच्छणं च परिकुविय - पियरलोयाउ जस्स सुविणम्मि । सहसा अइहरिसो वा, पच्चयभेओ य तह जस्स ॥१२॥ तह पागकम्मगेहे, जणणीए चियाए रतकुसुमवणे । अइसंकडंऽधयारेसु, जस्स सुविणे च्चिय पवेस्सो | कासायवत्थरत्तच्छ-दंडधारीण नग्गकालाणं । मंदाणं खुद्दाणं च दंसणं जस्स सुविणम्मि निस्साहारं च तहा, पडणं पासायपव्यएहिन्तो । मच्छेहिन्तो गसणं च, जस्स सुविणे च्चिय नरस्स अइकसिणकायचीरं, अइपिंगललोयणं विवत्थं च । विगियागारं खीणो-यरिं च अइदीहनहरोमं हसमाणि जो इत्थिं, अवगूहन्तिं व पेच्छए सुविणे । जो य अईयनिएहिं, हक्कारिज्जइ य गच्छड़ य जो वा करिजुत्तेणं, जाणेणं पेयपव्यइयसहिओ । पविसेड़ सिंबलीपारि - भद्ददुमदुग्गगहणम्मि सो सुत्यो वि हु मरणं, अहवा दव्वाऽऽइयं महावसणं । पाउणिही रोगी पुण, नियमा मरणं चिय तहाहि ॥ १९ ॥ | मरड़ च्चिय रोगी पा - सिऊण इय परमदारुणे सुविणे । सुत्थों पुण संदेहं संपाविय को वि जीवइ वि ॥ २०॥ दिट्ठो सुओऽणुभूओ, दोसुत्थो कम्पिओ य पत्थियओ । कम्मजणिओ य एवं, सत्तविहो वन्निओ सुमिणो ॥ २१ ॥ | अह तेसु निप्फला खलु, आइल्ला पंच देसिया सुमिणा । दो चेव सुहाऽसुहसू-यणा उ अंतिल्लया नेया ॥ २२ ॥ तत्थ अइदीहहस्सो, जो सुमिणो जो य दिट्ठपम्हुट्ठो । अइपुव्यरत्तकालम्मि, जो य दिट्ठो कहिंचि भवे ॥२३॥ स चिरेण फलं तुच्छं व, देड़ अह अड़पहायदिट्ठो ता । तद्दिवसे चेव महं-तयं च अन्ने पुण भांति ॥२४॥ रयणीए पढमजामे, दिट्ठो सुविणो फलेड़ बासाउ । बीए मासतिगाउ, तइए पहरंमि मासदुगा रयणीए चउत्थे पुण, पहरे दिट्ठो हु मासओ सुविणो । गोसम्मि वासराणं, दसण्ह सत्तण्ह वा फलइ दट्ठूण अणिट्टं पि हु, पच्छा जो पासइ सुहं सुविणं । तस्स सुहं चेव भवे, एवं इट्ठे वि दट्ठव्यं ॥२७॥ जिणबिंबपूयणाओ, पंचनमोक्कारमंतसरणाओ । तवनियमदाणओ तह, सुविणो पावो वि मंदफलो [सुविणगदारं ]॥२८॥ एवं सुविणगदारं, दंसिय दंसेमि रिट्ठमिह जम्हा । न विणा रिट्ठं मरणं, न जीवियं दिट्ठरिट्ठम्मि ता सव्यपयत्तेणं, रिट्ठ आराहणऽत्थिणा सम्मं । सययं निरूवणीयं, सुगुरूवएसाऽणुसारेण जो अनिमित्तो वि अतक्किओ वि, सहस ति होइ पुरिसस्स । पयइविगाराऽणुभयो, निद्दिट्ठ रिट्ठमिह तं खु ॥३१॥ पुरओ व पिट्ठओ वा, जस्स पयं पंकपंसुपमुहेसु । खंडमकंडे दीसइ, न जियइ सो अट्ठमासे वि घयभायणमज्झगयं, रविबिम्बं आउरेण दीसन्तं । पुव्यादाहिण अवरु- तरासु खंडं जियं कुण छम्मास तिन्नि मासा, दो मासा एक्कमासपरिमाणं । रेहा - रंध- सधूमे, पनरस दोपंच पंचदिणा जस्स निवाए वि गिहे, समग्गजलणंऽगवंझजोगे वि । नंदइ दीयो सहसा, बोहिज्जंतो वि पुणरुतं तह आउरस्स जस्स वि, गेहे अनिमित्तमेव अइमत्तं । निवडंति भायणाई, भज्जंति य सो वि लहु मरइ ॥ ३६ ॥ नियनियकरणेहि वि जस्स, सद्दरसरूवगंधफासाणं । अनिमित्तमऽणुवलद्धी, उवलद्धी वा वि विवरीया तह जो वेज्जयरं ओसहं च, अभिनंदइ न उयणीयं । तं पि हु नीसंदेहं देहंडतरपत्थियं जाण अंजणपुंजपगासं, बिंबं मयलंछणस्स रविणो य । जो पेच्छड़ सो गच्छइ, जमाऽऽणणं बारसदिणंडतो समहियमुत्तपुरीसो, जो परिमियभत्तपाणभोई वि । इय विवरीओ जो वा, तस्साऽऽसन्नं मुणसु मरणं ॥४०॥ पुव्यं सुविणीओ वि हु, सगुणस्स वि जस्स परियणो सहसा । विवरीयं परिचिट्ठइ, तं पि वियप्पेसु अप्पाउं ॥ ४१ ॥ न गयणगंगं पेच्छड़, पेच्छड़ य दिवा य तारए जो य । सुरजाणविमाणाणि य, सो वि समासन्नजमनिलओ ॥ ४२ ॥ एक्कं व दो बहूणि व, रविससिबिंबेसु तारएसुं वा । जो पेच्छड़ छिड्डाई, जाण तदाऽऽउं वरिसमेक्कं ॥४३॥ | उभयकरं ऽगुट्ठट्ठइय-कन्नकुहरो न निसुणड़ जो य । नियकन्नाणं घोसं, सो मरइ सत्तदिणमज्झे | दाहिणकरनिबिडऽक्कंत-वामहत्थंऽगुलीण पबग्गा । जस्साऽरुणा न दीसंति, तस्स वि जाण लहु मरणं ॥ ४५ ॥ मुहदेहवणाईसुं, अईव इट्ठो दढं अणिट्ठो वा । जस्सुच्छलइ अहेऊ, गंधो सो वि हु लहुं जाइ | जायइ मुणालसीयल - मंडगम कम्हा सउम्हमऽवि जस्स । जमरायरायहाणी- पंथपयट्टो लहुं सो वि पस्सेयहेउगेहे, होउं निच्चं निएज्ज नियभालं । जड़ ता न हाइ 4 सेओ, ता जाण जहाऽऽगओ मच्चू ॥४८॥ 1. उपानहाम् । 2. विध्यायति । 3. एतस्माद् विपरीतः । 4. स्वेदः । ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३४॥ ॥३५॥ ॥३७॥ મો ॥३९॥ ॥४४॥ ॥४६॥ ॥४७॥ 91 ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३२४६-३२८५ आयुः परिज्ञानद्वारे एकादशप्रतिद्वारम् जस्स य सुक्का विट्ठा, निट्ठयं च लहुं बुड्डइ जलंमि । सो पुरिसो मासेणं, पासेणं बच्चड़ जमस्स ॥४९॥ जूया व मच्छिया वा, निरंतरं ज भयंति पच्छा या । उयसप्पंति य तं काल-कवलियं कुसल! कलसु लहुं ॥५०॥ विज्जु पुरंदरथj, धणियमऽमेहे वि नहयले नियइ । सुणइ य गज्जियसदं, जो सो लहु जमपुरपवेसी ॥५१॥ जस्स सिरे कागोलग-कंकप्पमहा पलासिणो विहगा । सहसाउडवडंति सो जाइ. जमगिहे थोवदिवसेहिं ॥५२॥ विच्छाए पेच्छंतो, रविससितारागणे जियइ परिसं । अह सव्वहा न पेच्छइ, अच्छइ छम्मासमेव तह ससिरविबिंबाणं, भूपडणं पासइ अकम्हा जो । निस्संसयं वियाणसु, बारस दिवसाणि तस्साऽऽउ ॥५४॥ जो पुण दो रविबिंबे, पासइ नासइ स मासतियगेण । रविबिम्बमंडतरिच्छे, पेच्छइ भमिरं अह लहुं ता॥५५॥ सूरस्स अप्पणो या, जो जुगवं नियइ चउसु वि दिसासु । रविबिम्बाणि तदाउं, दिणाण घडियाण व चउक्कं॥५६॥ सव्वंगं व नियंतो, छिटुं मायंडमंडलमडकंडे । नणु सग्गमग्गलग्गो, दसदिवसडब्भन्तरे नेओ ॥५ ॥ जियइ तिदिणं स सब्वं, पासइ पीयं पयत्थसत्थं जो । जस्स य कसिणं भिन्नं, हवइ पुरीसं स लहुमरणो ॥५८॥ बद्धद्धचक्नुलक्खो, निरिक्खमाणो वि न य नियं नियइ । भुमयाण जुयं जो सो, नवदिवसऽभतरे मरइ॥५९॥ भालुवरि धरियहत्थो, पयइत्थं चेव नियइ मणिबंधं । जो न पुण अइकिसतरं, तरसा सो वि हु मरणसरणो॥६०॥ न नियइ नियनयणाणं, अग्गंडगुलिपट्टियडच्छिपेरंतो । जो जोइं जाइ जमा-डणणं स नियमा दिणतिगंडते॥६१॥ वामच्छिणो न पेच्छड़, अह रुद्धाऽयंगकोणजोइं जो । तं पि कमेण वियाणसु, छत्तिदुमासेक्कमासाऽऽउं॥३२॥ अह तं सकरंडगुलिचंपियस्स, इयरडच्छिणो न पेच्छड़ जो । दस पंच तिन्नि दो या-सरे उ तज्जीवियं जाण ॥६३॥ अणविक्खियऽन्नलक्खं, अहोमुहाऽऽवडियलोयणुद्धउडं । परिमंथरथिरतारं, नासग्गाऽऽसंगिदिट्ठिजुयं ॥४॥ जह होइ तहा 'निययं, निययं जो नासियं नियंतो वि । न हु पिच्छइ सो गच्छड़, हत्थं पंचाऽहमित्तेण ॥६५॥ एवं चिय जीहग्गं, नियगमुहा निग्गयं नियंतो वि । जो न ह पिच्छड़ अच्छइ, सो परमेगं अहोरत्तं ॥६६॥ "कालचक्रस्य विधि" - मेगाऽणुरुवं, होऊणं परमदव्यभावसुई। काऊण परमपूयं, परमगुरूणं परमविहिणा |सुक्किलपक्खं दक्खिण-पाणिं परिकप्पिडं कमेण पुणो । हेट्ठिममज्झिमउपरिम-पव्याणि कणिट्ठियाए य ६८॥ |पडिवयछट्ठिक्कारसि-तिहीओ परिकप्पिउं पयाहिणओ । सेसंडगुलिपव्वेसु तु, सेसतिहीओ वियप्पेज्जा ॥६९॥ पंचमिदसमीपुन्निम-तिहीओ ता जाव ठविय अंगुटे । एवं वामकरे पुण, परिकप्पिय कसिणपक्खकम ॥७०॥ ता जाव तदंगुट्टे, उपरिमपव्वे अमावसाईए । एवं तीस तिहीओ, परिकप्पित्ता जहाभणियं ॥१॥ तत्तो विवित्तदेसे, निबद्धपउमासणो महासत्तो । बद्धकरकमलकोसो, पसण्णथिरमणवईकाओ . ॥७२॥ झाएज्ज कसिणवन्नं, सुन्नं करकमलकोसमझगयं । सियवत्थछाइयडप्पा, सुबद्धलक्खो तहिं चेव ॥७३॥ उग्घाडिय करकमलं, पलोइओ जीए कीए वि तिहीए । दीसइ स कालबिंदू, सो कालो नत्थि संदेहो ॥७४॥ जम्मन्तरलक्रोण वि, न मुणिज्जड़ कह वि अप्पणो अप्पा । सयलसमयण्णुणा यि हु, सिरिगुरुवयणं पमोतूणं॥५॥ इय कालचक्कसारं, गाहादसगेण वन्नियमिमं च । पडिययदिवसे झायह, जिं पेच्छह आगयं मच्चु ॥६॥ बालिंदुसमाउ आगिईए, भालम्मि वच्छि सीसे या । जस्स अपुव्याउ सिराउ, अहव रेहाउ जायंति ॥७७॥ जस्स सिरे गोमयचुण्ण-वण्णचुण्णो सिणिद्धधूमो वा । उवलक्विज्जइ खिज्जइ, मासंऽतो जीवियं तस्स ॥८॥ दंता वि जस्स सहसा, सुपुफिया सक्कराऽऽउला लुक्खा । सामा या होति तमं- 4तगंडतिगं पत्थियं जाण ॥७९॥ विरहे वि दंतरोगस्स, जस्स तेसिं अतक्कियं चेव । पडणं भंगो य भये, भवंडतरं तुरियगामी सो ॥८०॥ जीहा वि जस्स सामा, सुक्का सूणा पमाणओ अहिगा। हीणा वा थद्धा या, सरणं मरणं खु तस्साऽयि॥८१॥ | अनिमित्तं अविलंबी, चक्खुस्सायो य लंबगे सोसो । जड़ ता कमेण दससत्त-वासरंडते धुवं मरणं ॥८२॥ कंठक्खोभे पहरा, तालुक्खोभे य आणुपाणुसया । अणवज्जवज्जपंजर-गयं पि पुरिसं जमो नेइ ॥८३॥ जस्संगुलीओ सहसा, फुडन्ति आयड्ढणं विणा चेव । सो वि अवस्सं काही, देही देहडन्तरं तरसा ॥८४॥ अनिमित्तथक्कवयणो, अनिमित्तं चेव नट्ठदिट्ठी वा । वासरगिं जड़ परं, पुरिसो जीयइ न उयरिं पि ॥५॥ 1. नियतम् । 2. शीघ्रम् । 3. यथा । 4. अन्तकान्तिकम् = यमराजके पास। 5. शूना = सूजी हुई। 92 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३२८६-३३१८ ॥९२॥ आयुः परिज्ञानद्वारे एकादशप्रतिद्वारम् सत्यो वि सरीरेणं, न नियइ निययामखंधसिहरं जो । तं पि न चिरकालेणं, कालेणं कवलियं कलसु ॥८६॥ धरिसिज्जन्ता वि दढं, निस्सद्दा चेय जस्स करचरणा । जस्स य निसि दिसिमोहो, रेयं च सरन्तमऽइरितं ॥८७॥ |छीयणकासणमुत्तण-किरियासुं कारणं विणा चेव । जस्स य अपुव्यसद्दो, जायइ जमकवलिओ सोऽवि ॥८८॥ व्हायंतस्स वि नलिणी-दलं व सलिलेण छिप्पड़ न जस्स । अंगं संगं काही, स जमेण समं छमासंडतो ॥ ८९ ॥ व्हायाऽणुलित्तगत्तस्स, जस्स सुक्कइ उरत्थलं पढमं । सेसंडगेसुं उल्लेसु, अद्धमासं न सो जियइ ॥९०॥ | तेल्लाऽऽविल व्व लुक्खा वि, जस्स सहसा भवंति सुसिणिद्धा । केसा असमारा वि हु, विभत्तसीमन्तजुत्ता ॥ ९१ ॥ तहऽसंखित्तभुजुयलं, दीसह य अतक्कियं सुसंखितं । अंतोपविट्ठमऽहवा, विणिग्गयं लुलियपम्हउडं धूयकवोयऽच्छिसमं, उम्मेसनिमेसरहियमऽच्छिजुयं । जस्स पणट्ठऽब्भत्ता - लोयं व लहुं मरइ सो वि नासा वि जस्स सहसा, कुडिला पिडगाऽऽउला दढं फुडिया । सबुडछिड्डा य भवे, भवंडतरं सो वि अभिलसइ ॥ ९४ ॥ अनिमित्तं चिय सत्ती, सील बाऊ 2 सई बलं बुद्धी । छक्कमिणं विणियत्तइ, छम्मासाऽऽसन्नमरणस्स नीसरइ देहवेहे, विगंधि अइकसिणसोणियं जस्स । जीहामूले सूलं, पाणितले वा महावियणा साडो तयकेसाणं, लुयरोमाणं न जस्स वुड्ढी य । हियए अईव उम्हा, जस्सुयरे पुण सुसीयतं वालविलुंचणवेयण - मऽणुभवइ न जो उ दिवसछक्केण । अवगच्छ गच्छमाणं व, माणवं तं जमपुरीए भणियं अरिट्ठदारं, जो होज्ज विसिट्ठधारणाकलिओ । तं पुण पडुच्च जंत-प्पओगमह किंपि जंपेमि वक्खेयंऽतरविरओ, तग्गयचित्तो कओवयारविही । पढमं मज्झे नसिउं, अहिगयसत्तस्स नाम ततो अणंतरगाहासूइयजंतठवणा इमा Kn ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९७॥ ॥९८॥ ॥९९॥ ॥३३००॥ यः ॐ कारगब्भमऽग्गेय-मंडलं कोणमज्झठियरेहं । सोत्थियलंछियबाहिर-कोणं सिहिजालजडिलं व साऽणुस्सारअगाराइ - छस्सराऽऽयेढियं च पासेसुं । स्वाअक्खरमज्झगयं, चउपासट्ठियगुरुजयारं मारुयमंडलपरिवेढियं च कप्पेत्तु निययबुद्धीए । तं पायतले हियए, सीसे संधीसु य नसेउं n यः ॥४॥ ॥५॥ En ॥७॥ तो पट्ठीए सूरं काउं सूरोदए च्चिय सुनिउणं । सपराऽऽउनिच्छयकए, नियछायं चिय पलोएज्जा जड़ संपुण्णं पासइ, आयरिसं ता न अत्थि मच्चुभयं । अह नियइ कन्नसुन्नं, ता जीवइ वरिसबारसगं करविरहे दस वरिसे, अंगुलिविरहे य अट्ठ वरिसाणि । खंधाऽभावे सत्त उ, पासाण अदंसणे तिन्नि नासाविरहे वरिसं, केसाऽभावे य जियड़ तप्पणगं । सिरवियलच्छायादं-सणे नरो जियड़ छम्मासं गीवाविरहे मासं, चिबुगाऽभावे य जियड़ छम्मासं । एक्कारस चेय दिणाणि, दिट्ठीविरहे जियइ पुरिसो ॥८॥ सच्छिड्डे पुण हियए, दीसंते सत्त वासरे जियड़ । अह छायदुगं पासड़, जमपासे पडड़ ता खिप्पं ॥९॥ न्हायरस य जस्संडगाणि, कन्नपमुहाणि झति सुक्कंति । पुव्यविहिभणिययच्छर-मासदिणेहिं स मरड़ धुवं ॥१०॥ जंतप्पओगदारं, निदंसियं आउजाणणोवायं । एक्कारसमं चरमं विज्जादारं भणामिन्हिं ॥११॥ विज्जामंतकुऊहल - परो वि आराहगो तदऽपरो वा । सम्मं जह सपरगयं, कलेड़ कालं तह भणामि ॥१२॥ विण्णसिऊण सिहाए, स्वा ॐ सीसे तहा क्षि चक्खुम्मि । पं ठविऊण य हियए, हा नाहीए नसितु तओ ॥१३॥ ॐ जुसः ॐ मृत्युंजयाय, ॐ वज्जपाणिने शूलपाणिने हर हर दह दह स्वरूपं दर्शय दर्शय हुं फट् ' एयाए विज्जाए, सुइभूओ दढमऽनन्नचित्तो य । अट्ठत्तरसयवारं सम्मं नयणेऽभिमंतित्ता अरुणोदयवेलाए, छायं पि नियं तहाऽभिमंतिता । पट्ठीए ठावित्ता, आइच्चं निच्चलसरीरा अह अप्पणिज्जमेव-ऽप्पणी कए परकए य परछायं । सम्मं तक्कयपूओ, परमुवउत्तो पलोएज्जा जड़ तं संपन्नं, चिय पासड़ ता नत्थि मरणमाऽऽयरिसं । कम- जंघ - जाणुविरहे, ति-दु- इगवरिसेहिं मरइ धुवं ॥ १७॥ | दसमासंडतंमि तदूरु- संखए कडिखए नवऽट्ठहिं च । मरड़ तदुदरअभावे, मासेहिं पंचहिं छहिं वा ॥१५॥ ॥१६॥ m 1. असमारचिताः । 2. स्मृतिः । 93 अं र यः ऊँ देवदत्त ऑ ॥१॥ રો ૪૫ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३३१६-३३५४ अनशनप्रतिपत्तिद्वारम् - परिणामद्वारम् गीवाऽभावे चउतिदु-एक्कगसंखेहिं मरइ मासेहिं । पक्खं कक्खाण खए, बाहुखए दस दिणे जियइ ॥१९॥ खंधखए अट्ठ दिणे, चउमासं जियइ हिययछिड्डत्ते । पहरदुगं चिय जीवइ, छायाए सिरोविहूणाए ॥२०॥ अह सव्वहा वि छाया-योच्छेओ भवइ जोगिणो कहवि । ता तक्खणमझे च्चिय, खिप्पं अक्खड़ खयं नृणं॥२१॥ जइवि उवाया निदंसिया समए । आउपरिन्नाणकए, तह यि ह लेसेण इह कहिया ॥२२॥ इय पडु पडिदारं आउ-नाणदारं भणितु सत्तमगं । योच्छं अणसणसंथार-दिक्खपडियत्तिदारमहं ॥२३॥ ___“अनशनप्रतिपत्तिद्वारम्" - अह भणियविहाणवसा, विन्नायाऽऽसन्नमरणसमयस्स । प्रज्जन्ताऽऽराहणविहि-मडसेसमाऽऽराहिउमणस्स ॥२४॥ जम्मजरामरणदारुण-दीहरसंसारवासभीरुस्स । जिणवयणसवणजायंत-तिव्वसंवेगसद्धस्स पयईए च्चिय निच्वं, सुस्समोवासगस्स चित्तम्मि । पसमाऽऽइगुणसमिद्धस्स, भावणा भवइ किर एसा ॥२६॥ अहह कहं परमाडमय-कप्पे मह परिणए वि जिणवयणे । वसिउं जुज्जइ अज्जं पि, गिहवासे दुक्कियनिवासे॥२७॥ थी! धी! मज्झ अणज्जस्स, इंदियऽत्थेसु संपउत्तस्स । परमत्थवेरिएसु वि, दाराऽऽइसु गाढरत्तस्स ॥२८॥ ते च्विय धन्ना निज्जिणिय-मोहजोहा जिइंदिया सोमा । रागद्दोसविउत्ता, भवतरुनिसियाऽसिणो समणा ॥२९॥ पिहियाऽऽसवा तवड्ढा, थणियं किरियासु संपत्ता जे । सासयसोक्वं मोक्खं, पडुच्च अब्भुज्जमंति दढं ॥३०॥ ता कइया तं होही, दियहं गीयत्थगुरुसमीवम्मि । जत्थ चरणं पवज्जिय, मोक्खऽत्थं उज्जमिस्सामि ॥३१॥ संपत्तेसु वि सेसेसु, सयलमोक्खडत्थसाहणंडगेसु । सव्वविरई निणा कह, सासयसोक्खो भवइ मोक्खो ॥३२॥ ता जावउज्जवि छम्मास-परिसपमुहं ममाऽऽउयं अत्थि । ता सव्वसंगचागेण, मोक्नमग्गं अणुसरामि ॥३३॥ कह व चिरं चिट्ठउ ता, समभावठियस्स किर मुहत्तं पि । पव्यज्जपरिणई जड़, जायइ ता किं न पज्जत्तं ॥३४॥ इय परिणामपरिणओ, सविसेसुल्लसियतिव्यसंवेगो । गंतूण गुरुसमीये, अपायभायो भणइ भंते! ॥३५॥ | कारुन्नाऽमयनीसंद-सुंदरं भणियमाऽऽसि जं तुमए । आलोयणाइपुव्यं, पव्यज्जाडइ रेज्जासु ॥३६॥ इच्छामो ति भणिता, मए वि पडियन्नमाऽऽसि जं इन्हेिं । आउंमि पहुप्पंते, चेय तयं तह करेमि अहं ॥३७॥ आरुहिउमऽहं सुपुरिस!, पव्वज्जासुप्पसत्थबोहित्थं । निज्जामएण भवया, भवडन्नवं तरिउमिच्छामि ૨૮ ततो य तस्स निब्भर-भत्तिभारोणमन्तसीसस्स । निरवज्जं पव्यज्ज, गुरु वि आरोवए विहिणा ॥३९॥ अह होज्ज देसविरओ, संमत्तरओ रओ य जिणधम्मे । ता तस्सऽणुव्ययाई, आरोवड़ सुपरिसुद्धाई ॥४०॥ अणिआणोदारमणो, हरिसवसविसट्टकंटयकरालो । पूएइ गुरुं संघ, साहम्मियमाऽऽइ भत्तीए ॥४१॥ नियदव्वमउव्यजिणिंद-भवणतबिंबवरपइट्ठासु । वियरइ पसत्थपोत्थय-सुतित्थतित्थयरपूयासु ૪૨ अह कहवि सव्वविरइ-कयाऽणुराओ विसुद्धमड़काओ । छिन्नसयणाऽणुराओ, विसयविसाउ विरत्तो ता ॥४३॥ |संथारयपव्वज्जं पि, सव्यसावज्जवज्जणुज्जुत्तो । पडिवज्जइ संजमसज्ज-रज्जसिओ हु स महप्पा ૪૪ तत्थ यडणुव्ययधारी, पवन्नसंथारसमणदिक्खो य । संलेहणापुरस्सर-मंडतम्मि अणसणं कुणइ ॥४५॥ इय अणसणसंथारग-दिक्खापडिवत्तिदारमअट्ठमयं । भणियं तभणणे पुण, भणिओ गिहियिसयपरिणामो ॥४६॥ "परिणामद्वारम्" - संपड़ समग्गगुणमणि-निहिणो मुणिणो पडुच्च परिणामो । उवदंसिज्जइ सो पुण, हवेज्ज इय चिन्तणेण सुहो॥४७॥ पुव्यावरत्तकाले, जागरमाणो य धम्मजागरियं । परिवढियपरिणामो, मुणी मणम्मि विचिन्तेइ ૧૪૮ रोगजरामगरालो, निरंतरुप्पत्तिमरणनीरिल्लो । दव्वक्वेत्ताऽऽइचउ-व्यिहाऽऽवयापूरिओडणाई ॥४९॥ अणवरउटुिंतवियप्प-लहरीहीरंतजन्तुसंताणो । अइतिखदुक्खहेऊ, अहो! रउद्दो भवसमुद्दो ॥५०॥ लद्धण वि इह किच्छा, सुदुल्लहं कहवि माणुसं जम्मं । न लहंति परमदलहं. जीया धम्म जिणक्खायं ॥५१॥ लद्धे यि तम्मि अविरइ-पिसाइयानिबिडपासपडियाण । दुलहं चिय सामन्नं, निस्सामन्नं गुणपहाणं ॥५२॥ किच्छेण पाविऊण य, सामन्नं दुल्लहं पि ओसन्ना । सीयंति सायबहुला, पंकोसन्ना गइंद व्य ॥५३॥ जह कागणीए हेडं, महग्घरयणाण हारए कोडिं । तह भवसुहप्पसत्ता, सत्ता हारिंति मुतिसुहं ॥५४॥ 1. दुष्कृतनिवासे। 94 ॥०० Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३३५५-३३८६ त्यागद्वारवर्णनम् अहह! अणिच्चमडसारं, परिणामे भंगुरं सरीरमिमं । जीयं जोब्वणमिड्ढी, पिअसंजोगा सुहं च तओ ॥५५॥ अइदुलहं मणुयत्तं, जिणिंदवयणाऽऽइयं च सामग्गिं । पप्प पुरिसेण सासय-सुहेएक्करसिएण होयव्यं ॥५६॥ जं अज्ज सुहं भविणो, संभरणीयं तयं भवे कल्लं । मग्गंति निरुवसग्गं, अपवग्गसुहं बुहा तेणं नरविबुहेसरसोखं, दुक्खं चिय भावओ बुहा बेंति । परिणामदारुणमडसा-सयं च जं ता अलं तेणं ॥५८॥ सासयसुहं च नियमेण, जिणाडणाऽऽराहणाफलं जम्हा । ता तीए उज्जमिमो, जिणवयणविसुद्धबुद्धीए ॥५९॥ |चिन्नं सामन्नेणं, सामन्नं एत्तियं मए कालं । अह संपयं विसेसा-ऽणुट्ठाणमऽणुट्ठिमो किंचि ॥६०॥ पच्छायावपरद्धो, पियधम्मो दोसनिरसणसयन्हो । अरिहइ पासत्थाई वि, जं तयं जड़ वि दुस्सीलो ॥१॥ निच्वं परिगलति बलं, निच्चं परिगलति पुरिसयारो यि । निच्वं परिगलति वओ, निच्चं परिगलइ विरियं पि ॥२॥ निच्चं परिगलइ सुई, निच्वं परिगलइ दिट्ठिसामत्थं । निच्चं परिगलई मई, निच्चं परिगलइ आउं पि ॥३॥ ता जाय बलं सन्तं, सन्तं विरियं तहज्जवि जाव । संतो य पुरिसयारो, संतो य परक्कमो जाव जावडज्जवि अणुवहओ, इमो समग्गो वि इंदियग्गामो । जायउज्जयि अणुकूला, दव्वक्वेत्ताऽऽइसामग्गी ॥६५॥ जिणकप्पियाडइविसयं, विहारमडब्भुज्जयं किमणुसरिमो । अहया विसिट्ठसंघयण-विसयमेयं न अम्हाणं ॥६६॥ ता अज्जकालियजइ-संघयणाऽणुसरिसं विसेसविहिं । विहिणा पडिवज्जामो, दुल्लहनरभवफलमिमं ति ॥७॥ एवं न केवलं चिय, सामन्नमुणी मुणीण वसभो वि । निययाऽवत्थासरिसं, जग्गेज्जा धम्मजागरियं ॥८॥ जहापरिवालिओ सुदीहो, परियाओ यायणा य मे दिन्ना । निप्फाइया य सीसा, तदुचियमऽवि विहियमेवं च ॥६९॥ जं अम्ह भूमिगाए, उचियं किच्चं कमकमेण तयं । विहियं तयं विसेसेण, अप्पणो किंपि कप्पेमि ॥७०॥ अच्वंतदुप्परक्कम-पमायपरचक्कपारवस्सेण । जं किंचि किच्चवग्गे, कयाऽक्यत्तं तयं चेच्चा ॥१॥ चिरचरियचरणकरणस्स, चिरप्परुवियजिणिंदधम्मस्स । सेयं मज्झं संपइ, विसेसहियमडप्पणो काउं ॥७२॥ किंतु अहालंदविहिं, परिहारविसुद्धियं व जिणकप्पं । पाओवगमणमिंगिणी-भत्तपरिन्नाविहिं वा वि ॥७३॥ सड़ सामत्थे सइ आउगे य, अनिग्ग (गू)हियऽत्तबलविरिओ । सइ सद्धासंवेगें, अहिगयजिणसमयसारस्स ॥४॥ पसमाऽऽइगुणगणाडलं-कियस्स सीसस्स नियपयं दाउं । संठाविऊण य गणं, पडिवज्जामि इयाणीमऽहं ॥५॥ एवं वियारइत्ता, तुलिऊण य अप्पयं पयत्तेण । सेसाणमऽसत्तीए, भत्तपरिन्नाए कुणइ मइं ॥७६॥ इय सुद्धबुद्धीसंजीवणीए, संवेगरंगसालाए । आराहणाए सिवपुर-पयट्टजणजाणतुल्लाए ॥७७॥ पढमद्दारनवमए, दुभेयपरिणामनामपडिदारे । साहुपरिणामनामो, भेओ बीओ वि परिकहिओ ॥७८॥ तभणणा पुण भणियं, परिकम्मविहिस्स मूलदारस्स । नवमं दुभेयजुयमऽवि, एयं परिणामपडिदारं ॥७९॥ "त्यागद्वारवर्णनम्" - सुहपरिणामेणं परि-णओ वि न विसेसचागविरहेण । आराहणमाऽऽराहिउ-मलं भवे अहिगओ सतो ॥८०॥ ता चागदारमाहुणा, कित्तेमो सो य चउविहो चागो । दव्यं नेतं कालं, भावं च पडुच्च नायव्यो ॥८१॥ तत्थ य गिहिणा जइ वि हु, आराहणकरणमूलकाले वि । पुत्तदविणऽप्पणेणं, विहिओ च्चिय दव्यओ चागो॥८२॥ तह वि हु सरीरपरियण-उवहिप्पमुहाणि भूरिदव्याणि । पडिबंधाडकरणेणं, सविसेसं वज्जणिज्जाणि ॥८३॥ तह खेत्तओ वि जइ यि हु, पुरा पुराडडगरगिहाडडइयं चत्तं । तह वि समीहियठाणे वि तेणं मुच्छा विमोत्तव्वा ॥८४॥ न य कालओ वि सरयाऽऽइएसु पडिबंधबंधुरा बुद्धी । कायव्या एवं चिय, भामि वि अप्पसत्थंमि ॥५॥ एवं संजमसाहण-मत्तं मोत्तं समत्थमवि उवहिं । चयइ विसद्धलेसो, मुणी वि मुत्तिं गयेसंतो ॥८६॥ अप्पपरिकम्ममुवहिं, बहुपरिकम्मं च दो वि वज्जेइ । सेज्जासंथाराई वि, उस्सग्गपयं गवेसंतो ટળી किंचजे साहू पंचविहं, सुद्धिमडलद्धूण मुत्तिमिइच्छंति । पंचविहं च वियेयं, ते हु समाहिं न पावेंति ॥८॥ आलोयण सेज्जाए, उवहीए तह य भत्तपाणस्स । व्यावच्चकराण' य, सुद्धी खलु पंचहा भणिया ॥८९॥ 1. श्रेयः = उचितम्। 95 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३३६०-३४२६ | अहवा दंसणनाण- चरितसुद्धी य विणयसुद्धी य । आवासयसुद्धी वि य, पंचवियप्पा हवइ सुद्धी | इंदिय' कसाय 'उवहीण, भत्तपाणस्स तह सरीरस्स । एस विवेगो भणितो, पंचविहो भावदव्यगता अहवा सरीर' सेज्जा' - संथारु 'बहीण' भत्तपाणस्स ' । वेयावच्चगराण य, एस विवेगो उ पंचविहो इय कयसच्चच्चागो, लीलाए हरइ मरणकाले वि । विजयपडायं सहसा, सहस्समल्लो व्व मुणिवसभो तहाहि “सहस्रमल्लदृष्टान्तः” सहस्रमल्लदृष्टान्तः ॥९०॥ ॥९१॥ ॥९२॥ ॥९३॥ संखउरंमि पुरवरे, अहेसि भूमिवई कणगकेऊ । नयसच्चचायसोंडीर - याऽऽईगुणरयणरयणनिही सेवाविहिंमि कुसलो, गुणाऽणुरागी य परमभत्तो य । नामेण वीरसेणो, तस्साऽसी सेवगो एक्को सो पुण विणयपरक्कम-पमुहगुणाऽऽवज्जिएण नरवइणा । गामसयजीवणं पि हु, दिज्जन्तं नो समीहेड़ अह एगंमि अवसरे, सदेससीमामडंबनाहेण । दुग्गबलगव्विएणं, चोराहिवकालसेणेणं हीरंतं निजदेसं, निसामिउं जायगाढकोयेणं । उब्बद्धभिउडीमीमा - ऽऽणणेण भणियं महीयइणा हंहो महन्तसामन्त- मन्तिसेणाहिया ! सुहडपवरा ! । किं कोवि कालसेणं, णिज्जिणिउं भे समत्थोऽत्थि अह जावऽज्ज वि सामन्त- पभिइणो नेव किंपि जंपंति । देव! समत्थोऽहं ताव, जंपियं वीरसेणेणं तो सविलासाए. सपम्हलाए, वियसंतकुमुयसोहाए । दिट्ठीए सप्पसायं, पलोइओ सो नरिंदेणं | सामिसपसायलोयण- पलोयणुऽप्पन्नगुरुपमोएण । पुणरवि तेणं भणियं देव! विसज्जेसु मं एगं |रन्ना सहत्थतंबोल - दाणपुव्यं विसज्जिओ ताहे । सामन्ताऽऽइजणो वि य, मोणेण ठिओ असूयाए अह रायाणं पणमिय, नीहरिओ सो झडत्ति नयराओ । पत्तो य कालसेणस्स, पल्लिनाहस्स पासम्मि भणितो य तेण एसो रुट्ठो तुह भूवई कणगकेऊ । 1 कालमुहं पविससि काल - सेण ! सेणाए सममिन्हिं दुब्बहगव्युग्गीवेण, कालसेणेण सोउमऽवि एवं । किं एगागी काही, इमो वरागो ति अवगणिओ तो कुवियकयन्तकडक्ख-तिक्खमुक्खणियखग्गधेणुलयं । पाइक्कचक्कपम्मुक्क- घायसंघायमऽगणेंतो अत्थाणमंडलिं मिंदिऊण, कयकरणयाए रणसूरो । केसेसु कालसेणं, झडति सो गिण्हिउं भणइ रे रे पुरिसा ! जड़ मज्झ, घायमेत्तो करिस्सह हयासा ! । कालेण नूण कवलि-ज्जिही तया तुम्ह एस पहू ॥९॥ तग्घायकरा पुरिसा, पडिसिद्धा तयऽणु कालसेणेण । जो इह पहरड़ सो मह, पहरड़ 2जीए त्ति भणिरेण ॥१०॥ एत्थंडतरंमि तग्गुण-रंजियमणकणगकेउवयणेण । हरिकरिरहजोहाऽऽउल - मऽणुपत्तं चाउरंगबलं ताहे सो वंचित्ता, अणाऽऽउलंगेण वीरसेणेण । भत्तिभरनिब्भरेणं, उयणीओ कणयकेउस्स ॥७॥ ॥८॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ तुट्ठो राया दिन्नं गामसहस्सं च से पसाएण । नाममऽवि तस्स ठवियं, सहस्समल्लो त्ति भूवइणा सो वि मडंबाऽहिवई, संधिं घडिऊण निययठाणम्मि । सक्कारिऊण रन्ना, विसज्जिओ हरिसियमणेण कालक्कमेण पवरो, सुदंसणो नाम मुणिवई तत्थ । उज्जाणम्मि णिसन्नो, दिट्ठो य सहस्समल्लेण अह भत्तिभरोणयमत्थएण, वंदितु तस्स सो चरणे । जिणधम्मं सोउमणो, आसीणो भूमिवट्ठम्मि गुरुणा वि य संसारा- ऽसारतपरूवणागुणपहाणो । निव्वाणलाभसारो, कहिओ जिणदेसिओ धम्मो आयन्निऊण य इमं महन्तजायन्तपवरवेरग्गो । नमिऊण पुणो चलणे, गुरुणो भणिउं समाढतो भयवं! तवचरणविवज्जियाण, अच्चतमोहमूढाण । भवजलहिनिवडियाणं, जीवाणं कामभोगेहिं धणसयणाऽऽईएहिं थेयो वि हु जायए न साहारो । मोतूणमेक्कमऽमलं, धम्मं, चियं परभवसहेज्जं ता जड़ पेच्छह मम किंपि, जोग्गयं देह झति पव्यज्जं । पज्जंतदारुणेणं, पज्जतं गेहवासेणं ता सुत्तुवओगेणं, गुरुणा से जोग्गयं मुणेऊण । दिन्ना जिणिददिक्खा, असंखदुक्खोहखयजणणी तो नायसाहुजणजोग्ग-पवरकिरियाकलावपरमत्थो । अहिगयबहुसुत्त प्रत्थो, सो जाओ थेवदियहेहिं कालक्कमेण य दढं, देहाऽऽईसु चत्तपणयभावेण । पडिवन्नो जिणकप्पो, तेण सुहनिप्पियासेण जत्थइत्थमियनिवासी, सुसाणसुन्नहररन्नसेवी य । वाउ व्व अपडिबद्धो, अणिययवित्तीए विहरन्तो संपत्तो स महप्पा, तत्थ मडंबस्मि जत्थ चिरवेरी । वसति किर कालसेणो, सणि व्य कुरो सहायेण 1. कालमुखं = मृत्युमित्यर्थः । 2. जीवे । ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥९४॥ ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९७॥ ॥९८॥ ॥९९॥ ॥३४०० ॥ ॥१॥ un ॥३॥ ॥४॥ ॥५॥ 96 m Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३४२७-३४६१ मरणविभक्तिद्वारम् - जयसुंदरसोमदत्तदृष्टान्तः अह तब्बहिया उस्सग्ग-मुवगतो सो पलोइओ तेण । तद्देसमाउडगएणं, पायेणं कालसेणेणं ॥२७॥ तो भणिया नियपुरिसा, रे! रे! सो एस वेरिओ मज्झ । एगागिणा वि जेणं, तइया बद्धो म्हि लीलाए ॥२८॥ ता संपयं पणासह, सहसा एयस्स पोरुसज्यलेवं । मुक्काऽऽउहो सयं चिय, जा चट्टइ एस वीसत्थो ॥२९॥ सोऊण इमं पुरिसेहिं, कोववसफरतअहरेहिं । सत्थेहिं विचित्तेहिं, सो हम्मन्तो विचिंतेड़ रे जीव! मणागं पि हु, मा काहिसि बालिसेसु एएसु । वहणुज्जएसु वि तुमं, पओसभावं कहपि जओ॥३१॥ 'सव्यो पुवकयाणं, कम्माणं पायए फलवियागं । अवराहेसु गुणेसु य, निमित्तमित्तं परो होइ' ॥३२॥ जड़ पच्छा वि हु तुमए, सोढव्या तिक्खदुक्खदंदोली । ता वरमिन्हिं सहिया, सन्नाणसहाइसहिएण ॥३३॥ जड़ चंडचक्किणो वि हु, तहाविहं बंभदत्तनामस्स । नयणुप्पाडणदुक्खं, विहियं पसुवालमेतेण ॥३४॥ जइ अरिहा वि हु होउं, पत्तो उयसग्गवग्गमऽइघोरं । तइलोरंगमज्झे; अतुल्लमल्लो महावीरो ॥३५॥ जड़ वा वि तहा दुसहं, बंधुक्खयपमुहपायवेहंऽतं । अच्वन्ततिक्खदुक्खं, पतो सिरिवासुदेवो वि ॥३६॥ थेवं पि. कीस अवयारकारिस पओसं । अवहंतो नो यसि, सायत्ते पसमसोक्खम्मि ॥३७॥ उवहिगणगुरुकुलेसु वि, पडिबंथो सव्यहा जड़ विमुक्को । सइ भंगुरे, असारे, तया सरीरे कह णु मोहो॥३८॥ इय धम्मज्झाणपरो, स महप्पा तिखखग्गघाएहिं । निहओ तेहिं जाओ, देवो सव्वट्ठसिद्धम्मि ॥३९॥ इय जं भणियं पुव्यिं, क्यचागो निम्ममो य लीलाए । साहू पत्थुयमहत्थं, साहइ तं दंसियमिमं ति ॥४०॥ इय मणअलिमालइमा-लियाए संवेगरंगसालाए । आराहणाए मूलि-ल्लयम्मि परिकम्मविहिदारे ॥४१॥ पत्थुयपन्नरसण्हं, पडिदाराणं कमाउणुसारेण । चायाऽभिहाणमेयं, पडिदारं देसियं दसमं "मरण विभक्तिद्वारम्" - सव्यच्चागो पुव्यं, पवन्निओ सो य संभवति मरणे । ता मरणविभत्तिमऽहं, दारं एतो निदंसेमि ॥४३॥ आयीचि ओहिं अंतिया-बलायमरणं यसमरणं च । अंतोसल्लं तब्भव-बालं तह पंडियं मीसं ॥४४॥ छउमत्थमरण" केवलि-बेहाणस३ गिद्धपिट्ठमरणं च। मरणं भत्तपरिन्ना, इंगिणि६ पाओवगमणं च ॥४५॥ इय सत्तरस विहीउ', मरणे गुरुणो गिरंति गुणगुरुया । तेसिं सरुवमाहुणा, योच्छामि अहाऽऽणुपुब्बीए ॥४६॥ पइसमयाऽऽउयदलविह-डणं जमाऽऽवीइमरण युत्त तं । नरगाऽऽइभवनिमित्ता-ऽऽउकम्मदलियाणि पुण जाणि॥४७॥ अणुभविय संपयं मरइ, जड़ पुणो ताणि चेव अणुभविउं । मरिही तया तमेवं-भूयं भणियं अवहिमरणं ॥४८॥ नरगाऽऽइभवनिमित्ता-उदलियमडणुभविय मरइ हु मओ वा । न य तदणुभविय मरिही, पुणो तमाऽऽयंतियं मरणं॥४९॥ संजमजोगविसन्ना, मरंति जे तं बलायमरणं ति । इंदियविसयवसगया, मरंति जे तं वसट्टे ति ॥५०॥ लज्जाए गारवेण य, बहुस्सुयमएण वा वि दुच्चरियं । जे न कहिंति गुरूणं, न हु ते आराहगा होति ॥५१॥ गारवपकनिबुड्डा, अइयारं जे परस्स न कहेन्ति । दसणनाणचरित्ते, ससल्लमरणं भवति तेसिं ॥५२॥ एयं ससल्लमरणं, मरिऊण, महाभए दुरुत्तारे । सुइरं भमंति जीया, दीहे संसारकंतारे ॥५३॥ नरतिरिभवपाउग्गाऽऽउं, बंधिउं तक्कए मरंतस्स । तिरियस्स नरस्स य जं, तं तब्भवमरणमाऽऽहंसु ॥५४॥ मोत्तुं अकग्मभूमग-नरतिरिए सुरगणे य नेरइए । सेसाणं जीवाणं, तब्भवमरणं तु केसिंपि ॥५५॥ मोतूण ओहिमरणं, आवीचिआइयं ति पंचेव । सेसा मरणा सव्ये, तभवमरणेण नेयव्या ॥५६॥ अविरयमरणं बालमरणं ति, विरयाण पंडियं बेति । जाणाहि बालपंडिय-मरणं पुण देसविरयाणं ॥५७॥ मणपज्जयोहिनाणी-सुयमइनाणी मरंति जे समणा । छउमत्थमरणमेयं, केवलिमरणं तु केवलिणो ॥५८॥ गिद्धाऽऽइभक्खणं गिद्ध-पट्ठमुब्बंधणाऽऽइ वेहासं । एए दोन्नि वि मरणा, कारणजाए अणुन्नाया ॥५९॥ जओआगाढे उयसग्गे, दुभिक्ख्खे सव्यओ दुरुत्तारे । अपिहिमरणं पि दिटुं, कज्जे कडजोगिणो सुद्धं तेणं चिय मुणिपवरा, जयसुंदरसोमदत्तनामाणो । मरणाई पडियन्ना, वेहाणसगद्धपट्ठाई ॥६१॥ तहाहि “जयसुंदरसोमदत्तदृष्टान्तः” . 1. उत्तराध्ययन सूत्र। 97 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३४६२-३४६८ मरणविभक्तिद्वारम्-जयसुंदरसोमदत्तदृष्टान्तः वइदेसाए पुरीए, नरविक्कमरायविहियरक्खाए । सेट्ठी सुदंसणो आसि, तस्स पुत्ता दुवे जाया ॥२॥ जयसंदरो ति पढो. बीओ पण सोमदत्तनामो ति । दो वि य कलासु कुसला, दो वि य रूयाउइगुणजुत्ता॥६३॥ दो वि परोप्परपणय-प्पहाणचित्ता पगिट्ठसत्ता य । वटुंती किच्चेसुं, इहपरलोयाविरुद्धेसु ॥६४॥ एगम्मि य पत्थावे, महल्लमुल्लं क्याणय घेत्तुं । ते बहुनरपरियरिया, अहिछत्ताए पुरीए गया ॥६५॥ तत्थ य अच्छंताणं, ववहारवसा परोप्परं मेती । जाया भावपहाणा, जयवद्धणसेट्ठिणा सद्धिं કદી सोमगिरी विजयसिरी, दोण्णि य धूयाउ तस्स सेट्ठिस्स । दिन्ना तो तेण तेसिं, विहिओ य विहीए वीवाहो ॥६॥ तो ते ताहिं सद्धिं, अणिंदियं बुहयणस्स जहसमयं । पंचविहविसयसोक्खं, उवभुंजता परियसंति ॥८॥ अन्नम्मि अवसरम्मि, निजनगरा गयनरेण ते युत्ता । हंभो! पिउणा तुब्भे, सिग्घं एह ति आणत्ता ॥६९॥ जम्हा अणिवत्तयसास-कासपमुहेहिं भूरिरोगेहिं । सो पीडिओ समीहइ, तुब्भाणं दंसणं हत्थं ॥७०॥ एवं सोच्चा ते त-खणेण मोत्तुं तहिं चिय कलते । ससुरस्स कहिय वत्तं, पिउपासे पट्ठिया झत्ति ॥१॥ अच्छिण्णपयाणेहिं, बच्वंता निययमंदिरे पता । दिट्ठो य परियणो तत्थ, सोयविच्छायमुहसोहो ॥७२॥ दिटुं भवणं पि पणट्ठ-सोहम इभीसणं सुसाणं व । उवरयदीणाडणाह-प्पयाणसालानिउत्तजणं ॥७३॥ हा हा हयम्ह ताओ, दिवंगओ फुडमिमं घरं तेणं । कमलवणं पिय अत्थमिय-दिणयरं जणइ नेव रई ॥७४॥ एवं परिभाविन्ता, चेडीदिन्नाऽऽसणम्मि आसीणा । एत्थंउतरंमि गुरुसोग-वेगवाहाऽऽउलऽच्छेण ॥७५॥ काऊण पायवडणं, णिवेइया परियणेण नीसेसा । अच्वंतसोगजणणी, तेसिं पिउणो मरणवत्ता ॥७६॥ तो ते विमुक्ककंठं, विसंथुलं रोविउं समारद्धा । पडिसिद्धा य कहं पि हु, महुरगिराए परियणेण ॥७॥ अह तेहिं जंपियं कहह, असरिसं पेममुव्यहंतेण । अम्हाणमडपुण्णाणं, ताएणं किं समाइटें ? ॥७८॥ सोगभरगग्गिरेणं, ता भणियं परिजणेण निसुणेह । ताएण तुम्ह दंसण-मडच्वंतं अहिलसंतेण ॥७९॥ एहिन्ति मज्झ पुत्ता, ते तप्पुरओ इमं च तं च अहं । साहिस्सामि ति पयं-पिरेण नो पुच्छिराणं पि ॥८०॥ | अम्हाण किंपि सिटुं, अच्वन्तपयंडरोगवसओ य । तुम्हमळणागमणे च्चिय, पत्तो सो झत्ति पंचत्तं एयं च निसुणिऊणं, किं पि अणाइक्खणिज्जसंतावं । तिव्यं समुव्यहन्तेहिं, तेहिं पामुक्कपोक्क हा कीस निग्घिण! तए, कीणास! न संगमो समं पिउणा । विहिओ ति किं च पायेहिं, तत्थ अम्हेहिं युत्थं ति ॥८३॥ एमाऽऽइ विलविरेहि, पुणो पुणो ताडिउत्तमंगेहिं । तह कह वि परुण्णं जह, जणेहिं पहिएहि वि य रुण्णं ॥८४॥ तो चत्तभत्तपाणा, ते कहमऽवि परियणेण पण्णयिया । तह वि य उवरोहेणं, समत्थकिच्चेसु. वटुंति ॥५॥ अण्णम्मि अवसरम्मि, तेहिं दमघोससूरिणो पासे । संसारुच्छेयकरो, निसुओ सव्वन्नुणो धम्मो तो मच्चुरोगदोगच्च-सोगजरपमुहदुक्खपडिहत्थं । संसारमडसारं नि-च्छिऊण संजायवेरग्गा ॥८७॥ ते दो वि हु गुरुपुरतो, भणन्ति भालयलधरियकरकमला । भयवं! तुम्ह समीचे, पव्यज्जं गिहिमो अम्हे ॥८८॥ अह गुरुणा सुत्तुवओग-मुणियतब्भावविग्घलेसेण । भणियं महाऽणुभावा!, उचिया तुम्हाण पव्वज्जा ॥८९॥ नवरं थीपच्वइओ, भावी तुम्हं सुदूरमुवसग्गो । जइ तं जीवाऽवगमे वि, निप्पकंपा सहह सम्मं ॥१०॥ ता पडिवज्जह सज्जो, पव्यजं उज्जमेह मोक्खकए । इहरा हासट्ठाणं, किरिया आरूढवडियाण ॥९१॥ तेहिं भणियं भगवं!, जइ अम्हं जीवियव्यपडिबंधो । होज्ज मणागं पि तया, न धरेज्जा विरतिगहणमई ॥१२॥ ता भववासुव्विग्गाण, तुज्झ पयपउमजुयललग्गाण । विग्घे वि अविचलाणं, अम्हाणं देहि पव्यजं ॥१३॥ तो दिक्खिऊण गुरुणा, कायव्वविही निदंसिओ सव्यो । सुत्तऽत्थेहिं च परं, निप्फत्तिं सम्ममुवणीया ॥१४॥ गुरुकुलवासे सुचिरं, यसिउं ते एगया महासत्ता । नियगुरुणो आणाए, एगागिविहारिणो जाया ॥१५॥ अह कहवि विहरमाणो, अणिययवित्तीए सम्ममुवउत्तो । अहिछत्ताए पुरीए, साहू जयसुंदरो पत्तो ॥१६॥ तत्थ य जा किर तेणं, परिणीया आसि सेट्ठिणो धूया । सोमसिरी सा पाया, तक्कालं असईवित्तीए ॥९॥ गब्भवई संजाया, चिंतइ जयसुंदरो जड़ इहेइ । 'उप्पय्याविय तो तं, नियदुच्चरियं निगृहेमि ॥९८॥ 1. उत्प्रव्राज्य = प्रव्रज्यां मोचयित्वा इत्यर्थः । 98 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नासा ॥८ ॥ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३४६६-३५३३ मरणविभक्तिद्वारम्-उदायिनृपमारकदृष्टान्तः | भिक्खडट्ठाए पविट्ठो, दिट्ठो तीए य सो कहवि साहू । गेहे 'सएज्झियाए, समाणसीलाए तो झत्ति ॥१९॥ गेहस्संडतो खित्तो, भणितो य सविणयपणयचलणाए । हे जीयनाह! विरमसु, दुक्कतवचरणओ एतो ॥३५००॥ तुज्झ मए जत्थ दिणे, दिक्वायत्ता निसामिया सुहय! । वज्जवडणाऽइरित्तं, दुक्खं जायं ममं तत्थ ॥१॥ अजं चयामि कल्लं, चयामि किर जीवियं तुह विओगे । नवरं एत्तियदियहे, ठियं पि तुह दंसणाऽऽसाए ॥२॥ इण्डिं च तए सद्धिं, जीयं मरणं व नत्थ संदेहो । ता पाणनाह! जं तुज्झ, रोयए तं समायरसु ॥३॥ एवं तीए भणिए, साहू सरिऊण सूरिणो ययणं । पुब्बुवटुं नाउं च, धम्मपच्वुहमडणुवसमं मोक्खडत्थबद्धलक्खो, बाढं नियजीवियव्यनिरवेक्खो । तं भणति खणं एक्कं, भद्दे! तं ठाहि गिहबाहिं ॥५॥ जाय अहं नियकिच्चं, रेमि किंपि हु तदुत्तरं जं ते । होही हियमाऽऽयंतिय-सुहं च तं आयरिस्सामि ॥६॥ अह सा पट्ठिययणा, तहत्ति पडिसुणिय संठिया बाहिं । दाऊण गिहकवाडाई, निबिडकवडुक्कडाऽऽयारा ॥७॥ |साहू वि क्याऽणसणो, धम्मज्झाणे परम्मि बट्टन्तो । वेहाणसेण विहिणा, मरिउं अच्वुयसुरो जाया पुरम्मि वत्ता, इमीए साहू हओ ति तो पिउणा । हत्थं णिब्भच्छेउं, निच्छूढा सा नियगिहातो ॥९॥ अच्वंतसिणेहवसा, विजयसिरी वि हु समं विणिक्खन्ता । मग्गे च्विय सोमसिरी, सूइदोसा गया निहणं ॥१०॥ विजयसिरी पुण एगत्थ, आसमे तावसाण पव्वज्ज । घेत्तूण ठिया सम्म, भुंजती कंदमूलाई ॥११॥ अवरम्मि अवसरम्मि, पुव्योइयमुणिवरस्स लहुभाया । सो सोमदत्तनामो, विहरन्तो तत्थ संपत्तो ॥१२॥ तिक्खडग्गकीलएणं, विद्धो चलणम्मि अक्खमो भमिउं । थक्को एगपएसे, विजयसिरीए कहवि दिह्रो ॥१३॥ नाओ य तओ तीए, मयणाडनलदज्झमाणहिययाए । विविहेहिं पयारेहिं, पारद्धो खोहिउं सो य ॥१४॥ एवं पइक्खणं चिय, खोभिज्जंतस्स तीए पायाए । सुमरियगुरुवयणस्सा, गंतुं च अचायमाणस्स ॥१५॥ कह उज्झामि सजीयं ति, चिन्तयन्तस्स तम्मि देसम्मि । जायं दोण्ह निवाणं, तत्थ खणे बद्धवराणं 2आओहणं महंतं, निवाडियाडणेगसुहडकरितुरयं । पवहतरुहिरपवहं, दंसणमेत्ते वि भयजणगं ॥१७॥ परपक्वसपक्खवयं, दटुं च निवेसु पडिनियत्तेसु । मडएसु ख्रज्जमाणेसु, गिद्धभल्लुकमाऽऽईहिं ॥१८॥ साहू परिचिन्तइ नत्थि, मरणकिच्चे परो उवाओ ता । ठाउं रणंडगणे गद्ध-पट्ठमरणं पवज्जामि . ॥१९॥ एवं विणिच्छिऊणं, स महप्या तीए कह वि पायाए । कंदफलाइनिमित्तं, गयाए कयसव्वकायव्यो ॥२०॥ सणियं सणियं गंतुं, तेसिं मडयाण मज्झयारम्मि । पडिओ निज्जीवो इव, खद्धो अह दुट्ठसत्तेहिं ॥२१॥ अच्वंतसमाहीए, मरिउं जाओ सुरो जयंतम्मि । इय गद्धपट्ठमरणं, सम्म आराहियं तेणं ॥२२॥ एवं वेहाणसगद्ध-पट्ठमरणाइं कारणवसेण । नृणमडणुण्णायाइं, जिणेहिं तइलोक्कमहिएहिं ॥२३॥ तहाअभिमरएणं निवइम्मि, मारिए गहियसमणलिंगेणं । उड्डाहपसमणऽत्थं, सत्थग्गहणं कयं गणिणा . ॥२४॥ "उदायिनृपमारकस्यदृष्टान्तः" | पाडलिपुत्तम्मि पुरे, अच्चन्तपयंडसासणो राया । सामन्तचक्कपणओ, उदायिनामो जयपसिद्धो ॥२५॥ थेवाऽवराहमेते वि, तेण एगस्स राइणो रज्जं । अवहरियं नीसेसं, सो पुण राया लहुं नट्ठो ॥२६॥ पुत्तो य तस्स एगो, उज्जेणीए गओ परिभमंतो । ओलग्गिउं च लग्गो, उज्जेणीपत्थिवं पयओ ॥२७॥ अह सो उज्जेणिनियो, “परिसवइ उदायिराइणो बहुसो । तेण य रायसुएणं, विन्नत्तो रहसि नमिऊण ॥२८॥ देव! मह जड़ सहाई होसि तुमं ता हणामि तुह सत्तुं । पडिसुयमेयं रन्ना, दिन्नं से जीवणं च बहुं ॥२९॥ तो कंकलोहकत्तिय-माऽऽदाय सुगोविउं इमो वि गतो । मारिउमुदायिरायं, नवरं छिदं अपावितो રે अट्ठमीचउद्दसीसुं, नुणिवड़णो राउलंमि बच्चंते । कयपोसहस्स रन्नो, रयणीए सासणनिमित्तं ॥३१॥ दट्ठण सो विचिन्तइ, सिस्सो होउं इमाण समणाण । पविसित्तु राउलं वं-छियत्थमडचिरा य साहेमि तो कंककत्तियं गो-विऊण गहिया अणेण पव्वज्जा । अच्वंतविणयवित्तीए, तोसिया सूरिणो य दढं ॥३३॥ 1. प्रातिवेस्मिकयाः = पाडोशणना घरमा । 2. आयोधनम् = युद्धम् । 3. अभिमरकेण = घातकेन । 4. परिशपति = आक्रोशयति तहाहि 99 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३५३४-३५७१ मरणविभक्तिद्वारम् उदायिनृपमारक दृष्टान्तः ॥३४॥ ॥३५॥ ॥३७॥ ॥४०॥ ॥४१॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ ॥५१॥ ॥५२॥ एगम्मि य पत्थावे, रयणीए पोसहं पवन्नस्स । रन्नो धम्मकहऽत्थं, दट्ठूणं पट्ठियं सूरिं सो झति अइविणीय-तणेण घेत्तूण कत्तियं चलितो । संथारगाऽऽइहत्थो, रायउले सूरिणा सद्धिं चिरदिक्खिओ त्ति संजम - रओ त्ति सुपरिक्खिओ त्ति काऊण । न निसिद्धो सूरीहिं, गया ततो रायभवणम्मि ॥ ३६ ॥ तत्तो य पोसहं गाहिऊण, भूमीवइं सुचिरवेलं । कहिऊणं धम्मकहं, सुत्ता रयणीए मुणिवड़णो तेसिं चेव समीवे, राया वि हु निद्दमुवगतो सहसा । अह ते निब्भरसुते स दुट्ठसिस्सो विजाणित्ता रन्नो कंठम्मि निवेसिऊण, तं कत्तियं विणिक्खन्तो । साहू ति न य निसिद्धो वच्चंतो जामइल्लेहिं | अह कंककत्तियाछिन्ना-कंठनि (न) वरुहिरभूरिपवहेण । सित्तसरीरो सूरी, झति विबुद्धो नियं दठ्ठे वावाइयं विचिंतइ, तस्स कुसीसस्स नूण कम्ममिमं । ता जड़ पाणच्चायं, इन्हिमऽहं नो करिस्सामि तो पवयणस्स खिंसा, होही सव्वत्थ धम्मनासो य । इति चिन्तिऊणमऽणसण-पमुहं सव्यं विहिं काउं ॥४२॥ तं चेव कत्तियं नियय - कंठदेसम्मि ठावइताणं । कालं कुणइ महप्पा उस्सग्गऽववायविहिकुसलो इय सत्थुब्बंधणपभिइणा वि, आगाढकारणे मरणं । निद्दोसं चिय वृत्तं भत्तपरिण्णं अह भणामि भत्तं हि भुत्तपुव्यं, अणेगसो णेगहा मए एत्थ । जाया तित्ती तत्तो, न तओ तह कहवि जीवस्स कहमन्नहा पुणो वि हु, असुयं व अदिट्ठमिव अभुतं व । अमयं व पढमलाभे, बहुमन्नइ दिवसदिवसे तं॥४६॥ असुइत्तणाऽऽड़बहुविह - वियारपरिणामधम्मुणा तम्हा । किमिमिणा मणसा वि अवज्ज - हेउणा चिंतिएणाऽवि ॥४७॥ इय जाणगप्परिन्नाए, भत्तविसयं हि जं परिन्नाणं । पच्चक्खाणपरिन्नाए, तह य भयवंतवयणाओ ॥४८॥ सव्वं पि असणपाणं, चउव्विहं जा य बाहिरो उवही । अब्भिन्तरो य तं पि हु, जाजीवं वोसिरे सव्वं ॥४९॥ इच्चाइ जाउ तिविहस्स अहव सम्मं चउव्विहस्साऽवि । आहारस्सिह जाव - ज्जीवं पि परिच्चयणरुवं ॥५०॥ पच्चक्खाणं जं तं भत्तपरिन्न त्ति तीए किर मरणं । भत्तपरिन्नामरणं, सप्पडिकम्मं तयं णियमा भत्तपरिन्नामरणं, दुविहं सवियारं मो अवीयारं । सपरक्कमस्स मुणिणो, संलिहियतणुस्स सवियारं अपरक्कमस्स मुणिणो, भत्तपरिन्नं भांति अवियारं । काले अपहुप्पंते, तं पि हु तिविहं समासेणं पढमं जाण निरुद्धं, निरुद्धतरयं च भन्नए बीयं । परमनिरुद्धं तइयं, तेसिं सरूवं पुण भणामि [ दारगाहा ] ॥ ५४ ॥ जो जंघाबलरहिओ, रोगाऽऽयंकेहिं करिसियसरीरो । तस्स मरणं निरुद्धं, अवियारं भण्णए पढमं ॥५५॥ तम्मि वि पुव्युत्तविही, दुविहं तं पि य पयासमऽपयासं । जणनायं तु पयासं, जणे अविन्नायमऽपयासं [दारं ] ॥ ५६ ॥ | बाल-ऽग्गि-वग्घमाऽऽईहिं, सूल-मुच्छा-विसूइयाऽऽईहिं । नच्चा संवट्टिज्जन्त - माऽऽउयं सिग्घमेव मुणी ॥५७॥ | जाय न वाया अक्खिवड़, जाव चित्तं न होइ अक्खित्तं । संनिहियाणाऽऽलोयइ, गणिमाऽऽईणं पि सो ताय ॥ ५८ ॥ एयं निरुद्धतरयं, बीयं मरणं भणंति अवियारं । सो चेव जहाजोगं, पुव्युत्तविही भवइ तम्मि [दारं ] वायाइऽऽएहिं जइया, अक्खिता होज्ज भिक्खुणो वाया । तझ्या परमनिरुद्धं, तइयं मरणं अवीयारं नच्चा संवट्टिज्जंत- माउयं सिग्घमेव सो भिक्खू । अरिहन्तसिद्धसाहूण, अन्तियं सव्वमाऽऽलोए एवं भत्तपरिन्ना, सुयाऽणुसारेण वन्निया एसा । एतो इंगिणिमरणं, भणामि सम्मं समासेणं इंगिज्जड़ चेट्ठिज्जइ, पइनियए, चेव भूपएसम्मि । अणसणकिरिया इमाए, इंगिणी तीए य जं मरणं भन्नइ इंगिणिमरणं, तं चउहाऽऽहारंचायजुत्तस्स । निप्पडिकम्मस्सिंगिय-देसंतोवत्तिणो चेव जो भत्तपरिन्नाए, उवक्कमो भन्निही सवित्थारो । सो चेव जहाजोगं, उवक्कमो इंगिणीमरणे संलिहियदव्यभावो, इंगिणिमरणम्मि बद्धयवसाओ । आइमतियसंघयणो, धीमंतो खामिउं सगणं अंतो बाहिं च ततो विसुद्धमाऽऽरुहिय थंडिलं एक्को । संथरिय तणाइं तहिं, उत्तरसिरमऽहव पुव्यसिरो ॥६७॥ अरिहाऽऽइअंतिगे सो, सीसम्मि कयंऽजली विसुद्धमणो । आलोयणं च दाउं, वोसिरइ चउव्विहाऽऽहारं ॥६८॥ सयमेव अप्पणो सो, करेइ आउंटणाऽऽइकिरियाओ । उच्चाराऽऽड़ विगिंचड़, सयं च सम्मं निरुवसग्गो ॥६९॥ जाहे पुण उवसग्गा, दिव्या माणुस्सया व से होज्जा । ताहे निप्पडिकंपो, ते अहियासेइ विगयभयो ॥७०॥ पत्थिज्जंतो वि ततो, किंनरकिंपुरिसदेवकन्नाहिं । न य सो तहाऽवि खुब्भइ, न विम्हयं कुणइ रिद्धीए ॥७१॥ ॥५३॥ ॥५९॥ ॥६०॥ ॥६९॥ ॥६२॥ Em દ્દકા ॥६५॥ ॥६६॥ ॥३८॥ ॥३९॥ 100 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३५७२-३६०८ ॥७४॥ ॥७५॥ ॥७६॥ मरणविभक्तिद्वारम् अधिगतमरणद्वारम् जड़ से दुक्खत्ताए, सव्ये वि हु पोग्गला परिणमेज्जा । तहवि न से थेवा वि हु, विसुत्तिया होड़ झाणस्स ॥ ७२ ॥ | जड़ सव्यपोग्गलचओ, अहव सुहत्ताए तस्स परिणमड़ । तह वि न से संजायइ, विसोत्तिया सुद्धझाणस्स ॥७३॥ सच्चित्ते साहरिओ, सो तत्थुप्पिक्खए विमुक्कंडगो । उवसंते उवसग्गे, जयणाए थंडिलमुवे वायणपरियट्टणपुच्छणाओ, मोत्तूण तह य धम्मकहं । सुतउत्थपोरिसीए, सरेइ सुत्तं च एगमणो एवं अट्ट वि जामे, अनुअट्टो झायए पसन्नमणो । आहच्च निद्दभावे वि, नऽत्थि थेवं पि सड़नासो | सज्झायकालपडिले - हणाऽऽइयाओ न संति किरियाओ । जम्हा सुसागठाणे वि, तस्स झाणं न पडिकुट्टं ॥७७॥ आवासयं च सो कुणड़, उभयकालं पि जं जहिं कमइ । उयहिं पडिलेहेड़ य, मिच्छक्कारो य से खलिए ॥ ७८ ॥ | वेउब्विय आहारग - चारणखीरासवाऽऽइलद्धीओ । कज्जे वि समुप्पन्ने, विरागभावा न सेवड़ सो मोणाऽभिग्गहनिरओ, आयरियाऽऽईण पुट्ठवागरगो ।' देवेहिं माणुसेहि य, पुट्ठो धम्मक्कहं कहड़ एवं इंगिणिमरणं, सुयाऽणुसारेण साहियं सम्मं । पाओवगमणमेत्तो, समासओ चेय यन्निस्सं किर जत्थ कत्थई एत्थ, मरणभेयम्मि पायवस्सेव । उयगमणमऽवत्थाणं, जायड़ पाओयगमणं तं जं जत्थ जहा अंगं, निक्खिवड़ तं तहिं तह धरेड़ पाओवगमणमेयं, नीहारं वा अनीहारं उवसग्गेण वि जं सो, साहरिओ कुणड़ कालमऽन्नत्थ । तं भणियं नीहारिय-मियरं पुण निरुवसग्गम्मि ॥८४॥ | पुढवी - आऊ - तेऊ, - वाउ - वणस्सइ - तसेसु साहरितो । वोसट्टचत्तदेहो, अहाऽऽउयं पालड़ महप्पा | मंडण - गंधाऽऽलेवण -भूसियदेहो वि जावजीवं सो । पाअवोगतो विट्ठड़, निच्चेट्ठो सुद्धलेसागो ॥७९॥ ॥८०॥ ॥८१॥ ॥८२॥ ૫૮૫ ॥८५॥ ॥૬॥ ॥८७॥ ॥८८॥ ॥८९॥ ॥९१॥ ॥९२॥ जं पाययो व्य उद्घट्ठिओ व्य, पासट्ठिओ व्वं सो भाइ : । उव्वत्तणाऽऽइरहितो, निच्चेट्ठो होइ तेणं ति इय सत्तरसमरणसरूव - कित्तणं किंपि काउमेत्ताहे । तच्चरिमत्तिगविसयं यत्तव्यं किंपि देसेमि सव्वाओ अज्जाओ, सव्ये च्चिय पढमसंघयणवज्जा । सव्ये वि देसविरया, भत्तपरिन्नं पवज्जंति अह इंगिणिमरणं पुण, दढतरधिड़बलजुया अणुट्ठिन्ति । अज्जापमुहाणं पुण, लक्खिज्जड़ तस्स पडिसेहो ॥९०॥ पढमिल्लुयसंघयणा, संलिहियऽप्पाऽहवा असंलिहिया । दढतमधीबलजुत्ता, पाओवगमं पुण कुणंति नेहवसा देवेणं, साहरिया 1 देवऽरन्नमाइसु । न विते चलति धीरा, पारद्धविसुद्धझाणातो तेसिं पुणयोच्छेओ चोद्दसपुवीण होइ बुच्छेए । पढमिल्लुयसंघयणं तत्तो न परेण होड़ जओ एवं इमंमि दारे मरणं संखेवतो समक्खायं । आराहणफलदारे, फलं तु एयस्स वि भणिस्सं | इय समओदहिअमओ-बमाए संवेगरंगसालाए । आराहणाए मूलि - ल्लयंमि परिकम्मविहिदारे | पत्थुयपन्नरसण्हं पडिदाराणं कमाऽणुसारेण । एक्कारसमं भणियं, मरणविभत्ति ति पडिदारं पुब्धिं मरणाणि पव-न्नियाणि सामन्नओ बहुविहाणि । एतो य पगयमरण-द्दारसरूवं परूवेमि “अधिगतमरणद्वारम्” ॥९३॥ ॥९४॥ ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९७॥ किं पुण पगयं भण्णइ, पंडियमरणं दुहोहवल्लीण । विद्धंसणेक्क निक्कड - धारुब्भडपरसुपडितुल्लं एयविवक्खं पुण, बाल-मरणमऽक्खंति खीणमोहमला । उभयसरूयं च इमं, पंचवियप्पं परिकमि पंडियपंडियमरणं, पंडिययं बालपंडियं तइयं । बालमरणं चउत्थं, पंचमगं बालबालं ति तत्थ पढमं जिणाणं, बीयं साहूण देसविरयाणं । तइयं संनिसु तुरियं, मिच्छद्दिट्ठीण पंचमयं अन्ने उ सूरिणो पुण, एत्थं पत्थुयपमेयविसयम्मि । मरणपणगस्सरूये, इमं विभागं भांति जहा पंडियपंडियमरणं, मरमाणाणं तु केवलीण भये । भत्तपरिन्नाऽऽई पुण, पंडियमरणं मुणिवराणं | देसविरयाणमऽविरय-संमाण य बालपंडियं मरणं । मिच्छदिट्ठीउवसम- पराण जं बालमरणं तं जं च कसायकलुसिया, मरंति दढमऽभिगहीयमिच्छता । सव्वजहन्नं भन्नइ, तं मरणं बालबालं ति अहवा पंडियमरणाई, तिन्नि दो चेव बालमरणाई । पढमाई संमदिट्ठिस्स, जाण बीयाई इयरस्स तत्थाऽऽइल्लेहिं तिहिं, मरमाणाणं कमेण मरणेहिं । उत्तम - मज्झ - जहन्नो, नेओ अब्भुज्जओ उ विही संमत्ताऽणुगयमणो, जीवो मरणे असंजओ जड़ वि । जिणवयणमऽणुसरंतो, परितसंसारियो तहवि 1. देवरन्नमाइसु - तमस्कायादिषु । 2. ०निकड = कठिन । 3. सम्यग्दृष्टिषु । 101 ॥९८॥ ॥९९॥ ॥३६००॥ ॥१॥ mn ॥३॥ nn ॥५॥ Fl ॥७॥ ॥८॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३६०६-३६४२ सुन्दरीनन्ददृष्टान्तः ॥९॥ ॥१०॥ सद्दहगा पत्तियगा य, रोयगा जे हु जिणवराऽऽणाए । संमत्तमऽणुसरंता, ते खलु आराहगा होंति जिणभणियपवयणमिणं, असद्दहंतेहिं अणेगजीयेहिं । बालमरणाणि तीए, मयाणि काले अणंताणि न य तेहिं अणंतेहिं वि, विवेयवियलाण नाणरहियाण | जीवाण वरायाणं, संपन्नो को वि गुणलेसो ॥११॥ बालमरणस्स तम्हा, वित्थरमऽवहत्थिउं वियागं मे । संखेयेण भणन्तस्स, दिन्नकण्णा निसामेह ॥१२॥ बालमरणेहिं जीवा, वियडंमि भवाऽडवीकडिल्लमि । भमिया भमिन्ति भमिहिन्ति, दीहकालं किल दुहत्ता ॥१३॥ तहाहि एत्थ पुणरुत्तदुत्तर - जम्मजरामरणपरिसरणरीणा । भवजंतजंतुगोणा, अपत्तपारा परिभमंता mřn चउसु वि गईसु जं जं, जं जं चुलसीइजोणिलक्खेसु । जीवाणमणिट्ठपयं तं तं दुक्खं अणुभवंति ॥१५॥ किंच ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२७॥ ૫રા जं निरऽणुबंधमिट्ठ, जं चाऽगिट्ठमऽणुबंधि दुद्धरिसं । तं बालमरणतरुणो, फलविलसियमाऽऽहु मुणियसभा ॥ १६ ॥ इय बालमरणभीसण - सरूवमुवजाणिऊण धीरेहिं । पंडियमरणं गज्झं, नामऽथो तस्स पुण एवं पंडा भन्नइ बुद्धी तीए जुओ पंडिओ ति नायव्यो । तस्स मरणं तु जं तं, पंडियमरणं समक्खायं तं पुण भत्तपरिन्ना - मरणं चिय एत्थ पत्थुयं सत्थे । जेण मरंताण धुवं जायड़ वंछियफलपसिद्धी काले वि दुस्समाए, संघयणे वि हु अणिट्टछेवट्टे । विरहे वि 2 अइसईणं, तह दढधिइबलअभावे वि एयं पि वियरइ, च्चिय, सुंदरकालाऽऽइजोगसज्झाणं । पाओवगमणइंगिणि- मरणाणं साहणिज्जफलं एयं हि मणोवंछिय - सुहफलदाणेक्ककप्पतरुसंडं । इममऽन्नाणतमोघण - दुस्समरयणीए सरयससी एयं हि भीमभवमरु - मज्झे विलसंतविमलजलसरसी । अच्वंतियदोगच्चे, चिंतारयणं पहाणमिणं |इममऽइदुरंतदुग्गड़ - गत्ताओ उत्तमुत्तरणमग्गो । एयं सिवपासाया - ऽऽरुहणविहीए सुनिस्सेणी | धीबलवियलाणम काल - मच्चुकलियाणमऽ कयकरणाण । निरवज्जमऽज्जकालिय-जईण जोग्गं निरुयसग्गं निच्छियमरणाऽवत्थो, वाहीघत्थो जई गिहत्थो वा । भविओ भत्त्यरिन्ना - पंडियमरणे जएज्ज ततो पंडियमरणेण मया, अनंतसत्ता सिवाऽऽलयं पत्ता । बालमरणेण य पुणी, भमंति भीमं भयाऽरन्नं एगं पि एगवारं, पंडियमरणं जियस्स दुक्खाइं । निन्नासित्ता दूरं, सग्गऽपवग्गे सुहं देइ जाएण जीचलोगे, सव्वेण वि जं अवस्समरियव्यं । ता कहवि तह मरिज्जइ, जह मरणं पुण ण संभवइ ॥२९॥ तिरियत्तमुवगतो वि हु, पंडियमरणं कहं पि जइ लहड़ । तो वंछियत्थसिद्धिं, सुंदरिनंदो व्य कुणड़ जिओ ||३०|| तहाहि“सुन्दरिनन्ददृष्टान्तः” एत्थेव जंबुदीवे, भरहे वासम्मि वासवपुरि व्य । विनुहजणहिययहरणी, अणवरयपयट्टपरममहा | सिरिवासुपुज्जजिणवर - वयणिं दुविबुद्धभवियकुमुयवणा । लच्छीए सोहिया चक्क पाणिमुत्ति व्व जयपयडा ॥३२॥ चंपा नामेण पुरी, आसि परिभवियधणवइधणोहो । वत्थव्यो तत्थ धणो, अहेसि सेट्ठी गुणविसिट्ठो तस्स य वसुनामेणं, निवासिणा तामलित्तिनयरीए । वणिएण समं मेत्ती, संजाया निरुवचरिय ति | जिणधम्मपालणपरा- यणाण सुस्समणचलणभत्ताणं । तेस्सिं यच्चंतेसुं, दिणेसु एगम्मि पत्थाये अव्युच्छिन्नं पीड़, पवंछमाणाण निच्चकालं पि । सुंदरिनामा धूया, नियगा धणसेट्ठिणा दिन्ना नंदस्स वसुसुयस्स उ, कओ विवाहो य सोहणमुहुत्ते । दावियभुवणऽच्छरिओ, महया रिद्धीसमुदएणं अह सुंदरीए सद्धिं पुब्वऽज्जियपुन्नपाययस्सुचियं । नंदस्स विसयसुहफल - मुवभुंजंतस्स जंति दिणा अच्चतविमलबुद्धि-तणेण विन्नायजिणमयस्सावि । तस्सेगम्मि अवसरे, जाया चिंता इयसरूवा ववसायविभवविगलो पुरिसो लोगम्मि होइ अवगीओ । कापुरिसो त्ति विमुच्चइ, पुव्यसिरीए वि अचिरेण ॥ ४० ॥ ता पुव्यपुरिससंतइ-कमाऽऽगयं जाणवत्तवाणिज्जं । पकरेमि पुव्यधणविल-सणेण का चंगिमा मज्झ ॥४१॥ किं सो वि जीवइ जए, नियभुयजुयलऽज्जिएण दव्येण । जो वंछियं पयच्छड़, न मग्गणाणं पइदिणं पि ॥ ४२ ॥ 1. गज्झं = ग्राह्यम् । 2. अतिशयिनाम् = अतिशययुक्तज्ञानिपुरुषाणाम् । ॥३१॥ ॥३३॥ જો ॥३५॥ ॥३६॥ ॥३७॥ મેળો ॥३९॥ 102 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३६४३-३६७६ सुन्दरोनन्ददृष्टान्तः | विज्जाविक्कमगुणसलह-णिज्जवित्तीए जो धरइ जीयं । तस्सेय जीवियं वन्न-णिज्जमियरस्स किं तेण ॥४३॥ उप्पज्जति विणस्संति, णेगसो के जयम्मि नो पुरिसा । जलबुब्बुय व्य परमत्थ-रहियसोहेहिं किं तेहिं ॥४४॥ कह सो वि पसंसिज्जइ, न जस्स सप्युरिसकित्तणाऽवसरे । चागाउइगुणगणेणं, पढम चिय जायए रेहा ॥४५॥ इति चिंतिऊण तेणं, परतीरदुल्लभभंडपडिहत्थं । पारे पारावारस्स, झत्ति पगुणीकयं पोयं ॥४६॥ गमणुम्मणं च तं पेच्छि-ऊण अइविरहकायरत्तेण । अच्चंतसोगविहुराए, सुंदरीए इमं भणियं ॥४७॥ हे अज्जउत्त! अहमऽवि, तुमए सह नूणमाऽऽगमिस्सामि । पेमपरायत्तमिमं, चित्तं न तरामि संठविउं ॥४८॥ इय भणिए दढतरपणय-भाववक्खित्तचित्तपसरेणं । पडियन्नमिमं नंदेण, तयऽणु जायम्मि पत्थावे ॥४९॥ आरूढाई दोन्नि वि, ताई विसिट्ठम्मि जाणवत्तम्मि । पत्ताणि य परतीरं, खेमेणाऽणाऽऽउलमणाणि ॥५०॥ विणिवट्टियं च भंडं, उवज्जिओ भूरिकणगसंभारो । पडिभंडं घेत्तूण य, इंताण समुद्दमज्झम्मि ॥५१॥ पुव्वक्यकम्मपरिणति-वसेण अच्वंतपबलपवणेण । विलुलिज्जन्ती नावा, क(झ)डत्ति सयसिक्करा जाया ॥५२॥ अह कहवि तहाभवियव्ययाए, उवलद्धफलगखंडाणि । एक्कम्मि चेव वेला-उलम्मि लग्गाणि लहु ताणि ॥५३॥ अघडंतघडणसुघडिय-विहडणवावडविहिस्स जोगेण । जायं परोप्परं दंस-णं च गुरुविरहविहुराणं ॥५४॥ तो हरिसविसायवसु-च्छलन्तदढमन्नु'फुन्नमलसरणी । सहस त्ति सुंदरी नंद-कंठमऽवलंबिउं दीणा ॥५५॥ | रोविउमाऽऽरद्धा निव्यि-रामनिवडंतनयणसलिलभरा । जलनिहिसंगुवलग्गंडबु-बिंदुनियहं मुयंति व्य ॥५६॥ कह कहवि धीरिमं धा-रिऊण नंदेण जंपियं ताहे । सुयणु किमेवं सोगं, रेसि अच्चंतकसिणमुही ॥७॥ को नाम मयच्छि! जए, जाओ सो जस्स नेव वसणाणि । पाउब्भूयाणि न या, जायाणि य जम्ममरणाणि ॥५८॥ कमलमुहि! पेच्छ गयणं-गणेक्कचूडामणिस्स वि रविस्स । उदय-पयाव-विणासा, पइदिवसं चिय वियंभंति ॥५९॥ किं वा न सुयं तुमए, जिणिंदवयणम्मि जं सुरेंदा वि । पुव्वसुकयक्खयम्मि, दुत्थाऽवत्थं उवलभंति ॥६०॥ कम्मयसवत्तिजंतूण, सुयणु! किं एत्तिए वि परितावो । जेसिं छाय व्य समं, भमडइ दुक्खाण दंदोली ॥६१॥ इय एवमाऽऽइवयणेहिं, सुंदरिं सासिउं वसिमहत्तं । तीए समं चिय चलिओ, नंदो तन्हाछुहकिलंतो ॥२॥ अह सुंदरीए भणियं, पिययम! एतो परिस्समकिलन्ता । अच्वंततिसाऽभिहया, पयमऽवि न तरामि गंतुमऽहं॥६३॥ नंदेण जंपियं सुयणु, एत्थ वीसमसु तं खणं एक्कं । जेणाऽहं तुज्झ कए, सलिलं कुत्तो वि आणेमि ॥६४॥ पडिसुयमऽणाए ताहे, नंदो आसन्नकाणणुद्देसे । सलिलाऽवलोयणत्थं, तं मोत्तूणं गतो सहसा .॥६५॥ | दिट्ठो य क्यंतेण व, विजंभिउब्भडमुहेण सीहेण । तिव्वछुहाऽभिहएणं, अइचवलललंतजीहेण ॥६६॥ तत्तो भयसंभंतो, विस्सुमरियअणसणाऽऽइकायव्यो ।' अट्टज्झाणोवगतो, निहओ सो असरणो तेण ॥६७॥ | उववन्नो य तहिं चिय वणसंडे बालमरणदोसेण । चुयसम्मत्तसुहगुणो, सो नंदो वानरत्तेण ॥६॥ एतो य सुंदरीए, परिवालिंतीए अइगयं दिवसं । तह वि हु न जाव नंदो, समागतो ताव संखुद्धा ॥६९॥ निच्छइयतविणासा, धसत्ति सा नियडिया धरणिवढे । मुच्छानिमीलियऽच्छी, मय व्य ठाऊण खणमेक्कं ॥७॥ वणकुसुमसुरहिमारुय-मणागउवलद्धचेयणा दीणा । रोविउमाउडरद्धा निबिड-दुक्खपामुक्कपोक्कारा ॥१॥ हा अज्जउत्त! हा जिणवरिंद-पयपउमपूयणाऽऽसत्त! । हा सद्धम्ममहानिहि!, कत्थ गओ? देहि पडिवयणं ॥७२॥ हा पायदइव! धणसयण-गेहनासे वि किं न तुट्ठो सि । जमडणज्ज! अज्जउत्तो वि, निहणमिन्हेिं समुवणीओ॥७३॥ हे ताय! सुयावच्छल! हा हा हे जणणि! निक्कवडपेमे । दुहजलहिनिवडियं कीस, निययधूयं उवेहेह ॥७४॥ इय सुचिरं विलवित्ता, निबिडपरिस्समकिलामियसरीरा । कयलनिहित्तवयणा, सुतिक्खदुक्खं अणुहवंती ॥५॥ |तुरगपरिवाहणउत्थं, तत्थोवगएण सिरिउरनिवेण । दिट्ठा कह वि पियंकर-नामेणं चिन्तियं च इमं ॥७॥ सावन्भट्ठा किमिमा, तियसवहू मयणविरहिया व रई । वणदेवया व विज्जा-हराण रमणि व्य होज्ज ति॥७७॥ विम्हियमणेण पुट्ठा य, सुयणु! का तं सि? किमिह आवससि? । कतो य आगया? कीस, वहसि संतावमेवं ति ॥८॥ अह सुंदरीए दीहुउण्ह-मुक्कनिस्सासतरलियगिराए । सोगवसमउलियडच्छीए, जंपियं भो महासत्त! ॥९॥ 1. फुन्न = पूर्ण । 2. प्रेतैः = भूतैः मृतैः वा । 3. गुल्मदोषेण । 103 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३६८०-३७१५ सुन्दरीनन्ददृष्टान्तः | वसणपरंपरनिव्यत्तणेक्क-पडुविहिविहाणवसगाए । मज्झ पत्तीए अलं, इमाए दुहणियहहेऊए ૮૦ आवइगया वि उत्तम-कूलप्पसूयत्तणेण नो एसा । साहिस्सइ नियवत्तं ति, चिंतिऊणं महीवड़णा ॥८१॥ अणुणइऊणं मंजुल-गिराहिं नीया कहं पि नियगेहे । काराविया य गाढो-वरोहओ भोयणाऽऽइविहिं ૮૨ मणवंछियं च सव्यं संपाडइ तीए मेइणीनाहो । अणुरागेणं सप्पुरिस-वित्तिभावेण य सया वि ॥८३॥ समाणदाणसप्पणय-संकहारंजिय ति मुणमाणो । महुरगिराए नरेंदो, एगंते सुंदर भणड़ ૮૪ો ससिमुहि! सरीरमणनि-व्युइहरं पुव्वकालयुत्तंतं । मोत्तूण मए सद्धिं, जहिच्छियं भुंज विसयसुहं ॥८५॥ पदिणसोगोवहया, सुकुमारा सुयणु! तुज्झ कायलया । दीवयसिहोयतत्ता, मालतिमाल व्य पमिलाइ ॥८६॥ न य सुयण! जोव्वणं पव्य-णिंदुबिंब व जणमणाऽऽणंदं । सोगविडप्पकडप्यु-प्पीडियमुवचिणइ सोहग्गं ॥७॥ अच्चंतसुंदरं पि हु, मणोऽभिरामं पि भुवणदुलहं पि । पब्भट्ट नटुं या, वत्थु सोइंति नो कुसला ॥८॥ ता होउ भूरिभणिएण, कुणसु मह पत्थगं तुम सहलं । पत्थायुचियपवित्तीए, चेव जत्तं कुणंति बुहा ॥८९॥ अच्चन्तकन्नकड्यं, अस्सयपव्वं च तीए सोच्वेमं । वयभंगभयवसट्टाए, गाढदक्खाउलमणाए। ॥९०॥ भणियं भो नरपुंगव!, सुकुलपसूयाण जणपसिद्धाण । नयमग्गदेसगाणं, तुम्हारिसपवरपुरिसाण ॥९१॥ अच्चन्तमऽणुचियं उभय-लोगविद्धंसणेक्कपडुयं च । परमणिरमणमेयं, अवजसपडहो तिहुयणे वि ॥९२॥ रन्ना पयंपियं कमल-वयणि! चिरपुन्ननिवहउवणीयं । रयणनिहिमडणुसरंतस्स, होज्ज किं दूसणं मज्झ ॥१३॥ तो नरवइनिरुवक्कम-निबंधं मुणिय तीए पडिभणियं । जइ एवं ता नरवर!, चिरगहियाऽभिग्गहो जाय ॥१४॥ पुज्जड़ ता पडिवालेसु, मज्झ तं केत्तियं पि नणु कालं । पच्छा य तुज्झ वंछा-डणुरूवमऽहमाउडचरिस्सामि॥९५॥ एवं सोच्चा तुट्ठो, भूमिवई नट्टखेड्डमाऽऽईणि । चित्तविणोयऽत्थं से, दरिसाविन्तो गमइ कालं ९६॥ अह पुवभणियनंदो, वानरभावेण वट्टमाणो सो । गहिओ मक्कडखेड्डा-बगेहि उविओ त्ति काऊण नट्टाइबहुकलाओ, सिक्ववियो पइपुरं पि दंसित्ता । ते पुरिसा तं घेत्तुं, समागया सिरिपुरे कहवि ॥९८॥ खेल्लावित्ता पड़मंदिरं च, ते रायमंदिरम्मि गया । पारद्धो य तहिं सो, पणच्चिउं सव्यजत्तेण ॥९९॥ अह नच्चंतेण कहिं पि, सुंदरी रायसंनिहिनिसन्ना । दिट्ठा णेणं चिरपणय-भाववियसंतनेत्तेण ॥३७००॥ कत्थ मए दिट्टेयं ति, चिंतयंतेण तेण पुणरुतं । जाई सरिया नाओ, सव्यो च्चिय पुष्ययित्ततो ॥१॥ तो परमं निब्येयं, समुव्यहंतेण चिन्तियं तेण । हा! हा! अणत्थनिहिणो, धिरत्थु संसारयासस्स ॥२॥ जेण तहाविहनिम्मल-विवेयजुत्तो वि धम्मरागी वि । अणुसमयसमयसंसिय-विहिणाऽणुट्ठाणकारी यि ॥३॥ तह बालमरणवसओ, विसमदसं एरिसिं समणुपत्तो । तिरियत्ते वटुंता य, संपयं किं रेमि अहं ॥४॥ अहया किमडणेण विचिंतिएण, इय अवसराऽणुरुवं पि । पकरेमि धम्मकम्म, पज्जतं जीवियव्येण । इय सो परिभावंतो 'सुढिओ ति मुणित्तु तेहिं पुरिसेहिं । नीओ सट्ठाणम्मि उ, तेणं पुण अणसणं गहियं ॥६॥ पंचपरमेट्ठिमंतं, अणुसुमरंतो य सुद्धभावेण । मरिऊणं उववन्नो, दिव्यो देवो महिड्ढियो ॥७॥ ओहिवसमुणियचिरवइ-यरो य अवयरिय बोहइ नरिंदं । सुंदरिमवि सूरीणं, अप्पड़ पव्यज्जगहणउत्थं ॥८॥ इय तिरियत्तगयस्स वि, · पंडियमरणं पणामइ जीयस्स । सुगइपुरपरमरज्जं, निरवज्जं भणियजुत्तीए किंचआजम्मं पि करिता, कडमड़ रइयपावपब्भारं । पच्छा पंडियमरणं, लहिऊण य सुज्झए जीवो ॥१०॥ संसाररन्नपडिओ, अणाऽऽइजीयो न ताय उत्तरइ! जाय न पंडियमरणं, अपत्तपुव्यं इहं लहइ ॥११॥ पंडिपमरणेण मया, तेणेव भवेण केई सिझंति । केई पुण देवलोए, गंतूण इहाऽऽगया सन्ता ॥१२॥ साव्यकुलेसु जम्म, पावित्ता सुचिरचरियसामन्ना । पंडियमरणेण मया, सिज्झंति भवम्मि तइयम्मि ॥१३॥ नारयतिरियविवज्ज, सुमणुयदेवेसु विलसमाणा वि । अट्ठभवडब्भन्तरओ, पंडियमरणेण सिझंति ॥१४॥ तत्थ य गिही मुणी वा, निज्जंतुपएससंठियो विहिणा । उद्धरियसव्वसल्लो वज्जियनीसेसआहारो ॥१५॥ 1. सुढिओ = श्रान्तः । 104 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिद्वारम् संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३७१६-३७४६ छक्कायरक्वणपरो, खामणमरिसावणाहिं उज्जुत्तो । अविराहगो अचवलो, जिइंदियो जियतिदंडरिऊ ॥१६॥ | जियचउकसायसेन्नो, समसत्तमित्तयाए वस॒तो । इय पंडियमरणेणं, जो ह मओ सुम्मओ सो ह ॥१७॥ एयं पंडियमरणं, सम्मविट्ठी लहंति लहुकम्मा । पायेंति मंदपन्ना वि, किमिह चिन्तामणीरयणं ॥१८॥ | सेसं तु बालमरणं, बालाण पए पए सुलभमेव । नवरं तमऽणत्थफलं, संसारपयड्ढणं जेण ॥१९॥ बालो मुक्खो सो पुण, सनियाणं अणसणं तवं विविहं । काऊण मओ जायइ, यंतरजाईसु असुहासु ॥२०॥ तत्थुप्पन्नो तं तं, करेइ बालो व्य केलिपडिबद्धो । जेण पुण भवसमुद्दे, अणोरपारम्मि परिभमइ ॥२१॥ तो तं पंडियमरणं, असेसम्मक्खयत्थमुवउत्ता । कुणमाणा सइ धीरा, नित्थारगपारगा हुंतु ૨૨) एगं पंडियमरणं, मरिऊण पुणो बहूणि मरणाणि । न मरंति अप्पमत्ता, चरितमाऽऽराहियं जेहिं ॥२३॥ संजमगुणेसु सम्मं, सुसंवुडा सव्वसंगओ मुक्का । जे उ चयंति सरीरं, पंडियमरणं क्यं तेहिं ર૪ जं निज्जरेइ कम्म, असंयुडो सुबहुणा वि कालेण । तं संवुडो तिगुतो, खवेइ ऊसासमित्तेण વેરા | निच्छयतिदंडविरया, तिगुत्तिगुत्ता तिसल्लनिस्सल्ला । तिविहेण अप्पमत्ता, जयजीवदयापहाणमणा ॥२६॥ पंचमहव्ययनिरया, संपुन्नचरित्तसीलसंजुत्ता । विहिपुव्वविहियमरणा, भवंति आराहगा मुणिणो. રળી अच्वाहीणा जाहे, धीरा सुयसारकलियपरमऽत्था । तो आयरियविदिन्नं, उवंति अब्भुज्जयं मरणं ૨૮ |पंडियमरणं च इम, विसुज्झमाणस्स चेव जीवस्स । कस्म वि जड़ संपज्जड़, विसेसकुसलाऽणुबन्धस्स ॥२९॥ रयणकरंडयतुल्लं, उम्बरपुष्पं व दुल्लहं लोए । एयं पंडियमरणं, पुन्नविहीणा न पावेति मरणं चिय मरणाणं, जराण पुण पडिजर च्चिय विणासे । एयं पंडियमरणं, अपुणब्भावो य जम्मस्स ॥३१॥ सारीरमाणसोभय-समुभवाऽसंखतिवदुक्खाणं । पंडियमरणमएणं, सव्याण जलंऽजली दिन्नो ॥३२॥ अन्नं चजं जं जयम्मि जायइ, जीवाणं साऽणुबंधमिट्ठसुहं । तं तं वियाण सव्यं, पंडियमरणस्स विप्फुरियं ॥३३॥ अहवाजं साउणुबंधमिटुं, जमणिटुं निरऽणुबंधमिह किंपि । तं सव्यं पि वियाणसु, पंडियमरणदुमस्स फलं ॥३४॥ एक्कं पंडियमरणं, सव्वभवाऽणिट्ठनिट्ठवणदक्खं । अहवेक्को अग्गिकणो, न डहइ किं इंधणपबंधे ॥३५॥ एयं पंडियमरणं पिया व माया व बंधुवग्गो व । जीवाणं हियकरणे, रणम्मि सुहडोव्य परिहत्थं ॥३६॥ ढक्कियकुगइदुवारं पयडीकयसुगइपुरपयेसं च । निद्दारियदुरियरयं, पंडियमरणं जए जयउ ॥३७॥ अहमपुरिसाण दुलहं, उत्तमपुरिसाण सेवणिज्जं जं । उत्तमफलसंजणयं, पंडियमरणं जए जयउ તેરે जं जं अहिलसणिज्जं, जं जं च सुदुल्लहं सलहणिज्जं । तस्संपाडणपडुयं, पंडियमरणं जए जयउ ॥३९॥ जं किर चिन्तामणिकाम-घेणुकप्पड्माण वि असज्झं । तस्संपाडणपडुयं पंडियमरणं जए जयउ ॥४०॥ एक्कं पंडियमरणं, छिन्दइ जाईसयाई बहुयाई । तं मरणं मरियव्यं, जेण मओ सुहमओ होइ ॥४१॥ जड़ भयमऽत्थि मरणतं, पंडियमरणेण ता मरेयव्यं । एक्कं पंडियमरणं छिन्दइ सयलाणि मरणाणि ॥४२॥ के सक्का बन्नेउं, पंडियमरणस्स गुणगणं सम्म । जं चरिऊण सुधीरा, असेसम्मक्खयमुति ૪૩ इय पावजलणजलभर-समाए संवेगरंगसालाए । आराहणाए मूलिल्ल-यम्मि, परिकम्मविहिदारे ॥४४॥ पत्थुयपन्नरसण्हं, पडिदाराणं कमाउणुसारेण । भणियमिमं बारसमं, अहिगयमरणं ति पडिदारं ॥४५॥ “श्रेणिद्वारम्” - अहिगयमरणे अंगी-कए यि नाऽऽराहणं विणा सीतिं । आरोदुमडलं जीयो ति, सीइदारं पवक्खामि ॥४६॥ सीई य होइ दुविहा, दव्ये भाये य तत्थ दवम्मि । उच्चट्ठाणाऽऽरोहण-हेऊ निस्सेणिगाऽऽईया ॥४७॥ संजमठाणाणं कंडगाण, लेसाठिईविसेसाणं । सद्धतराणडक्कमणं भावसिई केवलं जाय ॥४८॥ तहाहिउवरुवरिमगुणठाणं, पडियज्जंतस्स होइ भावसिई । दव्यसिई निस्सेणी, पासायमियाऽऽरुहंतस्स 1. सुमृतः । 2. परिहत्थं = कुशलं = समर्थमित्यर्थः । 3. सीति = श्रेणिम्। ॥४९॥ 105 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३७५०-३७८५ स्वयम्भूदत्तदृष्टान्तः अह सो सिइमाऽऽरुढो!, वसहिं उवहिं च उग्गमाऽऽईहिं । दोसेहिं उयहयं परि-हरित्तु सम्म खु विहरेज्जा ॥५०॥ |गणिणा सह संलायो, कज्जं पड़ सेसएहिं साहहिं । मोणं से मिच्छजणे, भज्जं सन्नीसु सजणे य ॥५१॥ | इहरा जह तह अन्नोऽन्न-संकहक्खित्त चित्तपसरस्स । कस्स वि पमायओ पत्थु-यडत्थविग्यो वि होज्ज तओ॥५२॥ आराहणमिच्छंतो, तदेगचित्तो जएज्ज सीईए । एयाए विगमम्मि, सयंभुदत्तो ब्व सीएज्ज ॥५३॥ तहाहि “स्वयम्भूदत्तदृष्टान्तः" कंचणपुरम्मि नगरं, वसंति दो भायरा जणपसिद्धा । अवरोप्परदढपणया, सयंभुदत्तो सुगुत्तो य ॥५४॥ णिययकुलक्कमअविरुद्ध-सुद्धवित्तीए जीवणोवायं । कुणमाणाणं तेसिं, कालो योलेइ लीलाए। ॥५५॥ अह एगम्मि अवसरे, युट्ठीविरहेण कूरगहवसओ । पउरजणजणियदुक्खं, दुभिक्खं नियडियं घोरं ॥५६॥ खीणा चिरसंगहिया, ताहे तणरासिणो महंता वि । सुमहल्ला वि य पल्ला, धन्नाण वि उयगया निहणं ॥५॥ सीयंतचउप्पयदुपयवग्ग-मऽवलोइऊण उब्विग्गो । परिचत्तयवत्थो प-त्थियो वि आणवइ नियपुरिसे ॥५८॥ रे! रे! पुरीए जस्सऽत्थि, जेत्तिओ धन्नसंचओ एत्थ । तत्तियमेत्तस्सऽद्धं, तस्स बलो गेण्हह लहु त्ति ॥५९॥ एवं आणत्तेहिं, तहेव सव्वं अणुट्ठियं तेहिं । रायपुरिसेहिं जमभिउडि-भंगभीमेहिं सव्वत्थ ॥६०॥ तो सविसेसं लोगो छुहाओ धणसयणनासओ य दढं । अच्वन्तरोगभरविहु-रियो य मरिउं समाढतो । ॥६१॥ सुन्नीहुंतेसु य मंदिरेसु, रत्थासु रुंडमुंडेहिं । दुग्गम्मासु लोएसु, सुत्थदेसे सरंतेसु ॥६२॥ सो वि हु सयंभुदत्तो, सुगुत्तसहितो पुराउ नीहरिओ । सत्थेण समं लग्गो, गंतुं देसंतराभिमुहं ॥६३॥ दूरपहमऽइक्कंते सत्थे, पत्ते य रन्नमज्झम्मि । संनद्धा रणसज्जा, चिलायधाडी समावडिया ॥६४॥ | पमुक्कहक्कभीसणा, चायोवलग्गमग्गणा । उब्बद्धउद्धकेसिया, जमेण नाई पेसिया ॥६५॥ तमालतालसामला, विपक्खभंगपच्चला । फुरंततारखग्गिया, सविज्जू नं घणोलिया દુદ્દા वेल व्य सागरुट्ठिया, संछन्नभूमिवट्ठिया । सच्छंदचारदारुणा, निभिन्नरन्नवारणा ૬૭ कुरंगमंसपोसिया, विसिट्ठलोयदूसिया । जुज्झेण सा य लग्गिया, रणेक्कबद्धरंगिया ॥६८॥ अह कुंतखग्गभल्लय-पमुहप्पहरणकरा समरधीरा । सत्थसुहडा वि तीए, समगं जुझेण संलग्गा ॥६९॥ | खंडियपयंडसहडं, विहडियरणरहसनस्सिरनरोहं । उप्पित्थसत्थनाहं. जायं समरं महाभीमं ॥७०॥ अच्चंतनिद्दएणं, पबलबलेणं चिलायनिवहेणं । कलिकालेण व धम्मो, निहतो सत्थो समत्थो वि ॥७१॥ घेत्तूण सारमऽत्थं, सुरुवरामाजणं मणुस्से य । बंदग्गाहेण ततो, चिलायसेणा गया पल्लिं ॥७२॥ सो वि य सयंभुदत्तो, कहं पि नियलहुगभाउगविउत्तो । धणयं ति चिंतिऊणं, चिलायसेणाए संगहितो ॥७३॥ |सुचिरं निद्दयकसघाय-बंधणाऽऽईहिं उयहओ वि दढं । सो इच्छड़ जाय न किंपि, देयदव्यं चिलाएहिं ॥७४॥ ताव विणासियपसुमहिस-रुधिरधाराऽणुलित्तभवणाए । दाराऽयबद्धकुस्सर-रणंतगुरुघंटयाउडलीए ॥७५॥ | पदिणपुन्नोवाइय-चिलायकीरंततप्पणविहीए । रत्तकणवीरमाला-विरइयपूओवयाराए ॥७६॥ गयचम्मनिवसणाए, चामुंडाए पयंडरुवाए । उवहारऽत्थं नीओ, भयवसवेवंतसव्यंडगो ॥७७॥ रे वणियाऽहम! जड़ जीवि-यब्वमऽभिलससि ता लहुं दव्यं । अज्ज वि इच्छसु अम्हं, किमडकंडे जासि जमभवणं॥७८॥ एवं ते जपंता, सयंभुदत्तं न जाय खग्गेण । घायंति ताय सहसा समुट्ठिओ बहलहलबोलो ॥७९॥ हो! मुंचह एयं, वरागमडणुसरह वेरियग्गमिमं । थीबालबुड्ढविद्धंस-कारिणं मा चिरावेह ૮૦ एसा हम्मइ पल्ली दज्झन्ति इमां मंदिराई पि । इय उल्लायं सोच्चा, सयंभुदत्तं विमोत्तूण ॥८ ॥ पवणजइणा जवेणं, सुमरियचिरवेरिसुहडसंपाया । कच्चाइणीगिहातो, ते पुरिसा झत्ति नीहरिया ૮૨ जाओ अज्जेय अहं, अज्जे व य सयलसंपयं पत्तो । इइ चितंतो तुरियं, सयंभुदत्तो अवक्कतो ॥८३॥ भीसणचिलायभयतर-लिओ य गिरिकुहरमज्झयारेण । बहलतवल्लिपडला-ऽऽउलेण अपहेण यच्वंतो ૧૮૪ खद्धो भयंगमेणं, उप्पन्ना येयणा महाघोरा । परिचिंतियं च तेणं. नण विणस्सामि एत्ताह ॥८५॥ 1. सन्नीसु = सम्यग्दृष्टिषु । 2. नाइ = इव । 3. नं = इव । 4. घणोलिया = मेघपङ्क्तिः । 5. उप्पित्य = त्रस्त । 106 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३७८६-३८१६ स्वयम्भूदत्तदृष्टान्तः जइ कहवि चिलाएहिं, पम्मुक्को ता कयंततुल्लेण । डसिओम्हि भुयंगेणं, अहह! विचित्तं विहिसरुवं ॥८६॥ अहवा जम्मो मरणेण, जोव्वणं सह जराए संजोगो । सममेव वियोगेणं, उप्पज्जड़ किमिह सोगेण ટળી एवं परिभातो, जा बच्छच्छायमडणुसरइ सिसिरं । ता तरुणो हेट्ठठियं, चारणसमणं महासत्तं ૮૮|| | सुत्तं परियत्ततं, विचित्तनयभंगसंगदुव्यिगमं । पेच्छइ पउमासणबन्ध-धीरमुवरुद्धमणपसरं । ॥८९॥ विसमविसोरगविसविह-रियस्स भययं! ममेत्थ पत्थाये । सरणं तुमं ति जंपिय, विचेयणो तयणु सो पडिओ॥९०॥ अह तं विसवसनिन्नट्ठ-चेयणं पेच्छिऊण कुणाए । परिचिंतइ मुणिवसभो, किमियाणिं जुज्जाए काउं ॥९१॥ पायपओयणनिरयाण, नो गिहत्थाण ताव उवयारे । पट्टिउमुचियं साहूण, सव्वभूयऽप्पभूयाण ॥९२॥ ताणवयारे तचिहिय-पावाणाण कारणं जम्हा । निरवज्जवित्तिणो वि ह, भवंति गिहिसंगदोसेणं ॥९३॥ जड़ पुण ते उवयरिया, मोतूणं सव्वसंगमऽचिरेणं । पडिवज्जिय पव्वज्ज, जयंति सद्धम्मकज्जेसु ॥१४॥ ता होज्ज तक्कया नि-ज्जरा वि इय चिन्तिरस्स समणस्स । अनिमित्तमेव सहसा, विप्फुरियं दाहिणं नयणं ॥१५॥ तो तदुवयारमाऽऽभो-गिऊण दट्टण से भुयंगदंसं । चरणोवरिम्मि सुहुमं, वियाररहियं च मुणिवसभो ॥६॥ परिभावइ नूणमिमो, जीविस्सइ जेण दंसठाणमिमं । अविरुद्धं सिरपमुहाणि, चेव सत्थे विरुद्धाणि ॥९॥ तहाहिसीसे लिंगे 'चिबुए, कंठे संख्सु तह गुदे य थणे । ओट्टे बच्छयलम्मि य, भुमयासुं नाभिनासउडे ॥९८॥ कचरणतले खंधे, कवासुं इक्खणे निडाले य । केसंतसंधिदेसेसुं, जाइ दट्ठो जमगिहम्मि ॥१९॥ तहापंचमीअट्ठमीछट्ठी-नवमीचउद्दसीतिहीसु अहिदट्ठो । पक्वते वि विणस्सइ, अज्जं च तिही वि न विरुद्धा ॥३८००॥ नक्वत्तं पि हु दुटुं, मघा विसाहा य मूलमऽसिलेसा । रोहिणिअद्दा कित्तिय, तं पि न वट्टइ इह मुहुत्ते ॥१॥ रिटें पि पुव्यमुणिणो, भणंति मणुयस्स भुयंगदट्ठस्स । कंपो लालामुयणं, जिंभा नयणाऽरुणतं च ॥२॥ मुच्छा सरीरभंगो, कयोलखामत्तणं पहाहाणी । हिक्का सरीरसीय-तणं च अचिरेण मरणाय ॥३॥ न य एत्तो एगं पि हु, दीसइ रिट्ठ इमस्स भव्यस्स । ता कीरइ पडियारो, दयापहाणो हि जिणधम्मो ॥४॥ परिभाविऊण एवं, मुणिवसहो झाणनिमियथिरनयणो । अणुसुमरिउं पवत्तो, विसेससुत्तं समुवउत्तो ॥५॥ अह जाय सरयससहर-निभरपसरंतपहपहासिल्लं । उल्लवइ अमयकुल्ला-ऽणुकारिणिं अक्वरस्सेणिं . ॥६॥ ताव तिमिरं व दिवसयर-पहभरऽब्भाहयं महाऽहिविसं । नटुं सुत्तविउद्धो ब्व, उट्ठिओ सो वि पडुदेहो ॥७॥ तो जीवियव्यदाय ति. पवरसाह ति जायपडिबन्धो । नमिऊण सबहमाणं, तं समणं भणिउ भयवं! भमंतभीसण-सावयकुलसंकुलाए अडवीए । मन्ने पुन्नेणं मे, तुम्ह निवासी इहं जातो ॥९॥ कहमऽन्नहा महाविस-विसहरविसहरियचेयणस्स ममं । होज्जेह जीवियव्यं, जड़ न तुम नाह! होतो सि ॥१०॥ कत्थ मरुमंडलो कत्थ, कप्पविडयी महाफलसमिद्धो । कत्थ अधणस्स गेहं, कत्थ व तत्थेव रयणनिही ॥११॥ कत्थाऽहं सुदुहट्टो, अणप्पमाहप्पवं च कत्थ तुमं । अहह! विहिविलसियाणं, को परमत्थं जए मुणड़ ॥१२॥ एवंविहोययारिस्स, तुज्झ भययं महं अधन्नस्स । दिन्नेण केण केण व, करण जाएज्ज रिणमोक्खो ॥१३॥ मुणिणा भणियं भद्दय!, जड़ रिणमोक्खं समीहसे काउं । निरवज्जं पव्वज्जं, पडिवज्जसु ता तुममियाणिं ॥१४॥ उवयारो वि मए तुह, एईए कएण नणु कओ इहरा । अस्संजयचिन्ताए, अहिगारो नत्थि सुमुणीण ॥१५॥ न य भद्द! धम्मयियलं, सलहिज्जइ जीवियं मणुस्साणं । ता चयसु गिहाऽऽसंगं, णिस्संगो हवसु सुस्समणो॥१६॥ भालयलाऽऽरोयियपाणि-कमलमउलेण तेण तो भणियं । भयवं! करेमि एयं, नवरं लहुभाइपडिबंधो ॥१७॥ विहरेइ मम मणं जड़ य, होज्ज सह तेण दंसणं कहयि । ता निस्सल्लो पव्यज्ज-मेक्कचित्तो करेज्जमडह॥१८॥ मुणिणा पयंपियं भद्द!, जइ तुमं विसवसा मओ होतो । ता कह लहुगं भाउग-मडवलाइंतो सि एवं च ॥१९॥ 1. चिबुके = होठना नीचेना भागमा । 2. शर्केषु = आंखनी नजीकना अवयवोने विषे । 3. कृतिकानक्षत्रम् । 4. जृम्भा = बगासुं । 5. हिक्का = हेडकी आववानो रोग। 107 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३८२०-३८५५ भावनाद्वारम् परिचय पडिबंधमिम, निरत्थयं सरसु धम्ममडणवजं । भाइ-पिइ-माइतुल्लो, एक्को एसो च्चिय जियाण ॥२०॥ एवं मुणिणा भणिए, सयंभुदत्तो परेण विणएण । पडियज्जइ पव्यज्ज, कुणइ विचित्तं तवोकम्म ॥२१॥ विहरइ गुरुणा सद्धिं, गामाऽऽगरनगरसंकुलं वसुहं । दुस्सहपरीसहचर्मु, अहियासिंतो महासत्तो ૨૨ા एवं च चिरं कालं, विहरिता नाणदंसणसमग्गो । थोवाऽऽउयं च नाउं, भत्तपरिन्नं पवज्जतो ॥२३॥ गुरुणा पन्नविओ सो, अहो महाभाग! पुन्नभरलब्भं । पज्जंतकालियमिमं, सविसेसाऽऽराहणविहाणं ॥२४॥ ता सयणे उवहिम्मि य, कुले य गच्छे य निययदेहे वि । पडिबंधं मा काहिसि, मूलमडणत्थाणमेस जओ॥२५॥ इच्छामो अणुसढेि ति, जंपिउं गुरुगिराए बद्धरई । ताहे सयंभुदत्तो, पडिवन्नो उत्तम अटुं ॥२६॥ तप्पुन्नपगरिसेण य, 'आउट्टो कुणइ पुरजणो पूयं । अह सो पुव्यविउत्तो, सुगुत्तनामो लहुगभाया ॥२७॥ परिभममाणो पत्तो, तम्मि पएसम्मि तो पुरीलोगं । एगाऽभिमुहं मुणिवं-दणडट्ठमिं तं पलोइत्ता ૨૮ના पुच्छियडमणेण किं एस, एत्थ बच्चड़ जणो समग्गो वि । कहियं नरेण एक्केण, तस्स जह एत्थ मुणियसभो॥२९॥ क्यभत्तपरिच्चागो, सद्धम्ममहानिहि व्य पच्चक्खो । नियसड़ तं पुण तित्थं य, वंदिउं एस जाइ जणो ॥३०॥ एवं सोच्चा कोऊहलेण, लोगेण सह सुगुत्तो वि । समणं सयंभुदत्तं, दटुं तं देसमडणुपत्तो ॥३१॥ अह मुणिणो रूयं पे-च्छिऊण संजायपच्चभिन्नाणो । पम्मुक्कदीहपोक्कं, रोइत्ता भणिउमाऽऽढतो ॥३२॥ हे भाय! सयणवच्छल!, छलिओ सि कहं व कूडसमणेहिं । जं परिसिं अवत्थं, गओ तुम दूरकिसियंडगो॥३३॥ अज्ज वि छड्डेहि लहुं, पासंडमिमं ययामु नियदेसं । तुज्झ वियोगेण फुडं, फुट्टइ मह हिययमऽचिरेण ॥३४॥ इय जंपियम्मि तेणं, सयंभुदत्तो वि ईसिपडिबंधा । तं वाहरि पुच्छइ, समग्गमवि पुव्ववुत्तंतं ॥३५॥ सो वि य चिलायधाडी-विहडणपामोक्खनियगयुत्तंतं । साहेइ सोगवलिर-अक्खराए वाणीए दुक्खत्तो ॥३६॥ अह कलुणवयणसवणुब्भवंत-पडिबंधकलुसियज्झाणो । सव्वट्ठसिद्धिपाओग्ग-कंडगाई पि खंडिता રૂણા तदुवरि सिणेहदोसेणं, मरिय सोहम्मदेवलोगम्मि । मज्झिमगाऽऽऊ देयो, सयंभुदत्तो समुप्पन्नो ૨૮ एवं भावसिईए, जो जो जोगो हवेज्ज पडिपंथी । आराहणाऽभिलासी, तं तं यज्जेज्ज उज्जुत्तो ॥३९॥ एतो च्चिय गणिणा सह, इच्चाइ निदंसियं पयत्तेण । आराहणुच्चपासाय-भावसिई विलग्गस्स ૪૦ ता उत्तिमट्ठकारी, सव्यं सुहसीलयं उपयहिऊण । भावसिइमाऽऽरुहिता, विहरेज्जा पेमपामुक्को ॥४१॥ इय मयणभुयगगरुलो-यमाए संवेगरंगसालाए । आराहणाए मूलि-ल्लयम्मि परिकम्मविहिदारे ॥४२॥ | पत्थुयपन्नरसण्हं, पडिदाराणं कमाउणुसारेण । भणियमिमं तेरसम, सीइविसयं पडिदारं ॥४३॥ "भावनाद्वारम्" - | सीइसमारूढो वि हु, न भावणाए विणा थिरो होइ । ता भावणदारमऽह, सवित्थरत्थं परुवेमि ॥४४॥ भाविज्जइ इमीए, जीवो जं तेण भावणा भणिया । दविहा सा पुण णेया, अपसत्था तह पसत्था य ॥४५॥ कंदप्प' देवकिब्बिस, अभियोगा' आसुरी य संमोहा। एसा हु अप्पसत्था, पंचविहा भावणा तत्थ ॥४६॥ कंदप्पभावणा नाम, जत्थ हासाऽऽइबहुपयारेहिं । अप्पाणं भावेई, सा य भवे पंचहा एवं ॥४७॥ कंदप्पे कोक्कुइए', दुयसीलत्ते य हासकरणे य । परविम्हयजणणे वि य, कंदप्पो णेगहा तत्थ ૪૮ | अट्टट्टहास-परिहास-णिहयउल्लावकामकहरूयो । कामोवएसकाम-प्पसंसविसओ य नायव्यो ૪ti कुक्कुइयं पुण तं जं, सयमऽहसं अच्छिभुमयपमुहेहिं । देहाऽयययेहिं परं, सपरिप्फंदेहिं हासेड़ ॥५०॥ दुयसीलतं तं पुण, जं किर दप्पेण गमणभासाऽऽइ । सव्यं पि कज्जजायं, अच्वंतदुयदुयं कुणइ । ॥५१॥ हासकरणं पि तं जं, वेसविसेसस्स करणओ अहवा । सवियारवयणतो या, सपरेसिं हासजणणं ति ॥५२॥ परविम्हयजणणं पि हु, जमिंदजालक्कुहेडगाऽऽईहिं । परविम्हयं जणेई, थेवं पि सयं अविम्हइओ ॥५३॥ इय निद्दिट्ठा कंदप्प-भावणा अह कुदेवभावरी । पंचवियप्पा किब्बिसिय-भावणा भन्नए बीया ॥५४॥ सुयनाण१ केवलीणं२, धम्मायरियाण३ सव्यसाहणं४ । अव्वन्नभासणं तह य, गाढमाइल्लया व ति ॥५५॥ 1. आवृत्तः = आवर्जितः । 2. कण्डकानि = संयमश्रेणिअध्यवसायस्थानानि । 3. प्रहाय । 4. स्वयमहसन् । 5. कुहेडगे = चमत्कारकारकं मन्त्रतन्त्रादिज्ञानम्। 6. अवर्णवादकथनम् । 108 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३८५६-३८६२ भावनाद्वारम् ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५८॥ तत्थ सुयस्स्साऽयन्ना, एवं जे जीववयपमायाऽऽई । अत्था एगत्थुत्ता, अन्नत्थ वि ते पुणो वुत्ता केवलिणं पि अवन्ना, जड़ सच्चं ते पणट्ठपेमाणो । तो कीस भव्वसत्ताणं, चेव धम्मं उवहसंति धम्मगुरुणमवऽन्ना, जच्चाऽऽईहिं तु हीलणे तेसिं । एगक्खेत्ते न रई, लहन्ति एमाऽऽइ य मुणीणं माइल्लया उ अप्पस्स, भावविणिगृहणाऽऽड़वावारो । इय भणिया पंचविहा, किब्बिसिया भावणा बीया ॥५९॥ | गारवपडिबद्धस्सा - ऽभिओगिएहिं च मंतमाऽऽईहिं । जं अप्पभावणं सा, अभिओगियभावणा नेया ॥६०॥ कोउय ! भूइकम्मं२, पसिणेहिं ३ तह य पसिणपसिणेण ४ । तह य निमित्तेणं चिय, पंचवियप्पा भवे सा य ॥ ६१ ॥ || तत्थ य अग्गीहोमो - सहाऽऽड़णा जं परं वसे काउं । भत्ताऽऽड़ उवजीवड़, कोउगआजीवणं तं तु ॥६२॥ ॥७२॥ जं पुण भूईसुताऽऽइएहिं रक्खं परस्स काऊणं । असणाऽऽई आजीवइ, भुइकम्माऽऽजीवणं तं च | अंगुट्ठाऽऽइसु देवय-मज्ययारिय जा परडत्थनिन्नयणे । भत्ताऽऽईणुवलद्धी, तं पसिणाऽऽजीवणं बिन्ति | सुमिणगविज्जाघंटिग - सबरीहिंतो परऽत्थनिच्छयणे । वित्तिं परिणापसिणा - ऽऽजीवणमाऽऽहंसु मुणिवसभा ॥६५॥ | लाभाऽलाभाऽऽइणिवे - यणेण उवजीवइ परेहिंतो । असणाऽऽड़ जं निमित्ता-ऽऽजीवणमऽक्वंति तं गुरुणो ॥ ६६ ॥ | अभियोगभावणा वि य, निदंसिया इन्हि असुरसिरिजणगा । पंचवियप्पा आसुरिय-भावणा भन्नए किंपि ॥६७॥ सड़ विग्गहसीलत्तं', संसत्ततयो निमित्तकहणं च । निक्किवया वि य अवरा, पंचमगं निरऽणुकंपत्तं ॥६८॥ तत्थ उ विग्गहसीलत्त - माऽऽहु निच्चं पि कलहकरणरई । आहाराऽऽइनिमित्तं तवं पि संसत्ततवकम्मं ॥६९॥ अभिमाणेण पओसेण, या वि तीयाऽऽइयाण जं कहणं । भिक्खुस्स गिहत्थं पड़, निमित्तकहणं तयं भणियं ॥७०॥ जं हट्ठसरीरो वि हु, चंक्रमणाऽऽईणि किर तसाऽऽईसु । पकरेड़ निरऽणुतावो, भणियमिमं निक्किवत्तं तुं ॥ ७१ ॥ दठ्ठण वि दुक्खत्तं, अच्चंतभएण कंपमाणं च । जं निडुरहिययत्तं तं भणियं निरऽणुकंपतं आसुरियभावणेयं, वृत्ता संमोहभायणा इन्हिं । भन्नइ सपरेसिं पि हु, संमोहुप्पायणसरूवा उम्मग्गदेसणा' मग्ग- दूसणा' मग्गविपडिवत्ती य' । मोहो* य मोहजणणं, एवं सा भवति पंचविहा उम्मग्गदेसणा तत्थ, सम्मनाणाऽऽइयाणि दूसित्ता । तव्विपरीयं सिवपह - मुयइसमाणस्स मुणियव्या निव्वाणमग्गभूयाणि, नाणमाऽऽईणि तट्ठियं च जणं । दूसिंतस्स भवे मग्ग- दूसणा मूलमऽसुहस्स तह मग्गविपडिवत्ती, मग्गं दूसितु नियवितक्काए उम्मग्गमऽणुसरंतस्स, जंतुणो होइ नायव्या नाणंडतरेसु चरणंतरेसु, परतित्थियाण रिद्धिंसु य । मोहिज्जइ जेण, जिओ, सो मोहो भन्नड़ तहाहि मन्ने परमडत्थेणं, धम्मो ससरक्खगेरुयाऽऽईण । पूयासक्कारा जेसिं, होंति लोगे परा एवं सब्भावेणं कवडेण, वा वि अन्नयरकुमयविसए जं । लोयस्स मोहमुवजणड़, तं भये मोहजणणं ति एयाओ भावणाओ, चरितमलिणत्तहेउभूयाओ । अच्छंतदुग्गदुग्गड़- करीओ भणियाओ लेसेण जो संजओ वि एयासु, अप्पसत्थासु वट्टड़ कहंपि । सो तव्विहेसु गच्छड़, सुरेसु भइओ चरणहीणो एयाहिं अप्पाणं, भावेंतो देवदुग्गइं जाइ । तत्तो चुओ समाणो, भमइ भवसायरमऽणतं ता एयाओ दूरेण, यज्जिउं भावणाओ भावेइ । सुपसत्थाओ सम्मं, निस्संगो सव्वसंगेसु तयभावणा' य सुय' सत्त', भावणेगत्तभावणा' चेव । धीइबलभावणा वि य, इय ताओ भवंति पंचविहा॥ ८५ ॥ तयभावणाए पंचेन्दियाणि, दंताणि जस्स यसमेंति । इंदियजोग्गाऽऽयरिओ, समाहिकरणाणि सो कुणइ | मुणिनिंदियम्मि इंदिय - सुहम्मि सत्तो परीसहपरद्धो । अकयपरिकम्मकीयो, मुज्झइ आराहणाकाले जोगमऽकारिज्जतो, आसो सुहलालिओ चिरं कालं । रणभूमीए वाहिज्ज - माणओ जह न कज्जकरो पुव्यमऽकारियजोगो, समाहिकामो तहा मरणकाले । न भवड़ परीसहसहो, विसयसुहपरम्मुहो जीवो सुयभावणाए नाणं, दंसणतयसंजमं च परिणमइ । तो उवयोगपइन्नं, सुह मव्यहिओ समाणेड़ जयणाए जोगपरिभावियस्स, जिणवयणमऽणुगयमइस्स । परिणामो न भविस्सइ, घोरे वि परीसहाऽऽवाए ॥ ९१ ॥ || समगं आवाए वि हु, सारीरियमाणसोभयदुहाण । चिन्तिय दुहं अईअं, न हु मुज्झइ सत्तभावंणओ ॥८०॥ ॥८१॥ ॥८२॥ ॥८३॥ ॥८४॥ ॥ ८६ ॥ ॥८७॥ ॥८८॥ ॥८९॥ ॥९०॥ ॥९२॥ 1. अव्यथितः । 109 દા ॥६४॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ ॥७६॥ ॥७७॥ ॥७८॥ ॥७९॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३८६३-३६२७ पुष्पचुलदृष्टन्तः - आर्यमहागिरिदृष्टान्तः ॥९३॥ ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९७॥ ॥३९००॥ un n ॥४॥ ॥५॥ En ॥ना usu बालमरणाणि धीरो, परिभाविय अत्तणो अणंताई । मरणे समुट्ठिए वि हु, न मुज्झइ सत्तभावणंतो जुज्झपरिभावियऽप्पा, बहुसो मुज्झइ रणे न जह सुहडो । तह सत्तभावणाए, मुज्झइ न मुणी वि उवसग्गे ॥९४॥ देवेहिं भेसिओ वि हु, दिया व राओ व भीमरूयेहिं । तो सत्तभावणाए, धम्मधुरं निब्भरो वहड़ एगत्तभावणाए. न कामभोगे मणे सरीरे वा । सज्जड़ वेरग्गगतो, फासेइ अणुत्तरं धम्मं भगिणीए वि हम्मंतियाए, एगत्तभावणाए जहा । जिणकप्पियो न मूढो, खयगो वि न मुज्झइ तहेव तहाहि“पुष्पचुलदृष्टान्तः” | पुप्फउरे नरवइपुप्फ- केउणो पणइणीए उप्पन्नो । पुप्फयईए जमल-तणेण पुत्तो य धूया य उचियसमयंमि नामं, विहियं पुत्तस्स पुप्फचूलो ति । धूयाए पुप्फचूल त्ति, दो वि पत्ताइं तारुण्णं अच्चंतपरोप्परनिविड- पणयमवलोड़ऊण तेसिं च । रन्ना वियोगवज्जण - कएण अणुरुवपत्थावे | परिणाविऊण पडिव - पुरिसहत्थेण पुप्फचूला उ । धरिया नियभवणे च्चिय, पड़णा सह सा गमइ कालं ॥१॥ भुंजेइ पुप्फचूलो य, रज्जलच्छिं जहिच्छमऽच्छिन्नं । अविरहियं भइणीए, परमप्पणयम्मि वट्टन्तो एगम्मि य पत्थावे, स महप्पा जायपरमसंयेगो । पव्यइओ तन्नेहेण, पुप्फचूला वि पव्यइया सो अहिगयसुत्तत्थो, जिणकप्पपवज्जणट्टया धीरो । एगत्तभावणाए, परिकम्मइ बाढमऽप्पाणं अह तव्वीमंसऽट्ठा, एक्केण सुरेण पुप्फचूलाए । विडपुरिसहढाऽऽरंभिय- वयभंगाए दुहऽट्टाए जेट्ठऽज्ज ! रक्ख रक्ख त्ति, जंपिरीए, विउब्वियं रूवं । तं दठ्ठे पि स धीमं, अगणेंतो सुद्धपरिणामो एगो च्चिय जीव! तुमं, किमिमेहिं बज्झसयणजोगेहिं । इय भावणाए चलितो, थेवं पि न धम्मझाणाओ ॥७॥ कसिणा परीसहचमू, सहोवसग्गेहिं जइ वि उद्वेज्जा । दूरं दुस्सहयेगा, भयजणणी अप्पसत्ताणं धिइधणियबद्धकच्छो, हत्थं पीडिज्जमाणगत्तो वि । पडिपुन्नवंछियऽत्थो व्य-प्रणाउलो तमऽहियासेइ एयाए भावणाए, चिरकालं पविहरेज्ज सुद्धाए । काऊण अत्तसुद्धिं दंसणनाणे चरिते य पडिवज्जंतो कप्पं, अप्पाणमिमाहिं तुलइ मुणिवसभो । एसो वि जहासतिं भावेड़ इमाउ को दोसो धन्नो सो च्चिय भययं, सिरिअज्जमहागिरी गरुयसत्तो । 2 तीए वि हु जिणकप्पे, तप्परिकम्मं कयं जेण ॥१२॥ तथाहि“श्री आर्यमहागिरिदृष्टान्तः” कुसुमपुरनगररन्नो, नंदस्स विसिट्ठबुद्धिमयरहरो । मंती सगडालो नाम, सायगो जिणमयविहन्नू नलकूबरो व्य रूयेण तस्स पुत्तो पवित्तगुणकलितो "नामेण थूलभद्दो, परमविलासी य भोगी य सो सगडालेण विस- प्पओगओ साहियम्मि मरणट्ठे । वररुइपवंचरुट्ठे, दठ्ठे नंदं महासत्तो भणिओ रन्ना अपिउसं-तियं पयं भयसु पुव्वनाएण । रज्जभरमुद्धरं धरसु, धीर! मोत्तूण कुवियप्पं मुहमहुरं परिणइमंगुलं च, सो चिन्तिऊण घरवासं । निच्छिन्नविसययंछो, पडियन्नो संजमुज्जोगं | संभूयविजयमुणिवइ-पयंऽतिएऽ हिगयसयलासुत्तऽत्थो । अणुयोगधरो जातो, तक्कालियमुणिवरवरिट्ठो जो पुव्वपरिचियाए, उवकोसविलासिणीए गेहम्मि । युत्थो चाउम्मासं, मुसुमूरियमयणमाहप्पो अच्चतविम्हयकरं चरियं अज्जऽवि निसामिउं जस्स । के के न होंति आणंद - बहलपुलयंऽचियसरीरा धीरा ते च्चिय जेसिं, संते वि मणवियारहेउम्मि । न वियारमेड़ तग्गिह गएण इति संसियं जेण | सीहगुहामुहउस्सग्ग - कारिपमुहप्पहाणमुणिमज्झे । अइदुक्करदुक्करकार - गो त्ति जो भासिओ गुरुणा | निम्मलसीलाऽऽणंदिय-मणाए नरनाहदिन्नपइपुरओ । उवकोसाए वि सभत्ति - पुव्यमुययूहिओ जो य 'न दुक्करं अम्बयलंबितोडणं, न दुक्करं सिक्खिउ नच्चियाए । तं दुक्करं तं च महाऽणुभावं, जं सो मुणी पमययणम्मि युत्थो' ॥१०॥ ॥११॥ इय कोमुइमयलंछण- सच्छहजसलच्छिमंडियजयस्स । जाया से दो सीसा, महागिरि तह सुहत्थी य ते वि तहाविहनिम्मल - गुणमणिनिहिणो विणिज्जियाऽणंगा । भव्यजणकुमुयबोहण - पयंडससिमंडलसमाणा | चरणकरणाऽणुओग - प्पहाणसव्वाऽणुओगपरिहत्था । उच्छाइयबहलसमु- च्छलन्तमिच्छत्ततमपसरा 1. तद्विमर्शार्थं = तत्परीक्षार्थम् । 2. तीए = अतीते = व्युच्छिन्ने । 3. पितृसत्कम् । ॥९८॥ ॥९९॥ ॥१३॥ mřn ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२७॥ 110 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३६२८-३६६४ ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३६॥ एडकाक्षनगरोत्पत्तिवर्णनम् | उवलद्धसुद्धगुणमणि - खणिगणिपयपयडपसरियपयावा । भुवणजणपणयचरणा, चिरकालं विहरिया वसुहं ॥२८॥ अह सिस्सपसिस्साण वि, विहिपुव्युवइट्ठसयलसुत्तऽत्थो । निययगणमऽप्पिउणं, महागिरी सिरिसुहत्थिस्स ॥२९॥ बुच्छिन्नं जिणकप्पं, मुणिऊण वि तदऽणुरुवपरिक्रम्मं । कुणमाणो सो विहरिउ - माऽऽरुद्धो गच्छनिस्साए ॥३०॥ विहरतो य महप्पा, पाडलिपुत्तम्मि वरपुरम्मि गतो । भिक्खऽट्ठा य पविट्ठो, समुचियसमयम्मि उवउत्तो ॥३१॥ अह तत्थेव पुरम्मि, वत्थव्येणं स सयणबोहऽत्थं । अज्जसुहत्थी वसुभूइ - सेट्ठिणा नियगिहे नीओ पारद्धा धम्मकहा, तेणाऽवि य तव्विबोहणनिमित्तं । एत्थंतरम्मि पत्तो, महागिरी तत्थ भिक्खट्टा दट्टु सुहत्थिणा भाव - सारमब्भुट्ठिओ य स महप्पा । तो बिम्हइयमणेणं, भणियं वसुभूणा एवं ॥३४॥ भयवं! किं तुम्हाण वि, अन्ने विज्जंति सूरिणो गरुया । जं एवमिमस्स कया, अब्भुट्टाणाऽऽइपडिवती ॥३५॥ भणियं सुहत्थिणा भद्द ! एस भयवं सुदुक्कराऽऽरंभे । अईए वि हु जिणकप्पे, तप्परिकम्मं इय करेड़ | उवसग्गयग्गसंसग्ग-निच्चलो उज्झियऽन्नभोई य | निच्चोलंबियहत्थो, धम्मज्झाणेक्कपडिबद्धो ससरीरे वि हु मुच्छा-विवज्जियो नियगणे वि अममत्तो । सुन्नहरसुसाणाऽऽइसु, विचित्तठाणोवठाई य | इय एवमाऽऽइजिणकप्प - विसयपरिकम्मकारिणो तस्स । गुणसंथवं करिता, सूरी धम्मे य ठविऊणं वसुभूइसयणवग्गं, विणिग्गओ तग्गिहाओ अह सेट्ठी । भणड़ नियपरियणं जड़, कहंपि एवंविहो साहू आगच्छेज्जा भिक्खऽट्ठ- मेत्थ उज्झतगाणि ता तुम्मे । काऊणाऽसणपाणाऽऽई, तस्स देज्जह पयत्तेणं एवं दिनं हि बहु- फलं भवे इय परुविए संते । पत्तो महागिरी अन्न-वासरे भिक्खणट्टाए | वसुभूइदिन्नसिक्खाऽणु-रूवओ परियणं च दट्ठूणं । दाणऽट्ठमुट्ठियमुज्झि - यन्नपाणप्पयारेण | दव्वाऽऽइसु उवउत्तो, महागिरी मंदरो व्य गुरुसत्तो । जाणड़ कवडविरयणं, अगहियभिक्खो नियत्तइ य ॥४४॥ | कहड़ य सुहत्थिणोऽणेस - णा क्या सो भणेड़ नणु केण । तुमए मइ इंतम्मि, अब्भुट्ठाणं कुणंतेण ' ॥४५॥ अह ते दो वि समं चिय, वइदिसनयरिं गया विहारेण । जियपडिमं वंदित्ता, तत्थऽज्जमहागिरिमुणिंदो ॥ ४६ ॥ तत्तो विणिक्खमित्ता, गयग्गपयवंदणट्टया चलितो । नयरम्मि एलगच्छे, तमेलगच्छं च जह जायं ॥३७॥ ॥४०॥ ॥४१॥ ॥४२॥ "જો ॥४७॥ મા ॥३९॥ “एडकाक्षनगरोत्पत्तिवर्णनम् " ॥५२॥ ॥५४॥ ॥५५॥ तह भन्नड़ किर पुव्यं, नामेण इमं दसन्नपुरमाऽऽसि । तत्थ य सुसाविया मिच्छ-दिट्टिणो संतिया गिहिणी ॥४८॥ जिणधम्मनिच्चलमणा, पच्चक्खाणं पओससमयम्मि । कुणमाणी हीलाए, भणिया सा भत्तुणा एवं ॥४९॥ रयणीए मुद्धि ! किं कोई, भोयणं कुणड़ जेण संवरणं । एवं पइदियहं पि हु, निरडत्थयं तं समायरसि ॥५०॥ | जड़ पुण अभुज्जमाणऽत्थ- पच्चक्खाणे वि होज्ज कोई गुणो । ता कहसु जेण अहमऽवि, पच्चक्खाणं करेमि त्ति ॥५१॥ तीए पयंपियं अत्थि, चेव विनिवित्तिसंभवो सुगुणो । नवरं पच्चक्खाणे, घेत्तुं भग्गे महादोसो आ मुद्धि ! निसिम्मि तए, दिट्ठो हं किं कयाइ जेमंतो । इय हीलाए जंपिय, पच्चक्खाणं कयं तेण ॥५३॥ अह तद्देसगयाए, विचिंतियं देवयाए एक्काए । हीलाकरस्स एयस्स, अज्ज फेडेमि दुव्विणयं | तत्तो भगिणीरूवेण, दिव्यमोयग पहेणयं घेत्तुं । देवी समागया से, पणामियं तीए तं भोज्जं सो भुंजिउमाऽऽरद्धो, पडिसिद्धो साविगाए तो भणड़ । हो ! होउ कयं तुह मुद्धि ! कूडनियमेहिं मह इन्हिं ॥ ५६ ॥ आ पाव! जिणमयं पि हु, उवहससि विणट्ठसुहसमायार ! । इड़ जंपिरीए दढजाय - कोववसपाडलऽच्छीए ॥५७॥ तह देवयाए पहओ, मुहम्मि सो स्यणिभोयणाऽऽसत्तो । जह अच्छिगोलगा दो वि, निवडिया तस्स भूवट्टे ॥ ५८ ॥ अहह ! मह अवजसो एस, होहिड़ इय वियक्कजायभया । काउस्सग्गेण ठिया, जणपुरओ साविगा ताहे ॥५९॥ अह अड्ढरत्तसमए, समागया देवया इमं भणइ । किं सुमरियम्हि तीए, पयंपियं देवि ! अवणेसु ॥६०॥ अवजसमिमं ति तक्खण-हणिज्जमाणेलगस्स अच्छीणि । अह घेत्तुं देवीए तस्सऽच्छिजुयम्मि ठवियाणि ॥ ६१ ॥ जाए पभायसमए, सविम्हयं सयणनयरलोएण । भणियं चोज्जमिमं भो!, जाओ तं एलगऽच्छो ति एवं च एलगऽच्छो त्ति, सो पसिद्धिं गतो हु सव्वत्थ । तस्संबंधेण पुरं पि, एलगऽच्छं तओ जायं अह पुव्वऽभिहाणेणं, दसन्नकूडो त्ति विस्सुओ वि जए । स गयऽग्गपओ सेलो, जह जाओ तह परिकहेमि ॥ ६४ ॥ ॥६२॥ ॥६३॥ 1. पहेणयं = भोजनम् वा प्राभृतम् । 111 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३६६५-३६६६ दशार्णकूटस्य गजाग्रपदनामोत्पत्तिः - संलेखनाद्वारम् "दशार्णकूटस्य गजाग्रपदनामोत्पत्तिः" - किर पुब्बिं तत्थ पुरे, दसन्नभद्दो महानियो आसि । तस्स य पंच सयाई, सुरुवरमणीण 'ओरोहो ॥६५॥ नियजोव्वणेण रूपेण. रायलच्छीए पवरसेणाए । पडिबद्धो सो सेसे, अवमन्नइ मेडणीवइणो દુદ્દા अह एगम्मि अवसरे, दसन्नकुडे गिरिम्मि जगनाहो । सिरिवद्धमाणसामी, समोसढो आगया तियसा तह बंदिस्सामि जिणं, जह केणवि नेय वंदिओ पुब्बिं । इइ गव्यमुव्यहंतो, सव्वविभूईए संजुत्तो ૬૮ चउरंगबलसणाहो, दसन्नभद्दो नियो गयाऽऽरुढो । अंतेउरपरियरिओ, गंतूणं वंदए नाहं ॥६९॥ अह तम्मणोगयकुवियप्प-मऽवगच्छिऊण सुरनाहो । अइरावणययणे निम्म-येइ अद्वेय वरदसणे ॥७०॥ एक्केक्कम्मि य दसणे, विउब्वइ अट्ठ अट्ठ वावीओ । एक्केक्काए वावीए, तयऽणु अट्ठट्ठ पउमाई ॥७१॥ पउमे पउमे पवराई, अट्ठ पत्ताई तत्थ एक्केक्के । पत्ते बत्तीसनिबद्ध-नाडयं निम्मवित्ताणं ॥७२॥ तत्थाऽऽरुढो संतो. अणेगसरकोडिपरिवडो सामि । तिपयाहिणिउं वंदड. अच्छरियकरीए रिद्धीए ॥७३॥ इय रिद्धिजुयं सक्कं, दटुं गयरद्धिगारयो राया । पुब्बिं अणेण धम्मो, ओ मए नो अहन्नेण ॥७४॥ ता संपयं पि तं उवचिणेमि, इइ चिंतिऊण तव्वेलं । पव्वज्जं पडिवज्जड़, चेच्चा रज्जं महप्पा सो ॥७५॥ अह सक्कहत्थिणो तत्थ, पव्वए देवयाउणुभावेण । अग्गपयाइं खुत्ताई, टंकि उक्कीरियाणि व्य ॥७६॥ तो सो दसन्नकूडो, तप्पभिई चिय समत्थलोयम्मि । पत्तो परं पसिद्धिं, गयडग्गपयगो ति नामेण । ॥७७॥ इय तत्थ गयडग्गपए, भयवं स महागिरी समणसीहो । चिरसुचरियसामन्नो, निस्सामन्नं तवं काउं ૭૮ जहविहिभावियभावण-निवहो क्यभत्तपच्चक्खाणो य । असुरसुरख्यरमहिओ, मरिउं देवत्तमऽणुपत्तो ॥७९॥ एवं सव्वेणं चिय, भववासविणासमऽभिलसंतेण । सुपसत्थभावणासुं, पमायविरहेण जड़यव्यं ૮૦ डय चउकसायभयभंजणीए. संवेगरंगसालाए । आराहणाए मलिल्ल-यम्मि परिकम्मविहिदारे ॥८१॥ पत्थुयपन्नरसण्हं, पडिदाराणं, कमाडणुसारेणं । भणियमिमं चोद्दसम, भावणविसयं पडिदारं ૧૮૨ सुपसत्थभावणाभावगो वि, नाउराहणं खमइ काउं । जेण विणा तं भन्नइ, एत्तो संलेहणादारं ॥८३॥ अहवा सव्येसुं पि हु, अरिहाऽऽइसु पुव्वभणियदारेसु । परिकम्ममेव पगयं, तं च भये भायसुद्धीए । ૮૪ भावविसुद्धी उ हवेज्ज, तिब्बरागाऽऽइवासणाविगमे । तग्विगमो पुण मोहो-दयस्स विद्धसभावम्मि ॥८५॥ तविद्धंसो पाएण, देहधाऊणमऽवचयवसेण । तदऽवचओ पुण जायड़, विचित्ततवसेवणाऽऽईहिं દી तवसेवणं पि संले-हणाऽणुगं होड़ पत्थुयऽत्थकरं । ता एतो वित्थरओ, भन्नइ संलेहणादारं . ॥८७॥ “संलेखनाद्वारम्" - संलेहणा य एत्थं, तवकिरिया जिणवरेहिं पन्नता । जं तीए संलिहिज्जइ, देहकसायाउडइ नियमेण ॥८८m ओहेणं सव्वा चिय, तवकिरिया जड़ वि एरिसी होइ । तह वि य इमा विसिट्ठा, घेप्पड़ जा चरिमकालम्मि॥८९॥ एसा हि सुदीहरदुप्प-सज्झवाहिम्मि अहव उवसग्गे । चारित्तधणविणासण-करम्मि वा कारणम्मि परे ॥९०॥ सोइंदियाऽऽइविगलत-संभवे अहव तिक्खभिक्खे । कायव्या धीरेणं, समणेणं सायएणं च ॥९१॥ जओपरिवालिऊण विमलं, सावगधम्म सुदीहरं कालं । आगमविहीए काउं, सम्म संलेहणं अंते ॥९२॥ आराहिउग्गकिरिया, इह आणंदाऽऽइणो महासत्ता । पत्ता कमेण परम, कल्लाणपरंपरमुयारं ॥९३॥ च्चिय. चिरं पि चरिऊण दच्वरं चरणं । आजम्मं तं दितं. तवं च तविउं महापरिसा ॥९४॥ अंते विसेससंले-हणाए संलिहियदव्यभावा य । कालं काउं सुव्यंति, पुवरिसिणो वि सिद्धिगया ॥९५॥ | तित्थयरा वि हु तइलोक्क-तिलयभूया वि विबुहमहिया वि । अप्पडिहयनिम्मलनाण-किरणउज्जोवियजया वि॥१६॥ सिरिरिसहसामिपमुहा, जेहि वि किर सिज्झियव्ययमऽवस्सं । ते वि विसेसतवपरा, अंते जाया किर तहाहि ॥९॥ निव्वाणमेत्तकिरिया, सा चोद्दसमेण पढमनाहस्स । सेसाणं मासिएणं, वीरजिणिंदस्स छटेणं ॥९८॥ तप्पखवाइणो ता, ताण कमेणेव भविउकामस्स । भवभीयरसऽन्नस्स यि, जुत्ता संलेहेणा काउं ॥९९॥ 1. ओरोहो = अवरोधः = अन्तःपुरम् । 2. निव्वाणमन्तकिरिया = निर्वाणम् = अन्तक्रिया = मोक्षः BI 112 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४००० -४०३३ संलेखनाद्वारम् 11411 ॥७॥ ॥८॥ usu ॥१०॥ ॥११॥ किंतु विणा तयकम्मं, पायं नो झति उज्झइ देहो । चियमंससोणियत्तं, ता कायव्यं इमं पढमं ॥४०००॥ चियमंससोणियस्स हि, असुहपवित्तीए कारणमऽवंझं । संजायड़ मोहुदओ, सहकारिविसेसजोगेण ॥१॥ | सइ तम्मि विवेगी वि हु, साहेड़ न नियमओ अहिगयऽहं । किं पुण विवेयवियलो, अदीहदरिसी अतवसेवी॥२॥ ता जह न देहपीडा, न याऽयि चियमंससोणियत्तं तु । जह धम्मझाणवुड्ढी, तहेव संलेहणं कुज्जा एसा य दुविहभेया, उक्कोसा तह भये जहन्ना य । उक्कोसा वरिसबारस- छम्मासे जाय य जहन्ना अहवा वि दव्यओ भावओ य, संलेहणा दुहा तत्थ । दव्ये सरीरगस्सा, भावे इंदियकसायाणं तत्थ य जा उक्कोसा, बारसवरिसाई कालओ भणिया । सा दव्यओ पयुच्चड़, सुत्तऽणुसारेण इय किंपि ॥६॥ विविहाऽभिग्गहसंगय - चउत्थछट्टऽट्ठमाऽऽइविविहतयं । काऊण सव्वकाम-ग्गुणिएणं चेव पारेंतो पढमं वासचउक्कं गमेइ खमगो पुणो वि चत्तारि । सुविचित्ततयोजुत्ताइं नयरि भुंजड़ न सो विगई | एगंडतरिओवासा - ऽऽयंबिलपारणगविहिसणाहाई । तयइ वरिसाई दोन्नि, इय वरिसाई दस गयाई अह एक्कारसवच्छर- छम्मासे आइमे तवं काउं । नाऽइविगिट्टं परिमिय- माऽऽयामेणं च भुंजेड़ अन्तिमछम्मासे पुण, अट्ठमदसमाऽऽड़तवविहिं काउं । आयामेण जहिच्छं, भुंजइ तणुधारणट्टाए एवं एक्कारसवच्छराणि, गमिऊण बारसमवरिसं । कोडीसहियाऽऽयंबिल - तवकरणेणं समाणेड़ नवरं बारसमस्सा यरिसस्स उ अन्तिमम्मि चउमासे । एगंडतरियं सुचिरं धारेज्जा तेल्लगंडूसं तं छारमल्लगे प- क्खिवितु, धोवेज्ज आणणं तत्तो । किं पुण एत्थ निमित्तं भन्नइ वाएण मा वयणं संमिल्लेज्जा तस्स उ, एवं च कयम्मि मरणसमए वि । उच्चरइ नमोक्कारं, सयं अजत्तेण स महप्पा | एसुक्कोसा संले-हणा मए दव्यओ समक्खाया । छ - च्चउम्मासाऽऽड़या, एस च्चिय भन्नड़ जहन्ना | सविसयपसत्तइंदिय - कसायजोगाण निग्गहणरूया । एसा उ भावसंले- हणेह नाणीहिं उयइट्ठा इय ताय विसेसविहिं, पडुच्च संलेहणा विणिद्दिट्ठा | चिन्नियसामन्नेणं, एवं चिय अणसणाऽऽईहिं अणसण' मृणोयरिया', वित्तीसंखेवणं' रसच्चाओ । कायकिलेसों सेज्जा, विवित्तसंलीणयाऽऽई य देसे सव्येऽणसणं, सव्याऽणसणं भणति भयचरिमं । देसे चउत्थमाऽऽई, जहसत्तीए कुणड़ एसो ऊणोयरिया दुविहा, दव्ये भावे य तत्थ दव्यम्मि । उयगरणभत्तपाणे, सा उवगरणे जिणाऽऽईणं जिणकप्पऽब्भासीण व न उ अन्नेसिं पि संजमाऽभावा । अइरितपरिच्चाया, सव्वेसिं वा जओ भणियं ॥२२॥ जं वट्टड़ उबयारे, उवगरणं तं खु होइ नायव्यं । अइरेगं अहिगरणं, अजओ अजयं परिहरंतो ॥१२॥ ॥१३॥ १४ ॥ ॥ १५ ॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२३॥ एगाऽऽइक्वलहाणी, नियगाऽऽहाराउ ताव जा कवलं । कवलऽद्धमेगसित्थं, ऊणोयरिया इमा दव्ये कोहाऽऽईणमऽणुदिणं, चाओ जिणवयणभावणाए उ । भावेणोमोयरिया पन्नत्ता, वीयरागेहिं वित्तीसंखेयो पुण, गोयरकालम्मि दत्तिभिक्खाण । जं परिमाणं पिंडे-सणाण पाणेसणाणं च अहवा पइदियसं सो, चित्ताऽभिग्गहपरिग्गहणरूयो । ते पुण दव्ये खेत्ते, काले भावे य नायव्या तत्थ लेवडमऽलेवडं वा, अमुगं दव्यं व अज्ज 2 घेच्छामि । अमुगेण व दव्वेणं, अह दव्याऽभिग्गहो नाम ॥ तहा ॥२४॥ बत्तीसं किर कवला, आहारो कुच्छिपूरओ भणितो । पुरिसस्स महिलियाए, अट्ठावीसं भवे कवला कवलाण उ परिमाणं, कुक्कुडिअंडयपमाणमेत्तं तु । जं वा अविगियययणो, वयणम्मि छुहेज्ज वीसत्थो ॥२५॥ एवं वयत्थियम्मि, ऊणोयरिया उ भत्तपाणेसु । जिणगणहरपन्नत्ता, अप्पाऽऽहाराऽऽड़पंचविहा अप्पाऽऽहार - अवड्ढा, दूभागपत्ता तहेव किंचूणा । अट्ठदुवालससोलस - चउवीस तहेक्कतीसा य ॥२६॥ ॥२७॥ अहवा तहा अट्ठ उ गोयरभूमी, एलुगविक्खंभमेत्तगहणं च । सग्गामपरग्गामे, एवइयघराउ खेतम्मि 1. चित्त० = चित्र = विविध० । 2. घेच्छामि = ग्रहीष्यामि । 113 ॥३॥ ॥४॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ૫૨૨૫ ॥३३॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४०३४-४०६६ संलेखनाद्वारम् उज्जुयगंतुं पच्चाउडगई य, गोमुत्तिया पयंगविही । पेडा य अद्धपेडा, अभिन्तरबाहिसंबुक्का ॥३४॥ काले अभिग्गहो पुण, आई मज्झे तहेव अवसाणे । अप्पत्ते सड़ काले, आई बी मज्झि तइयंऽते ॥३५॥ दितगपडिच्छगाणं, हवेज्ज सुहम पि मा हु अचियत्तं । इइ अप्पत्त अईए, पवत्तणं मा य तो मज्झे ॥३६॥ | उक्खित्तमाऽऽइचरगा, भावजुया खलु अभिग्गहा होति । गायं तो य रुयंतो, जं देइ निसन्नमाउडई वा ॥३७॥ ओसक्कणअहिसक्कण-परंमुहाऽलंकिएयरो या वि । भावऽन्नयरेण जुओ, अह भावाऽभिग्गहो नाम खीराऽऽईरसो विगई, तासिं चाओ उ होइ परिहारो । संथरओ जं ताओ, दुग्गइमूलाउ भणियाउ ॥३९॥ चत्तारि महाविगईओ, होति नवणीयमसमहुमज्जं । कंखापसंगदप्पा-संजमकारीउ एयाउ ॥४०॥ आणाऽभिकंख्रिणाऽवज्ज-भीरुणा तवसमाहिकामेण । ताओ जावज्जीवं, 'निज्जूढाओ पुरा चेवं ॥४१॥ खीरदहिसप्पितेल्लं, गुलो य ओगाहिमं च जहसत्तिं । निज्जूहइ अन्नाणि वि, सो लोणपलंडुमाऽऽईणि ॥४२॥ विगतिपरिणतिधम्मो, मोहो जमुदिज्जए उइन्ने य । सुट्ठ यि चित्तजयपरो, कहं अज्जे न वट्टिहिइ ॥४३॥ दावानलमज्झगतो, को तवसमडट्ठयाए जलमाऽऽई । संते वि न सेवेज्जा, मोहाडनलदीविएसुवमा अणुसूरं पडिसूरं च, उड्ढसूरं च तिरियसूरं च । समपायमेगपायं, गद्धोलीणाऽऽइठाणाई ॥४५॥ वीराऽऽसण-पलियंकं, समपुय-गोदोहिया य उक्कुडुयं । दंडाऽऽयय-उत्ताणय-ओमंथ-लगंडसयणाऽऽई ॥४६॥ मगरमुहहत्थिसुंडी-उड्ढसइत्तेगपाससाइत्ते । तणकलगसिलाभूमी-सयणाणि निसाअसाइत्तं ॥४७॥ अण्हाणमऽणुव्वट्टण-मडकायकंडुयणकेसलोय च । कायकिलेसो एसो, सीओण्हाऽऽयावणाऽऽई य ૪૮ના दुखसहतमिह गुणा, कायनिरोहो दया य जीवेसु । परलोयमई य तहा, बहुमाणो चेव अन्नेसिं ॥४९॥ एत्तोऽणंततरगुणा, कट्ठाओ वेयणाओ नरएसु । अवसेहिं सहिज्जती, तदवेक्वाए किमिह कुटुं ॥५०॥ इय भावणवसपाउ-भवंतसंवेगपयरिसगुणाण । कायकिलेसो संसार-यासनिव्वेय-रसभवणं ॥५१॥ तरुमूलाऽऽरामुज्जाण-गिरिगुहाऽऽसम-पवा-मसाणेसुं । सुन्नघर-देउलेसु य, जाइयपरदिन्नगेहेसु ॥५२॥ उग्गमउप्पायण-एसणाहिं परिसुद्धिया अओ चेव । अकया अकारियाऽणणु-मया य मूलाऽवसाणेसु ॥५३॥ इत्थिनपुंसगपसुवज्जिया य, सीया व होज्ज उसिणा या । उच्चायया व समविसम-भूमिगा या वि बहिरंडतो॥५४॥ भद्दयपावयसदाऽऽइएहिं, जीए विसोतिया णत्थि । सज्झायझाणविग्धं व, नउत्थि सेज्जा विवित्ता सा ॥५५॥ एवंविहसेज्जाए, जम्हा पायं न संभवंती वि । सपरोभयसंजणिया, रागद्दोसाऽऽइया दोसा ॥५६॥ सेज्जाए अणुगुणाए वि, संठिओ भावएज्ज अप्पाणं संलीणयाए सम्म, निग्गिन्हिय इंदियाऽऽईणि ॥५॥ सो नत्थि इंदियऽत्थो, निच्चमडतित्ताणि जमडणुभविऊण । जंतिन्दियाणि तित्तिं, नाणाविहविसयरसियाणि ॥५८॥ एक्केक्को य इमेसि, विसयाण विसोवमाण हणणखमो । खेमं पुण तस्स कहं, पंच वि जो सेवए जुगयं ॥५९॥ जह किर दुइंतेहिं, तुरएहिं रणंडगणम्मि सारहिणो । विणडिज्जति तह इहं, पत्थ वि इंदिएहिं पि ॥६०॥ अन्ने वि बहुविहा इह, मुक्कमहापुरिससेवियकमाण । इंदियनिग्गहरहियाण, होति दुहदारुणा दोसा ॥१॥ एमाऽऽइदुहविवागं, सम्मं परिभाविउं नियमईए । विसयरसिइंदियाणं, धीरो संलीणयं कुज्जा ॥६२॥ |सा पुण तीस इट्टे-यरसु विसएसु सम्मभावेणं । रागदासपसज्जण-धज्जणरूया मुणेयव्या ॥६३॥ अवि य ण, जिंघिउं फासिऊण तह विसए । जस्स न रई न अरई, इदियसंलीणया तस्स ॥४॥ ता गुविलविसयरण्णे, अणिबद्धमिओ तओ य वियरंतं । नाणंडकुसेण कुज्जा, अप्पवसं इंदियगइंदं ॥६५॥] इय धीबलेण धीरो, दमेज्ज मणकुंजरं पि तह कहवि । जह निज्जियपडिवक्खो, गिण्हेज्जाऽऽराहणपडायं ॥६६॥ एवं कसायजोगे, निरुद्धपसरेऽरिणो व्य कुणमाणो । जणइ च्चिय तग्गोयर-मडणहं संलीणयं धीमं (धणियं)॥६७॥ संलीणयं उवगतो, पसत्थजोगेहिं सुप्पउत्तेहिं । पंचसमिओ तिगुत्तो, आयउट्ठपरायणो होड़ ૬૮ના जं निज्जरेइ कम्मं, असंवुडो सुमहया वि कालेणं । तं संवुडो तबस्सी, खवेइ अंतोमुहुत्तेणं ॥६९॥ 1. नियूँढाः = त्यक्ताः । 2. अवशैः = परवशैः । 3. आयट्ट० = आत्मार्थ । सोच्चा दहें भ म 114 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४०७०-४१०५ गङ्गदत्तस्य दृष्टान्तः तवमयि तं कुज्जा सो, जेण मणो मंगुलं ण चिंतेइ । जेण य न जोगहाणी, मणनिव्वाणी य होइ जओ॥७॥ दव्यं खेत्तं कालं, भायं मुणिऊण धाउणो य तहा । कुज्जा तवं जहा वाय-पित्तसिंभा न खुब्भंति | इहरा उग्गमउप्पा-यणेसणासद्धभत्तपाणेण । मियलयविरसलक्काड-इणा वि जावेज्ज अप्पाणं ॥७२॥ अणुपुब्वेणाऽऽहारं, संवट्टितो य संलिहे देहं । आयंबिलं तु तहियं, समयविऊ बिंति उक्कोसं ॥७३॥ अप्पाऽऽहारस्स न इंदियाई, विसएसु संपयट्टति । नेव किलिम्मइ तवसा, रसिएसु न सज्जए या वि ॥७४॥ किं बहुणा एक्कक्कं, तह असई सो तवं समडब्भसइ । जह तेण करिसियस्स वि, न जायए कहवि असमाही॥७५॥ एवं सरीरसंले-हणाविहिं बहुविहं पि फासंतो । अज्झवसाणविसुद्धिं, खणं पि खवओ न मुंचेज्जा ॥६॥ अज्झवसाणविसुद्धीए, बज्जिओ जो तवं विगिट्टं पि । कुणइ न जायइ जम्हा, सुद्धि च्चिय तस्स कइया वि॥७७॥ अविगिटुं पि तवं जो, करेइ सुविसुद्धसुक्कलेसागो । अज्झवसाणविसुद्धो, सो पावड़ केवलं सुद्धिं ॥८॥ अज्झवसाणविसुद्धी, कसायकलुसीकयस्स य न अत्थि । ता तस्स सुद्धिहेउं, संलिहइ दढं कसायकलिं ॥७९॥ | कोहं खमाए माणं च, मद्दवेणउज्जवेण मायं च । संतोसेण य लोभं, संलिहइ लहुं लहुब्भूओ (लहूभूओ)॥८०॥ कोहस्स य माणस्स य, मायालोभाण सो न एइ वसं । जो ताणं मूलाओ, उप्पत्तिं चेव यज्जे ॥८१॥ तं वत्थु मोत्तव्यं, जं पड़ उप्पज्जए कसायडग्गी । तं यत्थुमाऽऽयरेज्जा, जेण कसाया न उटुिंति ૮૨ जं अज्जियं चरितं, देसूणाए वि पुचकोडीए । तं पि कसाइयमेतो, हारेइ नरो मुहुतेण ॥३॥ जलिओ हि कसायडग्गी, चरित्तसारं डहेज्ज कसिणं पि । संमत्तं पि विराहिय, अणंतसंसारियं कुज्जा ॥८४॥ धन्नाणं खु कसाया, जगडिज्जंता वि परक्साएहिं । न चयंति उट्ठिउं जे, सुनिविट्ठो पंगुलो चेव ॥५॥ जड़ जलइ जलउ लोए, कुसत्थपवणाऽऽहतो कसायडग्गी । तं चोज्जं जं जिणवयण-सलिलसित्तो वि पज्जलड़॥८६॥ कलुसफलेण न जुज्जड़, किं चोज्जं जं इह हं विगयरागो । संते वि जो कसाए, निगिण्हइ सो वि तत्तुल्लो॥८७॥ रूयं उच्वं गोयं, अविसंवाओ सुहो य लाभो ति । कोहाऽऽइनिग्गहाणं, फलं कमेणुत्तमं नेयं ॥८॥ ता उप्पज्जतो च्चिय, कसायदावाऽनलो लहुं चेव । इच्छामिच्छाउक्कड-जलेण विज्झावणिज्जो हु ॥८९॥ तह चेय नोकसाया, संलिहियव्या परेणुवसमेणं । संनाओ गारवाणि य, तह लेसाओ असुद्धाओ ॥९०॥ परिवट्टिओवहाणो, वियडसिरान्हारुपंसुलिकडाहो । संलिहियकसाओ वि य, दुविहं संलेहणमुवेड़ ॥९१॥ एवं सम्म कयदव्य-भावपरिकम्मयिहिसमाओगो । संलिहियडप्पा पाउणइ, चेव आराहणपडागं ॥९२॥ जो पुण इयविहिविपरीय-करणओ नियमईए बट्टेज्जा । आराहगो न सो होज्ज, गंगदत्तो व्ब पज्जते ॥१३॥ तथाहि "गङ्गदत्तस्य दृष्टान्तः" पुरनगरनिगमसंकुल-कुलगिरिगुरुदेवभवणरमणिज्जे । वच्छाविसए नयरं, जयवद्धणमाऽऽसि सुपसिद्धं ॥१४॥ सिद्धंतपसिद्धविसुद्धधम्म-कम्मेक्कबद्धपडिबंधो । बंधुपिओ नाम तहिं, अहेसि 'सिट्टी नयविसिट्ठो . ॥५॥ सिट्ठाऽणुमओ पुत्तो य, गंगदत्तो ति तस्स सुविणीतो । सो य कमेणडणुपत्तो, तारुण्णं तरुणिमणहरणं ॥१६॥ तं च तहाविहमऽवलोडऊण, पिउणा सयंभनामस्स! यणिणो धया वरिया, वीवाहरुद्रं पहिटेणं ॥९७॥ अह सुपसत्थे हत्थग्गहस्स, जोग्गम्मि तिहिमुत्तम्मि । सा हरिसमुवगएणं, उव्यूढा गंगदत्तेणं नवरं जब्वेलं चिय, तीसे सो पाणिपल्लये लग्गो । तव्येलं चिय तीए, वियंभिओ दुस्सहो दाहो ॥१९॥ किं हुयवहेण आलिंगियम्हि, सित्तम्हि किं विसरसेण । इति चिंतंती पल्हत्थ-वामहत्थाऽऽणणा विमणा ॥४१००॥ अच्छिन्नमच्छिपुडसं-घडंतबाहच्छडा वलियगीवा । निहुयं परिदेवंती, सयंभुणा एवमुल्लविया ॥१॥ बच्छे! हरिसट्ठाणे वि, कीस संतावमेवमुव्वहसि । पहसिरवयणा जं सहि-जणं पि नाऽऽलवसि सप्पणयं ॥२॥ किंच न पेच्छसि तुह छिणए, लोयणाऽऽणंदनिभरमणस्स । सविलासगीयनट्टाइं, सयणलोयस्स पुत्ति! तुमं ॥३॥ ता कुण सरलं गीवा-मुणालमडवणेहि नयणजलकणियं । सच्छायं मुहलच्छिं, पयडेहि विमुंच सोगमिमं ॥४॥ अह अत्थि गाढतरसोग-कारणं किंपि ता तमऽविसंकं । फुडवयणेहिं साहेहि, जेण अवणिज्जए सज्जो ॥५॥ 1. जावेज्ज=निर्वाहयेत्। 2. असइं=असकृत् = पुनः पुनः इत्यर्थः। 3. जगडिज्जंता = उत्थाव्यमानाः-उत्पन्न कराता। 4. सिट्टी-श्रेष्ठी। 5. क्षणके उत्सवे। । 115 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४१०६-४१४२ गङ्गदत्तस्य दृष्टान्तः तीए पयंपियं ताय! इण्डिं किमडईययत्थकहणेण । नक्खत्तमग्गणा मुं-डिए सिरे कं गुणं कुणइ भणियं सयंभुणा पुत्ति!, तहवि साहेहि एत्थ परमत्थं । तो तीए सव्यो यि य, वरवुत्तंतो समाऽऽइट्ठो ॥७॥ सोऊण तं च यज्जाऽऽ-हओ व्य अवहरियगेहसारो व्य । 'मसिसलिलोहलिओ इव, सो विच्छायत्तमऽणुपत्तो॥८॥ वित्तो य विवाहविही, सयणजणो वि य गओ सगेहेसु । अह अवरवासरम्मि, ससुरगिहे निज्जमाणीए ॥९॥ अच्चंतदइयदोहग्ग-खग्गनिभिज्जमाणहिययाए । अन्नं मोक्खोवायं, थेवं पि अपेच्छमाणीए ॥१०॥ पासायसिहरमाऽऽरुहिय, तीए मरणउट्ठया लहु विमुक्को । अप्पा नियडियमेता य, सा गया झत्ति पंचत्तं ॥११॥ मिलिया अम्मापिउणो, सयणजणो वि य समागतो तुरियं । विहिओ य से समग्गो, सरीरसक्कारपमुहविही ॥१२॥ तम्मरणनिमित्तं पि य, सव्वत्थ पुरम्मि तत्थ वित्थरियं । नियदोहग्गेण दढं च, लज्जिओ गंगदत्तो वि ॥१३॥ नवरं पिउणा भणिओ, मा यच्छ! विसायमेत्थ थेवं पि । काहिसि तहा जइस्सं, जह अवरा होज्ज तुह भज्जा॥१४॥ अह कहवि दूरपुरवासि-वणियधूयं पुणो वि सो तेण । परिणाविओ तहाविह-पभूयतरदव्यविणिओगा ॥१५॥ |सा वि तहच्चिय हत्थ-ग्गहाओ उड्ढं गया परमसोगं । तग्गिहगमणाऽवसरे, नवरं उल्लंबणेण मया ॥१६॥ तो सव्वत्थ वि देसे, दुस्सहदोहग्गदूसणं पत्तो । सोगभरविहुरियंडगो य, गंगदत्तो विचिंतेइ ॥१७॥ किं पुवभवेसु मए, पावं पावेणुवज्जियं गरुयं । जस्स पभावेणेवं, भवामि येसोऽहमित्थीणं ॥१८॥ धन्ना भयवंतो ते, सणंकुमाराऽऽइणो महासत्ता । दढपणयसालिणं पि हु, तत्तियमंडतेउरं मोत्तुं ॥१९॥ लग्गा संजममग्गे, अहं तु निब्भग्गवग्गवग्गू वि । दोहग्गवमित्थीणं, सुमिणे यि अपत्थणिज्जो य ॥२०॥ मिगपोयगो व्च मायण्हियाए, निव्यिसयविसयतण्हाए । विणडिज्जामि हयाऽऽसाए, अहह! एत्तो सुहं कत्तो ॥२१॥ इय जाव सो विचिंतइ, ताव पिया से समाऽऽगओ भणइ । वच्छ! परिच्वय सोगं, निरत्थयं कुणसु कायव्यं॥२२॥ चिरभवपरंपरोयज्जियाण, पायाण विलसियं एयं । वयणिज्जमेत्थ कस्स वि, परमजत्थेणं अओ नत्थि पत्त! जामो. भयवं गणसायरो इहं सरी । सव्वइ समोसढो तं च, वंदिमो नाणरयणनिहिं पडियन्नं तेण तंतो, सूरिसमीये गया विणयपुव्वं । वंदित्तु तं निसन्ना, संनिहियम्मि धरावढे રિપો सूरी वि दिव्वनाणो-वओगविन्नायसव्वनायव्यो । अक्वेवणिविक्नेवणि-सरुवमह कहइ धम्मकहं રદ્દો अह पत्थावं उपलब्भ, गंगदत्तेण पुच्छिओ सूरी । भयवं! पुरा मए किं?, दोहग्गकरं कयं कम्म जेणेह भवे प्रमं, विद्देसं पाविओ म्हि जुवईण । इति तेण पुच्छियम्मि, भणइ गुरु भो! निसामेहि ॥२८॥ नयरम्मि सयदुवारे, रन्नो सिरिसेहरस्स तं भज्जा । अच्वंतवल्लहा आसि, गाढकामाऽणुबंधा य . ॥२९॥ तस्स य रन्नो निम्मेर-रूवलायन्नमणहरंगीण । भज्जाणमडणूणाई, हुन्ताणि सयाणि किर पंच ॥३०॥ ताणि य तुमए विद्देसणाऽऽइ-बहुकूडमंततंतेहिं । हणियाणि जहिच्छमडविग्घ-मवणिवइरमणवंछाए ॥३१॥ समुवज्जिउं च वज्जं य, दारुणं भूरिपावसंभारं । तप्पच्चयं च अच्चंत-दुग्गदोहग्गकम्मं पि ॥३२॥ ते य सदस्सह-सासाऽऽइपभयपवलरोगेहिं । मरिऊण नरयतिरिएस, णेगसो सहिय दक्खाई ॥३३॥ कहकहवि कम्मलाघव-वसेण एत्थोवलद्धमणुयत्तो । पुवकयपायदोसेण, इन्हि दोहग्गमडणुहवसि ૩૪ો एव सोच्चा संजाय-धम्मसद्धो भवाउ उद्विग्गो । आपुच्छिऊण पियरं, सो पव्यजं पवज्जित्ता ॥३५॥ गामाऽऽगरनगरेसुं, विहरइ वाउ व्य चत्तपडिबंधो । गुरुकुलवासोवगतो, सुत्तऽत्थविभावणुज्जुत्तो . ॥३६॥ अह केत्तियं पि कालं, पव्वज्जं निक्कलंकमणुचरिउ । भत्तपरिन्नाविहिणा, उयट्ठिओ अणसणं काउं ॥३७॥ भणिओ थेरेहिं तओ, अहो महाभाग! अणुचियमिमं ते । उवचियसोणियमंसस्स, अणसणं एत्थ पत्थाये ॥३८॥ चत्तारि विचित्ताई, विगईनिजूहियाइं चत्तारि । इच्चाऽऽइणा कमेणं, तम्हा संलेहणं कुणसु ॥३९॥ संलिहियदव्यभावो, पच्छाऽणुढेज्ज पंछियउत्थंपि । इहरा विसोत्तिया वि हु, भवेज्ज बहुविग्घमिममाऽऽहु ॥४०॥ इय पनविओ वि बहुं, तग्गिरमऽयगन्निऊण सच्छंदो । घेत्तूण अणसणं गिरि-सिलायले सो निसन्नो त्ति ॥४१॥ अह तस्स तहा झाण-ट्ठियस्स पडिरुद्धदुट्ठजोगस्स । अणसणगयस्स जं किर, वित्तं तं संपइ सुणेह ॥४२॥ 1. मषीसलिलावलितः । 2. वेसो = द्वेष्यः 3. वग्गू = अग्रेसरः । 116 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४१४३-४१६८ गङ्गदत्तस्य दृष्टान्तः ताविच्छगुच्छसच्छह-सुकंतकुंतलकलायकलियाहिं । छणमयलंछणसच्छह-मुहजोन्हाधवलियदिसाहिं ॥४३॥ निम्मलमऊहमुत्ताकलाव-रेहंतथोरथणयाहिं । सुसिलिट्ठलट्ठमणिकंचि-दामसोहंतरमणीहिं ॥४४॥ वट्टाउणुपुव्यरंभा-ऽभिरामदिप्पंतजंघजुयलाहिं । चरणपरिलग्गरणझणिर-मंजुमंजीररम्माहिं ॥४५॥ | अच्चतविचित्तमहग्घमुल्ल-दोगुल्लवरनियत्थाहिं । मंदारकुसुमपरिमल-मिलतभसलोलिसामाहिं ॥४६॥ सुंदेरमणहराहिं, तरुणीहिं परिगतो अणेगाहिं । विज्जाहररायसुओ, अणंगकेऊ त्ति सुपसिद्धो ॥४७॥ सिद्धाऽऽययणाई यंदिऊण, सगिहं पडुच्च बच्चंतो । मुणिमणसणट्ठियं जाणि-ऊण भूमितलमोइन्नो ॥४८॥ तो गंगदत्तमऽइभूरि-भत्तिभरनिस्सरंतरोमंचो । सुचिरं थुणिऊण गतो, रामाजणपरिवुडो सपुरं ॥४९॥ साहू वि तस्स सोहग्ग-मुग्गमऽबलामणोहरणदक्खं । दटुं पडिभग्गमणो चिंतिउमेवं समाढतो ॥५०॥ | एस महप्पा एवं, विलासिणीसत्थपरिगओ ललइ । अहयं तु पावकम्मो, तह तइया ताहिं परिभूओ ॥५१॥ ता धी! निरत्थयं मज्झ, जीवियं दुट्ठ माणुसं जम्मं । निरुवहयंडगो वि तहा, विडंबणं जोडणुपत्तो म्हि ॥५२॥ इय कुवियप्पवसगतो, सो जंपड़ जड़ इमस्स फलमडत्थि । सामन्नस्स तया हं, इमो व्य होज्जामि प्रजम्मे ॥५३॥ एयं नियाणबंध, काऊण मओ महिंदकप्पम्मि । उववन्नो पवरसुरो, तत्थ य विसए निसेवित्ता ॥५४॥ आउगविगमम्मि चुओ, उववन्नो भूमितिलयभूयाए । उज्जेणीए पुरीए, रन्नो सिरिसमरसीहस्स ॥५५॥ भज्जाए सोमनामाए पुत्तभावेण पवरसुमिणेहिं । क्यसूओ नीरोओ, समुचियसमए पसूओ य ॥५६॥ विहियं वद्धावणयं पत्थावे ठावियं च से नाम । रणसूरो त्ति कमेणं, तारुन्नं पवरमऽणुपत्तो ॥५७॥ अह पुव्वजज्जियनिरवग्ग-हुग्गसोहग्गसंगतो जत्थ । सो भमइ तत्थ जुवईण, तम्मि निक्खित्तचक्खूण ॥५८॥ मयणवसविहियबहुहाव-भावविभमविलासलीलाण । अवहत्थियलज्जाणं, अवरे विरमंत वावारा ॥५९॥ | राइसरसेणावइ-महिब्भसामंतमंतिधूयाहिं । एसोऽम्ह पई अहया वि, हुयवहो इइ वयंतीहिं ॥६०॥ उव्यूढो गाढपरूढ-पणयसाराहिं ताहिं समगं च । पंचविहविसयसोक्वं, अणुभुंजड़ दीहरं कालं ॥६१॥ मरिउं च भवुत्थसुतिख-दुक्खलखाण भायणं भूओ । नियव्विलसियवसओ, चिरकालं गंगदत्तो ति ॥६२॥ एएण कारणेणं, वुच्वइ संलेहणं दुविहरुवं । काउं पुव्वं पच्छा, भत्तपरिन्नं अणुढेज्जा ॥६३॥ एवं कयपरिकम्मस्स, पायसो नो विसोत्तिया होइ । आराहिज्जड़ सम्म, एवं चिय जिणवराऽऽणा वि ॥६४॥ इय सिरिजिणचन्दमुणिन्द-रइयसंवेगरंगसालाए । परिकम्मविहीपामोक्ख-चउमहामूलदाराए .॥६५॥ आराहणाए पनरस-पडिदारमयस्स पढमदारस्स । परिकम्मविहीनामस्स, दंसियं चरमपडिदारं દુદ્દા तइंसणाओ पनरस-पडिदारमयं पदंसियं सम्म । परिकम्मविहीनामग-मेयं पढम महादारं ॥६॥ संवेगरंगसालाडराहणाए, पनरसपडिदारपडिबद्धं । परिकम्मविहीनामगं पढमदारं समतं ति ॥६८॥ ॥ प्रथमद्वारम् समाप्तः ॥ . 117 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४१६६-४२०४ परगणसंक्रमनामक द्वितीयद्वारम् - प्रथम दिशाद्वारम् - आचार्यस्य योग्यतावर्णनम् "परगणसंक्रमनामक द्वितीयद्वारम्" - अणहं अरयं अरुयं, अजरं अमरं अरागमडपओसं । अभयमकम्मम जम्म, सम्म पणमह महावीरं ॥९॥ अह क्यपरिकम्मविहिस्स, तस्स गणसंकम करेंतस्स । विहिमडवितहं भणिस्सं, तत्थ य दाराणिमाणि दस ॥७॥ दिस' खामण' अणुसट्ठी', परगण सुट्ठियगयेसणा चेव । उवसंपया परिच्छा, पडिलेहा पुच्छण पडिच्छा ॥१॥ "प्रथम दिशाद्वारम्" - तत्थ य दिस त्ति गच्छो, जं तीए दिसिज्जए जड़समूहो । तीए दिसाए अणुण्णं, वण्णेमि जहाविहिं एत्तो ॥७२॥ इह पुण पुव्वपवंचिय-कमाउणुसारेण गहियपव्यज्जो । सड्ढो व सुचिरपालिय-पव्वज्जो कोई साहू या ॥७३॥ अहवा निम्मलगुणगण-वसपावियपूयणिज्जसूरिपओ । साहु च्चिय आराहण-विहिमणहं काउमिच्छेज्जा ॥७४॥ एत्थ य जो सूरिपयं, पवयणविहिणाऽणुपालिउं सुचिरं । निष्फाइउं च सिस्से, सुत्तउत्थेहिं समत्थेहिं ॥५॥ इड्ढिरससायगारव-रहियं आगमठिईए विहरित्ता । बोहिता भव्यजणं, वंछिज्जाऽऽराहणविहाणं ॥७६॥ वड्ढन्तउत्तरोत्तर-पसत्थपरिणामपरमसंवेगो । सो अणुसरेज्ज पढम, बहुजइजोग्गं महानेतं । ॥७७॥ तो वाहरिऊण गणं, निययं पुरखेडकब्बडाऽऽइगयं । तप्पुरओ पयडेई, तहाविहं अप्पडभिप्पायं ॥७८॥ आभोड्ऊण य तओ, अपक्खवाएण सम्मबुद्धीए । पढमं खु सगच्छे च्चिय, पगच्छे वा पुरिसरयणं ॥७९॥ “आचार्यस्य योग्यतावर्णनम्" - आरियदेसुप्पन्नं, जाईकुलरुवसंपयाकलियं । कुसलं कलाकलावे, लोयट्टिइसुट्टपत्तटुं पयइसविसिट्टचेटुं, पयगणडब्भासनिच्चतल्लिच्छं । पयईए थिमियरूवं, पयईए जणाऽणुरागपयं ॥८१॥ पयइसुपसन्नचित्तं, पयईए पियपयंपणपहाणं । पयइसुपसंतमुत्तिं, एत्तो च्चिय पयइगंभीरं તેરા पयइसुविसालसीलं, पयइमहापुरिसचरियचित्तरई । पयनिरऽवज्जविज्जा-समज्जणुज्जुत्तचित्तं च ॥८३॥ कल्लाणमित्तमेत्ती-पहाणमडविकत्थणं अमाइल्लं । दढसंघयणं धीबलिय-मडणुमयं धम्मियजणाण ૮૪ો आहिंडियबहदेसं, अवधारियसयलदेसभासं च । परिचियबहयवहारं, आयन्नियविविहवुत्तंतं ॥८५॥ दीहदरिसणमऽनुदं, दक्खिन्नमहोयहिं सुलज्जालुं । बुड्ढाउणुगं विणीयं, सव्यत्थ सुबद्धलक्वं च ૮દ્દો अदुराऽऽराह गुणपक्ख-वाइणं देसकालभावन्न । परहियरई विसेस-न्नुयं परं पायभीरुं च सुगुरुविहिदिन्नदिक्खं, तयडणुकमाउहीयसपरसमयविहिं । चिरपरिचियसुत्तऽत्थं, जुगप्पहाणाऽऽगमधरं च ॥८॥ सुत्ताऽणुसारिबोहं, तत्तविहिविसारयं च खंतिखमं । सक्किरियाकरणरयं, संविग्गं लद्धिमंतं च ॥८९॥ भावियभवनेगुन्नं, सम्म तत्तो विरत्तचित्तं च । सन्नाणाऽऽइगुणाणं, परुवगं पालगं च सयं ९०॥ संगहसीलं अपमाइणं च, कडजोगिणं भणिइनिउणं । तह परलोगपसाहग-गुणगणसंगाहणे कुसलं ॥९ ॥ | निच्चाऽऽसेवियगुरुकुल-निवासमाऽऽदेयमसमपसमरसं । संजमगुणक्करसियं, वच्छल्लपर पवयणस्स ॥९२॥ मणसुद्धं वइसुद्धं, कायचिसुद्धं विसुद्धऽणुट्ठाणं । दब्वाइअगिद्धिपरं, जयणासारं च सव्वत्थ ९३॥ दंतिंदियं तिगुतं, गुत्तारुडयारं अमच्छरमडणीसं । जहसत्तीए तवचाय-संगयं गयमयवियारं ॥१४॥ अणुवत्तणापहाणं, सच्वयारुज्जयं दढपइन्नं । उक्खित्तभरुव्वहणेक्क-धीरधवलं अणाऽऽसंसं ॥९५॥ तेयस्सिणमोयस्सिण-मऽविसाइणमऽपरिसाविणं धीरं । हियमियफुडवत्तारं, कन्नसुहोदत्तघोसं च ॥१६॥ मणवयणकायचावल्ल-वज्जियं सयलजइजणगुणटुं । अगिलाणीए जहट्ठिय-पवयणसुत्तडत्थवत्तारं ॥९७॥ दढजुत्तिहेउदाणा, पारद्धपमेयठावणपडिटुं । तक्कालुप्पन्नुत्तर-पयाणपडुयं सुमज्झत्थं ॥९८॥ पंचयिहाऽऽयारधरं, भवियाणुवएसदाणदुल्ललियं । जियपरिसं जियनिर्दे, विविहाऽभिग्गहगहणनिरयं ॥९९॥ | कालसहं भारसहं, उयसग्गसहं परीसहसहं च । खेयसहमडवक्कसहं, कट्ठसहमिलव्य सव्वसहं ॥४२००॥ | उस्सग्गडववायाणं, नियनियसमए निसेवणपहाणं । मुद्धजणसमक्खं पुण, निसेवगं नायवायाणं आवाए संवासे य, भद्दगं तह समुद्दबुद्धिल्लं । रायकरंडगतुल्लं, महुकुंभं महुपिहाणं च R युट्टिपरगज्जिरहिएण, जणगनिप्फायगेण य तहेव । खेत्ते च्चिय काले च्चिय, देसे सब्वे य युढिमया पुक्खलसंवट्टेण य, मेहेण समं वहंतमुवमाणं । अंतो बहिं च सारं, तह अप्पपराडणुकंपपरं 118 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४२०५-४२४० शिवभद्राचार्य दृष्टान्तः ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ तह परिगलंतसोयं, निच्वं आसंगलंतसोयं च । सुयदाणगहणविहिणा, सीयासीओयहरयं व कालपरिहाणिदोसा, एत्तो एक्काऽऽइगुणविहीणं पि । अप्पलहुदोसयंतं पि, सेसबहुगुरुगुणोवेयं एवंविहं सुसिस्सं, सूरी रिणमोयणं करिउकामो । आपुच्छिताण गणं, गणाहियत्ते निरुवेज्जा नवरं गुरुसीसाणं, दोण्हं पि हु पवरचंदबलकलिए । उच्चट्ठाणट्ठियसव्य-'सुहगहालोगिए लग्गे नीसेससंघसहिओ, हिओवउत्तो गणे गणवई सो । सुत्तुत्तविहाणेणं, निययपयं निसिरइ तम्मि ॥९॥ अह संघसमक्खं चिय, सुत्तुत्तविहीए चेय निस्संगो । अणुजाणेइ दिसं सो, एस दिसा भे ति भणमाणो ॥१०॥ जो पुण सविसेसाऽसेस-गुणगणोवेयपुरिसविरहम्मि । कइवयसुगुणुववेयं पि, तदवरस्समणऽवेक्वाए ॥११॥ नियए पयम्मि न ठवेज्ज, नेव तस्साऽणुजाणइ दिसं पि । सो हारेज्ज सकज्जं, गणं च सिवभद्दसूरि व्य ॥१२॥ तहाहि "सियभद्रसूरि कहा" कंचणपुरम्मि नयरे, सुयरयणमहोयही महाभागो । आसि सिवभद्दसूरी, बहुसिस्सगणस्स चक्नुसमो ॥१३॥ सो य महप्पा एगम्मि, अवसरे रयणिमज्झसमयम्मि । कालपरिन्नाणडट्ठा, अवलोयइ नहयलं जाय . ॥१४॥ तावुच्छलन्तजोन्हा-पवाहधवलियसमग्गदिसिचक्कं । समकालं पेच्छइ हरिण-लंछणाणं जुगमकम्हा ॥१५॥ मइसंमोहा किं दिट्ठि-विब्भमो किं विहीसिया किं वा । इति विम्हियचित्तेणं, तेणुट्ठविओ अवरसाहू | भणितो य भद्द! पेच्छसि, गयणे हरिणंडकमंडलजगं किं । तेणं पयंपियं एक्क-मेव पेच्छामि निसिनाहं ॥१७॥ तो मुणियइणा नायं, नूणं प्रज्जतपत्तमिव जीयं । तेणेसुप्पाओ मे, अदिट्ठपुव्यो पजाओ ति ॥१८॥ न कयाइ जेण चिरजीवि-णो जणा एरिसे उ उप्पाए । पेक्वंति विम्हयकरे, परेसिमडच्चतम घडते ॥१९॥ | अहवा किडमणेण विगप्पिएण, उप्पायविरहओ वि जियं । तिणयडग्गलग्गजलमिय, न चिराऽवत्थाणमऽणुभवइ॥२०॥ ता किमिह चोज्जमऽह किंव, वाउलतं क एव संमोहो? । अणुसमयविणस्सिरजीवि-यव्वजुत्ताण सत्ताण ॥२१॥ चिरकालकलियनिम्मल-सीलाणं घोरचरियसुतवाणं । परमऽभुदयनिमित्तं, मरणं पि मणोरई कुणइ ॥२२॥ अणुयज्जियसद्धम्मा अपोढपाहेज्जदूरपहिय व्य । परभवसंकमकाले, जे ते पुण दुत्थिआ होति ॥२३॥ तम्हा पडिरूवगुणम्मि, सयलमुणिलोयलोयणाऽऽणंदे । आरोविऊण गणभर-मेगम्मि नियविणेयम्मि ॥२४॥ अच्वंतविगिट्टविसिट्ट-तवविसेसेहिं संलिहियकाओ । दीहरसामन्नफलं, एगग्गमणो उवचिणामि ॥२५॥ नवरं सिस्साणमिमाण. कोवि कोवाडउरो सहावेण । को वि य वियक्वणो नेव, सत्थपरमात्थबोहम्मि ॥२६॥ को वि य वियलो रुवेण, को वि सिस्साडणवत्तणे अविऊ । को वि य कलिप्पिओ को वि, लोभमायाऽभिभूतो य॥२७॥ को वि पभूयगुणो वि हु, थद्धो हा! किं करेमि सव्वगुणो । नेवत्थि कोवि गणहर-पयमिममाऽऽरोविमो जस्स॥२८॥ भन्नइ य इमं गणधर-पयं हि जो ठवइ किर कुपत्तम्मि । जाणतो वि सिणेहा, सो पदयणपच्चणीओ ति ॥२९॥ | इय दुक्कहयाए तहाविहेहिं, केहि वि गुणेहिं जुतं पि । सिस्सगणं अवगणिउ, अविभायियभाविराऽणत्थो ॥३०॥ कालाऽणुरूवकायव्य-मूढभावो तहाविहं किंचि । संलेहणं रेत्ता, भत्तपरिण्णं चिय पवन्नो ॥३१॥ तम्मि य तहट्ठिए जा न, सारणावारणाऽऽइ संभवति । ताव वणवारणा इव, सीसावि निरंकुसीहूया ॥३२॥ तह अप्पणो उहा-परं पहुं पेखिऊण निरवेक्वा । तप्पडियरणाऽऽइपओ-यणेसु मंदाऽऽदरा जाया ॥३३॥ सूरी वि ते तहा पे-च्छिऊण हिययम्मि धरियसंतायो । असमत्थिउत्तिमट्ठो मरिउं असुरेसु उप्पन्नो ॥३४॥ सीसगणो वि य बाढं, नायगविरहेण नयरलोगो व्य । अक्कंतो अइनिक्किच-पमायरिउसुहडचक्केण ॥३५॥ | सिढिलियमुणिकायव्यो, कोउयमंताऽऽइएसु बढ्तो । जाओ य सामिविरहे, आभागी अणत्थसत्थाण ॥३६॥ | एएण कारणेणं, मज्झिमगुणसंगयं पि ठविय पए । तबिहियगणाऽणुन्नो, गणी जएज्जुत्तिमट्ठम्मि રૂણા इहरा पवयणखिंसा, धम्मभंसो य मग्गवुच्छेओ । अहिगरणं धम्मुम्मुह-विप्परिणामाऽऽइया दोसा . इय कुगइतिमिरदिणयर-पहाए संगरंगसालाए । मरणरणजयपडागो-वलंभनिबिग्घहेऊए ॥३९॥ आराहणाए पडिदार-दसगजुत्तस्स बीयदारस्स । गणसंकमस्स भणियं, दिस ति पढम पडिदारं ॥४०॥ 1. सुहगहाभोगिए पाठां०। 2. दुक्कहयाए = अरुचिमत्वेन । 119 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४२४१-४२७४ क्षामणाद्वारम् क्षमापनाद्वारम् "क्षामणाद्वारम् " एवं नियपयठाविय - सीसनिवेड़यदिसस्स वि गणिस्स । एगंतनिज्जरापे-हिणो वि जीए विणा सम्मं ॥४१॥ उल्लासं न लहड़ अइ-महल्लकल्लाणवल्लरी कहवि । सा खामणा इयाणिं कित्तिज्जड़ कुगइनिम्महणी ॥४२॥ “क्षमापनाद्वारम्" अह सो पसंतचित्तो, सबालवुड्ढाऽऽउलं गणं णियगं । तक्कालणिवेसियगण - वरं च वाहरिय महुरगिरा ॥ ४३ ॥ इय वागरेज्ज हंभो!, महाऽणुभावा! सहाऽऽयसंताणं । सुहुमं व बायरं या, अचियत्तं किंपि होज्ज धुवं ॥ ४४ ॥ ता जं क्या वि असणं, पाणं वत्थं व पत्तमऽह पीढं । धम्मोवयारजणयं, अन्नं पि तहाविहं किंपि ॥४५॥ लद्धं पि विज्जमाणं पि, कप्पणिज्जं पि नो मए दिन्नं । दिज्जंतं वा अवरेण, कहवि होज्जा व पडिसिद्धं ॥ ४६ ॥ जं वा पुच्छंताण वि, अक्खरपयगाहअज्झयणमाऽऽई । सुत्तं नेवुवइट्टं, सम्मं वक्खाणियं नो वा ॥४७॥ जं वा किंपि कहं पि हु, इड्ढीरससायगारववसेण । खरफरुसगिराहि चिरं च, चोइया तज्जिया या वि ॥ ४८ ॥ अच्वंतविणयपणया वि, गाढपडिबंधबंधुरा वि दढं । जं पिय रागाऽऽइवसा, पलोइया विसमदिट्ठीए ॥४९॥ जं च न संमं सुगुणऽ-ज्जणे वि उवयूहिया जहाऽवसरं । तं भे खामेमि अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ य ॥५०॥ तह भो देवाऽणुपिया!, पियस्स वि अपियमन्नणाए जं । अपए वि दूमिया काल-मेत्तियं तं पि खामेमि ॥ ५१ ॥ किं केणाऽवि पियं चिय, अणिसं कस्साऽवि तीरए काउं । ता जमऽपियं कयं किंपि, तुम्ह तं मे खमेज्जाह ॥ ५२ ॥ किं बहुणा - ॥५४॥ ॥५५॥ ॥५७॥ ॥५८॥ ॥५९॥ દ્દા ॥६१॥ दव्यं खेत्तं कालं भावं च पडुच्च अणुचियं जमिह । किंपि कयं तुम्ह मए, तं सव्यं पि हु खमायेमि ॥५३॥ | अह ते वि तिव्वगुरुभति - चित्तजुत्तऽप्यवित्तिणो एयं । गुरुवयणमऽसुयपुव्यं, सोऊण ससज्झसं सव्वे | उप्पन्नमन्नुमंथर-गग्गरगलनालिणो सुविउणो वि । अणवरयफुरंतोदार - बाहसलिलोल्लनयणिल्ला जंपंति पहुं अप्पा - णयं पि सव्वप्पणा किलेसेउं । अम्हे च्चिय परिपुट्ठा, सामिय! तुब्भेहिं जेहिं सया ॥५६॥ ते वि कहं तुम्हे हं, खामेमि इमेरिसं भणह वयणं । अवि य सुगुणेसु ठविया, अणुमोमो त्ति वत्तव्यं अप्पत्तगुणाणं पावग त्ति, पत्ताण वुड्ढिजणग ति । कल्लाणवल्लरीका - रिणो ति एगंतहियय त्ति इय वच्छल त्ति निव्वाण - गमणसुपसत्थसत्थवाह ति । निक्कारणेक्कपियबंध-व त्ति संजमसहाय ति | सयलजयजीवपरिता- इणो त्ति भवजलहिकन्नधार ति । सव्यंऽगिवग्गपरमत्थ-जणणिजणग त्ति काऊण जे तुम्हे सव्वेसिं, परमवियड्ढाण भव्वलोयाणं । जणणिजणगे वि चइउं, 1 आसयणिज्जा महासत्ता ते कह कस्स वि तुब्भे, भयत्तभयमूयणा हियपरा य । होऊण अणुचियं भे- ऽवसा वि चिंतिस्सह वि लोए ॥ ६२ ॥ दव्यं खेतं कालं, पडुच्च पियमेव सव्वसत्ताण । निच्चं चेट्टंताणं, तुम्ह वि किं खामणिज्जपयं एवं खु गुणो होहि त्ति, जं पि जंपेह किंपि फरुसाई । तं पि परिणतिसुहऽट्ठा, सुवेज्जकडुओसहकमेण ॥ ६४ ॥ तम्हा अम्हेहिं चिय, तुम्हे उ पडुच्च अणुचियं किंपि । जमिह कयं कारियमऽणु-मयं च तं होड़ खमणिज्जं ॥ ६५ ॥ तं पुण रागाउ दो-सओ य मोहेण वा अणाभोगा । मणसा वयसा काएण, जमिह भंते कयं तत्थ ॥६६॥ रागेण अप्पबहुमाणओ उ, दोसेण पहुपओसाओ । मोहेणं अन्नाणा, विणोवओगं अणाऽऽभोगा ॥६७॥ सम्ममऽणुग्गहबुद्धीए, अम्हं विहियं हियं पि तुम्हेहिं । संभावियं च वितहं, अम्हेहिं किंपि जं मणसा ॥६८॥ | अन्तरभासाविप्पिय-पयंपणं पट्ठिमंसभक्खितं । पेसुन्नं तह जच्चाऽऽइ - प्रिंसणं जं च वायाए | करचरणोऽवहिसंघट्टणाऽऽड़, कारण अणुचियं जमिह । विहियं तं खामेमो, तिविहं तिविहेण सव्वं पि ॥ ७० ॥ En ॥६९॥ तहा | पाणाऽसणाइ सुत्तडत्थ-तदुभयं वत्थपत्तदंडाऽऽई । सारणवारणचोयण - पडिचोयणपमुहमऽह जं च ॥७१॥ ॥७२॥ तुम्हेहिं चियतेहिं, दिन्नं अम्हेहिं अविणएणं जं । भंते! पडिच्छियं कहवि, तं समग्गं पि खामेमो दव्वे खेत्ते काले, भावे य कहिं पिकादि हु कया जं । आसायणा य तं पि हु, तिविहंतिविहेण खामेमो ॥ ७३ ॥ कयमेत्थ पसंगेणं, एवं ते गुणगुरुं गुरुं णिययं । धम्माऽऽयरियं धम्मो - वएसयं धम्मधुरधवलं ॥७४॥ 1. आसयणिज्जा = आश्रयणीयाः । 120 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४२७५-४३१० नयशीलसूरिदृष्टान्तः भत्तिभरनिभरंडगा, सम्म कमकमलमिलियभालयला । पुणरुत्तमत्तविहियं, अहम्मकम्म खमाति ॥७५॥ आदिक्खाकालाओ, अन्नाणपमायदोसयसगेहिं । पडिलोमिया जमाउडणा, हिओवएस पि दिताण ॥७६॥ तुम्हाणं अम्हेहिं, संजमभरधरणधवलगुणनिलय! । मणवायाकाएहिं, सव्यं पि हु तं खमावेमो ॥७७॥ आणंदंडसुनिवार्य, कुणमाणा इय मही'निमियसीसा । खामेति ते जहऽरिहं, जहारिहं खामिया गुरुणा ॥८॥ एवं च खामणाए, क्याए जाएज्ज अत्तणो सुद्धी । थेवं पि वेरकारण-मऽवभवे नाणुवट्टेज्जा ॥७९॥ इहरा नाणडब्भासो, परोवएसाऽऽइधम्मवावारो । नयसीलसूरिणो इव, भवेज्ज विहलो परभवम्मि ૮૦ના तहाहि ___ “नयशीलसूरिदृष्टान्तः” एगम्मि गरुयगच्छे, अतुच्छसुयनाणनायनायव्यो । दूरदिसाऽऽगयसुस्सूसु-सिस्ससंसयसयुम्महणो ॥८ ॥ नामेणं नयसीलो, अहेसि सूरी सयं सुरगुरु ब्य । बुद्धीए नवरि न तहा, सुहसीलतेण किरियाए ॥८२॥ सिस्सो य तस्स एगो, सम्म नाणी य चरणजुतो य । तो तस्स समीवम्मि, समयउत्थवियखणा लोगा ॥८३॥ निसुणंति जिणवराऽऽगम-मुवउत्तमणा तहत्ति जपंता । पकुणंति य बहुमाणं, पवित्तचारित्तजुत्तो ति ॥४॥ एवं बच्वंतम्मि, काले सो चिंतड़ इमं सूरि । मोत्तूण ममं मुद्धा, किमिममिमे पज्जुवासंति ॥५॥ अहवा कुणंतु किंपि हु, एए सच्छंदचारिणो निहिणो । एसो वि कीस सिस्सो, बहुस्सुओ तह ओ वि मए॥८६॥ तह दिक्खिओ वि तह पालिओ वि, तह गुरुगुणेसु ठवियो वि । मममऽवगणिऊणेवं, वट्टइ परिसाए भेयम्मि॥८॥ 'रायम्मि जीवमाणे, न छत्तभंगो हवे' एसो वि । मन्ने लोगपवाओ, न सुओ णेणं अणज्जेण ॥८॥ जइ इण्डिं नियारिज्जड़, थम्मकहाकरणओ मए एसो । ता मच्छरि ति लोगो, मन्नेज्ज ममं महामुद्धो ॥८९॥ ता कुणउ किंपि एवं विहाण जुतं उबेहणं एक्कं । कीरंतज्वरम फलं तभत्तजणे विरुद्धं च ॥१०॥ इय संकिलेसवसगो, पओसवं तदुवरिम्मि सो सूरि । अंतसमए वि तदऽविहिय-खामणो मरणमडणुपत्तो ॥११॥ तो संकिलेसदोसा, तत्थेव यणम्मि पन्नगत्तेण । उववन्नो कूरऽप्पा, सन्नी ताविच्छसच्छाओ ॥२॥ अह तेसिं चिय साहूण, कहवि सज्झायझाणभूमीए । आगंतूणं तु ठिओ, इओ तओ परिभमंतो सो ॥१३॥ तम्मि य काले सज्झाय-करणयंछाए पट्ठिए सिस्से । अवसउणो संजाओ, पडिसिद्धो सो य थेरेहिं ॥१४॥ पडिवालिय खणमेक्कं, पुणो पयट्टम्मि तम्मि अवसउणो । पुणरवि तहेव जाओ, ताहे थेरा विचिंतंति ॥१५॥ होयव्यमेत्थ केणाऽवि, कारणेणं वयं पिता जामो । इइ तेणं चिय समगं, गया उ सज्झायभूमीए . ॥१६॥ अह थेरमज्झयारे, पुव्यभवाऽतुच्छमच्छरवसेण । तं पेच्छिऊण भीमो, भुयगस्स वियंभिओ कोयो ॥९॥ तंडवियपयंडफणो, अरुणऽच्छिच्छोहपाडलियगयणो । दूरविदारियवयणो, पडुच्च तं धाविओ ताहे ॥९८॥ मोत्तूण सेसमुणिणो, महया वेगेण सिस्समऽणुसरिउं । बच्चतो सो कहमऽवि, पडिरुद्धो झति थेरेहिं ॥१९॥ नायं च तेहिं नृणं, को वि इमो साहुपच्चणीओ ति । विद्धंसियसामन्नो, एवं जो उव्वहइ वरं । ॥४३००॥ | एगम्मि य पत्थावे, समागओ तत्थ केवली भयवं । पुट्ठो वुत्तंतमिमं च, सो य थेरेहिं जतेणं ॥१॥ तो केवलिणा तेसिं, पुव्योइयसूरिवइयरो सव्यो । तदुवरि पओसगब्भो, निदेसिओ मूलओ चेव एवं निसामिऊणं, वेरग्गाऽऽवडियबुद्धिणो मुणिणो । जंपति अहो भीमं, पओसदुविलसियं जेण. ॥३॥ तारिससुयनाणगुणाऽऽयरो वि, धीमं पि मुणियकिच्चो वि । सूरी महाऽणुभावो, भीसणभुयगतणं पत्तो ॥४॥ कह पुण भयवं! वेरो-वसामणं तस्स संपयं होज्जा । केवलिणा पडिभणियं, गंतूणं तस्समीवम्मि ॥५॥ उवडसह पव्वभववेर-वडयरं कणह खामणं बहसो । एवं कयम्मि सो जाय-जाइसरणो विबज्झिहि ॥ चेच्या मच्छरमुप्पन्न-धम्मयंछो य अणसणं काउं । आराहिही पुणो वि हु, तक्कालुचियं सुधम्मविहिं ॥७॥ तो थेरेहिं तह च्चिय, सव्यं भुयगं पडुच्च पडिविहियं । कयअणसणाऽऽइकिच्यो, मरिऊण य सो सुरो जाओ॥८॥ इय वेरपरंपरपसम-णट्टया उत्तिमढकालम्मि । सविसेसा सिस्सगणस्स, खामणा सुहफला होइ ॥९॥ किंच खामितस्स इह गुणा, निस्सल्लया विणयदीवणा मग्गो । लाघवियं एगतं, अप्पडिबंथो य होइ कओ ॥१०॥ 1. निमिय = न्यस्त । 2. निहिणो = तुच्छः । 3. माम् । 121 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ ॥२९॥ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४३११-४३४७ तृतीय अनुशास्तिद्वारम् इय गुणमणिरोहणगिरिधराए, संवेगरंगसालाए । मरणरणजयपडागो-वलंभनिविग्घहेऊए ॥११॥ आराहणाए पडिदार-दसगमइयम्मि बीयदारम्मि । गणसंकमणे भणियं हि, खामणा बीयपडिदारं ॥१२॥ “तृतीय अनुशास्तिद्वारम्" - समयविहिविहियमुणिखामणो वि, न समाहिमुवलभइ सम्म । जीए विणा सा एत्तो, दंसिज्जइ किंपि अणुसट्ठी॥१३॥ अह जहविहीए एगग्गयाए, सव्येसु धम्मजोगेसु । उज्जममाणमडणुदिणं, यड्ढंतविसुद्धउच्छाहं ॥१४॥ अवगयसमयरहस्सं, जइजणजोग्गं समत्थमाऽऽयारं । सयम विकलं कुणंतं, सेसमुणीणं पि दंसेंतं ॥१५॥ नियपयपइट्ठियं पेच्छि-ऊण सूरिं गणं च नीसेसं । संजमरयं महप्पा, सो पुच्युवदंसिओ सूरी ॥१६॥ अणुवकयपराउणुग्गह-पसत्तचित्तो दढं महासत्तो । संवेगगब्भहियओ, अणुमोयइ उचियसमए य ॥१७॥ | वियरइ गुरुगुणनिवह-प्पबुढिपुट्ठीए धुयकुबुद्धिमलं । सुपसन्नमणो बुहमण-तुट्ठिपयपसमनिस्संदं ॥१८॥ सुसिणिद्धमऽसंदिद्धं, गंभीरं भवविरागसंजणणिं । अणहमऽमोहं अभिहेय-गाहिणिं कुग्गहग्गसणिं ॥१९॥ मणतुरयधम्मजटिं, महुरत्तणविजियवीरमहुलहिँ । अणुरंजियमंसऽटिं, गणिणो सगणस्स अणुसटिं हंभो देवाऽणुपिया!, धण्णा तुब्भे जयम्मि जेहिं इमं । पत्तं विसेसदुलहं, आरियदेसम्मि मणुयत्तं ॥२१॥ पणइयणसंकुलम्मि, कुलम्मि जम्मो पसत्थजाई य । तह रूवं च उदग्गं, बलमाऽऽरोग्गं सुचिरमाऽऽउ ॥२२॥ विन्नाणं सद्धम्म, बुद्धी सम्मत्तमडविकलं सीलं । न हि इय कुसलकलावो, कह वि अउन्नाण संपडइ ॥२३॥ एवं सामन्नेणं, सव्वाणुववूहणं करताणं । तो पढमं अणुसद्धिं, वियरइ, गणनायगस्स जहा |निज्जामओ-भवान्नव तारणसद्धम्मजाणवत्तम्मि । मोक्खपहसत्थवाहो, अन्नाणंडधाण चक्ख य ॥२५॥ अताणाणं ताणं, नाहोडनाहाण भव्यसत्ताणं । तेण तुमं सुपुरिस! गरुय-गच्छभारे निउत्तो, सि ॥२६॥ छत्तीसगुणधुराधरण-धीरधवलेहिं पुरिससीहेहिं । गोयमपामोक्नेहिं, जं अक्खयसोखमोक्खकए તોરણી सव्वुत्तमफलजणयं, सव्वुत्तमपयमिमं समुव्यूढं । तुमए वि तयं दढमसढ-बुद्धिणा धीर! धरणीयं ૨૮ धन्नाण निवेसिज्जइ, धन्ना गच्छंति पारमेयस्स । गंतुं इमस्स पारं, पारं दुक्खाण यच्वंति न इओ वि परं परमं, पयमऽत्थि जए, वि कालदोसाओ । योलीणेसु जिणेसुं, जमिणं पययणपयासकरं ॥३०॥ अओनाणाविणेयवग्गाऽणु-सारिसिरिजिणवराऽऽगमाऽनुगयं । अगिलाणीएडणुवजीवि-णा य विहिणा पदिणं पि ॥३१॥ कायव्वं वखाणं जेण परत्थुज्जएहिं धीरेहिं । आरोवियं तुममिम, नित्थरसि पयं गणहराणं ॥३२॥ जम्मजरमरणदारुण-दीहरभवगहणभमणरीणाणं । परमपयकप्पायव-सुहफलसंपत्तिमिच्छृणं ॥३३॥ एयाण भव्यसत्ताण, जं न भुवणे वि सुंदरो अन्नो । जिणभणियधम्मसत्थो-बएससरिसोऽत्थि उवयारो ॥३४॥ जं च परमत्थगोयर-संसयतमखंडणेक्कमायंडं । संवेगपसमजणगं, कुग्गहगहनिग्गहपहाणं ॥३५॥ सपरोवयारगरुयं, पसत्थतित्थयरनामनिम्मवणं । जिणभणियाऽऽगमयवाण-करणमिममऽणडणुगुणजणगं ॥३६॥ अगणियपरिस्समो ता, परेसिमुवयारकणदुल्ललिओ । सुंदर! दरिसेज्ज तुमं, सम्म रम्म अरिहथम्मं ॥३७॥ पडिलेहणाऽऽइदसभेय-भिन्नमुणिचक्कवालकिरियाए । खंतीमद्दवपमुहे, दसप्पयारे य जइधम्मे ॥३८॥ सत्तरसविहे तह संजमम्मि, सीले य सयलसुहफलए । किं बहुणा अन्नेसु वि, सभूमिगाउचियकिच्चेसु ॥३९॥ निच्चं पि अप्पमाओ, कायव्यो सव्वहा वि धीर! तुमे । उज्जमपरे पहुम्मि, सीसा वि समुज्जमंति जओ ॥४०॥ सत्तेसु सया मेती, पसंतचित्तेण तह तुमे किच्चा । सम्माणदाणवयणाऽऽ-इएहिं पीई पुण गुणिसु ॥४१॥ करणीयं कारुण्णं, दीणाडणाहंऽधबहिरदहिएस । अगणिगणिनिन्दगेसं. पावपसत्तेस य उदेहा ॥४२॥ वड्ढंतओ विहारो, कायव्यो सव्वहा तहा तुमए । हे सुंदर! दरिसणनाण-चरणगुणपयरिसनिमित्तं ॥४३॥ |संखित्ता वि हु मूले, जह यड्ढइ वित्थरेण वच्चंती । उदहिंडतेण वरनई, तह सीलगुणेहिं वड्ढाहि ॥४४॥ मज्जाररसियसरिसं, सुंदर! तं मा हु काहिसि विहारं । इहरा हारिहिसि धुवं, अप्पाणं चेव गच्छं च ॥४५॥ सीयावेइ विहारं, गिद्धो सुहसीलयाए जो मूढो । सो नवरं लिंगधारी, संजमसारेण निस्सारो ॥४६॥ जो रज्जदेसपुरगाम-गिहकुले चइय ते च्चिय 'ममाइ । सो नवर लिंगधारी, संजमसारेण निस्सारो ॥४७॥ 1. ममाइ = ममत्वं करोति । 122 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४३४८-४३८३ तृतीय अनुशास्तिद्वारम् निवइविहूणं खेत्तं, निवई या जत्थ दुट्ठओ होज्जा । पव्वज्जा य न लब्भइ, संजमघाओ य तं विज्जं ॥४८॥ वज्जेसु बज्जणिज्जं, नियपरपक्खे तहा विरोहं च । वायं असमाहिकर, विसङग्गिभूए कसाए य ॥४९॥ जो नियघरं पलितं, नेच्छइ विज्झाविउ पयत्तेण । सो कह सद्दहियव्यो, परघरदाहं पसामेलं ॥५०॥ | नाणम्मि दंसणम्मि य, चरणम्मि य तीसु समयसारेसु । चाएइ जो ठउं, गणमडप्पाणं गणहरो सो | पिंडं उवहिं सेज्जं. उग्गमउप्पायणेसणाऽऽईहिं । परिसद्धं गिन्हेज्जास, वच्छ! चारितसुद्धिकए ॥५२॥ एसा गणहरमेरा, आयारत्थाणवन्निया सुत्ते । आयारविरहिया जे, ते तमऽवस्सं विराति ॥५३॥ अप्परिसायी सम्म, समदंसी होज्ज सव्वकज्जेसु । संरक्खसु चक्खं पिव, सबालवुड्ढाऽऽउलं गच्छं ॥५४॥ कणगतुला सममज्झे, धरिया भरमऽविसमं जहा धरइ । तुल्लगुणपुत्तजुगलं, माया व समं जहा वहइ ॥५५॥ नियनयणजुयलियं या, अविसेसियमेव जह तुम वहसि । तह होज्ज तुल्लदिट्ठी, विचित्तचिते वि सीसगणे ॥५६॥ अइनिबिडमूलगुणकलिय-मिह जहा पाययं सुपत्ताणि । परिवारिंति समंता, विविहदिसामुहसमुत्थाणि ॥७॥ तह निबिडमूलगुणसं-गयं ति तुममऽयि इमे महामुणिणो । परिवारिहिंति नाणा-दिसासमुत्था वि सव्वत्तो ॥५८॥ अन्नं च मोक्खफलकंखि-भवियसउगाण सेवणिज्जो तं । होहिसि लद्धच्छाओ, तरु व्ब मुणिपत्तजोगेण ॥५९॥ ता एए वरमुणिणो, मणयं पि हु नाऽवमाणणीया ते । उक्खित्तभरुव्वहणे, परमसहाया तुह इमे जं ॥६०॥ जह भद्द-मंद-मिग-सं-किन्नतणभेयभिन्नहत्थीणं । विविहाण वि विंझगिरी, आहारो निच्चकालं पि ॥१॥ तह खत्तिय-माहण-वइस-सुद्द-कुलसंभवाण साहूण । सव्वाण वि आहारो, होज्ज तुमं संजमठियाणं ॥६२॥ तह जह सो च्चिय आसन्न-दूरवणवत्तिहत्थिजूहाणं । आधारभावमविसेस-मेव उव्वहइ सब्वाणं ॥६३॥ एवं तुम पि सुंदर!, दूरं सयणेयराऽऽइसंकप्पं । मोतुमिमाण मुणीणं, सव्वाण वि होज्ज आहारो ॥६४॥ सयणाणमऽसयणाण य, भूणप्पायाण सयणरहियाण । रोगिनिरक्खरकुक्खीण, बालजरजज्जराऽऽईण ॥६५॥ पेमड्ढपिया व पियामहोऽह-वाडणाहमंडयो वा वि । परमोवटुंभकरो, सव्वेसि मुणीण होज्ज तुमं ॥६६॥ तह इह दुसमागिम्हे, साहूणं धम्ममइपिवासाणं । परमपयपुरपहाडणुग-सुविहियचरियापवाए ठिओ ॥६ ॥ संपाडेज्जज्जाण वि, किच्चजलं देसणापणालीए । वज्जियसंसग्गीण वि, तुममंडतेवासिणीउ ति - ॥८॥ तह दुविहो आयरियो, इहलोए होइ तह य परलोए । इहलोए सारणिओ, परलोए फुडं भणंतो य ॥९॥ जीहाए वि लिहतो, न भद्दओ जत्थ सारणा णत्थि । दंडेण वि ता.तो, स भद्दओ सारणा जत्थ . ॥७०॥ जह सरणमुवगयाणं, जीवियववरोवणं कुणइ कोई । एवं सारणियाणं, सूरी वि असारओ गच्छे ॥७१॥ ता भो देवाऽणुपिया!, परलोए होज्ज सम्ममायऽऽरिओ । मा होज्ज सपरनासी, होउं इहलोइयाऽऽयरियो ॥७२॥ जं पाविऊण परमे, नाणाऽऽई दुहियतायणसमत्थे । भवभयभीयाण दढं, ताणं जो कुणइ सो धन्नो ॥३॥ तह मणयंइकाएहिं, करिंतु विप्पियसयाई तुह समणा । तेसु तुमं तु पियं चिय, करेज्ज मा विप्पियलयं पि॥७४॥ निग्गहिऊण अणक्खे, अकुणतो तह य एगपक्खितं । साहम्मिएसु समचित्त-याए सव्येसु बट्टेज्जा ॥५॥ सव्वजणबंधुभावाऽरिहं पि, एक्कस्स चेव पडिबद्धं । जो अप्पाणं कुणइ, तओ वि मूढो हु को अन्नो ॥६॥ अप्पाणं पि हु परिपीडिऊण, साहम्मियाण कज्जेसु । तह कह वि वट्टियव्यं, जहऽप्पतुल्लो भवसि तेसिं ॥७७॥ एवं च कीरमाणे, होही तुह भुवणभूसणा कित्ती । एत्तो चेव य चंदं, पडुच्च केणाऽवि जं भणियं ॥८॥ गयणंडगणपरिसक्कण-खंडणदुक्खाइं सहसु अणवरयं । न सुहेण हरिणलंछण!, कीरइ जयपायडो अप्पा ॥७९॥ तहाजे तह अन्नाणवसा. जे या पयइवियारदोसेण । मणसा वयसा कारण, परिभवं चेव जणयंति ते वि पहुणा वि तुमए, बहुं खमंतेण महुरवयणेहिं । खुद्दचरियाउ तत्तो, निवत्तणीया पयत्तेणं ॥८१॥ अविणीए सासितो, कारिमकोये वि मा हु मुंचेज्जा । भद्द! परिणामसुद्धिं, रहस्समेसा हि सव्वत्थ ૮૨ उप्पाइयपीडाण वि, परिणामवसेण गतिविसेसो जं । जहा गोव-खरय-सिद्ध-त्थयाण धीरं समासज्ज ॥८३॥ 1. वज्जं = वज्यं = त्याज्यम् । 2. भ्रूण = बालतुल्यानाम् । 3. अणक्खे = रोषादीन् । 123 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४३८४-४४१६ महिलासङ्गे दोषाः कन्ने कीलं छोढुं, गोवो वीरस्स पावियो नरयं । तं कड्ढिता पत्ता, सुरलोयं खरय-सिद्धत्था ॥८४॥ तहाअतितिक्खो खेयकरो, होहिसि परिभवपयं अइमिऊ य । परिवारम्मि वि सुंदर!, मज्झत्थो तेण होज्ज तुमं ॥८५॥ सपराऽवायनिमित्तं, संभवइ जहा 'असीअपरिवारो । एवं पहू वि ता तयऽणु-वत्तणाए जएज्ज तुमं ॥८६॥ अणुवत्तणाए सीसा, पायं पाविति जोग्गयं परमं । रयणं पि गुणुक्करिसं, पावइ परिकम्मणगुणेण ॥८॥ अन्नोन्नविरुद्धाण वि, जलजलणाऽमयविसाऽऽइयाण जहा । जोगे वि महाजलही, अवियारो चेव पयईए ॥८८॥ इय बज्झकारणवसु-च्छलंतविविहंऽतरंगभावेहिं । सुंदर! तुम पि निच्वं, अविगियरूवो च्चिय हवेज्जा ॥८९॥ को नाम भणिइकुसलो वि, एत्थ अच्चडब्भुयप्पभावम्मि । गणहरपए पड़पयं, सब्बुवएसे खमो वोत्तुं ॥१०॥ परमेत्तियं भणामो, जायइ जेणुन्नई पवयणस्स । तं तं विचिंतिऊणं, तुमए सयमेव कायव्यं ॥१॥ एवमऽणुसासिउणं, पढम गणनायगं विहाणेणं । अह सेससाहुणो सो, अणुसासइ सुयविहीए जहा ॥२॥ हंभो देवाऽणुपिया!, पियाऽपिएसुं समत्थविसएसुं । होज्जाह मा हु तुब्भे, क्या वि रागप्पओसपरा ९३॥ होज्जाह अप्पमत्ता, सज्झायउज्झयणझाणजोगेसु । अन्नेसु वि समणजणो-चिएसु किच्चेसु निच्चरया ॥१४॥ जहवाइणो तहाका-रिणो वि होज्जाह मा य होज्जाह । निग्गंथे पावयणे, परिसिढिलमणा मणागं पि ॥१५॥ कुणह पमायं माऽऽवस्सएसु, संजमतयोविहाणेसु । निस्सारे माणुस्से, दुलहं बोहं वियाणिता ॥१६॥ समिया पंचसु समिईसु, सया वि जिणवयणअणुगयमईया । तिहिं गारवेहिं रहिया, होह विणिग्गहियदंडाय ॥९॥ सन्नाउ कसाए वि हु, अट्ट रोदं च परिहरह निच्वं । दुट्ठाणि इंदियाणि य, सम्म सव्वऽप्पणा जिणह ॥९८॥ जह सन्नद्धो पग्गहिय-चावदंडो भडो पलायंतो । निंदिज्जइ तह इंदिय-कसायवसमडणुगओ साहू ९९॥ धन्ना य साहुणो ते, जे विसयवसाउणुगम्मि लोगम्मि । विहरंति विगयसंगा, अकलंका नाणचरणेसु ॥४४००॥ जे य विमुक्कविरोहा अव्यामोहा अभिन्नमुहसोहा । अगलियगुणसंदोहा, जयन्ति ते पसरियजसोहा ॥१॥ सीसाऽणुसासणे वि हु, पारद्धे अह इमं तुमं पि खणं । वन्निज्जतं जइपहु!, पहिट्ठचित्तो निसामेहि ॥२॥ "महिलासङ्गे दोषाः" - वज्जेह अप्पमत्ता! अज्जा-संसग्गिमडग्गिविससरिसं । अज्जाडणुचरो साहू, पायइ वयणिज्जमऽचिरेण ॥३॥ थेरस्स तवस्सिस्स वि, सुबहुसुयस्स वि पमाणभूयस्स । अज्जासंसग्गीए, निवडइ वयणिज्जदढवज्जं ॥४॥ किं पुण तरुणो अबहुस्सुओ य, अविगिट्ठतवपसत्तो य । सद्दाऽऽइगुणपसत्तो, न लहइ जणजपणं लोए ॥५॥ सव्वत्तो वि विमुक्को, साहू सव्वत्थ होइ अप्पवसो । सो चेव होड़ अज्जाओ, अणुचरंतो अणऽप्पयसो ॥६॥ साहुस्स नत्थि लोए, अज्जासरिसी हु बंधणे उवमा । लद्धपसराओ जं ताओ, भावसंमग्गखलणीओ ॥७॥ जइ वि सयं थिरचित्तो, तहा वि संसग्गिलद्धपसराए । अग्गिसमीचे घयमिव, मणं विलीएज्ज अज्जाए ॥८॥ एमेव सेसमहिला-वग्गेण वि दूरओ पयत्तेण । बज्जेज्जह संसग्गिं, इंदियदमदारुदहणऽग्गिं ॥९॥ महिला कुलं सवंसं, पई सुयं मायरं च पियरं च । विसयंऽधा अगणंती, दुक्खसमुद्दम्मि पाडेइ ॥१०॥ माणुन्नयस्स पुरिसदुमस्स, नीयो वि आरुहइ सीसं । महिलानिस्सेणीए, गुणगणफलकलियसाहस्स ॥११॥ माणुन्नया वि पुरिसा, ओमंथिज्जति दुट्ठमहिलाहिं । जह अंकुसेण करिणो, निसियाविजंति बलिणो वि ॥१२॥ सुव्यंति य महिलऽत्थे, लोगे जुज्झाई बहुपयाराई । भयजणयाई जणाणं, भारहरामायणाऽऽईसु नीयंगमाहिं सुपओहराहिं, उप्पित्थमंथरगईहिं । महिलाहिं निन्नयाहिं य, गिरि व्य गरुया वि भिज्जंति ॥१४॥ सुट्ठ वि जियासु सुट्ठ वि पियासु, सुट्ट वि परुढपेमासु । महिलासु भुयंगीसु य, वीसंभं नाम को कुणइ ॥१५॥ वीसंभनिब्भरं पि हु, उवयारपरं परूढपणयं पि । कयविप्पियं पियं झत्ति, निंति निहणं हयाऽऽसाओ ॥१६॥ सीमन्तिणीण सीम, दोसाण लहंति नेय विउसा वि । जं गुरुदोसाण जए, ताओ च्चिय होंति सीमाओ ॥१७॥ रमणीयदंसणाओ, सूमालंडगीओ गुणनिबद्धाओ । नवमालइमाला इव, हरंति हिययं महिलियाओ ॥१८॥ किंतु महिलाण तासिं, दंसणसुंदेरजणियमोहाणं । आलिंगणमऽचिरा देइ, वज्जमालाण व विणासं ॥१९॥ 1. असीअ = असित = अनियन्त्रित । . 124 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४४२०-४४५४ सुकुमारिकादृष्टान्तः - सिंहगुफावासीमुनिदृष्टान्तः "सुकुमारिकादृष्टान्तः” ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२६॥ ॥३०॥ | निक्कवडपेमपरवसमणो वि, सोमालियाए नरनाहो । पंगुलहेउ छूढो, नईए गंगाऽभिहाणाए तहाहिनयरम्मि वसन्तपुरे, जियसत्तुनराऽहियो जयपसिद्धो । सोमालियाऽभिहाणा, भज्जा निप्पडिमरूवा से दढमऽणुरागपराजिय-हियओ सो तीए सद्धिमऽणवरयं । परिचत्तरज्जकज्जो, कीलंतो बोलइ कालं रज्जं च विसीयंतं, दठ्ठे मंतीहिं तीए सह सहसा । निच्छूढो सो पुत्तो य, तस्स रज्जम्मि अहिसितो जियसत्तू पुण मग्गे, गच्छंतो निवडिओ अडविमज्झे । तन्हाऽऽउराए देवीए मग्गिओ पाणियं पाउ | ओसहिवस- अविणस्सिर - भुयरुहिरं पाइया य नरवइणा । मा बीहेज्ज ति विचिं- तिरेण अच्छीणि ठड़ऊण ॥२५॥ पुणरऽवि छुहाऽभिभुया, ऊरुं छेत्तुं असाविया मंसं । संरोहिणीए ऊरू, पुणन्नयो तक्खणं च कओ पत्ताणि दूरनयरे, तस्साऽऽभरणेहिं नरवई ताहे । नीसेसकलाकुसलो, वाणिज्जं काउमाऽऽढत्तो दिन्नो य तीए बीयो, पंगू णेणं सुनिब्वियारो ति । गीयच्छलियकहाऽऽईहिं, नवरि तेण ' ऽज्जिया देवी जाया तदेगचित्ता, भत्तारोवरि गया पओसं च । अवरम्मि अवसरम्मि, उज्जाणगओ सुवीसत्थो जियसतू पाइत्ता, पभूयतरमइरमऽमरसरियाए । पक्खित्तो किर तीए, तं पंगुलमऽभिसरंतीए | इय निययमंससोणिय - पणामणेणं पि पीणियंडगीओ । विस्सुमरिओवयाराओ, निंति निहणं हयाऽऽसाओ ॥३१॥ पाउसकालनईउ व्य, जाओ निच्चं पि कलुसहिययाओ । धणहरणकयमईओ, चोरो व्व सकज्जगरुयाओ ॥३२॥ वग्धि व्व घोररूवाओ, ताओ संझ व्य चवलरागाओ । मयभिंभलाओ णिच्चं, गयाऽऽवलीओ व्य महिलाओ ॥३३॥ अलिएहिं हसियभणिएहिं, अलियरुन्नेहिं अलियसवहेहिं । विवसं कुणंति चित्तं, नरस्स सुवियक्खणस्साऽवि ॥ ३४ ॥ महिला पुरिसं वयणेहिं, हरइ हियएण हणइ निक्करुणा । अमयमइया व वाया, विसमयमिय होइ हिययं से || ३५ ॥ 2 सोयसरि दुरियदरी, कवडकुडी महिलिया किलेसकरी । वइरविरोयणअरणी, दुक्खखणी सोक्खपडिवक्खां ||३६|| एत्तो च्चिय मायरमऽवि, ससं पि धूयं पि नेव एगंते भासिंति महासत्ता, मा सवियारं मणो होहि ॥३७॥ अविहियपरियम्मो सम्मं, को नाम नामिउं तरइ । यम्महसवरसरोहे, दिट्ठिच्छोहे मयच्छीणं घणमालाओ व समुन्नमंत - सुपओहराओ वदंति । मोहविसं महिलाओ, गोणसगरलं व पुरिसस्स परिहरह तहा तासिं, दिट्ठि दिट्ठिविसस्स व अहिस्स । पायं तीए निवाओ, चरितपाणे हणइ जम्हा महिलासंसग्गीए, अग्गीए घयं व अप्पसारस्स । मयणं व मणो मुणिणो वि, हंत सिग्धं चिय विलाइ ॥ ४१ ॥ जड़ वि परिचत्तसंगो, तयतणुयंऽगो तहा वि परिवडइ । महिलासंसग्गीए, कोसाभवणुसिओ व्य रिसी “सिंहगुफावासीमुनिदृष्टान्तः” ાળા ॥३९॥ ॥૪॥ ॥४२॥ ॥२०॥ सिंगारतरंगाए, विलासवेलाए जोव्वणजलाए । पहसियफेणाए मुणी, नारिनईए न 4 बुब्भन्ति विसयजलं मोहकलं, विलासबिब्बोयजलयराऽऽइन्नं । मयमयरं उत्तिन्ना, तारुन्नमहऽन्नवं धीरा पासो व्व बंधिउ जे, छेतुं महिला असि व्व पुरिसस्स । सल्लं व सल्लिउं जे विमोहिउं इंदजालं व | फालेउं करवतं व, होइ सूलं व महिलिया भेत्तुं । पुरिसस्स खुप्पिउं क- हमो व्य मच्चु व्व मरिउ जे | खेलाऽऽलीढा तुच्छ व्य, मच्छिया दुक्करं विमोएउ । इत्थीसंसग्गीओ, अप्पा णो पुरिसमेत्तेण सव्वत्थ इत्थियग्गम्मि, अप्पमत्तो सया अवीसत्थो । नित्थरइ बंभचेरं, तव्विवरीओ न नित्थरड़ महिलाणं जे दोसा, ते पुरिसाणं पि होति नीयाणं । तत्तो अहिगतरा वा, तेसिं बलसत्तिमंताणं 1. अज्जिया = वशीकृता । 2. सोयसरि = शोकसरित् । 3. साऽऽयत्तो = स्वायत्तः = स्वाधीनः । 4. वुब्भन्ति = उह्यन्ते 125 રા ॥२८॥ ॥२९॥ ૫૪૫ | गुरुविहियथूलभद्दोव - यूहणुप्पन्नमच्छरुच्छाहो । किर उवकोसघरम्मि, वासावासम्मि वट्टन्तो संभूयविजयसिस्सो, दुक्करतवसत्तिसमियमयराओ । सीलोवरक्खणट्ठा, उयकोसाए, सुवेसाए ॥४४॥ | सवियारहसियभासिय- चंक्रमणऽद्धऽच्छीपेच्छियाऽऽइहिं । तह विहिओ लीलाए, साऽऽयत्तो जह लहुं जाओ ॥ ४५ ॥ | अप्पुव्यसाहुसयसहस- मुल्लकंबलगदाइनरवइणो । पासम्मि पेसियो रयण-कंबलस्सोवलंभट्ठा ॥४६॥ | इय संजमजीवियहरण- बद्धलक्खाण विहियदुक्खाण । परमत्थचिंतणाए, अरीण नारीण न विसेसो ॥४७॥ तहा ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५४॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४४५५-४४८८ प्रवर्त्तिन्यैः अनुशास्तिः - साध्वीवर्गानुशास्तिः ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५८॥ ॥५९॥ ता सीलरक्खगाणं, पुरिसाणं निंदियाउ महिलाउ । सीलं रक्खंताणं, महिलाणं निंदिया पुरिसा किं पुण गुणकलियाओ, महिलाओ दूरवित्थयजसाओ । तित्थयरचक्किहलहर - गणहरसप्पुरिसजणणीओ सीलवईओ सुव्वंति, महीयले पत्तपाडिहेराओ । नरलोयदेवयाओ, चरमसरीराओ पुज्जाओ ओहेण न बूढाओ, जलंतघोरऽग्गिणा न दड्ढाओ । सीहेहिं सावएहिं य, परिहरियाओ अपावाओ ता सव्यहा न एयं वोत्तुं जुत्तं जहा महिलियाओ । अविसेसेणं होंति, नियमेणं सीलवियलाओ किंतु भये मोहवसा, जीवो सव्यो वि चेव दुस्सीलो । नवरं सो महिलाणं, पाएण जमुक्कडो होइ तेणेयं पन्नवणं, पडुच्च युच्वंति थीकया दोसा । ते य परिचिंतयंतो, विसएसु विरज्जए पुरिसो ते सुकयसालिणो च्चिय, नियंविणीणं वसंति जे हियए । ताओ न जाण ते पुण, होंति सुराणं पि नमणिज्जा ॥ ६२ ॥ इय भाविऊण भावेण सव्वहा अत्तणो हियप्रत्थीहिं । एत्थइत्थे अच्चत्थं, अपमत्तेहिं भवेयव्यं एमाऽऽइणा कमेणं, सीसे अणुसासिऊण मुणिवसभो । संपइ पवत्तिणि पि हु, अणुसासड़ समयनीईए ॥ ६४ ॥ “प्रवर्त्तिन्यैः अनुशास्तिः” ॥६०॥ ॥६९॥ કો जड़ वि तुमं कुसल च्चिय, सव्वत्थ वि तहवि अम्ह अहिगारो । सिक्खादाणे तेणं, देवाऽणुपिए! पियं भणिमो ॥ ६५॥ संपत्ता इय पयविं, समत्थगुणसाहणम्मि गरुययरीं । ता तीए उत्तरोत्तर - वुड्ढिकए कीरउ पयत्तो अविय Fl “साध्वीवर्गानुशास्तिः” ॥६७॥ सुत्तऽत्थोभयरूवे, नाणे 'नाणुतकिच्चयग्गेसु । सतिं अइक्कमित्ता वि, उज्जमो किर तुमे किच्चो | पावाओ वि पवित्ती, सुभम्मि परिणामसुंदरा पायं । किं पुण संवेगाओ, ता संवेगे य जइयव्यं सुचिरं पि तवी तवियं, चिन्नं चरणं सुयं च बहु पढियं । संवेगरसेण विणा, विहलं जं ता तदुवएसो ॥६९॥ तहाहि ॥६८॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ सन्नाणाऽऽइगुणेसु, पवत्तणेणं इमाण समणीणं । सच्चं पवत्तिणि च्चिय, जह होसि तहा जएज्ज तुमं ॥७०॥ | सोहग्गनट्टरूवाऽऽइ - विविहविन्नाणरागरत्ताओ । लीयंति लोयदिट्ठीओ, रंगगयनट्टियाए जहा | सन्नाणपमुहबहुविह- सद्धम्मगुणाऽणुरागरताओ । नाणादेससमुब्भव -विसालकुलसंपसूयाओ देवाऽणुपिए! पिइमाइणो वि, मोत्तूण तह इमाओ वि । पावियपवत्तिणिपय- रम्माए तुह समल्लीणा तम्हा जह स च्चिय नच्चणीह, संजससदिट्ठिदाणेण । भणियगुणपयडणेण य, पेच्छगदिट्ठीओ पीणेड़ संजसदिट्ठिपसाएण, धम्मगुणदाणओ य तह निच्चं । सम्मं तुमं पि पीणेज्ज, अज्जियाओ धुवमिमाओ ॥७५॥ निययगुणेहिं महग्घं, सियवियासं ससिकलं जह कलाओ । कमसो समल्लियंति, पयइहिमहारथवलाओ ॥७६॥ तह तुह वि तहाविहनिय - गुणेहिं अग्घाऽरिहाए लोगम्मि । एयाउ समल्लीणा पयइसुधयलुज्जलगुणाओ ॥७७॥ जह ताहिं तीए वुड्ढी, मूलाऽऽधारो उ ताण सा जह य । न घडड़ ठिइ वि जह वा, तयं विणा ताण थेवं पि ॥ ७८ ॥ तह तुह इमाहिं बुड्ढी, मूलाऽऽधारो तुमं पुण इमाण । सज्जणसलाहणिज्जा, ठिई वि न विणा तुममिमासिं ॥७९॥ तहा ॥८२॥ ॥८३॥ ॥८४॥ सा चेव चंदलेहा, कलाहिं रहिया विरायए न तहा । जह तह ताओ वि न तं विणा तहा जह विरायंति ॥८०॥ एवं तुमं पि एत्थं, इमाहि रहिया विरायसे न तहा । एयाओ वि य न तहा, राइस्संति विणा तुमए ॥ ८१ ॥ तम्हा निव्वाणपसाहगाण, जोगाण साहणविहीए । सम्मं सहाइणीए, होयव्यं सइ इमाण तए तह वज्जसिंखला इव, मंजूसा इव सुनिबिडवाडी व । पायारो व्य हवेज्जसु तुममऽज्जाणं पयत्तेण अन्नं च विद्दुमलया, मुत्तासुत्तीउ रयणरासीउ । अइमणहराउ धारइ, न केवलाओ जलहिवेला किंतु जलसिप्पिणीउ, भेरीओ वराडियाऽऽइयाओ वि । जलजोणित्तसमत्ता, असुंदराओ वि धारेइ एवं राईसरसेट्ठि - पमुहपुत्तीओ पउरसयणाओ । बहुपढियपंडियाओ, सवग्गसयणीओ जाओ य मा ताओ चेव तुमं, धारेज्जसु किंतु तदियराओ वि । संजमभरवहणगुणेण, जेण सव्वाउ तुल्लाओ अवि नाम जलहिवेला, ताओ धरिडं कयाइ उज्झइ वि । निच्चं पि तुमं तु धरेज्ज, चेव एयाओ धन्नाओ ॥८८॥ 1. नाणुत्त = ज्ञानोक्त । 2. जलयोनित्वसमत्वात् । 3. स्ववर्गश्रयिण्यः । ॥८५॥ ॥૬॥ ॥८७॥ 126 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४५६७-४५२३ वैयावृत्तस्य माहात्म्यम् ॥८९॥ ॥९०॥ अन्नं च दुत्थियाणं, दीणाणमऽणक्खराण विगलाणं । ऊणहिययाण निब्बंध-वाण तह लद्धिरहियाणं | पयइनिराऽऽदेयाणं, विन्नाणविवज्जियाण अमुहाणं । असहायाण जरापरि - गयाण निब्बुद्धियाणं च | भग्गविलुग्गंऽगीण वि, विसमाऽवत्थगय 'खंढखरडाणं । इयरूवाण वि संजम - गुणेक्करसियाण समणीणं ॥९१॥ गुरुणी व अंगपडिचारिग व्य, धावी व पियवयंसी व । होज्ज भगिणी व जणणी व, अहव पिइमाइमाया व ॥ ९२ ॥ | तह दढफलियमहादुम-साह व्य तुमं पि उचियगुणसहला । समणीजणसउणिसाहा-रणा दढं होज्ज किं बहुणा ॥ ९३ ॥ एवमऽणुसासिउणं, पवत्तिणि अज्जियाउ अणुसासे । जह एसो तुम्ह गुरू, बंधू व पिया व माया व ॥ ९४ ॥ एए वि महामुणिणो, सहोयरा जेट्टभायरो व सया । तुम्हं देवाणुपियाण, परमवच्छल्लतल्लिच्छा ॥९५॥ ता गुरुणो मुणिणो वि य, मणसा वयसा तहेव कारणं । न य पडिकूलेयव्या, अवि य सुबहुमन्नियव्वा उ ॥ ९६ ॥ एवं पवित्तिणी वि हु, अखलियतव्ययणकरणओ चेव । सम्ममऽणुवत्तणिज्जा, न कोवणिज्जा मणागं पि ॥९७॥ कुविया वि कहवि तुम्हं, सदोसपडिवत्तिपुव्यमऽणुवेलं । खामेयव्या एसा, मिगावईए व्य नियगुरुणी ॥९८॥ एसा सिवपुरगमणे, सुपसत्था सत्थवाहिणी जं भे । एसा पमायपरचक्क - पेल्लणे पहु (ड) यपडिसेणा ॥ ९९ ॥ | सिक्खालक्खण अक्खंड - खीरधारापयाणधेणुसमा । अन्नाणंऽधाण तहा, सत्ताणंऽजणसलागाओ ॥४५००॥ मालइकलिया इव महुयरीण, नलिणी व रायहंसीण । वणराई इव सउणीण, सेवणीया इमा तुम्ह ॥१॥ | तह केलिकलहविगहा - पमायपरचक्कम ऽक्कमित्ताणं । परलोगकिच्चनिच्चु - ज्जमाहिं जम्मो गमेयव्यो | जेट्ठकणिट्ठसहोयर-भगिणिगणेण व परोप्परं सम्मं । संजमजोगपसाहण - सहाइणीहि य भवियव्यं तह निहुयं चंक्रमणं, निहुयं हसणं पयंपियं निहुयं । सव्वं पि चेट्ठियं निहुय - महव तुम्हेहिं कायव्यं बाहिं उवस्सयाओ, पयं पि नेगागिणीहिं दायव्यं । बुड्ढज्जियाजुयाहिं य, जिणजइगेहेसु गंतव्यं एक्केक्कवग्गमेयं, अणुसासिताण ताणमेव पुरो । सव्वेसिं साहारण - मऽह सूरी देइ अणुसट्ठि भत्तीइ य सत्तीइ य, वेयावच्चुज्जया सया होह । आणत्ति निरय ति य, सबालबुड्ढाऽऽउले गच्छे सज्झायतवाऽऽईणं च, जेणं तं चिय पहाणयं बेंति । सव्यं किर पडिवाई, वेयायच्चं अपडिवाई भरहो बाहुबली वि य, दसारकुलनंदणो य वसुदेवो । वेयावच्चाऽऽहरणा, तम्हा उपडितप्पह जई गं तहाहि" वैयावृत्तस्य माहात्म्यम्" m | रणसवडम्मुहपडिभड - भिडणुब्भडरायचक्कमऽक्कमिउं । छक्खंडखोणिमंडल - साहणअप्पडिहयपयायं | चउसट्ठिसहस्ससुरूच - पवररामाऽभिराममऽच्चत्थं । पउरकरितुरयपाइक्क - संकुलं नवनिहिसणाहं |4 ईसि सवियासलोयण- पलोयणाओ नमंतसामंतं । निययपओयणनिरवेक्ख - जक्खकीरंतसांणिज्यं जं चक्कयट्टिरज्जं, भरहो भरहम्मि पाविओ पुव्विं । तं पुव्यजम्मजइजण - वेयावच्चस्स फलमाऽऽहु जं सो वि महप्पा पबल-भुयबलुव्यूढधरणिभारो वि । पउररणंऽगणपविढत्त-सरयससिनिम्मलजसो वि | पडिवक्खसिरविदारण- निक्कियविक्कंतचक्कपाणी वि । मन्ने किमेस चक्कि त्ति, रोविओ संसयतुलाए दिट्ठीजुद्धाऽऽईहिं, निज्जिणिओ तियसलोयपच्चक्खं । लीलाए बाहुबलिणा, पयंडभूयदंडबलनिहिणा तं पि सुसाहुजणोचिय- वेयायच्चस्स विलसियमऽसेसं । पवरोत्तरोत्तरफलु -प्यायणकप्पहुमं बेंति जं च नियरूवचंगिम-निज्जियजयपयडदप्पकंदप्पा | अहमहमिगाए मिगलो - यणाहिं विज्जाहरसुयाहिं उत्तुंगथणत्थलसालिणीहिं, नवजोव्वणाऽभिरामाहिं । छणरयणीससहरवयणि - याहिं मयणाऽऽउरंऽगीहिं जह तह परिभमिरो वि हु, दसारकुलकुमुयकोमुइमयंको । वसुदेवो तह तइया, उब्बूढो गाढपणयाहिं तं पि सुतवस्सिसिक्खग - बालगिलाणाऽऽइगोयरस्स फलं । निज्जियचिंतामणिणो, वेयावच्चस्स नीसेसं इय भो महाऽणुभावा!, वेयावच्चं अचिंतमाहप्पं । जो न करेइ समत्थो, संतो तं जाण सुहविमुहं तित्थयराऽऽणाकोवो, सुयधम्मविराहणा अणाऽऽयारो । अप्पा परो पवयणं, तेणं दूरुज्झिया होंति 1. खंढ = कुब्ज (अनुमानात्) खरडाणं = हीनजातीनाम् । 2. निज्जर पाठां० अथवा आज्ञप्तिनिरताः । 3. पडितप्पह जई णं = प्रतितर्पयत यतीन् ननु । 4. ईसि = ईषत् । 127 ॥४॥ 11411 ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ Kn ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४५२४-४५५६ संसर्गजन्यगुणदोषणवर्णनम् ___ "संसर्गजन्यगुणदोषवर्णनम्" - किं च अहंतगुणकए, हुंतगुणाणं तु बुढिकरणाय । सुयणेहिं चेव सद्धिं, सया वि संगं रेज्जाह ॥२४॥ हतगणनासणभया, अहुंतगुणदूरतरगमभएणं । दोसल्लियणभएण य ॥२५॥ भाविज्जड़ जइ दव्वेण, नवघडो सुरहिणेयरेणं वा । ता गुणदोसेहिं नरो, भाविज्जड़ किं न परसंगा ॥२६॥ दुज्जणसंसग्गीए, पायं सुयणो वि नियगुणं चयइ । संसग्गीए अग्गिस्स, जह जलं सीयलत्तगुणं ॥२७॥ दुज्जणसंसग्गीए, संकिज्जड़ सज्जणो वि दोसेहिं । चंडालगिहे दुद्धं, पिबंतओ बंभणो व्व जणे ॥२८॥ वेरग्गवं पि दुज्जण-जणसंसग्गीए भाविओ पायं । न रमइ सज्जणमझे, रमइ य दुज्जणजणस्संडतो ॥२९॥ कुसुममडगंधं पि जहा, देवयसेस ति कीरए सीसे । तह सुयणमज्झवासी, पूइज्जइ दुज्जणो वि जणो ॥३०॥ अन्नं पि तहा वत्थु, जं जं चरणगुणनासणं कुणइ । तं तं परिहरह तओ, होहिह दढसंजमा तुभे ॥३१॥ निच्चं पासत्थाऽऽईहिं, संथयं पि य पयत्तओ चयह । पुरिसो संसग्गिवसेण, 'तम्मओ होइ अचिरेण ॥३२॥ तहाहिसंविग्गस्स वि तस्संगईए, पीई ततो वि वीसंभो । सइ वीसंभे य रई, होइ रईए य तम्मयया ॥३३॥ तत्तो लज्जाविगमो, पवत्तणं निव्विसंकमऽसुहडत्थे । पियधम्मो वि हु एवं, परिभस्सइ संजमाओ लहु ॥३४॥ संविग्गाण उ मज्झे, अप्पियधम्मो वि कायरो वि नरो । उज्जमइ चरणकरणे, भावण-भय-माण-लज्जाहिं ॥३५॥ संविग्गो पुण तस्संगमेण, सविसेसगुणजुओ नियमा । जायइ जह कप्यूरो, सुरभितरो मिगमए मिलितो ॥३६॥ पासत्थसयसहस्साओ, हंदि एक्को वि वरमिह सुसीलो । जं संसियाण दंसण-नाणचरित्ताणि वड्ढंति ॥३७॥ वरमिह कुसीलक्यपूयणाओ, संजयकओऽवमाणो वि । पढमाउ सीलविगमो, संपज्जड़ न उण इयराओ ॥३८॥ ह. कसीलसंसग्गिमेहबद्दलए । वंतरविसं व कप्पड, पणो वि मणिणो पमायविसं ॥३९॥ तम्हा पियदढधम्महिं, वज्जभीरुहिं कुणह संसग्गिं । उज्जमइ मंदधम्मो वि, तप्पभावा जओ भणियं ॥४०॥ "नवधम्मस्स पाएणं, धम्मे न रमइ मई । वहए सो वि संजुत्तो, गोरिवाऽविधुरं धुरं" ॥४१॥ संवासं सीलगुणड्ढएहिं, जो संकहं वियड्ढेहिं । पीइं अलुद्धबुद्धीहिं, कुणइ सो कुणइ अप्पहियं ॥४२॥ आसयवसेण एवं, पुरिसा दोसं गुणं च पावेति । तम्हा पसत्थगुणमेय, आसयं अल्लिएज्जाह ॥४३॥ कन्नकडुयं पि पत्थं, परोप्परं वागरेज्ज अबुट्टा । कडुओसहं व होही, परिणामे सुंदरं तं खु ૪૪ सगणे व परगणे वा, परपरिवायं च मा करेज्जाह । अच्चाऽऽसायणविरया, होह सया पावभीरू य ॥४५॥ अन्नं च सव्वहा तह, परिकामह अप्पयं पयत्तेण । जह तुम्ह गुणपसूया, किती सव्वत्थ वित्थरइ ॥४६॥ | एए निम्मलसीला, बहुसुया नयपरा अणुयतावी । करणगुणसुट्ठिय ति य, धन्नाणं घोसणा भमइ ॥४७॥ | एसो य मए तुम्हं, मग्गमडजाणाण मग्गदेसरओ । चक्खू व अचक्खूणं, सुवाहिविहुराण वेज्जो व्य ॥४८॥ असहायाण सहाओ, भवगत्तगयाण हत्थदाया य । दिन्नो गुरू गुणगुरू, अहं च परिमोक्कलो इन्हेिं ॥४९॥ एयस्स य पयमूलं, मोतूण क्याइ कत्थई तुम्ह । गंतुं जुत्तं न वरं, वयणेण इमस्स जड़ कहवि ॥५०॥ एयाउडएसगएहि वि, कहिंचि पुन्नागरो गुरू एस । भावेण न मोत्तव्यो, आणानिद्देसनिरएहिं ॥५१॥ सामी भडेहिं अंधेहिं, कड्ढओ पंथिएहिं सत्थाहो । जह न विमुच्चइ एसो, तह तुम्भेहि वि न मोत्तव्यो ॥५२॥ एयम्मि सारणावार-णाऽऽइदाणे वि नेव कवियव्यं । को हि सकन्नो कोवं, करेज्ज हियकारिणि जणम्मि॥५३॥ कडुयं पि कहवि भणियं, सप्पणयं तमडमयं व मन्नंता । मा कुलवह व्य तुम्हे, विणयं एयम्मि छड्डिहिह ॥५४॥ गुरुछंदाउडणंदरुई, गुरुदिट्ठिनिवायनियमियपयारा । गुरुरुइयविणयवेसा, कुलवहुसरिसा अओ सीसा ॥५५॥ |भाविगुणाऽवेक्वाए, कयगेणियरेण या वि कोवेणं । आबद्धभीमभिउडी-भीसणयरभालबद्धो वि ॥५६॥ होऊण कह वि तुम्हे, जइ वि इमो कज्जकारणविहन्न । निब्भच्छड़ निच्छुभइ य, तह वि इमो चेव सिंगारो ॥५७॥ अम्हं ति मन्नमाणा, सुनिउणतरविणयजोगओ तुम्हे । अमुमेव पसाएज्जह, एवं हिययम्मि भाता ૧૮ सब्भावगब्भबहुविह-तहाविहप्पहुपसायणप्पवणे । पुणरुत्तमडवंझफले, विविहोवाए नियमणम्मि ॥५९॥ 1. तम्मओ = तन्मयः = तद्रूपः । 2. अवद्यभीरुभिः । 128 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४५६०-४५६२ शिष्यस्य गुरुं प्रतिकृतज्ञता - परगणसंक्रमणाय अनुमतियाचनम् चिंतिताणं थी जीविएणं, भिव्याण ताण जाण इहं । आकंपियपासजणं, खणं पि पहुणो न कुप्पंति ॥६०॥ तहाजह सागरम्मि मीणा, संखोभं सागरस्स असहंता । निति तओ सुहकामी, निग्गयमेत्ता विणस्संति ॥१॥ एवं गच्छसमुद्दे, तुब्भे गुरुसारणाऽऽइवीइहया । मा सुहकामी नीहिह, इहरा मीण व्य नासिहिह ॥२॥ एसो तुम्हाण पहू, पभूयगुणरयणसायरो धीरो । नेयो एस महप्पा, तुम्ह भवाउडविनिवडियाणं ॥३॥ ओमो समराइणिओ, अप्पयरसुओऽहव ति धीरमिमं । परिभविहिह मा तुब्भे, गणि ति इन्हेिं दढं पुज्जो ॥६४॥ एयस्स नाणनिहिणो, ययणं न कयाइ लंघणीयं भे । वायाए तं पडिच्छिय, कायव्यं कम्मणा सम्मं ॥५॥ जम्हा इमस्स उवमा, न विज्जए बंधुणा न पिउणा वि । न य जणणीए वि तहा, निक्कारणवच्छलस्स जए ॥६६॥ तम्हा एसो च्चिय निच्च-मेव धम्मक्कबद्धबुद्धीहिं । आमरणंडतं ताणं, सरणं च पवज्जियव्यो ति ॥७॥ मोक्खऽत्थिणो हि तुब्भे, न य तदुवाओ गुरुं विणा अन्नो । ता गुणनिही इमो च्चिय, सेवेयव्यो हु तुम्हाणं ॥६८॥ अन्नं च इमस्स गिरा, अन्नोन्नुवगारिभावओ सम्मं । तुम्हेहिं पट्टियव्वं, विवज्जए जं गुणो नत्थि ॥९॥ तहा |तुम्बं विणा न अरया, न पुप्फपत्ताई जह विणा विंटं । बंधति चयं तुब्भे वि, एवमेयं विणा नूणं ॥७०॥ तुंब पि अरयरहियं, विंटं पि य खुडियदलचयं न जहा । रेहड़ न य कज्जकरो, पभू वि एवं अपरिवारो ॥१॥ जड़ पुण होज्ज परोप्पर-साऽवेक्खा अवयवा अवययी य । तो पंछियऽत्थसिद्धी, सोहा वि हवेज्ज चेव तहा॥७२॥ नासा मुहेण मुहमउंवि, नासाए सोहए जह तहेव । वपरियारेण पहू, परिवारो वि हु पवरपहुणा ॥३॥ तह रक्खणीयरक्खग-भावं वणसीहविसयमऽन्नोन्नं । परिभाविऊण सम्मं, अन्नोन्नं वट्टियव्यं भे ॥७४॥ किं बहुणाभमियव्ये जिमियव्ये, भणिअव्ये सव्यचिट्ठिअव्ये य । होज्जह अईव निहुया, एसो उवएससारो ति ॥५॥ |एवमुवइट्ठमडम्हेहिं, तुम्ह करुणाए इट्ठयाए य । ता जह न हवइ विहलं, तह तुब्भेहिं विहेयव्यं । ॥७६॥ "शिष्यस्य गुरुं प्रतिकृतज्ञता" - | अह ते धरपीढलुठंत-सीसवीसन्तगुरुपयंडबुरुहा । आणंदंडसुपवाहं, परिमुंचंता गुरुण पुरो ॥७७॥ तह मन्नुपुन्नमंथर-कंठसमुटुिंतगग्गरगिरिल्ला । गाढधरिजंतुण्हुण्ह-दीहनीहंतनीसासा ॥७८॥ कल्लाणं मंगलयं, देवयमऽह चेइयं ति मन्नंता । इच्छामो अणुसद्धिं ति, जंपिउं इय पुणो बिंति ॥७९॥ भयवं! अणुग्गहो णे, जं नियदेहं व पालिया तुमए । सारणवारणपडिचो-यणाहिं संठाविया मग्गे ॥८०॥ अचक्नुणो वि सच्च-क्खुणो दढं सहियया अहियया वि । निक्कन्ना वि सकन्ना, अइदुल्लहलद्धसिद्धिपहा ॥८१॥ | विहिया अम्हे तुम्हेहिं, संपयं पुण पणट्ठसन्नाणा । तुम्ह वियोए सामिय!, हा अम्हे कह भविस्सामो. ॥८२॥ सव्यगज्जीवहिए, थेरे सव्वजगजीवनाहम्मि । पवसंते य मरंते, ही! देसा सुन्नया होति सीलड्ढगुणड्ढेसुं, पहूसु अपरोपतावकारीसु । पवसन्तमरन्तेसु य, देसा ओखंडिया होति ૮૪ वियलियबलेण जरजज्रेण, गयदंतपंतिएणा वि । अज्ज वि कुलं सणाहं, जहाडहिव! 'पई चरंतेण ॥८५॥ सव्वस्सदायगाणं, समसुहदुक्खाण निप्पकंपाणं । दुक्खं खु विसहिउं जे, किर प्पवासो वरगुरुणं ॥८६॥ इय कुनयकुरंगयवागुराए, संवेगरंगसालाए । मरणरणजयपडागो-वलंभनिविग्घहेऊए ટળી आराहणाए पडिदार-दसगमइयम्मि बीयदारम्मि । गणसंकमणे भणियं, तइयं अणुसट्ठिपडिदारं ૮૮ अणुसट्ठिपयाणे यि हु, गणिणो सगणट्ठियस्स न समाही । होज्ज ति बेमि एत्तो, परगणसंकमणविहिदारं ॥८९॥ “परगणसङ्क्रमणाय अनुमतियाचनम्" - अह स महप्पा पुच-प्पदंसिओ मुणिवई निययसूरिं । गणमऽवि पुब्बुवदिट्ठा-अणुसासणाऽणुगुणकिच्चपरं ॥१०॥ पुणरवि वाहरिऊणं, मयंकजोन्हापवाहसिसिराए । आणंदसंदिराए, गिराए एवं समुल्लवड़ ॥९१॥ हंभो देवाऽणुपिया!, संपइ तुम्हे पडुच्च जाओ हं । सुत्ताऽऽइपयाणेणं, सम्म क्यसव्वकायव्यो ॥९२॥ | 1. मिच्चाण पाद्धां० । 2. नीहिह = निर्गच्छत । 3. निहुया = निभृताः । 4. पई = त्वया विचरता । 5. प्रवासः = वियोगः 129 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४५६३-४६२६ परगणसंक्रमणाय अनुमतियाचनम् ता एत्तो अवरं मह, उवओगवओ वि तुम्ह विसयम्मि । विप्फुरइ किच्चमुवद-सियव्यमडच्वंतथोवं पि ॥९३॥ ता एत्तो वि हु पुवं, निबिग्घाउराहणाए सिद्धिकए । सम्मडणुमन्नह मम, परगणसंकमणकरणाय ॥९४॥ भुज्जो भुज्जो मह संतियं च, मिच्छा मि दुक्कडमियाणिं । हवउ विणीयाण वि भे, गुरूवरि गरुयभत्तीण ॥१५॥ अह ते वि सोगभरसं-गिलंतदढमन्नुपुन्नगलरंधा । नीरंधबाहजलबिंदु-पूररुभंतनयणपुडा ॥१६॥ सूरिपयपंकउच्छंग-संगिसीसा सगग्गयं सीसा । जंपति पहू! किं सवण-सल्लतुल्लं समुल्लवह ॥९७॥ एवं तुब्भे अच्वंत-दूस्सहं जड़ वि सव्वहा अम्हे । न तहा उवयारका, न तहा दक्खा न तह गीया ॥१८॥ न तहा जोग्गा गुरुपाय-पंकयाऽऽराहणस्स न तहा य । पज्जंतसमयसंसिय-संलेहणपमुहविहिकुसला ९९॥ तह वि य एगतेणं, पराडणुकंपापरेक्कचित्तेहिं । परडणुग्गहप्पहाणेहिं, पत्थणाभंगभीरूहिं ॥४६००॥ तुब्भेहिं नेव भयवं!, मोत्तुं उचिया जओ इमं जूहं । मज्झट्ठिएहिं रेहड़, अज्ज वि भे चलणकमलेहिं ॥१॥ ता कालचक्कनिवडण-कप्पेणं जंपिएण पज्जतं । एएण चिंतिएण वि तुम्हाणडम्हं सुहट्ठाए R इय तेहिं जंपियम्मि, महरगिराए गुरु वि यागरइ । हंहो महाऽणुभावा!, परिणयअरिहंतवयणाण ॥३॥ नियमइविहवविभाविय-जुत्ताउजुत्ताण णेय तुम्हाणं । मणसा वि चिंतिउमिम, जुत्तं दूरे पयंपेउ કા को नाम किर सकन्नो, रेज्ज विक्खंभमुचियपक्ने वि । अहवा किमिमं अरिहंत-भणियसमयम्मि नाउणुमयं॥५॥ चिरपुरिसेहिं किंवा, न सेवियं किं न कत्थ वि य दिटुं । किंच न पेच्छह पडुवण-पहयधयवडचलं जीयं॥६॥ जेणेवं निरऽवग्गह-मडसदग्गहमडणुसरित्तु यागरह । ता मा पडिकुलह सव्व-हा वि मह पत्थुयं अत्थं ॥७॥ इच्वाऽऽइ गुरुगिरं निसुणि-ऊण तं विन्नयिंति पुण एवं । भयवं! जइ वि हु एवं, तह वि अलं परगणगमेणं ॥८॥ सगणे च्चिय कुणह समीहि-यजत्थमेत्थ वि जमडत्थि गीयत्था । पत्थुयकज्जसमत्था, निव्यूढभरा महामइणो ॥९॥ उच्छाहबुड्ढिजणगा, निक्कंपा भेरवप्पडिभएसु । संविग्गा खंतिखमा, सुविणीया साहुणो णेगे ॥१०॥ एवं सुसाहुभणिओ, को वि हु तत्थेव वंछियं कुज्जा । निद्दिस्समाणगुणदोस-पक्वमऽभिविक्विउ अवरो ॥११॥ भणियविहीए पुच्छिय, सगणं अन्भुज्जएण भावेण । आराहणाणिमित्तं परगणगमणं कुणइ जम्हा ॥१२॥ सगणे आणाकोवो', फसवई कलहकरण परिताय । निब्भय सिणेह कोलुणिय, झाणविग्यो असमाही ॥१३॥ | उड्डाहकरा थेरा, कलहकरा खड्डया खरा सेहा । आणाकोवं गणिणो, करेज्ज तो होज्ज असमाही ॥१४॥ जं तेसु न वायारो, जुज्जड़ परगणनिवासिणो गणिणो । ता कह असमाहाणं, आणाकोवम्मि वि कयम्मि ॥१५॥ खुड्डो थेरे सेहे, असंयुडे दर्दू भणइ सो फसं । पडिचोयणमडसहंतेहिं, तेहिं सह होज्ज कलहो वि ॥१६॥ तत्तो गणिणो ताण य, होज्जा परितावणाऽऽइया दोसा । तेसु सगणम्मि गणिणो, ममतदोसेण असमाही ॥१७॥ रोगाऽऽयंकाईहि य, सगणे परियावणाऽऽइ पत्तेसु । गणिणो भवेज्ज दुक्वं, असमाहो वा सिणेहो या ॥१८॥ तन्हाइएसु अइदुस्सहेसु, सगणम्मि निभओ संतो । जाएज्ज व सेवेज्ज य, अकप्पियं किंचि वीसत्थो ॥१९९॥ अज्जाओ अणाहाओ, बुड्ढे य नियंडक्वड्ढिए बाले । पासंतस्स सिणेहो, भवेज्ज अच्वंतियविओए ॥२०॥ |खुड्डा व खुड्डिया वा, अज्जाओ च्चिय करेज्ज कोलुणियं । ता होज्ज झाणविग्धो, असमाही या गणधरस्स ॥२१॥ तहाहिभत्ते या पाणे वा, सुस्सूसाए व सीसवग्गम्मि । कुव्वंतम्मि पमायं, असमाही होज्ज गणवइणो ॥२२॥ एए दोसा गणिणो, पाएण हवंति सगणवासिस्स । भिक्खस्स वि अप्पसमा, सरेज्ज तम्हा परगणं सो ॥२३॥ संतं पि भत्तिमंतं पि, निययं गच्छं पि छड्डिङ एत्थ । पत्तो एस महप्पा, अम्हे मणसीकरमाणो ॥२४॥ इइ चिंतिऊण परमाऽऽयरेण, सव्वाए निययसत्तीए । भत्तीए परमाए, वट्टा से परगणो वि दढं ॥२५॥ गीयत्थो चरणत्थो, पुच्छेऊणाऽऽगयस्स खमगस्स । सव्वाऽऽयरेण सूरी वि, तस्स निज्जामगो होज्जा ॥२६॥ संविग्गऽवज्जभीरुस्स, पायमूलम्मि तस्स विहरंतो । जिणवयणसव्वसारस्स, होड़ आराहओ नियमा इय सुद्धबुद्धिसंजीवणीए, संवेगरंगसालाए । मरणरणजयपडागो-वलंभनिबिग्घहेऊए ૨૮ आराहणाए पडिदार-दसगमइयम्मि बीयदारम्मि । गणसंकमे चउत्थं, भणियं परगणपडिदारं ॥२९॥ 1. विक्खंभ = विरोधम् । 2. कौलुणिय = कारुण्य । 3. अप्पसमा = अपृशमाः । 130 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४६३०-४६६४ सुस्थितगवेषणाद्वारम् "सुस्थितगवेषणाद्वारम् " ॥३०॥ ॥३६॥ परगणसंकमणम्मि वि, जहुत्तसुट्ठियगवेसणाऽभावे । न समीहियऽत्थसिद्धी, ता तं संपई परूवेमि अह स महप्पा समय- प्पसिद्धनाएण मुक्कनियगगणो । समरपरिहत्थसंमिलिय - भूरिसेन्नं व निवरहियं ॥३१॥ दूरयरनयरपत्थिय-सत्थं पिव सत्थवाहपरिचतं । चरणाऽऽइगुरुणाऽऽगर - गुरुरहियं परगणं मुणिउं ॥३२॥ जोयणसयाणि छ-स्सत्त, वा वि वरिसाण जाय बारसगं । निज्जामगमाऽऽयरियं समाहिकामो गयेसेज्जा ॥३३॥ सो पुण चरणपहाणो, सरणाऽऽगयवच्छलो थिरो सोमो । गंभीरो कयकरणो, पसिद्धिपत्तो महासत्तो ॥३४॥ आयारव' माऽऽहारवं', यवहारो वीलए पकुव्वीय । निज्जव 'अवायदंसी', अपरिस्सावी य ́ बोधव्वो [दारगाहा ] ॥३५॥ आयारं पंचविहं चरड़ चरावेइ जो निरऽइयारं । उवदंसइ य जहुतं, एसो आयारवं नाम दसविहठियकप्पम्मि, आचेलक्काऽऽइए य जो निरओ । आयारवं स भन्नइ, पवयणमायासु उवउत्तो आयारत्थो दोसे, 1 पयहिय खमगं गुणेसु ठावेइ । आयारत्थो तम्हा, निज्जयगो होइ आयरियो चोद्दसदसनवपुब्बी, महामई सायरो व्व गंभीरो । कप्पववहारधारो, भन्नइ आहारवं नाम नासेज्ज अगीयत्थो, चउरंगं तस्स लोयसारंगं । नट्ठम्मि य चउरंगे, न य सुलहं होइ चउरंगं संसारसायरम्मि, अनंतभवतिक्खदुक्खसलिलम्मि । कह कहवि संसरंतो, लहेइ जीवो मणुस्सतं तम्मि हि दुल्लहलंभा, जिणवयणसुई य तीए पुण सद्धा । लद्वाए वि सद्धाए, सुदुल्लहो संजमो लद्धे य संजमे सो, संवेगकरिं सुई अपावेंतो । परिवडइ मरणकाले, अकयाऽऽहारस्स पासम्मि किंच 1. पयहिय = प्रहाय = त्यक्त्वा । 2. उदिन्नाणं = उदीर्णानाम् = क्षुब्धानामित्यर्थः । 3. ओवीलओ = अपव्रीडकः = लज्जा दूर कराकर प्रायश्चित्त लेने के लिए शिष्य को तैयार करनेवाला । 131 ॥३७॥ રૂા ॥३९॥ ॥४०॥ ॥४१॥ होइ ॥ ४२ ॥ "જો ॥४४॥ ∙118411 आहारमओ जीयो, कहिं वि आहारविरहिओ संतो । अट्टयसट्टो न रमइ, पसत्थतयसंजमाऽऽरामे | जिणवयणाऽमयसुइपाणएण, सरसाऽणुसट्ठिवयणेणं । तण्हाछुहाकिलंतो वि, होज्ज झाणम्मि आउतो पढमेण व दोच्चेण व बाहिज्जंतस्स तस्स खवगस्स । न कुणइ उवएसाऽऽई, समाहिकरणं अगीयत्थो ॥ ४६ ॥ | तेण पढमाऽऽइणा पुण, बाहिज्जंतो स कहवि कम्मवसा । कलुणं कालुणियं वा, जायणकियणत्तणं कुज्जा ॥४७॥ उक्कूवेज्ज व सहसा, निग्गच्छेज्ज व करेज्ज उड्डाहं । गच्छेज्ज व मिच्छतं, मरेज्ज असमाहिमरणेण ॥४८॥ एवं च इच्छासंपाडणओ, सरीरपरिकम्मकरणओ तह य । अन्नेहिं व उवाएहिं दव्यक्खेत्ताऽऽइअणुरूवं परिजाणइ गीयत्थो, सुयविहिणा कारणं समाहीए । पन्नवणं च तदुचियं, दिप्पड़ जह से सुझाणडग्गी मुणइ य फासुयदव्यं, उवकप्पेउं तहा 2 उदिन्नाणं । जाणइ पडियारं वाय- पित्तसिंभाण गीयत्थो सम्मं उवायपुव्यं, उस्सग्गऽववायजाणओ सो हु । खमगस्स पयलियं पि हु, चितं विहिणा पसामंतो सम्मं समाहिकरणाणि कुणइ तुट्टं च कहवि कम्मवसा । संधेइ पुण समाहिं, वारेइ असंवुडगिरं च जिणवयणसुइपभाया, पावियपसमो पणट्टमोहतमो । गयपरितोसपओसो, विरागरोसो सुहं झाइ निम्महिय मोहजोहं, समच्छरं रागरायमुद्धरिडं । चउरंगबलेण तओ, भुंजड़ निव्वाणरज्जसुहं गीयत्यपायमूले, होंति गुणा एवमाऽऽइया बहवे । न हु होइ संकिलेसो, जायइ असमा समाही य पंचविहं ववहारं, जो जाणइ तत्तओ सवित्थारं । बहुसो य दिट्ठपट्ठा - वओ य ववहारवं नाम आणासुयआगमधारणे य, जीए य होंति ववहारा । एएसिं सवित्थारा, परूवणा सुत्तनिद्दिट्ठा |दव्यं खेतं कालं भावं करणपरिणाममुच्छाहं । संघयणं परियायं आगमपुरिसं च विन्नाय मोत्तूण रागदोसे, ववहारं पट्ठवेइ सो तस्स । ववहारकरणकुसलो, जिणवयणविसारओ धीरो ववहारमऽयाणंतो, ववहरणिज्जं च ववहरंतो य । ओसीयइ भवपंके, असुहं कम्मं च आयरइ जह रोगिणं न सज्जी - करेड़ विज्जो तिगिच्छयाऽकुसलो । तह अव्यवहारविऊ, न सोहिकामं विसोहेइ तम्हा संवसियव्यं, बवहारविउस्स पायमूलम्मि । तत्थ हु विज्जा चरणं, समाहिबोहीओ नियमेण ओयंसी तेयंसी, यच्चंसी पहियकित्ती आयरिओ । सीहोवमो य भणिओ, जिणेहिं ओवीलओ नाम ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५४॥ ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५८॥ ॥५९॥ ॥६०॥ ॥६९॥ ॥६२॥ En ॥६४॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४६६५-४७०० सुस्थितगवेषणाद्वारम् निद्धमहुरेहिं हिययंगमेहि, पल्हायणिज्जययणेहिं । परहियकरणपरायण-मणेण तेणाऽयि मुणिवइणा ॥६५॥ इह पण्णविज्जमाणो, सम्म पि हु तिव्वगारवाऽऽईहिं । कोई णियए दोसे, सम्म नाडलोयए खवगो ॥६६॥ तो ओवीलेयव्यो, गुरुणा ओवीलएण सो अहया । जह उयरत्थं मंसं, वमयइ सीही सियालीए ॥६ ॥ तह फरुसगिराहिं अणुज्जयस्स, खयगस्स नीहरइ दोसे । आयरिओ तं कडुओ-सहं व पत्थं भवइ तस्स॥६८॥ सुलहा लोए आयट्ठ-चिंतगा परहियम्मि मुक्कधुरा । आयटुं च परहें च, चिंतयंता जए दुलहा ॥६९॥ खवगस्स जड़ न दोसे, उग्गालेइ सुहमे व इयरे वा । ता न नियत्तइ तत्तो, खवगो न गुणे य परिणमइ ॥७०॥ तम्हा गणिणा ओवीलएण, खवगस्स दोससव्वस्सं । उग्गालेयव्वं खलु, तस्स हियं चिंतयंतेण ॥७१॥ सेज्जासंथारोवहि-संभोगाऽऽहारनिक्खमपवेसे । ठाणनिसीयतुयट्टण-विगिंचणुव्वतणाऽऽईसु ॥७२॥ अब्भुज्जयचरियाए, उवयारमणुत्तरं पकुव्यंतो । सव्येण आयरेणं च, सव्यसत्तीए भत्तीए ॥७३॥ अप्पपरिस्सममगणिय, यट्टइ खवगस्स निच्चपडियरणे । जो आयरियो सो खलु, इह होइ पकुव्यओ नाम ॥७४॥ खवगो किलामियंडगो, पडियरणगुणेण निव्युइं लहइ । तम्हा उ निवसियव्यं, खवगेण पकुविणो पासे ॥५॥ संथारभत्तपाणे, अमणुन्ने अह चिरस्स दिन्ने या । पडिचरगपमाएण य, सेहाऽऽइअसंयुडगिराहिं ઉદ્દા सीउन्हछुहातन्हा-किलामिओ तिव्ययेयणतो या । कुविओ भयेज्ज खवगो, मेरं या भेत्तुमिच्छेज्जा ॥७७॥ |निव्यावएण गणिणा, चित्तं खवगस्स निव्ववेयव्यं । अक्खोभेण खमाए, जुत्तेण पणट्ठमार्णण ॥७८॥ | अंगसए य बहविहे, नोअंगसए य बहविहे चेव । रयणकरंडयभूए, अइनिउणो तह तदऽत्थस्स ॥७९॥ |वत्ता कता य दढं, विचित्तसुयधारओ विचित्तकहो । आओवायविहन्नू, मइसंपन्नो महाभागो ૮૦થી निद्धं महुरं हिययंगमं च, आहरणहेउजुत्तं च । कहइ कहं निव्ववओ, समाहिकरणाय नवगस्स ॥८१॥ खुहियं परीसहुम्मीहिं, साहुपोयं भयोहयुभंतं । संजमरयणं निज्जा-मओ व्व निज्जावओ धरइ ॥८२॥ थीबलकमाऽऽयहियं, महुरं कन्नाऽऽहुई जड़ न देइ । सिवसुहकरिं च तो णं, चत्ता आराहणा होइ ॥३॥ ता निज्जामगसूरी, निव्ववओ चेव होइ खवगस्स । आराहणा वि निव्या-वगस्स दारेण चेव धुवं ॥८४॥ तडपत्तस्साऽवि विचित्त-कम्मपरिणइवसेण खवगस्स तण्हाछुहाऽऽइएहिं, अवि होज्ज विसोतियाऽऽइयं ॥८५॥ तं पुण पूयाकामो, कितीकामो अवन्नभीरू य । निज्जूहणाभएणं, लज्जाए गारवेणं या को वि विवेयवियलो, जइ नाडलोएइ सम्ममुवउत्तो । तं जो अवायदंसण-पुरस्सरं सासए एवं ॥८७॥ ए अवियडते. सढो ति संभावणा अकित्ती य । परलोए पुण माइ-तणेण अंतो असारस्स ॥८८॥ इहभवक्यभावविहूण-कट्ठकिरिया वि कुगइहेउ ति । सो च्चिय युच्वइ सूरी, अवायदंसि त्ति नामेण ॥८९॥ एवंविहगुणगणसंगओ य, एसो महुरवयणेहिं । जंपेइ भो महायस!, खवग! विभावेसु सम्ममिम ॥९ ॥ जह नाम कंटगप्पमुह-दव्वसल्लं पि धुवमडणुद्धरियं । जणयइ जणस्स देहे, ण केवलं येयणं चेव ॥९१॥ किंतु 'जरडाहरप्फग-जालागद्दभदुसज्झलुयती य । तदडवररोगसमूहं पि, जणइ ता जाय मरणं पि ॥९२॥ तह चेव भावसल्लं, भिक्खुस्स वि मोहमोहियमइस्स । सम्म खु अणुद्धरियं, धरियं अप्पाणए चेव ॥९३॥ जणयइ ण केवलं इह-भवम्मि अजसाडइ चेव किंतु परं । संजमजीवियहरणा, चारित्ताऽभावमरणं पि ॥९४॥ आसमलणं व अरिपोसणं य, निम्मवणमडसुहकम्माणं । जणयइ भयंडतरेसुं, अइदुल्लहबोहियत्तं च ॥१५॥ तो भट्ठबोहिलाभो, अणंतकालं भवन्नवे भीमे । जम्मणमरणाऽऽवत्ते, अणोरपारम्मि दुहसलिले ॥९६॥ उच्चाऽणुच्चासु विचित्त-भेयजोणीसु दुखदोणीसु । बच्चंतो पच्चंतो, सुतिक्खदुक्खऽग्गिणा चिट्ठे ॥९७॥ तहालभ्रूणमेत्थ जीयो, संसारमहन्नयम्मि सामन्नं । तवसंजमं च अबुहो, नासेइ ससल्लमरणेण ॥९८॥ मरिउ ससल्लमरणं, संसाराउडविमहाकडिल्लम्मि । सुइरं भमंति जीया, अणोरपारम्मि ओइन्ना ॥९९॥ न वि तं सत्थं व विसं व, दुप्पउत्तो व्व कुणइ वेयालो । जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पो व्य पमाइओ कुद्धो ॥४७००॥ 1. ज्वर-दाह-रप्फग = वल्मीको = रोगविशेषः - ज्वाला-गर्दभ = रोगविशेषः - दुःसाध्य-लुयती = रोगविशेषः इत्यादयो रोगाः । 132 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४७०१-४७३५ ॥५॥ En ॥७॥ उपसंपद्वार स्वरूपम् - परीक्षाद्वार स्वरूपम्. जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धियं मरणदेसकालम्मि । दुल्लहबोहीयत्तं, अनंतसंसारियतं च ॥१॥ ता न खमं खु पमाया, मुहुत्तमऽवि चिट्ठिउ ससल्लेण । लज्जागारवरहिओ, अओ तुमं सल्लमुद्धरसु un उप्पाडित्ता सल्लं, मूलमऽसेसं पुणब्भवलयाए । उम्मुक्कभया धीरा, तरंति भवसायरं जेण इय जड़ अवायदंसी, न होज्ज निज्जामगो वि खवगस्स । ता तस्स ससल्लस्स वि, किंफलमाऽऽराहणाकरणं ॥ ४ ॥ तम्हा खवगेण सया, अवायदंसिस्स पायमूलम्मि । अप्पा निवेसियव्यो, धुवा हि आराहणा तत्थ आयसपत्तनिहितं जलं व आलोइया अईयारा । न परिस्सवन्ति जत्तो, अपरिस्साविं तयं बिंति भिदंतेण रहस्सं, सो साहू तेण होड़ परिचत्तो । अप्पा गणो पवयणं, धम्मो आराहणा चेव लज्जाए गारवेण य, कोई दोसे परस्स कहियम्मि । विप्परिणयेज्ज ओहा-वेज्ज व गच्छेज्ज मिच्छतं कोई रहस्सभेए, कए पउट्ठो हणेज्ज तं सूरिं । अप्पाणं वा गच्छं, भिंदेज्ज करेज्ज उड्डाहं इच्चेयमाऽऽइदोसा न होंति गणिणो रहस्सधारिस्स । अपरिस्सावी तेणं, मग्गिज्जड़ निज्जवगसूरी इय अट्ठगुणोवेयस्स, सूरिणो पयपसायओ खवगो । आराहणमाऽऽराहइ, संपुण्णं हयपमायरिऊ | इय पावकमलहिमभर - समाए संवेगरंगसालाए । मरणरणजयपडागो-वलंभनिव्विग्घहेऊए आराहणाए पडिदार - दसगमइयम्मि बीयदारम्मि । गणसंकमम्मि पंचम - मुबइ सुट्ठियद्दारं सुट्ठियगवेसणेवं, कया वि न फलप्पसाहणायाऽलं । जब्बिरहे तं भणिमो, संपयमुवसंपयादारं 'उपसंपदा द्वार स्वरूपम्' በዘ usu ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ अह सो परिमग्गित्ता, निज्जवयगुणेहिं जुत्तमाऽऽयरियं । विज्जाचरणसमग्गं, उवसंपज्जइ तओ तस्स किड़कम्मं काऊणं, पणुवीसाऽऽवासएहिं परिसुद्धं । विणएण पंजलिउडो, सव्वाऽऽयरमेवमुल्लवड़ भयवं! निस्सेसदुवालसंग - सुयजलहिपारगा तुम्हे । तुम्हेत्थ सयलसिरिसमण - संघनिज्जामगा गुरुणो तुम्हे च्चिय अज्ज इहं, जिणसासणभवणधारणक्खंभा । भवगहणभमणरीगंऽगि - बग्गनिव्युपयं तुब्भे तुम्हे गई मई चिय, सरणमऽसरणाण अम्ह तुम्हेत्थ । तुब्भे चेव अणाहाण, अम्ह नाहा वि ता भंते! आदिक्खादिवसाओ, काऊणाऽऽलोयणापयाणेण । दंसणनाणचरिते, सुविसुद्धे सम्मभावेण तुम्ह पयपउममूले, दीहरसामन्नफलमऽहमियाणिं । कयउचियसेसकिच्चो, निस्सल्लाऽऽराहणं काहं एवं युत्ते तेणं, निज्जामगमुणियई भणइ भद्द ! । मणवंछियऽत्थमऽचिरा, साहेमि तुह अविग्घेणं धन्नो सि तुमं सुविहिय!, असेससंसारदुक्खखयजणणिं । जो आराहणमऽणहं, एवं काउं समुच्छहसि अच्छाहि ताव सुंदर!, वीसत्थो अणूसुगो य जाव खणं । पडिचरएहिं सममऽहं इणमऽट्टं संपधारेमि ॥२४॥ | इय दुग्गड़पुरपरिहो - यमाए संवेगरंगसालाए । मरणरणजयपडागो - वलंभनिव्विग्घहेऊए ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२५॥ | आराहणाए पडिदार - दसगमइयम्मि बीयदारम्मि । गणसंकमणे भणियं, छट्ठ उवसंपयादारं ॥२६॥ 'परीक्षाद्वारम् ' उवसंपन्नो वि मुणी, अन्नोन्नपरिच्छणाए विरहम्मि । न लभइ समाहिमऽणहं, परिच्छदार अओ भणिमो ॥२७॥ अह जो अणसणकामो, साहू सूरी व पुव्यनिट्ठिो । तग्गणनाहो मुणिणो य, निहुयबुद्धीए पढमं पि રા तेणं परिक्खियव्या, किमिमे भावियमणा व इयरे वा । तग्गणगयसाहूहिं वि, परिक्खियच्यो इमो बहुहा ॥२९॥ तप्पहुणा वि न केवल - माणसणकामी परिक्खियव्यो हु । किंतु नियगा वि मुणिणो, तदऽत्थनिव्याहिणो व न वा॥३०॥ आगंतुगेण तत्थ उ, विभावणिज्जो गणाऽहियो ताव । जड़ हरिसवियसियऽच्छो, सागयमिच्चाइ जंपतो ॥३१॥ अब्भुट्ठेज्ज सयं चिय, इंतं दद्रुण अहय नियमुणिणो । पेसेज्जुचियं काउं, ता सो पत्थुयविहिविहाया |कसिणमुहच्छाओ सुन्न - चक्खुक्खेयो य विस्सरगिरो य । एवंविहो य नेओ, इयरो पत्थुयपवित्ती मुणिणो वि हु भणियव्या, भिक्खाकाले अहो! मह निमित्तं । कलमोयणं सखीरं, तुम्मेहिं आणियव्यं ति ॥ ३४ ॥ ॥ जड़ ते एवं वुत्ता, हसंति अन्नोन्नमऽहयमुल्लुंठं । जंपंति ता अभाविय - मणो ति विभावणिज्जा ते 1. पउट्टो = प्रद्विष्टः । ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३५॥ 133 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४७३६-४७७० प्रतिलेखनाद्वार स्वरूपम् - हरिदत्तमुनिदृष्टान्तः अह ते सहरिसमेयं, वयंति तुमए अणुग्गिहीयम्ह । एवं चिय काहामो, सइ लाभे सव्यजत्तेण ॥३६॥ आगंतुगेण एवं, वत्थव्वपरिक्खणा उ कायव्या । आगंतुगं पि यत्थव्व-साहुणो इय परिक्वन्ति कलमोयणाऽऽइउत्तम-आहारमऽमग्गिया वि उवणिंति । आगंतुगस्स जड़ सो, सविम्हयं एवमुल्लवड़ ॥३८॥ अहह चिरधरणिभमणे वि, एरिसा पवरगंधबंधुरया । सरसत्तणं पि नेवो-यणस्स दिटुं कहिं पि मए ॥३९॥ न य वंजणसामग्गी वि, दीसइ अन्नत्थ एरिससरुया । भुंजिस्सामि पकामं पि, ता अहं भोयणमिमं ति ॥४०॥ ता सो णिसेहियब्यो, न उत्तिमट्ठप्पसाहणायाडलं । अजिइंदिओ त्ति पुणरवि, जहाऽऽगयं पेसियव्यो य ॥४१॥ जो पुण तारिसमसणं, दटुं जंपेज्ज उत्तिमट्ठऽत्थी । हंहो महाअणुभावा!, किमडणेण ममोवणीएण ॥४२॥ |एवंविहस्स पवराजसणस्स, को भुंजिउ ममं कालो । तो णं पडिच्छियव्यो, स महासत्तो समुचिओ ति ॥४३॥ एवं कओवयारा, परोप्परं ठाणगमणसज्झाए । आवस्सयभिक्खग्गह-वियारमाऽऽइसु परिक्खंति ॥४४॥ अह जड़या सो अब्भु-च्छहेज्ज आराहणं पकाउं जे । वत्थव्वसूरिणा वि हु, परिक्खियव्यो तया एवं ॥४५॥ |सुंदर! तुमए अप्पा, संलिहिओ? जइ वएज्ज सो एवं । किं चम्मऽट्ठियमेतं, भयवं! नो पेच्छसि ममंगं ॥४६॥ असुणंतो व्य पुणो वि हु, ता पुच्छेज्जा पुणो वि स सरोसं । अइनिउणो सि न सिटे वि, नेव दिढे वि पत्तियसि॥४७॥ नियग-मंडगलिं भंजिऊण दंसेज्जा । पेच्छस निउणं भयवं!. जह एत्थ सथेवमेतं पि ॥४८॥ मंसं व सोणियं वा, मज्जं या अस्थि एवमवि भंते! । किं संलिहामि? तो णं, स सूरिणा एव भणियव्यो॥४९॥ 'न हु ते दव्यसंलेहं, पुच्छे पासामि ते किसं । कीस ते अंगुली भग्गा, भाये संलिह मा तुर' ॥५०॥ 'इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरु । ण चेयं ते पसंसामि, किसं साहू! सरीरगं' ॥५१॥ | सिलोयजुयलं चेयं, युत्तं वत्थव्वसूरिणा । आराहणानिमित्तेणं, आगयप्पडिबोहणे । ॥५२॥ |एवं परोप्परं सड़, सुक्यपरिक्वाण उभयपक्वाण । भत्तपरिन्नाकाले, थेवं पि ण होज्ज असमाही। ॥५३॥ अइरभसक्याणं पुण, पाएण पओयणाण पज्जते । धम्मऽत्थसंगयाण वि, न विवागो निव्वुई जणइ ॥५४॥ इय धम्मतावसाऽऽसम-समाए संवेगरंगसालाए । मरणरणजयपडागो-बलंभनिविग्घहेऊए । ॥५५॥ आराहणाए पडिदार-दसगमइयम्मि बीयदारम्मि । गणसंकमे परिच्छ ति, सत्तमं दारमुवइटुं ॥५६॥ 'प्रतिलेखना द्वारम् । विहिओभयपक्वपरिक्खणे वि, नाऽऽराहणउत्थिणो कज्जं । जीए विणा निविग्धं, संपज्जड़ भाविका तं पडिलेहं एत्तो, कित्तेमि सा पुणो भयइ एवं । किर निज्जामगसूरी, सुगुरुपरंपरयपत्तेण ॥५८॥ खवगस्सुवसंपन्नस्स, तस्स आराहणाए वक्नेयं । दिव्येण निमित्तेणं, पडिलेहइ अप्पमत्तमणो ॥५९॥ रज्जं खेतं अहिवइ-गणमडप्पाणं च पडिलिहिताणं । तमविग्घम्मि पडिच्छइ, अप्पडिलेहाए बहुदोसा ॥६०॥ परओ या तं नाउं, पारगमिच्छंति इहरहा नेव । सिवख्नेमसुभिक्नेसुं, निव्याघाएण पडियत्ती ॥६१॥ इहरा रायाऽऽईणं, सरुवपडिलेहणाए विरहम्मि । आराहणाए विग्यो वि, होज्ज हरिदत्तमुणिणो व्य ॥२॥ तहाहि 'हरिदत्तमुनिदृष्टान्त' संखपुरे नयरम्मि, पसिद्धिपत्तो नराऽहियो आसि । सिवभद्दो नामेणं, महाबलो विजियसत्तुकुलो ॥६३॥ उवरोहिओ य वेय-प्पमोक्खनीसेससत्थकुसलमई । मतिसागराऽभिहाणो, अहेसि से सम्मओ बाढं ૬૪ तेण य राया अणवरय-मेव निबिग्घरज्जसुहहेउं । दुग्गड़निबंधणेसु वि, पयट्टियो 'जन्नकज्जेसु ॥६५॥ अह एगम्मि अवसरे, समोसढो नयरबाहिरुज्जाणे । बहुसमणसंघसहिओ, सूरी गुणसेहरो णाम ॥६६॥ तव्वंदणवडियाए, सबालवुड्ढाऽऽउलो नगरलोगो । वाहणजाणाऽऽरूढो, महाविभूईए तत्थ गओ દળ राया वि तम्मि समए, तेणेव पुरोहिएण सह तुरए । आवाहिउँ पयट्टो, पुरस्स बहियाविभागम्मि ૬૮ના अह तं नयरीलोयं, इंतं विणियत्तमाणमऽवि दटुं । कोऊहलेण रन्ना, पुढे किं अज्ज को यि महो? ॥६९॥ जेणेस जणो एवं, पयराडलंकारभूसियसरीरो! । निययविहवाऽणुसारेण, सव्वओ वियरइ जहिच्छं ॥७०॥ 1. जन्नकज्जेसु = यज्ञकार्येषु । 134 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४७७१-४८०७ हरिदत्तमुनिदृष्टान्तः. सिट्ठो य परियणेणं, परमत्थो तो सविम्हओ राया । उज्जाणे तम्मि गओ, वंदिय सूरिं निसन्नो य ॥१॥ तो रायपमुहपरिसं, उद्दिसिउं सूरिणा वि धम्मकहा । पारद्धा जलहरगज्जि-गहीरघोसाए वाणीए ॥७२॥ जहाहंभो नरवर! नीसेस-सत्थपरमत्थसंगया एत्थ । सलहिज्जइ जीवदया, एक्क च्विय सव्वसोक्खकरी ॥३॥ एयाए न विउत्तो, ससि व्य रयणिं विणा मणागं पि । पावइ सोहं धम्मो, तवनियमकलावकलियो वि ॥७४॥ | एयाए निरयमणा, गिहिणो वि गया सुरिंदभवणेसु । एयविमुहा य मुणिणो यि, नरयमडइदुहकर पत्ता ॥५॥ जो वंछड़ अच्छिन्नं, सोक्खमडतच्छं तहाऽऽउयं दीहं । सो कप्पमहापायव-लयं व पालेइ जीवदयं । सुमुणिपणीओ वि सुजुत्तिओ वि, जो नाम जीवदयारहिओ । सो भीमभुयंगो इव, धम्मो दूरेण हेयव्यो ॥७७॥ एयं भणिए गुरुणा, जागविहिपरुवगम्मि नरवइणा । उवरोहियम्मि दिट्ठी, कुवलयदलसच्छहा खित्ता ॥८॥ उबरोहिएण तत्तो, अंतो पसरंततिव्वरोसेण । भणियं हंहो मुणिवर!, तुममऽम्हं दूससे जागं ॥७९॥ वेयऽत्थं अमुणेतो, पुराणसत्थाण किंपि परमात्थं । अवियाणमाणगो वि हु, अहो! सुधिट्ठत्तणं तुज्झ ॥८॥ गुरुणा भणियं भद्दय!, किमेवमुल्लवसि रोसवसगो तं । वेयपुराणाण तुमं, परमात्थं नेव मुणसि ति ॥१॥ किं भद्द! तुज्झ सत्थेसु, पुवमुणिविरइएसु सव्वत्थ । जीवदया न कहिज्जड़, तव्ययणं वा न सुयमेयं ॥२॥ 'यो ददाति सहस्राणि, गवामऽश्वशतानि च । अभयं सर्वसत्त्वेभ्य-स्तद्दानमऽतिरिच्यते ॥८३॥ समयावयवान् दृष्ट्वा, नरान् प्राणिवथोद्यतान् । पङ्गुभ्यश्छिन्नहस्तेभ्यः, कुष्ठिभ्यः स्पृहयाम्यहं ૮૪ कपिलानां सहस्रं तु, यो द्विजेभ्यः प्रयच्छति । एकस्य जीवितं दद्यात्, कलां नाऽर्हति षोडशी ॥८५॥ नाऽतो भूयस्तमो धर्मः कश्चिदऽन्योऽस्ति भूतले । प्राणिनां भयभीतानां, अभयं यत्प्रदीयते ॥८६॥ | वरमेकस्य सत्त्वस्य, दत्ता ह्यभयदक्षिणा । न तु विप्रसहस्रेभ्यो, गोसहस्रमडलङ्कृतं ૮૭ अभयं सर्वसत्त्वेभ्यो, यो ददाति दयापरः तस्य देहाद्विमुक्तस्य, भयं नाऽस्ति कुतधन ૮૮ हेमधेनुधराऽऽदीनां, दातारः सुलभा भुवि । दुर्लभः पुरुषो लोके, यः प्राणिष्वभयप्रदः ॥८९॥ महतामऽपि दानानां, कालेन क्षीयते फलं । भीताऽभयप्रदानस्य, क्षय एव न विद्यते ॥९०॥ दत्तमिष्टं तपस्तप्तं, तीर्थसेवा तथा श्रुतं । सर्वाण्यभयदानस्य, कलां नाऽर्हन्ति षोडशी ॥११॥ यथा मे न प्रियो मृत्युः, सर्वेषां प्राणिनां तथा । तस्मान्मृत्युभयत्रस्ता-स्त्रातव्याः प्राणिनो बुधैः' .॥९२॥ | ‘एकत्र क्रतवः सर्वे, समग्रवरदक्षिणाः । एकतो भयभीतस्य, प्राणिनः प्राणरक्षणं ॥९३॥ | सर्वसत्त्वेषु यद्दानं, एकसत्त्वे च या दया । सर्वसत्त्वपदानाद्धि, दयैवैका प्रशस्यते ॥९४॥ | सर्वे वेदा न तत् कुर्युः, सङ्घ यज्ञा यथोदिताः । सर्वतीर्थाभिषेकाच, यत् कुर्यात् प्राणिनां दया' ॥१५॥ इय भो महायस! तुमं, नियसत्थडत्थं पि किं न सुमरेसि? । परमत्थघडतं पि हु, पडिवज्जसि जं न जीवदयं॥१६॥ | एवमडणुसासिओ सो, समणोपरि दढपओसमाऽऽवन्नो । थेवमुवसंतचित्तो, राया पुण भद्दगो जातो ॥९॥ सूरी वि भव्यसते, ठाविय धम्मे जिणप्पणीयम्मि । ततो विणिक्वमित्ता, विहरिउमडन्नत्थ आरद्धो ॥९८॥ अपुबखेडकब्बड-पुराऽऽगराऽऽइसु चिरं च विहरित्ता । पुणरवि तत्थे व पुरे, समोसढो उचियदेसम्मि ॥१९॥ तत्थ य ठियस्स हरिदत्त-नामगो मुणिवरो निययगच्छं । मोत्तण उत्तिमटुं, काउं कयकायसंलिहणो ॥४८००॥ आगंतूण महप्पा, पयओ पयपंक्यं पणमिऊणं । भालयलरइयपाणी, विन्नविउं एवमाऽऽद ॥१॥ भयचं! कुणह पसायं, संसारसमुद्दनावकप्पेणं । संलिहियस्सा अणसण-दाणेणाऽणुग्गहं मज्झ तो निययगणं आपुच्छिऊण, करुणापहाणचित्तेण । पडिवन्नं तव्वयणं, मुणिवइगुणसेहरेण लहुं ॥३॥ अह सोहणे मुहुत्ते, अविभाविय पत्थुयऽत्थपच्चूहं । सहस च्चिय मुणिवइणा, सो ठविओ उत्तिमट्ठम्मि ॥४॥ जाया पुरे पसिद्धी, ताहे भत्तीए कोऊहल्लेण । अणवरयमेइ लोगो, वंदणवडियाए खवगस्स ॥५॥ तस्स य सिवभद्दनराऽहिवस्स, समयम्मि तम्मि जेट्ठसुओ । अवितक्कियाऽऽगमेणं, रोगेणं आउरो जाओ ॥६॥ वाहरिया वरवेज्जा, क्या तिगिच्छा विचित्तमंताऽऽई । उवजुंजिया तहा वि य, पडियारो से न संपत्तो ॥७॥ 135 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४८०८-४८४४ हरिदत्तमुनिदृष्टान्तः - पृच्छाद्वारम् | किंकायव्वयवाउल-मणो य भूमीवई तओ बाढं । विच्छायवयणकमलो, सोगं काउं समाढतो | एत्थंतरम्मि तेणं, चिरकालच्छिद्दपेच्छणपरेण । धम्मपदुद्रुण पुरो-हिएण लद्धाऽवगासेण भणियं देव! कहं चिय, होइ सुहं तत्थ जत्थ निग्गंथा । अप्पत्थावे वि कुणंति, मरणमऽसणं परिच्वइउं ॥१०॥ कहिओ य समग्गो उत्ति-मट्टट्ठियखमगसाहुयुत्तंतो । सुणिऊण तं च राया, अच्वंतं रोसमाऽऽवन्नो ॥११॥ आणता नियपुरिसा, अरे इमे साहुणोऽम्ह विसयाओ । तह कुणह जहा सिग्धं, सव्ये वि य नीहरंति ति ॥१२॥ तो तेहिं सूरिणो नर-वइस्स आणा निवेइया पुरओ । अह एगेणं मुणिणा, पयंडविज्जाबलजुएण ॥१३॥ | जिणसासणलहुयत्तण-मऽवलोइय जंपियं सरोसेण । हंहो मूढा! निम्मेर-मेवमुल्लवह किं तुब्भे ॥१४॥ | किं न मुणह मुणिणो जत्थ, समयसत्थुत्तजत्तिअविरुद्धं । धम्मकिरियं पवज्जति, जंति असिवाऽऽइणो तत्तो ॥१५॥ भावे वि तेसिं कहमऽवि, सकम्मुणो चेव एस अवराहो । साहूसु कीस कुप्पइ विहलं चिय 'कुप्पइ तुम्ह ॥१६॥ ता अम्ह गिराए नियं, मग्गे ठावेह मोयह कुतक्कं । ते किं भिच्चा सासेंति, जे पहुं न कुपहपवण्णं ॥१७॥ | एवं भणिए पुरिसेहिं जंपियं समण! मा बहुं वयसु । जइ अच्छिउमिच्छसि ता, गंतुं सयमेव सिक्खवसु ॥१८॥ अह सो पुरिसेहिं समं, गओ समीवम्मि पुहइनाहस्स । आसीवायपुरस्सर-मेवं योत्तुं पवत्तो य ॥१९॥ | नरनाह! न जुतं तुज्झ, धम्मे विग्धं पकप्पिउं एवं । धम्म पालेंत च्चिय, बुड्ढिं पावंति भूवइणो ॥२०॥ तं पुण समणाणं समय-वुत्तकिरियापवन्नचित्ताण । समदिट्ठीए पडणीय-लोयपडिसेहणेण भवे ॥२१॥ मा य तुम मुणसु इमे, समणा किं कोविया वि काहिन्ति । नणु अइमहिज्जमाणं, चंदणमवि मुयइ हव्ववहं ॥२२॥ भणिओ वि. भवड जा न कग्गहं मयड । ता तेण मणिवरेणं, दट्टो ति विभाविउं विहियं ॥२३॥ चलिरथिरथोस्थंभं, कंपिरमणिकुट्टिमं टलंतसिरं । विहडंतपट्टसालं, नमंतवरतोरणाऽवयवं ॥२४॥ पक्खुभियभित्तिभागं, सव्वत्तो देवमाणपागारं । पल्हत्थसंधिबंधं, विज्जासतीए तब्भवणं રો अह तं तहाविहं पे-च्छिऊण भीओ निवो सबहुमाणं । चलणेसु निवडिऊणं, साहुं विन्नविउमाउडढतो ॥२६॥ भयवं! उवसमसारो, दयाउडगरो दमधरो तुमं चेव । तुममेय भयाडवडनिवडि-याण हत्थाडवलंबो सि ॥२७॥ ता खमसु कलुसमइणो, एक्कं दुब्बिलसियं ममं एयं । न पुणो काहामि पसीय, इण्हिं नियदुविणेये व्य ॥२८॥ न मुणिंद! काउमेवं, मणसा वि क्या वि संपहारेमि । किं तु सुयविहुरयाए, दुट्ठवएसा विहियमेयं ॥२९॥ इन्हिं च तुज्झ सामत्थ-मथेमंथिज्जमाणमणजलही । इय वइयरववएसा, विवेयरयणाऽऽयरो जाओ ॥३०॥ ता पज्जतं पुत्तेण, तेण तेण वि य रज्जरटेण । जं तुम्हं पयपंक्य-पडिकूलतेण मे होही ॥३१॥ अह पणयवच्छलेणं, मुणिणा भीओ ति भाविउं भूयो । आसासिओ पसंता-ऽऽणणेण महुरेहिं वयणेहिं ॥३२॥ एत्थंतरम्मि सड्ढो, जिणदासो तप्पभावपरितुट्ठो । वागरइ नरवई देव!, नूणमेयस्स वरमुणिणो नामग्गहणेण वि उवसमंति, गहभूयसाइणीदोसा । चलणक्खालणपयसा पसमंति उदग्गरोगा वि ૩૪ एवं सोच्चा रण्णा, मुणिपयपक्खालणोदगेण सुओ । अभिसित्तो तब्वेलं च, पगुणदेहत्तणं पत्तो ॥३५॥ तो तम्माहप्पुप्पेहणेण, निच्छइयधम्मसारत्तो । जिणधम्म पडिवन्नो, राया साहुस्स ययणेण ॥३६॥ तत्तो सद्धम्मविरुद्ध-जंपिरं तं पुरोहियं अहियं । सुमुणिजणपच्चणीयं, निव्वासेऊण नयरीओ રે राया सब्बिड्ढीए, सब्वेणं आयरेण खवगस्स । उज्झियनियकायव्यो, बहुमाणं काउमाऽऽरद्धो ૩૮ एवं हरिदत्तमहा-मुणिस्स लीणस्स उत्तिमट्ठम्मि । समुवट्टिओ वि विग्यो, अइसइणा झत्ति पडिखलिओ ॥३९॥ एवंविहा य अइसय-समन्निया केतिया व होहिंति । ता पढमं चिय विग्धं, पडिलेहिय उज्जमेयव्यं ॥४०॥ इय समयसिंधुवेलोवमाए, संवेगरंगसालाए । मरणरणजयपडागो-वलंभनिबिग्घहेऊए । ॥४१॥ आराहणाए पडिदार-दसगमइयम्मि बीयदारम्मि । गणसंकमणे वुत्तं, पडिलेहणदारमट्ठमगं ૪૨ पच्चूहाणं पडिलेहणे वि, नो जं विणा कुसलमऽढें । काउं पारड़ खवगो, तं पुच्छादारमऽह भणिमो ॥४३॥ 'पृच्छाद्वारम्' अह वत्थव्वगसूरी, णियगच्छगए तवस्सिणो सब्वे । वाहरिऊणं जंपड़, एसो खवगो महासत्तो ॥४४॥ 1. कुप्पइ तुम्ह = कुप्यते युष्माभिरित्यर्थः । 2. हव्ववह = हव्यबाहम् = अग्निम् । 136 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४८४५-४८६६ प्रतीच्छाद्वारम् निस्साए तुम्ह काउं, पंछड़ आराहणाविहिं अणहं । जइ पाणगाऽऽइदव्वाणि, खवगसुसमाहिकारीणि ॥४५॥ सुलभाणि एत्थ खेत्ते, तुब्भे एयं च पडियरह सम्म । ता साहह जेणेमं, महाऽणुभावं पडिच्छेमो ॥४६॥ तो जइ सहरिसमिय ते, भणंति सुलभाणि असणमाऽऽईणि । अणुगिण्हह खवगमिम, सज्जा अम्हे वि एत्थऽत्थे॥४७॥ ताहे पडिच्छियव्यो, खवगो इय होज्ज तस्स निबिग्घा । पंछियसिद्धी न परो-प्परं च थेवं पि असमाही ॥४८॥ निज्जायगाऽऽयरियाण, गणंतरादाडगयस्स खवगस्स । णिज्जायगसाहूण य, पुच्छा सव्वेसि गुणजणिगा ॥४९॥ तदडपुच्छणे परोप्पर-मऽचियत्तं भत्तपाणविरहे य । खवगस्स वि असमाही, एमाऽऽई होति बहुदोसा ॥५०॥ इय निव्वुइपहसंदणसमाए, संवेगरंगसालाए । मरणरणजयपडागो-वलंभनिबिग्घहेऊए ॥५१॥ आराहणाए पडिदार-दसगमइयम्मि बीयदारम्मि । गणसंकमणे कहियं, नयम पुच्छापडिदारं ॥५२॥ जहविहिक्यपुच्छस्स वि, उत्तरकायव्यसंगयं सम्म । खवगं पडुच्च संपड़, पडिच्छदारं पवक्वामि ॥५३॥ 'प्रतीच्छाद्वारम्' पुव्यपवंचियविहिणा, रामगं समुवट्ठियं पडिच्छंति । सव्वाऽऽयरेण मुणिवइ-तवस्सिणो उज्जया नवरं ॥५४॥ जइ तत्थ गणे कहमवि, समकालं चिय उवट्ठिया दोन्नि । खवगा तेसिं एक्को, पढम चिय संलिहियकाओ॥५५॥ जो सो संथारगओ, चयइ सरीरं जिणोयएसेण । बीयो संलिहइ तj, उग्गेहिं तवोविसेसेहिं ॥५६॥ तइयं च पुणो खवगं, वारेज्ज उवट्ठियं पि विहिपुव्वं । पडिचरगाणमऽभावे, समाहिविगमो भवे इहरा ॥५॥ पि. तस्स जोग्गा वि पवरपडियरगा। तदडणन्नाओ संतो. ता सो वि पडिच्छियव्यो ति ॥५८ तह भत्तपच्चखाया, जइ सो नो पत्थुयऽत्थनित्थरणं । काउं तरेज्ज लोगेण, जाणिओ पेहिओ य भये ॥५९॥ ता तस्स ट्ठाणम्मि, बीयो संलेहणाकरो साहू । ठवियच्यो रइयव्या, तदंडतरे 'चिलिमिणी सम्म ॥६०॥ तो जेहिं पुव्यं सो, सुओ व दिट्ठो व होज्ज तो तेसिं । वंदिउमुवागयाणं, दंसेयव्यो मणागं पि ॥१॥ इहरा होज्जुड्डाहो, पवयणखिंसाऽऽइया महादोसा । चिलिमणिबाहिठिय च्चिय, तेणं वंदावियव्वा ते ॥२॥ गणसंकमणं काउं, विहिणा एएण विहडियममत्ता । आणं आराहित्ता, करंति दुक्खक्खयं धीरा ॥६३॥ इय सिरिजिणचंदमुणिंद-रइयसंवेगरंगसालाए । मरणरणजयपडागो-वलंभनिव्यिग्घहेऊए ॥६४॥ आराहणाए पडिदार-दसगमइयम्मि बीयदारम्मि । गणसंकम पडिच्छत्ति, दसममुत्तं पडिदारं ॥६५॥ तभणणाओ य पुणो, परगणसंकमणनामगं एयं । मूलद्दारचउक्के, भणियं दारं दुइज्जं पि . ॥६६॥ ॥ परगणसंकमाऽभिहाणं बीयं मूलदारं समत्तं ॥ 1. चिलिमिणी = जवनिका = पर्दा । 137 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४८६७-४६०० गृतीयममत्वव्युच्छेदद्वारम् - आलोचनाविधानद्वारम् "तृतीयममत्वव्युच्छेदद्वारम्" 'मंगलाचरणम्' - दव्ये खेत्ते काले, भावम्मि य सय्वहा धुयममत्तो । भययं भवंडतयारी, निरंजणो जयइ वीरजिणो ॥६॥ 'अन्तरद्वारनामानि' - - परिकम्मियऽप्पणो यि हु, क्यपरगणसंकमस्स वि य जम्हा । अव्वुच्छिन्नममत्तस्स, नत्थि आराहणा तम्हा ॥६८॥ भणिउं गणसंकमणं, इन्हेिं वोच्छं ममत्तयोच्छेयं । तम्मि य पडिदाराई, कमेण एयाई नव होन्ति ॥६९॥ आलोयणाविहाणं, सेज्जा' संथारओ य निज्जवचा' । दंसण हाणी पच्च-खाणं तह खाम अब्भुवगओ वि खमगो, गुरुणा नाऽऽलोयणं विणा सुद्धिं । पावइ जं ताऽऽलोयण-विहाणदारं परुवेमि ॥१॥ _ 'आलोचनाविधानद्वारम्' किर भणइ गुरू खवगं, विहिणा महुरडक्खरं गणसमक्खं । हहो देवाऽणुप्पिय!, सम्मं संलिहियकाओ सि ॥७२॥ सम्मं पवन्नसामन्न-वन्नियाऽसेसकिच्चनिरओ सि । सम्मं सीलगुणाऽडगर-गुरुजणपयसेवणपरो सि ॥७३॥ सम्ममऽपुन्नदुलंभं, परमं पयविं तुमं पवन्नो सि । ता एत्तो सविसेसं, मुक्काऽहंकारममकारो ॥७४॥ अइदुज्जयं पि इंदिय-कसायगारवपरीसहाजणीयं । निज्जिणिऊणं सम्म, उपसंतविसोत्तियातायो ॥७५॥ आलोएस विहीए, सविहिय! हियमऽप्पणो समीहंतो । दच्चरियमणयमेतं पि. इह पणाऽडलोयणविहाणे ॥७६॥ आलोयण दायव्या, केवइकालउ' कस्स' केणं वा । के य अंदाणे दोसा, के य गुणा होन्ति दाणम्मि ॥७७॥ कह दायव्या य तहा, आलोएयव्ययं च किं गुरुणो । कह व दवावेयव्वा', पच्छित फलं च दाराइं ॥७८॥ जड़ वि हु पइदिणमऽपमत्त-माणसो जयइ सव्वकिच्चेसु । कंटकवेहं व पहे, तहा वि किंपि हु अईयारं ॥७९॥ आवज्जड़ साऽवज्जविवज्जगो वि, कम्मोदयस्स दोसेण । कत्थइ किच्चविसेसे, तस्स य सुद्धिं समीहन्तो ॥८०॥ | पक्खियचउमासाऽऽइसु, नियमेणाऽऽलोयणं मुणी देज्जा । गिण्हेज्जऽभिग्गहे पुण, पुव्वग्गहिए नियेइत्ता ॥८१॥ | एमेव उत्तिमढे, संवेगपरेण सीयलेणाऽपि । आलोयणा हु देया, जाणियजिणवयणसारेण ॥२॥ इय जेत्तियकालाओ, देया आलोयण त्ति निद्दिटुं । एत्तो जारिसयस्सा, देया सा तं पवक्खामि ॥८३॥ पयडिज्जइ जह रोगो, कुसलस्स चिगिच्छगस्स लोगम्मि । लोगुत्तरे वि तह कुसल-सूरिणो भावरोगो वि ॥८४॥ कुसलो य सो च्चिय इहं, दोसस्स नियाणमाऽऽइ जो मुणइ । अच्वंतमऽप्पमाई, सव्वत्थ समो य सो दुविहो॥८५॥ आगमओ सुयओ वा, आगमओ छविहो विणिद्दिट्ठो । केवल मणो-हिर-३ चोद्दस-दस नव-पुची य नायव्यो॥८६॥ कप्पपकप्पो य सुए, आणाइतो य धारणाए य । एसो वि हु कारणओ, कुसल इव जिणेहडणुनाओ ॥७॥ जह किर 'विभंगिणो रोग-कारणं ओसहं च तस्समणं । नाउं विविहाऽऽमइणं पि, दिन्ति विविहोसहसमूहूं ॥८॥ पावेंति तदुवओगेण, रोगिणो तक्खणेण रोगवयं । निब्बुइमऽणहं च सया, एसेवुवमाओ इहई पि ॥८९॥ |विभंगिणो इव जिणा, रोगी साहू य रोग अवराहा । सोही य ओसहाई, सुद्धं चरणं तु आरोग्गं ॥१०॥ जह य विभंगिकएहिं, रोगं नाऊण वेज्जसत्थेहिं । भिसजा करिति किरियं, तह पुव्वधरा वि सोहिंति ९१॥ कप्पपकप्पधरो चिय, आयारखमाऽऽइगुणगणोवेओ । सोहेइ भव्वसत्ते, सोहीए जिणोवइट्ठाए ॥९२॥ जंघाबलहाणीए, देसंऽतरसंठियाण दोण्हं पि । अग्गीयगूढवियडणा, सोही आणाए एस विही ॥९३॥ असई कयं विसोहिं, अवधारियसयलतत्ततम्मतो । तह चेव ववहरंतो, धणाजुत्तो मुणेयव्यो ॥९४॥ निज्जुत्तीसुत्तऽत्थे, पीढधरो विय किलेत्थ जोगो ति । कालं पडुच्च नेओ, जीयधरो जो वि गीयत्थो ॥९५॥ सेसा न होंति जोगा, जह कूडचिगिच्छगा उ अवियड्ढा । रोगवियुढिं मरणं च, रोगिमणुयाण उवणेति ॥९६॥ पाति य ते गरिहं, लोए दंडं च निवसयासाओ । लोउत्तरे वि एवं, जोएज्जा सव्यमेयं ति ९७॥ कूडाऽऽलोइयसोही-दाणं विवरीयदोसपरिवुड्ढी । ततो चरणाऽभायो, मरणं पुण एत्थ नायव्यं ॥९८॥ गरिहा भवंडतरेसु चि, जिणवयणावराहगाण गरिहेसु । ठाणेसु समुप्पत्ती, दंडो पुण दीहसंसारो आलोयणाऽरिहेसो, उस्सग्गऽववायओ विणिद्दिट्टो । सा जारिसेण देया, तारिसयं संपयं योच्छं ॥४९००॥ 1. विभङ्गिनः = वैद्याः (अनुमानात्)। 138 ९९॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४६०१-४६३७ आलोचनाविधानद्वारम् जाइकुलविणयनाणे, दंसणचरणेहिं होइ संपन्नो । खंतो दंतो अमाई, अपच्छयावी य बोधव्यो जाईकुलसंपन्नो, पायमज्जं न सेवइ कहिंचि । आसेविउं च पच्छा, तग्गुणओ सम्ममाडलोए રા विणएण उ संपन्नो, निसेज्जकिइकम्ममाऽऽइविणएणं । आलोएइ जहुत्तं, सुद्धसहायो सयं पावं ॥३॥ नाणेण उ संपन्नो, दोसविवागं वियाणिउं घोरं । आलोएइ सुहं चिय, पायच्छित्तं च अवगच्छे सुद्धो अहं ति सम्म, सद्दहई दंसणेण संपन्नो । चरणेण उ संपन्नो, न कुणइ भुज्जो तमऽवराह ॥५॥ अवियडिए य चरितं, न सुज्झइ मे ति सम्माउडलोए । खंतो आयरिएहिं, फसं भणिओ वि नो रूसे ॥६॥ दंतो समत्थु योर्चा, पच्छित्तं जमिह दिज्जए तस्स । न प्पलिउंचे व अमाई, अपच्छयावी न परितप्पे ॥७॥ एयारिसेण तम्हा, दायव्याडलोयणा जइजणेणं । संविग्गेणऽप्पाणं, कयत्थमिय मन्नमाणेणं ૧૮ परलोयम्मि अवाया, एएसिं दारुण ति दोसाणं । धन्नो हं जस्स गुरू, इहेव ते मे विसोहिन्ति सोहीए अभीएणं, अपुणक्करणुज्जएण दोसाणं । नो पडिवक्खजुएणं, जमेस भणिओ अजोगो ति ॥१०॥ ___ आकंपइत्ता' अणुमाणइत्ता', जं दिटुं' बायरं च सुहुमं वा । छन्नं सदाऽडऊलयं', बहुजण 'अव्वत्त तस्सेवी० [दारगाहा] ॥११॥ येयावच्याउडईहिं, पुव्वं आकंपइत्तु आयरियं । आलोएइ कहं मे, थेवं वियरेज्ज पच्छित्तं । ॥१२॥ तथाहिभत्तेण व पाणेण य, उवगरणेणं च कीइकम्मेणं । आकंपेऊण गणिं, करेड़ आलोयणं कोई ॥१३॥ आलोइयं असेसं, होही काही अणुग्गहमिमो ति । इय आलोइंतस्स उ, पढमो आलोयणादोसो ॥१४॥ नाऊण विसं पुरिसो, जह को वि पिवेज्ज जीवियऽत्थी उ । मन्नतो हियमऽहियं, सल्लविसोही तहेसा वि ॥१५॥ किं एस उग्गदंडो, मिउदंडो व ति एवमडणुमाणे । अहव अबलो ति थेवं, पच्छित्तं मज्झ देज्जाहि . ॥१६॥ धन्ना ते भगवंतो. सद्र निसट्रं च जे कणंति तयं । वयइ निहीणो ख अहं, जं न समत्थो तवं काउं ॥१७॥ जाणह य मज्झ थाम, गहणीदोबल्लया अणाऽऽरोग्गं । तुम्ह पभावेण इम, सोहिं बहु नित्थरिस्सामि ॥१८॥ अणुमाणेऊण गुरुं, एवं आलोयणं तओ पच्छा । कुणइ ससल्लो ता सो, बीयो आलोयणादोसो ॥१९॥ गुणकारओ ति भुंजइ, जहा सुहडत्थी अपत्थमाडडहारं । पच्छा विवागकड्यं, सल्लविसोही तहेसा वि ॥२०॥ | दिट्ठा उ जे परेणं, दोसा वियडेइ ते च्चिय न अन्ने । सोहिभया जाणंतु य, एसो एयाऽवराहो ति ॥२१॥ मोहेण मोहियमई, अद्दिटुं सव्यहा निगृहेंतो । आलोएइ जं तं, तईओ आलोयणादोसो . ॥२२॥ जह यालुयाए अवडो, पूरइ उक्कीरमाणओ चेव । तह कम्माऽऽयाणकरी, सल्लविसोही इमा होइ ॥२३॥ बायरयड्डयराहे, जो आलोएइ सुहुमए नेय । अहवा सुहुमे वियडइ, वमन्नतो उ एवं तु ॥२४॥ जो सुहुमे आलोयइ, सो किह नाडडलोए बायरे दोसे । अहया जो बायरए, वियडइ सो किं न सुहुमे उ ॥२५॥ बायरमाउडलोएइ, ययभंगो जत्थ जत्थ से जाओ । पच्छाएइ य सुहुमं, चउत्थओ वियडणादोसो . ॥२६॥ जह कंसियभिंगारो, अंतो मइलो वि सुद्धओ बाहिं । अंतो ससल्लदोसा, सल्लविसोही तहेसावि केवलइ न्विय सुहुमे, आलोयइ थूलए उ गोयेइ । भयमयमायासहिओ, भवइ य सो पंचमो दोसो ॥२८॥ रसपीयलं व कडयं, जह वा जुतीसुवन्नकडयं च । जह व जउपूरकडयं, सल्लविसोही तहेसा वि ॥२९॥ जइ मूलगुणे उत्तर-गुणे य कस्सइ विराहणा होज्जा । पढमे बीए तइए, चउत्थए पंचमे च वए રે को तस्स दिज्जइ तयो, इय पच्छन्नं पपुच्छिउं कुणइ । सयमयि पायच्छित्तं, छट्ठो आलोयणादोसो ॥३१॥ अहवा आलोइंतो, छन्नं आलोयए जहा नवरं । निसुणेड़ अप्पण च्चिय, न परो छट्ठो भवइ एवं ॥३२॥ मयतण्हाओ उदयं, इच्छइ कूरं व चंदपरिवेसे । जो सो इच्छइ सोहिं, अकता अप्पणो दोसे ॥३३॥ पक्खिय-चाउम्मासिय-संयच्छरिएसु सोहिकालेसु । सद्दाऽऽउले कहेइ, दोसे सो होइ सत्तमओ ॥३४॥ अरहट्टघडीसरिसी, अहया 'युदंछिओवमा होइ । भिन्नघडसरिच्छा वा, सल्लविसोही इमा तस्स ॥३५॥ एक्कस्साउडलोड़ता, जो आलोए पुणो वि अन्नस्स । ते चेव उ अवराहे, तं होइ बहुजणं ना ॥३६॥ आलोइऊण गुरुणो, पायच्छित्तं पडिच्छिउं तत्तो । तमसद्दहओ पुच्छइ, अन्नडन्नं अट्ठमो दोसो 1. अच्चन्त पाठां० । 2. निसट्टे = प्रचुरम् । 3. केवलइ = केवलान् । 4. वुदंछिओवमा = यथा वृन्दे क्षुतं न गण्यते तथा इति प्रतिभाति BI 139 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४६३८-४६७४ लज्जाअत्यागे-त्यागे कपिलविप्रदृष्टान्तः पउणो वणो ससल्लो, जह संतावेइ आउरं पच्छा । तिव्वाहिं येयणाहिं, सल्लविसोही तहेसा वि ૨૮ जो सुयपरियाएहिं, अव्वत्तो तस्स निययदुच्चरियं । आलोयंतस्स फुडं, णवमो आलोयणादोसो ॥३९॥ कूडहिरन्नं जह निच्छएण, दुज्जणकया जहा मेती । पच्छा होइ अपत्थं, सल्लविसोही तहेव इमा ॥४०॥ ते चेव जोऽवराहे, सेवइ सूरी स होइ तस्सेवी । तस्स समीचे एसो, मम समदोसो त्ति नो दाही ॥४१॥ अइगरुयं मह दंडं ति, मोहओ संकिलिट्ठभावस्स । आलोयंतस्स भये, दसमो आलोयणादोसो ૪રા लोहियदूसियवत्थं, थोवइ जह कोवि लोहिएणेव । सोहीकएण मूढो, सल्लविसोही तहेव इमा ૪૩ पवयणनिन्हवयाणं, जह दुक्कयं तवं करेंताणं । दूरं खु सिद्धिगमणं, सल्लविसोही तहेसा वि ૪૪ इय दस वि इमे दोसे, सो भयलज्जाओ माणमायाओ । निज्जूहित्ता, सुद्धं करेइ आलोयणं खवगो ॥४५॥ नट्ट'चलवलियगिहिभास-मूयढड्ढरसरं च मोत्तूण । आलोएइ स धन्नो, सम्म गुरुणो अभिमुहत्थो ॥४६॥ इय जेणं दायव्या, सविवक्खो सो समासओ भणिओ । जे य अदाणे दोसा, तीए ते संपयं योच्छं ॥४७॥ लज्जाए' गारवेण' य, बहुस्सुयमएण वा वि दुच्चरियं । जे न कहेंति गुरुणं, न हु ते आराहगा होति ॥४८॥ जाए कहिंचि खलिए, लज्जा नो वियडणाए कायव्या । सा णवरं करणीया, अकिच्चपडिसेवणे णिच्वं ॥४९॥ आहरणं जुवरन्नो, सागारियरोगअकहणं वेज्जे । लज्जाए रोगबुड्ढी, न भोग मरणं उवणओ उ ॥५०॥ जुवरायसमा साहू, सागारियरोगतुल्ल अवराहा । अकहण-वेज्ज-समा पुण, एत्थमजणाऽऽलोयणाऽऽयरिया ॥५१॥ लज्जाए होइ तुल्ला, रोगविवड्ढी उ अचरणविवुड्ढी । सुरमणुएसु न भोगा, असई मरणं तु संसारो ॥५२॥ अहवा लज्जावसओ, सम्ममऽकहणम्मि जो भवे दोसो । लज्जाचागे य गुणो, दिटुंतो तत्थ विप्पसुओ ॥५३॥ तथाहि- . ___ 'कपिलविपदृष्टान्तः' उज्जाणभवणदीहिय-सुरगिहयावीतडागरमणिज्जे । नीसेसजयपसिद्धे, पाडलिपुत्तम्मि नयरम्मि ॥५४॥ वेयपुराणवियाणग-दियप्पहाणो पसिद्धिपतो य । कविलो नामेण दिओ, अहेसि धम्मुज्जयमई उ . ॥५५॥ सो य मयमत्तरमणी-कडक्वमिव भंगुरं भवसरुवं । पवणाऽऽहयतूलं पिय, तरलं तारुन्नलायन्नं ॥५६॥ मुहमहुरमंऽतविरसं, किंपागफलं व विसयसोक्वं पि । निबिडतरबंधणं पिय, सव्यं पि हु सयणसम्बन्धं ॥५॥ | नियबुद्धीए परिभा-विऊण परिचतगेहपडिबन्धो । एगम्मि वणनिगुंजे, तावसदिक्खं पवन्नो ति समयनिदंसियविहिपुव्ययं च, विविहं करेड़ तवचरणं । फलमूलकंदमाऽऽईहिं, समुचियं पाणवितिं च ॥५९॥ अह एगया गओ सो, ण्हाणणिमितं णईए तीरम्मि । पेच्छेइ मच्छमंसं, भक्खंते मच्छिए पाये - ॥६॥ तो पावसीलयाए, बाढं जिभिंदियस्स पवलता । तम्मंसभक्खणम्मि, महई वंछा समुप्पन्ना ॥६१॥ ततो तं मग्गिता, आकंठं जेमिओ स तेहिंतो तभंजणे य जाओ, अजिन्नदोसा जरो घोरो तस्स चिगिच्छनिमित्तं, कुसलो वेज्जो पुराओ वाहरिओ । पुट्ठो य तेण पुवं, तुमए किं भद्द! भुत्तं ति ॥६३॥ लज्जाए य जहट्ठिय-मडकहिंतेणं पयंपियं तेणं । तं भुत्तं जं भुंजंति, तावसा कंदफलमाऽऽई ॥६४॥ | एवं कहिए वेज्जेण, वायदोसुब्भवं जरं नाउं । तदुवसमकरी किरिया, कया गुणो को वि नो जाओ ॥६५॥ पुणरवि पट्टेण तहेव, तेण लज्जावसेण सिम्मि । वेज्जेणं सविसेसा, स च्चिय किरिया कया णवरं | विवरीयचिगिच्छाए, अच्वंतं येयणाए अक्कंतो । मरणभयवेविरंडगो, एगंते वज्जिङ लज्जं सो मूलाओ वेज्जस्स, कहेइ सव्यं पि मंसवुत्तंतं । तो विज्जेणं भणियं, हा मूढ! किमेत्तियदिणाणि ॥६८॥ |संतावं उवणीओ, अप्पा एवं ति संपयं पि तए । लट्ठ चिय भद्द! कयं, रोगनिमित्तं जमुवइ8 ॥६९॥ ता मा भाहिसि एतो, तह काहं जह निराऽऽमओ होसि । तो तदुचियं चिगिच्छं, पजुंजिउं सो कओ पगुणो॥७०॥ इय एयनिदंसणओ, लज्जं मोत्तूण जं जहा विहियं । तं तह आलोइंतो, परमं आरोग्गयं लभइ ॥७१॥ |नो गारवपडिबंधो, कायव्यो अवि य चरणपडिबंधो । गारवरहिया मुणिणो, थिरचरणा जं गया मोक्खं ॥७२॥ |इड्ढाऽऽइगारवेसुं, दोग्गइमूलेसु जे उ पडिबद्धा । वियडंति नाऽवराहे, मा अम्ह इमे न होहिंति ॥७३॥ ते अथिरकायमणिए, काऊण पिए जडाऽवमन्नंति । निरुवमसुहसंजणयं, निच्वं चिंतामणीरयणं . ॥७४॥ | 1. चलवलियं = चञ्चलत्वम् । 2. वियडणाए = आलोचनायाम् । 3. ऋद्धि-आदिगौरवेषु । 140 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४६७५-५०१२ आलोचनाविधानद्वारम् ता चतगारवेणं, जिइंदियेणं कसायरहिएणं । रागद्दोसविमुक्केण, वियडणा होइ कायव्या ॥७५॥ जाणामि जहा सम्म, पच्छित्तमऽहं तहा णु को अन्नो । को वा बहुस्सुओ मे, मएण इय जो न वियडेइ ॥७६॥ दुच्चरियं अन्नेसिं, पमायओ सम्मकिरियपरिहीणो । वेज्जो व न सो पायो, पावइ आराहणाउडरोग्गं ॥७७॥ जह कोई रोगिवेज्जो, अकहिय अन्नेसि नाणगव्येण । रोगं तब्बाहाए, सयकयकिरिओ हु विणट्ठो ॥८॥ तह चेव य गव्याओ, नासं पाति आणओ चेव । जे न अवराहरोगं, सम्म वियडेंति अन्नेसिं ॥७९॥ छत्तीसगुणजुएण वि, जम्हा एसा अवस्सकायव्वा । प्रसखिय च्चिय सया, सुट्ठ वि ववहारकुसलेणं ॥८०॥ दंसणनाणचरिता-यारा अट्ठट्ठभेयभिन्ना तो । बारसविहतवजुत्ता, छत्तीसगुणा य इय होति ॥८१॥ वयछक्काऽऽई अट्ठारसेव, आयारवाइ अट्ठेव । पच्छित्तदसगमेए, अहया छत्तीससूरिगुणा ॥८२॥ तह पवयणमायासमण-धम्मवयछक्ककायछक्काऽऽई । अट्ठदसडट्ठारसभेय-ओ गुणा होति छत्तीसं ॥३॥ आयारवमाडइया, अट्ठ गुणा दसविहो य ठियकप्पो । बारसतय छाडवासय-छत्तीसगुणा इमे अहवा ॥८४॥ इय बहुभेयछत्तीसगुण-गणाऽलंकिएण वि विसोहि । परसनिय च्चिय सया, कायव्वा मोक्खसोक्खकए ॥८५॥ जह कुसलो वि हु वेज्जो, अन्नस्स कहेइ अप्पणो याहिं । सोऊण तस्स वेज्जस्स, सो वि किरियं समाऽऽरभइ॥८६॥ एवं जाणंतेण वि, पायच्छित्तविहिमऽप्पणो सम्मं । तहवि य पागडतरयं, आलोएयव्वयं गुरुणो ॥८७॥ आलोयणं अदाउं, सड़ अन्नम्मि वि तहडप्पणो दाउं । जे वि हु रेंति सोहिं, ते वि न आराहगा होति ॥८॥ एतो च्चिय सोहिकए, गीयस्सऽन्नेसणा उ उक्कोसा । जोयणसयाणि सत्त उ, बारस परिसाणि कायव्वा ॥८९॥ आलोयणाअदाणे, दोसा इइ पन्निया समासेणं । योच्छामि अओ उड्ढे, जे उ गुणा होति दाणम्मि ॥१०॥ लहुया' ल्हाईजणणं', अप्पपरनियत्ति अज्जवं सोही । दुक्ककरणं विणयो', निस्सल्लतं च सोहिगुणा ॥११॥ इह कम्मचओ भारो भंजइ जीवे स जेण अच्वत्थं । भग्गा य तेण सिवगइ-गमणम्मि ण पच्चला होति ॥१२॥ वियडंतस्स उ दोसे, असंकिलिट्ठस्स सुद्धभावस्स । सो परिहायइ बहुसो, पुव्वचिओ कम्मगुरुभारो ॥३॥ तह भावओ य गुरुई, चारित्तगुणे पडुच्च जीवाणं । सिवगतिकारभूआ, जायइ परमत्थओ लहुया ॥१४॥ जह जह सुद्धसहायो, दोसे वियडेइ सम्ममुवउत्तो । तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसंवेगसद्धाओ पत्तो मया सुवेज्जो, दुलहो एसो य भाववाहिम्मि । लज्जाऽऽझ्या य तुच्छा, वाहिस्स विवड्ढया घोरा ॥१६॥ ता वियडिऊण सम्म, इमस्स चलणंतियम्मि धन्नस्स । काहामि अप्पमत्तो, भवदुक्खनिवारणिं किरियं ॥९ ॥ तह वियडिए य ल्हाई, उप्पज्जड़ एव सुद्धभावस्स । धन्नो हं भवगहणे, जेण मए सोहिओ अप्पा ॥९८॥ न कुणइ अओडवराहे, चरणाउं लज्जओ य किच्वाणं । पायच्छित्तभएण य, नियत्तिओ एवमडप्पा उ ॥१९॥ दट्ठण तं सुसाहुं, एव जयंतं परे वि भयभीया । न कुणंति अकिच्चाई, सेवंति य नवरं किच्चाई ॥५०००॥ अप्पपरनियत्तीए, एवं सपरोवयारभावो उ । न य सपरुवगाराउ, महल्लतरयं गुणट्ठाणं . ॥१॥ आलोयणाए अज्जव-सोहीओ प्रमनेव्युड़कीओ । भवभयनिवारणीओ, पन्नता वीयरागेहिं રા सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स 'चेट्टइ । निव्याणं परमं जाइ, घयसित्ते व्ब पावए ॥३॥ णियडीकिलिट्ठचित्तो, बंधड़ कम्म किलिट्ठमेव बहुं । जीयो पमायबहुलो, किलिट्ठकम्मस्स य नियाणं अइसंकिलिट्ठकम्माउणु-वेयणे जो उ होइ परिणामो । सो संकिलिट्ठकम्मस, कारणं जमिह पाएणं ॥५॥ तत्तो य भवविवड्ढी, तओ य दुक्खाई गभेयाई । इइ संकिलेसमूलं, नियडि च्चिय होइ नायव्या ॥६॥ उम्मूलणेण तीसे, संजायइ अज्जवं जओ तेण । आलोयण दायव्या, सोहिनिमित्तं च जीवस्स दुक्करकरणं च इमं, जं सेविज्जइ सुहं पमाएण । दुक्खं आलोइज्जड़, जहट्ठियं कम्मदोसाओ ગોળી लज्जाअभिमाणाऽऽइ-महाबले णेगभवसयडब्भत्थे । वियडंति जे अगणिउं, ते दुक्ककारया लोए ॥९॥ पाविति वि ते चेव य, अकलंकाऽऽराहणं महासत्ता । भवसवियागमहणिं, जे आलोयंति इय सम्म ॥१०॥ तित्थयराऽऽणापालण-गुरुजणविणओ य सेविओ होइ । आलोयणापयाणे, सम्मं नाणाऽऽइविणओ य ॥११॥ 'विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तवो ॥१२॥ 1. वट्टइ BI ॥७॥ 141 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५०१३-५०४६ आलोचनाविधानद्वारम् जम्हा विणयइ कम्म, अट्ठविहं चाउरंतमोक्खाए । तम्हा उ वयंति विऊ, विणयो ति विलीणसंसारा ॥१३॥ जं जायइ निस्सल्लो, नियमा आलोइऊण जइमत्थो । नो अन्नहत्ति तम्हा, निस्सल्लतं गणो तीए ॥१४॥ न हु सुज्झइ ससल्लो, जह भणियं सासणे धुयरयाणं । उद्धरियसव्यसल्लो, सुज्झइ जीयो धुयकिलेसो ॥१५॥ तो उद्धरंति गारव-रहिया मूलं पुणब्भवलयाणं । मिच्छादसणसल्लं, मायासल्लं नियाणं च ॥१६॥ उद्धरियसव्वसल्लो, आलोइयनिंदिओ गुरुसयासे । होइ अइरेगलहुओ, ओहरियभरो व्य भारवहो ॥१७॥ आलोयणागुणा खलु, इइ एवं वन्निया समासेणं । एतो जह दायव्वा, तह योच्छं तत्थिमा मेरा ॥१८॥ वक्नेवविरहिएणं पसत्थदव्वाऽऽइजोग' सुदिसाए । विणएण मुज्जुणाऽऽसे-वणाऽऽइलोमेण छस्सवणा ॥१९॥ वक्नेवविरहिएणं, निच्चं चिय जइजणेण होयव्वं । मोत्तूण संजमपयं, विसेसओ वियडणाए उ રો विहिं तिहिं वा दिवसेहिं, दायव्वाउडलोयण ति तो सम्म । सुत्तविउद्धो हियए, अवराहपए निवेसेज्जा ॥२१॥ तो ऋजुभावमुवगओ, सव्वे दोसे सरित्तु तिक्खुत्तो । लेसाहिं विसुझंतो, उवेड़ सल्लं समुद्धरिउं ॥२२॥ पच्चाऽऽगयसंवेगो, सम्मं वियडेज्जे तह जहा कम्मं । परिणामविसेसेणं, छिंदेज्ज भवंतरक्यं पि ॥२३॥ दव्वाऽऽइया य चउरो, एक्क्क दुहा पसत्थमडपसत्था । अपसत्थे वज्जेउं, पसत्थएसुं तु आलोए ૨૪ अमणुन्नधन्नरासी, · अमणुन्नदुमा य होंति दव्वम्मि । खेतम्मि भग्गझामिय-घरऊसरपमुहठाणाई काले दड्ढतिही तह, अमावसा अट्ठमी य नवमी य । छट्ठी य चउत्थी बा-रसी य दोण्हं पि पक्वाणं ॥२६॥ तह संझागयरविगय-पमोक्खनक्खत्तअसुहजोगा य । भावे य रागदोसा, पमायमोहाऽऽदओ अहवा ॥२७॥ एएसुं नाडलोए, आलोएज्जासु तद्विवक्नेसु । दव्ये सुवन्नमाऽऽईसु, खीरदुमाऽऽईसु याउडलोए ॥२८॥ उच्छुवणे सालिवणे, चेहरे चेव होइ खेतम्मि । गंभीरसाऽणुनाए, पयाहिणाऽऽवत्तमुदए य ॥२९॥ पुव्युत्तसेसतिहिरिक्ख-करणजोगाऽऽइए सुकालम्मि । भावे मणाऽऽइपसमे, उच्चाऽऽइठिएसु य गहेसु ॥३०॥ सोमग्गहलग्गेसु व, पुन्नेसु पसत्थभावजणगेसु । सुहदव्याऽऽइसमुदओ, जोगो पुण एत्थ विन्नेओ ॥३१॥ सुदिसाओ पुण पुब्बुत्तराउ, अहवा चरंति जिणमाऽऽई । जा नवपुवी जीए, जीए जिणचेइयाई वा ॥३२॥ तत्थ - जइ पुव्यमुहाऽऽयरिओ, तो इयरो ठाइ उत्तराभिमुहो । अह उत्तरआयरिओ, तो इयरो ठाइ पुव्यमहो ॥३३॥ पाईणोदीणमुहो, चेइयत्तो व्य सुहनिसन्नो य । आलोयणं पडिच्छड़, परोययारेक्करसियमणो भतिबहुमाणपुव्वग-मुचियं दाऊणमाऽऽसणं गुरुणो । काऊण य किइकम्म, कयंजली अभिमुहो य ठिओ ॥३५॥ संविग्गभविग्गो, विसयविरत्तो य सो महासत्तो । उक्कोसेणुक्कुडुओ, जइ पुण अरिसाऽऽइरोगत्तो ॥३६॥ बहुपडिसेवी य भेव, अणुन्नवेउं तओ निसेज्जगओ । भत्तिविणउत्तमंगो, वियडेज्जा अवितहं सव्वं . ॥३७॥ जह बालो जंपतो, कज्जमऽकज्जं च उज्जुओ भणड़ । तं तह आलोएज्जा, मायामयविप्पमुक्को य ॥३८॥ दुविहेणडणुलोमेणं, आसेवणवियडणाऽभिहाणेणं । आसेवणाऽणुलोमं, जं जह आसेविअं वियडे ॥३९॥ आलोयणाऽणुलोमं, गुरुगडवराहे उ पच्छओ वियडे । पणगाऽऽइणा कमेणं, जह जह पच्छित्तवुड्ढीओ ॥४०॥ तह आउट्टियदप्प-प्पमायओ कप्पओ य जयणाए । कज्जे वा जयणाए, जहट्ठियं सव्वमाउडलोए ॥४१॥ चउसवणा साहूणं, छस्सवणा साहूणीण नायव्या । सा पुण गुरुम्मि बुड्ढे, बुड्ढाए अप्पबीयाए ૪૨ા होइ तह अट्ठसवणा, तरुणम्मि गुरुम्मि अप्पबीयस्स । अप्पबीयाए देया, तरुणीए थेरिसहियाए ॥४३॥ जह दायव्वा तह वन्निया उ, आलोयणा समासेणं । एत्तो उ अणेगविहं. आलोएयव्ययं योच्छं ૪૪ 'आलोचयितव्यविषयद्वारम्' - तं पुण नाणदंसण-चरणतयोविरियभेयभिन्नस्स । पंचविहाऽऽयारस्स उ, वितहपवित्तीए नायव्यं ॥४५॥ सरयसरसरिसस्स । अइसयनिहिणो नाणस्स. भययो भवणमहियस्स ॥४६॥ जो को वि हु अइयारो, कालाऽऽइसु वितहसेवणाजणिओ । सो कुसलसल्लभूओ, आलोएयव्यओ सम्म॥४७॥ सन्नाणलच्छिविच्छड्ड-थारगाणं च पुरिससीहाणं । तह नाणाऽऽथाराणं, पोत्थयपडपट्टियाऽऽईणं ॥४८॥ | चरणाऽऽइघट्टणेणं, हीलाकणेण अविणएणं था । जो अइयारो विहिओ, आलोएयव्यओ सो वि ॥४९॥ 142 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५०५०-५०८८ आलोचनाविधानद्वारम् ॥५४॥ ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५८॥ ॥५९॥ કો ॥६४॥ एवं खु दंसणम्मि वि, संकाऽऽईण कहं पि करणेण । उववूहणाऽऽइयाण य, पमायदोसा अकरणेण ॥५०॥ तह पवयणप्पभावग - पुरिसविसेसाण जणपसिन्द्राणं । पावयणियपमुहाणं, उचियपवित्तीअकरणेण ॥५१॥ सम्मत्तनिमित्ताणं, तहेव जिणभवणबिम्बमाऽऽईन । जिणसिद्धसुरिवायगा -समणाण तयस्सिणीणं च ॥५२॥ सावयसुसाविगाण य, अच्चाऽऽसायणअवन्नमाऽऽईहिं । जो विहिओ अइयारो, सो वि हु आलोयणाविसयो ॥ ५३ ॥ चरणम्मि वि मूलुत्तर - गुणरूये समिइगुत्तिरूवे य । जो अइयारो सो वि हु, आलोएंयव्यओ तत्थ छज्जीयनिकायाणं, घट्टणपरितावणाए उद्दवणे । पाणाऽइवायविरमण - विसयो संभवड़ अइयारो एवं बीयवयम्मि वि, कोहेणं माणमार्यलोभेहिं । हासेण भएणं वा, तहाविहाऽसच्चययणम्मि पहुणा जमऽदिन्नाणं, सच्चित्ताऽचित्तमीसदव्याणं । हरणं तं तइयव्यय - गोयरमऽइयारमऽवगच्छ सुरतिरियनरित्थीणं, पत्थण अहिलसणसेवणाऽऽईहिं । तुरियवए अंडयारं, आलोएयव्ययं जाण देसकुलगिहत्थेसुं, अइरितुवहिम्नि जो अईयारो । चरिमवए अइयौरो, सो वि हु आलोयणाजोग्गो दियगहियाऽऽइचउहा, निसिभत्तवयम्मि जो अईयारो । सुगुरुसमीवे सो वि हु, सम्मं आलोयणाअरिहो ॥६०॥ उत्तरगुणे य पिंडग्गहम्मि, अहवा वि भिक्खुपडिमासु । भावणबारसगम्मि, दव्वाऽऽइअभिग्गहेसुं च ॥६९॥ | पडिलेहणापमज्जण - पत्तुब्बहिनिसीयणाऽऽइविसयम्मि । जो अइयारो विहिओ, सो वि हु आलोयणिज्जो तो ॥६२॥ ईरियाए अणुयओगे, सावज्जोहारिणीए भासाए । अविसुद्धभत्तपाणाऽऽइ - गहणओ एसणाए वि | अप्पडिलेहपमज्जिय-भंडगउवगरणगहणनिक्खेये । उच्चाराईणमऽथं- डिले वि जह तह य परिट्ठवणे इय* पंचसु समिईसुं, गुत्तीसु य तीसु जो अईयारो । जाओ पमायओ को वि, सो वि आलोयणाअरिहो ॥ ६५ ॥ इय रागाऽऽइयसेणं, नट्ठवियेगेण असुहलेसेणं । जं कलुसियं चरितं तं सड़ आलोयणिज्जं तु एवं तयम्मि अणसण - माऽऽइपयारेहिं बज्झरूयम्मि अब्मिंतरम्मि वि तहा, पायच्छिताऽऽइभेएहिं सत्तीसम्भावम्मि वि, जमऽणायरणं कखं पमाएणं । सो होड़ अईयारो, आलोएयव्यओ नियमा विरिए वि हु अइयारं, सपरक्कमगोवणेण किच्चेसु । सिवगइनिबंधणेसुं, आलोएयव्ययं जाण | रागद्दोसकसाओ - वसग्गइंदियपरिसहट्टेण । जं दुट्टु यट्टियं तं पि, संममाऽऽलोइयव्यं ति मंदाऽवधारणतेण, जे य नो सुमरणापहे ठंति । असदस्स तस्स ओहेण, ते वि आलोइयव्या उ एवं विचित्तभेयं, आलोएयव्ययं तु निद्दिद्वं । जह सा दवावियव्या, गुरुणा तह संपयं वोच्छं पुव्युत्तो चैव गुरू, णवरं जो तत्थ होड़ आगमिओ । पडिवज्जिहि त्ति नाउं पम्हुट्टे सारणं कुणइ जो पुण नो पडिवज्जइ, सुठुवि जत्तेण सासिओ तं तु । नो सारेइ भयवं, जम्हा सो सारणवसेण गच्छं पि परिचएज्जा, गुणगणपरिमंडियं तु लज्जाए । अहवा होज्ज गिहत्थो, मिच्छंत वा वि गच्छेज्जा ॥ ७५ ॥ गुणदोसे मुणिऊणं, इच्छड़ आलोयणं पुणो पच्छा । चोएड़ देसकाले, सम्मं पडिवज्जिही जम्मि ॥७६॥ एगंतेण अजोगं, मुणिऊणं अहव नो पडिच्छेड़ । तह जह से न वि जायइ, सुहुमं पि अपत्तियं किंपि ॥७७॥ | इयरे य सुयाऽऽईया, आलोयार्येति ते पुण तिखुत्तो । सरिसऽत्थअपलिउंचिं, आगाराऽऽइंहिं नाऊण ॥७८॥ आगारेहिं सरेहिं, पुव्याऽयरवाहयाहिं य गिराहिं । पलिउंचिस्स सरूवं, कुसला पाएण जाणंति Fl ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७९॥ जो सम्मं नाऽऽलोए, तस्सऽणुसद्धिं पुणो पजुंजंति । तह वि हु अठायमाणे, कारणओ नवरि पडिसेहो ॥८०॥ आह न छउमत्येणं, पडिच्छियव्वे वि वियडणा नेय । दायव्यं पच्छित्तं, नाणस्स अभावओ सम्मं ॥८१॥ परिणामहेउकम्मं, न य नज्जइ कस्स केरिसो सो य । निच्छयओ अन्नाए, तम्मि य कम्मं पि तेण समं ॥८२॥ भन्नड़ जह छउमत्थो वि, आगमे कयपरिस्समो वेज्जो । दिट्ठकिरिओ य रोगं, अवणेइ तहेव एसो वि ॥ ८३ ॥ इय जह दवावियव्या, गुरुणा आलोयण त्ति तह भणिया । पच्छितदारमेत्तो, समासओ संपयक्खामि ॥८४॥ दसविहपायच्छित्तं, आलोयणमाऽऽइयं मुणेयव्यं । जो तत्थ जेण सुज्झइ, अइयारो तं तदऽरिहं तु ॥८५॥ | आलोयणेण सुज्झइ, अइयारो को वि को वि पडिकमणे । मिस्सेंण को वि तां जाय, को वि पारंचिएणं ति॥८६॥ पच्छिताई चरेंतस्स, सुद्धचित्तस्स अप्पमायाओ । जायइ पावविसुद्धी, भुंज्जो तदऽकरणसत्तस्स | तम्हा बज्झऽब्भन्तर - करणसमग्गेण धम्मिएणेह । निच्चं चिय होयव्यं, न अन्नहागाहजुत्तेणं દા ॥८८॥ 143 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५०६६-५१२४ आलोचनाविधानद्वारम् - सुरतेजनरसुन्दरयोः दृष्टान्तः पच्छितदारमेवं, कमपत्तं वन्नियं समासेण । फलदारमओ योच्छं, चोएइ य चोयगो तत्थ ॥८९॥ आलोयणाए पुवं, जे चेव गुणा पवन्निया इहइं । तयडणंतरभावाओ, ते चेव फलं किमेएण? ॥९ ॥ भन्नइ न एत्थ दोसो, ते वाडणंतरं फलं किंतु । इहइं परंपरपलं, पडुच्च दारस्सुवन्नासो ९१॥ तं पुण इमीए भणियं, जिणेहिं जियरागदोसमोहेहिं । मोक्खो सारीरेयर-दुक्खक्खयओ सयासोक्खो ९२॥ सम्मतनाणचरणा, तयो य जं मोक्खहेयवो भणियो । सइ चरणम्मि य नियमा, हवंति सम्मत्तनाणाइं ॥९३॥ तस्स् य पमायदोसा, मालिन्नमुवागयस्स संतस्स । भवसयसहस्समहणी, कीरइ सोही इमाए उ ॥९४॥ सुद्धचरणो य साहू, जयमाणो अप्पमायवं धीरो । खविऊण कम्मसेसं, अचिरा वरकेवलमुवेड़ ॥९५॥ संपत्तकेवलो पुण, तेणेव भवेण 'नीरओ भयवं । असुरसुरमणुयमहिओ, उवेइ मोक्खं सयासोक्खं ॥१६॥ एवं पच्छित्तफलं, लेसुद्देसेण किंपि उवइष्टुं । तब्भणणा पुण भणियं, पत्थुयमाउडलोयणविहाणं ॥९७॥ एयं च सम्ममऽवगम्म, खवगः परिचत्तअत्त उक्कोसो । उक्कोसं आराहण-विहाणमऽभिलसिउकामो सो ॥१८॥ ठाणाऽऽइसु अइयारं, अणुमेतं पि हु समुद्धरसु धीर! । अकयप्पडियारो विस-लयो वि मारेइ णियमेण ॥१९॥ थेवो वि हु अड्यारो, पायं जं होइ बहुअणिट्ठफलो । एत्थं पुण आहरणं, विन्नेयं सूरतेयनियो ॥५१००॥ तहाहि - . सुरतेजनरसुन्दरयोः दृष्टान्तः" । पउमावईए पुरीए, विविहऽच्छेरयनिवासभूयाए । राया अहेसि नामेण, विस्सुओ सूरतेओ ति निक्कवडपेमधरणो नामेणं धारणी उ से भज्जा । तीए समं नरवइणो, विसयसुहं भुंजमाणस्स ॥२॥ उचियसमयाऽणुरुवं, जणवयकज्जं च चिंतयंतस्स । धम्मडत्थं पि हु परिभा-विरस्स बच्वंति दियहाई ॥३॥ अह एगम्मि अवसरे, सुयसागरपारगो जयपसिद्धो । पुरबहिया उज्जाणे, एगो सूरि समोसरिओ ૪ तस्साऽऽगमणं सोडे, राया पुरिपवरलोयपरियरियो । करिकंधराऽधिरूढो, सिरोवरिं धरियसियछत्तो ॥५॥ पासट्ठियतरुणीयण-करचालियचारुचामरुप्पीलो । सहरिसपुरपरिसप्पिर-मागहगिजंतगुणनियहो। ॥६॥ अरिहंतधम्मसवणउत्थ-माडगओ तम्मि चेव उज्जाणे । नमिउं च सूरिचरणे, उचियपएसम्मि आसीणो ॥॥ अह मुणिवड़णा नाऊण, जोग्गयं सजलमेहगहीराए । वाणीए सुद्धसद्धम्म-देसणा काउमाऽऽरद्धा जहा - परियट्टिऊण जीवा, सुचिरं भवसायरे अपारम्मि । कहकहवि कम्मलहुय-तणेण पायेंति मणुयत्तं पत्ते वि तम्मि हीण-तणेण खेत्तस्स होंति निद्धम्मा । पवरे वि तम्मि जाती-कुलवियला किं पकुव्यंति ॥१०॥ उत्तमजाइकुला वि हु, रुवाउडरोग्गाऽऽइगुणगणविउत्ता । न खमंति किंपि काउं, छायापुरिस व्य सुहमऽत्थं ॥११॥ रूवाऽऽरोग्गाऽऽईहिं पि, संगया थोयआउयत्तेण । नेवाऽवत्थाणं पा-उणंति जलबुब्बुय व्य चिरं ॥१२॥ सुचिराउणो वि बुद्धी-सवणोग्गहविरहिया हियऽत्थेसु । विमुहा के वि हु मूढा, अच्वंतं विसमसरविहुरा ॥१३॥ तत्तोवएसयं सुह-गुरुं पि वेरिं व दुज्जणजणं व । मन्नंता विसएसु, अणवरयं पि हु पयर्टेति ॥१४॥ ते य तह संपयट्टा, विविहाहिं आययाहिं परियरिया । मरणमुति अवंति-नियो व्य विहलियमणुस्सभया ॥१५॥ अन्ने पुण कुसलमईए, मुणियविसयत्थसोक्खविगुणता । नरसुंदरो व्य दढधम्म-बद्धलक्खा लहुं होन्ति ॥१६॥ अह सूरतेयरन्ना, विम्हियहियएण पुच्छियं भंते! । कोऽयमवंतीनाहो, को या नरसुंदरो एसो ॥१॥ गुरुणा भणियं नरवर!, कहेमि सम्म तुम निसामेसु । धरणियलमंडणाए, नयरीए तामलितीए ॥१८॥ | कोवम्मि जमो कित्तीए, अज्जुणो भुयजुयम्मि बलभद्दो । एगो वि अणेगो इव, राया नरसुंदरो आसि ॥१९॥ अप्पडिमरूवकलिया, रइ व्य लच्छि व्य पवरलायन्ना । भइणी बंधुमई से, अहेसि दढनेहपडिबद्धा ॥२०॥ सा य विसालापुरिनायगेण, रन्ना अवंतिनाहेण । परमेण आयरेणं, परिणीया पत्थणापुव्यं ॥२१॥ ता सो तीए बाढं, अणुरत्तो मज्जपाणवसणे य । आसत्तो अणवरयं, दिवसाइं गमेउमाऽऽरद्धो ॥२२॥ तस्स उ पमायदोसा, रज्जे रटे य सीयमाणम्मि । पयइपहाणजणेहिं, सचिवेहि य मंतिउं सम्म ॥२३॥ तिप्युत्तो रज्जम्मि, ठविओ सो पुण निसाए पासुत्तो । पउरं पाइय महरं, देवीए समं नियनरेहिं ૨૪ો 1. नीरजाः = कर्ममुक्तः । 2. उक्कोसो = उत्कर्षः = अहङ्कारः । 144 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५१२५-५१६१ पल्लंकठिओ संकेइएहिं, नेऊण उज्झिओ रन्ने । हरिहरिणकोलसद्दुल - भिल्लभल्लुंकिबहुलम्मि | बद्धो य उत्तरिज्जे, लेहोऽ - णाऽऽगमणसूयगो तस्स । अह पच्चूसे उवलद्ध - चेयणो ववगयमओ य पासाई जा- पलोयइ, राया ता वत्थअंचलनिबद्धं । लेहं दठ्ठे तं वा-इउं च विन्नायपरमुत्थो भालयलघडियभिउडी, कोयवसाऽऽयंबिरऽच्छिविच्छोहो । दसणऽग्गदट्ठउट्ठो, इय भज्जं भणिउमाऽऽढतो ओ! पेच्छ पेच्छ पावाण, मंतिसामंतभिच्चपमुहाण । निच्चं कओवयाराण, निच्चं दिज्जंतदाणाणं | निच्चमऽपुव्वाऽपुव्य-प्पसायविप्फारियऽप्पसिद्धीणं । अवराहे वि हु निच्चुं, सपणयदिट्ठीए दिट्ठाण अविभिन्नरहस्साणं, संसइयऽत्थेसु पुच्छणिज्जाणं । नियकुलकमाऽणुरूवं, एवंविहचेट्ठियं सुयणु ! मन्ने सयमेव मुहम्मि, मच्चुणो पविसिउं समीहंति । ते पावा कहमिहरा, सामिद्दोहे मई होज्जा ता तम्मुंडाई खंडिऊण, महिमंडलं अहं इन्हिं । मंडेमि निसिचरे वि हु, तदीयपिसिएण पोसेमि तल्लोहिएण तण्हं, अवणेमि य पूयणासमूहस्स । कीणासस्स व कुवियस्स, मज्झ किमऽसज्झमिह सुयणु ! ॥ ३४ ॥ | एमाऽऽइ जंपमाणो, अविभावियनिययदेव्यपरिणामो । राया बंधुमईए, विन्नत्तो मंजुलगिराए देव! पसीयसु संपड़, मुंचसु कोयं न एस पत्थायो । समओचियं हि सव्वं, कीरंतं बहुगुणं होइ तुमम सहाओ पब्भट्ठ- लट्ठरज्जो विरतपयई य । कह नाह! इन्हि सत्तूण, विप्पियं काउमुच्छहसि ता ऊसुगत्तमुज्झसु, बच्चामो तामलित्तिनयरीए । पच्छामो दढपणयं, तत्थ य नरसुंदरनरेंद पडियन्नमिमं रन्ना, कमेण गंतुं च संपयट्टाई । पत्ताणि य सामंते, नयरीए तामलित्तीए ॥३३॥ ॥३५॥ ॥३६॥ ॥३७॥ મા ॥३९॥ ॥४१॥ '॥४२॥ ૫૪૫ ॥ ४४ ॥ ॥४५॥ ॥४६॥ ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ अह देवीए भणियं, नरवर ! तुममेत्थ ठाहि उज्जाणे । अहमऽवि कहेमि गंतूण, भाउणो तुज्झ आगमणं ॥ ४० ॥ जेणं सो हरिकरिजोह - संदणुद्दामनिययरिद्धीए । आगंतूणाऽभिमुहो, तुमं पवेसेइ नयरीए एवं होउ त्ति निवेण, जंपिए सा गया नरेंदहरं । सीहासणे निसन्नो, दिट्ठो नरसुंदरी य तहिं अवितक्कियमाऽऽगमणं, दठ्ठे तेणाऽवि विम्हियमणेणं । उचियपडिवत्तिपुव्यं, पुट्ठा सव्वं पित्तं सिट्ठो य तीए ता जाव अमुगट्ठाणम्मि चिट्ठइ नियो ति । तो सो सव्विड्ढीए, तदऽभिमुहं पट्ठिओ झति सो पुण अवंतिनाहो, तब्बेलं दढछुहाए संतत्तो । वालुंकिकच्छयम्मि, चिब्भिडिगाभक्खणनिमित्तं | चोरो व्य अवद्दारेण, पविसमाणो उ कच्छगनरेण । मम्मपएसे पहओ, जट्ठीए निरऽणुकंपेण | अह घोरघायवसनट्ठ- चेयणो वत्तिणी विईणंडतो । कट्ठघडिओ व्व पडिओ, निच्चेट्ठो धरणिवट्ठम्मि एत्थं तरम्मि नरसुं- दरो निवो विजयरहबराऽऽरूढो । तस्साऽवलोयणडत्थं, पत्तो तम्मि पएसम्मि नवरं तरलतुरंगम- खुरप्पहारूक्खएहिं रेणूहिं । तिमिरभरऽक्कतं पिव, तव्वेलं नहयलं जायं अवलोयणविरहेण य, निवरहतिक्खग्गचक्कधाराए । तह निवडियस्स कंठो, दुहाकओ अवंतिनाहस्स अह पुव्युयदिट्ठे ठाणगम्मि, भइणीयतिं अपेच्छंतो । राया बंधुमईए, वित्तंतमिमं कहावेड़ हा हा दिव्य ! किमेयं? ति संभमुब्भंततरलतारऽच्छी । बंधुगिरं बंधुमती, सुणिऊण समागया झति तो अवलोयंतीए, सुनिउणदिट्ठीए नट्ठरयणं व । तमऽवत्थं संपत्तो, कहकहवि हु तीए सो दिट्ठो दठ्ठे च नट्ठजीयं तं मोग्गरचूरिय व्य दुक्खता । मुच्छानिमीलियऽच्छी, झडत्ति धरणीयले पडिया | पासपरिवत्तिपरियण-कयसिसिरुवयारविगयमुच्छा य । पम्मुक्कदीहपोक्कं विलविउमेवं समारद्धा हा हा अवंतिनरवर!, निरुवयविक्कमनिहाण! पावेण । एवंविहं अवत्थं, केणाऽणज्जेण नीओ सि हा पाणनाह! तुमए, सग्गोवगयम्मि मह अपुन्नाए । अज्ज वि य जीवियव्वे, विज्जइ नाऽऽलंबणं किंपि ॥५७॥ हयदिव्य ! किं न तुट्ठो, रज्जऽवहारेण देसचाएण । सुहिजणविओयणेण य, जमेयमऽवि ववसिओ पाव! ॥५८॥ हे हियय! हीण! निग्घिण!, अणज्ज! यज्जेण किमऽसि निम्मवियं ? | ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५४॥ ॥५५॥ ॥५६॥ सुरतेजनरसुन्दरयोः दृष्टान्तुः ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२७॥ રા ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ जं न विलिज्जसि अज्ज वि, पियविरहहुयासतवियं पि | सा रायसिरी सो भय -नमंतसामंतमंडलो सामी । तमऽणन्नकामिणीजण - कमणीयं तस्स मइ पेम्मं तं आणिस्सरियं सयल-लोयसाहारणं धणं धिद्धी ! । नट्टं एक्कपए च्चिय, सव्यं गंधव्यनयरं व 1. वृतीनामन्तः = वाडोनी वचमां । 145 ॥५९॥ ॥६०॥ ॥६९॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५१६२-५१६६ सुरतेजनरसुन्दरयोः दृष्टान्तः आणंदसंदिसुंदर-मुहेंदुमडवलोइउ च देवस्स । कहमिन्हेिं पेच्छिस्सं, थुडुकियाई खलु मुहाई ॥६२॥ कह वा देवपसाएण, विविहकीलाहिं कीलिऊणिन्हि । रुद्धपयारा रिउगे-हिणि व्य वसिहं परगिहम्मि ॥३॥ एमाऽऽइ विलवमाणी, करताडणदलियपीणथणवट्ठा । विलुलियकुंतलभुयउत्त-रिज्जपरिगलियवलया य ॥६४॥ अप्पाणं सुचिरं झूरिऊणं, तं किंपि सोगसंभारं । हिययम्मि उव्वहंती, नरसुंदरराइणा बहुसो ॥६५॥ वारिज्जंती वि बहु-प्पयारवयणेहिं भत्तुणा समगं । जालाडउलम्मि जलणम्मि, नियडिया सा पयंगि व् ॥६६॥ अह संवेगोवगओ,राया नरसुंदरो विचिंतेइ । अविचिंतणीयवा, धिद्धी पमा भवस्स ठिई ॥६॥ जत्थ सुही वि हु दुहिओ, नियो वि रोरो सुमित्तमऽवि सत्तू । संपत्ती वि वियत्ती, परिणमइ निमेसमिते वि ॥६८॥ कहमहुण च्चिय तीए, चिरकालाओ समागमो जाओ । कहमिन्हेिं पि विओगो, धिरउत्थु संसारवासस्स ॥६९॥ मन्ने करिकन्नसुरिंदचाव-तडिचावलेण निम्मवियं । वत्थु समत्थं एत्थं, तेणं खणदिट्ठनटुं तं ॥७०॥ एवंविहे य कहमिह, ख्रणमऽपि निवसंति मुणियपरमत्था । वीसत्था सगिहेसुं, अहह! महा घिट्ठिमा तेसिं ॥१॥ इय संसारविरत्तो, स महासत्तो सुयं निययरज्जे । ठविऊण क्याऽणसणो, सुहम्मि भावम्मि पढ्तो ॥७२॥ सव्वन्नुसासणम्मि, बहुमाणमऽपुवमुव्यहंतो य । मरिऊण बंभलोए, भासुररूवो सुरो जाओ ॥७३॥ तत्तो य उत्तरोत्तर-विसोहिवसओ स कइ वि भवगहणे । नरसुरसिरिमऽणुभविउं, परमसुहं सिवपयं पत्तो ॥४॥ एवमऽवंतीवइणो, रन्नो नरसुंदरस्स वि य चरियं । जं पुच्छियमाऽऽसि तए, नरवर! तमसेसमऽवि सिटुं ॥७५॥ सोच्चा य इमं पडिवख-पक्वनिक्खित्तअसुहकायव्यो । तह कह वि पयट्टसु सूर-तेय! जह सूरतेओ सि ॥७६॥ | एवं गुरुणा कहिए, राया परमुल्लसन्तसंवेगो । देवीए धारिणीए, सह पव्वइओ गुरुसमीवे ॥७७॥ अहिगयसुत्तऽत्थाण य, पइदिणवड्ढेतसुद्धभावाण । अइआरकलंकविमुक्क-साहुकिरिआरइपराण ७८॥ छट्ठट्ठमाऽऽइणि?र-तयोविहाणेक्कबद्धलक्खाणं । दोण्हं पि तेसि अपमत्त-याए वोलेंति दियहाई ॥७९॥ | अह अण्णया कयाई, स महप्पा विविहदूरदेसेसु । विहरित्ता संपत्तो, नयरम्मि हत्थिणागपुरे ૮૦થી थीपसुपंडगरहिए, ठिओ य एगस्स गहवइस्स घरे । ओग्गहमडणुजाणाविय, वासायासस्स करणत्थं ॥८१॥ सा वि हु अज्जा कहमऽवि, विहरती तत्थ चेव नयरम्मि । वासाकालं काउं, वुत्था उचियप्पएसम्मि ॥८२॥ तेसिं च समणधम्म, पालिताणं विसुद्धचित्ताणं । जो वित्तंतो जाओ, तत्थ पुरे तं णिसामेह ॥८३॥ नज्जिय-कबेरविहवस्स विन्हनामस्स । इब्भस्स सओ दत्तो ति, विस्सओ मयणपडिरूवो ॥८४॥ नीसेसकलाकुसलो, विविहविलासाऽऽलओ विमलसीलो । विउसवयस्साउणुगओ, 'नडपेच्छणयं गओ दढें ॥५॥ तत्थ य विसट्टकंदोट्ट-दीहरऽच्छी रइ व्य पच्चक्खा । दिट्ठा नडस्य धूया, तदुवरि रागो य से जाओ ॥८६॥ तव्येलं चिय अविआरिण, आजन्मकालियकलंकं । निययकुलस्स स दूर, उज्झियलज्जो गिहे गंतुं ॥७॥ तं चेव सुमरमाणो, जोगि व्य निरुद्धसेसवायारो । मत्तो व्य मुच्छिओ इव, घरेगदेसे ठिओ विजणे ॥८॥ आपुच्छिओ य पिउणा, वच्छ! किमेवं तुम अयंडे वि । करचरणचंपिओ चंप-गो व्य नज्जसि सिरीमुक्को ॥८९॥ किं रोसवसा किं वाड-वमाणओ किंव कहिंवि पडिबंधा । एवं वट्टसि पुत्तय!, कहेसु जा तदुचियं कुणिमो ॥१०॥ दत्तेण जंपियं ताय!, किंपि न मुणेमि कारणं सम्म । नवरं अन्नाणं अणु-भवामि पीलिज्जमाणं व ॥११॥ तो आदन्नो सेट्री, कया य तप्पसमणे बहउवाया । न य थेवो वि ह जाओ, पडियारो अह ययस्सेहिं ॥१२॥ |पेच्छणयदिट्ठनडधूय-पेहणुप्पन्नरागवुत्तंतो । सिट्ठो सेट्ठिस्स तओ, सो चिंतेउं समाढतो . ॥१३॥ अहह कुलीणतम्मि वि, पडिखलणपरम्मि सुंदरविवेगे । पभयंते वि स उल्लसइ, को वि जीवस्स उम्माओ ॥९४॥ जेण न गणेइ गुरुणो, न लोयलज्जं न धम्मविद्धंसं । नो कित्तिं नो बंधुं, नो दुग्गइपडणपडिघायं ॥९५॥ ता किं रेमि एवं, ठियस्स एयस्स मूढहिययस्स । नत्थि स को वि उवाओ, जो लोयदुगस्स अविरुद्धो ॥१६॥ तह वि हु सुकुलपसूयाउ, कन्नगाउ मणोहरंडगीउ । दंसेमि इमस्स मणो, जड़ पुण विरमइ कहवि तत्तो ॥९॥ एवं विभाविऊणं, निदंसिओ कन्नगाजणो तस्स । नडधूयाहरियमणो, खिवइ न सो तत्थ चक्खु पि ॥९८॥ तो अचिकिच्छो त्ति विभा-विऊण सो सेट्ठिणा कओ सिढिलो । उज्झियलज्जेण तओ, तेणं दाउं नडाण थण॥१९॥ | 1. वत्स्यामि = मैं रहुंगा। 146 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५२००-५२३४ ॥१॥ En ॥७॥ द्वितीयशय्याद्वारम् - गिरिसुयजुगलदृष्टान्तः | परिणीया सा कन्ना, अहह! अकज्जं कयं ति नयरे य । सव्वत्थ वि वित्थरिओ, लोयऽचवाओ अपडिघाओ ॥ ५२००। जणमुहपरंपराए, सोऊण इमं च ईसि रागवसा । जंपेड़ सूरतेओ, सविम्हयं नत्थि रागस्स नूणमऽसज्यं किंचिवि, कहमिहरा पवरकूलपसूओ । एवंविहं अकज्जं, काउं ववसेज्ज स वरागो तीए वि साहूणीए, वंदणवडियाए आगयाए तहिं । वित्तंतमिमं सोच्चा, भणियं ईसिं पओसवसा भो! होउ हीणजणसंकहाए, नियकज्जसाहणे जयह । मयणवसाणमऽकिच्चं सुलहं चिय किमिह वयणिज्जं ॥४॥ इय संकहाए, मुणिणो, सुहुमो रागो तवस्सिणीए वि । सुहुमपओसो आओ, पमायओ तं च गुरुमूले ॥५॥ सम्ममऽणालोइता, तव्वसओ नीयगोयमुवचिणिउं । पज्जंतम्मि मयाई, काऊणं अणसणविहाणं उववन्नाणि य देवत्तणेण, सोहम्मदेवलोयम्मि । घुसिणघणसारनिब्भर - सोरभपब्भारभरियम्मि उवभुंजिऊण तत्थ य, पंचपयाराई विसयसोक्खाई । सो सूरतेयजीयो, चविऊणं इब्भवणियगिहे पुत्तत्तेणववन्नो, देवी वि हु लंखगस्स गेहम्मि । धूयतेणुववन्ना, कयं च दोहि वि कलागहणं पत्ताणि य तारुण्णं, न य कहनऽवि तस्स जुवइयग्गम्मि । उप्पज्जइ रागमई, तीए वि हु पुरिसयग्गमि ॥१०॥ एवं च तेसि वच्चंतयम्मि, कालम्मि एगया कहवि । तुडिजोगा संजोगो, जाओ अच्वंतरागो य दत्तेण व तेण तओ, मयणहुयासणतविज्जमाणेण । वारिज्जंतेण वि जणणि जणगपमुहेहिं सयणेहिं नडभूरिदाणपुव्यं, उव्वूढा सा विमुक्कलज्जेण । उज्झियगिहो य अह सो, नडेहिं सह भमिउमाऽऽदत्तो सुचिरं च दूरदेसंऽतरेसु, भमिरस्स कहवि से जायं । मुणिदंसणमीहाऽपोह-भावओ जाइसरणं च अह सुमरियपुव्यभवो, स महप्पा उज्झिउं विसयसंगं । पव्वज्जं पडिवन्नो, पत्तो अंते य देवतं " सुरतेजनरसुन्दरयोः दृष्टान्तः समाप्तः " ॥८॥ ዘበ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥ १४ ॥ ॥१५॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ इय अकयपडिविहाणं, अइयारं थोयमऽवि मुणेऊण । कुसलपडिखलणपडुयं, परिणतिकडुयं च कुसलमई ॥१६॥ पुव्यपवंचियविहिणा, तह कहवि हु कुणइ अत्तणो सोहिं । जह सुक्कज्झाणऽग्गीए, दड्ढनीसेसकम्मवणो ॥१७॥ लोयऽग्गमत्थयमणी, सिद्धो बुद्धो निरंजणो । सव्यनू सव्यदरिसी य, अणंतसुहवीरिओ अक्खओ निरुजो निच्चो, कल्लाणी मंगलाऽऽलओ । अपुणन्भू सिवं ठाणं, उबेइ अपुणाऽऽगमं | एवं पवयणसायर - पारगओ सो चरितसोहीए । पायच्छित्तविहन्नू, कुणइ विसुद्धं तयं खवगं एयारिसस्स गणिणो, असइ उवज्झायमाऽऽइपामूले । सोहेज्जा अप्पाणं, खवगो आराहणाकंखी पडिसेवणाऽइयारा, जड़ वीसरिया कहिं पि होज्जाहि । सल्लुद्धरणनिमित्तं तव्विसए इय भणेयव्यं जे मे जाणंति जिणा, अवराहा जेसु जेसु ठाणेसु । ते हं आलोएमि, उवट्ठिओ सव्यभावेणं एवं आलोइंतो, गारवरहिओ विसुद्धपरिणामो । विस्सुमरियाऽचराहु - त्थपायपसरं पि पडिहणइ | इय पायकलिलजलविब्भमाए, संवेगरंगसालाए । संविग्गमणोमहुयर - कुसुमिययणराइतुल्लाए आराहणाए पडिदार - नवगमइए ममत्तवोच्छेए तइए दारे आलो - यणाविहाणं पढमदारं पुव्युदंसियविहिणा, कयसोही वि हु न जं विणा खवगो । पावड़ समाहिमऽह तं, सेज्जादारं परूयेमि ॥२७॥ " द्वितीयशय्याद्वारम् " ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ― - सेज्जा भन्नड़ वसही, तं पुण खरकम्मियाण चोराण । वेसाण मच्छबंधाण, लोद्धयाऽऽईण पावाण | हिंसग - असब्भभासग - कीवाणं कामुयाऽऽइयाणं च । लोयाण पाडियेसे, नो पडियाहेज्ज खवगकए | मा असमंजससद्दाऽऽइयाण, सवणाऽऽड़णा उ खवगस्स । एवंविहसेज्जाए, होज्ज समाहीए वाघाओ कुच्छियसंसग्गीए, भावियमइणो वि भावपरियतो । संपज्जइ एत्तो च्चिय, पडिसिद्धा पावसंसग्गी असुहसुहसंगवसओ, दीसंति य पयडमेव दोसगुणा । तेरिक्खजोणियाण वि, गिरिसुयजुगलं इहं नायं “गिरिसुयजुगलदृष्टान्तः” | विंझमहागिरिपरिसर- सरतसरियासहस्सरमणिज्जा । कुलडेव विडवरुद्धा, अडवी कायंबरी अस्थि निंबंऽबजंबुजंबीर- साल अंकोल्लवेणुसेलुया । सल्लइमोयइमालय - बउलपलासा करंजा य 1. पाडिवेसे = संनिधौ = पडोशमें 147 n ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ૫૫ રેકો n Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५२३५-५२७२ पुंनागनागसीवन्नि - सत्तवन्नप्पमुक्खरुक्खगणा । रेहंति जत्थ मंसल મા ॥३८॥ ॥३९॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ "જો ॥४७॥ ॥४८॥ ॥५०॥ परिमलकुसुमेहिं संछन्ना तत्थ य दीहरवडविडवि - कोडरे सुड़गा सुगे दोण्णि । अविणट्ठलट्ठदेहे, समुचियसमयम्मि उ पसूया | पक्खाऽनिलपइदिणचूण्णि-दाणओ वड्ढिया य ते तीए । थेयोवलद्धनहगम - सामत्था अवरदियहम्मि चावल्लयाए तत्तो, उड्डित्ता जाव गंतुमाऽऽरद्धा । दुब्बलपक्खत्तणओ, ता पडिया अद्धमग्गम्मि तद्देसमाऽऽगएहिं, अह एगो तेसि तायसेहिं सह । नीओ आवासम्मि, इयरो भिल्लेहिं पल्लीए 'हण छिंद भिंद मंसं, अससु लहुं लोहियं पिब इमस्स' । इच्चाऽऽइदुट्ठवयणाई, भिल्लपल्लीठिओ कीरो ॥ ४० ॥ | पइखणमऽविरामं चिय, सुणमाणो तम्मणो दढं जाओ । इयरो य तावसाणं, करुणारसियंऽतकरणाण ॥४१॥ ' मा मा मारह जीवे, कुणह दयं पंथियाऽऽइणो दुहिए । अणुकंपह' इच्चाऽऽइ-वयणेहिं भाविओ बाढं ॥४२॥ एवं बच्चंतम्मि, काले एगम्मि अवसरे राया । नामेण कणगकेऊ, वसंतपुरनयरवत्थव्वो विवरीयसिक्खतुरगेण, सिग्घवेगेण अवहडो इंतो । भिल्लसुएणं तरुसिहर - संठिएणं कहवि दिट्ठो अह पावभावणाभाविएण, तेणं पयंपियं रे रे । भिल्ला ! धावह गेण्हह, सिग्घमिमं नरवई जंतं एयस्स दिव्यमणिकणग- रयणाऽलंकारमऽवहरह तुरियं । इहरा पेच्छंताण वि, तुम्हाण पलायणे लग्गो' | देसम्मि जत्थ विहगा वि, एरिसा दूरओ स मोतव्यो । इइ चिन्तिऊण राया सिग्घं तत्तो अवक्कतो पत्तो य तावसाऽऽसम - समीवदेसम्मि कहवि तुडिजोगा । इयरसुगेणं दट्ठूण, महुरवाणीए तो भणियं हंहो तायसमुणिणो !, तुरंगहरिओ नराऽहिवो एसो । एइ चउराऽऽसमगुरू, ता कुणह इमस्स पडिवतिं ॥४९॥ |तव्ययणेण य सव्वाSS - यरेण निययाऽऽसमम्मि नरनाहो । नेऊण तावसेहिं, उवयरिओ भोयणाऽऽईहिं अह वीसत्थसरीरो, विम्हइयमणो निवो सुगं भणइ । तुल्लम्मि वि तिरियत्ते, विसरिससीलत्तणं किं भे ॥५१॥ जेणं सं भिल्लपल्ली - सुगो तहा निठुरं पयंपेड़ । तुममऽवि एवं मंजुल - गिराए उल्लवसि हियमेव ॥५२॥ ताहे सुगेण सिद्धं, एगा जणणी पिया वि एक्को य । मम तस्स य नवरं सो, नीओ पल्लीए भिल्लेहिं ॥५३॥ अहमऽवि मुणीहिं नियनिय - संसग्गसमुब्भया य गुणदोसा । संजाया अम्हाणं, पयडं तुमए वि दिट्ठमिमं ॥ ५४ ॥ एवं जड़ तिरियाण वि, संसग्गिवसेण दोसगुणसिद्धी । लोयम्मि वि सुपसिद्धा, ता न कहं तवेण किसियस्स ॥५५ ॥ दुरऽणुचरमुत्तिमट्ठ, पसाहिउं उज्जयस्स खवगस्स । दुट्ठजणपाडिवेसेण, होज्ज सज्झाणविग्घाऽऽई सुट्टु विसमी वि सुठु वि, दमी वि सुठु वि पणट्टमाणो वि । किं चोज्जं कलुसिज्जइ, कुसीलजणसन्निहाणेण॥५७॥ कलहो बोलो झंझा, वामोहो संकरो ममत्तं च । झाणऽज्झयणविघाओ, नऽत्थि विवित्ताए बसहीए तम्हा मणखोहकरो, पंचिंदियगोयरो जहिं णत्थि । चिट्ठउ तत्थ तिगुत्तो, खवगो सुहझाणसंजुत्तो उग्गमउप्पायणएसणाहिं सुद्धाए अपरिकम्माए । वसईइ असंसत्ताए, निप्पाहुडियाए सेज्जाए घणकुड्डे सकवाडे, गामबहिं बालवुड्ढगणजोगे । उज्जाणघरे ठायड़, सेलगुहाए य सुन्नघरे दो तिन्नि य वसहीओ, लेज्जा सुहनिग्गमप्पवेसाओ । कडचिलिमिणिजुत्ताओ, धम्मकहामंडवजुयाओ एगत्थ ठवे खवगं गच्छट्ठियसाहुणो य अन्नत्थ । मा होज्ज भोयणरुई, खवगस्साऽऽहारगंधेण पाणाऽऽईणि वि तहियं, ठवेज्ज जम्मि निएज्ज नो खवगो । न य अपरिणया मुणिणो, कम्हा नणु भन्नइ निमित्तं ॥ ६४ ॥ असमाहियस्स खवगस्स कहवि मा पेच्छिऊण दिज्जंतं । असणाऽऽई मुद्धाणं, तदुवरि अप्पच्चओ होज्जा ॥ ६५ ॥ | चिरभवपरंपरापरि-चियत्तणेणाऽवि कहवि मा गिद्धी । पाउब्भवेज्ज सहसा, खवगस्स महाणुभावस्स आराहणामहोयहि-तडपत्तस्साऽवि खयगपोयस्स । आवडइ कहवि विग्घो वि, जेण तेणेस जतो त्ति इय धम्मसत्थमत्थयमणीए, संवेगरंगसालाए । संविग्गमणोमहुयर - कुसुमिययणराइतुल्लाए आराहणाए पडिदार - नवगमइए ममत्तयोच्छेए । तइए दारे बीयं भणियं सेज्ज त्ति पडिदारं ॥५६॥ દશા ॥६६॥ ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ तृतीयसंस्तारकद्वारम् ॥३५॥ ॥३६॥ 'तृतीयसंस्तारकद्वारम् ' सेज्जाए जहुत्ताए वि, होज्ज संथारगं विणा न रई । आराहगस्स तम्हा, तद्दारमियाणि कित्तेमि पुव्यं पवंचियाए, सेज्जाए जत्थ किर पएसम्मि । मूसगरयउक्केरस्स, नत्थि थेवं पि उद्दवणं ऊसतुसाराऽऽईणं, न विणासो न य पईवविज्जूणं । न य पबलप्पवणाणं, पाईणपडीणपभिईणं ॥५८॥ ॥५९॥ ॥६०॥ ॥६१॥ ॥६२॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ 148 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५२७३-५३१० तृतीयसंस्तारकद्वारम् ॥७८॥ ॥७९॥ ॥८०॥ ૫૮૫ ॥८५॥ ॥૬॥ ॥८९॥ न य संघट्टो बीयाण, सालिपमुहाण नेव हरियाणं । नोवद्दवणं पि पिपीलि-याऽऽइयाणं तसजियागं ॥७३॥ अमणुन्नदव्यगंधा -ऽऽइणो य असमाहिकारिणो न जहिं । तत्थ घसभिलुगरहिए, हियए खवगस्स पयईए ॥ ७४॥ पुढवीसिलामओ वा, फलहमओ तणमओ य संथारो । कीरइ समाहिहेउं उत्तरसिर अहव पुव्यमुहो ॥७५॥ तत्थ य फायदेसे, समे अझुसिरे य भूमिसंथारो । अप्फुडियअसंसत्तो, समपट्ठिसिलामओ होइ ॥७६॥ निच्छिड्डगनिक्कंपो, लहुओ एगंडगिओ य फलहमओ । निस्संधी 2 अप्पोल्लो, तणसंथारो भवति मउओ ॥७७॥ एसो पुण संथारो, उभओकालपडिलेहणासुद्धो । जुत्तपमाणविरइओ, आरुहियव्यो तिगुत्तेण निस्संगयाए लिंगं, भणिया एए वि दव्वसंथारा । मुणिणो भावसमाहीए, कारणत्तेण अह तत्थ संलीणयाठियऽप्पो, संवेगगुणऽन्निओ य तक्कालं । संथारम्मि निसन्नो, विहरड़ संलेहओ धीरो अह दढकढिणत्तणओ, तणसंथाराऽऽइएसु खवगस्स । चिट्ठिउमऽपारयंतस्स, होज्ज जड़ कह वि असमाही ॥ ८१ ॥ ता तत्थ पत्थरिज्जंति, एगदुगमाऽऽइया वि से [कथा] कप्पा । अववाएणं ता जा, पावारगतूलिमाऽऽई वि॥ ८२ ॥ एवमऽणेगपयारो, युत्तो दव्यं पडुच्च संथारो । तं चिय अणेगभेयं, जाणसु भावं पुण पडुच्च रागं दोसं मोहं, कसायजालं च दूरमुज्झितो । संपत्तपरमपसमो, आय च्चिय होइ संथारो सावज्जजोगविरओ, संजमसारो तिगुत्तिगुत्तो य । समियऽप्पा भावजई, आय च्चिय होइ संथारो | निम्ममनिरऽहंकारो, समतणमणिलेट्ठकंचणो धणियं । मुणियपरमऽत्थसारो, आय च्चिय होइ संथारो जस्स परे सयणे वा, मिते सत्तुम्मि अप्पपरविसए । परमसमया हु सो च्चिय, आया संथारओ नेओ ॥८७॥ जस्स पियविप्पियपरे, परे समुक्करिसमऽहव अवकरिसं । न मणो मणयं पि हु भयइ, तस्स आया हु संथारो ॥८८॥ दव्ये खेते काले, भावे पडिबंधवज्जणुज्जुत्तो । सत्तेसु मेत्तिसारो, आय च्चिय होइ संथारो | सम्मत्तनाणचारित - लक्खणा मोक्खसाहगगुणा जे । एत्थे खु संथरिज्जंति, तेण आया हु संथारो अनिरुद्धाऽऽसवदारो, अप्पाणं न य धरेइ सारम्मि । आरुहइ य संथारं, अविसुद्धो तस्स संथारो जो गारयेहिं मत्तो, नेच्छइ आलोयणं गुरुसगासे । आरुहइ य संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो जो पुण पत्तब्भूओ, करेड़ आलोयणं गुरुसगासे । आरुहइ य संथारं, अविसुद्धो तस्स संथारो सव्यविगहाविमुक्को, सत्तभयट्ठाणविरहिओ धीमं । आरुहइ य संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो नवबंभचेरगुत्तो, जुत्तो जो दसविहे समणधम्मे । आरुहइ य संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो अट्ठमयट्ठाणविसंठुलस्स, निद्वंधसस्स लुद्धस्स । उवसमविउत्तचित्तस्स काहिइ किमिह संथारो रागी दोसी मोही, कोही माणी य मायवं लोभी । जो सो संथारत्थो वि, नेय संथारफलभागी अनिरुद्धजोगपसरो, सव्वंऽगं जो असंवुडऽप्पा य । परमत्थसाररहिओ, कह सो संथारफलभागी जड़ ता गुणरहिओ वि हु, संथारत्थो समीहए मोक्खं । तो पहियदमगसेवग -जणाण पढमं हवउ मोक्खो ॥९९॥ बज्झं तरगुणहीणो, बज्झं तरदोसदूसियऽप्पा य । संथारत्थो न वि थेव - मऽवि फलं लहइ स वराओ ॥ ५३०० ॥ बज्झंडतरगुणकलिओ, बज्झंडतरदोसदूखत्ती य । संथारगऽणुवविट्ठो वि, इट्ठफलभायणं होड़ गारवतिगेण रहिओ, तिदंडपरिमोडणे पहियकिती । जो य निराऽऽसंसमणो, सफलो खलु तस्स संथारो ॥२॥ छक्कायरक्खणऽट्ठा, निविट्ठचेट्ठो पणट्ठअट्ठमओ । विसयसुहनिप्पिवासो, जो सो संथारफलभागी समणो समाहियमणो संजमतयनियम जोगजुत्तमणो । सपरकसायपसमणो, जो सो संथार फल - भागी सुविहियगुणवित्थारं, संथारं जे लहंति सप्पुरिसा । तेहिं जियलोगसारं रयणाऽऽहरणं कयं होइ सव्वंसहत्तसन्नाह-विहियसव्वंऽगरक्खणो खिप्पं । सम्मन्नाणाऽऽइगुणो, मोहमहापरणवमालो ॥९०॥ ॥९१॥ ॥९२॥ Kn ॥९४॥ ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९७॥ ॥९८॥ ॥१॥ | अइयारमलविवज्जिय- पंचमहव्ययगइंदमाऽऽरूढो । पत्थुयसंथाररणंऽ - गणाऽऽयलीलिलसमाणो य | उवसग्गपरीसहुसुहड - उब्भडं पबलकम्मरिउसेण्णं । निज्जिणिऊणं गेहड़, वीरो आराहणपडागं सम्मत्तभूमिगाए, विसुद्धसद्धम्मगुणतणेसुं च । पसमफलगे व सुविसुज्झ - माणलेसासिलाए वा संथारइ अप्पाणं, काउं संलेहणं परं आया । जम्हा तिगुत्तिगुत्तो, ता सो च्चिय होइ संथारो 1. हितदे । 2. अप्पोलो = शुषिररहितः । 3. आय = आत्मा । 149 ॥ ८४ ॥ ॥४॥ ॥५॥ En ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ ॥१०॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५३११-५३४६ गजरुकुमालदृष्टान्तः - अर्णिकापुत्रस्य दृष्टान्तः किंचन वि कारणं तणमओ, संथारो न वि य फासुया भूमी । अप्पा खलु संथारो, भवति विसुद्धं मरंतस्स॥११॥ चे, पाणेस य तह य बीयहरिएस । तस्स भये संथारो, तिविहेण वि जो असंभंतो॥१२॥ अग्गिउदगपाणाऽऽइसु, जहाकमेणं भवंति आहरणा । गयसकुमालऽन्नियसुय-चिलाइपुत्ताऽऽइणो धीरा ॥१३॥ तहाहि "गजसुकुमालदृष्टान्तः" बारवईए नयरीए, अहेसि कन्हो ति पच्छिमो विन्हू । जाययकुलेककेऊ, भरहऽद्धवसुंधरानाहो ॥१४॥ गयसुकुमालो नामेण तस्स, आसी कणीयसो भाया । सो य अणिच्छंतो वि हु, जणणिजणद्दणपमोक्नेहिं ॥१५॥ सयणेहिं सोमसम्माड-भिहाणविप्पस्स संतियं धूयं । परिणायिओ वि सोउं, धम्म जिणनेमिपासम्मि ॥१६॥ नवजोव्वणो वि कामोवमो वि, खणनस्सरं जयं नाउं । पव्यजं पडिवन्नो, चरिमसरीरो महासत्तो ॥१७॥ विहरइ पुराऽऽगराऽऽइसु, जिणेण सद्धिं पणट्ठभयमोहो । चिरकालाओ पुणरवि, नयरिं बारवइमडणुपत्तो ॥१८॥ रेवयगिरिम्मि य जिणो, समोसढो तियसविरइओसरणो । गयसुकुमालमुणी पुण, पडिमाए ठिओ समाणम्मि ॥१९॥ अह कहवि तं पएसं, पत्तेणं तेण सोमसम्मेण । सो एस मज्झ धूया, परिणिता उज्झिया जेणं ॥२०॥ इइ जायतिव्वकोवेण, हणिउकामेण तस्स सीसम्मि । काऊण मट्टियाए, पाली भरिया चियऽग्गीए ॥२१॥ ताहे गयसुकुमालो, डझंतो तेण सीसजलणेण । आपूरियसुहझाणो, अंतगडो केवली जाओ ॥२२॥ इय अग्गी संथारो, इमस्स एतो य सलिलसंथारो । जस्साडहेसि स सीसइ, अन्नियपुत्तो मुणिवरिंदो ॥२३॥ ___“अर्णिकापुत्रस्य दृष्टान्तः" - सिरिपुप्फभद्दनयरे, पयंडरिउपक्खदलणदुल्ललिओ । आसी महानरेंदो, नामेणं पुप्फकेउ ति ૨૪ देवी से पुप्फवई, तीए पुण जमलगतणुप्पन्नो । पुत्तोऽत्थि पुप्फचूलो, धूया पुण पुप्फचूल ति ॥२५॥ ताणि य परोप्परं गाढ-पणयवंताणि पेच्छिउं रन्ना । अवियोगकए परिणा-वियाणि अन्नोन्नमेय तओ ॥२६॥ पुप्फयई तेणं चिय, निव्वेएणं पवज्जिउं दिक्खं । देवत्तं संपत्ता, अह सा कुणाए सुमिणम्मि કેરળ नरए नेरड़ए वि य, दरिसइ तह तिक्खदुक्खसंतत्ते । पडिबोहणडट्ठया सुह-सुत्ताए पुप्फचूलाए ૨૮ના अह ते भीसणरुवे, दटुं सा झत्ति जायपडिबोहा । साहेइ नरयवित्तं, नरवड़णो सो वि वाहरिउं ॥२९॥ पासंडिणो असेसे, पुच्छइ देवीए पच्चयनिमित्तं । भो! केरिसया नरया, तह तेसु दुहं? ति साहेह ॥३०॥ नियनियमयाऽणुरुयेण, तेहिं सिट्ठो य नरययित्ततो । नवरं नो पडियन्नो, देवीए तयऽणु भूवइणा ॥३१॥ अन्नियपुत्ताऽऽयरियो, बहुस्सुओ विस्सुओ य थेरो य । वाहरिऊणं पुट्ठो, जहट्ठिओ तेण सिट्ठो य ॥३२॥ तो भत्तिनिभाए, भणियं देवीए पुप्फचूलाए । किं भयवं! तुमए वि हु, ट्ठिो सुमिणम्मि एसो त्ति ॥३३॥ गुरुणा भणियं भद्दे!, जिणिंदसमयप्पईवसामत्था । तं णत्थि जं न नज्जड़, केत्तियमेत्तं नरयवित्तं ॥३४॥ अवरसमए य तिस्सा, तीए जणणीए दंसियो सग्गो । सुविणम्मि विम्हयाऽऽयह-विभूइरेहंतसुरनियरो ॥३५॥ पुव्वं पिव पुणरवि पत्थिवेण, ता जाव पच्छिओ सरी । तेणाऽवि तस्सरुवं. निवेडयं है चलणेसु णिवडिऊणं, भत्तीए जंपिउं समाढता । कह होज्ज नयदुक्ख्, कह वा सुरसोक्खसंपत्ती ॥३७॥ गुरुणा भणियं भद्दे!, विसयपसत्तिप्पमोक्खपावेहिं । पाविज्जइ नरयदुहं, तच्चागेणं च सग्गसुहं ૨૮ ताहे सा पडिबुद्धा वि, सम्म मोत्तूण विसयवासंगं । पव्वज्जागहणउत्थं, आपुच्छड़ पत्थिवं ततो ॥३९॥ अन्नत्थ विहरियव्यं, तुमए ण कया वि इइ पइन्नाए । कहकहवि अणुन्नाया, नरवड़णा विरहविहुरेण ॥४०॥ घेत्तूण य पव्वज्ज, विचित्ततवकम्मनिम्महियपात्या । “ओम” ति दूरदेसे, पेसियनीसेससीसस्स ॥४१॥ जंघाबलपरिहीणस्स, तस्स एगागिणो ठियस्स तहिं । सूरिस्स असणपाणं, निवभवणाओ पणामेइ ૪૨ एवं वच्वंतम्मि, काले अच्वंतसुद्धपरिणामा । निद्धणियघाइकम्मा, सा पत्ता केवलाउडलोयं ૪રા पुव्यपवत्तं विणयं च, केवली अमुणिओ न लंघेड़ । इइ सा पुव्यकमेणं, गुरुणो असणाऽऽइ उवणेड़ ॥४४॥ एगम्मि य पत्थावे, सिंभेणडब्भाउडहयस्स सूरिस्स । जायाए तित्तभोयण-वंछाए उचियसमयम्मि ॥४५॥ तीए य तहच्चिय पूरियाए, विम्हइयमाणसो सूरी । भणइ कहं नायमिणं, मम माणसियं तए अज्जे! ॥४६॥ * 150 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५३४७-५३८३ चतुर्थःनिर्यामकद्वारम् . जं उवणीयं अइदुल्लहं पि, भोज्जं अकालपरिहीणं । तीए भणियं नाणेण, केण? पडियायरहिएण ॥४७॥ | धी! धी! मए अणज्जेण, कहमिमो केवली महासत्तो । आसाइओ ति सोगं, तो सूरी काउमाऽऽरद्धो ॥४८॥ मा मुणियर! कुण सोगं, अमुणिज्जतो हु केवली विजओ । पुव्यट्टिइं न भिंदइ, एवं तीए य पडिसिद्धो ॥४९॥ चिरसुचरियसामन्नो यि, किं न निव्वुइमऽहं लहिस्सामि । इइ संसयं कुणंतो य, तीए सूरी पुणो भणिओ ॥५०॥ |संदेहं कीस मुणीस!, कुणसि निव्वुइकएण जेण लहुँ । सुरसरियमुत्तरंतो, काहिसि कम्मक्खयं तुमऽवि ॥५१॥ एवं निसामिऊणं, सूरी नावाए आरुहिय गंगं । अइलंघिउं पवत्तो, परतीरगमाऽभिलासेण ॥५२॥ णवरं जतो जतो, स निसीयइ कम्मदोसओ सो सो । नावादेसो मज्जइ, सुरसरिसलिलम्मि अत्थाहे ॥५३॥ सव्वविणासं आसंकिऊण, निज्जायगेहिं तो खित्तो । अन्नियपुत्ताऽऽयरियो, नावाहितो सलिलमज्झे ॥५४॥ अह परमपसमरसपरिणयस्स, सुपसन्नचित्तवित्तिस्स । सव्वप्पणा निरंभिय-नीसेसाऽऽसवदुवारस्स ॥५५॥ दव्येणं भावेण य, परमं निस्संगयं उवगयस्स । सुविसुज्झमाणदढसक्क-झाणनिम्महियकम्मस्स ॥५६॥ जलसंथारगयस्स यि, अच्वंतनिरुद्धसव्वजोगस्स । मणवंछियऽत्थसिद्धी, जाया निव्वाणलाभेणं ॥५७॥ | एवं जलसंथारय-माऽऽसज्जऽन्नियसुओ समऽणुसिट्ठो । तससंथारगविसए य, संसिओ च्चिय चिलाइसुओ ॥५८॥ अन्नत्थ वि जो जम्मि, समभावा पाउणेज्ज पज्जते । सुसमाहिं सो सव्यो, नायव्यो तस्स संथारो ॥९॥ इय संथारगओ सो, अणुत्तरं तवसमाहिमाऽऽरुढो । पप्फोडतो विहरइ, बहुभवबाहार कम्म ॥६०॥ चक्कीण वि न य सुहं तं, न तं सुहं सयलसुरवराणं पि । जं दव्यभावसंथा-रगत्थमुणिणो अरागस्स ॥६१॥ एवं संथारगतो, गओ व्य चिररुढकम्मदुमगहणं । चूरंतो चरणेणं, चरेज्ज निरऽवज्जतरजोगो ॥६२॥ इय मयणभुयगगरुलोवमाए, संवेगरंगसालाए । संविग्गमणोमहुयर-कुसुमियवणराइतुल्लाए ॥६३॥ आराहणाए पडिदार-नवगमइए ममत्तयोच्छेए । तइए दारे भणियं, तइयं संथारपडिदारं m६४॥ तह संथारगयस्स वि, निजामगमंडतरेण न समाही । संपज्जइ खवगस्सा, ता तद्दारं निदंसेमि ॥६५॥ 'चतुर्थः निर्यामकद्वारम्' - | अह सो कयसलेहो, निहयपरीसहकसायसंताणो । छत्तीसगुणोवेए, पच्छित्तविसारए धीरे ॥६६॥ पंचसमिए तिगुत्ते, अणिस्सिए रागदोसमयरहिए । कडजोगी कालन्नू, नाणचरणदंसणसमिद्धे मरणविहिकालकुसले, इंगियपत्थियसहायवेत्तारे । यवहारविहिविहन्नू, अब्भुज्जयमरणसारहिणो अक्खलियाऽऽइगुणऽन्निय-दुवालसंगीसुएक्जलनिहिणो । नियनिज्जामगगुरुणो, मग्गेज्जा निज्जवगमुणिणो ॥६९॥ तो तेसिं सूरीणं, पयमूले पवयणप्पईवाणं । पडिबज्जेज्ज महत्थं, धीरो अब्भुज्जयं मरणं । ॥७०॥ अह तस्स अप्पनिद्दा, संविग्गाऽवज्जभीरुणो धीरा । पास्त्थोसन्नकुसील-ठाणपरिवज्जणुज्जमिणो ॥१॥ खंतिखमा मद्दविया, असढअलोला य लद्धिसंपन्ना । असदग्गाहविमुक्का, दक्खा सुसरा महासत्ता . ॥७२॥ सुतडत्थअपडिबद्धा, निज्जरपेही जिइंदिया दंता। कोऊहलविप्पमुक्का, पियदढधम्मा सउच्छाहा ॥७३॥ आगाढमणा गाढे, सद्दहगनिवेयगा य सट्टाणे । छंदन्न पच्वइया, पच्चक्खाणम्मि य विहन्नू ॥७४॥ कृप्या कप्पे कुसला, समाहिकरणुज्जया सुयरहस्सा । मुणिणो अडयालीसं, गुरुदिन्ना होंति निज्जवगा ॥५॥ |तहाहिउव्वत्त' दार' संथार', कहग वाई य अग्गदारम्मि । भत्त' पाण उच्चार' वियारे, कहग" दिसासु च चउ चउरो॥६॥ उव्यत्तणपरियतण-संचारणपमुहमंडगपरिकम्म । अच्वंतकोमलकरा, करेंति चत्तारि खवगस्स ॥७७॥ संचारिजति उत्थंघिओ हु, अह जइ स नाऽहियासेड़ । संथारगट्ठिओ च्चिय, ता संचारिजए तेहिं ॥८॥ अब्भंतरदारम्मि, चउरो चिट्ठति सम्ममवउत्ता । चत्तारि य संथारं, रइंति पडिलेहणापुव्वं ॥७९॥ | अव्याविद्धमऽविच्या-मिलियमवलियमणहियमडणूणं । अविलंबियमजदुयमऽमि-लियम पुणरुत्तं सुघोसं च॥८०॥ फुडवन्नमऽणुच्च्चमणीय-मडणलीयं तह य साउणुणायं च । सुद्धं सपरिच्छेयं, जह होइ तहा असंदिद्धं ॥८१॥ खवगस्स कहेयव्वा उ, सा कहा जं सुणित्तु सो सम्म । चयइ विसोतियभावं, वच्चइ संवेगनिव्वेयं ॥८२॥ चत्तारि वाझमुणिणो, खलंति परिवाइणो पयंपते । अग्गदुवारे चउरो, तवस्सिणो ठंति उवउत्ता ॥८३॥ 151 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५३८४-५४१७ पञ्चमदर्शनद्वारम् मग्गंति अणुब्बिग्गा, पाउग्गं भोयणं च चत्तारि । छंदियमऽवगयदोस, अमाइणो लद्धिसंपन्ना ॥४॥ चत्तारि जणा पाणग-मुवकप्पेंति अ गिलाणपाउग्गं । उज्झंति अ उच्चारं, चउरो खवगस्स मुणिवसभा ॥८५॥ चउरो चयंति विहिणा, पासवणं खेलमल्लगाऽऽई य । बाहिम्मि धम्मकहिणो, गीयत्था ठंति चत्ता चउसु वि दिसासु चउरो, सहस्समल्ला तवस्सिणो ठंति । इय निज्जयंति खवगं, अडयालीसं तु निज्जवगा॥८॥ जो जारिसओ कालो, भरहेरवएसु होइ वासेसु । ते तारिसया तइया, अडयालीसं तु निज्जवगा ॥८॥ कालाऽणुसारओ पुण, चउरो चउरो कमेण हावेज्जा । जा चउरो अहवा दो, होति जहन्नेण निज्जवगा ॥८९॥ भणियं च“जो जारिसओ कालो, भरहेरयएसु होइ वासेसु । ते तारिसया तइया, दुवे जहन्नेण निज्जवया" ॥१०॥ | एगो खवगं पडिचरइ, पासवत्ती सया वि अपमत्तो । बीओ तदप्पणोचिय-मसणाऽऽई मग्गइ पयओ ॥९१॥ जड़ पुण एगागि च्चिय, कहं पि खवगस्स होज्ज निज्जवओ । ता सो सनिमित्तंपि हु, भिक्खड्भमणाऽऽइ अकुणंतो॥९२॥ अप्पाणं परिवेयइ, तब्विवरीयत्तणेण खवगं वा । तच्वागे य अवस्सं, दूरं चत्तो समणधम्मो ॥१३॥ जं सेवेज्ज अकप्पं, कुज्जा वा जायणाइ उड्डाहं । तन्हाछुहाइभग्गो, खवगो निज्जवगविरहम्मि ॥९४॥ असमाहिणा व कालं, रेज्ज बच्चेज्ज दुग्गईए वि । तेण जहण्णेण वि होंति, दुन्नि खवगस्स निज्जवया ॥९५॥ | किंच|संलेहगं सुणेत्ता, जुत्तारुडयारेहिं निज्जविज्जतं । सव्वेहि वि गंतव्यं, जईहिं इयरत्थ भयणिज्जं ॥९६॥ संलेहगस्स मूलं, जो बच्वइ तिव्वभत्तिराएण । भोत्तूण दिव्यसोक्खं, सो पावइ उत्तमं ठाणं ॥९७॥ एक्कम्मि वि भवगहणे, समाहिमरणेण जो मओ जीयो । न हु सो हिंडइ बहुसो, सत्तट्ठभवे पमोत्तूणं ॥९८॥ सोऊण उत्तमट्ठस्स, साहगं तिब्वभत्तिसंजुत्तो । जइ नो वच्चइ का उत्त-मट्टमरणम्मि से भती ॥१९॥ |जस्सुत्तमट्ठमरणम्मि, नेव भत्ती वि विज्जए तस्स । कह उत्तमट्ठमरणं, संपज्जइ मरणकालम्मि ॥५४००॥ न य खमगस्स समीये, अल्लियणमडसंवुडाण दायव्वं । तेसिं असंवुडगिराहिं, होज्ज खवगस्स असमाही ॥१॥ तेल्लकसायाऽऽईहिं, बहुसो गंडूसया य दायव्या । इइ जिब्भाकन्नबलं, जायइ वयणं च से 'विसयं ॥२॥ इय धम्मुवएसमणोहराए, संवेगरंगसालाए । संविग्गमणोमहुयर-कुसुमियवणराइतुल्लाए ॥३॥ आराहणाए, पडिदार-नवगमइए ममत्तवोच्छेए । तइए दारे तुरियं, भणियं निज्जवगपडिदारं ૪ एवं सामग्गीसंभवम्मि, आहारचायकामस्स । खवगस्स सव्ववत्थूसु, सम्म नाउं निरीहतं ॥५॥ दायब्वमणसणं तं च, नज्जए भोयणाऽऽइदंसणओ । ता तइंसणदारं, एत्तो लेसेण साहेमि દા “पञ्चमदर्शनद्वारम्' - अह स महप्पा पइसमय-पवरवड्ढंतसुद्धपरिणामो । गिम्हाऽभिहउ व्य मरुम्मि, बहलदलकिन्नतरुणो ब्य ॥७॥ अच्वंतरोगविहरो व्य, दक्खपडिचारए व्य निज्जवए । लद्धण गुरुं पणमित्तु, भत्तीए विन्नवेज्ज इम भयवं! दुल्लहलंभा, सामग्गी एरिसी मए पत्ता । ता एतो नो जुत्तो, कालविलंबो ममं काउं ॥९॥ कुणसु पसायं वियरसु, अणसणमेत्तो वि किं ममं इमिणा । असणाऽऽईणुवभोगेण, सुचिरसंलिहियकायस्स॥१०॥ तो तं निरीहभावो-वलंभहेउं गुरु पदंसेज्जा । पयइसुरसाणि पयईए, चित्तसंतोसकारीणि ॥११॥ पयईए सुरहिगंधु-द्धराणि उक्कोसगाणि दव्याणि । असणपभिईणि पयईए, तस्स अक्रोवजणगाणि ॥१२॥ एएसु दंसिएसु य, हिययगतो तस्स नूण संकप्पो । कुरराऽऽरवं निसामिय, मीणगणो इव भये पयडो ॥१३॥ दव्वपयासमऽकिच्चा, जड़ कीरइ तस्स तिविहयोसिरणं । ता कहिं वि भत्तभेयम्मि, उज्जुगो होज्ज सो खवगो॥१४॥ किंचभुत्तभोगी पुरा जो य, गीयत्थो वि सुभाविओ । सत्थो आहारधम्मसु, सो वि खिप्पं तु खुभए ॥१५॥ तम्हा तिविहाऽऽहारं, पडुच्च संवरणकरणकामस्स । उक्कस्सियाणि सव्वाणि, तस्स दव्वाणि दंसेज्जा ॥१६॥ इय चउकसायभयभंजणीए, संवेगरंगसालाए । संविग्गमणोमहुयर-कुसुमियवणराइतुल्लाए ॥१७॥ 1. विशदम् = निर्मलम्। 152 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५४१८-५४५४ आराहणाए पडिदार - नवगमइए ममत्तवोच्छेए । तइए दारे पंचम-मुत्तं दंसणपडिद्दारं दव्यप्पयासणाऽणं-तरं च खयगस्स जो हु परिणामो । कमपत्तहाणिदार - प्परूवणेण तयं वोच्छं षष्ठमहानिद्वारम् ॥१८॥ ॥१९॥ ' षष्ठमहानिद्वारम् ' ॥२०॥ ॥२१॥ अच्चंतपबलसत्तो ऽणुण्णाओ भोयणऽट्ठया गुरुणा । पुरओ उवणीयाई, दव्चाई असणमाऽऽईणि पासिता फासित्ता, जिंघित्ता अहव ताइं गिन्हेत्ता । ययगयकोऊहल्लो, सम्मं एवं विचिंतेज्जा भवगहणम्मि अणाइम्मि, णंतसो इह मए भमंतेणं । किं नो भुत्तं किं नेव, फासियं जिंघियं किं नो ॥२२॥ किं किं संपन्नं नेव, वंछियं तह वि पावजीवस्स । तित्ती मणागमेत्तं पि, जा पुरा नेव संपन्ना सा किं अहुणा होही, ता तीरगयस्सिमेहिं किं मज्झ । इड़ चिंतंतो कोई, संवेगपरायणो होइ आसाइता कोई, तीरं पत्तस्सिमेहिं किं मज्झ । वेरग्गमऽणुसरंतो, संवेगपरायणो होइ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ રા ॥२७॥ માંરા ॥२९॥ ॥३३॥ ॥३४॥ ॥३५॥ રૂણા રૂા |देसं भोच्चा कोई, हा हा! इन्हिं इमेहिं किं मज्झ । वेरग्गमऽणुसरंतो, संवेगपरायणो होइ सव्यं भोच्चा कोई, धिद्धि ! इन्हिं इमेहिं किं मज्झ । वेरग्गमऽणुसरंतो, संवेगपरायणो होइ कोई तमाऽऽयइत्ता, मणुन्नरसरसियचित्तपरिणामो । पकुणइ अणुबंधं सव्य- देसविसयं तहिं चेव | तस्स य रसाऽणुबंधाऽ - वहारिपल्हायणिज्जवयणेहिं । धम्मकहं कहइ गुरू, खवगस्स पुणो वि बोहक धम्मकहं चिय न कहेइ, केवलं किंतु तस्स भयहेउं । सुहुमस्साऽवि अवाए, इय दंसड़ गिद्धिसल्लस्स ॥३०॥ | हिमवंतमलयमंदर - दीवोदहिधरणिसरिसरासीतो । अहिययरो आहारो, छुहिएणाऽऽहारिओ होज्जा - ॥३१॥ संसारचक्कवाले, सव्ये वि य पोग्गला तुमे बहुसो । आहारिया य परिणा - मिया न तुमं तह वि तित्तो ॥ ३२ ॥ आहारनिमित्ता गंतुं, मंखु सव्र्व्वसु नरयलोएसु । उववन्नो अइबहुसो, सव्यासु य मेच्छजातीसु आहारनिमित्तागं, मच्छा गच्छंत ऽणुत्तरं नरयं । सव्वं आहारविहिं, ता मा मणसा वि चिंतेज्जा तणकट्ठेहिं व अग्गी, लवणजलो वा नईसहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउं भोयणविहीहिं जं किर जलं पि पीयं, घम्माऽऽयवजगडिएण तं पि इहं । सव्र्व्वसु वि अगडतलाय - नईसमुद्देसु वि न होज्जा ॥ ३६ ॥ पीयं थणयच्छीरं, सागरसलिलाउ होज्ज अहिययरं । संसारम्मि अणंते, माऊणं अन्नमन्नाणं घयखीरुच्छुरसेसु य, साऊसु महोयहीसु बहुसो वि । उवयन्नो न य तण्हा, छिन्ना ते सीयलजलेण जड़ ता न गतो तित्तिं, अनंतएण वि अईयकालेण । ता किमियाणि वि एवं, ठियस्स तुह एत्थ गिद्धीए ॥ ३९ ॥ जह जह कीरड़ गिद्धी, अवगासो तह तहा अविरईए । जह जह य तदऽवगासो, तप्पच्चइओ तह तह ॥ ४० ॥ जीवाण कम्मबंधो, तओ भयो दुहपरंपरा य तहिं । इय सयलाऽचायाणं, रसगिद्धी कारणं तम्हा | नीसेसकिलेसाऽऽयास - गरुयमाणाऽयमाणमूलपयं । संसारियसत्ताणं, विद्धि एसा हु रसगिद्धी एवं स महासत्तो, सम्मं आराहणाविहिंपसत्तो । नाणाऽऽइगुणगुरुणा, गुरुणा 2 दियदीहदुहतरुणा निउणमुवदंसिएसुं, विविहाऽवाएस गिद्धिसल्लस्स । भवभमणदुक्खभीओ, संविग्गो चयइ रसगिद्धि अह कोवि कम्मदोसा, न चएज्जा तं भणिज्जमाणो वि । ता तप्पयईए हियं, वियरिज्जड़ भोज्जमऽणवज्जं तदऽसंपत्तीए पुण, मग्गिज्जइ तह अलब्भमाणं च । कीयाऽऽड़पयारेण वि, दावेयव्यं समाहिकए नवरं गुरुणा मुणिणो, सिक्खवियव्या रहम्मि एयपुरो । वत्तव्यं तुब्भेहिं, “पाउग्गं एत्थ दुलहं ति" ते य तहा पन्नविया, तहेव जंपंति खवगमुणिपुरओ । किच्छेण थोयथोयं, अणुदियहं देंति य सखेया उचियसमयम्मि य गुरू, सासड़ भो खवग्! पेच्छ तुज्झ कए । मुणिणो दुल्लह असणाऽऽइ - जायणे कह किलिस्संति ॥४९॥ अह जायपच्छयायो, खवगो एक्केक्ककवलचागेण । पइदियहं हायेंतो, ठवेइ पोराणमाऽऽहारं अणुपुव्येण य तंपि हु, संबद्वेतो वि सव्यमाऽऽहारं । पाणगपरिकम्मेणं, खवगो भावेइ अप्पाणं | इय कुमयकमलहिमभर - समाए संवेगरंगसालाए । संविग्गमणोमहुयर - कुसुमियवणराइतुल्लाए | आराहणाए पडिदार - नवगमइए ममत्तवोच्छेए । तइए दारे भणियं, छट्टं हाणि त्ति पडिदारं अह पाणगपरिकम्मण - पुरस्सरं जह स कुणइ संवरणं । तह पच्चखाणदारं, लेसुद्देसेण साहेमि 1. अणुत्तरं = चरमाम् = सप्तमीम् । 2. दिय = दित = छेदित । ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ ॥ ४४ ॥ ॥ ४५ ॥ ॥४६॥ ॥४७॥ ॥४८॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ५५२॥ ॥५३॥ ॥५४॥ 153 - Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५४५५-५४६१ सप्तमपानकपरिकर्मयुक्तप्रत्याख्यानद्वारस्वरूपम् - अष्टमक्षामणाद्वारम् 'सप्तमपानकपरिकर्मयुक्तप्रत्याख्यानद्वारम्' - अच्छं बहलं लेयड-मडलेवडं तह ससित्थयमऽसित्थं । छव्यिहपाणगमेयं, भणियं परिकम्मपाओग्गं ॥५५॥ तं पुण तिलजयगोहूम-पमुहधन्नाण थोयणुप्पन्नं । गुडखंडभंडधोयण-संभूयं अंबिलाऽऽईयं ॥५६॥ एयपयारं अवरं पि, सपरसत्थेहिं जायविधंसं । नवकोडिपरिसुद्धं, मुहियाए जणाउ उवलद्धं ॥५ ॥ साहूण होइ जोग्गं, जहोवलःण तेण खवगमुणी । परिकम्मेज्जऽप्पाणं, समाहिहेउं सया णवरं आयंबिलेण सिंभो, खिज्जड़ पित्तं च उयसमं जाइ । वायस्स रक्खणट्ठा, पुव्युयइटें विहिं कुज्जा ॥५९॥ तित्ताई पाणयाइं, यज्जिता उदरमलविसुद्धिकए । महुरं 'पज्जेयव्यो, मंदं च विरेयणं खयगो રદ્દ | एलतयनागकेसर-तमालपत्तं ससक्करं दुद्धं । पाऊण कढियसीयल-समाहिपाणं इमं पच्छा ॥६१॥ महुरविरेयणमेसो, कायव्यो फोफलाऽऽइदव्येहिं । निव्वाविओदरडग्गी, जेण समाहिं सुहं लहइ आणाइ बत्थिमाईहिं, या चि कायव्यमुदरसोहणयं । वेयणमुप्पाएज्जा, करीसमडच्छंतयं उदरे ॥६३॥ तो जाजीयं तिविहं, आहारं योसिरेहिइ खवगो । इइ निज्जवगाऽऽयरिओ, संघस्स इमं भणावेइ ॥६४॥ एस महप्पा नवगो, जाजीवियमणसणं गहेउमणो । सिरि रइयपाणिपउमो, तुब्भं पययंदणं कुणइ ॥६५॥ विन्नवइ य तह कहमयि, सपसाएणं ममं भवेयव्यं । भयचं! तुमए जह यं-छियऽत्थनित्थारगो होमि ॥६६॥ आराहणपच्वइयं, खवगस्स य निरुवसग्गपच्चइयं । काउस्सग्गमडणुव्विग्ग-माणसो कुणइ तो संघो ॥६७॥ पच्चक्खावेइ तओ, सूरी खवगं चउव्यिहाडहारं । संघसमयायमझे, चिइवंदणपुव्वयं विहिणा ૬૮ના अहवा समाहिहेडं, साऽऽगारं चयइ तिविहमाऽऽहारं । तो पाणगं पि पच्छा, योसिरियव्यं सयाकालं ॥९॥ जं पाणगपरिकम्मम्मि, छव्यिहं पाणगं समक्खायं । तं से ताहे कप्पड़, तिविहाडहारस्स योसिरणे ॥७॥ आरुहियचरित्तभरेण, गुरुसयासे अणूसुगेण सया । दव्ये खेत्ते काले, भावम्मि य अपडिबघेण ॥७१॥ पच्चक्वाणम्मि कए, आसवदाराइं होति पिहियाई । आसवयोच्छेयम्मि उ, तन्हायोच्छेयणं होड़ ॥७२॥ तन्हायोच्छेयम्मि, जीवस्स उ पावपसमणं होई । पावस्स पसमणेण उ, विसुद्धमाऽऽयासयं लहइ ॥७३॥ आवासयसोहीए, दंसणसोहिं तु पायए जीयो । दंसणसोहीए पुणो, चरित्तसोहिं धुवं लहइ ૭૪ लहइ चरितविसुद्धो, झाणडज्डारणस्स सोहणं जीयो । झाणउज्झयणविसुद्धो, परिणामविसुद्धयं लहइ । ॥५॥ परिणामविसुद्धीए, कम्मयिसुद्धत्तणं लहइ जीयो । कम्मयिसोहिविसुद्धो, बच्चड़ सिद्धिं धुयकिलेसो ॥७६॥ इय दुग्गड़पुरपरिहोयमाए, संवेगरंगसालाए । संविग्गमणोमहुयर-कुसुमियवणराइतुल्लाए ॥७७॥ आराहणाए पडिदार-नवगमइए ममत्तयुच्छेए । तइए दारे पच्च-खाणं सत्तमपडिदारं ॥७८॥ क्यपच्चक्खाणस्स यि, न सोग्गई खामणाए विरहेण । खवगस्स तेण एतो, खामणदारं निदंसेमि। ॥७९॥ "अष्टमक्षामणाद्वारम्" - अह निज्जामगसूरी, खवगं महुरडकवरेहिं यागरइ । इंहो देवाणुप्पिय!, पिया व बंधू व भितो व्य ॥८ ॥ एसो बहुगुणसंपो, संघो तइलोक्कवंदणिज्जेहिं । तित्थयरेहिं नमिओ, “तित्थस्स नमो" ति काऊण ॥८१॥ तुममऽणुगिन्हिउमिहइं, समागओ यट्टए महाभागो । बहुभवपरंपरुब्भव-दुक्कियतमकंडमायंडो ॥८२॥ ता भत्तिनिब्भरमणो, एयं भययंतमाऽयरेण तुमं । खामेसु पुव्यकालिय-आसायणनिवहचाएण ॥८३॥ अह सो भत्तिभरोणय-सीसोपरि विरइयंजली सम्मं । इच्छामो अणुसटुिं, लढें अणुसासिओ हं ति ॥८४॥ गुरुगिरभुवयूहेंतो, तिकरणसुद्धीए कयपणामो य । खामेइ सव्यसंघ, संवेगं संजणेमाणो ॥८५॥ हे भंते! भट्टारग!, गुणरयणसमुद्द! सिरिसमणसंघ! । जं किंचि पडुच्च तुमं, पायं पावाडणुबंधि मए ॥८६॥ | सुहम य बायर या, एत्थ भवामि भवंतरे वा वि । मणसा विचितियं भा-सियं च वयसा । अहवा मणवइकाएहिं, जं कयं कारियं अणुमयं या । तं सव्यं तिविहेणं, संपइ सव्यं खमावेमि ॥८८॥ तुज्झ नमो तुज्झ नमो, भावेण पुणो वि तुज्हा चेय नमो । पायवडिओ च्विय तुमं, भुज्जो भुज्जो खमायेमि॥८९॥ खमउ य भगवं संघो वि, मज्झ दीणस्स काउमडणुकंपं । होउ य आसीसपरो, निविग्घाऽऽराहणाए कए ॥१०॥ तह खामणाए तं नत्थि, एत्थ शवणे वि खामियं जं नो । जणणिजणगोयमाणो. तमं खजं जीवलोयस्स॥९१॥ 1. पज्जेथव्यो = पायितवः । 154 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५४६२-५५२६ नवमस्वयंक्षमापनाद्वारम् - चण्डरुद्राचार्यदृष्टान्तः आयरियउवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुलगणे य । जे मे कई कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि ॥९२॥ मणवइकाएहिं पुरा, कए य तह कारिए अणुमए य । सव्ये तव्विसए वि हु, अहमऽचराहे खमावेमि ॥ ९३ ॥ समसत्तुमित्तचित्ता, जियाण करुणारसेक्कजलनिहिणो । भगवंतो ते वि महं, खमंतु अणुकंपणीयस्स इय खामंतो संघ, सबालवुड्ढं खमावए तत्तो । सम्मं संविंग्गमणो, पुव्यविरुद्धं विसेसेण ॥९४॥ ॥९५॥ जहा जं किंपि पमाएणं, न सुठु भे वट्टियं मए पुब्विं । निस्सल्लनिक्कसाओ, सव्वं खामेमि तमियाणि | इय समओयहि अमओ - चमाए संयेगरंगसालाए । संविग्गमणोमहुयर - कुसुमियवणराइतुल्लाए आराहणाए पडिदार - नवगमइए ममत्तयोच्छेए । तइए दारे खामण - पडिदारं भणिअमऽट्ठमयं नो खामणिज्जयग्गम्मि, खामिए वि हु सयं अखमणाए । वंछियसिद्धी होइ त्ति, खवणदारं इओ “नवमस्वयंक्षमणाद्वारम्" ॥५५००11 ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ | सब्भायगब्भमिच्छा - दुक्कडदाणाऽऽड़णा कसायजओ । जो एत्थं परमत्थेण सा परं भण्णड़• खमणा एईए च्चिय जम्हा, तिव्वऽणुभागाण दीहठियाण । कम्माण निबिडबद्धाण, होज्ज विगमो पुरकयाणं एवं सोच्चा सम्मं निज्जामगसूरिणो सयासाउ । संवेगमुव्यहंतो पुणरवि खवगो भणेज्ज इमं सव्ये अवराहपए, खामेमि अहं खमेउ मह भयवं । अहमऽवि खमामि सुद्धो, गुणसंघायस्स संघस्स विन्नायमऽविन्नायं, अवराहपयं परस्स निस्सेसं । सुविसुद्धतिगरणऽप्पा, खमामि सम्मं यु एस अहं जाणतो अजाणतो व खमउ मा वा परो खमउ मज्झं । तहवि अहं निस्सलो, तिविहेण खमामि चेव सयं ॥५॥ | जड़ ता परो वि खमई, ता लट्ठ होइ उभयवग्गे वि । अह गाढाऽणुसयपरो, परो न खमिउं तरइ तह वि ॥६॥ मुक्काऽहंकारपओ, पवियंभियपसमपयरिसाऽऽरूढो । सुविसुद्धतिगरणगणो, सामाइयपरिणयऽप्पा य अक्खमणपरे वि परे, सम्मं तक्खमणकारणपरो हं । एस खमामि खलु सयं, जमेस मह खामणाकालो ॥८॥ खामेमि अहं सव्ये, जीये ते वि य खमंतु मह सव्वे । उवरयवइरो मेत्ती - परो अहं सव्वजीयेसु एवं खामेमाणो, सयं पि खमणापरो विसुद्धमणो । सिरिचंडरुद्दसूरि व्य, तक्खणा कुणड़ कम्मखयं तहाहि“चण्डरुद्रसूरिदृष्टान्तः” उज्जेणीनयरीए, गीयत्थो अवज्जवज्जणुज्जुतो । सूरी अहेसि नामेण, विस्सुओ चंडरुद्दो ॥७॥ ॥९॥ ॥१०॥ पयईए च्चिय सो पुण, पयंडकोवत्तणेण मुणिमज्झे । ठाउं सयमडतरं तो, साहुविवित्ताए वसहीए सज्झायज्झाणपरो, जत्तेणं पसमभावणाए दढं । अप्पाणं भावेंतो, विहरइ गच्छस्स निस्साए - अह एगम्मि अवसरे, केलिप्पियपियवयस्सपरिगरिओ । एगो महिब्भपुत्तो, नवपरिणीओ कयविभूसो वियरंतो तियचच्चर - चउप्पहाऽऽईसु तेसि साहूणं । परिहासकयपणामो, आसीणो पायदेसम्मि तो तस्स वयस्सेहिं, परिहासेणं पयंपियं भंते! । एसो अम्ह वयस्सो भववासाओ समुव्विग्गो इच्छइ घेतुं दिक्खं, एतो च्चिय विहियपवरसिंगारो । इह समागओ ता, पव्वज्जमिमस्स देह ति आगारिंगियकुसला, मुणिणो य मुणित्तु तेसि परिहासं । अमुणेंता इव ठिया निय-कज्जाई काउमा भुज्जो भुज्जो सुइर-प्पलाविणो जाय नेव विरमंति । दुस्सिक्खिया हु सिक्खंतु, ताव इइ चिंतयंतेहिं साहूहिं विवित्तपएस - संठिओ चंडरुद्दमुणिनाहो । अम्हाण गुरु एसो, दाही दिक्खं ति निद्दिट्ठो केलीकिलत्तणेणं, तत्तो ते सूरिणो गया पासे । पुव्यठिईए य सिट्ठा य, इब्भसुयदिक्खगहणिच्छा अहह ! मए वि हु सद्धिं केलिं कुव्यंति कह महापाया । इइ चित्तऽब्भंतरजाय-तिव्यकोवेण तो तेणं ॥२२॥ भणियं जइ एवम हो, ता मह भूई लहुं समप्पेह । उवणीया य लहुं चिय कत्तो वि य से वयंसेहिं ॥२३॥ तो इब्भसुयं निबिड - ग्गहेण घेत्तूण तं सहत्थेण । उच्चरियनमोक्कारो, सूरी लुंचेउमाऽऽरद्धो ॥२४॥ भवियव्यपावसेण य, जाव वयस्सा न किंपि जंपंति । न य इब्भसुओ ता तेण, सीसलोओ विणिम्मविओ ॥२५॥ तो भणियमिब्मपुत्तण, भयवमाऽऽसी य एत्तियं कालं । परिहासो संपड़ पुण, सब्भायो ता कुण पसायं ॥२६॥ ॥२१॥ 1. सययं पाठां० । 155 ॥९६॥ ॥९७॥ ॥९८॥ वोच्छं ॥९९॥ दत्ता ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥ १८ ॥ ॥१९॥ ॥२०॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५५२७-५५५४ चण्डरुद्राचार्यदृष्टान्तः वियरेसु भावसारं, संसारसमुद्दतरणतरकंडं । दिन्नसिवनयरसोक्खं, जयगुरुजिणदेसियं दिक्वं एवं युत्ते दिण्णा, पव्यज्जा तस्स तेण मुणियइणा । वेलक्खयं उवगया, गया सठाणेसु य वयंसा ॥२८॥ तेणं भणियं भंते!, बहुसयणो नो लहिस्सम हमेत्थ । धम्म काउमडविग्घं, ता जामो अन्नगामम्मि ॥२९॥ एवं होउ तिडणुमन्नि-ऊण सो पेसिओ तओ गुरुणा । मग्गपडिलेहणउत्थं, पडिलेहिय आगए तम्मि ॥३०॥ सणियं कयपयवेवो, येवंतो सो जराए मुणिनाहो । तक्त्रंथनिहियदक्षिण-करो य गंतुं समाऽऽढतो ॥३१॥ थेवपयखलणे वि हु, पहम्मि रयणीए चक्खुबलवियलो । जायपकोयो बाढं, निभच्छड़ सिक्वगं भुज्जो ॥३२॥ ताडेइ दंडएण य, सिरम्मि एवंविहो पहो तुमए । पडिलेहिओ ति पुणरुत्त-मेव परुसं पयंपंतो ॥३३॥ अह सिक्खगो वि चिंतइ, अहो महापावभायणेण मए । एस महप्पा परिस-किलेसजलहिम्मि पक्वित्तो॥३४॥ अहमेक्को च्चिय एयस्स, धम्मासिस्स सिस्सछउमेणं । जाओ म्हि पच्चणओ, धिद्धी: दुविलसियं मज्झ॥३५॥ इय अप्पाणं निंदंतयस्स, सा का वि भावणा जाया । पाउब्भूओ जीए, से विमलो केवलाऽऽलोओ ॥३६॥ तो सो निम्मलकेवल-पईवपायडियतिहुयणाऽऽभोगो । गंतुं तहा पयट्टो, पयखलणा जह न से हवड़ ॥३॥ अह जायम्मि पभाए, दंडपहारुत्थरुहिरउल्लसिरं । दट्ठण सिक्खगं चंड-रुद्दसूरी विचिंतेड़ ॥३८॥ पढमदिणदिक्खियस्स वि, अहो! खमा सिक्खगस्स एवंविहा । एवंविहमाऽऽयरियं, मह पुण चिरदिक्खियस्साऽवि॥३९॥ थी! धी! ममं विवेओ, घिद्धी! सुयसंपया ममं विहला । धी! थी! मम सूरित्तं, खमागुणेणं विहीणस्स ॥४०॥ इय संवेगोवगओ, तं खामेंतो पराए भत्तीए । तं झाणं पडियन्नो, जेणं सो केवली जाओ। ॥४१॥ एवं खामणखमणाहिं, दूरनिम्महियपावसंघाओ । भवइ जिओ तेणेमा, किच्च ति कयं पसंगणं ॥४२॥ खमणापरो य खमगो, अणुतरं तवसमाहिमाऽऽरुढो । पप्फोडेतो विहरइ, बहुभवबाहाकरं कम्म ૪૩ तहाहिजमऽतुच्छमहामिच्छत्त-वासणापरिगएण चिरकालं । अच्वंतपावपच्चल-पायट्ठाणाऽणुचरणेण ૪૪ો जं च पमायमहामय-मत्तेण कसायकलुसिएणं या । दुग्गइगमेक्कसज्जं, अवज्जमाऽऽयज्जियं किंपि ॥४५॥ तं सुद्धभावणाऽणिल-संधुक्कियखमणजलणजालाहिं । खमगो खणेण निद्दहइ, सुक्कवडविडविनियहं य ॥४६॥ इय सम्मं घाइयविग्घ-संघसंघाऽऽडखामणापरमो । सयमवि विरइय-निस्सेस-संघपामोक्खसत्तखमो इहलोए परलोए, अनियाणो जीविए य मरणे य । वासीचंदणकप्पो, समो य माणाऽवमाणेसु ૪૮ निसिरिता अप्पाणं, सव्वगुणसमन्नियम्मि निज्जवए । संथारगविनिविट्ठो, अणूसुगो चेव विहरेज्जा ૪૬ इय परिकामविहीए,गणंडतरत्थो ममतवोच्छेयं । काऊण मोक्खक्खी, समाहिलाभत्थमुज्जमइ इय सिरिजिणचंदमुणिंद-रइयसंवेगरंगसालाए । संविग्गमणोमहुयर-कुसुमियवणराइतुल्लाए ॥५१॥ आराहणाए पडिदार-नवगमइए ममत्तवोच्छेए । तइए दारे भणियं, नवमं खमण ति पडिदारं ॥५२॥ तब्भणणाओ य पुणो, ममत्तवोच्छेयनामयं एयं । मूलद्दारचउक्के, भणियं दारं तइज्जं पि ॥५३॥ संवेगरंगसालाराहणाए, पडिदारनवगनिम्मायं । ममत्तवोच्छेयाऽभिहाणं, तइयं मूलद्दारं समतं ॥ तइयं मूलदारं सम्मत्तं ॥ 156 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५५५५-५५८७ मङ्गलाचरणम् - अनुशास्तिद्वारम् - अट्ठारसपावठाणद्वारम् - प्राणिवधत्यागस्वरूपम् 'चतुर्थसमाधिलाभद्वारप्रारम्भः' 'मङ्गलाचरणम्' सद्धम्मोसहदाणा, पसमियकम्माऽऽमयो तयऽणु काउं । सव्यंगनिव्युइं लद्ध-जयपसिद्धी सुवेज्जो व्य ॥५५॥ तइलोक्कमत्थयमणी, 'मणीहियत्थाण दाणदुल्ललिओ । सिरिवद्धमाणसामी, समाहिलाभाय भवउ ममं ॥५६॥ परिकम्मउ अप्पाणं, गच्छ गच्छंतरं ममत्तं पि । छिंदउ तहवि न साहइ, विणा समाहिं अहिगयइत्थं ॥५७॥ जम्हा खवगो तम्हा, ममत्तयोच्छेयमऽक्खिउं योच्छं । दारं समाहिलाभो ति, तत्थ पडिदारनयगमिमं ॥५८॥ 'अणुसट्ठी पडिवती य, सारणा कवयमऽह परं 'समया । 'झाणं 'लेसा 'आराह - णाफलं 'विजहणा चरिमं ॥ ५९॥ इह खलु कारणविरहे, न कज्जमुप्पज्जड़ त्ति कज्जं च । एत्थं पत्थुयमऽच्वत्थ - मेक्कमाऽऽराहणारूवं ॥६०॥ तक्कारणं च पडियन्न - चउविहाऽऽहारपच्चक्खाणस्स । परमं समाहिलाभो, सो पुण अणुसट्ठिदाणम्मि होइ ति वित्थरेणं, वोच्छं पढभमऽणुसट्ठिदारमऽहं । पडिसेहविहिपहाणऽत्थ-सत्थपयडणपईवसमं 'अनुशास्तिद्वारम् ' किर सुप्पसंतचितं, सयमऽयि परिचत्तपाववावारं । महुरगिराए खवगं, भगंति निज्जामगा गुरुणो हंहो देवाणुप्पिय!, धन्नो सुहलक्खणो सुकयसीमा । ससहररिच्छजसलच्छि - धवलियाऽऽसो तुमं एत्थ | माणुस्सजम्मजीविय - फलं तु तुमए परं समणुपत्तं । दोग्गइनिबंधणाण य, कम्माण जलंऽजली दिन्नो जेणं तुमए तणमिव पुत्तकलत्ताऽऽड़परियणपहाणं । संतं पि गिहाऽऽवासं, मोत्तूण जिगिंदवरदिक्खा अच्वंतभावसारं, पडियन्ना पालिया य चिरकालं । इन्हिं च सुणिज्जंतं पि, चित्तसंखोभसंजणगं अइदुक्करं च पागय - जणस्स इममुत्तिगट्ठमऽणुसरिय । एवं वट्टसि अपमत्त - चित्तयाए तुमं धीरो एवं ठियस्स य तुहं सविसेसगुणप्पसाहणसमत्थं । दावियदुग्गड़पट्ठि, देमि अहं किंपि अणुसट्ठि | एत्थं पुण परिहरणीय- वत्थुविसयाणि पंच दाराणि । करणीयवत्थुविसयाणि, ताणि तेरस वियाणाहि ताई पुण 'अट्ठारस - पावट्ठाणाई 'अट्ठमयठाणा । कोहाऽऽइणो पमाया, "पडिबंधच्चापदारं च तह "संमत्तथिरतं, "अरिहाऽऽईछक्कभत्तिमत्तं च । पंचनमोक्कारपरतं, सम्मनाणोवओगो य पंचमहव्ययरक्खा, तहाऽवरं " खवगचउसरणगमणं । दुक्कडगरिहाकरणं "तह सुकडऽणुमोयणा अण्णं ॥ ७३ ॥ १४ बारसभावणनामं, तहाऽवरं "सीलपालणं जाण । "इंदियदमणं "तयउज्जु-गत्त "निस्सल्लयं चेव एवं अट्ठारसगं, पडिदाराणमणुसट्ठिदारम्मि । पडिसेहविहिमुहेणं, निद्दिनं नाममेत्तेणं नियनियकमपत्ताई, ताइं चिय वित्यरेण कित्तिस्सं । सिद्धंतसिद्धदिवंत - जुत्तिपरमत्थजुताई ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७४॥ ॥६९॥ ॥६२॥ - કો ॥६४॥ ॥६५॥ સદ્દા ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ ॥७५॥ ॥७६॥ 'अट्ठारसपावठाणद्वारम्' ॥७७॥ ॥७८॥ इन्हिं तु तेसिं पढमं, अट्ठार सपा यठाणदारमऽहं । अट्ठारसपडिदार - प्पडिबद्धं ताव वन्नेमि पंसयड़ अवगुंडइ, जीवं जं तेण भन्नइ पावं । ठाणाणि पयाणि भवंति, तस्स अट्ठारस इमाणि 'पाणिवहाऽ लिय मद्दत - गहण मेहुण 'परिग्गहो 'कोहो । 'माणो 'माया 'लोभो, "पेज्जं " दोसो तहा " कलहो ॥७९॥ | अब्भक्खाणं ४ अरईरई य, "पेसुण्ण "परपरीवाओ । "भायामोसं "मिच्छा - दंसणसल्लं ति पढममिह ॥८०॥ “प्राणिवधत्याग स्वरूपम्' पाणा उस्सासाड़ऽई, संति इमेसिं ति पाणिणो जीवा । तेसिं वहो विद्धंसो, पाणिवहो सो य नरयपहो ॥८१॥ | धम्मज्झाणसरोरुह-संडाणमऽ कंडचंडहिमवुट्ठी । निस्सूगयाऽगणीए, महल्लचुल्लीपरिक्खेयो ૫૫ ॥८३॥ ॥८४॥ ॥८५॥ तह रोद्दऽट्टज्झाणतणंडकु - रेक्कपारोहपाउसाऽऽरंभो । जलकुल्ला य महल्ला, अकित्तिवल्लीवियाणस्स परचक्काऽऽगमसवणं, पसन्नजणवयणमणजणवयागं । तह असहणया अविरई - रइपीईणं कुसुमबाणो पज्जलियदीयपत्तं, महंतपाणिपयंगवग्गस्स । तलमुदहिणो अगाहं, अच्चुक्कडपावपंकस्स अच्चंतदुग्गदुग्गड़ - सेलगुहाए महं मुहपयेसं । भवदहणतवियबहुदेहि-लोहघणघाय अहिगरणी | खंताऽऽइगुणकणुक्कर- पीसणकरघणघरट्टजंतं व । तह नरयभूमिहरयस्स, पउणअवयरणनिस्सेणी 1. मनईहितार्थानाम् । દ્દા દા 157 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५५८८-५६२५ प्राणिवधत्यागस्वरूपम् वहबंधरोहधणहरण-जायणामारणाणि इह चेव । पाणिवहम्मि पसत्तो, सत्तो पायेइ पुणरुत्तं ૮૮ળા दिक्खादेवउच्चणदाण-झाणतवविणयपमुहकिरियाओ । जीवदयाए विहीणा, सव्याउ निरत्थिया होति ॥८९॥ जड़ नाम परमधम्मो, गोबंभणमहिलयहनिवित्तीए । तत्तो वि कहं न परमो, सो सव्वजियाण रक्खाए ९०॥ सव्वे चिय संबंधा, पत्ता जीवेण सव्वजीवहिं । तो मारेंतो जीवे, मारइ संबंधिणो सव्ये ॥९१॥ मारेइ एगमवि जो, जीवं सो बहूसु जम्मकोडीसु । बहुसो मारिजंतो, मरइ विहाणेहिं बहुएहिं ॥९२॥ जावइयाई दुक्खाई, होति चउगइगयस्स जीवस्स । सव्वाइं ताई हिंसा-फलाई निउणं निरुवेसु ॥९३॥ जीयवहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ । इय सव्यजीवहिंसा, परिचत्ता अत्तकामेहिं ॥१४॥ नच्या मच्चदुहत्ते, नाणाजोणीसमस्सिए जीये । न हणेज्ज बुहो केयल-मडप्पोयम्मेण पासेज्जा ॥९५॥ । येयणा तिव्वा । किं पुण पहम्ममाणस्स, सेल्लकुंताऽऽइसत्थेहिं ॥१६॥ दटुमुवट्ठियहत्थत्थसत्थ-यहगे थिसायभयविहुरो । कंपड़ जीयो ही! णत्थि, मच्युतुल्लं भयं लोए ॥१७॥ 'मरसु' इमम्मि वि भणिए, जायइ जीयस्स दारुणं दुक्खं । किं पुण मारिजंतस्स, तिक्खसत्थाऽभिघाएहिं॥९८॥ जो जत्थेव य जायइ, जीयो सो तत्थ चेव कुणइ 'रई । दयमेय तेण संतो, निच्वं कुव्यंति जीयेसुं ॥१९॥ अभयप्पयाणसरिसं, अन्नं दाणं न विज्जइ जए वि । ता तद्दाया जो किर, सच्वं सो चेव दाणवई॥५६००॥ दिज्जड़ धणकोडी जीवियं च, इह जंतुणो मरंतस्स । न य धणकोडिं गेण्हइ, इच्छंतो जीवियं जीयो ॥१॥ राया वि देज्ज वसुहं, मरणे समुवट्ठिए इय महग्यं । जो देइ जीवियं अखय-दाणदाई स जियलोए ॥२॥ सो धम्मिओ विणीओ, सुविऊ दक्खो सुई विवेगी य । जीयेसु सुहदुहं जो, अप्पोयम्मेण परिमिणइ ॥३॥ दटुं समुवट्ठियमरण-मऽप्पणो जायए महादुक्खं । दट्ठव्या सव्वे वि हु, जीया तेणाऽणुमाणेणं ॥४॥ , परेसिमडति तं न सव्वहा कज्जा । जारिसयं इह किज्जड, पेच्या वि फलं पि तारिसयं॥५॥ पाणेहिंतो वि पियं, न किंचि जीवाण विज्जइ जए वि । ता अप्पोयम्मेणं, तेसु दया चेव कायव्या ॥६॥ जो जह करेइ पावं, जेहिं निमित्तेहिं जेण विहिणा य । सो तप्फलं पि पायइ, बहुसो तेहिं चिय कमेहिं॥७॥ जह दाया छेत्ता वा, एत्थ फलं लहइ तव्यिहं चेय । सुहदुहदाई वि तहा, पुन्नं पायं च पाउणय ॥८॥ दुट्ठमणवयणकायाऽऽउहेहिं, जीये उ जे विहिंसंति । दसगुणियाऽऽइअणंतं, तेहिं चिय ते विहम्मति ॥९॥ भीमभवक्खयदक्खं, दयं न बुज्झंति जे उ हिंसिल्ला । निवडइ तेसु सगज्जा, अवज्जवज्जाऽसणी घोरा ॥१०॥ ता भो! भणामि सच्चं, विवज्जियव्येव सव्यहा हिंसा । हिंसा वियज्जिया जड़, कुगती वि विवज्जिया चेव ॥११॥ पाणाऽइवायसंजणिय-पावपब्भारभारिया संता । जीया पडंति नरए, जले जहा लोहमयपिंडो ॥१२॥ जे पुण इह जीवेसुं, कुणंति सम्म विसुद्धजीवदयं । ते सग्गे मंगलगीय-तूररवसवणसुहएसु ॥१३॥ अच्छरगणाऽऽउलेसु य, रयणपयासेसु वरविमाणेसु । जहचिंतियसंपज्जत-सयलविसया सुरा होति ॥१४॥ तत्तो वि चुया असरिच्छ-लच्छिविच्छड्डपंडरजसेसु । सुकुलेसु चेय जायंति, सयलजयजीवसुहया य ॥१५॥ दीहाऽऽउया अरोगा, निच्चमडणुप्पन्नसोगसंताया । कायकिलेसविमुक्का, दयाउणुभावेण होन्ति नरा ॥१६॥ जायंति न हीणंडगा, न पंगयो न वडहा न खुज्जा य । नो यामणा न लायन्न-यज्जिया नो विरुया य ॥१०॥ सुंदररूया सोहग्ग-संगया बहुधणा गुणगरिट्ठा । अप्पडिमबलपरक्कम-गुणरयणयिराइयसरीरा ॥१८॥ अम्मापिइपीइपरा, अणुरत्तकलतपुत्तमित्ता य । हुति य कुलबुढिकरा, नरा, दयाधम्मकरणाओ ॥१९॥ न पिएहिं विप्पओगो, न यावि अप्पियसमागमो तेसिं । न भयं न गिलाणतं, न दोमणस्सं न हाणी य ॥२०॥ पुन्नाऽणुबंधिपुन्नाऽणु-भावओ बज्झमंतरं सव्यं । एवं अणुकूलं चिय, सया वि संपज्जए तेसिं . ॥२१॥ लहिऊण य संपुन्नं, जिणमयमाऽऽराहिलं च तं विहिणा । जीवदयाए फलं पार-मत्थियं पाउणंति नरा ॥२२॥ एवं कल्लाणपरं-परं परं पाणिणो समज्जिंति । जीए पसाया पुज्जा य, होति सा जयउ जीवदया ॥२३॥ लोइयसत्थेसुं पि हु, परिहरणिज्जतणेण युत्तमिमं । पुव्वं व पाणिवहणं, किं पुण लोगुत्तरे समए ॥२४॥ एत्थेव भवे पाणिवह-निरयविरयाण होति दोसगुणा । उभयत्थ वि दिटुंतो, सासुयसुन्हा तहा धूया ॥२५॥ 1. रई = रतिम्। 2. दानव्रती। 158 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४०॥ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५६२६-५६६२ प्राणिवधेश्वश्रृस्नुषयाः दृष्टान्तः तहाहिं "प्राणिवधेधश्रृस्नुषयाः दृष्टान्तः" । जणबहुले धणबहुले, अदिट्ठपरचक्कचोरमारिभए । संखउरे नयरम्मि, अहेसि राया बलो नाम ॥२६॥ तस्स य रन्नो पडिबंध-भायणं सयलधणियलोयमओ । सेट्ठी सागरदत्तो, आसी सव्वत्थ सुपसिद्धो રળ | भज्जा य संपया से, पुत्तो मुणिचंदनामगो ताणं । धूया बंधुमई दास-चेडओ थायरो नाम ૨૮ળા तस्स पुरस्स अदूरे वडयद्दऽभिहाणगोउले नियगे । सेट्ठी गंतुं चिंतं, करेइ नियगोसमूहस्स। ॥२९॥ पइमासं आणेइ य तत्तो घयदुद्धभरियसगडाइं । वियरइ य बंधुमित्ताण, दीणदुत्थाण य जणाण ॥३०॥ बंधुमई वि जिणाणं, धम्म सोऊण साविया जाया । पाणिवहपमुहपाव-ट्ठाणविरता पसंता य ॥३१॥ अह अन्नया कयाई, हरिधणुचडुलत्तणेण जीयस्स । सागरदत्तो सेट्ठी, कमेण पंचत्तमडणुपत्तो ॥३२॥ ठविओ तस्स पयम्मि य, मुणिचंदो पउरसयणलोएण । पुवठिईए यट्टइ, सव्येसु वि सपरज्जेसु ॥३३॥ | दंसेइ य बहुमाणं, पुव्यपयाहेण थायरो तस्स । घरकज्जाणि य चिंतड़, सुहि व्य पुत्तो व्य बंधु ब्य नवर इत्थिसहावा, विवेयवियलत्तणेण य विसीला । तं दट्टणं चिंतेड़, संपया मयणसरविहरा ॥३५॥ केणोयाएण सम, इमेण अणियारियं विसयसोक्खं । भुंजिस्समऽहं निप्पच्च-यायमेगंतमडल्लीणा રૂદ્દા कह या मुणिचंदमिमं, यायाइत्ता सयस्स भयणस्स । धणकणगसमिद्धस्स वि, नाहमिमं ठावइस्सामि ॥३॥ एवं विचिंतयंती, सविसेसं ण्हाणभोयणाऽऽईहिं । उवचरइ थावरं अहह!, दुट्ठया पावमहिलाण अमुणियतदभिप्पाओ, बटुतिं तं च तह निएऊण । चिंतेइ थावरो इय, जणणितं मह करेइ इमा ॥३९॥ अह उज्झिऊण लज्जं, दूरे मोत्तुं च सकुलमज्जायं । तीए तस्सेगंते, सव्वाऽऽयरमप्पिओ अप्पा भणिओ य भद्द! यायाइऊण, मुणिचंदमेत्थ गेहम्मि । सामि व्य मए सद्धिं, भोगे भुंजाहि वीसत्थो ॥४१॥ तेणं भणियं एसो, मुणिचंदो कह णु मारियव्यो ति । तीए वुत्तं गोउल-पडियरणत्थं तुमं तं च ॥४२॥ सामि अहं किर. तो तममसिणा वहेज्ज तं मग्गे । पडिवन्नमिमं तेणं, किमऽकिच्वं चत्तलज्जाण ॥४३॥ बंधुमईअ एसो य, वइयरो निसुणिओ सिणेहेण । सिट्ठो य भाउणो त-खणेण गेहम्मि इंतस्स ॥४४॥ तं तुण्हिक्कं काउं, मुणिचंदो मंदिरम्मि संपत्तो । कवडेणं जणणी वि हु, रोविउमडच्चंतमाउडरद्धा ॥४५॥ पुट्ठा तेणं किं रुयसि, अम्म! तीए पयंपियं यच्छ! । णियकज्जाइं सीयंत-याई दठूण रोएमि દા जीवंतो तुज्झ पिया, जया तया नूण मासपज्जते । गंतूण गोउलाओ, घयदुद्धाइं पणामेंतो . ॥४७॥ इन्हिं तु तुम पुत्तय!, अच्वंतपमायसंगओ संतो । गोउलतत्तिं न करेसि, किंपि भण कस्स साहेमि ॥४८॥ भणियं च तेण अम्मो!, मा रुयसु अहं सयं पभायम्मि । बच्चामि गोउले था-वरेण सद्धिं चयसु सोगं ॥४९॥ इय सोउं सा तुट्ठा, ठिया य मोणेण अह बिइज्जदिणे । आरुहिऊण तुरंगं, चलिओ सो थावरेण समं ॥५०॥ | वच्चंतो य विचिंतइ, थावरओ जइ कहं पि मुणिचंदो । पुरओ वच्चइ ता खग्ग-जट्ठिणा लहु हणामि अहं ॥५१॥ मुणिचंदो वि हु भइणी-निवेइयं वइयरं विभावेंतो । जमलो से अपमतो, मग्गे गंतुं पवत्तो ति ॥५२॥ अह विसमगड्डदेसे, पत्ते तुरओ कसप्पहारेण । पहओ थावरएणं, पुरओ गंतुं पयट्टो य ॥५३॥ मुणिचंदो य ससंको, जा गच्छड़ ताय तेण करवालो । पट्ठिठिएणाडयडिढउ-माउडरद्धो तव्यहनिमित्तं ॥५४॥ पेच्छइ य पडिच्छायं, मुणिचंदो तारिसं तओ तुरओ । वेगेण वाहिओ तेण, वंचिओ खग्गघाओ य ॥५५॥ पत्तो य गोउलं सो, गोउलवइणा कया य पडिवत्ती । अन्नऽन्नसंकहाहिं, ठिया य ता जाय दिवसंडतं ॥५६॥ घाओवाए पेहइ, तम्मारणकारणेण थावरओ । चिंतेइ य रयणीए, यावाइस्सामि धुवमेयं ॥५॥ अह मंदिरस्स मज्झे, सयणिज्जे विरइयम्मि रयणीए । मुणिचंदेणं भणियं, चिरकाला आगओऽहमिह ॥५८॥ ता गोवाडम्मि इम, रएह जह तत्थ संठिओ सव्यं । गोमहिसीणं जहं, सम्म पेहेमि पतेयं ॥५९॥ तं कयं परि-यणेण तो तत्थ संठिओ संतो। चिंतेड भिच्चविलसिय-मडसेसमडहमज्ज पेच्छामि ॥६॥ पइरिक्के य ठियं तं, दटुं तुट्ठो मणम्मि थावरओ । निव्ययणिज्जं अज्जं, सुहेण वज्झो ति काऊण ॥१॥ अह सुत्तम्मि जणम्मि, मुणिचंदो निसियनग्गमाऽऽदाय पडपाउयं च खोडिं, णियसयणिज्जम्मि ठविऊण ॥२॥ 1. वणिय० पाठां०।. 159 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणिवधेधश्रृस्नुषयाः दृष्टान्तः - अलीकवचनस्वरूपं संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५६६३-५६६६ | तदुव्विलसियअवलो- यणट्टया बाढमऽप्पमत्तमणो । निहुओ मोणेण ठिओ, एगंते अह खणस्संडते आगंतुं थावरओ, वीसत्थो जाव पहरए तत्थ । ता मुणिचंदेण हओ, असिणा पत्तो य पंचतं वित्तंतस्स य एयस्स, गोवणटुं समग्गगोवग्गं । वाडाओ नीणित्ता, वाहरिउमिमो समाढतो E ॥६४॥ ॥६५॥ સદ્દકો ॥६८॥ ॥६९॥ हंहो ! धावह धावह, गावीओ तक्करेहिं हरियाओ । वहिओ य थायरो तो, सव्वत्तो धाविया पुरिसा गावीओ वालियाओ, नट्ठा चोर त्ति चिंतियं तेहिं । मयकिच्चं णिव्यत्तिय - मऽसेसमऽवि थावरस्स तओ ॥६७॥ किं होहि त्ति सचिंता, जा तम्मग्गं पलोयए जणणी । ता एगागी गेहे, मुणिचंदो झति संपत्तो | दिन्नाऽऽसणो निसण्णो, खग्गं गिहकीलगे विमोत्तूण । पयसोहणं च काउं, पारद्धं तस्स भज्जाए पुट्ठो य ससोगाए, जणणीए वच्छ ! थावरो कत्थ । तेणं वृत्तं अम्मो, मंदगई पिट्ठओ एइ तो संबुद्धा एसा, असिहुत्तं जा पलोयए ताव । पेच्छइ पिपीलियाओ, इंतीओ रुहिरगंधेणं सम्मं पेहंतीए, दिट्ठो खग्गो वि लोहियविलितो । ता पबलकोहहुयवह- पलित्तगत्ताए पावाए | आयड्ढिऊण तमऽदिस्स - माणदेहाए झत्ति पुत्तस्स । सीसं छिन्नं तीए, कहं पि यक्खित्तचित्तस्स तो सामिमारणुप्पन्न -तिव्यकोवाए तस्स भज्जाए । मुसलेण मारिया सा, बंधुमईए नियंतीए सा पुण पाणिवहाओ, विरतचित्ता महंतसंतायं । हिययम्मि उव्वहंती, ठिया घरस्सेगदेसम्मि मिलिओ य नयरलोगो, वित्तंतं मुणिय तं च सा भणिया । कीस तए नो हणिया, मायाए विणासिगा एसा ॥७६॥ | पाणिवहविरइरूवो - ऽभिप्पाओ साहिओ य सो तीए । तो सलहिया जणेणं, धिसिक्कियाइं च सेसाई ॥७७॥ गिहसारं नरवड़णा, गहियं सुन्हा य चारगे धरिया । इयरी य पूइया इय, पाणिवहो ऽणत्थहेउ ति पाणवहनामगमिमं पायद्वाणं निदंसियं पढमं । एत्तो उ अलियययणाऽ - भिहाणगं बीयमऽक्खेमि ॥७५॥ ॥७८॥ ॥७९॥ “अलीकवचनस्वरूपम्” अलियं हि रुद्दकंदो, बाढमऽविस्सासदुमसमूहस्स । बज्जाऽसणीनिवाओ, जणपच्चयसेलसिहरस्स गरिहापणतरुणीए, गहणगदाणं सुवासणासिहिणो । जलपक्खेवो संकेय-मंदिरं अजसकुलडाए | उभयभवभावि आवय - कुमुयपबंधस्स सारयमयंको । सुविसुद्धधम्मगुणसस्स - संपयाए कुवाओ य | पुव्वाऽचरवयणविरोह-रूवपडिबिंबस्स आयरिसो । सत्थाहमत्थयमणी, नीसेसाऽणत्थसत्यस्स | सप्पुरिसत्तणकाणण- निद्दहणम्मि य सुतिव्यहव्यवहो । ता एयप्परिहारो, कायव्यो सव्यजत्तेण किंच ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥८०॥ ॥८१॥ ॥८२॥ ૫૫ ॥८४॥ ॥८९॥ men ॥९१॥ | जह परमऽन्नस्स विसं, विणासयं जह य जोव्यणस्स जरा । तह जाण असच्चं पि हु, विणासयं सव्यधम्मस्स ॥८५॥ होउ य जडी सिहंडी, मुंडी वा वक्कली व नग्गो वा । लोए असच्चवाई, भन्नड़ पासंडिचंडालो ॥૬॥ अलियं सई पि भणियं, विहणइ बहुयाइं सच्चवयणाई । एवं च सच्चवयणे वि, तम्मि अप्पच्चओ चेव ॥८७॥ अलियं न भासियव्यं, गरहिज्जइ जं जणे अलियवाई । अप्पच्चयं च अप्पा - णयम्मि संजणइ जणमज्झे ॥ ८८ ॥ कारावेइ य अलिय- प्पयंपणे धिट्ठचेट्ठियं दयुं । जीहाछेदाऽऽईयं, चंडं दंडं नरवई वि इहलोगम्मि अकित्ती, सव्यजहन्ना गई य परलोए । अलियपयंपणपभवेण, होड़ पायेण जीवस्स नो कोहमाणमाया -लोभेहिंतो न हासओ न भया । भासेज्ज अलियवयणं, परलोयाराहणेक्कमणो ईसाकसायकलिओ, अलियगिराहिं परं उवहणंतो । मुणइ वराओ नेवं, जह अप्पाणं चिय हणेमि उक्कोडागहणरओत्ति, कुडसक्खिति अलियवाइति । धिक्कारमोग्गरहओ, णिवडइ नरए महाघोरे नो कित्ती नो अत्यो, नयाऽवि मणनेव्युई न धम्मो ति । उक्कोडागहणरयस्स, किंतु कुगईगमो चेय सीलं कुलमडप्पाणं, लज्जं मज्जायमऽह जसो जाई । नायं सत्यं धम्मं च, कूडसक्खी परिच्चयइ | वियलिंदिया जडा मूअ-ल्ला य हीणस्सरा य पूड़मुहा । मुहरोगिणो गरहिया, जायंति असच्चयाइत्ता | सग्गापवग्गमग्गऽग्गलं व, कुगतीए पुण पहो पउणो । अलियप्पयंपणं अप्प - णो य माहप्पलुंपणयं लोए वि मुसावाओ, समत्थसाहुजणगरहिओ गाढं । भूयाणमऽविस्सासो, तम्हा भासेज्ज मा मोसं लोए वि जो ससूगो, अलियं सहसा न भासए किंपि । जइदिक्खियो वि अलियं, भासइ ता किं च दिखाए ॥९९॥ ॥९२॥ ॥९३॥ ॥९४॥ ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९७॥ un 160 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५७००-५७३७ अलीकवचनस्वरूपं - वसुनृपदृष्टान्तः m ॥४॥ ॥५॥ ॥६॥ सच्चं पि न यत्तव्यं, असच्चययणं कहिंपि सच्चं पि । जं जीवदुक्खजणयं, सच्वं पि असच्चतुल्लं तं ॥५७०० ॥ जं परपीडाजणगं, हासेण व तं न होइ वत्तव्यं । हासेण भक्खियं किं, कडुयविवागं विसं न भवे ॥१॥ ता भो ! भणामि सच्चं वज्जेयव्यं खु सव्वहा अलियं । तं जइ विवज्जियं तो, कुगई वि यज्जिया चेव ॥२॥ | अलियपयंपणसंपत्त - पावपब्भारभारिया संता । जीवा पडंति नरए, जले जहा लोहमयपिंडो ता चइऊणमऽसच्चं, सच्चं चिय निच्चमेव भासेज्ज । सग्गाऽपयग्गगमणे, मणोहरं तं विमाणं जं कित्तिकरं धम्मकरं नरयदुवारऽग्गलं सुहनिहाणं । गुणपयडणप्पईयं, इट्ठ मिट्ठे च सिट्ठाणं परिहरियसपरपीडं, बुद्धीए पेहियं पयइसोमं । निरवज्जं कज्जखमं, जं वयणं तं मुणसु सच्चं इय सच्चययणमंताऽ - भिमंतियं नो विसं पि पक्कमइ । धीरेहिं सच्चवयणेण, साविओ डहइ न सिही वि ॥७॥ | उम्मग्गविलग्गा गिरि-नई वि थंभिज्जइ हु सच्चेण । सच्चेण साविया कीलि-य व्य सप्पा वि चिट्ठति ॥८॥ |पभवइ न सच्चवयणेण, थंभिओ दित्तपहरणगणो वि । दिव्यट्ठाणेसु वि सच्च-सावणा झति सुज्झति usu आकंपिज्जंति सुरा वि, सच्चवयणेण धीरपुरिसेहिं । डाइणिपिसायभूया - ऽऽइणो वि न छलंति सच्चहया ॥१०॥ एत्थ भवे सच्चेणं, निब्भिच्चं संचिऊण पुन्नचयं । होउं महिड्ढियसुरो, सुमाणुसत्तं लभइ तत्थ सव्यत्थ गेज्झयक्को, आदेओ दित्तिमं पयइसोमो । दीसंतो दिट्ठिसुहो, चिंतिज्जंतो य मणहारी खीरं व महुं व सुहा - रसं व सुइमाणसं सुनिसिरेइ । इइ वयणगुणो पुरिसो, भासतो होड़ सच्चेणं न जडो न मूयलो वा, नयाऽवि हीणस्सरो न काग़सरो । न य मुहरोगी न य पूइ - गंधवयणो य सच्चेण ॥ १४ ॥ सुहिओ समाहिपत्तो, पमुइअपक्कीलिओ रइपरो य । सुहसलहणिज्जचेट्ठो, इट्ठो कंतो परियणस्स ॥१५॥ | जे पढमपायठाणग-पडिवक्खगुणा उ यन्निया पुव्विं । तेहि इमेहि य कलिओ, होइ नरो सच्चभासि ति ॥१६॥ एवं कल्लाणपरं परं परं पाणिणो समज्जिंति । जीए पसाया पुज्जा य, होंति सा जयइ सच्चगिरा ॥१७॥ सच्चम्मि तवो सच्चम्मि, संजमो तम्मि चेव सव्वगुणा । अइसंजओ वि मोसेण, होइ तिणलवसमो पुरिसो ॥ १८ ॥ इय सुंदर! जाणित्ता, सच्चाऽसच्चचवियाण दोसगुणे । चेच्चा असच्चययणं, सच्चगिरं चिय समुल्लवसु ॥१९॥ बीयगपायट्ठाणे, ठाणब्भंसाऽऽइणो बहू दोसा । वसुणो व्व तन्नियत्ताण, पुण गुणा नारयस्सेव तहाहि ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥२०॥ “वसुनृपदृष्टान्तः” जंबुद्दीवे दीवे, सुत्तिमईए पुरीए नरनाहो । अभिचंदनामधेओ, अहेसि पुत्तो य तस्स वसू | वेयाऽवगमनिमित्तं, सो पिउणा आयरेण उवणीओ । अज्झायगस्स गुणिणो, खीरकयंबस्स विप्पस्स |पव्ययगेणं उज्झाय-सूणुणा नारएण य समेओ । पढइ वसुरायपुत्तो, वेयरहस्सं अविस्सामं अन्नदियहम्मि तिन्नि वि, एए पासितु गयणगामीहिं । अइसयनाणीहिं महा- मुणीहिं अवरोप्परं भणियं वेयमऽ हिज्जंति इमे, जे तेसिं दोन्नि अहरगइगामी । एगो य उड्ढगामि त्ति, जंपिउं ते तिरोभूया खीरकयंबो य इमं, सोच्चा थी! धी! निरत्थपाढेण । इति संवेगमुवगतो, पव्यइओ मोक्खमऽणुपत्तो अह अहिचंदेण वसू, अहिसितो णियपए णिवो जाओ । रज्जं च भुंजमाणस्स, तस्स एगेण पुरिसेण आगंतूणं भणियं, अडवीए गएण देव! अज्ज मए । हणणट्ठा पामुक्को, बाणो हरिणस्स सो य लहुं पच्छाहुतो अब्भिट्टिऊण, पडिओ सविम्हएण मए । तो फलिहसिला विमला, दिट्ठा करफरिसणवसेण जेणंडतरिओ हरिणो, पयडो दीसइ तमऽब्भुयं रयणं । देवस्स चेय जोग्गं ति, आगओ तुम्ह कहणट्ठा ॥३०॥ एवं सोच्चा रन्ना, फलिहसिलाऽऽणाविऊण सा रहसि । सिंहासणकरणट्ठा, समप्पिया सिप्पियजणस्स ॥३१॥ निम्मायम्मि य तम्मि, अत्थाणीमंडवं य ठवियम्मि । आसीणो नरनाहो, नज्जड़ गयणंडगणठिओ व्य | विम्हइओ नयरिजणो, गया पसिद्धी य सेसराईसु । सच्चेण वसू राया, जह अच्छड़ नहयलाऽऽसीणो ॥३३॥ एयपवायनिमित्तं च, सिप्पिणो ते विणासिया सव्ये । दूरट्ठिओ य लोगो, लहेइ विन्नत्तियं काउं एवं बच्चति काले, ते पुण पव्वयगनारया सिस्से । वेयरहस्सं पाढंति, नियगनियगेसु गेहेसु अवरम्मि य पत्थाये, पुव्यप्पणएण पव्वयगपासे । बहुसिस्सपरिवुडो ना-रओ गओ सगुरुपुत्त ति विहिया से पडिवत्ती, पव्ययगेणं ठिया यं गोट्ठीए । पत्थावे पव्ययगेण, अद्धवक्खायवेयपयं ॥३२॥ રૂજા ॥३५॥ ॥३६॥ રૂા 161 ॥२१॥ ॥२२॥ રા ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२९॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५७३८-५७७४ वसुनृपदृष्टान्तः - अदत्तादानस्वरूपम् મળો जन्नाऽहिगारसंतिय-मज्जेहिं जट्टव्यमिति ससिस्साणं । यक्खाणियं अजेहिं, छयलेहिं इइ विमूढेणं तो नारएण भणियं, भण्णंति अजा तियरिसपरिवसिया । इह वीहियाऽऽदओ तेहिं, चेव जट्टव्यमाऽऽह गुरु ॥३९॥ नो पडियन्नमिमं प-व्यएण जाओ महं विसंवाओ । जिब्भच्छेयपइन्ना, क्या य जो जिप्पड़ याए ॥४०॥ सहपढिओ त्ति वसुनियो, एत्थ पमाणं क्या इय यवत्था । अह तज्जणणी भीया, सच्चगिरं नारयं नाउं ॥ ४१ ॥ धुवमिन्हिं मह पुत्तो, जीहच्छेएण पाविही मरणं । ता पन्नयेमि नरवड़ - मिड़ सा वसुमंदिरम्मि गया ॥४२॥ अब्भुट्ठिया य रन्ना, गुरुणो भज्ज ति तीए तो सिट्टो । एगंते से सव्यो, नारयपव्ययगयुत्तंतो "જો वसुणा य जंपियं अम्म!, कहसु किं एत्थ मज्झ किच्चं ति । तीए वृत्तं पुत्तो, जह जिणइ तहा करेज्जासु ॥४४॥ उयरोहसीलयाए, पडियन्नमिमं पि वसुनरिंदेण । बीयदिवसे य दोन्नि वि, पक्खा तस्संऽतियं पत्ता काऊण सच्चसावण-मडह भणियं नारएण भो राय ! | तुममिह धम्मतुला, तं पढमो सच्चवाईगं ता कहसु कहं गुरुणा, अजेहिं जट्टव्यमिह पवक्वायं । ताहे रन्ना परिचत - सच्चवाइत्तयाएण जंपियमऽजेहिं छगलेहिं, भद्द! जट्टव्यमिह पवक्खायं । एवं भणिए कुलदेव-याए अइकूडसक्खि ति कुवियाए पाडिऊणं, फालियसीहासणाओ सो निहओ । अन्ने वि भूमिवइणो, तप्पयपरिवत्तिणो अट्ठ पव्ययगो वि जणेणं, धिसिक्किओ दढमऽसच्चयाइ ति । मरिऊण य नरयम्मि उववण्णो वसुनरेंदो वि ॥५०॥ इयरो य सच्चवाइ ति नयरलोएहिं विहियसक्कारो । ससिसमदितिं कितिं, पत्तो सुरलोयलच्छिं च बीयं पावट्ठाणग-मेवं मोसाऽभिहाणमुवइ । एतो तइयमऽदत्ता - दाणऽभिहाणं पवक्खामि ॥४५॥ "જો ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५१॥ ॥५२॥ 66 अदत्तादानस्वरूपम्” ॥५४॥ ॥५५॥ ॥५७॥ રો पंको व्य जलं किट्टो व्य, दप्पणं चित्तभित्तिमिव धूमो । मइलेइ चित्तरयणं, परधणहरणस्स सरणं पि ॥५३॥ एयपसत्तो सत्तो, अविभावेऊण धम्मविद्धंसं । अवहत्थिऊण सप्पुरिस - सेवियं कुलववत्थं पि कित्तिकलंकं पि अपेहिऊण, अवहीरिऊण जीयं पि । गीयरयं हरिणो इय, पईवकलियं पयंगो व्य | बडिसाऽऽमिसं व मीणो, भमरो कमलं व करिवहूफरिसं । वणवारणो व्य पायो, परधणहरणं कुणइ सो य ॥ ५६ ॥ तज्जम्मे च्चिय पायइ, करकन्नच्छेयमऽच्छिनासं वा । करवत्तकिंतणं उत्ति-मंगपमुहंऽगभंगं वा परसंतियं हरिता अत्थं हरिसिज्जइ । नियजत्थे य । हरिए परेण सहसत्ति, सत्तिभिन्नो व्य होइ दुही ॥५८॥ लोओ वि कुणइ पक्खं, अवरज्झतस्स अन्नमऽवराहं । 2 नीयल्लया वि पक्खे, न होंति चोरिक्कसीलस्स ॥५९॥ अन्नं अवरज्झतस्स, देति नियए घरम्मि ओगासं । माया वि हु ओगासं, न देइ परदव्यहारिस्स ॥६०॥ जस्स य घरम्मि सो लहइ, अल्लियावं कांपि तं सहसा । पाडेड़ अइमहल्ले, अयसे दुक्खे महावसणे ॥ ६१ ॥ कहकहवि किंपि सुचिरेण, विविहआसाहिं संचिणइ दव्यं । इय जो जीयसमं तं हरेज्ज तत्तो वि को पायो ॥६२॥ संसारियसत्ताणं, पाणसमो सव्यहा इमो अत्थो । तेसिं च तं हरंतो, हरेइ तज्जीवियमऽहम्मो विहयम्मि उ अवहरिए, केवि छुहाए मरंति दीणमुहा । किवणप्पाया तप्पंति, केवि सोयऽग्गिणा अन्ने ॥६४॥ | पढमपसूर्यपि चउ - प्पयाऽऽइयं अवहरति निक्करुणा । जणणिविउत्ता तव्यच्छ-गा य दुहिया मरंति तओ ॥६५॥ एवं च हणइ पाणे, भासइ मोसं अदत्तहरणपरो । तो इहभवे वि पावड़, बहुविहवसणाणि मरणं च ॥६६॥ दारिद्दं भीरुतं, पियपुत्तकलतबंधुयोच्छेयं । एमाऽऽइए य दोसे, भवंडतरे तेन्नपावाओ ॥६७॥ ता भो ! भणामि सच्चं विवज्जणीयं खु परधणं सव्वं । परधणवियज्जणाओ, कुगई वि विवज्जिया दूरं ॥६८॥ अद्दत्तगहणसंजणिय - पावपब्भारभारिया संता । नरए पडंति जीवा, जले जहा लोहमयपिंडो अद्दत्ताऽऽदाणफलं, एयं नाऊण दारुणविवागं । तव्विरई कायव्या, अत्तहियनिहित्तचितेण परदव्य हरणबुद्धिं पि, जे न कुव्वंति सव्यहा जीवा । पुव्युत्तदोसजालं, मलंति ते वामपाएणं पायेंति सुदेवत्तं तत्तो सुकुलेसु माणुसतं च । लधुं च सुद्धधम्मं, आयहियम्मि पयट्टंति मणिकणगरयणधणसंचयड्ढ - कुललद्धमणुयजम्मस्स । तेन्नययपत्तपुन्नाऽणु-बंधिपुन्नस्स धन्नस्स गामे वा नगरे वा, खेत्ते व खले व अह अरन्ने वा । गेहे वा पंथे वा, राओ या दिवसओ या वि ॥ ७४ ॥ 1. निजार्थे = स्वधने । 2. नीयल्लया = निजकाः = स्वजनाः B | 3. स्तैन्यपापात् । 4. मलंति =मूद्रन्ति = नाशयन्ति ।, ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ 162 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५७७५-५८१० श्रावकपुत्रवसुदत्तदृष्टान्तः - मैथुनस्वरूपम् भूमीए निहाणगयं, अहवा जहकहवि गोवियं संतं । पयडं चिय मुक्कं या, एमेव कहिं वि पडियं वा ॥७५॥ पम्हुट्टं या कत्थवि, वड्ढिपउत्तं च उज्झियं जइवि । नो तस्स नस्सइ धणं, धणियं बड्ढड़ अ किं बहुणा ॥७६॥ सच्चितं अच्चितं मीमं वा किंपि तं पिहू अपयं । दुपयं चउप्पयं वा, तहा जहा कहमऽवि ठियं पि ॥७७॥ |देसनगराऽऽगराणं, गामाण य दारुणोवघाए वि । न कहिं पि किंपि पलयं, पावेइ तप्परिग्गहियं ॥७८॥ अकिलेसघडंताणं, जहिच्छियाणं व होइ दव्वाणं । सामी भोई य तहा, तस्स अणत्था खयं जंति |भोज्जाऽऽगयहेरियहरिय-थेरिगिहसारललियगोट्ठी व । इह तड़यपावठाणग-निरया पाविंति बंधाऽऽई जे पुण तओ विरता, ते सुद्धसहावओ च्चिय न होंति । तम्मज्झयुत्थसावय - पुत्तो व्य कया वि दोसपयं ॥ ८१ ॥ तहाहि ॥७९॥ ॥८०॥ “श्रावकपुत्रवसुदत्तदृष्टान्तः” नयरम्मि वसंतपुरे, वसंतसेणाऽभिहाणथेरीए । जेमाविओ पुरजणो, एगम्मि महूसवे सव्यो | अह तत्थेव पुरम्मि, वत्थव्या अत्थि दुल्ललियगोट्ठी । तीए य थेरिगेहं हेरिता रयणिसमयम्मि लुंटेउं आरद्धं, नवरं सावयसुओ उ वसुदत्तो । तग्गोट्ठिमज्झवत्ती वि, नेव चोरिक्कयमऽकासी तो तं मोतुं थेरीए, चोरचरणा पणामववएसा । मा चोरह त्ति भणिरीए, अंकिया मोरपित्तेण मुसिऊण गेहसारं, निक्खंता ते तओ पभायम्मि । थेरीए नरवइणो, तव्युत्ततो लहुं कहिओ अह मोरपित्तलंछिय - पयपुरिसपलोयणं कुणंतेहिं । रायनिउत्तनरेहिं, दिट्ठा सा दुल्ललियगोट्ठी | सच्छंदपाणभोयणविहीए, सव्वाऽऽयरं विलसमाणी । संजायनिच्छएहिं, तो नीया नरवइसमीये अल्लंछियपयसावय- मेक्कं चेबुज्झिऊण ते सेसा । छिंदणमिंदणबहुजा - यणाहिं निहणं समुयणीया एवमऽदत्तादाण - प्यवित्तिविणिवित्तिमंतजंतूणं । ट्टणम सुहफल - मेत्तो विरमसु तुमं वच्छ! | इय तइयपावठाणग-मडदत्तगहणाऽभिहाणमुवइ । भूरिविसयं पि एत्तो, लेसेण चउत्थमऽक्खेमि “मैथुनस्वरूपम् ” mn ૮૫ ॥८४॥ ॥८५॥ ॥८६॥ મા ॥८८॥ ॥८९॥ ॥९०॥ ॥९१॥ ॥९५॥ ॥९७॥ ॥९८॥ ॥९९॥ | मेहुन्नं सुचिरकिलेस - पत्तवित्तस्स मूलविद्धंसो । दोसुप्पत्तीणमऽयंझं, कारणं ठाणमऽजसस्स गुणपयरिसकणनियरस्स, दारुणोदूहलो 2 हलग्गं च । सच्चमहीए महिया, विवेयरविकिरणपसरस्स एत्थ पडिबद्धचित्तो, सत्तो विवरम्मुहो भवे गुरुणो । पडिवक्खत्ते वट्टइ, भाउयभइणीसुयाणं पि | कुणइ अकज्जं कज्जं पि, चयइ लज्जइ विसिट्ठगोट्ठीए । झाएइ बज्झवावार - विरयचित्तो सया एवं अहह ! रमणीण रेहड़, अरुणाऽरुणनहमऊहविच्छुरियं । चलणजुयं कमलं पिव, नयदिणयरकिरणसंवलियं ॥९६॥ अणुपुव्ववट्टमणहर - मुरुमणिभिंगारनालरमणीयं । जंघाजुयलं वम्मह - करिकर करणिं समुव्यहड़ रमणफलयं पि पंच- प्पयाररुइरयणकंतिपडिबद्धं । गयणयलं पिव सोहइ, फुरंतसुररायधणुकलियं उयरम्मि मुट्ठिगेज्झे, मणोहरा वलिपरंपरा सहइ । थणगिरिसिहराऽऽरोहण - कएण सोवाणपंति व्व | अंतवियसंतनवकमल - कमलनालोवमं समुव्यहइ । कोमलनंसलकररेह - माणभुयवल्लरीजुयलं | आणंदबिंदुसंदिर-सुंदेरुद्दाममिंदुबिंबं व । कामिचओराण मणो, उल्लासइ वयणस्यवत्तं अलिकुलकज्जलकसिणो, सुसिणिद्धो सहइ केसपब्भारो । चित्तऽब्भन्तरपज्जलिय-मयणसिहिधूमनिवहो व्य mn एवं विलासिणीजण - सव्यंडगाऽवयवचिंतणाऽऽसत्तो । तदुवहयमाणसो इव, तदऽट्ठिसंघायघडिओ व्य तदऽहिट्ठिओ व्व सव्वऽप्प - णावि तप्परिणईपरिणओ व्व । जंपड़ अहो! जयम्मि, कुवलयदलसच्छहऽच्छीणं ॥४॥ जुवईण विजियहंसं, गइविलसियम हह ! मणहरा वाणी । अद्धऽच्छिपेच्छियाणं, अहहो! छेयत्तणमऽतुच्छं | अहह! दरदलियकइरव - सुहयं हसियं फुरंतदंतऽग्गं । उक्कंपिरथोरथण - स्थलं अहो कणगकंडुयणं रंगंतवलीवलयं, पायडियविसट्टनाभिकंदोट्टं । फुट्टंतकंचुयमऽहो !, पेहह मोट्टाइयमरट्टं एक्कक्कमवि इमेसिं, दुलहमिमाणं किमंडग समवाओ । अहवा किं वन्निज्जइ, तासिं संसारसाराणं चिंतणमऽवि सयमोल्लं, जासिं अवलोयणं सहसमुल्लं । गोट्ठी य कोडीमुल्ला, अमोल्लओ अंगसंभोगो ॥९॥ एवं च सो वराओ, तग्गयचिंताविलायचेट्ठाहिं । मत्तो व्व मुच्छिओ इव सव्वग्गहनिहयचेट्ठो व्य ॥५८००॥ ॥१॥ m ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ ॥१०॥ 1. हेरित्ता = निरीक्ष्य । 2. हलाग्रम् । 3. करणिं = सादृश्यम् 163 ॥९२॥ ॥९३॥ ॥९४॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५८११-५८४६ मैथुनस्वरूपम् - गिरिनयरनिवासिनीदृष्टान्तः दिवसं निसं पिवासं, छुहं अरण्णं परं सुहं दुक्खं । सीयं उण्हं गम्म, अगम्ममऽवि नो मुणइ किंतु ॥११॥ ओ दीहमस्ससइ खलइ । वेल्लइ परिदेवइ रुयइ, सुबइ जंभायइ य बहसो ॥१२॥ एवं अणंतचिंता-संताणुत्तम्ममाणकामीण । क्यदुग्गइप्पयारं, वियारमऽवलोइय बुहेण ॥१३॥ सव्वं पि हु मेहुण्णं, दिव्वं माणुस्सयं तिरिच्छं च । उड्ढमडहतिरियखेते, राओ वा दिवसओ वा वि ॥१४॥ रागाओ दोसाओ वा, दोसाण समुस्सयं महापावं । सव्याख्यायनिमित्तं ति, चिंतणिज्जं न मणसा वि ॥१५॥ चिंतिज्जते य इमम्मि, पायसो पवरबुद्धिणो वि दढं । अविभावियपरनियजुवइ-सेवणादोसगुणपक्खो ॥१६॥ आरन्नकरिवरो इव, दुव्यारो जायए तदऽभिलासो । जीवाण जमडइगरुई, मेहुणसण्णा सहायाओ ॥१७॥ तो पइदिणवड्ढंता-अभिलासपयणप्पदिप्पमाणसिहो । निरुवसमं सव्वंडगं, पयंडमयणाऽनलो जलइ ॥१८॥ तेण य डझंतो असम-साहसं मणसि संपहारिता । जीयं पि पणं काउं, गुरुजणलज्जाऽऽइ अवगणिउं ॥१९॥ सेवेज्ज मेहुणं पि हु, ततो इह परभवे बहू दोसा । होति जओ सो निच्चं, ससंकिओ भमइ सव्वत्थ ॥२०॥ अह तक्कारि त्ति कयाइ, कहवि लोगेण जड़ स नज्जेज्जा । तो दीणमुहो जायड़, खणेण मरमाणलिंगो य ॥२१॥ गिहसामियनगराऽऽरक्खिएहिं, वा गहियनिहयबद्धस्स । दुट्ठखराऽऽरोवणपुव्य-गं च अह से वरायस्स ॥२२॥ उग्घोसणा पुरे तिक-चउक्च च्चरपहेसु परिभमइ । जह हंभो पउरजणा!, अवरज्झइ नेह रायाऽऽई ॥२३॥ केवलमज्वरज्झंति, पावाई सयं कडाई कम्माई । ता भो! इयरूवाई, इमाई अन्नो वि मा कुज्जा ॥२४॥ करचरणछेयवहबंध-रोहणुल्लंबणाडइमरणंडता । के के न होंति दोसा, इहभविया? मेहुणपरस्स ॥२५॥ परभविए पुण दोसे, केत्तियमेते उ कित्तिमो तस्स । जं मेहुणपाउभव-पावाउ अणंतभवभमणं ता भो! भणामि सच्चं, चयाहि सव्वं पि मेहुणं सम्मं । तप्परिचागा कुगई, चत्त च्चिय होइ दुहपगई ॥२७॥ अन्नं चपायडियविगियरूवं, आयासकिलेससाहणिज्जं च । सव्वंऽगियगुरुवायाम-जणियसेयाऽहिउव्वेगं ॥२८॥ सज्झसरुज्झंतगिरं, विलज्जकज्जं जुगुच्छणिज्जं च । एत्तो चेय निमित्ता, पच्छन्नाऽऽसेवणीयं पि ॥२९॥ | हिययुक्खइखयपामोव-विविहवाहीण हेउभूयं च । अप्पत्थभोयणं पिय, बलवीरियहाणिजणगं च | किंपागफलं पिव भुज-माणमऽवसाणविरसमऽइतुच्छं । वामोहकरं नडनच्चि-यं व गंधव्वनयरं व ॥३१॥ सयलजणजणियनिरसण-सुणगाऽऽइनिहीणजंतुसामन्नं । सव्वाऽभिसंकणीयं, धम्मत्थपरतविग्घरं ॥३२॥ आवायमेतसुहलेस-संभवम्मि विवेगवं को णु । निहुयणसोक्खं कंग्रेज्ज, मोक्खसोक्खक्कपरिक्खी ॥३३॥ मेहुणपसंगसंजणिय-पावपब्भारभारिया संता । निवडंति नरा नरए, जले जहा लोहमयपिंडो ર૪ | अक्खंडबंभचेरं, चरिउं संपुन्नपुन्नपब्भारा । समुचिंति चिंतियऽत्थं, पाति पहाणदेवत्तं ॥३५॥ ततो चया नरत्ते वि. तियसतल्लोवभोगभोगजया । जायंति पन्नदेहा, विसिटकलजाइसंप રૂદ્દી होति 'जणगावयणा, सुभगा पियभासिणो सुसंठाणा । रूवस्सिणो य सोमा, पमुइयपक्कीलिया निच्वं ॥३७॥ नीरोगा य असोगा, चिराऽऽउसो कित्तिकोमुइमयंका । अकिलेसाऽऽयासपयं, सुहोइया अतुलबलविरिया ॥३८॥ सव्यंगलक्खणधरा, सालंकारा सुकव्वगंथ व्य । सिरिमंता य वियड्ढा, विवेइणो सीलकलिया य ॥३९॥ भरियाऽवत्था थिमिया, दक्खा तेयस्सिणो बहुमया य । परितूलियविण्हुबंभा, बंभव्ययपालगा होति ॥४०॥ इह तुरियपावठाणग-पवित्तिविणिवित्तिदोसगुणविसए । गिरिनयरनिवासिवयंसि-दारगा होइ दिटुंतो ॥४१॥ तहाहि ___“गिरिनयरनिवासिनीदृष्टान्तः" रेवययगिरिविराइय-विसिट्ठसोरट्ठदेसतिलयम्मि । गिरिनयरे तिन्नि वयंसि-याओ इब्माण धूयाओ ॥४२॥ परिणीयाओ तत्थेव, पवरसुंदेरमणहरंगीओ । ताओ य पसूयाओ, कालेणे-केक्कगं तणयं ॥४३॥ अह अन्नया कयाई, पुरपरिसरकाणणम्मि मिलियाओ । किलंतीओ ताओ, तिन्नि वि चोरेहिं घेत्तूणं ॥४४॥ पारसकूले वेसंडगणाण, दिन्नाओ भूरिदव्येण । सिक्खवियाओ ताहिं, येसाचरियं निरऽवसेसं ॥४५॥ दूरदिसाऽऽगयउत्तम-वणिपुत्ताऽऽईण तयऽणु ठवियाओ । उवभोगत्तेण जणा, लद्धपसिद्धी य जायाओ ॥४६॥ 1. जनग्राह्यवचनाः। 164 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५८४७-५८८२ गिरिनयरनिवासिनी दृष्टान्तः - परिग्रह स्वरूपम् अह तासिं पुवसुया, तिन्नि वि तारुन्नभावमडणुपत्ता । जणणीनाएणं चिय, बटुंतउन्नोन्नपीईए ૪ળી णवरं एगो तेसिं, साययपुत्तो अणुव्ययधरो य । नियदारुवभोगी चिय, अवरे पुण मिच्छदिट्ठि ति ॥४८॥ एगम्मि य पत्थावे, विचित्तभंडं गहाय नावाहिं । दव्योवज्जणहेउं, पारसकूलम्मि ते य गया ॥४९॥ भवियव्ययावसेणं, युत्था तासिं गिहेसु येसाणं । णवरमडणुव्वयधारिणमऽवलोइय निव्यियारमणं ॥५०॥ भणियं एगाए भद्द!, कहसु कतो समागओ तं सि। किं होति तुज्झ एए, तो तेण पयंपियं भद्दे! ॥५१॥ गिरिनयराओ अम्हे, तिन्नि वि होमो परोप्परं मित्ता । अम्हं पुण जणणीओ, तिण्हं पि 'हडाओ चोरेहिं ॥५२॥ तीए पयंपियं संप-यं पि किं भद्द! तत्थ जिणदत्तो । पियमित्तो धणदत्तो य, तिन्नि वणिणो परिवसंति ॥५३॥ तेणं भणियं किं तेहिं, तुज्झ तीए पयंपियं पड़णो । ते अम्हाणं तिण्हं पि, आसि पुत्तो य एक्केको ॥५४॥ एमाऽई सव्यो वि हु, युत्तंतो साहिओ तओ तेण । भणियं जिणदत्तसुओ, अहं ति एए य इयरसुया ॥५५॥ एवं युत्ते पुत्तो ति, कंठमाडलंबिऊण सा बाढं । रोविउमाऽऽढत्ता मुक्क-कंठमियरो वि तह चेव . ॥५६॥ सुहदुक्खं खणमेतं च, पुच्छिउं सो जवेण मित्ताण । अक्कज्जकरणवारंण-बुद्धीए गओ समीवम्मि ॥५॥ | सिट्ठो एगंतम्मि, सव्यो तव्वइयरो तओ ते य । तव्येलक्याउकज ति, सोगविहुरा दढं जाया ॥५८॥ अह सव्याओ वि पभूय-दव्यदाणेण येसहत्थाओ । मोयायित्ता पलिया, ताहिं समं नियपुराऽभिमुहं । ॥५९॥ इंताणमुयहिमज्झे, तेसिं चिंता इमा समुप्पन्ना । सयणाण कयाडकज्जा, दंसिस्सामो कहं चयणं इय संखोभयसेणं, लज्जाए गया दुचे विदेसम्मि । तम्मायरो य जलहिम्मि, चेय पडिउं विवन्नाओ ॥६१॥ सो उ अणुव्वयधारी, जणणिं घेत्तुं गओ सनयरम्मि । विन्नायवइयरेणं, पसंसियो पउरलोएण ॥६२॥ इय सोऊणं सुंदर!, दरजणणं मुणियपरमतत्ताणं । चय अब्बंभ बंभं च, भयसु आराहणेक्कमणो ॥६३॥ एवं मेहुणनामग-पायट्ठाणं चउत्थमडक्वायं । पंचमपावट्ठाणं, परिग्गहमऽओ निदंसेमि ૬૪ “परिग्रह स्वरूपम्" - एसो य सयलपाय-ट्ठाणगपासायनिच्चलपइट्ठा । भूरिसिरासंपवहो, गभीरसंसारकूवस्स ॥६५॥ महुसमओ बुहनिंदिय-कुवियप्पअणप्पपल्लयुभेए । एगग्गचित्तयादीहि-याए गिम्हुम्हसंभारो ॥६६॥ पाउससमओ नाणाडइ-विमलगुणरायहंसवग्गस्स । सरयागमो य गरुयाउड-रंभमहासस्ससिद्धीए ॥६ ॥ साऽऽयत्ताऽऽणंदविसिट्ठ-सोक्नकमलिणिवणस्स हेमंतो । सिसिराऽवसरो सुविसुद्ध-धम्मतरुपतसाडस्स ॥८॥ मुच्छायल्लीए अखंड-मंडयो काणणं दुहतरुणं । संतोससरयससिणो, दादुग्गाढं विडप्पमुहं । ॥६९॥ अच्वंतमऽविस्सासस्स, भायणं मंदिरं कसायाणं । दुन्निग्गहो गहो इव, परिग्गहो कं न विनडेइ ॥७०॥ धणधन्नखेत्तवत्थूसु, रुप्पसुवन्ने चउप्पए दुपए । कुविए य करेज्ज बुहो, एतो च्चिय निच्चपरिमाणं ॥१॥ इहरा उ इमा इच्छा, दिन्नजहिच्छा अईव दुचिगिच्छा । सपरजणरुद्धदिच्छा, पूरिज्जड़ कहवि जड़ किच्छा ॥७२॥ जीयस्स जमिह तोसो, न सया न सहस्सओ न लक्खाओ । न य कोडिओ न रज्जा, न य देवत्ता न इंदत्ता॥७३॥ जओ अयराडगो यराडग-मडह पत्तवराडगो पुण वराओ । अहिलसइ रुयगं तंपि, पाविउं ईहए दम्म ॥७४॥ | पत्तो वि तं तदेगु-तराए बुड्ढीए जाय दम्मसयं । तं पत्तो य सहस्सं, सहस्सव कंखए लक्खं ॥७५॥ लक्खयई पुण कोडिं, कोडियई पुण समीहए रज्जं । रज्जवई चक्कितं, चक्की पुण महइ देवत्तं' ॥६॥ तं पि कहंपि हु पत्तो, पायो ईहइ पुरंदरत्तं पि । तम्मि वि पत्ते इच्छा, दीहट्टा बट्टए चेव ॥७७॥ उयरि पवित्थरइ दढं, अणुक्कम मल्लगस्स घडणव्य । इच्छा जस्स स सुगई, अवहत्थिय पत्थइ कुगई ॥८॥ बहसो वि मिज्जमाणो, न आढओ कहवि मुडओ होड़ । इय जो धणलवभागी, सो किं कोडीसरो होइ ॥७९॥ जं पुव्यकम्मनिम्मिय-मजतओ लभइ तत्तियं चेव । दोणघणे वि य बुट्टे, चिट्ठइ न जलं गिरिसिरम्मि ॥८०॥ जो किर जहन्नपुन्नो, समऽहियमीहइ धणं धणियचेट्ठो । गयणंडगणं गहेडं, सो नियहत्थेण पत्थेइ ॥१॥ जड़ लब्भइ निमग्गेहिं, भूयले एत्थ पत्थियपयत्थो । रज्जाऽऽई ता न दुही, दीसेज्ज कयावि कोवि कहिं ॥८२॥ 1. हृताः । 2. दीर्घत्वात् । 165 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५८८३-५६१६ लोहनन्दजिनदासदृष्टान्तः - क्रोधस्वरूपम् मणिकणगरयणपुन्नं, लोयं पि हु पाउणेज्ज जड़ कह वि । तह वि य अछिन्नवंछो, ही! अकयत्थो च्विय यराओ॥८३॥ पुन्नेहिं सुन्नो वि हु, अत्थे जो विमूढऽप्पा । एमेव सो विणस्सइ, असमत्तमणोरहो चेय ૮૪ની न सक्कणिज्जो जहेत्थ कोत्थलओ। डय अत्थेण न सक्को, कहिं पि अप्पा वि परेउं ॥८५॥ इच्छायोच्छेयकए, संतोसो चेव ता वरं विहिओ । संतोसिणो हि सोक्खं, दुक्खमसंतोसिणो धणियं ॥८६॥ |पंचमपावट्ठाणग-पसतविणियत्तयाण दोसगुणा । जह लोहनंदजिणदास-सावगाणं तहा गेया तहाहि ____“ लोहनन्दजिनदासदृष्टांतः” पाडलिपुत्ते नगरे, बहुसमरविढतविजयजसपसरो । आसि जयसेणनामो, नरनाहो भूरिगुणकलिओ ૮૮ | तत्थ य पुरम्मि अथरिय-कुबेरधणवित्थरा परिवसंति । नंदपमोक्खा वणिणो, जिणदासाऽऽई सुसड्ढा य ॥८९॥ अह एगम्मि अवसरे, समुद्ददत्ताऽभिहाणवणिएण । चिरकालियं सरोवर-माऽऽरद्धं खाणिउं एक्कं ॥९०॥ तत्थ खणिज्जंतम्मि, उड्डेहिं पुव्यपुरिसपक्खित्ता । लद्धा सुवन्नकुसया, चिरकालियकिट्टचयमलिणा ॥९१॥ तो लोहमय ति वियाणिऊण, वणियाण तेहिं उवणीया । जिणदासेणं गहिया य, दोन्नि नाऊण लोहमया ॥१२॥ अह तेण नियंतेणं, सम्म नाउं सुवन्नमइय ति । परिमाणाऽइक्कमभया, दिना तित्थयरभवणम्मि ॥१३॥ अवरे पुणो न गहिया, नवरं नंदेण जाणमाणेण । आढता ते घेत्तुं, समहियअत्थव्वएणाऽवि . ॥१४॥ उड्डा य इमं भणिया, लोहकुसे मा पस्स देज्जाह । अहमिच्छियं दलिस्सामि, तुम्ह तेहिं च पडिवण्णं ॥१५॥ अवरम्मि दिणे मित्तेण, सो बला भोयणडट्ठया नीओ । तेण य पुत्तो भणिओ, जह तह गिण्हेज्जसु कुस ति ॥१६॥ पडिसुयमिमं सुएणं, भोत्तुं मित्तग्गिहे गओ ताहे । अच्वंतवाउलमणो, भोत्तुं च 'गिहंमुहो चलिओ ॥१७॥ अमुणियपरमत्थेण प, समाहियमोल्ल ति नो कुसा गहिया । तेण सुएणं उड्डा य, जायकोवा परत्थ गया ॥९८॥ जत्तो तत्तो य खिवंतयाण, अह कहयि यवगए किट्टे । एगस्स उ कुसयस्सा, पयर्ड चामीयरं जायं ॥१९॥ रायपुरिसेहिं ततो, उड्डा गहिउं समष्णिया रन्नो । पुट्ठा य कत्थ अन्ने, विक्कीया कहह कुसग ति। तेहिं कहियं नराहिय!, दिन्ना जिणदाससेट्ठिणो दोन्नि । अवसेसे नीसेसा, उवणीया नंदयणियस्स ॥१॥ एवं भणिए रन्ना, वाहरिउं पुच्छिओ हु जिणदासो । सिट्ठो य तेण सव्यो, जहट्ठिओ नियगयुत्तंतो ताहे रन्ना सम्माणिऊण, सो पेसिओ नियगिहम्मि । नंदो य नियगहढें, समागओ पुच्छए पुत्तं ॥३॥ किं रे! कुसया गहिया, न व ति तेणं पयंपियं ताय! । बहुमुल्ल ति न गहिया, तो ताडिंतो उरं नंदो ॥४॥ हा! हा! मुट्ठो ति पयंपिरो य, जंघाउ भंजड़ कुसेण । एयाणमेस दोसो, जेण गओ हं परगिहे ति ॥५॥ तो यज्झो आणतो, सो रन्ना अवहडं च सव्वस्सं । एमाऽऽई बहु दोसा, इच्छाविणियित्तिरहियाणं ॥६॥ इय खमग! मणागं पि हु, परिग्गहे मा मणो धरिज्जासि । खणदिट्ठनट्ठरुये, का पंछा तत्थ धीराण ॥७॥ एवं परिग्गहविसयं, पंचमग पायठाणगं युत्तं । कोवसरूवाऽऽयेयण-परमेत्तो भन्नइ छटुं ટા "क्रोधस्वरूपम्" - कोहो विगंधिदव्यु-भयो व्य कोहो न कस्स उव्येयं । उवजणयइ एत्तो च्चिय, चत्तो दूरेण विबुहेहिं ॥९॥ किञ्चगुरुकोयजलणजाला-कलावसविसेसकवलियविवेगो । न वियाणइ अप्पाणं, परं च परमत्थओ पुरिसो ॥१०॥ उप्पज्जमाणओ च्विय, कोहो पुरिसं डहेइ ता पढमं । जत्थुप्पण्णो तं चेय, इंधणं धूमकेउव्य ॥११॥ नियकत्तारं कोवो, डहइ अवस्सं परे अणेगंतो । नियपयडहणे सिहिणो वि, अहय नियमो न अन्नत्थ ॥१२॥ सो किं व कुणउ अन्नरस, पेसिओ खीणसत्तिसंजोगो । जो निययमाऽऽसयं नि-दहेइ कोयो महापायो ॥१३॥ जस्स किर कोवकलिणा, कलुसीकयमाणसस्स जंति दिणा । इह परलोगे वि नरस्स, तस्स कह सोक्खसंपत्ती॥१४॥ अवयारी किर वेरी वि, होइ एक्कम्मि चेय जम्मम्मि । कोहो पुण होइ दढं, दोसु वि जम्मेसु अवयारी ॥१५॥ |ज कज्जमुवसमपरा, साहइ न हु तं क्या वि कोवपरो । जं कज्जकरणदक्खा, बुद्धी कुद्धस्स सा कतो ॥१६॥ अन्नं च1. गिहंमुहो = गृहोन्मुखः = गृहसंगुखः । 166 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५६१७-५६५२ प्रसन्नचन्द्रदृष्टान्तः - मानस्वरूपम् ॥१७॥ mn ॥१९॥ कोहो उब्येवणओ, पियबंधुविणासओ महापायो । कोहो संताययरो, सोग्गइपहबंधणी कोहो बुहयणसहस्सपरिनिंदियस्स, पयईए पावसीलस्स । कोहस्स न जंति वसं, विवेइणो तेण कड़या वि कोहाउ हणड़ पाणे, कोहाओ भासइ मुसायायं । कोहा अदत्तगहणं, कोहाओ बंभययभंगो कोहाउ महाऽऽरंभो, परिग्गहो वि हु पयट्टए कोहा । किं बहुणा सव्वाणि वि, पावट्ठाणाणि कोहाओ ॥२०॥ ता तिक्खखंतिखग्गेण, खंडिउं दक्खयाए निरवेक्खो । कोहमहापडिमल्लं, पडिवज्जसु पसमजयलच्छिं कोहो दुक्खणिमित्तं तप्पसमो पुण सुहेक्कहेउ ति । उभए वि हु अप्पवसे, तप्पसमो च्चिय वरं जुत्तो ॥२२॥ कोहो मणसा वि कओ, नरगाय भवे सिवाय तदुवसमो । उभयत्थ वि रायरिसी, पसन्नचंदो इहं नायं ॥२३॥ तहाहि“प्रसन्नचन्द्रदृष्टान्तः” ॥२१॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३२॥ | उग्गविसविसहराऽऽउल - घरं व पोयणपुराऽहिवो रज्जं । मोतुं वीरजिणंडते, पसन्नचंदो विणिक्खंतो विहरंतो जयगुरुणा, समं च रायग्गिहम्मि संपत्तो । ओलंबियभुयपरिहो, उस्सग्गेण य ठिओ सम्मं | जिणवंदणऽट्ठपट्ठिय-सेणियनिव अग्गसेन्नगामीहिं । दिट्ठो दुम्मुहसुमुहाङ - भिहाणपुरिसेहिं दोहिं तओ सुमुहेण जंपियं जयइ, एसो सहलं च जीवियमिमस्स । जो रज्जं तह वज्जिय, पव्वज्जं इय पवन्नोति ॥२७॥ तो दुम्मुहेण भणियं, भद्द ! अलं संकहाए एयस्स । जो असमत्थं पुत्तं, रज्जे ठविडं सयं कीबो पासंडं पडिवन्नो, वेरिभया एवमेत्थ संवसइ । रज्जं सुओ पया वि य, तह पीडिज्जंति सत्तूहिं एवं सोच्या तक्खण- विस्सुमरियधम्मझाणपडिबंधो । साहू पसन्नचंदो, कुवियो चिंतेउमाऽऽदत्तो को मइ जीवंतम्मि वि, मज्झ सुयं रज्जमऽवि य विद्दवइ । मन्ने सीमालमही-वईण दुव्विलसियं एयं ॥३१॥ ता ते विद्धंसित्ता, करेमि सुत्थं ति पुव्वनाएण । उस्सग्गठियो वि रणेण, तेहिं सद्धिं समाऽऽवडिओ धम्मज्झाणठियं पिव, अह तं दद्रूण सेणिओ राया । अहह ! महप्पा कह वट्टइ त्ति, विम्हयरसाऽऽउलिओ ॥३३॥ भत्तिभरमुव्यहन्तो, सव्वाऽऽयरविहियतप्पयपणामो । चिंतइ एरिससुहझाण-संगओ जड़ जियं चयइ ॥३४॥ एसो महाऽणुभावो, उप्पज्जड़ ता कहिं ति जिणनाहं । पुच्छिस्सं ति विभाविय, जयगुरुपासं समल्लीणो ॥३५॥ पुट्ठो य जएक्कपहू, पसन्नचंदो तहाविहे भावे । वट्टंतो मरिऊणं, उप्पज्जइ कत्थ मे कहसु | भणियं पहुणा सत्तम - नरए उप्पज्जड़ त्ति तो राया । नूणं मए न सम्मं, सुयं ति चिंताऽऽउरो जाओ ॥३७॥ एत्थंतरम्मि मणसा, जुज्झतेणं पसन्नचंदेणं । निट्ठियपहरणनिवहेण, सीसताणेण वि रिउस्स घायं काउमणेणं, सीसे हत्थो निवेसिओ सहसा । लुंचियचिहुरचयम्मि य, तम्मि छिक्कम्मि उवउत्तो समणो हं ति विसायं, कुणमाणो किं पि तं सुहं झाणं । पडिवन्नो स महप्पा, जेण लहुं केवली जाओ ॥४०॥ केवलिमहिमा य कया, संनिहियसुरेहिं दुंदुही पहया । पुठ्ठे च सेणिएणं, किं तूररवो इमो भययं ! भणियं जएक्कपहुणा, केवलिमहिमं पसन्नचंदस्स । देवा कुणंति एए, विम्हइओ सेणिओ ताहे पुव्वाऽवरवयणाणं, विरोहमुब्भाविऊण पुच्छेड़ । को नाह! इहं हेऊ, कहियं च जहट्ठियं पहुणा इय मुणिय खवग! तं कोह - विगमसंपत्तपसमरससिद्धी । सुपसन्नमाणसो तं विसुद्धमाऽऽराहणं लहसु छट्ठ पावट्ठाणं, परुवियं कोहनामधेयमिमं । माणाऽभिहाणमेत्तो य, सत्तमं किंपि जंपेमि ॥३६॥ ॥३८॥ ॥३९॥ ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ ॥ ४४ ॥ ॥४५॥ "मानस्वरूपम् " ॥४६॥ ॥४७॥ ॥४८॥ माणो संतावयरो, माणो पंथो अणत्थसत्थाण । माणो परिभवमूलं, पियबंधुविणासगो माणो माणमहागहगहिओ, जसं च कितिं च अत्तणो हणइ । थद्धत्तणदोसाओ, जायइ अवहीरणाठाणं लहुयत्तणस्स मूलं, सोग्गड़पहनासणो कुगड़मग्गो । सीलसिलोच्चयवज्जं, एसो माणो महापावो माणेण थद्धकाओ, अयाणमाणो हियाऽहियं अत्थं । अहमऽवि किमेत्थ कस्स वि, हीणो किं वा वि गुणवियलो ॥४९॥ इय कलुसबुद्धिवसगो, संजममूलं न कुव्यए विणयं । विणयरहिए ण नाणं, नाणाऽभावे य नो चरणं ॥५०॥ चरणगुणविप्पहीणो, पावेइ न निज्जरं जए विउलं । तयऽभावाउ न मोक्खो, मोक्खाऽभावे य किं सोक्खं ॥ ५१ ॥ किंच माणतमभरऽक्कतो, कज्जाऽकज्जेसु मुज्झिउं मूढो । बहुमन्निउं अगुणिणो, गुणिणो अवमन्निरं बहुसो ॥५२॥ 167 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५६५३-५६८६ मानस्वरूपम् - बाहुबलीदृष्टान्तः गयबुद्धी गोट्ठामा-हिलो व्य पायो असेससहमलं । सम्मत्तकप्पतरुमऽवि, उम्मूलइ मूलओ चेय ॥५३॥ एवं नीयागोयं, माणंडधो कम्ममऽसुहमुवचिणिउं । नीएसु वि नीयतमो, परियडइ अणंतसंसारं ॥५४॥ तहाचइऊण वि किर संगं, संपावित्ता वि चरणकरणगुणे । चरिऊणं पि तवाऽऽई, कट्ठाऽणुट्ठाणमडच्चुग्गं ॥५५॥ वयमेव चत्तसंगा, ययमेव बहुस्सुया वयं गुणिणो । ययमेव उग्गकिरिया, लिंगुवजीवी किमडन्ने उ ॥५६॥ इय विलसमाणमाणा-णलेण हद्धी! दहति संतं पि । पुव्वपवन्नियनियगुण-वणसंडं अहह! कट्ठमऽहो! ॥५७॥ अन्नं चविवरीयवित्तिधम्मा, आरंभपरिग्गहाउ अनियता । पावा सयं विमूढा, सेसं पि जणं विमोहिता ॥५८॥ हिंसंति जीवनिवहं, करेंति कम्म सयाउगमविरुद्धं । तहवि य वहति गव्वं, धम्मनिमित्तं इहं अम्हे ॥५९॥ सायरसरिद्धिगरुया, दव्वक्वेत्ताऽऽइक्यममत्ता य । निययकिरियाऽणुरुवं, परुवयंता जिणमयं पि ॥६०॥ दव्वक्वेत्ताऽऽईण अणु-रूवम्मि बलवीरियपमुहे । संते वि जहासतिं, अजयंता चरणकरणेसु ॥६१॥ अववायपयपसत्ता, पूइज्जता तहाविहजणेणं । अम्हे चेव इह ति, अतुक्करिसाऽभिमाणाओ ॥६२॥ कालाडणुरूवकिरिया-रए य संविग्गगीयवरमणिणो । माइट्ठाणाऽऽइपरा-यण ति खिसंति जणपुरओ ॥६३॥ निययकिरियाऽणुरुवेणं, वट्टमाणं ममत्तपडिबद्धं । निक्कुडिलं ति वयंता, पासत्थजणं च सलहंति ॥६४॥ एवं च असुहचेट्ठा, कम्मं बंधंति किंपि तं बहुसो । जेण बहुतिक्खदुख्ने, भमंति संसारकंतारे ॥६५॥ जह जह करेइ माणं, पुरिसो तह तह गुणा परिगलंति । गुणपरिगलणेण पुणो, कमेण गुणविरहियत्तं से ॥६६॥ गुणसंजोगेण विवज्जिओ य, पुरिसो जयम्मि धणुहं व । साहड़ न इच्छियऽत्थ उत्तमवंसुब्भवत्ते वि ॥६॥ सपरोभयकज्जहरो, इह परलोए य तिक्खदुक्खकरो । जत्तेण परिच्चत्तो, माणो दूरं विवेईहिं ॥८॥ ता सुंदर! चयसु तुमं पि, माणमडणवज्जयं गवेसेंतो । खविए पडिवक्खम्मि, सपक्खसिद्धी जओ भणिया ॥६९॥ एयम्मि अवगयम्मि, जरे व्यं परमं सरीरसुत्थत्तं । जायइ तह एवं चिय, गुणकरमाऽऽराहणापत्थं ॥७०॥ सत्तमपावट्ठाणग-दोसेण किलेसिओ हु बाहुबली । सो च्विय तओ नियत्तो, सहस च्चिय केवली जाओ ॥१॥ तहाहि "बाहुबलीदृष्टान्तः" तक्खसिलानयरीए, इक्खागकुलुब्भयो जयखातो । बाहुबलि त्ति जहऽत्थो, उसभसुओ पत्थियो आसि ॥७२॥ भरहेण चक्कवड़णा, अट्ठाणवइणिट्ठभाऊसुं । पव्वइएसुं सेवं, अपडिच्छंतो स इय भणिओ ॥७३॥ परिचयसु लहुं रज्जं, अहवा आणापरायणो होसु । अज्जेव समरसज्जो, वट्टसु सवडम्मुहो अहवा ॥७४॥ एवं सोच्चा निप्पडिम-भुयबलोहामियऽन्नसुहडेणं । संगामो पारद्धो, तेणं चक्काऽहियेण समं ॥७५॥ अवि यपडंतमत्तकुंजरं, हम्मन्तजोहनिभरं । पलायमाणकायरं, निभिन्नसंदणुक्र ॥७६॥ मिलंतजोगिणीकुलं, वहंतलोहियाऽऽकुलं । कयंतगेहदारुणं, महाभएक्ककारणं ॥७७॥ सराऽवरुद्धभूयलं, गइंददाणवद्दलं । पयट्टसूरमग्गणं, भमंततुट्ठमग्गणं ૭૮ | पलोइउं रणंडगणं, अणेगलोगमारणं । दयारसेक्कमाणसो, भणे सो महायसो ॥७९॥ हे भरह! किं जणेणं, निरवराहेण मारिएणिमिणा । जुज्झामो तुममडहयं च, जेसिमडवरोप्परं वेरं ॥८ ॥ पडिवन्नमिमं भरहेण, जुज्झिउं ते तओ समाढता । ता जाय बाहुबलिणा, सव्वत्थ विणिज्जिओ भरहो ॥८१॥ तो सो चिंतइ चक्की, किमऽहं न भवामि एस चक्कहरो । जं भुयबलेण सव्वत्थ, पेण जिप्पामि इयरो व्य ॥८२॥ इय चिंतिरस्स भरहस्स, दंडरयणं फुरंततडितरलं । करकमलम्मि निलीणं', पयंडजमदंडदुप्पेच्छं ॥३॥ अह बाहुबली तं तह, पलोइउं विलसमाणकोहडग्गी । दंडेण समं पि इमं, किं चूरेमि ति चिंतंतो ॥४॥ खणमेगं अच्छित्ता, मणागमुवलद्धसुद्धबुद्धीए । परिभाविउं पयत्तो, घिद्धी! विसयाउणुसंगस्स ॥५॥ जेणऽभिभूया सत्ता, मित्तं सयणं पि बंधवजणं पि । न गणंति तिणसमं पि हु, काउमऽकिच्चं पि ववसंति ॥८६॥ 1. अन्य कथाओं में देवेन्द्र द्वारा दोनों भाईयों के युद्ध की बात और बाद में चक्ररत्न को फेंकने की बात आती है। 168 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५६८७-६०२२ मायास्वरूपम् - वणिक्पुत्रदृष्टान्तः ता विसयवासणाए, निवडउ बज्जाउसणि ति चिंतंतो । सयमेव विहियलोओ, निस्संगो सो महासत्तो ॥८७॥ पव्यज्जं घेत्तूणं, कह लहुभाऊण वंदणं काहं । सामिसमीवम्मि गओ ति, माणदोसेण तत्थेव ॥८॥ काउस्सग्गेण ठिओ, उप्पन्ने केवलम्मि यच्चिस्सं । एतो ति क्यपइन्नो, आयरिसं निरऽसणो किसिओ ॥९॥ वरिसंडते जिणपेसिय-बंभीसुंदरीतवस्सिणीहिं च । भणिओ भाउग! ताओ, आणवइ न हत्थिचडियाण ॥१०॥ उप्पज्जइ किर नाणं ति, तयणु सो जा विभावए सम्म । ता माणमेव हत्थिं, मुणिऊणं जायसुहभावो ॥१॥ उज्झियमाणो जिणपाय-मूलगमणाय उक्विवियचलणो । तिन्नपइन्नो जाओ, वरकेवलनाणलाभेणं ॥९॥ इय माणपवित्तिनियित्तिभाव-संपज्जमाणदोसगुणे । खमग! महासत्त! विहा-विऊण सुद्धाए बुद्धीए ॥९३॥ तुममाऽऽराहणमेयं, आराहिय चरणवरगुणोवेयं । दंसणनाणसमेयं, पावसु सिवसोक्खमऽपमेयं ॥९४॥ सत्तमयपावठाणं, उवइ माणगोयरं एयं । एतो मायाविसयं, अट्ठमयं किंपि साहेमि ॥९५॥ "मायास्वरूपम्" - माया उव्येयकरी, धम्मियसत्थेसु निंदिया माया । माया पावुप्पत्ती, धम्मक्खयकारिणी माया ॥९६॥ माया गुणहाणिकरी, दोसाण विवड्ढणी फुडं माया । माया विवेयहरिणंडक-बिंबगसणेकराहुगहो पढियं नाणं चरियं च, दंसणं पावियं च चारित्तं । तवियं सुचिरं पि तवं, जड़ माया ता हयं सव्यं ॥९८॥ अच्छउ ता परलोए, इहलोए च्चिय नरो उ माइल्लो । जइ वि अकयाऽवराहो, तहा वि सप्पो व्य भयहेऊ ॥९९॥ जह जह करेइ मायं, तह तह 'अप्पच्वयं जणे जणइ । अप्पच्चयाओ पुरिसो, अक्क्यतूला लहू होइ ॥६०००॥ ता भाविऊण एयं, सुंदर! परिहरसु सव्यहा मायं । तव्वज्जणेण अणवज्जं, अज्जवं जायए जेण ॥१॥ अज्जवगुणेण पुरिसो, संचरई जत्थ जत्थ तत्थ तहिं । सुयणो सरलसहायो, इमो ति सलहिज्जड़ जणेणं ॥२॥ आरूढजणपसंसस्स, पुण्णगुणा संकमंति सयराहं । गुणगणगवेसिणो ता, जुतो जत्तो तहिं काउं महुरतं दंसित्ता, माई पच्छा वि दरिसिगवियारो । तक्कं व जयम्मि नरो, न रोयए वत्तमहुरत्तो अट्ठमयपावठाणग-दोसे नायमिह पंडरज्जाए । अहवा दोसगुणेसु वि, अहक्कम दो वणियपुत्ता ॥५॥ तथाहि-- __ "देवणिकपुत्रस्यदृष्टान्तः” | एगम्मि पुरे धणवंत-गरुयकलसंभया भवचिग्गा । पव्यजं पडियन्ना, एगा सुस्सावगाण सया ોદી सुस्समणीणं मझे, यसमाणी सा य गिम्हसमयम्मि । अच्वंतमलपरीसह-पराजिया देहसक्कारं अंसुयसक्कारं पि हु, कुणमाणी चोयणं च समणीहिं । दिजंतिं असहंती, भिन्नम्मि पडिस्सयम्मि ठिया ॥८॥ पंडरपडदेहत्तेण, सा पसिद्धा य पंडरग्ज त्ति । कुणइ य पूयाहेडं, विज्जाए नयरजणखोभं ॥९॥ अह पच्छिमम्मि काले, कहं पि संजायपरमयेरग्गा । सुगुरुसमीचे पडियन्न-पुव्वदुच्चरियपच्छित्ता ॥१०॥ संघसमक्खं घेत्तूण-मडणसणं सा ठिया सुहज्झाणे । णवरं पूयाहेडं, मंतेणाऽऽयड्ढइ लोयं ॥११॥ तीए समीचे पुरलोय-मितमणिसं पलोइउं गुरुणा । भणिया महाउणुभावे!, मंतऽभिओगो न ते जुत्तो ॥१२॥ | "मिच्छा भि दुक्कडं" "नो, पुणो वि काहामि चोइया सुटु' । पडिभणियमिणं तीए, नवरं अवरम्मि पुण दियहे॥१३॥ विजणे ठाउं अतरंतियाए, आयड्ढिओ पुणो लोगो । पडिसिद्धा य गुरूहिं, ता जाय चउत्थवेलाए ॥१४॥ मायासीलतेणं, तीए भणियं न किंषि भंते! हं । विज्जाबलं पजुंजेमि, किंतु सयमेइ एस जणो ॥१५॥ एवं सा मायावस-विहुणियआराहणाफला मरिउं । सोहम्मे एरावण-सुररमणीभावमऽणुपत्ता ॥१६॥ इय दोसे दिटुंतो, निद्दिट्ठो ताव पंडरज्जाए । दोसगुणेसु य पुयो-वट्ठवणिए निदंसेमि . ॥१७॥ अवरविदेहे दो वणि-यवयंसा माइउज्जुगत्तेण । ववहरिउं चिरकालं, दो वि मया भरहवासम्मि ॥१८॥ उज्जुगभावो मिहुणतणेण, अवरो य हत्थिभावेण । उप्पन्ना कालेणं, परोप्परं दंसणं जायं ॥१९॥ मायावसविढवियआभि-योगकम्मोदएण अह करिणा । खंधम्मि विलइयं तं, मिहुणगमडव्वत्तपीईए ॥२०॥ इय माइणो अणत्थं, तविवरीयस्स पेच्छिउं च गुणं । खमग! तुमं निम्माओ, सम्म आराहणं लहसु पावट्ठाणगमट्ठम-मेयं लेसेण संसियं एत्तो । लोभसरुवाऽऽयेयण-परमं नवमं पि कित्तेमि ॥२२॥ 1. अप्रत्ययम् = अविश्चासम् । 2. अर्कतूलात् । ५ 169 ॥७॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६०२३-६०५७ लोभस्वरूपम् - कपिलदृष्टान्तः "लोभस्वरूपम्" - जायइ जाओ वड्ढइ, जह पाउसजलहरो अहंतो वि । तह पुरिसस्स वि लोभो, जायइ पसरड़ य पइसमयं ॥२३॥ लोभे य पसरमाणे, कज्जाऽकज्जं अचिन्तयन्तो य । मरणं पि हु अगणेतो, कुणइ महासाहसं पुरिसो ॥२४॥ अडइ गिरिदरिसमुद्दे, पविसइ दारुणरणंडगणम्मि तहा । पियबंधये नियं जी-वियं पि लोभा परिच्चयइ ॥२५॥ किंचअच्वंतमुत्तरोत्तर-समीहियऽत्थाऽऽगमे वि लोभवओ । तण्ह च्चिय परिवड्ढइ, सुमिणे वि न जायए तित्ती ॥२६॥ लोभो अक्खयवाही, सयंभुरमणोदहि व्य दुप्पूरो । लाभिंधणेण जलणो ब्य, बुढिमडच्वंतमऽणुसरइ ॥२७॥ लोभो सबविणासी, लोभो परिवारचित्तभेयकरो । सव्वाऽऽयइकुगईणं, लोभो संचाररायपहो ૨૮ एयदारेण नरो, घोरं पावं पवंचिउं सुचिरं । अविहियतप्पडियारो, परियडइ भवकडिल्लम्मि ॥२९॥ जो पुण लोभवियागं, नाऊण विवेगओ महासत्तो । तच्चिवरीयं चिट्ठइ, उभयभवसुहाऽऽयहो स भवे ॥३०॥ एत्थ य पावट्ठाणे, दिटुंतो होइ माहणो कविलो । जो चडियो कोडीए, कणगस्स दुमासगउत्थी वि ॥३१॥ तप्पडिववे वि हु खविय-सयलपरिथूलसुहुमलोभंडसो । सो च्चिय दिटुंतपयं, संपावियकेवलाऽऽलोगो ॥३२॥ तहाहि- . ___ “कपिलदृष्टान्तः" कोसंबीनयरीए, जसोयनामाए माहणीए सुओ । कविलो नामेणाऽऽसी, लहुयस्स वि तस्स किर जणगो ॥३३॥ पंचत्तं संपत्तो, पियसमवयसं विभूतिसंपन्नं । माहणमडवरं दटुं, से जणणी संभरियनाहा ॥३४॥ रोविउमाऽऽढता पु-च्छिया य कविलेण रुयसि किं अम्मो! । तीए पयंपियं पुत्त!, पउरमिह रोवियव्यं मे ॥३५॥ तेण भणियं किमत्थं?, तीए वुत्तं तुमम्मि जायम्मि । यच्छ! विभूई निहणं, गया तहा जह य एस दिओ ॥३६॥ तह तुज्झ पिया वि पुरा, विभूइमं आसि तेण वज्जरियं । केण गुणेणं तीए, पयंपियं वेयकुसलता ॥३॥ सामरिसेणं कविलेण, भासियं तं अहं पि सिक्खामि । तीए भणियं एवं, करेसु गंतुण सावत्थिं ॥३८॥ पिइमित्तइंददत्ता-भिहाणअज्झावगरस्स पासम्मि । इह अत्थि यच्छ! सम्म, न तुज्झ सिक्खायगो को वि ॥३९॥ एवं ति सो पवज्जिय, सावत्थिपुरीए इंददत्तस्स । पासम्मि गओ पुट्ठो य, तेण कहिए य युत्तंते ॥४०॥ पियमित्तसुओ ति वियाणिऊण, अज्झायगेण अवगूढो । भणिओ य यच्छ! गिण्हसु, संडगोवंगं पि चउवेयं ॥४१॥ किंतु समिद्धं धणसेट्ठि-मेत्थ भोयणकएण पत्थेसु । अब्भत्थिओ य कविलेण, साऽऽयरं तेण वि य भणिया॥४२॥ |एगा नियगा चेडी, भुंजावेज्जासि पाढगमिमं ति । एवं भोयणसुत्थो, वेए सो पढिउमाऽऽढत्तो ॥४३॥ | नवरं साऽऽयरपइदिण-भोयणदाणेण संथवेणं च । चेडीए उपरि जाओ, अच्वंतं तस्स पडिबंधो ॥४४॥ अह तीए सो भणिओ, छणो ति कयविविहचारुसिंगारा । नियनियकामुयवियरिय-विसिट्ठयत्थाऽऽइरमणिज्जा॥४५॥ पुरवेसाओ नीहिंति, कल्लदियहम्मि अच्चित्रं मयणं । तासिं च अहं मझे, जंती बीभच्छनेवत्था ॥४६॥ सहियाहिं हसिज्जिस्सं, ता पिययम! तं सि पत्थणिज्जो मे । तह कुणसु कह वि जह नो-वहासपयविं पवज्जामि॥४७॥ एवं सोउं कविलो, कयत्थिओ अद्धिईए पारद्धो । नट्ठा निसिम्मि निदा, पुणो वि चेडीए सो भणिओ ॥४८॥ पिय! परिहर संतावं, वच्चसु तं राइणो समीवम्मि । सो किर पइदियहं चिय, पढमपबुद्धो पढमदिढें ॥४९॥ विप्पं सुवन्नमासग-दुगदाणेणाऽभिनंदइ इमं च । आयन्निऊण कविलो, अवियाणियरयणिपरिमाणो ॥५०॥ नीहरिओ गेहाओ बच्वंतो दंडवासिएहिं तओ । चोरो ति गहिय बद्धो, पच्चूसे दंसिओ रण्णो ॥५१॥ आगारिंगियकुसलतणेण, साहु ति जाणिउं रन्ना । आपुच्छिओ तगो भद्द!, को तुमं? तेण वि य सव्यो ॥५२॥ मूलाओ च्चिय सिट्ठो, नियवुत्तंतो तओ सकरुणेण । रन्ना भणियं भद्दय! जं मग्गसि तं पयच्छामि ॥५३॥ कविलेण जंपियं देव!, रहसि आलोचिऊण मग्गामि । पडिवन्नमिमं रन्ना, एगते सो तओ ठाउं ॥५४॥ आलोचिउं पयत्तो न किंपि कणगस्स मासगदुगेण । पत्थेमि दम्मदसगं, तेण वि वत्थं भवे एक्कं ॥५५॥ ता पत्थिज्जड वीसा. अहवा तीए वि हवड नाऽभरणं । ता जाएमि सयमऽहं, तेण वि किं तीए किं मज्झ॥५६॥ मग्गेमि सहसमेक्कं, नवरं तेणावि थोवनिव्याहो । एवं दससाहस्सिं, चडिओ ता जाव कोडिं पि ॥५७॥ 1. नीहिंति = गमिष्यन्ति । 170 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६०५८-६०६२ प्रेम(राग)स्वरूपम् एवं च उत्तरोत्तर-वड्ढ्तुद्दामदव्यवंछेण । मूलाऽभिलासमऽणुसरिय, तेण संचिंतियं एवं ॥५८॥ “जहा लाभो तहा लोभो, लाभा लोभो पवड्ढइ । दोमासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं" ॥९॥ "हा दुटु दुटु लोभस्स, चेट्ठियं" इइ विचिंतयंतो सो । सरिऊण पुव्यभवक्य-पव्वज्जं जायसंवेगो ॥६०॥ |संबुद्धो पव्वइओ, गओ य भूमीवइस्स पासम्मि । तेणाऽऽवि पुच्छिओ भद्द!, किमिह आलोचियं तुमए ॥६१॥ कोडीपज्जवसाणो, सिट्ठो नियवइयरो य कविलेण । रन्ना भणियं कोडिं पि, देमि मा कुणसु संदेहं ॥२॥ अलमत्तो मज्झ परिग्गहेण, इइ संसिउं च निक्खंतो । कविलो रायगिहाओ, संपत्तो केवलाऽऽलोयं ॥३॥ | इय एयं लोभरिलं, सुंदर! संतोसतिक्खनग्गेणं । जिणिऊण दुज्जयं पि हु, तमऽप्पणो नेव्वुई कुणसु ॥४॥ नवमं पावट्ठाणग-मेवं लोभाऽभिहाणमुवइटें । पेज्जाऽहिहाणमेतो, दसमं पि हु संपवक्वामि ॥६५॥ “प्रेम(राग)स्वरूपम्" - अच्चन्तलोभमाया-रुवमऽभिस्संगमेतमिह पेज्जं । आयप्परिणाम चिय, तिलोयपुज्जा परुवंति ॥६६॥ |पेज्जं हि नाम पुरिसस्स, देहे दाहो निरऽग्गिओ घोरो । अविसुब्भया य मुच्छा, अमंततंतो गहाऽऽयेसो॥६॥ अणुवहयमच्छिसवणा-णमडबलतं तहेव बहिरतं । परवसगतं च अणप्प-विक्कयं अहह धी! पेज्जं ॥८॥ अवि य|अंगुव्वत्त-किसत्तण-परितायुक्कंपियाणि अवणिहो । असई वियंभियाओ. दिट्ठीए अप्पसन्नतं ॥९॥ मुच्छापलावकरतउ-व्वेवुण्हण्हदीहनीससणं । इय पेज्जस्स जरस्स व, मणयं पि न लिंगभेओ त्थि ॥७ ॥ चिंतइ अचिंतणीयं पि, तह य निच्वं असच्चमावि वयइ । पेच्छइ अपेच्छणीयं पि, फुसइ अफरिसणिज्जं पि॥७१॥ भक्खड़ अभक्खणीयं पि, पिबड़ अपेयं अगम्ममऽवि जाइ । कुणइ अकज्ज पि नरो, पेज्जपसंगा कुलीणो वि॥७२॥ अन्नं चजइ पेज्जं चिय न भये, जीवाण विडंबणाकरं इह ता । असुइकलमलभरिए, रमेज्ज को माणुसीदेहे ॥३॥ जं असुई दुग्गंधं, बीभच्छ बुहजणेण परिहरियं । जो रमइ तेण मूढो, अव्यो! विरमेज्ज सो केण ॥४॥ लज्जाकरं ति जं किर, मंगुलरूवं ठइज्जए लोए । तं चेव जस्स रम्म, अहो! विसं महुरयं तस्स ॥५॥ 1. मउलइ नयणाडं नीसहा होड । तं चिय कणड मरंती. रागिस्स तहा वि रमणिज्जा ॥६॥ असुइ अदंसणिज्ज, मलाऽऽविलं पूइगंधि दुप्पेच्छं । अच्वंतलज्जणिज्ज, सुगोवणिज्ज अओ चेव . तह असुइपयहमऽणिसं, बुहनिंदियमंडगदेसमित्थीणं । जं सोंडीरा वि नरा, रमंति ही! रागचरियं तं ॥८॥ एवं सरीररागा, अभंगुचट्टणाऽऽइणा तस्स । खिज्जइ न य चिंतइ जमिम-मसुइमेवोवचरियं पि ॥७९॥ एवं धणधन्नेसुं, सुवण्णरुप्पेसु खेतवत्थूसुं । दुपयचउप्पयविसए य, बद्धरागो कए ताण ॥८०॥ | हिंडइ देसा देसं, पवणुधेयसुक्कपत्तसमचित्तो । सारीरमाणसाडसंख-तिक्खदुक्खाई अणुहवइ ॥८१॥ किं बहुणा भणिएणं?, जं जं जीवाण जायइ जयम्मि । दुक्खं सुतिक्ववियणं, तं तं रागफलं सव्वं ॥८२॥ जं देसचायवट्टण-निप्पीसणयं च कुंकुमस्साडवि । जं वा मंजिट्ठाए, कंडुप्पाडाइकढणंडतं ॥८३॥ जवणक्कंडणपाया इ-मद्दणं जं च किर कुसुंभस्स । तं दवओ वि रागस्स, चेव दुविलसियं जाण ॥८४॥ एवं तद्दारेणं, दुक्खं दुक्खेण अट्टरोद्दाइं । तेहिं च होइ देही, इहपरलोगे य दुहभागी ॥८५॥ सयलाउसमंजसकरो, रागो च्चिय अत्थि जइ जियाणेक्को । ता पज्जतं संसार-हेउजालेण अवरेण ॥८६॥ रागाऽऽईहि य यत्यं, इओ तओ साहिऊण य किलेसा । जह जह तमऽणुभवेड़, तह तह परिवड्ढइ रागो ॥८॥ जइ बिंदूहिं भरिज्जड़, उदही तिप्पेज 'विंधणेहिं सिही । तो रागतिसापरिगय-पुरिसो वि लभेज्ज इह तिति॥८॥ न य पुण केणाऽवि इम, दिटुं व सुयं व एत्थ लोगम्मि । ता तव्यिजए जत्तो, जुत्तो काउं सइ विवेगे॥८९॥ जं जं जीवाण जयम्मि, जायए सुहमुयारमऽणुबंधि । तं तं दुज्जयरागाऽरि-विजयविप्फुरियमक्खंडं ॥१०॥ | एयस्स पुरो रेहड़, न य दिव्वं माणुसं व वरसोक्खं । लेसेण वि उत्तमरयण-रासिणो कायमणिउ ब्य ॥१॥ इह पेज्जपावठाणग-दोसे अरिहन्नयस्स किर भज्जा । नायं तप्पडिवख्ने, तद्दियरो चिय अरिहमित्तो ॥२॥ 1. विंधणेहिं = वा इंधणेहिं । 171 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६०६३-६१२७ अर्हमित्रस्य दृष्टान्तः - द्वेषस्वरूपम् - धर्मरूचिदृष्टान्तः तहाहि “अहमित्रस्य दृष्टान्तः" सिरिखिइपइट्ठियपुरे, अरहन्नयअरिहमित्तनामाणो । अवरोप्परदढपणया, निवसंति भाउणो दोन्नि ॥१३॥ जेट्ठस्स गेहिणीए, तिव्यऽणुरागाए एगसमयम्मि । अभत्थिओ कणिट्ठो, पडिसिद्धा तेण सा बहुसो ॥१४॥ तह वि हु उवसग्गंती, भणिया किं नियसि भाउगं न हु मे । तो तीए भत्तारो, विणासिओ अणत्थसीलाए ॥९५॥ पच्छा भणिओ एवं पि, कीस नो इच्छसि ति तो तेणं । ततो भाइविणासं, विणिच्छिउं गिहविरत्तेण ॥१६॥ गहिया जिणपव्वज्जा, साहहिं समं च विहरिओ बहिया । इयरी अट्टयसट्टा, सुणिगा मरिऊण उप्पन्ना ॥१७॥ गामम्मि जत्थ सुणिगा, सा वट्टइ तत्थ चेव विहरंतो । समणगणेण समेओ, समागओ अरिहमित्तो वि ॥९८॥ तो पुव्यपेमवसगा, सा सुणिगा तस्स न मुयइ समीयं । उवसग्गो ति निसाए, ताहे नट्ठो अरिहमित्तो ॥१९॥ तविओगेण, मरिय अडवीए मक्कडी जाया । सो वि महप्या कहमडवि, तमेव अडविं समजणपत्तो॥६१००॥ दिट्ठो य मक्कडीए, लग्गा कंठम्मि पुव्वपेमेण । मोयाविओ य कहमवि, सेसमुणीहिं पलाणो सो ॥१॥ सा पुण तब्दिरहम्मि, मरिऊणं जखिणी समुप्पन्ना । तच्छिड्डाई विमग्गइ, विहरंतं तं च नीरागं ॥२॥ हसिऊण तरुणसमणा, भणंति धन्नोऽसि अरिहमित्त! तुमं । जं च पिओ सुणियाणं, वयंस! गिरिमक्कडीणं च॥३॥ एवं क्यपरिहासो वि, निक्कसाओ स अवरसमयम्मि । जलपवहम इक्कमिउं, पसारिउं दीहरं जंघं ॥४॥ जा गंतुं आरद्धो, ता गतिभेएण लद्धछिड्डाए । पुव्यपरुट्ठाए ज-विखणीए से ऊरुओ छिन्नो ॥५॥ हा दुटु दुटु मा आउ-कायजीया विराहिया होज्जा । एवं परिभातो, अधिइं जा कुणइ सो झत्ति ॥६॥ ता सम्मदिट्ठिगाए उ, देवयाए पराजिणिता तं । सपएसो से ऊरू, संघडिय पुणन्नयो विहिओ ॥७॥ एवं पेज्जविवक्खे, वस॒तो सो ह सुगतिमडणपत्तो । इयरी य पेज्जनडिया, विडंबणाभायणं जाया ૮ इय भो देवाणुप्पिय! तुमं पि जिणवयणविमलसलिलेण । निव्वावसु पेज्जडग्गिं, समीहियडत्थस्स सिद्धिकए ॥९॥ दसमं पावट्ठाणग-मेवं संखेवओ पवखायं । दोसाऽभिहाणमेतो, एक्कारसमं परिकहेमि ॥१०॥ "द्वेषस्वरूपम्" - अच्वंतकोहमाणु-भयो इहं असुहआयपरिणामो । दोसो भन्नइ जम्हा, दूसिज्जड़ तेण सपरजणो ॥११॥ दोसो अणत्थभवणं, दोसो भयकलहदुक्खभंडारो । दोसो ज्जविणासी, दोसो असमंजसाण निही રા दोसो अनिव्वुइकरो, दोसो पियमित्तदोहकारी य । सपरोभयतावकरो, दोसो दोसो गुणविणासो ॥१३॥ |दोसेण चेव कलिओ, परगुणदोसे विकत्थइ पुरिसो । दोसकलुसियमणो च्चिय, आवहइ ऊणहिययत्तं ॥१४॥ ऊणहिययस्स उ परो, जं जं चेट्टइ उ अप्पगयमेव । अप्पविसयं खु तं तं, मन्नइ मूढो किलिस्सइ य ॥१५॥ धम्मोवएसरुवं, रइठाणं पि हु परेण सीसंतं । महुसंभियपायसमिय, दूसइ पित्तऽद्दिओ व जडो ॥१६॥ |ता जइ रइठाणं पि हु, अरइपयं होइ जस्स दोसेण । ता दोसस्स न जुत्तो, दाउमडणज्जस्स अवयासो ॥१७॥ जे जेत्तिया य पुस्विं, भणिया दोसा हयाऽऽसदोसस्स । ते तेत्तिय च्चिय, गुणा, भयंति सुविसुद्धपसमस्स ॥१८॥ दोसदवाऽनलजोगा, दड्ढे दड्ढं समंडबुवरिसेण । चित्तसमाहाणवणं, नियमेण पुष्पन्नवीहोड़ ॥१९॥ इह दोसपावठाणा, चरणमऽसलं अकासि धम्मरुई । पच्छाऽऽगयसंवेगो, सो च्चिय सुद्धं तयमऽकासि ॥२०॥ तथाहि “धर्मरूचिदृष्टान्तः" गंगामहानईए, नंदो नावाऽहियो बहुं लोगं । मोल्लेणं उत्तारइ, एगम्मि य अवसरे साहू ॥२१॥ बहुलद्धिसंपउत्तो, धम्मरुई नाम गंगमुत्तिन्नो । नावाए मोल्लकए, धरिओ नंदेण नइपुलिणे ૨૨ फिडिया भिक्खावेला, रविक्रसंतत्तयेलुयाए दढं । गिम्हेण य अभिभूओ, तह वि हु तेणं अमुच्वंतो ॥२३॥ रुट्ठो दिट्ठिहुयासेणं, भासरासिं तयं करिता सो । अन्नत्थ गओ इयरो, सभाए घरकोइलो जाओ ॥२४॥ साहू वि विहरमाणो, भत्तं पाणं गहाय गामाओ । भोयणकरणनिमित्तं, तं चेव सभं अणुपविट्ठो ॥२५॥ दळूण तं च दढपुव्व-वेरओ जायतिव्वकोवो सो । भोत्तुं आरद्धस्स उ, मुणिणो उपरि ठिओ संतो ॥२६॥ पाडिउमाउडरद्धो क्यवरं ति, तो उज्झिऊण तं ठाणं । साह अन्नत्थ ठिओ, तत्थ वि सो खिविउमा डढतो॥२७॥ 1. संभिय = संभृत = मिश्रित । 172 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६१२८-६१६२ धर्मरूचिदृष्टान्तः - कलहस्वरूपम् ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ अन्नत्थ वि एवं चिय, कययरकरणम्मि जायकोवेण । को एस नंदकप्पो त्ति, जंपिओ धम्मरुड़णा वि ॥२८॥ निद्दड्ढो सो ताहे, उप्पन्नो मयंगगंगतीरम्मि । हंसो मुणी वि तत्तो, विहरियगामाऽणुगामेण तेणेव पएसेणं, बच्चंतो कहवि दिव्वजोएणं । दिट्ठो तेणं कुविएण, तयऽणु जलभरियपक्खाहिं सिंचिउमाऽऽरद्धो अह, पयंडकोवेण साहुणा दड्ढो । मरिऊणं उववन्नो सीहो अंजणगिरिंदम्मि साहू वि सत्थसहिओ, तेण पएसेण कहऽवि बच्चंतो । दिट्ठो सीहेण तओ, उज्झियसत्थो मुणिं हंतुं ॥३२॥ सो इंतो निद्दड्ढो, मुणिणा वाणारसीए णयरीए । ताहे बडुगो जाओ, साहू वि य कहऽवि तुडिजोगा ॥ ३३ ॥ तं चेव पुरिं पत्तो, तो से भिक्खऽट्टया पविट्ठस्स । बडुगेणं आरद्धा, धूलिक्खेवाऽऽइउवसग्गा ॥३४॥ तत्थ वि पुव्यठिईए, दड्ढो जाओ य तीए नयरीए । राया मुणी वि सुचिरं विहरिउमऽन्नत्थ आरद्धो ॥३५॥ इयरो पुण रज्जसिरिं, अणुभुंजंतो सरितु नियजाई । भयभीओ संचिंतन, जइ सो मारेइ एताहे ॥३६॥ ता होइ महाऽणत्थो, टालिज्जामि य विसिट्ठसोक्खाओ । जाणामि जड़ तमऽहं, कहं पि ता लहु खमावेमि ॥३७॥ तो तन्नाणनिमित्तं, तेण नरेंदेण पुव्यभववित्तं । रइउं सड्ढसिलोगेण, गेहबाहिम्मि उब्भवियं ॥३८॥ जहा “गंगाए नाविओ नंदो, सभाए घरकोइलो । हंसो मयंगतीराए, सीहो अंजणपव्वए वाणारसीए बडुओ, राया तत्थेव आगओ त्ति" ॥४०॥ ॥४१॥ जो किर एवं पूरइ राया रज्जस्स देइ से अद्धं । आघोसियं च एवं पुरीए तो सव्वपुरिलोगो |निअमइविहयऽणुरुवेण, विरइऊणुत्तरद्धमऽणुसरइ । रायाणं नवरं नेव, तेण से पच्चओ होइ अह धम्मरुई सुचिरं हिंडिय अन्नत्थ आगओ तत्थ वुत्थो आरामम्मि, सुओ य आरामिओ तम्मि ॥४२॥ पुणरुत्तमुच्चरंतो, “गंगाए नाविगाऽऽइयपयाई” । भणिओ कीस इमाई, पुणो पुणो वाहरसि भद्द ! ॥४३॥ कहिओ सव्यो वि हू तेण, वइयरो जाणिऊण परमत्थं । ताहे मुणिणा तस्संडति - मऽद्धमाऽऽपूरियं एवं ॥ ४४ ॥ " एएसिं घायगो जो उ, सो एत्थेव समागतो त्ति" ॥३९॥ अह पडिपुन्नसमस्सं, घेत्तूणाऽऽरामिओ गओ रन्नो । पासम्मि तयऽणु सिद्धं, तओ नरेंदो भयवसट्टो मुच्छानिमीलियऽच्छो, झडति वियलत्तणं समऽणुपत्तो । पहुणो अणिट्टकारि त्ति, जायकोवेण लोगेण सो भणइ हम्ममाणो, कव्यं काउं अहं न याणामि । लोयस्स कलिकरंडो, एसो समणेण मह कहिओ खणलद्धचेयणेणं, पडिसिद्धो राइणा स हम्मंतो । पुट्ठो य केण रइयं ति, तेण सिद्धं च मुणिण ति ताहे पहाणपुरिसे, पेसिय पुच्छाविओ नरिंदेण । साहू जड़ अणुजाणह, ता वंदिउमऽहमुवेमि ति पडिवन्नम्मि मुणिणा, समागओ सायगो य संवुत्तो । धम्मरुई वि महप्पा, सरिऊणं पुव्यदुच्चरियं आलोइयपडिकतो, दूरं निम्महिअसव्यकम्मंऽसो । उम्मूलियदोसतरू, सिवमऽयलमऽणुत्तरं पत्तो एयं नाउं तप्पसम - वारिवरिसेण पडिहयप्पसरं । पसरंतदोसदावाऽ - नलं तुमं कुणसु सरिस ! एवं कए य सुंदर !, तुमं पि तिव्ययरजायसंयेगो । अंगीकयकज्जसमुद्द - पारगामी लहुं हो एक्कारसमं एवं निदंसियं पावठाणगं एत्तो । कलहाऽभिहाणपाव- द्वाणगमऽक्खेमि बारसगं “कलहस्वरूपम्” ॥५७॥ | कोहाऽहिट्ठियजणवयण - जुज्झसरूवो भणिज्जए कलहो । सो य तणुमाणसुब्भव - असंखसोक्खाण पडिवक्खो ॥५५॥ कलहो कालुस्सकरो, कलहो वेराऽणुबंधफुडहेऊ । कलहो मित्तुत्तासी, कलहो कित्तीए खयकालो ॥५६॥ कलहो अत्थखयकरो, कलहो दालिद्दपढमपाओ य । कलहो अविवेयफलं, कलहो असमाहिसमयायो राउलगहो य कलहो, नासइ कलहाउ गिहगया वि सिरी । कलहाउ कुलप्फेडो, कलहाउ अणत्थपत्थारी ॥५८॥ कलहाओ दोहग्गं, संपज्जड़ पड़भवं पि दुव्विसहं । कलहाउ गलइ धम्मो, पावप्पसरो य कलहाओ कलहो सुगइगमहरो, कलहो कुगतीगमे पउणपयवी । कलहाउ हिययसोसो, पच्छा परितप्पणं कलहा कलहो येयालो इव, लद्धप्पसरो सरीरमऽवि हणड़ । कलहाओ गुणहाणी, समत्थदोसाऽऽगमो कलहा आयपरोभयहियउरु- पिढरपरिसंठियं सिणेहरसं । आवट्टिऊण तिव्याऽ - नलोव्य कलहो खयं नेइ ॥५९॥ ॥६०॥ ॥६९॥ ॥६२॥ 172 ॥४५॥ "જો ॥४७॥ ॥ ४८ ॥ ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५४॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६१६३-६२०० हरिकेशीबलदृष्टांतः | कलहो हि कीरमाणो, धम्मकलं हणइ तेण तन्नाम । “कलहं" ति सद्दलक्खण-वियखणा भिक्खुणो बिति॥६३॥ अच्छउ ता किर अन्नो, निययंडगसमुभयो वि कलहपिओ। फोडो व्य दुब्बिसहणं, तिक्खं दुक्खं जणे जणइ॥६४॥ जावइया किर दोसा, सत्थे कलहुब्भवा भणिज्जति । तावइया चेव गुणा, तप्परिहारेण जायंति ॥६५॥ पसमवणभंगकलहं, कलहं परिभाविऊण ता धीर! । तविजए निव्यत्तिय-परमसुहे रम सुह निच्वं ॥६६॥ तह अप्पणोपरस्स य, न होड़ कलहो जहा तहा किच्वं । अह कहऽवि उट्ठिओ तहऽवि, कुणसु तह जह न वड्ढइ सो॥६॥ कलहो गयपोओ वि हु, पवड्ढमाणो उ होइ दुव्वारो । नाणाविहवहबंधण-निबंधणं जायए तत्तो ॥८॥ इह कलहपावठाणग-दोसेणं दूसिओ उ हरिएसो । नियजणणीजणगाण वि, उब्धियणिज्जो दढं जाओ ॥६९॥ सो च्चिय अहिदुगवइयर-दसणदारेण नायपरमत्थो । साहुत्तं पडिवण्णो जाओ पुज्जो सुराणं पि ૭૦થી तहाहि- "हरिकेशीबलस्यदृष्टान्तः" - महुराए नगरीए, संखो भूमिवई महाभागो । परिचत्तसव्यसंगो, सुगुरुसमीवम्मि पव्वइओ ॥७१॥ कालक्कमेण अहिगय-सुत्तउत्थो सो महिं परियडतो । तियचच्वराऽभिरामे, गजउरनगरम्मि संपत्तो ॥७२॥ भिक्खपविटेण य तेण, गूढसिहिकलियपहसमीवत्थो । पुट्ठो पुरोहिओ सोम-देवनामो पहेणिमिणा ॥७३॥ किमऽहं वच्चामि ततो, हुयवहमग्गेण वच्चमाणमिमं । डज्झंतं पेच्छिस्सं ति, चिंतिउं तेण भणियमिमं ॥७४॥ बच्चसु भयवं! ति मुणी, इरिउवउत्तो य गंतुमाउडरद्धो । ओलोयणट्ठिओ अह, पुरोहिओ सणियसणियं तं ॥५॥ योलेंतं पेच्छित्ता, तेण पहेणं गओ तओ सिसिरं । तं उयलंभिय विम्हइय-माणसो इय विचिंतेइ ॥६॥ धिद्धी! पाविट्ठो हं, जेणाऽणुट्ठियमिमं महापायं । दट्ठव्यो य महप्पा, सो जस्स तयप्पभावेण ॥७७॥ मग्गो. अडत्ति हिमसलिलसीयलो जाओ। विम्हयकरचरियाणं. महाडणभावाण किमडसज्झ॥७८ एवं परिभातो, गओ समीये तवस्सिणो तस्स् । नमिउं च भावसारं, णियदुवरियं निवेदेइ ॥७९॥ मुणिणा वि य जिणधम्मो, परुवियो वित्थरेण से महया । तं सोच्चा पडिबुद्धो, पव्वइओ सो समणधम्म ॥८०॥ पालेइ जहाविहिणा, नवरं नो कहवि जाइमयमेसो । उज्झइ निसुणंतो वि हु, तस्स वियागं महाभीमं ॥८१॥ पज्जते मरिऊणं, उववन्नो भासुरो सुरो सग्गे । तत्तो चुओ समाणो, तीरम्मि तियससरियाए રા जाइमयाऽवलेवा, मायंगकुले सुओ समुप्पन्नो । बलनामो गयरुयो, नियबंधूणं पि हसणिज्जो ॥८३॥ अच्वंतकलहकारी, उब्वियणिज्जो महापिसाउ व्य । दोसेहि य देहेण य, कमेण खुड्ढेि समडणुपत्तो ॥८४॥ पत्ते य वसंतमहे, पाणपणच्वणपराण सयणाणं । मज्झाओ निच्छूढो, कुणमाणो भंडणं सो य બી | परमविसाओवगओ, पासठिओ पवरविविहकीलाहिं । अभिरममाणो सयणे, पेच्छंतो अच्छए जाव ૮દા ताव मसिमेहसामो, समागओ गयकरोवमो सप्पो । तत्थ पएसे वाया-इओ य लोगेण मिलिऊण ॥८७॥ अह खणमेतम्मि गए, तहेव अवरो समागओ सप्पो । नवरम विसो ति काउं, केणवि वावाइओ नेव ॥८८॥ एयं च पेच्छिऊणं, बलेण परिचिंतियं धुवं सव्यो । असुहसुहं लभइ फलं, नियदोसगुणोचियं तम्हा ॥८९॥ "भद्दगेणेव होयव्यं, पावइ भद्दाणि भद्दओ । सविसो हम्मइ सप्पो, निव्यिसो तत्थ मुच्वइ" किं चोज्जं दोसपरा, पराभविज्जति जं निएहिं पि । ता उज्झिऊण दोसे, इण्हिं पि गुणे पयासेमि ॥९ ॥ |एवं भावमाणो, धम्म सोऊण साहुमूलम्मि । भववासादुविग्गो, मायंगमहामुणी जाओ ॥१२॥ छट्ठऽट्ठमदसमदुवालसऽद्ध-मासाऽऽइविविहतवनिरओ । विहरंतो स महप्पा, पत्तो वाणारसिपुरीए ॥९३॥ गंडीतिंदुगजक्खस्स, मंदिरे तिंदुगम्मि उज्जाणे । वुत्थो य तं च जक्खो, भत्तीओ पज्जुवासेड़ ॥९४॥ अन्नम्मि य पत्थाये, उज्जाणंडतरनिवासिजक्त्रेण । आगंतूणं गंडी-तिंदुगजक्खो इमं युत्तो ॥९५॥ हे भाय! किन्न दीससि, तेणं भणियं इमं मुणिवरिठें । नीसेसगुणाऽऽहारं, निच्वं चिट्ठामि थुणमाणो ॥१६॥ दटुं मुणिस्स चे, परितुट्ठो सो वि तिंदुगं भणइ । तं चिय मित्त! कयत्थो, जस्स वणे वसइ एस मुणी॥९७॥ मज्झ वि वसंति मुणिणो, उज्जाणे ता खणं तुम एहिं । गंतुं समगं ते वि हु, वंदामो तो गया दो वि ॥९८॥ दिट्ठा य तेहिं मुणिणो, कहवि पमायाउ विकहकरणरया । ताहे गाढयरागं, अणुरत्ता तम्मि ते जक्खा ॥९॥ अह निच्वं पि य भावेण, वंदमाणस्स पूयपावस्स । तं मुणिवसहं जक्खस्स, परमसोक्खेण जंति दिणा ॥६२००॥ 174 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिकेशीबलदृष्टांतः ॥१॥ un n संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६२०१-६२३८ ॥४॥ ॥५॥ Fl ॥७॥ एगम्मि य पत्थाये, कोसलियमहीवइस्स भद्द त्ति । धूया बहुविहफलफुल्ल-पडलकरकिंकराऽणुगया आगंतूणं जक्खस्स, पडिममऽच्चेइ परमभत्तीए । तं अच्चिऊण देंती, पयाहिणं मलविलित्ततणुं कालविंगरालरूयं, लायन्नविवज्जियं तवक्किसियं । मायंगमुणिं पेच्छइ, काउस्सग्गेण वट्टतं तो निच्छूढमडणाए, मूढत्तणओ लहुं च कुद्रेण । मुणिनिंदाकरणाओ, जक्खेण अहिट्ठिया सा य असमंजसाई बहुसो, पलवंती कहवि रायभवणम्मि । नीया नरवइणाऽवि हु, अच्चतविसन्नचितेण | बहुमंततंतपरमत्थ-वेइणो वाहराविया पुरिसा । विज्जा वि य तेहिं क्या, चउप्पयारा वि से किरिया अकयप्पडियारेसु य, वेज्जाऽऽइसु उवरएसु सो जक्खो । जंपड़ पत्तम्मि ठिओ, एयाए निंदिओ साहू ता जइ एयं तस्सेव, देह मुंचामि नन्नहा मोक्खो । जह तह जियउ वराइ त्ति, राइणा पडिसुयमिमं पि ॥ ८ ॥ अह सा पगुणसरीरा, सव्वाऽलंकारभूसिया घेत्तुं । वीवाहजोग्गमुवगरण - माऽऽगया भूरिरिद्धीए चलणेसु निवडिऊणं, भणइ मुणिं कुण पसायमिह भगवं । मज्झं सयंवराए, गिण्हेसु करं करेणं ति मुणिणा वृत्तं इत्थीहिं, जे समं जंपिउं पि नेच्छति । ते कह निययकरेहिं, रमणीण करे गहिस्संति सिद्धियहुबद्धरागा, दुग्गइमूलासु कह णु जुवईसु । रज्जंति महामुणिणो, गेवेज्जमिवासितियस व्य अह तिव्याऽमरिसेणं, जक्खेणऽच्छाइऊण मुणिरूवं । उब्बूढा 'वेलविया य, सव्वरयणिं पि सा ते सुमिणं व मन्नमाणी, पभायसमयम्मि सोगविहुरंगी । पिउणो गया समीयं, सिट्ठो सव्यो य युत्तंतो |2 आदन्नो नरनाहो, मुणियसवेण । उवरोहिएण भणियं, देव! इमा साहुणो पत्ती ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ तेण विमुक्का कप्पड़, पणामिउं तुम्ह बंभणाणं ति । पडिवन्नमिमं रन्ना, दिन्ना तस्सेव सा तत्तो अह सो तीए सद्धिं विसयनिसेवणपरो गमइ कालं । अन्नम्मि य पत्थाये, जन्नो तेणं समारद्धो तत्थाऽऽगया य बहवे, येयऽत्थवियक्खणा उवज्झाया । बहुभट्टचट्टचडयर - सहिया देसंतरेहिंतो अह सो मायंगमुणी, भिक्खकए तत्थ जन्नवाडम्मि । सिद्धबहुभेयभत्ते, समागओ मासपारणए तं च तयकिसियकायं, पंतोवहियं मलीमसं लुक्खं । दट्ठूण धम्मदुट्ठा, बहुप्पयारं पहसमाणा जंपेन्ति भट्टवट्टा!, कीस तुमं एत्थ आगओ पाव ! । इन्हिं चिय एयाओ, थामाओ लहुं विणिस्सरसु एत्थंतरम्मि जक्खो, रिसिणो देहम्मि पविसिकं भणइ । भिक्खात्थमागतो हं, तत्तो विप्पेहिं पडिभणियं ॥२२॥ जाव दिएहिं न भुत्तो, पढमं जलणम्मि जाय न वि छूढो । ताव न दिज्जइ एसो, सुद्दाणं यच्च तं समण ! ॥२३॥ |जह कालम्मि सुखेत्ते, विहिणा बीयं सुवावियं फलयं । जायइ तह पिइबंभण - जलणम्मि णिवेसियं दाणं ॥ २४ ॥ अह मुणिणा ते भणिणा, जाइमित्तेण होंति नो विप्पा । तुम्हारिस व्व पावा, हिंसाऽलियमेहुणाऽऽसत्ता ॥२५॥ जलणो वि पावहेऊ, कह तम्मि निवेसियं सुहं कुणउ । पिउणो वि परभवगया, इह दिन्नं कह णु गिण्हंतु ॥ २६ ॥ | उनच्चा य पडिकुद्धो ति, जायकोवा तओ मुणिं हन्तुं । दंडकसालेट्टुकरा, सव्यत्तो धाविया विप्पा छिन्नतरुणो व्य ताणं, निवाडिया केवि तत्थ जक्खेण । अन्ने पहरेहिं हया, अन्ने पुण वामिया रुहिरं एवंविहं अवत्थं संपत्ते पेच्छिऊण ते सव्वे । भयवेवमाणहियया, भट्टा भणिउं समादत्ता एसो सो जेण तया, सयंवरा उवणया अहं चत्ता । जो सिद्धिवहूरतो, नेच्छड़ सुरसुंदरीओ वि अइघोरतयपरक्कम - वसीकयाऽसेसतिरियनरदेवो । तेलोक्कपणयचलणो, नाणाविहलद्धिसंपन्नो जियकोहमाणमाओ, जियलोहपरीसहो महासत्तो । सूरो व्य दूरपसरत - पायतमनियरनिद्दलणो जलणो व्व दहइ भुवणं, कुविओ तं चेव रक्खए तुट्ठो । ता एयं तज्जिंता वच्चिस्सह मच्चुवयणम्मि ॥३३॥ चलणेसु निवडिऊणं, एयं तोसेह महरिसिं तम्हा । इय सुणिय रुद्ददेवो, सभारिओ भणिउमाऽऽदत्तो ॥३४॥ | रागाऽऽइएहि जं भे अवरद्धं तं खमाहि 4णे भययं । पणिवइयवच्छल च्चिय, भवंति लोगम्मि वरमुणिणो ॥३५॥ अह ते मुणिणा, संसारनिबंधणस्स कोयस्स । को अवगासं देज्जा, विसेसओ मुणियजिणवयणो नवरं मम भत्तिपरायणस्स, जक्खस्स विलसियं एयं । ता तं चेव पसायह, कुसलतं पाउणह जेण ताहे बहुप्पयारेहिं, जक्खमुवसामिऊण भत्तीए । साहुं हरिसवसुग्गय - रोमंचा माहणा सव्वे ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ રા ॥३६॥ ॥३७॥ બા | 1. वेलविया = वञ्चिता = विडम्बिता इत्यर्थः । 2. आदन्नो = व्याकुलीभूतः । 3. उज्झा पाठां० (बुद्धवा) । 4. अस्माकम् । 175 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६२३६-६२७२ अभ्याख्यानपापस्थानस्वरूपम् - अङ्गर्षेदृष्टान्तः - अरतिरतिस्वरूपम् ॥३९॥ ॥४०॥ पडिलाभिंति तेहिं, सनिमित्तोवक्खडेहिं भत्तेहिं । जक्खेण य तुट्ठेणं, खित्ता गयणाउ वसुहारा गंधोदयं च वुद्धं भमराऽऽउलपुप्फनियरसंवलियं । कलहच्चागेणेयं, सो जाओ देवपुज्जो ति | कलहे तच्चागम्मि य, इय दोसगुणे विभाविउं सम्मं । तह कहवि खमग! वट्टसु, जह सिज्झइ पत्थुयत्थो ते ॥ ४१ ॥ पावट्ठाणगमेवं, बारसमं पि हु पयन्नियं किंपि । अब्भक्खाणऽभिहाणं, एत्तो कित्तेमि तेरसमं ॥४२॥ “अभ्याख्यानस्वरूपम्” पाएणं पच्चक्खं, उद्दिस्स परं असंतदोसाणं । आरोवणं जमेत्थं, अब्भक्खाणं तयं बेंति एवं अब्भक्खाणं, सपरोभयदुट्ठचित्तसंजणगं । तप्परिणओ य पुरिसो, किं किं पावं न अज्जेइ तज्जपणे य जे कोह- कलहप्पमुहेसु यन्निया केवि । इहपरभवुब्भवा ते, दोसा सव्ये वि जायंति जइवि किर परमथोयं, पावमऽभक्खाणदाणयं तहवि । देइ दसगुणविवागं, सव्यन्नहिं जओ भणियं “वहबंधण अब्भक्खाण - दाणपरधगविलोवणाऽऽईणं । सव्यजहन्नो उदओ, दसगुणिओ एक्कसि कयाणं" “तव्ययरे उ पओसे, सयगुणितो सयसहस्सकोडिगुणो । कोडाकोडिगुणो वा, होज्ज विवांगो बहुतरो वा સંજો ॥४४॥ ॥४५॥ "જો ॥४७॥ ॥४८॥ तहा सव्वेसिं सोक्खाणं, निरासकरणम्मि सुपडिवक्खाणं । गणणाए असंखाणं, कुओ वि नो भाविरक्खाणं अच्चतं तिक्खाणं, हिययदरीदारणेक्कदक्खाणं । एवं अब्भक्खाणं, निबंधणं सव्यदुक्खाणं एयविरताणं पुण, इहपरभवभाविभल्लिमा सव्वा । अप्पवस च्चिय निच्वं जहिच्छिया जायड़ जयम्मि रुद्दो व्य अजसमऽसमं, पावड़ तेरसमपावठाणाओ । अंगरिसी विव तव्विरय-माणसो लभइ कल्ला तहाहि“अङ्गर्षेदृष्टान्तः” ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ चंपाए नगरीए, अज्झायगकोसियज्जपासम्मि । अंगरिसी रुद्दो वि य, धम्मेण पढंति दो सीसा आणताऽणज्झाए, ते पुण तेणं अरे उवणमेह । एक्केक कट्ठहारग-मऽडवीहिंतो लहुं अज्ज पयईए च्चिय सरलो, तहत्ति पडिवज्जिऊण अंगरिसी । अडवीए कट्ठाणं, आणयणट्ठा गओ तुरियं रुद्दो य दुट्ठसीलो, गेहाउ नीहरितु डिंभेहिं । सह कीलिउमाऽऽरद्धो, जाए य विगालसमयम्मि चलिओ अडवीहुतं, दूरे दिट्ठो य गहियकट्ठभरो । इंतो सो अंगरिसी, अविहियकज्जो ति तो भीओ तद्देसगामिणि कट्ठ- हारिणि मारिऊण जोइजसं । थेरिं तक्कट्ठभरं घेत्तूणं तं च गत्ताए ॥५८॥ पक्खिविऊणं सिग्घं, समागओ भणइ कवडसीलो सो । उज्झाय ! सज्झसकरं, चरियं तुह धम्मसीसस्स ॥५९॥ अज्ज समत्थं पि दिणं, रमिउं इण्डिं च मारिउं थेरिं । तक्कट्ठभरं घेतुं, जवेण सो एइ अंगरिसी ॥६०॥ जड़ पत्तियह न तुब्भे, आगच्छह ता जहा निदंसेमि । जमऽवत्थं उवणीया, जहिं च खिता य सा थेरी ॥ ६१ ॥ एवं भणमाणम्मि, कट्टभरं घेत्तुमाऽऽगओ झति । अंगरिसी कुद्धेणं, भणितो अज्झायगेण तओ ॥६२॥ आ पाव! अकिच्चमिमं काउं अज्ज वि तुमं गिहे एसि । अवसर दिट्ठिपहाओ, पज्जत्तं तुज्झ पाढेण ॥६३॥ वज्जवडणं व दुस्सह-मडब्भक्खाणं इमं च सुणिऊण । परमविसायमुवगतो, संचितिउमेवमाऽऽढतो आ पावजीव ! पुव्वब्भवम्मि, एवंविहं कयं कम्मं । किंपि तए तेणेमं, दुव्विसहं वसणमाऽऽवडियं इय संवेगोवगतो, सरिउं चिरभवसुचिण्णसामन्नं । सुहझाणहणियकम्मो, सो केवललच्छिमऽणुपत्तो | महिओ देवनरेहि य, रुद्दो पुण तेहिं चेव सव्वत्थ । पावो त्ति खिंसिओ बहु, तह अब्भक्खाणदाइ ति ॥६७॥ इय सोऊणं तुममऽवि, अब्भक्खाणाउ विरम भो खमग! जेणीहियगुणसाहण - हेउसमाहिं लहुं लहसि तेरसमपावठाणग-मुवइट्ठ लेसओ इमं ताव । अरइरइनामधेयं एत्तो दंसेमि चोद्दसमं ॥६४॥ ॥६५॥ દ્દો ॥६८॥ ॥६९॥ “अरइरइस्वरूपम्” अरइरईहिं दोहिं वि, एक्कं चिय बिंति पावठाणं जं । विसओवयारवसओ, अरई वि रई रई वरई जह निप्पम्हदिसाए, पावारे पाउयम्मि जा अरई । स च्चिय पम्हदिसाए, तप्पाउरणे रई होइ तह पम्हिल्लदिसाए, पावारे पाउयम्मि जा य रई । स च्चिय इयरदिसाए, तप्पाउरणे भवे अरई 1. काष्ठभारकम् । २. वरई वि + अरई (इस प्रकार से संधि निकाले) ॥ ४९ ॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५४॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ 176 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६२७३-६३०६ क्षुल्लककुमारमुनिदृष्टान्तः जह य असंपत्तीए, पत्थुयवत्थुस्स होइ जा अरई । स च्चिय रइत्तणेणं, तस्संपत्तीए परिणमइ ॥७३॥ तह जा संपत्तीए, पत्थुयवत्थुस्स होइ एत्थ रती । अरइत्तणेण स च्चिय, तस्स विवत्तीए परिणमइ ॥७४॥ अहया बज्झनिमित्तं, विणा वि किर अरतिमोहम्मदया। देहे च्चिय जा जायड, अणागयाडणिसयणिया सा अरई तव्वसओ, अलसो विहलंघलो विगयसन्नो । इहपरलोयपओयण-पसाहणेसुं पमायंतो ॥६॥ उच्छाहिओ वि उच्छहइ, नेय किच्चम्मि कम्मि वि कयाइ । छगलगलत्थणसरिसं स, तारिसो जियइ जियलोए॥७७॥ तह रइपसत्तचित्तो, कहिं वि तत्तो नियत्तिउमडसत्तो । चिखल्लखुत्तजरगोण-उ व्य रतिमोहकम्मवसा ॥८॥ ज्जमिहलोइयं पि हु, न कुणइ पारत्तियं पुण- कहं व । अच्वंतपयत्तपउत्त-चित्तनिव्वत्तणिज्जं जं ॥७९॥ एवं अरइरईऊ, भवभावनिबंधणं वियाणित्ता । मा तासिं अवगासं, खणं पि दाहिसि तुम अहया ॥८॥ अरई पि कुणसु अस्सं-जमम्मि संजमगुणेसु य रई पि । एवं च पकुव्वंतो, लहिहिसि आराहणं पि धुवं ॥८१॥ किं बहुणा भणिएणं, अरइरइं भवनिबंधणं धुणिउं । काउमऽधम्मे अरइं, धम्माऽऽरामे रतिं कुणसु ॥२॥ ऽणिविसएस जड़ तुज्झ । धीर! न रई न अरई, ता तममाऽऽराहणं लहसि ॥८३॥ धम्माऽहम्मे अरई-रईओ, पुरिसं रंति जणसोच्वं । खुड्डगकुमारमुणिमिव, संजमभरधरणपरितंतं ૮૪ના सम्मं असंजमे संज-मे य अरईरईहिं पुण होज्जा । सो च्चिय पच्चागयचेय-णो जह तह जणे पुज्जो ॥८५॥ तहाहि "क्षुल्लककुमारमुनिदृष्टान्तः" साकेयम्मि पुरवरे, पुंडरीओ नाम भूवई तस्स । कंडरीओ लहुभाया, जसभद्दा नाम से भज्जा ૮દ્દા अच्वं तमणहरंडगी, चंकम्मती घरंगणे सा य । दिट्ठा पुंडरीएणं, अज्झुववन्नेण अह तेणं ૮૭ दुई विसज्जिया लज्जि-रीए तीए य सा पडिनिसिद्धा । अच्वंतं निब्बंधे य, राइणो तीए पडिभणियं ॥८॥ | किं न लहुभाइणो वि हु, तं लज्जसि जेण उल्लवसि एवं । पच्छन्नो कंडरीओ, तयणु विणासाविओ रन्ना ॥८९॥ अभत्थिया पुणो वि हु, ताहे सा सीलखंडणभएण । नियगाऽऽभरणाणि लहं, गहाय गेहाओ नीहरिया ॥१०॥ सत्येण समं एगागिणी वि, पडिवन्नजणगभावस्स । थेरवणियस्स निस्साए, नयरिं सावत्थिमडणुपत्ता ॥११॥ जियसेणसूरिसिस्सिणि-कित्तिमईमयहरीसमीचे य । वंदणवडियाए गया, कहिओ सब्यो य वुत्तंतो . ॥९२॥ संबुद्धा पव्वइया, हुंतो वि न साहिओ तीए गब्भो । मयहरियाए मझं, मा पव्वज्जं न दाहि ति ॥१३॥ | कालक्कमेण बुड्ढेि, गयम्मि गब्मम्मि मयहरीए सा । पुट्ठा एगंतम्मि कारणमऽवि तीए परिकहियं ॥१४॥ पच्छा पच्छन्न च्चिय, ता धरिया जा सुयं पसूया सा । सड्ढकुलम्मि संवड्ढि-ओ य सो जाय पव्वइओ ॥१५॥ सूरिस्स समीवम्मि, कयं च से नाम सुड्डगकुमारो । सिक्वविओ य समग्गं, जईण जोग्गं समायारं ॥१६॥ | अह जोव्वणमडणुपत्तो, संजममऽणुपालिउं अचाइंतो । पडिभग्गो जणणिं सो, पुच्छइ उन्निक्खमणहेउं ॥९॥ | पडिसिद्धो जणणीए, बहप्पयारेहिं तहवि नो ठाइ । पच्छा तीए भणिओ, पत्तय! मज्झोवरोहेण ९८॥ पडिवालसु बारस यच्छराई, एवं ति तेण पडिवण्णं । तेसु य अइक्कंतेसु, पट्ठिओ तीए पुण भणिओ ॥१९॥ मह गुरुणिं आपुच्छसु, आपुट्ठाए य तीए वि य धरिओ । तेत्तियमेतं कालं, आयरिएणाऽवि एमेव ॥६३००॥ | एवं उज्झाएण वि, अडयालीसं गयाणि परिसाणि । तह वि हु अठायमाणो, उवेहिओ णवरि जणणीए ॥१॥ | पिउनामंडका मुद्दा, कंबलरयणं च पुवसंठवियं । तस्सऽप्पिऊण सिटुं, मा पुतय! तत्थ तत्थेव वच्चिहिसि किंतु पुंडरीय-भूवइ होइ ते महल्लपिया । पिउणामंडकं मुदं, दरिसेज्जासि य तस्स इमं ॥३॥ जेणं स तुज्झ रज्जं, परियाणित्ता पणामइ अवस्सं । एवं ति पवज्जित्ता, विणिग्गओ खुड्डगकुमारो ॥४॥ | कालक्कमेण पत्तो, साकेयपुरम्मि राइणो गेहे । तव्येलं पुण वट्टइ, पेच्छणयं अच्छरियभूयं ॥५॥ कल्ले पेच्छिस्सं भू-वई ति संचिंतिऊण तत्थेव । आसीणो नट्टविहिं, एगग्गो दटठमाउडरद्ध દા तत्थ य सव्वंपि निसं, पणच्चिङ नट्टिया परिस्संता । ईसिं निहायंती, जणणीए पभायसमयम्मि ॥७॥ विविहकरणप्पओगाड-भिरामसंजायरंगभंगभया । गीईगाणमिसेणं, सहस च्चिय बोहिया एवं તળા "सुट्ठ गाइयं सुठु वाइयं, सुट्ठ नच्चियं सामसुंदरि! । अणुपालिय दीहराइयाउ, सुमिणंडते मा पमायए' ॥९॥ 1. आपुच्छिया पाठा० । 2. विजंतो वि हु न साहिओ गम्भो पाठा० । ॥२॥ 177 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६३१०-६३४४ पैशुन्यस्वरूपम् - सुबन्धुसचिवचाणक्यो दृष्टान्तः सोच्वेमं चेल्लेणं, कंबलरयणं पणामियं तीए । कुंडलरयणं नवइ-सुएण तह सत्थवाहीए । ॥१०॥ सिरिकताए हारो, कडगो जयसंधिणा अमच्चेण । रयणंडकुसो य मिंठेण, लक्खमुल्लाइं सव्वाइं। ॥११॥ अह भावजाणणट्टा, रन्ना पढमं पि खड्डगो भणिओ। कीस तए दिन्नमिमं ति, तेण तो सव्ववृत्तंतो ॥१२॥ मूलाउ च्चिय कहिओ, ता जाय समागओ म्हि रज्जकए । गीइं इमं निसामिय, संबुद्धो विगयविसइच्छो ॥१३॥ पव्वज्जाथिरचित्तो, जाओ म्हि अओ इमीए गुरुणो ति । कंबलरयणं दिण्णं, पच्चभिजाणित्तु तं च निवो ॥१४॥ जंपेड़ वच्छ! गेण्हसु, रज्जमिमं चेल्लएण पडिभाणियं । आउयसेसम्मि किं, चिरसंजमविहलणेणिण्डिं ॥१५॥ अह नियपुत्तप्पमुहा, भणिया रन्ना कहेह तुम्हाणं । दाणम्मि कारणं किं, तो युत्तं रायपुत्तेण ॥१६॥ ताय! तुमं यावाइय, रज्जमऽहं गिहिउं समीहंतो । गीइयमेयं च निसा-मिण रज्जाउ विणियत्तो ॥१७॥ तह सत्थाहीए वि हु, भणियं पड़णो ममं पउत्थस्स । योक्कंताई बारस, परिसाइं अहं च चिंतेमि ॥१८॥ अवरं पई करेमि ति, तस्स आसाए किं किलिस्सामि । सिट्ठमऽमच्चेण तओ, देव अहं अन्नराईहिं ॥१९॥ संधिं घडामि किं वा, न व ति पुयं इमं विचिंतंतो । मिंठेणाऽवि य भणियं, अहं पि सीमालराईहिं ॥२०॥ आणेहि पट्टहत्थिं, अहया मारेहि इइ बहुं वुत्तो । संसयदोलाचलचित्त-वित्तिओ संठिओ य चिरं ॥२१॥ अह तेसिमऽभिप्पायं, जाणिय तुट्टेण पुंडरीयरन्ना । दिन्नाऽणुन्ना जं भे, पडिहासइ तं रेह त्ति ॥२२॥ एवंविहं अकिच्चं, काउं केवच्चिरं वयं कालं । जीविस्सामो ति पयं-पिऊण संजायवेरग्गा ॥२३॥ | खुड्डगकुमारमूले, सब्वे वि य तक्खणेण पव्वइया । तेहिं च सह महप्पा, विहरइ सो सयलजणपुज्जो ॥२४॥ इय एयनिदंसणओ, अस्संजमसंजमे पडुच्च तुमं । अरइरईओ वि रेसु, खमग! मणवंछियउत्थकए રો चोद्दसमपावठाणग-मेवं लेसेण साहिउं एत्तो । पेसुन्ननामधेयं, पन्नरसमं पि हु परिकहेमि ॥२६॥ “पैशुन्यस्वरूपम्" - पच्छन्नं चिय जमऽसंत-संतपरदोसपयडणसरुवं । पिसुणस्स कम्ममिह तं, भन्नइ लोगम्मि पेसुन्नं ॥२०॥ एयं च मोहमूढो, कुणमाणो सुकुलसंपसूओ वि । चाई वि मुणी वि जणे, कित्तिज्जइ एस पिसुणो ति ॥२८॥ तहाता मित्तं सुहचित्तं, ताव च्चिय इह नराण मेती वि । थेयं पि अंतराले, जाव न संचरइ हयपिसुणो ॥२९॥ पेसुन्नतिकवतरपरसु-हत्थओ अहह पिसुणलोहारो । दारेइ च्चिय निच्चं, पुरिसाणं पेमदारूणि ॥३०॥ बाढं बीहावणओ, लोयाणं दारुणो पिसुणसुणओ । जो पट्टीए भसंतो, खणेइ कन्ने अनिव्यिन्नो ॥३१॥ अहवुज्जलवेसे पाडि-वेसिए सामिए परिचिए य । दाणपरे य न सुणओ, भसइ वराओ जहा पिसुणो ॥३२॥ सज्जणसंजोगम्मि वि, गणो न पिसणस्स जायए अहवा । ससिमंडलमज्झपरि-ठिओ वि कलसो च्विय करंगो॥३३॥ जइ इह पेसुन्नं चिय, ता किं अन्नेण दोसजालेण । एयं चिय एक्कं उभय-लोगविहलत्तणं काही ॥३४॥ कीरड़ पडुच्च जमिम, तदऽणत्थुप्पायणे अणेगंतो । पेसुण्णकारिणो पुण, पओसभावा धुवोऽणत्थो ॥३५॥ माइत्तमसच्चत्तं, निस्सूगत्तं च दुज्जणत्तं च । निद्धम्मत्ताऽऽई वि य, दोसा पेसुन्नओ विविहा ॥३६॥ वरमुत्तमंगछेओ, परस्स विहिओ न चेव पेसुन्नं । जं न तह दुही पढमे, मणग्गिदाणं तु सइ इयरे ॥३०॥ न य पेसुन्नाउ परं, पायं विहिएण जेण आजम्म । विसदिद्धसेल्लभल्ली-सल्लियदेहो व्य जियइ परो ॥३८॥ किं सामिघायगो गुरु-विणासगो हीणचिट्ठिओ अहवा । पेसुन्नकरो न हि न हि, इमाण अन्नो अहम्मयरो ॥३९॥ पेसुन्नगदोसेणं, सुबंधुसचिवो विडंबणं पत्तो । तदडकरणेणं तदुवरि, चाणक्को पुण गतो सुगतिं ॥४०॥ तहाहि "सुबन्धुसचिवचाणक्ययोःदृष्टान्तः" पाडलिपुत्ते नयरे, मोरियकुलसंभयो अहेसि नियो । नामेण बिंदुसारो, तस्स सुमंती य चाणक्को ॥४१॥ जिणधम्मनिरयचित्तो, उप्पत्तियपमुहबुद्धिसंपन्नो । सासणपभावणडब्भु-ज्जओ य सो गमड़ दियहाई ॥४२॥ पुबुच्छाइयनिवनंद-मंतिणा एगया य तच्छिदं । पावित्ता नरवइणो, सुबंधुनामेण भणियमिणं ॥४३॥ देव! न जड़ वि हु तुब्भे, पसायसवियासचक्खुणा वि ममं । पेच्छह तहा वि तुभं, हियमेव म्हेहिं वत्तव्यं ॥४४॥ 1. सद्धिं पाठां०। 178 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६३४५-६३८२ सुबन्धुसचिवचाणक्योः दृष्टान्तः - परपरिवादस्वरूपम् तुभं जणणी चाणक्क-मंतिणा फालिऊण फुडमुयरं । पंचत्तं उवणीया, ता भे एत्तो वि को वेरी ॥४५॥ एवं सोच्चा कुविएण, राइणा पुच्छिया नियगधावी । तीए वि तहा कहियं, मूलाउ न कारणं सिटुं ॥४६॥ पत्थावे चाणक्को, समागओ भूवई वि तं दट्टुं । भालयलरइयभिउडी, झडित्ति विपरंमुहो जाओ ॥४७॥ अहह! कहं गयजीओ ति, परिभवं मह करेड़ एस नियो । परिभाविऊण एवं, चाणक्को नियगिहम्मि गओ ॥४८॥ दाऊण गेहसारं, पुत्तपोत्ताऽऽइसयणवग्गस्स । निउणमईए विभावइ, मह पयसंपत्तिवंछाए ॥४९॥ केण वि पिसुणेण इमो, मन्ने राया पकोविओ एवं । ता तह करेमि जह सो, दुक्खाऽभिहओ चिरं जियइ॥५०॥ ता पवरगंधबंधुर-जुत्तिपओगेण साहिया वासा । खित्ता समुग्गयम्मि, लिहियं भुज्जम्मि तह एयं ॥५१॥ जो एए वरवासे, जिंपिंता इंदियाण अणुकूले । विसए निसेवइस्सइ, सो वच्चिस्सइ जमघरम्मि ॥५२॥ वरवत्थाऽऽभरणविलेव-णाई तूलीउ दिव्वमल्लाइं । ण्हाणं सिंगारे वि हु, जो काही सो वि लहु मरिही ॥५३॥ इय वाससरुवपरूव-णापरं भुज्जयं पि वासंतो । पक्खिविऊण समुग्गो, ठविओ मंजूसमज्झम्मि |सा वि हु पवरोवरए, जडिउं पउराहिं किलियाहिं दढं । पम्मुक्को तालिता, तस्स क्वाडाई निबिडाई ॥५५॥ खामित्ता सयणजणं, जिणिंदधम्मे नियोजिऊणं च । रन्नेडणाउलठाणे, इंगिणीमरणं पवन्नो सो ॥५६॥ जाणियपरमत्थाए, अह धावीए नराऽहियो युत्तो । पिउणो वि हु अब्भहिओ, चाणक्को कीस परिभूओ ॥५४॥ | रन्ना भणियं जणणी-विणासगो एस तीए तो भणियं । जड़ तं न विणासंतो, एसो ता तुमऽवि नो हुँतो ॥५८॥ जम्हा तुह पिउविसभावियजन्न-कवलं गहाय भुंजती । पड़ गब्भठिए देवी, विसविहुरा मरणमडणुपत्ता ५९॥ तम्मरणं च पलोइय, चाणक्केणं महाऽणुभावेणं उयरं वियारिऊणं, छुरियाए तुमं विणिच्छूढो ॥६०॥ तह तुह नीहरियस्स वि, विसबिंदू जो सिरम्मि संलग्गो । मसिवन्नो तेण तुमं, निव! बुच्चसि बिंदुसारो ति ॥६१॥ एवं सोच्या राया, परम संतावमुवगओ संतो । सव्वविभूईए गतो, सहसा चाणक्पासम्मि ॥६२॥ दिट्ठो य सो महप्पा, करीसमज्झट्ठिओ विगयसंगो । सव्वाऽऽयरेण रन्ना, पणमित्ता खामिओ बहुसो ॥३॥ | भणिओ य एहि नगरं, रज्जं चिंतेहि तेण तो युत्तं । पडिवन्नाउणसणो हं, विमुक्कसंगो य वट्टामि ॥४॥ न य नाऊण वि सिटुं, सुबंधुदुव्विलसियं तया रन्नो । चाणक्केणं पेसुन्न-कडुविवागं मुणंतेण ॥६५॥ अह भालयलाउडरोविय-रेण राया सुबंधुणा भणिओ । अणुजाणह देव! मम, जह भत्तिमिमस्स परेमि ॥६६॥ अणुजाणिएण य तओ, सुबंधुणा खुद्दबुद्धिणा य धुवं । दहिऊण तदंडगारो, करीसमझम्मि पक्खित्तो ॥६॥ सट्ठाणगए य नराड-हिवाऽऽइलोगम्मि सुद्धलेसाए । वस॒तो चाणक्को, तेण कीसऽग्गिणा दड्ढो - ॥८॥ उववन्नो सुरलोए, भासुरबोंदी महिड्ढिओ देवो । सो पुण सुबंधुसचिवो, तम्मरणाऽऽणंदिओ संतो ॥६९॥ अवसरपत्थियपत्थिव-विदिन्नचाणक्कमंदिरम्मि गओ । पेच्छड़ गंधोवरयं, घट्टियनिविडुब्भडकवाडं ॥७०॥ इह सव्वमऽत्थसारं, लहिहं ति कवाडविहडणं काउं । निच्छूढा मंजूसा, ता जायडग्घाइया वासा ॥७१॥ दिटुं च भुज्जलिहियं, तस्सऽत्थो वि य वियाणिओ सम्मं । तो पच्चयत्थमेक्को, वासे अग्धाविओ पुरिसो ॥७२॥ | जाविओ य विसए, गओ य सो तक्खणेण पंचत्तं । एवं विसिट्ठवत्थूसु, सेसेसु वि पच्चओ विहिओ ॥७३॥ हा! तेण मएण वि मारि-ओ म्हि इइ परमदुखसंतत्तो । जीयडट्ठी स वरागो, सुमुणी इव ठाउमाउडरद्धो ॥७४॥ इयदोसं पेसुन्नं, तप्परिहारं च इयगुणं नाउं । तुममाऽऽराहणचित्तो, चित्ते वि हु मा तयं धरसु ॥५॥ | पन्नरसमिमं भणियं, पावट्ठाणं इयाणि वन्नेमि । परपरिवायऽभिहाणं, संवेणेव सोलसमं ॥७६॥ ___“परपरिवादस्वरूपम्" - लोयाण समक्खं चिय, परदोसविकत्थणं जमिह सो उ । परपरिवाओ मच्छर-अत्तुक्करिसेहिं संभवइ ॥७॥ जम्हा मच्छरगहिओ, न गणइ पणयं न चेव पडिवन्नं । न य कयमुवयारं पि य, न परिचयं नेय दक्खिन्नं ॥७८॥ न गणेइ य सुयणतं, न यऽप्पपरभूमिगाविसेसं पि । न कुलक्कम न धम्म-ट्ठियं च नवरं स निच्चं पि ॥७९॥ चलइ ववहरइ कह सो, किं चिंतइ भासड़ कुणइ किं वा । इय परछिद्दनिरिक्खण-वक्खित्तमणो मुणइ न सुहं॥८०॥ एवं कमेण एक्को वि, मच्छरो जायए परो हेऊ । परपरिवायविहीए, किं पुण अतुक्करिससहिओ ॥१॥ सुरगिरिगरुयं पि परं, परमाउणुं मुणइ अत्तउक्करिसी । अप्पाणं पुण तिणतुल्ल-मवि गुरुं अमरगिरिणो वि ॥८॥ 179 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६३८३-६४१६ परपरिवादस्वरूपम् - सुभद्रादृष्टान्तः एवं परपरिवायं, अकयं कह पोढकारणतणओ । धरिलं सक्को सक्को वि, नामरहिओ वि वेगेण ॥८३॥ जह जह परपरिवायं, करेइ तह तह लहुत्तणमुवेइ । जह जह तमुवेइ जणे, तह तह जायइ दढमपुज्जो ॥८४॥ जह जह परपरिवाओ, किज्जइ तह तह गुणा पणस्संति । जह जह ताण पणासो, तह तह दोसाणं संकमणं ॥८५॥ जह जह तस्संक्रमणं, तह तह ययणिज्जभायणं हवइ । एवमऽकल्लाणाणं, परपरिवाओ पढमठाणं ॥८६॥ पपरिवाएणं सं-घडंति दोसा अहंतया वि नरे । हुंता पुण बहुबहुतर-बहुतमघणनिबिडया होंति ॥८७॥ परपरिवायं मच्छर-अत्तुक्करिसेहिं जो नरो कुणइ । जम्मडतरेसु वि चिरं, सो भमइ निहीणजोणीसु ૮૮ गुणरयणहारणं दोस-कारणं जाणिऊण न करेंति । धन्ना परपरिवायं, परमगुरूहि वि जओ भणियं ॥८९॥ पपरिवायं गिण्हइ, अट्ठमयविरिल्लणे सया रमइ । डज्झइ य परसिरीए, सकसाओ दुखिओ निच्वं ॥१०॥ विग्गहविवायरुइणो, कुलगणसंघेण बाहिरक्यस्स । नत्थि किर देवलोए वि, देवसमिईसु अवगासो ॥११॥ जड़ ता जणसंववहार-वज्जियमऽज्जमाऽऽयरइ अन्नो । जो तं पुणो विकत्थइ, परस्स वसणेण सो दुहिओ ॥१२॥ | सुट्ठ वि उज्जममाणं, पंचेव करेंति रित्तयं समणं । अप्पथुई परनिंदा, जिब्भोवत्था कसाया य ॥१३॥ परपरिवायमई उ, दूसइ ययणेहिं जेहिं जेहिं परं । ते ते पावइ दोसे, परपरिवाई इय अपेच्छो ॥९४॥ परपरिवायपसत्तो, सत्तो दोसे परस्स जपतो । ते च्चिय भवंडतरगओ-डणंताणते सयं लहइ। ॥९५॥ एवं पपरिवाओ, किज्जतो प्रमदारुणविवाओ । वसणसयसन्निवाओ, समत्थगुणकरिसणकुवाओ ॥९६॥ सुहगिरिवज्जनिवाओ, न देइ गंतुं कहिं पि हु भवाओ। इह सव्वदुहसमवाओ, भयंतरे दोग्गइनिवाओ ॥९॥ परपरिवायपसत्तो, उवरि सुभद्दाए ससुरवग्गो व्य । अजसप्पवायपहओ, जणमज्झे पावए ख्रिसं ॥९८॥ परपरिवायपरम्मि वि, तम्मि सा पुण तयं अकुव्वंती । देवकयपाडिहेरा, कितिं पता महासत्ता ९९॥ तहाहि “सुभद्रादृष्टांतः” चंपाए नयरीए, 'तच्चण्णियभत्तवणियपुत्तेण । दिट्ठा कहम वि जिणदत्त-सड्ढधूया सुभद्द ति ॥६४००॥ उप्पन्नतिव्वरागेण, मग्गिया सा य तेण परिणेउं । जणगेण य नो दिन्ना, मिच्छद्दिट्ठि ति काऊण ॥१॥ तप्परिणयणनिमित्तं च, तेण कवडेण साहमुलम्मि । पडिवन्नो जिणधम्मो, भावेण य परिणओ पच्छा ॥२॥ निच्छउमधम्मनिरओ ति, निच्छिउं सावगेण वि सुभद्दा । दिन्ना ओ विवाहो, भणितो य विभिन्नगेहम्मि ॥३॥ धारेज्जसु मह धूयं, विसरिसधम्मम्मि ससुरगेहम्मि । कतो इमीए इहरा, होही नियधम्मवावारो કા पडिवन्नमिमं तेण यि, तहेव ठविया विभिन्नगेहम्मि । जिणपूयणमुणिदाणाऽऽइ-धम्ममऽणिसं च सा कुणइ ॥५॥ जिणधम्मपच्चणीय-तणेण तीए परं ससुरवग्गो । छिद्दाइं पेहमाणो, निंदं काउं समाढतो ॥६॥ तब्भत्ता वि पउट्ठ ति, तग्गिरं धरइ नेव चित्तम्मि । एवं बच्चड़ कालो, तेसिं सद्धम्मनिरयाणं अह एगम्मि दिणम्मि, निप्पडिकम्मो महामुणी एगो । भिक्खडट्ठाए पविट्ठो, ताण गिहे तो सुभद्दाए ॥८॥ भिक्खं देंतीए नयण-निवडियं कणुगमडग्गजीहाए । अवणीयं मुणिणो छेय-याए पीडाकरं नाउं ॥॥ नवरं तीसे तयडवणय-णेण भालयलविरइओ तिलओ । लग्गो मुणिणो भाले, नणंदपमुहाहिं दिट्ठो य ॥१०॥ चिरकाललद्धछिद्दाहिं, ताहिं तप्पिययमो ततो भणिओ । पेच्छसु नियमज्जाए, एवंविहसीलमडकलंकं ॥११॥ इन्हिं चिय एस मुणी, भोए भोत्तुं विसज्जिओ तीए । पत्तियसि जड़ न ता नियसु, समणभालम्मि तत्तिलयं ॥१२॥ तह चेव तं पलोइय, विलिओ अविभाविऊण परमत्थं । सिढिलियपुवप्पणओ, तदुवरि मंदाऽऽदरो जाओ ॥१३॥ पायडियं ससुरकुले, सव्वत्थ वि ताहिं तं च वयणिज्ज । अच्वंतपरंमुहपड़-पलोयणाओ जणाओ य ॥१४॥ सासणख्रिसासम्मिस्स-मडप्पणो सीलमलिणमालिन्नं । नाऊण सुभद्दाए, बाढं सोगं वहंतीए ॥१५॥ जिणपूयं काऊणं, भणियं जड़ को वि देवयविसेसो । सांणिझं मज्झ काही, ता एतो हं चलिस्सामि ॥१६॥ तो उस्सग्गेण ठिया, सुनिच्चला प्रमसत्तसंजुत्ता । तब्भावरंजिओ अह, सम्मद्दिट्ठी सुरो पत्तो ॥१७॥ भणियं च तेण भद्दे!, कहेहि जं भे रेमि करणिज्जं । उस्सग्गं पारिता, वुत्तं च इमं सुभद्दाए ૧૮ના हंहो! तह कुण जह सासणस्स, जायइ पभावणा धणियं । हणिऊण दुट्ठजणजणिय-वयणमालिन्नमऽचिरेण ॥१९॥ 1. तच्चणियभतः = बौद्धभक्तः । 180 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६४२०-६४५५ सुभद्रादृष्टान्तः - मायामृषावादस्वरूपम् - कुटक्षपकदृष्टान्तः एवं काहं ति पवज्जिऊण, देवेण सा इमं भणिया । कल्लम्मि तह पुरीए, दारकवाडाणि सव्याणि ॥२०॥ गाढाणि ठइस्से हं, उग्घाडेउं न को वि जह तरइ । गयणट्ठिओ भणिस्सं च, सुद्धसीला परं नारी ॥२१॥ |तिक्खतखितचालणि-निहित्तजलचलयताडियकवाडा । उग्घाडिस्सइ एयाई, न उण अन्ना ततोडणेगा। ॥२२॥ नारीओ अकयपओयणाओ, विरमंति जाय ताय तुमं । पुव्युत्तविहिसणाहा, उग्घाडेज्जासि लीलाए। ॥२३॥ एवं सिक्खविऊणं, झडत्ति सो सुरवरो तिरोभूओ । इयरी वि सिद्धज्ज त्ति, उवगया परमसंतोसं ૨૪ अह जायम्मि पभाए, अणुग्घडतेसु पुरीकवाडेसु । आदन्नो नगरिजणो, जाया गयणे य सा वाणी ॥२५॥ ताहे निवसेणावइ-सुकुलपसूयाओ सीलकलियाओ । दारुग्घाडणहेडं, नारीओ उवट्ठियाओ लहुं ॥२६॥ नवरमऽठायंते चालणीए, सलिलम्मि विगयगव्याओ । अयप्पओयणाओ, विणियत्तंतीओ दठूण રળી अच्वंतं आदन्नो, सव्यो लोगो पुणो वि नयरीए । सव्वत्थ वि सविसेसं, सीलवईमग्गणा विहिया ૨૦ળા | एत्थंडतरे सुभद्दा, सासुयपमुहाण सविणयं पणया । भणइ अहं पि हु नयरी-दुवारमुग्धाडिउं जा ॥२९॥ जइ अणुजाणह तुब्भे, निहुयं हसियं परोप्परं ताहिं । तो भणियं साऽसूर्य, तुममेव महासई पुत्ति! ॥३०॥ सुपसिद्धा सुमिणम्मि वि, अजायमलिणा य ता लहुं वच्च । अप्पाणमडप्पण च्चिय, विगोवसु एत्थ किमजुत्तं॥३१॥ | एवं च ताहिं भणिया, विहियण्हाणा नियत्थसियवसणा । चालणिनिहित्तसलिला, लोगेणं अग्घविज्जती ॥३२॥ कित्तिज्जती बंदिण-जणेण सा तिन्नि नयरिदाराई । उग्घाडिऊण जंपड़, चउत्थगं दारमिममिन्हेिं ॥३३॥ सीलेण मह सरिच्छा, जा उग्घाडेज्ज सा परं नारी । इय तीए तं विमुक्कं, ताहे रायाऽऽइलोगेण ॥३४॥ सा पूइया समाणी, गेहम्मि गया तओ ससुरवग्गो । लोगेण खिसिओ बहु, असच्चपरिवायकारि ति ॥३५॥ इय नाऊणं तुममवि, खमग! वराऽऽराहणेक्कतल्लिच्छो । मा मणसा वि हु काहिसि, पपरिवायं बहुअवाय॥३६॥ सोलसमपावठाणग-मुवदंसियमिय समासओ इण्हिं । मायामोसऽभिहाणं, सतरसमं पि हु पवक्खामि ॥३७॥ "मायामृषावादस्वरूपम्" - मायाए कुडिलयाए, संवलियं मोसमडलियमिह वयणं । मायामोसं भन्नइ, अच्वंतकिलिट्ठयापभयं | एयं च बीय-अट्ठम-पावट्ठाणेसु जइवि उवइटुं । पत्तेयदोसवन्नण-दारेण तहावि दोहिं पि . રેશા सविसेसपरपयारण-पहाणनेवत्थछेयभणिईहिं । जेण पयट्टइ पावे, तेण पुढो भण्णइ इमं च ॥४०॥ मुद्धजणमणकुरंगाण, वागुरा सीलवंसियालीए । फलसंभवो य पच्छिम-गिरिगमणं नाणसूरस्स ॥४१॥ | मेत्तीए नासगं विणय-भंसगं कारणं अकित्तीए । जं ता दुग्गइविमुहो, समायरेज्जा न कहवि बुहो ॥४२॥ अवि यहम्मउ गिरी सिरेणं, चाविज्जउ तिकवनग्गधारडग्गं । पिज्जउ जलियऽग्गिसिहा, छिज्जउ अप्पा करकरणं॥४३॥ नियडिज्जउ जलहिजले, पविसिज्जउ जममुहम्मि किं बहणा । एक्कं चिय मा किज्जउ, मायामोसं निमेसं पि॥४४॥ सिरगिरिहणणाऽऽईणि हि, कया वि साहसधणाण धीराण । अवगारीणि न होति वि, अदिट्ठसाणिज्झसामत्था॥४५॥ | अह अवगारीणि वि होंति, तह वि एक्कम्मि चेव जम्मम्मि । मायामोसविही पुण, अणंतभवदारुणविवागो ॥४६॥ जह अंबिलेण दुद्धं, सुरालवेण जह पंचगव्यं वा । जाइ विहलं समाया-मोसं तह धम्मकरणं पि ॥४७॥ तवउ तवं पढउ सुयं, धरउ वयं तह चिरं चउ चरणं । जड़ ता मायामोसी, गुणाय न तयं तह वि होही॥४८॥ मायामोसी अइधम्मिओ य, एवं विरुद्धनामदुर्ग । एक्कम्मि चेव पुरिसे, मुद्धाण वि धुवमऽसद्धेयं ॥४९॥ को नाम किर सकन्नो, करेज्ज ता अप्पणो हियगयेसी । मायामोसं पोसं, भवस्स सुब्बतबहुदोसं अह दोग्गइगमणमणो, ताव य सेसाणि पावठाणाणि । मायामोसं एक्कं पि, चेव तन्नयणविहिपडुयं ॥५१॥ जइ ता मायामोसं, एगंतेणं न होज्ज बहुदोसं । ता न कहिंसु सुघोसं, चिरमुणिणो एवमऽपओसं ॥५२॥ जो वि य पाडेऊणं, मायामोसेहिं खाइ मुद्धजणं । तिग्गाममज्झवासी, सोयइ सो कूडखवगो व्व ॥५३॥ तहाहि "कुटक्षपकदृष्टान्तः" - | उज्जेणीनयरीए, अच्वंतं कूडकवडपडिबद्धो । नामेण अघोरसियो, अहेसि विप्पो महाखुद्दो ॥५४॥ माइंदजालिओ इव, वस॒तो लोययंचणम्मि य सो । निद्धाडिओ जणेणं, पुरीओ देसंडतरम्मि गओ ॥५५॥ (भव 181 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६४५६-६४६१ कुटक्षपकदृष्टान्तः - मिथ्यादर्शनशल्यस्वरूपम् तत्थ वि विडाण मिलिओ, भणइ य तो संकिलिट्ठपरिणामो । जड़ संवाहेह मम, तुब्भे ता हं मुणी होउं ॥५६॥ सब्भावविहयछिद्दाणि, जाणिउं निच्छएण लोगाण । साहेमि तुम्ह तत्तो, सुहेण तुब्भे वि ते मुसह ॥५॥ पडियन्नं सव्वमिम, विडेहिं सो वि हु तिदंडिणो येसं । घेत्तूण गामतिगमज्झ-उववणम्मि ठिओ गंतुं ॥५८॥ तेहि य कओ पवाओ, एसो नाणी महातपस्सी य । मासाओ मासाओ, आहारं गिण्हइ महप्पा ॥५९॥ तं च बहुवसणखिन्नं, सभावओ च्चिय किसं पलोइता । लोगो महातवस्सि ति, पूयए परमभत्तीए निययगिहेसु निमंतइ, सब्भावं कहइ पुच्छड़ निमित्तं । दंसेड़ विभववित्थर-मडणुदियहं कुणइ से सेवं ॥१॥ सो पुण बगचेट्ठाए, लोगाउणुग्गहपरं निदंसेइ । अत्ताणं चोराण य, तच्छिद्दाइं परिकहेइ aોદરા रयणीए चोराणं, मिलिओ गेहाणि मुसइ य अणज्जो । कालंडतरेण य जणो, न स को वि न जो तहिं मुट्ठो॥६३॥ एगम्मि य पत्थावे, तेहिं खत्तं खणेउमाऽऽरद्धं । एगम्मि घरे घरना-यगेण नायं च तो तेण ॥४॥ खत्तमुहम्मि ठवेऊण, पासियं विसहरो व्य पविसंतो । गहिओ एगो चोरो, सेसा सब्वे वि य पलाणा ॥६५॥ जाए पभायसमए. चोरो भमिवइम्स उवणीओ । तेणं भणियं मंचह, एयं जड़ कहइ सब्भावं ॥६६॥ मुक्को तहडवि न साहइ, पच्छा कसदंडलेठुमुट्ठीहिं । हम्मतेण तेणं, कहिओ सव्यो वि वुत्तंतो बंधेऊण य सिग्धं, सो वि तिदंडी तओ समाणीओ । ता पहओ जा तेण वि, पडियन्नं निययदुच्चरियं ॥६८॥ पच्छा सोत्तियपुत्तो ति, चक्खुजुयलं समुक्खयं तस्स । निभच्छिऊण हत्थं, पुराउ निव्वासिओ तत्तो ॥९॥ भिक्खं परिभमंतो, बिसिज्जंतो जणेण य दुहट्टो । हा! कीस मए एयं, कयं ति सोएइ अप्पाणं ॥७०॥ एवमडविणयपहाणं, मायामोसमडसमंजसनिहाणं । मोत्तुं पमपहाणं, सुंदर! कुण मणसमाहाणं ॥७१॥ सत्तरसमपावठाणं, निदंसियं संपयं च दंसेमि । अट्ठारसमं मिच्छा-दंसणसल्लाऽभिहाणं पि ॥७२॥ ___"मिथ्यादर्शनशल्यस्वपम्" - मिच्छा विवरीयं दंस-णं ति दिट्ठीविवज्जयसरूयं । ससहरदुगदरिसणमिव, जं मिच्छादसणं तमिह ॥७३॥ एयं च दुरुद्धरणतणेण, दाइत्तणेण य दुहाणं । सल्लं व तेण मिच्छा-दंसणसल्लं ववइसंति ॥७४॥ नवरं सल्लं दुविहं, नायव्यं दव्यभायभेएहिं । दव्चम्मि तोमराऽऽइ, अह मिच्छादंसणं भावे ॥७५॥ मिच्छादसणसल्लं, सल्लं व पइट्ठियं हिययमज्झे । सव्वेसि पि अवायाण, कारणं दारुणविवागं ॥७६॥ पढममऽवायनिमित्तं पि, नूणमेक्कस्स चेव विन्नेयं । भावे जं पुण सल्लं, तं उभयस्साऽवि दुहहेउं ॥७७॥ जह राहुपहापडलं, हणइ पयासं न केवलं रविणो । तामिस्सयाए पहणइ, नुण पयासं जयस्साऽवि ॥७८॥ एवं खु भावसल्लं पि, विलसमाणं न चेव एक्कस्स । हणइ पयासं किं पुण, हणइ पयासं जगस्साऽवि ॥७९॥ जह राहुपहापडलं, किर मिच्छादसणं तहा नेयं । जह य रवी तह पुरिसो, पयासतुल्लं च सम्मत्तं ॥८॥ एवं च ठिए मिच्छा-दंसणराहुप्पहाकडप्पेणं । हयसम्मतपयासो, तहाविहो को वि पुरिस्रवी ॥८१॥ भावतमनियकारण-मिच्छादसणविमोहिओ संतो । तं चेव परे तह अप्प-यम्मि वद्धारइ मूढो ॥८२॥ तेण य परंपरापसर-माणमाणाऽइरित्तएण दढं । गुविलगिरिकंदरे इव, विगयाउडलोयम्मि लोयम्मि ॥८३॥ भववासुब्बिग्गाण वि, सम्म पेच्छिउमणाण वि पयत्थे । कह सम्मतपयासो, सुहेण संपज्जड़ जियाण ॥८४॥ किंचएयं सो दिसिमोहो, एयं सो अच्छिपट्टबंधो उ । तमिमं जच्चंऽधत्तं, नेत्तुद्धारो स एयं ति ॥८५॥ आसुपरिभमणभममाण-भुवणपडिहासमाणमऽहव इमं । हिमवंतगमणमिममडहव-सायरं गंतुकामस्स ૮દ્દા केसुंडुगनाणमिमं, अहया मइविब्भमो स एसो ति । सुत्तीए रययविसयं, विन्नाणं या उज्जलजलविसओ वा, एस स मायण्हियासु पडिहासो । तं च इमं जं सुब्बइ, जणम्मि विवरीयधाउत्तं ॥८८॥ तमऽकंडविड्डरमिम, तह तमिमं पंसुवुट्ठिउव्यहणं । घोरंऽधकूचकुहरम्मि, निवडणं नणु तमेयं ति जमिम मिच्छादसण-सल्लं सम्मत्तखलणपडिमल्लं । [वासा] सम्मग्गम्मि महल्लं, पयट्टमाणस्स चिक्खल्लं ॥१०॥ अन्नं चजमऽदेवो वि हु देवो, अगुरू वि गुरु अततमऽवि तत्तं । जमऽधम्मो वि हु धम्म-तेणेण मन्निज्जड़ जिएहिं ॥९१॥ 182 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६४६२-६५२७ मिथ्यादर्शनशल्यस्वरूपम् - जमालिदृष्टान्तः जं पि जहुत्तगुणम्मि वि, देवम्मि गुरुम्मि तत्तवग्गे य । धम्म य परमपयसा-हगम्मि अरई पओसो वा ॥१२॥ जमुदासीणतं पि हु, परमपयत्थेसु देवपमुहेसु । मिच्छादसणसल्लस्स, तमिह दुव्विलसियं सव्यं ॥९३॥ तहाअविवेयमूलबीयं, अणुवहयं सव्वहा इमं जम्हा । मिच्छत्ता होइ नरो, मूढमणो जड़ वि बुद्धिधणो ॥१४॥ मयतन्हियाउ उदयं, मग्गंति मिगा जहा गरुयतिन्हा । सब्भूयमजसब्भूयं, तहेव मिच्छत्तमूढमणा ॥९५॥ पेच्छइ असंतमत्थं, भक्खियथत्तूरओ जहा पुरिसो । मिच्छत्तमोहियमणो, तह धम्माऽहम्मविसयं पि ॥६॥ मिच्छत्तभावणाए, अणाऽऽइकालेण मोहिओ जीयो । लद्धे वि खओयसमा, सम्मत्ते दुक्करं रमइ ॥९॥ न वि तं करेइ अग्गी, नेव विसं नेय किन्हसप्पो य । जं कुणइ महादोसं, तिव्यं जीवस्स मिच्छत्तं ॥८॥ कडुयम्मि अनिव्यलियम्मि, दोद्धीए जह विणस्सए खीरं । तह मिच्छत्तकलुसिए, जीवे तवनाणचरणाणि ॥९॥ संसारमहातरुणो, मिच्छत्तमऽतुच्छबीयमेयं ति । तम्हा तं मोत्तव्यं, सिवसोक्खं कंखमाणेहिं ॥६५००॥ मिच्छत्तमोहियमणा, मुणंति जीया न अतत्ततत्तं पि । कुसमयसवणसमुभव-कुवासणावासिया, संता न हु मिच्छत्तंडथत्तण-संछन्नवियेयचक्खुणो जीया । सद्धम्मदेसगरविं, पेच्छंति वि तामसखग व्य ॥२॥ जड़ एयं चिय एक्कं, रेसु मिच्छत्तसल्लमडल्लीणं । ता सयलदुहाण कए, तं चिय होही किमडन्नेण ॥३॥ | मिच्छत्तसल्लविद्धा, तिव्याउ वेयणाउ पावेति । विसलित्तकंडविद्धा, जह पुरिसा निप्पडीयारा ता पयडिय दच्छतं, हत्थं उच्छादिऊण मिच्छत्तं । सुंदर! कुणसु ममत्तं, पडुच्च निच्वं पि सम्मत्तं ॥५॥ मिच्छादसणसल्लं, यत्थुविवज्जासबोहजणगमिणं । सद्धम्मदूसगं का-रगं च भवगहणभमणस्स ॥६॥ ताय च्चिय मणभवणे, सम्मत्तपईवओ पहं देइ । जाव न मिच्छादसण-पयंडपवणो पणोल्लेइ ॥७॥ पत्तं पि पुन्नपब्भार-लब्भसम्मत्तरयणमुत्तरइ । मिच्छाऽभिमाणमइरा-मत्तस्स जहा जमालिस्स तथाहि "जमालिदृष्टान्तः” जयगुरुणो वीरजिणेसरस्स, पासम्मि गहियपव्यज्जो । पंचसयरायपुत्तेहिं, परिगओ चत्तरज्जसुहो भयवंतभइणिपुत्तो, जमालिनामो सुधम्मसद्धाए । संवेगसारमणगा-रियाए किरियाए वटुंतो ॥१०॥ एगम्मि अवसरे पबल-पित्तजरविहुरयाए पडिभग्गो । सयणत्थं णियथेरे, संथारं संथरावेड़ ॥११॥ अह वयणाऽणंतरतूर-माणमुणिदीयमाणसंथारे । कालविलम्ब थेयं पि, असहमाणेण तेण पुणो . ॥१२॥ संथरिओ किं व न व ति, पुच्छिया साहुणो तओ तेहिं । थेवमसंथरिए यि हु, “संथरिओ' इइ पयुत्तम्मि॥१३॥ तं देसमागओ संथ-रिज्जमाणं पलोइडं तं च । सहस त्ति जमाली जाय-विब्भमो भणिउमाऽऽढत्तो ॥१४॥ मुणिणो! कीस असच्चं, जंपह जं संथरिज्जमाणम्मि । संथरियं संथारं ति, वयह थेरेहिं तो भणियं ॥१५॥ जह कज्जमाणयं कड-माऽऽह पहू भुवणदिणयरो वीरो । तह संथरिज्जमाणो, संथरिओ एस किमऽजुत्तं ॥१६॥ एवं पि तेहिं भणिओ. मिच्छाऽभिनिवेसनिहयसम्मत्तो । कडमेव कडं ति कपक्ख-तरलिओ सो चिरं कालं ॥१७॥ विप्पडिवन्नो, तइलोक्क-बंधुणो विहियंदुक्करतयो वि । विहरित्था वसुहाए, बुग्गाहिंतो जणं मुद्धं ॥१८॥ किंचनियहिया नियहत्थेण, दिक्खिया सइ सयं च सिक्वविया । पियदंसणा वि अज्जा, जमालिपक्खं अणुसरंती॥१९॥ विप्पडिवन्ना मिच्छत्त-दोसओ अहह! सा वि जयगुरुणो । पच्चक्खभुवणभक्खर-भूयस्स वि यद्धमाणस्स ॥२०॥ कयमिन्हेिं पसंगेणं, विहलीकयसंजमो अह जमाली । मरिउं लंतयकप्पे, किब्बिसियसुरो समुप्पण्णो ॥२१॥ ते चरणगुणा सो नाण-पयरिसो तं च तस्स सच्चरियं । एक्कपए च्चिय णटुं, धिरडत्थु मिच्छाऽभिमाणस्स ॥२२॥ दे! पेच्छ पेच्छ मिच्छत-पडलपच्छाइयाण जंतूण । वत्थु पि अवत्थुत्तेण, तक्खणे चेय परिणमइ ॥२३॥ सम्मत्ताऽऽइगुणसिरी, सा तस्स तहाविहा जइ न हुंता । मिच्छत्ततमंऽतरिया, न याणिमो ता किमऽवि हुंतं ॥२४॥ इय मुणिय विवेयाऽमय-पाणपयोगेण मणसरीरगयं । मिच्छत्तगरलमेयं, वमसु तुमं सव्वहा वच्छ! ॥२५॥ मिच्छत्तगरलमुक्को, ववगयनिस्सेसतच्चियारो य । सुत्थीभूओ सम्म, पत्थुयमाऽऽराहणं लहसु ॥२६॥ एवं मिच्छादंसण-सल्लमिमं कहियमेयकहणाओ । कहियाणि असेसाणि वि, अट्ठारस पावठाणाणि ॥२७॥ ॥९॥ 183 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६५२८-६५६१ मदनामकद्वितीयद्वारम् – जातिमदेविप्रपुत्र दृष्टान्तः एक्केक्कमऽवि इमेसिं, पावट्ठाणाण इय 'वियागकरं । जो उ विवागो तेसिं, समयाए तत्थ किं भणिमो ॥ २८ ॥ अवि य ॥३०॥ इहलोयसुहपसत्ता, सत्ता सत्ताण हिंसभावेण । फरुसाऽऽइअलियवयणेणS - ण्णदव्वहरणेण य परेसिं ॥२९॥ विसयव्यासंगेणं, नरसुरतिरिजुवइगोयरेण दढं । निच्चविचित्ताऽपरिमिय- परिग्गहाऽऽरंभकरणेण कोहेण कयविरोहेण, तह य माणेण दुहविहाणेण । मायाए फुडअवायाए, निहयसोहेण लोहेण पेज्जेण सुमुणिजणवज्जिएण, दोसेण कुगइपोसेण । कलहेण पणयरिउणा, अब्भक्खाणेण य खलेण अरइरईहिं कयभवगईहिं, अवजसमहापवाहेणं । परपरिवाएणं नीय- लोयकयहिययतोसेणं मायामोसेणं तह, अच्वंतं संकिलेसपभवेणं । मिच्छादंसणसल्लेण, सुद्धपहसुहडमल्लेण मणसा वयसा वउसा, मूढमणा अप्पणी सुहनिमित्तं । अकयपरलोयचिंता, समज्जिउं पबलपायभरं | चुलसीइजोणिलक्खाSS - उलम्मि भवसायरे अणाऽऽइम्मि | पुणरुतजम्ममरणे, अणुभवमाणा चिरमऽडंति एयाणि य जो मूढो, उदीरए अप्पणो परस्साऽवि । सो तन्निमित्तबद्धेण, लिप्पए पावकम्मेण ता भो देवाणुप्पिय!, पयत्तजुत्तो इमं वियाणेता । लहु तेहिंतो विरमिय, तप्पडिवक्खे समुज्जमसु भणियमऽणुसट्ठिदारे, अट्ठारसपावठाणदारमिणं । एतो बीयं भन्नइ, अट्ठमयट्ठाणपडिदारं “मदनामकद्वितियद्वारम्" ॥३१॥ ॥३२॥ mn ॥३४॥ ॥३५॥ ॥ ३६ ॥ રૂા mn ॥३९॥ ॥૪॥ ॥४१॥ | अट्ठारसपावट्ठाण - विरयचित्तं पलक्खिऊण गुरू । सविसेसगुणाऽऽवज्जण - करण खवगं इमं भणड़ धन्नो तुमं गुणायर !, गुरुयाऽऽराहणधुराधरणधवल ! । एत्थ ठिओ सव्वे वि हु, मणोवियारे निरंभित्ता जाइमयं कुलमयं', रूवमयं बलमयं सुयमयं च । तयमय 'मह लाभमयं इस्सरियमयं च अट्ठमयं ॥ ४२ ॥ परिहर परिहरणीयं, धम्मऽत्थीणं सया अकरणीयं । नीयजणाऽऽयरणीयं, गुणधणलुंटणपराऽणीयं जिणवयणभावियमई, तत्थ तुमं ताव तिव्यतावकरं । मा काहिसि जाइमयं, पढमं पढमं अणत्थपयं जं एस कीरमाणो, माणधणाणं पि माणमालिण्णं । कालेण कुणइ णियमा, पावित्तु तहाविहाऽवत्थं किं च ૫૪૫ ॥४४॥ ॥४५॥ ૫૪૬૫ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ अड्डवियड्डुं हिंडिय, निहीणजांणीसु कहवि संपत्ते । एक्कसि उच्चागोए बुहाण किर को मयाऽवसरो कीरेज्ज व जाइमओ, अवट्ठिओ जड़ स होज्ज जाइगुणो । इहरा पुण पवणुप्फुन्न - बत्थिपाएण किं तेण ॥४७॥ कम्मवसा जाईओ, उत्तममज्झिमजहन्नियाउ भवे । दठ्ठे सुदिट्ठपरमत्थ-ओ वि को तम्मयं कुज्जा | इंदियनिव्यत्तणपुव्य - गाओ पायेंति पाणिणो बहुहा । जाईउ संसारे, अवट्ठियत्तं न ताण ततो राया वि बंभणो इह, होउं जड़ ता भवंतरे सो वि । कम्मवसा सोवागो, जायड़ ता तम्मएणाऽलं सव्युत्तमजाइस्स वि, कल्लाणनिबंधणं गुणा चेव । जाइरहिओ वि गुणवं, पूइज्जइ जेण जणमज्झे वेयाण पाढगो बंभ - सुत्तधारि ति लोयगउरविओ । भूदेवो हं सव्यु- तिमो त्ति जाइम ओम्मत्तो जड़ बंभणो वि सुद्दाऽहमाण, गेहेसु होज्ज कम्मकरो । ता जुत्तं काउं से, सरणं मरणं न जाइमओ कुणमाणो जाइमयं, बंधइ जाईए चेव नीयत्तं । सावत्थीवत्थव्यो, विप्पसुओ एत्थ दिट्टंतो तहाहि“जातिमदेविप्रपुत्रदृष्टान्तः” ॥५१॥ ॥५-२॥ ॥५३॥ ॥५४॥ ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ | सुरभवणवाविदीहिय- पोक्खरणिकाणणोलिरम्माए । सावत्थीए पुरीए, बहुपत्थियपणयपयपउमो आसी नरेंदसीहो, नामेण महीवई जयपसिद्धो । वेयऽत्थवियारविऊ, पुरोहिओ अमरदत्तो से पुत्तो य तस्स सुलसो, तारुण्णेणं सुएण विभवेण । नरवइसक्कारेण य, सो परमं गव्यमुव्वहड़ | समवयवयस्सजणपरि-गओ य तियचच्चराऽऽइसु पुरीए । सच्छंदं विहरड़ वार - णो व्व अवगणियजणसंको ॥५८॥ एगम्मि य पत्थावे, सुहाऽऽसणत्थस्स तस्स उवणीया । सहयारमंजरी मालि-एण रणझणिरभमरउला तो वम्महलिहियसहत्थ - पत्तलं पिव पलोइऊणं तं । पत्तो वसंतमासो त्ति, जायहरिसो सहत्थेण वियरेऊण य से पारि-ओसियं छेयपरियणाऽणुगओ । नंदणवणाऽभिहाणे, उज्जाणे सो गओ झति ॥५९॥ 1. विवाहकरो पाटां० । ॥६०॥ ॥६९॥ 184 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६५६२-६५६६ जातिमदेविप्रपुत्र दृष्टान्तः ॥६२॥ દા ॥६५॥ ॥६६॥ तो कयअब्भुट्ठाणेण, नंदणुज्जाणपालगेण सयं । भणिओ कुमार ! चक्खुं, खिवसु खणं इहपएसम्मि पसरंतबहलपरिमल-मिलंत अलियलयकलियसाहऽग्गा । रुद्दक्खमालहत्था, बउला जोगि व्य रेहंति कंकेल्लिणो वि उम्मिल्ल - पल्लबुल्लिहियनहयलाऽऽभोगा । पज्जलियजलणपुंज व्य, दिंति विरहीण संतायं ॥ ६४ ॥ | कमलमुही किंसुयकुसुम - अंसुया मल्लियामउलदसणा । पाडलनयणा कोरइय-कुरवयत्थवयथोरथणी फुरियसुसिणिद्धतिलया, वणलच्छी तारपरहुयरवेण । 1उग्गायइ व्य वम्मह - महिवड़णो तिजयविजयजसं | इय नंदणवणवालय - पिसुणियतरुसोहदुगुणिउच्छाहो । सो उज्जाणस्सऽब्भं - तरम्मि परिभमिउमाऽऽरद्धो | परिभममाणेण य तेण, कहवि एगत्थ वणनिउंजम्मि । वट्टंतो सज्झाए, एगो दिट्ठो मुणियरिट्ठो तो पाविट्ठत्तणओ, जाइमयं परममुव्वहन्तेण । परिहासं काउमणेणं, वंदिओ भत्तिसारं च भणितो य भदंत ! ममं भवभयभीरुस्स कहसु नियधम्मं । तुज्झ पयपउममूले, जा पडिवज्जामि पव्वज्जं ॥७०॥ उज्जुयभावत्तणओ, भणिओ मुणिणा वि जीवदयामूलो । अलियपरदव्यमेहुण - परिग्गहच्चायपडिबद्धो ॥७१॥ | पिंडविसुद्धिप्पमुह - प्यहाणगुणनिवहबंधुरो सम्मं । सिवगइपज्जवसाणो, जयगुरुजिणदेसियो धम्मो ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ ॥७२॥ ॥७५॥ ॥७७॥ ॥७८॥ अह तं सोऊणं सो, सहासमुल्लविउमेवमाऽऽरद्धो । हे समण ! केण एवं वेलविओ तं सि धुत्तेण | पच्चक्खदिस्समाणं पि, जेण मोत्तूण दिव्यविसयसुहं । परमऽप्पाणं च किलेस - कप्पणाए निवाडेसि जीवदयाइविहीए, धम्मो तस्स प्फलं च मोक्खो ति । दद्रूण केण सिद्धं, कटुं जं एवमाऽऽयरसि ता एहि मए सद्धिं, वणलच्छिं पेच्छ मुंच पासंडं । विलससु पासायगओ, समं मयच्छीहि य जहिच्छं ॥ ७६ ॥ इय असमंजसभासिय- हासियनियपरियणेण तेण मुणी । घेतूण करे तत्तो, गिहहुत्तं नेउमाऽऽरद्धो एत्थंतरम्मि वणदेवयाए, मुणिहसणजायकोवाए । कट्टं व नट्ठचेट्ठो, निवाडिओ सो महीवट्टे साहू वि मणागं पि हु, अपउस्सन्तो ठिओ सकिच्चम्मि । सुलसो वि तहाऽवत्थो, गेहे नीओ वयस्सेहिं ॥७९॥ सिट्ठो तव्युत्तंतो, कया य तप्पसमणऽट्ठया पिउणा । देवयपूयापमुहा, विविहोवाया दुहट्टेण ॥८०॥ न मणागं पि हु जाओ, तदुवसमो तो मुणिस्स सो पासे । नेऊणं पम्मुक्को, जाओ पउणो मणागं च ॥८१॥ भणितो य मुणी पिउणा, भयवं! तुह हीलणाफलं एयं । ता कुणसु पसायं अव-हरेसु दोसं सुयस्स ममं ॥ ८२ ॥ एमाऽऽड़ जा पयंपड़, पुरोहिओ देवयाए ता युतं । किं रे मिलेच्छसच्छह!, सच्छंदं बहु समुल्लयसि ॥८३॥ जड़ दुट्ठसुओ एसो, मुणिणो दासो व्व वट्टइ सया वि । ता पउणतं पाउणइ इयरहा नऽत्थि जीयं पि ॥ ८४ ॥ तो जहतह जीवंतं, पेहिस्समऽहं ति चिंतयंतेण । पिउणा समप्पिओ सो, मुणिस्स तेणाऽवि भणियमिणं ॥८५॥ अस्संजए गिहत्थे, कुव्यन्ति परिग्गहम्मि नो समणा । पडिवज्जइ जड़ दिक्खं, ता ठाउ इमो मह समीवे ॥८६॥ एवं भणिए मुणिणा, पुरोहिएणं पयंपिओ पुत्तो । वच्छ ! न जइ वि हु जुत्तं, तुहहुत्तं एवमुल्लविजं દળો तहवि हु परो उवाओ, न विज्जए तुज्झ जीवियव्यम्मि । ता एयस्स समीये, जइस्स गिण्हाहि पव्वज्जं ॥८८॥ न य वच्छ! अकल्लाणं, होही तुह धम्ममाऽऽयरंतस्स । मणवंछियसंपाडण - पडुओ धम्मो परं जेण ॥८९॥ | अह निरुवममरणभयु - भवन्तसन्तावदीणवयणेण । सुलसेण अकामेण वि, वयणं जणगस्स पडिवन्नं ॥९०॥ |पब्वाविओ य मुणिणा, कायव्यविही य दंसिओ सव्यो । जाणाविओ य समयऽत्थ - वित्थरं उचियसमयम्मि ॥ ९१ ॥ मच्चुभयगहियदिक्खो, विचित्तपरिवत्तमाणसुत्तप्रत्थो । जाओ जिणिदधम्मम्मि सो थिरो विणयनिरओ य ॥९२॥ नवरं नो जाइमयं, मुयइ मुणंतो तस्स फलमऽसुहं । तमडणाऽऽलोइतु मओ, जाओ देवो य सोहम्मे ॥ ९३ ॥ आउक्खयम्मि तत्तो, चविऊणं नंदीवद्वणपुरम्मि । जाईमयदोसेणं, मायंगसुओ समुप्पन्नो ईसिचिरसुकयवसओ, रूवी सोहग्गवं च संयुत्तो । जणमणनयणाऽऽणंद, कमेण पत्तो य तरुणत्तं दट्ठूण य विलसंते, नायरए सो विचिंतए एवं । सिट्ठजणनिंदणिज्जं, धिद्धी! हु जीवियं मज्झ तारुन्नसिरी जस्सेरिसी वि, मायंगसंगगयसोहा । रन्ननलिणि व्य निव्वुइ-मुवजणयइ नो विसिट्ठाणं हयविहि! विहिओ जम्मो, कुलम्मि जड़ निंदियम्मि मह तुमए । रूवाऽऽइणो गुणा किं, विहल च्चिय ता समुवणीया॥९८॥ अहवा किमडणेणाऽण-त्थएण परिदेविएण वच्चामि । देसम्मि तम्मि जम्मि, जाई नो मुणइ मज्झ जणो ॥९९॥ ॥९४॥ ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९७॥ 1. उग्गायणि पाठां० । 185 ॥७३॥ ॥७४॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६६००-६६३६ कुलमदेमरिचिदृष्टान्तः ॥६६००॥ ॥१॥ રો un ॥४॥ En एवं परिभाविता, अकहित्ता निययसुयणमित्ताण | केणाऽवि अनज्जंतो अवकंतो सो सनयरीओ पत्तो य दूरतरदेस - संठिए कुंडिणम्मि नयरम्मि । ओलग्गिउं पयत्तो, तहिं च रण्णो दियाऽमच्चं जाओ य नियगुणेर्हि, पसायठाणं परं अमच्चस्स । निस्संकं विसयसुहं, भुंजड़ पंचप्पयारं पि एगम्मि य पत्थाये, सावत्थीउ वयंसया तस्स । अच्चंतगीयकुसला, भममाणा तत्थ संपत्ता गायंतेहिं तेहि य, अमच्चपुरओ पलोइओ एसो । तो हरिसुक्करिसवसा, अविभावियभाविदोसेहिं भणिओ वयंस! इहइं, उवेहि चिरदंसणोचियं जेण । आलिंगणाऽऽइ कुणिमो, पियाऽऽइवत्तं च साहेमो ॥५॥ अह सो ते दट्ठूणं, ययणं पच्छाइउं अयक्कंतो । तो विम्हिएण पुट्ठा, ते वृत्तंतं अमच्चेणं मुद्धत्तणेण सिट्ठो, जहट्ठिओ तेहि तो अमच्येण । कुविएणं आणतो, वज्झो सूलापओगेण तो रासहम्मि आरोविऊण, पुरिसेहिं नयरिमज्झम्मि । सनिकारं हिंडाविय, नीओ सूलापएसम्मि एत्थंतरम्मि अंजण- सिद्धेण अदिस्समाणरूयेण । जोगेसरनामेणं, उप्पन्नाऽपुव्यकरुणेण कह यच्चिही वराओ, अपत्तकाले वि एस पंचतं । थोययओ इन्हिं चिय, एवं परिभावयंतेणं अंजणसलाइयाए, झडति से अंजियाई नयणाई । भणिओ य यच्च एत्तो, अबीहमाणो जमाओ वि तो सो तओ पलाणो, अंजणसिद्धं नमित्तु विणएण । मरिऊण य उववन्नो, कइ वि भवे हीणजोणीसु ॥१२॥ तो पाविय माणुस्सं, केवलिकहणाउ मुणियपुव्यभयो । घेत्तूणं पव्वज्जं, महिंदकप्पे सुरो जाओ ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१५॥ Kn | इय जाइमयसमुब्भव - दोसं दट्ठे अणिट्ठफलजणगं । मा काहिसि जाइमयं, तुमं मणागं पि हे खमग ! ॥१४॥ एवं पढमं वृत्तं मयठाणं संपयं च वोच्छामि । कुलविसयं बीयमऽहं, मयठाणं किंचि लेसेणं एमेव कुलमयं पि हु, कुणमाणा माणवा गुणविहीणा । परमत्थम जाणंता, अप्पाणं चिय पिडंबंति |जओ“कुलमदेमरिचिदृष्टान्तः” ॥१६॥ ॥१९॥ गुणसंकुलं कुलं किं, काहीह दुरडप्पणो सयमऽगुणिणो । किं किमिणो कुसुमेसुं, गंधड्ढेसुं न जायंति हीणकुलुप्पन्ना वि हु, गुणवंतो सव्वहा जणऽग्धविया । पंकुब्भवं पि पउमं, सिरोवरिं वब्भइ जणेण | सीलबलरूवमइसुय - विहवप्पमुहऽन्नपुन्नगुणसुन्नो । जइ जायइ सुकुलीणो वि, ता अलं कुलमएणाऽवि होउ कुलं सुविसालं, साऽलंकारो वि कीरउ कुसीलो चोराऽऽइदुट्ठसंभावणस्स - किं कुलमओ कुणउ ॥२०॥ |हीणकुलस्स वि सुकुलु-ग्गया वि जड़ इह मुहं पलोयंति । ता सेउ मरणं चिय, न कुलमओ ताण अण्णं च ॥ २१ ॥ जड़ नऽत्थि गुणा ता किं कुलेण गुणिणो कुलेण न हु कज्जं । कुलमऽकलंकं गुणव-ज्जियाण गरुयं कलंकं ॥२२॥ | जइ ता न कुणंतो च्चिय, मिरिई कुलगोयरं मयं तइया । ता नाऽणुभवंतो च्चिय, चरमभवे कुलपरावतं ॥२३॥ |तहाहि | नाहिसुयरज्जकज्जुज्जमंत - नरविणयतुट्ठहियएणं । सक्केण विनिम्मविया, आसि विणीया पुरी पवरा |तिहुयणपहुउसभजिणिंद - चलणतामरसफरिसपूयाए । अमराई वि जीए, न पुरो परभागमुवलभइ सुंदेरमुदारं जीए, अणिमिसऽच्छीहिं पेच्छमाणेहिं तियसेहिं अणिमित्तं तयाऽऽइ पत्तं अहं मन्ने तं पालित्था पत्थिय-मत्थयमणिकिरणविच्छुरियचरणो । लल्लक्कचक्कनिक्क- तियाऽरिचक्को भरहराया | थणवीढलुढतंऽसुय-मुरुपहरयणासियंडगरुइपसरं । मुत्ताहारपरिग्गह-मुवभुंजियसिरिफलसमूहं | हरिपीलुकलियमंदिर- मडल्लीणं पयडवालवियणं च । जस्साऽरिवहूविंदं होत्था दुत्थं पि सुत्थं व तस्स पियपणइणीए, वम्मानामाए उचियसमयम्मि । सूरो व्व सुओ जाओ, मिरीइजालं विमुंचंतो पत्ते य बारसाऽहे, परमविभूईए तस्स नरवइणा । जम्मसमयाऽणुरूवं, मिरिइ-त्ति पट्ठियं नामं वोक्कतबालभावो, स महप्पा एगया जिणिंदस्स । उसभस्स समीयम्मि, धम्मं सोऊण पडिबुद्धो |नलिणिदल ऽग्गविलग्गंडबु-बिंदुलोलं पलोइउं जीयं । विसरारुभयुत्थसमत्थ-- वत्थुसत्थं च नाऊण परिचतविसयसोक्खो, अणवेक्खियबंधवाऽऽइपडिबंधो । भुवणगुरुणो समीवे, पडिवन्नो संजमुज्जोगं विहरित्था य जिणेणं, समं पढ़तो पराए सद्धाए । थेराए अंतियम्मि, सामाइयमाऽऽइ अंगसुयं अह अन्नया कयाई, पयंडमायंडकरकरालम्मि । जायम्मि गिम्हयाले संतत्ते मेइणितलम्मि ॥१७॥ ॥१८॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३४॥ ॥३५॥ ॥३६॥ 186 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६६४४-६६७३ रूपमदविषये काकन्दीवास्तव्य-भ्रात्रोः दृष्टान्तः यायंतेसु य पवणेसु, सक्करुक्केरफरुसफरिसेसु । अन्हाणवसकिलंतो, इमं कुलिंगं विचिंतेड़ ॥३७॥ समणा तिदंडविरया, भगवंतो निहुयसंकुचियगता । अजिइंदियदंडस्स य, होउ तिदंडं महं चिंथं રેટા लोइंदियमुंडा संजया उ, अहयं खुरेण ससिहागो । थूलगपाणिवहाओ, बेरमणं मे सया होउ ॥३९॥ | निक्किंचणा य समणा. ममं पणो होउ किंचणं किंचि । सीलसयंधा समणा, अहयं सीलेण दुग्गंधो ॥४०॥ यवगयमोहा समणा मोहच्छन्नस्स छत्तयं होउ । अणुवाहणा य समणा, मज्झं तु उवाहणा होतु ॥४१॥ सुक्कंडबरा य समणा, निरंडबरा मज्झ धाउरत्ताई । वत्थाई होंतु जमऽहं, अरिहामि कसायकलुसमई ॥४२॥ वज्जेंति वज्जभीरू, बहुजीयसमाऽऽउलं जलाऽऽरंभं । होउ मम परिमिएणं, जलेण पहाणं च पियणं च॥४३॥ इय सच्छंदविगप्पिय-विचित्तबहुजुत्तिनिवहसंजुतं । समणविलक्खणरुवं, पारिव्यज्जं पवत्तेइ ॥४४॥ विहरइ य जिणेण सम, भब्बे पडिबोहिउं समप्पड़ य । सीसत्तेणं भुवणेक्क-भाणुणो उसभसामिस्स ॥४५॥ अह भरहेणोसरणे, निप्पडिमिस्सरियम रहओ दटुं । होहिन्ति केत्तिया ताय!, तुज्झ सरिस ति पुढेण ॥४६॥ सिट्ठा अजियाऽऽइजिणा, जयगुरुणा चक्किणो य पुढेण । अप्पुढेण वि सिट्ठा, हरिहलिणो पुण भणड़ भरहो ॥४७॥ भयवं! किमेतियाए, सदेवमणुयाऽसुराए परिसाए । तुह संतियाइ होही, इह भरहे कोई तित्थयरो ॥४८॥ तो एगंतनिलीणं, सिरोवरि भरियछत्तयं मिरिइं । दंसेड़ जिणो भरहस्स, एस चरिमोडरिहा होही ॥४९॥ एसो च्चिय विण्हूणं, पढमो पोयणपुरम्मि आयाही । मूयाए विदेहे चक्क-वट्टिलच्छिं लहिस्सइ य ॥५०॥ एवं सोउं भरहो, हरिसवसविसप्पिबहलरोमंचो । सामि आपुच्छित्ता, मिरिइं अभिवंदिउं जाइ ॥५१॥ तो तिक्खुत्तो दाउं, पयाहिणं परमभत्तिसंजुत्तो । सम्ममऽभिवंदिऊणं, महुरगिरा भणिउमाऽऽढतो ॥५२॥ धन्नो तुमं महायस!, तुमए च्चिय पावणिज्जमिह पत्तं । जं होहिसि तित्थयरो, अपच्छिमो वीरनामो ति ॥५३॥ पढमो य वासुदेवाण, भरहवासऽद्धमहियइनाहो । छक्खंडखोणीमंडल-सामी मूयाए चक्की य ॥५४॥ |पारिव्यज्जं जम्मं च, तुज्झ नो मणहरं ति वंदामि । किं तु जिणो होहिसि जं, अपच्छिमो तेण पणमामि ॥५५॥ एमाऽऽइ संथुणित्ता, गयम्मि भरहे जहाडडगयं मिरिई । उप्पण्णगाढहरिसो, विसट्टकंदोट्टदलनयणो ॥५६॥ रंगगओ मल्लो इय, तिवई अप्फोडिऊण तिक्खुत्तो । तं नियवियेयमऽवहाय, जंपिउं एवमाडउढतो ॥५॥ "जइ वासुदेवपढमो, मूयविदेहाए चक्कवट्टी वि । चरिमो तित्थयराणं, अहो! अलं एत्तियं मज्झ ॥५८॥ पढमो हं विण्हूणं, पिया य मे चक्कवट्टियंसस्स । अज्जो तित्थयराणं, अहो! कुलं उत्तम मज्झ" . ॥५९॥ एवं नियकुलचंगिम-संकित्तणकलुसभाववसगेणं । नीयागोयं कम्म, बद्धं तप्पच्चयं च तओ स महप्पा उप्पन्नो, छ भवग्गहणाई माहणकुलेसु । नीएसुं अन्नेसुं य, हरिचक्किसिरिं च अणुभविउं ॥१॥ अरिहंताऽऽइवीसं, ठाणाई फासिऊण चरिमभवे । चिरबद्धनीयकम्मस्स, दोसओ माहणकुलम्मि રા देवाणंदाए माहणीए, गब्भे अरिहा वि उप्पन्नो । बायासीइदिणंडते, नवरं सक्केण नाऊण ॥३॥ अणुचियमेयं ति विभाविउं च, हरिणेगमेसिमाऽऽइसिउं । सिद्धत्थरायगेहिणि-तिसिलाए ठाविओ गब्भे ॥६४॥ उचियसमए पसूओ, अहिसित्तो मंदरम्मि तियसेहिं । तित्थं पवत्तिऊणं, संपत्तो सो य परमपयं ॥६५॥ इय जड़ सकुलपसंसण-समुवज्जियनीयकम्मदोसेण । एवंविहं अवत्थं, उति सिरितित्थनाहा वि ॥६६॥ ता कह मुणियभवाणं, कुलमयविसया भवेज्ज बुद्धी वि । एवं च खमग! तुममिम-मित्तो मा काहिसि कहं पि॥६॥ इय कुलमयपडिदारं, बीयं पन्नत्तमिन्हि तइयं पि । रूवमयगोयरमऽहं, लेसुद्देसेण किमि દળો “रूपमदविषये काकन्दीवास्तव्य-भ्रात्रोः दृष्टान्तः' - पढम पि सक्कसोणिय-संजोयवसेण जस्स उप्पत्ती । रुवस्स तं पि आसज्ज, न ह मओ होइ कायव्यो॥६९॥ रोगा पोग्गलगलणं, जरा य मरणं च जस्स नासम्मि । कारणगणो सहचरो, तम्मि वि रुवे मओ न मओ ॥७०॥ वत्थाऽऽहरणाऽऽईणं, संजोगा चेय किंचि रमणीए । निच्चं परिसंठप्पे, निच्वं च चयाऽयचयथम्मे ॥१॥ अंतो कलुसाऽऽउण्णे, बाहिं तु तयाए येढिए अथिरे । रूचे मयाऽवगासो चि, नऽत्थि चिंतिज्जमाणम्मि ॥७२॥ होइ विरूवो रूवी, कम्मवसा रूव पि गयरूयो । कायंदीवत्थव्वा, इह नायं भायरो दोन्नि ॥७३॥ तहाहि 187 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६६७४-६७१२ रूपमदविषये काकन्दीवास्तव्य-भ्रात्रोः दृष्टान्तः | बहुदेसपसिद्धाए, वियिहडच्छेरयनिवासभूयाए । कार्यदीए पुरीए, आसी इन्भो जसो नाम ॥७४॥ कणगवई से भज्जा, पुत्तो पढमो य ताण वसुदेवो । देवकुमारोवमरुव-लच्छिविम्हइयजियलोगो ॥७५॥ बीओ य खंदओ नाम. कायरडच्छो अर्डव मडहंडगो । किं बहणा सव्येसिं. निदंसणं सो विरूवाणं ॥७६॥ लोगुत्तरं च तेसिं, रूविविरुवित्तणं णिसामेत्ता । दूराओ एइ जणो, दटुं कोऊहलाऽऽउलिओ ॥७७॥ एवं वच्चंतेसुं, दिणेसु एगम्मि अवसरे सूरी । विमलजसो नाम तहिं, समोसढो ओहिनाणधरो ॥७८॥ तस्साऽऽगमणं नाउं, वंदणवडियाए भूवईपमुहो । नयरिजणो संपत्तो, ते वि य इब्भस्स दो वि सुया ॥७९॥ तिक्खुत्तो विहियपया-हिणा य उव्यूढगाढभत्तिभरा । क्यसूरिचलणनमणा, समुचियठाणेसु आसीणा ॥०॥ अह धम्मकहं कुणमाणस्स, दिट्ठी कहिं पि मुणिवइणो । इब्भसुएसु य तेसुं, पडिया पीऊसवुट्ठि व्य ॥८१॥ तो ताण चक्खुपेक्खिय, तप्पुयभवेण ईसि हसिरेण । संलत्तं गुरुणा अहह!, कम्मदुविलसियं भीमं રા जं निरुवमरूवो वि हु, होइ विरुयो दढं विरूवो य । विसमसरोवमरूव-तणेण परिणमइ सो चेव ॥३॥ अह विम्हिएण परिसाजणेण, भणियं क्यप्पणामेण । परमत्थमेत्थ साहसु, अम्ह कोऊहलं भंते! ૮૪ तो गुरुणा संलतं, होऊणं अवहिया निसामेह । एए हि इब्भपुता, नयरीए तामलितीए ॥८५॥ आसी दो वि वयंसा, धणरक्खियधम्मदेषनामाणो । एसिं रूवी पढमो, परमविरुयो बिइज्जो य ॥८६॥ कीलंति य अन्नोन्नं, नवरं धणरक्खिओ बहुपयारं । रूवमएणं परिहसइ, धम्मदेवं जणसमक्वं ટળી अह एगम्मि अवसरे, भणिओ धणरक्खिएण सो भद्द! । भज्जाए विणा विहलो, सयलो गिहवासवासंगो ॥८८॥ दारपरिग्गहविमुहो, ता किं दिणगमणियं करेसि मुहा । एवं पि जड़ समीहसि, ठाउं ता होसु पव्वइओ ॥८९॥ उज्जुसभावत्तणओ य, जंपियं तेण मित्त! सच्चमिणं । णवरं इत्थीलाभे, दो चेव भवंति इह हेऊ ॥१०॥ जणमणहरणं रुवं, लच्छी या दूरपत्तवित्थारा । एयमुभयं पि हयविहि-वसेण नो मज्झ संपन्नं ११॥ अह एवं पि तहाविह-बद्धिवसा संभवेज्ज थीलाभो । ता साहेस तमं चिय, कओ पणामंडजली तुज्झ ॥१२॥ एवं तेण पवुत्ते, युत्तं धणरक्खिएण हे मित! । निच्चिंतो अच्छ तुमे, एत्थडत्थे हं भलिस्सामि ९३॥ अत्थेणं बुद्धीए, परक्कमेणं नएण अनएण । किं बहुणा जह तह तुज्झ, पंछियउत्थं करिस्सामि ॥९४ तेणं पयंपियं कुणसु, किंपि निक्कवडपेम्मनिम्माए । तइ उवणीयसदुक्खो, संयुत्तो हं सुही एतो ॥९५॥ धणरक्खिएण ततो, कुबेरसेट्ठिस्स संतिया धूया । तत्तुल्लरुयविहया, भणाविया दूइवयणेण ॥१६॥ कुसुमाऽऽउहसमरूवं, तुज्झ अहं पिययमं पणामेमि । जमऽहं भणेमि तं जड़, पडिवज्जसि मुक्ककुवियप्पा ॥९॥ तीए भणावियं निव्यि-संकमाऽऽइससु तेण तो युत्तं । अज्ज निसाए केणइ, अमुणिज्जंती मुगुंदगिहे ॥९८॥ एज्जासि जेण सम्म, तेण समं तुह घडेमि वीवाहं । पडियन्नं तीए तओ, अत्थमिए कमलबंधुम्मि ॥१९॥ पसरतेसं कलकंठ-कंठकलसेस तिमिरनियरेस । होतीस य पड़वेलं, निस्संचारास रत्थास ॥६७००॥ परिणयणोचियउवगरण-धारिणा परमहरिसियमणेण । सो तत्थ मुगुंदगिहे, गओ समं धम्मदेवेण ॥१॥ तक्कालोचियनेवत्थ-धारिणी सा वि तत्थ संपत्ता । विहियं संखेवेणं, पाणिग्गहणं तओ तेसिं R उवणेऊण पईवं, तत्तो धणरक्खिएण हसिरेणं । भणिया भद्दे! पड़णो, तारामेलं रेसु ति ॥३॥ तो दीयुज्जोएणं, लज्जावसथिमियलोयणा जाय । ईसुन्नमंतवयणा, पलोयणं काउमाऽऽरद्धा ताव अहरडग्गलग्गोरु-दसणमडच्यंतचिबिडनासग्गं । चिबुगेगदेसनिग्गय-कड़वयबीभच्छखरोमं ॥५॥ घूयाऽणुरुवनयणं, वयणऽब्भंतरपविट्ठगंडयलं । तिरियट्ठियधूमलयाऽ-णुरुवभुमयं मसिच्छायं ॥६॥ पडियं चक्नुपहम्मि, तस्स मुहं तीए ययणमऽवि तस्स । तत्तुल्लगुणं नवरं, तत्तो भेओ अरोमते ॥७॥ अह झत्ति बलियकंठं, तीए परियत्तिऊण नियवयणं । भणियं धणरक्खिय! विप्प-यारिया हं धुवं तुमए ॥८॥ मयणोवमं पयंपिय, पिसल्लतुल्लं पई कुणंतेणं । मह तुमए आचंदं, अप्पा अजसेण उवलितो ॥९॥ धणरक्खिएण भणियं, मा मे कुप्पसु जओ विही चेव । सरिसं सरिसेण समं, संघडइ क एव मह दोसो ॥१०॥ अह तिव्वकोवदंतजग्ग-दट्ठउट्ठा सभावकसिणं पि । सविसेसं कसिणंती, ययणं अफुडडक्खरं किंपि ॥११॥ मंदं समुल्लवंती, पल्हत्थियहत्थकंकणा झत्ति । अप्परिणीय व्य तओ, मुगुंदगेहाउ निक्वता ॥१२॥ ... 188 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६७१३-६७४७ बलमदे मल्लदेवस्य दृष्टान्तः हिययवियंभियहासेण, तयडणु धणरक्खिएण सो वुत्तो । हंभो वयंस! एत्तो वि, उत्तरं किंपि ण करेसि ॥१३॥ तो उज्जुयभावेणं, संतावं परममुव्वहंतेणं । भणियमियरेण भाउय!, एतो वि हु किं भणेयव्यं ॥१४॥ बच्वसु सगिहम्मि तुमं, ममं तु किं जीविएण एताहे । जो रक्खसितुल्लाए, एवं तीए वि परिभूओ। ॥१५॥ धणरक्खिएण वुत्तं, पज्जतमिमेण अलियसोगेण । इत्थीसु पुरिसगुणदोस-विसयविन्नाणविमुहासु ॥१६॥ नीओ य कहवि गेहे, नवरं रयणीए नीहरेऊण । पडिवन्नो सो दिक्वं, तावसमुणिणो समीवम्मि ॥१७॥ काऊणं बालतवं, देवत्तं पाविओ मओ रूवी । एसो सो इब्भसुओ, जाओ वसुदेवनामो ति ॥१८॥ धणरक्खिओ वि बाढं, रूवमउम्मतमाणसो मरिउं । अक्यपरलोयकिच्चो, तिरियाऽऽइगईसु चिरकालं ॥१९॥ आहिंडिय रूवमउत्थ-दोसओ एस खंदनामो त्ति । उववन्नो एवंविह-विहीणसव्यंडगलायन्नो ॥२०॥ ता जो तुब्भेहिं पुरा, परमत्थो पुच्छिओ स एसो ति । आयन्निऊण य इम, जं उचियं तं समायरह ॥२१॥ | एवं निसामिऊणं, पडिबुद्धा पाणिणो तहिं बहवे । इब्भसुया पुण घेत्तुं, पव्वज्ज सिवपयं पत्ता ॥२२॥ इय रूवमयसमुत्थं, दोसं तच्चागसंभवं च गुणं । मुणिऊणं खवग! तुम, मा तं थेवं पि हु रेज्ज ॥२३॥ रुवमयट्ठाणमिमं, तइयं उवदंसियं मए किंपि । एतो बलमयठाणं, चउत्थमडक्खेमि संखेवा ૨૪ "बलमदे मल्लदेवस्य दृष्टान्तः" - खणउवचियम्मि खण-अवचियम्मि जंतूण सइ सरीरबले । अणिययरूवत्तणओ, को णु बुहो तम्मयं कुणइ ॥२५॥ तहाहोऊण पुरा बलवं, पुरिसो संपुण्णगलकवोलो य । भयरोगसोगवसओ, खणेण विबलो जया होइ ॥२६॥ विबलत्तमुवगतो तह होउं परिसुसियगलकवोलो वि । उदयारवसेण पुणो, सो वि य जायइ जया बलवं ॥२७॥ तह पबलबलो वि नरो, जया कयंतं पडुच्च निच्वं पि । अच्वंतं अबलो च्चिय, कह णु तया बलमओ जुत्तो॥२८॥ | सामन्नभूवईणं, बलेण भद्दा भयंति बलभद्दा । तत्तो य भद्दया चक्क-वट्टिणो होति तत्तो वि ॥२९॥ ततो वि अणंतबला, तित्थयरा उत्तरोत्तरपहाणे । एवं बलम्मि नूणं, अबुहा कुवंति बलगवं | खओवसमवसोवज्जिय-बललेसेणं पि जो उ मज्जेज्ज । सो तब्भवे वि निहणं, लभेज निवमल्लदेवो व्व ॥३१॥ तहाहिसिरिपुरनगरे राया, अहेसि निप्पडिमलच्छिविच्छड्डो । नामेण विजयसेणो, सरयनिसायरसमजसोहो सो एगया सभाए, जावडच्छड़ आसणे सुहनिसन्नो । दाहिणदिसिपेसियसेन्न-नायगो ताव संपत्तो ॥३३॥ क्यपंचंडगपणामो, तयऽणु निविट्ठो समीवदेसम्मि । सुसिणिद्धचक्खुणा पेखि-ऊण भणितो य नरवड़णा ॥३४॥ अइकुसलं तुह तेणं, पंयंपियं देवपयपसाएणं । कुसलं न केवलं चिय, विजिओ दाहिणनरेंदो वि ॥३५॥ तो गाढहरिसपयरिस-विप्फारियलोयणेण नरवड़णा । संलतं कहसु कहं, तेणं भणियं णिसामेह ॥३६॥ देवाऽऽएसेण अहं, हयगयरहजोहजूहसंजुत्तो । गंतूण ठिओ दाहिण-दिसिभूवइदेससंधीए । ॥३७॥ दूयवयणेण तत्तो, भणाविओ सो मए जहा सिग्धं । सेवं मे पडियज्जसु, संगरसज्जोऽहवा होसु ॥३८॥ आयन्निऊण एवं, तेणं रन्ना पयंडकोयेणं । निद्धाडिऊण दूयं, आइट्ठा नियपहाणनरा ॥३९॥ रे! रे! सिग्धं सन्नाह-सूइगं भेरिमिन्हि ताडेह । पगुणीकरेह चउरंग-सेन्नमाउडणेह जयहत्थिं ॥४०॥ उवणेह पहरणं मे, सिग्धं च पयाणगं दयावेह । तखणमेव नरेहि, तहत्ति संपाडियं सव्वं ॥४१॥ तो मगरगरुलसदूल-पमुहथयभीसणाए सेणाए । कवलिउमणो व्य तइलोक्क-मेक्कहेलाए संचलिओ ॥४२॥ अहमऽवि चारनियेइय-तदाडगमो विहियसेन्नसंवाहो । अणवरयपयाणेहिं, गंतुं तदऽभिमुहमाऽऽरद्धो । ૪૩ नवरं चारेहिन्तो, तस्स समीयं गएण तस्सेणं । नाउं अपरिमियं इ-यवेण जुज्झिउमणेण मए ॥४४॥ दरिसायं से दाउं, अइजविणतुरंगमेहिं नियसेन्नं । पच्छाहुत्तं सिग्धं, नियत्तियं ताव जा दूरं . ॥४५॥ भीयं ति मं वयंतं, नाउं अच्वंतवडिढउच्छाहो । सो राया मुद्धमई, लग्गो सेन्नस्स पट्ठीए . अह पइदिणगमणवसा, दढसुढियं संकडे य आवडियं । अभयं पमत्तचित्तं च, पेच्छिउं तस्स सेन्नमऽहं ॥४७॥ 1. किं भण करेमि पाठां०। 189 . ॥३२॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६७४८-६७८२ बलमदे मल्लदेवस्य दृष्टान्तः - श्रुतमदे स्थूलभद्रदृष्टान्तः ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५४॥ Em ॥६४॥ | सव्वऽप्पणा पयट्टो, जुज्झेउं देव! तुह पभावेण । अइरेण निज्जियं पर-बलं च बहुसुहडकलियं पि एत्थंतरम्मि सेणाऽहियुत - पुरिसेहिं तस्स भंडारो पुत्तो य अट्ठवरिसो, उवणीओ भूमिनाहस्स भणियं सेणावइणा, देव! इमो दाहिणेसभंडारो । पुत्तो य इमो तस्सेव, जमुचियं कुणसु तं इन्हिं तो रण्णो तं सुयमऽणि - मिसाए दिट्ठीए पेहमाणस्स । केवलमऽणुभवगम्मो, जाओ पुत्ते व्व पडिबंधो पयपीढम्मि उववेसिऊण, चुंबिय सिरम्मि भणितो य । अच्छाहि यच्छ ! नियमंदिरे व्य, इहई अणुव्विग्गो सन्निहिमाऽऽसीणाए, सव्वाऽऽयरसमप्पिओ य देवीए । एसो सुओ मए तुह, दिन्नो ति पयंपियं रन्ना ॥५३॥ अब्भुवगओ य तीए, कलाकलायो य अहिगओ तेण । निज्जियसुरसुंदेरं, कमेण तारुण्णमऽणुपत्तो अच्चंत भुयबलेणं, महल्लमल्ला विनिज्जिया तेण । तत्तो रन्ना ठवियं, नामं से मल्लदेवो त्ति अह जोगो त्ति नियपए, निवेसिऊणं तयं महीनाहो । घेत्तूण तावसाणं, दिक्खं वणवासमऽल्लीणो इयरो य पबलभुयबल - निज्जियसीमालसयलमहीवालो । उव्वहमाणो बलमय - मऽसमं पालेइ नियरज्जं घोसावियं च तेणं, जो मम पडिमल्लमुचइसइ कोई । दीणारलक्खमेक्कं नूणमऽहं तस्स देमित्ति सोऊण इमं एक्को, पाउयजरकप्पडो किसियकाओ । देसंतरिओ पुरिसो, रायाणमुवट्ठिओ भणड़ देव! निसामेसु मए, परिब्भमंतेण सयलदिसिचक्कं । पुव्वदिसाए दिट्ठो, राया नामेण वज्जहरो अप्पडिमपगिट्ठबलेण, तेणं निज्जियविपक्खचक्केण । गायाविज्जइ अप्पा, पयडं तेलोक्कवीरो ति न य संभवइ न एवं, जं लीलाए वि तेण भूवइणा । करडी चवेडपहओ, उम्मिंठो वि हु पहे ठाइ एवं निसामिऊणं, दाऊणं तस्स देयमाऽऽइट्ठा । नियपुरिसा रे! गंतुं तं भूयं एवमुल्लवह जड़ कहवि मागहेहिं, तिलोगवीरो ति कित्तिओ तं सि । दाणडत्थीहिं ता किं, तुमए ते नेव पडिसिद्धा ? अहवा किं एएणं, इन्हिं पि विसेसेणं चयसु एयं । इहराऽहमाऽऽगओ एस, जुज्झसज्जो भवेज्जासि ॥६५॥ पुरिसेहिं तओ गंतुं, तहत्ति सव्वं निवेइयं तस्स । तो बद्धभिउडिभीमाऽऽ - णणेण तेणेवमुल्लवियं En को सो रे तुम्ह नियो?, नामं पि हु इन्हि से मए नायं । को वा इय वत्तव्ये, तस्सऽहिगारोऽहवा होज्ज ॥६७॥ जड़ मह समरहुयासण - सिहाए पावड़ पयंगपयविं नो । स वरागो दुन्नयवाय - वलिय असमत्थपक्खबलो ता रे ! बच्चह सिग्घं, पेसह तं जेण तम्मयं कुणिमो । सोऊणेयं विणिय-त्तिऊण पुरिसेहिं से सिट्ठ अह सव्वसेन्नसहिओ, वारिज्जतो वि मंतिग्गेण । सो गंतुं आरद्धो, कमेण पत्तो य तद्देसं सोउं तस्साऽऽगमणं, वज्जहरो वि हु समागओ तुरियं । बहुसुहडक्खयजणणं, जायं च परोप्परं जुज्झं दट्ठणं लोयखयं वज्जहरेणं भणाविओ इयरो । जड़ वहसि बलमयं ता, तुममऽहमऽवि दो वि जुज्झामो ॥७२॥ किं निरवराहलोयक्खएण, एएण उभयपक्खे वि । पडिवन्नं तेणेयं, लग्गा अन्नोन्नजुद्धेण मल्लाणं पिव उट्ठाण - पडणपरियतणुव्वलणभीमो । विम्हइयदेवमणुओ, जाओ सिं समरसंमद्दो अह पबलभुयबलेणं, वज्जहरेणं स निज्जिओ झति । बलमयकयंतवसगो, इय सो पंचत्तमऽणुपत्तो एवंविहदोसविसेस - कारयं बलमयं वियाणित्ता । आराहणाठिओ खमग!, मा तुमं तं करेज्जासि बलमयनामगमेयं, चउत्थयं कित्तियं मयट्ठाणं । सुयगोयरं पि एतो, पंचमगं किं पि साहेमि " श्रुतमदे स्थूलभद्रदृष्टान्तः” संपइ पसरंतनिरंतरोरु-मिच्छत्ततिमिरपब्भारे । पभवंतपबलपरमय - जोइसचक्कप्पयारम्मि परमप्पमायनिब्भर - विलसंतसुदुव्वियड्ढघूयम्मि । दंसणपयत्तपरपाणि-निवहहयदिट्ठिपसरम्भि भुवणगयणंऽगणम्मि, सन्नाणदिवायरो अहं चेव । एवं तुमं सुयमयं, मणयं पि करेज्ज मा धीर ! किंच ॥६८॥ ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७३॥ ॥७४॥ सुत्तत्थतदुभएहिम्वि चोद्दसपुव्वाणि जाण होंताणि । छट्ठाणाऽऽवडियत्तं, सुव्वइ ताणं पि अन्नोन्नं जड़ ता को णु सुयमओ, विसेसओ अज्जकालियजईणं, जेसिं मइतुच्छत्ता, न तहाविहसुयसमिद्धी वि तथाहि 1. उर्म्मिठो = निरङ्कुशः = मदोन्मत्तः इत्यर्थः । ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५८॥ ॥५९॥ ॥६०॥ ॥६९॥ ॥६२॥ ॥७५॥ ॥७६॥ ॥७७॥ ॥७८॥ ॥७९॥ ॥८०॥ ॥८१॥ ॥८२॥ 190 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६७८३-६८२० श्रुतमदे स्थूलभद्रदृष्टान्तः। नो ता अंगाऽणंगप्पविट्ठ-सुयसुद्धपरिचयो अज्ज । नो तह निजुत्तीसु वि, न भासचुण्णिसु न वित्तीसु ॥३॥ संविग्गगीयसक्किरिय-पुवमुणिकयपइन्नगाइसु वि । जइ न तह परिचओ ता, न हु कायव्यो सुयमओ वि ॥८४॥ संते वि सयलसुत्तउत्थ-पारगत्ते न सुयमओ जुत्तो । काउं किमंडग! तदडपार-गत्तणम्मि जओ भणियं ॥८५॥ मा वहउ को वि गव्यं, एत्थ जए पंडिओ अहं चेव । आसव्वन्नुमयाओ, तरतमजोगेण मइविहयो ॥८६॥ दुस्सिक्खियकइरइए, समयविरुद्धे य अहिगए वि दढं । पगरणकहापबंधे, अवगासो च्चिय न हु मयस्स ॥८७॥ सामाइयमेतसुया वि, केवलाउडलोयममलमडणुपत्ता । सुयसिंधुपारगा पुण, वुत्थाऽणतेसु चिरकालं ॥८॥ ता मा सव्वमयहरं, सुयं पि संपाविऊण तव्यिसयं । थेवं पि मयं काहिसि, तुममऽणसणिओ विसेसेण ॥८९॥ किं न सुयं सुयरासी, सुयमयदोसेण थूलभद्दो वि । अंतिमचउपुव्वाणं, छिन्नाऽणुन्नो कओ गुरुणा तहाहिपाडलिपुत्ते नगरे, रन्नो नंदस्स विस्सुयजसस्स । मंती सयडालो आसि, सयलनिरवज्जकज्जकरो ॥९१॥ पुत्तो य थूलभद्दो, पढमो से बीयओ सिरिओ ति । रुववईओ धूयाओ, सत्त जक्खापमोक्खाओ ૬૨ सेणा वेणा रेणत्ति, ताण पज्जंतिमाउ तिन्नेव । गेहंति एक्क-दो-तीहिं, यायणेहिं, अपुव्वसुयं ॥९३॥ जिणपयपूयणवंदण-समयऽत्थविभावणप्पमुहधम्म । सम्म कुणमाणाणं, तेसिं बोलेंति दियहाई ॥९४॥ अह वत्थव्यो तत्थेव, भूवई वररुई कई विप्पो । अप्पुब्वट्ठसएणं, वित्ताणं थुणइ पइदियहं ॥९५॥ तक्कव्यसत्तितुट्ठो, राया दाणं समीहए दाउं । नवरं सयडालम्मि, अपसंसंते न देइ ति ९६॥ तो वररुइणा सयडाल-भारिया कुसुमदाणमाउडईहिं । उवचरिया तो तीए, भणिओ सो कहसु कज्ज ति ९७॥ | वज्जरियं तेण तए, भणियव्यो तह कहं पि हु अमच्चो । जह रायपुरो कव्वं, पढंतयं मं पसंसेड़ ॥९८॥ |पडिसुयमिमीए युत्तो, मंती किं वररुइं न सलहेसि । तेणं पयंपियं कह, मिच्छदिढेि पसंसामि ॥१९॥ अह पुणरुत्तं तीए, भणिरीए पडिस्सुयं अमच्वेणं । रायपुरो पढमाणो, पसंसिओ सो सुपढियं ति ॥६८००॥ तो अट्ठसयं रन्ना, दीणाराणं दयावियं तस्स । जाया पइदिवसं चिय, एत्तियमेत्ता य से वित्ती ॥१॥ |अत्थखयं च पलोइय, भणियमडमच्चेण देव! किमिमस्स । देहि ति तेण युत्तं, सलाहिओ जं तए एस ॥२॥ भणियमडमच्वेण मए, अविणटुं पढइ लोयकव्यं ति । सलहियमेयस्स ततो, रन्ना पट्टो कहं एवं ॥३॥ तेणं भणियं मज्झं, धूयाओ यि हु पढंति जेणेयं । उचियसमए य पत्तो, पढणत्थं यररुई तत्तो રા जवणियअंतरियाओ, धरियाओ मंतिणा सधूयाओ । सेणाए पढमवाराए, अहिगयं से पढंतस्स ॥५॥ ता तीए नरवइणो, पुरओ अविणट्ठमुच्चरंतीए । वाराहिं दोहिं पढियं, येणाए तीए युत्तम्मि દા तइयाए वाराए, रेणाए अहिगयं च युतं च । चिरपढियं पिय सयमेव, विरइयं पिय नरिंदपुरो ॥७॥ तो कुविएणं, रन्ना, दुवारमऽपि वारियं वररुइस्स । पच्छा सो गंगाए, जंतपयोगेण दीणारे ठविऊणं रयणीए, पभायसमयम्मि संथवं काउं । पाएण हणइ जंतं, तत्तो गिण्हेइ दीणारे | भणइ य लोयाण पुरो, थुइतुट्ठा मज्झ देइ गंग ति । कालंतरेण रन्ना, सोउं सिढे अमच्चस्स ॥१०॥ | तेणं भणियं जइ मह, पुरो इमा देइ देइ ता देव! । बच्चामो य पभाए, गंगाए पडिस्सुयं रन्ना ॥११॥ | अह मंतिणा वियाले, पच्वइओ नियनरो समाइट्ठो । गंगाए पच्छन्नो, अच्छसु जं वररुई सलिले ॥१२॥ किं पि हु ठवेइ तं गिन्हि-ऊण मह भद्द! उवणमेज्जासि । गंतूण नरेण तओ, आणीया दम्मपोट्टलिया ॥१३॥ गोसम्मि गओ नंदो, मंती य पलोइओ थुणंतो सो । गंगं जलनिब्युड्डो, थुइअवसाणे य तं जंतं ॥१४॥ करचरणेहिं सुचिरं पि, घट्टियं जाव वियरइ न किंपि । अच्वं तविलक्खत्तण-मडणपत्तो वररुई ताव ॥१५ पायडिया सयडालेण, राइणो सा य दम्मपोट्टलिया । वीवाहं काउमणो, सिरियस्स नरिंदजोग्गाई ॥१६॥ आरद्धो छिड्डाई, पलोइडं अन्नया य सयडालो । वीवाहं काउमणो, सिरियस्स नरिंदजोग्गाई ॥१७॥ विविहाई आउहाइं, पच्छन्नं कारवेइ एयं च । उवयरियाए कहियं, वररुइणो मंतिदासीए ॥१८॥ पावियछिड्डेण तओ, तेणं डिंभाई मोयगे दाउं । सिंघाडगतियचच्चर-ठाणेसुं पाढियाणि इमं ॥१९॥ | "एउ लोओ नवि जाणइ, जं सगडालु रेस्सइ । नंदु राउ मारेविणु, सिरियउ रज्जि ठवेस्सई" રી 191 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६८२१-६८५७ तपमदस्वरूपम् - दृढप्रहारिदृष्टान्तः सुणियं च इमं रण्णा, चरेहिं पहावियं च मंतिगिहं । दठ्ठण कीरमाणं, पच्छण्णं आउहाडइबहुं ॥२१॥ सिटुं रन्नो तेहिं, कविओ राया ठिओ पराहुतो । सेवागयस्स चलणेसु, निवडमाणस्स मंतिस्स ॥२२॥ कुविय ति नियं नाउं, सयडालो मंदिरम्मि गंतूण । कहइ सिरियस्स पुत्तय!, राया मारेइ सव्वाइं ॥२३॥ जड़ न मरिस्सामि अहं, ता रन्नो पायनिवडियं वच्छ! । मं मारेज्जासि तुम, ठइया सिरिएण तो सवणा ॥२४॥ सयडालेणं भणियं, तालउडे भक्खियम्मि मयपुव्वं । निवपायपडणकाले, मारेज्जसु तं गयाऽऽसंको ॥२५॥ सव्यविणासाऽऽसंकिय-मणेण पडिसुयमिमं च सिरिएण । तह चेव पायपडियस्स, सीसमेयस्स छिण्णं ति ॥२६॥ हा! हा! अहो! अकज्जं ति, जंपिरो उट्ठिओ य नंदनियो । भणिओ सिरिएण तओ, देव! अलं याउलतेण ॥२७॥ जो तुम्हं पडिकूलो, तेणं पिउणा वि नत्थि मे कज्जं । तो सो रन्ना युत्तो, पडिवज्जसु मंतिपयविं ति ॥२८॥ | तेणं भणियं भाया, जेट्ठो मे थूलभद्दनामोऽथि । बारसमं से परिसं, येसाए गिहे वसंतस्स ॥२९॥ सद्दाविओ स रण्णा, वुत्तो य भयाहि मंतिपयविं तिं । तेणं भणियं चिंतेमि, राइणा पेसियो ताहे ॥३०॥ सन्निहियअसोगवणे, तत्थ य सो चिंतिउं समारद्धो । परज्जयावडाणं, के भोगा किं च सोक्खं ति ॥३१॥ सोक्खे वि हुं गंतव्यं, नरए अवस्सं अलं तदेतेहिं । इय चिंतिऊण येरग्ग-मुवगओ भवविरतमणो ॥३२॥ काऊण पंचमुट्ठिय-लोयं सयमेव गहियमुणिवेसो । गंतूणं भणइ निवं, इमं मए चिन्तियं राय! ॥३३॥ | उवयूहिओ निवेणं, नीहरिओ मंदिराओ स महप्पा । गणियाए घरे जाहि ति, पेहिओ राइणा जंतो ॥३४॥ दठूण मयकलेवर-दुग्गंधपहेण वच्चमाणं तं । रन्ना नायं निम्विन्न-कामभोगो धुवमिमो ति ठविओ पयम्मि सिरिओ, इयरो संभयविजयपामले । पव्वइओ अच्चग्गं, करेड़ विविहं तवच्चरण ॥३६॥ एत्थाऽवसरे वररुइ-विणासणाऽऽइ सुयाउ यत्तव्यं । ता जाव भद्दबाहुस्स, थूलभद्दो गओ पासे ॥३७॥ पढियाई पुव्वाई, देसूणाई च तेण दस तत्तो । सुयगुरुणा सह पत्तो, पाडलिपुत्तम्मि विहरतो ॥३८॥ जखापामोक्खाओ, सत्त वि भइणीओ गहियदिक्खाओ । भाउययंदणहेडं, समागयाओ तओ सूरिं ॥३९॥ यंदित्ता पुच्छंति, जेट्ठज्ज़ो कत्थ सूरिणा भणियं । सुत्तं परियतंतो, अच्छड़ इह देवउलियाए ૪ની तो पत्थियाउ तहियं, दटुं इंतीउ थूलभद्दमुणी । नियरिद्धिदंसणत्थं, केसरिरुयं विउव्येइ ॥४१॥ |तं दटुं नट्ठाओ, अज्जाओ सूरिणो निवेइंति । भयवं! कुरंगराएण, भक्खिओ नूण जेट्ठज्जो ॥४२॥ | उवउत्ता आयरिया, भणंति सीहो न थूलभद्दो सो । बच्वह इन्हिं ताओ, गयाओ वंदति तं तत्तो ॥४३॥ पुच्छिय विहारवत्तं, ठाऊण खणं गयाओ सट्ठाणं । बीयदिणे उद्देसण-कालम्मि उवढिओ संतो ॥४४॥ पडिसिद्धो सूरीहिं, तुम अजोगो ति थूलभद्दमुणी । सीहविउव्वणरुवं, तेण य मुणिऊण नियदोसं ॥४५॥ भणिओ सूरी भंते!, न पुणो काहामि खमह मह एयं । पडियन्नं मुणिवइणा, कहंपि महया किलेसेण ॥४६॥ नवरं गुरुणा युत्तो, अंतिमपुव्वाणि पढसु चत्तारि । अन्नेसिं मा देज्जसु, वोच्छिन्नाइं तओ ताई ॥४७॥ एवं विहियाऽणत्थो, न सम्मओ सुयमओ वरमुणीणं । ता खमग! तं विवज्जिय, पत्थुयज्जे समुज्जमसु ॥४८॥ इय पंचमडक्वायं, सुयमयठाणं इओ पवक्खामि । तवयिसयमयनिसेहण-परमं छठें समासेण ॥४९॥ “तपमदस्वरूपम्" - उग्गं पि तवो तवियं, चिरकालं बालिसो कणड विहलं । अहमेव दक्करतयो-कारि ति मयं परिवहतो ॥५०॥ वंसाउ व्व तवाउ, मओ हयासो व्व अहह! संभूओ । सट्टाणं डहइ न किं नु, सेसगुणतरूसमूहं पि ॥५१॥ सेसाऽणुट्ठाणाणं, सुदुक्करं वागरेंति तवमेव । तं पि मएणं हारिंति, ही! महं मोहमाहप्पं ॥५२॥ किं च जिणिंदाऽऽईणं, अगिलाए अणुवजीवणेणं च । अणिगूहियबलवीरिय-तणेण निरवेक्ववित्तीए ॥५३॥ तिहुयणदिण्णऽच्छेरं, तवकम्ममऽणुत्तरं निसामेत्ता । मज्जेज्ज को अणज्जो, थेवेणाऽवि हु नियतवेण ॥५४॥ अच्छंतु पुव्यपुरिसा, असरिसबलबुद्धिबंधुरा धणियं । जो न तहाविहअहिगय-सुओ वि सामन्नरुयो वि ॥५५॥ साहू दढप्पहारी, तस्स वि नाऊण घोरतवचरणं । तवविसए थेवं पि हु, को णु सयण्णो मयं कुज्जा ॥५६॥ तहाहि "दृढप्रहारिदृष्टान्तः" | एगम्मि महानगरे, नयवंतो माहणो वसइ एक्को । पुत्तो दुइंतो से, अविणयमाऽऽयरइ अविरामं ॥५॥ 192 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६८५८-६८६३ लाभमदस्वरूपम् - ढंढणकुमारदृष्ान्तः संताविएण पिउणा, स नीणिओ अन्नया नियगिहाओ । हिंडतो य कहंपि हु, तक्करपल्लिं समल्लीणो ॥५॥ दिट्ठो सेणावइणा, अपुत्तएणं च पुत्तबुद्धीए । संगहिओ सिक्खविओ य, खग्गधणुपहरणाऽऽइकलं ॥५९॥ अच्वंतं पत्तट्ठो, जाओ सो निययबुद्धिविभवेण । पाणप्पिओ य सेणा-यइस्स सेसस्स य जणस्स ॥६॥ निद्दयदढप्पहारितणेण, नाम दढप्पहारि ति । गोन्नं पइट्टियं से, सेणावइणा पहिढेण ॥६१॥ अह हयलालाहरिधणु-विणस्सरतेण सव्वभावाणं । सेणाचई तहाविह-रोगवसा मरणमऽणुपत्तो ॥६२॥ तम्मयकिच्वं काउं, जणेण सेणावइत्तणे ठविओ । उचिओ विभाविऊणं, दढप्पहारी पणमिओ य ॥३॥ पुबठिईए पालइ, सो य महाविक्कमो नियं लोयं । लुंटेड य विगयभओ, गामाऽऽगरनगरनिगमाणि ॥६४॥ अह अन्नया कयाई, हंतुं गामं कुसत्थलं स गओ । तहियं च देवसम्मो, अइरोरो माहणो वसई ॥६५॥ तम्मि य दिणम्मि पायस-कएण सो पत्थिओ अवच्चेहिं । अच्चंतपयत्तेणं, घराघरि मग्गिउं दुद्धं ॥६६॥ पड. महिलाए तयण तम्मि सिज्यते । सरियातीरे बच्चड.. काउं देवडच्वणाऽऽडविहिं ॥६५॥ चोरा य तस्स भवणे, पत्ता दिट्ठो य पायसो सिद्धो । गहिओ य तक्करेणं, एक्केण छुहाकिलंतेण ॥८॥ तं हीरंतं दटुं, हा! हा! मुट्ठ त्ति जंपिराई जवा । गंतूण चेडरूयाई, देवसम्मस्स साहिति ॥६९॥ अह सो कोववसुग्गय-भालयलकरालभिउडिभीममुहो । पुणरुतचंडतंडविय-तारनयणो विमुक्कसिहो ॥७०॥ अइवेगगमणविगलिय-कडिल्लसंठवणवावडकरग्गो । करहसिसुपुच्छसच्छह-मंसूणि परामुसंतो य ॥७१॥ रे! रे! कहिं गमिस्सह, पाव! मिलेच्छ! ति याहरेमाणो । परिहं घेत्तुं लग्गो, जुज्झेउं तक्रेहिं समं ॥७२॥ गुरुगब्मभरक्कन्ता, जुझंतं तं च वारए महिला । तहवि न सो पहरन्तो, विरमइ कुविओ कयंतो व्व ॥७३॥ तो तेणं हम्मते, दटुं सेणावई निययचोरे । अच्वंतजायकोयो, आयड्ढिय तिखकरवालं ॥७४॥ छिंदेइ माहणं माह-णिं च तस्संडतरम्मि वट्टतिं । मा पहरसु ति पुणरुत्त-जंपिरि अड्डदिन्नकरं ॥५॥ दटुं च फुरुंफुरंतं, असिघाएणं दुहाक्यं गभं । संजायपच्छयायो, दढप्पहारी विचिंतेइ । ॥७६॥ हा! हा! अहो! अकज्जं, कयं भए कहमिमाउ पावाओ । मुंचिस्समऽहं एतो, ता किं तित्थेसु बच्चामि ॥७७॥ किं या भेरवपडणे, पडामि जलणम्मि अहव पविसामि । किं या खिवामि भागी-रहीए सलिलम्मि अप्पाणं ॥७८॥ एमाऽऽइ विसुद्धिकए, उद्विग्गमणो विचिंतयंतो सो । पेच्छड़ मुणिणो एगत्थ, संठिए धम्मझाणपरे ॥७९॥ तप्पायपंकयं वंदि-ऊण परमाऽऽयरेण सो भणइ । एवंविहस्स पावस्स, कहह भंते! मह विसुद्धिं ॥८०॥ नीसेसपावपव्यय-निद्दलणुद्दामकुलिसपडितुल्लो । कहिओ तस्स मुणीहिं, कयसिवसम्मो समणधम्मो ॥१॥ उवलद्धकम्मविवरतणेण, अमयं व तस्स अभिरुइओ। तो संवेगोवगतो, ताण समीवम्मि निक्खंतो ॥८२॥ सुमरिस्सं जत्थ दिणे, तं दुच्चरियं न तत्थ भुंजिस्सं । इयऽभिग्गहं च घेत्तुं, विहरइ तत्थेव गामम्मि ॥३॥ सो एस तहाविहगरुय-पावकारि ति जपमाणेण । निंदिज्जड़ लोगेणं, हम्मइ य पहम्मि हिंडतो ॥४॥ अहियासइ सो सम्म, अत्ताणं निंदइ य पुणरुत्तं । न य गिन्हइ आहारं, धम्मज्झाणम्मि यट्टइ य ॥८५॥ एवं च तेण धीरेण, एक्कसि पि हु कयाइ न हु भुतं । उप्पाडियं च नाणं, विहुणियनीसेसम्मयं ॥८६॥ सुरअसुरवाणमंतर-थुव्वंतमयंकनिम्मलगुणोहो । अकलियसुहप्पमाणं, कमेण पत्तो य निव्याणं ॥८७॥ एयं णिसामिऊणं, सुट्ठ विगिटुं तवं ,तो यि । मा तम्मयं करेज्जासि, खयग! थेवं पि सिवकामी ॥८॥ छट्ठमयट्ठाणमिम, निद्दिष्टुं लेसओ सदिटुंतं । एतो य लाभविसयं, सत्तमयं तं पसाहेमि ॥८९॥ “लाभमदस्वरूपम्" - खउवसमाउ लाभंतराय-नामस्स कम्मुणो लाभो । तस्सेव उदयओ पुण, होड़ अलाभो नराण तओ ॥१०॥ लाभे वि लद्धिमंतो-हमेव एवं न अत्तउक्करिसो । न विसाओ य अलाभे, विवेयवंतेण कायव्यो , विवयवतण कायव्या ९१॥ जो लाभवं इहभवे, भिक्खं पि भयंतरे न सो लभइ । कम्मवसा दिलुतो, इहं मुणी ढंढणकुमारो ॥१२॥ तहाहि "ढंढणकुमार दृष्टान्तः" मगहाविसए नामेण, धण्णपूरो त्ति अत्थि वरगामो । किसिपरो पारासरनामो, तत्थ धणड्ढो वसइ विप्पो ॥१३॥ 1. गोन्नं = गुणवाचकम् । 193 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६८६४-६६३१ ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९९॥ ॥६९००॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ कुणइ य जं जमुवायं, दव्यकए करिसणाऽऽइयं किंपि । लाभाय भवइ सो सो, तस्स चिरऽज्जियसुकययसओ॥९४॥ | विलसइ य पवरभूसण- दिव्यंऽसुयकुसुममणहरसरीरो । बंधूहिं समं एयं लच्छीए फलं ति मन्नतो मगहाऽहिवनरवइणो, आएसा सो य गामपुरिसेहिं । करिसायेड़ चरीओ, हलाण पंचहिं सएहिं सया अह अन्नया नराहिय- चरीउ करिसितु उवरया एए । भोयणसमयम्मि छुहा - किलामिया करिसगा सुढिया ॥९७॥ वसहा य चंभमेक्केक्क - मऽप्पणो तेण दाविया छेत्ते । हत्थमऽणिच्छंता वि हु, बलाऽभियोगा अकरुणेण ॥९८॥ तप्पच्चइयं च दढं, निव्यत्तियमंऽतराइयं कम्मं । मरिऊण समुप्पन्नो, नेरइओ नरयपुढवीए तत्तो उच्चट्टिता, विचित्तभेयासु तिरियजोणीसु । देवेसु मणुस्सेसु य, संसरिओ कहवि सुकयवसा जलनिहिसंगेण व पत्त- पुण्णलावण्णमणहरंऽगीहिं । रामाहिं रायमाणे, विसिट्ठसोरट्ठदेसम्मि धणधन्नसमिद्धाए, पच्चक्खं देवलोगभूयाए । पयइगुणरागिसद्धाण - सूरधम्मिट्ठलोयाए बारवईए पुरीए, मुसुमूरियकेसिकंसदप्पस्स । तिक्खंडभरहभूयइ - सिरमणिरुइरुइरचरणस्स | जायवकुलनहयलदिणयरस्स, सिरिकन्हवासुदेवस्स । पुत्तत्तेणुववन्नो, नामेणं ढंढणकुमारो अहिगयकलाकलावो, कमेण सो तरुणभावमऽणुपत्तो । जुवईणं मज्झगओ, विलसड़ दोगुंदुगसुरो व्य अह अन्नया क्याइ, पसमियसव्वंऽगिवग्गसंतायो । देहप्पहाहिं दिसि दिसि, कुवलयपयरं व विकिरंतो अट्ठारससहसेहिं, सीलंगाणं व पवरसाहूणं । सहिओ सहिओ इव धम्म - गारिजूइयखग्गस्स भयवं अरिट्ठनेमी, गामाऽऽईसुं कमेण विहरंतो । संपत्तो बारवई, समोसढो रेवउज्जाणे तो जिणपउत्तिविणिउत्त-माणवेहिं कयप्पणामेहिं । आगमणेणं तित्थाऽ - हिवस्स वद्धाविओ कन्हो तेसिं च पारिओसिय-मुचियं दावाविऊण महुमहणो । जायवग्गेण समं, निक्खमिओ वंदिउं नेमिं तो परमहरिसपगरिस - विप्फारियलोयणो जिणं नमिउं । गणहरपमुहे य मुणी, समुचियठाणे समासीणो | सुरमणुयतिरियसाहारणाए, वाणीए भुवणनाहेण । पारद्धा धम्मकहा, पडिबुद्धा पाणिणो बहवे | अच्यंततहाविहकुसल-कम्मसंभारभाविकल्लाणो । पडिबुद्धो धम्मकहं, सुणिउं ढंढणकुमारो वि मुणियऽवयारं मित्तं भुयंगभीमं गिह व विसयसुहं । उज्झिता सो धन्नो, पव्वइओ जयगुरुसयासे संसाराऽसारतं, भावंतो सइ सुयं 2 अहिज्जेइ । कुव्यंतो विविहतयं, विहरइ सव्यन्नुणा सद्धिं विहरंतस्स य तं पुव्य - जम्मनिव्यत्तियं अणिट्ठफलं । समुदिण्णमंऽतराइय-कम्मं ढंढणकुमारस्स तो तद्दोसेणं, जेण, साहुणा सह भमेइ सो भिक्खं । उवहणइ तस्स लद्धिं पि, अहह! भीमाई कम्माई ॥१७॥ एगम्मि अवसरम्मि, मुणीहिं तदलाभवइयरे सिट्टे । मूलाओ च्चिय सिट्ठो, तव्युत्ततो जिणिंदेण तं सोउं सो धीमं, अभिग्गहं गिण्हड़ जिणसगासे । एतो परलद्धीए, भंजिस्समऽहं न कइया वि एवमऽविसण्णचित्तो, सुहडोव्य रणाऽवणिं समल्लीणो । दुक्कम्मवेरिविहियं, दुक्खं थेवं पि अगणेंतो निव्वाणविजयलच्छिं, उवलधुं विहियविविहवावारो उवभुत्ताऽमयवरभो - यणो व्व दिवसाई वोलेइ अह अन्नया जिगिंदो, पुट्ठो कंसाऽरिणा भययमेसिं । साहूणं मज्झे को, दुक्करकारि त्ति बागरसु तो भणियं जयगुरुणा, नणु दुक्करकारया इमे सव्वे । नवरं दुक्करकारी, एत्तो वि हु ढंढणकुमारो बहुकालो बोलीणो, जम्हा एयस्स धीरहिययस्स । दुसहमऽलाभपरीसह - मऽसमं सम्मं सहंतस्स धन्नो कयपुन्नो सो, जं कित्तइ इय सयं जएक्कपहू । एवं परिभावतो, जहाऽऽगयं पट्ठिओ कन्हो पविसंतेण पुरीए, तेण य दिट्ठो कहिं पि दिव्ववसा । भिक्खं भममाणो उच्च-नीयगेहेसु स महप्पा तो दूराओ च्चिय करिवराओ, ओयरिय परमभत्तीए । धरपीढलुलंतसिरेण, वंदिओ सो सिरिहरेण तं महुमहेण वंदिज्ज - माणमऽवलोइऊण इब्भेण । गेहट्ठिएण एक्केण, चिंतियं विम्हियमणेण धण्णो एस महप्पा, जो एवं माहवेण भत्तीए । वंदिज्जइ सविसेसं, देवाण वि वंदणिज्जेण अह वंदिउं नियते, हरिम्मि भिक्खं कमेण भममाणो । इब्भस्स तस्स भवणे, संपत्तो ढंढणकुमारो तो तेण सिंहकेसर- मोयगथालेण गरुयभत्तीए । पडिलाभिओ महप्पा, गओ य सव्यन्नुपामूले 1. सुढिया = श्रान्ताः । 2. अहिज्जन्तो पाठां० । Kn m*l ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१८॥ ॥१९॥ રા ॥२१॥ ॥२२॥ રો રજો ॥२५॥ ॥२६॥ પૂરા રા ॥२९॥ ढंढणकुमारदृष्टान्तः ॥१॥ mn ॥३॥ ॥४॥ ॥५॥ En ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ un ॥३१॥ 194 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६६३२-६६६७ ऐश्वर्यमदस्वरूपम् - धनसारपुत्रस्यदृष्टान्तः नमिऊण भणइ भगवं!, किमंडतरायं ममेण्हि खीणं ति। जयगुरुणा यागरियं, विज्जइ अज्ज वि य तस्सेसं ॥३२॥ एसा उ कन्हलद्धी, परमत्थेणं जओ नमंतं तं । तुह पेच्छिऊण इन्भेण, वियरिया मोयगा एए ॥३३॥ | एवं जिणेण भणिए, स महप्पा ते परस्स लद्धि ति । गंतूण थंडिलम्मि, सम्म परिठविउमाउडरद्धो ॥३४॥ परिठवमाणस्स य कम्म-कडुयविवागं विचिंतयंतस्स । सुद्धज्झाणवसेणं, उप्पन्नं केवलं नाणं ॥३५॥ तो केवलिपज्जायं, पालिता बोहिउं च भव्यजणं । जस्सट्ठा पव्वइओ, तं मोख्पयं समणुपत्तो ॥३६॥ एवं कम्माऽऽयत्तं, लाभाडलाभं विभाविउं धीर! । मा लाभयं पि काहिसि, तम्मयमडच्वंतपडिसिद्धं इय लाभमयट्ठाणं, सत्तममुवइट्ठमडट्ठमं इन्हिं । इस्सरियमयनिवारण-परमं अक्खामि संखेवा ૨૮ "ऐश्वर्यमदस्वरूपम्" - गणिमं परिमं मेज्जं, पारिच्छेज्जं धणं पभूयं मे । कोट्ठागारा खेत्तं, वत्थु च अणेगहा मज्झ ॥३९॥ रुप्पसुयन्नाण चया, आणासंपाडगा विविहभिच्चा । दासीदासजणा विय, रहा य तुरगा करिवरा य ॥४०॥ गोमहिसिकरहपभिइय-विचित्तभेया पभूयभंडारा । गामनगराऽऽगराऽऽई, अणुरत्तकलत्तपुत्ताऽऽई ॥४१॥ एवं पसत्थसव्वत्थ-वित्थराज्यत्थमीसरत्तं मे । मन्नेऽहोय ता इह, सक्खा जक्खो स वेसमणो ॥४२॥ इय इस्सरियं पि पडुच्च, न हु मओ सव्यहा वि कायव्यो । संसारुत्थपयत्था, सव्वे वि विणस्सरा जम्हा ॥४३॥ रायग्गिचोरदाइय-परिकुवियसुराऽऽइकारणगणम्मि । सइ सन्निहिए विहव-क्खयस्स न हु तम्मओ जुत्तो ॥४४॥ किंचन कुणंति दक्खिणुत्तर-महुरावणियाण सोउमडक्खाणं । समयपसिद्धं धन्ना, इस्सरियत्ते मयल पि ॥४५॥ तहाहि “धनसारपुत्रस्यदृष्टान्तः" सुपसत्थतित्थजयपहु-सुपासमणिथूमसोभिया नयरो । नामेण अत्थि महुरा, मणोहरा चमरचंच व्य ॥४६॥ तुलिएलविलमहाथण-संभारो तीए लोयविक्खाओ । इब्भो परमविलासी, अहेसि नामेण धणसारो ॥४७॥ सो अन्नया तहाविह-कज्जवसा भूरिपुरिसपरियरिओ । दाहिणमहुराए गओ, तहिं च समविभयकलिएण ॥४८॥ धणमितेणं वणिएण, विहियपाहुन्नयाऽऽइकिच्चस्स । अच्वंतपणयसारा, जाया निक्कित्तिमा मेत्ती ॥४९॥ अन्नम्मि वासरम्मि, पसन्नचित्ताण सुहनिसन्नाण । उल्लायो संयुत्तो, तेसिं अन्नोन्नमियरूयो ॥५०॥ पुहवीए भमंताणं, केसिं समं नेव होंति उल्लाया । के या पणयपहाणं, न मित्तभावं पयजंति ॥५१॥ संबंधमंडतरेणं, किं तु सरंतेसु भूरिदिवसेसु । सो पल्हत्थइ वेलुय-निम्माओ पालिबंधो ब्य ॥५२॥ संबंधो य १दुरुयो, मूलभयो होइ उत्तरभयो य । पिइमाइभाइविसओ, मूलो सो इन्हि नेवऽत्थि ॥३॥ उत्तरसंबन्धो पुण, यीवाहितेण संभवइ सो य । जइ णो धूया जायइ, सुओ व काउं तओ जुत्तो ॥५४॥ एवं च जावजीयं, विहडइ मेत्ती न वज्जजडिय व्च । पडियन्नमिमं दोहि वि, जुतं ति विमुक्ककुवियप्पं ॥५५॥ अह धणमित्तस्स सुओ, जाओ धणसारसेट्ठिणो धूया । अण्णोण्णं ताण कयं, बालाण वि तेहिं दिज्जं ति ॥५६॥ नियनगरीए य गओ, धणसारो साहिऊण नियकज्जं । इयरो य संपउत्तो, वट्टिउम्ऽभिरुइयकिच्चेसु ॥५०॥ एगम्मि य पत्थाये, सरयडब्भचलत्तणेण जीयस्स । सो पत्तो पंचत्तं, तस्स पयम्मि य ठिओ पुत्तो ॥५॥ सो एगया निसन्नो, मज्जणपीढम्मि ण्हाणकरणत्थं । तइया चउसु दिसासुं, चउरो कलहोयवरकलसा ॥५९॥ तत्तो दुव्वण्णमया, तंबमया तयणु मिउमया तत्तो । तेहिं च कीरमाणे, पहाणे महया पबंधेण ॥६०॥ इस्सरियत्तस्स सुरेंद-चावचवलत्तणेण कणयमओ । पुव्यदिसाए कलसो, नट्ठो गयणेण खयरो व्य ॥६१॥ एवं चिय सव्ये वि हु, नट्ठा तो उठ्ठियस्स हाणाओ । नटुं मज्जणपीढं पि, विविहमणिकणयचिंचड़यं ॥२॥ तो जायगाढसोगो, सो तविहवइयरं पलोइत्ता । गेयट्ठमुवट्ठियनाड-इज्जपुरिसे विसज्जेइ ॥६॥ जाओ भोयणसमओ, भिच्चेहिं रसवई उचट्ठयिया । कयदेवडच्वणकिच्यो, भोयणकरणथमाऽऽसीणो । ૬૪ विहियं पुरिसेहिं पुरो, तस्सिंदुसमुज्जलं रययथालं । अच्वंतजच्चकंचण-कच्चोलयरुप्पसिप्पिजुयं ॥६५॥ भुंजंतस्स य एक्केक्क-भायणं नासिउं समारद्धं । ता जाय मूलथालं पि, पत्थियं नासणकएण ॥६६॥ तो तेण विम्हिएणं, गहियं हत्थेण तं पणस्संतं । गहियं च जेत्तियं मोत्तुं, तति सेसयं नटुं 195 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६६६८-७००३ धनसारपुत्रस्यदृष्टान्तः - तपमद-ऐश्वर्यमदस्थाने बुद्धिबलमदप्रियतामदस्वरूपम् तो सिरिहरं पलोयड़, तं पि हु पेहेइ विगयसव्यधणं । नट्ठाई निहाणाई, यढिपउत्तं पि नो लहइ ६८॥ आभरणसमूहं पि हु, नो पावइ निययहत्थठवियं पि । वह उवयरिओ लहु दास-दासीवग्गो वि हु पलीणो ॥६९॥ | सयणगणो वि समग्गो, कओवयारो वि णेगवाराओ । बाढं अपरिचिओ इव, कत्थइ किच्चे ण चट्टे ॥७०॥ एवं च तं समग्गं, गंधव्यपुरं व सुमिणदिटुं च । परिभाविऊण सो सोग-विहुरहियओ विचिंतेइ ॥१॥ थी! मज्झ जीविएणं, जस्सेवं मंदभग्गसिरमणिणो । जम्मतरं व पल्लट्ट-मेक्कदिवसस्स चिय अंते ॥७२॥ सयखंडं विहडियसं-पयं पुणो संघडंति सप्पुरिसा । हारिंति विज्जमाणं पि, मारिसा अहह! काउरिसा ॥७३॥ मन्ने पुवभवम्मि, धुवं मए किंपि नो क्यं सुक्यं । पडिओ इण्हिं चिय तेण, एस विसमो दसापागो n७४॥ |ता संपयं पि सुक्यऽज्जणाय, वट्टामि होउ सोगेण । इइ चिन्तिऊण सिरिधम्म-घोसमूलम्मि पव्वइओ ॥५॥ संवेगाऽऽवडियमई, विणयपरो परमधम्मसद्धाए । सुतेणं अत्थेण य, पढेइ एक्कारसंडगाई पुव्वगहियं च तं थाल-खंडमुज्झइ न कोउहल्लेण । जइ पुण विहरंतो कहवि, पुव्यथालं निएमि ति ॥७७॥ अनिययविहारचरियाए, विहरमाणो य सो कहिं पि गओ । उत्तरमहरपुरीए, भिक्खट्ठाए य भममाणो ॥८॥ तस्स धणसारइब्भस्स, मंदिरे सुंदरे कहवि पत्तो । मज्जिता तव्येलं, इब्भो य उवट्ठिओ भोत्तुं ॥७९॥ दिन्नं पुरओ तं चेय, रययत्थालं सुया वि से पुरओ । नवजोव्वणाऽभिरामा, ठिया गहेऊण वीयणगं ॥८०॥ साहू वि अणिमिसऽच्छो, खंडं थालं पलोयए जाय । इन्भेण ताय भिक्खा, दवाविया तहवि नो जाइ ॥८१॥ तो इब्भेणं भणियं, भयवं! किं पेच्छसे ममं धूयं । वागरियं मुणिणा भद्द!, नत्थि धूयाए मे जं ॥२॥ किं तु कहेसु कहं ते, थालमिणं तेण जंपियं भंते! । अज्जयपज्जयपडिपज्ज-याऽऽगयं साहुणा भणियं ॥८३॥ साहेसु अवितहं तो, इन्भेणं पयंपिअं महं भययं! । ण्हायंतस्स उपट्ठिय-मखिलं ण्हाणोयगरणमिणं ॥८४॥ भोयणसमए य इम, भोयणभंडगपमोक्खमुवगरणं । सिरिघरमवि पउरेहि, निहीहिं आऊरियं गाढं ॥५॥ मुणिणा भणियं सव्वं, एयं मह आसि तेण तो युत्तो । कहमेयं? तो मुणिणा, पच्चयहेउं तओ थालं ॥८६॥ आणावेत्ता तं थाल-खंडगं पुव्वकालसंगहियं । ढोइयमऽह तत्तं पिय, 'झडत्ति लग्गं सठाणम्मि ૮ળા सिट्ठो य थामपिउनाम-विभवविद्धंसवइयरो सव्यो । सो एस मज्झ जामा-उओ ति नाऊण तो इब्मो ॥८॥ अंतोपसरंतमहंत-सोगवसनीहरंतबाहजलो । साहुमुवगूहिऊणं, बाढं रोवेउमाऽऽरद्धो ૮ विम्हइयमणेण य परि-यणेण कहकहवि वारिओ संतो । गाढपडिबंधबंधुर-मेयं साहुं समुल्लवइ ॥९०॥ धणवित्थारो सव्यो, तदऽवत्थो एस अच्छड़ तुज्झ । एसा य पुव्यदिण्णा, धूया मे तुज्झ साहीणा ॥११॥ आणानिदेसकरो, किंकरवग्गो य एस नीसेसो । ता पव्वज्जं मोतं. विलसस सगिहे व्य सच्छंदं । मुणिणा भणियं पुव्वं, पुरिसो परिचयइ कामभोगगुणे । ते वा पुव्वं पुरिसं, चयंति सुक्याऽवसाणम्मि ॥१३॥ जे उज्झिऊण वच्चंति, तेसिं गहणं न माणिणो जुत्तं । सरयडब्भविब्भमेहिं, ता मज्झं तेहिं मज्जतं ॥४॥ एवं निसामिऊणं, इब्भो पाउब्भवंतसंवेगो । चिंतेइ मम पि इमे, पाया निययं चइस्संति ॥९५॥ ता किं इमेहिं नियमा, विणाससीलेहिं कडुविवागेहिं । दुग्गइनिबंधणेहिं, भूवइचोराऽऽइगज्झेहिं ॥९६॥ हिययाऽऽयासकरेहि, दुस्संठप्पेहिं दुखदेएहिं । सव्यासु अवत्थासुं, बाढं सम्मोहजणएहिं ॥९७॥ एवं विभाविऊणं, इब्भो मोत्तूण सव्वमऽवि संगं । सुगुरुसमीचे सम्म, पडियन्नो सुमुणिपव्यज्जं ૧૮ના इय इस्सरियं नाउं, विणस्सरं तम्मयं कहं कुसलो । कुज्जा तहाविहे वि हु, विहवे पतम्मि कम्मवसा ॥१९॥ तहासीसा सीसिणियाओ, आणापरसव्वसंघपरिसा मे । मह सपरसमयसंतिय-महत्थपोत्थयपवित्थारो ॥७०००॥ मह पउपवत्थपायाऽऽ-सणाई अहमेव पउरजणनेयो । एवं पमुहो वि दढं, इस्सरियमओ अणिट्ठफलो ॥१॥ | एवं अट्ठपयारं, मयं निरुद्धंऽगिसोग्गइपयारं । क्यघणतमंऽधयारं, मा काहिसि बहुदुहवियारं “तप-ऐश्वर्यमदस्थाने, बुद्धिबलमदप्रियतामदस्यरूपम्' - अहवा तवइस्सरिय-ट्ठाणेसुं बुद्धिवल्लहत्ताई । वत्तव्याई तेसिं, सऊवमेयं समवसेयं ॥३॥ 1. चडत्ति पाठां०। 196 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५॥ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७००४-७०३६ क्रोधादिनिग्रहनामकतृतीयद्वारम् - प्रमादत्यागनामकचतुर्थद्वारम् - मद्यस्वरूपम् गहणुग्गाहणनवकिइ-वियारणट्ठाऽवधारणाऽऽईसु । बुद्धीए वियप्पेसु, अणंतपज्जायवुड्ढेसुं ૪ पुचपरिससीहाणं, विन्नाणाऽइसयगणअणंततं । सोउं संपयपरिसा, कह नियबद्धीए जंति मयं चाडुसएहिं काऊण, वल्लहं अप्पयं परजणस्स । सुणहो ब्च ही! वराओ, गरुयमरट्टं पयट्टेइ દા तह तेणेव स मण्णइ, इमस्स अहमेव वल्लहो एक्को । कता हत्ता च अहं, एयगिहे सव्वकज्जेसु ॥७॥ न उण वियाणइ मूढो, पुराकडेहिं सुनिउणपुन्नेहिं । एयस्स पुन्ननिहिणो, विहिओ सव्यंगकम्मयरो | अह अवगणिय कइया वि, जड़ तहाभूयवल्लहत्तं से । दंसेड़ विप्पियत्तं, ता तं डहइ विसायडग्गी ॥९॥ तम्हा एवंविहव-ल्लहत्तणे पाविए वि को णु गुणो । मयकरणेणं सुंदर!, दरिसियपच्छावियारम्मि ॥१०॥ चाणक्कयसगडालाउ-भिहाणमंतीण पुब्बकहियाई । सोउं कहाणयाई, मा काहिसि वल्लहत्तमयं ॥११॥ ता एयवल्लहो हं ति, वायमऽवहाय भीमभुयगं व । संपत्तवल्लहत्तो वि, तुममिमं चेव भावेज्जा ॥१२॥ अणवेक्खियनियकज्जो, वट्टामि इमस्स सयलकज्जेस । तेण पणयप्पहाणं, पयडड मह वल्लहत्त जड़ पुण निरवेक्खो हं, भवामि ता नूण निरुवयारि ति । चक्खुपहम्मि वि ठाउं, न लहामि कयाऽवराहो व्य॥१४॥ अट्ठ मयट्ठाणाई, उवलक्खणवयणमेव जाणाहि । इहरा वाई वत्ता, पोरुसिओ नीइमंतो हं ॥१५॥ इच्चाऽऽड्गुणुक्करिसा, मयठाणाई अणेगभेयाई । सव्वगुणगोयरं पि हु, ता मा काहिसि मयं वच्छ! ॥१६॥ जाइकुलाऽऽइमयपरे, पुरिसे न गुणोऽत्थि किं तु मयकणे । जाइकुलाऽऽईणं चिय, भवंडतरे लहइ हीणतं ॥१७॥ अन्नं निययगुणेहिं, ख्रिसंतो तेहिं चेव अप्पाणं । उक्करिसंतो बंधड़, नीयागोयं घणं कम्म ॥१८॥ तप्पच्वयं च सुचिरं, सरइ अपारम्मि भवसमुद्दम्मि । अच्वंताऽहमजोणी-कल्लोलुप्पीलहीरंतो ॥१९॥ इहभवियसव्वगुणगण-गोयरगव्यं अकुव्यमाणो य । जम्मडतरम्मि निम्मल-समत्थगुणभायणं भवइ ૨૦ इय बीयं पडिदारं, अट्ठमयट्ठाणनामगं भणियं । कोहाऽऽइनिग्गहमिओ, तइयं दारं पवक्खामि ॥२१॥ “क्रोधादिनिग्रहद्वारम्" - कोहाऽऽईण विवागो, अट्ठारसपावठाणगे वुत्तो । पत्तेयं पत्तेयं, जइ वि हु दिटुंतदारेण ॥२२॥ तह वि हु तव्यिणिवित्ती, अच्वंतं दुक्कर ति एत्थं पि । भुज्जो ठाणाऽसुण्णत्थ-माऽऽह खवगं पडुच्च गुरु॥२३॥ कोहाऽऽईण विवागं, नाऊणं ताण निग्गहे य गुणं । निग्गिन्हसु तं सुपुरिस!, कसायरिउणो पयत्तेणं ॥४॥ जं अतिक्खं दुक्खं, जं च सुहं उत्तम तिलोईए । तं जाण कसायाणं, बुड्ढिक्खयहेउयं सव्यं ॥२५॥ न वि तं करेंति रिउणो, न वाहिणो न य मयारिणो कुविया । कुव्वंति जमऽवयारं, मुणिणो कुविया कसायरिऊ॥२६॥ रागद्दोसवसगया, कसायवामोहिया नरा बहवे । संसारुच्छेयर, जिणेदवयणं पि सिढिलेति ॥२७॥ धण्णाणं खु कसाया, होऊणं जलहरा व्य साऽऽडोवा । प्रकोवपवणपहया, दूरुल्लसिया वि विहडंति ॥२८॥ या, मयणवियार व्य कुलपसयाणं । अंतो च्चिय जंति खयं, अकयाऽकज्जा सयाकालं ॥२९॥ धन्नाणं खु कसाया, गिम्हाऽऽयवसेयसलिलबिंदु व्य । जत्थुप्पन्ना निहणं पि, नूण तत्थेव वच्वंति ॥३०॥ धन्नाणं खु कसाया, परमुहकोद्दालगरुयघाएहिं । अंतो च्विय जंति खयं, सुरंगधूलि व्य खम्मंता ॥३१॥ धन्नाणं खु कसाया, परवयणाऽनिलवसेण संभूया । होन्ति असारफल च्चिय, तुंगा वि हु सरयमेह व्य ॥३२॥ धन्नाणं खु कसाया, अमरिसवसवढिया सुभीसणया । गरुया वि जंति विलयं, जलकल्लोल व्य तडपत्ता ॥३३॥ धण्णाण वि ते धण्णा, कसायगोधूमजवकणे जे उ । निप्पिट्ठपेसणे सह-करेंति अंतोघरट्ट व्य ॥३४॥ ता भो देवाणुपिया!, तुमं पि कोहाऽऽइनिग्गहपहाणो । होऊण तहा जय जह, सम्म आराहणं लहसि ॥३५॥ इय कोहाइविणिग्गह-दारं तइयं समासओ कहियं । तुरियमिओ सवियप्पं, पमायदारं पयंपेमि ॥३६॥ "प्रमादद्वारम" - धम्मे जेण पमायइ, स पमाओ सो य होइ पंचविहो । मज्ज' विसय कसाए नि विगह पि य पडुच्च ॥३॥ मद्यस्वरूपम्" - तत्थ य मज्जड़ जीयो, जेणं मज्जं ति भन्नई तेण । सव्वेसि पि वियाराण-मऽविकलं कारणं पयडं ॥३८॥ |अबुहअविसिट्ठपेयं, एयं हेयं तु बुहविसिट्ठाण । जम्हा पेयमऽपेयं, विबुहविसिट्ठ च्चिय मुणंति ॥३९॥ 197 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७०४०-७०७७ मद्यमांसादिस्वरूपम् इहपरलोयवियारे, जमजदुटुं दिट्ठमिह विसिडेहिं । तं उत्तमं जसकर, पयडं पेयं पवित्तं च ॥४०॥ जं वाडगमपडिकुटुं, विसिट्ठजणनिंदियं वियारकरं । इहलोगे च्चिय पच्चक्ख-मेय दीसन्तबहुदोसं ॥४१॥ जं पीयं पच्छायइ, विमलं पि मई मणं च उवहणइ । सव्विंदियाण जणयइ, वत्थुविबोहे विवज्जासं ॥४२॥ अप्पा वि जओ समभाव-पत्तसव्वेदियो वि सुत्थो वि । पोढमई वि हु फुडचेय-णो वि छेयाण वि नराण ॥४३॥ आसाइयमेताओ, सहस च्चिय अन्नहा विपरिणमइ । तं किर मज्जमडणज्जं, को णु सयण्णो पिबेज्ज फुडं ॥४४॥ इहपरभवदुहजणगा, दोसा पइसमयमेव मज्जाओ । पाउभयंति विविहा, बीयंडकूरा इव जलाओ ॥४५॥ तहामज्जा रागुक्करिसो, रागुक्करिसाउ बढइ कामो । कामाऽऽसत्तो य दढं, गम्माडगम्मं न चिंतेइ ॥४६॥ विगलतम विगलाणं, मज्जं जइ जणइ इहभये चेव । ता वहउ विसं समसीसि-यं पि सह तेण किं भणिमो॥४७॥ | अह मज्जं चिय जम्मंतरेवि, विगलिंदियत्तणं देइ । एक्कभवियं विसं ता, कह मजेणं समं तुलइ ॥४८॥ न य चिंतणीयमेयं, जह संधाणत्तओ विसिट्ठाण । पेज्जं चिय मज्जमहो!, जहाऽऽरनालं हि जेणेह ॥४९॥ पेयाऽपेयववत्था, सव्वा वि विसिट्ठलोयसत्थकया । संधाणसमते वि हु, पेयं एक्कं परं न तहा ॥५०॥ सिटुं संधियदक्वाऽऽइ-पाणगं सव्वहा जहा पेयं । संधाणते तुल्ले वि, न तह अत्थियकरीरजलं ॥५१॥ ता एसा लोयकया, पेयववत्था इमा उ सत्थकया । लोइयलोउत्तरियं, तं च दुहा तत्थिमं पढमं ॥५२॥ गौटी पैष्टी तथा माध्वी, विज्ञेया त्रिविधा सुरा । यथा चैका तथा सर्वा, न पातव्या द्विजोत्तमैः ॥५३॥ यस्य कायगतं ब्रह्म, मद्येन प्लाव्यते सकृत् । तस्य व्यपैति ब्राह्मण्यं, शूद्रत्वं च नियच्छति .॥५४॥ नारीपुरुषयोर्हन्ता, कन्यादृषकमद्यपौ । एते पातकिनः प्रोक्ताः पञ्चमस्तैः सहाऽऽवसन् ॥५५॥ | वर्षाणि द्वादश वने, ब्रह्महा व्रतमाऽऽचरेतु । गुरुतल्पः सुरापो वा, नाऽमूतौ शुद्धिम मधेन मद्यगंधेन, स्पृष्टं भाण्डमऽपि द्विजः । न संस्पृशेदऽथ स्पृष्टं, तदा स्नानेन शुध्यति ॥५ ॥ मज्जप्पमायविरओ, अमज्जमंसाऽसि एवमाऽऽइ पुण । लोउत्तरियं सत्थं, उभयनिसिद्धं तओ मज्जं ॥५॥ जेटुं कारणमेयं, मन्ने पावस्स तेण किर मज्जं । विणिवेसियं विऊहिं, सव्यपमायाणमाऽऽईए ५९॥ अप्पीए साऽऽकंखा, पीए विहलंघला य होंति जओ । सव्वडत्थेसुं तम्हा, निच्चमडजोग्गा तदाऽऽसत्ता ॥६०॥ विज्जन्ती वि हु न फुरइ, मतस्स मइ त्ति निच्छओ मज्झ । कहमडन्नहा उ अत्थे, गमइ अणत्थे उ आणेइ ॥११॥ रिउगम्मत्तप्पमुहा, इहलोगे चेव ताव बहुदोसा । परलोगे पुण दुग्गइ-गमाऽऽइणो मज्जपाणस्स ॥६२॥ मतस्स वयणखलणं, जं तं आउखउव्युवट्ठियओ । नरगं व पत्थिओ तह, अहो लुठंतो सयं जाइ ॥३॥ नयणाऽरुणतमवि किर, आसन्नीभयनरयतावकयं । अनिबद्धहत्थखिवणा, मन्ने जाओ निरालंबो ॥६४॥ रिसिणो य बंभणा विय, अन्ने वि हु धम्मकंखिणो जे य । मज्जम्मि जइन विज्जइदोसो तो कीस न पिबंति॥६५॥ पढमम्मि पमायंडगे, सुहचित्तविदूसगम्मि मज्जम्मि । दोसा पच्चक्खं चिय, भंडणपमुहा अणेगविहा ॥६६॥ सुव्वइ य लोइयरिसी, होऊण महातवो वि मज्जाओ । देवीहिं खित्तचित्तो, मूढो ब्व विडंबणं पत्तो ॥६७॥ कोई रिसी तवइ तवं, भीओ इंदो उ तस्स खोभकए । पेसेड़ देवीओ, ताहे आगम्म ताउ तयं ૬૮ળા आराहिऊण विणया, वरदाणोवट्ठियं च अभणिंसु । मज्जं हिंसं अम्हे, पडिमाभंगं च सेवेसु ॥६९॥ एयाई जइ न चउरो, ता एक्कं किंपि आयरसु भंते! । एवं स ताहिं भणिओ, सेसाणं नरयहेउत्तं ॥७०॥ परिभाविऊण समई-ए सुहहेउत्तणं च मज्जस्स । मज्जं पिविंसु मतो य, निब्भरं मंसपरिभोगं ॥७१॥ तप्पागकए दारु-प्पडिमाभंगं च तासि भोगं च । नूणमडकासी उज्झिय-लज्जो पम्मुक्कमज्जाओ છા तो भग्गतवोसत्ती, मरिऊणं दोग्गइं गओ सो उ । एवं बहुसावज्जं, मज्जं पुंजं च दोसाणं ॥७३॥ मज्जाउ जायवाणं पि, दोसमडइदारुणं निसामेता । मज्जपमायं सुंदर!, सुदूरमुज्झसु य सुयतत्तो ॥७४॥ तस्स निरंतरधम्मो, तस्सेव य सव्वदाणफलम उलं । सो सव्वतित्थन्हाओ, मज्जनिवत्ती क्या जेण ॥७५॥ जह संधाणुप्पज्जत-जंतुसंभारकारणत्तेण । मज्जं च बहुसावज्जं, तह मंसं मक्खणमहं पि ॥७६॥ अणवरयजंतुसंभूइ-भावओ सिट्ठनिंदियत्तेण । संपाइमसत्तविणा-सओ य एएसि दुट्ठत्तं ॥७७॥ 198 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७०७८-७११४ , मद्यमांसादिस्वरूपम् तहा| सारो धम्मस्स दया, सा पुण भण मंसभक्खिणो कत्तो । ता सम्मं धम्मवई, वज्जेज्जा मंसमाऽऽजम्मं ॥८॥ |संतेसुं अन्नेसु वि, अपाणिपीडाकरेसु पुरिसाणं । सुस्साऊसु सिणिद्धेसु, महुरपयइपवित्तेसु ॥७९॥ वन्नरसगंधफासेहिं, पयइसव्विंदियाऽभिरामेसु । अरिहेसु विसिट्ठाणं, विसिट्ठवत्थूसु लोगम्मि ૮ किं गरहिएण मंसेण, असिएणं हा! धिरत्थु मंसस्स । सुविसत्थथिराऽतक्किय-परपाणविणासणं जत्थ ॥१॥ जेण न रुक्खाहितो, जायइ मंसं न पुप्फफलओ वा । न. य भूमीओ न गयणा, नवरं घोराउ पाणिवहा ॥८२॥ ता को णु निक्कियो किर, दारुणपरिणामजीववहजायं । मंसमऽसेज्जा सज्जो, जं भुंजिय पडइ पयवीओ ॥८३॥ अन्नं च पयारंतर-जायं ताऽवस्सजढरभरणस्स । एगस्स वि दड्ढसरी-रगस्स एयस्स भरणत्थं ॥४॥ जं मुद्धो कुणइ जणो, जीयवहं तुच्छसुहकए तमिह । किं तस्स पयइरिकन्न-पालिचलमऽवि थिरं जीयं ॥५॥ न य चिंतणीयमेयं, जीवंगत्तेण नणु विसिट्ठाणं । असणीयमेव मंसं, सेसाहारो व्य इह जेण भक्खाऽभक्खववत्था, सव्या वि विसिट्ठलोयसत्थकया । जीवंडगसमते वि य, एगं भक्खं परं न तहा ॥८॥ सुपसिद्धमिणं गावीए, जह पयं पिज्जए न तह रुहिरं जीवंडगत्ते तुल्ले वि, एवमडण्णत्थ वि य नेयं ॥८॥ गोसाणमंसपडिसेह-णं पि न कहिं पि जज्जए एवं । हड्डाडइ वि असणीयं, होज्जा जीवंडगतल्लता ॥८९॥ किंचजइ जीवंडगतसमत-मत्तओ किज्जए इह पवित्ती । जणणीगिहिणीसु थीभाव-ओ य ता सा भवे तुल्ला ॥१०॥ तो एसा लोगकया, भक्त्व वत्था इमा उ सत्थक्या । लोइयलोउत्तरियं, तं च दुहा तत्थिमं पढमं ॥१॥ हिंसापवर्तकं मांस, अधर्मस्य च यर्द्धनं । दुःखस्योत्पादकं मांसं, तस्मान्मांसं न भक्षयेत् ॥१२॥ स्वामांसं परमांसेन, यो वर्द्धयितुमिच्छति । उद्विग्नं लभते यासं, यत्र यत्रोपजायते ॥१३॥ दीक्षितो ब्रह्मचारी वा, यो हि मांसं प्रभक्षयेत । व्यक्तं स नरकं याति, अधर्मः पापपरुषः ॥९४॥ आकाशगामिनो विप्राः, पतिता मांसभक्षणात् । विप्राणां पतनं दृष्ट्वा, तस्मान्मांसं न भक्षयेत् ॥९५॥ गच्छन्ति नरकं घोरं, तिर्यग्योनिं कुमानुषं । येऽत्र खादन्ति मांसानि, जन्तूनां मृत्युभीमतां ॥९६॥ योऽत्ति यस्य च तन्मांसं, अनयोः पश्यताऽन्तरम् । एकस्य क्षणिका तृप्ति-रन्यः प्राणैर्वियुज्यते श्रूयन्ते यानि तीर्थानि, त्रिषु लोकेषु भारत! । तेषु प्राप्नोति स स्नानं, यो मांसं नैव भक्षयेत् ॥९८॥ निर्वाणं देवलोकं या, प्रार्थयन्ति हि ये नराः । न वर्जयन्ति मांसानि, हेतुरेषां न विद्यते ॥१९॥ किं लिङ्गवेषग्रहणैः, किं शिरस्तुण्डमुण्डनैः । यदि खादन्ति मांसानि, सर्वमेव निरर्थकं ॥७१००॥ यो दद्यात् काञ्चनं मेलं, कृत्स्नां चैव वसुन्धरां । अभक्षणं च मांसस्य, न च तुल्यं युधिष्ठिर! 11811 नाऽकृत्या प्राणिनां हिंसां, मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणिवथे स्वर्ग-स्तस्मान्मांसं न भक्षयेत् . ॥२॥ शुक्रशोणितसंभूतं, यो मांसं खादते नरः । जलेन कुरुते शौचं, हसते तत्र देवताः ॥३॥ यथा वनगजः स्नातो, निर्मले सलिलार्णवे । रजसा गुंडयेद् गात्रं, तद्वन्मांसस्य भक्षणं कपिलानां सहस्रं तु, यो द्विजेभ्यः प्रयच्छति । एकस्य जीवितं दद्यात् कलां नाऽर्घति षोडशीं ॥५॥ अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी । संस्कर्ता चाऽन्यदाता च, खादकथाऽष्ट घातकाः ધો अल्पायुषो दरिद्राथ, परकोपजीविनः । दुःकुलेषु प्रजायन्ते, नरा ये मांसभक्षकाः ॥७॥ इच्वाऽऽइबहुपयारं, लोइयसत्थमवि अत्थि एत्थऽत्थे । लोउत्तरियं च पुणो, 'अमज्जमंसाऽसि' इच्वाइ ॥८॥ अहया जं चिय लोइय-सत्थं इह हेट्ठओ विणिद्दिटुं । लोउत्तरियं तं पि हु, इहाऽवयारित्तु भणणाओ ॥९॥ मिच्छादिट्ठीसुयं पि हु, किर सम्मदिट्टिणा परिग्गहियं । सम्मसुयं होड़ रसोव-विद्धलोहं पिव सुवन्नं आह किर जड़ बहेहिं, जीवंडगता विवज्जियं मंसं । मग्गाऽऽइणो वि किं नो, जीयंडगं दसिया जं नो ॥११॥ भन्नड़ जेसि तदंडगं, न ते जिया तुल्लरूविणो जम्हा । जह पंचेंदियजीया, माणसविन्नाणपडिबद्धा ॥१२॥ तणुदेसछिज्जमाणासु, मंसपेसीसु निसियसत्थेहिं । अच्वंतदुखिया होंति, पइखणुम्मुक्कसिक्कारा ॥१३॥ जीवत्तम्मि तुल्ले वि, नो तहा एगइंदियत्तेण । मुग्गाऽऽइणो भयंती, ता कहमेसिं मिहो समया ॥१४॥ શેકા 199 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७११५-७१४६ मद्यमांसादिस्वरूपम् तहाहिरे! रे! मारेह लहुं, भक्खामो एयमेवमाउडईयं । अच्वंतकक्कसगिरं, सोत्तंडता सुणइ फुडमेय ॥१५॥ उक्खयसुतिक्खखग्गाऽऽइ-बग्गकरपुरिसओ पहारं पि । भयभमिरतरलतारा-उ हत्थमडच्छीओ पेच्छंति ॥१६॥ चित्तं च वेयइ भयं, जायभओ पुण पकंपिरसरीरो । कप्पेड़ इय वराओ, अहह! ममोवट्ठियं मरणं ॥१७॥ एवं च जियत्तम्मि, तुल्ले वि पणिंदियो जहा तिक्खं । दुक्खं अणुहवइ फुडं, न तहा मुग्गाऽऽइएगिंदी ॥१८॥ किंचमणवइकायतिगेण वि, साऽवेक्त्रेणं परोप्परमऽवस्सं । अच्वंतं 'वत्तं चिय, दुक्खं अणुहवइ पचिंदी ॥१९॥ मुग्गाऽऽइणो य एगिदिया उ, संपज्जमाणमयि दुक्खं । काएणं चिय तं पि हु, अव्वत्तं किंचि वेयंति ॥२०॥ अन्नं च मरणभीओ, दतॄणमुवट्ठियं कहवि वहगं । नियजीयरवणकए, इओ तओ जह जह वराओ ॥२१॥ चलवलइ तसइ नासइ, लुक्कड़ अवलोक्कई य पंचेंदी। तह तह यहगो वि दढं, जायाऽऽवेसो पिसियगिद्धो॥२२॥ तव्विस्सासणवंचण-संगिण्हणमारणाऽऽइओवाए । जह चिंतड़ एगिदिय-हणणम्मि नो तहा नियमा ॥२३॥ ता जत्थ जत्थ बहुदुक्ख-संभवो घायणिज्जविसयम्मि । घायगविसयम्मि य जत्थ, जत्थ दुट्ठाऽभिसंधित्तं ॥२४॥ तत्थेय य बहुदोसो, तं पुण संभवति तसजिएसु फुडं । तेणं तदंडगमेव हि, मंसं तं चेव य निसिद्धं ॥२५॥ तब्विवरीयत्तणओ, जीयबहुत्ते वि मुग्गमाऽऽईया । नो मंसं न य दुट्ठा, लोगम्मि वि तह पसिद्धीउ ॥२६॥ न य जीवंडगतादेव, केवलमेयमभक्खणीयमिमं । किं तु तदुब्भवबहुअन्न-जीवभावा जओ भणियं ॥२७॥ "आमासु य पक्कासु य, विपच्चमाणासु मंसपेसीसु । आयंतियमुववाओ”, भणिओ य निओयजीवाणं" ॥२८॥ अन्ने उ पंचमुग्गाण, भक्खणे भक्खणं पणिंदिस्स । जंपति मूढमइणो, तण्ण जओ मोहवयणं तं ॥२९॥ अवरोप्पसाऽवेक्खत्त-संगया तंतवो जह पडतं । पावेंति न उण निरवेक्ख-याए मिलिया सुबहवो वि ॥३०॥ इय साऽवेक्वाण मिहो, समवायो इंदियाण एगत्थ । पावइ पणिंदियत्तं, सगोयरग्गहणपवणाणं ॥३१॥ विन्नाणपयरिसो वि हु, सुहदुहसंवेयगो तहिं चेय । पडिभिन्नइंदिएसुं, मुग्गाऽऽइसु बहुसु वि न सो उ ॥३२॥ इय अच्चतमऽवत्तं, फासिंदियनाणमेक्कमाउसज्ज । मुग्गाऽऽइसु बहुएसु वि, पणिंदियत्तं अजुत्तं ति ॥३३॥ लोइयसत्थे मंसं, भणियकमा वारिउं पडणुन्नायं । आवइसद्धाऽऽईसुं, तत्थेव य जेण भणियमिणं ॥३४॥ प्रोक्षितं भक्षयेन्मांस, ब्राह्मणानां च काम्यया । यथाविधिनियुक्तस्तु, प्राणानामेव वाऽत्यये ॥३५॥ यथाविधिनियुक्तस्तु, यो मांसं नाति वै द्विजः । स प्रेत्य पशुतां याति, संभवान्नेकविंशतिम् ॥३६॥ एवमऽणुन्नायस्स वि, इमस्स परिवज्जणं चिय पहाणं । जम्हा तस्सत्थेसु वि, पुणो वि एवं समक्खायं ॥३७॥ आपद्यपि च श्राद्धे च, यो मांसं नाऽत्ति वै द्विजः । सदायादः सगोत्रोऽसौ, सूर्यलोके महीयते ૨૮ ता लोइयलोउत्तर-सत्थनिरत्थं अउ च्चिय अवत्थु । परिवज्जणिज्जमेव हि, रेण धीरेहिं ॥३९॥ सव्वजणाउ अवन्ना, भवंतरे दारुणं दरिदत्तं । जाइकुलाणमडलाभो, सुनीयकम्मोवजीवित्तं ૪૦ देहे असत्तिमत्तं, भयाऽऽउरतं सुदीहरोगित्तं । सव्वत्थाऽणिट्ठतं, जायइ मंसाऽसिणो नियमा ॥४१॥ विक्किणगो धणलोभा, उपभोगविहाणओ य भक्खागो । बंधणवहेहिं हंता, तिण्ह वि मंसाउ वहगत्तं ॥४२॥ जो किर मंसं नाडसइ नासइ सो अप्पणो अजसवायं । जो पुण तयमाऽऽसेवइ, सेवइ सो नीयठाणाणि ॥४३॥ एवं अच्वंतदुरंत-दुक्खनरएक्ककारणं मंसं । अपवित्तमडणुचियं सव्व-हा वि हेयं ति नाडडदेयं ॥४४॥ जं दुटुं ववहारे, लोए सत्थे य दूसियं जं च । तं मंसमभक्खं चिय, चक्खूहि वि नो निरिक्वेज्जा ॥४५॥ करगहियमंसपेसी, चंडालाई वि कहवि मग्गम्मि । पुरओ आगच्छंतं, लज्जड़ दटुं विसिट्ठजणं ॥४६॥ गोहेममहीदाणाणि, तेण दिन्नाणि लक्खसंखाणि । जो बहुदोससमुस्सय-मडसेज्ज मंसं न मणसा वि तहाजह परमसं तह जड़, समंसमेवाऽऽयरेज्ज तब्भोई । ता न तहा दोसं पि हु, परपीडाऽभावओ मन्ने ॥४८॥ संभवड़ न उण एयं, अट्ठारसकणयकोडिओ इहरा । मंसजवतिगकए कह, मिलिया सुव्यंति अभयस्स ॥४९॥ 1. वत्तं = व्यक्तम् । 2. सययं चिअ उववाओ। 200 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५९॥ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७१५०-७१८६ अभयकुमारेण मांसस्य महर्घत्वस्थापनम् - विषयस्वरूपम् तथाहि "अभयकुमारेण मांसस्य महर्घत्वस्थापनम्" - रायग्गिहम्मि नयरे, अत्थाणीमंडवे निसन्नस्स । अभयकुमारप्पमुह-प्पहाणमंतीहिं सहियस्स ॥५०॥ सेणियरन्नो पुरओ, विविहकहासुं पयट्टमाणीसुं । पत्थाववसा भणियं, एक्केण पहाणपुरिसेणं । ॥५१॥ देय! महग्घमऽसलहं. धणधन्नाऽऽड इह तम्ह नयरम्मि । नवरमडमहग्यमेक्कं, मंसं सुलभं च सव्यत्थ ॥५२॥ इय तव्वयणं सामंत-मंतिजुत्तेण राइणा सम्म । पडिवन्नं केवलमडमल-बुद्धिणा भणियम भएण ॥५३॥ ताय! किमेयं मुज्झह, मंसाओ वि हु महग्घमिह नत्थि । जह तह सुलहाई कंस-दूसपमुहाणि वत्थूणि ॥५४॥ मंतीहिं जंपियं थेव-मुल्लदाणे यि भूरिलाभाओ । कहमउच्चतमहग्यत्त-मेयमुल्लयसि मंसस्स ॥५५॥ पच्चक्खं चिय सेसाणि, पेच्छ वत्थूणि पउरदव्येण । लब्भंति एव भणिए, मोणं काउं ठिओ अभओ ॥५६॥ नवरमिममेव वयणं, पइट्ठिउं तेण सेणियनरेंदो । वुत्तो पंच दिणाई, ताय! महं देहि रज्जं ति ॥५॥ वाहरिउं सयलजणं, अभओ रज्जे पट्ठिओ रण्णा । बाहइ सिरं ति सयमऽयि, युत्थो अंतेउरस्संडतो ॥५८॥ अभएण वि उस्सुको, अकरो लोगो कओ समत्थो वि । घोसविया अमारी, नियरज्जे यट्टमाणम्मि पत्ते य पंचमदिणे, रयणीए विहियवेसपरियतो । सामंतमंतिगेहेसु, सो गतो सोगविहुरो व्य युत्तो सामंताऽऽईहिं, नाह! किं एवमाऽऽगमणज्जं । भणियमऽभएण राया, अविहुरो सीसयियणाए ॥१॥ विज्जेहि य कालेज्जय-मोसहमाउडइट्ठमुत्तमनराण । नियगस्स तस्स तुब्भे, ता सिग्धं जयतिगं देह ૬૨ खुद्दो एसो त्ति विचिंतिऊण, तेहिं पि अप्परक्वट्ठा । रयणीए दिन्नाओ, अट्ठारस कणयकोडीओ ॥६३॥ जाए पभायसमए, पुन्नो अवहि ति रज्जमुवणीयं । अभएणं नियपिउणो, अह सो तं कणयगुरुरासिं ॥४॥ दठूण आउलमणो, विचिंतए निद्धणो धुवमडणेण । लोगो कओ कहऽन्नह, एत्तियमेतऽत्थसंपत्ती ॥६५॥ अह नयरवासिलोय-प्पयायमुयलंभिउं नरिंदेण । गूढनरा तियचच्चर-चउप्पहाऽऽईसु आइट्ठा ॥६६॥ आचंदसूरियं रज्ज-लच्छिमडणुहवउ निग्गयपयायो । सुचिरं अभयकुमारो, मणहारी अमयमुत्ति ब्व ॥६ ॥ इय पड़गेहं चिय जण-मुहाउ सोउं पुरम्मि जसवायं । गूढनरा नरवइणो, जहट्ठियं सव्वमडकहिंसु ताहे विम्हइयमणेण, राइणा पुच्छिओऽभयकुमारो । कत्तो एत्तियमेता, धणरिद्धी पुत्त! पत्त त्ति । ॥६९॥ तेणाऽवि मंसजवतिग-मग्गणपमुहो उ सव्वयुतंतो । सिट्ठो जहट्टिओ सेणि-यस्स विम्हइयहिययस्स ॥७०॥ अच्चंतमहग्घत्तं, सुदुल्लहत्तं च तयऽणु मंसस्स् । रन्ना निव्यभिचारं, पडियन्नं सेसएहिं ति (पि) . ॥१॥ इय सोऊणं सम्म, मंसस्साऽऽसेवणं पुरा वि क्यं । आराहणाकयमणो, मुणिवर! मा संभरेज्ज तुमं ॥७२॥ एवं पसंगपाविय-मंसाऽऽइसरुवकहणसंबद्धं । भणिऊण मज्जदारं, विसयदारं पवक्वामि “विषयस्यरूपम" - पुव्वं अणंतरं चिय, जे दोसा मज्जगोयरा भणिया । पाएणं विसएसु वि, ते चेव भवंति सविसेसा ॥४॥ जम्हा उ विसेसेणं, सीयंति इमेसु क्यमणा मणुया । एएण कारणेणं, विसयत्ति निरुत्तमेएसिं ॥७५॥ एए उ महासल्लं, इमे महासत्तुष्पो परे लोए । एए उ महावाही, एए उ परमदारिदं ॥७६॥ सल्लं हिययनिहित्तं, न सुहेल्लिं देइ दिहिणो उ जहा । अंतो विचिंतिया तह, विसया वि दुहाऽऽवहा चेव ॥७७॥ जह नाम महासत्तू, दायेइ कयत्थणाओ विविहाओ । एमेव य विसया वि हु, अहवा एए परभवे वि ॥७८॥ जह नाम महावाही विहुरत्तं कुणइ इहभवम्मि तहा । विसया वि नवरमेए, भवंतरेसु वि अणंतगुणं ॥७९॥ ठाणं पराभवाणं, सव्वाण जहेह परमदारिदं । विसया वि किर तह च्चिय, पराभवाणं परं ठाणं ॥८०॥ पत्ताई पावेंति, पाविस्संति य बहूणि बहवो वि । परिभवपयाई पुरिसा, ते जे विसयाडमिसपसत्ता ॥१॥ मन्नइ तणं पिव जगं, संदेहपए वि पविसई विसड़ । मरणस्स वि देइ उरं, अपत्थणिज्ज पि पत्थेड़ ॥२॥ लंघति समुदं भीसणं पि, साहेति घोरवेयालं । किं बहुणा विसयकए, पविसंति जमाऽऽणणे वि नरा ॥३॥ गरुयं पि हु परिवज्जिय, कज्जं विसयाऽऽउरो मुहुत्तेण । तं कुणइ जेण हासो, जावज्जीवं जए होड़ ॥४॥ ववसइ पिउणो वि वहं, बंधुं सतुं व भन्नइ मूढो । होइ अणिबद्धकज्जो, विसयग्गहपरिगओ पुरिसो ॥५॥ विसया अणत्थपंथो, विसया माहप्पलुंपगा पाया । विसया लहुत्तपयवी, अकंडविड्डरका विसया ॥८६॥ 201 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७१८७-७२२३ विषयस्वरूपम् | विसया अवमाणपयं, विसया मालिन्नकारणमडवंझं । विसया दुहेक्कहेऊ, इहपरभवबाहगा विसया ॥८७॥ खलइ मणो गलइ मई, परिहायडू पोरिसं पि पुरिसस्स । विसयाऽऽसत्तस्स गुरु-यइट्टमिटुं पि यीसरइ ॥८॥ सा जाई तं च कुलं, सा किती भुयणभूसणपयंडा । जइ ता विसयपसत्ती, ता फुसिया यामपाएणं ॥८९॥ जिणवयणदक्खचक्खू वि, पेक्खए पेक्वणिज्जभाये ता । जावडज्जवि विसयपसत्ति-लक्खणा नीलिमा न भवे ॥१०॥ | धम्माऽभिप्पायपई-वओ मणोमंदिरम्म ता फुरइ । जावडज्जयि विसयपसत्ति-लक्खणा नेइ याओली ॥११॥ सव्वन्नुवयणपोओ, ता भवजलहीउ तारणसमत्थो । विसयप्पसंगपवणो, जावडज्जयि नायकूलेड़ ॥९२॥ विमलं विवेयरयणं, तावउज्जयि दिप्पए पयासइ या । विसयप्पसंगपंसू, जावउज्जयि नाऽयगुंडेइ ॥३॥ विमलं पि जीवसंखे, पइट्ठियं सहइ ताय सीलजलं । विसयाऽभिनिविसेसाऽसुइ-संगा कलुसिज्जड़ न जाय ॥१४॥ धम्म कारमसत्ता, विसयपसत्ता निहीणतमसत्ता । 'अत्ताणं अत्ताणं, न मुणंति हियं च न कुणंति ॥९५॥ विसया विऊण विसया, दूरध्वगन्नियजिणाऽऽगमंडकुसया । तणुरुहिरहरणमसया, भयंति दायियअणिट्ठसया ॥१६॥ सुचिरं पि तयो तवियं, चिन्नं चरणं सुयं च बहु पढियं । जड़ ता विसएसु मई, ता तं ही! निप्फलं सव्यं ॥९॥ सन्नाणमणिमहग्धं, फुरंतचारित्तरयणचिंचइयं । ओ! विसयचंडचरडा, लुटंति जीयभंडारं ॥९८॥ सा तुंगिमा स तेओ, तं विन्नाणं गुणा वि ते चेय । सव्यं खणेण नटुं, धिरत्थु विसयाऽऽभिलासस्स ॥१९॥ हद्धी! अलद्धपुव्वं, जिणययणरसायणं पि घोट्टेउं । विसयमहाहालाहल-हल्लोहलिएहिं उग्गिलियं ॥७२००॥ सुहचरिए अप्पाणं, पावा पायाऽऽसयेसु सप्पाणं । अप्पाणं अप्पाणं, विसयाण कए कयत्यिंति ॥१॥ चिट्ठइ दिह्रिविसगोयरम्मि, वग्गइ य तिखखग्गडग्गे । असिपंजरम्मि कीलड़, सोयड़ सत्तीए अग्गम्मि ॥२॥ मढो नियमत्थएण हणड गिरिं । आलिंगड सहयहया-सणं च विसमडसह जीयडत्थी ॥३॥ छुहियं सीहं कुवियं च, पन्नगं सुबहुमच्छियं च महं । आहणइ सो अणज्जो, जो विसएसुं कुणइ गिद्धिं ॥४॥ अहया विसं मुहे च्चिय, खंधे च्चिय सुनिसिओ असी तस्स । गत्ता मुहपुरओ च्चिय, उच्छंगे च्चिय कसिणसप्पो॥५॥ पासट्ठिओ च्चिय जमो, हियए च्चिय तस्स जलड़ पलयडग्गी । मूलनिलीणो य कली, विसएसुं जस्स किर गिद्धी॥६॥ अहया नियवत्थंऽचल-गंठीबद्धं खु धरइ सो मरणं । सोयइ य निस्सहंडगो, चलंतकुड्डयलपासाए ॥७॥ उपविसइ स सूलाए, पविसइ य जलंतजउहरस्संडतो । कुंतगम्मि य नच्वड़, करेइ विसएसुं जो गिद्धिं ॥८॥ अहया दिह्रिविसाऽऽई, होति विणासाय तब्भये चेय । एए पुण हयविसया, अणंतभयदारुणविवागा ९॥ अहया ते सव्ये मंत-तंतदेवाऽऽइथंभिया संता । न भयंति तब्भये यि हु, भयाय विसया उण दुरंता ॥१०॥ विसए सेविंति जडा, अरईदुक्खस्स पसमणनिमित्तं । तं पुण तेहिं दढयरं, उच्छलइ घएण जलणो व्य ॥११॥ सूरा वि विसयगिद्धा, मुहजोया होति महिलियाणंपि । जे पुण ताण विरता, ते देवाणं पि पणतिपयं ॥१२॥ मोहमहागहगहितो, सहितो अरईए धम्मरइरहिओ विसयवसो वायारइ, मणवइकाए अयिसए वि ॥१३॥ विसयरणाऽवणिविणिवेसिया य, दुव्यारकणकरडिघडा । मणवइतणूहिं विलसइ, पेक्खियपडिवखरूवाऽऽई ॥१४॥ अण्णं च विसययासंग-वज्जिएणाऽयि निययबुद्धीए । पुरिसेण धरतेणं, तहायिहं निम्मलयियेयं ॥१५॥ सब्भावो वीसंभो, नेहो रइवइयरो य जुबइजणे । कीरंतो अचिरेणं, तवसीलययाई फेडेज्जा ॥१६॥ जह जह कीरइ संगो, तह तह पसरो खणे खणे होइ । थेवो वि होइ बहुओ, न य लहइ थिइं निरंभंतो ॥१७॥ एवं च सो अणज्जो, वयगयलज्जो समीहियअकज्जो । तं चेव कुणइ सज्जो, मुक्कंडगीकयसुकयकज्जो ॥१८॥ भीओ भीयाए समं, समंतओ विहियनिहुयरइकिरिओ । अहह! तहाऽवि स विसई, जह होज्ज सुही दुही को णु?॥१९॥ किंचदुलहं चरित्तरयणं, खंडिउमेक्कसि कहिंचि विसयवसो । पावइ दुगुंछियत्तं, जावज्जीयं पि सयलजणे ॥२०॥ आवायमेत्तसुहया वि, किंपि बहुभाविभवनिमित्तत्ता । विसया सप्पुरिसाणं, सेविजंता वि दुहजणया ॥२१॥ हा! थी! विलीणबीभच्छ-कुच्छणिज्जम्मि रमइ अंगम्मि । किमियो व्य एस जीयो, दुहं पि सोक्खं ति मन्नंतो॥२२॥ ता ताण कए दुहसय-निबंधणं भयइ बहुविहं जीयो । आरंभमहपरिग्गह-मओ उ बंधं पि पावाणं ॥२३॥ 1. अत्राणम् आत्मानम् । 2. विपदाः । 3. अप्राणम् =बलरहितम् । 202 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७२२४-७२६० कण्डरिकस्य दृष्टान्तः ता नरययेयणाओ, तिरियगतीओ य पाउणइ बहुसो । इय जरियजंतुणो मज्जि-याऽऽइपाणोवमा विसया॥२४॥ जड़ होज्ज गुणो विसयाण, कोई ता न हु जिणिंदचक्किबला । दुरुज्झियविसयसुहा, धम्माऽऽरामे तह रमंता॥२५॥ ता भो देवाणुपिया!, पयओ परिभाविऊण तुममेयं । चयसु 'मियं विसयसुहं, अपरिमियं भयसु पसमसुहं ॥२६॥ जेणमडकिलेससाहण-मडलज्जणीयं वियागसुंदरयं । पसमसुहमिमाहिंतो-डणंताणंतेहिं संगुणियं રેરણા ता सुक्यथा एत्थेव, गाढपडिबद्धमाणसा धीरा । धन्ना ते च्चिय परमत्थ-साहगा साहुणो निच्चं ॥२८॥ अणवरय-मरण-रणरणय-भीसणं पेच्छिऊण संसारं । चत्तं विसं व विसमं, विसयसुहं जेहिं दूरेण ॥९॥ विसयाउडसासंदाणिय-चित्ता य अपत्तविसयसोक्खा यि । हिंडंति कंडरीउ व्य, नियमओ घोरसंसारे ॥३०॥ तहाहि "कंडरिकस्य दृष्टान्तः" पुंडरीगिणीपुरीए, पयंडभुयदंडखंडियविपक्खो । आसी पुंडरीयनियो, जिणिंदधम्मक्कपडिबद्धो ॥३१॥ सो य महप्पा तडिदंड-भंगुरं जाणिऊण रज्जसिरिं । खरपवणाऽऽहयदीवय-सिहं व जीयं पि परिलोलं ॥३२॥ किंपागफलं व विराम-दिन्नदुक्खं च विसयसोक्खं पि । लक्खित्ता सविसेसं, सुगुरुसमीवाउ पडिबुद्धो ॥३३॥ पव्यजं काउमणो, कणिट्ठनियभायर, दढप्पणयं । कंडरीयनामधेयं, वाहरिउं भणिउमाऽऽढतो हे भाय! रज्जलच्छिं, उव जसु संपयं तुमं एत्थ । भयवासाउ विरत्तो, अहमिन्हेिं पव्वइस्सामि कंडरीएणं भणियं, दुग्गइमूलं ति जइ तुमं रज्जं । मोत्तूणं पव्यजं, वंछसि घेत्तुं महाभाग! । ॥३६॥ ता किं मज्झ वि रज्जेण, सव्वहा हं गुरुस्स पामूले । इन्हेिं चिय निस्संगो, जिणिंददिक्खं गहिस्सामि ॥३७॥ अह नरवइणा सुबहु-प्पयारहेऊहिं पारियो वि दढें । अच्चततरलयाए, सूरिसमाव स निक्खतो गुरुकुलयासोयगओ य, विहरमाणो पुराऽऽगराऽऽईसु । अणुचियआहारयसा, संजायसरीरगेलन्नो ॥३९॥ चिरकालाओ पुंडरि-गिणीए नयरीए आगओ संतो । उययरिओ येज्जोसह-विहीए पुंडरियनरवइणा ॥४०॥ |जाओ पगुणसरीरो, रसगिद्धीए तहाडयि अन्नत्थ । विहरिउमडणुच्छहतो, रन्ना उच्छाहिओ एवं ॥४१॥ धन्नो तुमं महायस!, निस्संगो जो न दव्यमाडाईस । थेवं पि ह पडिबंध. करेसि तवससियदेहो वि. ॥४२॥ तुममेव अम्ह कुलनह-यलम्मि संपुन्नपुन्निमाचंदो । सच्चरियपहापसरेण, जस्स धवलिज्जए भुवणं ॥४३॥ अप्पडिबद्धविहारो, तुमए च्चियऽणुष्टिओ महाभाग! । जो मज्झडणुवित्तीए यि, ठासि नो एत्थ ठाणम्मि ॥४४॥ इय उच्छाहगवयणेहिं, राइणा तह कहं पि पन्नयिओ । जह सीयविहारी व हु, कंडरिओ विहरिओ बहिया ॥४५॥ संजमपडिभग्गमणो, भूसयणासारभोयणाऽऽईहिं । सीलमहाभरपडिवहण-भंगुरो चत्तमज्जाओ ॥४६॥ विसयाऽभिसंगगरुओ, गुरुकुलयासाउ सो विनिक्खमिउं । रज्जोय जणट्ठा, समागओ पुण सनयरीए ॥४७॥ तत्तो निवउज्जाणे, तरुसालोलइयधम्मउवगरणो । हरियाऽऽउलधरणियलम्मि, संनिसन्नो य निल्लज्जो. ॥४८॥ तं च तहट्ठियमाऽऽयन्निऊण, राया समागओ नमिउं । संजमथिरकरणट्ठा, एवं भणिउं समारतो . ॥४९॥ तुममेक्को च्चिय धन्नो, क्यपुन्नो लद्धजीवियफलो य । पालेसि निरइयारं, जो पब्बज्जं जिणुद्दि8 ॥५०॥ दोग्गइनिबंधणेणं, रज्जेणं निबिडबंधणेण व । बद्धो हं पुण न लभामि, धम्मजं किमवि काउं ॥५१॥ एवं युत्तो वि हु रुक्ख-चक्नुक्खेवो न जाव सो किंपि । जंपेड़ ताव रन्ना, वेरग्गं उव्वहंतेणं ॥२॥ पुणरवि भणिओ हे मूढ!, पुव्यकाले वि वारिओ बाढं । पव्यज्जापडियत्तिं, तुम कुणंतो मए तइया ॥५३॥ दितो य रज्जमिन्हेिं च, तस्स दाणे वि किं सुहं तुज्झ । उज्झियनिययपइण्णस्स, तिणलवाओ वि लहुयस्स॥५४॥ एवं भणिऊण नराऽहियेण, रज्जं पणामियं तस्स । काऊण सयं लोयं, गहिओ सव्यो वि तव्येसो ॥५५॥ तो सयमवि पडिवज्जिय, पव्यजं अइगओ गुरुसमीवे । तत्थ पुणं गहियदिक्खो, छट्ठक्खमणस्स पारणए ॥५६॥ अणचियआहारयसा. बाढं संजायपोट्टसलो य । मरिऊणं उयवन्नो. देवो सव्यद्रसिन्दिम्मि ॥५॥ इयरो य मंतिसामंत-दंडनाहाऽऽइसयललोगेण । हीलिज्जतो पव्यज्जा-चायकारि ति पायो ति ૧૮ના अच्वंतविसयगिद्धीए, पउररसपाणभोयणाऽऽसत्तो । रुद्दज्झाणोवगओ, विसूइयादोसनिहयाऽऽऊ. ॥५९॥ मरिउणं नेरइओ, उप्पन्नो सत्तमाए पुढवीए । एवमऽपावियविसया, विसड़णो दुग्गइमुवन्ति ૬૦ 1. मितम् = अल्पम् । 203 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवारशाला श्लोक नं. ७२६१-७२६३ कषायस्वरूपम् - निद्रास्वरूपम् ता सुंदर! दरिसियदोस-दूसिए निरसिऊण हयविसए । आराहणाकयमणो, मणोडणवज्ज चिय धरेज्जा ॥१॥ एवं विसयद्दारं, निदंसियं संपयं च लेसेणं । तइयं कसायदारं, कमपत्तं चिय परूवेमि ॥६२॥ “कषायस्वरूपम्" - जइ वि कसाया हेट्ठा, उवट्ठा भूरिभणिइनियहेण । दुज्जेय ति तहायि हु, पुणो वि भण्णंति लेसेण ॥३॥ | एए दुट्ठकसाया, विडंबणाकारिणो जह पिसाया । पच्छा विहियविसाया, असुहविहाणेक्कयवसाया ॥६४॥ जणियदुरऽज्झवसाया, अणिट्ठदाणेण दावियपसाया । संरुद्धसिद्धिसाया, परलोगे विहियविरसाउडया ॥६५॥ आणेति परं वसणं. गालेंति य संपयं सविउलं पि । कज्जं च हारवेंति, सेविज्जन्ता इह कसाया ॥६६॥ धम्मस्स सुयस्स जसस्स, अहया सव्वस्स गुणकलावस्स । अव्यो! कसायकरणा, पुरिसेण जलंडजली दिण्णो ॥६७॥ सव्वजणगरहियत्तं, कसायकरणेण एत्थ लोगम्मि । परलोए संसारो, जायइ जमरणदुत्तारो अह पुन्नपावखेलय-चउगइसंसारवाहियालीए । गिरिउ व्व भमइ जीवो, कसायचोयाण हम्मंतो ॥६९॥ सव्वाऽवत्थासु पि हि अ-णिट्ठियाऽणिट्ठकारिणो चेव । जीवाण हयकसाया, पुव्यमुणीहि वि जओ भणियं ॥७०॥ यकसायतरूणं, पप्पं च फलं च दो वि विरसाई । पुप्फेण झाइ कविओ, फलेण पावं समायरड़ ॥७१॥ जं किर मणुयाण सुहं, जं च सुहं सव्वसुरवराणं पि । ततोडणंतगुणं तं, कसायजइणो जिणा बेति ॥७२॥ पीडाकर पि लोए, खलाउ अक्कोसहणणमाइयं । चंदणरसं व मण्णइ, सुतवस्सिजणो अओ चेव ॥७३॥ अक्कोसहणणमारण-धम्मभंसाण बालसुलभाणं । लाभं मन्नइ धीरो, जहुत्तराणं अभावम्मि ॥७४॥ अहह! बलिया कसाया, विजिया विजिया समुच्छलंति पुणो । तविजयकयमणाण वि, मुणीण समए वि जं भणिय॥७५॥ उवसामं पुवणीया, गुणमहया जिणचरित्तसरिसं पि । पडियायंति कसाया, किं पुण सेसे सरागत्थे ॥६॥ जीयो कसायकलुसो, चउगइसंसारसायरे घोरे । भिन्नं व जाणवतं, पूरिज्जइ पायसलिलेण ॥७७॥ किंच| कोहो माणो माया. लोभो रागो य दोसमोहो य । कंदप्यो दप्पो मच्छ-रो य एए महारिउणी ૭૮ एए हि जीवसव्यस्स-हारिणो कारिणो अणत्थाणं । सम्म विवेयपडियूह-विरयणा कुणसु निप्पसरे ॥७९॥ दुम्महणकसायपयंड-सत्तुणा पीडियं जयं सव्यं । ता सो धन्नो जो तं, हंतूण समं समल्लियइ कामत्थरइपरद्धा, मुज्झन्ति जमेत्थ धीरपुरिसा वि । तं मन्ने हं नूणं वियंभियं हयकसायाणं । ॥८१॥ ता तह कहविहु किच्चं, जह न कसाया उइंति उड्या या । अंतो चेव सुरंगाधूली-निचउ व्य निसमिति ॥८२॥ जड़ जलइ जलउ लोए, कुसत्थपवणाऽऽहओ कसायडग्गी। तमजुत्तं जं जिणवयण-सलिलसित्तो वि पज्जलइ॥८३॥ उक्कडकसायरोग-प्पकोयओ जायनिविडपीडस्स । पसमाउरोग्गं जायइ, जिणवयणरसायणाहिंतो ૮૪ अइभीमकसायविसप्पि-दप्पसप्पेहिं परिगयंडगाणं । तणुसत्ताणं ताणं, जिणवयणमहंतमंताओ ॥८५॥ किंचजइ ताव कसाय च्चिय, विणिज्जिया दुज्जया महारिउणो । ता निज्जियं तुमे खलु, सव्वं जेयव्यचक्कं पि ॥८६॥ हंतुं कसायतेणे, मोहमहावग्घपेल्लणं काउं । नाणाडइमग्गलग्गो, लंघसु भीमं भवारण्णं ૮ળો एवं कसायदारं, परुवियं संपयं कमप्पतं । जहठियदोसाडणुगयं, निदादारं निदंसेमि ૮૮ "निद्रास्वरूपम्' - अद्दिस्समाणरुयो, निद्दाराहू जयम्मि कोई इमो । जो जीयससिरवीणं, करेड़ गहणं निराऽऽलोयं ॥८९॥ सा खयमुवेउ निद्दा, जीवन्तो च्चिय मओ व्य जीए नरो । मतो. व्य मुच्छिओ इय, पण?सत्तो लहुं होड़ ॥१०॥ जह पयइकुसलसयलिं-दियगामो वि हु नरो विसं पाउं । लहु उवहयतस्सत्ती, जायइ तह निद्दवसगो यि ॥११॥ किंचनिउणनिमीलियनयणं, पुणरुत्तविमुक्कघोरघुरुडुक्कं । विहडियउट्ठउडुग्घाड-दंतविगरालमुहकुहरं ॥९२॥ अस्संठवियनियसणं, इओ तओ खित्तअंगुवंगं च । गयलायन्नमसन्नं, नियसु पसुत्तं मरंतं व ॥९३॥ तहा 204 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७२६४-७३३० अगडदत्तस्यदृष्टान्तः निदायसेण पुरिसो असमंजससंभयंततणुचेट्ठो । सुहुमे य बायरे वि हु, उवमद्दइ पाणिणोऽणेगे ॥९४॥ निद्दा उज्जमविग्यो, निद्दा विसघारियत्तमिव परमं । निद्दा असिट्ठचेट्ठा, निद्दा भयसंभयो परमो ॥९५॥ निद्दा नाणाऽभायो, निद्दा निस्सेसगुणगणंडतरणं । निद्दा विवेयससिणो, बहलमहामेहपडलसमा ॥९६॥ इहलोयपारलोइय-यवसायाणं निरंभणी निद्दा । सव्वाऽयायाण परं, निबंधणं निच्छियं निदा ॥९७॥ तेणेय अगलदत्तो, निद्दाचागेण जीवियं पत्तो । इयरनर पुण निद्दा-पमायओ पाविया निहणं ॥९८॥ तथाहि __ "अगडदत्तस्यदृष्टान्तः" उज्जेणीए जियसत्तु-राइणो सम्मओ अमोहरहो । नामेण आसि रहिओ, जसोयई पणइणी तस्स ॥९९॥ पत्तो य अगलदत्तो, तम्मि य बाले मओ अमोहरहो । तं जीवणं च दिन्नं, रन्ना अन्नस्स रहियस्स ॥७३००॥ अह तं जसोमई पेच्छि-ऊण विलसंतमत्तणो य सुयं । अकलाकुसलं बाढं, सोगेण अभिक्खणं रुयइ ॥१॥ पुट्ठा पुत्तेणं सा, अम्मो! तं कीस रुयसि निच्वं । निब्बंधे 'सिटुं तीए, कारणं तेण तो वुत्तं ॥२॥ अम्मो! किमऽत्थि इह कोयि, सो ममं जो कलाउ सिक्खवइ । तीए युत्तं पुत्तय! नत्थि इहं किं तु पिउमित्तो॥३॥ कोसंबीए पुरीए, दढप्पहारित्ति अत्थि तो सिग्घं । सो तत्थ गओ तस्संड-तियम्मि तेणाऽवि पुत्तो व्य ॥४॥ ईसत्थाऽऽइकलासु, परमं कोसल्लयं समुवणीओ । नीओ य रायपासे, निययिज्जादसणकएण दंसियमऽसेसमीसत्थ-पमुहकोसल्लमडगलदत्तेण । तुट्ठो सव्यो लोगो, नयरि न एक्को महीनाहो દા तह यि य तेणं युत्तो, भण किं ते जीवणं दवायेमि । दूरोणामियसीसेणं, भणियमह अगलदत्तेण साहुक्कारं जड़ मे, न देसि ता किं परेण दाणेण । एत्थंतरम्मि राया, विन्नतो नगरिलोएणं । देव! समग्गा नयरी, लुटिज्जइ तक्रेण केणाऽवि । गूढपयारेणं तस्स, यारणं कुणउ ता देयो . ॥९॥ तो युत्तो नरयइणा, नयराऽऽरक्खो जहा तुम भद्द! । सत्तदिवसाण अब्म-तरम्मि चोरं लहेसु ति ॥१०॥ अह जा नयराडरक्खो, सुरुक्खचक्खू न किंपि जंपेड़ । ता अवसरो ति कलिऊण, जंपियं अगलदत्तेण ॥११॥ देव! पसीयह वियरह, आएसमिमं महं जहा तम्ह । उयणेमि तक्करं सत्त-रतमज्झम्मि कतो वि ॥१२॥ दिन्नो रन्नाऽऽएसो, ततो सो राउलाओ नहिरिओ । चिंतेइ विविहणेयत्थ-धारिणो लिंगियेसा य . ॥१३॥ सुन्नसभाऽऽसमदेउल-पमोक्खठाणेसु तक्करा पायं । निवसंति चारपुरिसेहिं, ताणि ता पेहयामि अहं ॥१४॥ एवं विचिंतिऊणं, सय्यट्ठाणाणि मग्गिओ सम्म । नीहरिओ नयरीओ, पत्तो एगम्मि उज्जाणे ॥१५॥ अह सहयारतरुतले, नियसियमलिणंडसुओ समाउडसीणो । चोरग्गहणोवायं, चिंतंतो अच्छए जाय ता आगओ कुओ वि हु, तत्थ परिव्यायगो रुणुझुणंतो । भंजिय तरुसाहं विर-इयाऽऽसणे सन्निसन्नो य ॥१७॥ दठूण तं च उब्बद्ध-पिंडियं तालदीहयरजंघं । कूरच्छमेस चोरो ति, चिंतियं अगलदत्तेण ॥१८॥ एवं विचिंतयंतो, तेण परिव्यायगेण सो भणिओ । आओ सि यच्छ! कत्तो, हिंडसि केण व निमित्तेणं ॥१९॥ तेणं भणियं भयवं!, उज्जेणीओ पहीणविभयो हं । एवं भमामि नेवत्थि, कोई मे जीवणोवाओ ॥२०॥ मुणिणा युत्तं पुत्तय!, जइ एवं देमि ता अहं दव्यं । संलत्तमडगलदत्तेण, सामि! दढमडणुगिहीओ हं ॥२१॥ एत्थंऽतरम्मि अत्थयण-मुवगयं चंडभाणुणो बिम्बं । तदऽज्जकरणपंछ व्य, पसरिया सव्वओ संझा ॥२२॥ तीए य अड्गयाए, समुच्छलतेसु तिमिरनियरेसु । आयड्ढिऊण खग्गं, तिदंडमज्झाउ निसियऽग्गं ॥२३॥ आबद्धपरियरो सो, समगं चिय झत्ति अगलदत्तेण । नगरीए गओ खतं, च, पाडियं धणवइगिहम्मि ॥२४॥ आयड्ढियाउ तत्तो, पेडाउ भूरिभंडभरियाउ । मोत्तूण अगलदत्तं, तहिं च सुरभवणसुत्तनरा ॥२५॥ उट्ठविऊणं उयलोभिउं च, परियायगेण आणीया । गिन्हायियाओ ताओ, तत्तो तेहिं सह पुरीओ ॥२६॥ | सिग्घं चिय निक्खंतो, पत्तो एगम्मि जिन्नउज्जाणे । भणिया य तेण पुरिसा, सप्पणयं अगलदत्तो य ॥२७॥ | रे पुत्ता! सुयह खणं, इहेय जा सव्वरी गलइ किंपि । पडियन्नं सव्येहिं, सुत्ता य सुनिभरं सब्चे ॥२८॥ नवरं संकियचित्तो, निद्दाकवडेण ठाउं खणमेक्कं । तरुगहणम्मि निलुक्को, नीहरिऊणं अगलदत्तो ॥२९॥ निदायसगा य परे, पुरिसा गाउं तिदंडिणा निहया । सत्थरए हणणत्थं, निरिक्खिओ अगलदत्तो वि ॥३०॥ 1. जहट्टियं पाठां 0 1 2. इष्वस्त्रादिकलासु । 205 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७३३१-७३६४ अगडदत्तस्यदृष्टान्तः - विकथास्वरूपम् ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३५॥ ॥३७॥ ॥३९॥ ॥४०॥ तं च अपेच्छंतो सो, वणगहणे पेहिउं समाऽऽरद्धो । अभिमुहमिंतो य हओ, खग्गेणं अगलदत्तेणं अह गाढघायवियणा- घुम्मिरदेहेण तेण संलतं । विगयप्पायं हे वच्छ!, जीवियव्यं मह इयाणि ता गिन्हसु मम खग्गं, वच्चसु य मसाणपच्छिमविभागे । तहियं च चंडियाऽऽययण - भित्तिपासम्मि ठाऊणं ॥३३॥ सद्दं करेज्ज जेणं, तब्भूमिहराउ नीइ मम भट्टणी । दंसेज्जसु तीए असिं, जेणं सा भवइ तुह भज्जा ॥३४॥ दंसइ य गेहसारं, एवं वृत्तम्मि अगलदत्तेण । तह चेय कयं ता जाय, भूमिभयणम्मि वि पट्टो दिट्ठा य तत्थ पायाल - कन्नगा विय मणोहरसरीरा । एगा जुवई पुट्ठो, तीए कत्तो तुमं सित्ति आयड्ढिऊण खग्गं, निदंसियं तीए अगलदत्तेण । मुणियं च णाए नियभाउ - मरणमऽह रुंभिउं सोगं संभमभरियऽच्छीए, सुहय! तुहं सागयं ति भणिरीए । उवणीयमाऽऽसणं से, आसीणो सो य साऽऽसंको ॥ ३८ ॥ तीए य पुव्यविरइय - गरुयसिलाजंतसंगया सेज्जा । दिव्योवहाणकलिया, पगुणा सव्वाऽऽयरेण कया भणिओ य अगलदत्तो, वीसमसु खगं इहं महाभाग ! | वीसंतो सो य तहिं, नवरं एवं विचिंतेड़ नूणं न सुंदरमिहाड - वत्थाणं मा भवेज्ज कूडमिमं । ता निद्दं अकुणतो, ठामि इमा वच्चए जाव अह ठाऊण खणं सा, जंतनिवाडणकरण नीहरिया । इयरो वि पएसन्तर - मडल्लीणो उज्झिउं सेज्जं तीए य कीलियं फे- डिऊण सा पाडिया सिला सहसा । भग्गा य तीए सेज्जा, सव्वत्तो निवडमाणीए ॥ ४३ ॥ तो परमहरिसपसरिय- वियसियहिययाए तीए संलतं । हा! सुट्टु हओ दुट्ठो, मह भाउविणासकारि ति ॥ ४४॥ तो धाविऊण धरिया, केसकलायम्मि अगलदत्तेण । हा! हा! दासीधीए !, को मं हणइ ति भणिरेण पाएसु निवडिऊण य, संलत्तं तीए रक्ख रक्ख त्ति । चत्ता तत्तो नीया य, राइणो पायमूलम्मि सयलो से वृत्तंतो, सिट्ठो तुट्ठेण तो महीयइणा । दिन्ना महई भुत्ती, लोगेण य पूइओ बाढं सव्वत्थ जायकित्ती, गओ य कालक्कमेण नियनगरिं । दिन्ना पिउणा भुत्ती, रन्ना सक्कारिऊणं से निद्दाचागाऽचागे, एवं संपेहिऊण गुणदोसे । इहपरभवसुहकामी, को बहुमन्नेज्ज निद्द ि किंच ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४५॥ En ૫૫ ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ नरवइसेवापमुहे ववसाए बहुविहे वि इहभविए । सज्झायज्झाणाऽऽई, परभविए वि हु हणड़ निद्दा रिउणो लहंति छिड्डुं डसंति सप्पा पसुत्तमऽह कहवि । अग्गीए होइ गम्मो, सुविरो त्ति हसंति मित्ताऽऽई ॥५१॥ | दोसकरोवरिसंठिय-जियमुत्ताऽऽई मुहे हवा पडड़ । अह खुद्ददेवया वा, छलइ पसुतं मत्तं ति ॥५२॥ तं दक्खतं सो बुद्धि - पयरिसो तं च किर सुविन्नाणं । पुरिसस्स अन्तरिज्जइ, एक्कपए चेव निद्दाए ॥५३॥ अन्नं च निद्दातमस्स सरिसो, सव्वाऽऽवारी परं तमो णत्थि । ता निज्जिज्ज सम्मं, निद्दं झाणस्स विग्घकरिं ॥ ५४ ॥ जओ जागरिया धम्मीणं, आहम्मीणं तु सुत्तया सेया । वच्छाऽहियभगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए सुयइ सुयंतस्स सुयं संकियखलियं भवे पमत्तस्स । जागरमाणस्स सुयं, थिरपरिचियमप्पमत्तस्स सुयइ य अयगरभूओ, सुयं च से नासए अमयभूयं । होही! गोणब्भूओ, नट्ठम्मि सुए अमयभूए ता भो देवाऽणुपिया !, जिणिउं निद्दापमायपरचक्कं । अप्पडिहयप्पबोहो, विहरसु थिरपरिचियसुयऽत्थो एवं चउत्थमुवइट्ठ - मेत्थ निद्दाऽभिहाणपडिदारं । एतो विगहादारं, पंचमगं पि हु पयंचेमि ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५८॥ ॥५९॥ “विकथास्वरूपम्” ॥६२॥ | विविहा विरूविगा या अहवा संजमविबाहगत्तेण । संभवइ जा विरुद्धा, कहा वि विगह त्ति सा भणिया ॥ ६० ॥ विसयं पडुच्च सा पुण, चउप्पायारा. परूविया समए । इत्थिकहा भत्तकहा, देसकहा तह य रायकहा ॥ ६१॥ इत्थीणं इत्थीसु व, कह त्ति इत्थीकहा मुणेयव्या । तद्दारेणं संजम - विरोहिगा जा उ सा विकहा | जाड़कुलरूयनेवत्थ- गोयरा थीकहा भये चउहा । तत्थवि खत्तिणिबंभणि- वेसिणिसुद्दीण मज्झाओ अन्नयरजाइयाए, पसंसणा निंदणा व कीरड़ जा । सा जाइकहा भन्नड़, तीए सरूवं इमं तु जहा जाइकहा F ॥६४॥ 206 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७३६५-७३६१ विकथास्वरूपम् धी! जीविएण खत्तिणि-बंभणियेसीण बालविहयाणं । जीवन्तमयाए सब्व-ओ यि तह संकणिज्जाणं ॥६५॥ सुद्दीओ च्चिय मण्णे, धण्णाउ जयम्मि नवरमेक्काउ । नो जाण नवनवडन्नडन्न-पुरिसकरणे वि दोसोउत्थि ॥६६॥ कुलकहा - उग्गाऽऽइ-कुलुप्पन्नाण-मन्नतरगाण जा पुण पसंसा । निंदा या किर कीरइ, भणंति तं कुलकहं ति जहा ॥६७॥ चोलुक्कसुयाणं चिय, तहाविहं साहसं न अन्नाणं । निप्पेमा यि ह पविसंति, जाउ जलणं पइम्मि मए ॥६८॥ रुवकहा - जा पुण रूवपसंसा, अंधिप्पभिईण अन्नतरगाए । निंदा या तबिउणो, तं रूयकहं भणंति जहा ॥६९॥ लीलाललंतलोयमुहीसु, लायन्नसलिलजलहीसु । रइरमणो वि हु अंधीसु, चेव सव्यंगमडल्लीणो ૭૦થી अहयाधूलिपंगुरियतणू, जउमयमणिया वि नो गले बहुया । जट्टीए कारविया, उट्ठबइस्सं तहवि पहिया ॥७१॥ नेवत्थकहा - तासिं चिय अन्नयरीए, जाउ नेवत्थसंसणाऽऽइया । सा पुण नेयत्थकहेह, देसिया तविऊहिं जहा ॥७२॥ अत्तुच्छाउणच्छेणं, नवत्थेणं सुछाइयंडगीए । वियसंतनयणनीलु-प्पलाए सोहग्गवावीए ॥७३॥ नारीए उ दिव्याए, धिरउत्थु तारुण्णयस्स तरुणेहिं । लायन्नजलं नयणंड-जलीहिं नाऽऽपिज्जए जीए ॥७४॥ इच्चाइनेयत्थकहा । गया इत्थिकहा ॥ भत्तकहा यि चउद्धा, आवायकहा तहेव निव्याये । आरंभकहा तइया, निट्ठाणकहा चउत्थी उ ॥५॥ आवायकहा इह रसवतीए, एवइयगाउ सागाऽऽई । एत्तियमेत्ता य घयाउड-इणो रसा पुण पउत्ति ति ॥६॥ इच्चाऽऽइ आवायकहा ।। | निल्यावकहा भन्नड़, एत्तियमेत्ता उ यंजणपयारा । तह पक्कन्नविसेसा, एयइया तत्थ भोज्जे ति ॥७॥ इच्चाऽऽइ निव्वावकहा ।। अह आरंभकहा पुण, जलथलखहयरजियाण उवओगो । एत्तियमेत्ताण फुडं, संजायइ तत्थ भोज्जे ति ॥८॥ इच्वाऽऽइ आरंभकहा । निट्ठाणकहा एसा, सयं व पंच व सया सहस्सं या । किं बहुणा लक्खाऽऽइ यि, उतजुज्जइ तत्थ भोज्जे ति॥७९॥ इच्चाऽऽइ निट्ठाणकहा । भणिया भतकहा ॥ देसकहा वि चउद्धा, छंदकहा विहिकहा वियप्पकहा । नेवत्थकहा य तहा, तत्थ य देसो उ मगहाई ॥८०॥ छंदो गम्माडगम्म, जह किर लाडाण माउलगधूया । गम्मा गोल्लाऽऽईणं, भगिणि च्चिय सा अगम्मेव ॥८१॥ अहवा उ उइच्वाणं, माउसवत्ती जहा भवे गम्मा । अन्नेसिं नेय कहा, जणणि व्य इमा उ छंदकहा ॥८२॥ इच्वाऽऽइ छंदकहा । तप्पढमयाए जं जत्थ, भुज्जए सा भवे उ देसविही । तीए कहा पुण जा सा, देसविहिकहा मुणेयव्या ॥८३॥ अहवा विवाहभायण-भोयण मणिव्यए पसाहणाऽऽईणं । जा विरयणा विहीए, कहेह सा विहिकहा होई ॥८४॥ इच्वाऽऽइ विहिकहा । अह होइ विगप्पकहा, तत्थ विगप्पो हु सासनिप्फत्ती । तह वप्पकूवसारणि-नइरेल्लगसालिरोप्पाऽऽई ॥५॥ घरदेवउलविभागो, तहा निवेसो य गामनगराऽऽई । एमाऽऽईओ तस्स उ, कहा भवे इह वियप्पकहा ॥८६॥ नेवत्थं इह भन्नइ, इत्थीपुरिसाण संतिओ वेसो । सो य दुहा साहायिय-भूसापच्वइयभेएणं तस्संसा निंदा या, नेवत्थकहा भये मुणेयव्या । इइ चउहा देसकहा, रायकहा भन्नए अहुणा ૮૮ |सा वि चउद्धा भणिया, निजाणकहा तहेव अइयाणे । होइ बलवाहणकहा, तह कोट्ठाडगारकोसकहा ॥८९॥ गामनगराऽजगराओ, निग्गमणं नरवइस्स निजाणं । एएसुं चिय जं पवि-सणं तु तं बेंति अइजाणं ॥१०॥ निज्जाणं अइयाणं, पडुच्च जं यण्णणं णरेंदस्स । सा किर निज्जाणकहा, अइयाणकहा य होई तहा ॥११॥ 1. मणिच्चपसाहणाइंणं पाठां०। 207 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७३६२-७४२६ विकथास्वरूपम् - गुणकरस्त्रियादिकथास्वरूपम् ॥९२॥ ॥९३॥ ॥९४॥ ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९७॥ उद्दामसद्ददुंदुहि-झंकारमिलंतमंतिसामंतो । करितुरयचक्किपाइक्क - चक्क अक्कतमहिवीढो करिपट्ठिसंनिविट्ठो, ससिसच्छहछत्तचामराऽऽडोयो । नयराउ नीड़ राया, राया व सुराण रिद्धीए | वियरितु चित्तकीलं, कीलागिरिकाणणाऽऽइसु जहिच्छं । तुरयखुरुक्खयखोणी - रयधूसरसयलसेन्नजणो भूभंगमोक्कलिज्जंत-जंतसामंतकप्पियपणामो । अणवज्जवज्जिराऽऽउज्ज - मेस राया पुरमईड़ बलवाहणं तु भण्णइ, गयहययेगसरकरहपभिईयं । तव्वण्णस्सख्या, बुच्चड़ बलवाहक | हयगयरहजोहसमूह - दुम्महुम्महियभूरिरिउयग्गं । एवंविहं न सेण्णं, मन्ने अन्नस्स नरयइणो कोट्ठाऽगारा धन्नाऽऽलया उ कोसो य होड़ भंडारो । तव्वण्णणं तु जं सा, कहा वि तन्नामपुव्वा उ ॥९८॥ | नियभुयपरक्कमक्कन्त-रायकोसेहिं निच्चयड्ढतो । नियवंसजपुरिसपरं - पराऽऽगओ जयड़ से कोसो इच्चेयाओ चउरो, विगहाओ इमीसु कीरमाणीसु । जे दोसा ते भणिमो, तत्थित्थिकहाए ता पढमं ॥ ७४००॥ | दढमडप्पणो परस्स य मोहस्सुद्दीरणं थिइकहाओ । उद्दीरियमोहो पुण, दुरुज्झियलज्जमज्जाओ किं किं न चिंतइ मणे, असुहं किं किं न जंपड़ गिराए । काएण किं व न कुणड़, कए य तह पवयणुड्डाहो॥२॥ इत्थीकहं कहतं, सोउं दठ्ठे च जेण छेयजणो । उग्गाराऽऽगारेहिं, इयमित्तो एसइइ कलड़ |जओ ॥९९॥ ॥१॥ ॥३॥ तहा ॥४॥ ॥५॥ ॥७॥ वंकभणियाई कत्तो, कत्तो अद्भऽच्छिपेच्छियब्वाई । ऊससियं पि मुणिज्जइ, वियड्ढजणसंकुले गा एवं परेहिं परिकलिय- मज्झसारस्स तस्स तुच्छस्स । बंभव्यए वि कीरइ, नूणमऽसंभावणा न कहं संभावणाचुतो पुण, चिंतन एवं पि णत्थि साहुतं । ता तं कयं वरं जं, अप्पाऽभिमयं ति तो मूढो ॥६॥ इय चिंतिउं पमायइ, न अट्ठदसठाणगाई पेहेड़ । हंभो ! उत्थ दूसमाए, दुप्पज्जीवीपभीईणि इय इत्थिकहादोसा, अहया कमसो कहाचउक्के वि । दोसे भणामि ठाणंडत-रुतगाहाचउक्केण आयपरमोहुदीरण- उड्डाहो सुत्तमाऽऽइपरिहाणी । बंभव्यए अगुत्ती, पसंगदोसा उगमणाऽऽई आहारमंडतरेण वि, गेहीओ जायए सइंगालं । अजिइंदियओ परिया - याओ य अणुण्णदोसा य रागद्दोसुप्पत्ती, सपक्खपरपक्खओ उ अहिगरणं । बहुगुण इमो त्ति देसो, सोउं गमणं च अन्नेसिं |चारियचोराऽभिमरे - हि य मारियसंककाउकामा वा । भुत्ताऽभुत्तोहाणे, करेज्ज वा आससपओगं ॥८॥ usu ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ तहा ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१७॥ जो जं किर कहइ कहं, सो तप्परिणामपरिणओ संतो । तं कहइ सउक्करिसं, काउं तरलिज्जइ य पायं ॥ १३॥ तरलियचित्तो य नरो, संतमऽसंतं पि पत्थुयऽत्थगयं । गुणदोसं आरोवइ, ता तस्स असच्चयाइत्तं | रुइयऽत्थपयरिसाऽऽरो-वणं च रागाउ होंति तह दोसा । तप्पडिवक्खनिरसणं, एवं पुण रागिदोसितं तम्हा असच्चवाइत १ - रागि २ - दोसित ३ - कारणं विकहा । सव्या वि वज्जणिज्जा, अवज्जहेउ ति साहूणं ॥ १६॥ विगहा परो पमाओ, विगहा सद्धम्मझाणविग्घयरी । विगहा अबोहिबीयं, विगहा सज्झाय - पलिमंथो विगहा अणत्थजणणी, परममऽसंभावणापयं विगहा । विगहा असिट्ठययी, लहुयत्तणकारिया विगहा विगहा य समिइमहणी, विगहा संजमगुणाण हाणिकरी । विगहा गुत्तिविवत्ती, कुवासणाकारणं विगहा तम्हा विगहाउ विवज्जिऊण, हे अज्ज! होज्ज तं निच्चं । निव्याणंऽगमऽयंझं, सज्झायं पड़ पयत्तपरो तप्परिसंतो संतो, संतोसं चिय मणे परिवहंतो । संजमगुणाऽविरुद्धा, ता चेय कहा कहेज्ज जहा “गुणकरस्त्रियादिकथास्वरूपम्" ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ तेलोक्कतिलयकप्पं, पसविता पुत्तरयणमंऽतम्मि । अन्तगडकेवलितं, पत्ता मुतिं च मरुदेवी | पासंडिवयणपवणु-च्छलंतमिच्छत्तपंसुपडलेण । पिहियपहं पि न विहियं, दंसणरयणं च सुलसाए इयं धन्ना इय पुन्ना, अन्ना मन्ने जयम्मि नत्थित्थी । भुवणगुरुग्गिन्नगुणा, सुए वि सा चेव जं भणिया ॥२४॥ रागद्दोसविउत्तं, संतं बायालदोसपरिचत्तं । संजमपोसपवित्तं, निच्चमुवट्ठभियचरितं सुत्तुत्तविहिनिउत्तं, सुमुहाजीवित्तमेत्तसंपन्नं । जुत्तं भत्तं भोतुं, उत्तमसाहुत्तणनिमित्तं ॥२५॥ ॥२६॥ 1. विरइत्तू B I 208 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७४२७-७४६० द्यूतस्वरूपम् - अन्यप्रकारेप्रमादस्य अष्टस्थानानि आणंदसंदिराई, जिणिंदचंदाण मंदिराई जहिं । अन्नययइरेगगया, गुणा य तेरस इमे जत्थ રળી चिखल्लपाणथंडिल-यसहीगोरसजलाऽऽउले वेज्जे । ओसहनिचयाडहिवइ-पासंडा भिक्खसज्झाए ૨૮ साहम्मियजणपउरो, अणुड्डओ आरिओ अपच्वन्तो । संजमगुणेक्कहेऊ, साहुविहाराऽरिहो देसो ॥२९॥ चंडभुयदंडमंडव-निवेसियाउसेसचक्कयट्टिसिरी । नमिरनरनाहसिरमणि-मऊहविच्छुरियपययीढो ॥३०॥ भरहो राया रयणंड-गुलीयगलणुब्भवन्तसंवेगो । अंतेउरमज्झगओ वि, केवलं झत्ति संपत्तो ॥३१॥ एवंविहाउ थीभत्त-देसनरनाहगोयराओ वि । धम्मगुणहेउयाओ, कहाओ ताओ न विकहाओ ॥३२॥ इय जइ विगहागहगसिय-धम्मसारस्स परिगलंति गुणा । संजमगुणोवउत्तस्स, ता वरं चिट्ठिउं जुत्तं ॥३३॥ एस विकहापमाओ, भणिओ भणणओ य पुण भणिओ । मज्जाऽऽइलक्खणो खलु, पंचपयारो पमाओ वि॥३४॥ अन्नं पि समयविउणो, जयपमायं भणंति किर छटुं । सो पुण लोगद्गस्साऽवि, बाहगो चेव निद्दिट्टो ॥३५॥ इहलोगे ताव नरो दुज्जयजूयप्पमायसन्तुजिओ । चउरंगबलसमेयं, सज्जो रज्जं पि हारेइ । ॥३६॥ हारेड़ धणं धन्नं, खेत्तं वत्थु सुवन्नयं रुप्पं । दुपयं चउप्पयं पि हु, निस्सेसं कुवियजायं च રૂથી किं बहुणा अंगगयं पि, जाय कच्छोटयं पि हारिता । पहपडियपत्तप्पड-पच्छाइयकड़ियलविभागो ૨૮ हारियसव्यसो वि हु, देहाऽवयवं पि हत्थपायाऽऽई । उड्डिय जूयाराणं, जूयं चिय रमइ मूढमणो ॥३९॥ "द्युतस्वरूपम्" - ढिंढो रणाऽवणीए, अगणियअत्थव्यओ सह परेहिं । जयबद्धमणो विलसड़, जूयारो रायपुत्तो व्य ॥४०॥ अहवाअगणियछुहापियासो, अगणियसीउण्हदसमसगो य । अगणियअत्तसहदहो. अगणियसयणाऽऽइपडिबंधो अगणियपरोयहासो, निप्पडिकम्मो निराऽऽयरणदेहो । जियनिद्दो थिरएगग्ग-धारणो पत्थुयत्थम्मि ॥४२॥ अन्नतो विणियत्तिय, तुरंगतरतरलइंदियप्पसरो । ओ! नज्जड़ जूयारो, झाणोयगओ महरिसि व्य ॥४३॥ जरचीरियानियसणो, लीहालयवडियखरडियसरीरो । कंडूयणुट्ठियरहो, समंतओ लुलियकेसो य ॥४४॥ खरफरुससरीरच्छवि-कडितघसणुत्थहत्थकिणजालो । अवणिद्दयरत्तऽच्छो, उवमिज्जड़ केण जूयारो ॥४५॥ सो तारिसो वराओ, पइदिणवढंतजूयदढराओ । पइखणअवरोप्परविहिय-संपराओ अगाराओ ૪૬ો किंपि हु अपायमाणो, हारइ भज्जं पि तं च मोएउं । चिंतेइ चोरियं पि हु, तप्परिणयमाणसो य तओ ॥४७॥ तत्थेव संपयट्टइ, तहा पयट्टो य पावइ पायो । सो तइयपावठाणग-यन्नियदोसे असेसे यि ૪૮ળા | ओवाइयाई इच्छड, कलदेवयजक्खसक्कमाईणं । निवडंतसमत्थाडणत्थ-सत्थनित्थरणकज्जकए ॥४९॥ जहाअहियं सहिओ खिज्जउ, जूययरा ख्यमुवेंतु सव्ये वि । पसमंतु अणत्था पुण, होउ य अत्थो महं विउलो ॥५०॥ एवं च चिंतयंतो, अपुन्नयंछो वहं च बंधं च । रोहं अंगच्छेयं, तेहिंतो लहइ मरणं पि एवं च कुलं सीलं, कित्तिं मित्तिं परक्कम सकम । सत्थं अत्थं काम, जूयप्पसत्तो पणासेड़ ગોધરા इय इहलोइयगुणव-ज्जिओ कहं सुगइहेउणो सम्म । सक्को समज्जिणेउं, गुणे जणे लद्धधिक्कारो ॥५३॥ पामाकंडुयणसुहेल्लि-तुल्लमऽवि यासणाजणियमऽणुयं । किर किंपि कामकीलाए, कामुओ कलयइ सुहं पि ॥५४॥ नीरसचिरकालियहड्ड-खंडकवलणसमेण साणो व्य । जूयरमणेण किर किं, जूयारो पुण मुणइ सोक्खं ॥५॥ गेहसिरी देहसिरी, सिठ्ठत्तसिरी ए सुहसिरी अहया । इहपरलोयगुणसिरी, सज्जो जूयाओ जाइ खयं ॥५६॥ सुव्यंति य एत्थउत्थे, सत्थेसु अणेगहा कहाणाई । हारियरज्जाऽऽईणं, नलपंडयपमुहराईणं ॥५७॥ "प्रमादस्य अष्टस्थानानि" - अन्ने पुण अन्नाणं', मिच्छानाणं च संसयं रागं' । दोसं सुईए भंसं, अणाऽऽयरं तह य धम्मम्मि ॥५८॥ मणययणकायजोगाण, दुप्पणिहाणाणमडह परं काउं । पत्थुयपमायमेयं, अट्ठपयारं परुति . ॥५९॥ तत्थ य नाणाऽभावं, अन्नाणं नाणरासिणो बेंति । तं पुण सव्वाणं पि ह, जीयाणं दारुणो सत्त ॥६०॥ 1. ढिंढो = पतितः । 209 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७४६१-७४६७ अन्यप्रकारेप्रमादस्य अष्टस्थानानि ॥६१॥ कट्ठाण परमकट्टं, अहिट्ठिओ जेण एस जंतुगणो । अप्पगयं पि हियाहिय - मट्ठे न मुणइ मागं पि नवरं नाणाऽभावो, थोयत्तविवक्खया इहं नेयो । नो पुण स सव्यह च्चिय, जहा इमा अणुदरी कृण्णा ॥ ६२ ॥ थेवत्तणे वि नाणस्स, मासतुसयाऽऽइयाण जइ वि सुए । सुव्वंति केवलाई, बहुनाणत्तं खु तहवि वरं ॥६३॥ |जओ ૫૬૪ા ॥६५॥ ॥६६॥ ॥७७॥ ॥८०॥ जह जह सुयमऽवगाहड़, अइसयरसपसरनिब्भरमऽपुब्वं । तह तह पल्हाड़ मुणी, नवनवसंवेगसद्धाओ सुगुरुपरतंतयाए, सिद्धे वि हु मासतुसपमोक्खाणं । नाणिते अन्नाणं, बहुनाणाऽभावओ नेयं पायं पमायदोसा, जम्हा जाय जियाणमन्नाणं । कारणकज्जुवयारा, ता अन्नाणं चिय पमाओ नाणं पुण थेयं पि हु, भवंतमिह किंपि जायए सम्मं । अन्नं न तहा तं पुण, मिच्छानाणं मुणेयव्यं ॥६७॥ मिच्छत्तभणणओ च्चिय, हेट्ठा खलु तं निदंसियमिहेव । अह संसओ त्ति सो पुण, मिच्छानाणस्स चेवंडसो ॥६८॥ | दोलायमाणमाणस - करणाओ देससव्वगो एस । उपज्जंतो जीवाऽऽ - इएस जिणदेसियऽत्थेसु ॥६९॥ सम्मत्तमहारयणं, निम्मलमऽवि जेण कुणड़ अइमलिणं । जिणऽपच्चयादऽ किच्चो, जीवाऽऽइसु संसओ तम्हा ॥ ७० ॥ रागद्दोसपमाया वि, हेट्ठओ पेज्जदोसभणणेण । भणिय च्चिय ता ते वि हु, खमग! तुमं परिचयसु जेण ॥७१॥ जं न लहड़ सम्मतं, लक्षूण य जं न एइ संवेगं । विसयसुहेसु य रज्जइ, सो दोसो रागदोसाणं ॥७२॥ न वि तं कुणड़ अमित्तो, सुट्टु वि सुविराहिओ समत्यो वि । जं दो वि अणिग्गहिया, करेड़ रागो य दोसो य॥७३॥ इहलोए आयासं, अयसं च करेंति गुणविणासं च । पसवंति य परलोए, सारीरमणोगए दुक्खे ॥७४॥ धी! धी! अहो अकज्जं, जं जाणंतो वि रागदोसेहिं । फलमऽउलं कडुयरसं तं चेव निसेवए जीवो ॥७५॥ को दुक्खं पावेज्जा, कस्स व सोक्खेहिं विम्हओ होज्जा । को व न लभेज्ज मोक्खं, रागद्दोसा जड़ न होता ॥७६॥ तो बहुगुणनासाणं, सम्मत्तचरितगुणविणासाणं । न हु वसमाऽऽगंतव्यं, रागद्दोसाण पायाणं सुइभंसो पुण नेओ, जिणिदययणस्स सवणविद्धंसो । सपरोभयाण विगहा - कलहाऽऽइविग्घकरणेणं एसो य महापावो, पयासिओ परमसमयकेऊहिं । निविड्डक्कडनाणाऽऽवरण-कम्मबंधेक्कहेउ त्ति धम्मे अणाऽऽयरो पुण, पमायभेओ सुदारुणो चेव । धम्माऽऽयराउ जम्हा, समत्थकल्लाणनिप्फत्ती को नाम किर सकन्नो, कहिं पि चिंतामणिं पि पाविता । कल्लाणेक्कनिहाणे, होज्जाऽणाऽऽयरपरो तत्थ ॥८१॥ दुप्पणिहाणंतिगं पि हु, निस्सेसाऽणट्ठदंडमूलपयं । सम्ममऽवगम्म सुप्पणि-हाणतिगे चेव जइयव्यं एवं एस पमाओ, मज्जाऽऽइबहुप्पयारनिम्माओ । सद्धम्मगुणाऽवाओ, भणिओ कयकुगइविणियाओ दव्यं खेत्तं कालं, भावं च पडुच्च भवकडिल्लम्मि । कट्ठाऽयत्था जायड़, जीवाणं एत्थ जा का वि तं सव्वं पि वियाणसु, इमस्स अच्चन्तकडुवियागस्स । जम्मंऽतरनिव्यत्तिय - पायपमायस्स विप्फुरियं सुबहु पि सुयमऽहिज्जिय, सुदीहमऽवि पालिऊण परियायं । पायपमायपरवसा, मूढा हारंति सव्यं पि तं सामग्गिं संजमगुणाण, तं तरिसं महापयविं । ओहारेड़ पमाई, धिरत्थु ही! ही! पमायस्स देवा वि दिणभावं, पच्छायायं परव्यसत्ताऽऽई । जमऽणुभवंति फलं तं, जम्मंऽतरकयपमायस्स तिरियत्तमऽणेगविहं, हीणनरतं च नारगतं च । जं जीवाणं तं पि हु, जम्मऽन्तरकयपमायफलं एसो परमत्थरिऊँ, एसो परमत्थदारुणो नरओ । एसो परमत्थवाही, एसो परमत्थदारिद्दं एसो परमत्थखओ, एसो परमत्थदुक्खसमयाओ । एसो परमत्थरिणं, जीवाणमिमो पमाओ जो सुयकेवली वि आहारगो वि, उवसमियसव्यमोहो वि । जड़ पडड़ पमायवसा, कहा वि ता का परेसिं तु ॥९२॥ धम्मो अत्यो कामो, मोक्खो य पमायओ परिगलंति । विरलतरंऽगुलिकरयल - निलीणसलिलं व पुरिसस्स ॥ ९३ ॥ | इमिणा विडंबिओ एक्क- सिं पि जो होज्ज इह भवे जीवो । भवकोडिसयसहस्से, अडेज्ज स विडंबणानडिओ || ९४॥ एयम्मि अणिग्गहिए, समग्गकल्लाणनिग्गहो विहिओ । अह निग्गहो पमायस्स, सयलकल्लाणपभयो ता ॥९५॥ इय भो देवाणुप्पिय!, पिया व इह निग्गहो पमायस्स । विहिओ हियावहो होही, तुह ता तित्थेव कुण जत्तं ॥९६॥ एवमऽणुसट्ठिदारे, सवित्थरडत्थं सभेयपडिभेयं । भणियं पमायनिग्गह- नामं तुरियं पडिद्दारं ॥९७॥ ॥८२॥ ૫૫ ॥८४॥ ॥८५॥ ॥८६॥ ॥८७॥ ॥८८॥ ॥८९॥ ॥९०॥ ॥९१॥ 1. तत्ते व पाठां० । ॥७८॥ ॥७९॥ 210 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वप्रतिबन्धत्यागनामकपञ्चममूद्वारम् संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७४६८-७५३२ एतो पमायनिग्गह- निमित्तभूयं भणामि संखेवा । सव्यपडिबंधवज्जण - नामं पंचमपडिद्दारं “सर्वप्रतिबन्धत्यागद्वारम् " अभिसंगलक्खणं खलु, पडिबंधं बेंति बुद्धययणविऊ । दव्वं खेत्तं कालं भायं च पडुच्च सो चउहा ॥९९॥ तत्थ सचित्तमऽचित्तं, मीसं च तिभेयमिह भये दव्यं । दुपयं चउप्पयं अपय-मिय पुणो तं तिहेक्केक्कं ॥ ७५०० ॥ एवं च विसयभेया, तब्भेयन्नूहि समयकेऊहिं । संखेवेणऽक्खाओ, नवभेओ दव्यपरिबंधो ॥१॥ | पढमो पुरिसित्थिसुगाऽऽइएसु, बीओ य हयगयाऽऽईसु । तइओ पुप्फफलाऽऽइसु, इय ता सच्चित्तदव्यगओ ॥२॥ | सगडरहाऽऽइसु तुरिओ उ, पट्टखट्टाऽऽइएस पंचमओ । कणगाऽऽइएसु छट्टो, इमो उ अच्चित्तदव्यगओ ॥३॥ सत्तट्ठमा उ कमसो, साऽऽहरणाऽऽचरणनरगयाऽऽईसु । नवमो य कुसुममालाऽऽ - इएंसु इय मीसदव्वगओ ॥४॥ अह गामनगरगेहाSS - वणाऽऽइविसएस खेत्तपडिबंधो । काले वसंतसरयाऽऽ - इएस राओ दियाओ वा ॥५॥ भाये पुण पडिबंधो, सुंदरसद्दाऽऽड़गोयरा गिद्धी | अहवा उ कोहमाणाऽऽ - इयाण निच्चं अचाओ जो एसो य कीरमाणो, सव्यो वि दुरंतदीहदुहदाई । दिट्ठो विसिट्ठदिट्ठीहिं, देसिए सासणे जड़णे किंच F ॥७॥ ॥९८॥ ॥८॥ usu जत्तियमेत्तो एसो, पडिबंधो तत्तिओ दुहो होड़ । जायड़ जीवाण जओ, ता वरमेसो परिच्चत्तो एयम्मि अपरिचत्ते, न होड़ चत्ता अणत्थरिंछोली । अह सो परिचतो ता, सा वि हु दूरं परिच्चत्ता पडिबंधो वि हु कीरड़, जड़ ता तव्विसयवत्थुजायम्मि । सारतं किंपि भये, अह नो ता किं च एएण ॥ १० ॥ पयइखणभंगुरेसु वि, पयइअसारेसु पयइतुच्छेसु । का भल्लिमा भणिज्जइ, संसारसमुत्थवत्थूसु तहाहि ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ काओ करिकन्नचलो, रूवं पुण खणलिणस्सरसरुवं । तारुण्णं पि परिमियं, लायन्नं दिन्नवेयन्नं सोहग्गं पि हु विहडड़, विगलत्तमुर्वेति इंदियाई पि । सरिसवमेत्तं पि सुहं सुरगिरिगुरुदुहभरऽक्कतं चवलत्तमुवेइ बलं, जीयं पि य जलतरंगतरलमिणं । सुमिणसमाणं पेम्मं, छायसरिच्छाओ लच्छीओ भोगा सुरचावचवला, संजोगा सिहिसिहोयमा सव्ये । तं नऽत्थि सेसवत्युं पि किं पि जं सासयसहावं ॥१५॥ एवं च समत्थेसु वि, भयुत्थयत्थूसु सोक्खकज्जेण । कीरंतो पडिबंधो, सुंदर ! दुक्खेण परिणमिही ॥१६॥ जाओ न समं बंधूहिं, किर तुमं न य मओ वि सह तेहिं । ताडलं तेहिं पि समं, सुंदर ! पडिबंधकरणेणं ॥१७॥ जं भवजलहिम्मि जिया, कम्ममहालहरियेगयुमंता । संघडणविहडणाओ, लहन्ति ता कस्स को बंधू ॥१८॥ पुणरुत्तजम्ममरणे, चिरं भमंतो भवम्मि न हु कोई । अत्थि स जीयो जाओ, जो न मिहोऽणेगहा बंधू ॥१९॥ जं चेच्चा गंतव्यं, तम उप्पणिज्जं कहं भये नाम । इय चिंतिउं चएज्जा, बुहो सरीरे वि पडिबंधं ॥२०॥ | चिरमुवयरियं विविहो - वयारकरणेहिं जड़ सरीरं पि । दरिसड़ वियारमंडते, ता सेसऽत्थेसु का आसा पडिबंधो बुद्धिहरो, पडिबंधो बंधणं धणियमुग्गं । पडिबंधो भवसंघो, पडिबंधं धीर! ता चयसु जड़ पुण तुमं महायस!, सक्को न हु सव्यहा इमं चइउं । पडिबंधं ता सुपसत्थ- वत्थुविसयं करेसु जओ ||२३|| तित्थयरे पडिबंधो, पडिबंधो सुविहिए जड़जणे य । एसो पसत्थगो च्चिय, सरागसंजमजईणऽज्ज अहवा सिवसुहसाहग - गुणसाहणहेउगम्मि दव्ये वि । तह सिवसाहगगुणसा - हणाऽणुकूलम्मि खेत्ते वि ॥२५॥ तह सिवसाहगगुणसा - हणाऽवसरलक्खणम्मि काले वि । सिवसाहगगुणरूये, भावम्मि वि कुणसु पडिबंधं ॥२६॥ एयं पि पसत्थपयत्थ-विसयपडिबंधकरणमऽच्वंतं । केवलनाणदिवायर - पयासविक्खंभगं भणियं ॥२७॥ एत्तो च्चिय जयगुरुवीर - नाहविसए वि बद्धपडिबंधो । सुचरियचरणो वि चिरं, न गोयमो केवलं पत्तो ॥२८॥ हंभो देवाणुप्पिय!, इह जड़ सुहवत्थुगोयरो वि इमो । एवंविहपरिणामो, पडिबंधो ता अलं तेण ॥२९॥ किं च सुहत्थी जीवो, सुहं च संजोगओ इहं पायं । ता संजोगं इच्छड़, सो दव्वाऽऽईहिं सुहहे ॥३०॥ दव्याण य निच्चयओ, खेत्ताणि वि निच्चमेव न रइकए । कालो वि परायत्तइ, एगसहावो न भावो वि ॥३१॥ संजोगो वि इमेहिं, जो होत्था अत्थि होहिड़ कोवि । कस्स वि सो सव्यो वि हु, नियमेण वियोगपज्जंतो ॥३२॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२४॥ 1. अप्पणिज्जं = आत्मीयम् । 211 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७५३३-७५६६ षष्टमम् सम्यक्त्वद्वारस्वरूपम् एवं च वियोगंडते, नियमा दव्याइएहिं संजोगे । दव्याऽऽइसु पडिबंधो, कीरन्तो कं गुणं लहइ ॥३३॥ अन्नं च जीवदव्याऽऽइयाण-मडवरोप्परेण अन्नत्तं । अन्नाऽऽयत्तं असुहं च, सुहं चिय परवसत्तेण ॥३४॥ जइ पढमं पि न काहिसि, अन्नाऽऽयत्तम्मिचित्त! पडिबंधं । ता तख्यियोगजणियं, दुक्खं पि हु नेव पाविहिसि॥३५॥ जह जह किर पडिबंधं, संसारपयत्थवित्थरे कुणइ । तह तह बंधड़ कम्म, इह मूढो गाढगाढयरं ॥३६॥ एवं पि नो विभावइ, पडिबंधो जत्थ कीरइ पयत्थे । स खलु विणासी तुच्छो, विचित्तभवहेउओ य तओ ॥३॥ बीहसु भीमभवाओ, उब्वियसु य पुव्यविहियपावाओ । कुणसु पडिबंधचायं, जड़ इच्छसि अप्पणो पत्थं ॥३८॥ जह जह संगच्चाओ, तह तह कम्माण अवचओ होइ । जह जह सो पुण तह तह आसन्नं होइ परमपयं ॥३९॥ | आराहणाक्यमणो, मुणिवर! सव्यं पि पावपडिबंधं । ता दूरमुज्झिऊणं, आयाउडरामो भवसु निच्वं ॥४०॥ पंचममेयं भणियं, पडिबंधच्चायनामपडिदारं । सम्मत्तविसयमेतो, छटुं पडिदारमडक्रोमि ॥४१॥ "सम्यक्त्वद्वारम्" - जमणंतम्मि वि न कयाड. पत्तपव्यं अर्डयकालम्मि । लंधिज्जइ गोपयमिय, जस्सामत्थेण भवजलही ॥४२॥ अल्लियइ पाणिकमले, जस्स पभावेण मोक्खसोक्खसिरी । जं च पवेसदुवारं, महल्लकल्लाणकोसस्स् ॥४३॥ मिच्छत्तपबलहुयवह-तावियजीवाण जं च अमयं व । पडियारपयं पत्तं, सम्मत्तं खयग! तं तुमए ॥४४॥ एत्थ य संपत्तम्मि, मा भाहिसि भीमभवभयाहिंतो । एयाउणुगएहिं जओ, भवस्स सलिलंजली दिन्नो ॥४५॥ किंच-. नरयम्मि वरं अड़दीहरं पि, कालं ठिओ समं इमिणा । मा पुण एयविउत्तस्स, देवलोगे वि उववाओ ॥४६॥ जम्हा नरयाउ इहाऽऽगयाण, सुद्धस्स तस्स अणुभावा । सुव्यंति केसु वि सुए, तित्थयरत्ताऽऽइलद्धीओ ॥४७॥ सम्मत्तगुणविहीणस्स, देवलोगाओ पुण चुयस्सेह । पुढवाईसु वि गमणं, सुव्यड़ दीहट्ठिई य तहिं ॥४८॥ सियं जड़ भवेज्ज कहवि इमं । ता एस अणाऽऽई वि ह, भयोयही गोपयं मण्णे ॥४९॥ धणवमऽधणो वि पुरिसो, सम्मत्तमहाधणं हि जस्सऽत्थि । इहभवसुही जड़ धणी, सुही सुदिट्ठी पइभवपि ॥५०॥ सम्मत्तरयणमइयार-पसुपरिवज्जियं मणोभवणे । जस्स वियंभइ मिच्छत्त-तिमिरविहुरो कहं स भवे ॥५१॥ सव्याऽइसयनिमित्तं, मणम्मि सम्मत्तलक्षणो मंतो । जस्सऽत्थि न तं पुरिसं, मोहपिसाओ छलेउमडलं ॥५२॥ जस्स मणोगयणयले, सम्मत्तदिवायरो परिप्फुरइ । न कुमयजोइसचक्कं, तम्मि पयासं पि पाउणइ ॥५३॥ पासंडिदिट्ठिविस-विसयगो वि, सम्मत्तदिव्यमणिधारी । जो न हु कुवासणाविस-संकन्ती तस्स संभवड़ ॥५४॥ तो मा कासि पमायं, सम्मत्ते सव्वदुक्खखयजणगे । जेणेयपइट्ठाणाई, नाणतवयीरियचरणाई ॥५५॥ नगरस्स जह दुवारं, मुहस्स चक्ऱ्या तरुस्स जह मूलं । तह जाणसु सम्मत्तं, वीरियतवनाणचरणाणं ॥५६॥ भायाऽणुरायपेमाउणुराय-सुगुणाऽणुरायरत्तो य । धम्माऽणुरायरत्तो य, होसु जिणसासणे निच्चं ॥५७॥ अन्नो को यि पभायो, इमस्स निस्सेसगुणपहाणस्स । सम्मत्तमहारयणस्स, पावियस्सेह जं भणियं ૧૮ जस्स दिवसं पि एक्कं, समत्तं निच्चलं जहा मेरु । संकाइदोसरहियं, न पडइ सो नरयतिरिएसु ॥५९॥ दंसणभट्ठो भट्ठो, न हु भट्ठो होइ चरणपब्मट्ठो । दसणममुयंतस्स हु, परियडणं न त्थि संसारे सुद्धे सम्मत्ते अविरओ वि, अज्जिणइ तित्थयरनामं । जं आगमेसिभद्दा, हरिकुलपहु-सेणिया जाया ॥६१॥ कल्लाणपरंपरयं, लभंति जीवा विसुद्धसम्मत्ता । सम्मत्तमहारयणं, नडग्घइ ससुराऽसुरो लोगो ॥६२॥ सो च्चिय जयम्मि जाओ, पत्तं सम्मत्तरयणमिह जेण । अरहट्टजंतसरिसे, संसारे को किर न जाओ निज्जियचिंतामणिकप्प-पाययं ता लहित सम्मत्तं । तमए एत्थं संदर!, खणं पि जत्तो न । सम्मत्तजाणवतं, अप्पत्ता दुत्तरे भवसमुद्दे । एत्थ निमज्जिस्संति, तहा निमग्गा निमजंति ॥६५॥ सम्मत्तजाणवत्तं, पायित्ता दुत्तरंपि भवजलहिं । तिन्ना तरंति भविया, अचिरेण तहा तरिस्संति ॥६६॥ आराहणाक्यमणो, मणोरहाणं पि दुल्लहं तम्हा । पावित्ता सम्मतं, धीर! तुम मा पमाएज्ज ॥६ ॥ इहरा उ पमायपरस्स, पत्थुयाऽऽराहणा इमा तुज्झ । नाय व्य भट्ठिपत्ता, तडत्ति विहडिस्सइ नूणं ॥६८॥ सम्मत्तणामधेयं, छटुं पडिदारमेवमक्खायं । अरिहाइछक्कभत्ती-विसयं अह सत्तमं भणिमो ॥६९॥ 212 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७५७०-७६०५ अरिहंतादिभक्तिद्वारम् - कनकरथनृपदृष्टान्तः “अरिहंतादिभक्तिद्वारम्" - अरिहंत सिद्ध' चेइय-आयरि उज्झाय साहुणो ति इमं । छक्कं सिवपुरपयवी-सत्थाहसमं मुणेऊण ॥७०॥ हे खवग! हरिसपयरिस-यसवियसियहिययसररुहस्संतो । भतीए धरसुं सम्म, निविग्धं पत्थुयडत्थकए ॥१॥ एगा वि किर समत्था, जिणभत्ती दुग्गई णियारेउं । दुलहाई लहायेउं, आसिद्धिपरंपरसुहाई ॥७२॥ किं पुण परमेसरसिद्ध-चेइयाऽऽयरियवायगाऽऽईसु । भत्ती न होज्ज संसार-कंदनिक्कंदणसमत्था ॥७३॥ विज्जा वि ताण भत्तीए, सिद्धिमुवयाइ होइ फलदा य । किं पुण निव्वुविज्जा, सिज्झिहिइ अभत्तिमंतस्स ॥७४॥ तेसिं आराहणनाय-गाण न करेज्ज जो नरो भतिं । विहलेइ संजमं सो, ऊसरमहिययियसालिं व ॥५॥ बीएण विणा सस्सं, इच्छइ सो यासमडब्भएण विणा । आराहणमीहइ जो, आराहगभत्तिविरहेण ॥६॥ विहिववियस्स वि सस्सस्स, जह य निप्फावगं भवइ वासं । तह आराहगभत्ती, तवदंसणनाणचरणाणं ॥७७॥ | एक्केक्कगोयरा वि ह, अरिहाइसु सहपरंपरं जणड़ । भत्ती उ कीरमाणा, कणगरहनियो: तहाहि "कनकरथनूपदृष्टान्तः" । सुंदरपइक्यरक्खा, सुदीहरऽच्छा सुवच्छकलिया य । जा महिल व्य विरायइ, तीसे मिहिलाए नयरीए ॥७९॥ आसी कणगरहनियो, जस्स रविस्स व पयावपसरेण । हयमऽरिकुलमऽसिरीयं, संकुइयं कुमुयसंडं व ॥०॥ पणइजणजणियतोसं, अवरोप्परदूरवज्जियपओसं । तस्स य नीइपहाणं, रज्जसुहं भुंजमाणस्स ॥८१॥ एगम्मि अवसरे रयण-रुइरसिंहासणे निसन्नस्स । दूरोणामियसिरसा, विण्णत्तं संधिपालेण ॥८२॥ देव! महडच्छरियमिम, जं जिप्पड़ दिणयरो वि तिमिरेण । केसरिकिसोरकेसर-सडा वि तोडिज्जइ मिगेण ॥८३॥ चिरकालपेसियं तुम्ह, संतियं तित्तियं पि चउरंडगं । सेन्नं भज्जइ उत्तर-दिसिनाहमहिंदसीहेण ॥८४॥ किर तप्पउत्तिविणिउत्त-गूढपुरिसेहिं सिग्घमाऽऽगंतुं । इन्हेिं चिय मह कहिओ, जहट्ठिओ समरयुत्तंतो . ॥५॥ तत्थ य जो तुम्ह पसाय-ठाणमाऽऽसि कलिंगनरनाहो । सो पडियक्त्रेण सम, पडियन्नो भेयमविलज्जो ॥८६॥ कुरुदेसाऽहिवई वि हु, तुह सेणाऽहिवपओसदोसेण । तव्येलमडवक्कंतो, रणंडगणाओ अदक्खिन्नो ॥७॥ अन्ने य कालकुंजर-सिरिसेहरसंकराऽऽइसामंता । ओसरिया समराओ, ठूण विसंहयं सेन्नं . ॥८८॥ एवं च मत्तकरिकर-चूरिजंतप्पहाणरहनियहं । रहनियहचूरणतट्ठ-तुरयहम्मतनरनियरं ॥८९॥ नरनियरपडणदुग्गम-मग्गाऽऽउलसंचरंतवरसुहडं । वरसुहडपरोप्परभिडण-याउलिज्जंतसेन्नजणं सेन्नजणमक्कपोक्कार-योलनासंतकायरनरोहं । हयजोहं जमगेहं. तह सेन्नं पावियं रिउणा ॥९१॥ एवं सोच्चा भालयल-घडियविगरालभिउडिणा रन्ना । ताडाविया गरुरया, पयाणयाऽऽवेइया भेरी ॥९२॥ अह मेहसंघनिग्घोस-निभरेणं रवेण लहु तीए । मुणियपयाणपओयण-मुयट्ठियं चाउरंगबलं ॥९३॥ ताहे तेणाऽणुगओ, कणगरहमहीयई दढं कुयिओ । अविलंबियप्पयाणेहिं, सत्तुणो भूमिमऽणुपत्तो . ॥९४॥ अह तं आगयमुवलक्खिऊण, उव्यूढगाढरहसेण । पडिरिउणा पारद्धो, सुमहंतो समरसंरंभो ॥९५॥ अह मुक्कचक्कनारायवग्ग, उत्थरिय सुहड तेइण उदग्ग । कंकणमणिकंतिकयाऽवरोह, नं कुपियकयंतह दिट्ठिछोह॥९६॥ मणपवणवेगतुरयाण थट्ट, रिउसेन्निण सह जुज्झिण पयट्ट । हयदंड सहहिं पुंडरीयजाल, भुंजेवि चत्त नं जमिण थाल॥९॥ | पडिवक्खखग्गनिल्लुणियकंठ, रणकम्मणतोसियतियसयंठ । णियसामिकज्जपरिचत्तदेह, क्यकिच्च नाइ नच्चिय सुजोह॥९८॥ रुहिरद्दमडमंडियधरित्ति, रत्तुप्पलेहिं नं रइय भित्ति । दोहंडियकुंजर भूमिवडिय, नं रेहहि अंजणकूड खुडिय ॥९९॥ इय एवंविहसंगरि बहुजणखयकरि, यस॒तइ मिहिलाहियेण । नियकुंजरु चोयाविउ रणपहे ठाविउ, रिउसवडम्मुहु दुद्धरिण ॥७६००॥ एत्थंतरम्मि मंतीहिं, जंपियं देव! विरमह रणाओ । मा पूरह सत्तूणं, मणोरहे नियह नियसतिं ॥१॥ एसो हि उत्तरदिसा-नराडहियो समरकम्मपरिहत्थो । तियसकयपाडिहेरो. पयंडपक्खो महासत्तो एयं गूढचरेहिं, णिवेइयं अम्ह संपयं चेव । ता न खमं खणमेतं पि, अच्छिउं एत्थ थाणम्मि ॥३॥ अजहाबलमाऽऽरंभो य, देव! मूलं वयंति मच्चुस्स । ता सव्यपयारेहिं यि, अप्प च्चिय रक्खियव्यो ति ॥४॥ अविदलियबलो इण्हिं पि, जड़ तुमं देव! विरमसि रणाओ । ता अकलियमझो निय-पुरिं पि पावेसि निबिग्घ॥५॥ 213 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७६०६-७६४२ कनकरथनृपदृष्टान्तः - अष्टमम् पञ्चनमस्कारद्वारम् | इहरा विहिवसविहडिय-विजयस्स परेहिं भग्गपसरस्स । असहायस्स य एत्तो, पलायणं पि हु न तुह सुलहं ॥६॥ इय मंतिवयणगाढो-यरोहओ निभओ यि कणगरहो । ओसरिओ समराओ, फुडमऽवसरयेइणो गरुया पडिभग्गं पडिवक्खं, पलायमाणं महेंदसीहो वि । अवलोइऊण चलिओ, करुणाए अकयतप्पहरो अह जायमाणभंगो, हिययडब्भंतरफुरंतदढसोगो । अप्पाणं निहयं पिय, मन्नंतो कणगरहराया ॥९॥ पेच्छइ विणियत्तंतो, तियसाहिवनियहविहियपयसेयं । सिरिमुणिसुव्ययसामि, समोसढं सुंसुमारपुरे ॥१०॥ |ताहे दुरुज्झियराय-चिंघउवसंतधरियनेवत्थो । तिक्खुत्तो दाऊणं, पयाहिणं गाढभत्तीए ॥११॥ जयनाहं वंदिता, गणधरमणिकेवलीहिं परियरियं ।• सुद्धमहीए निसण्णो, नरनाहो धम्मसवणत्थं । ॥१२॥ खणमेतं च निसामिय, सामिगिरं समरवइयरं सरिउं । परिचिंतिउं पयत्तो, धिरउत्थु मह जीवियव्वस्स ॥१३॥ जस्स तह सत्तुपडिहय-परक्कमस्स पणट्ठसारस्स । अवहरियपुब्बसुक्या, वित्थरिया धणियमपसिद्धी ॥१४॥ एवमणुचिंतयंतो, विच्छायमुहो महीवई सामि । नमिऊण निक्खमंतो, ओसरणाओ सकरुणेण ॥१५॥ विज्जुप्पभनामेणा-सुरेंदसामाणिएण देवेण । भणिओ भद्द! किमेयं, पहरिसठाणे यि तुममेत्थ ॥१६॥ हिययडब्भंतरनिक्खित्त-तिक्खसल्लो व वहसि संतायं । कमलियनलिणतुल्ले, गयसोहे धरसि नयणुल्ले ॥१७॥ सायक्यप्पणामेण, तयणु मिहिलाऽहिवेण पडिभणियं । सयमेव मुणह तुब्भे, जहट्ठियं किमिह साहेमि ॥१८॥ चिरकालयोलियाणि वि, अच्वंतं दूरकालभावीणि । जे किर मुणंति कज्जाणि, तेसिं नणु केत्तियं एयं ॥१९॥ एवं रन्ना भणिए, ओहिन्नाणेण नायपरमत्थो । विज्जुप्पभो सुरवरो, पयंपिउं एवमाडऽढतो ॥२०॥ रिउपरिभवलक्खणतिक्ख-दुक्खमुव्वहसि तुममडहो! हियए । दक्वविमोक्खणमूला य, गिज्जए जिणवरे भत्ती ॥२१॥ ता नवर! जयगुरुपाय-पउमवंदणविहीए तुज्झ अहं । तुट्ठो अह सत्तुजयं, ममाऽणुभावेण कुणसु लहुं ॥२२॥ इय तियसवयणमाऽऽयन्निऊण, राया वियासिमुहकमलो । सेन्नाऽणुगओ सहसा, पडिपडिवखं पडिनियत्तो ॥२३॥ अह भूरिसमरसंपन्न-विजयगव्यो पुणो वि तं इंतं । सोच्चा महेंदसीहो, सज्जीहोउं ठिओऽभिमुहो ॥२४॥ जुझं च समावडियं, नवरं विज्जुप्पभप्पभावेण । मिहिलाऽहिवेण विजिओ, महिंदसीहो पढममेय ॥२५॥ अवहरिय पुव्वपग्गहिय-हत्थितुरगाऽऽइविविहरजंडगे । सेवं च गाहिऊणं, मुक्को तत्थेव रज्जम्मि ॥२६॥ अह निज्जियजेयव्यो, कणगरहो आगओ निययनयरिं । सरयनिसायरकगोर-लद्धकित्ती जए जाओ રળી अवरम्मि य पत्थाचे, विसुद्धलेसाए यट्टमाणो सो । परिचिंतिउं पवत्तो, अहो जिणिंदस्स माहप्पं ॥२८॥ जमऽहं तइया वंदण-मेतेण वि वंछियहत्थमडच्चत्थं । पत्तो मणोरहाण वि, अगोयरं नृण लीलाए ॥२९॥ एवं च सो च्चिय परं, परमप्पा कप्पपाययप्पडिमो । इहपरभवभाविरभद्द-कणसीलो जएक्कपहु ॥३०॥ अणुसरणिज्जो भवइ त्ति, चिंतिउं सुव्ययस्स पामूले । पडिवन्नो पव्वज्जं, राया काउं च तं विहिणा ॥३१॥ गुणगणहरगणहरनाम-गोयकम्मं च बंधिऊणंडते । मरिउं देवो जाओ, महिड्ढिओ भासुरसरीरो ॥३२॥ तत्तो चुओ य सुकुले, माणुस्सं पाविऊण भोगे य । तित्थयरपायमूले निक्खमिउं गणहरो होउं ॥३३॥ निम्मूलुम्मूलियभय-महद्दुमो पत्तकेवलाऽऽभोगो । जरजम्ममरणरहियं, निव्याणं पाविही परम ॥३४॥ एवंविहोतरोत्तर-कल्लाणनिबंधणं मुणेऊणं । अरिहाऽऽईसुं भत्तिं, खवग! तुमं सम्ममाऽऽयरसु રૂપો अरिहाऽऽइछक्कभत्ति ति, सत्तमं दारमिय मए युत्तं । अट्ठममिओ भणिस्सं, पंचनमोक्कारपडिदारं ॥३६॥ ___“पंचणमोक्कारद्वारम्' - . हंभो खवगमहामुणि! पारद्धविसुद्धधम्मअणुबंधं । बंधयभूयाण जिणाण-मिहि तह सव्वसिद्धाणं શરૂ आयारपालयाणं, आयरियाणं च सुत्तदाईणं । उज्झायाणं सिवसा-हगाण तह सव्यसाहूणं ૨૮ના निच्वं भव उज्जुत्तो, समाहियऽप्पा पहीणकुवियप्पो । सिद्धिसुहसाहणम्मि, नूण नमोक्कारकणम्मि ॥३९॥ जेणेस नमोक्कारो, सरणं संसारसमरपडियाण । कारणमसंखदुक्ख-क्खयस्स हेऊ सियपयस्स ॥४०॥ कल्लाणकप्पतरुणो, अबझबीयं पयंडमायंडो । भवहिमगिरिसिहराणं, 'पक्खिपहू पावभुयगाणं ॥४१॥ आमूलुक्खणणम्मि, वराहदाढा दरिद्दकंदस्स । राहणधरणी पढमु-भयंतसम्मत्तरयणस्स ૪૨ 1. पक्षिप्रभुः = गरुडः । 214 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७६४३-७६७६ अष्टमम् पञ्चनमस्कारद्वारम् | कुसुमोग्गमो य सोग्गइ-आउयबंधदुमस्स निविग्धं । उवलंभचिंघमजमलं, विसुद्धसद्धम्मसिद्धीए ॥४३॥ अन्नं चएयस्स जहाविहिविहिय-सव्वआराहणापयारस्स । कामियफलसंपायण-पहाणमंतस्य य पभाया ॥४४॥ सत्तू वि होइ मित्तो, तालउडविसं पि जायए अमयं । भीमाउडवी वि वियरइ, चित्तरइं यासभवणं व ॥४५॥ चोरा वि रक्खगत्तं, उति साउणुग्गहा भवंति गहा । अवसउणा वि हु सुहसउण-साहणिज्जं जणंति फलं ॥४६॥ जणणीओ इय न कुणंति, डाइणीओ वि थोवमऽवि पीडं । पभवंति न रुद्दा मंत-तंतजंतप्पयारा वि ॥४७॥ पंक्यपुंजो व्य सिही, सीहो गोमाउओ व् वणहत्थी । मिगसायो व्य विहावइ, पंचनमोक्कारसामत्था ॥४८॥ एत्तो च्चिअ सुमरिज्जड़, निसियणउट्ठाणखलणपडणेसु । सुरख्नेयरपभिईहिं वि, एसो परमाए भत्तीए ॥४९॥ धण्णाण मणीभवणे, सद्धाबहुमाणवढिनहिल्लो । मिच्छत्ततिमिरहरणो, वियरइ नवकारवरदीयो ॥५०॥ जाण मणवणणिगुंजे, रमइ णमोक्कारकेसरिकिसोरो । ताणं अणिट्ठदोघट्ट-घट्टघडणा न नियडे वि ॥५१॥ ता निविडनिगडघडणा-गुत्ती ता वज्जपंजरनिरोहो । नो जायउज्जयि जविओ, एस नमोक्कारवरमंतो ॥५२॥ दप्पिदट्ठनिट्ठर-सुरुट्ठदिट्ठी वि होड़ ताव परो । नवकारमंतचिंतण-पुव्यं न पलोइओ जाय । ॥५३॥ मरणरणंडगणगणसं-गमे गमे गामनगरमाऽऽईणं । एयं सुमताणं, ताणं संमाणणं च भवे ॥५४॥ तहाजलमाणमणिपहुफुन्न-प्फारफणिवइफणागणाहिंतो । पसरंतकिरणभरभग्ग-भीमतिमिरम्मि पायाले ॥५५॥ चिन्ताडणंतरघडमाण-माणसाउडणंदिइंदियऽत्था जं । विलसंति दाणवा किर, तं पि नमोक्कारफुरियलवो ॥५६॥ जं पि य विसिट्ठपयवी-विज्जाविन्नाणविणयनयनिउणं । अक्खलियपसरपसरंत-कंतजसभरियभुवणयलं ॥५॥ अच्वंतऽणुरतकलत्त-पुत्तपामोक्खसयलसुहिसयणं । आणापडिच्छणुच्छाहि-दच्छगिहम्मकारिजणं ॥८॥ अच्छिन्नलच्छिविच्छड्ड-सामिभोइत्तवियरणपहाणं । रायाडमच्चाऽऽइविसिट्ठ-लोयपयईबहुमयं च ॥५९॥ जहचिंतियकलसंपत्ति-सुंदरं दिण्णदुक्कहचमक्कं । पाविज्जड़ मणुयत्तं, तं पि नमोक्कारफललेसो ॥६० जं पि य सवंगपहाण-लडहचउसट्ठिसहसविलयालं । बत्तीससहस्समहप्प भाव भासंतसामन्तं ॥६१॥ पवरपुरसरिसछन्नयइ-गामकोडीकडप्पदुप्पसरं । सुरनयरसरिसपुरवर-बिसत्तरीसहससंखालं ॥६२॥ बहुसंखखेडकब्बड-मडंबदोणमुहपमुहबहुवसिमं । दीसंतकंतसुंदर-संदणसंदोहदिण्णदिहिं ॥६३॥ परचक्कप्पणाऽणप्प-दप्पपाइक्कचक्कसंकिन्नं । पगलंतगंडमंडल-पयंडदोघट्टथट्टिल्लं ૬૪ मणपवणजयणचंचल-खुरुक्खयखोणितलतुरंगालं । सोलससहस्सपरिसंख-जक्खरखापरिकिन्नं ॥६५॥ नवनिहिचोद्दसरयण-प्पभावपाउब्भवंतसयलउत्थं । छक्खंडभरहनेत्ताड-हिवत्तणं लब्भए भुवणे ધદા तं पि हु किर सद्धासलिल-सेयपरिड्ढियस्स तस्सेव । पंचनमोक्कारतरुस्स, को वि फलविलसियविसेसो ॥६॥ जं पि य सियदेवंडसुय-संवयसुरसयणसुंदरुच्छंगे । सिप्पिपुडंडतो मुत्ता-हलं व उववज्जई तत्तो ॥६८॥ आजम्मं रम्मतणू, आजम्ममुदग्गजोव्वणाऽवत्थो । आजम्मं रोगजरा-रयसेयविवज्जियसरीरो ॥६९॥ आजम्मं ण्हारुवसट्ठि-मसरुहिराऽऽइतणुमलविमुक्को । आजम्मं अमिलायन्त-मल्लवरदेवदूसधरो ॥७०॥ उत्तत्तजच्चकंचण-तरुणदिवायरसमप्पहसरीरो । पंचप्पहरयणाऽऽहरण-किरणकब्बुरियदिसियक्को ॥७१॥ अक्खंडगंडमंडल-लुलंतकुंडलपहापहासिल्लो । रमणीयरसणअमरण-रमणीगणमणहरो किं च गहचक्कमेक्कहेलं, पाडेउं भूयलं भमाडेउं । सयलकुलाऽचलचक्कं, चूरेउं तह य लीलाए ॥७३॥ माणसपमुहमहासर-सरियादहसायराण सलिलाई । पलयपवणो व्य समकाल-मेव सत्तो विसोसेउं ॥७४॥ तेलोक्कपूरणत्थं झत्ति विउव्यियमहलबहुरुयो । परमाणुमेत्तरुयो वि, तह य होउं लहु समत्थो ॥७५॥ तह एक्कडगुलिपंचगस्स, पत्तेयमडग्गभागेसु । मेरुपणगाउ एक्केक्क-मेक्ककालं धरणसत्तो ॥७६॥ किं बहुणा सन्तं पि हु, असंतयं तह असंतमऽयि संतं । वत्थु एक्कखणे च्चिय, दंसेउमडलं करेउं च ॥७७॥ नमिरसुरविसरसिरमणि-मऊहरिंछोलिविच्छुरियपाओ । भूभंगाऽऽइट्ठपहिट्ठ-संभमुटुिंतपरिवारो ॥७८॥ चिंताऽणंतरसहसत्ति-संघडंताऽणुकूलविसयगणो । अणवरयरइरसाऽऽविल-विलासकरणेक्कदुल्ललिओ ॥७९॥ 215 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७६८०-७७१६ अष्टमम् पञ्चनमस्कारद्वारम् निम्मलओहिन्नाणा-ऽनिमेसदिट्ठीए दिट्ठदट्ठव्यो । समकालोदयसमुति-सयलसुहकम्मपयई य ८०॥ रिद्धिप्पबंधबंधुर-विमाणमालाऽहियत्तणं सुइरं । पालइ अखलियपसरं, सुरलोए किर सुरेंदो वि ॥१॥ तं पि असेसं जाणसु, सम्म सभायगमविहियस्स । पंचनमोक्काराऽऽरा-हणस्स लीलाइयलयोति ॥२॥ उड्ढाडहोतिरियतिलोग-रंगमज्झम्मि अइसयविसेसो । दव्य खेत्तं कालं, भायं च पडुच्च चोज्जकरो ॥८३॥ दीसइ सुणिज्जए या, जो को वि हु कहवि कस्स वि जियस्स । सव्यो यि सो नमोक्कार-सरणमाहप्पनिप्फन्नो॥८४॥ जलदुग्गे थलदुग्गे, पव्ययदुग्गे मसाणदुग्गे या । अन्नत्थ वि दुत्थपए, ताणं सरणं नमोक्कारो ॥५॥ वसियरणुच्चाडणथोभ-णेसु पुरखोभथंभणाऽऽइसु य । एसो च्चिय पच्चलओ, तहा पउत्तो नमोक्कारो ॥८६॥ मंतंडतरपारद्धाइं, जाई कज्जाई ताई वि समेड़ । ताणं चिय नियसुमरण-पुव्याउडरद्धाण सिद्धिकरो ॥८७॥ ता सयलाओ सिद्धीओ, मंगलाई च अहिलसंतेण । सव्वत्थ सया सम्म, चिंतेयव्यो नमोक्कारो ૮૮ जागरण-सुयण-छीयण-चिट्ठण-चंकमण-खलण-पडणेसु । एस किर परममंतो, अणुसरियव्यो पयत्तेणं ॥८९॥ जेणेस नमोक्कारो, पत्तो पुन्नाऽणुबंधिपुण्णेणं । नारयतिरियगईओ, तस्साऽवस्सं निरुद्धाओ ॥९०॥ न स पुणरुत्तं पावइ, कया वि किर अयसनीयगोत्ताई । जम्मउतरे वि दुलहो, तस्स न एसो नमोक्कारो ॥१॥ जो पुण सम्म गुणिउं, नरो नमोक्कारलक्खमक्खंडं । पूएइ जिणं संघ, बंधइ तित्थयरनामं सो ॥२॥ होन्ति नमोक्कारपभा-यओ य जम्मडतरे यि किर तस्स । जाईकुलरूयाऽऽरोग्ग-संपयाओ पहाणाओ ॥९३॥ ताय न जायड़ चित्तेण, चिंतियं पत्थियं च वायाए । काएण य पारद्धं, जाय न सरिओ नमोक्कारो ॥९४॥ अन्नं च इमाउ च्चिय, न होड़ मणुओ क्याइ संसारे । दासो पेसो दुहगो, नीओ विगलिंदिओ चेव ॥१५॥ इहपरलोयसुहयरो, इहपरलोयदुहदलणपच्चलओ । एस परमेट्ठिविसओ, भत्तिपउत्तो नमुक्कारो । किं वन्निएण बहणा, तं नत्थि जयम्मि जं किर न सक्को । काउं एस जियाणं, भत्तिपउत्तो नमुक्कारो ॥९७॥ जड़ ताव परमदुलहं, संपाडइ परमपयसुहं पि इमो । तायदडणुसंगसज्झे, तदन्नसोक्खम्मि का गणणा ॥९८॥ पत्ता पाविस्संति, पाविन्ति य परमपयपुरं जं ते । पंचनमोक्कारमहा-रहस्ससामत्थजोगेण ॥९९॥ सुचिरं पि तयो तवियं, चिन्नं चरणं सुयं च बहु पढियं । जड़ ता न नमोक्कारे, रई तओ तं गयं विहलं ॥७७००॥ | चउरंडगाए वि सेणाए, नायगो दीवगो जहा होइ । तह भावनमोक्कारो, दंसणतवनाणचरणाणं ॥१॥ भायनमोक्कारविवज्जियाई, जीवेण अक्यज्जाई । गहियाणि य मुक्काणि य, अणंतसो दव्यलिंगाइं ॥२॥ तम्हा नाऊणेवं, जत्तेण तुमं पि भावणासारं । आराहणाकयमणो, मणम्मि सुंदर! तयं धरसु ॥३॥ हंभो देवाणुप्पिय!, पुणरुत्तं पत्थिओ सि एत्थ तुमं । संसारजलहिसेउं, सिढिलेज्जसु मा नमोक्कारं ॥४॥ |जं एस नमोक्कारो, जम्मजरामरणदारुणसरुवे । संसाराउरन्नम्मि, न मंदपुन्नाण संपडइ l विज्झइ राहा वि फुडं, उम्मूलिज्जड़ गिरी वि मूलाउ । गम्मड़ गयणयलेणं, दुलहो य इमो नमोक्कारो ॥६॥ सव्वत्थडन्नत्थ वि धीधणेण, सरणं ति एस सरियव्यो । सविसेसं पुण एत्थे, समहिगयाऽऽराहणाकाले ॥७॥ आराहणापडागा-गहणे हत्थो इमो नमोक्कारो । सग्गाडपवग्गमग्गो, दोग्गइदारडग्गला गरुई ॥८॥ पढियव्यो गुणियव्यो, सुणियव्यो समऽणुपेहियव्यो य । एसडन्नया वि निच्वं, किमंडग पुण मरणकालम्मि ॥९॥ गेहे जहा पलित्ते, सेसं मोत्तूण लेइ तस्सामी । एगं पि महारयणं, आवइनित्थारणसमत्थं । ॥१०॥ आउरभए भडो या, अमोहमेक्कं पि लेइ जह सत्थं । आबद्धभिउडिभडसं-कडे रणे कज्जकरणखम ॥११॥ | एवं न आउरत्ते, सक्को बारसविहं सुयक्रोधं । सव्यं पि विचिंतेउं, सम्मं तग्गयमणो वि तओ ॥१२॥ |मात्तु पि बारसङग, स एव मरणम्मि कीरए सम्म । पंचनमोक्कारो खलु, जम्हा सो बारसंगऽत्थो ॥१३॥ सव्यं पि बारसंऽगं, परिणामविसुद्धिहेउमेत्तागं । तक्कारणभावाओ, कह न तदऽत्थो नमोक्कारो ॥१४॥ तग्गयचित्तो तम्हा, समडणुसरेज्जा विसुद्धसुहलेसो । तं चेय नमोक्कारं, कयत्थयं मन्नमाणो उ ॥१५॥ को नाम किर सकन्नो, कन्नाडमयसच्छह नमोक्कारं । नो आयरेज्ज मरणे, रणे व्य सुहडो जयपडागं ॥१६॥ 1. अणुसंगसज्झे = प्रसङ्गसाध्ये = प्रासङ्गिके इत्यर्थः । 216 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७७१७-७७५१ अष्टमम् पञ्चनमस्कारद्वारम् - श्रावकपुत्रदृष्टान्तः ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ एक्को वि नमोक्कारो, परमेट्ठीगं पगिट्ठभावाओ । सयलं किलेसजालं, जलं व पवणो पणोल्लेइ संविग्गेणं मणसा, अखलियफुडमणहरेण य सरेण । पउमाऽऽसणिओ करबद्ध - जोगमुद्दो य काणं सम्मं संपन्नं चिय, समुच्चरेज्जा सयं णमोक्कारं । उस्सग्गेणेस विही, अह बलगलणे तहा न पहू तन्नामाऽणुग असिया - उस त्ति, पंचक्खरे तहवि सम्मं । निहुयं पि परावत्तेज्ज, कह वि अह तत्थऽवि असतो ॥२०॥ ता झाएज्जा ओमिति संगहिया जं इमेण अरहंता । असरीरा आयरिया, उवझाया, उवझाया मुणिवरा सव्वे ॥ २१ ॥ एयन्नामाऽऽइनिसन्न - यन्नसंधिप्पयोगओ जम्हा । सद्दन्नुएहिं एसो, ओंकारो किर विणिद्दिट्ठो एयज्झाणा परमे-ट्ठिणो फुडं झाइया भवे पंच | अहवा जो एवं पि हु, झाएउं होज्ज असमत्थो सो पासट्ठियकल्लाण - मित्तयग्गेज पंचनवकारं । निसुणेज्ज पढिज्जंतं, हिययम्मि इमं च भायेज्जा एसो स सारगंठी, एस स को वि हु दुलंभलंभो ति । एसो स इट्ठसंगो, एयं तं परमतत्तं ति अहह! तडत्थो जाओ, नूणं भवजलहिणो अहं अज्ज । अन्नह कहिं अहं कह व एस एवं समाओगो ॥ २६॥ धन्नो हं जेण मए, अणोरपारम्मि भयसमुद्दम्मि । पंचण्ह नमोक्कारो, अचिंतचिंतामणी पत्तो ॥२७॥ किं नाम अज्ज अमय-तणेण सव्वंऽगियं परिणओ हं । किं वा सयलसुहमओ, कओ अकंडे वि केणाऽवि ॥ २८ ॥ इय परमसमरसापत्ति - पुव्यमाऽऽयन्निओ नमोक्कारो । निहणड़ किलिट्ठकम्मं विसं व सियधारणाजोगो जेणेस नमोक्कारी, सरिओ भावेण अंतकालम्मि । तेणाऽऽहूयं सोक्खं, दुक्खस्स जलंजली दिन्नो | एसो जणओ जणणी य, एस एसो अकारणो बंधू । एसो मित्तं एसो, परमुवयारी नमोक्कारो सेयाण परमसेयं, मंगल्लाणं च परममंगल्लं । पुन्नाण परमपुन्नं, फलं फलाणं नमोक्कारो तह एस नमोक्कारो, इहलोगगिहाओ जीवपहियाण । परलोयपहपयट्टाण, परम पच्छयणसारिच्छो जह जह तस्सवणरसो, परिणमड़ मणम्मि तह तह कमेण । खयमेड़ कम्मगंठी, नीरनिहित्ताऽऽमकुंभो व्व ॥ ३४ ॥ तयनियमसंजमरहो, पंचनमोक्कारसारहिपउत्तो । नाणतुरंगमजुत्तो, नेइ नरं नेव्युइनगरं ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३५॥ રૂા ॥३८॥ ॥३९॥ ॥४०॥ | जलणो वि होज्ज सीओ, पडिपहहुत्तं यहेज्ज सुरसरिया । न य नाम न नेज्ज इमो, परमपयपुरं नमोक्कारो ॥३६॥ | आराहणापुरस्सर - मऽणन्नहियओ विसुद्धलेसागो । संसारुच्छेयकरं ता मा सिढिलसु नमोक्कारं एसो हि नमोक्कारो कीरइ नियमेण मरणकालम्मि । जं जिणवरेहिं दिट्ठो, संसारुच्छेयणसमत्थो अक्खेयेणं कम्म क्खओ तहा मंगलाऽऽगमो नियमा । तक्काले च्चिय सम्मं, पंचनमोक्कारकरणफलं कालन्तरभाविफलं तु, दुविहमिहभवियम ऽण्णभवियं च । इहभवियमऽत्थकामा, उभयभवसुहायहा सम्मं इहभवसुहावहा तत्थ ताव अकिलेसभवणओ ताण । आरोग्गपुव्वगं तह, निव्विग्धं ताण माणणओ ॥४१॥ परभवसुहावहा पुण, सुत्तविहीए सुठाणविणियोगा । पंचनमोक्कारफलं, अह भन्नइ अन्नभवियं पि ॥४२॥ जड़ वि न तज्जम्मे च्चिय, सिद्धिगमो कह वि जायए तह वि पत्तनमोक्कारा एक्क- सिं पि किर तमऽविराहिता ॥ ४३ ॥ उत्तमदेवेसु तहा, कुलेसु विउलेसु अतुलसुभकलिया । हिंडित्ता पज्जंते, सिज्झति चेव विहुयरया इह पुण परमत्थेणं, नाणावरणाऽऽड़याण कम्माणं । पड़खणमऽणंतपोग्गल - विगमम्मि जायमाणम्मि पाउणड़ नमोक्कारस्स, पढमं वण्णं नकारमऽह सेसे । वन्ने पत्तेयं चिय, तदऽणंतविसुद्विसम्भावो एवं एक्केक्कं पि हु, अक्खरमऽच्चन्तकम्मखयलब्धं । जस्स स कहं न वंछिय - फलदाई होइ नवकारो ॥४७॥ किंच ॥४४॥ ॥४५॥ ॥४६॥ | इहभवियमऽत्थकामा, जं भणियं तत्थ अत्थविसए ता । सावगपुत्तो नायं, जायऽत्थो मडगवइयरओ ॥४८॥ तहाहि “श्रावकपुत्रदृष्टान्तः” ॥४९॥ एगम्मि महानगरे, सावगपुत्तो उ जोव्वणुम्मत्तो । वेसाजूयपसंगी, अच्चंतपमायपडिबद्धो सुचिरं बहुप्पयारेहिं, भन्नमाणो वि धम्मपडिवत्तिं । न कुणड़ निरंकुसो करि-यरो व्य विस्संथुलं ललइ ॥५०॥ अह सो पिउणा करुणाए, बाहरेऊण मरणसमयम्मि । भणिओ पुत्तय! जड़ वि हु, दढं पमत्तो तहावि तुमं ॥५१॥ 1. पच्छयणं = पथ्यदनं = शम्बलम् । 217 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७७५२-७७८६ श्रावकपुत्रदृष्टान्तः - श्रीमतीदृष्टान्तः - हुण्डिकयक्षादिदृष्टान्तः पंचनमोक्कारमिम, समत्थवत्थूण साहणसमत्थं । पढसु सया य सरेज्जसु, दुत्थाऽयत्थासु वरमंतं ॥५२॥ एयस्स पभावेणं, न विद्दयंतीह भूयवेयाला । खुद्दोवद्दववग्गो, सेसो वि पणस्सइ अवस्सं ॥५३॥ एयं पिउणो वयणो-वरोहओ सो तहत्ति पडियन्नो । कालं गए य जणए, खीणम्मि य अत्थसारम्मि ॥५४॥ सच्छंदभमणसीलो, घडेइ मेत्तिं तिदंडिणा सद्धिं । उज्झियकुलक्कमाणं, केत्तियमिममहब पुरिसाणं ॥५५॥ एगम्मि अवसरे सो, भणिओ य तिदंडिणा सविस्संभं । कसिणचउद्दसिरयणीए, मडयमविणट्ठलटुंडगं ॥५६॥ आणेसि जड़ तुमं भद्द!, ता तुहं विद्दयेमि दारिदं । तं साहिऊण अहयं, दिव्यए मंतसत्तीए ॥५ ॥ पडियन्नमिमं साययसुएण, पत्ते य भणियसमयम्मि । विजणमसाणपएसे, तहेव तेणोवणीयं से ॥५८॥ पाणिपट्ठियखग्गं, ठवियं च तयं तु मंडलगउवरिं । सावयसुओ य पुरओ, तस्सेव निवेसियो तत्थ ॥५९॥ सो य तिदंडी बाढं, विज्जं उच्चारिउं समाउडरद्धो । विज्जावेसवसेण य, मडगं उठेउमाउडरद्धं ॥६०॥ भीओ सावयपुत्तो, सरिओ य झडत्ति पंचनयकारो । तप्पडिहयसामत्थं, पडियं च महीयले मडयं ॥१॥ पुणरवि तिदंडिदढविज्ज-जायओ उट्ठिऊण पडियम्मि । मडए भणियमडणेणं, सावयसुय! मुणसि किंपि तुमं ॥६२॥ तेणं पयंपियं नेव, किंपि अह झाणपयरिसाऽऽरुढो । जविउं पुणो तिदंडी, पारद्धो निययवरविज्जं ॥३॥ सड्ढसुयमऽक्वमेणं, पंचनमोक्काररक्खियं हंतुं । 'दोहंडिओ तिदंडी, मडएण झडत्ति खग्गेण ॥४॥ अह मडयखग्गघायप्पभाव-संजायजायरूवंडगो । सावयसुएण दिट्ठो, झत्ति तिदंडी पहिडेण ॥६५॥ ताहे तदंडगुवंगाई, खंडिउं णियगिहे निहित्ताई। पंचपरमेट्ठिमंत-प्पभावओ ईसरो जाओ ॥६६॥ कामविसयम्मि नायं तु, साविगा मिच्छदिट्ठिणो भज्जा । जीए नमोक्काराओ, जाओ सप्पो वि 'कुसुमसरी ॥६॥ तथाहि- . “श्रीमतीदृष्टान्तः" एगम्मि सन्निवेसे, मिच्छद्दिट्ठी गिहाऽहियो एक्को । भज्जा य साविया से, अच्वन्तं धम्मपडिबद्धा ॥६॥ तीसे उवरि अवरं, भज्जं परिणेउमीहमाणो सो । ससवत्तिगो ति तं पुण, अलहंतो खुद्दपरिणामो ॥६९॥ चिन्तेइ पुव्वभज्ज, कहं हणिस्सं ति अन्नया कसिणं । सप्पं घडे निहित्ता, भवणस्सऽब्भन्तरे ठयह ॥७०॥ कयभोयणो य तं भणइ, सावियं अमुगठाणणिहियाउ । घडयाओ कुसुममालं, भद्दे! मज्झं पणामेहि ॥१॥ अह सा गिहे पविट्ठा, अचक्नुविसओ ति पंचनवकारं । सरमाणी तम्मि घडे, कुसुमत्थं पक्खिवड़ हत्थं ॥७२॥ एत्थंतरम्मि सप्पो, अवहरितो देवयाए गंधड्ढा । ठविया य तम्मि ठाणे, वियसियसियकुसुमवरमाला ॥७३॥ घेत्तुं सा तीए सम-प्पिया य पइणो तओ ससंभंतो । गंतुण तं णिहालइ, घडयं नो पेच्छइ प्पं ॥७४॥ ताहे महप्पभाव ति, पायवडिओ कहेइ नियवत्तं । खामेऊण य ठावइ, तं नियघरसामिणिपयम्मि ॥७५॥ इय इहलोगे धणकाम-साहगो एस ताय नवकारो । परलोगे च्चिय सुहओ, हुंडियजक्खस्स व इमो त्ति ॥६॥ तथाहि __ "हुण्डिकयक्षादिदृष्टान्तः" महुराए नगरीए, हुंडिज्जनामो उ तक्करो लोयं । मुसमाणो अणवरयं, पत्तो आरक्वपुरिसेहिं । सोभारसवपरिमेहिं ॥७७॥ आरोवेऊणं रास-भम्मि नगरीए भामिओ पच्छा । पक्खित्तो सूलाए, भिण्णसरीरो य तीए दढं ૭૮ तन्हाकिलामियंडगो, तेण पएसेण पेच्छिउं जंतं । जिणदत्तणामधेयं, सुसावगं भणइ सुदुहट्टो ॥७९॥ हंभो! महायस! तुम, सुसावगो दुखिएसु करुणपरो । ता मम तिसियस्स लहुँ, कत्तो वि जलं पणामेहि ॥८०॥ अह सावरण भणियं, इमं नमोक्कारमऽणुविचिंतेहि । जा ते आणेमि जलं, जड़ पुण विस्सारिहिसि एयं ॥८१॥ ता आणीयं पि न तुज्झ, भद्द! दाहामि एव भणिओ सो । तल्लोलुययाए दढं, नवकारं सरिउमाऽऽरद्धो ॥८२॥ जिणदत्तो पुण सलिलं, गहाय गेहाओ आगओ जाय । नवकारमुच्चरंतस्स, ताव से अइगयं जीयं ॥८३॥ तो तप्पभावओ सो, मरिउं जक्खत्तणं समजणुपत्तो । अह चोरभत्तदाइत्ति, रायपुरिसेहिं जिणदत्तो । ૮૪ अप्पिओ नरवडस्स तेणाऽवि जंपियमिमं पि । सलाए आरोवह, तक्करपडितल्लदोसं ति ॥८५॥ एवं युत्ते नीओ, जिणदत्तो तेहिं आघयणठाणे । एत्थंतरम्मि हुंडिय-जक्नेण पउंजिओ ओही ૮દ્દા 1. दोहंडिओ = द्विखण्डितः । 2. कुसुमसरी = कुसुममाला । 3. छुहित्ता पाठां० । 218 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७७८७-७८२३ सम्यग्ज्ञानोपयोगनामक नवम्द्वारम् ॥८७॥ ॥८८॥ ॥८९॥ सूलाए निम्भिन्नं, नियदेहं सावयं च तह दटुं । रुट्ठो सो नयरोवरि, पव्वयमुप्पाडिउं भणड़ रे! रे! देवयभूयं, सावयमेयं खमाविडं मुयह । इहरा इमेण गिरिणा तुब्भे सव्वे वि चूरिस्सं अह भीएणं रन्ना, जिणदत्तो खामिऊण पम्मुक्को । इय हु डियचोरस्स व परलोगसुहो नमुक्कारो एवं च उभयलोगे वि, सोक्खमूलं इमं मुणेऊणं । आराहणाऽभिलासी, खवग! तुमं सइ सरेज्ज जओ ॥९०॥ “पंचण्ह णमोक्कारो, जीवं मोएड़ भवसहस्साओ । भावेण कीरमाणो, होड़ पुणो बोहिलाभाय पंचण्ह णमोक्कारो, धन्नाण भवक्खयं करेन्ताणं । हिययं अणुम्मुयंतो, विसोत्तियावारओ होड़ पंचण्ह नमोक्कारो, एवं खलु यन्निओ महत्यो त्ति । जो मरणम्मि उवग्गे अभिक्खणं कीरए बहुसो ॥९३॥ पंचण्ह नमोक्कारो, सव्यपायप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं भवइ मंगलं " ॥९१॥ ॥९२॥ ॥९४॥ इय ताव भणियमेयं, पंचनमोक्कारनामपडिदारं । सम्मन्नाणुवओगाऽभि - हाणमऽक्खेमि अह नवमं ॥९५॥ “सम्यग्ज्ञानोपयोगद्वारम् ” ॥९६॥ ॥९७॥ ॥९९॥ खमग! पमायं उम्मूलिऊण, नाणोवओगवं होसु । जम्हा सव्वाऽऽबाहा - विवज्जियं जीवलोगस्स नाणं चक्खू नाणं, पईवओ नाणमेव दिणणाहो । तिहुयणतिमिसगुहाए, पगासरयणं परं नाणं जड़ ताव नाणचक्खू, न होज्ज जीवाण जीवलोगम्मि । ता मोक्खमग्गविसया, सम्मपवित्ती न जाएज्जा ॥९८॥ कह वा कुबोहसलहा - वहारिनाणप्पईवविरहेण । होज्जा जयं वरायं, मिच्छत्ततमोभरऽक्कतं तह फुरइ फुडं हयतम - सन्नाणदिवायरप्पभावेण । संसारसरे सुंदर - विवेयकमलाऽऽयरवियासो तिहुयणतिमिसगुहाए, अन्नाणतमंऽधयारघोराए । जड़ नो हुतो सन्नाण - कागणीरयणवावारो ता कह इमं वरायं मूढं जिणचक्किमग्गमऽणुलग्गं । अप्पडिहयप्पयारं इह 'नीहंतं भवियसेण्णं सक्का सुएण गाउं, उड्ढं च अहं च तिरियलोगं च । ससुराऽसुरं समणुयं, सगरुलभुयगं सगंधव्यं बंधं मोक्खं गइमाऽऽगई च, जीवाण जीवलोगम्मि । जाणंति सुयसमिद्धा, जिणसासणभावियमईया सूई जहा ससुत्ता, न नासइ कयवरम्मि पडिया वि । जीयो वि तह ससुत्तो, न नासड़ गओ वि संसारे सूई जहा असुत्ता, नासह पडिया क्यारमज्झम्मि । पुरिसो वि तह असुत्तो, नासइ संसारगहणम्मि जह आगमेण येज्जो, जाणड़ वाहिं चिगिच्छिउं निउणो । तह आगमेण नाणी, जाणड़ सोहिं चरितस्स जह आगमपरिहीणो, वेज्जो, वाहिस्स न मुणड़ तिगिच्छं । तह आगमपरिहीणो, चरितसोहिं न याणाइ ॥८॥ तम्हा पुव्यं पुव्यरिसि - परुवियम्मि अप्पमत्तेहिं । उज्जोओ कायच्यो, नरेहिं मोक्खाऽभिखीहिं ॥९॥ मेहा होज्ज न होज्ज व जं सा कम्मक्खओवसमसज्झा । उज्जोओ कायव्यो, नाणं अभिकंखमाणेहिं ॥१०॥ जड़ वि य दिवसेण पयं, पढेइ पक्खेण वा सिलोगद्धं । नाणं सिक्खेउमणो, तह वि हु मा मुंच उज्जोगं ॥११॥ पेच्छह ता अच्छेरं, अणऽच्छमाणीए अच्छमाणस्स । पासाणस्स बलवओ, खओ कओ वारिधाराए तह सीयएण मउयएण, जोगं अमुंचमाणेण । उदएण गिरी भिन्नो, थेवं थेवं वहतेण ॥७॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१५॥ ॥१६॥ 2 अपरिजिएण मणूसो, बहूणा वि सुएण अपरिसुद्धेण । खलिएण संकिएण य, जाणुयजणहासओ होड़ ॥ १४॥ थेवेण वि अखलियसुद्धएण, थिरपरिचिएण गहियत्थो । सज्झाएण मणूसो, अलज्जियाऽणाउलो होइ गंगाए वालुयं जो मिणेज्ज, उस्सिंचिऊण य समत्थो । हत्थउडेहिं समुद्धं, सो नाणगुणे अणुमिणेज्जा | पायाउ विणिवित्ती, तहा पवित्तीय कुसलधम्मस्स । विणयस्स य पडिवत्ती, तिन्नि वि नाणस्स कज्जाई ॥१७॥ संजमजोगे आराहणा य, आणा य यद्धमाणस्स । सक्का नाउं नाणेण, तेण नाणं अहिज्जेज्जा नाणे आउत्ताणं, नाणीणं नाणजोगजुत्ताणं । को निज्जरं तुलेज्जा, पयडियसिवपउणपयवीणं छट्ठऽट्ठमदसमदुवालसेहिं, अबहुस्सुयस्स जा सोही । तत्तो बहुतरगुणिया, हवेज्ज जिमियस्स नाणिस्स ॥२०॥ एक्काऽहेण तयस्सी, भवेज्ज नडत्थेत्थ संसओ को वि । एक्काऽहेण सुयधरो, न होइ धंतं पि तुरंतो ॥२१॥ जं नेरइओ कम्मं, खवेड़ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमेत्तेणं नाणेण सव्यभावा, नज्जंति चराऽचरा तिहुयणत्था । तम्हा नाणं कुसलेण, सिक्खियवं पयत्तेणं ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२२॥ ॥२३॥ 1. नीहंतं = निरसरिष्यत् B | 2. अपरिचितेन । 219 ॥७८०० ॥ ॥१॥ nu m ॥४॥ ॥५॥ ॥६॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७८२४-७८५८ नाणं गिण्हड़ नाणं गुणेज्ज, नाणेण कुणड़ किच्चाई । इय संसारसमुद्द, नाणी नाणट्ठिओ तरड़ नाणं खु सिक्खियव्यं, नरेण लट्टूण दुल्लहं बोहिं । जइ इच्छा नाउं जे जीवस्स विसोहणं परमं सव्वत्थामेण सुयं घेत्तव्यं जहबलं तयो किच्चं । उस्सुतं कीरंतो, तयो वि न जओ गुणाय भवे किंच सम्यग्ज्ञानोपयोगनामक नवम्द्वारम् - यवमुनिदृष्टान्तः ॥२४॥ ॥२५॥ રા ॥३२॥ ॥३६॥ ॥३९॥ ॥४१॥ ॥४२॥ न हु मरणम्मि उयग्गे, सक्को बारसविहो सुयक्खंधो । सव्यो अणुचिंतेउं, धणियं पि समत्थचित्तेणं ता जो एक्कपयम्मि वि, संजोगं कुणड़ वीयरागमए । सो तेण मोहजालं, छिंदड़ अज्झप्पजोगेणं एक्कम्मि वि मोक्खनिबंधणम्मि, जो होड़ निच्चमाऽऽउत्तो । तं तस्स होइ नाणं, जेण विरागत्तणमुवे जे पयणुभत्तपाणा, सुयहेउं ते तयस्सिणो नेया । सुत्तविउत्ताण तयो, जरविहुराण व छुहामारो नाणेण वज्जणिज्जं यज्जिज्जड़ किज्जड़ य करणिज्जं । नाणी जाणड़ काउं, कज्जमऽकज्जं च वज्जेउं नाणसहियं चरितं नूणं संपायगं गुणसयाणं । एसा जिणाणमाऽऽणा, नऽत्थि चरितं विणाऽऽणाए जं नाणं तं करणं, जं करणं पययणस्स सो सारो । जो पययणस्स सारो, सो परमत्थो त्ति नायव्यो ॥३३॥ परमत्थगहियसारो, बंधं मोक्खं मुणेड़ जीवाणं । नाऊण बंधमोक्खं खवेइ भवसंचियं कम्मं ॥३४॥ नाऽदंसणिस्स नाणं, न य अन्नाणिस्स होंति चरणगुणा । अगुणस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि असुत्तस्स निव्वाणं ||३५|| भद्दं बहुस्सुयाणं, सव्वत्थेसु परिपुच्छणिज्जाणं । नाणेणुज्जोयकरा, जे सिद्धिगएसु वि जिणेसु किं एत्तो लट्ठयरं, अच्छेरयरं व सुंदरतरं वा । चंदमिव जमिह लोया, बहुस्सुयमुहं पलोयंति चंदाउ नीड़ जोन्हा, बहुस्सुयमुहाउ नीड़ जिणवयणं । जं सोऊण मणूसा, तरंति संसारकंतारं चोद्दसपुव्यधरा जे, ओहिन्नाणी य केवली चेव । लोगुत्तमपुरिसाणं, तेसिं नाणं अभिन्नाणं 1 दढमूढमहाणम्मि वि, वरमेगो वि सुयसीलसंपन्नो । मा हु सुयसीलविगलं, काहिसि माणं पवयणम्मि ॥४०॥ तम्हा सुयम्मि जत्तो, कायव्यो होइ अप्पमत्तेणं । जेणऽप्पाणं परमऽवि, दुक्खसमुद्दाउ तारेइ नाणोवयोगरहितो, न तरइ नियचित्तनिग्गहं काउं । नाणं अकुसभूयं चित्तस्सुम्मत्तकारिणो व्व विज्जा जहा पिसायं, सुट्टु पउत्ता करेड़ पुरिसवसं । नाणं हिययपिसायं, सुठु पउत्तं तह करेड़ उवसमइ किन्हसप्पो, जह मंतेण विहिणा पउत्तेण । तह हिययकिन्हसप्पो, सुट्ट्यउत्तेण नाणेण आरन्नओ वि हत्थी, मत्तो नियमिज्जए वरताए । जह तह इह नियमिज्जइ, नाणवरत्ताए मणहत्थी | जह मक्कडओ खणमऽवि, रज्जूए विणा न ठाइ एगत्थ । तह खणमऽवि मज्झत्थो, नाणेण विणा न होइ मणो॥४६॥ तम्हा सो अइचयलो, मणमक्कडओ जिणोवएसेणं । काउं सुत्तनिबद्धो, रामेयव्वो सुहज्झाणे ॥४७॥ नाणुवओगो तम्हा, खमगस्स विसेसओ सया भणिओ । जह 2चक्कऽट्ठयओगो, चंदगवेज्झं करेंतस्स ॥४८॥ नाणपईयो पज्जलड़, जस्स हियए विसुद्धलेसस्स | जिणदिट्ठमोक्खमग्गे, न पणासभयं भये तस्स ॥४९॥ नाणुज्जोएण विणा, जो इच्छड़ मोक्खमग्गमुवगंतुं । गंतुं कडिल्लमिच्छड़, जम्मंऽधो इव बरागो सो ॥५०॥ जड़ खंडसिलोगेहिं वि, मरणाउ रक्खिओ जयो साहू । ता कह नो रक्खिज्जइ, जिणुत्तसुत्तेण भवभयओ ॥५१॥ तहाहि“ययमुनिदृष्टान्तः” उज्जेणीनगरीए, अनिलसुओ नरवई जयो आसि । पुत्तो य गद्दभो से, जुवराओ परमपणयपयं नीसेसरज्जकज्जाण, चिंतगो दिग्घपिट्ठनामो य । मंती अहेसि विस्सास - भायणं सव्वकज्जेसु अच्वंतरूवकलिया, जवस्स धूया अडोल्लिया आसि । भइणी जुवरन्नो गद्द - भस्स नवजोव्यणसुहंडगी तं एगया पलोइय, जुवराया मयणविहुरिओ संतो । तदऽसंपत्तीए किसो, पइदियहं होउमाऽऽरद्धो पुट्ठो य अमच्चेणं, कीस किसो होसि गाढनिब्बंधे । तेणेगंते सिद्धं, ताहे युत्तं अमच्चेण जह कोवि नेव जाणड़, तह भूमिहरे इमं छुहेऊण । भुंजेसु विसयसोक्खं, संतप्पसि कीस तं कुमर ! एवं कयम्मि लोगो वि, जाणिही नूण केणई हडति । पडिवन्नं कुमरेणं, कयं च तह चेय मूढेणं "જો ॥४४॥ ॥४५॥ 1. दढमूढपहाणम्मि B | 2. चक्राष्टकोपयोगः । ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३७॥ mn ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५४॥ ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५८३1 220 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७८५६-७८६५ यवमुनिदृष्टान्तः - पञ्चमहाव्रतनामक दशमंद्वारम् वइयरमिमं च नाउं, जवराया जायगाढनिब्बेओ । पुतं रज्जे ठविउं, सुगुरुसमीवम्मि पव्वइओ ॥५९॥ अणुसासिज्जतो वि हु, न तहा पाढम्मि सो समुज्जमइ । पुत्तप्पडिबंधेण य, पुणो पुणो एइ उज्जेणिं ॥६०॥ अह अन्नया कयाई, उज्जेणिपुरिं पडुच्च वच्चंतो । जवखेत्तरखणुज्जय-मडइनिहुयमिओतओ हुंतं ॥६१॥ अणसरिय रासहं खेत्त-सामिणा फडगिराए भण्णंतं । पायडियभावमेयं, खंडसिलोगं निसामेत्था ॥६२॥ "आधावसि पधावसि, ममं चेव निरिक्खसि । लक्खितो ते मए भावो, जवं पत्थेसि गद्दहा!" ॥६३॥ एयं च सिलोगं कोउगेण, अवधारिऊण सो साहू । गंतुं पहे पयट्टो, नवरं एगत्थ ठाणम्मि ૬૪ો रममाणेहिं डिंभेहिं, खिप्पमाणा कहिं पि बिलमज्झे । पडिया अमुणिज्जती, अडोल्लिया तं च सव्वत्थ ॥६५॥ मगंति डिंभाई, निउणं जा नेय कहवि पेच्छंति । ता तं बिलं पलोइय, डिंभेणेक्कण पढियमिमं ॥६६॥ "इओ गया इओ गया, मग्गिज्जती न दीसइ । अहमेयं वियाणामि, बिले पडिया अडोल्लिया" ॥६॥ सोच्चा इमो वि मुणिणा, कोऊहलओऽवधारिओ सम्म । पत्तो य स उज्जेणिं, ठिओ गिहे कुंभयारस्स ॥६८॥ तत्थ वि य कुंभयारो, भयभीयमिओतओ पलायंतं । मूसगमाउडसज्ज इम, खंडसिलोगं पढेइ : "सुकुमालया भद्दलया, रत्तिं हिंडणसीलया । दीहपिट्ठस्स बीहेहि, नत्थ ते ममओ भयं" ॥७॥ एसो वि रायरिसिणा, जवेण अवधारिओ सिलोयतियं । एयं च विभावेंतो, अच्छइ सो धम्मकिच्चपरो ॥१॥ नवरं पुव्याऽणुसयं, किंपि यहंतेण दिग्घपिटेण । तव्यसहीए विविहाऽऽ-उहाणि ठविउं णियो भणिओ ॥७२॥ सामन्नपराभग्गो, रज्जत्थमिहाऽऽगओ तुहं जणगो । पत्तियसि जड़ न मज्झं, ता तव्वसहीए पेहेसु ॥७३॥ विविहाई आउहाई, विविहपयारेहिं नूमियाइं तओ । पेहावियाई रन्ना, दिट्ठाणि य ताइं तह चेव ॥४॥ रज्जाऽवहारभीओ, तयऽणु णियो दिग्घपिट्ठपरियरिओ । लोयाऽववायरक्खण-कएण रयणीए घेत्तूण ॥५॥ नीलपहोलिकरालं, करयालं कुंभयारभवणम्मि । केणइ अमुणिज्जतो, गतो लहुं साहुहणणट्ठा ॥६॥ एत्थंतरम्मि मुणिणा, कहंपि पढिओ स पढमसिलोगो । रन्ना नायं नृणं, अइसेसी एस नाओम्हि ॥७७॥ अह बीओ, वि हु पढिओ, मुणिणा तं पुण निसामिउं राया । विम्हइओ अहह! कहं, भइणीवित्तं पि नायंति॥८॥ अह तइओ वि हु पढिओ, तत्तो राया पवड्ढियाउमरिसो । चिन्तइ उज्झियरज्जो, कह मज्झ पिया पुणो रज्ज॥७९॥ वंछेइ नवरमेसो, पावाडमच्चो ममं विणासेउं । एवं कुणइ पयत्तं, ता दुट्ठमिमं हणेमि ति ૮૦ના सीसं से छिंदित्ता, कहेइ साहुस्स निययवुत्तंतं । तो सो सुयपढणे जाय-उज्जमो इय विचिंतेड़ ॥१॥ सिक्खियव्यं मणूसेण, अवि जारिसतारिस । पेछ खंडसिलोगेहिं, जीवियं परिरक्खियं ॥८२॥ एतो च्चिय पढणत्थं, पुरा ममं गुरुजणोऽणुसासिंतो । मुक्खत्तणेण य अहं, तइया थेवं पि न पढेतो ॥८३॥ जड़ मूढलोयरइयं पि, पढियमेवंफलं सुयं होइ । ता जिणवरप्पणीयं, कहं न होही महाफलयं . ॥८४॥ एवं विभाविउं सो, गओ समीये गुरुस्स दुविणयं । खामेत्ता जत्तेणं, पढिउं सुतं समारद्धो ॥५॥ जीयं संजमपरिपालणं च, एवं जयो समणुपत्तो । इयरो य जणगअविणा-सणेण कित्तिं च सुगतिं च ॥८६॥ इय सामन्नसुयस्स वि, पहावमुवलक्खिऊण खवग! तुमं । तेल्लोक्कपहुपणीए, सुयम्मि सव्याऽऽयरं कुणसु ॥८॥ एवं सम्मंनाणोवयोग-पडिदारमक्खियं एत्तो । पंचमहव्ययरक्खा-दारं दसमं पवक्वामि ૮૮ “पञ्चमहाव्रतरक्षाद्वारम्" - सम्मन्नाणोवओगस्स, होइ वयरवणं फलं । वरनिव्वाणनयरपहसं-दणाण ताणं पुण वयाण ॥८९॥ पढमं यहचाओ बीय-मडलीयविरई तइज्जगमडतेणं । मेहुणनिवित्ती तुरियं, पंचममपरिग्गहो तत्थ ॥९०॥ परिहर छज्जीयवहं, सम्मं मणवयणकायजोगेहिं । जीवविसेसे नाउं, जाजीवमिमे य ते जीवा ॥९ ॥ | पढविदगाऽगणिवाया, एक्केक्का सहमबायरा होति । साहारणपत्तेओ. दविहो य वणस्सई होइ ॥९२॥ साहारणो य दुयिहो, सुहमो तह बायरो य नायव्यो । पज्जत्ताडपज्जत्तग-भेया सव्ये वि बावीसं ॥९३॥ दुतिचउरिंदियविगला, पणिंदि सण्णी असन्निणो दुविहा । पज्जत्ताऽपज्जत्तग-भेएण तसा दसवियप्पा ॥१४॥ एमाऽऽइवियप्पेसुं, जीवेसु सया वि नायपरमत्थो । सव्वाऽऽयरमुवउत्तो, अप्पोवम्मेण कुणसु दयं ॥५॥ 1. नीलपहोलि० = नील = श्यामप्रभावलिकरालम् । 221 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७८६६-७६३० अहिंसामहाव्रतस्वरूपम् - मृषावादविरमणस्वरूपम् तहाहि “अहिंसामहाव्रतस्वरूपम्" सव्वे वि हु जीया जीवियं खु, इच्छंति नेय मरिउं जे । ता पाणवहं घोरं, धीरा परिवज्जयंति सया ॥१६॥ तन्हाछुहाऽऽइपरिताविओ वि, जीवाण घायणं काउं । पडियारं सुमिणम्मि वि, कइयावि हु मा करेज्जासि ॥१७॥ रइअरइहरिसभयऊसु-गत्तदीणतणाऽऽइजुतो वि । भोगपरिभोगहेडं, मा तं चिंतेसु जीयवह ॥९८॥ तेलोक्कजीवियाणं, वरेहि एगयरयं ति देयेहिं । भणिए तेलोक्कं को, वरेज नियजीवियं मोत्तुं ॥९९॥ जं एवं तेल्लोकं, णडग्घ जीवस्स जीवियं तम्हा । भुवणतयलाभाओ वि, दुल्लहं वल्लहं च सया ॥७९००॥ थोवत्थोवेण बहुं, संजममऽज्जिणिय महुयरो व्य महुं । तिहुयणसारं हिंसा-महंतकलसेहिं मा चयसु ॥१॥ नत्थि अणुओ अप्पं, आयासाओ महल्लयं नत्थि । जह तह जियरक्खाओ, अवरं पवरं न वयमउत्थि ॥२॥ तहाजह पव्वएसु मेरू, उच्चागो होइ सव्वलोगम्मि । तह जाणसु अइगरुयं, सीलेसु वएसु य अहिंसं ॥३॥ जह आयासे लोगो. दीवसमदा जहा य भमीए । तह जाण अहिंसाए, ठियाणि तवदाणसीलाणि । जं जीववहेण विणा, विसयसुहं नत्थि जीवलोगम्मि । ता जीवदया जायड़, महव्वयं विसयविमुहस्स। ॥५॥ परिचत्तविसयसंगे, फासुयआहारपाणभोइम्मि । मणवयणकायगुत्ते, होइ अहिंसावयं सुद्धं । દા कुव्वंतस्स वि जत्तं, तुंबेण विणा न ठंति जह अरया । अरएहिं विणा य जहा, तुंब पि न साहइ सज्जं ॥॥ तह जाण अहिंसाए, विणा उन पयं लहंति सेसगुणा । न य तेहिं च विउत्ता, कुणइ सकज्जं अहिंसा वि ॥८॥ सच्चडमचोरिक्कं बंभ-चेरमऽपरिग्गहो अनिसिभत्तं । एयाई अहिंसाए, रक्खा दिखाए गहणं च ॥ जम्हा असच्चवयणाऽऽइएहिं, दुक्खं परस्स होइ दढं । तप्परिहारो तम्हा, परं अहिंसा गुणाऽऽहाणं ॥१०॥ मारणसीलो कुणइ, जीवाणं रक्खसो व्य उव्येवं । संबंधिणो वि मारत-यंमि नो जंत विस्सासं ॥११॥ जीवगयाजीवगया, दविहा हिंसा उ तत्थ जीवगया । अटठत्तरसयभेया. इयरा एक्कारसविहा उ ॥१२॥ जोगेहिं कसाएहिं. कयकारियअणमईहिं तह गणिया । संरंभसमारंभा-रंभाउ भवंति अट्ठसयं ॥१३॥ तत्थसंरंभो संकप्पो, परितायकरो भये समारंभो । आरंभा उद्दयओ, सव्वनयाणं विसुद्धाणं all निक्लेवो निव्वत्ती, तहेव संजोयणा निसग्गो य । कमसो चउ-दुग-दुगतिग-भेयादेक्कारस भवंति ॥१५॥ अपमज्जियदुपमज्जिय-सहसाणाभोगओ य णिक्नेवो । कोउयदुप्पउत्तो, तहोवगरणं च निव्यत्ती ॥१६॥ संजोयणमुवगरणाण, पढममियरं च भत्तपाणाणं । दुट्ठनिसिट्ठा मणवइ-काया भेया निसग्गस्स ॥१७॥ हिंसाओ अविरमणं, वहपरिणामो य होइ हिंसा जं । तम्हा पमत्तजोगो, पाणव्यवरोवओ निच्वं ॥१८॥ जीवो कसायबहुलो, संतो जीवाण घायणं कुणइ । जो पुण विजियकसायो, सो जीववहं परिच्चयइ ॥१९॥ आयाणं निक्खेवे, बोसिरणे ठाणगमणसयणे य । सव्वत्थ अप्पमते, दयावरे होइ हु अहिंसा ૨૦ काएसु निरारंभे, सन्नाणे रइपरायणमणम्मि । सव्वत्थुवओगपरे, संपुन्ना होड़ हु अहिंसा ॥२१ तेणेवाऽऽरंभरया-णाडणेसणीयाऽऽइपिंडभोईण । घरसरणप्पडिबद्धाण, सायरसगिद्धिगिद्धाणं ॥२२॥ सच्छंदपयाराणं, गामकुलाऽऽईसु क्यममताण । अन्नाणीणमअहिंसा, न घडइ खरसिरविसाणं व ॥२३॥ ता नाणदाणदिक्खा-दुक्करतवजागसुगुरुसेवाणं । जोगडब्भासाणं पि हु, सारो एक्को च्चिय अहिंसा ॥२४॥ अप्पाउमडणारोग्गं, दोहग्ग-दुरूवया य दोगच्वं । दुव्वन्नगंधरसया य, होति यहगस्स परलोए तम्हा इह परलोए, दुक्खाणि सया अणिच्छमाणेणं । उवओगो कायव्यो, जीवदयाए सया मुणिणा ॥२६॥ जं किंचि सुहमुयारं, पहुतणं पयइसुंदरं जं च । आरोग्गं सोहग्गं, तं तमऽहिंसाफलं सव्यं ॥२७॥ “मूषावादविरमणस्वरूपम्" - परिहर असच्चवयणं, खमग! चउभेयमऽवि पयत्तेण । संजमवंता वि जओ, भासादोसेण लिप्पंति ॥२८॥ | सब्भूयऽत्थनिसेहो, पढममऽसच्चं न सन्ति जह जीवा । बीयमऽसब्भूयकहा, संति जहा भूयकत्तारा ॥२९॥ अन्नह ययणं तइयं, निच्चो जीयो भवे अणिच्चो वा । साऽवज्जमणेगविहं, वयणमऽसच्चं चउत्थं तु ॥३०॥ 222 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७६३१-७६६६ अदत्तादानविरमणस्वरूपम् - मैथुनविरमणस्वरूपम् जत्तो पाणिवहाऽऽई, दोसा जायंति तमिह साऽवज्जं । अप्पियवयणं च तहा, कक्कसपेसुण्णमाऽऽइयं ॥३१॥ हासेण व कोहेण व, लोभेण भएण वा वि तमऽसच्चं । मा भणसु भणसु सच्यं, जीवहियत्थं पसत्थमिणं ॥३२॥ | मियमहुरमऽखरम5फरुस - मऽच्छलकज्जोयगं असावज्जं । धम्माऽहम्मियसुहयं भणाहि तं चेय य सुणाहि ॥३३॥ | सच्चं वयंति रिसिणो, रिसीहिं विहियाउ सव्यविज्जाउ । मेच्छस्स वि सिज्झती, नियमेणं सच्चवाइस्स ॥३४॥ विस्ससणिज्जो माय व्य, होड़ पुज्जो गुरुव्य लोगस्स । सयणो व्व सच्चावाई, पुरिसो सव्यस्स होइ पिओ ॥३५॥ सच्चम्मि तवो सच्चम्मि, संजमो तम्मि चेव सव्यगुणा । इह संजओ वि मोसेण, होड़ तणतुच्छओ पुरिसो ||३६|| न डहड़ अग्गी न जलं पि, बोलए सच्चवाइणं पुरिसं । सच्चबलियं सुपुरिसं, न नेइ तिक्खा गिरिनई वि ॥३७॥ सच्चेण देवयाओ, नमंति पुरिसस्स ठंति य वसम्मि । सच्चेण गहग्गहियं, मोइंति करेंति रक्खं च મો सच्चं ववगयदोसं, वोत्तूण जणस्स मज्झयारम्मि । पावड़ परमं पीइं, जसं च जयविस्सुयं लहड़ ॥३९॥ मायाए वि हु बेसो, पुरिसो अलिएण होइ एक्केण । किं पुण्र सेसाण भुयं गमो व्व नो होज्ज अइवेसो ॥४०॥ अप्पच्चओ अकित्ती, धिक्कारो कलहवेरभयसोगा । धणनासो वहबंधो, असच्चवाइम्मि संनिहिया ॥४१॥ “अदत्तादानविरमणस्वरूपम्” ॥४२॥ "જો ॥४४॥ ॥४५॥ परलोगम्मि वि दोसा, ते चेव हवंति अलियवाइस्स । चोरिक्काऽऽई सेसे, जत्तेण वि परिहरंतस्स इहलोगपारलोइय- दोसा जे होंति अलियययणस्स । कक्कसवयणाऽऽईण वि, दोसो ते चेव नायव्या अलियं पयंपमाणो, एमाऽऽई पावए बहू दोसे । परिहरमाणो तं पुण, तव्विवरीए य लहड़ गुणे मा कुणसु धीर! बुद्धि, अप्पं च बहुं च परथणं घेत्तुं । दंतंतरसोहणयं, किलिंचमेत्तं पि अविइण्णं |जह मक्कडओ पक्कप्फलाई, दट्टूण धाइ थाओ वि । इय जीवो परविहवं, विविहं दट्ठूण अहिलसइ ॥४६॥ न य तं लहड़ न भुंजड़, भुत्तं पि न कुणड़ निव्वुई तस्स । सव्वजएण वि जीवो, लोभाऽऽविट्ठो न तिप्पड़ य ॥४७॥ तह जो अत्थं अवहरइ, जस्स सो जीवियं पि से हरड़ । जं सो अत्थकएणं, उज्झइ जीयं न उण अत्थं ॥ ४८ ॥ हुंते य तम्मि जीवइ, सुहं च सकलत्तओ तओ लहड़ । तं पुण तस्स हरंतेण, तेण सव्वं पि हडमेव ॥ ४९ ॥ ता जीवदयं परमं धम्मं गहिऊण गेण्ह माऽदिण्णं । जिणगणहरपडिसिद्धं, लोयविरुद्धं च अहमं च 11401 चरिउं पि चिरं चरणं, किलिंचमेत्तं पि घेतुमऽविदिण्णं । तणलहुओ होइ नरो, अप्पच्चइओ य चोरो व्व ॥५१॥ यहबंधजायणाओ, छायाभंसं पराभवं सोगं । पावड़ चोरो सयमऽवि, मरणं सव्वस्सहरणं च निच्चं दिया य रतिं च संकेमाणो न निद्दमुवलभइ । भयतरलं पेच्छंतो, अच्छड़ गच्छइ य हरिणो व्व ॥५३॥ उंदुरकयं पि सद्दं, सोच्चा परिवेवमाणसव्वं गो । सहसा समंतओ तह, उव्विग्गो धावड़ खलंतो परलोगम्मि वि चोरो, करेइ नरयम्मि अप्पणो वसहिं । तिव्बाओ वेयणाओ, अणुभवइ तत्थ सुचिरं पि ॥५५॥ तिरियगईए वि तहा, चोरो पाउणइ तिक्खदुक्खाई । किं बहुणा दुत्तारे, संसारसरे सरइ बहुसो ॥५६॥ हरिया व अहरिया वा, नस्संति नरभयेवि तस्सऽत्था । न हु से धणमुवचीयइ, सयं च ओलोट्टई धणाओ ॥५७॥ 2 परदव्वहरणबुद्धी, सिरिभूई दुक्खदारुणे नरए । पडिओ तत्तोऽणंतं, भमिओ संसारकंतारे एए सच्चे दोसा न होंति परदव्यहरणविरयस्स । होंति समग्गा य गुणा, एत्तो च्चिय निच्चमुयउत्तो | देवेंदरायगहवड़ - सागरिसाहम्मि ओग्गहम्मि तुमं । समुचियविहिणा दिण्णं, गेण्हसु सामण्णहेउं ति “मैथुनविरमणस्वरूपम्” ॥५२॥ ॥५४॥ ॥५८॥ ॥६९॥ ॥६२॥ કો रक्खाहि बंभचेरं च, बंभगुत्तीहिं नवहिं परिसुद्धं । निच्चं पि अप्पमत्तो, पंचविहे इत्थियेरग्गे जीवो बंभा जीवम्मि, चेव चरिया भवेज्ज जा जड़णो । तं जाण बंभचेरं, विमुक्कपरदेहतत्तिस्स “यसहिकहनिसेज्जेंदिय - कुडतरपुव्यकीलियपणीए । अइमायाऽऽहारविभूसणा य, नव बंभगुत्तीओ" कामकया' इत्थिकया', दोसा असुइत्त' बुड्ढसेवा य । संसग्गीदोसा वि य, करेंति इत्थीसु वेरग्गं जावइया किर दोसा, इह परलोगे दुहाऽऽवहा होंति । आवहड़ ते उ सव्ये, मेहुणसन्ना मणूसस्स सोयइ वेवइ तप्पड़ जंपड़ कामाऽऽउरो असंबद्धं । रतिं दिया वि निद्द, न लहड़ पज्झाइ विमणो य 1. ध्रातः = तृप्तः । २ इयं गाथा ताडपत्रीयप्रत्यां नास्ति । ॥६४॥ ॥६५॥ ॥ ६६ ॥ 223 ॥५९॥ ॥६०॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७६६७-८००३ ___ कामसुखस्य, अशुभत्वं दृष्टाताः च - महिलानां दुर्गुणाः सयणे जणे व सयणाऽऽसणे वि, गामे घरे अरन्ने वा । कामपिसायग्गहिओ, न रमड़ तह भोयणाऽऽईसु ॥६॥ कामाऽऽउरस्स् गच्छइ, खणो वि संवच्छरो व्य पुरिसस्स । सीयंति य अंगाई, वहइ मणे इट्ठउक्कंठं ॥६८॥ करयलकलियकवोलं, बहुसी चिंतेइ किंपि दीणमुहो । कामुम्मतो अंतो, अंतो डज्झइ य चिंताए ॥६९॥ विवरीयविहिवसेण य, कामिजते जणे अलभते । पाडइ निरत्थयं सो, गिरिजलजलणेसु अप्पाणं ॥७०॥ अरइरइतरलजीहाजुएण, संकप्पउब्भडफडेण । विसयबिलवासिणा मय-सुहेण बिब्बोयरोसेण ॥७१॥ कामभुयगेण दट्ठा, विलासनिम्मोयदप्पदाढेण । नासंति नरा अवसा, दुसहदुक्खुक्कडविसेण ॥७२॥ आसीविसेण दट्ठस्स, होंति या नरस्स सत्तेय । कामभुयंगमदट्ठस्स, होति चेया दस दुरंता ॥७३॥ पढमे चिंतइ वेगे, दटुं तं इच्छए बिइयवेगे । नीससड़ तइयवेगे, आरुहइ जरो चउत्थम्मि ॥७४॥ डज्झइ पंचमवेगे, अंगं छठे न रोयए भत्तं । मुच्छिज्जड़ सत्तमए, उम्मत्तो होइ अट्ठमए ॥७५॥ नवमे किंपि न याणइ, दसमे पाणेहिं मुच्वइ अवस्सं । संकप्पवसेण पुणो, वेगा तिव्वा य मंदा य ७६॥ सूरडग्गी दहइ दिया, रतिं च दिवा य दहइ कामडग्गी । सूरग्गिणोऽत्थि उच्छा-यणं पि कामग्गिणो नत्थि ॥७॥ विज्झायइ सूरग्गा, जलोवयाराऽऽइणा न कामग्गी । सूरग्गी दहइ तयं, सबाहिरडब्मतरं इयरो ॥८॥ कामपिसायग्महिओ, हियमऽहियं या न अप्पणो मुणइ । पेच्छइ कामग्घत्थो, हियं भणंतं पि सत्तुं व ॥७९॥ कामग्घत्थो पुरिसो, तिलोयसारं पि चयइ सुयरयणं । तेलोक्कपूइयं न य, माहप्पं पि हु गणइ मूढो ॥८०॥ तेलोक्कपूयणिज्जे, जिणेहिं भणिए सयं च विन्नेये । मन्नइ तणं व तवनाण-चरणदंसणवरगुणे वि ॥८१॥ अरहंतसिद्धआयरिय-यायगाणं च साहुवग्गस्स । कुणइ अवन्नमऽधन्नो, अविभावेंतो भयुत्थभयं ॥२॥ त्थं दक्खं. इहलोए दग्गडं च परलोए । संसारं च अणंतं, न गणइ विसयाडमिसे गिद्धो ॥८३॥ लल्लक्कनरयवियणाउ, घोरसंसारसायरुव्वहणं । संगच्छइ न य पेच्छड़, तुच्छतं कामियसुहस्स ॥८४॥ गायइ नच्वइ. थोवइ, चलणजुयं पि हु मलेइ अंगाई । सोहइ मुतपुरीसं, कुलम्मि जाओ वि विसयवसो ॥८५॥ यम्महसरसयविद्धो गिद्धो वणिओ व्य रायपत्तीए । पाउक्खालयगेहे, दुग्गंधे णेगसो यसिओ कामुम्मत्तो न मुणइ, गम्माङगम्मं च वेसियाणो व्य । सेट्ठी कुबेरदत्तो व्य, नियसुयासुरयरइसतो ॥७॥ इहलोगे वि महल्लं, दुक्खं कामस्स वसगओं पत्तो । मरिउं च पावबद्धो, कडारपिंगो गओ नरयं ॥८॥ एए सव्ये दोसा, न होंति पुरिसस्स बंभयारिस्स । तवियरीया य गुणा, भवंति विविहा विरागिस्स ॥८९॥ महिला इहपरभयिए, हणिऊण गुणे नरस्स सबसस्स । उभयभवदुक्खजणगे, दोसे नियमेण आणेइ. ॥१०॥ महिला सहायकुडिला, 'अडणिव्य बहुं पि अणुसरिजंती । पुरिसं सभूमिगाउ, यालिय विविहं भमाडेइ ॥११॥ महिला पहधूलिसमा, सहावकलुसा अकलुसपयई पि । लद्धप्पसरा पुरिसं, सव्यंगं चेव कलुसेड़ ॥२॥ महिला वंसकुडंगी व, गहणभूया सहावओ चेव । संपन्नफला वि हु कुणइ, निययवंसक्खयं दुट्ठा ॥१३॥ महिलासु नत्थि वीसंभएण, पणयपरिचयकयन्नुयाउउइगुणा । उज्झंति नियकुलाइं, जमउन्नचित्ताओ ताओ लहुं॥१४॥ पुरिसे वीसंभेड़, महिला हेलाए चेय पुरिसा उ । महिलं वीसंभेउं, बहुप्पयारेहिं वि न सक्का ॥१५॥ अइलहुगे वि अविणए, क्यम्मि सुक्याण लक्खमडगणेती। पइमडप्पाणं सयणं, कुलं धणं नासए महिला ॥१६॥ अहवाअकए वि हु अवराहे, नारीओ नरंऽतरे कयमणाओ । कुवंति वहं पइणो, सुयस्स ससुरस्स पिउणो वि ॥९७॥ | सक्कारं उवयारं, गुणं च सुहलालणं च नेहं च । महुरवयणं च महिला, परप्पसत्ता परिप्फुसइ ॥८॥ चोरऽग्गिवग्यविसजलहि-मत्तगयकसिणसप्पसत्तस । सो वीसंभं गच्छड, वीसंभइ जो महिलियासु ॥१९॥ वग्घाऽऽइया य अहवा, दोसं न नरस्स तमिह कुवंति । जं कुणइ महादोसं, दुट्ठा महिला मणूसस्स ॥८०००॥ | रोगो दारिदं वा, जरा व न उयेइ जाव पुरिसस्स । ताव पिओ हवड़ नरो, कुलजायाए वि महिलाए ॥१॥ जुन्नो व दरिदो या, रोगी व पिओ व होड़ से विस्से । निप्पीलिओ व्व उच्छू, माला व मिलाणगयगंधी ॥२॥ | महिला पुरिसमऽवन्नाए, चेव वंचेइ कूडकवडेहिं । पुरिसो समुज्जओ वि हु, महिलं न चएइ यंचेउं ॥३॥ 1. अडणी = मार्गः । 224 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेयरंगशाला श्लोक नं. ८००४-८०४० महिलानां दोषाः च. - गर्भावस्थास्वरूपम्। वाओलीउ व्ब रयाऽऽउलाउ, मइलिंति महिलियाउ नरं । संझाउ ब्च अवस्सं, भवंति खणमेत्तरागाओ ॥४॥ जावइयाई जलाई, वीईओ वालुगा व जलहीसु । नइसु य हवंति तत्तो, महिलाचित्ताई बहुयाइं ॥५॥ आगासभूमिजलनिहि-सुरगिरिपवणाऽऽइणो वि पुरिसेहिं । नाउं सक्का न पुणो, कहमऽवि इत्थीण चित्ताई ॥६॥ चिटुंति जहा न चिरं, विज्जू जलबुब्बुया व उक्का या । तह न चिरं महिलाणं, एक्कम्मि नरे रमइ चित्तं ॥७॥ परमाणू वि कहंचि वि, आगच्छेज्ज गहणं मणूसस्स । न य सक्का घेत्तुं जे, चित्तं महिलाण अइसुहुमं ॥८॥ कुविओ वि कन्हसप्पो, दुट्ठो सीहो वि मतहत्थी यि । घेप्पड़ कह वि नरेणं, न य चित्तं दुट्ठमहिलाए ॥९॥ उदगम्मि वि तरइ सिला, सिही वि न दहेइ होइ हिमसिसिरो । न उण महिलाण कइय वि, उज्जुभावो भवइ पुरिसे॥१०॥ उज्जुगभावम्मि असंतयम्मि, कह होइ तासु वीसंभो । वीसंभे य असंते, का होज्ज रई महिलियासु ॥११॥ गच्छेज्ज समुद्दस्स वि, पारं पुरिसो भुयाहिं तरिऊण । मायाजलमहिलोयहि-पारं न य सक्कए गंतुं ॥१२॥ रयणसहिया सवग्धा, गुहा व सीयलजला सगाहा य । सरिय ब्व जणमणहरा (विहु), उब्बियणिज्जा य ही! महिला॥१३॥ दिलृ पि न सम्भावं, पडियज्जड़ नियडिमेव उड्डेइ । गोहानिलुक्कमित्थी, करेड़ पुरिसम्मि कुलजा वि ॥१४॥ तारिसओ णत्थि अरी, नरस्स अन्नो ति बुच्चए नारी । पुरिसं सया पमत्तं, कुणइ ति य वुच्चए पमया॥१५॥ |पुरिसम्मि अणत्थसए, विलायइ जेण तेण विलया सा । जोजेइ नरं दुक्खे य, तेण जुवई य जोसा य॥१६॥ अबल ति होइ जं से, न दढं हिययम्मि धिइबलं अस्थि । इय महिलानामाणि वि, चिंतिताणि असुहाणि ॥१७॥ निलओ कलीए अलियाण, आलओ कुलहरं अविणयाणं । आयासस्स य वसही, महिला मूलं तु कलहस्स ॥१८॥ धम्मस्स परमविग्यो, पाउब्भायो य धुवमऽधम्मस्स । संदेहो देहस्स वि, हेऊ माणाऽवमाणाणं ॥१९॥ बीयं पराभवाणं, महिलाओ कारणं अकितीए । अत्थाणं सव्वगमो, समागमो तह अणत्थाणं ॥२०॥ दोग्गइमग्गो सग्गाऽप-वग्गमग्गे य अग्गला उग्गा । दोसाण नियाऽऽवासो, सव्व-गुणाणं पयासो य ॥२१॥ चंदो वि होज्ज उण्हो, सीओ सूरो वि निबिडमाऽऽयासं । न य होज्ज अदोसा भ-दिया य महिला सुकुलजा वि॥२२॥ इच्चाई बहुदोसे, महिलाविसए विचिंतयंतस्स । पायं विरज्जड़ मणो, महिलाहिंतो विवेइस्स ॥२३॥ जह जाणिऊण दोसे, वग्घाऽऽई एत्थ परिहरिजंति । तह ठूणं दोसे, महिलाहिंतो वि विरमेज्ज ॥२४॥ | किं बहुणा भणिएणं, दोसा महिलाकया इहं चेव । हेट्ठाडणुसट्ठिदारे, गणवइणा देसिया चेव ॥२५॥ सद्धकारणकयं, कारणसद्धीए सज्झइ तयं त । कतो अमेज्झघडियस्स, होज्ज सुद्धी सरीरस्स . ॥२६॥ देहस्स सुक्कसोणिय-मऽसुई उप्पत्तिकारणं जम्हा । ता देहो च्चिय असुई, अमेज्झघडिओ जहा घडओ ॥२७॥ तहाहि "गर्भावस्थास्वरूपम्" अम्मापिउसंजोगे, सोणियसुक्काण मीलणे कलुसं । जं होइ तत्थ जीयो, उप्पज्जइ पढममेव तओ ॥२८॥ तं कलुसं सत्ताहं, कललं होऊण अब्बुयं होइ । सत्ताहं चिय तत्तो, घणरुवं पढममासम्मि ॥२९॥ करिसूणं पलमेतं, जायइ बीयम्मि तं च मासम्मि । घणरुवमंसपेसी, संपज्जड़ तइयमासे य રે जणणीए जणइ डोहल-मंगाणि य पीणइ चउत्थम्मि । निव्वत्तइ पंचमगे, सिरकचरणंडकुरमऽवत्तं .. ॥३१॥ उवचिणइ छट्ठमासे, सोणियपित्ताई सत्तमम्मि पुणो । सत्तसयाइं सिराणं, पंच सयाई च पेसीणं. ॥३२॥ धमणीओ नव सव्वंडग-भाविअधुट्ठरोमकोडीओ । निव्वत्तइ अट्ठमए, वित्तीकप्पो भवइ पच्छा ॥३३॥ नवमे वा दसमे वा, जणणिं अप्पाणयं च पीडंतो । नीसरइ जोणिकुहराओ, विरससदं रसेमाणो. રૂના अणुपुबीए वुड्ढीगए य, देहम्मि मुत्तरुहिराणं । पत्तेयमाऽऽढयं कुल-वओ य तह सिंभपित्ताणं ॥३५॥ सुक्कस्स अद्धकुलयो, हवेइ पत्थो य मत्थुलिंगस्स । अद्धाऽऽढओ वसाए, एक्को पत्थो पुरीसस्स ॥३६॥ अट्ठीणं तिन्नि सया, भरिया बीभच्छकुणिममज्जाए । संधीणं सव्यग्गं, सट्ठीअहियं सयं होड़ नव हारूण सया, सिरासयाई च होंति सत्तेव । होति य पंच सयाई, देहम्मि मंसपेसीणं ॥३८॥ इय सुक्कसोणियप्पमह-कलुसपोग्गलचएण निम्माओ । नवमाससमाओ असुई-रसपाणुवलद्धपरिवुड्ढी ॥३९॥ जोणिमुहनीहरिओ यि, जणणीथणछीरपीणिओ बाढं । पगइअमेज्झमइओ, सुइत्तमाऽऽवहइ कहं देहो ॥४०॥ 225 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८०४१-८०७५ गर्भावस्थास्वरूपम्। - चारुदत्तदृष्टान्तः एवंविहे य इहइं, बहिरंडतो वा वि क्यलिथंबे(भे) व्य । सम्मं पेहिज्जंते, न विज्जए सारलेसो वि ॥४१॥ सप्पेसु मणी दंता, गएसु चमरीसु केसपन्भारो । दिट्ठो सारो न उणऽत्थि, को वि सारो मणुयदेहे ॥४२॥ छगणे मुत्ते दुद्धे, गोणीए दीविणो य चम्मम्मि । सुचिया दिट्ठा न उणऽत्थि, का वि सुचिया मणुयदेहे ॥४३॥ वाइयपित्तियसिंभिय-रोगा तन्हाछुहाऽऽइया य तहा। निच्चं तवंति देहं, अद्दहियजलं व जलियडग्गी ॥४४॥ एवंविहदेहो यि हु, बालो जोव्यणमएण वामूढो । ससरीरतुल्लकारण-निम्मायम्मि वि जुवइदेहे ॥४५॥ उपमेइ केसहत्थं, बरहिकलावेण भालवलृ पि । अट्ठमिमयंकबिंबेण, नयणमंडभोरुहदलेण ૧૪દ્દા अहरं पि पोमराएण, गीयमुवमेइ पंचयन्नेण । कणयकलसेहिं थणए, भुयजुयलं नलिणिनालेण ૪ળી पाणिं पि पल्लवेणं, नियंबफलयं पि कंचणसिलाए । रंभाहिं ऊरुजुयं, चलणे रत्तुप्पलेहिं च ૪૮ न विभावेइ अणज्जो, कत्तिच्छण्णं अमेज्झनिम्मायं । कलमलयमंससोणिय-पुन्नमिमं अप्पदेहं व ॥४९॥ सुरहिविलेवणतंबोल-कुसुमनिम्मलदुगूलभूसाहिं । खणमेत्तपत्तबाहिर-सोहं रम्मं ति काऊण ॥५०॥ केवलमऽबलादेहं, परिभुज्जड़ काममोहियमणेहिं । जह कडुहड्डाऽऽइजुयं, मंसमऽसिज्जड़ सपूई पि ॥५१॥ तहाबालो अमेज्झलितो, अमेज्झमज्झम्मि चेव जह रमड़ । तह रमइ नरो मूढो, महिलअमेज्झे सयमउमेज्झा ॥५२॥ कुणिमरसकुणिमगंधं, सेवंता महिलियातणुकुडीरं । सायाऽभिमाणिणो जे, ते लोए होंति हसणिज्जा ॥५३॥ एवं एए अन्थे, देहे चिन्तन्तयस्स पुरिसस्स । परदेहं परिभोत्तुं, इच्छा कह होज्ज सघिणस्स ॥५४॥ एए अत्थे सम्म, देहे पेच्छंतओ नरो सघिणो । ससरीरे वि विरज्जइ, किं पुण अण्णस्स देहम्मि ॥५५॥ थेरा या तरुणा वा, वुड्ढा सीलेहिं हुंति बुड्ढेहिं । थेरा या तरुणा या, तरुणा सीलेहिं तरुणेहिं ॥५६॥ खोभेइ पत्थरो जह, दहे पडतो पसंतमवि पंकं । खोभेड़ तहा मोहं, पसंतमवि तरुणसंसग्गी ॥५॥ कुलुसीक्यं पि उदयं, विमलं जह होइ कयगफलजोगा । तह मोहकलुसियमणो, जीयो वि हु वुड्ढसेवाए ॥५८॥ तरुणो वि वडढसीलो. होड नरो वडढसंसिओ अइरा । लज्जाऽवरोहसंका-गउरवभयधम्मबद्धीहिं बुड्ढो वि तरुणसीलो, होइ नरो तरुणसंसिओ अड़रा । वीसंभनिव्यिसंको, समोहणिज्जा य पयईए ॥६०॥ जायड जलजोगओ जहा गंधो । तह लीणो वि वियंभड. मोहो तरुणाण सेयाओ ॥६१ तरुणेहिं सह वसंतो, संतो वि चलिंदिओ चलमणो य । अचिरेण सइरचारी, पावइ महिलागयं दोसं ॥२॥ पुरिसस्स य अपसत्थो, भावो तिहिं कारणेहिं संभवइ । विरहम्मि अंधयारे, कुसीलसेवाए सयराहं ॥३॥ जह चेव चारुदत्तो, गोट्ठीदोसेण आवई पत्तो । पत्तो य उन्नई सो, पुणो वि तह बुड्ढसेवाए ૬૪ तहाहि “चारुदत्तदृष्टान्तः" । चंपाए नयरीए अहेसि भाणू ति सावगो इब्भो । भज्जा य से सुभद्दा, पुत्तो पुण चारुदत्तो ति ॥६५॥ जोव्यणमडणुपत्तो वि हु, सो पुण साहु व्य निधियारमणो । वंछइ न विसयनामं पि, गेण्हिउं किं पुणाडयरिउं॥६६॥ तो जणणीजणगेहिं खित्तो दुल्ललियगोट्टिमज्झम्मि । भावपरियत्तणकए, तो तीए सह स वट्टतो ॥६॥ जातो विसयाऽभिमुहो, ठितो य गेहे वसंतसेणाए । वेसाए समा बारस, नीयं निहणं च सव्वधणं ॥८॥ निव्वासिओ य भवणाहि, वाइयाए गओ स गेहम्मि । अम्मापिऊण मरणं, सोऊण य गाढदुक्खत्तो ॥६९॥ भज्जाडलंकारं गेण्हिऊण, वाणिज्जकरणवंछाए । माउलगेणं सद्धिं, उसीरवत्ते पुरम्मि गओ ॥७०॥ कप्पासं गेहेत्ता, तत्तो यलितो य तामलित्तीए । दावऽग्गिणा य दड्ढो, कप्पासो अद्धमग्गम्मि ॥१॥ अह संभमम्मि मोत्तुं, माउलगं तुरगमाऽऽरुहिय तुरियं । पुवदिसाए पलाणो, पत्तो य पियंगुनयरम्मि ॥७२॥ दिट्ठो य तहिं पिउणो, मितेण सुरेंददत्तनामेण । पुत्तो व्य गोरवेणं, धरिओ य चिरं नियगिहम्मि ॥७३॥ अह तस्स जाणवत्तेण, दव्युवज्जणकएण परतीरे । गंतूण चारुदत्तेण, अज्जिया अट्ठ घणकोडी ૭૪ वलमाणस्स य सहसा, मज्झे उदहिस्स विहडियं यहणं । लद्धं च फलगखंडं, कहकहवि य चारुदत्तेणं ॥५॥ 1. अदहियजलं = आहितजलम् । 2. वेश्याजनन्या । 226 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८०७६-८११३ चारुदत्तदृष्टान्तः ता उत्तिन्नो जलहिं, पत्तो य कर्हिपि रायउरनयरे । दिट्ठो य तहिं एक्को, रवि व्य रुइरो तिदंडिमुणी ॥६॥ पुट्ठो य तेण कतो, तुमं ति सिट्ठा य चारुदत्तेणं । सव्व च्चिय नियवत्ता, भणियं च तिदंडिणा वच्छ! ॥७७॥ एहि करेमि धणडढं, बच्चामो पव्वयं रसं तत्तो । आणित्ता चिरदिटुं, पच्चइयं कोडियेहं ति ॥८॥ पडियन्नं इयरेणं, गया य ते दो वि पव्वयनिगुंजे । कीणासवयणभीमा, दिट्ठा रसकूविया य तहिं ॥७९॥ युत्तो तिदंडिणा सो, भद्द! इहं पविस तुंबयं घेत्तुं । रज्जुमडवलंबिऊणं, पुणो वि लहु नीहरिज्जासि ॥८॥ तो रज्जबलेणं सो, तीए पविठ्ठो अईव उंडाए । ठाऊण मेहलाए, जाव रसं गेण्हिउं लग्गो ॥८१॥ ताव निसिद्धो केणइ, मा मा भो भद्द! गेन्हसु रसं ति । भणियं च चारुदत्तेणं, को तुमं मं निवारेसि ॥८२॥ तेणं पयंपियं उयहि-भिन्नपोओ अहं इहं वणिओ । धणलुद्धो रसहेउं, तिदंडिणा रज्जुणा खित्तो ॥८॥ रसभरियतुम्बए अप्पि-यम्मि पावेण उज्झिओ एवं । रसविवरपूयणत्थं, छगलो व्य सज्जसिद्धिकए ॥४॥ रसखद्धऽद्धसरीरो, वट्टामि य इण्हि कंठगयजीयो । जइ अप्पिहिसि रसं से, ता तुममऽवि इय विणस्सिहिसि ॥८५॥ ढोएसु मे अलाबु, जेणं भरिऊण ते समप्पेमि । एवं तेणं वुत्ते, तमप्पियं चारुदत्तेण ૮દ્દા अह रसभरिए तेणं, उवणीए तम्मि चारुदतेण । तत्तो उत्तरणत्थं, रेण संचालिया रज्जू आयडिढउमाउडरद्धो, तं च तिदंडी रसं समीहंतो । नवरं न चारुदत्तं, उत्तारइ जाव कहमवि य ॥८८॥ ताव रसो परिचत्तो, कूवे च्चिय झत्ति चारुदत्तेण । तो सो सरज्जुओ च्चिय, रुसिएण तिदंडिणा मुक्को ॥८९॥ पडिओ य मेहलाए. एतो नो जीवियं ति चिंतंतो । क्यसाऽऽगारअणसणो, परमेट्टि सरिउमाऽऽरद्धो ॥९॥ भणिओ य तेण वणिणा, अईयदिणे इह रसं गया पाउं । गोहा जड़ एज्ज पुणो, ता तुज्झ हवेज्ज नीहरणं ॥११॥ एवं सोऊणं सो, ईसिं उवलद्धजीवियव्याडसो । पंचनमोक्कारपरो, जावडच्छइ ताव अन्नदिणे ॥९२॥ गोहा समागया तं, रसं च पाऊण निक्खमंती सा । पुच्छम्मि दढं गहिया, जीयत्थं चारुदत्तेण ॥९ ॥ उत्तारिओ य तीए, तत्तो अच्वंतजायपरितोसो । गंतुं पुणो पयट्टो, उतिण्णो कहवि कंतारं । ॥१४॥ एगम्मि य कुग्गामे, मिलिओ रुद्दो ति माउलगमित्तो । तेणेय तओ सद्धिं, टंकणदेसम्मि संपत्तो ॥९५॥ तत्थ य सुवन्नभूमी-गमणकए दो अजे दढे घेत्तुं । चलिया पत्ता दूरे, युत्तो रुद्देण तो इयरो ॥९६॥ भाय! न एत्तो गंतुं, तीरिजइ ता इमे अजे हणिउं । कीरंति भत्थाओ, अभंतरनिहियरोमाउ ॥९७॥ तासु य सत्थं गेण्हिय, पविसिज्जइ जेण आमिसाउडसाए । घेत्तूणं भारुंडा, सुवन्नभूमीए मेल्लंति . ॥१८॥ तत्थ य संपत्ताणं, होही विउला सुवन्नसंपत्ती । उप्पण्णघिणेण तओ, पयंपियं चारुदत्तेणं ॥१९॥ मा मा एवं उल्लवसु, भद्द! को पावमेरिसं काही । जं जीववहेण धणं, तं मज्झ कुले वि मा होउ ॥८१००॥ रुद्देण जंपियमऽहं, निययअजे निच्छियं हणिस्सामि । किं तुज्झ एत्थ तत्तो, उब्विग्गमणो ठिओ इयरो ॥१॥ अह हणिउं पारद्धो, रुद्देण अजो सुनिग्घिणमणेण । ठाऊण कन्नमूले, अजस्स अह चारुदत्तेणं . भणिओ पंचाऽणुव्यय-सारो परमेट्ठिपंचनवकारो । तस्सुइसुहभावेण य, मरिऊण अजो सुरो जाओ ॥३॥ तखल्लाए ततो, पक्खिविउं चारुदत्तमियराए । अजखल्लाए य सयं, सो रुद्दो लहु पविट्ठो ति तो आमिसलोलेहिं, भारुडेहिं दुवे वि उक्खिता । णवरं वच्वंताणं, पक्खीणं परोप्परं जुज्झे ॥५॥ पडिओ चंचुपुडाओ, सलिलोवरि कहऽवि चारुदत्तो तं । सत्थेण भिंदिऊणं, गभाओ इव विणिक्वंतो ॥६॥ एवंविहवसणाई, अणिट्ठसंगेण पाविओ इण्हिं । जह सिट्ठसंगतो सिरि-मडणुपत्तो सो तहा सुणसु तं जलमुल्लंपित्ता, संनिहिए सो गतो रयणदीये । तं च पलोएमाणो, आरूढो सेलकूडम्मि ॥८॥ काउस्सग्गेण ठियं, अमियगई नाम चारणं समणं । तत्थ य दटुं वंदइ, पहरिसपुलयंचियसरीरो ॥९॥ मुणिणा वि काउसग्गं, पाराविय दिन्नधम्मलाभेण । भणियं कह दुग्गे इह, समागओ चारुदत्त! तुमं ॥१०॥ सुमरसि किं न महायस!, जं तुमए हं पुरीए चंपाए । सत्तुब्बद्धो काणण-गएण परिमोइओ पुव्वं ॥११॥ विज्जाहररज्जसिरिं, भुंजित्ता केत्तियाणि वि दिणाणि । पडिवन्नो पव्यजं, आयाचिंतो इह यसामि ॥१२॥ एमाऽऽइ जा पयंपइ, अमियगती ताव मयणपडिरूवा । ओयरिया गयणाउ, दोण्णि विज्जाहरकुमारा ॥१३॥ 227 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८११४-८१४८ महिलासंसर्गे दोषाः त्यागे गुणाः तद्विषये उपदेशः च अभ्यन्तरबाह्यग्रन्थयोः स्वरूपम् साहुं नमंसिऊणं, अभिवंदेऊण चारुदत्तं च । आसीणा धरणीए, भालोवरि रइयकरकमला एत्थंतरम्मि मणिमय-मउडोणामियसिरो सुरो एइ । वंदइ य चारुदत्तं, पढमं पच्छा तवस्सिं पि अह विम्हिएहिं विज्जाहरेहिं, पुट्ठो सुरो अहो ! कम्हा । साहुं मोतुण तुमं, पडिओ गिहिणो पएसुं ति भणियं सुरेण एसो, धम्मगुरू मज्झ चारुदत्तो त्ति । पावाविओ इमेणं, दिंतेणं जिणणमोक्कारं मरणम्मि अजो हुंतो, देवसिरिं एरिसं सुदुल्लंभं । एतो च्चिय जाणामि, मुणिणो सव्यन्नुणो य जओ वृत्तो य चारुदत्तो, सुरेण भो ! वरसु संपड़ वरं ति । एज्जासि सुमरणम्मि, इय भणिओ चारुदत्तेण देवो गओ सथामं तत्तो विज्जाहरेहिं गुणवं ति । पउरमणिकणयसंभार- भरियगुरुए विमाणम्मि आरोविऊण चंपा - पुरीए नेऊण निययभवणम्मि । मुक्को य चारुदत्तो पत्तो य समुन्नद्धं परमं इय दुट्ठसिट्ठगोट्ठी-फलाई आलोइउं इहभवे वि । निम्मलगुणड्ढसुवियड्ढ - बुड्ढसेवाए जइयव्यं किंच“महिलासंसर्गेोषाः त्यागे गुणाः तद्विषये उपदेशः च " निच्चं वुड्ढसहावे, तरुणे वुड्ढे य सुट्ठ सेवंता । तह गुरुकुलमऽमुयंता, चरंति बंभव्ययं धीरा कामाऽणिलेण हिययं, पचलइ पुरिसस्स अप्पस्सारस्स । पेच्छंतस्स य बहुसो, इत्थीयणवयणरमणाणि | मंथरगइठाणचिलास -हासबिब्बोयहावभावेहिं । सोहग्गरूवलावन्न - लट्ठसंठाणचेट्ठाहिं अद्धऽच्छिपेच्छिएहिं वि, विसेसदरहसियजंपियव्वेहिं । सरसपइक्खणसंलाव - ललियलीलाइयव्येहिं पयईए सिणिद्धेहिं, पयईए मणोहरेहिं पाएणं । थीसंतिएहिं पुरिसो, रहमिलणेहिं च खुभइ तओ | कमवड्ढियपीइरइ - पावियवीसंभपणयपसरो य । लज्जालुओ वि पुरिसो, किं किं तं जं न वि करेइ | तथाहि ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ રા ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३५॥ કો | पिइमाइमित्तगुरुसिट्ठ-लोयरायाऽऽइसंतियं लज्जं । गउरवमऽवरोहं परि चयं च दूरेण परिहरइ कितिं अत्थविणासं, कुलक्कमं पाविए य धम्मगुणे । करचरणकन्ननासाऽऽइ - लुंपणं पि हु न पेहेज्जा संसग्गीमूढमणो, मेहुणरमिओ विमुक्कमज्जाओ । पुव्यावरमऽगणेंतो, किमऽकिच्चं जं न आयरइ | इंदियकसायसन्ना - गारवपमुहा सहावओ सव्वे । संसग्गिलद्धपसरे, पुरिसे अचिरा वियंभंति थेरो बहुस्सुओ वि हु, पमाणभूओ मुणी तवस्सी वि । अचिरेण लहड़ दोसं, महिलावग्गस्स संसग्गा किं पुण तरुणा अबहु- स्सुयाऽऽइणो सरुइचारिणो मंदा । तस्संसग्गीए, मूलओ, (ते) विनट्ठ च्चिय भवंति ॥ ३४ ॥ महिलासंसग्गीए, अमाणुसाऽडविकडिल्लवासी वि । नइकूलवालगमुणी, विडंबणं पाविओ परमं जो महिलासंसग्गिं, विसं य दूराउ चेव परिहरइ । नित्थरइ बंभचेरं, जावज्जीवं अकंपं सो अवलोयणमेत्तेण वि, जं मुच्छं ताओ देंति पुरिसस्स । तेण हयमहिलियाणं, नयणाई विसाऽऽलयाई फुडं ॥३७॥ मारेइ एक्कसिं चिय, तिव्यविसभुयंगवग्गसंसग्गी । इत्थीसंसग्गी पुण, अनंतखुत्तो नरं हणइ રૂા इय वयवणमूलऽग्गिं थीसंसग्गिं सया वि जो चयइ । स सुहेण बंभचेरं, नित्थरइ जसं च वित्थरइ ॥३९॥ ता खवग! विसयवंछा, जड़ होज्ज कयाइ मोहदोसेण । तह वि हु होसु उवउत्तो, पंचविहे इत्थियेरग्गे ॥४०॥ जायं पंकम्मि जलम्मि, वड्ढियं पंकयं जह न तेहिं । लिप्पड़ मुणी वि एवं विसयसलिलइत्थिपंकेहिं ॥४१॥ बहुदोससावयगणे, मायामाइण्डियासणाहम्मि । कुमइगहणे वि मुणी, न मुज्झइ इत्थिरन्नम्मि सव्यम्मि इत्थिवग्गम्मि, अप्पमत्तो सया सुवीसत्थो । बंभवयं णित्थरइ, चरितमूलं सुगइहेउं मज्झन्हतिक्खसूरं व इत्थिरूवं न पासइ चिरं जो । खिप्पं पडिसाहरइ य, दिट्ठि सो नित्थरइ बंभं ॥४२॥ "જો ॥४४॥ किं जंपड़ कह पासइ, परो ममं कहमऽहं च वट्टामि । इइ जो सयाऽणुवेहइ, सो दढबंभव्यओ होइ ॥ ४५॥ | जोव्वणजलहिं दरहसिय- 1 जंपिउम्मीचियं विसयसलिलं । धण्णा समुत्तरंती, महिलामगरेहिं अच्छिक्का “अभ्यन्तरबाह्यग्रन्थयोः स्वरूपम् " ॥४६॥ अब्भिन्तरबाहिरिए, सव्वे गंथे तुमं विवज्जाहि । कयकारियअणुमईहिं, मणवइकाएहिं तत्थ इहं मिच्छत्तं वेयतिगं, जाणसु हासाऽऽइयाण छक्कं च । कोहाऽऽईण चउक्कं चोद्दस अब्भिन्तरा गंथा 1. जंपिउम्मीचियं = जल्पितोर्मिचितम्। ॥४७॥ ॥४८॥ 228 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८१४६-८१८३ अभ्यन्तरबाह्य-ग्रन्थयाः स्वरूपं महाव्रतस्य भावनास्वरूपम् ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५३॥ ॥५४॥ ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ बाहिरगंथं खेत्तं वत्थं धणधन्नकुप्परुप्पाणि । दुपयचउप्पयमऽपयं, सयणाऽऽसणमाऽऽड़ जाणाहि जह कुंडओ न सक्का, सोहेउं तंदुलस्स सतुसस्स । तह जीवस्स न सक्का, कम्ममलं संगसहियस्स जड़या रागा दोसा, गारवसन्नाउ तह उदयमेति । तइया गंथं घेतुं, लुद्धो बुद्धिं कुणइ तत्तो तस्स निमित्तं मारइ, भणेड़ अलियं करेड़ चोरिक्कं । सेवइ मेहुणमडत्थं च अपरिमाणं कुणइ जीयो ॥५२॥ | सन्नागारवपेसुण्ण - कलहफरुसाणि भंडणविवाया । के के न होंति अच्चत्थ-मत्थवामोहमूढस्स गंथो भयं नराणं, सहोयरा एलगच्छया जं ते । अन्नोऽन्नं मारेउ, अत्थनिमित्तं मइमऽकासी अत्थनिमित्तमऽइभयं, जायं चोराणमेक्कमेक्केहिं । मज्जे मंसे य विसं, संजोइय मारिया जं ते संगो महाभयं जं, विहेडिओ सावएण संतेण । पुत्तेण हिए अत्थम्मि, मुणियई कुंचिएणाऽवि अत्थनिमित्तं सीयं, उण्हं तण्हं छुहं च वासं च । दुस्सेज्जं दुब्भतं च, सहड़ वहई य गुरुभारं गायइ नच्चड़ धावड़, कंपड़ विलवेइ मलइ असुइंपि । नीयं च कुण्ड़ कम्मं, कुलम्मि जाओ वि गंथत्थी ॥५८॥ एवं चिट्ठतस्स वि, संसइओ होइ अत्थलाभो से । न य संचीयड़ अत्थो, सुचिरेण वि मंदभग्गस्स ॥५९॥ जड़ पुण कहिंचि संचय - मुवेड़ अत्थो तहाऽवि से नत्थि । तित्ती पउरऽत्थेण वि, लाभे लोभो पवड्ढइ जं ॥ ६०॥ जह इंधणेण अग्गी, न तिप्पड़ जलनिही जलनईहिं । तह जीवस्स न तित्ती, अत्थि तिलोए वि लद्धम्मि ॥ ६१ ॥ आहम्मइ मारिज्जइ, रुब्भइ भिज्जइ य निरवराहो वि । धणवं आमिसहत्थो, तत्थो पक्खीहिं जह पक्खी ॥ ६२ ॥ मायापिइपुत्तेसु वि, दारेसु वि नेय जाय वीसंभं । गंथनिमित्तं जग्गड़, रक्खंतो सव्वरतिं पि | अंतोहुत्तं डज्झइ, पुरिसो नट्टे सयम्मि अत्थम्मि । उम्मतो इव विलवइ, परिदेवइ कुणइ उक्कंठं | गंथस्स गहणरक्खण - सारवणाई सयं करेमाणो । वक्खित्तमणो झाणं, उवेइ कह मुक्कमज्जाओ किंच કો ॥६४॥ ॥६५॥ गंथेसु गढियहियओ, होइ दरिद्दो भवेसु बहुए । गंथनिमित्तं कम्मं, किलिट्ठहियओ समाइयइ एएहिं दोसेहिं, मुच्चइ मुंचंतओ मुणी अत्थं । परमऽब्भुदयपहाणं, पावेइ गुणाण पब्भारं सप्पबहुले अरण्णे, अमंतविज्जोसहो जहा पुरिसो । पावड़ अणत्थमत्थं, धरंतओ तह मुणी वि परं रागो होइ मणुण्णे, गंथे दोसो य होइ अमणुण्णे । गंथच्चारण पुणो, रागद्दोसा दुवे चत्ता | सीउण्हदंसमसगाऽऽइयाण, दिन्नो परीसहाण उरो । तव्विणिवारणहेउं, अत्थं दूरे चयंतेण निस्संगो चेव सया, कसायसंलेहणं कुणइ साहू । संगो कसायहेऊ, अग्गिस्स व होंति कट्ठाणि सव्वत्थ होड़ लहुओ, रूवं वेसासियं भवड़ तस्स । गरुओ य संगसतो, संकिज्जइ चेव सव्वत्थ तम्हा सव्ये संगे, अणागए बट्टमाणएडतीए । परिहरसु तुमं सुविहिय!, कयकारियअणुमईहिं सया इय चत्तसव्यसंगो, सीईभूओ पसंतचित्तो य । जीवंतो च्चिय पावड़, साहू निव्वाणसुहमऽणहं सार्हेति जं महडत्थं, आयरियाई च जं महल्लेहिं । जं च महल्लाई तओ, महव्वयाइं ति भण्णंति एसिं च रक्खणट्ठा, करेसु सइ रयणिभोयणनिवित्तिं । पत्तेयं भावेज्जसु, सम्मं तब्भावणाओ य " महाव्रतस्य भावना स्वरूपम्" जुगमित्तनिमियनयणं, अखलियलक्खं पए पए 2 अदुयं । जायइ जयं चरंतस्स, पढमवयभावणा पढमा आराहिएसणस्स वि, अवलोयणपुव्ययं असणपाणे । जायइ जयं कुणंतस्स, पढमवयभावणा बीया सपमज्जसपडिलेहं, भंडुवगरणस्स गहणनिक्खेयं । जायइ जयं कुणंतस्स, पढमवयभावणा तइया असुहविसयं निरुंभिय, सम्मं सुहविसयमाऽऽगमविहीए । जायइ मणं कुणंतस्स, पढमवयभावणा तुरिया ॥८०॥ रुद्रपसरं अकज्जे, कज्जे वि हु सुयविहीए निउणवई । निसिरंते पढमवयस्स, भावणा पंचमी होइ भणियक्कमविवरीयं, चिट्ठतो पुण विहिंसए जीवे । पढमवयदढत्तकए, भावणपणगे जएज्ज तओ हासं विणा वयंतस्स, बीयवयभावणा भवे पढमा । अणुवी भासिणो पुण, बीयव्ययभावणा बीया 1. गढिय = आसक्त। 2. अदुयं = अद्रुतम्। तत्थ - ॥७७॥ ॥७८॥ ॥७९॥ ॥८१॥ ॥८२॥ ૫૮૫ 229 ॥६६॥ ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ ॥७६॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८१८४-८२१६ महाव्रतानाम् अरक्षणे दोषाः कोहाओ लोभाओ, भयाओ अस्सच्चसंभवो पायं । तो ताण चायओ चेव, बीयवयभावणा तिन्नि ॥८४॥ पहमाह पहसंदिदै, अणजाणावेज्ज ओग्गहं विहिणा । इहरा भावअदत्तं ति, तइयवयभावणा पढमा ॥८५॥ अह दव्वाऽऽईचउहा-Sणुन्नवणं कारवेज्ज सागरियं । तस्सीमाऽवगमकए, तइयव्ययभावणा बीया ॥८६॥ कयसीम चिय विहिणा, सेवेज्जाऽवग्गहं सया इहरा । होज्ज अदत्तं एवं च, तइयवयभावणा तइया ટળી साहम्मियसामण्णं, अण्णं पाणं च तेहिं गुरुणा य । अणुजाणियं असंतस्स, तइयवयभावणा तुरिया ૮૮ मासाऽऽइकालमाणं, पंचकोसाऽऽइखेत्तरुयं च । गीयत्थसमंतुज्जय-विहारिसाहम्मियगुणाण ॥८९॥ ओग्गहमऽह तव्यसहिं, तदडणुण्णापुव्वगं निसेवेज्जा इहर होज्ज अदतं ति, तइयवयभावणा चरिमा ॥९०॥ सुसिणिद्धमऽइपमाणं, आहारं परिहरेज बंभवई । एवं चिय संजायइ, उत्थवयभावणा पढमा ॥९१॥ | सिंगारदव्वजोगं, सरीरनहदन्तकेससंठप्पं । भूसाकए न कुज्जा, चउत्थवयभावणा बीया ॥९२॥ इत्थीगइंदियाई, सरागचेट्ठाउ नो मणे कुज्जा । जोएज्जा वि न एयं, चउत्थवयभावणा तइया ॥९३॥ पसुपंडगइत्थीहिं, संसत्तं वसहिमऽऽसणं सयणं । परिहरमाणस्स भवे, चउत्थवयभावणा तुरिया ॥९४॥ इत्थीण केवलाणं, तविसयं या कहं अकहमाणो । पुवरयं असरंते, चउत्थवयभावणा चरिमा अमणुन्नेयरसद्दाइ-विसयपणगे पओसगेहीओ । अकुणंतस्स उ जायइ, पंचमवयभावणापणगं ॥९६॥ इय पंचमहव्ययभावणाण, पणुवीसई पि भावेसु । सुंदर! इच्छंतो अप्प-यम्मि परमं वयदढतं ॥९७॥ इहरा पडुपवणपणोल्लमाण-नववणलयासमाणमणो । तेसु अणवट्ठियप्पा, पाविहिसि न तप्फलं खवग! ॥९८॥ ता भो देवाणुपिया!, पंचसु वि महव्वएसु वि महब्बएसु होज्ज दढो । एएसु वंचिओ जो, स वंचिओ सयलठाणेसु॥१९॥ ___“महाव्रतानामरक्षणे दोषाः" - जह तुंबस्स दढतं, विणा न अरया सज्जकरणखमा । एवं महव्वएसु वि, अदढस्स असेसधम्मगुणा ॥८२००॥ जह तरुणो साहपसाह-पुप्फफलकारणं भवे मूलं । एयं धम्मगुणाण वि, मूलं सुमहव्वंयदढतं ॥१॥ घुणखद्धमज्झसारो, नाडलं खंभो जहा घरं धरिउं । एवं वएसु अदढो, पोढो वोढुं न धम्मधुरं રા अदढा छिड्डजुया वि य, भंडं नाया जहा न वोढुमडलं । एवं वएसु अदढो, अइयारजुओ य धम्मगुणे ॥३॥ अदढो छिड्डजुओ वि य, नाडलं कुंभो जहा जलं परिउं । एवं वएसु अदढो अइयारजुओ य धम्मगुणे ॥४॥ अन्नं चभमिया भमंति भमिहिंति, एत्थ वित्थिण्णभवसमुद्दम्मि । एयाणमडणत्थित्ते अदढते साइयारते ॥५॥ अन्नं च तुमं सुंदर!, सम्म संविग्गमाणसो होउं । पुवरिसिभासियाई, परिभावेज्जसु इमाई जहा દા संसारो य अणंतो, भट्ठचरित्तस्स लिंगजीविस्स । पंचमहव्ययतुंगो, पागारो भेल्लिओ जेण ॥७॥ महव्ययअणुव्ययाई, छड्डेउं जो तवं चरइ अन्नं । सो अन्नाणी मूढो, नायबुद्दो' मुणेयव्यो सीलव्ययाइं जो बहुफलाई, हंतूण सोक्खमहिलसइ । धीदुब्बलो तवस्सी, कोडीए कागणी किणइ ॥९॥ अन्नं च चउबिहमिलिय-सयलसिरिसंघरंगमज्झम्मि । भीमभववाहिविहुरो, अन्नत्तो ताणमडलभंतो ॥१०॥ एसो महाउणुभायो, वेज्जाण व अम्ह सरणमडल्लीणो । ता अणुकंपेयव्यो, इय बुद्धीए सुहगुरूहिं ॥११॥ एयाई तुज्झ सुंदर!, निवेसियाई अणुग्गहपरेहिं । ता होसु इमेसु दढो, होउं कुवियप्पविप्पजढो ॥१२॥ जह नाम सारगब्भो, खंभो भारं गिहस्स वोढुमडलं । एवं वएसु सुदढो, पोढो योढुं सुधम्मधुरं ॥१३॥ सव्वंडगेसुं पि दढो, गोणो जह होइ भरमजलं वोढुं । एवं वएसु सुदढो, पोढो वोढुं सुधम्मधुरं ॥१४॥ | सुदिढंगी निच्छिड्डा, भंडं योढुं जहा अलं नाया । एवं वएसु वि दढो, निरईयारो य धम्मगुणे ॥१५॥ | कुंभो वि जह दढंगो, अखंडछिड्डो अलं जलं धरिउं । एवं वएसु वि दढो, निरईयारो य धम्मगुणे ॥१६॥ तिन्ना तरंति तरिहिंति, एत्थ वित्थिण्णभवसमुद्दम्मि । एयाणं सब्भावे, सुदढते निरइयारते ॥१७॥ धण्णाणमेयलाभो, धण्णाणं चिय इमेसु सुदढतं । धन्नाणं चिय एएसु, निरइयारत्तणं पमं ॥१८॥ पंचमहव्ययरयणाई, ता तुम पाविउं सुदुलहाई । मा उज्झेजसु एओ-यजीवणं मा करेज्जसु य ॥१९॥ 1. (बुड्डो) B | 2. कुणेज्जसु पाठां० । 230 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८२२०-८२५५ उज्झिकादिदृष्टान्तः - चतुःशरणस्वीकारवर्णनम् इहरा तुमं पि उज्झिय-भोगवतीओ जहा तहा एत्थ । लद्धं जहन्नपयविं, अजसमऽसोक्खं च पाविहिसि ॥२०॥ तो होसु दढचित्तो, पंचमहव्वयथुराधरणधवलो । पालेज्ज इमाई सयं, अण्णेसि पि य पयासेज्ज ॥२१॥ पत्तो उत्तमपयविं, कित्तिं च सया वि होहिसि सुहीओ । धणनामसेट्ठिसुण्हाउ, रक्खिया रोहिणीउ जहा ॥२२॥ तहाहि “उज्झिकादिदृष्टान्तः" । रायगिहे धणसेट्ठी, धणपालाऽऽई सुया उ चत्तारि । उज्झियभोगवतीरक्खि-या य तह रोहिणी वहुया ॥२३॥ वयपरिणामे चिंता, गिहं समप्पेमि तासि पारिच्छा । भोयणसयणनिमंतण-भुत्ते तब्बंधुपच्चक्खं ॥२४॥ पत्तेयं अप्पिणणं, पालेज्जह मग्गिया य देज्जाह । इय भणिउमाऽऽयरेणं, पंचण्हं सालिकणयाणं ॥२५॥ पढमाए उज्झिया ते, बीयाए छोल्लिया य तइयाए । बंधण करंडिरक्खण, चरिमाए रोविया विहिणा ॥२६॥ कालेणं बहुएणं, भोयणपुव्वं तहेव जायणया । पढमा सरणविलक्खा, तह बीया तइय अप्पिणणं ॥२॥ चरिमाए कुंचिगाओ, खित्ताओ तुम्ह वयणपालणया । सा एवं चिय इहरा, सत्तिविणासा न सम्म ति ॥२८॥ तब्बंधूणऽभिहाणं, तुझे कल्लाणसाहगा मे ति । किं जुत्तमेत्थ मज्झं, ते आहु तुम मुणेसि ति ॥२९॥ तत्तो य कज्जउज्झण-कोट्ठगभंडारगिहसमप्पणया । जाहासंखमिमीणं, नियज्जं साहुवाओ य ॥३०॥ जह नाइजणो तहा समणसंघो । जह वहया तह भव्या, जह सालिकणा तह वयाई ॥३१॥ जह सा उज्झियनामा, उज्झियसाली जहत्थअभिहाणा । पेसणगारित्तेणं, असंखदुक्खक्खणी जाया ૨૨ तह भव्यो जो कोई, संघसमक्खं गुरुहिं दिन्नाई । पडिवज्जिउं समुज्झइ, महव्ययाई महामोहा ॥३३॥ सो इह चेव भवम्मि, जणाण धिक्कारभायणं होइ । परलोए उ दुहत्तो, नाणाजोणीसु संचरइ ॥३४॥ जह या सा भोगवई, जहत्थनामोवभुत्तसालिकणा । पेसणविसेसकारि-तणेण पत्ता दुहं चेव વરેલા तह जो महव्वयाई, उवभुंजड़ जीविय ति पालेंतो । आहाराऽऽइसु सत्तो, चत्तो सिवसाहणिच्छाए ॥३६॥ सो एत्थ जहिच्छाए, पावइ आहारमाऽऽई लिंगि त्ति । विउसाण नाऽइपुज्जो, परलोगम्मि दुही चेव ॥३७॥ जह वा रक्खियवहुया, रक्खियसालीकणा जहत्थक्वा । परिजणमण्णा जाया, भोगसुहाइं च संपत्ता ॥३८॥ तह जो जीवो सम्म, पडिवज्जित्ता महब्बए पंच । पालेइ निरइयारे, पमायलेसं पि वज्जितो . ॥३९॥ सो अप्पहिएक्करई, इहलोगम्मि वि विऊहिं पणयपओ । एगंतसुही जायइ, परम्मि मोक्खं पि पावेड़ जह रोहिणी उ सुण्हा, रोवियसाली जहत्थनामा उ । वढिता सालिकणे, पत्ता सव्वस्ससामित्तं . ॥४१॥ तह जो भव्यो पाविय, ययाई पालेड़ अप्पणा सम्म । अन्नेसि वि भव्याणं, देइ अणेगेसि सुहहेउं ॥४२॥ सो इह संघपहाणो, जुगप्पहाणो त्ति लहइ संसदं । अप्पपरेसिं कल्लाण-कारओ गणहरपहु व्य ॥४३॥ तित्थस्स बुड्ढिकारी, अक्वेवणओ कुतित्थियाऽऽईणं । विउसनरसेवियकमो, कमेण सिद्धिं पि पायेइ ॥४४॥ | एवमऽणुसट्ठिदारे, सवित्थरत्थं मए समक्खायं । पंचमहव्ययरक्खा-नामं दसमं पडिद्दारं ॥४५॥ एतो कमाउणुपत्तं, प्रमपवित्तत्तजणणसुनिमित्तं । चउसरणगमणनामे-गारसमऽक्नेमि पडिदारं ॥४६॥ अरहन्तसिद्धसाहू-जिणथम्मचउक्कमिममऽहो खवग! । सरणत्तेण पवज्जसु, कयवयरक्खाविहाणो वि . ॥४७॥ तत्थ "चतुःशरणस्वीकारवर्णनम्" निट्टियनाणाऽऽवरणे, अप्पडिहयनाणदंसणपयारे । भीमभयभमणकारण-विद्धंसणपतअरुहन्ते ૪૮ના सब्बुत्तमचारित्ते, सब्युत्तमलक्खणंडकियसरीरे । सव्वुतमगुणकलिए, सव्वुत्तमपुन्नपब्भारे । ॥४९॥ सव्यजगज्जीवहिए, सव्वजगज्जीवपरमबंधुजणे । अरिहंते भगवंते, सुंदर! सरणं पवजाहि ॥५०॥ सव्यंगनिक्कलंके, समत्थतेलोक्कनहयलमयंके । परिगलियपावपंके, दुहत्तजयजीवजणयंके ॥५१॥ परमगरुयाउणुभावे, परमपयपसाहगे परमपुरिसे । परमप्पाणे परमे-सरे य तह परमकल्लाणे ॥५२॥ सब्भूयभावपरमत्थं-देसगे भूसगे य भुवणस्स । अरिहंते भगयंते, सुंदर! सरणं पवज्जाहि । ॥५३॥ भवियजणकुमुयचंदे, तइलोक्कपयासणेक्कदिणनाहे । संसारसरणरीणंडगि-वग्गवीसामथामे य. ॥५४॥ परमाऽइसयसमिद्धे, अणंतबलविरियसत्तसंजुत्ते । भीमभवजलहिमज्जत-जंतुगणजाणवते य ॥५५॥ 231 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८२५६-८२६२ चतुःशरणस्वीकारवर्णनम् हरिहरबंभपुरंदर-दुम्महवम्महमहाउरिदप्पहरे । अरिहंते भगवंते, सुंदर! सरणं पयज्जाहि ॥५६॥ |तेलोक्कसिरीतिलए, मिच्छत्ततमोविणासदिवसयरे । तेलोक्करंगमज्झे, अतुल्लमल्ले महासत्ते ॥५०॥ |तेलोक्कपणयपाए, समत्थतेलोक्कपसरियपयावे । पसरियपयावखंडिय-पयंडपासंडियपभावे ૧૮ पसरंतकित्तिकमलिणि-वित्थरसंघडसमत्थभवणसरे । भवणसररायहंसे, धम्मधराधरणवरधवले ॥५९॥ सव्वाऽयत्थपसत्थे, अप्पडिहयसासणे अमियतेए । संपुण्णपुण्णपढ्भार-लब्भदंसणविसेसे य ६०॥ सिरिमंते भगवंते, करुणायंते पगिट्ठजयवंते । सव्वे वि हु अरिहंते, सुंदर! सरणं पवज्जाहि ॥६१॥ परिपालिय इह चरणं, काउं पावाऽऽसवाण संवरणं । मरिउं पंडियमरणं, निरसिय संसारपरिसरणं ॥६ ॥ सिद्धे कयकिच्चत्ता, बुद्धे उण विमलकेवलगुणेण । मुक्के भवहेऊहिं, परिनिव्वुडए सुहसिरीए ॥६३॥ क्यसयलदुक्खअंते, सन्नाणाऽऽइगुणेहिं य अणंते । विरियसिरीए अणंते, अणंतसुहरासिसंकते ૬૪ सव्योवलेवरहिए, अहेउणो सपरकम्मबंधस्स । अह भगवंते सिद्धे, सुंदर! सरणं पवज्जाहि ॥६५॥ ववगयकम्माऽऽवरणे, नित्थरियसमत्थजम्मजरमरणे । तेलोक्कसिराऽऽभरणे, सय्यजगज्जीयवरसरणे ॥६६॥ खाइयगुणप्पभूए, समत्थतेलोक्क्य परमपूए । सासयसोक्खसरूये, दूरुज्झियवन्नरसरुवे । मंगलनिलए संगल-निबंधणे परमनाणमयतणणो । अह भगवंते सिद्धे, संदर! सरणं पवज्जाहि ॥६८॥ लोयडग्गसंनिविटे, साहियदुस्सज्झसव्यपरमढे । पत्तपगिट्ठपइट्टे, एत्तो च्चिय निट्ठियढे वि ॥६९॥ सद्दाऽऽईणमडगम्मे, अमुत्तिमंते अनिंदियजनाणे । परमाडइसयसमिद्धे, सिद्धे सरणं पयज्जाहि ॥७०॥ अच्छिज्जे थाराणं, अभिंदणिज्जे य सव्यअणियाणं । अपलावणिज्जरुये, जलाणमडग्गीण य अडज्झे ॥१॥ पलयपबलाऽनिलाण वि, अहीरणिज्जे न यज्जदलणिज्जे । सुहुने निरंजणे अख्ख-ए य अच्चिन्तमाहप्पे ॥७२॥ अच्चन्तपरमजोगीहिं, चेव जाणियजहट्ठियसरुये । कयकिच्चे निच्चे वि य, अजे य अजरे अमरणे य ॥७३॥ हणिउमणो नियकम्म, सम्म आराहणाणिविट्ठो य । सुंदर! तुमं विसप्पंत-तिव्यसंवेगरसफुण्णो ॥७४॥ सिरिमंते भगवंते, अरुहंते सव्वहा विजयवंते । परमेसरे सरण्णे, सिधे सरणं पवजाहि ॥७५॥ सइ अहिगयजीवाऽजीय-पमुहपरमत्थवित्थरे सम्मं । समवगयपयइनिग्गुण-संसाराऽऽयाससभावे ॥७६॥ संवेगगरुयगीयत्थ-सुद्धकिरियापराण धीराणं । सारणवारणचोयण-पडिचोयणदायगाणं च ॥७७॥ | सुगुरुण पायमूले, सम्म पडियन्नपुन्नसामण्णो । अह समणे निग्गंथे, सुंदर! सरणं पवज्जाहि ॥७८॥ मोक्खम्मि बद्धलक्खे, संसारियसहविरत्तचित्ते य । गुरुसंवेगा संसार-वाससव्यंगनिचिन्ने ॥७९॥ एतो च्चिय चत्तकलत्त-पुत्तमित्ताऽऽइचित्तपडिबंधे । पडिबंधमेतपरिचत्त-सयलंगिहवासयासंगे ૮૦થી सव्वजियअप्पभूए, निब्भरपसमरसथिमियसव्यंगे । अह समणे निग्गंथे, सुंदर! सरणं पयज्जाहि ॥८१॥ इच्छामिच्छाऽऽईयं, पडिलेहपमज्जणापमुहमऽहया । दसभेयचक्कयालय-सामायारिं पड़ सुलग्गे छट्ठट्ठमदसमदुवालसद्ध-मासाऽऽइतवविसेसेसु । जहसतिमुज्जमते, 'पउमाऽऽतीहिं उवमिणिज्जे ॥८३॥ |पंचसमिइप्पहाणे, पंचविहाऽऽयारधारए धीरे । सुंदर! पावपसमणे, समणे सरणं पयज्जाहि ૮૪ | गुणरयणमहानिहिणो, समत्थसावज्जजोगपडिविरए । विहडियसिणेहनियडे, संजमभरवहणधुरधवले ॥८५॥ जियकोहे हियमाणे, जियमाए विजियलोहजोहे य । जियरागदोसमोहे, जिइंदिए विजियनिहे य जियमच्छरे जियमए, जियकामे जियपरीसहाजणीए । अह समणे भगवंते, सुंदर! सरणं पवज्जाहि ૮૭ળા वासीचंदणकप्पे, तुल्ले संमाणणाऽवमाणेसु । सुहदुहसमाणचित्ते, समचित्ते सतुमित्तेसु ॥८८॥ सज्झायडज्झयणपरे. परोवयारेक्ककरणदल्ललिए । सविसज्झमाणभावे, सम्म पिहियाऽसवद्वारे ॥८९॥ मणगुत्ते वइगुत्ते य, कायगुत्ते उपसत्थलेसे य । अह भगवंते समणे, सुंदर! सरणं पवजाहि ॥९ ॥ नवकोडीपरिसुद्धं, मियमऊपणीयं अरागदोसं च । कारणछक्काडणुगयं, महुयरवित्तीपवित्तं च ॥९१॥ निरयज्जमेगवेलिय-मरसं विरसं च समणजणजोग्गं । भत्तं भुंजिउकामे, भोच्या संजमगुणरए य ॥९२॥ 1. पउमातीहिं = पद्मादिभिः । 2. हियमाणे = हृतमानान् । 3. पसन्तलेसे पाठां० । 232 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८२६३-८३३० चतुःशरणस्वीकारवर्णनम् - दृष्कतगाद्वारम् | उग्गतवसा किसंडगे, सुक्के लुक्खे य अपडिकम्मडगे । अहिगयदुवालसंडगे, समणे सरणं पयज्जाहि ॥१३॥ संविग्गे गीयत्थे, धुवमुस्सप्पंतचरणकरणगुणे । संसारसरणकारण-पमायपयवज्जणुज्जुत्ते ॥१४॥ योक्कंताऽणुत्तरदेव-तेओलेसेऽवहत्थियकिलेसे । सफलीकयचउरंडगे, दूरसमुज्झियसयलसंगे ॥९५॥ धीमंते गुणवंते, सिरिमंते सीलवन्तभगवंते । सुंदर! सुहभावेणं, समणे सरणं पवज्जाहि ॥९६॥ सव्वाऽइसयनिहाणं, समत्थपरतित्थिसासणपहाणं । सुविचित्तसंविहाणं, निबंधणं निरुवमसुहाणं ॥९ ॥ असमंजससुइदुक्ख दियाण, आणंददुंदुभिनिनायं । रागाऽऽइवज्झपडहं, मग्गं सग्गाऽपयग्गाणं ॥९८ भीमभवाडगडनिवडिय-भुवणसमुद्धरणसज्जरज्जु व । अह जिणधम्म सम्म, सुंदर! सरणं पवजाहि ॥९९॥ जोयमहामइमुणिजण-पणमियचलणेहिं तित्थनाहेहिं । झेयत्तेणुवइट्ठो, मुणीण तं मोहनिम्महणं ॥८३००॥ सुनिउणमडणाइनिहणं, भूयहियं भूयभावणमडणग्धं । अमियमऽजियं महत्थं, महाणुभावं महाविसयं ॥१॥ सुविचित्तजुत्तिजुत्तं, अप्पुणरुत्तं सुहाउसयणिमित्तं । अनिउणजणदुन्नेयं, नयभंगपमाणगमगहणं R नीसेसकिलेसहरं, हरिणंकवलक्खगुणगणोवेयं । अह सुंदर! जिणधम्म, सम्म सरणं पवज्जाहि सग्गाऽपवग्गमग्गाऽणु-लग्गसंविग्गसव्यभव्याणं । अप्पडिहयप्पमेयं, परमपमाणं जमडच्वत्थं दव्यं खेतं कालं, भावं च पडुच्च सयललोयगयं । जम्मजरमरणवेयाल-वारणे सिद्धवरमंतं ॥५॥ पयडियपयत्थगोयर-हेओवाएयसम्मपविभागं । तं सुंदर! जिणधम्म, सम्म सरणं पवज्जाहि દા सयलसरिवालुयासयल-जलहिजलमेलसमुदयाहिंतो । पइसुत्तमडणंतगुणं, अत्थं अणहं परिवहतं मिच्छत्ततमंडधाणं, निव्याघायप्पयासवरदीयं । आसं दीणासासग, दीयं च भयोयहिगयाणं चित्ताऽइक्कन्तपयाणओ य, चिन्तामणीओ अब्भहियं । हे खवग! जिणपणीयं, धम्म सरणं पवज्जाहि ॥९॥ जणगं व हियं जणणं य, वच्छलं बंधवं व गुणजणगं । मित्तं व अदोहकर, समत्थजयजीवरासिस्स - ॥१०॥ सोयव्याण पयरिसं, दुलहाणं परमदुल्लहं लोए । भावाडमयं व परमं, देसगमसमं सिपहस्स ॥११॥ नाहं अपत्तपावणगुणेण, पत्तस्स पालणेणं च । सुंदर! जिणेंदधम्म, सम्म सरणं पवजाहि ॥१२॥ वत्थुगयबोहसाहग-मंडगाणंगप्पविट्ठसुयरुवं । विहिपडिसेहाउणुगकिरिय-रुवं चारित्तरुवं च ॥१३॥ निविवरवेरिवारोव-रुद्धकायरनरो ब्व तायारं । नावं व जलहिपडिओ, धम्म सरणं पयज्जाहि ॥१४॥ अट्ठविहकम्मचयरित्ति-कारगं वारगं च कुगतीए । परिचिंतेउं सोउं पि, दुक्करं कायरजणाणं ॥१५॥ सुपसत्थमहात्थाणं, सव्वाण वि दव्यभावरूवाणं । साइसयविचित्ताणं, निबंधणं लद्धिरिद्धीणं ॥१६॥ असुरसुररायकिंनर-नरवरविंदाण वंदणिज्जगुणं । सुंदर! जिणिंदधम्म, सम्म सरणं पवज्जाहि ॥१७॥ सभाववज्जियं पि हु, बाहिरकिरियाकलावरूवं पि । अक्खंड कीरंतं, गेवेज्जगसुरसमिद्धिफलं . ॥१८॥ तेणेव भवेणं पुण, उक्कोसाऽऽराहगाण सिवफलयं । सत्तडट्ठभवंते उण, जहन्नआराहगाणं पि . ॥१९॥ लोगुत्तमगुणमइयं, लोगुत्तमगुणहरेहिं निम्मवियं । लोगुत्तमसेवियमचि, फलं पि लोगुत्तमं देति (देंतं B) ॥२०॥ सिरिकेवलिपन्नतं, सिद्धंतनिबंधणं च भगवंतं । सम्मं रम्मं धम्म पि, धीर! सरणं पवज्जाहि ॥२१॥ इय क्यचउसरणगमो, खमग! महाकम्मसत्तुसंभूयं । भयमऽविगणयंतो तुम-मिच्छियमउत्थं लहुं लहसु ॥२२॥ चउसरणगमणनामं, भणियं एक्कारसं पडिद्दारं । दुक्कडगरिहानाम, एतो कित्तेमि बारसमं ॥२३॥ ___"दुष्कृतगर्हाद्वारम्" - अरिहंतप्पमुहाणं, चउण्हमिहिं च उवगओ सरणं । गरिहाहि दुक्कडं कडु-विवागनिग्गहकए धीर! ॥२४॥ तत्थ जमऽरिहंतेसुं, जं वा तच्चेइएसुं सिद्धेसुं । सूरीसु ओज्झाएसु, साहूसुं साहुणीसुं च एमाऽऽइसु अण्णेसु वि, सव्येसु विसुद्धधम्मठाणेसु । वंदणपूयणसक्कार-करणसम्माणविसएसुं રઘો जं च तहा माईसु य, पिईसु य बंधयेसु मित्तेसु । उवगारीसुं कइया वि, कहवि मणवयणकाएहिं ॥२७॥ किंचि वि कयं अणुचियं, उचियं च न चेव जं व किंपि कयं । तं सम्म सव्वं पि हु, तिविहं तिविहेण गरिहाहि॥२८॥ अट्ठमयट्ठाणेसुं, अट्ठारसपावठाणगेसुं वा । जं कहवि किंपि कइया वि, वट्टियं तं पि गरिहाहि ॥२९॥ जं पि कयं कारियमणु-मयं च पावं पगिट्टमियरं वा । कोहा माणा मायाए, लोभओ तं पि गरिहाहि ॥३०॥ 233 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८३३१-८३६७ दृष्कतगर्हाद्वारम् रागा या दोसा था, मोहा या गयविवेयरयणेण । इहपरलोयविरुद्धं, जं पि कयं तं पि गरिहाहि ॥३१॥ एत्थ भवे अन्नत्थ य, मिच्छादिट्ठितमजणुसरंतेणं । जिणभवणबिम्बसंघाडइ-याण मणवयणकाएहिं ॥३२॥ जो किर कओ पओसो, अवन्नवाओ तहोयघायाऽऽई । तं तिविहं तिविहेणं, सुंदर! सव्यं पि गरिहाहि ॥३३॥ अच्चन्तपावमइणा, मोहमहागहगसिज्जमाणेणं । जिणबिम्बभंगगालण-फोडणकयविक्कया जे य ॥३४॥ लोभाउडलिंगियमणसा, कया य काराविया य सपरेहिं । गरिहाहि ते वि सम्म, स एस तुह गरिहणाकालो ॥३५॥ तह एत्थ भवे अन्नत्थ, वा वि मिच्छत्तबुड्ढिसंजणगं । सुहुमाण बायराण य, तसाण तह थावराणं च ॥३६॥ जीवाणं एगंतेण, चेव उवघायकारणमऽवंझं । उक्खलअरहट्टघरट्ट-मुसलहलकुलिससत्थाऽऽइ . ॥३॥ धम्मऽग्गिट्ठियवायी-कूवतलायाऽऽइजागपमुहं च । जमऽहिगरणं पयत्तिय-मडसेसमडयि तं पि गरिहाहि ॥३८॥ सम्मत्तं पि हु लळूण, तविरुद्धं कयं जमिह किंचि । तं पि तुमं संविग्गो, सम्म सव्यं पि गरिहाहि ॥३९॥ इह अन्नत्थ व जम्मे, जड़णा सड्ढेण या वि संतेण । जिणभवणबिम्बसंघाड-इएसु रागाऽऽइवसगेण ॥४०॥ जं सपरबुद्धिकप्पण-पुरस्सरं थेवमवि उदासत्तं । विहियं जा य अवण्णा, कया विघाओ पओसो या ॥४१॥ खवग! मणययणकाएहिं, करणकारावणाऽणुमोयणओ । सम्मं तिविहंतिविहेण, तं पि सव्यं पि पडिकमसु ॥४२॥ संपत्तसावगतेण, जं पि अणुव्वयगुणव्ययाऽऽईसु । अइयारपयं किंपि हुं, पकप्पियं तं पि पडिहणसु ॥४३॥ इंगालकम्ममडह जं, वणकम्मं जं च सागडीकम्म । जं या भाडीकम्म, फोडीकम्मं च जं किंचि ॥४४॥ जं या दंतवाणिज्जं, रसवाणिज्जं च लक्खयाणिज्जं । विसवाणिज्जं जं या, केसवाणिज्जं च जं किंचि ॥४५॥ जंतप्पीलणनेलंछणाण, कम्मं दवग्गिदाणं जं । सरदहतलायसोसं, असईपोसं च जं किंपि ॥४६॥ एत्थ भये अन्नत्थ व, कयं तहा करियं अणुमयं च । तं ति दुगंछसु सम्म, तिविहं तिविहेण सव्यं पि ॥४७॥ जं किंचि कयं पायं, पमायओ दप्पओ उवेच्चाए । सहसाणाभोगेण य, तं पि हु तिविहेण गरिहाहि ॥४८॥ परपरिभवकरणाओ, परवसणसुहित्तणाउ जं अहवा । जं परहसणाओ या, जं परविस्सासघाइत्ता ॥४९॥ जं प्रदक्खिन्नाओ, सुतिव्यविसयाडभिलसओ जं च । जं या कीलाकेली-कुऊहलाऽऽसत्तचित्तता ॥५०॥ रोद्ददेहिं जं वा, अत्थाओ अणत्थदंडओ अहवा । पावं समज्जियं किंपि, तं पि सव्वं पि गरिहाहि ॥५१॥ तह धम्मसामायारी-भंगो जो जो य नियमवयभंगो । मोहंडणं विहिओ, तं पि पयत्तेण निंदाहि ॥५२॥ देवे अदेवबुद्धी, जमडदेवे चेव देवबुद्धी य । सुगुरुम्मि अगुरुबुद्धी, अगुरुम्मि वि.जं च गुरुबुद्धी ॥५३॥ तते अतत्तबुद्धी, जं च अतते वि तत्तबुद्धी उ । धम्म अधम्मबुद्धी, जमऽधम्मे धम्मबुद्धी उ ૪ | एत्थ पत्थ व जम्मे, क्या तहा कारिया अणुमया य । मिच्छत्ततमंडणं, तं च विसेसेण निंदाहि ॥५५॥ | सत्तेसु जं न मेती, कया पमोओ न जं गुणड्ढेसु । जं च न कयं कया वि हु, किलिस्समाणेसु कारुण्णं ॥५६॥ तह पायपसत्तेसुं, सत्तेसुं नो क्या उयेहा जें । जं च न सुस्सूसा तह, क्या पसत्थेसु सत्थेसु ॥५॥ जं च जिणपहुपणीए, चरित्तथम्मे कओ न अणुरागो । येयायच्वं गुरुदेव-गोयरं जं च नो विहियं ॥५८॥ विहियं च हीलणं ताण, जं च मिच्छत्तमोहमूढेण । तं पि य सव्यं सुंदर! दूरं निंदाहि गरिहाहि ॥९॥ जिणवयणमडमयभूयं, पत्थमऽतुच्छं च भव्यसत्ताणं । निसुयं पि जं न सम्म, नो सद्दहियं च सोऊणं ॥६॥ संतम्मि बले संतम्मि, वीरिए तह परक्कमे संते । संते य परिसयारे, सोऊणं सद्दहेडं वा ॥६१॥ अंगीकयं न सम्मं, अंगीकयमऽपि न पालियं जं च । तप्पालणापरेसु य, जं च पओसो समुब्बूढो ॥२॥ भंगो य पओसाओ, विहिओ तक्करणगोयरो जं च । तं तं गरिहाहि तुमं, स एस तुह गरिहणाकालो ॥६३॥ तह नाणे जो को यि हु, अइयारो दंसणे व चरणे या । विहिओ तचे य विरिए, तं पि हु तिविहेण गरिहाहि॥६४॥ नाणे तत्थ अकाले, विणएण विणा य अबहुमाणेण । अविहियजहोवहाणं, सुत्तत्थे गिन्हमाणेणं ॥६५॥ तदायगनिण्हवणा, सुयाऽऽइअसुयाऽऽइजंपणाउ तहा । सुत्तस्स व अत्थस्स य, उभयस्स व अन्नहाकरणा ॥६६॥ वोलीणाऽणागययट्टमाण-कालेसु जो कओ कह वि । अइयारो तमऽसेस, तिविहं तिविहेण गरिहाहि ॥६॥ 1. धम्मग्गिट्ठिय = कर्षणार्थ क्षेत्रे जीर्णतृणानि दह्यन्ते सा धर्माग्निष्ठिका उच्यते । 234 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८३६८-८४०३ दृष्कतगऱ्याद्वारम् - क्षामणे उपदेशः अह दंसणम्मि जीयाऽऽइ-गोयरं देससव्वगं संकं । अवराऽवरदंसणगाह-गोयरं दुविहमऽवि कंखं ॥८॥ तह दाणसीलतवभावणाऽऽइ-फलगोयरं च वितिगिच्छं । जल्लमललित्तगत्ते, मुणिणो य पडुच्च वि दुगुच्छं ॥६९॥ दिट्ठीमोहं च कुणंतएण, अकुणंतएण धम्मीणं । उवयूहथिरीकरणे, वच्छल्लपभावणाओ य ॥७०॥ कालम्मि अईयम्मि, पडुपण्णेऽणागए य जो विहिओ । अइयारो तमऽसेस, तिविहं तिविहेण गरिहाहि ॥१॥ तह चरणपहाणासुं, पंचसु समिईसु तीसु गुत्तीसु । पढमाए तत्थ जो अणु-वउत्तगमणं कुणंतेणं ॥७२॥ तह वयणमडणुवउत्तं, जो भासतेण बीयसमिईए । तइयाए अणुवउत्तं, भत्तग्गहणं कुणंतेण ॥७३॥ उवगरणगहणनिक्खिवण-मडणुवउत्तं चउत्थसमितीए । चरिमाए चयणीय-च्वायमजयणं कुणंतेणं ॥७४॥ तह पढमगुत्तिविसए, माणसमऽसमंजसं धरतेण । बीयाए कज्जवज्ज, कज्जे या जयणवज्जं पि ॥७५॥ वयणं भासतेणं, एवं काएण तइयगुत्तीए । चेटुंतेण अकज्जे, जयणावजं च कज्जे वा। ॥७६॥ जो को वि हु अइयारो, विहिओ कालत्तए वि चरणम्मि । तं तिविहं तिविहेणं, सम्म सव्वं पि गरिहाहि ॥७७॥ रागद्दोसकसायाऽऽ-इएसु पसरेण कलुसियं जं च । चारित्तमहारयणं, तं पि विसेसेण निंदाहि ॥८॥ एतो दुवालसविहे, तवम्मि कइया वि कहवि जो विहिओ । सव्यंपि तंपि सम्म, अड्यारं धीर! गरिहाहि ॥७९॥ तह नाणाऽऽइगुणेसुं, बलविरियपरक्कमाण भावे वि । न परक्कमियं जं तं, विरियऽइयारं पि गरिहाहि ॥८॥ जो दसविहजइधम्मे, जो या किर चरणकरणगुणविसए । तिविहंतिविहेण तयं पि, धीर! गरिहाहि अड्यारं ॥८१॥ जे पाणवहाऽऽईणं, मूलगुणाणं पि के वि अइयारा । सुहुमा व बायरा वा, सम्म गरिहाहि ते सव्ये ॥२॥ पिंडविसुद्धाऽऽईणं, अइयारा जे य उत्तरगुणाणं । सुहुमा व बायरा या, ते वि हु गरिहाहि भावेणं ॥३॥ मिच्छत्तुच्छाइयसुद्ध-बुद्धिणा धम्मिए जणे जं च । पावमऽवन्नारुवं, रइयं गरिहाहि तं सव्यं ॥४॥ आहारभयपरिग्गह-मेहुणसन्नानिसन्नचित्तेणं । पावं जं पि पवत्तिय-मत्ताहे तं पि निंदाहि । ॥८५॥ इय दुक्कडगरिहं कारिऊण, खवगं गुरु जहाजोगं । दुक्कडगरिहाकज्ज, खामणमऽवि इय करावे ॥८६॥ चउगइगएण हे खमग! पाणिणो ठाविया तुमे दुख्खे । जे के वि ते खमावेसु, एस तुह खामणाकालो ॥८॥ तथाहिनेरइयत्ते जं नारयाण, नरयम्मि कम्मवसगाणं । भवधारणिज्जउत्तर-वेउव्यियस्वदेहेहिं | विउलुज्जलकक्कसदुस्सहाउ, वियणाउ निम्मियाउ दढं । खामेसु तं समग्गं, स एस तुह खामणाकालो ॥८९॥ तह बन्नगंधरसफास-भेयभिन्नाण पुढविपभिईण । एगिदियजीवाणं, तिरियत्ते संसरंतेण ॥९०॥ | एगिंदियत्तपत्तेण, चेव अन्नोन्नसंगसत्थाओ। जा का वि कहिं पि कया, विराहणा तं पि खामेस । बेइंदियाऽऽइपंचे-दियाऽवसाणाण जा वि जीवाणं । एगिंदियत्तणे च्चिय, चिराहणा तं पि खामेसु . ॥१२॥ तत्थ पुढवित्तणाओ, विराहणा किर बिइंदियाऽऽइणं । उवरिम्मि सिलालेढुग-'भिउडीपडणाऽऽइदारेण ॥१३॥ आउक्कायतणओ, तब्बाहा तप्पलावणा अहवा । हिसकरगवरिसधारा-जलच्छडच्छोडणाऽऽईहिं ९४॥ विज्जुविणिवायजलियग्गि-पडणवणदयपलीवणाऽऽईसु । तेउक्कायत्ताओ, बिइंदियाऽऽईण विद्दवणं . ॥९५॥ याउक्कायत्तणआ वि, होइ तेसि विराहणा नूणं । सोसणछणणुप्पाडण-भंजणपरिमोडणाऽऽईहिं ॥९६॥ अहवा वणस्सइता, तरुसाहानिवडणादुवरि तेसिं । पयइविरुद्धविसरुव-वणस्सईभक्खणाओ य बेइंदियाइभावं, गएण एगिदियाउडइजीवाणं । विहिया विराहणा जा, तं पि ह तिविहेण खामेसु ॥९८॥ तभावणा फुड च्चिय, अलसाड इदददुरावसाणा जं । संवडिढता पुढविं, पढम बोंदि पि गिण्हंति ॥९९॥ आउक्काउप्पण्णा, अणवरउप्फिडणफंदणाऽऽईहिं । परिचमढणपिवणाऽऽइ, कुणमाणा तं विराति ॥८४००॥ खारकडुतिखकक्कस-रसफासबिइंदियाऽऽइदेहाओ । संभवइ तेउवाउ-क्कायाण वि किर विराहणया ॥१॥ वणसइकायंतोबहि-जायंतेहिं बिइंदियाऽऽईहिं । वणसतिकायस्स वि सा, किज्जइ तक्खामणा तेण ॥२॥ बेइंदियाउडइभावं, गएण बेइंदियाइणो चेव । सपरोभयजातीया, विराहिया के वि जे जीया ॥३॥ 1. भिउडी = भूभङ्गः । 235 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८४०४-८४४० क्षामणे उपदेशः एत्थ भवे अन्नत्थ व, सयं परेणं च ते वि खामेसु । तिविहं तिविहेणं पि हु, स एस तुह खामणाकालो ॥४॥ जलचरथलचरखहचर-जाइत्तमुवागएण जा का वि । सपरोभयजाईणं, जलथलखयराण चेव मिहो ॥५॥ आहारभयाऽऽलयडवच्च-रक्खणाऽऽइकए नराणं च । विहिया विराहणा जा, तं पि य तिविहेण खामेसु ॥६॥ इय तिरियत्ते तिरिनर-जीवाण विराहणं खमावेत्ता । खामेसु पुण नरत्ते, तिरिनरसुरगोयरं पि तयं ॥७॥ तत्थ नरत्ते सुहुमा, इयरा वा जे विराहिया जीवा । खामेसु ते वि सव्वे, स एस तुह खामणाकालो ॥८॥ दंतालहलक्खडणेसु, कूपवावीतलायखणणेसु । घरहट्टाऽऽरंभाऽऽईसु, विराहिया पुढविजीवा जं ॥१॥ एत्थ भवे अन्नत्थ व, सयं परेणं च तं पि गरिहेसु । तिविहं तिविहेणं, पि हु, स एस तुह खामणाकालो ॥१०॥ करचरणमुहक्खालण-अंगोहलिण्हाणसोयपाणेसु । जलकीलणाऽऽइएसु य, विराहिया आउजीया जं ॥१॥ एत्थ भवे अन्नत्थ व, सयं परेहिं व तं पि खामेस । तिविहं तिविहेणं पि ह, स एस तह खामणाकालो ॥१२॥ सेयणविसीयणाऽऽहार-पागडहणंडकणप्पईवेसु । सेसतदाऽऽरंभेसु य, विराहिया तेउजीवा जे ॥१३॥ एत्थ भवे अन्नत्थ व, सयं परेहिं व ते वि खामेसु । तिविहं तिविहेणं पि य, स एस तुह खामणाकालो ॥१४॥ तालोट्टवियणगोफण-निस्ससणुस्सासथवणफुक्कासु । संखाऽऽइयायणेसु य, विराहिया वाउजीया जे ॥१५॥ एत्थ भवे अन्नत्थ व, सयं परेहिं व ते वि खामेहि । तिविहं तिविहेणं पि हु, स एस तुह खामणाकालो ॥१६॥ तच्छणछेयणमोडण-तोडणउक्खणणभक्खणाऽऽईहिं । खेत्तखलाऽऽरामाईसु, विराहिया जे वणस्सइणो ॥१७॥ एत्थ भये अन्नत्थ य, सयं परेहिं च ते वि खामेसु । तिविहं तिविहेणं पि य, स एस तुह खामणाकालो ॥१८॥ गंडोलयअलसजलूय-किमियसंखाणअसंखसंखा य । सिप्पिकवड्डाऽऽईया, बिइंदिया जे वि कहवि हया ॥१९॥ एत्थ भवे अन्नत्थ व, सयं परेहिं च ते वि खामेसु । तिविहं तिविहेणं पि हु, स एस तुह खामणाकालो ॥२०॥ मंकुणमंकोडगकुंथु-कीडिया कतरा य घेइल्ला । उद्देहियतयाऽऽई, तिइंदिया जे वि कहवि हया ॥२१॥ एत्थ भवे अन्नत्थ व, सयं परेहिं च ते वि खामेस । तिविहं तिविहेणं पि ह, स एस तह खामणाकालो ॥२२॥ कंडरतिड्पयंगा, दंसा मसगा य मच्छिया भमरा । विच्चुयपमुहा उ विरा-हिया उ चरिंदिया जे य ॥२३॥ एत्थ भवे अन्नत्थ व, सयं परेहिं च ते वि खामेसु । तिविहं तिविहेणं पि हु, स एस तुह खामणाकालो ॥२४॥ अहिनउलसरडगोहा, कुड्डगिरोलगतदंडगाऽऽईया । मूसगकागसियाला,सुणगा मज्जारपमुहा य ॥२५॥ हासेण पओसेण य, अत्थाओ अणत्थओ य कीलणओ । आभोगअणाभोगा, बहिया पंचेंदिया जे य ॥२६॥ एत्थ भये अन्नत्थ व, सयं परेहिं च ते वि खामेसु । तिविहं तिविहेणं पि हु, स एस तुह खामणाकालो ॥२७॥ अहवामंडुक्कमच्छकच्छभ-मगराऽऽईया य जलचरा जे य । थलचारिणो य हरिहरिण-रोझसूयरससाऽऽईया ॥२८॥ खेचरा य हंससारस-पारावयकुंचतित्तिराऽऽईया । संकप्पाऽऽरंभेहिं, विराहिया विविहजीवा जे ॥२९॥ जे या संघट्टियअभिहया य, परिताविया य तासियया । ठाणाउ ठाणंतर-मडहवा संकामिया जे य ॥३०॥ जे वा किलामिया दूमिया य, संघाइया य अन्नोन्नं । इय विविहदुहे ठविया, पाणे छड्डाविया जाय ॥३१॥ एत्थ भवे अन्नत्थ व, सयं परेहिं व ते वि खामेसु । तिविहं तिविहेणं पि य, स एस तुह खामणाकालो ॥३२॥ जे वि मणुयत्तणे च्चिय, वट्टतेण मणुया तए कहयि । रायाऽवत्थाडइगएण, पीडिया ते वि खामेसु ॥३३॥ |जे तत्थ दुट्ठचित्तेण, चिंतिया जे य दुट्ठयायाए । भणिया तह जे तणुणा, पलोइया दुट्ठदिट्ठीए ॥३४॥ नायं पि हु अन्नायं, नायमनायं पि ठावमाणेण । कलुसत्तणओ दिव्ये, दहाविया सोहिया जे य ॥३५॥ सच्चमलियं व दोसं, आरोविता गहाविया जे य । खोडगअट्ठिल्लासुं, गोत्तिसुं व ख्रिवाविया जे य ॥३६॥ बंधाविया य निगडाविया य, ताडाविया व तह जे य । कुट्टाविया य सेहा-विया य विविहप्पयारेहिं ॥३७॥ दंडाविया य मुंडाविया य, छिंदावियाई तह जाण । जाणुकरचरणनासोट्ठ-कन्नपमुहंडगुवंगाई રેવા गहिऊण य सत्थाई, तच्छिय उक्कत्तिऊण वा देहं । पच्छा वि य सव्यंगं, खारेहि दहाविया जे य ॥३९॥ जे य पउलाविया य अग्गीए । निहणाविया य गत्तास. जे उ उल्लंबिया रुक्खे ॥४०॥ APHP पीलाविया 236 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८४४१-८४७६ क्षामणे उपदेशः | 'गालियवसणा उक्खणिय-चक्खुणो जे विलुतदसणा य । विहिया तह तिक्खाए, सूलाए रोविया जे य ॥४१॥ आहेडगेसु अहवा, रणंडगणेसुं च तिरियमणुया जे । छिन्ना भिन्ना य विलुं-पिया य घुम्माविया जे य॥४२॥ पहरंतअपहरंता, जे वि य मुक्काऽऽउहा पलायंता । अइतिव्वरागदोसा, यवगयजीवा क्या जे य ॥४३॥ एत्थ भवे अन्नत्थ व, सयं परेहिं च ते वि खामेस । तिविहं तिविहेणं पि ह, स एस तह खामणाकालो ॥४४॥ पुरिसत्ते इत्थित्ते, जं परदाराडाइगोयरमडणज्जं । रागंऽधेणं पायं, समज्जियं तं पि निंदाहि ॥४५॥ जं च क्याइ कत्थई, एत्थ भमंतेण भवकडिल्लम्मि । विहवाऽऽइपंसुलित्ते, पावसमुब्भुयगब्भाणं तिण्हुण्हदव्यभक्खण-कट्ठतुवरसुतिक्खखारपाणेहिं । तह पोट्टमलणखीलग-पक्नेयाऽऽइपओगेहिं ॥४७॥ अवराणमडप्पणो वा, पगिट्ठरागाऽऽइगाढमूढेण । गालणसाडणपाडण-विणासणाऽऽइ कयं पावं ૪૮ पच्यागयसंवेगो, तिविहं तिविहेण सव्यहा सव्यं । गरिहाहि खवग! पंछिय-निविग्याऽऽराहणकएण ॥४९॥ जं च जुवइत्तणम्मि, सवक्कियेहाऽऽइणा कयं पायं । तग्गब्मथंभणाऽऽइय-मडहया पइघायणाऽऽईयं ॥५०॥ जं च वसियरणकारण-कयकम्मणविहडणाऽऽइ णो विहियं । विहियं जीवंतमय-तणं तुमं तं पि निंदाहि॥५१॥ जं पि किर पंसुलिते, विहियं जीवंतडिंभछड्डणयं । वेसते पुण परबा-लियाण हरणं अदत्ताणं ॥५२॥ जं च मणुयत्तणे च्चिय, रागद्दोसाऽभिभूयचित्तेणं । सुपउत्तमंततंत-प्पओगओ निबिडपीड ॥५३॥ थंभणयोभुच्चाडण-विद्देसीकरणवसियरणमाऽऽई । जेसि कहंपि विहियं, जीवाणं मोहमूढेणं ॥५४॥ एत्थ भवे अण्णत्थ व, सयं परेहिं च ते वि खामेसु । तिविहं तिविहेणं पि हु, स एस तुह खामणाकालो॥५५॥ तह जे भूयाऽऽईया, सुरा वि मंताऽऽदिसत्तिजोगेण । कत्थइ कयाइ कहवि हु, आगरिसित्ता बला चेव ॥५६॥ कारावणेण आणाऽऽई, पीडिया अहव पत्तमोइन्ना । जे के वि किलीया ता-डिया व मोयाविया पत्तं ॥५॥ एत्थ भवे अन्नत्थ य, सयं परेहिं च ते वि खामेसु । तिविहं तिविहेणं पि हु, स एस तुह खामणाकालो॥५८॥ इय तिरियमणुयदेवे, मणुयत्तयिराहिए खमावेत्ता । खामेसु ख्वग! संपइ, देवत्तविराहिए सम्म ॥५९॥ भयणयइयाणमंतर-जोइसयेमाणियत्तपत्तेणं । नेरइयतिरियमणुया, दूहविया जे य देवा य ॥६॥ मज्झत्थमणो होउं, तिविहं तिविहेण भावओ खवग! । खामेसु संपयं ते, स एस तुह खामणाकालो ॥६१॥ तत्थपरमाहम्मियभावं, गएण दुक्खाई बहुपयारेहिं । नेरइयाणं रझ्याई, जाई ताई पि खामेसु . ॥२॥ उवभोगपरीभोगाइ-कारणपुढविकायपभिईणं । तन्निस्सियाण बेई-दियाउडइजीवाण तह जं च ६३॥ देवत्तणम्मि विहियं, विराहणं रागदोसमोहेहिं । खामेस तं पि सम्म, स एस तुह खामणाकालो ६४॥ जं च किर माणुसाणं पि, वइरनिज्जायणाऽऽइज्जेण । अवहरणं बंधवहछेय-भेयधणहरणमरणाऽऽई ॥६५॥ देवत्तणे च्चिय कयं, तिक्खं दुक्खं कसायकलुसेणं । खामेसु तं पि सम्म, स एस तुह खामणाकालो ॥६६॥ जं च तियसत्तणे च्चिय, महिड्ढियत्तेण इयरदेवाणं । आएसदाणवाहण-ताडणपरिभवकरणपमुहं ॥६॥ विहियं महंतमऽसुहं, चित्ताचलचुन्नणेक्वज्जसमं । खामेसु तं पि सम्म, स एस तुह. खामणाकालो ॥६८॥ इय नारयतिरियनराऽमरंगि-क्यखामणो वि पत्तेयं । पंचमहव्वयविसयं, अइयारं इण्हि परिहरिउं ॥९॥ सव्यजगज्जीयेसुं, सुहुमेसु य बायरेसु जं दुक्खं । इह परभवे य मणयं पि, कप्पियं तं पि निंदाहि ॥७॥ संजणियपाणिपीडं, पओसहासाऽऽइणा अलियययणं । अन्नाणंडणं जं पि, जंपियं तं पि निंदाहि ॥१॥ परसंतमजदत्तं कहवि, किंपि लोभाऽऽइगहियमऽवलवियं । जं तं पि पायपंसु, पसरन्तं भद्द! रुंभाहि ॥७२॥ नरतिरियाऽमरगोयर-मणयायाकायमेहुणसमुत्थं । जं पि य पावं तं पि हु, तिविहं तिविहेण निंदाहि ॥३॥ सच्चित्ताऽच्चित्ताऽऽईसु, दव्येसु परिग्गरं कुणंतेणं । जं पायं खवग! कयं, तं शिंदसु तिविहंतिविहेण ॥४॥ रसगिद्धीए कारणवसेण, अन्नाणओ य किंपि कहिं । जं रत्तीए भुत्तं, तं पि हु सव्वं पि निंदाहि ॥५॥ वोलीणाडणागयवट्टमाण-कालेसु जाई वइराइं । जीवेहि सह क्याई, ताणि वि निंदाहि सव्वाणि ॥७६॥ 1. गालितवृषणाः । 2. विलुंगिया पाठां० । 237 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८४७७-८५१४ क्षामणे उपदेशः - सुकृतानुमोदनाद्वारम् जे य मणोवड़काया, असुहा उ सुहाउसुहेसु यत्थूसु । यावारिया उ तीसु वि, कालेसुं ते वि निंदाहि ॥७॥ दव्यं खेत्तं कालं, भावं च पडुच्च जं च सक्कं पि । न कयं किच्चमडकिच्वं पि, विहियमडह तं पि गरिहाहि॥७८॥ लोयम्मि कुतित्थपवत्तणाउ, मिच्छत्तसत्थदिसणाउ । मग्गविणिगृहणाओ, उम्मग्गपरूयणाओ य ॥७९॥ कम्मप्पबंधबंधण-निबंधणं अप्पणो परेसिं च । जाओ सि खवग! जं तं, तिविहं तिविहेण गरिहाहि ॥८॥ पावाऽऽरंभपसत्ताई, जाइं एत्थं अणाइनिहणम्मि । पइजम्म कम्मवसा, भवचक्के चंकमंतेणं ॥८१॥ गहियाणि य मुक्काणि य, हे खमग! सरीरगाणि विविहाणि । सुसिणिद्धकुटुंबाणि य, ताई सव्वाणि योसिरसु॥८२॥ लोहवसट्टेण समज्जिऊण, जो पावठाणपडिबद्धो । विहिओ अत्थो तं पि हु, सम्म सव्यं पि योसिरसु ॥८३॥ वोलीणाडणागयवट्टमाण-काले पवत्तिया जे य । पायाऽऽरंभा ते वि हु, सम्मं सव्वे वि योसिरसु ॥४॥ वितहं परुवियं जं, जिणवयणं वितहमेव सद्दहियं । अणुमण्णियं व वितहं, तं तं सव्यं पि गरिहाहि ॥८५॥ खेत्तद्धाऽऽइदोसा, जइवि न सम्म अणुट्ठिउं तरियं । जिणवयणं तह यि हु जं, पडिबंधो असदडणुट्ठाणे ॥८६॥ विहिओ मणोरहा वि हु, सम्माऽणुट्ठाणगोयरा न कया । तं सविसेसं सुंदर!, निंदाहि पुणो पुणो सम्मं ॥८॥ किं बहुणा भणिएणं, समतणमणिलेढुकंचणो होउं । समसत्तुमित्तचित्तो य, गरुयसंगसारो य ॥८॥ सच्चित्तम चित्तं मीस-गं च दव्यं पड़च्च जं पायं । विहियं तं पि ह गरिहाहि, तिविहंतिविहेण खवग! तुम॥८९॥ नगनगराऽऽगरगामाड-रामविमाणाऽऽइभवणखलगाऽऽइ । आसज्ज जं पि किंचि चि, उड्ढाउहोतिरियलोएसु॥१०॥ योलीणाऽणागयवट्टमाण-सीउण्हयासकालेसु । जं पि य कहं पि राओ, दियाओ दीहड़प्पठिइयं या ॥१॥ ओदइयाऽऽइयभावट्ठिएण, गुरुरागदोसमोहेहिं । सुयणे जागरणे या, तिव्याऽऽइभेयभिन्नं च ॥१२॥ पायाऽणुबंधिपावं, सुहुमं वा बायरं व मणसा या । वायाए कारण य, कयं व कारियमऽणुमयं या ॥३॥ एत्थ व जम्मे जम्मन्तरे व, सव्वन्नुवयणओ निउणं । नाऊण दुक्कडं गरह-णीयमिणमुज्झणीयं च ॥१४॥ अरहन्तसिद्धगुरुसंघ-सक्खियं दुखसंखयनिमित्तं । निंदसु गरिहसु पडिकमसु, सव्वहा सव्यमवि सम्मं ॥१५॥ इय खवग! भावसारं, सारंडगं सयलपावसुद्धीए । आराहणाकयमणो, मणे विसप्पंतसंवेगो ९६॥ मिच्छा मि दुक्कडं भण, पुणो वि मिच्छा मि दुक्कडं चेव । मिच्छा मि दुक्कडं ती, तदडपुणकरणं च पडियज्ज॥९॥ दुक्कडगरिहानाम, बारसमं वन्नियं पडिद्दारं । सुक्याउणुमोयणादार-मिण्हि साहेमि तेरसमं ૧૮ “सुकृत-अनुमोदनाद्वारम्" - भायाऽऽरोग्गणिमित्तं, खवग! महारोगवग्गविहुरंडगो । सत्थउत्थकुसलवेज्जो-यइट्ठकिरियाकलावं व ॥१९॥ सुहकम्मसमाऽऽसेवण-भावियभावत्तणं बहुभवेसु । अणुमोएज्जसु सम्म, सव्वेसि जिणवरिंदाणं ॥८५००॥ तह तित्थयरभवाओ, आरेणं ऊसरितु तइयभये । तित्थयरत्तनिबंधण-वीसट्ठाणाऽणुसेवित्तं सुरलोगभवाउ च्चिय, सरिसाऽऽगयमइसुओहिरवेणं । निम्मलनाणतिगेणं, सहियं गब्भाऽवयारितं सहसा निरंतरोविंत-सयलसुरपूरियंडबरतणओ । नियकल्लाणदिणेसुं, दावियलोगत्तिगेगत्तं રા सव्यजगजीववच्छल-तित्थपयत्तणपरायणतं च । सव्वगुणपयरिसतं, सव्युत्तमपुण्णरासित्तं ૪ सव्वाऽइसयनिहितं, तह ववगयरागदोसमोहत्तं । लोयाडलोयपगासग-केवलसिरिसंगयत्तं च ॥५॥ अमरविणिम्मियलट्ठट्ठ-पयडपहपाडिहेरसोहितं । सुरविरइयचामीयर-पउमोवरिपयनिवेसित्तं દો अगिलाणीएडणुवजीवणेण, भव्वाण धम्मदेसितं । अणुवकयपराउणुग्गह-संपायणलंपडतं च ॥७॥ समकालोदयमाडगच्छमाण-निस्सेसपुन्नपयडित्तं । तेलोक्कचक्ककीरंत-पायपउमोबसेवितं । अप्पडिहयपसरफुरंतनाण-दसणगुणाण थारित्तं । अहखायचरणलक्खण-सिरीसमिद्धासियत्तं च ॥९॥ अप्पडिहयप्पयावं. विहरित अणत्तराए चरियाए । जम्मजरमरणवज्जिय-सासयसहपयगमित्तं च ॥१०॥ सव्येसि सव्यन्नूण, सव्यदरिसीण जिणवरिंदाणं । तिविहंतिविहेण सया, अणुमोएज्जसु तुमं सम्म ॥११॥ एवं सिद्धाणं पि हु, पहीणपुणरुत्तभवनिवासित्तं । ववगयनाणाऽऽवरणाऽऽइ-सयलकम्मोयलेयत्तं ॥१२॥ तह राहुगहपहापडल-विगमओ सूरससहराणं व । अणुमोएज्जसु सम्म, जहट्ठियप्पाऽवभासित्तं ॥१३॥ अमरत्तं अजरत्तं, अजम्मणतं अमुत्तिमत्तं या । निरुजत्तम सामितं, सिद्धिपुरीए णिवासित्तं ૨૪ના 238 ॥१॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६५१५-८५५१ सुकृतानुमोदनाद्वारम् - भावनापटलद्वारम् अपरायत्तेगंतिय-अच्वंतियऽणंतसुहसमिद्धत्तं । वितिमिरअणंतकेवल-नाणदंसणसरुवत्तं ॥१५॥ समकालसंयललोयाड-लोयगसब्भयभावदरिसितं । एतो च्चिय अच्वंतिय-अणंतवीरियपरिगयत्तं ॥१६॥ सद्दाऽऽइअगम्मतं, अच्छेज्जतं अभिंदणीयत्तं । निच्वं कयकिच्चत्तं, अणिंदियत्तं अणुवमत्तं ॥१७॥ सव्वाऽसुहवियलतं, अणवज्जत्तं निरंजणतं च । निबंदत्तमऽकिरियत्त-मडच्युयत्तं सुथिमियत्तं ॥१८॥ सव्याऽवेक्खारहियत्तणं च, खाइगसमत्थगुणवत्तं । ववगयपरतंतत्तं, तिलोयचूडामणितं च ॥१९॥ सव्येसि सिद्धाणं, समत्थतेलोक्कवंदणिज्जाणं । तिविहंतिविहेण सया, अणुमोएज्जसु तुमं सम्म રી तह पंचपयारस्स वि, सम्मं सुविहियजणाऽणुचिन्नस्स । आयारस्स भगवओ, पहुपायपसायपत्तस्स ॥२१॥ अगिलाणीएडणुवजीवणेण, परिपालगत्तणं सम्म । सम्मं पयगतं, सव्वेसिं भव्यसत्ताणं ॥२२॥ अहिणवपुरस्सरं तेसि-मेव कारावणं च तस्सेय । सव्वेसिं सूरीणं, अणुमोएज्जसु तुम सम्म ॥२३॥ एवं उवज्झायाणं, पंचविहायारपालणरयाणं । पयईए चेव परो-वयारकरणेकसियाणं રા सुत्तऽत्थतदुभएहिं, अंगोवंगपाइन्नगप्पमुहं । सुत्तं जिणप्पणीयं, अहिज्जमाणेण ताव सयं ॥२५॥ तह अन्नेसि पि दुयालसंग-गणिपिडगसुत्तदाइत्तं । तिविहंतिविहेण सया, अणुमोएज्जसु तुम सव्यं ॥२६॥ एवं क्यउन्नाणं, चरितचूडामणीण धीराणं । सुगिहीयणामधेयाण, विविहगुणरयणरासीणं ॥२७॥ समणाण सुविहियाणं, अकलंकविसालसीलसालितं । जायज्जीयं निरऽवज्ज-वित्तियत्तित्तणं तह य ૨૮ जयजीयवच्छलतं, ससरीरे वि हु ममतरहियत्तं । सयणजणेसु समत्तं, सुनिरुद्धपमायपसरतं ॥२९॥ पसमरसनिब्भरतं, सज्झायज्झाणपरमरसियत्तं । आणापरतंततं, संजमगुणवद्धलक्वत्तं ॥३०॥ परमत्थगवेसित्तं, भयट्टिइनिग्गुणतभावित्तं । तत्तो य तव्विरागि-तणं परं परमसंवेगा ॥३१॥ भवसंकडिल्लपडियख-भूयकिरियाकलावकारितं । तिविहंतिविहेण सया, अणुमोएज्जसु तुमं सम्मं ॥३२॥ तह सव्वेसि पि ह सावगाण, पयईए पियसथम्मत्तं । जिणवयणधम्मरागा-रुणरत्तदेह ट्रिमिंजतं ॥३३॥ जीयाऽजीयाऽऽइसमत्थ-वत्थुविसयम्मि परमकुसलतं । निग्गंथा पावयणा, देयाऽऽईहि वि अखोभित्तं ॥३४॥ सम्मइंसणपामोक्ख-मोक्खसाहगगुणेसु गाढतं । तिविहंतिविहेण सया, अणुमोएज्जसु तुमं सम्मं ॥३५॥ अन्नेसि पि हु आसण्ण-भाविभद्दाण भविउकामाणं । कल्लाणाऽऽसयवित्तीण, पयणुकम्माऽणुभावाणं ॥३६॥ देवाण दाणवाण य, नरतिरियाणं पि सव्यसत्ताणं । सम्मग्गाडणुगयत्तं, अणुमोएज्जसु तुमं सम्म . ॥३७॥ एवं अरिहंताऽऽईसु, सुकडणुमोयणमडणुक्खणं सम्मं । भालयलाउडरोवियपाणि-पल्लयो भद्द! कुणमाणो ॥३८॥ सिढिलेसि तेसि हाणिं, खवेसि चिरसंचियं पि कम्ममलं । निहणियकम्मा सम्म, सुंदर! आराहओ होसि ॥३९॥ सुकडाऽणुमोयणादार-मेवमक्खायमिण्हि साहेमि । चउदसमं पडिदारं, भावणपडलाऽभिहाणं ति ॥४०॥ "भावनापटलद्वारम्" - पाएणं सब्बरसाण, लवणवेहेण जह पहाणतं । जह या पारयरससं-गमेण लोहाण कणगत्तं ॥४१॥ एवं दाणाऽऽईण वि, धम्मडगाणं न भावणाए विणा । पंछियफलदाइत्तं, ता तीए नवग! कुण जत्तं ॥४२॥ | तथाहिदिन्नं बहुं पि दाणं, सीलं पि हु पालियं चिरं कालं । सुट्ठ तवियं तयो वि हु, भावणवियलं न किं पि तयं॥४३॥ दाणे अहिणवसेट्ठी, दिद्रुतो होइ भावसुन्नम्मि । सीलतवेसुं पुण विर-हिएसु भावेण कंडरिओ ॥४४॥ हलिपारावणकयमण-हरिणस्स किमाऽऽसि दाणमडह तह वि । तब्भावणापयरिसा, दायगतुल्लं फलं जायं ॥४५॥ अह वा उ जुन्नसेट्टी, दिटुंतो सो वि दाणविरहे वि । तप्परिणामपरिणओ, पत्तो तह पुन्नपल्भारं ॥४६॥ तह सीलतवाऽभावे वि, पयइपसरंततिव्वसंवेगा । तप्परिणामपरिणया, मरुदेवीसामिणी सिद्धा ॥४७॥ तह परिमियसीलतवाड-वही वि भयवं अवंतिसकुमालो । सहभावणागणा भो! जाओ देवो महिडिढओ ॥४८॥ अन्नं च दाणधम्मो, अवेक्खई नूणमऽत्थसब्भावं । सीलतवा वि जहुत्ता, संहणणविसेससाऽयेक्खा ॥४९॥ एसा हि भावणा पुण, न पयत्थंतरमडवेक्खए किं पि । किं तु सहचित्तपभवा, ता जइयव्यं चिय इमीए ॥५०॥ नणु अंतरद्दिहीए, बज्झं कारणमडवेक्खइ इमा वि । न सुहं झाउमडलं जं, उबिग्गमणो मणागं पि ॥५१॥ २४मजत्त 239 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८५५२-८५८७ ___ भावनापटलद्वारम् - अनित्यभावनास्वरूपम् - नग्गइनृपदृष्टान्तः - अशरणभावनास्वरूपम् एत्तो च्चिय कित्तिज्जइ, मणुन्नभोयणमणुण्णगेहेसु । संतेसु झायइ मुणी, मणोन्नमऽविसन्नमणजोगो ॥५२॥ तन्न अवेक्वाकारण-विरहेणं भावणा वि सच्चमिणं । नवरं मणोनिरोहा-समत्थमुणिणो पडुच्च इमा ॥५३॥ जे पुण अणप्पतरविरिय-जोगसामत्थनिहयमणपसरा । पसरंततिव्यपरक्य-वियणायाउलियतणुणो वि ॥५४॥ भिंदंति थेवमेतं पि, नो सुहज्झाणमुज्झियकसाया । खंदगसिस्साणं पिव, किं तेसिं बज्झहेऊहिं ॥५५॥ तह सवसे चेव सुहाउसुहम्मि, भाये वरं सुहो स कओ । साहीणाऽमयमुज्झिय, को नाम विसं गहेज्ज बुहो॥५६॥ ता भो देवाऽणुप्पिय!, पियं ममेयं ति निच्छयं काउं । मोक्छेक्कबद्धलक्खो, होसु सया भावणासारो ॥१७॥ भीमभवुभंतेहिं, भाविज्जंतीह भव्यभविएहिं । जं तेहिं इमासिं भाव-णत्ति विहियं निरुत्तं पि ॥८॥ जा किर एगंतसुहो, भावो सो चेव भावणाउ वि । जाउ वि भावणाउ, ता एवेगंतसुहभावो ॥५९॥ सो भावो बारसहा, अहवा ताउ भवंति बारसहा । सो ताउ य सुहा पुण, संवेगरसाइरेगाओ ६०॥ तो तस्स कए कमसो, भावेज्ज अणिच्वयं असरणतं । संसारं एगत्तं अन्नत्तं तह य असुइत्तं भावेज्ज आसवं संव-रं च कम्माण निज्जरं तह य । लोगसहायं° बोहीए, धम्मगुरुणो य दुलहत्तं ॥२॥ “अनित्यभावनास्वरूपम्" - संसारसमुत्थसमत्थवत्थु-सत्थस्स एत्थ बारसगे । भावेज्जा पढम चिय, निच्चमडणिच्चतणं एवं ६३॥ विज्जु व्य जोव्वणं संप-मा वि संझडभरागरेह व्य । जलबुब्बुओ व्य जीविय-मडच्चतमणिच्वमेवमहो! ॥६४॥ मायापिइपुत्तेहिं, मित्तेहि य परमपेमपत्तेहिं । जो संवासो सो वि हु, अणिच्चयाकवलिओ सयो ॥६५॥ देहो सुभगत्तमडहीण-पुन्नपंचेंदियत्तणं रुवं । बलमाऽऽरोग्गं लायन्नसंपया सयलमऽवि अथिरं ॥६६॥ भवणवइवाणमंतर-जोइसकप्पाऽऽइपभवदेवाणं । सव्वाणं पि ह सव्वं पि, देहरूवाऽऽइ वि अणिच्वं ॥६॥ भवणेहिं उपवणेहि य, सयणाऽऽसणजाणवाहणाऽऽईहिं । जो संजोगते सो वि ह, इहपरलोगेसु वि अणिच्चो ॥६८॥ एगपयत्थडणुमाणेण-ऽणिच्वयं निच्छिऊण सव्वगयं । धन्ना धम्मम्मि समुज्ज-मंति नग्गइनरेंदो व्य ॥६९॥ तथाहि "नग्गइनदपदृष्टान्तः" | गंधारजणवयवई, नग्गइनामो निवो सनयरीओ । बहुहयगयरहसंठिय-सामंतसमूहपरियरिओ ॥७०॥ महुसमयसमागमसोह-माणवणराइपेच्छणट्ठाए । नीहरिओ महया रिद्धि-समुदएणं विरायतो ॥७१॥ अह पेच्छइ अद्धपहे, उम्मिल्लमहल्लपल्लवसिरिल्लं । मयरंदबिंदुपिंजरिय-मंजरीपुंजरमणिज्जं ॥७२॥ उग्गायंतं व भमंत-भमरनिउरुंबगुंजियमिसेण । पवणपणोल्लिरसाहा-भुयाहिं पारद्धनद्वं व ॥७३॥ मयमतपरहयारव-मिसेण मीणज्झयं थणंतं व । नीरंधपत्तपरियर-परिकिण्णं तरुणचयतलं ॥७४॥ अह तस्स रम्मयागुण-रंजियहियएण राइणा तेणं । कोऊहलेण गहिया, जंतेणं मंजरी एक्का ॥७५॥ तो निययसामिमग्गाड-णुगामिसेवगजणाण मज्झाओ । केणाऽवि मंजरीपत-गुच्छमध्वरेण साहडग्गं ॥६॥ केणाऽवि हु पल्लववय-मडन्नेणमडपिक्कफलभरं पि दढं । गिण्हतेणं विहिओ, खणेण खाणु व्य सो रुक्खो ॥७७॥ राया वि पयट्टरहट्ट-जंतचिक्कारबहिरियदिसेसु । उप्पित्थपउत्थ व तीसे, वियसिरसिसिरप्पएसेसु ॥८॥ पसरंतपरिमलुप्पील-मिलियभसलाऽऽवलीमणहरेसु । उज्जाणेसुं विहरिय, खणमेक्कं पडिनियत्तंत्तो ॥७९॥ | तेण पहेणं चूयं, अपेच्छमाणो य पुच्छती(इ) लोयं । सो कत्थ चूयसाहि त्ति, दंसियो तयऽणु लोगेण ॥८॥ सो खाणुसरिसरुवो, ताहे विम्हियमणेण भणियमिणं । किं एरिसो ति सिट्ठो, लोगेण वि पुचवुत्तो आयन्निऊण तं नर-वई वि संजायपरमसंवेगो । परिचिंतिउं पवत्तो, अच्वंतं सुहुमबुद्धीए રા धी! थी! भवदुब्बिलसिय-मडहो न जत्थडत्थि यत्थु किंपि तयं । सव्वंगीणं पत्थं, जं नेवाणिच्वयाए सया ॥८३॥ चूयाउणुमाणओ च्विय, अणिच्वयऽक्वंतसव्ववत्थूसु । किं पडिबंधट्ठाणं, ससरीराऽऽइसु वि विउसाण ॥८४॥ इय सो विचिंतिऊणं, रज्जं अंतेउरं पुरं चेच्चा । पत्तेयबद्धलिंगो, जाओ समणो महासत्तो ॥८५॥ एवं सोच्चा सुंदर!, विजणम्मि गीयसाहुसहिएण । भावेयव्वा तुमए, अणिच्वया सव्वभावाणं ધી ____ “अशरणभावनास्वरूपम्" - जेणेव समत्थाण वि, भयुत्थवत्थूण दढमऽणिच्चतं । तेणं चिय तेहिंतो, सरणं पि न किंपि पाणीणं ॥७॥ 240 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८५८८-८६२३ - अशरणभावनास्वरूपम् – अनाथीमुनिदृष्टान्तः - संसारभावनास्वरूपम् नीसेससत्तसंताण-ताणकरणेक्कवच्छलमऽतुच्छं । एक्कं चिय करुणारस - पहाणजिणवयणमऽवहाय | जम्मजरमरणरणरणय- सोगसंताववाहिविहरम्मि । नत्थेत्थ कत्थइ भीम - भववणे सरणमंडगीण ॥८८॥ ॥८९॥ तहा ॥९०॥ 118311 ॥९३॥ ॥९४॥ ॥९५॥ | साऽऽवरणमत्त करितरल - तुरयरहजोहजूहवूहेहिं । बुद्धीए नीइबलेण, या वि फुडपोरिसेणं य पुरिसाणं तह देवाण, या वि मज्झाओ दिव्यसत्तीए । जिणवयणठिए मोतुं, जियपुव्यो केण वि न मच्चू ॥ ९९ ॥ | मायापि पुत्तकलत्त - मित्तसुसिणिद्धबंधुधणनिचया । वाहिविहुरे वि पुरिसे, थेवं पि न होंति सरणाय मंगलकोउयजोगेहिं, मंतवेज्जोसहीहिं विविहाहिं । नो हवइ परित्ताणं, मोतुं जिणययणमेवेक्कं जेणं चिय चिंतिज्जंत - मेत्थ नो वत्थु किंपि सरणाय । तेणं चिय दुस्सहचक्खु - वेयणावाउलियगत्तो कोसम्बिइब्भपुत्तो, वट्टंतो दिव्यजोव्यणे पढमे । संगमवहाय धीमं, पडिवणो संजमुज्जोगं तहाहि. “अनाथीमुनिदृष्टान्तः रायगिहनगरनाहो, सेणियराया विहारजताए । नीहरिओ पेच्छड़ मंडि - कुच्छिउज्जाणमज्झम्मि तरुमूलम्मि निसण्णं, ससिरीयं वम्महं व रइरहियं । सरइंदुकलाकोमल - सरीरमेगं मुणिप्पवरं तं पेच्छिऊण राया, रुवाऽऽइगुणे पसंसिउं बाढं । साऽऽयरकयप्पणामो, तिपयाहिणपुव्ययमऽदूरे ठाऊण पंजलिउडो, सविम्हयं भणिउमेवमाऽऽढत्तो । तरुणत्तणे वि भन्ते!, उयट्ठिओ कीस ? सामण्णे ॥९९॥ समणेण जंपियं पुहड़-नाह! सरणं न को वि मह हुंतो । तेणेसा पडिवण्णा, दिक्खा दुक्खाण खयजणणी ॥८६००॥ अह हासवसविसप्पंत - दंतकंतीए धवलयंतेण । पढमुग्गमंतदिणयर - रुइरोट्टं जंपियं रन्ना ॥१॥ ॥९८॥ | अप्पडिमरूयलक्खण-पिसुणियबहुविहववित्थरस्स कहं । तुह भययमऽसरणतं कहिज्जमाणं पि सद्दहिमो un अहया किमऽणेणं, होमि, तुज्झं सरणं अहं भयसु गेहं । भुंजसु य विसयसोक्खं, दुलहं खु पुणो वि माणुस्सं ॥३॥ मुणिणा भणियं नरवर!, सयमऽवि सरणेण विरहियस्स तुहं । कहमिव परेसि सरण - प्पयाणसामत्थउवलंभो ॥४॥ एवं वृत्तो संतो, संभंतो नरवई पयंपेड़ । पउरकरितुरयरहसुहड - लक्खसामग्गिकलिओ हं .॥९६॥ ॥९७॥ ॥५॥ ॥ ॥८॥ ww ॥१४॥ | कहमिव सरणाय परेसि, नेव होमि त्ति मा मुसं वयसु । भयवं! कह वा सयमऽवि, निस्सरणो हं तए वृत्तो ॥६॥ | मुणिणा संलत्तं भूमि- नाह! एयस्स मुणसि नेवऽत्थं । नेव य उत्थाणं ता, सुणेहि एगग्गचित्तो तं कोसंबीनयरीए, उवहसियकुबेरविहववित्थारो । आसि बहुसयणवग्गो, मज्झ पिया पायडो भुवणे होत्था य ममं तइया, पढमवए च्चिय सुदुस्सहा. धणियं । अच्छिवियणा महंती, तव्यसओ देहदाहो य ॥९॥ देहंडतो भमिरमहंत - निसियकुंतो व्य असणिनिहओ व्य । उक्कुवियनयणपीडा - भरेण विवसो म्हि संयुक्त ॥१०॥ | बहुमंततंतयिज्जा-चिगिच्छसत्थइत्थवेइणो य जणा । कासी मज्झ चिगिच्छं नाऽऽसी थेयो वि पडियारो ॥११॥ | पिउणा वि य पडियन्नं सव्यस्ससमप्पणं पि किर तस्स । जो मज्झ थेवमेतं पि, वेयणं अवहरेज्ज लहुं ॥ १२ ॥ पम्मुक्कपाणभोयण विलेवणाऽऽहरणपमुहवावारो । मायाभाउगभगिणी - कलत्तमेत्ताऽऽइसयणगणो अच्चन्तचितपीडा - विणिन्तबाहप्पवाहधोयमुहो । किं कायव्ययमूढो, ठिओ समीयम्मि मे सव्यो तह वि हु अणियत्तंतीए, अच्छिवियणाए थेयमेत्तं पि । अहह ! न को वि हु सरणं, ममं ति परिचिन्तयन्तेणं ॥ १५ ॥ विहिया मए पइन्ना, जइ मुंचेज्जा इमाइ वियणाए । तो चत्तसव्वसंगो, काहं अणगारियं धम्मं एवं विहियपइन्नस्स, मज्झ रयणीए आगया निद्दा । खयमुवगया य वियणा, जाओम्हि पुणण्णवसरीरो जाए पभायसमए तत्तो आपुच्छिउं सयणवग्गं । सव्यन्नुणा पणीयं, दिक्खं सरणं पवन्नोम्हि ता नरवर ! एवंविह- दुहनिवहग्घत्थपाणिसत्थस्स । मोतुं जिणिदधम्मं सरणं ताणं न अन्नत्तो एवं सोउं राया, तहत्ति पडिवज्जिउं कयपणामो । निययट्ठाणमुवगओ, साहू वि तओ विणिक्खंतो इय खवग! समत्थभयुत्थ- वत्थुपडिबंधबुद्धिमऽवहाय । भावेसु निहुयचित्तो, निस्सरणयभावणं सम्मं जेणं चिय पइवत्थं पि एत्थ चिंतिज्जमाणमंडगीणं । सरणं न किंपि तेणेय, नियसु संसारमऽइविसमं ॥२२॥ “संसारभावनास्वरूपम्” ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ जिणवयणविरहिओ इह, मोहमहातिमिरपडलपडिहणियो । जीयो वियारवोक्कंत येयणाविवससव्वं गो રા 241 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८६२४-८६६० ॥२५॥ संसारभावनास्वरूपम् – तापस श्रेष्ठिनः दृष्टान्तः - एकत्वभावनास्वरूपम् इगिविगलिंदियजलथल - खयराऽऽदिविचित्ततिरियजोणीसु । सव्वसुरमणुयजोणीसु, नरएसु य भमडिओ बहुसो ॥ २४ ॥ | वहबंधणधणहरणाऽ- वमाणगुरुरोगसोगसंतावा । पत्ता विचित्तरूवा, बहुसो एक्केक्कजातीसु उड्ढं तिरियमऽहे वा, लोयपएसो बि नत्थि सो को वि । पत्ताइं जत्थ बहुसो, न जम्मजरमरणपभिईणि ॥२६॥ | भोगोवक्खरदेहत्त- बंधवहणाऽऽड़कारणत्तेण । बहुसो वि रूविदव्याणि, पत्तपुव्याणि सव्वाणि | सयणसुहिसामिदासत्त - सत्तुभावेहिं परिणया सव्वे । जीवा अणेगसो च्चिय, संसारे संसरतस्स ॥२७॥ ॥२८॥ ॥३३॥ “तापसश्रेष्ठिनः दृष्टान्तः" हद्धी! उच्चियणिज्जो, संसारो जत्थ णिययजणणी वि । मरिऊण होइ दुहिया, पिया य मरिऊण पुण पुत्तो ॥ २९॥ सोहग्गरूचगव्यं समुव्यहंतो जुवा वि मरिऊण । तत्थेव नियसरीरे, जायइ जम्मि किमित्तेण ॥३०॥ जणणी वि भवंडतरपत्त - पुत्तपिसियं पि भक्खए जं च । ही! एतो वि किमऽन्नं, कटुं दुट्ठम्मि संसारे ॥३१॥ | सामी भिच्चो भिच्चो वि, नायगो नियसुओ वि हवइ पिया । जणगां वि चेरिबुद्धीए, हम्मए थी! भवसरूवं ॥३२॥ केत्तियमेत्तं भण्णइ, विविहऽच्छेरयनिहिम्मि संसारे । तावससेट्ठिव्य चिरं, विणडिज्जइ जत्थ जंतुगणो तथाहि-कोसंबीनयरीए, तावससेट्ठि ति आसि सुपसिद्धो । सद्धम्मबाहिरमई, महयर आरंभकरणपरो अच्चन्तगेहमुच्छा-गढिओ मरिउं सए च्चिय गिहम्मि । कोलत्तेणुववन्नो, जाईसरणं च से जायं अन्नम्मि अवसरे तस्स, सूणुणा तस्स चेव कज्जेणु । संवच्छरियविहाण, पारद्धं गुरुपबंधेणं सयणा माहणसमणा, निमंतिया तन्निमित्तमोक्खडियं । मंसं सूयारीए, मज्जासऽऽईहिं तं च हडं अह गिहवइभीयाए, परमंसंडतरम पाउणंतीए । सो च्चिय कोलो हणिओ, झडत्ति तीए उवक्खडिओ तत्तो मओ य सो पुण, तत्थेव घरम्मि पन्नगो जाओ । सूयारिदंसणेण य, मरणमहाभयवसट्टेण सरिया जाई तेणं, तीए वि हु सूवयाररमणीए । पकओ बोलो मिलिओ, जणो वि निहओ भुयंगो सो ॥४०॥ कयपाणच्चागो पुण, नियपुत्तस्सेव पुत्तभावेणं । संयुत्तो सरिऊण य, जाई एवं विचिंतेइ कह नियपुत्तं पियरं, वहुं च जणणि उदाहरिस्सामि । इइ कयसंकप्पो सो, मोणेणं ठाउमाऽऽरद्धो पत्तो कुमारभावं, कालेण समागओ तहिं नाणी । धम्मरहो नाम गणी, समोसढो बाहिरुज्जाणे नाणाऽऽलोएण पलोइयं च को बुज्झिहि त्ति तेण परं । मुणिओ मोणव्वइओ, सो च्चिय तो साहुणो दोणि ॥ ४४ ॥ पुव्यभवप्पंडिबद्धं, गाहं सिक्खविय पेसिया तस्स । पासम्मि बोहणत्थं, तेहिं गंतूण पढिया य ॥४५॥ “तावस! किमिणा मोणव्वएण, पडिवज्ज जाणिउं धम्मं । मरिऊण सूयरोरग, जाओ पुत्तस्स पुत्तो ति" ॥४६॥ अह सो नियभववित्तं, सोऊणं तक्खणेण पडिबुद्धो । सूरिसमीये गंतुं, पडियन्नो तित्थयरधम्मं अलमेत्थ पसंगेणं, संसारे तिक्खदुक्खलक्खाई । पत्ताइं पाविही तह, जीवो धम्मं जड़ न काही | इय खवग ! महादुहहेउ - भूयभवभावगुज्जुत्तो । भवसु तहा जह पत्थुय - मडत्थं लीलाए साहेसि [संसारो] ॥४९॥ ॥३९॥ ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ ॥४७॥ ॥४८॥ “एकत्वभावनास्वरूपम्" રૂકા ॥३५॥ ॥३६॥ ॥३७॥ ॥३८॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ जेणं चिय संसारो, एस अणिच्चत्तणेण वत्थूण । अणुवलभणिज्जसरणो, तेणेव जियाण एगतं एगत्तभावणं ता, पइसमयपवड्ढमाणसंवेगो । भावसु छिन्नममत्तो, तत्तं हिययम्मि काऊण एगो आया संजोगियं तु, सेसं इमस्स पाएण । दुक्खनिमित्तं सव्वं, मीत्तुं, मज्झत्थभावं तु जं एक्को च्चिय जीवो, सुहं दुहं वा भवम्मि अणुभवइ । न हु तस्स को वि बीओ, सो वि न अन्नस्स कस्साऽवि ॥ ५३ ॥ एगो एक्को च्चिय सोयंताण, चेव मज्झओ जाइ बंधूणं । न य तं अणुगच्छंती, पियपुत्तकलत्तमित्तजणा ॥५४॥ एक्को करेड़ कम्मं, एक्को च्चिय तम्फलं पि भुंजेइ । जायइ मरइ य एक्को, एक्को हु भवंतरं सरइ ॥५५॥ को केण समं जायइ, को केण समं च परभयं जाइ । को कस्स किं करेइ, कस्स वि को किं च फेडेइ ॥५६॥ अणुसोयइ अण्णजणं, अन्नभवऽन्तरगयं तु बालजणो । न य सोयइ अप्पाणं, किलिस्समाणं भवे एक्कं ॥५७॥ संतं पि समत्थपयत्थ - वित्थरं बज्झमुज्झिउं झति । परलोगा इहलोगे, आगच्छ गच्छ एक्को ॥५८॥ एक्को नरयम्मि दुहं, सहइ न भिच्चा न बंधुणो तत्थ । एगो सग्गे वि सुहं, भुंजइ न य से परे सयणा ॥५९॥ एक्को च्चिय भवपंके, किलिस्सइ नेव से वरायस्स । इट्ठो दिट्ठिपहे वि हु, निवडड़ समसोक्खदुक्खसहो ॥६०॥ 242 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८६६१-८६६६ परसहायानिच्छोपरी वीरविभुदृष्टान्तः - अन्यत्वभावनास्वरूपम् - सुलसपरिहासेन शिवस्य वैराग्यम् | एत्तो च्चिय तिब्बुवसग्ग-वग्गदुक्खे वि नो अवेक्खंति । परसाहेज्जं मुणिणो, वीरो व्य सहति किं तु सयं ॥६१॥ तहाहि "परसहायानिच्छोपरी वीरविभुदृष्टान्तः" कुंडग्गामपुरप्पहु-पसिद्धसिद्धत्थपत्थिवंडगरुहो । नियजम्मजणियतिहुयण-परममहो सिरिमहावीरो ॥६२॥ भत्तिभरनमिरसामंत-मंतिमणिमउडलीढपयवीढं । आणापडिच्छकिंकर-नरनियरं रज्जमवहाय ॥६३॥ जयजयरवमुहरमिलत-तियसकीरंतपूयपब्भारो । परिचत्तपेमबंधुर-बंधुजणो गहियसामण्णो । ૬૪ पढमे च्चिय दिक्वदिणे, कुम्मारग्गामबाहिरुद्देसे । वस॒तो गोयेणं, भणिओऽणज्जेण किर एवं ॥६५॥ देवडज्जय! जाय अहं, गेहे गंतूण पडिनियत्तेमि । ताव तुमं मम यसभे, सम्म एए निएज्जासु ॥६६॥ एवं भणिउं तम्मि, गयम्मि यसभा जहिच्छमडडमाणा । अडविं अणुप्पविट्ठा, उस्सग्गठियस्स जयगुरुणो ॥६॥ खणमेतेणं च समागओ य, वसहे अपेच्छमाणो सो । ते कत्थ गय ति जिणं, पुच्छड़ संजायसंतायो ॥६॥ पडिवयणमडलभमाणो, सव्वत्तो पहिउं समारद्धो । ते वि य वसभा सुचिरं, चरिउं जिणपासमडल्लीणा ॥६९॥ इयरो वि सयलरयणिं, परियडिउं तं पएसमडणुपत्तो । पेहेइ निययवसभे, रोमंथते जिणसमीये ॥७॥ नूणं नूमिय देवडज्जएण, हरणट्ठया इमे धरिया । कहमऽन्नहा न कहिया, मए बहुं पुच्छिएणाऽवि ॥१॥ इय कुवियप्पवसुप्पन्न-तिव्वकोवो जयेण सो गोवो । आकोसिंतो निठुर-मुवट्ठिओ जयगुरुं हणिउं ॥७२॥ एत्यंतरम्मि ओहीए, सुरवई पेच्छिऊण जयपहुणो । तारिसमऽवत्थमुप्पित्थ-माणसो झत्ति ओइन्नो ॥७३॥ निमच्छिऊण गोवं, तिपयाहिणपुव्वगं जिणं नमिउं । भालयलविरइयंजली, भत्तीए भणिउमाऽऽढतो ॥४॥ संवच्छराइं बारस, एत्तो होहिंति तुम्ह उवसग्गा । ता देह ममाडएस, जेणुज्झियसेसकायव्यो ॥७५॥ नरतिरियतियसविहिए, उवसग्गे पडिखलेमि पासठिओ । जयपहुणा संलतं, सुरिंद! तं कुणसि सव्वमिमं ॥७६॥ नवरं इमं न होही, नो हूयं भवइ नेव कइया वि । जं पुयविहियदुव्विलसि-उत्थकम्माण निज्जरणं ॥७७॥ साणिज्झेणं कस्स वि, भवेज मोत्तुं सयं समणुभवणं । दुक्कतवचरणं वा, जीवाण भवे भमंताणं ॥८॥ एक्को च्विय सुहदुक्खे, जीयो अणुभयइ कम्मपरतंतो । उवयारऽवयारकरा, तदऽवेक्वच्चिय परे होति ॥७९॥ एवं जिणेण भणिए, सक्को नमिउं गओ जहाऽभिमयं । दुस्सहपरीसहे सहइ, एगगो भुवणनाहो वि ॥८॥ इय जड़ चरमजिणो वि हु, एक्को च्चिय सहइ दुक्खसोक्खाइं । ता कह न खवग! एगत्त-भावणाभावगो होसि॥८१॥ जेणं चिय संतेसु वि, सयणाऽऽइविचित्तबज्झवत्थूसु । एगत्तमंऽगिणो तेण, ताणमऽन्नोन्नमऽन्नतं . ॥२॥ “अन्यत्वभावनास्वरूपम्" - भुंजंताण सयंकड-कम्मफलं भिन्नभिन्नमंडगीणं । को कस्स एत्थ सयणो, भवेज्ज को वा परजणो वि ॥८३॥ अन्नो देहाउ जिओ, अन्नो य इमाउ सयलविभवाउ । अन्नो च्चिय पियपिइपुत्त-मित्तसयणाऽऽइयग्गाओ ॥८४॥ एए वि जियादउन्ने, सच्चित्ताऽचित्तवित्थरा सव्ये । ता काउ खमं से अप्प एत्तो च्चिय नयसमुत्थ-तिक्खदुक्खोवहम्ममाणंडगो । अणुसासिओ सिवेणं, जेट्ठो भाया सुलसनामो ॥८६॥ तथाहि "सुलसपरिहासवचनेन शिवस्य वैराग्यम" नगरम्मि दसन्नपुरे, सुलसो य सियो य भायरो दोन्नि । निवसंति परोप्परपउर-पणयपडिबद्धदढचित्ता ॥८॥ नवरं पढमो अइनिबिड-कम्मगंठित्तणेण जिणधम्म । सद्दहइ न भन्नंतं पि, हेउदिटुंतजुतीहिं ૮૮ बीओ पुण अइलहुकम्मयाए, पडिवन्नतित्थयरधम्मो । जइपज्जुवासणाऽऽइस, पयट्टइ सिट्टचेट्टा ॥८९॥ अच्वंतपावपडिबद्ध-माणसं जेट्ठभाउगं च सया । अणुसासइ कीस करेसि, भाय! असमंजसाइं तुमं ॥०॥ किं नो पेच्छसि आउं, सछिड्डकरकमलकलियसलिलं व । गलमाणमडणुक्खणमंडग-चंगिमं पि हु पणस्संतिं ॥९१॥ किं वा न पेच्छसि सिरिं, हायंतिं सरयमेहसोहं च । विहडंतं पियजणसंग-मं पि सरियातरंगं य । किं या न पेक्खसि सयं, पइदिणमरमाणमाणवसमूहं । विविहाऽऽवयाऽवगाढं, महासमुदं व. जियलोयं ॥१३॥ जेणेयं नरयनिवास-कारणं घोरपावमाउडयरसि । उज्जमसि न थेवं पि हु, तवदाणदयाऽऽइधम्मम्मि ॥९४॥ सुलसेण जंपियं मुद्ध!, धुत्तलोगेण विनडिओ तं सि । सोसेसि जो नियतणुं, तवसा दुहहेउभूएण ९५॥ वियरसि य किलेसज्जिय-मत्थं तित्थाऽऽइएसु णिच्वं पि । जीवदयारसियमणो, ठवसि न चरणं पि धरणीए॥९६॥ 243 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८६६७-८७३३ अशुचिभावनास्वरूपम् - शुचिवोद्रस्य दृष्टान्तः एवंविहस्स य तुहं, सिक्खादाणेण नउत्थि मे कज्जं । को पीडइ अप्पाणं, पच्चक्खसुहं विमोत्तूणं ९॥ इय सपरिहासभाउग-वयणाई णिसामिउं सियो विलिओ । इममेव य वेरग्गं, समुव्यहंतो सुगुरुमूले ॥९८॥ पव्वइउं उग्गतवं च, सुचिरकालं चरित्तु कालगतो उववन्नो क्यपुण्णो, देवत्तेणउच्चुए कप्पे ॥१९॥ सुलसो वि विहियपाव-प्पबन्धमडच्वन्तमज्जिऊण मओ । उबवण्णो नेरइओ, तइयाए नयपुढवीए ॥८७००॥ अणवरयदहणताडण-बंधणपामोक्खभरिदक्खाई। विसहइ तहिं च कलुणं, विलवंतो गुत्तिखित्तो व्य अह तं तहाविहं पेच्छिऊण, ओहीए पुवपणएण । सो देवो तस्संडतिय-मोयरिउं भणिउमाउडढतो R किं पच्चभिजाणसि भद्द!, नेव तो सो ससंभम भणइ । को मणहररुवधरं, देयं न तुम बियाणाइ । ॥३॥ ताहे तियसेणं पुव्य-जम्मरुवं जहट्ठियं तस्स । उवदंसियं तओ सो, पच्चभिजाणित्तु तं सम्म ईसि सवियासचक्खू, भणइ कहं दिव्यदेवरिद्धीयं । उवलद्धा तुमए भाय!, कहसु तियसेण तो वुत्तं ॥५॥ भद्द! मए दुक्कतव-विसेसतज्झायझाणजोगेहिं । देहो क्यत्थिओ तह, जह रिद्धिमिमं समणुपत्तो દા तुमए पुण बहुविहलालणाहिं, पुढेि तणुं नयंतेणं । धणसयणाऽऽइनिमित्तं, पावाणि सया कुणंतेणं ॥७॥ सासिज्जतेण वि धम्मकम्म-विसए पमायवसगेण । तह कहवि पट्टियं जह, एवंविहवसणमाडवडियं ॥८॥ एयं पि नेव नायं, जीवाओ जहा इमं सरीरं पि । अन्नं धणसयणा वि हु, विहुरे ताणाय न हवंति ॥९॥ एत्तो च्चिय भद्दय! सीय-तावछहवेयणाओ विसहति । देहे दुक्खं हि महा-फलं ति मुणिणो विचिंतिता ॥१०॥ सुलसेण जंपियं संपयं पि, तं मज्झ संतियं देहं । जइ एवं ता भाउय!, जाएहि जहा सुही होमि ॥११॥ देयेण जंपियं भाय!, जीयरहिएण जाइएण गुणो । को? तेण संपयं ता, विसहसु पुव्वं कयं कम ॥१२॥ इय तमउंणुसासिऊणं, असक्कपडियारवसणमुवलब्भ । देवो गओ सुराऽऽलय-मियरो नरए चिरं वुत्थो ॥१३॥ एवं सरीरथणसयण-भिन्नमुवलक्खिऊण खवग! तुमं । जीवदयापडिबद्धो, थम्मे च्चिय उज्जओ होज्जा ॥१४॥ “अशुचिभावनास्वरूपम्" - जेणं चिय देहाओ, अण्णतं ततओ य जीयस्स । तेणं चिय सो सिद्धाउ-वत्थो च्चिय दव्यभावसुई . ॥१५॥ इहरा तदडणण्णता. न सव्वहा दव्वभावसइभावो । जीवस्स धुवं जायइ, देहस्स सया वि असइत्ता ॥१६॥ तस्साऽसुइत्तणं पुण, पढम चिय सुक्कसोणिउट्ठाणा । अणवरयम मेज्झरसाड-सायणनिप्फत्तिओ य तहा ॥१७॥ जंबालपडलगाढाड-वेढणओ जोणिनिग्गमाओ य । पूइथणछीरपाणाओ, पबलदुग्गंधभावाओ ॥१८॥ रोगसयवाउलता, निच्चं पि पुरीसमुत्तधरणाओ । नवछिड्डगलंतुब्भड-बीभच्छमलत्तणाओ य ॥१९॥ असुइप्फुन्नधडस्स य, समत्थतित्थुत्थसुरहिसलिलेहिं । आजम्मं धोयाण वि हु, थेवं पि अलद्धसुद्धिस्स ॥२०॥ जो पुण असुइसरुवे, एत्थं सुइवायवाउलो भमइ । सुइवोद्दमाहणो इव, सोऽणत्थपरंपरं लभइ ॥२१॥ तथाहिएगम्मि महानगरे, वेयपुराणाऽऽइसत्थकुसलमई । एगो विप्पो सुइयाय-हसियनीसेसपुरलोगो ॥२२॥ करधरियकुसऽक्खयमिस्स-वारिजुयतम्बभायणो भमइ । असुइयमिमं ति सव्यं, अब्भोखिंतो पुरपहेसु ॥२३॥ सो अन्नया विचिंतइ, वसिमे वसिउं न जुज्जए मज्झ । असुइजणसंगदुढे, एत्थं हि सुइत्तणं कृतो ॥२४॥ ता जलनिहिणो दीये, कम्मि वि जणविरहियम्मि गंतूण । अच्छामि उच्छुमाऽऽईहिं, पाणवितिं पकप्पिंतो ॥२५॥ एवं कयसंकप्पो, परतीरपयट्टजाणवत्तेण । उयहिं विलंघिऊणं, थक्को सो उच्छुदीवम्मि રદા उच्छुमऽतुच्छं छुहिओ, जहिच्छमडणुवासरं च भुंजतो । पडिभग्गो उच्छुच्छल्लि-छणियवणो परं भोज्जं ॥२७॥ अवलोयंतो पेच्छड़, एगत्थ समुद्दभिन्ननायस्स । यणिणो उच्छुरसेणं, उप्पाइयदढविरेयस्स ॥२८॥ उच्चारं उच्छृणं, हेट्ठा निस्संकमाणसो तं च । पिंडीभूयं उच्छुप्फलं ति, भक्खेउमाउडरद्धो ॥२९॥ कालेण तस्स वणिएण, दंसणं तेण कहवि संपन्नं । सह संवासाउ च्चिय, जाया य परोप्परं पीई भोयणकाले पुच्छा, किं भवसि तेण जंपियं इक्छं । विप्पेण भणियमिक्खु-प्फलाइं किं लहसि नो एत्थ ॥३१॥ वणिएणं संलतं, इक्खूण फलाई नेव जायंति । इयरेण भणियमाऽऽगच्छ, जेण दंसेमि इण्हिं पि ॥३२॥ ताहे कढिणीभूया, विट्ठा हेट्ठिया य इक्खूण । सा तेण दंसिया से, भणियं वणिएण तो एवं ॥३३॥ ___ "शुचियोद्रस्यदृष्टान्तः” 244 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८७३४-८७६८ अर्थकामानाम् अशुभत्वम् - आश्रवसंवर-निर्जराभावनानां स्वरूपम् हा! हा! महायस! विमो-हिओ सि एसो उ मज्झ उच्चारो । एवं सोउं विप्पो, विचिगिच्छं परममावन्नो ॥३४॥ भणइ कहं भद्द! एवं, वणिएणं पच्चओ तओ विहिओ । तदडवरयोसिरिउच्चार-कढिणसमरूवहेऊहिं ॥३५॥ परमं सोगमुवगओ, विप्पो तद्देसगामिनावाए । आरुहिऊणं पुणरवि, निययं ठाणं समणुपत्तो રેદા इय इहलोए वि भवंति, पाणिणो गाढसोयगहगहिया । एवंविहाणऽणत्थाण, भायणं अमुणियसरुवा ॥३७॥ परलोए पुण असुई-जुगंछणुब्भूयपावपसरेण । पावेंति हीणजोणीसु, णेगसो जम्ममाईणि ૨૮ ता खवग! देहविसयं, असुइत्तं सव्वहा वि मुणिऊणं । परमसुइतनिमित्ते, थम्मे च्चिय उज्जमं कुणसु ॥३९॥ अन्ने उ पत्थुयम्मि, एत्थं असुइत्तभावणाठाणे । असुहत्तभावणं उव-इसंति तो तं पि पयडेमि ૪૦ “अर्थकामानांअशुभत्वम्" - यज्जिय जिणिंदधम्म, न सुहं भुवणे वि विज्जए अन्नं । कज्ज वा ठाणं या, कहिंचि मच्चे व सग्गे वा ॥४१॥ थम्मउत्थकामभेया, तिविहं कज्जं मणिच्छियं तत्थ । धम्मो च्चिय सुहकजं, असुहा पुण अत्थकामा उ॥४२॥ वइराण रायहाणी, आयासकिलेससोगदुहखाणी । सावज्जाऽऽरंभपयं, पायाण परा य सूईया ॥४३॥ कुलसीलठिइविडंबी, सयणेहि वि सह विरोहकारी य । कुगईकारणमऽत्थो, अणत्थसत्थाण पंथो य ॥४४॥ लज्जाका विलीणा, तुच्छा आयाससाहणिज्जा य किंचि मुहे महुरा. वि हु, दुहाऽवसाणा सुबीभच्छा ॥४५॥ धम्मगुणहाणिजणगा, भयबहुला. अप्पकालिया घोरा । संसारबुड्ढिजणगा, कामा कामिज्जमाणा वि ॥४६॥ सनरयतिरियगणम्मि, समाणुसाऽमरजणम्मि संसारे । निरुवद्दयं न किंचियि, विज्जइ ठाणं पि जीवाणं ॥४७॥ बहुविहदुहाऽऽउलला, परव्यसत्ता महंतमोहत्ता । तिरिएसु वि न सुहत्तं, नरए पुण तं कुओ चेव ॥४८॥ तह गमजम्मदारिद्द-रोगजरमरणविप्पओगेहिं । अभिभूएसुं मणुएसु, नउत्थि.थेवं पि हु सुहत्तं ॥४९॥ मंसवसण्हारुरुहिरऽट्ठि-विट्ठमुत्तंऽतपयइकलुसम्मि । नवछिड्डपज्झरते, तद्देहे वि हु सुहत्तं किं? ॥५०॥ पियविप्पओगसंताव-चवणभयगब्मभवणचिंताहिं । विहिएहिं दुक्खेहिं, अभिक्खणं खिज्जामाणाणं ॥५१॥ ईसाविसायमयलोह-पमुहदढभावयेरिएहिं पि । देवा वि निच्वं नडिया, ता कतो ताण वि सुहत्तं ॥५२॥ सव्वाऽवत्थासुं पि हु, असुहसरूवे भवम्मिजं किंचि । जीयो इमो किलिस्सइ, पावाऽऽसवविलसियं तं से ॥५३॥ “आश्रवसंवरनिर्जराभावनानां स्वरूपम्" - पावस्स आसवो सो, पाणवहाऽऽईहिं तह कसाएहिं । अनिरुद्धिंदियमणवइ-काएहिं अविरईए य . ॥५४॥ मिच्छत्तवासणाए य, पाणिणो आइयंति जं पायं । अच्वंतभूरिसलिलं, भूरिदुवारो तडागो व्य ॥५५॥ तथाहिजह सव्वओ असंवुड-वियडदुवारेहिं कलुससलिलभरो । पविसइ सरोवरम्मि, कतो वि अपत्तपडिखलणो ॥५६॥ तह इहई पि हु जीये, पाणवहाऽऽईहिं गरुयदारेहिं । निच्वं असंवुडौहैं, संगलइ पभूयपावभरो . ॥५॥ तो तेणं पडहत्थो, मच्छाऽऽईण व अणेगदुक्खाण । आभागी होइ जिओ, ता बज्जसु आसवं खवग! ॥५८॥ आसवयसगो सत्तो, संतावं तिव्यमुव्यहइ जम्हा । ता पाणयहाऽऽइविरम-णेण तस्संवरं कुणसु ॥५९॥ सव्याजयअप्पतुल्ला, सवरियाऽसेसआसयदुवारो । जीयो न तलागो इव, पूरिज्जइ पावसलिलेहिं तथाहिजह संवरियदुवारे, न पविस्सइ पाणियं वरतलागे । तह ठवियाऽऽसवदारे, जीवम्मि पावनिवहो वि ॥१॥ ते धण्णा ताण नमो, तेहिं समं निच्च होज्ज संवासो । जे पिहियाऽऽसयदारा, दूरं पावस्स विहरंति ॥२॥ संवरियसव्वआसव-दुवारपसरो य संपयं सम्मं । नवमं विणिज्जराभाय-णं पि भावेसु खवग! जहा ॥३॥ पुव्वं सयं कडाणं, सुदुप्परक्कंतदुट्ठचिन्नाणं । कम्माण वेयणाओ, भणिओ मोक्खो जिणेहिं तहा ॥४॥ तिव्वसुहऽज्झवसाया, सव्वासिं चेव कम्मपगडीणं । अनिकाइयाण पायं, जायइ सज्जो विनिज्जरणं ॥६५॥ छट्ठट्ठमदसमदुवालसद्ध-मासाऽऽइणा विचित्तेण । तवसा पुण कम्माणं, निकाइयाणं पि निज्जरणं ॥६६॥ तायेइ तयारुहिराऽऽइ-धाउणो तह य सव्वकम्माणि । तेण तयो ति निरुतं, तबस्स समयन्नुणो विति ॥६॥ तत्थ किर वेयणेणं, नेरइयाऽऽईण कम्मनिज्जरणं । सहभावाभरहाऽऽईण, संबपमहाण पुण तवसा ॥८॥ 245 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ९७६६-८८०२ लोकस्वरूपभावनास्वरूपम् - शिवराजर्षेःदृष्टान्तः - बोधिदुर्लभभावनास्वरूपम् तथाहिनेरइयाऽऽईणं किर, अणवरयविचित्तदुक्खतवियाणं । कम्माण विणिज्जरणं ति, कित्तिज्जइ देसओ नवरं ॥६९॥ भरहाऽऽईणं पि दढं, विसुज्झमाणप्पहाणभावाणं । सिटुं सिद्धते वि हु, तहाविहं कम्मनिज्जरणं ॥७०॥ संबपमुहा य कुमरा, हरिपुच्छियनेमिनाहकहियम्मि । बारसवरिसाणंडते, बारवड़पुरीविणासम्मि ॥७१॥ संवेगसमाऽऽवण्णा, नेमिसमीवम्मि गिहिउं दिक्खं । दुक्करतवचरणरया, कम्मविणिज्जरणमांकरिंसु ॥७२॥ किंचजह सीयतावपवणा-वधूयमुवसुसइ वारि पोराणं । पडिरुद्धाऽवरसलिल-प्पयेससलिलासयल्लीणं ॥७३॥ तह पिहियाऽऽसवजीवत्थ-पुव्यपावं पि निज्जरमुवेड़ । तवनाणझाणउज्झयण-पमुहसुविसुद्धकिरियाए ॥७४॥ एवं च तुमं सुंदर!, विणिज्जराभावणासुनावाए । कम्मजले दुतारे, तारेज्जसु खिप्पमडप्पाणं ॥५॥ ___ "लोकस्वरूपभावनास्वरूपम्" - अह सव्यसंगचागी, सम्म होऊण निज्जराभागी । भावणनवगाऽऽसंगी, लोगठिई पि हु तुममरागी ॥६॥ भावेज्ज जहसरुवं, उड्ढे तिरियं अहो य उवउत्तो । तग्गयसच्चित्ताऽचित्त-सव्वदव्वस्सरुवं च ॥७७॥ उड्ढं तियसयिमाणाऽऽदी, दीयोयहिणो असंखया तिरियं । हेट्ठा य सत्त पुढयी, लोगसभायो इय समासा ॥८॥ अजहटिइलोगट्टिइ-नाया न सज्जसाहगो होइ । तस्सम्मपरिन्नाणा, होड़ च्विय तावससियो व्य ॥७९॥ तथाहि __"शिवराजर्षेः दृष्टान्तः" गयउरनगरे राया, नामेण सिवो विहाय रज्जसिरिं । घेत्तुं तावसदिक्खं, वणवासविहारमडल्लीणो ૮થી सूरुम्मुहनिम्मियनिमेस-रहियनयणो तवेइ गाढतवं । कुणइ य नियसमयडणुरूव-सेसकिरियाकलावं च एवं तवं तर्वितस्स, तस्स पयईए भद्दयत्तेण । विभंगं संजायं, कम्मखओवसमओ य तहा अह सत्तदीयसायर-मेतं लोयं वियाणिउं तेणं । सियरायरिसी तुट्ठो, विसिट्टनियनाणपसरेण ॥८३॥ तो आगंतूणं गय-पुरम्मि तियचच्चरेसु लोयाणं । साहेइ इहं लोए, दीयोदहिणो परं सत्त ૮૪ तत्तो परेण लोगो, वोच्छिन्नो एवमऽमलनाणेण । जाणामि पासामि य, कयलठियकुवलयफलं व ॥८५॥ ताम्म य समए सामी, समोसढो तत्थ चेव वीरजिणो । भिक्खडटुं च पविट्ठो, गोयमसामी वि नयरम्मि ॥८६॥ अह सत्तोयहिदीय-प्पवायमाऽऽयन्निऊण लोगाओ । विम्हियमणो नियत्तिय, समुचियसमयम्मि जयनाहं ॥७॥ पुच्छेइ गोयमो नाह!, केत्तिया एत्थ दीवजलनिहिणो । जयगुरुणा संलत्तं, अस्संखा सिंधुदीय ति ॥८॥ एवं जिणप्पणीयं, लोगाओ निसामिउं सियो सहसा । संकाकंखो-यहओ, जावडच्छइ ताव विभंगं ॥८९॥ परिवडियं से खिप्पं, ताहे अन्वन्तभत्तिभरभरिओ । सम्मन्नाणनिमित्तं, आगंतुं वंदए वीरं ॥९ ॥ सिरविरइयकरकमलो, ठाउं सन्निहियभूमिभागे य । जिणययणणिहियचक्खू, उज्जुत्तो पज्जुवासेड़ ॥११॥ अह तियसतिरियनरसंकुलाए, परिसाए तस्स य जिणिंदो । लोगसरुवं सासइ, सवित्थरं धम्मसारं च ॥१२॥ तं च निसामिय सम्म, पडिबुद्धो जिणवरस्स पासम्मि । पव्यजं पडिवज्जड़, स महप्पा कयतवच्चरणो ॥१३॥ कम्मट्ठगंठिमऽइनिठुरं पि, लीलाए निट्ठवेऊण । अरुयमज्जम्ममडमरणं, सिवमक्खयसोखमणुपत्तो ॥१४॥ इय मुणियजगसरुयो, निस्संगो पत्थुयऽत्थसिद्धिकए । खवग! मणागं पि मणो-णिजंतियं मा धरेज्जासु॥१५॥ जहठियलोगसरूवं, वियाणमाणो य पयहिय पमायं । बोहीए दुल्लहत्तं, परमं भावेसु खवग! जहा ॥६॥ "बोधिदुर्लभंभावनास्वरूपम्" - कम्मपरतंतयाए, इओ तओ भववणे भमंताणं । जीयाण जंगमतं पि, दुल्लभं जं सुए भणियं ॥९॥ अत्थि अणंता जीया, जेहिं न पत्तो तसतपरिणामो । उप्पज्जति चयंति य, पुणो वि तत्थेव तत्थेय ॥९८॥ कहकहवि जंगमत्ते, पत्ते पंचिंदियत्तम इदुलहं । जलथलखहयरजोणी-चक्के चिरसंचरणओ य ॥९॥ तम्मि वि अगाहजलजलहि-खित्तजुगसमिलजोगनाएणं । दुलहं चिय मणुयत्तं, तम्मि वि अइदुल्लहा बोही ॥८८००॥ जमऽकम्मभूमिअंतर-दीवेसुं मुणिविहारविरहेण । कतो पायं बोही, कम्मगभूमीए अंतो वि ॥१॥ छण्हं खंडाणं खंड-पंचगं सव्वहा वि हु अणज्जं । मज्झिमखंडस्स बहि, धम्माडणरिहं ति काऊण ॥२॥ 246 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८८०३-८८३७ वणिकपुत्रदृष्टान्तः जं पि भरहम्मि लटुं, छठें खंडं अउज्झमज्झेणं । सड्ढपणुवीसजणवय-वज्जमडणज्जं तयं पि दढं ॥३॥ सद्धपणवीसजणवय-मतं चिय खित्तमाऽऽरियं जं च । तत्थ वि साहविहारो, कहिंपि कइया वि जं भणियं ॥४॥ रायगिह मगह' चंपा, अंगा' तह तामलित्ति वंगा य । कंचणपुरं कलिंगा, वाणारसि चेव कासी य ॥५॥ साएय कोसला गय-पुरं च कुरु सोरियं कुसट्टा य । कंपिल्लं पंचाला', अहिछत्ता जंगला चेव ॥६॥ बारवती य सुरट्ठा", मिहिल विदेहा य वच्छ कोसंबी२ । नंदिपुरं संडिब्भा(ल्ला)", भद्दिलपुरमेव मलया य॥७॥ वइराड वच्छ१६ वरणा, अच्छा" तह मत्तियावइ दसन्ना" । सोतीमइ य चेई९, वीइभयं सिंधुसोवीरा ॥८॥ महुरा य सूरसेणा", पावा भंगी य मासपुरि वट्टा(च्छा)?२३ । सावत्थी य कुणाला", कोडीवरिसं च लाढा य५ ॥९॥ सेयविया वि य णयरी, केइयअद्धं च आरियं भणियं । एत्थुप्पत्ती जिणाणं, यक्कीणं रामकण्हाणं ॥१०॥ पुव्वेण अंगमागह-विसयं अह दाहिणेण कोसंबी । अवरेण (घू)थूणविसओ, कुणालविसयं च उत्तरओ ॥११॥ एवं आरियखेत्तं, एत्थ विहारो उ कप्पड़ जईणं । बाहिं पुण नो कप्पड़, जत्थ च नाणाऽऽइ नोसप्पे ॥१२॥ जत्थ उण नेय मुणिणो, सम्मन्नाणाऽऽइगुणरयणनिहिणो । विहरंति वयणकिरणेहिं, हणियमिच्छत्ततमपसरा ॥१३॥ तम्मि पयंडपासंडि-मंडलीचंडवयणपवणेहिं । निरु रूयपूणिया इव, पणोल्लिया दुल्लहा बोही ॥१४॥ इय भो देवाणुपिया!, नाउं बोहीए परमदुलहत्तं । चिरकालभीमभवभमण-ओ तयं पाविऊणं च ॥१५॥ तह कहवि तए किच्चं, निच्चं, अच्चाऽऽयरेण जह तीए । लद्धाए तुडिवसेणं, साफल्लं जायए जम्हा ॥१६॥ लद्धेल्लियं च बोहिं, अरेंतोऽणागयं च पत्थिंतो । अन्नं 'दाई बोहिं, लब्मिसि क्यरेण मोल्लेण ॥१७॥ किंचकत्थइ सुहं सुरसम, कत्थई निरओवमं महादुक्खं । कथइ तिरियाऽऽईणं, दहणंडकणपमुहमऽवि असुहं ॥१८॥ दठूण वि नियदिट्ठीए, किंचि किंचि वि परोवएसेणं । नाऊणं पि हु मूढा, न बोहिमणहं पयजति । ॥१९॥ जह नाम पट्टणगया, मोल्ले सन्ते वि मूढभावेण । न लहंति नरा लाभ, नरभवपत्ता वि तह बोहिं ॥२०॥ तहाचिंतामणिं व मूढा, सम्भावपरिक्खणं अयाणंता । कहमऽवि लद्धं पि हु बोहि-मुत्तमं झत्ति उज्झंति ॥२१॥ गयबोहिणो य पुणरवि, गयेसमाणा वि तं ण पावेति । वणियंउतरदिन्नाइं, रयणाई वणियपुत्त व्य ॥२२॥ तथाहि "वणिकपुत्रदृष्टान्तः" एगम्मि महानगरे, महिब्भजणसंकुले कलाकुसलो । वसइ सिवदतनामो, सेट्ठी सुपसंतनेवत्थो રા तस्स य जरभूयपिसाय-साइणीपमुहदोसहरणाणि । पायडपहायकलियाणि, संति विविहाणि रयणाणि ॥२४॥ ताणि य सो जीवियमिव, महानिहाणं व रक्खड़ सया वि । दसड़ जहा तहा नेव, निययपुत्ताऽऽइयाणं पि ॥२५॥ अह तत्थ पुरे एगत्थ ऊसवे जत्तियाउ कोडीउ । अत्थस्स जस्स तेणं, इन्भेणं तेत्तियथयाओ . ॥२६॥ उमवियाओ नियनिय-धवलहरडग्गेसु ससहरसियाओ । ताओ य पलोइता, भणिओ पुत्तेहिं सो सेट्ठी ॥२७॥ विक्किणसु ताय! रयणाई, कुणेसु अत्थं इमेहिं किं कज्जं । कोडिज्झएहि गेहं, अम्हं पि हु सोहमुव्वहउ ॥२८॥ रुटेण सेट्ठिणा जं-पियं तओ रे! पुणो वि मा एवं । भासेज्जह मह पुरओ, इमाई न कहं पि विक्केमि ॥२९॥ एवमुवलद्धतनि-च्छएहिं पुत्तेहिं मोणमह विहियं । सेट्ठी वि कज्जवसओ, वीसत्थमणो गओ गामं ॥३०॥ पुत्तेहि वि विजणं जाणिऊण, अविमरिसियऽन्नकज्जेहिं । दूरदिसाऽऽगयवणियाण, ताणि रयणाणि दिनाणि ॥३१॥ तविक्कयपत्तपभूयदव्य-कोडिअणुरुवसंखाए । संखधवलाउ गेहे, उमविया उ धयवडा तो ॥३२॥ केवइकालाउ आगयो य, सेट्ठी पलोइउं गेहं । विम्हइयमणो सहसा, पुच्छड़ पुत्ते किमेयं ति ॥३३॥ सिट्ठो य तेहिं सव्यो, वुत्तंतो तो दढं परुटेणं । निठुरगिराहि सुचिरं, निब्मच्छित्ता अतुच्छाहिं। ताणि रयणाणि घेतुं, एज्जह मे मंदिरम्मि इइ भणिउं । कंठे हटेण थरिउं, निच्छुढा निययगेहाओ ॥३५॥ कह ते पुणो वरागा, दूरदिसोवगयवणियपासाओ । निययरयणाणि पावेंति, नृणं सुचिरं भमंता वि ॥३६॥ अहया लभंति ते वि हु, कहिं पि रयणाई देवयाऽऽइवसा । बोही उ न पब्मट्ठा, लब्भइ अच्वंतदुल्लंभा ॥३७॥ 1. दाई = दायिनम्, बोधिदातारम् इत्यर्थः । 247 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८८३८-८८७४ सुवर्णस्याष्टगुणैः धर्मगुरुः परीक्षा-सद्गुरोःस्वरूपम् | किंचजाहे य पावियव्वं, इहपरलोए य होइ कल्लाणं । ताहे च्चिय जिणभणियं, पडियज्जइ भावओ धम्मं ॥३८॥ जह जह दोसोवरमो, जह जह विसएसु होइ बेरग्गं । तह तह विन्नायव्यं, आसण्णो बोहिलाभो ति ॥३९॥ दुग्गे भवकतारे, भममाणेहिं सुइरं पि नटेहिं । इट्ठो जिणोवट्ठो, सोग्गइमग्गो दढं दुलहो। ૪૦થી पत्ते वि हु मणुयत्ते, मोहस्सुदएण दुल्लहो सुपहो । कुपहबहुयत्तणेण य, विसयसुहाणं च लोभेण ॥४१॥ बहुमोल्लरयणनिहिलाभ-सन्निहं पाविऊण तं तम्हा । मा तुच्छसुहाण कए, एमेव य निष्फलं नेसु ॥४२॥ लद्धाए दुल्लहाए वि, कहवि बोहीए एत्थ संसारे । दुल्लहो धम्माऽऽयरिओ, पयडं चिय जेण पेच्छ इमं ॥४३॥ रयणत्थिणो य थोवा, तद्दायारो य जह य लोगम्मि । इय सुद्धधम्मरयण त्थि-दायगा दढयरं नेया ॥४४॥ एत्थ य 'सत्थुत्तकसाऽऽइ-सुद्धधम्मस्स दायगा गुरुणो । साहुतणे जहत्ते, ते पुण पावेंति सुगुरुतं ॥४५॥ |एतो च्चिय णिद्दिट्ठो, विसिट्ठदिट्ठीहिं भावसाहु त्ति । हंदि पमाणठियत्थो, तं च पमाणं इमं होई ॥४६॥ सत्थुत्तगुणो साहू, न सेस इइ णे पइन्न इह हेऊ । अगुणता इति नेओ, दिटुंतो पुण सुवण्णं व ॥४७॥ “सुवर्णस्याष्टगुणैः धर्मगुरुः परीक्षा-सद्गुरोःस्वपम्" - विसघाइ रसायण मंगलत्थ-विणिए पयाहिणाऽऽवते । गरुए अडज्झकच्छे, अट्ट सुवन्ने गणा हों इय मोहविर्स घायइ, सियोवएसा रसायणं होइ । गुणओ य मंगलत्थं, कुणइ विणीओ य जोगो ति ॥४९॥ मग्गाऽणुसारिपयाहिण-गंभीरो गरुयओ तहा होइ । कोहऽग्गिणा अडज्झो, अकुच्छ सइ सीलभावेणं ॥५०॥ एवं दिट्ठन्तगुणा, सज्झम्मि वि एत्थ होंति नायव्वा । न हि साहम्माऽभावे, पायं जं होइ दिद्रुतो ॥५१॥ चउकारणपरिसुद्धं, कसछेयत्तावतालणाए य । जं तं विसघाइरसा-यणाऽऽइगुणसंजुयं होड़ ॥५२॥ इयरम्मि कसाऽऽईया, विसिट्ठलेसा तहेगसारत्तं । अवगारिणि अणुकंपा, बसणे अइनिच्चलं चित्तं ॥५३॥ तं कसिणगुणोयेयं, होइ सुवण्णं न सेसयं जुत्ती । न वि नामरूवमेत्तेण, एवमडगुणो भवइ साहू जुत्तीसुवन्नगं पुण, सुवन्नवन्नं पि जइ वि कीरेज्जा । न हु होइ तं सुवण्णं, सेसेहिं गुणेहिं असंतेहिं ॥५५॥ जे इह सत्थे भणिया, साहुगुणा तेहिं होइ सो साहू । यन्नेणं जच्चसुवन्न-गं व संते गुणनिहिम्मि ॥५६॥ जो साहुगुणरहिओ, भिक्खं हिंडइ न होइ सो साहू । वन्नेणं जुत्तिसुवन्न-गं वसंते गुणनिहिम्मि ॥५॥ उद्दिट्टकडं भुंजड़, छक्कायपमद्दणो घरं कुणइ । पच्चक्खं च जलगए, जो पियइ कहं नु सो साहू ॥५८॥ अन्ने उ कसाऽऽईया, किल एए एत्थ होति नायव्वा । एयाहि परिक्खाहिं, साहपरिक्खेह कायव्या तम्हा जे इह सत्थे, साहुगुणा तेहिं होइ सो साहू । अच्चन्तसुपरिसुद्धेहिं, मोक्खसिद्धिति काऊणं ॥६०॥ इय मोक्खसाहगगुणाण, साहणा देसिओ य जो साहू । धम्मोवएसगिरणा, सो चेव गुरू वि ता एतो ॥६१॥ नीसेससाहुगुणरयणा-लंकियतणुस्स वि गुरुस्स । सविसेसमडसेसजणं, विबोहिउं भण्णइ परिक्खा ॥२॥ सा पुण परलोयपरंमुहस्स, इहलोगबद्धबुद्धिस्स । सद्धम्मवासणाविर-हियस्स विसओ न होइ तहा ॥३॥ वि य, जणणीजणए वि देवयभए । दपरिच्चए चइत्ता, निस्सीकाऊण कं पि नरं ॥४॥ सुयविमुहो गड्डरिया-पवाहमेत्ताऽणुसारिचरिओ य । धम्मऽत्थी वि सबुद्धीए, कट्ठाउणुट्ठाणविहियरुई ॥६५॥ मग्गं पि चरिउकामो, चरमाणो वा मुणी तहारुयो । तस्स वि न चेव जायइ, विसओ एसा गुरुपरिक्खा ॥६६॥ भावियभवनेगुन्नस्स, जंतुणो जायभवविरागस्स । सद्धम्मपरुवगगुरु-गवेसिणो नणु इमा विसओ ॥६ ॥ ता भवभयभीएणं, भविणा सद्धम्मबद्धलक्खेणं । धणवं व दरिदेणं, तरंडमिव जलहिपडिएण ૬૮ળા इह परमपयपुरप्पह-पयट्टपाणीण परमसत्थाहो । सन्नाणाऽऽइगुणगुरु, परिक्खियव्यो गुरु णिउणं ॥६९॥ | तुच्छप्फलो वि एक्को वि, रुवगो जड़ परिक्खिउं गज्झो । परमफलओ गुरू ता, परिक्खियव्यो पयत्तेणं ॥७॥ करितुरयाऽऽइ जह जए, सुगुणं ति मुणिज्जए सुचिंथेहिं । तह सुहगुरू वि नेओ, धम्मुज्जमणाऽऽइलक्खणओ॥७१॥ धम्मडत्थकाममोक्खा, चत्तारि भवंति एत्थ पुरिसत्था । ते सुहगुरुवएसा, लभंति विणा किलेसेणं ॥७२॥ इह जोगिणो कयत्था, विसिट्ठनाणाऽवलोइयपयत्था । दक्खा सायाऽणुग्गह-करणे गुरुसंगमा होति ॥७३॥ तिहुयणभवणऽभंतर-पसरंतऽन्नाणतिमिरभरहरणे । सज्जोइदित्तरुयो, पावपयंगक्खए दक्खो ૭૪ 1. शास्त्रोक्तकषादिशुद्धधर्मस्य । 248 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८८७५-८६११ सद्गुरोः स्वरूपम् ॥७५॥ ॥७६॥ ॥७८॥ ॥७९॥ ॥८०॥ ॥८१॥ ॥८४॥ ॥८५॥ वंछियपयत्थपयडण - परो य न भवेज्ज जइ गुरुपईयो । अंधबहिरं इमं तो, जगं वरायं कहं हुन्तं गच्छइ य समुच्छेयं, जह नाम सुवेज्जययणओ वाही । तह सुहगुरूयएसाउ, कम्मवाही वि विन्नेयो कलिकालकयलियजए, वंछियविविहफलदाणदुल्ललिओ । अक्खंडगुणो सक्खा, होइ गुरु कप्परुक्खो व्व ॥७७॥ सम्मत्तनाणचरणाSS - इएहिं भयजलहितारणसहेहिं । निव्वाणकारणेहि य, गुणेहिं गरुओ गुरू होइ | देसकुलजाइरूवाऽऽइ-गुणजुओ चत्तसव्वसावज्जो । सुहगुरुदिन्नगुरुपओ, पसममहप्पा गुरु भणिओ सयलाऽणत्थनिहाणं, मज्जं यज्जेइ जो सयाकालं । मंसं च असुइमूलं, गुरुतणं तस्स होइ फुडं हलखेत्तगाविमहिसी - घरघरिणीपुत्तभंडववहारो । सीसस्स व गुरुणो वि हु, जड़ ता सरियं गुरुतेण पावाऽऽरंभा सीसस्स, जे उ ते चेव होंति गुरुणो वि । जड़ ता लीलाए च्चिय, भवंडबुरासी अहो ! तिण्णो ॥ ८२ ॥ पाणऽच्चए वि पीडं, परस्स न हु सव्यहा विचिंतेइ | जीवाण जणणिसरिसो, करुणेक्करसो गुरू कहियो ॥८३॥ विसयामिसे पसत्तो, पुरिसो परवंचणे मणं कुणइ । ता जो विसयविरतो, परमत्थेणं स चेव गुरु | निच्चं अकयमऽकारिय- मऽणणुमयं सयलदोसपरिहीणं । बालगिलाणाऽऽइए, संभोइता जहाजोगं | वेयायच्चाऽऽइकारणेहिं, इंगालधूमपरिहीणं । जो उयभुंजड़ उछं, सो च्चिय सच्चं गुरु भणिओ दव्यं खेत्तं कालं भावं च पडुच्च णिच्चकालं पि । जो पडिबंधच्चाई, सो च्चिय सच्चं गुरू भणिआ ॥८७॥ वासांइ महामुणिणो, तवसुसियतणू वि जत्थ पडिभग्गा । तं घोरबंभचेरं, चरंतओ चेव भावगुरू निच्चसमुच्छलणपरं सपरोभयविसयमऽवि कसायऽग्गिं । पसमोवएससलिलेण, जो य उवसामणसमत्थो ॥८९॥ खंत्तिप्पमोक्खदसविह-निम्मलमुणिधम्मगुणमणिगणस्स । रोहणगिरिभूमिसमो, जिणनिद्दिट्ठो स इट्ठगुरू पंचसमिओ तिगुत्तो, जमनियमपरायणो महासत्तो । समयाऽमयरसतित्तो, जो सो भणिओ उ भावगुरू | सक्कयपाययअवहट्ठ- देसीभासाविसेसवयणेहिं । सीसाऽयबोहकुसलो, पियंवओ होइ भावगुरू जह रन्नो रंकस्स वि, तहेव समसरिसचित्तवित्तीए । अक्खंतो सद्धम्मं, भावपहाणो गुरु होड़ समसुहदुक्खो समतिण - मणी य समकणयकयवरो धीरो । समपरिभवसम्माणो, समसुहिसत्तू य होइ गुरु ॥९४॥ सारीरमाणसाऽणेग- दुक्खसंतावतावियजणाण । तुहिणाऽऽयरो व्व सिसिरो, जो होइ गुरुतणं तस्स संवेगगब्भहियओ, सम्मं संवेगगब्भवयणो य । संवेगगब्भकिरियो, जो सो परमत्थओ सुगुरू En ॥८८॥ ॥९०॥ ॥९१॥ · ॥९२॥ ॥९३॥ ॥९५॥ ॥९६॥ | सावज्जऽणवज्जगिरं, जाणइ जो वज्जई य सावज्जं ने निरयज्जं कज्जे च्चिय, वज्जरइ य तं गुरुं सयउ ॥९on सावज्जऽणवज्जाणं, वयणाणं जो न जाणइ विसेसं । वोतुं पि तस्स न खमं, किमंडग ! पुण देसणं काउं ॥ ९८ ॥ ता हेउवायपक्खम्मि, हेऊओ आगमे य आगमिओ । जो स गुरू इयरो पुण, जिणवयणविराहगो जम्हा ॥९९॥ नियमइअवराहेणं, असंगयऽत्थाण पोसगो मूढो । जणयइ परस्स बुद्धिं सव्यन्नू अलियवाई ति ॥८९००॥ | दुरऽहीयकुनयलयमय - विमोहिओ जिणमयं अयाणंतो । 2योत्तुं तमन्नहा वि हु, कुगईए गमेइ सपरुभयं ॥१॥ तुम्हा | ससमयपरसमयविऊ', संविग्गो' सेसयाण संवेगं । जणयंतो मज्झत्थो, कयकरणों' गाहणाकुसलो सत्तुवयारम्मि रओ, दढप्पइन्नो ऽणुवत्तओ' मइमं । अरिहइ जिणिदभणियं, धम्मं परिसाए परिकहिउं ससमयपरसमयविऊ, तित्थियसमयाउ दंसह विसेसं । जिणधम्मस्स अओ सो, उच्छाहं कुणड़ जिणधम्मे सुतत्थं च पयासइ, निस्सेसनएहिं जिणमयन्नू य । उस्सग्गऽववायाणं, जहट्ठियं दंसइ विसेसं संविग्गो सब्भायं, कहेड़ इड़ पच्चओ न इयरम्मि । चरणकरणं चयंतो, चएज्ज सव्यंपि यवहारं | गुणसुट्ठियस्स वयणं, घयमहुसितो व्य पावओ भाइ । गुणहीणस्स न सोहड़, नेहविहीणो जहा दीवो आयारे वट्टंतो, आयारपरूवणे असंकेओ । आयारपरिब्भट्ठो, सुद्धचरणदेसणे भइओ भवसयसहस्सलद्धं, जिणवयणं भावओ चयंतस्स । जस्स न जायं दुक्खं न तस्स दुक्खं परे दुहिए जहथाममुज्जमंतो, संवेगं कुणड़ तह य मज्झत्थो । अब्भुट्टिएऽणुगिण्हइ, कयकरणो गाहणाकुसलो सत्तुवयारम्मि रओ, थिरपरिचियमऽत्थसुत्तमऽ गिलाए । पुणरुत्तवाणिदाणाऽऽइ - गाउ सेहे करावेड़ 1. श्रयतु 1 2. उक्त्वा । 249 ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥५॥ En ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८६१२-८६४६ शीलपालनद्वारे शीलस्वरूपम् सेवेइ नाऽववायं, मियाण पुरओ दढपइन्नो ति [दारं] । अणुवत्तगो अणुयत्तइ, जहजोग्गं बहुविहविणेए ॥१२॥ मइमं जाणइ नियमा, उस्सग्गऽववायगोयरमसेसं । परिणामगाउऽइसीसे य, विविहमयदेसणाजोग्गे ॥१३॥ पढविं पिव सव्वसहं, मेरुं व अकंपियं ठियं धम्मे । चंदमिव सोमलेसं. तं धम्मगरुं पर ૨૪ कालन्नु देसन्न, नाणाविहहेउकारणविहन्न । संगहुबग्गहकुसलं, तं धम्मगुरुं पसंसंति ॥१५॥ लोइयवेड्यलोउत्तरेसु, नाणाविहेसु सत्थेसु । लद्धटुं गहियटुं, तं धम्मगुरुं पसंसंति ॥१६॥ धम्मगुरुसहस्साई, लहइ य जीयो भयेसु बहुएसु । कम्मेसु सिप्पेसु य, अन्नेसु य धम्मचरणेसु । ॥१७॥ जो पुण जिणप्पणीए, निग्गंथे पवयणम्मि धम्मगुरू । संसारमोक्खमग्गस्स, देसओ स इह दुल्लंभो ॥१८॥ जह दीया दीवसयं, पड़प्पएसो य दिप्पए दीयो । दीवसमो धम्मगुरू, अप्पं च परं च दीवेइ ॥१९॥ धम्मन्नू धम्मपरायणो य, सम्मं च धम्मकता य । सत्ताण धम्मसत्थउत्थ-देसगो भण्णए सुगुरु ॥२०॥ चाणक्कपंचतंतय-कामंदकमाऽऽइरायनीईउ । वक्खाणंतो जीवाण, ण खलु अणुकंपओ होइ ॥२१॥ तह जोइसऽग्घकंडाऽऽइ, वेज्जयं मणुयतुरयहत्थीणं । धणुवेयधाउवायं च, परिकहंतो हणइ जीवे ॥२२॥ यावीकूवतडागाइ-गोयरं न खलु देइ उवएसं । जमऽसंखविणासेणं, न होइ थोवाणमडणुकंपा ॥२३॥ एतो च्चिय सो हलसगड-पोयसंगामगोहणाऽऽईसु । उवएस पि हु कहं देइ, सत्तअणुकंपसंजुत्तो ૨૪ ता कसछेयाऽऽइविसुद्ध-धम्मगुणकणगदायगस्सेव । गुरुणो इह पत्थुयभाव-णाए दुलहत्तणं भणियं ॥२५॥ इय भावणाउ बारस, भद्दय! संवेगसारचित्तेण । भावेसु भीमभवभित्ति-भंजणे करिघडाउ व्य ॥२६॥ जह जह दढप्पइण्णो, समणो वेरग्गभावणं कुणइ । तह तह असुहं सुराड-हयं व तिमिरं खयमुवेइ ॥२७॥ पइसमयभावणाभाव-णेण सब्भावनिब्भरं भविणो । मयणं व तिव्यतरजलण-संगमा गलइ चिरकम्म एइ न बंधं नवकम्म, अवितहा भावणापहाणस्स । छिज्जति चिन्भडुब्भड-गंधा सुकुमारियाउ व्य ॥२९॥ अक्खंडचंडमाइंड-किरणकवलियहिमोवलो व्य खयं । बच्चइ कम्मपबंधो, असुहो सुहभावणाहिंतो ॥३०॥ ता सुंदर! दरमउलंत-लोयणो झाणजोगनिदाए । बारसगम संगो भाव-णाण भायेसु भयभीओ ॥३१॥ इय बारसविहभावण-पडलपडिदारमेयमक्खायं । कित्तेमि सीलपालण-पडिदारं पन्नरसमेतो ॥३२॥ "शीलपालनद्वारम्" - सीलं पुरिससहायो, सीलं चारितपालणं भणियं । आसवदारनिरोहा, अहया सीलं मणसमाही ॥३३॥ पुरिससहायो य दुहा, पसत्थओ तह य अप्पसत्थो य । रागद्दोसाऽऽईहिं, कलुसो जो अप्पसत्थो सो ॥३४॥ होड़ पसत्थो चित्तस्स, सरलया पयणुरागदोसित्तं । धम्माऽभिप्पाइत्तं च, एत्थ पगयं पसत्थेणं ॥३५॥ | एयं सुपसत्थसहाय-लक्खणं सीलमडविगलं जस्स । सो मूलगुणाऽधारो, धरिही सेसं पि गुणनियरं ॥३६॥ चयरित्तीकरणाओ, चारितं पुण भवे अणुट्ठाणं । विहिपडिसेहाउणुगयं, आसवविरईए तं च भवे ॥३७॥ जम्हा चरित्तापालण-लक्खणसीलस्स चेव बुढिकए । आसवनिरंभणपरं, इममुवएसं दिसंति जहा ॥३८॥ इंदियदमणं काउं, कसायसेन्नं पि निम्महिय सव्यं । आसवदारनिरोहे, जइज्ज सइ निज्जरापेही ॥३९॥ इंदियकसायहणणा, हणिय च्चिय आसवा जओ होइ । अहियाडडहारे मुक्के, रोगा इव आउरजणस्स ॥४०॥ एत्तो च्चिय सव्येसु वि, जिएसु वटुंति अप्पए व्य मुणी । न य एत्तो वि उयाओ, अन्नो विज्जइ सुगइलाभे ॥४१॥ ता नाणज्झाणेहि, तपोबलेण य बला निलंभित्ता । सव्याऽऽसवदाराई, धारेज्जा अविगलं सीलं ॥४२॥ तह मणसमाहिलक्खण-मऽवि सीलं मोक्खसाहणगुणाणं । जाणाहि मूलकारण-भूयं जम्हा सुए भणियं ॥४३॥ जस्स थिई तस्स तवो, जस्स तवो तस्स सोग्गइ सुलहा । जे अधिइमंतपुरिसा, तयो वि खलु दुल्लहो तेसिं॥४४॥ किंच मणवयणकाया, जे भणिया करणसन्निया तिन्नि । ते थितिमंतस्स गणाय, होति दोसाय इयरस्स ॥४५॥ तम्हा पुरंथिपडिबंध-बंधणं दुहनिबंधणं धुणिउं । सामन्नं पडियन्ना, धण्णा भवभवणनिविण्णा ૪૬ धण्णा सतहियाई, सुगंति धण्णा करेंति निसुयाई । धन्ना सोग्गइमग्गे, रमंति सीले गुणुप्पीले ॥४७॥ सन्नाणवायसहितो, सीलुज्जलिओ विगिट्ठतवजलणो । संसारमूलबीयं, दहइ दवडग्गी व तणरासिं ॥४८॥ निम्मलसीलधराणं, इहलोए चेय तह य परलोए । गउरयमुवेइ अप्पा, परमप्पा एस चेय ति ॥४९॥ 250 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८६५०-८६७८ इन्द्रियदमनद्वारस्वरूपम् अच्वंतमहाघोरा वि, आवया सच्चसंधणपरेहिं । लीलाए नित्थरिज्जड़, सोच्छाहं सीलबलिएहिं ॥५०॥ सीलसमलंकियाणं, मरणं पि वरं खु तक्खणा चेव । चिरजीवियं पि मा पुण, सीलाडलंकारचुक्काणं ॥५१॥ वरमरिघरेसु भिक्खा, अभिक्खणं भमडिया सुसीलेणं । चक्कित्तणं पि मा पुण, परिमलियविसालसीलस्स ॥५२॥ गरुयगिरितुंगसिंगा, वरं खु विसमे कहिं पि पडिऊण । दढकढिणपत्थरंडतो, अप्पा सयसिक्करं नीओ ॥५३॥ परिकुवियफारफुकार-घोररुहिराऽरुणऽच्छिदुप्पेच्छे । वरमऽहिमुहम्मि हत्थो, पक्खितो तिक्खदसणम्मि ॥५४॥ गयणविसप्पणदुप्पेच्छ-पचुरजालाकलायकलियम्मि । वरमऽप्पा पक्खित्तो, खयऽग्गिकुंड़े पयंडम्मि ॥५॥ मत्तकरिकरडपुडपाडणेक्क-दप्पिट्ठदुट्ठकेसरिणो । घरमाऽऽणणे पवेसो, सुतिक्खदढदाढकढिणम्मि ॥५६॥ मा पुण सुदीहकालं, परिवालियविमलसीलरयणस्स । हे वच्छ! तए भवसुह-कएण विहिओ परिच्चाओ ॥५॥ सीलाडलंकाराडलं-किओ ह अधणो वि होइ जणपज्जो । दस्सीलो पुण धणवं-तओ वि सयणेस वि न पुज्जो॥५८॥ | विमलं सीलं पालिंतगाण, चिरकालजीवियं होउ । पायाऽऽसत्ताणं पुण, न किंचि चिरजीवियव्येण ॥५९॥ ता भो धम्मगुणाऽऽगर!, गरलं व वमित्तु दुट्ठसीलतं । आराहणाक्यमणो, मणहरहरिणंडककरविमलं ॥६०॥ हयभववंसकरीलं, चित्तचमक्कियसुराऽसुरुप्पीलं । सिवपुरनिवेसकीलं, परिवज्जियजीवपरिपीलं ॥६१॥ कुगइपहविहियहीलं पावपवित्तीए कयगयनिमीलं । परमपयललणलीलं, परिपालसु निम्मलं सीलं ॥६२॥ सीलपरिपालणादार-मेवमडक्वायमिण्हि सोलसमं । इंदियदमाऽभिहाणं, पडिदारं किंपि दंसेमि ॥६ ॥ "इन्द्रियदमनद्वारस्वरूपम्" - इंदो जीयो तस्स उ, इमाणि तेणिंदियाणि भन्नति । नाणाऽऽइगुणसिरीए, स पुण जिओ ललणपासादो ॥६४॥ तस्स गवक्खाइपभूय-दारकप्पाणि इंदियाणि धुवं । नियनिययविसयविरमण-कवाडविरहेण पुण तेसु ॥६५॥ पविसन्तपउरकुवियप्प-कप्पणापावपंसुपूरेण । ओमइलिज्जइ जोण्हु-उजला वि नाणाऽऽइगुणलच्छी ॥६६॥ अहया अनिरुद्धिंदिय-दारे पविसित्तु जीवपासाए । हयविसयचंडचरडा, नाणाऽऽइसिरिं अवहरंति ॥६७॥ एयमऽवगम्म सम्म, तस्संरक्षणकए कयपयत्तो । सव्वेदियदाराई, सुनिरुद्धाइं धरसु धीर! ॥६८॥ ससमयपरसमयमया-डवगाहगरुयं पि पंडियं पि नरं । बलवं इंदियगामो, गंजइ अनिरुद्धपडिपसरो ॥६९॥ धरउ वयं चरउ तवं, सरउ गुरुं झरउ सुत्तअत्थे वि । इंदियदमपरिहीणस्स, तस्स तुसकंडणं सव्यं ॥७०॥ मयचंडगंडमंडल-करडिघडाविहडणेक्कपडुओ वि । जइ नेव इंदियजई, ता सो च्चिय कायरो पढमो ॥७१॥ ताय च्चिय गरुयत्तं, ताय च्चिय भुवणभूसणा कित्ती । संभावणा यि पुरिसस्स, ताय जाबिंदियाणि यसे ॥७२॥ अह सो च्चिय ताण वसे, जायइ जड़ ता कुले जसे धम्मे । संघे गुरुसुहिवग्गे, देइ मसीकुच्चयमऽवस्सं ॥७३॥ दीणत्तमणादेयत्तणं च, सव्वाऽभिसंकणीयत्तं । किं किं तमऽणिटुं जं, इंदियवसगा न पायेति ॥७४॥ भिज्जइ गिरि वि सिरसा, पिज्जइ जालाकरालजलणो वि । खग्गडग्गे वि चरिज्जइ, दुदमा पुण इंदियतुरंगा ॥७५॥ विसयाउरन्नपयन्नो, अणवरयमणंकुसं व दुद्दन्तो । भंजतो सीलवणं, ओ वियरइ इंदियगइंदो ॥६॥ तत्तं दिसंति तवमऽवि, तवन्ति पालिंति संजमगुणे वि । इंदियनिरोहकरणे, रणे व्य कीया विसीयंति ॥७॥ सक्को जमच्छिबहुलो, जं च हरी 'ययवहूविहियहासो । भट्टारओ विरिंची वि, जं च जाओ चउव्ययणो ॥८॥ गंगो वि ह. जमद्धनारीसरो किर हरो वि । तं दज्जयस्स विलसिय-मडसेसमिंदियनरिंदस्स ॥७९॥ पंचण्ह बसे होउं, होइ बसे सयलजीयलोगस्स । पंचण्ह जयं काउं, जयइ समत्थं तिहुयणं पि ॥८॥ जड़ नेव इंदियदमो, विहिओ ता किमिह सेसथम्मेहिं । अह सो वि कओ सम्म, तहा वि किं सेसथम्मेहिं ॥८१॥ अहह! बलवत्तमिंदिय-गामस्स जमऽत्थिणो वि तं दमिउं । सक्कंति नेय समय-प्पसिद्धतदुवायविउणो वि ॥८२॥ मोतूण जिणे जिणमयठिए य, पहवंतइंदियबलाई । न जिणिंसु जिणइ जेस्सइ, मन्ने अन्नो तिहुयणे यि ॥८३॥ सो च्विय सूरो सो चेव, पंडिओ नणु गुणी वि सो चेव । सो चेव कुलपईवो, इंदियविजई जए जो उ ॥८४॥ तस्स गुणा तस्स जसो, तस्स सुहं पाणिपल्लवडल्लीणं । तस्स थिई सो मइम, जयम्मि जो इंदियदमत्थो ॥५॥ जं सग्गे सुरराया, विलसइ सुरसेणिपणयपयकमलो । फणिमणिपहपहयतमो, जं च फणिंदो वि पायाले ॥८६॥ जं व निहयाडरिचक्कं, चक्कं चक्किस्स कयले ललइ । तं दितिंदियदमलव-लीलाए विलसियं सव्वं ॥८७॥ 1. व्रजवधूविहितहासः । 251 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८६८८-६०२४ इन्द्रिय- अविजये भद्रादीनां दृष्टान्ताः तं नमह तं पसंससह, तं सेवह तं विहेह य सहायं । जेण य वसं नीओ, दुद्दतो इंदियगइंदो ॥८॥ सुगुरू स चेव देवो, तस्स नमो तेण भूसियं भवणं । न विसयपवणहओ वि हु, इंदियअग्गी जलइ जस्स ॥८९॥ तेण सुलद्धो जम्मो, जीवियमऽवि तस्स चेव इह सहलं । जेण णिरुद्धो पसरो, इमस्स दुद्विंदियबलस्स ॥९०॥ ता भो देवाणुप्पिय!, पियं भणामो तुमं पि तह कह वि । चेट्ठसु जहिंदियाई, आयारामाई जायंति ॥९१॥ इंदियपभवं सोक्खं, सोक्खाऽऽभासो स न उण तं सोक्खं । तं पि हु कम्मोवचयाय, सो वि दुक्खेक्कहेउ ति ॥९२॥ इंदियविसयपसत्ता, पडंति संसारकंदरे घोरे । पक्खि व्य छिन्नपक्खा, सुसीलगुणपेहुणविहीणा ॥९३॥ महुलितं असिधारं, जहा लिहंतो सुहं मुणइ पुरिसो । इंदियविसयसुहं तह, भयावहं पि हु अणुभवतो ॥९४॥ सुठु वि मग्गिज्जंतो, कत्थइ पयलीए नत्थि जह सारो । इंदियविसएस तहा, नत्थि सुहं सुट्ठ वि गवि ॥९५॥ गिम्हुम्हहयस्स दुहं, जह धावंतस्स विरलतरुहेट्ठा । छायासुहमऽप्पं चिय, इंदियसोक्खं पि तह जाण अहह ! कहमऽप्पणिज्जो, चिरमुवयरिओ वि इंदियग्गामो । विसयपसत्तो संतो, सत्तुजणं पि हु विसेसेड़ जो इंदियाण छंदे, वट्टइ मोहेण मोहिओ संतो । सत्तू तस्सऽप्पा चेय, अप्पणो, तिक्खदुक्खकरो " इन्द्रिय- अविजये भद्रादीनां दृष्टान्तः " ॥९६॥ ॥९७॥ ॥९८॥ सोइंदिएण भद्दा, चक्सूराएण समरधीरनियो । घाणेण रायपुत्तो, निहओ रसणाए सोयासो फासिंदिएण दिट्ठो, नट्ठो सयवारनयरवत्थव्यो । एक्केक्केण वि निहया, किं पुण जो पंचसु पसत्तो एयाण य भावत्थं, जहक्कमं साहिमो समासेणं । तत्थेमं अवसेयं, सोइंदियगोयरं नायं ॥९९॥ ॥९०००॥ ॥१॥ un ॥३॥ ॥४॥ ॥५॥ સદ્દ नयरम्मि वसंतपुरे, अच्चन्तं सुस्सरो विरुवी य । नामेण पुप्फसालो त्ति, गायणो आसि सुपसिद्धो तत्थेव पुरे एगो सत्थाहो सो गओ परं देसं । भद्द ति तस्स भज्जा, घरवावारं विचिंतेइ तीए य एगया कार णेण केणाऽवि निययचेडीओ । हट्टम्मि पेसियाओ, ताओ पुण पुप्फसालस्स किन्नरपडिरूवसरेण, गायमाणस्स भूरिजणपुरओ । गीयरवं सोऊणं, ठियाउ भित्तीए लिहिय व्य चिरवेलं अच्छिता, नियमंदिरमाऽऽगयाउ कुवियाए । तत्तो भद्दाए नज्जि-याओ फरुसेहिं वयणेहिं भणियं च ताहिं सामिणि!, मा रूससु सुणसु तत्थ अम्हेहिं । तं किर सुयं पसूण वि, जं हरड़ मणं किमऽण्णेसिं ॥ ७ ॥ भणियं भद्दाए कहं ति, तयऽणु ताहिं निवेइयं सव्वं । तो तीए चिंतियं कह, सो दट्ठव्यो महाभागो एगम्मि य पत्थावे, जत्ता पारंभिया सुरगिहम्मि । लोगो य तहिं सव्वो, बच्चइ दठ्ठे नियत्तइ य भद्दा वि दासचेडीहिं, परिवुडा उग्गयम्मि सूरम्मि । तत्थ गया गाइता, परिसंतो पुप्फसालो वि तम्मि सुरमंदिरपरि - सरम्मि सुत्तो कहं पि चेडीहिं । दिट्ठो सिट्ठो य स एस, पुप्फसालो ति भद्दाए अह तं चिविडियनासं, बीभच्छुट्टं दंतुरं मडहवच्छं । पेच्छिता हुं दिट्ठ, रूवेण वि गेयमेयस्स इय जंपिरीए तीए, निच्छूढं दूरवलियययणाए । सुत्तुट्ठियस्स एयं कुसीलवेहिं च सिद्धं से ॥८॥ usu m सोऊण इ सो कोय-दावनिद्दज्झमाणसव्यंडगो । हद्धी! सा वि हयाऽऽसा, वणिणो गिहिणी ममं हसइ ॥१४॥ | इय असरिस अमरिसवस - विस्सुमरियनिययसव्ववावारो । अवयारं काउमणो, तीए गेहम्मि संपत्तो ॥१५॥ ॥१६॥ पारद्धो य कलगिरं, पउत्थवइयानिबद्धवित्तंतं । अच्चन्तमाऽऽयरेणं, गाइउमेवं जहा तुझ | पुच्छड़ वत्तं सत्थाऽ-हियो दढं पेसइ सया लेहं । तुह नामग्गहणेणं, परं पमोयं समुव्यहइ ॥१७॥ ॥१९॥ ॥२०॥ तुह दंसणूसुओ एस, एइ इण्डिं गिहम्मि पविसइ य । एमाऽऽइ तह कहं पि हु, तेणं गीयं पुरो तीसे ॥१८॥ जह सा सव्यं सच्चं इमं ति एइ य पई त्ति मण्णंती । अब्भुट्ठिउं विमुंचइ, आगासतलाओ अप्पाणं | अइउच्चभूमिग़ावडण- घायसंजायजीयनीहरणी । जिणमज्जणसमए हरि-तणु व्य पंचत्तमऽणुपत्ता कालक्कमेण तीसे, समागओ निसुणिउं पई वत्तं । मुणिउं च पईवत्तं, अच्चन्तं पुप्फसालस्स सो वाहराविऊणं, विसिट्ठतरभोयणेण आकंठं । भुंजाविऊण वृत्तो, गायंतो भद्द! पासायं आरोहसु ति तो सो, अच्चन्तं गाढगेयदप्पेण । गायंतो आरूढो, भवणोवरि सव्यसत्तीए अह गेयपरिस्समवड्ढमाण - वेगुड्ढसासफुट्टसिरो । निहणं गओ वरागो, सोइंदियमिय महादोसं ॥२१॥ ॥२२॥ 1. पईवत्तं = प्रतीपत्वम् = प्रतिकूलत्वम् । ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ 252 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६०२५-६०६१ चक्षुरिन्द्रिय विषयेसमरधीरदृष्टान्तः “समरधीरदृष्टान्तः” ॥२७॥ રા ॥२९॥ चक्खिंदियदोसे पुण, आहरणं पउमसंडनगरम्मि । अणुभयइ रज्जच्छिं, नामेण नियो समरधीरो ॥२५॥ जणणि व्व परकलत्तं, परकीयधणं तणं व जस्स सया । परकज्जं णियकज्जं य, आसि नीसेसनयनिहिणो ॥ २६ ॥ सरणाऽऽगयरक्खणदुक्खि-पंड गिउद्धरणधम्मकिच्चेसु । वट्टंतं चिय नियजीवि - यं पि बहुमन्नियं जेण तस्सेगम्मि अवसरे, सुहाऽऽसणत्थस्स सणियमाऽऽगंतुं । विन्नत्तं पडिहारेण, सायरं कयपणामेण | देव! तुह पायपंकय-पलोयणत्थं समागओ बाहिं । चिट्ठइ सिवसत्थाहो, आगच्छउ एत्थ गच्छउ वा रन्ना युत्तं एउ त्ति, तो पविट्ठो कयप्पणामो य । उचियाऽऽसणुमाऽऽसीणो, सो भणिउमिमं समादत्तो देव! मह अत्थि धूया, उम्माइणिणामियां विसालऽच्छी । रूवोहामियरंभा, सुजोव्वणा पव्वणिदुमुही सा य विलयाण मज्झे, रयणब्भूया तुमं च रयणाण । नाहो सि ता तुममिमं, गिण्हसु जड़ देव! पडिहाई ॥३२॥ तुज्झ अनिवेइऊणं, कण्णारयणे परस्स दिज्जंते । का होड़ सामिभत्ति त्ति, देव! साहिज्जए तुम्ह ॥३३॥ अम्मापिउणो सलहिंति, सच्चमऽच्चन्तनिग्गुणाई । निययाऽवच्चाइं परं, अन्न च्चिय चंगिमा तीए तथाहि ॥ ३०॥ ॥३१॥ ॥ ३४ ॥ | जम्मणभवणऽब्मन्तर - मिमीए देहेण जम्मसमए वि । विज्जुज्जोएणं पिय, सज्जो उज्जोइयमऽसेसं एयमऽवलोइउं पिव, उच्चट्ठाणं ठिया गहा वि फुडं । एवं च देव! तीए, न तुमाहिन्तो पई होइ एवं मुणिऊण नराऽहिवेण, अच्चन्तविम्हियमणेण । तीसे पलोयणट्ठा, पच्चड़या पेसिया पुरिसा सत्थाहेणेव समं गया य ते मंदिरम्मि दिट्ठा सा । अच्छरियन्भूएण य, रूवेणं तोए अक्खित्ता मत्त व्य मुच्छिया इव, अवहडहियय व्य गमिय खणमेक्कं । एगंते ठाऊण य, मंतिउमेयं समादत्ता विजियऽच्छरमऽच्छरियं, किंपि इमीए सुरूवनेवत्थं । परिणयवया वि जीए, वयमेवं मोहमुवणीया अम्हारिसा वि परिणयवया वि, जड़ दंसणे वि एईए । एवंविहं अवत्थं, पत्ता ता वसुमइनाहो नवजोव्यणाऽभिरामो, निरंकुसो सयलसंपयाऽऽयासो । अजिइंदिओ कहं नो, एईए वसा भवे विवसो विवसते एयस्स य, कहं न रज्जं दढं विसीएज्ज । तत्थ य विसीयमाणे, अजहत्थं भूमिनाहतं इय नाऊण वि रण्णो, वयंसहत्थेणिमं उवणमिंता । कह नो समत्थभाविर - दोसाणं कारणं होमो ता किंपि कहिय दोसं, इमीए वायत्तिमो महीनाहं । पडियन्नं सव्येहिं वि, गया य रन्नो समीयम्मि धरणियलचुंबिणा मत्थ - एण सव्वाऽऽयरं कयपणामा । ओणमियसीसवीसंत - पाणिणो भणिउमाऽऽदत्ता देव! समग्गगुणेहिं, रूवाऽऽईहिं विराइया कन्ना । सा केवलं अलक्खण - मेक्कं गुरु धरइ पड़वहगं तो रन्ना परिचत्ता, तत्तो तस्सेव भूमिनाहस्स । सेणावइणो दिन्ना, पिउणा सा परिणीया तेण रूवेण जोव्यणेण य, सोहग्गेणं च अवहरियहियओ । जाओ तदेगचित्तो, दूरं सेणावई तीए यच्चंतेसु दिणेसुं, एगम्मि अवसरम्मि नरनाहो । भडचडयरपरियरिओ, तेणं सेणाऽहिवेण समं करिकंधराऽधिरूढो, धुव्यंतुद्दामचामरुप्पीलो । ऊसियसियाऽऽयवत्तो, नीहरियो रायवाडीए अह सेणावइभज्जा, सा चिंतड़ कहमऽहं महीवइणा । अवलक्खण ति चत्ता, दट्ठव्यो सो मए इन्तो एवं परिभावित्ता, नियंसियाऽमलमहग्घदोगुल्ला । रन्नोऽवलोयणट्ठा, पासाए आरुहितु ठिया राया वि तुरगकरिरहवरेहिं, काउं परिस्समं बहिया । खणमेक्कं नियभवणं, पडुच्च आगंतुमाऽऽरद्धो इंतस्स य कहवि नराऽहिवस्स, वियसंतकमलदलदीहा । तीए तहट्टियाए, निस्सद्धं निवडिया दिट्ठी किं नु रई किं रंभा, किं वा पायालकन्नगा किं वा । तेयसिरी इय राया, संचिंतंतो तदेगमणो ठाऊण खणं चक्खु, लज्जारज्जूहिं संजमिय बाढं । दुट्ठतुरगं व कहकहवि, पडिगओ निययभवणम्मि | सट्ठाणपेसियाऽसेस-मंतिसामंतसुहडवग्गो य । वावारंडतरविरओ, कहमऽवि सेज्जाए आसीणो अह तीए अंगपच्चंगं, चंगिमाऽऽलोयणाऽऽउलमणस्स । अंगमऽणंगो रण्णो, बाढं पीडेउमाऽऽरद्धो ॥५९॥ तो तं चिय कुवलयलोय - णं नियो सव्यहिं पलोयंतो । जाओ तम्मयचित्तो, चित्ताऽऽलिहिओ व्य निप्कंदो ॥६०॥ निययाऽवसरम्मि समागतो य, सेणावई महीवड़णा । पुट्ठो का तुज्झ तया भवणोवरि देवया आसि ॥५८॥ ॥६९॥ 253 ॥३५॥ ॥३६॥ ॥३७॥ બો ॥३९॥ ॥४०॥ ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ "જો ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५४॥ ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६०६२-६०९८ घ्राणेन्द्रियविषये गन्धप्रियकुमार - रसनेन्द्रिय अविजयेसोदासनृपदृष्टान्तः - स्पर्शेन्द्रियअविजयेविप्रसुतदृष्टान्तः तेणं पयंपियं देव!, सा इमा जा तए परिच्चत्ता । सत्थाहसुया मह महिलि-य ति संपइ परं जाया ॥२॥ अहह! कहं छलिओ हं, कारणियनरेहिं तं कुरंगडच्छिं । निद्दोसं पि सदोसं ति, वाहरंतेहिं पायेहिं ૬૨ एवं संचितंतो, राया पम्मुक्कदीहरुस्सासो । दुस्सहविसमसिलीमुह-सिहिसंतायं परं पत्तो ॥६४॥ जाणियपरमत्थेणं, सेणावइणा लहित्तु पत्थायं । सामी! कुणसु पसायं, गिण्हसु तं मज्झ भज्जं ति ॥६५॥ भिच्चाण संतियं जीवि-यं पि नणं पहूण साहीणं । किं पुण धणपरियणभवण-वित्थरो बज्झरूयो ति ॥६६॥ एवं सोउं राया, हिययम्मि विभाविउं समाढतो । दुसहो मयणहुयासो, बाढं कुलगंजणा गरुई વાદળી आचंदकालिअअजस-फंसणा नीइनिहणमडच्वन्तं । परजुवइसेवणं मारि-साण मरणे वि नो जुतं ૬૮ના इय निच्छिऊण राया, सेणाहिवइं पयंपए भद्दा! । एवंविहं अकिच्चं, भुज्जो मा मे कहेज्जासि ॥६९॥ नरयपुरेक्कदुवारं, निम्मलगुणभवणबहलमसिकुच्चो । नीईधरेहिं कीरइ, कहमिय परदारपरिभोगो ॥७०॥ सेणावड़णा युत्तं, जड़ परदारं ति गिण्हसि न देव! । देवाऽऽययणेसु इम, विलासिणित्तेण ता देमि ॥१॥ तत्तो तुब्भे वेस त्ति, सेवमाणा परिस्थिदोसस्स । न भविस्सह नाह! पयं, ता मह इह देह आएसं ॥७२॥ रन्ना पयंपियं होउ, किंपि मरणे वि एरिसमडकिच्वं । नो काहमऽहं विरमसु, सेणाऽहिय! भूरिभणणाओ ॥७३॥ तो पणमित्ता सेणाड-हियो गओ नियगिहम्मि राया वि । तदसणाऽणुरागड-ग्गिणा दढं डज्झमाणंडगो ॥७४॥ परिचत्तरायकज्जो, तं किंपि हु हिययगाढसंघट्ट । संपत्तो जेण मओ, जाओ तिरिओ य अट्टयसा ॥७५॥ चक्खूरागो एवं-विहाण दोसाण कारणं भणिओ । घाणम्मि इन्हि दोसं, संखेवेणं निदंसेमो ॥७६॥ “गन्धप्रियकुमारः" - किर एगो रायसुओ, गाढं गंधप्पिओ सुरहिवत्थु । जं पेच्छइ अग्घायइ, तमसेसं सो य कइया वि ॥७७॥ नावाहिं कीलइ नई-सलिलम्मि बहुवयस्सपरियरिओ । तं च तहा कीलंतं, नाऊण सवत्तिजणणीए ॥८॥ निययसुयरज्जवंछाए, तस्स गंधप्पियत्तणं मुणिउं । मारणहेउं उग्गं, महाविसं भूरिभत्तीहिं ॥७९॥ ठवियं मंजूसाए, सा नइसलिले पवाहिया तत्तो । रममाणेणं तेणं, दिट्ठा व कहिं पि किर इंती ॥८॥ तो तं उत्तारित्ता, उग्घाडइ तीए मज्झ संठवियं । एगं समुग्गयं नियइ, तं पि विहडेइ तस्संडतो ॥८१॥ पाउणइ गंठिमेक्कं, तं पुण उभिंदिऊण गंधपिओ । तं विसमुज्जिंघतो, झडत्ति पंचत्तमडणुपत्तो ૮૨ા | एवंविहवसणकर, घाणिदियमक्खियं सदिद्रुतं । रसणादोसोदाहरण-मिन्हेिं लेसेण कित्तेमि। રા "सोदासदृष्टान्तः" - भूमिपट्ठियनगरे, सोदासो नाम भूवई आसि । अच्वंतं मंसपिओ, तेण य एगम्मि पत्थावे ૮૪ના घोसाविया अमारी, सव्वत्थ पुरम्मि नवरि सूयस्स । रायनिमित्तं मंसं, उवक्खडिंतस्स जत्तेण ॥८५॥ लद्धंऽतरेण हरियं, कहवि विरालेण तो स भयभीओ । अन्नं पलमडलहतो, सोयरियाऽऽईण गेहेसु ૮દી अन्नायमेगडिंभं, रहम्मि वावाइउं नरिंदस्स । भोयणसमए दलयड़, अच्वंतसुसंभियं किच्चा ૮ળી तं भुंजिऊण राया, तुट्ठो वागरइ कहसु हे सूच! । कत्तो इमस्स लाभो ति, तेण सिटुं च जहवित्तं ॥८॥ सोऊणं तं च राया, रसणादोसेण याउलिज्जतो । माणुसमंसनिमित्तं, सूवस्स सहाइणो देइ ૮% तो सो रायनरेहिं, परियरिओ मारिउं जणं मंसं । उपखडइ निवनिमित्तं, एवं जंतेसु दियहेसु ॥१०॥ कारणियनरेहिं सो, लक्खित्ता रक्खसो ति रयणीए । पाइता पउरसुरं, परिचत्तो अडविमज्झम्मि ॥९१॥ तत्थ य करगहियगदो, तप्पहपरियत्तिणं जणं हणिउं । भुंजड़ परिभमेइ य, विगयाऽऽसंको कयंतो व्य ॥१२॥ अवरम्मि अवसरम्मि, तेण पएसेण निसि गओ सत्थो । सुत्तेण वेइओ नेव, तेण णवरं कहवि मुणिणो ॥१३॥ सत्थब्भट्ठा दिट्टा, कुणमाणावस्सयं तओ पायो । सो तेसिं हणणट्ठा, पासे ठाउं समारद्धो ॥९४॥ पबलतवतेयपहओ, साहसमीचे य ठाउमडचइंतो । चिंतेइ धम्मसवणं, पडिबुद्धो संजओ जाओ ॥९५॥ जड़ वि हु सो पज्जते, पत्तो बोहिं तहा वि पुव्यं पि । रज्जुद्दालणपमुहं, दोसं रसणाइ उवणीओ ॥१६॥ "विप्रसुतदृष्टान्तः" - फासिंदियदोसे पण, आहरणं किर परे सयदवारे । नामेण सोमदेवो. विप्पस्स सओ परिव्यसड ॥९७॥ संपत्तजोव्वणो सो, सद्धिं रइसुंदरीए वेसाए । रुवेणं फासेण य, गढिओ वुत्थो चिरं कालं ॥९८॥ 254 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६०६६-६१३४ तपोद्वारे तपःकरण-अकरणयोः गुणदोषाः - निःशल्यताद्वारे शल्यानास्वरूपम् पुव्यपुरिसज्जियं आसि, किंपि जं दव्यमऽप्पणो भवणे । तं सव्वं निट्ठवियं, ततो अत्थस्स विरहम्मि ॥१९॥ निच्छूढो अत्ताए, गेहाउ विमणदुम्मणो तत्तो । चिंतेइ सो अणेगे, अत्थस्स उवज्जणोयाए ॥९१००॥ अलभंतो य उवायं, तहाविहं अत्थवंतगेहेसु । जीयं काऊण पणं, पाडइ खत्ताई रयणीए विलसइ य जहच्छंद, तीए समं तदुवलद्धदब्वेणं । दोगुंदुगो व्य अत्ता वि, अत्थलुद्धा वसे जाया ॥२॥ नवरं अतिगूढाए, तक्करकिरियाए तस्स नयरजणो । अच्वंतपीडिओ चोरु-बद्दयं कहइ नरवइणो ॥३॥ तो नरवडणाऽऽरक्खिय-परिसा निभच्छिया खरगिराहिं । वत्ता य जड न चोरे. लहिहि ता भे हणिस्सं ति ॥४॥ अह तियचच्चरचउपह-पवासभाडऽईसु विविहठाणेसु । भयभीया ते तक्कर-पलोयणे उज्जया जाया ॥५॥ कत्थइ य अपाता, चोरपउत्तिं गिहाणि गणियाणं । अवलोइउमाउडरद्धा, दिट्ठो य कहिं पि सो विप्पो ॥६॥ चंदणरसचच्चिक्किय-देहो सुविसुद्धपरिहियदुकुलो । वीए वेसाए समं, विलसंतो इब्भपुत्तो व्य ॥७॥ तो तेहिं चिंतियं कह-मिमस्स एवंविहा वरविलासा । पइदियहं चिय, वित्ती-करणपरभवणभमिरस्स ॥८॥ ता निच्छियं इमेणं, होयव्यमऽसुंदरेण इइ नाउं । कवडक्यकोयतिवली-तरंगरंगन्तभालेहिं Real रे रड्डडोड्ड! बच्चिहसि, कत्थ निवसन्त! एत्थ पीसत्थं । लुंटित्ता सयलपुरं, किं रे ! न वयं तुम मुणिमो ॥१०॥ हिं भणिए, सकम्मदोसेण सा भउभंतो । मुणिओ ति पलायंतो, गहिओ रन्नो य उवणीओ रइसुंदरीए गेहं, उक्कड़िढत्ता पलोइयं सम्म । दिद्वं विविहपयारं, मोसं लोएण नायं च । ॥१२॥ तो कुविएणं रन्ना, वेसा निव्यासिया सनगराओ । विप्पसुओ पुण यज्झो, आणतो कुंभिपाएणं ॥१३॥ | एवंविहदोससमुस्सयस्स, फासेंदियस्स यसगाणं । इहपरभयेसु दुवं, होइ असंखं च तिख्खं च ॥१४॥ ता विसयकुपहपत्थिय-इंदियतुरगे निरंभिउं भद्द! । समग्गम्मि निजुंजसु, कड्ढिय वेरग्गवग्गाएं ॥१५॥ अप्पडप्पविसयपरिधायमाण-मिंदियकुरंगवग्गमिमं । सन्नाणभावणावागु-राए बद्धं घरेज्जासु ॥१६॥ तह धीर! धिड़बलेणं, दुइंते दमसु इंदियतुरंगे । जह उक्खयपडिवक्खो, हरेसि आराहणपडागं ॥१७॥ इंदियदमाऽभिहाणं, पडिदारं किंपि दंसियं एवं । एत्तो तवाऽभिहाणं, तमहं सत्तरसमं योच्छं ॥१८॥ अन्भिन्तरवाहिरयं, कुणसु तवं पीरियं अगूहेंतो । पीरियनिग्गही बंधइ, मायं विरियंतरायं च ॥१९॥ सुहसीलयाए अलस-तणेण देहपडिबद्धयाए य । सत्तीए तवम कुव्यं, निव्वत्तइ मायमोहणियं રી सुहसीलयाए जीया, तिव्यं बंधतडसाययेयणियं । अलसत्तणेण बंधड़, चरित्तमोहं च मूढमई। ॥२१॥ देहपडिबंधओ पुण, परिग्गहो होइ ता विवज्जित्ता । सुहसीलयाऽऽइदोसे, तवम्मि निच्चं पि उज्जमसु ॥२२॥ तवमउकुणंतस्सेए, जहसत्तिं साहुणो भवे दोसा । तं कुणमाणस्स पुणो, इह परलोगे य होति गुणा ॥२३॥ कल्लाणिढिसुहाई, जावइयाइं भवे सुरनराणं । परमं च निव्वुइसुहं, 'एयातिं तवेण लमंति ॥२४॥ तथादुरियगिरिकुलिसदंडं, रोगुब्भडकुमुयसंडमायंडं । कामकरिहरिपयंड, भवसागरतरणतरकंडं ढक्कियकुगइदुवारं, दायियमणयंछियऽत्थसंभारं । क्यजयजसप्पसारं सारं एक्कं तवं वेति ॥२६॥ एयं नाऊण तुम, महागुणं संजमित्तु मणपसरं । सरहसमडणुदिवसं चिय, तयसा भावेसु अप्पाणं ॥२७॥ नवरं जह न तणुपीडा, न याऽवि चियमंससोणियत्तं च । जह धम्मझाणबुड्ढी, तह खयग! इमं करेज्जासु ॥२८॥ तवनामप्पडिदारं, परूवियं संपयं समासेण । निस्सल्लयपडिदारं, अट्ठारसमं पि साहेमि ॥२९॥ "शल्यानांस्वरूपम्" - निस्सल्लस्सेय गुणा, भवंति हे खवग! सल्लमवि तिविहं । जाणसु नियाणमाया-मिच्छादसणवियप्पेहिं ॥३०॥ तत्थ नियाणं तिविहं, रागद्दोसेहिं मोहओ चेव । रागेण रूवसोहग्ग-भोगसुहपत्थणारूवं ॥३१॥ दोसेण पइभवं पि हु, परमारणऽणिट्ठकरणरुवं तु । धम्मडत्थं हीणकुलाऽऽइ-पत्थणं मोहओ होड़ ॥३२॥ अहव नियाणं तिविहं, होइ पसत्थाऽपसत्थभोगकयं । तिविहं पि तं नियाणं, यज्जेयव्वं तए तत्थ . ॥३३॥ संजमहेउं पुरिसत्त-सत्तबलविरियसंघयणबुद्धी । सावयबंधुकुलाऽऽइसु, होइ नियाणं पसत्थमिणं ॥३४॥ 1. एयातिं - एतानि । 255 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६१३५-६१७२ ब्रह्मदत्तचक्रीदृष्टान्तः सोहग्गजाइकुलरुव-माऽऽइआयरियगणहरजिणतं । पत्थंते अपसत्थं, माणेणं नंदिसेणे व्य कोहेण परवहं जो, मरिउं पत्थेइ तस्स अपसत्थं । बारवईविणासनिबद्ध-बुद्धिदीवायणस्सेव ॥३६॥ देवियमाणुसभोए, राईसरसेट्ठिसत्थवाहत्तं । हलधरचक्कधरतं च, पत्थमाणस्स भोगकयं पुरिसत्ताऽऽइनियाणं, पसत्थमऽवि जं निवारियं एत्थ । तं निरऽभिसंगमुणिणो, पडुच्च णेयं न उण इयरे ॥३८॥ दुक्खक्खयकम्मक्खय-समाहिमरणं च बोहिलाभो य । एमाऽऽइपत्थणं पि हु, साऽभिस्संगाण संभवइ ॥३९॥ संजमसिहराऽऽरुढो य, विहियदुक्कतयो तिगुतो वि । अवगन्निउण सिवसुह-मडसम पि परीसहाऽभिहओ ॥४०॥ एवं नियाणबंधं, जो कुणइ सुतुच्छविसयसुहहेउं । सो कायमणिकएणं, येरुलियमणिं पणासेड़ ॥४१॥ मुहमहुरमंऽतविरसं, भोतुं च सुहं नियाणवसलद्धं । नरयाऽवडम्मि निवडइ, बहुदुख्खे बंभदत्तो व्य ॥४२॥ तथाहि ___"ब्रह्मदत्तचक्रीदृष्टान्तः” साकेयम्मि परवरे, आसि चंडावडेंसओ राया । मणिचंदो से पत्तो, सो पण संजायवेरग्गो ॥४३॥ सायरचंदमुणिंदस्स, अंतिए गेण्हिऊण पव्यज्जं । सुत्तत्थेऽहिज्जतो, दुक्करतवकम्ममाऽऽयरइ ૧૪૪ वच्चंतो य कहं पि हु, गुरुणा सह दूरदेसमऽभिसरिउं । भिक्खट्ठाइ पविट्ठो, गामे मुक्को य सत्थेण ॥४५॥ एगागी वि पयट्टो, गंतुं पडिओ य कह वि अडवीए । तन्हाछुहापरिस्सम-बसेण बाढं किलंतो य ॥४६॥ गोवालदारगेहिं, चउहिं परिपालियो पयत्तेण । जाओ पगुणसरीरो, सिट्ठो धम्मो य तेणेसिं ૪૭થી पडिबुद्धा ते सव्ये, जाया सिस्सा य तस्स साहुस्स । कुव्वंति समणधम्म, नवरं काउं दुगुंछं दो ॥४८॥ मरिऊण देवलोए, पत्ता देवत्तणं तवपहाया । कालक्कमेण तत्तो, चइऊणं दसपुरे नगरे ॥४९॥ संडिलदिएण जइमइ-दासीए जमलगा सुया जाया । बुद्धिबलजोव्वणेहिं, कमेण समलंकिया ते य ॥५०॥ छेत्तस्स रखणट्ठा, अडवीए गया णिसिम्मि य पसुत्ता । वडविडविणो तलम्मि, डक्का य तहिं भुयंगेण ॥५१॥ पडियरणाऽभावम्मि य, मरिउं जमलतणेण दो वि मिगा । कालिंजरम्मि जाया, नेहेण सम चिय चरंता॥५२॥ | पारद्धिमुवगएणं, लोद्धेणं एक्ककंडघाएणं । हणिऊण दो वि कीणास-मंदिरं पेसिया विवसा ॥५३॥ तत्तो गंगातीरे, हंसा जमलतणेण संयुत्ता । तत्थ वि य धीवरेणं, बद्धा एक्केण पासेण ॥५४॥ विणिवाइया य वलिऊण, कंधरं तेण निद्दयमणेण । तत्तो पुरीए वाणा-रसीए मायंगअहिवइणो ॥५५॥ बहुधणधण्णसमिद्धस्स, भूयदिण्णस्स दो वि ते पुता । उववन्ना दढपणया, नामेणं चित्तसंभूया ॥५६॥ अह अन्नया क्याई, तीए पुरीए निवेण संखेण । नमुई नाम अमच्यो, पत्ते गरुयाऽवराहम्मि ॥५ ॥ लोगाऽववायगोवण-कएण पच्छन्नवज्झयाऽऽएसो । कुविएणं उवणीओ, पाणाऽहिवभूयदिन्नस्स ॥५८॥ वज्झट्ठाणं नीओ, तेणं वुत्तो य जड़ सुए मज्झ । पाढसि भूमिहरठिओ, ता तं मुंचामि अहयं ति ॥५९॥ जीवियमिच्छंतेणं, पडियन्नमिमं च तेण तो पुत्ते । पाढेउं आढतो, नवरं पम्मुक्कमज्जाओ ॥६०॥ तज्जणणीए सद्धिं, अच्छंतो इंगियाऽऽइकुसलेण । जारो ति मुणिय पाणाड-हियेण मारेउमाऽऽरद्धो ॥६१॥ उवयारि ति वियाणिय, परमत्थेहिं व तस्स एगते । नियपिउणो अभिप्पाओ, सिट्ठो संभूयचित्तेहिं ततो निसाए नट्ठो, गओ य नगरम्मि हत्थिणागपुरे । जातो य तहिं मंती, चक्किस्स सणंकुमारस्स ॥३॥ तेहिं पुण पाणपुत्तेहिं, गीयनट्टाऽऽइएसु कुसलेहिं । अच्वंतं हयहियओ, विहिओ याणारसीलोगो ૬૪ अह अन्नया पयट्टे, पुरीए तियचच्चरेसु मयणमहे । गिज्जंतीसुं विविहासु, चच्चरीसु पुरंधीहिं ॥६५॥ नच्वंतेसुं तरुणी-यणेसु ते तत्थ चित्तसंभूया । नियचच्चरिमज्झगया, गाइउमडच्वंतमाऽऽरद्धा ॥६६॥ गेएणं नट्टेण य, अक्खित्तमणो जणो गओ तेसिं । सव्यो वि समीवम्मि, विसेसओ पउरतरुणीजणो ॥६ ॥ तत्तो ईसावसओ, चाउव्येज्जाऽऽइपउरलोगेण । विन्नतो महिनाहो, देव! पुरीए जणो सव्यो ૬૮ एएहिं पाणपुत्तेहिं, संचरंतेहिं मुक्कपरिसंकं । एगाऽऽगारो विहितो ति, तो नरेंदेण नगरीए ॥६९॥ तेसिं पवेसो पडिसे-हिओ ति अवरम्मि नवरि पत्थावे । जायम्मि कोमुइमहे, अवगन्निय सासणं रण्णो ॥७॥ लोलिंदियत्तणेणं, कोऊहलओ य विहियसिंगारा । ते नगरीए पविट्ठा, ठाऊण य एगदेसम्मि ॥७१॥ अंसुयक्यमुहकोसा, हरिसेणं गाइउं समाढता । परिवारिया य लोगेण, गेयअवहरियहियएण ॥७२॥ 256 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६१७३-६२०९ ब्रह्मदत्तचक्रीदृष्टान्तः |अच्चंतसुस्सरा के, इमे ति यत्थे मुहाओ अवणीए । विन्नाया ते एए, मायंगसुय ति कुविएण ॥७३॥ लोगेण तओ हण, हण ति परिजंपिरेण निस्सटुं । सव्वत्तो पारद्धा, हंतुं जट्ठिट्टगाऽऽइहिं ॥७४॥ कहकहवि हम्ममाणा, विणिग्गया ते य नयरिमज्झाओ । संचिंतिउं पवत्ता, अच्वंतं जायसंताया ॥७५॥ धी! अम्ह जीविएणं, रुवाऽऽइसमग्गगुणगणेणं पि । जे निंदियजाइवसा, एवं हीलापयं जाया ॥७६॥ तो वेरग्गोवगया, अकहित्ता सयणबंधवाऽऽईणं । मरणकयनिच्छया ते, दाहिणहुतं लहु पयट्टा ॥७७॥ बच्चंतेहि य तेहिं, दिट्ठो एगत्थ गिरिवरो तुंगो । मरणत्थमाऽऽरुहंतेहिं, तत्थ एगत्थ सिहरम्मि ॥७८॥ घोरतवकिसियकाओ, धम्मज्झाणे परम्म यट्टन्तो । उस्सग्गगओ साहू, पलोइओ हरिसियंडगेहिं ॥७९॥ भत्तीए वंदिओ सो, मुणिणा वि हु जोग्गयं णिएऊण । झाणस्स समत्तीए, पुट्ठा कत्तो भयंतो ति। ૮થી तेहिं पि पुव्यवुत्तंत-कहणपुव्यो सचित्तसंकप्पो । गिरिपडणमरणरुयो, निवेइओ तस्स साहुस्स ॥८१॥ तत्तो मुणिणा भणियं, महाउणुभावा! अजुत्ततरमेयं । जइ सच्वं उबिग्गा, ता जइधम्म समायरह ૮૨ पडियन्नं तेहिं तओ, दिन्ना दिक्खा तवस्सिणा तेसिं । जोग ति मुणिय अवितह-अइसयनाणोवलंभेण ॥३॥ कालक्कमेण जाया, गीयत्था अह कहं पि विहरंता । दुक्करतवकरणपरा, संपत्ता हत्थिनागपुरे ૮૪) एगत्थ काणणम्मि, वुत्था मासस्स पारणगदिवसे संभूयमुणी नगरे, भिक्खट्ठाए अह पविट्ठो ॥८५॥ दिट्ठो य नमुइणा सो, नाओ य तओ महं इमो कहिही । दुयिलसियं जणाणं ति, गाढकुवियप्पवसगेण ॥८६॥ नियपुरिसे पेसित्ता, जट्ठीमुट्ठीहिं हणिय णिस्सटुं । निद्धाडिओ पुराओ, तो मुणिणो निरऽवराहस्स ॥८॥ उग्गयपयंडकोवस्स, पुरिसदहणट्ठया मुहाहिंतो । नीहरिंउं आरद्धा, तेउलेसा महाभीमा ૮૮ अंधारियं च नगरं, कसिणडब्भसमाहिं धूमवत्तीहिं । ताहे चक्की लोगो य, तोसिउं तं पवत्तो ति ॥९॥ जा न पसीयइ थेवं पि, ताव लोगाउ सुणिय वुत्तंतं । चित्तो समागओ झत्ति, महुरवाणीए तं भणइ ॥१०॥ भो भो महायस! कहं, जिणवयणं मुणिय कुणसि तं कोयं । न वियाणसि तप्पभयं, भवभमणमडणंतभयभवणं॥९१॥ को या तस्सऽवराहो, अवयारकरस्स नणु वरायस्स । दुक्खे सुहे य कम्माणि, जेण पभवंति जंतूण ॥१२॥ एमाडइपसमपीऊस-सारवाणीए पसमियकसायो । उवसंतो संभूतो, गया य ते दो वि उज्जाणं ॥९३॥ पडिवज्जिऊणमडणसण-माउडसीणा दो वि एगदेसम्मि । तत्तो सणंकुमारो, चक्की अंतेउरेण समं ॥९४॥ आगंतुं भत्तीए, तेसिं चलणुप्पले नमसेइ । एवं थीरयणं पि हु, नवरं तच्चिहुरसुहफासं . ॥१५॥ अणुभवमाणो संभूय-मुणिवरो भणइ जड़ इमस्स फलं । अत्थि तवस्स तया हं, भयंतरे होज्ज चक्कि ति ॥१६॥ एवं नियाणबंधो, तेण कओ चित्तसाहुणा बहुसो । पारिज्जतेण वि भव-विवागसंसूयगगिराहिं ॥९॥ आउक्खएण मरिउं, सोहम्मे भासुरा सुरा जाया । तत्तो चविउं चित्तो, उववन्नो पुरिमतालम्मि ॥१८॥ इब्भस्स सुयत्तेणं, संभूओ पुण पुरम्मि कंपिल्ले । बंभस्स भूमिवड़णो, चुलणीए सुओ समुप्पन्नो । ९९॥ विहियं च बंभदत्तो ति, तत्थ नाम पसत्थदिवसम्मि । एत्थ य ता बत्तव्यं, जा सो चक्कित्तणं पत्तो ॥९२००॥ साहियसमग्गभरहो, भरहो इव भुंजए विसयसोक्खं । अह जायजाइसरणो, कहम वि एगत्थ पत्थावे. ॥१॥ पुव्यभवभाउजाणण-कएण दासाडइपंचभवगभं । लोगाणं दंसणत्थं, विरएइ इमं सिलोगद्धं ॥२॥ “आस्व दासौ मृगौ हंसौ, मातंगावमरौ तथा ।" इति एयं च रायवारे, ओलंबायेत्तु इय भणायेइ । जो एयपच्छिमद्धं, पूरइ से देमि रज्जद्धं રો अह सो पुब्बुवट्ठो, जीवो चित्तस्स मोत्तु गिहवासं । संजायजाइसरणो सम्म घेत्तूण पव्वज्ज अप्पडिबद्धविहारं, विहरतो आगओ तहिं नयरे । एगत्थुज्जाणम्मि, ठिओ य सद्धम्मझाणेणं ॥५॥ एत्थंतरम्मि अरहट्टिएण, पढियं तयं सिलोगळ् । उवउत्तेणं मुणिणा वि, पच्छिमद्धं भणियमेवं દા _ “एषा नौ षष्ठिका जाति-रन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः ॥” इति ॥७ अह आरहट्टिएणं, एयं गंतुं णिवेइयं रन्नो । राया वि तं णिसामिय, भाइसिणेहाइरेगेण मुच्छावसेण वियलत्त-मुवगओ तो अणिट्ठकारि ति । ताडिउमाऽऽरद्धो आर-हट्टिओ रायपुरिसेहिं 257 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६२१०-६२३८ मायाशल्ये पीठमहापीठदृष्टान्तः हम्मतेण य तेणं, भणियं मा हणह क्यमिणं मुणिणा । खणलद्धचेयणो निसुणि-ऊण एयं च नरनाहो ॥१०॥ सव्वाइ विभूईए, गतो समीवम्मि तस्स साहुस्स । चलणे य बंदिऊणं, आसीणो दढसिणेहेण ॥११॥ विहिया मुणिणा सद्धम्म-देसणा तं च अवगणेतेण । साहू भणिओ चक्का-हियेण भययं कुण पसायं ॥१२॥ अंगीकरेसु रज्जं, भुंजसु भोए चयाहि पव्वज्जं । पुव्वं पिव समगं चिय, कालं अइयाहयामो ति ॥१३॥ मुणिणा भणियं नरवर!, रज्जं भोगा य दुग्गइमग्गो । ता मुणियजिणमयउत्थो, एए तुममुज्झिउण लहुं ॥१४॥ पडिवज्जसु पव्वज्ज, जेण समं चिय तवं अणुचरामो । किं तुच्छकालिएणं, रज्जाइमुत्थसोक्त्रेण ॥१५॥ भणियं रन्ना भयवं!, दिळं मोत्तूण किं अदिट्ठकए । तम्मसि मुहाए जेणं, ययणं मे इय विकूलेसि ॥१६॥ अह साहू नरवइणो, नियाणदुव्विलसियस्स सामत्था । मुणिऊण असज्झत्तं, उसंतो धम्मकहणाओ ॥१७॥ कालक्कमेण विहुणिय-कम्ममलो सासयं पयं पत्तो । चक्की वि अंतसमए, रुद्दज्झाणम्मि वस॒तो ॥१८॥ मरिऊण तमतमाए, उक्कोसठिई उ नारगो जाओ । एवंविहदोसकर,खवग! नियाणं विवज्जेसु ॥१९॥ भणियं नियाणसल्लं, मायासल्लं तु तं वियाणेहि । जं काऊणडइयारं, थोयं पि चरित्तविसयम्मि ॥२०॥ गोरवलज्जाऽऽईहिं, नेवाउडलोएड अंतिए गरुणो । अहया उवरोहेणं. आलोयड नवरि नो सम्मं ॥२१॥ ॥ एवंविहं च माया-सल्लमडणुल्लूरिऊण तवनिरया । न सुहं पायंति फलं, चिरकालं पि हु किलिस्संता ॥२२॥ तेणं चिय तव्यसगा, सुचरियचिरकालदुक्करतया वि । इत्थीभावं पत्ता, तयस्मिणो पीढमहपीढा ॥२३॥ तथाहि - "पीठमहापीठदृष्टान्तः" । किर पुवमाऽऽसि जिणउसमजीवु, वेज्जस्स पुत्तु नियकुलपईयु । निवमंतिसेट्ठिसत्थाहपुत, संजाय तस्स चत्तारि मित्त॥२४॥ सो 'नियवि साहु किमिकोढवीणु, सुहधम्मझाणि निच्चल निलीणु । जायाऽणुकंपु तसु कयतिगिच्छु, अज्जिणियि पुण्णसंचउ अतुच्छ आउक्खयम्मि कयपाणचाउ, सब्वन्नुधम्मरसभिन्नधाउ । चरहिं पि वयस्सिहि सहुं 'सुरत्तु, अच्युतमु अच्युयकप्पि पत्तु॥२६॥ अह जंबुदीवतिलओवमाए, येसमणनयरिसमयिभमाए । सिरिपुव्वविदेहसिरोमणीए, नामि पुरीए पुंडरीगिणीए ॥२७॥ सुररायपणयपयपंकयस्स, सिरियइरसेणभूमिवइस्स । देवीए विमलगुणधारणीए, जयविस्सुयाए किर धारिणीए ॥२८॥ ते सग्गह पंच वि चविवि पुत्त, उप्पन्न अणोवमरुवजुत्त । अप्पडिमपरमगुणलच्छिसार, बुड्ढेि च पत्त ते वरकुमार॥२९॥ तह पढमु चक्किसिरियइरनाहु, पुरपरिहदीहथिरथोरबाहु । तो बाहुसुबाहु तउ वि पीढु, पंचमु महपीद गुणाऽवलीद॥३०॥ | अह पुव्यबद्धतित्थयरनामु, सिरिवइरसेणु सुरक्यपणामु । आरोविवि नियपड़ वइरनाहु, वरचक्कवट्टिलच्छीसणाहु ॥३१॥ बहुनिवसयसहिउ सुसमणु जाउ, परिचइयि रज्जु निधुणियपायु । थुव्वंतु देवदाणवगणेहिं, आणंदजलाऽऽउललोयणेहिं ॥३२॥ अह जियमोहमहाबलु पाविय केवलु, बोहितउ सो भव्यजणु । महिमंडलमंडणु तमभरखंडणु, विहरिउ तह जह खरकिरणु ॥३३॥ विहरेविणु पुरगामाऽऽगरेसु, कब्बडमडंबआसमथरेसु । पुंडरीगिणीए नयरीए पत्तु, ओसरणु रइउ तियसिहिं विचित्तु ॥३४॥ उपविठु तेत्थु तो तित्थनाहु, अह आगउ तक्खाणि वइरनाहु । नियभाउजुत्तु जिणवरु थुगंतु, आसीणु महीयलि भत्तिमंतु ॥३५॥ पारद्ध जिणिंदिण धम्मकहा, संसारमहाभयहणणसहा । तं निसुणिऊण सिरिवहरनाहु, सहुं चाहिं वि भाउहिं जाउ साहु ॥३६॥ अहिगयसमत्थसुत्तऽत्थसत्थु, दातउ भव्यहं मोक्खपंथु । सज्झायझाणपडिबद्धचित्तु, बोलइ दिणाई समसत्तुमित्तु રૂણા ति वि बाहुसुबाहु तवस्सि दो वि, एक्कारसंग सम्म पढेवि । असणाडइदाणविस्सामणाउ, कुव्वंति तवस्सिहिं सुहमणाउ॥३८॥ 1. नियवि = दृष्ट्वा । 2. सुरत्तु = सुरत्वम् । 258 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६२३६-६२७० मिथ्यात्वशल्योपरीनन्दमणियारदृष्टान्तः इयरे वि दो वि सज्झायझाणि, वटुंति उक्कुडुयाऽऽइठाणि । पढमउ पुण वीसं ठाणगाई, फासइ जिणत्तनिव्वत्तगाई॥३९॥ अह बाहुसुबाहुहुं विणयवित्ति, अणवरउ पसंसड़ जा(उ) भत्ति । मुणिवइरनाहु किर जिणमयम्मि, उवयूहजुत्तयुति य गुणम्मि। ૪ના तं निसुणिऊण महपीढपीढ, चिंतेति किंपि माणोवगूढ । सलहिज्जहिं ते जे विणययंत, नो अम्हे नियसज्झायजुत॥४१॥ एवंविहु य कुवियप्पु तेहिं, नवि सुठु सिट्ठ वियडंतपहिं । इत्थित्तजणगु तो बद्ध कम्मु, काऊण वि सुचिरु जिणिंदधम्मु Rોકરા अह आउगविगमि सव्वट्ठसिद्धि, पंच वि लहेवि तियसत्तरिद्धि । तो एत्थ भरहि नाभिस्स पुत्तु, हुउ वइरनाहु रिसहो ति युत्तु ॥४३॥ ति वि बाहुसुबाहू चविवि पुत्त, रिसहस्स जाय रूयाऽऽइजुत्त । पढमउ चक्कीसरु भरहनामु, बीयओ पुण बाहुबली सुथामु ॥४४॥ इयरे पुण दोन्नि वि धूय जाय, तसु बंभीसुंदरीनामधेय । पव्यज्जियमायासल्लदोस, इय एरिस असहहं विहियपोस ॥४५॥ एवं मायासल्लं, वज्जिता खवग! सम्ममुज्जुत्तो । दुग्गड़गमणनिमित्तं , चयाहि मिच्छत्तसल्लं पि. ॥४६॥ "मिथ्यात्वशल्योपरीनन्दमणियारदृष्टान्तः" - मिच्छादसणसल्लं, मिच्छत्तं चेव सल्लमडक्वायं । मिच्छत्तमोहकम्मस्स, उदयभावम्मि तं च तिहा ૪ળા उप्पज्जइ मइभेएण, संथवेणं कुतित्थियाडणंदा । अहवाऽभिनिवेसेणं, जीवाणमडपुण्णवन्ताणं ૪૮ एयं च अमुचंतो, दाणाऽऽइरओ वि दुग्गइं जाइ । नंदमणियारसेट्ठिव्य, कलुसबुद्धीए हयसम्मो ॥४९॥ तहाहिएत्थेव जंबहीये. भरहे वासम्मि रायगिहनयरे । अतलियबलसिरिसेणिय-भवडभयपरिहकयरक्खो ॥५०॥ वेसमणसमाणधणो, लोयाउडणंदो अहेसि नंदो ति । मणियारवणिपहाणो, सेट्ठी रन्नो वि महणिज्जो ॥५१॥ सो एगया निसामिय, सामि जयबंधवं जिणं वीरं । पुरपरिसरे सुराऽसुर-थुणिज्जमाणं समोसरियं . ॥५२॥ वंदणवडियाए लहुं, समागतो जायभत्तिपत्भारो । पयचारेणं चिय पउर-पुरिसपरियालपरिखित्तो । तिपयाहिणापुरस्सर-माह महया गउरवेण जिणनाहं । वंदिता चिय पउर-पुरिसपरियालपरिखित्तो ॥५४॥ अह तिहुयणेक्कतिलएण, धम्मनिलएण वीरनाहेण । पाणिवहविरइसारो, असच्चचोरेक्कपम्मुक्को ॥५५॥ मेहुणचायपहाणो, परिग्गहग्गहविणिग्गहुग्गाढो । साहुगिहीण समुचिओ, रम्मो थम्मो समुवट्ठो ॥५६॥ नंदमणियारसेट्टी, सोउण इमं च जायसुहबोहो । बारसवयसंपुन्नं, गिहत्थधम्म पवज्जेइ ॥५ ॥ संसारुत्तिन्नं पिव, मन्नता अप्पयं ततो सामि । गुरुभत्तीए भुज्जो, वंदित्ता थोउमाऽऽरद्धो ॥५८॥ जय देव! भीमभवसंभ-योरुभयभंगविमलवाहुबल! । कलिकलिलहरणजलभर!, भूरिमहागुणगणाऽगार! ॥५९॥ परसमयबहलतमतिमिर-हरणखरकिरण! मारतरुदाव! । जय तरलतरतुरंगम-समकरणोदारदामसम! जय मोहमहाकुंजर-कंठीरव! लोभकमलहिमकिरण! । संसारसरणिसंचरण-रीणबहुदेहिदाहहर! ॥६१॥ जय रोगजरामरणारि-वारभयविरहिदेह! परमदम! । अदयापरागखरतर-समीर! मायाऽहिविहगवर! ॥६ ॥ जय करुणारससागर!, गरलसमाऽमय! महीमहासीर! । रंभाऽभिरामरामा-रमणरसाऽबद्धसंबंध! ॥६३॥ जय जंतुविसरबंधुर-बंधो! संबंधबुद्धिविलयकर! । करणवरचरणसंगिरण-सार! नयनिवहमयसमय! ૬૪ जय वंदारुसुराऽसुर-चूडामणिकिरणपिंगचरणतल! । कंकेल्लिपल्लवाऽरुण-पाणिसरोरुह! महाभाग! ॥६५॥ भववारिनिलयपारग!, गरिमाऽऽकर! वीर! धरणिधरधीर! । भवविच्छित्तिनिमितं, भवंतमऽहमऽरुहमऽभिवंदे ॥६६॥ इय समसक्कयगाहाहिं, थुणिउं वीरं पवन्नजिणधम्मो । नंदमणियारसेट्ठी, पहट्ठचित्तो गओ सगिहं परिपालेड़ जहुतं, बारसवयसुंदर पि जिणधम्म । विहरिउमाऽऽरद्धो जय-गुरू वि अन्नऽन्नट्ठाणेसु ॥६८॥ अह अन्नया क्याइ, विरहम्मि सुविहियाण साहूण । पुणरुत्तदंसणेण य, अच्वन्तमऽसंजयजणस्स ॥६९॥ हीयंतेसु य सम्मतपज्ज-येसुं पइक्खणं चेव । वच्चंतेसु य बुड्ढेि, बाढं मिच्छत्तदलिएसुं ઉભો 259 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६२७१-६३०७ मिथ्यात्वशल्योपरीनन्दमणियारदृष्टान्तः सो सम्मत्तविउत्तो, पोसहसालाए जेट्टमासम्मि । एगम्मि अवसरम्मि, सअट्ठमं पोसहं कुणइ ॥७१॥ अह अट्ठमतवकम्मे, परिणममाणम्मि नंदसेट्ठिस्स । तन्हाछुहाकिलन्तस्स, एरिसी वासणा जाया ॥७२॥ ते धन्ना क्यपुन्ना, जेहिं पुरीपरिसरम्मि रम्माओ । पुक्खरिणीओ कारा-वियाओ सुइसलिलभरियाओ ॥७३॥ जासु नयरस्स लोगो, पियइ जलं वहइ मज्जइ य निच्वं । ता जायम्मि पभाए, अहं पि आपुच्छिऊण नियं ॥७४॥ कारावेमि महंतिं, पोक्खरणिं इय विभाविऊणं सो । सूरे समुग्गयम्मि, पारिता पोसहं ण्हाओ ॥७५॥ परिहियविसुद्धवत्थो, पाहुडहत्थो गओ निवसमीयं । साऽऽयरक्यप्पणामो, रायं विन्नविउमाऽऽरद्धो ॥७६॥ देव! तुहाउणुनाओ, पोक्खरणिं नयरपरिसरम्मि अहं । काउं इच्छामि तओ, रन्ना सो अब्भणुन्नाओ ॥७७॥ ततो तेण समीहिय-देसे तरुसंडमंडियाऽऽभोगे । आरोग्गपहियभोयण-विसालसालोवगूढन्ता ॥७८॥ कल्हारकुमुयकुवलय-वलयविरायन्तसलिलपडिहत्था । हत्थं चिय कारविया, नंदानामेण पोखरिणी ॥७९॥ मज्जन्तो कीलंतो, जलं पिबन्तो य तत्थ अन्नोन्नं । याहरइ जणो एवं, धन्नो सो नंदमणियारो। ૮૦૧ जेण इमा पोखरिणी, कारविया विमलसलिलपडिपुन्ना । भममाणमच्छकच्छव-विहंगमिहणोहरमणिज्जा ॥८१॥ एवंविहप्पवायं च, निसुणिउं जायगाढपरितोसो । मन्नइ स नंदसेट्ठी, अत्ताणं अमयसित्तं व ૮૨ वच्चंतेसु य दिवसेसु, पुवभवअसुहम्मदोसेण । तस्साहिट्ठियमंडगं, सत्तूहि व दुक्खकारीहिं ॥८ ॥ जर' सार' कास' दाह ऽच्छि', कुच्छि सिरसूल' कोढ कंडूहिं । अरिस" दगोदर कनच्छि'२–वेयणा अजीर" अरुईहिं५ । ૮૪ अइउग्गभगंदर दारुणेहिं, वाहीहिं सोलसहिं जुग । तव्येयणपारद्धेण, तेण घोसावियं च पुरे ॥८५॥ एएसिं रोगाणं, एक्कं पि हु जो ममं पणासेइ । दोगच्चविच्चुइकर, तस्स बहुं देमि दव्वमऽहं મોદી सोऊणेवं बहवे, चिगिच्छसज्जा समागया वेज्जा । पारंभंति तिगिच्छं, हत्थमडणेगप्पगारेहिं ટળી थोवो वि नो विसेसो, उप्पज्जड़ तस्स तो परिस्संता । लज्जायसविच्छाया, जहागयं पडिगया वेज्जा ॥८॥ नंदो पुण रोगाऽऽयेग-वेयणाविहुरिओ मरेऊण । नियपोक्खरिणीए सन्नि-द(रत्तेण उययन्नो ॥८९॥ धन्नो णंदो सेट्ठी, जेणेसा कारिय ति जणवायं । निसुणतेण य तेणं, नियजाई सुमरिया सहसा ॥९ ॥ तो संवेगोवगतो, मिच्छत्तफलं इमं ति मन्नतो । देसविरइप्पहाणं, पुणो वि अणुसरड़ जिणधम्म ॥९१॥ गेण्हइ य इममऽभिग्गह-मेतो छटुं सया वि काहऽमहं । पारणगे मुंजिस्सं, 'फासुगमुव्वलणिगाइ परं ॥१२॥ एवं विणिच्छिऊणं, स महप्पा अच्छिउं समारद्धो । अवरम्मि अवसरम्मि, समोसढो तत्थ यीरजिणो ॥९३॥ तो पोक्खरिणीए जणो, मज्जंतो तीए एवमऽन्नोन्नं । जंपइ चलह लहुँ चिय, वंदामो जेण जिणवीरं ॥९ ॥ गुणसिलए उउजाणे, समोसढं तियसविहियपयपूयं । सोउं च ददुरो इय, संजायाऽतुच्छभत्तिभरो ॥९५॥ जिणनाहवंदणटुं, उक्किट्ठाए गईए निययाए । गुणसिलउज्जाणं पड़, झडत्ति संपट्ठियो गंतुं । ॥९६॥ अह गुडियकरिघडाऽऽरूढ-सुहडदढघडियनिबिडपरिवेढो । तरलतरतुरयपहकर-खरखुरखंडियधरावट्ठो ૨૭ળી सामंतमंतिसत्थाह-सेट्ठिसेणाहियेहिं परिवरियो । करिधराजधिरूढो, सिरांवरि थरियसियछत्तो ૧૮ सुमहग्घाऽलंकारेहिं, भूसिओ सेणिओ महाराया । भत्तीए जिणवरचीर-वंदणत्थं लहु पयट्टो ॥९९॥ तस्स य एगेण तुरंगमेण, सो दद्दुरो खुरडग्गेण । पहओ पहम्मि जंतो, भतीए वंदिउं नाहं ॥९३००॥ तो घायपीडिओ सो, घेत्तूणं अणसणं जिणं 'सम्म । सुमरंतो मरिऊणं, सोहम्मे देवलोगम्मि ॥१॥ दडुरयडेंसयम्मि, पवरविमाणम्मि दडुरंकोत्ति । देयो जातो ततो य, सिज्झिही सो विदेहम्मि ॥२॥ लहुसिद्धिओ वि एवं, जड़ नंदो निंदियं तिरियजोणिं । मिच्छत्तसल्लवसओ, पत्तो ता तं चयसु खवग! ॥३॥ ता उज्झियसल्लतिगो, पंचहिं समिईहिं तिहि य गत्तीहिं । सम्मत्ताऽऽडगणगणं, कयसिवसोक्खं पसाहेस ॥४॥ इय उवएसामयपाणएण, पल्हाइयम्मि चित्तम्मि । निव्वुइमुवेइ खवगो, पाऊण व पाणियं तिसिओ ॥५॥ इय संसारमहोयहि-तरीए संवेगरंगसालाए । चउमूलद्दाराए, सोग्गइगमपउणपयवीए ॥६॥ आराहणाए पडिदार-नवगनिम्मियसमाहिलाभस्स । तुरियद्दारउट्ठारस-पडिदारेहिं विरइयम्मि ॥७॥ 1. फासुगमुबलणिगाइ = प्रासुकशेवालादि BI 260 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२१॥ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६३०८-६३४३ द्वितीय प्रतिपत्तिद्वारप्रारम्भः - श्री सङ्घस्य माहात्म्यम् क्षमापना च पढमेडणुसट्ठिदारे, चरिमं निस्सल्लयापडिदारं । भणियं तब्भणणाओ, समत्तमडणुसट्ठिदारमिणं एवमडणुसट्ठिसवणे वि, जं विणा विणयणं न कम्माणं । संपज्जड़ तमियाणिं, भणामि पडिवत्तिपडिदारं ॥९॥ ___ "द्वितीय प्रतिपत्तिद्वारपारम्भः" - बहुवत्तव्ययवित्थर-निम्मियअणुसट्ठिसवणपरितुट्ठो । मन्नंतो उत्तिन्नं व, अप्पयं भवसमुद्दाओ ॥१०॥ सिरथरियपाणिपउमो, हरिसुक्करिसुच्छलतरोमंचो । अंतोविसप्पिसुहसाहि-अंकुरुप्पीलकलिओ व्य ॥११॥ खवगमुणी पुणरुन्तं, सम्म अणुसासिओ ति जंपंतो । भत्तिभरनिभराए, गिराए भासेज्ज गुरुमेवं । ॥१२॥ भययं! परमत्थेणं, न तुमाहितो वि विज्जए वेज्जो । जो तुममिय मूलाओ, कम्ममहावाहिमुवहणसि ॥१३॥ तुममेय य अंतरपबल-सत्तुहम्मंतजंतुनिवहस्स । करणरणरंगभूमीए, सरणमेक्को असरणस्स ॥१४॥ तुममेव य तिहुयणवित्थरंत-मिच्छततिमिरपूरस्स । विद्धंसणम्मि विप्फुरिय-नाणकिरणुक्को सूरो ॥१५॥ ता तुमए जं सिटुं, विवज्जणीयत्तणेण णिच्वं पि । अच्चन्तदीहसंसार-साहिमूलप्परोहसमं ॥१६॥ निस्सट्ठकयाऽणिटुं, अट्ठारसपावठाणपडलं मे । कालतियगोयरं पि हु, तमऽहं तिविहेण उज्झामि ॥१७॥ सुमुणीणमऽकरणीयं, अलियवियद्धाण चेव सरणीयं । निंदामि निंदणीयं, अट्ठमयट्ठाणअग्गणीयं ॥१८॥ दुहनियहहेउदुग्गइ-परिभमणसहाइणो क्याडरइणो । कोहाऽऽइणो वि तिविहं-तिविहेण इयाणि उज्झामि ॥१९॥ छड्डावियपसमाऽऽयं, पइसमयविसप्पमाणउम्मायं । सव्वं चेव पमायं, तिविहं तिविहेण वज्जामि ૨૦ अच्वंतपावसंधं, पायडिअपयंडदुग्गइरंधं । पडिबंधं बंधं पिव, तिविहं तिविहेण वि धुणामि संकाऽऽइपंकपम्मुक्क-मेक्कमुक्किट्ठसिट्ठचेट्ठाणं । सम्मतमुत्तमं पुण, तुम्ह समक्खं पवज्जामि ॥२२॥ हरिसुक्करिसुब्मिजंत-रोमकूवो पइक्खणं पि अहं । अरिहाऽऽइछक्कविसयं, रेमि भत्तिं पयत्तेणं ॥२३॥ पुणरुत्तभवपरंपर-करडिघडाविहडणेकपंचमुहं । पंचनमोक्कारमऽहं, सरामि सव्वं पयतेणं ૨૪ पडिवज्जामि य वज्जं व, सव्यसायज्जसेलदलणम्मि । भव्यजणदायियमहं, सम्मन्नाणोवयोगमऽहं ॥२५॥ भवभयभंजणदक्खं, विद्धंसियसव्यपावपडिवक्खं । पंचमहव्ययरक्वं, करेमि तुम्हाण पच्चक्खं ॥२६॥ तह तिजगजगडणुब्भड-रागाऽरिभयप्पणासणसमत्थं । मूढाणं दुरहिगम, चउसरणगमं पवज्जामि . રળી पुव्यभवप्पडिबद्धं, पडुपन्नगयं भविस्सविसयं पि । भुज्जो भुज्जो दुक्कड-मडइउक्कडमऽवि दुगुंछामि ॥२८॥ भुवणजणपणयपयपउम-जुयलसिरिवीयरायवज्जरियं । जमऽणुसरंतेण कयं, तं अणुमोएमि अहमऽहुणा . ॥२९॥ बहुविहगुणनिम्मायं, सुहमीणगहे पगिट्ठजालं व । भावणजालं विलसंत-सुद्धभायो सरामि दढं ॥३०॥ सुहुमं पि हु अइयारं, विवज्जयंतो भयंत! सविसेसं । फलिहं व निम्मलं सील-मिन्हि पालेमि अवलियं ॥३१॥ |सुक्यतरुसंडखंडण-पडिबद्धं गंधसिंधुरकुलं व । इंदियवग्गं पि हु संज-ममि सन्नाणरज्जूए अमिंतरबाहिरभेय-भिन्नं बारसविगप्पतवकम्मं । समओवइट्ठविहिणा, काउं वयसेमि सम्ममऽहं . ॥३३॥ जं पि य तिविहं सल्लं, तुमए पह! संसियं महंतं पि । इन्हिं सविसेसतरं, तिविहं तिविहेण बज्जामि ॥३४॥ इय उज्झियव्यायव्य-वत्थुविसयम्मि विहियपडियत्ती । आराहणुत्तरोत्तर-पयविं खवगो! समारुहइ ॥३५ तिसियस्स य अकसायं, अणंडविलं अकडुयं अतित्तं च । पत्थब्भूयं तस्संड-तरंऽतरा पाणगं देज्जा ॥३६॥ अह योच्छिन्नतदिच्छो, स महप्पा होज्ज पाणगं पि तओ । पच्चक्खायेइ गुरु, निज्जवगो जाणिउं समयं ॥३७॥ अह या भवविगुणताड-वधारणा धरियधम्मपडिबंधो । सुस्सायगो वि को यि हु, भवेज्ज आराहगो तो सो ॥३८॥ पुबुवदंसियविहिणा, काउं सयणाऽऽइखामणाकिच्वं । संथारगपव्यज्जं, पयज्जिउं उज्जमेज्ज इहं ॥३९॥ तयऽभावे गिहिधम्म, पुवपयन्नं दुवालसविहं पि । सुविसुद्धतरं भुज्जो, सुविसुद्धतमं च कुणमाणो ॥४०॥ नाणस्स दंसणस्स य, अणुव्बयाणं गुणव्ययाणं च । सिक्खावयाण य तहा, परिवज्जतो अईयारे ॥४१॥ सिरथरियपाणिपउमो, पइसमयपयड्ढमाणसंवेगो । दुवरियसुद्धिहेडं, उवउत्तो इय पयंपेज्जा ૪૨ “श्रीसङ्घमाहात्म्यं क्षमापना च". - मणवइकाएहि क्यं, जमऽणुचियं किंचि इह मए मोहा । सिरिसंघस्स भवगओ,तमऽहं तिविहेण खामेमि ॥४३॥ 1. अट्ठमयट्ठाणगाणीयं पाठा० । 261 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६३४४-६३८२ द्वितीय प्रतिपत्तिद्वार क्षमापना - विराधनायाः क्षमापना | असहायाण सहायो, सत्थाहो मोक्खपहपवन्नाणं । नाणाऽऽइगुणपयरिसो, भयवं संघो वि खमउ महं ॥४४॥ | संघो हि गुरु मज्झं, माया व पिया व मज्झ सिरिसंघो । संघो परम मित्तं, निक्कारणबंधयो संघो ॥४५॥ ता तीयाडणागयवट्ट-माणकालेसु रागदोसेहिं । मोहेण या क्या का-रिया व अणुमन्निया जा य ॥४६॥ सिरिसंघस्स भगवओ, मए उ आसायणा मणागं पि । तं सम्म आलोए, पायच्छित्तं च पडियज्जे ॥४७॥ तह सुविहियाण साहूण, सुविहियाणं तवस्सिणीणं च । संविग्गसावगाणं, तह सुविहियसाविगाणं च ॥४८॥ मणवइकाएहिं कयं, जमणुचियं किंचि कहवि कइया वि । सहसाडणाभोगेण य, तमऽहं तिविहेण खामेमि ॥४९॥ कारुन्नाऽऽउन्नमणा, इमे वि सब्वे पउत्तविणयस्स । संवेगपरायणमाण-सस्स सम्म खमंतु महं ॥५०॥ | एएसिं पि हु जा का वि, कहवि आसायणा मए विहिया । तं सम्म आलोए, पायच्छित्तं च पडिवज्जे ॥५१॥ तह जा विहिया जिणभवण-बिम्बसमणाऽऽइएसु य उवेहा । हीला पओसबुद्धी य, तं पि सम्म समालोए ॥५२॥ चेइयदव्यं साहा-रणं तहा रागोसमोहेहिं । भक्खियमुवेक्खियं या, जं तं सम्म समालोए ॥५३॥ जं सरवंजणमत्ता-बिंदुपयाउडईहिं ऊणमडहियं वा । पढियं जिणवयणं उचिय-कालविणयाइरहियं च ॥५४॥ तह रागदोसमोह-प्पसत्तचित्तेण मंदपुन्नेण । मणुयत्ताऽऽइसुदुल्लह-समग्गसामग्गिजोगे वि ॥५५॥ सव्वन्नपणीयाडगम-वयणं परमत्थअमयभयं पि । जं न सयं सयमडहवा, अविहीए सयमावि या जं ॥५६॥ जं न मए सद्दहियं, जं या सद्दहियमजन्नहा कह वि । बहुमन्नियं न जं वा, वितहं व परुवियं जं च ॥५॥ तह संतेसु वि बलविरिय-पुरिसकाराऽऽइएसु न तदुतं । नियभूमिगाउणुरूवं, कयं मए वितहमऽहय कयं ॥५८॥ जो या तत्थुवहासो, जो य पओसो मए कओ कहवि । तं सव्वं आलोए, पायच्छित्तं च पडियज्जे ॥५९॥ तह भीमभयाऽरन्ने, परिभममाणेण विविहजम्मेसु । जस्स जयं अवरद्धं, पत्तेयं तं पि खामेमि खामेमि माइबग्गं, पिइयग्गमसेसबंधुवग्गं च । खामेमि मित्तवग्गं, सविसेसमऽमित्तयग्गं च ॥६१॥ उवगारिवग्गमित्तो, खामेमि अणुवगारिवग्गं च । खामेमि दिट्ठवग्गं, अदिट्ठवग्गं पि खामेमि ॥६२॥ सुयमसुयं या नायं, अनायमुवयरियमडणुवयरियं च । आभासियं अणाऽऽभा-सियं च परिचियमऽपरिचिययं॥६३॥ दीणाऽणाहप्पमुहं च, अंगिवग्गं समग्गमऽवि सम्म । खामेमि अहं पयओ, स एस मह खामणाकालो ॥६४॥ सम्म धम्मिययग्गं, खामेमि अधम्मियाण वग्गं पि । तह साहम्मियवग्गं तदियरयग्गं च खामेमि ॥६५॥ सम्मग्गट्ठियवग्गं, बग्गममग्गट्ठियाण खामेमि । समुवट्ठिओ जमिण्हिं, स एस मह खामणाकालो ॥६६॥ परमाहम्मियभावं, गएण अवरोप्परं च नरगम्मि । नेरइयाणं जा जा-यणा कया तं च खामेमि - ॥६ ॥ एगिदियाइभावं, गएण एगिदियाउडइजीवाणं । तह जलयरथलयरखह-यरत्तणं कह वि पत्तेणं ॥६८ जं किंचि जलयराऽऽईण, चेव मणवयणकायजोगेहिं । तिरिएसु कयं मणयं पि, मंगुलं तं पि निंदामि ॥६९॥ तह मणुएसु वि रागा, दोसा मोहा भया व हासा वा । सोगाओ कोहमाणेहिं, मायाउ लोभतो ग वि ॥७०॥ एत्थ भवे अन्नत्थ व, भवम्मि जं दोमणस्समडवहसणं । तज्जणतालणबंधण-निभच्छणमारणं तं च ॥१॥ रमाणसाडणग-पीडसंपाडणं क्यं कह वि । कारियमडणुमयमडयि तं, तिविहेणं चेव निंदामि ॥७२॥ तह मंताऽऽइसामत्थओ य, देवेसु जं पि अवरद्धं । पत्ताऽवयारचावण-थंभणकीलणपयोगेहिं ॥७३॥ अहव तिरियत्तपत्तेण, चेव किर तिरियनरसुराणं जं । तह पत्तनरत्तेण य, तिरिनरसुरगोयरं जं च ॥७४॥ पत्तसुरत्तेणं पुण, नेरइयतिरिक्खनरसुराणं जं । सारीरमाणसं या, विप्पियमुप्पाइयं किं पि લોકો | सम्मं तं पि समत्थं, तिविहं तिविहेण ते वि सयमवि य । खामेमि तह खमामि य, स एस मह ख चिट्ठउ ता पावमईए, पावमाऽऽहेडगाऽऽइ जं विहियं । धम्ममईए वि कयं, पायं पायाऽणुबंधकरं ॥७॥ सुरहिसुयवीवाहण-जागडग्गिट्ठियपवापयाणं जं । जुत्तहलगोमहीलोह-हेमतिलघेणुदाणं जं ॥७८॥ जं व इह कुंडकूवाड-रघट्टवावीतलायखायाऽऽई । गोतरुपूयणचंदण-कप्पासाऽऽइपयाणाऽऽई ॥७९॥ t, जा य अदेवम्मि देवबद्धी य । अगरुम्मि वि गुरुबद्धी, गुरुम्मि पण अगुरुबुद्धी य ॥८॥ तते अतत्तबुद्धी, जा य अतते वि तत्तबुद्धी य । काराविया क्या अणु-मया य जइ कह वि कइया वि ॥८१॥ तं तं सव्वं मिच्छत्त-कारणं परिकलितु जतेण । आलोएमि सम्म, पायच्छित्तं च पडियज्जे ૮૨ 262 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६३८३-६४२१ विराधनायाः क्षमापना - पापगर्दा मिच्छत्तमूढमतिणा, जं च कुतित्थं पवत्तियं लोए । अवलविऊण सुमग्गं पि, देसिओ जं कुमग्गो य ॥८३॥| कुग्गहनिबंधणाई, मिच्छत्तपवट्टगाणि य जणाणं । रइयाई कुसत्थाई, अह व अहीयाणि तं निंदे ॥४॥ पावपसत्तिपराई, जम्मणगहियाई मरणमुक्काई । जाणि सरीराणिण्हिं, ताई भावेण वोसिरिनो ॥५॥ तह जं पि पासपहरण-हलमुसलुक्खलघरट्टजंताऽऽई । कयमऽहव कारियं अणु-मयं च जीवोवघायकरं ॥८ एत्थ व जम्मे जम्मंडतरम्मि, या सव्वमडहिगरणजायं । तं पि सपरिग्गहाओ, तिविहं तिविहेण योसिरियं ॥८७॥ आवज्जिऊण किच्छेण, लोभओ मोहओ य रखियओ । मुढेण पावठाणेसु, चेव यावारिओ जो य ॥८८॥ तं अत्थमऽणत्थपयं खु, संपयं भायओ समत्थं पि । सपरिग्गहाओ तिविहं, तिविहेण वासिरामि अहं ॥८९॥ जा का वि केण वि समं, मह वरपरंपरा अभू अत्थि । तं पि पसमट्ठिओ हं, संपइ खामेमि निस्सेसं ॥१०॥ जो गेहकुंटुंबाऽऽइसु य, सुंदरेसु ममाऽऽसि पडिबंधो । इन्हिं च अत्थि जो या, सो वि मए संपयं चत्तो ॥११॥ |किं बहुणा भणिएणं, इत्थेव भवे भवंडतरेसुं वा । इत्थीपुरिसनपुंसग-भावेसुं वट्टमाणेणं ॥९२॥ गमपरिसाडणाइं, परदाराऽभिगमणाऽऽइयमऽणज्जं । विसयाऽभिलासवसगेणं, जं क्यं दारुणं पायं ॥१३॥ सपरहणणाऽऽइ कोहेण, जं च परनिरसणाऽऽइ माणेणं । पचणाऽऽइरूयं, जं पि क्यं 'किंपि मायाए ॥१४॥ जं च महाऽऽरंभपरिग्गहाऽऽइ-लोभाऽणुबंधओ विहियं । अट्टदुहट्टवसेणं, विविहमऽसमंजसं जं च ॥१५॥ रागेण मंसभक्खण-पामोक्खं अभक्खभक्खणाऽऽईयं । महुमज्जलायगरस-प्पमुहं पाणं च जं किंचि ॥१६॥ दोसेण परगुणाऽसहण-निंदणखिसणाऽऽइ जं किंचि । मोहमहागहगहिएण, बहुविहं बहुविहाणेहिं हेओवाएयवियार-सुन्नचित्तेण जं च किर किंचि । पावाऽणुबंधिपायं, पमायओ या कयं जं च ॥१८॥ क्यमिममिमं च काहं, करेमि इमगं तु इयवियप्पेहिं । बोलीणाडणागयवट्ट-माणकालत्तिगाडणुगयं ॥९९॥ तं संविग्गमणो हं, तिविहं तिविहेण गरहणविसुद्धो । आलोयणनिंदणगरि-हणाहिं सव्यं विसोहेमि ॥९४००॥ एवं दुच्चरियगणं, गुणाऽऽगरो गरहिऊण जहसरियं । पडिबंथनिरोहकए, अप्पाणं पन्नवेज्ज जहा ॥१॥ अच्वंतपरमरमणीययाए, एतो अणंततमगुणिए । सुरलोयरइजणए, सिंगारपए य सद्दाऽऽई ॥२॥ विसए अणुहविय पुणो, इमे वि इहभवियतुच्छबीभच्छे । तयऽणंतगुणविहिणे, मा चिंतेज्जासि जीव! तुमं ॥३॥ तहऽसंखतिक्खलक्खत्तणेण, एतो अणंततमगुणियं । दीहरनिरंतरं दुक्ख-मेव नरएसु सहिऊण ॥४॥ नाणाविहसारीरिय बाहाजोगे वि मा इयाणिं पि । आराहणाक्यमणो, मणा वि कोयेज्ज जीव! तुमं ॥५॥ पेहेसु निउणबुद्धीए, नत्थ थेवं पि तुज्झ साहारो । दुक्खाण सम्मसहणं, मोत्तुं सयणाओ जेण सया ॥६॥ एक्को च्चिय भद्द! तुमं, ण विज्जए तिहुयणे वि तुह बीओ । तुममऽवि न चेव बीओ, कस्स वि अन्नस्स भुवणंतो॥॥ अक्खंडनाणदंसण-चरित्तपरिणामपरिणओ धणियं । अप्प च्चिय तुह बीयो, सम्मं धम्माडणुगो एक्को ॥८॥ संजोगकारणो खलु, जीवाणं दुक्खसमुदयो सव्यो । ता सव्वं संजोगं, जावज्जीवं पि यज्जितो . ॥९॥ सव्वं पि हु आहारं, सव्वं पि तहाविहं उवहिजायं । सव्वं खेतगयं पि हु, पडिबंधं निधुणाहि लहुं ॥१०॥ जं पि य इ8 कन्तं, पियं मणुण्णं इमं हयसरीरं । जीयस्स दुक्खछड्डं, तिणतुल्लं तं पि मन्नेसु ॥११॥ इय कयसुहपणिहाणो, सम्मं वढियविसेससंवेगो । सम्मं उद्धियसल्लो, सम्म आराहणाखी ॥१२॥ सम्म समाहियमणो, मणोरहाणं पि पमदुल्लंभं । अभिलसमाणो य मणे, पंडियमरणं रणं व भडो ॥१३॥ बद्धपउमाऽऽसणो च्चिय, जहासमाहीए धरियदेहो वा । संथारत्थाऽवत्थो यि, दंसमसगाऽऽइ अगणेतो ॥१४॥ नियभालयलनिलीणं, काऊणं पाणिपंकयं धीरो । भत्तिभरनिब्भरमणो, भुज्जो भुज्जो भणेज्ज इमं ॥१५॥ एस रेमि पणाम, अरिहंताणं तिलोयमहियाणं । परमत्थबंधवाणं, सम्म देवाहिदेवाणं ॥१६॥ एस रेमि पणाम, सिद्धाणं परमसुहसमिद्धाणं । निक्कलरुवथराणं, सिवपयसररायहंसाणं ॥१७॥ एस करेमि पणाम, आयरियाणं पि पसमरासीणं । परमत्थजाणगाणं, ससमयपरसमयकुसलाणं ૧૮ના एस रेमि पणाम, उज्झायाणं सुझाणझाईणं । भवियजणवच्छलाणं, सुत्तपयाणप्पसत्ताणं ॥१९॥ एस रेमि पणाम, साहूणं सिद्धिपहसहायाणं । संजमसिरिनिलयाणं, पमत्थणिबद्धलक्खाणं एस करेमि पणाम, सव्यन्नुपणीयपवयणस्साऽवि । संसारसरणरीणंऽगि-बग्गविस्सामथामस्स ॥२१॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६४२२-६४५६ द्वितीय प्रतिपत्तिद्वारे मध्यानचिंतनम् एस करेमि पणाम, समत्थतित्थयरकयपणामस्स । सुहकम्मोदयणिद्दलिय-विग्घसंघस्स संघस्स वंदामि ते पएसे, जम्मणनिक्खमणनाणनिव्वाणं । पत्तं जेसु जिणेहिं, कल्लाणनिहाणभूएहिं २३॥ वंदामि सीलसोरभभरविजियवरगुरूण सुगुरुण । भवभीयजंतुसरणे, चरणे कल्लाणकुलभवणे ૨૪ पुव् िपि पणयजणवच्छलाण, संविग्गणाणरासीणं । कालाऽणुरूवकिपि-कलावजुत्ताण थेराणं ॥२५॥ पामूलम्मि सम्म, रम्म धम्म पवज्जमाणेणं । सव्वं पच्चक्नेयं पच्चक्खायं मए आसि ॥२६॥ पडिवज्जियव्ययं पुण, पडिवन्नं अह विसेससंविग्गो । तं चेव संपयं पुण, सविसेसतमं करेमि अहं । રેરણા तत्थ पढम पि सम्म, मिच्छताओ पडिक्कमित्ताणं । तह सविसेसतममऽहं, काउं सम्मतपडिवत्तिं રા तत्तो पडिक्कमित्ता, अट्ठारसपावठाणगेहिंतो । विहियकसायनिरोहो, अट्ठमयट्ठाणपरिवज्जी ॥२९॥ परिचत्तपमायपओ, दव्याऽऽइचउक्कमुक्कपडिबंधो । जहसंभवंतसुहुमा-ऽइयारपइसमयसोहिपरो રે तच्चरियअणव्वओ य. कयसत्तखामणो धणियं । पुव्वत्ताऽणसणक्कम-कयसव्वाऽऽहारपरिहारो ॥३१॥ नाणोवयोगपुव्वं, पइकिच्चं निच्चमेव यड्ढं(ट्ट)तो । पंचाऽणुव्वयरक्खा-परायणो सीलसाली य ॥३२॥ इंदियदमप्पहाणो, निच्चमणिच्चाऽऽइभावणापरमो । साहेमि उत्तिमढें, एवं कयकिच्चपडिवत्ती ૩૩ जीवियमरणाऽऽसंसप्पयोग-पडिवज्जणुज्जु(ज्ज)ओ मइमं । इहपरलोगाऽऽसंस-प्पओगमावि परिहरंतो य ॥३४॥ क्यकामभोगविसयाऽऽ-संसापरिवज्जणो पसमरासी । पंडियमरणरणाऽवणि-विजयपडागागहणसुहडो ॥३५॥ पच्वक्वायतहाविह-पच्चक्खाणाऽरिहऽत्थसत्थो सो । तह कायवमिणं, ती पडिवन्नपवज्जियव्यो य ॥३६॥ नवनवतकालसमुच्छलत-संवेगपयरिसगुणेण । अप्पुयमिवडप्पाणं, पए पए परिकलंतो य समसत्तुमित्तचित्तो, समतणमणिलेठुकंचणो धीमं । पइखणविलसंतमणो-समाहिरसपयरिसमुवेतो ૨૮ળા सोच्या दट्ठणं भुंजिऊण, परिजिंघिऊण फासित्ता । अच्वंताऽसुंदरसुंद-रे वि सद्दाऽऽइणो विसए ॥३९॥ अरइरईणमडकरणा, वत्थुसहावाऽवयोहजोगेण । सारयसरियाजलसुप्प-सन्तचितो महासत्तो ॥४०॥ गुरुदेवयापणाम, काउं उचियाऽऽसणट्ठिओ चेय । एसो स चंदयेज्झग-समओ ति मणे विचिंतेंतो ॥४१॥ निस्सेसकम्मदुमवण-विसेसपच्चलदयानलुत्थाणं । सम्मं धम्मज्झाणं, झाएज्जा तत्थ सो अहया કરા संपुन्नचंदवयणं, उवमाउइक्कंतरूवलायण्णं । परमाऽऽणंदनिबंधण-मऽइसयसयसमुदयमयं च ॥४३॥ चक्कंऽकुंसकुलिसज्झय-पामोक्खडक्लंडलक्खणधरंडगं । सव्वुत्तमगुणकलियं, सव्युत्तमपुण्णरासिमयं ૪૪ના सरयससिकरवलच्छ-छत्ततिगाऽसोगतरुतलनिलीणं । सिंहासणोवविटुं, दुंदुहिघणथणियनिग्घोसं धम्ममणहं सदेवासुराए, परिसाए वागरेमाणं । सव्वजगजीववच्छल-मऽचिंततमसत्तिमाहप्पं ૪દ્દા सत्तवयारपवितं. समत्थकल्लाणकारणमडवंझं । सिववद्धबंभपमहाड-भिहाणधेयं परेसिं पि ૪૭ जुगवं सव्वं नेयं, निउणं नाणा मुणंतपासंतं । किर मुत्तिमंतधम्म, झाएज्ज जिणं जगपईवं ॥४८॥ अहवा तस्सेव जिणस्स, भगवओ तिहुयणस्स वि पमाणं । झाएज्ज सुयं दुहतावि-यंगिपीऊसवरिसं व ॥४९॥ जड़ पुण गेलण्णसा, न हु 'सक्का एत्तियं भणेउं सो । 'असियाउस' ति वंजण-पणगं पि मणम्मि झाएज्जा ॥५०॥ परमेट्ठिपंचगाओ, जायइ एक्कक्कयं पि दुरियहरं । जइ त किमंग समगं, समगं पणगं न पावाणं ॥५१॥ परमेट्ठिपणगमेयं, कुणउ पयं मह मणे खणं जेण । साहेमि सज्जमऽहं, इत्थं पत्थेज्ज य तयाणि ॥५२॥ भवजलहितरणपोओ, सुगइपहे रहवरो कुगइपिहणं । सग्गगमणे विमाणं, सिवपासाए य निस्सेणी ॥५३॥ परलोयपहे पाहेय-मेस कल्लाणवल्लरीकंदो । दुक्खहरो सोक्खकरो, परमेट्ठीणं नमोक्कारो ૪ पंचनमोक्कारसमा, अंते वच्चंतु नूण मह पाणा । जेण भवसंभवाणं, दुहाण सलिलंजलिं देमि ॥५५॥ इय पंचनमोक्कारे, पणिहाणपरेण सव्वकालंपि । भवियव्यं बुद्धिमया, किं पुण पज्जतकालम्मि ॥५६॥ पासट्ठिएहिं अहवा, पढिज्जमाणं इमं नमोक्कारं । अवधारेज्जा एगग्ग-माणसो सबहुमाणं सो ॥५७॥ चंदावेज्झयआराहणाऽऽइ, संवेगजणगगंथे य । सम्मं अवधारेज्जा, निज्जामगजइपढिज्जते ૧૮ वायाऽऽइउवहयगिरो, अच्वंतं आउरत्तपत्तो वा । भासिउमडसहो अंगुलि-माऽऽईहिं करेज्ज सण्णं ति ॥९॥ 1. सक्का = शक्नुयात् । 2. शामकम् । 264 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६४६०-६४६५ तृतीय सारणाद्वारम् - चतुर्थः कवचद्वारम् निज्जामणापरा ते वि, साहुणो तस्स उत्तिमट्ठस्स । आसन्नाऽऽसन्नतमं, होउं सुइसुहयसद्देणं ज्जवि लक्विज्जइ, अंगोवंगाऽऽइसंगया उम्हा । उवउत्तमाणसा ताव, अप्पणो ख्यमगणेता ॥६१॥ अइनिज्झणं करता, गंथे संवेगभावणाजणगे । पंचनमोक्कारं वा, पढ़ति अणवरयमक्खलियं ॥६२॥ इट्ठमऽसणं व छुहिओ, सुसाउसीयलजलं व अइतिसिओ । परमोसहं व रोगी, गेण्हइ बहुमन्नड़ य सो तं ॥३॥ इय अक्खंडविहीए, सारीरबलखए वि भावबलं । अवलंबिऊण धीरो, रेज्ज कालं पुरिससीहो ॥४॥ आसण्णभाविभद्दो हु, जड़ परं कोई किर महासत्तो । इत्थं कहियकमेणं, पुरिसो पाणे परिच्चयइ ॥६५॥ इय पावजलणजलहर-समाए संवेगरंगसालाए । चउमूलद्दाराए, सोग्गइगमपउणपयवीए ॥६६॥ आराहणाए पडिदार-नवगमइए समाहिलाभम्मि । भणियं चउत्थदारे, बीयं पडिवत्तिदारमिणं पडियत्तिवओ वि कुओ वि, हेऊओ कहयि होज्ज से खोहो । इय तप्पसमनिमित्तं, सारणदारं णिदंसेमि ॥६८॥ ___ “तृतीय सारणाद्वारम्” - संथारगट्ठियस्स वि, कहं पि आराहणुज्जयस्साऽवि । दढधीसंघयणस्स वि, अभिलसियसुदुक्कस्साऽवि ॥९॥ पयईए च्चिय परमं, संसारुव्येयमुव्वहंतस्स । अच्वंतमुत्तरोत्तर-यड्ढंतसुहाउसयस्साऽवि ॥७०॥ खमगस्स महामुणिणो, चिरभवदुच्चिन्नकम्मदोसेण । वायाऽऽइखोभओ या, निसियणउव्वत्तणाऽऽइसु या ॥७१॥ ऊरुदरसिरकसवण-वयणदसणच्छिपट्ठिपामोक्ने । अंगे कत्थ वि उठेज्ज, वेयणा झाणविग्घकरी ॥७२॥ तो गुणमणिपडहत्थो, हत्थं पोउ व्य भिज्जए खमगो । भिन्नो य भीमभवसा-यरम्मि सुइरं परिभमइ ॥७३॥ तं च तहा दट्ठण वि, निज्जामगसद्दमुव्वहंतो वि । कुणइ उवेक्खं जो किर, निद्धम्मो को तओ अन्नो ॥७४॥ निज्जावगसाहुगुणा, जे पुव्विं वन्निया इहं आसि । तेसिं स होइ दूरे, खवगमुवेक्नेज्ज जो मूढो ॥५॥ तो तस्स चिगिच्छाजाण-एहिं साहूहिं अप्पणा चेव । वेज्जाऽऽएसेणडहया, परिकम्मं होइ कायव्यं ॥६॥ वायकफपित्तपमुहं, कारणमुवलक्खिऊण वियणाए । फासुयदव्येहि रेज्ज, झत्ति विज्झवणमुवउत्तो ॥७॥ बत्थिअणुवासणतावणेहिं, आलेवसीयकिरियाहिं । अब्भंगणपरिमद्दण-पमुहेहिं चिगिच्छए खवगं ॥८॥ जह तहवि असुहकम्मोदएण, वियणा न से उवसमेज्जा । अहवा तण्हाऽऽईया, परीसहा से उदिज्जेज्जा ॥७९॥ तो वेयणाऽभिभूओ, परिसहाऽऽईहिं वा वहिज्जतो । खवगो अणप्पवसगो, ओहासेज्जा व पलवेज्जा ॥८०॥ संमुझंतो तो सो, तह कायव्यो जहाऽऽगमं गणिणा । जह सम्म संवेगा, पच्चाऽऽगयचेयणो होड़ . ॥८१॥ 'को सि तुमं? किंनामो, कत्थ वससि को व संपयं कालो । किं कुणसि कह व अच्छसि, को वा हं' इय विचिंतेसु॥८२॥ एवं सारेयव्यो, निजामगसूरिणा सयं खवगो । साहम्मियवच्छल्लं, बहुलाभं मन्नमाणेणं ॥८३॥ इय कुगइतिमिरदिणयर-पहाए संवेगरंगसालाए । चउमूलद्दाराए, सोग्गइगमपउणपयवीए आराहणाए पडिदार-नवगमइए समाहिलाभम्मि । भणियं वउत्थदारे, तइयमिणं सारणादार . ॥८५॥ अह सारियो वि खवगो, न जं विणा धीरिमं धरेउमडलं । धम्मवएससरूवं, तं क्ययद्दारमऽक्नेमि ॥८६॥ “चतुर्थःकवचद्वारम्" - दुस्सहपरीसहोहामियस्स, मज्जायमुज्झिउमणस्स । आगारिंगियकुसलो, खवगस्स वियाणिऊण गुरू ટળી विसरिसचेटुं णिज्जामणेक्क-निउणो विमुक्कनियकिच्चो । निद्धाहिं महुराहिं, गिराहिं अणुसासणं कुज्जा ॥८॥ रोगाऽऽयंके सुविहिय!, निज्जिणसु परीसहे य धीबलिओ । तो निव्यूढपइन्नो, मरणे आराहओ होसि ॥८९॥ तहाहत्थि व्य तुम अवहत्थिऊण, आलाणखंभमिव मेरं । हत्थिवयत्थाणीए, गुरुणो वि य अवगणेऊण ॥१०॥ अंकुससरिसं अवधीरिऊण, तेसिं च सदुपदेस पि । अंगपडिचारगे वि हु, नियगे वि परंमुहे ठविउं ॥११॥ अच्यंतभत्तिकोऊ-हलाऽऽगयं पेच्छगं पि बहुलोगं । विपरंमुहिउं निरवज्ज-लज्जरज्जु च तोडिता ॥२॥ पडिबद्धरिद्धिकुसुमं, पत्तपरिग्गहपसोहियच्छायं । भममाणो सीलवणं, भंजिहिसि लहुं महाभाग! - ॥१३॥ खंडिहिसि समिइगिहभित्ति-संचयं लूरइस्ससि असेसं । गुत्तिवईवग्गं पि हु, दलिहिसि सुगुणाऽऽवणस्सेणि॥९४॥ नूणं न भद्द! कुलसंभयो ति, इय जणपवायरेणूहिं । अवगुंडिज्जिहिसि चिरं, स(ग)रिहिज्जसि बालगजणेण ॥१५॥ 265 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६४६६-६५३४ चतुर्थः कवचद्वारम् पुयाउणुभूयरायाऽऽइ-विहियसम्माणणाऽऽइयगुणाणं । चुक्किहिसि कुगड़गड्डा-वडणेणं अह विणस्सिहिसि ॥१६॥ ता भद्द! समीहियकज्ज-सिद्धिविग्घाउ विरमसु इमाउ । कंटगवेहुवमाउ, असमाहिपयाउ इण्डिं पि ॥९॥ तह खुड्डकुमारो इव, तुम पि अणुसरसु सम्मबुद्धीए । इण्हिं पि सुट्ठ गाइय-मिच्चाइगीइयाअत्थं ॥९८॥ निव्याहिया हु तुमए, कोडी वयणिज्जवज्जिएणेव । अहुणा कागणिनिव्या-हणे वि कीबत्तमुव्वहसि ॥९९॥ तिण्णो महासमुद्दो, तरियव्यं गोपयं तुहेयाणिं । समइक्कंतो मेरु, परमाणू चिट्ठइ एत्तो . ॥९५००॥ ता धीर! धरसु •अच्वन्त-धीरिएं चयसु कीवपयइत्तं । हरिणंकनिम्मलं निय-कुलं पि सम्मं विभावसु ॥१॥ मल्लो व्य पेल्लिऊणं, पमायपरचक्कमेक्लाए । एत्थेव पत्थुयत्थे, जहसतीए परक्कमसु ॥२॥ परिभावेसु य पयईए, सुंदरतं तहाऽणुगामित्तं । भुज्जो य दुल्लहत्तं, धम्मगुणाणं अणग्घाणं ॥३॥ तह सरसु खवग! जं तं, मज्झम्मि चउव्यिहस्स संघस्स । बूढा महापइन्ना, अहयं आराहइस्सं ति ॥४॥ को नाम भडो कुलजो, माणी थूलाइऊण जणमज्झे । जुज्झे पलाइआवडिय-मेत्तओ चेव अरिभी ॥५॥ थूलाइऊण पुव्यं, माणी संतो परीसहाऽरीहिं । आवडियमेत्तगो चेव, को विसन्नो भयइ साहू દા थूलाइयस्स कुलयस्स, माणिणो रणमुहे वरं मरणं । न य लज्जणयं काउं, जायज्जीयं पि जणमझे ॥७॥ समणस्स माणिणो उज्जयस्स, निहणगमणं पि होउ वरं । न य नियपइन्नभंगेण, इयरजणजंपणं सहियं ॥८॥ एक्कस्स कए नियजीवियस्स, को जंपणं करेज्ज नरो । पुत्तयपोताऽऽईणं, समरम्मि पलायमाणो व्य ॥९॥ तह अप्पणो कुलस्स य, संघस्स य मा हु जीवियत्थी उ । कुणसु जणे जंपणयं, जाणियजिणययणसारो वि ॥१०॥ जइ नाम तन्नाणी, संसारपयट्टणाए लेसाए । तिव्याए वेयणाए, समाउला तह करिति थितिं ॥११॥ किं पुण जड़णा संसार-सव्यदुक्खक्वयं तेण । बहुतिव्वदुक्खरसजाण-एण न थिई रेयव्या ॥१२॥ तिरिया वि तोडपीडा-विहरियदेहा वि गोणपोयलया । किं अणसणं पवन्ना, कंबलसंबला सुया न तए ॥१३॥ तुच्छतणू तुच्छबलो, पयईए चेव तुच्छतिरिओ य । अणसणविहिं पवन्नो, वेयरणी.यानरो य तहा ॥१४॥ खुद्दो वि विपीलियविहिय-तिव्यवियणो वि जायपडिबोहो । मासद्धमणसणविहिं, पडियन्नो कोसियो सप्पो ॥१५॥ जम्मन्तरजणणी को-सलस्स बग्घीभवम्मि लद्धसुई । तिरिया वि छुहावेयण-मडगणिय तह संठियाडणसणे ॥१६॥ जइ ता पसुणो वि इमे, अणसणमडकरिंसु थिरसमाहिपरा । ता नरसीहो वि तुमं, सुंदर! तं कीस न करेसि ॥१७॥ देवीदारेण तहो-यसग्गजोगे सुदंसणगिही वि । अवि मरणमउज्झयसिओ, पडियन्नवया न उण चलिओ ॥१८॥ तह सव्वराइउस्सग्ग-जणियवियणं सुतिव्यमगणंतो । चंडायडिंसयनियो, सुगई पत्तो अचलसतो ॥१९॥ गोठे पायोवगओ, सुबंधुणा गोमए पलिवियम्मि । डझंतो चाणक्को, पडिवन्नो उत्तम अटुं ॥२०॥ व तहा. अक्खलियसमाहिणो अहिगयत्थे । जाया तमं पिता समण-सीह! तं कणस सविसेसं॥२१॥ मेरु व्य निप्पकंपा, अक्खोभा सायरो व्य गंभीरा । धीमंतो सप्पुरिसा, होति महल्लावऽऽवईसुं पि ॥२२॥ धीरा विमुक्कसंगा, आयाउडरोवियभरा अपरिकम्मा । गिरिपब्भारमडइगया, बहुसावयसंकडं भीम ॥२३॥ धीधणियबद्धकच्छा, समयुत्तविहारिणो सुहसहाया । साहिति उत्तिमटुं, सावयदाढंडतरगया वि ૨૪ भालुंकीए अकरुणं, खज्जतो घोरवेयणड्ढो यि । आराहणं पवन्नो, झाणेण अयंतिसुकुमालो ॥२५॥ मुग्गिल्लगिरिम्मि सुकोसलो वि, सिद्धत्थदइयओ भयवं । बग्घीए खज्जतो, पडियन्नो उत्तिम अटुं ॥२६॥ पडिमाए ठिओ सीसे, दिएण पज्जालियम्मि जलणम्मि । भययं गयसुकुमालो, पडियन्नो उत्तिमं अटुं । તેરણા एवं चिय भययं पि हु, कुरुदत्तसुओ ठिओ य पडिमाए । साएयनयरबाहिं, गोहरणे कुढियदिन्नग्गी ૨૮ उद्दायणरायरिसी, उक्कडविसयेयणापरतो वि । अविगणियदेहपीडो, पडिवन्नो उत्तिमं अटुं ॥२९॥ नावाओ पक्खित्तो, गंगामज्झे अमज्झमाणमणो । आराहणं पवन्नो, अंतगडो अन्नियापुत्तो રેલી चंपाए मासखमणं, करित्तु गंगातडम्मि तण्हाए । घोराए धम्मघोसो, पडिवन्नो उत्तिमं अटुं • ॥३१॥ | रोहीडयम्मि सन्नी, हओ वि कुंचेण खंदगकुमारो । तं वेयणमऽहियासिय, पडिवन्नो उत्तमं अटुं ॥३२॥ हत्थिणपुर- कुरुदत्तो, सिंबलीफाली व दोणीमंतम्मि । डझंतो अहियासिय, पडिवन्नो उत्तमं अटुं ॥३३॥ वसहीए पलिबियाए, रिट्ठाऽमच्चेण उसभसेणो वि । आराहणं पवन्नो, सह परिसाए कुणालाए ૩૪ 266 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६५३५-६५७२ चतुर्थः कवचद्वारम् तह वइरखुड्डगो वि हु, पाओवगओ सिलायले तत्ते । आराहणं पवन्नो, मयणं व विलीयमाणो वि ॥३५॥ छिन्नद्धाणे सरिया-जलम्मि सबसे वि तहकयदाहो । धणसम्म खुड्डगो वि हु, अहयसमाही दियं पत्तो ॥३६॥ समकालमसयपिज्जंत-देहरुहिरो वि सुमणभद्दमुणी । तदवारणेण सम्मं, अहियासिंतो दिवं पत्तो ॥३७॥ मेयज्जो वि महरिसी, सीसाऽऽवेढेण निग्गयऽच्छी वि । तह कह वि समाहिमडकासि, झत्ति जाओ जहंडतगडो॥३८॥ भगवं पि महावीरो, बारसवासाइं विसहए सम्म । विपिहोवसग्गवग्गं, तेलोक्केकल्लमल्लो वि ॥३९॥ कच्छुजरसाससोसाड-भत्तच्छंदडच्छिकुच्छिवियणाओ । भयवं सणंकुमारो, अहियासइ सत्त वाससए ॥४०॥ अरिहन्नओ वि भयवं, पच्चाऽऽगयचेयणो जणणिवयणा । सुकुमालयाए तणुणो, अखमो चरिउं चिरं चरणं ॥४१॥ पायोवगओ धीरो, तत्तसिलाए मुहुत्तमेतेणं । सहसा विलीणदेहो, कालगओ गुरुसमाहीए ॥४२॥ हेमंते रत्तीए, अपाउयंडगा तवस्सिणो लूहा । पुरपच्चयंडतरपहे, आगासे संठिया पडिमं ॥४३॥ किं न सुया ते सुंदर!, चउरो सिरिभद्दबाहुणो सीसा । सीएण विचेटुंगा, समाहिणा तह गया सुगइं ॥४४॥ किं न सुया ते तइया, भगवंतो कुंभकारकडनयरे । खंदगसूरिविणेया, समाहिपत्ता महासत्ता ॥४५॥ दंडगिरन्नो उवरोहिएण, पायेण पालगदिएण । आराहणं पवन्ना, पीलिज्जंता वि जंतण ॥४६॥ तह कालवेसियमुणी, अरिसारोगेण तिव्ववियणो वि । तेगिच्छमणिच्छंतो, विहरंतो मुग्गसेलपुरं ૪૭ पत्तो तत्थट्ठियभगिणि-दिन्नअरिसोसहेऽहिगरणं ति । भत्तं पच्चक्खिता, विवित्तदेसे ठिओ पडिमं ॥४८॥ तिव्वसडिंभसियालीए, खिक्खियंतीए खज्जमाणो वि । आराहणं पवन्नो, देवाणुपिया तह महप्पा ॥४९॥ तह सावत्थिपुरीए, जियसत्तुसुओ कुमारभावम्मि । पव्वइयो भद्दमुणी, विहरंतो कहवि वेरज्जे | रायपुरिसेहिं पणिहित्ते, गेण्हिडं आहणितु तच्छित्ता । खयखिततिक्खखारो, डब्भेहि य वेढिउं मुक्को ॥५१॥ सुक्कंतरुहिरख्यखुत्त-डब्भतणजणियतिक्खदुक्खो वि । सम्ममहियासमाणो, समाहिणा चेव कालगतो ॥५२॥ तिक्नुग्गतुंडलग्गिर-समकालपिवीलियापरद्धो वि । भययं चिलाइपुत्तो, पडियन्नो उत्तिमं अटुं ॥५३॥ गुरुपक्खवायविहियाऽ-णुसासणासवणजणियकोयेण । गोसालएण सहसा, मुक्काए तेउलेसाए पलयाडनलतुल्लाए, डज्झन्तो वि हु मुणी सुनक्खत्तो । आराहणं पवन्नो, एवं सव्वाणुभूई वि . ॥५५॥ तह सुंदर! किं तुमए, न सुओ सो दंडनामअणगारो । उग्गतयो गुणरासी, खंतिखमो जो किर महप्पा ॥५६॥ जउणायंकुज्जाणे, बाहिं महुरापुरीए नितेणं । आयायिंतो दटुं, दुढेणं जउणनवड़णा શાળા अकुसलकम्मुदउब्भव-कोवेण सिरम्मि निठुरफलेण । पहओ तब्भिच्चेहिं, पत्थररासीकओ सहसा ॥५८॥ अह तह वि तेण मुणिणा, समाहिणा अहह! कहवि तह सहियं । जह खवियकम्मकवओ, अंतगडो केवली जाओ॥५९॥ किं या कोसंबिनिवासि-'जण्णदत्तस्स माहणस्स सुओ । सुणिओ न सोमदेवो, तब्भाया सोमदत्तो य ॥६०॥ सिरिसोमभूइमणिणो, पासे सम्म पवन्नसामन्ना । संविग्गा गीयत्था, जाया ते अह विहरमाणा ॥१॥ उज्जेणीसंकंताण, जणणिजणयाण बोहणणिमित्तं । पासम्मि गया तत्थ य, दिया वि वियडं किर पिबंति ॥२॥ तो दव्यंडतरजुत्तं, मुणीण सन्नायगेहिं किर वियडं । दिन्नं अन्ने अन्ना-णओ य वियडं चिय भणंति ॥६३ व तं विसेसं, अयाणमाणेहिं तेहिं साहहिं । जाया य वियडविहरा, तदअवगमे मुणियपरमत्था ॥१४॥ चिंतेंति ही! अकज्ज, कयं ति एयं महापमायपयं । इय वेरग्गा भत्तं, पच्चक्खिय ते महाधीरा ॥६५॥ एगम्मि नईतीरे, सुविसंतुलकट्ठकूडउवरिम्मि । पाओवगया य अकाल-वरिससरिपूरहीरता ॥६६॥ जलहिगया जलचरभक्ख-णे वि उच्छल्लणाऽऽइदुत्थे वि । सम्मं समाहिपत्ता, अचलियसत्ता दिवं पत्ता ॥६॥ जड़ ता एए एवं, असहाया तिव्यवेयणड्ढा वि । अच्वंतम पडिकम्मा, पडिवण्णा उत्तिमं अटुं ॥८॥ किं पुण अणगारसहायएण, कीरंतयम्मि परिकम्मे । संघे य समीवत्थे, आराहेउं न सक्केज्ना ॥६९॥ जिणवयणमऽमयभूयं, महुरं कन्नसुहयं सुणतेण । सक्को हु संघमज्झे, साहेउं उत्तिमो अट्ठो ॥७०॥ तह नारयतिरिएसुं, माणुसदेवत्तणेसु य ठिएणं । जं पत्तं सुहदुक्खं, तं तह चिन्तेसु तच्चित्तो .. ॥७१॥ नरएसु वेयणाओ, सीउण्हकयाओ बहुवियप्पाओ। कायनिमित्तं पत्तो, अणंतनुत्तो सुतिक्खाओ ॥७२॥ | 1. जण्णदंड पाठां० । 267 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६५७३-६६०८ चतुर्थः कवचद्वारम् ॥७५॥ जड़ दगवारगमाणं, अयपिंडं कोइ पक्खिवे नरए । उन्हे भूमिमऽपत्तो, निमिसेण तओ विलीएज्जा ॥७३॥ तह चेव तप्पमाणो, पज्जलियो सीयनरयपक्खित्तो । सो च्चिय भूमिमऽपत्तो, निमिसेण सडेज्ज अयपिंडो ॥ ७४ ॥ जं सूलकूडसामलि - वेयरणिकलंबवालुयाऽसिवणे । नरए लोहंडगारे, खाविज्जंतो दुहं पत्तो भज्जिययं पिव जं भज्जि - ओ सि जं गालिओ सि रसियं व । जं कप्पियो सि 1 वल्लुर - यं व चुन्नं व चुन्निकओ ॥७६॥ तलिओ तत्तकवल्लीहिं, जं च कुंभीहिं पक्कओ जं वा । भिन्नो भल्लीहिं फलेहिं, फालिओ तं विचिंतेसु ॥७७॥ तिरिएसु य छुहतन्हुन्ह - सीयसूलंड कुसंऽकदमणकयं । वहबंधमरणजणियं, धणियं चिंतेसु तं दुक्खं | पियविरहे अप्पियसंग मे य मणुयत्तणम्मि जं दुक्खं । धणहरणदारधरिसण - दारिद्दोवद्दवकयं च | खंडणमुंडणताडण - जररोगवियोगसोगसंतावं । सारीरमाणसं तदुभयं च सम्मं विचिंतेसु | आणाऽभियोगपरिभव-ईसाऽमरिसाऽऽड़ माणसं दुक्खं । देवेसु चवणचिंता - वियोगविहुरेसु चिंतेसु किंच ॥७८॥ ॥७९॥ ॥८०॥ ॥८१॥ ॥८३॥ ॥८४॥ ॥८५॥ सहसा परियाणिय चवण - चिंधं विहुरो सुरो विचिंतेइ । विरहाऽऽउरतरलच्छो, तमऽमरलच्छिं नियच्छंतो ॥८२॥ वसिउं निच्चुज्जोए, सुरलोए सुरहिपरिमलग्घविए । निवसिस्सं गब्भहरे, दुग्गंधमहंऽधयारम्मि वसिऊण य् पूइपुरीस - रुहिररस असुइनिब्भरे गब्भे । संकोडियंऽगमं गो, 2नीहं कह कडिकुडिच्छाओ तह नयणाऽमयबुद्धिं दठ्ठे सुरसुंदरीण मुहचंदं । हा! हत्थं नारीणं, मयनियडिघुडुक्कियं वयणं रमिउं सुररमणीओ, सोमालसुयं व बंधुरंगीओ । नारिं पगलंताऽसुइ - घट्ठीसरिच्छं कह रमिस्सं | दुग्गंधमणुयतणुपरि - मलाउ दूरं पुरा पलायंतो । तं नरदेहं पूई, पत्तो कत्तो पलाइस्सं न कयं दीणुद्धरणं, न कयं धम्मियजणम्मि वच्छल्लं । हिययम्मि वीयराओ, न धारिओ हारिओ जम्मो ॥८८॥ न कया य मए महिमा, जिणकल्लाणेसु सुकयकल्लाणा । मंदरगिरिनंदीसर - माऽऽईसु न सिद्धकूडेसु ॥८९॥ विसयविसमुच्छिएणं, मोहतमंऽधेण वीयरागाणं । वयणाऽमयं न पीयं, सुरजम्मं हा! मुहा नीयं ॥૬॥ ॥८७॥ ॥९०॥ | दलइ व जलइ व चलइ व, हिययं पीलिज्जइ व भिज्जइ व । चिंतिय सुरविहवसिरिं, घट्ट व तडति फुट्टइ व॥९१॥ भवणं भवणाउ वणं, वणाउ सयणाउ सयणमऽल्लियइ' । तत्तसिलायलघोलिर-मच्छो व्य रई न पावेइ ॥९२॥ तं भमियं तं रमियं तं हसियं तं पियाहिं सह वसियं । हा! कत्थ पुणो दच्छं, इय उपलवं झति विज्झाइ ॥ ९३ ॥ | इय चवणसमयभयविहुर - विबुहविसमं दसं नियंताणं । मोत्तुं धम्मं धीराणं, किं व हिययम्मि संठाउ ॥९४॥ एयमऽणंतं दुक्खं, चउगइगहणे परव्यसं सोढुं । तत्तो अनंतभागं, सहसु इमं सम्ममऽप्पयसो ॥९५॥ किं च तुहऽणंतखुत्तो, आसी तन्हा भवम्मि तारिसिया । जं पसमेउं सव्वे, नइजलनिहिणो वि न तरेज्जा ॥९६॥ आसी अणंतखुत्तो, संसारे ते छुहा य ब्रारिसिया । जं पसमेउं सव्वो, पोग्गलकाओ वि न तरेज्जा ॥९७॥ जड़ तारिसिया तन्हा, छुहा य अवसेण ते तया सोढा । धम्मो त्ति इण्हि सवसो, कहमेयाओ न सहसि तुमं ॥९८॥ 4 सुइपाणएण अणुसट्ठि - भोयणेण य सया उबग्गहियो । झाणोसहेण तिव्वं पि, वेयणं अरिहसे सोढुं ॥९९॥ तथा ॥९६००॥ મા अरिहंतसिद्धकेवलि - पच्चक्खं सव्वसंघसक्खिस्स । पच्चक्खाणस्स कयस्स, भंजणाउ वरं मरणं जड़ ता कया पमाणं, अरिहंताऽऽई भवेज्ज खवग! तए । ता तस्सक्खियमऽरिहसि, पच्चक्खाणं न भंजेउं ॥१॥ | सक्कियरायहीलण - माऽऽवहड़ नरस्स जह महादोसं । तह जिणवराऽऽइआसा - यणा वि महदोसमाऽऽवहइ ॥२॥ न तहा दोसं पावइ, पच्चक्खाणमऽकरितु कालगओ । जह भंजणाउ पावइ, तस्सेव अबोहिबीयकयं संलेहणापरिस्सम-मिमं कयं दुक्करं च सामण्णं । मा अप्पसोक्खहेडं, तिलोगसारं विणासेहि धीरपुरिसपण्णत्तं, सप्पुरिसनिसेविअं इमं घेतुं । धन्ना निरवेयक्खा, संथारगया विवज्जंति इय पन्नविज्जमाणो, सो पुव्यं जायसंकिलेसो वि । विणियत्तो तं दुक्खं, पासिइ परदेहदुक्खं च इय माणधणस्स महिड्ढियस्स उस्सग्गियं भवे कवयं । अववाइयं पि कवयं, आगाढे होइ कायव्यं इय गुणमणिरोहणगिरि-धराए संवेगरंगसालाए । चउमूलद्दाराए, सोग्गड़गमपउणपयवीए ॥४॥ 1. वल्लूरयं = मांसखण्डम् । 2. नीहं = निःसरिष्यामि । 3. पलवं = प्रलपन् = विलपन् इत्यर्थः । 4. श्रुतिपानकेन = धर्मश्रवणरूपपानीयेन | 268 ॥५॥ En m ॥८॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६६०६-६६४४ पञ्चमम् समताद्वारस्वरूपम् - षष्टम्ध्यानद्वारम् आराहणाए पडिदार-नवगमइए समाहिलाभम्मि । भणियं चउत्थदारे, कवयं ति चउत्थपडिदारं ॥९॥ अह परज्जडब्भुज्जय-निज्जामयगुरुगिराए क्यवओ । जं कुणइ तं इयाणिं, समयादारेण दंसेमि ॥१०॥ ___“पञ्चमम् समताद्वारस्वरूपम्' - अतिनिबिडकवयजुत्तो, सुहडो व्य झडत्ति आरुहेऊण । निययपइन्नाकुंजर-माऽऽराहणरणमुहम्मि ठिओ। ॥११॥ उच्छालियउच्छाहो, पासत्थपढंतसाहबंदीहिं । वेरग्गगंथवायण-रणतूररवेण कयहरिसो। ॥१२॥ संवेगपसमनिव्येय-पमुहदिव्याऽऽउहप्पभावेण । निद्धाडिंतो उभड अट्ठमयट्ठाणसुहडोलिं ॥१३॥ हासाऽऽइछक्कदुक्कंत-करिघडं उब्भडं पि विहडंतो । पडिखलमाणो इंदिय-तुरंगथट्ट पयट्टतं ॥१४॥ |दुस्सहपरिसहपाइक्क-चक्कमडच्वुक्कडं पि विजयंतो । मोहमहारायं पि हु, निहणंतो तिजयदुज्जेयं । ॥१५॥ खवगो पडिचक्कजया, पावियनिरवज्जजयजसपडागो । सव्वत्थ अपडिबद्धो, उवेइ सव्वत्थ समभावं ॥१६॥ तथाहिसव्वेसु दक्पज्जव-विहीसु निच्वं ममत्तदोसजढो । विप्पणयदोसमोहो, उवेइ सव्वत्थ समभावं संजोगविप्पओगेसु, चयइ इ8सु वा अणिढेसु । रइअरइऊसुगतं, हरिसं दीणतणं च तहा ॥१८॥ मित्तेसु य नाईसु य, सीसे साहम्मिए कुले या वि । रागं वा दोसं वा, पुव्वुप्पन्नं पि सो चयइ ॥१९॥ भोएसु देवमाणुस्स-एसु न करेड़ पत्थणं खवओ । मग्गो विराहणाए, भणिओ विसयाऽभिलासो जं ॥२०॥ इटेसु अणिटेसु य, सद्दप्फरिसरसरूवगंधेसु । इहपरलोए जीविय-मरणे माणाऽवमाणेसु ॥२१॥ सव्वत्थ निविसेसो, होइ तगो रागदोसरहियप्पा । खवगस्स रागदोसा, जमुत्तमटुं विराहेंति ॥२२॥ एवं सव्वऽत्थेसु वि, समभावं उवगओ विसुद्धप्पा । मेत्तिं करुणं मुइयं, उयेइ ख्यगो उहं च . ॥२३॥ तत्थ समत्थजिएसुं, मितिं करुणं किलिस्समाणेसु । मुइयं गुणाऽहिएK, अविणेयजणेसु य उवेहं ॥२४॥ दंसणनाणचरित्तं, तयं च विरियं समाहिजोगं च । तिविहेणुवसंपज्जिय, सव्युवरिल्लं कम कुणइ ॥२५॥ इय कुनयकुरंगयवग्गुराए, संवेगरंगसालाए । चउमूलद्दाराए, सोग्गइगमपउणपयवीए ॥२६॥ आराहणाए पडिदार-नवगमइए समाहिलाभम्मि । भणियं चउत्थदारे, समया पंचमपडिद्दारं ॥२७॥ “षष्टमध्यानद्वारम्" - समयापरायणेण वि, असुहज्झाणं विहाय सज्झाणे । जइयव्वं खवगेणं ति, झाणदारं निदंसेमि ૨૮ जियरागो जियदोसो, जिइंदिओ जियभओ जियकसाओ । अरइरइमोहमहणो, क्यभवदुममूलनिद्दहणो ॥२९॥ अटै रोदं च दुवे, झाणाई दुहमहानिहाणाई । निउणमईए समयाउ, बुज्झिऊणुज्झिऊणं च પોરે धम्म चउप्पयारं, सक्कं पि चउव्विहं किलेसहरं । संसारभमणभीओ. झायड झाणाई सो दोण्णि ॥३१॥ न परीसहेहिं संताविओ वि, झाएज्ज अट्टरोद्दाई । सुट्ठवहाणविसुद्धं पि, जेण एयाई नासिंति . ॥३२॥ अमणुन्नसंपयोगे, मणुन्नविगमम्मि बाहिविहुरते । परइड्ढिपत्थणम्मि य, अट्टं चउहा जिणा बेंति ॥३३॥ हिंसाऽलियचोरिक्काऽणु-बंथिं सारखणाऽणुबंधिं च । तिव्वकसायरउद्दे, रुदं पि चव्विहं अहवा ૩૪ 'कामाऽणुरंजियं अटुं, रोदं हिंसाऽणुरंजियं । धम्माउणुरंजियं धम्म, सुक्कं झाणं निरंजणं' । अट्टे चउप्पयारे, रुद्दम्मि चव्यिहम्मि जे भेया । ते सव्वे परिजाणइ, संथारगओ खवगसाहू ॥३६॥ तो भावणाहिं भाविय-चित्तो झाएइ धम्मवरझाणं । चउहा वि नाणदंसण-चरित्तवेरग्गरुयाहिं ॥३७॥ पढमं आणाविचयं, विपाकविचयं अयायविचयं च । संठाणविचयमेवं, धम्मज्झाणे झियाइ मुणी पउणमडणवज्जमडणुवम-मडणाऽऽइनिहणं महत्थमडवहत्थं । हियमउजियमवितह-मडविरोहमऽमोहमोहहरं ॥३९॥ गंभीरजुत्तिगरुयं, सुइसुहयमऽवाहयं महाविसयं । निउणं जिणाणऽऽमाणं, चिंतेइ. अचिंतमाहप्पं [दारं] ॥४०॥ इंदियविसयकसायाऽऽसवाऽऽइ-किरियासु वट्टमाणाणं । नरयाऽऽइभवाऽऽवासे, विविहाऽवाए विचिंतेज्जा [दारं]॥४१॥ मिच्छत्ताऽऽइनिमित्तं, सुहाउसुहं पयइठिइपएसाई । कम्मविवागं चिंतेड़, तिव्वमंदाउणुभावं सो [दारं] ॥४२॥ पंचऽत्थिकायमइयं, लोगमणाऽऽइनिहणं जिणऽक्वायं । तिविहम होलोगाऽऽई, दीयसमुद्दाऽऽइ चिंतेइ ॥४३॥ होड़ य झाणविरमे, निच्चमऽणिच्वाऽऽइभावणाऽणुगओ । ताओ य सुविहियाणं, पवयणविहिणा पसिद्धाओ॥४४॥ -269 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६६४५-६६८१ सप्तमलेश्याद्वारम् - जम्बूफलभक्षकदृष्टान्तः एयं समइक्कंतो, धम्मज्झाणं जया भवइ खवओ । तत्तो झायइ सुक्कं, चउभेयं सुद्धलेसागो ૪ો बिंति पहत्तवियक्कं. सवियारं जिणवरा पढमसक्कं । बीयं सक्कज्झाणं, एगत्तवियक्कमवियारं ॥४६॥ सुहमकिरियानियटिं, सुक्कज्झाणं भणंति तइयं तु । योच्छिन्नकिरियमऽप्पडिं-बाइक्कं खु चउत्थं पि ॥४७॥ पिहु वित्थरो ति भण्णइ, वित्थयभावो भये पुहत्तं ति । वित्थरओ तक्कयई, चिंतयइ तो वियक्कं ति ॥४८॥ किह वित्थरओ भण्णइ, परमाणुजियाऽऽइएगदव्वमि । उप्पायट्टिइभंगा, मुताऽमुत्ताऽऽइपज्जाया ॥४९॥ तेसिं जं अणुसरणं, नयभेएहिं बहुप्पयारेहिं । होइ वियक्को त्ति सुयं, तो पुव्वसुयाउणुसारेणं ॥५०॥ विचरण होइ विचारो, गमणं अन्नोन्नपज्जवसुं तु । संकमणं अत्थयंजण, को अत्थो वंजणं किं या ॥५१॥ दव्यं तु होइ अत्थो, वंजण होअक्खरं तु नाम च । जोगो य मणाऽऽईओ, अंतरभेएसु एएसु ॥५२॥ जं संचरणऽन्नोन्ने, सो नियमा भण्णूए वियारो ति । सह तेण वियारेणं, तो सवियारं पढमसुक्कं ॥५३॥ अहणेगत्तवियक्कं, एगतं नाम एगपज्जाये । उप्पायठिईभंगाऽऽइ-याणं जं होइ एगयरे ॥५४॥ होइ वियक्कं ति सुयं, पुव्वगयं तेण तं वियक्कं ति । न वि धरइ जमडण्णन्ने, वंजणअत्थे व जोगे वा ॥५५॥ तो भन्नइ अवियारं, निक्कंपं तं निवायदीवो व्य । बियसुक्कमेव भणियं, एगत्तवियक्कमऽवियारं ॥५६॥ सुहुमम्मि कायजोगे, केवलिणो होइ सुहुमकिरियं तु । अकिरियमऽप्पडियाई, सेलेसीए चउत्थमिणं ॥५॥ एयं कसायजुज्झम्मि, होड़ खवगस्स आउहं झाणं । झाणविहुणो ण जिणइ, जुझं व निराऽऽउहो सुहडो ॥५८॥ इय झायंतो खवओ, जड़या योत्तुमऽसमत्थओ होड़ । तइया निज्जवगाणं, साऽभिप्पायप्पयडणत्थं ॥५९॥ हुंकारंजलिभमुहंडगुलीहिं, अच्छीविकूणणेणं या । सिरचालणपमुहेहि य, लिंगेहि निदंसइ सणं तो पडियरगा खवगस्स, देंति आराहणाए उपयोगं । जाणंति सुयरहस्सा, कयसन्ना तस्स माणसियं ॥१॥ |इय समभावमवगओ. तह झायंतो पसत्थयं आणं । लेसाहिं विसुज्झंतो, गुणसेढिं सो समारुहइ इय धम्मसत्थमत्थयमणीए, संवेगरंगसालाए । चउमूलद्दाराए, सोग्गइगमपउणपयवीए ॥६ ॥ आराहणाए पडिदार-नवगमइए समाहिलाभम्मि । भणियं चउत्थदारे, छटुं झाणं ति पडिदारं ૧૬૪ लेसाविसेसउ च्चिय, सुहअसुहगईओ झाणजोगे वि । जायंति जेण तम्हा, लेसादारं निदंसेमि ॥६५॥ “सप्तमलेश्याद्वारम्" - किन्हाऽऽइकम्मदव्याण, विविहरूवाण सन्निहाणेण । पयईए निम्मलस्स वि, फालिहमणिणो व्य जीयस्स ॥६६॥ जंबूफलभक्खगपुरिस-छक्कपरिणामभेयसंसिद्धो । हिंसाऽऽइभावभेओ, भण्णइ लेस त्ति परिणामो ॥६७॥ तथाहि "जम्बूफलभक्षकदृष्टान्तः" एगम्मि वणनिगुंजे, परिभमंतेहिं छहिं उ पुरिसेहिं । गयणंडगणडग्गगविसण-कए व्य उड्ढं पवड्ढेतो ॥६८॥ चक्कलविसालमूलो, सुपक्कफलभरनमंतसाहग्गो । पसरियबहुप्पसाहो, समंतओ गुच्छसंछइओ ॥६९॥ तह पड़गुच्छं पेच्छिज्ज-माणपरिपिक्कसुरसफारफ्लो । पवणछडच्छोडणझडिय-पडियफलफुल्लतलभूमी । ॥७०॥ एक्को जंबूरुक्खो भुक्खाए खामकुक्खिकुहरेहिं । दिट्ठो अदिट्ठपुब्यो, पच्चक्खं कप्परुक्खो व्य ॥७१॥ तो जंपिउं पयत्ता, परोप्परं ते जहाँ अहो! एसो । संपाविओ सुपुन्नेहिं, पाययो कह वि अम्हेहिं । ॥७२॥ ता एह महातरुणो, इमस्स अमओयमाणि एयाणिं । खामो खणं फलाई, एवं होउ ति किन्तु कहं ॥७३॥ अह तत्थेक्को जंपड़, आरुहमाणाण जीवसंदेहो । तो छिंदिऊण मुले, पाडेउं ताहे 'भक्खामो ॥७४॥ बीओ बेइ किमिमिणा, तरुणा सव्यंगिएण छिन्नेण । छिंदह महल्लसाहं, एक्कं तइओ पुण पसाहं गोच्छे बेड चउत्थो. पंचमओ भणड भंजह फलाडं। छट्टो भणइ सयं चिय, पडिए भूमीए भक्खामो दिटुंतस्सोवणओ, जो भणइ तत्थ छिदिमो मूला । सो यट्टइ कण्हाए, साहाछिंदायगो य नरो ૭૭ नीलाए लेसाए, पसाहछिंदायगो कयोयाए । गोच्छच्छेदुवएसी, यट्टइ पुण तेउलेसाए ૭૮ तग्गयफलगाही पुण, पम्हाए वट्टइ सुक्काए । सयमेव धरणिणिवडिय-फलगहणुवएसदाणपरो ॥७९॥ अह वा गामविलुंपग-छच्चोरा ताण जंपए एगो । दुपयं चउप्पयं या, जं पासह हणह तं सव्वं ૮ની बीओ य माणुसाइं, पुरिसे च्चिय तइयओ हणावेइ । सत्थकरे उ चउत्थो, पंचमगो पहरमाणे उ 270 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६६८२-६७१७ छट्ठो भणेइ तुम्हे, एक्कं ता हरह निद्दया दविणं । अन्नं मारेह जणं, अहह! महापायमेयं ति ता मा करेह एवं दविणं चिय लेह जं चिए पत्ते । तुम्ह पुण हवइ एयं, उवसंहारो इमो तेसिं वट्टइ सो कण्हाए, जो जंपड़ हणह सव्वगामं ति । एवं कमेण सेसा, जा चरिमो सुक्कलेसाए | किण्हा नीला काऊ, लेसाओ तिन्नि अप्पसत्थाओ । चयसु सुविसुद्धकरणो, संवेगमऽणुत्तरं पत्तो तेऊ पम्हा सुक्का, लेसाओ तिन्नि सुप्पसत्थाओ । उवसंपज्जसु कमसो, संवेगमऽणुत्तरं पत्तो परिणामविसुद्धीए, लेसासुद्धी उ होइ जीवस्स । परिणामविसुद्धी पुण, मंदकसायस्स नायव्या मंदा होंति कसाया, बाहिरदव्वेसु संगरहियस्स । पावड़ लेसासुद्धिं तम्हा देहाऽऽइसु असंगो जह तंदुलस्स कुंडय - सोही सतुसस्स तीरइ न काउं । तह जीवस्स न सक्का, लेसासोही ससंगस्स उक्कोसाऽऽइठाणेसु, सुद्धलेसाण वट्टमाणो सो । कालं करेज्ज जड़ ता, तारिसमाऽऽराहणं लहड़ ता लेसासुद्धीए, जत्तो नियमेण होइ कायव्यो । जल्लेसो मरड़ जिओ, तल्लेसेसुं तु उववज्जे लेसाऽईयं तु गतो, परिणामं नाणदंसणसमग्गो । अक्खयसोक्खसमिद्धि, पावइ सिद्धिं धुयकिलेसो इय समयसिंधुवेलोवमाए, संवेगरंगसालाए । चउमूलद्दाराए, सोग्गइगमपउणपयवीए आराहणाए पडिदार - नवगमइए समाहिलाभम्मि । भणियं चउत्थदारे, लेसा सत्तमपडिद्दारं | लेसाविसुद्धिमाऽऽरोहिऊण, आराहणं खमगसाहू । जं पाउणइ तमेत्तो, फलदारेणं निदंसेमि जम्बूफलभक्षकदृष्टान्तः - अष्टमफलद्वारम् ૫૮૨૫ ॥८३॥ ॥८४॥ ॥८५॥ ૫૮૬૫ ॥८७॥ ॥८८॥ ॥८९॥ ॥९०॥ ॥९१॥ ॥९२॥ Kn ॥९४॥ ॥९५॥ "अष्टमफलद्वारम्” ॥९६॥ ॥९७॥ ॥९८॥ ॥९९॥ ॥९७००॥ ॥१॥ un m ॥४॥ आराहगो य तिविहो, उक्कोसो मज्झिमो जहन्नो य । लेसादारेण फुडं, वोच्छामि विसेसमेयस्स सुक्काए लेसाए, उक्कोसगमंऽसगं परिणमेत्ता । जो मरइ सो हु नियमा, उक्कोसाऽऽराहगो होइ जे सेसा सुक्काए, अंसा जे आवि पम्हलेसाए । ते पुणं जो सो भणिओ, मज्झिमओ वीयरागेहिं तेउलेस्साए जे, अंसा अह ते उ जो परिणमिता । मरइ तओ वि हु नेओ, जहन्नआराहगो एत्थ एसो पुण सम्मत्ताइ - संगओ चेव होइ विन्नेओ । न हु लेसामित्तेणं, तं जमऽभव्वाण वि सुराणं एवं च केइ उक्कोस - गाए आराहणाए नीसेसे । खविऊणं कम्मंसे, सिद्धिं गच्छंति विहुयरया अह मज्झिममाऽऽराहण - माऽऽराहिय साऽवसेसकम्मंसा । सुविसुद्धसुक्कलेसा, भवंति लवसत्तमा देवा कप्पोवगा सुरा जं, अच्छरसहिया सुहं अणुभवंति । तत्तो अनंतगुणियं, सोक्खं लवसत्तमसुराणं केइ वि मज्झिमलेसा, चरिततवनाणदंसणगुणा य । वेमाणियदेविंदा, भवंति सामाणियसुरा वि सुयभत्तीए समग्गा, उग्गतया नियमजोगसंसुद्धा । लोगंतिया सुरवरा, हवंति आराहया धीरा जावड़याउ रिद्धीओ, होंति इंदियगपाणि य सुहाणि । फुडमाऽऽगमेसिभद्दा, लभंति आराहया ताई जे वि हु जहन्नियं तेओ-लेसियाऽऽराहणं पवज्जंति । ते वि जहन्नेणं चिय, लभंति सोहम्मदेविड्ढि भोए अणुत्तरे भुंजि - ऊण तत्तो चुया सुमाणुस्से । इड्ढिमऽउलं चइत्ता, चरंति जिणदेसियं धम्मं सइमंता धीमंता, सद्धासंवेगवीरिओवगया । जित्ता परीसहचमुं, उवसग्गरिउं अभिभवित्ता सुक्कं लेसमुवगया, सुक्कज्झाणेण खवियसंसारा । उम्मुक्ककम्मकवया, उपेंति सिद्धिं धुयकिलेसा जेण जहन्नेणाऽवि हु, काऊणाऽऽराहणं धुयकिलेसा । सत्तट्टभवाणऽब्भं - तरम्मि पाविंति परमपयं सव्यन्नू सव्यदरिसी, निरुवमसुहसंगया य ते तत्थ । जम्माऽऽइदोसरहिया, चिट्ठति सया वि भगवंतो नारयतिरिएसु दुहं, किंचि सुहं होइ तह य मणुएसु । देवेसु किंचि दुक्खं, मोक्खे पुण सव्यहा सोक्खं ॥१३॥ ॥५॥ En ॥७॥ ॥८॥ usu ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ तथा ॥१४॥ रागाऽऽईणमऽभावा, जम्माऽऽईणं असंभवाओ य । अव्याबाहाओ खलु, सासयसोक्खं खु सिद्धाणं रागो दोसो मोहो, दोसाऽभिस्संगमाऽऽइलिंग त्ति । अइसंकिलेसत्तं वा, हेऊ चिय संकिलेसस्स एएहऽभिभूयाणं, संसारीणं कओ सुहं किंचि । जाइजरामरणजलं, भवजलहिं परियडंताणं ॥१५॥ ॥१६॥ | रागाऽऽइविरहओ जं, सोक्खं जीवस्स तं जिणो मुणइ । न हि सन्नियायगहिओ, जाणड़ तद भावजं सोक्खं ॥१७॥ 1. चए = च्यवे = जन्मान्तरे इत्यर्थः । 271 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६७१८-६७५६ अष्टमफलद्वारम् डड्ढम्मि जहा बीए, न होइ पुण अंकुरस्स उप्पत्ती । तह चेव कम्मबीए, दड्ढम्मि भवंडकुरस्साऽवि ॥१८॥ जम्माऽभावे न जरा, न य मरणं न य भयं न संसारो । एएसिमभावाओ, कहं न मोक्खे परं सोक्खं ॥१९॥ अव्वाबाहाउ च्चिय, सयलिंदियविसयभोगपज्जते । उच्छुक्कनियित्तीओ, संसारसुहं व सद्धेयं एसा सयलिन्दियविसय-भोगपज्जन्तवत्तिणी नवरं । उच्छुक्कनियत्ती थेव-कालिया पुण तदिच्छाओ ॥२१॥ पुणरऽभिलासाऽभावा, सिद्धाणं सव्यकालिगी पुण सा । एगंतिगा य अच्वंति-गा य ता तेसि परमसुहं ॥२२॥ इय अणुहवजुत्तीहेउ-संगयं नूण निट्ठियडट्ठाणं । अत्थि सुहं सद्धेयं, तह जिणचंदाऽऽगमाओ य आराहणविहिमेयं, आराहिता जहाडडगम्म सम्म । तीयडद्धाए अणंता, सिद्धा जीया धुयकिलेसा ॥२४॥ आराहणविहिमेयं, आराहिता जहाडडगम्म सम्म । इण्डिं पि हु संखेज्जा, सिझंति विवक्खिए काले ॥२५॥ आराहणविहिमेयं, आराहिता जहाऽऽगम सम्म । एसडद्धाए अणंता, सिज्झिस्संति धुवं जीवा ॥२६॥ आराहणविहिमेयं, एमेव विराहिउं तिकालं पि । एत्थु अणेगे जीवा, संसारपवड्ढगा भणिता नाऊण एवमेयं, इमीए आराहणाए जइयव्वं । न हु अण्णो पडियारो, को वि इहं भवसमुद्दम्मि ૨૮ના मूलमिमीए वि नेयं, एगंतेणेव भव्यसत्तेहिं । सद्धाऽऽइभावओ खलु, आगमपरतंतया गरुई ॥२९॥ जम्हा न मोक्खमग्गे, मोत्तूणं आगम इह पमाणं । विज्जइ छउमत्थाणं, तम्हा तत्थेव जइयव्यं ॥३०॥ आगमपरतंतेहिं, तम्हा निच्चं पि सोक्खक्खीहिं । सचमडणुट्ठाणं खलु, कायव्यं अप्पमत्तेहिं ॥३१॥ मरणविभत्तिद्दारे, पुव्विं जं सूइयं इहाऽऽसि जहा । भणियं आराहणफल-दारे मरणप्फलं पि फुडं ॥३२॥ अह अणुक्रमेण संपड़, संपते तम्मि अहिगयद्दारे । मरणाणं पि फलमऽहं, केत्तियमितं पि कित्तेमि ॥३३॥ तत्थ य अविसेसेणं, वेहाणसगद्धपट्ठजुत्ताई । पढममरणाणि अट्ठ वि, भण्णंति दुग्गइफलाइं ॥३४॥ तह सामण्णेणं चिय, पुबुत्तविहीए कित्तियकमाणि । सत्त उण उवरिमाइं, मरणाई सोग्गइफलाइं ॥३५॥ नवरं अंतिममरण-त्तिगस्स सविसेसमडवि फलं वोच्छं । सेसचउक्कस्स उ त-प्पवेसओ तुल्लमेव फलं ॥३६॥ तत्थ वि भत्तपरिन्ना-पवन्नियं चिय फलं णियट्ठाणे । एतो उ इंगिणीमरण-गोयरं फलमिमं भणिमो ॥३७॥ भणियविहीए सम्म, साहेत्ता इंगिणिं धुयकिलेसा । सिझंति केइ केई, भवंति देवा विमाणेसु ॥३८॥ इन इंगिणिमरणफलं पि, पयडियं सुतसाहियविहीए । अह पाययोवगमणाऽ-भिहाणमरणप्फलं भणिमो ॥३९॥ सम्म पाओवगओ, धम्म सुक्कं च सुटु झायंतो । उज्झियदेहो जायड़, को वि वेमाणियसुरेसु . ॥४०॥ को वि य पहीणकम्मो, कमेण पाउणइ सिद्धिसोक्खं पि । तस्स य भणामि लाभ-क्कम सरुवं च ओहेण ॥४१॥ आराहगो जहुत्तर-चरणविसुद्धीए धम्मसुक्काई । झायंतो सुहलेसो, अपुव्वकरणाऽऽइगकमेण ૪૨ महिऊण मोहजोहं, साउऽवरणं खवगसेढिमाऽऽरूढो सुहडो इव रणसीसं, केवलरज्जं समज्जिणइ ॥४३॥ तत्तो देसूणं पुवकोडि-मंडतोमुहुतमेतं वा । विहरड़ अह वेयणिज्जं, अड़बहुयं थोवमाऽऽउं च ॥४४॥ होज्ज तओ स महप्पा, अंतमुहुत्तम्मि आउगे सेसे । कुणइ समुग्घायं तुल्ल-ठिइकए सेसकम्माणं ॥४५॥ उल्लं संतं वत्थं, विरिल्लियं जह विसुक्कड़ खणेणं । संवेल्लियं तु न तहा, तह वेयणियाऽऽइकम्माई ॥४६॥ बहुकालक्खयणिज्जाइं-डणुक्कम येयणेण किर जाई । ख्रिज्जति ताई णियमा, समवयस्स खणेणं पि ॥४७॥ इय नीसेसाऽऽवरणा-वगमवियंभंतवीरिउल्लासो । आरभइ समुग्घायं, लहुकम्मखयट्ठया तत्थ . ॥४८॥ चउहिं समएहिं दंडग-कवाडमंथजयपुरणाणि तओ । कृणड कमेण णियत्तड. तहेव सो चउहिं समएहिं ॥४९॥ काऊणाऽऽउसमं सो, वेयणियं तह य नामगोत्तातिं(इं) । सेलेसिमुवागंतुं, जोगनिरोहं तओ कुणइ बायरमणप्पओगं, बायरकाएण बायरवई च । बायरकायं पि तहा, रुंभइ सुहमेण काएण ॥५१॥ तत्तो सुहुमं मणवइ-जोगं रुंभेत्तु सुहुमकाएण । काइयजोगे सुहुमम्मि, सुहुमकिरियं जिणो झाइ ॥५२॥ सुहुमकिरिएण झाणेण, सुनिरुद्ध सुहुमकायजोगे वि । सेलेसी होइ तओ, अबंधगो निच्चलपएसो ॥५३॥ अवसेसकम्मअंस-खयाय पंचक्खरुग्गिरणकालं । योच्छिन्नकिरियमडप्पडि-वाइ झाणं झियाइ तओ. ॥५४॥ सो तेण पंचमत्ता-कालेण खवेइ चरिमझाणेण । अणुइन्नाओ उवरिम-समए सव्वाउ पयडीउ ॥५५॥ चरिमसमयम्मि तो सो, खवेइ वेइज्जमाणपयडीओ । बारस तित्थयरजिणो, एक्कारस सेससव्वन्नू ॥५६॥ 272 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६७५७-६७६२ अष्टमफलद्वारम् तत्तो अविग्गहाए, गईए समए अणंतरे चेव । पावइ जगस्स सिहरं, खेतं कालं च अफुसंतो ॥५७॥ तथाहिपज्जत्तमेतसन्निस्स, जेत्तियाई जहन्नजोगिस्स । होति मणोदव्वाइं, तव्यावारो य जम्मत्तो तयऽसंखगुणविहीणे, समए समए निरंभमाणो सों। मणसो सव्वनिरोहं, कुणइ असंखेज्जसमएहिं ॥५९॥ पज्जतमेतबिंदिय-जहन्नवइजोगपज्जया जे उ । तदऽसंखगुणविहीणे, समए समए निरंभंतो ॥६०॥ सव्ववड़जोगरोहं, संखाईएहिं कुणइ समएहिं । तत्तो उ सुहुमपणगस्स, पढमसमओयवन्नस्स ॥६ ॥ जो किर जहन्नजोगो, तदसंरोजगुणहीणमेक्कसमएण । समए निरंभमाणो, देहतिभागं च मुंचतो ॥२॥ रुंभइ स कायजोगं, संखाऽईएहिं चेय समएहिं । तो क्यजोगनिरोहो, सेलेसीभावणामेड़ ॥६३॥ सेलेसो किर मेरू, सेलेसी होइ जा तहाऽचलया । होउं व असेलेसो, सेलेसी होइ थिरयाए ૬૪ अहवा सेलु ब्व इसी, सेलेसी होइ सो उ थिरयाए । सेब अलेसी होइ, सेलेसी होअलोवाओ ॥६५॥ सीलं व समाहाणं, निच्छयओ सव्यसंवरो सो य । तस्सेसो सीलेसो. सेलेसी होइ तदऽवत्था ॥६६॥ हस्सऽक्खराई मज्झेण, जेण कालेण पंच भण्णंति । अच्छड़ सेलेसिगओ, तत्तियमेतं तओ कालं ॥६ ॥ तणुरोहाऽऽरंभाओ, झायइ सुहुमकिरियाऽनियहि सो । योच्छिन्नकिरियमऽप्पडि-वाइ सेलेसिकालम्मि ॥८॥ 'तदऽसंखेज्जगुणासेढीए, विरइयं आसि जं पुरा कम्म । समए समए खवयं, कमसो सेलेसिकालेण ॥९॥ सव्वं खवेइ तं पुण, निल्लेव किंचि दुचरिमए समए । किंचि व्य होइ चरिमे, सेलेसीए तयं योच्छं ॥७०॥ मणुयगइजाइतसबाय-रं च पज्जतसुभगमाऽऽएज्जं । अन्नयरवेयणिज्जं, नराउमुच्चं जसो नामं ॥१॥ संभवओ जिणनाम, नराऽणुपुव्वी य चरिमसमयम्मि । सेसा जिणसंताओ, दुचरिमसमयम्मि निदिति ॥२॥ ओरालियाऽऽइसव्वाहिं, चयइ विप्पजहणाहिं जं भणियं । निस्सेसतया न जहा, देसच्चाएण सो पुव्विं ॥७३॥ तस्सोदइया भावा, भव्यत्तं च विणियत्तए समयं । सम्मत्तनाणदंसण-सुहसिद्धत्ताणि मोत्तूणं ॥७४॥ रिजुसेटिं पडियन्नो, समयपएसंडतरं अफुसमाणो । एगसमएण सिज्झइ, अह सागारोवउत्तो सो ॥७५॥ उड्ढं बंधणमुक्को, तहा सहायत्तओ य सो जाइ । जह एरंडस्स फलं, बंधणमुक्कं समुप्फिडइ . ॥६॥ परओ धम्माऽभावा, तस्स गई नत्थि कम्ममुक्कस्स । होइ अधम्मेण ठिई, साइअणंतं च से कालं ॥७॥ इह देहतिगं मोत्तुं, सिज्झइ गंतुं तहिं सहावत्थो । चरिमतणुतिभागूणं, अवगाहमुवेइ जीवघणं .॥७८॥ |ईसीपभाराए, सीयाए जोयणेण लोगंडतो । सिद्धाणोगाहणया, उक्कोसं कोसछब्भाओ ॥७९॥ तेलोक्कमत्थयत्थो, सो सिद्धो दव्यपज्जवसमेयं । जाणइ पासड़, भगवं, तिकालजुतं जयमऽसेसं ૮ળો भावे समविसमत्थे, सूरो जुगवं जहा पयासेइ । लोगमडलोगं च तहा, निव्वाणगओ पयासेड़ ॥८१॥ जं नत्थ सव्यबाहाओ, तस्स सव्वं पि जाणइ जयं जं । जं च निरुस्सुगभायो, परमसुही तेण सुपसिद्धो ॥८२॥ परमिड्ढीपत्ताणं, मणुजाणं नत्थि तं सुहं लोगे । अव्वाबाहमऽणुवम, जं सोक्खं तस्स सिद्धस्स ॥३॥ देवेंदचक्कवट्टी, इंदियसोक्वं च जं अणुहवंति । ततो अणंतगुणियं, अव्वाबाहं सुहं तस्स . ૮૪ तीसु वि कालेसु सुहाणि, जाणि पवराणि नरसुरिंदाणं । ताणेगसिद्धसोक्खस्स, एगसमयं पि नडग्घंति ॥८५॥ विसएहिं से न ज्जं, जं नत्थ छुहाऽऽइयाओ बाहाओ । रागाइआ य उवभोग-हेउणो तस्स जं नत्थि॥८६॥ एतो च्चिय निच्वं पि हु, भासणचंकमणचिंतणाऽऽईणं । चेट्ठाण नत्थि भायो, निट्ठियअट्ठम्मि सिद्धम्मि ॥८॥ ममउमेयमक्खय-मडमलं सिवमऊजरमरुजडमभयं धुवं । एगंतियमडच्वंतिय-मडव्याबाहं सुहं तस्स ॥८८॥ इय पायवोवगमणाऽभिहाण-जिणजोग्गचरममरणस्स । आगमजत्तीए फलं. संखेवेणं समक्खायं ॥८९॥ आराहणाफलमिणं, सोउं संवेगवढिउच्छाहा । काऊण तई सव्ये, भव्या निव्वु ॥९०॥ इय करणसउणिपंजरसमाए, संवेगरंगसालाए । चउमूलद्दाराए, सोग्गइगमपउणपययीए ॥९१॥ आराहणाए पडिदार-नवगमइए समाहिलाभम्मि । भणियं चउत्थदारे, फलं ति अट्ठमपडिदारं 1. तदऽसंखेज्जगुणाए, गुणसेढीए रइयं पुरा कर्म पाठा० । 273 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६७६३-६८३० नवमम् विजहनाद्वारम् ॥९४॥ ॥९५॥ ॥९६॥ " नवमम् विजहनाद्वारम्" जीवं पडुच्च पुव्वं, फलाऽवसाणाणि अरिहमाऽऽईणि । दाराणि दंसियाई, एतो पुण जीववियलस्स mem खमगसरीरस्स भवे, जो किर कायव्यवित्थरो कोई । सो विजहणदारेणं, जिणमयनिद्दिट्ठनाएणं भन्नइ साहूण अणु-ग्गहट्टया होंति विजहणाए य । परिठवणा परिचाओ, उज्झणमिच्चाइ एगट्ठा सा पुण पुव्यपवण्णिय - कमेण खमगम्मि मरणमऽणुपत्ते । निज्जामगेहिं सम्मं, तदीयदेहस्स कायव्या न य कायव्यो सोगो, जहा अहो! सो तहा महाभागो । चिरमुवचरिओ चिरपज्जु-वासिओ चिरमहावसिओ ॥९७॥ सिक्खाविओ य सुचिरं समाहिकरणेण चिरमऽणुग्गहिओ । नाणाऽऽईहिं गुणेहिं, बंधु व्व सुओ व्य मित्तो व्य॥ ९८ ॥ अम्हं इट्ठो आसी, निक्कित्तिमपेमभायणं च परं । इन्हिं च मत्तुणा कह - मयहरिओ निक्किवेणं सो ॥९९॥ हा! हा! मुट्ठा मुट्ठ त्ति, एवमऽक्कंदसद्दमाऽऽईओ । जम्हा इह कीरंते, सरीरयं सि (झि ) ज्जैई अचिरा ॥९८०० ॥ परिगलइ बलमऽसेसं, सई पणस्सइ विवज्जए बुद्धी । उप्पज्जइ गहिलत्तं संभवइ हिययरोगो वि ॥१॥ हायंति इंदियाई, छलंति खुद्दा य देवया कहवि । झिज्जइ समयाऽऽयन्त्रण - समुब्भयो सुहवियेगो वि संजायइ लहुयत्तं संभाविज्जइ दढं विमूढत्तं । किं बहुणाऽणत्थाणं, सोगो सव्वेसि समवायो ता तं दूरम्मि समुज्झिऊण, निज्जामगा महामुणिणो । दढमऽप्पमत्तचिता, भवठिइमेवं विभावेंति un ॥३॥ ॥४॥ Fu ॥७॥ ॥८॥ जीव! कीस सोयसि, किं न तुमं मुणसि जो इहं जाओ । तस्साऽवस्संभावी, मच्चू जम्मो पुणो मरणं ॥५॥ अप्पडियारं च इमं, कहमिहरा भासरासिणो उदए । कूरग्गहस्स वि तहा, विन्नवणम्मि वि सुरिंदस्स अतुलियबलसारेणं ति- जयपहुपरमेसरेण वीरेण । पडिवालियं न थेयं पि, सिद्धिगमणं जिणवरेणं न य तस्स सुचिरसंचिय - सुकयस्स गुणोलिनिलयभूयस्स । अइघोरपंकपम्मुक्क-संजमुज्जोगजुत्तस्स आराहणमाऽऽराहिय, पंचतं पावियस्स खमगस्स । विज्जइ मणागमेत्तं पि, नूण संसोयणिज्जं ति अलमेत्थ पसंगेणं, एवं सम्मं विभावि धीरा । तग्गयविहिं समग्गं कुव्वंति लहुं णिरुव्विग्गा नवरं कालगयस्स हु, सरीरमंडतो व्य होज्ज बाहिम्या । जइ अंतो निज्जयगा, इमेण विहिणा विगिंचन्ति ॥११॥ जत्थेव मासकप्पं, वासावासं व साहुणो ठंति । पढमं चिय गीयत्था, तत्थ महाथंडिले पेहे ॥९॥ ॥१०॥ ॥१२॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ | दिसि अवरदक्खिणा' दक्खिणा' य, अवरा य दक्खिणापुव्या' । अवरुत्तरा' य पुव्वा', उत्तर पुव्युत्तरा चेव ॥१३॥ पढमाए अन्नपाणं, सुलहं बीयाए दुल्लहं होइ । उयही पुण तइयाए, नत्थि चउत्थीए सज्झाओ. ॥१४॥ पंचमियाए कलहो, गणभेओ ताण होड़ छट्ठीए । सत्तमदिसि गेलन्नं, मरणं पुण अट्ठमीए उ | पढमदिसावाघाए, बीयाऽऽईणं पि सो गुणो होइ । कमसो सव्यासु तओ, दिसासु महथंडिले पेहे जं वेलं कालगओ, तब्बेलंगुट्ठमाऽऽइ बंधेज्जा । छेयणजग्गण वसभा, कुणंति धीरा सुयरहस्सा वन्तरमाऽऽई वि तयं, देहमऽहिद्वेज्ज तेण उद्वेज्जा । आगमविहिणा धीरेहिं, उयसमो तस्स कायव्यो दोन्नि य दिवड्ढभोगे, दब्भमया पुत्तला य कायव्वा । समभोगे पुण एगो अवड्ढभोगे न कायव्यो तिन्नेव उत्तराई, पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य । एए छन्नक्खत्ता, पणयालमुहुत्तसंभोगा |सयभिसया - भरणीओ, अद्दा अस्सेस साइ जेट्ठा य । छ इमे अवड्ढभोगा, समभोगा सेसनक्खता जत्तोहुत्तो गामो, तत्तो सीसं ठवेत्तु तं घेतुं । गच्छंति थंडिलं पति, अपच्छओ ते नियच्छंता सुत्तत्थतदुभयविऊ, पुरओ घेतूण पाणगकुसे य । गच्छड़ य तणाई सो, समाई सव्वत्थ संथरइ विसमा जइ होज्ज तणा, उचरिं मज्झे व हेट्ठओ वा वि । मरणं गेलन्नं या, ता गणधरवसभभिक्खूण ॥२४॥ जत्थ य नत्थि तणाई, चुन्नेहिं तत्थ केसरेहिं व । कायव्योऽत्थ ककारो, हेट्ठि तकारं च बंधेज्जा जाए दिसाए गामो, तत्तो सीसं तु होइ कायव्यं । उट्ठितरक्खणट्ठा, न नियत्तेज्जा पयक्खिणिउं चिंधट्ठा रयहरणं, दोसा उ भये अचिंधकरणम्मि | गच्छेज्ज व सो मिच्छं, राया व करेज्ज गामयहं जो जहियं सो तत्तो, नियत्तइ अविहिकाउसग्गं च । आगम्म गुरुसयासे, कुणंति तत्थेव न कुणंति खमणमऽस (सम) ज्झायं वा, रायणियमहानिनायनियगेसु । कायव्यं नियमेणं, असिवाऽऽइमए न कायव्यं बीयदियहम्मि थेरा, सुत्तत्थविसारया पलोएंति । खमगसरीरं तत्तो, सुहाऽसुहगई विजाणंति ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२५॥ રો ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ગો 274 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६८३१-६८६६ आराधनाकृतां प्रशंसा - महसेनकृता गौतमगणधरस्तुतिः - महसेनस्य गौतमकृताअनुशास्तिः . तरुसिहरगए सीसे, निव्वाण' विमाणवासि' थलकरणे । जोइसियवाणमंतर, समम्मि खड्डाइ भवणवई ॥३१॥ जइ दिवसे संविक्खड़, तमडणालिद्धं च अक्खयं मडयं । तइ वरिसाणि सुभिक्खं, खेमसियं तम्मि रज्जम्मि ॥३२॥ जं या दिसमुवणीयं, सरीरयं सावएहिं खवगस्स । ताए दिसाए सुभिक्खें, विहारजोग्गं सुविहियाणं ॥३३॥ इय सिरिजिणचंदमुणिंद-रइयसंवेगरंगसालाए । चउमूलद्दाराए, सोग्गइगमपउणपयवीए ॥३४॥ आराहणाए पडिदार-नवगमइए समाहिलाभम्मि । भणियं चउत्थदारम्मि, विजहणा नवमपडिदारं ॥३५॥ तब्मणणा पुण युत्तं, समाहिलाभो ति तुरियदारं पि । तब्भणणे य समत्थिय-मित्थं आराहणासत्थं ॥३६॥ इय महसेणस्स महा-मुणिस्स जह गोयमेण सिट्ठमिमं । तह सव्यं निद्दिटुं, एतो जं वुत्तमाऽऽसि पुरा ॥३७॥ जह तं आराहिता, सिद्धिं सो पाविहित्ति तमियाणिं । साहेमि समासेणं, गोयमकहियाडणुसारेणं तेलोक्कतिलयकप्पस्स, कप्पपहुवंदियस्स वीरस्स । सीसो गोयमसामी, सवित्थराऽऽराहणविहाणं ॥३९॥ पडिपुन्नमेवमणगार-वग्गगिहिगोयरं सदिटुंतं । पन्नविउं महसेणं, पुबुद्दिढ़ मुणिं भणइ ॥४०॥ भो भो महायस! तए, जं पुढें आसि तं मए सिटुं । ता एत्तो अपमत्तो, एत्थुज्जमसु तुमं जम्हा ॥४१॥ ते धन्ना सप्पुरिसा, तेहि सुलद्धं च माणुसं जम्मं । आराहणा हु एसा, पडिवण्णा जेहिं संपुन्ना ॥४२॥ ते सूरा ते भीरा, पडिवज्जिय जेहिं संघमज्झम्मि । आराहणापडागा, सुहेण गहिया चउक्खंधा ૪૩ किं नाम तेहिं लोए, महाणुभावेहिं होज्ज नो लद्धं । जेहिं इमं संपतं, अणग्घमाउराहणारयणं ૪૪ आराहणाठियाणं, कुणंति साहिज्जमुज्जुया जे य । जम्मे जम्मे पावंति, ते वि आराहणं प्रमं ॥४५॥ आराहयं मुणिं जे, सेविंति नमंति भत्तिसंजुत्ता । आराहणाफलं सुगइ-सोक्खरूवं लहंति ते ॥४६॥ इय गोयमेण भणिए, हरिसवसुच्छलियबहलरोमंचो । महसेणो रायरिसी, तिपयाहिणिऊण गणनाहं ॥४७॥ धरणियलचुंबिणा मत्थ-एण पणमित्तु अपुणरुत्ताहिं । अच्वन्तमहत्थाहिं, गिराहिं इय थोउमाऽऽरद्धो ॥४८॥ जय मोहतिमिरपूरिय-तिहुयणभवणप्पयासणपईय! । जय निब्बुइपुरसंमुह-पत्थियभव्योहसत्थाह! जय विमलकेवलाऽऽलोय-लोयणाऽऽलोइयऽत्थवित्थार! । जय निरुवमरूवाऽइ-सयविजियससुराऽसुरतिलोय! ॥५०॥ जय सुक्कज्झाणाऽनल-निद्दड्ढघणघाइकम्मवणगहण! । जय परमविम्हयावह-ससहरहरहसियसियचरिय! ॥५१॥ जय निक्कारणवच्छल!, सुपुरिसजणपत्तपढमयररेह! । जय साहलोयवंछिय-पयाणनिप्पडिमकप्पदुम! ॥५२॥ जयसि तुमं सिरिगोयम-गणधर! हरिणंडकविमलजसपसर! । सरणाऽऽगयरक्खणबद्ध-लक्ख! रागाऽरिपडियख॥५३॥ | तुममेव ममं सामी, जणगो य तुमं गई मई तं सि । मित्तो बंधू य तुमं, न तुमाहिंतो वि मज्झ हिओ ॥५४॥ जेण तुमए भवाडगड-गओ म्हि हत्थाऽवलंबदाणेण । उद्धरिओ आराहण-विहिमेयं उवइसंतेणं । धन्नो क्यपुन्नो हं, पत्तं च समीहियं मए सव्यं । जं तुम्ह वयणपीऊस-सलिलधाराहिं सित्तो म्हि ॥५६॥ पाविज्जइ तिहुयणसंपया वि, अच्वंतदुलहलंभा वि । परमगुरु! तुज्झ वाणी-सवणं न हु लब्भइ क्या वि ॥५॥ इण्डिं च भुवणबंधव!, तुमए अणुजाणिओडहमिच्छामि । आराहणाविहाणं, काउं संलेहणापुव्यं ૧૮ अह कंतदंतपसरंत-सेयपहपडलधवलियदिसेण । सिरिगोयमेण भणियं, हंभो! महसेण! मुणिपवर! ॥५९॥ सुविसुद्धबुद्धिपयरिस-परिभावियविगुणभवसरुवाण । परलोयबद्धलक्खाण, दूरणडणवेक्खियसुहाण तुम्हारिसाण सविसेस-सुगुरुसेवोवलद्धतत्ताण । जुत्तमिणं ता थेवं पि, एत्थ मा कुणंसु पडिबंधं ॥६१ बहुविग्यो हु मुहुत्तो, पुणो वि दुलहा य धम्मसामग्गी । सव्यंगं चिय पच्चूह-संगया सेयसंसिद्धी ॥६२॥ एवं ठिए य जेणं, सव्वपयत्तेण धम्मकज्जेसु उज्जमियं तेणं चिय, लद्धा लोए जयपडागा ॥६३॥ दिन्नो जलंजली भव-भयस्स करकमलगोयरं नीया । सग्गाऽपवग्गलच्छी, किं वा नो साहियं तेण ॥६४॥ ता सुचरियसामन्नो, कयपुन्नो तं सि जस्स सविसेसं । आराहणाविहाणे, विजंभए, चित्तपडिवत्ती ॥६५॥ जड़ वि हु तुह सव्य च्चिय, किरिया आराहणा महाभाग! । तह वि हु भणियविहीए, इमीए एतो दढं जयसु॥६६॥ एवं सोच्चा परम-प्पमोयपाउब्भवंतरोमंचो । चलणेसु निवडिऊणं, सिरोवरिं रइयकरकमलो ॥६॥ रायरिसी महसेणो, जं भयवं! आणवेसि तुममेतो । तं काहं ति पइन्नं, काउं तत्तो विणिक्खंतो ॥८॥ पुव्यपवंचियविहिणा, सम्म कयदव्यभावसंलिहणो । सविसेसविहियदुक्कर-तवचरणविहाणझीणंगो ॥६९॥ 275 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६८७०-६६०८ महसेनस्य आराधनायै चिन्तनम् - महसेनस्य अनशनप्रारम्भः - इन्द्रकृता प्रशंसा परिचत्तहेयपक्खो, सव्योवादेयपक्खपडिबद्धो । विहरिता निस्संगो, केत्तियमेतं पि सो कालं ॥७ ॥ अच्चतमडवचयं मंस-सोणियाउडईण देहधाऊण । विबलतं गत्तस्स य, दठूण इमं विचिंतेइ ॥७१॥ | निजधम्मसूरिवागरिय-वित्थराऽऽराहणाणुसारेण । उज्जमियं ताय मए, सब्वेसु वि धम्मकिच्चेसु ॥७२॥ वावारिया य भव्वा. निव्वइमग्गम्मि सब्बजतेण । सुत्तत्थभावणाए य, भाविओ सम्ममडप्पा वि ॥७३॥ अणिगूहिंतेण बलं, बालगिलाणाइसाहुज्जेसु । यावारंउतरविरएण, यट्टियं एत्तियं कालं ॥७४॥ इण्डिं च भट्ठदिट्ठीबलस्स, वइभासणे वि असहस्स । अच्वंतकिससरीर-तणेण गमणे वि अखमस्स ॥७५॥ किं जीविएण विहलेण, तेण सुक्यप्पसाहणाऽभावे । धम्मडज्जणप्पहाणं हि, जीवियं कित्तयंति सुहं ॥७६॥ तो धम्मगुरुं आपुच्छिऊण, निज्जामणाविहिविहन्नू । थेरे धम्मसहाए, काऊण य भणियविहिपुव्वं ॥७७॥ सत्तोवरोहरहिए, देसम्मि सिलायलं पमज्जित्ता । भत्तपरिन्नाए मम, जुज्जइ देहं परिच्चइउं ૭૮ળા एवं परिभायेत्ता, स महप्पा सणियसणियगमणेण । गंतूणं गणनाहं, पणमिय भणिउं समाढत्तो ॥७९॥ भयवं जहसत्तीए, छट्टउट्ठमपमुहदुक्करतयेहिं । संलिहिओ तावडप्पा, जा चम्मडट्ठीणि सेसाणि ૮થી संपयमऽहं च सक्को, न थेवमेत्ते वि कुसलकायव्ये । इच्छामि तेण भयवं!, गीयत्थत्थेरनिस्साएं ॥८१॥ तुब्भेहिं अणुन्नाओ, विवित्तसम्मि अणसणं काउं । एत्तो एत्तियमेतं, जेणं मह पत्थियव्यं ति ૮૨ अह विमलकेवलाऊडलोय-लोयणेणं पलोइउं तस्स । निविग्यपत्थुयऽत्थ-प्पसाहणं गोयमो भयवं ॥८३॥ एवं कुणसु महायस!, नित्थारयपारओ य लहु होसु । महसेणमेवमणुजा-णिऊण थेरे इमं भणड़ ૮૪ हंहो महाणुभाया!, असहायसहायदाणतल्लिच्छा । एयस्स उत्तिमटुं, काउं अब्भूट्ठियस्स दढं तुब्भे एगंग्गमणा, समओचियविहियसव्यकायव्या । निज्जामणं पकुव्यह, पासठिया आयरेणं ति ૮દ્દો अह ते सव्वे वि पमोय- निभभिन्नगरुयरोमंचा । भत्तीए मन्नंता, अच्चन्तयत्थमऽप्पाणं ૮ળા आणं सीसेण पडिच्छिऊण, सिरिइंदभूइणो सम्मं । रायरिसिं महसेणं, उयट्ठिया पत्थुयत्थकए ૧૮૮ तो तेहिं परिगओ सो, गओ व्च अन्नेहिं भद्दजाईहिं । सुथिरेहिं सुदंतेहिं, महागएहिं व रायंतो सणियं सणियं पयपंकयाई, नमिऊण गोयमस्स गओ । पुव्यपडिलेहियम्मि, सिलायले बीयतसरहिए। ॥९०॥ तत्थ य पुव्यपवंचिय-विहिपुव्वं विहियसेसकायव्यो । योसिरइ सव्वमऽसणं, चउव्विहं पि हु महासत्तो ॥१॥ थेरा वि तस्स पुरओ, संवेगपराई पसमसाराइं । सत्थाई महत्थाइं, परियट्टेउं समारद्धा ॥९२॥ अह सुसमाहियमणवयण-कायजोगस्स धम्मझाइस्स । तस्स सुहदुक्खजीविय-मरणाऽऽइसु तुल्लचित्तस्स ॥१३॥ राहावेहसमुज्जय-मणुयस्स व दूरमऽप्पमत्तस्स । आराहणाविहाणे, पयत्तओ बद्धलक्खस्स ॥९४॥ अच्वंतथिरत्तं पेहिऊण, ओहीए रंजिओ बाढं । सोहम्मि तियसनाहो, सभागओ भणह निययसुरे ॥१५॥ हंहो! पेच्छह पेच्छह, निययथिरत्तेण विजियसुरसेलं । साहमिमं वटुंतं, निच्चलचित्तं समाहीए ॥९६॥ मन्ने पलउभवपबल-पवणपक्खोलणाऽऽउलजलोहा । जलनिहिणो वि हु मेरं, मुयंति न इमो नियपइन्नं ॥९॥ निच्याऽवट्ठियरुया वि, किं पि पायित्तु वत्थुणो हेउं । भिंदंति च्चिय नियय-व्ययत्थमेसो न पुण साहू ॥१८॥ जे कयलम्मि लीलाए, लेढुगणणाए सयलकुलगिरिणो । धारिन्ति सिंधुणो यि हु, सोसेंति निमेसमेतेण ॥१९॥ ते वि हु मन्ने तियसा, अतुल्लबलसालिणो इमस्स धुवं । न चिरेण वि खोभेउं, पारेंति मणो मणागं पि ॥९९००॥ चोज्जमिणं एत्थ जए, जायंति के वि ते महासत्ता । जेसि महिमाऽवधूयं, असारभूयं तिहुयणं पि ॥१॥ इयजंपिरसुरवइवयण-मऽलियबुद्धी असद्दहेमाणो । एक्को सुरो सरोसं, चिंतेउमिमं समाढतो ॥२॥ बालाणं व पहूण वि, वयणाई जहा तहा पयर्टेति । वत्थुसतत्तपरामरिस-मडणुयमित्तं पिन कुणंति ॥३॥ कहमउन्नहा महाबल-कलिएहि वि एस खोहिउं न जई । तीरइ सुरेहिं एवं, वएज्ज सक्को इह विसंकं ॥४॥ अहवा किमडणेण विगप्पिएण, सयमेव तं मुणिं गंतुं । खोभेमि झाणाओ, करेमि हरिणो गिरं वितहं ॥५॥ ताहे गईए मणपवण-विजड़णीए तओ विणिक्खंतो । महसेणमुणिसमीये, पत्तो य निमेसमेतेण કો उप्पाइओ य पलड़ व्य, दारुणो विज्जुपुंजदुप्पेच्छो । अयसीकुसुमच्छाओ, सव्वत्तो मेहसंघाओ ॥७॥ मुसलोवमाहिं नीरंध-भावबद्धंऽधयारघोराहिं । धाराहिं तक्खणं चिय, पासे परिसेउमाऽऽरुद्धो 276 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६६०६-६६४६ परीक्षायै देवाकृतोपसर्गवर्णनम् . उभडसलिलुप्पीडेहिं, पूरियं दंसिऊण दिसिवलयं । निज्जमगमुणिम्मि संक-मित्तु महसेणमुल्लवइ ॥॥ हंभो! किन्न पलोयसि, सव्वत्तो पसरमाणसलिलेण । गयणडग्गलग्गसिहरा वि, गरुयगिरिणो वि हीरंति ॥१०॥ दीहरजडाकडप्पो-त्थइयधरामंडला वि दमनिवहा । उम्मलिया जलेणं. पलालपडलं विव ललंति किम्वा न नियच्छसि वोम-विवरपसरंतवारिपूरेहिं । तारानियरो वि फुडं, तिरोहिओ नज्जइ न सम्म ॥१२॥ इय एरिससलिलमहा-पवाहवेगेण बुब्भमाणस्स । तुह अम्हाण वि एत्थं, न जाय संपज्जए मरणं ॥१३॥ तावेतो ओसरिउं, जुज्जइ मुणिवसह! मुयसु मरणरुइं । जत्तेण रक्खणिज्जो, अप्पा हु सुये जओ भणियं ॥१४॥ 'सव्वत्थ संजमं संज-माउ अप्पाणमेव रक्खंतो । मुच्चइ अइयायाओ, पुणो विसोही न याऽविरई' ॥१५॥ न य अम्हारिसमुणिजण-विणाससंभूयभूरिपायाओ । एत्थ ट्ठियस्स थेयं पि, अत्थि मोक्खो धुवं तुज्झ ॥१६॥ जम्हा तुज्झ करणं, अम्हे इह भद्द! आवसामो ति । इहरा जीविउकामो, यसेज किं को वि जलमज्झे ॥१४॥ इय साहुवयणमाऽऽयन्नि-ऊण थोयं पि अविचलियचित्तो । महसेणो रायरिसी, परिभावइ निउणबुद्धीए ॥१८॥ को एसो पत्थावो, घणस्स कह वा इमो महासत्तो । साहू दूरं अणुचिय-मेवं जंपेज्ज दीणमणो अच्वंतमेवमऽघडंतमेव, उपसग्गिउं ममं मन्ने । भावं परिक्खिउं था, केणइ असुराऽऽइणा विहियं ॥२०॥ साहावियं जड़ पुण, भवेज्ज ता ट्ठिसव्वदट्ठव्यो । गोयमसामी न मम, थेरे य इहाउणुमन्नेज्जा ॥२१॥ ता जइ वि हु होयव्यं, सुराऽऽइदुव्विलसिएण केणाऽवि । हे हियय! तहवि पत्थुय-पओयणे निच्वलं होसु ॥२२॥ जड़ ताव निहाणाऽऽइसु, गिहिज्जतेसु होति पच्चूहा । परमट्टसाहगे कह, ण होति ता उत्तिमट्ठम्मि ॥२३॥ इय पुव्युवदंसियधीर-भावमयकवयविहियदढरक्खो । अक्खुभियमणो धीमं, धम्मज्झाणे थिरो जाओ ॥२४॥ तं च तहाविहमाऽऽभोगिऊण, तियसो खणेण संहरिउं । मेहं तओ विउव्वइ, भीमं दावानलं पुरओ ॥२५॥ अह दावानलपसरंत-फारजालाकलावसंवलितं । उल्लसियधूमलेहा-संछाइयरविकराऽऽभोगं ॥२६॥ खरपवणुप्पाइयदीह-रच्चिदज्झंततारयाचक्कं । उच्छलियतडयडाऽऽरव-ठइयाऽवरसद्दवायारं ॥२७॥ वेविराजमर-खयरवहविहियगाढहलबोलं । सव्वत्तो वि पलितं व. झत्ति जायं जयमसेसं एवंविहं पि तं पासि-ऊणं झाणाओ जा न थेयं पि । चलिओ महसेणमुणी, ताव सुरो रसयई 'पउरं ॥२९॥ नाणाविहवंजणमक्ख-भोयणाऽणेगपाणयाऽऽइन्नं । उवदंसिऊण पुरओ, महुरगिराए इमं भणइ ॥३०॥ हे समण! किं किलिस्ससि, निरत्थयं निरसणो महाभाग! । नणु णवकोडिविसुद्धं, आहारं भुंजसु एयं ॥३१॥ निस्वज्जाऽऽहाराणं, साहूणं निच्चमेव उववासो । किं सुमरसि सुत्तमिम, न तुमं जं सोसयसि अंगं ॥३२॥ चित्तसमाहाणं चिय, कायव्यं किं व कट्ठकिरियाए । तपसुसिओ वि हु अहरं, गई गओ जेण कंडरिओ ॥३३॥ तज्जेट्ठो पुण भाया, पुंडरिओ सुद्धचित्तपरिणामो । अक्यतयो वि महप्पा, उववन्नो देवलोगम्मि ॥३४॥ ता उज्झिय कुग्गाहं, भुंजसु सुविसुद्धमेवमाऽऽहारं । जड़ संजमाओ निव्वेय भावमुव्वहसि नो भद्द! . ॥३५॥ |इय मुणिवण सुरेण, भूरिसो भासिओ वि महसेणो ।ईसि पि जा न चलिओ, झाणाओ ता पुणो तेण ॥३६॥ सुइनेवत्थधरीओ, उब्भडसिंगारमणहरंडगीओ । जुबईओ निम्मियाओ, तम्मणवामोहणट्ठाए Rળી अह सवियारविजंभित-कडक्वविक्खेवसबलियदिसाहिं । सुंदरमुहिंदुजोन्हा-पवाहहसियाऽमरनईहिं રેલા सविलासुल्लासियबाहु-वल्लिपायडियथोरथणयाहिं । चरणपडिलग्गरणक(झ)णिर-मंजुमंजीररम्माहिं ॥३९॥ रसणामणिकिरणसमूह-रइयदिसिचक्कसक्कचावाहिं । मंदारदामपरिमल-आयड्ढियभसलजालाहिं ॥४०॥ नीवीसंजमणच्छल-पयडियखणपीणसोणिबिम्बाहिं । अनिमित्तुवदंसियगाय-भंगपिसुणियवियाराहिं ॥४१॥ बहुहावभावविभम-सुंदरविविहोययारकुसलाहिं । दे नाह! पसिय तायसु, तुममेय गई मई अम्ह ॥४२॥ इय जंपिरीहिं विरइय- करंजलीहिं पि तियसजुवतीहिं । उत्सग्गिओ वि चलिओ, झाणाउ न सो महासत्तो॥४३॥ पडिलोमडणुलोममहोय-सग्गवग्गं च निप्फलं नाउं । परिसंतो सो तियसो, चिंतेउमिमं समाढतो . ॥४४॥ ! पावेण मए, असद्दहंतेण अवितहं पि गिरं । हरिणो महाणुभावस्स, एस आसाइओ साहू एवंविहगणगणरयण-रासिमणिजायणुत्थपायेण । दमिजंतस्स मम, कतो एतो परित्ताणं ૪૬ 1. पवरं पाठां०। 277 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६६४७-६६८६ महसेनस्यश्चिलत्वम् - सर्वार्थसिद्धौ उत्पत्तिः - महसेनस्यभाविभाव कथनम् तं कुणइ किंपि कज्जं, सयमेसो मइविवज्जए जीवो । जेणंडतो सल्लेण व, पीडिज्जंतो दुहं जियड़ ॥४७॥ इय झूरिऊण सुचिरं पराए भत्तीए थुणिय महसेणं । जत्तेण खामिऊण य, जहागयं पडिगओ तियसो ॥४८॥ महसेणो वि सममणो, माणऽचमाणेसु दुक्खसुक्खेसु । सविसेसमुत्तरोत्तर - वड्ढतविसुद्धपरिणामो अच्चतसमाहीए, कालं काऊणं भासुरो देवो । तेत्तीससागराऽऽऊ, जाओ सव्वट्ठसिद्धम्मि ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५४॥ ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥૮॥ ॥५९॥ ॥६०॥ ॥६१॥ ॥६२॥ દ્દો ॥६४॥ ॥६५॥ ॥६६॥ अह कालगयं तं जाणि - ऊण थेरा जहाऽऽगमविहीए । तक्कालोचियकायव्य - येइणो मुणियभवभावा तस्स सरीरं तसबीज - पाणहरियंऽकुराऽऽइणा रहिए । पुव्यपडिलेहिए थं- डिलम्मि सम्मं परिठयेंति तयणंतरं पडिग्गह- पमुहधम्मोवगरणमऽवि तस्स । घेतुं अतुरियचवलं, गोयमसामिं समल्लीणा तिपयाहिणदाणपुरस्सरं च तं वंदिऊण पणयसिरा । उवणीयतदुवगरणा, एवं भणिउं समाढत्ता भयवं स तुम्ह सीसो, खंतिखमो विजियदुज्जयाऽणंगो । पम्मुक्कसव्यसंगो, वज्जियनीसेससावज्जो पयईए च्चिय सरलो, पयईए च्चिय सुचिन्नसामन्नो । पयईए य विणीओ, पयईए ञ्चिय महासत्तो | सम्मऽहियासियदुस्सह- परीसहो सरियपंचनवकारो । आराहणमाऽऽराहिय, निस्सामन्नं दिवं पत्तो अह मालइमालाहिं व, दसणपहाहिं पसाहयंतो व्व । थेरे गोयमसामी, महुरगिराए समुल्लवइ हंहो महाणुभावा!, सम्मं निज्जामिओ स तुब्भेहिं । जाणियजिणवयणाणं, एवं चिय वट्टि जुत्तं असहायसहायत्तं, करेंति जं संजमं करेंतस्स । एएण कारणेणं, नमणिज्जा साहुणो होंति न य एतो उवयारो, अन्नो वि हु विज्जए जए सारो । जमुवद्वंभो कीरइ, पज्जंताऽऽराहणासमए धन्नो य सो महप्पा, जेणं आराहणासुनावाए । दुहमयरनियरकिन्नो, तिन्नो व्य भवन्नवो भीमो अह थेरेहिं भणियं, भयवं! एतो कहिं स उववन्नो । कइया य निहयकम्मो, निव्वाणं पाविही कहसु |तिहुयंणभ्रवणऽब्मंतर - विस्सुयजसवीरनाहसिस्सेण । पढमेण तओ भणियं, एगग्गमणा • णिसामेह सो महसेणमुणिवरो, सम्मं आराहणाए थिरचित्तो । सुरवइकयप्पसंसा - कुवियाऽमरविहियविग्घो वि झाणाउ निमेसं पि हु, अचलंतो मंदरो व्य काऊण । कालं सव्यट्ठम्मि, भासुरबोंदी सुरो जाओ आउक्खएण तत्तो, चविऊणं एत्थ जंबुदीवम्भि । उप्पज्जंतनिरंतर- जिणचक्किदसारयग्गम्मि पुव्यविदेहे वासे, वासवपुरिमणहराए नयरीए । अवराजियाए जियवेरि-वग्गविक्कंतकित्तिस्स कित्तिधरंधरावइणो, वयणोहामियमयंकबिंबाए । बिंबाऽहराए देवीए, विजयसेणाऽभिहाणाए | मुहपविसंतचिरुग्गय-संपुन्नमयंकसुमिणकयसूओ । गब्भे पाउब्भविही, पुत्तत्तेणं महप्पा सो | अद्धट्ठमराईदिय-समतियमासेसु नवसु विगएसु । होही य तस्स जम्मो, सोहणनक्खत्ततिहिजोगे | अच्चंतपुण्णपगरिस- आगरिसियमाणसा य संनिहिया । देवा तज्जम्मम्मि, पडिसंतरयं दिसाभोगं वायंतमंदपवणं, कीलंतजणं समंतओ काउं । कुंभग्गसो खिविस्संति, पवररयणाई नगरीए अह मंगलमुहलमिलंत - वारविलयासहस्सरमणीयं । रमणीयमणिविभूसण-भूसियनीसेसनयरजणं |नयरजणदिज्जमाण -प्पभूयधणतुट्ठमग्र्गेणयलोमं । मग्गणलोउक्कित्तिज्ज - माणपायडगुणप्पसरं |गुणपसरसवणसरहस- मिलंतसामंतचक्ककयतोसं । वद्वावणयं होही, महया रिद्धीसमुदएणं उचियसमयम्मि पियरो, रयणुक्करवरिसणेण य जहत्थं । रयणायरो ति नामं, तस्स पइट्ठावइस्संति उम्मुक्कबालभावो, कमेण अहिगयसमत्थसत्थडत्थो । कइवयसमवयसुइवेस - विउससुवयस्सपरियरिओ पयईए च्चिय विसय- प्पसंगविवरंमुहो भवविरागी । वियरंतो लीलाए, मणहरकाणणप एगम्मि अवसरे नयरि- पासपरिवत्तिपव्ययनिगुंजे । सो पेच्छिही विसाले, सिलायले अणसणपवण्णं संनिहिनिसन्नमुणिजण - सव्वाऽऽयरदिज्जमाण अणुसट्ठि । विविहतवकिसियकायं, दमघोसऽभिहाणमुणिवसभं ॥८१॥ तं पेच्छिऊण तस्स य, कत्थ वि य मए वि एरिसाऽवत्था । सयमेव समणुभूय 'त्ति, ईहापोहं करेंतस्स ॥८२॥ जाईसरणं उप्प-ज्जिही लहुं तदणुभावओ सम्मं । सुमरियपुव्यभवऽब्भत्थ- सयलआराहणविहाणो ॥६७॥ ॥૬॥ ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७१॥ - ॥७२॥ ॥७८॥ ॥७९॥ ॥८०॥ m पासं व घराऽऽवासं, विसं व विसए धणं पि निहणं व । पियजोगसुहं दुक्खं• व, बुद्धिचक्यूए पेहंतो ॥८४॥ | सव्यविरइं पवज्जिउ-कामो वि हु जणणिजणगवयणेण । दारपरिग्गहविमुहो, वसिहि गेहे कइवि वरिसे ॥८५॥ नवरं विसालसाला - मणहरगोउरविरायमाणाणि । उत्तुंगसिंगसोहा - पहसियहिमसिहरिसिहराई mn ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ ॥७६॥ ॥७७॥ 278 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६६८७-१००२५ गौतमगणधरदर्शित महसेनस्यागामीभववर्णनम् - स्थविरकृता गौतमस्तुतिः पवणपकंपिरथयवड-रणंतमणिकिंकिणीमणहराइं। हरिणंक-कुमुयखीरोय-फेणफलिहज्जलपहाई ॥८७॥ गायंतथुणंतपढंत-भव्यहलबोलवाउलदिसाइं । अणवरयपयटूसव-कीरंतविसेसपूयाई ૯૮ના देवंगदूसविरइय-उल्लोयविरायमाणमज्झाई । मणिकुट्टिमतलनिम्मिय-मुत्ताहलवरचउक्काई ॥८९॥ डझंतनिरंतरकुंदुरुक्क-घणसारसुरहिधूवाई । कुसुमोवहारपरिमल-मिलंतरणझणिरभमराई ॥९ ॥ अइसंतकंतसुंदर-सरुवजिणबिंबसोभमाणाइं । काराविही विहीए, पउराई जिणिंदभवणाई ॥९१॥ अइदुक्करतवचरणोवउत्त-मुणिपज्जुवासणानिरओ । साहम्मियजणवच्छल्ल-संगओ उसमपहाणो ॥९२॥ लोगविरुद्धच्चाई, जत्तेणं विजियइंदियग्गामो । सम्ममडणुव्वयगुणवय-सिक्खावयपालणपहाणो ॥९३॥ उपसंतवसधारी, पडिमाऽणुट्ठाणविहियपरिकम्मो । गमिऊण केत्तियं पि हु, कालं निरवज्जवित्तीए ॥९४॥ स महप्पा रायसिरिं, नयरिं धणकणगरयणसंभारं । अम्मापियरो दढनेह-निभरं बंधवजणं च ॥९५॥ मोत्तूण तणं व पडडग्गलग्ग-मुवसमदमप्पहाणस्स । चोद्दसपुव्वमहासुय-रयणनिहाणस्स सूरिस्स ॥९६॥ | धम्मजसनामधेयस्स, अंतिए तियसनियहकयमहिमो । घणकम्मसेलवज, पव्यजं गिण्हिही सम्म ॥९७॥ तो चिरकालं सुत्तत्थ-वित्थरुद्दामविलसिरतरंगं । अइसयरयणाऽऽइन्नं, अवगाहेंतो समयसिंधुं ॥९८॥ छट्ठट्ठमाऽऽइदुक्कर-विगिट्ठतवचरणभावणाहिं दढं । दुहओ वि हु अप्पाणं, पइदियहं संलिहंतो य ॥१९॥ कायरचित्तचमक्कार-कारिवीरासणाऽऽइठाणेहिं । संलीणतं परमं, पइक्खणं अब्भसंतो य ॥१००००॥ संसारभीरुभव्ये, धम्मुवएसप्पयाणरज्जूए । मिच्छत्तकूवयाओ, समुद्धरंतो य करुणाए ॥१॥ सुरो व्य दित्ततेओ, ससि व्व सोमो धर व्य सव्यसहो । सीहो व्य दुप्पथरिसो, एगागी खग्गसिंगं व ॥२॥ वाउ व्य अपडिबद्धो, संखो व्य निरंजणो गिरि व्य थिरो । भारुंडो व्यडपमतो, गंभीरो खीरजलहिं व्य ॥३॥ इय लोगुत्तरगुणगण-विराइओ विहरिऊण धरणीए । पज्जंते सविसेसं, काही संलेहणविहाणं ॥४॥ संलिहियऽप्या य तओ, चउव्यिहाऽऽहारविहियसंवरणो । मासं पाओवगओ, सुक्कज्झाणाऽनलेण लहुं ॥५॥ नीसेसं कम्मवणं, निद्दहिऊणं जरामरणरहियं । इट्ठविओगाडणिट्ठ-प्पओगदोगच्चपम्मुक्कं દા एगंतियअच्वंतिय-अव्वाबाहप्पहाणसुहमहुरं । अप्पुणरागममडचलं, नीरयमरुयं खयविहीणं असुहसुहकम्मविटुंभ-लब्भमभयमणंतमसवत्तं । निव्याणमेगसमएण, पाविही सो महाभागो देवा य भत्तिवसनिस्स-रंतरोमंचकंचुइयकाया । निव्याणमहिममुवउत्त-माणसा तस्स काहिंति । ॥९॥ इय भो थेरा! सम्म, महसेणमहामुणिस्स सोऊणं । पयरुत्तरोत्तरफलं, कल्लाणपरंपरं परमं -॥१०॥ परिवज्जियप्पमाया, मायामयमयणमाणनिम्महणा । भववासविरतमणा, विसोतियाहिं विउत्ता य ॥११॥ जिणमयमयरहरुप्पन्न-मेयमाऽऽराहणाऽमयं पियह । अजरामरा सया वि हु, जेण परं निव्वुइमुवेह ॥१२॥ एवं निम्मलनाणाड-वलोयनिद्दलियमोहतिमिरेण । गोयमपहुणा भणिए, जहट्ठिए यत्थुपरमत्थे ॥१३॥ "स्थविरकृता गौतमगणधरस्तुतिः" - मत्थयथिरविणियेसिय-करकमला हरिसवियसियकवोला । थेरा सविणयपणया, इय संथुणिउं समाढत्ता ॥१४॥ जय निन्निमित्तवच्छल!, अतुच्छमिच्छत्ततिमिरदिवसयर! । सपरोभयभयभंजण!, जणगंजणमयणनिम्महण ॥१५॥ नीहारगोरपसरंत-कित्तिपब्भारभरियतइलोय! । ससुराऽसुरनरविरइय-सव्वाऽऽयररुइरथुइयाय! ॥१६॥ |जय निव्वाणपुरुम्मुह-पट्ठियभव्योहपरमसत्थाह! । अत्थाहउदहिविब्भम-निभरकरुणारसपवाह! ॥१७॥ वडत्थि. जेण उवमिज्जसे तमं सामि! । नवरं तमए वि तमं. उवमिज्जसि न उण अन्नेण ॥१८॥ हीणेणुवमाणेण हि, हवेज्ज का चंगिमोवमेयस्स । न तडागो व्य समुद्दो, ति उवमियं पावए सोहं ॥९॥ सोहम्माऽहिवपमुहा यि, जस्स गुणसंथवे न परिहत्था । तस्स पहु! तुज्झ किं तुच्छ-बुद्धिणो संथुणंतु परे ॥२०॥ एवं च निरुवमो थुइ-अगोयरो जड़ वि नाह! तं तह वि । सुगुरु ति चक्खुदाइ ति, दूरपरमोवगारि ति ॥२१॥ भत्तिभरतरलिएहिं, अम्हेहिं थुणिज्जसे तुमं चेव! न तुमाहिन्तो वि जओ, थोयव्यो अत्थि किर अन्नो ॥२२॥ ता जयसि तुम चिय एत्थ, जेण भवजलहिमज्जमाणाणं । आराहणातरंडं, एयं भव्वाणमुवइटें - ॥२३॥ इय थोऊणं थेरा, भयवंतं गोयम समणसीहं । पारद्धधम्मकिच्चेसुं, पट्टिउं संपयट्टति ॥२४॥ एवमिमेह समप्पड़, संपइ संवेगरंगसालति । आराहणा इयाणिं, तस्सेसं किं पि जंपेमि ॥२५॥ 279 ॥७॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. १००२६-१००५४ = १-३ ग्रन्थकर्तुगुर्वादीनां नामादिवर्णनम्-ग्रन्थरचनावर्णनम् - लेखकप्रशस्तिः। “ग्रन्थकर्तुगुदीनां नामादिवर्णनम्-ग्रन्थरचनावर्णनम्" - आसि उसभाऽऽइयाणं, तित्थयराणं अपच्छिमो भययं । तेलोक्कपहियकिती, चउचीसइमो जिणवरिंदो ॥२६॥ दित्तंडतरंगरिउवग्ग गंजणज्जियजत्तवीरत्थो । तेलोकरंगमज्झे, अतुल्लमल्लो महावीरो लीलाललणसुहम्मो, संयमलच्छीए तस्स य सुहम्मो । सीसो तत्तो जंबू, गुणिजणसउणीण वरजंबू ॥२८॥ नाणाऽऽइगुणप्पभवो, तत्तो य अभू महापभू पभवो । तयणंतरं च भयवं, आसी सेज्जभयो भयवं ॥२९॥ अह तस्स महापहुणो, मूलाओ चेव न हु जडाडणुगए । न जहत्तरं तणुतरे, परिमियपव्ये वि य न चेव ॥३०॥ सव्वंगं सारे च्चिय, न अप्पयोच्छेयदच्छरुच्छफले । पत्तन्तसाडरहिए, समंतओ निच्चसच्छाए ॥३१॥ व य अन्नेसिं गम्मे, अकंटए निरवसाणबुढिगुणे । तुंगमहीधरमुद्धा-णुगे वि भुवि पावियपइढे ॥३२॥ अच्वंतं सरले च्चिय, अपुब्वयंसम्मि परिवहंतम्मि । जाओ य वइरसामी, महापभू परमपयगामी ॥३३॥ तस्साहाए निम्मल-जसधवलो सिद्धिकामलोयाणं । सविसेसवंदणिज्जो य, रायणा थो(थे)रप्पवग्गो व्य ॥३४॥ कालेणं संभूओ, भयवं सिरिवद्धमाणमुणिवसभो । निप्पडिमपसमलच्छी-विच्छड्डाऽखंडभंडारो ॥३५॥ ववहारनिच्छयनय व्व, दव्यभावत्थय व्य धम्मस्स । परमुन्नइजणगा तस्स, दोण्णि सीसा समुप्पण्णा ॥३६॥ पढमो सिरिसूरिजिणेसरो ति, सूरो ब्व जम्मि उइयम्मि । होत्था पहाऽवहारो, दूरंततेयस्सिचक्कस्स अज्ज वि य जस्स हरहास-हंसगोरं गुणाण पब्भारं । सुमरंता भव्या उव्य-हंति रोमंचमंडगेसु ૨૮ बीओ पुण विरइयनिउण-पवरवागरणपमुहबहुसत्थो । नामेण बुद्धिसागर-सूरि ति अहेसि जयपयडो ॥३९॥ तेसिं पयपंकउच्छंग-संगसंपत्तपरममाहप्पो । सिस्सो पढमो जिणचंद-सूरिनामो समुप्पन्नो ૪થી अन्नो य पुन्निमाससहरो व्य, निव्ववियभव्यकुमुयवणो । सिरिअभयदेवसूरि ति, पत्तकित्ती परं भुवणे ૧૪ जेण कुबोहमहारिउ-विहम्ममाणस्स नरवइस्सेव । सुयधम्मस्स दढतं, निव्यत्तियमंडगवित्तीहिं ॥४२॥ तस्सऽभत्थणवसओ, सिरिजिणचंदेण मुणिवरेण इमा । मालागारेण व उ-च्चिणितु वरवयणकुसुमाइं ॥४३॥ मूलसुयकाणणाओ, गुंथित्ता निययमइगुणेण दढं । विविहऽत्थसोरभभरा, निम्मवियाऽऽराहणामाला ॥४४॥ एयं च समणमहुयर-हिययहरं अत्तणो सुहनिमित्तं । सव्वाऽऽयरेण भव्या, विलासिणो इव निसेवंतु। ॥४५॥ एसा य सुगुणमुणिजण-पयप्पणामप्पवित्तभालस्स । सुपसिद्धसेट्ठिगोद्धण-सुयविस्सुयजज्जणागस्स अंगुब्भवाण सुपसत्थ-तित्थजत्ताविहाणपयडाणं । निप्पडिमगुणज्जियकुमुय-सच्छहाऽतुच्छकित्तीणं ૪ળી जिणबिंबपइट्ठावण-सुयलेहणपमुहधम्मकिच्चेहिं । अत्तुक्कासगदुक्कुह-चित्तचमक्कारकारीणं ૪૮ના जिणमयभावियबुद्धीण, सिद्धवीराऽभिहाणसेट्ठीणं । साहेज्जेणं परमेण, आयरेणं च निम्मविया ૪ एईए विरयणेण य, जमऽज्जियं किंपि कुसलमऽम्हेहिं । पाविंतु तेण भव्या, जिणवयणाऽऽराहणं परमं ॥५०॥ छत्तावल्लिपुरीए, जेज्जयसुयपासणागभुवणम्मि । विक्कमनिवकालाओ, समइक्कन्तेसु परिसाण ॥५१॥ एक्कारससु सएसुं, पणुचीसासमहिएसु निष्फत्तिं । संपत्ता एसाऽऽरा-हण ति फुडपायडपयत्था રાજા लिहिया य इमा पढमम्मि, पोत्थए विणयनयपहाणेण । सिस्सेणमसेसगुणाऽऽ-लएण जिणदत्तगणिण त्ति ॥५३॥ तेवण्णभहियाई, गाहाणं इत्थ दससहस्साई । सव्यग्गं ठवियं निच्छि-ऊण सम्मोहमहणत्थं રાધના इति श्रीजिनचन्द्रसूरिकृता तद्विनेयश्रीप्रसन्नचन्द्राचार्यसमभ्यर्थितगुणचन्द्रगणिप्रतिसंस्कृता जिनवल्लभगणिना च संशोधिता संवेगरंगशालाभिधानाऽऽराधना समाप्ता ॥ |संवत् १२०३ वर्षे ज्येष्ठ शुदि १४ गुरौ अघेह श्री वटपद्रके दंडश्रीवासरे प्रतिपत्तौ संवेगरंगशालापुस्तकं लिखितमिति। | शिवमऽस्तु सर्वजगतः, परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥१॥ लेखक-प्रशस्तिः | 'जन्मदिने चरणभरा-क्रान्तशिरःसुरगिरेरियाप्तेन । रुक्मरुचिसञ्चयेन, स्फुरत्तनुर्जयति जिनवीरः सद्राजहंसचक्र-क्रीडाक्रमवति विलासिदलकमले । श्रीमत्यणहिलपाटक-नगरे सरसीव कृतवासः श्रीभिल्लमालगुरुगोत्रसमुद्धृति यः, चक्रेऽभिरामगुणसम्पदुपेतमूर्तिः । ताराधिनाथकमनीयशाः स धीरः, श्रीजीववानिति मतो भुवि ठक्कुरोऽभूत् ॥३॥ 280 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४-२७ लेखकप्रशस्तिः। | भद्रप्रकृत्यैव यथागनागः सदाऽभवत् सत्कृतवीतरागः । कटप्रविस्तारितभूरिदानः, तन्नन्दनः ठक्कुरवर्द्धमानः ॥४॥ तस्य चाजनि सत्पत्नी, नदीनाथक्रियागमा । यशोदेवीति गङ्गव, सुमनोहरचेष्टिता ॥५॥ पुत्रः प्रेयानेतयोश्चन्द्रतुल्यो, जज्ञे शचत् को मुदाप्यानहेतुः । प्राप्तः स्फातिं वृद्धये वै बुधाना-मीशः श्लाघ्यः ठक्कुरः पार्थनामा ॥६॥ यत्कारितं वीरजिनेन्द्रसद्म, चतुर्मुखं भाति कुमारपल्ल्याम् । शुभं क्वणत्काञ्चनकुम्भमुच्चैः, शृज हिमाद्रेचलदौषधीव॥७॥ सत्पादजङ्घिकात्रिक-मन्यमुखाभरणबहुविधविलासम् । यच्छालिभञ्जिकागण-मुद्दहति स्वमिव सुशिरस्कम् ॥८॥ निःसपत्नाऽभवत् पत्नी, तस्य शस्यचरित्रभूः । गौरीव गिरीशालीना, धंधिका बन्धुवत्सला ॥९॥ पुत्राः पञ्चाजनिषुरनयोर्लोकपालायमाना, मानम्लानिपथनपटयः क्षुद्रजिद्दालतानाम् । सर्वज्ञा मुनिवितरणन्यायसंस्थापनोत्था, कीर्तिर्येषां विचरति शरच्चन्द्रकुन्दावदाता ॥१०॥ महत्तमो नन्नुक एषु पूर्वजो, द्वितीयकः ठक्कुरलक्ष्मणः सुधीः ।। वजीव नासत्यकृतप्रतिष्ठिति-स्तृतीय आनन्दमहत्तमः कृती ॥११॥ वाणी यस्य प्रसरति रसात् सोदरी शर्करायाः, चेतोवृत्तिविलसति तुलां कल्पयन्ती सुधायाः । सत्कर्पूराजनमिव लसच्वेष्टितं शिष्टदृष्टीः, पुष्टिं नित्यं नयति यदि वा सुन्दरं किन्न यस्य ॥१२॥ |धनपालनागदेवौ, ठक्कुरौ तुर्यपञ्चमौ । श्रियादेवी च सत्पुत्री, जातैका शीलशालिनी ॥१३॥ | एतेष्वानन्दमहत्तमस्य, पत्न्यौं क्रमादभूतां द्वे । धृतशस्यशैलसंपत्, पूळ वसुधेव विजयमतिः ॥१४॥ भिल्लमालकुलव्योम-सोमः श्रावकसोहिकः । ज्योत्स्नेव लखुका तस्य, पत्नी सन्नीतिभूरभूत ॥१५॥ | गुरुत्तरः सौम्यकान्ति-श्छड्डक्स्तनयस्तयोः । मतिबुद्धिसमे जाते, राजिनीसीलुके सुते ॥१६॥ तत्रोपयेमे विधिवद्विनीता-मानन्दमन्त्री किल राजिनीं ताम् । पतिव्रतां यां प्रविलोक्य लोकाः स्मरस्ति शीतादिमहासतीनाम् ॥१७॥ | अजनि सचिवानन्दस्याजो-द्भवो भुवि ठक्कुरः, शरणिग इति ख्यातो नाम्ना महीशपुरस्कृतः । विजयमतितस्त्रासापेतः स रोहणसदिगरे-मणिरिव खनेर्यस्तेजस्वी स्वगोत्रविभूषणः । ॥१८॥ (हरिणी) सोदरी भगिनी चास्य, शान्तापीष्टसतीव्रता । सदुतरापि सर्वेषां, दक्षिणा घाउकाभिधा ॥१९॥ | राजिन्यथाजजमसूत वाकलङ्कम्, पूर्णप्रसादकृतनामकमिष्टबन्धुम् । भ्रातुः प्रियं शरणिगस्य नमस्यनमम्, रामस्य लक्ष्मणमिव प्रसरत्सुमित्रम् ॥२०॥ (वसन्ततिलका) तनया पूर्णादेवी च, तस्याः समुदपद्यत । सदाम्भस्थाननिरता, हंसीय मृदुवादिनी ॥२१॥ | अथान्यदानन्दमहत्तमोऽसौ, शुश्राव सम्यग् गुरुसन्निधाने । धम॑ श्रुतज्ञानचरित्ररूपं, मोक्षार्थिसम्पादितमोक्षमुच्चैः॥२२॥ हुन जिनाः क्रियायाः । तद्दानमादावत एव सर्व्व-दानेषु शंसन्ति पठन्ति चैवं॥२३॥ ये ज्ञानदानमपरं परिपाल्य यद्वा, सत्पुस्तकादि च विलेख्य समाचरन्ति । ते नष्टमोहतिमिराः किल केवलेन, सम्यग विलोक्य भुवनं विभवो भवन्ति ૨૪ न ते नरा दुर्गतिमाप्नुवन्ति, न चान्धतां बुद्धिविहीनतां च । न मूकतां नैव जडस्वभावं, ये लेखयन्तीह जिनस्य वाक्यम् ॥२५॥ श्रुत्वेदमिमां संवेग-गङ्गशालामलीलिखदम्याम् । निजपत्न्या राजिन्याः, पुण्याय महत्तमानन्दः ॥२६॥ प्रासादः सिद्धिरर्हन्नृपतिरनुपमा तत्प्रिया ज्ञानलक्ष्मीः-नीतिः सिद्धान्तगीः श्री-व्ययकरणसमौ साधुसद्मस्थधम्मौ । कारा घाादिरादीनविषु गुणिषु तु, स्वःशिवश्रीनियोगः, साम्राज्यं यावदित्थं प्रतपतु भुवने पुस्तकस्तावदेषः ॥२७॥ ॥ समाप्त ॥ 1. જેસલમેરના ભંડારની છત ઉપરથી પૂ. મુનિરાજ શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજે કરાવેલી ફોટો કોપીમાં સંવેગરંગશાળાની પ્રત લખાવનારની આ प्रशस्ति आपली छे. 2. आदीनविषु = क्लिष्टेषु = क्लेशं प्राप्तेषु । 281 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा से परमात्मा बनने के लिए संवेग का मार्ग ही संपूर्ण निर्विघ्न मार्ग है। आत्मा शब्द संसारवर्ती जीवों के लिए विशेष प्रयुक्त होता है और परमात्मा शब्द मुक्ति के जीवों के लिए विशेष प्रयुक्त होता है। संसार से मुक्त होने वाला ही मुक्ति में पहुँच सकता है। संसारी आत्मा बंधन में है। बंधन अनेक प्रकार के हैं। सभी बन्धनों का मूल बंधन कर्म है। कर्म है तो दूसरे बंधन है। कर्म नहीं तो एक भी बंधन नहीं। हर समझदार आत्मा मूल की ओर लक्ष्य देता है। रोग हो तो रोग का मूल कारण नष्ट होते ही रोग नष्ट हो जाता है अतः रोग के मूल कारण को दूर करने के लिए प्रयत्न किया जाता है। वैसे ही संसार का मूल कारण जो कर्म उसको दूर करने के लिए प्रत्येक समझदार व्यक्ति को प्रयत्न करना चाहिए यह सिद्धांत निश्चित है। जगत में उपचार अनेक प्रकार के है। जो उपचार जहाँ कार्य कर सके वहाँ उसी उपचार को करना हितकर है। कर्म को भी रोग की संज्ञा दी हुई है। कर्मरोग को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के उपचार अनंतानंत तीर्थंकर भगवंतों ने दर्शाये हैं। उन सभी उपचारों में सर्व श्रेष्ठ उपचार प्रत्येक भव्यात्मा के लिए एक ही है। और वह है 'संवेग रसायण का पान करना।' यह 'संवेग रसायन' दो कार्य करता है। रोग को मिटाता है और शक्ति को प्रकट करता है। जयानंद Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओं को अज्ञात तप करना तेसि पि तवो असुद्धो, निक्खंता जे महाकुला जं नेवऽन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेयए॥ व्याख्या : ये महाकुलोत्पन्ना अपि पूजासत्कारादिहेतवे। तपोदानाध्ययनादिकं कुर्वन्ति तेषामपि तत्कृतमुनुष्ठानमशुद्धं, पूजासत्कारादिकृते संयमपालनादि न निर्जरायै जायते, यत्पुनः कृतं तपोऽध्ययनादि अन्ये श्रावकादयो न जानन्ति तथा अवधेयं यदि लोकानां पुरः प्रकाश्यते, आत्मश्लाघा स्वयमेव क्रियते, तदपि तपो न निर्जरायै भवति, स्वयं प्रकाशनेन स्वकीयमनुष्ठानं फल्गुतामापादयेदिति। - सूयगडांग दीपिका अर्थ : जो महान् कुलो में उत्पन्न हुए दीक्षित सत्कारादि के लिए। तप करे तो उनका तप अशुद्ध है। तप कैसे करना - जिसको लोक न जाने और अपने तप की साधु प्रशंसा न करे। व्याख्या : महान् कुल में जन्मे आत्मा दीक्षित साधु जो पूजा सत्कारादि के लिए तप, दान, अध्ययनादि करता है, उनका किया हुआ अनुष्ठान भी अशुद्ध है। पूजा सत्कारादि के लिए किया हुआ संयमपालनादि निर्जरा के लिए नहीं होता और किया हुआ तप अध्ययनादि दूसरे श्रावक आदि न जाने वैसे करना/जो लोगों में जाहिर करने में आये, स्वयं की प्रशंसा स्वयं करें तो वह तप भी निर्जरा के लिए नहीं होता। स्वयं (तपादि को) प्रख्यात करे तो स्वयं का अनुष्ठान निष्फल होता है। - प्रभु तुज शासन अति भलु, पेज नं.३० इस सूयगडांग सूत्र की दीपिका का वर्णन देखते हुए वर्तमान में साधुओं के तपश्चर्या के पारणे हेतु बोलियाँ, वरघोड़ा, पत्रिका, महोत्सव जो हो रहे है, उस पर चतुर्विध संघ को सोचना आवश्यक है। शासन प्रभावना के नाम पर स्वप्रभावना तो नहीं हो रही है न ? MULTY GRAPHICS (022) 23873222-23884222