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वीरसेनामन्दिर-प्रन्थमालाका चतुर्थ पुष्प
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श्रीमदभिनव धर्म भूषण-यति-विरचिता
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न्याय - दीपिका
[qfत दरबारीलालनिर्मितप्रकाशाख्य टिप्पणादिसहिता ]
सम्पादक और अनुवादक शास्त्राचार्य पण्डित दरबारीलाल जैन "कोठिया" न्यायाचार्य एम० ए०
सम्पादक- अनुश्वक प्राप्त परीक्षा, स्पादादसिद्धि, प्रमाणप्रमेयकलिका, प्रध्यात्मकमलमार्त्तण्ड प्रादि ]
THE
राध्यापक जैन दर्शन, काशी हिन्दू विश्व विद्यालय, वाराणसी ।
प्रकाशक
वीर-सेवा-मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली ।
--::–
पुस्तक प्राप्ति स्थान : गोपी राम महावीर प्रसाद जैन
93 नया बांस, दिल्ली-6
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प्रकल कम छ अकलंक ०
अध्यात्मक ●
अमरको०
अष्टरा०
अष्टस०
आ० प०
प्राप्तप०
श्राप्तपरी०
श्राप्तमी०
प्राप्तमी०
काव्यमी०
वरकसं ०
जैनतर्कभा०
० दृश्
जेन शिलालेखसं०
जैमिनि०
जैनेन्द्रव्या०
तकदी०
लर्कर्स ०
तर्क संप्रहृपदकृ० तवैशा
तत्त्वसं०
संकेत-सूची'
11011
०
(सिंघी ग्रन्थमाला, कलकत्ता)
अध्यात्मकमलमार्त्तण्ड ( वीरसेवामन्दिर, सरसावा ) (सागर बन्बई )
कलंक ग्रन्थत्रय
समीप
अष्टशती
प्रष्टसहस्त्री
श्राराप्रति पत्र
प्राप्तपरीक्षा
प्राप्तमीमांसा
प्राप्तमीमांसावृति
काव्यमीमांसा
चरकसंहिता
जैनतर्कभाषा
כו
"
(जैन सिद्धान्त भवन, श्रारा ) (जैन सिद्धान्त कलकत्ता)
27
"
J
( निर्णयसागर, बम्बई )
जैमिनिसूत्र
जैनेन्द्रव्याकरण
तदीपिका
तर्कसंग्रह तर्कसंग्रहपदकृत्य
तत्ववैशारदी
तत्वसंग्रह
१ जिन ग्रन्थों या पत्रादिकों के प्रस्तावनादिमें पूरे नाम दे दिये गये हैं उनको यहाँ संकेतसूचीमें छोड़ दिया है ।
-- सम्पादक
(सिधी ग्रन्थमाला, कलकत्ता )
जैन शिलालेखसंग्रह ( मा० ग्रन्थमाला, बम्बई )
( निर्णयसागर, बम्बई )
(
( छन्नूलाल ज्ञानचन्द, बनारस)
SP
"
( चौखम्बा, काशी)
( गायकवाड़, बड़ोदा)
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सत्त्वाचंवा ० तत्त्वार्थ वृ० श्रु० तत्वार्थश्लो०
तत्त्वार्थश्लोकवा तत्त्वार्थ श्लोकवासिक त० श्लो
तत्त्वायंश्लो० भा० तत्त्वार्थवलोकवात्तिकभाष्य
तत्वार्थसू० }
तत्त्वार्थसूत्र
त० सू०
तत्त्वार्यावि० भा० तत्वार्थाधिगमभाष्य
तात्पर्यपरिशु
तिलो० प० दिनकरी
द्रव्यसं०
न्यायकलि०
( & }
तस्यार्थवातिक संवृत्ति सारी
न्यायकु०
न्यायकुमु०
न्यायप्र०
न्याबि०
न्याजि०टी०
न्यायमं ०
न्यायवा०
तात्पर्यपरिशुद्धि
तिलोयपणसि
द्रव्यसंग्रह न्यायकलिका
न्यायकुमुदचन्द्र
न्यायकुसु
} न्यायकुसुमाञ्जति
न्याकु
न्यायकुसु. प्रकाश • न्यायकुसुमाञ्जलिप्र० टीका
स्यामदी ●
न्यायदीपिका
न्यायप्रवेश
न्यायबिन्दु
न्यायबिन्दु टीका
न्यायमंजरी
न्यायवातिक
( जैन सिद्धान्त०, कलकत्ता ) ( लिखित वीरसेवामन्दिर)
( निर्णयसागर बम्बई )
सिद्धान्तमुक्तावलीटीका ( निर्णयसागर बम्बई)
( प्रथमगुच्छक, काशी)
न्यायवा०तात्प
न्यायवा. तास. टी. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका
स्पायवा० ती
( अर्हतप्रभाकर, पूना)
( जीवराजप्रन्य०, शोलापुर )
...
( गङ्गानाथ झा ) (माणिकचन्द्रग्रन्थमाला, बम्बई)
(zieren, wat)
"
rA
"
...
( प्रस्तुत संस्करण ) (गायकवाड़, बड़ौदा ) ( चौखम्बा काशी)
F
"
"
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न्यायवि० न्यायवि. वि. लि. न्यायवि. वि. सि.
न्यायसू०
(चौखम्बा, काशी)
न्यायाय ०टी० टि० न्यायावतारटीकाटिप्पणी (श्वेताम्बरकान्फस, बम्बई)
पत्रपरी०
परीक्षामु०
पात० महाभा०
प्रमाणनय०
प्रमाणनि ०
मनामी a
प्रमाणमी० ० भा०
प्रमाणसं ०
प्रमाणसं० स्वो०
प्रमाज
}
प्रभालक्ष०
प्रमेयक o
प्रमेयरo
प्रवचनसा
प्रशस्तपादभा●
प्रकरण ०
प्रकरणपि
प्रमाणप
प्रमाणपरी०
प्र० प०
प्रमाणमं
प्रमाणवा०
D
( १० )
( अकल ग्रन्थत्रय)
न्याविनिश्चय न्यायविनिश्चयविवरण ( वीरसेवामग्दिर, सरसावा )
लिखित
}
न्यायसूत्र
पत्रपरीक्षा
परीक्षामु०
पातञ्जलिमहाभाष्य प्रमाणनयतत्वालोकालंकार (यशोविजयग्र०, काशी)
माणिक ग्रन्थ, बम्बई) (सिंघोग्रन्यमाला, कलकत्ता)
( जनसिद्धान्त०, कलकत्ता)
( पं० धनश्यामदासजी का ) (चौखम्बा, काशी)
प्रमाणनिर्णय
प्रमाणमीमांसा प्रमाणमीमांसा भाषाटिप्पण
प्रमाणसंग्रह
प्रमाणसंग्रह स्वोपज्ञवृत्ति
प्रमालक्षण
प्रमेयकमलमानंण्ड प्रमेयरत्नमाला
प्रवचनसार
प्रशस्तपादभाष्य
प्रकारणपञ्जका
प्रमाणपरीक्षा
प्रमाणमंजरी
प्रमाणवासिक
"
(अकलकुग्रन्यत्रम )
21
( पं० महेन्द्रकुमारजी, काशी) (पं० फूलचन्दजी, काशी) (रायचन्द्रशास्त्रमाला, बम्बई ) ( चौखम्बा, काशी)
( चौखम्बा, काशी)
( जैन सिद्धान्तप्र०, कलकता )
(राहुलजी सम्पादित)
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um
..
प्रमाणसं. प्रमाणसमुस्मय (मैसूर यूनिवर्सिटी) मनोरथन. मनोरयनन्दिनी (प्रमाणमीमांसामें उपयुक्त) सी० श्लो. मीमांसाश्लोकवात्तिक (चौखम्बा, काशी) युक्त्यनुशा० टी० युक्त्यनुशासनदीका (मा. ग्रन्थमाला, बम्बई) योग योगसूत्र
(चौखम्बा, काशी) राडवा.
राजवात्तिक (जनसिद्धान्त०, कसकता) लमीप० । सधीवस्त्रय (अकलंकअन्यत्रय) सपी० लषीय. तात्पर्य० लघीयस्त्रयतात्पर्यवृत्ति (मा० ग्रन्थमाला, बम्बई) सीपी.लि. सरस्व स्वपिजविवृति (कलंक ग्रन्पत्रय) लघुसवमा लधुरार्वज्ञसिद्धि (मा० ग्रन्थमाला, बम्बई) वाक्यप०
वाक्यपदीय (बौखम्बा, काशी) पोषिक. सूत्रोष.
वैशेषिक सूत्रोपस्कार वै. सूत्रोप. वैशेषिकसू०
वैशेषिकसूत्र शब्दशः
शब्दशक्तिप्रकाशिका আমার मावरभाष्य (प्रानन्दाश्रम, पूना) शास्त्रदी शास्त्रदीपिका (विद्याविलास प्रेस, काशी) बड्दर्शन षड्दर्शनसमुख्चय (चौसम्बा, काशी) सर्वदर्श सर्वदर्शनसंग्रह (भाण्डारकर, पूना) सर्वार्ष सर्वार्थसिद्धि (सोलापुर) सर्वार्थसिः । साहिद साहित्यदर्पण सांख्य. मावर. सांख्यकारिका माठरवृति (चौखम्बा, काशी) सिद्धिधिनि. टी. सिद्धि विनिश्चयटीका (सरसावा) सिद्धान्तमु । सिद्धान्तमुक्तावली (नियसागर, नम्बई) सि. मु.
शेषि. जप.
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पारा
( १२ ) स्वादादर० । स्याद्वापरलाकर स्या. रत्ना. ।
(भाईतप्रभाकर., पूना), स्वयम्भू स्वयम्भूस्तोत्र
(प्रथमगुच्छक, कापी) हेतुवि हेतुबिन्दु
(बड़ौदा संस्करण) प्रा. A
पंक्ति कारिका
प्रति गाथा प्र० प्र०
प्रथमभाग प्रस्तावना देहली प्रस्ताव
प्रस्तावमा टिप्पण
बनारस पत्रशि० शिलालेख पृष्ठ
सम्पा० सम्पादक अपनी ओर से निक्षिप्त पाठ
पृ. १२० ५० १० [यथा], पृ. ६५ पं. ५ [शिशपा]
प्र०
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प्राक-कथन न्या को सर दर्शन :य सानियते वस्तुतस्लमनेमेति वर्शनम् अथवा 'दृश्यते निर्णायत वं वस्तुतस्त्वमिति वर्षानम् इन दोनों व्युत्पसियोंके साधारपर दुर धानुसे निष्पन्न होता है। पहली
त्पत्तिके आधारपर दर्शन शब्द तर्क-वितर्क, मन्थन या परीक्षास्वरूप उस विचारधाराका नाम है जो तत्त्वोंके निर्णयमें प्रयोजक हुषा करती है। पूसरी व्युत्पत्तिके प्राधारपर दर्शन शब्दका अर्थ उल्लिखित विचारधाराके द्वारा निर्णीत तत्त्वोंकी स्वीकारता होता है। इस प्रकार दर्शन शब्द दार्शनिक जगत्में इन दोनों प्रकारके अर्थोमें व्यवहुत हुआ है अर्थान भिन्न-भिन्न मतोंकी जो तत्त्वसम्बन्धी मान्यतामें हैं उनको और जिन ताकिका मुद्दोके प्राधारपर उन मान्यताओंका समर्थन होता है उन ताकिक मुद्दोंको दर्शनशास्त्रके अन्तर्गत स्वीकार किया गया है ।
सबसे पहिले दर्शनोंको दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता हैभारतीय दर्शन और प्रभारतीय (पाश्चात्य) दर्शन । जिनका प्रादुर्भाव भारतवर्ष हुया है के भारतीय और जिनका प्रादुर्भाव भारतवर्ष के बाहर पाश्चात्य देशों में हुआ है वे प्रभारतीय (पाश्चात्य) दर्शन माने गये हैं। भारतीय दर्शन भी दो भागोंमें विभक्त हो जाते हैं-वैदिक दर्शन मोर प्रवैदिक दर्शन | वैदिक परम्पराके अन्दर जिनका प्रादुर्भाव हुमा है तथा जो वेदपरम्पराके पोषक दर्शन हैं वे वैदिक दर्शन माने जात हैं और वैदिक परम्परासे भिन्न जिनकी स्वतन्त्र परम्परा है तथा जो वैदिक परम्पराके विरोधी दर्शन हैं उनका ममावेश अवैदिक दर्शनों में होता है। इस सामान्य नियमके आधारपर वैदिक दर्शनों में मुख्यनः सांख्य, वेदान्त, भीमांसा, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन माते हैं और जैन, बौद्ध तथा चार्वाक दर्शन, अवैदिक दर्शन ठहरते हैं ।
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न्याय-दीपिका
वैदिक और प्रवैदिक दर्शनोंको दार्शनिक मध्यकालीन युगमें कमसे आस्तिक और नास्तिक नामोंसे भी पुकारा जाने लगा था, परन्तु मालूम पड़ता है कि इनका यह नामकरण साम्प्राषिक श्यामोहके कारण वेदपरम्पराके समर्थन और विगेवके अाघारपर प्रशंसा और निन्दाके रूपमें किया गया है । कारण, पदि प्राणियोंके जन्मानररूप परलोक, स्वर्ग मोर नरक तथा मुक्तिके न माननरूप अर्थ में नाम्नित्र शब्दका प्रयोग किया जाय तो जैन और बौद्ध दोनों अदिक दर्शन नास्तिक दर्शनोंकी कोटिस निकल कर आग्निक दर्शनांकी काटिम प्रा डायगे क्योंकि ये दोनों दर्शन परलोक, स्वर्ग और नरक नया मुक्तकी गायताको स्वीकार करते हैं । और यदि जगत्का कर्ता मानियन ईश्वको न मानरूप अर्धभ नास्तिक शब्दका प्रयोग किया जाय तो सांख्य और मीमांसा दर्शनोंकों भी मास्तिक दर्शकी कोटिसे निकालकर नास्तिक दर्शनांकी कोटिमें पटक देना पड़ेगा; क्योंकि ये दोनों दर्शन अनादिनिधन ईश्वरको जगतका कर्ता माननेसे इन्कार करते हैं । 'नास्तिको वेदनिन्दकः' इत्यादि वाक्य भी हम यह बतलाते है कि वेदपरम्पराको न माननेवालों या उसका विरोव करनवालों के बारेमें ही नास्तिक छान्दका प्रयोग किया गया है। प्रायः सभी सम्प्रदायोंमें अपनी परम्पराके माननेवालोंको प्रास्तिक और अपनेसे भिन्न दूसरे सम्प्रदायकी परम्पराके मानने वालोंको नास्निक कहा गया है। जनसम्प्रदायमें जैनपरम्पराके माननेवालोंको सम्यग्दृष्टि और जनतर परम्पराफे माननेवालोंको मिथ्यावृष्टि कहने का रिवाज प्रचलित है । इस कथनका तात्पर्य यह है कि भारतीय दर्शनाका जो प्रास्तिक और नास्तिक दर्शनोंके रूपमें विभाग किया जाता है वह निरर्थक एवं अनुचित है।
उल्लिखित सभी भारतीय दर्शनों में से एक दो दर्शनोंको छोड़कर प्रायः सभी दर्शनोंका साहित्य काफी विशालताको लिये हुए पाया जाता है । अनदर्शनका साहित्य भी काफी विशाल और महान है। दिगम्बर मोर श्वेताम्बर दोनों दर्शनकारोंने समानरूपसे जैनदर्शनके साहित्यको समृद्धिमें
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प्राक्कथन
काफी हाथ बढ़ाया है । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें परसर जो मतभेद पाया जाता है वह दार्शनिक नहीं, मागमिक है । इसलिये इन दोनोंके दर्शन साहित्यको समृद्धिके धारावाहिक प्रयासमें कोई पन्तर नहीं माया है।
दर्शनशास्त्रका मुख्य उद्देश्य वस्तु-स्वरूप व्यवस्थापन हो माना गया है । जनदर्शनमें वस्तुका स्वरूप अनेकान्तात्मक (अनेकधर्मात्मक) निर्णीत किया गया है। इसलिये जैनदर्शनका मुख्य सिद्धान्त अनेकान्तवाद (अनेकान्तकी मान्यता) है । अनेकान्तका अर्थ है—परस्पर विरोधी दो तत्त्वोंका एकत्र समन्वय । तात्पर्य यह है कि जहां दूसरे दर्शनोंमें वस्तुको सिर्फ सत् या असत्, सिर्फ सामान्य या विशेष, सिर्फ नित्य मा अनित्य, सिर्फ एक या अनेक और सिर्फ भिन्न या अभिन्न स्वीकार किया गया है वहाँ जैन दर्शनमें वस्तुको सत और असत, मामान्य और विशेष, नित्य और अनित्य, एक और अनेक तथा भिन्न और अभिन्न स्वीकार किया गया है और जैनदर्शनको मह सत्-असत, सामान्य विशेष, नित्य-प्रनित्य, एक-अनेक और भिन्न-भिन्न रूप वस्तुविषयक मान्यता परस्पर विरोधी दो तत्त्वों का एकत्र समन्वय को सूचित करती है।
वस्तुकी इस अनेक धर्मात्मकताके निर्णयमें साधक प्रमाण होता है। इसलिये दूसरे दर्शनोंकी सरह जनदर्शन में भी प्रमाण-मान्यताको स्थान दिया गया है । लेकिन दूसरे दर्शनोंमें जहाँ कारकसाकल्यादिको प्रमाण माना गया है यहां जैनदर्शनमें सम्यग्ज्ञान (अपने और अपूर्व अर्थके निर्णायक ज्ञान) को ही प्रमाण माना गया है क्योंकि अप्ति-क्रियाके प्रति जो करण हो उसीका जनदर्शनमें प्रमाण नामसे उस्लेख किया गया है ।। ज्ञप्तिक्रियाफे प्रति करण उक्त प्रकारका ज्ञान ही हो सकता है. कारकसाकल्यादि नहीं, कारण कि क्रियाके प्रति अत्यन्त प्रर्थात् प्रव्यवाहितरूपसे साधक कारणको ही व्याकरणशास्त्रमें करणसंज्ञा दी गयी है और
१ 'साधकतमं कारणम् ।'-जैनेन्द्रव्याकरण शरा११३।
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न्याय- दीपिका
श्रव्यवहितरूपमें ज्ञप्तिक्रियाका साधक उक्त प्रकारका ज्ञान ही है। कारकसाफल्यादि शतिक्रियाके साधक होते हुए भी उसके प्रव्यवहितरूपसे साधक नहीं हैं इसलिए उन्हें प्रमाण कहना अनुचित है ।
P
प्रमाण मान्यताको स्थान देनेवाले दर्शनोंमें कोई दर्शन सिर्फ प्रत्यक्षप्रमाणको, कोई प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाणोंको, कोई प्रत्यक्ष, अनुमान घोर आगम इन तीन प्रमाणोंको, कोई प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान चार प्रमाणों को कोई प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति पांच प्रमाणोंको और कोई प्रत्यक्ष अनुमान, आगम, उपमान, प्रर्थापत्ति और प्रभाव इन छह प्रमाणोंको मानते है । कोई दर्शन एक सम्भव नामके प्रमाणको भी अपनी प्रमाणमान्यतामें स्थान देते हैं । परन्तु जनदर्शन में प्रभाणकी इन भिन्न-भिन्न संख्याओं को यथायोग्य निरथैंक, पुनरुक्त और अपूर्ण बतलाते हुए भूलमें प्रत्यक्ष भौर परोक्ष ये दो ही भेद प्रमाणके स्वीकार किये गये हैं । प्रत्यक्ष के प्रतीन्द्रिय और इन्द्रियजन्य ये दो भेद मानकर अतीन्द्रिय प्रत्यक्षमं श्रवविज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञानका समावेश किया गया है तथा इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और कर्ण इन पांच इन्द्रियों और मनका साहाय्य होनेके कारण स्पर्शनेन्द्रिय- प्रत्यक्ष, रसनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, प्राणेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, चक्षुइन्द्रिय- प्रत्यक्ष कर्णेन्द्रिय- प्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष ये छह भेद स्वीकार किये गये हैं । अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष भेद अवधिज्ञान यार मनः पर्ययज्ञानको जैनदर्शनमें देशप्रत्यक्ष सजा दी गई है। कारण कि इन दोनों ज्ञानोका विषय सीमित माना गया है और केवलज्ञानव सकलप्रत्यक्ष नाम दिया गया है क्योंकि इस विषय सीमित माना गया है अर्थात् जगत् के सम्पूर्ण पदार्थ अपने अपने विकलवर्ती विवर्ती सहित इसकी विषयकोटिमें एक साथ समा जाते है | सर्व केवलज्ञान नामक इसी सकलप्रत्यक्षका सद्भाव स्वीकार किया गया है । श्रतीन्द्रिय प्रत्यक्षको परमार्थ प्रत्यक्ष और इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहा
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प्राक्कषन
जाता है । इसका सबब यह है कि सभी प्रत्यक्ष प्रोर परोक्ष ज्ञान पथपि आत्मोत्थ हैं क्योंकि ज्ञानको प्रात्माका स्वभाव वा गुण माना गया है। परन्तु प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष इन्द्रियोंको महायताके बिना ही स्वतन्त्ररूपसे आत्मामें उद्भूत हुआ करते हैं इसलिये इन्हें परमार्थ सज्ञा दी गई है और इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष प्रात्मोत्थ होते हुए भी उत्पत्तिमें इन्द्रियाधीन हैं इसलिये वास्तव में इन्हें प्रत्यक्ष कहना अनुचित ही है। प्रतः लोकम्यवहारकी दृष्टिसे ही इनको प्रत्यक्ष कहा जाता है। वास्तवमें तो इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षाका भी परोक्ष ही कहना उचित है । फिर जब कि ये प्रत्यक्ष पगधीन है तो इन्हें परोक्ष प्रमाणोंमें ही अन्तर्भत क्यों नहीं किया गया है ? इस प्रश्नका उत्सर यह है कि जिस ज्ञानमें जय पदार्थका इन्द्रियों के साथ साक्षात् सम्बन्ध विद्यमान हो उस शानको मांयवारिक प्रत्यक्षमें अन्तर्भत किया गया है और जिस ज्ञानमें ज्ञेय पदार्थका इन्द्रियांके साथ माक्षात् सम्बन्ध विद्यमान न हो । परम्परया सम्बन्ध कायम होता हो उस ज्ञानको परोक्ष प्रमाणमें अन्तर्भूत किया गया है । उक्त छहाँ इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षों (सांव्यवहारिक प्रत्यक्षों) में प्रत्येककी अवग्रह, इहा, अवाय और धारणा चार-पार अवस्थाएँ स्वीकार की गयो हैं। अवग्रह-जानको उस दुर्वल अवस्थाका नाम है जो अनन्तरकालमें निमित्त मिलने पर विरुद्ध नानाकोटि विषयक संशयका रूप धारण कर लेती है और जिसमें एक प्रवपनानको विषयभूत कोटि भी शामिल रहती है। संशयके बाद प्रवग्रहशानकी विषयभूत कोटि विषयक अनिर्णीत भावनारूप ज्ञानका नाम ईहा माना गया है । और ईहाके बाद अवग्रहशानको विषमभूत कोटि विषयक निर्णीत झानका नाम अवाप है । यही ज्ञान यदि कालान्तरमें होनेवाली स्मृतिका कारण बन जाता है तो इसे धारणा नाम दे दिया जाता है। जैसे कही जाते हुए हमारा दूर स्थित पुरुषको सामने पाकर उसके बारेम "यह पुरुष है" इस प्रकारका ज्ञान अवग्रह है । इस ज्ञानकी दुर्बलता इसीसे जानी जा सकती है कि यही ज्ञान अनन्तरकालमें निमित्त मिल जानेपर
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न्याय-दीपिका
, वह पुरुष है या ठ" इस प्रकारके संशयका रूप धारण कर लिया करता है। यह संशम पने मनन्तरकासमें निमित्त विशेषके प्राचारपर 'मानुन पड़ता है कि यह पुरुष ही है अथवा 'उसे पुरुष ही होना चाहिमें इत्यादि प्रकारसे ईहा भानका रूप धारण कर लिया करता है और ईहाज्ञान ही अपने मनन्तर समयमें निमिसविशेषक बसपर 'वह पुरुष हो है' इस प्रकारके प्रबायज्ञानरूप परिणत हो जाया करता है। वही शान नष्ट होनेसे पहले कालान्तरमें होनेवाली 'अमुक समय स्थानपर मैंने पुरुषको देखा था' इस प्रकारको स्मृतिमें कारणमूत को अपना संस्कार मस्तिष्कमर छोड़ जाला है उसीका नाम धारणामान जैनदर्शनमें माना गया है। इस प्रकारका ही इतिहास समरिक प्रत्या) भिन्न २ समयमें भिन्न २ निमित्तोंके प्राधारपर अबबाह, ईहा बाय और धारणा इन चार रूपोंको धारण कर लिया करता है और ये सार रूप प्रत्येक इन्द्रिक मोर मनसे होनेवाले प्रत्यक्षज्ञानमें सम्म हुमा करते हैं। जैनदर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाणका स्पष्टीकरण इसी ढंगसे किया गया है।
जैनदर्शनमें परोक्षप्रमाणके पांच भेद स्वीकार किये गये है- स्मृति. प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और प्रागम । इनमेंसे धारनामूलक स्वतन्त्र जानविशेषका नाम स्मृति है। स्मृति और प्रत्यक्षमुलक वर्तमान मोर भून पक्षाभोंके एकत्व प्रयवा सादृश्यको ग्रहण करनेवाला प्रत्यभिज्ञान कहलाता है, प्रत्यभिज्ञानमूलक दो पदार्थोके अविनाभाब सम्बन्धरूप व्याप्तिका ग्राहक तक होता है और तकंमूलक साधनसे साध्यका भान अनुमान माना गया है । इसी तरह आगमज्ञान भी पनुमानमूलक ही हप्ता है अर्थात् 'ममुक गन्दका अमुक अर्थ होता है ऐना निणंम हो जाने बाद ही श्रोता किसी शब्दको मुनकर उसके मथका मान कर सकता है। इस कथनसे यह निष्कर्ष निकला कि मान्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रियजन्य है प्रौर परोक्ष प्रमाण सांव्यवहारिक प्रत्यक्षजन्य है। बस, सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मौर परोक्ष प्रमाणमें इतना ही अन्तर है।
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प्राक्कथन
जैनदर्शनमें शन्दजन्य प्रर्यभानको मागम प्रमाण माननफे साथ-साथ उस शब्दको भी भागम प्रमाणमें संग्रहीत किया गया है और इस प्रकार जैनदर्शनमें पागम प्रमाणके दो भेद मान लिये गये हैं । एक स्वार्थप्रमाग और दूसरा परार्थप्रमाण । पूर्वोक्त सभी प्रमाण ज्ञानरूप होनेके कारण स्वार्थप्रमाणरूप ही हैं । परन्तु एक भागम प्रमाण ही ऐसा है जिसे स्वार्थप्रमाण और परापंप्रमाण उभयस्प स्वीकार किया गया है। पाम्दजन्य यज्ञान ज्ञानरूप होने के कारण स्वार्थप्रमाणरूप है । लेकिन शम्दमें कि ज्ञानरूपताका प्रभाव है इसलिये वह परायंप्रमाणरूप माना गया है।
यह परार्थप्रमाणरूप शब्द वाक्य और महावाक्यके भेदसे दो प्रकारका है। इनमें से दो या दोसे अधिक पदोंके समूहको वाक्य कहते हैं मोर दो या दो से अधिक वाक्योंके समूहको महावाक्य कहते हैं, दो या दो से अधिक महावाक्योंके समूहको भी महाबायके ही अन्तर्गत समझना माहिये । इससे यह सिद्ध होता है कि परापंप्रमाण एक सखण्ड वस्तु है और वाक्म तथा महावाक्यरूप परार्थप्रमाणके जो खणड हैं उन्हें जनदर्शनमें नयसंज्ञा प्रदान की गई है। इस प्रकार अनदर्शनमें वस्तुस्वरूपके व्यवस्थापनमें प्रमाणकी तरह नयोंको भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। परार्थप्रमाण और उसके प्रशभूत नयोंका लक्षण निम्न प्रकार समझना चाहिए___ "वक्ताके उद्दिष्ट प्रर्मका पूर्णरूपेण प्रतिपादक वाक्य और महागाक्य प्रमाण कहा जाता है और बक्ताके उद्दिष्ट मयंक अंगका प्रतिपादक पद, वाक्म और महावाक्यको नयसंज्ञा दी गयी है ।"
इस प्रकार ये दोनों परार्थप्रमाग और उसके मंशभूत नय वचनरूप हैं और चूंकि वस्तुनिष्ठ सत्व और प्रसव, सामान्य मोर विशेष, नित्यत्व
और अनित्यत्व, एकत्व और भनेकत्व, भिन्नत्व पौर अभिन्नत्व इत्यादि परस्पर विरोधी दो तत्त्व अथवा तहिशिष्ट वस्तु ही इनका वाश्य है इसलिए इसके प्राधारपर जैन दर्शनका सप्तभंगीवाद कायम होता है । प्रति
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न्यार-दीपिका
उक्त सत्व और असत्य. सामान्य और विशेष, नित्यत्व और भनित्यत्व, एकत्व और अनेकत्व, भिन्नत्व और अभिन्नत्व इत्यादि युगलघमों और एत धर्मविशिष्ट वस्तुके प्रतिपादन उक्त पराधमा और उसके भभूत नय सातरूप धारण कर लिया करते हैं।
प्रमाणवचनके सातरूप निम्न प्रकार है-सत्व और असत्व इन दो धोमसे सत्वमुखेन वस्तुका प्रतिपादन करना प्रमाणवचनका पहलारूप है । असत्वमुखेन वस्तुका प्रतिपादन करना प्रमाणवचनका दूसरा रूप हैं । सत्व और असत्य उभयधर्ममुखेन क्रमशः वस्तुका प्रतिपादन करना प्रमाणवचनका तीसरा रूप है । सत्व और असत्व उभयचर्ममुसेन युमपत् (एकसाथ) वस्तुका प्रतिपादन करना मसम्भव है इसलिये प्रवक्तम्प नामका चौथा रूप प्रमाणवचनका निष्पन्न होता है। उपरधर्ममुखेन युगपत् बस्तुके प्रतिपादनको असम्भवताके साथ-साथ सस्वमुमेन वस्तुका प्रतिपादन हो सकता है इस तरहसे प्रमाणवचनका पांचवा रूप निष्पन्न होता है। इसीप्रकार उभयधर्ममुखेन युगपत् वस्तुके प्रतिपादनकी असम्भवताके साथ-साथ असत्वमुखेन भी वस्तुका प्रतिपादन हो सकता है इस तरससे प्रमाणवचनका छठा रूप वन जाता है । और उभयधर्ममुखेन युगपत् वस्तु के प्रतिपादनकी असम्भवताके साथ-साथ उभयधर्ममुखेन क्रमशः वस्तुका प्रतिपादन हो सकता है इस तरहीं प्रमाणवचनका सातवाँ रूप बन जाता है । जैनदर्शनमें इसको प्रमाणसप्तभगी नाम दिया गया है।
भयवचनके सात रूप निम्न प्रकार है-वस्तुके सत्व भोर असत्य इन तो धर्मों में से सत्व वर्मका प्रतिपादन करना नयवचनका पहला रूप है । असत्व धर्मका प्रतिपादन करना नयवचनका दूसरा रूप है। उभय धर्मोका क्रमश: प्रतिपादन करना नवदननका तीसग रूप है और चूंकि उभयधर्मोंका युगपत् प्रतिपादन करना असम्भव है इसलिये इस तरहसे प्रवक्तव्य नामका चौया रूप नयवचनका निष्पन्न होता है। नयवबनके पांचवें, छठे और सातवें रूपोंको प्रमाणवचनके पांचवें, छठे और मानवें
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प्राक्कथन
रूपोंके समान समझ लेना चाहिए । बैनदर्शनमें नयवचनके इन सात रूपोंको नयसप्तमंगी नाम दिया गया है।
इन दोनों प्रकारकी सप्तमंगियोंमें इतना ध्यान रखनेकी जरूरत है कि सत्व-धर्मसुखेन वस्तुका अथवा वस्तुके सत्वधर्मका प्रतिपादन किया जाता है तो उस समय वस्तुको प्रसस्वधर्मविशिष्टताको अधना वस्तुके असत्वषमको अविविक्षित मान लिया जाता है और यही बात असत्वधर्ममुखेन वस्तुका अथवा वस्तु के असत्वधर्मका प्रतिपादन करते समय वस्तुकी सस्वयमावशिष्टता अथवा वस्तुके सत्यधर्म के बारे में समझना चाहिए । इस प्रकार उभयपोको विवक्षा (मुस्यता) और मविवक्षा (गोणता)के स्पष्टीकरणके लिए स्याहाद अर्थात् स्यात्की मान्यताको भी अनदर्शनमें स्थान दिया गया है। स्याद्वादका अर्थ है-किसी भी धर्मके द्वारा वस्तुका अथवा वस्तुके किसीभी धर्मका प्रतिपादन करते वक्त उसके अनुकूल किसीभी निमित्त, किसीमो दृष्टिकोण या किसी भी उद्देश्य को लक्ष्य में रखना । और इस तरह से वस्तुको विरुद्धधर्मविशिष्टता अपवा वस्तुमें विरुद्ध धर्मका अस्तित्व प्राण्य रक्खा जा सकता है। यदि उक्त प्रकारके स्यावादको नहीं अपनाया जायगा तो वस्तुको विरुद्धधर्मविशिफ्टताका अथवा वस्तुमें विरोधी धर्मका प्रभाव मानना अनिवार्य हो जायगा पौर इस तरहसे अनेकान्तवादका भी जीवन समाप्त हो जायगा।।
इस प्रकार अनेकान्तवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, सप्तभंगीवाद और स्याद्वाद ये जैनदर्शनके अनुठे सिद्धान्त हैं। इनमेंसे एक प्रमाणवादको छोड़कर बाकीके धार सिद्धान्तोंको तो जनदर्शनकी अपनी ही निधि कहा जा सकता है और ये चारों सिद्धान्त जनदर्शनकी अपूर्वता एवं महत्ताके मतीव परिचायक हैं। प्रमाणवादको यद्यपि दूसरे दर्शनोंमें स्थान प्राप्त है परन्तु जिस व्यवस्थित ढंग और पूर्णताके साथ जैनदर्शनमें प्रमाणका विवेचन पाया जाता है वह दूसरे दर्शनोंमें नहीं मिल सकता है । मेरे इस कथनकी स्वाभाविकताको जनदर्शनके प्रमाणविदेषनके साथ दूसरे दर्शनों
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न्याय-दीपिका
के प्रमाणविवेचनका तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले विद्वान् सहब ही में समस गाने
एक बात जो जनदर्शनकी यहाँ पर कहने के लिए रह गई है वह है सर्वज्ञतावादकी, अर्थात् जैनदर्शनमें सर्वज्ञतावादको भी स्थान दिया गया है मौर इसका सबब यह है कि पागमप्रमाणका भेद जो परामंप्रमाण मर्यात् वषम है उसकी प्रमाणता बिना सर्वशताके सभव नहीं है। कारण कि प्रत्येक दर्शनमें प्राप्तका वचन ही प्रमाण माना गया है तथा प्राप्त एवंभक पुरुष ही हो सकता है और पूर्ण मवंचकताकी प्राप्ति के लिए व्यक्तिों सर्वज्ञताका सद्भाव अस्पन्त भावश्यक माना गया है । ___ जनदर्शनमें इन भनेकान्त, प्रमाणप, नय, सप्तभंगी, स्यात् पौर मयंजताकी मान्यतामोंको गंभीर मौर विस्तृत विवेचनके द्वारा एक निष्कर्षपर पहुंचा दिया गया है। स्पायरोपिकामें थोमभिनव धर्ममूपनतिने इन्हीं विषयोंका सरल मौर संक्षिप्त बंगसे विवेचन किया है और श्री ५० परवारीसाल कोठिया ने इसे टिप्पणी भोर हिन्दी अनुवादसे सुसंस्कृत बनाकर सर्वसाधारणके लिए उपादेय बना दिया है। प्रस्तावना, परिशिष्ट
आदि प्रकरणों द्वारा इसकी उपादेयता भोर भी रख गई है। मापने ग्यापयोपिका के कठिन स्थलों का भी परिश्रम के साथ स्पष्टीकरण किया है । हम प्राशा करते हैं कि श्री पं० परवारीसाल कोठिया की इस कृति का विद्वत्समाजमें समादर होगा । इत्यलम् ।
ता. ३१-३-४५ )
बंशीधर अन (व्याकरणाचार्य, न्यायतीयं, न्यायशास्त्री
साहित्यशास्त्री)
बीना-पटाखा
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सम्पादकीय सम्पादन का विचार प्रौर प्रवृत्ति
सन् १९३७की बात है। मैं उस समय वीरविद्यालय पपौरा (टीकमगढ़ C.I.) में मध्यापन कार्य में प्रवृत्त हुमा था। वहाँ मुझे न्यायदीपिका - को असुनी पृष्टि से पढ़ानेका प्रथम अवसर मिला । जो छात्र उसे पढ़ चुके
थे उन्होंने भी पुनः पड़ी । यद्यपि मैं म्यायदीपिका की सरलत्ता, विशदता मादि विशेषतामों से पहलेसे ही प्रभावित एवं प्राकृष्ट पा। इसोसे मैंने एक बार उसके एक प्रषान विषय 'मसाधारणपर्यवदन' लक्षण पर 'लक्षण का सफण' शीर्षक के साथ जनदर्शन' में लेख लिखा पा । पर पपौरा में उसका सूक्ष्मता से पठन-पाठनका विशेष अवसर मिलनेसे मेरी इच्छा उसे शुद्ध भोर हावी बनाने कीहोर मीनी : दाते समय ऐसी सुन्दर कृतिमें मशुद्धियां बहुत खटकती थीं। मैंने उस समय उन्हें यथासम्भव दूर करनेका प्रयल किया । साथ में अपने विवापियोंके लिए न्यायदीपिका की एक प्रश्नोत्तरावली' भी तैयार की ।
जब मैं सन् १९४० के जुलाईमें वहाँ से ऋषभवाह्मचर्याश्रम चौरासी मथुरा में पाया मौर वहाँ दो वर्ष रहा उस समय भी मेरी न्यायदीपिका विषयक प्रवृत्ति कुछ चलती रही। पहाँ मुझे प्राश्रमके सरस्वती भवनमें एक लिखित प्रतिभी मिल गई जो मेरी प्रवृत्तिमें सहायक हुई। मैंने सोचा कि न्यायदीपिका का संशोधन तो अपेक्षित है ही, साय में तकसंग्रह पर न्यायबोधिनी या तर्फदीपिका जैसी व्याख्या-सस्कृतका टिप्पण और हिन्दी अनुवाद भी कई दृष्टियोंसे अपेक्षित है। इस विचारके अनुसार इसका संस्कृत टिप्पण और अनुवाद लिखना आरम्भ किया और कुछ लिखा भी गया । किन्तु संशोधनमें सहायक अनेक प्रतियोका होना प्रादि साधनाभावसे वह कार्य अागे नहीं बढ़ सका । और अम्म तक बन्द पड़ा रहा।
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न्याय-दीपिका
इधर जब मैं सन् १९४३ के अप्रेसमें वीरसेवामन्दिरमें पाया तो दूसरे साहित्यिक कार्योंमें प्रवृत्त रहनेसे एक वर्ष तक तो उसमें कुछ भी योग नहीं दे पाया। इसके बाद उसे पुन: प्रारम्भ किया मोर संस्थाफे कार्यसे बचे समयमें उसे बढ़ाता गया। मान्यवर मुख्तार सा. ने इसे मालूम करके प्रसन्नता प्रकट करते हुए उसे बोरसेवामन्दिर ग्रन्थमालासे प्रकाशित करनेका विचार प्रदर्शित किया। मैंने उन्हें अपनी सहमति दे दी । और तबसे (लगभग ८. ६ माहसे) अधिकांशत: इसीमें अपना पूरा योग दिया । कई रात्रियोंके तो एक-एक दो-दो भी बज गये । इस तरह जिस महत्वपूर्ण एवं सुन्दर कृति के प्रति मेरा भारम्भसे सहर मनुराम और माकर्षण रहा है उसे उसके अनुरूपमें प्रस्तुत करते हुए मुझे नही प्रसन्नता होती है। संशोधन को कठिनाइयो___ साहिस्थिक एवं ग़म्बत गावक पाना है । मुनि पुति दोनों ही तरहकी प्रतियोंमें कैसी और कितनी यक्षुधियां रहती हैं। पौर उनके संशोधनमें उन्हें कितना श्रम और शक्ति लगानी पड़ती है । किसने ही ऐसे स्थल पाते हैं जहाँ पाठ बुटित रहते हैं और जिनके मिलाने में दिमाग थककर हैरान हो जाता है। इसी बातका कुछ अनुभव मुझे भी प्रस्तुत न्यायदीपिकाके सम्पादन में हुमा है। यपि न्यायदीपिकाके, भनेक संस्करण हो चुके और एक सम्बे अरसेसे उसका पठन-पाठन है पर उसमें जो त्रुटित पाठ और अशुद्धियां चलो पा रही हैं उनका सुधार नहीं हो सका । यहाँ मैं सिर्फ कुछ त्रुटित पाठों को बता देना चाहता हूँ जिससे पाठकोंको मेरा कथन असत्य प्रतीत नहीं होगा
मुद्रित प्रतियों के छूटे हुए पाठ पृ. ३६ पं० ४ 'सर्वतो वैशद्यापारमाधिक प्रत्यक्षं' (का.प्र.) पृ० ६३ पं० ४ ‘अन्यभावे च धूमानुपलम्भे' (सभी प्रतियोंमें) पृ० ६४ पं. ५ 'सर्वोपसंहारक्तीमपि'
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सम्पादकीय
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पृ० ७. पं० १ 'अनभिप्रेतस्य गामा विप्रसङ्गन'सी प्रतियों पृ० १०८ पं० ७ 'अदृष्टान्तवचनं तु'
प्रमुनित प्रतियों के छूटे हुए पाठ मारा प्र० प० १४ 'अनिश्चितप्रामाण्याप्रामाण्यप्रत्ययगोचरत्वं विकस्पप्रसिद्धस्वं । तद्वयविषमत्वं प्रमाणविकल्पप्रसिद्धत्वम् ।'
प. प्रति ५० ६ 'सहकृताजातं रूपिद्रव्यमाविषयमवधिज्ञानं । मनःपर्ययशानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमः ।।
स्थूल एवं सूक्ष्म मशुद्धियां तो बहुत हैं जो दूसरे संस्करणोंको प्रस्तुत संस्करणके साथ मिलाकर पढ़नेसे ज्ञात हो सकती हैं। हमने इन प्रशद्धियोंको दूर करने तथा छूटे हुए पाठों को दूसरी ज्यादा शुद्ध प्रतियों के माघार से संयोजित करनेका यथासाध्य पूरा पत्ल किया है। फिर भी सम्भव है कि दृष्टि दोष या प्रमादजन्य कुछ अशुद्धिा अभी भी रही हो। संगोषनमें उपयुक्त प्रतियों का परिचय
प्रस्तुत संस्करणमें हमने जिन मुद्रित और प्रमुद्रित प्रतियोंका उपयोग किया है उनका यहाँ क्रमशः परिचय दिया जाता है :
अपम संस्करण-माजसे कोई ४६ वर्ष पूर्व सन् १८१६ में कलापा भरमापा निटवेने मुद्रित कराया था । यह संस्करण अब प्रायः प्रसम्य है। इसकी एक प्रति मुख्तारसाहबके पुस्तकभण्डारमें सुरक्षित है । दूसरे मुद्रितोंकी अपेक्षा यह शुद्ध है।
द्वितीम संस्करणवीर निर्वाण सं. २४३६ में पं. खूबचन्दजी भास्त्री धारा सम्पादित और उनकी हिन्दीटोका सहित नग्रन्थरत्नाकरकार्यालय द्वारा बम्बई में प्रकट हुआ है । इसके मूल पोर टीका दोनोंमें स्खलन है।
तृतीय संस्करण-वीर निर्वाण सं० २४४१, ई० सन् १९५५ में भारतीप जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था काशीकी सनातनी जैनगन्यमाला. को मोरसे प्रकाशित हुमा है । इसमें भी प्रशुद्धियां पाई जाती हैं।
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न्याव-दीपिका
चतुषं संस्करम-चीर निर्वाण सं० २४६४, ई० सन् १९३८ में बीकंकुबाई पाठ्य-पुस्तकमाला कारंबाकी पोरसे मुद्रित हमा। इसमें प्रभुद्धियो कुछ ज्यादा पाई जाती है।।
यही चार संस्करण अब तक मुद्रित हुए हैं। इनकी मुद्रितार्थ भुसंशा रक्खी है । शेष ममुदित-हलिखित प्रतियोंका परिषय इस प्रकार है
ब-यह देहलीके नये मन्दिरको प्रति है। इसमें २३ पत्र है और प्रत्येक पत्रमें प्रायः २६-२६ पंक्ति हैं। उपयुक्त प्रतियोंमें सबसे अधिक प्राचीन और शुद्ध प्रति यही है। यह वि० सं० १७४६ के पारिवनमासके कृष्णपक्षकी नवमी तिषिमें पं० जीतसागरके द्वारा लिखी गई है। इस प्रतिमें वह मन्तिम पलोकभी है । जो प्रारा प्रतिके अलावा दूसरी प्रतियोंमें नहीं पाया जाता है। ग्रन्थकी लोकसंख्या सूचक 'अंघसं० १०००हजार!' यह शब्दभी लिखे हैं ! इस प्रतिको हमने देहली प्रसूपक व संज्ञा रक्खी है । यह प्रति हमें बायू गन्नात लपी मामाको पास।
मा—यह माराके जैनसिद्धांत भवनकी प्रति है जो वहाँ नं० २२/२ पर दर्ज है। इसमें २७१ पत्र हैं। प्रतिमें सेखनादिका काम नहीं है । 'मद्गुरों इत्यादि अन्तिम श्लोकभी इस प्रतिमें मौजूद हैं। पृ० २ पौर पृ० २ पर कुछ टिप्पणके वाक्य मी दिये हुए हैं। यह प्रति मित्रवर पं. नेमीचन्द्रजी शास्त्री ज्योतिषाचार्य द्वारा प्राप्त हुई। इसकी प्रारा पर्षमूचक मा संज्ञा रक्खी है।
म. यह मथुराके ऋषभब्रह्मचर्याश्रम चौरासीको प्रति है। इसमें १३।। पत्र हैं। वि० सं० १९५२ में जयपुर निवासी मुन्नालाल अग्रवाल के द्वारा लिखी गई है । इसमें प्रारम्भके दो तीन पत्रोंपर कुछ टिप्पण भी है। मागे नहीं हैं । यह प्रति मेरे मित्र पं० राबवरलालजी व्याकरणाचार्य द्वारा प्राप्त हुई । इस प्रतिका नाम मथुराबोधक म रक्खा है।
१ 'संवत् १७४६ वर्षे पाश्विनमासे कृष्णपक्षे नवम्यां तिको बुधवासरे निखितं श्रीकुसुमपुरे पं० श्री जीतसागरेण ।'-पत्र २३ ।
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सम्पादकीय
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प-यह पं. परमानन्दजीको प्रति है । जो १६ ॥ पत्रों में समाप्त है । वि. सं. १९५७ में सीताराम शास्त्रीकी लिखी हुई है। इसकी प संज्ञा रक्खी है। ये चारों प्रतियां प्राय: पुष्ट कागज पर हैं और अच्छी दक्षामें है । प्रस्तुत संस्करणको आवश्यकता और विशेषताएं
पहिले संस्करण अधिकांश स्खलित और मशुद्ध थे तथा न्यायदीपिका की लोक जताशन कलकत्ताकी जैनन्यामप्रथमा परीक्षामें वह बहुत समय से निहित है । इषर माणिकचन्द परीक्षालय और महासभा के परीक्षालय में भी विशारदपरीक्षा में सन्निविष्ट है। ऐसी हालत में न्यायदीपिका जैसी सुन्दर रचनाके म व Best शुद्ध एवं सर्वोपयोगी संस्करण निकालनेकी अतीव श्रावश्यकता थी । उसीकी पूर्तिका यह प्रस्तुत प्रयत्न है। मैं नहीं कह सकता कि कहाँ तक इसमें सफल हुआ हूँ फिर भी मुझे इतना विश्वास है कि इसमें अनेकोंको लाभ पहुँचेगा प्रोर जैन पाठशालाशों के प्रध्यापकोंके लिये बड़ी सहायक होगी। क्योंकि इसमें कई विशेषताएँ हैं ।
पहली विशेषता तो यह है कि मूलग्रन्थको शुद्ध किया गया है। प्राप्त सभी प्रतियों के श्राधारसे अशुद्धियोंको दूर करके सबसे अधिक शुद्ध पाठको मूलमें रखा है और दूसरी प्रतियों के पाठान्तरों को नीचे द्वितीय फुटनोटमें जहाँ आवश्यक मालूम हुआ दे दिया है। जिससे पाठकों को शुद्धि शुद्धि ज्ञात हो सके। देहलीकी प्रतिको हमने सबसे ज्यादा प्रमाणभूत और शुद्ध समझा है । इसलिये उसे प्रादर्श मानकर मुख्यतया उसके ही पाठों को प्रथम स्थान दिया है। इसलिये मूलग्रन्थको अधिक से अधिक शुद्ध बनानेका यथेष्ट प्रयत्न किया गया है। अवतरण वाक्यों के स्थान को भी ढूंढ़कर ] ऐसे ब्रेकेटमें दे दिया है अथवा खाली छोड़ दिया है। दूसरी विशेषता यह है कि न्यायदीपिकाके कठिन स्थलोंका खुलासा करनेवाले विवरणात्मक एवं संकलनात्मक 'प्रकाशाख्य ं संस्कृतटिप्पणीकी साथमें योजना की गई है जो विद्वानों और छात्रों के लिये खास उपयोगी सिद्ध होगा :
[
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न्याय-दीपिका
तीसरी विशेषता अनुवादको है । अनुवाद को मूलानुगामी भोर सुन्दर बनानेकी पूरी चेष्टा की है। इससे न्यापदीपिकाके विषयको हिन्दीभाषाभाषी भी समझ सकेंगे और उससे यथेष्ट साभ उठा सकेंगे । __चौथी विशेषता परिशिष्टोंकी है जो तुलनात्मक अध्ययन करनेवालों के लिये और सर्वके लिये उपयोगी है। सब कूल परिशिष्ट हैं जिनमें न्यायदीपिकागत प्रवतरणवाक्यों,ग्रन्थों,ग्रन्थकारों शादिका संकलन किया गया
पाँचवीं विशेशता प्रस्तावना की है जो इस संस्करण की महत्त्वपूर्ण और सबसे बड़ी विशेषता कही जा सकती है । इसमें ग्रन्थकार २२ विषयोंका तुलनात्मक एवं विकासक्रमसे विवेचन करने तया फुटनोटोंमें अत्यान्तरोंके प्रमाणोंको देनेके साथ ग्रन्थमें उल्लिखित ग्रन्थों और प्रत्यकारों तथा अभिनय धर्मभूषणका ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक परिचय विस्तृतरूपसे कराया गया है । जो सभी के लिये विशेष उपयोगी है । प्राक्कपन प्रादि को भी इसमें सुन्दर योजना हो गई है । इस तरह यह संस्करण कई विशेषतामोंसे पूर्ण हुआ है। माभार.
अन्तमें मुझे अपने विशिष्ट कर्तव्यका पालन करना भौर क्षेष है। वह है भाभार प्रकाशनका । मुझे इसमें जिन महानुभावोंसे कुछ भी सहायता मिली है मैं कृतज्ञतापूर्वक उन सबका नामोल्लेख सहित भाभार प्रकट करता है
गुरुवर्य श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने मेरे पत्राविका उत्तर देकर पाठान्तर लेने मादिके विषयमें अपना मूल्यवान् परामर्श दिया । गुरुवर्य मौर सहाध्यायी माननीय पं. महेन्द्रकुमारजी न्यायापार्यने प्रपनोंका उत्तर देकर मुझे अनुगृहीत किया । गुरुवय्यं श्रद्धेय पं० सुखलालजी प्रशानयनका मैं पहले से ही अनुगृहीत था और मब उनकी सम्पादनदिशा तथा विचारणा से मैंने बसत लाम लिया । माननीय पं.
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सम्पादकीय
बंशीधरजी व्याकरणाचार्यने संस्कृत टिप्पणको सुनकर पावश्यक सुझाव घेने तथा मेरी प्रार्थना एवं लगातार प्रेरणासे प्राक्कथन सिख देनेकी कृपा को और जिन अनेकान्तादि विषयोंपर में प्रकाश डालनेसे रह गया पा उनपर आपने संक्षेपमें प्रकाश डालकर मुझे सहायता पहेबाई है। मान्यवर मुख्तारसा की पीर प्रेरणा और सत्परामर्श तो मुझे मिलते ही रहे । प्रियमित्र पं० अमृतलालजी जनदर्शनाचार्यने भी मुझे सुझाव दिये । सहयोगी मित्र पं० परमान्दजी शास्त्रीने अभिनवों और धर्मभूषणोंका संकलन करके मुझे दिया। वा. पन्नालासजी मग्रवालने हिन्दीकी विषय-सूची बनाने में सहायता की बा० मोडीसालवी भोर सा. जुगलकिशोरजीने मिरियावल जैनिज्म के अंग्रेजी लेखका हिन्दीभाव समझाया। उपान्तमें मैं अपनी पत्नी सौ. चमेलीदेवीका भी नामोल्लेख कर देना उचित समझता हूँ जिसने भारम्भमें ही परिशिष्टादि तैयार करके मुझे सहायता की । मैं इन सभी सहायकों तथा पूर्वोल्लिखित प्रतिदातामोंका आभार मानता है। यदि इनकी मूल्यवान् सहायताएं न मिली होती तो प्रस्तुत संस्करणमें जो विशेषताएँ पाई है वे शायद न पा पातीं । भविष्य में मी उनसे इसी प्रकारकी सहायता देते रहनेकी आशा करता हूँ। । अन्तमें जिन प्रपने सहायकोंका नाम भूल रहा हूँ उनका भौर जिन ग्रंथकारों, सम्पादकों, लेखकों भादिके ग्रंथों मादिसे सहायता ली गई है, उनका भी प्राभार प्रकाशित करता हूँ। इति शम् ।
ता० ६.४.४५ वीर सेवामन्दिर, सरसावा
हाल देहली।
सम्पादक दरबारीलाल जैन, कोठिया म्यायाचार्य, न्यायतीर्थ, बैनदर्शनशास्त्री
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सम्पादकीय
(द्विसीय संस्करण) सन् १९४५ में वीर सेवामन्दिर में न्यायदीपिका का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुमा पा और अब तेईस वर्ष बाद उसका दूसरा संस्करण उसके द्वारा ही प्रकट हो रहा है, यह प्रसन्नता की बात है प्रथम संस्करण कई वर्ष पूर्व ही मप्राप्य हो गया था और उसके पुन: प्रकाशन की प्रेरणा हो रही थी। अत: इस द्वितीयसंस्करण के प्रकाशन से सम्यासियों और विज्ञासुभों की ग्रन्थ की अनुपलब्धि के कारण उत्पन्न कठिनाई एवं शान-बाधा निश्चम ही दूर हो जायेगी।
वीर सेवामन्दिर का यह प्रकाशन अधिक लकत्रिय क्यों हा, यह सो इस अन्य के मध्येता स्वयं जान सकते हैं। किन्तु यहाँ जो उल्लेखनीय है वह यह कि इसकी प्रस्तावना, संशोधन, टिप्पण पोर परिशिष्टों से उन्हें भी लाभ हुआ है जो कालेजों मोर विश्वविद्यालयों में दर्शनविभाग के अध्यक्ष या प्राध्यापक हैं और जिन्हें जैन तशास्त्र पर लेपचार (व्याख्यान) देने पड़ते हैं। जयपुर में सन् १९३५ में अखिल भारतीय दर्शन परिषद् का अधिवेशन हुमा था। इसमें मैं भी हिन्दूविश्वविद्यालय की ओर से सम्मिलित हुमा मा। एक गोष्ठी के अध्यक्ष ये ग. राजेन्द्रप्रसाद कानपुर। सभी के परिचय के साथ मेरा भी परिचय दिया गया । गोरठी के बाद डा. राजेन्द्रप्रसाद बोले-'न्यायदीपिका का सम्पादन आपने ही किया है ?' मेरे 'हाँ' कहने पर उसकी प्रशंसा करने लगे और सम्पादन के सम्बन्ध में जो कल्पनाएं कर रस्सी थी उन्हें भी प्रकट किया। इस उल्लेख से इतना ही अभिधेय है कि बीरसलामन्दिर का यह संस्करण जैनाम्यासियों के अतिरिक्त जनेतर
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पाध्येतामों को भी उपयोनी और लाभप्रद सिद्ध हुमा है। इस दृष्टि से अम्ब का द्वितीय संस्करण पावश्यक मा ।
इसके पुनः प्रकाशन से पूर्व वीरसेवामन्दिर के विद्वान् पणित परमानन्द पी शास्त्री ने इसे मेरे पास पुनरावलोकन के लिए भेज दिया भा, पर मैं अपने शोष-कार्य में व्यस्त रहनेसे उसे पापाततः न देख सका। परन्तु हो, वीरसेवामन्दिर के ही वरिष्ठ विहाम् पषित बालबन्द जी सिद्धान्त पास्त्री ने अवश्य उसे परिश्रम पूर्वक ठेखा है और दूस तवा अनुवाद के प्रूफ-शोषन भी करने की कृपा की है। इसके लिए मैं उनका माभारी हूँ। साथ ही वीरसेलामन्दिर के संपातकों तथा पति पमान जी शास्त्री का भी प्रयपाच फरसा हूँ चिन्हाम इसका पुनः प्रकाशन करके मोर प्रस्तावना प्रादि का घूफरीडिंग करके अम्बेतामों को लाभान्वित किया है। कामी हिम्न विश्वविद्यालय रबारीलाल न, कोठिया वाराणसी
(न्यायाचार्य, शास्त्राचार्य एम. ए.) २६ १९५८.
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प्रस्तावना
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*:
न्यायदीपिका और अभिनव धर्मभूषण किसी अन्य की प्रस्तावना या भूमिका लिखने का उद्देश्य यह होता है कि उस पन्ध और ग्रन्पकार एवं प्रासङ्गिक सम्माय विषयोंके सम्बन्धमें मातम्म बानों पर प्रकाश डाला जाय, जिससे दूसरे अनेक साम्रान्त पाठकों को उस विषय की यथेष्ट जानकारी सहजमें प्राप्त हो सके ।
मान हम जिस ग्रन्धरत्नको प्रस्तावना प्रस्तुत कर रहे हैं वह 'न्यायदीपिका' है । यपि न्यायदीपिका के कई संस्करण निकल चुके हैं पार प्रायः सभी न शिक्षा संस्थानों में उसका परसे से पठन-पाठन के रूपमें विशेष ममापर है। किन्तु मभी तक हम अन्य भोर प्रधकार के नामादि सामान्य परिषद के अतिरिक्त कुछ भी नहीं जानते हैं उनका ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक अनिकम परिवम पब तक मुप्राप्त नहीं है। प्रतः न्यायदीपिका और प्रमिनन धर्मभूषणका यपासम्भव सप्रमाण पूरा परिचय कराना ही प्रस्तुत प्रस्तावनाका मुख्य लक्ष्य है । पहले न्यायदीपिका के विषय में विचार किया जाता है।
. १. न्याय-दीपिका (5) जैन न्यायसाहित्य में न्यायवीपिका का स्थान और महरव
श्री मभिनव धर्मभूषण यतिकी प्रस्तुत 'न्यायदीपिका' संक्षिप्त एवं मत्पन्त सुविशद भोर महत्त्वपूर्ण कृति है । इसे अनन्यापकी प्रश्रमकोटिकी भी रचना कही जाय तो अनुपयुक्त न होगा; क्योंकि अनन्यायके मम्या
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न्याय-दापिका
सियोंके लिए संस्कृत भाषामें निबद्ध सुबोध और सम्बद्ध न्यायतत्वका सरलता से विशद विवेचन करनेवाली प्रायः यह भकेली रचना है, जो 'पाठकके' हृदयपर अपना सहज प्रभाव प्रति करती है। ईसाकी सतरहवीं शताब्दिमें हुए भौर 'जैनतर्कभाषा' भादि प्रौढ रचनाभोके रचयिता श्वे ताम्बरीय विद्वान् उपाध्याय यशोविजय जैसे बहुश्रुत भी इसके प्रभावले प्रभावित हुए हैं। उन्होंने अपनी दार्शनिक रचना जैनतकंमत्वामें न्यायदीपिका के अनेक स्थलोंको ज्योंका त्यों प्रानुपूर्वीके साथ अपना लिया है। वस्तुतः न्यायदीपिकामें जिस खूबी के साथ संक्षेपमें प्रमाण और नयका सुस्पष्ट वर्णन किया गया है वह अपनी खास विशेषता रखता है । औौर इसलिए यह संक्षिप्त कृति भी न्यायस्वरूप जिज्ञासुयोंके लिये बड़े महत्व और आकर्षणको प्रिय वस्तु बन गई है। अतः न्यायदीपिकाके सम्बन्धमें इतना ही कहना पर्याप्त है कि वह जनन्यायके प्रथमश्रेणी में रखे जानेवाले ग्रन्थोंमें स्थान पाने के सर्वथा योग्य है ।
(ख) नामकरण -
उपलब्ध ऐतिह्यसामग्री प्रोर चिन्दनपरसे मालूम होता है कि दर्शनशास्त्रके रचनायुगमें दार्शनिक ग्रन्थ, चाहे वे जनेतर हों या जैन हों, प्रायः "न्याय' शब्द के साथ रचे जाते थे । जैसे न्यायदर्शनमें न्यायसूत्र म्यायवार्तिक, न्यायमंजरी, न्यायकलिका, न्यायसार न्यायकुसुमाञ्जलि मौर न्यायलीलावती आदि, बौद्धदर्शनमें न्याय प्रवेश, न्याय-मुख, न्याय-बिन्दु आदि और जैनदर्शनमें न्यायावतार, न्यायविनिश्चय, न्यायकुमुदचन्द्र धादि पाये जाते हैं । पार्थसारथिकी शास्त्रदीपिका जैसे दीपिकान्त अन्योंके भी रचे जानेकी उस समय पद्धति रही है। सम्भवतः अभिनव धर्मभूषणने इन ग्रन्थों को दृष्टिमें रखकर ही अपनी प्रस्तुत कृतिका नाम' न्यायदीपिका रक्खा
१ देखो, जनतर्कभाषा पृ० १३, १४- १६, १७
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न्याय-दीपिका
जान पड़ता है। और यह अन्वयं भी है, क्योंकि इसमें प्रमाणनयात्मक न्याय का प्रकाशन किया गया है । अतः न्यायदीपिकाका नामकरण भी अपना वैशिष्ठ्य स्थापित करता है और वह उसके अनुरूप है।
(ग) भाषा
यद्यपि न्यायग्रन्थोंकी भाषा अधिकांशतः दुरूह और गम्भीर होती है, जटिलताके कारण उनमें साधारणबुद्धियोंका प्रवेश सम्भव नहीं होता। पर न्यायदीपिकाकारकी यह कृति न दुरूह है और न गम्भीर एवं जटिल है । प्रत्युत इसकी भाषा अत्यन्त प्रसन्न, सरल और बिना किसी कठिनाई के प्रथबोध करानेवाली है। यह बात भी नहीं कि प्रत्यकार वैसी रचना कर नहीं सकते थे, किन्तु उनका विशुद्ध लक्ष्य प्रकलङ्कादि रचित उन गम्भीर र दुरगाह पानि या या अन्याय मजाकोभी प्रवेश करानेका था । इस बातको स्वयं धर्मभूषणजीने ही बड़े स्पष्ट और प्राञ्जल शब्दोंमें-मङ्गलाचरण पद्य तथा प्रकरणारम्भके प्रस्तावना वाक्यों में कहा है" । भाषाके सौष्ठपसे समूचे ग्रन्यकी रचना भी प्रशस्त एवं हर हो गई है।
(घ) रचना-शैली
भारतीय न्याय-अन्योंकी पोर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो उनकी रचना हमें तीन प्रकारको उपलब्ध होती है:-सूत्रात्मक,२व्याख्यात्मक भौर ३ प्रकरणात्मक । जो ग्रन्थ संक्षेपमें गूढ़ अल्पाक्षर मौर सिदान्ततः मूलके प्रतिपादक हैं वे सूत्रात्मक हैं । जैसे-वैशेषिकदर्शनसूत्र,न्यायमूत्र, परीक्षामुखसूत्र मादि । और जो किसी गव पद्य या दोनोंल्प मूलका व्याख्यान (विवरण, टीका, वृत्ति) रूप हैं वे व्याख्यात्मक ग्रन्थ हैं । जैसे—प्रशस्त
१ देखो, न्यायदीपिका पृ० १, ४, ५ ।
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न्याय-दीपिका
पादभाष्य, न्यायभाष्य,प्रमेयकमलमार्तण्ड मादि । तथा जो किसी मूलके व्याख्या-ग्रन्थ न होकर अपने स्वीकृत प्रतिपाद्य विषय का स्वतत्रमावसे वर्णन करते हैं और प्रसङ्गानुसार दूसरे विषयों का भी कपन करते है पे प्रकरणात्मक ग्रन्थ हैं । जैसे—प्रमाण-समुच्चय, न्यायविम्, प्रमाणसरह, प्राप्तपरीक्षा भादि । ईश्वरकृष्णको सांख्यकारिका मौर विश्वनाष पश्याननकी कारिकावली आदि कारिकात्मक ग्रन्थ भी दिग्नाग के प्रमाणसमुज्यय, सिद्धसेनके न्यायावतार और अकसदेवके लघीयस्त्रय मादिकी तरह प्रायः प्रकरण ग्रन्थ ही हैं, क्योंकि वे भी अपने स्वीकृत प्रतिपाच विषयका स्वतंत्रभावसे वर्णन करते हैं और प्रसङ्गोपात्त दूसरे विषयोंका भी कपन करते हैं । मभिनव धर्मभूषणकी प्रस्तुत न्यायदीपिका प्रकरणात्मक रचना है ! इसमें अन्यकर्ता ने अपने अगाकृत वर्णनीय विषय प्रमाण भोर नयका स्वतन्त्रतासे वर्णन किया है, वह किसी गद्य या पररूप मूलकी ज्यास्या नहीं है । ग्रन्थकार ने इसे स्वयं भी प्रकरणात्मक ग्रन्थ माना है। इस प्रकार के ग्रन्थ रचनेकी प्रेरणा उन्हें विद्यानन्दकी 'प्रमाण-परीक्षा', वादिराजके 'प्रमाण-निर्णय' प्रादि प्रकरण-ग्रन्थोंसे मिली जान पड़ती है।
ग्रन्यके प्रमाण-लक्षण-प्रकाश, प्रत्यक्ष-प्रकाश और परोज-प्रकाश में तीन प्रकाश करके उनमें विषय-विभाजन उसी प्रकारका किया गया है जिस प्रकार प्रमाण-निर्णयके तीन निर्णयों (प्रमाण-लक्षण-निर्णय, प्रत्यक्ष-निर्णय और परोक्ष-निर्णय) में है । प्रमाणनिर्णयसे प्रस्तुत ग्रन्थ में इतनी विशेषता है कि आगमके विवेचन का इसमें अलग प्रकाश नहीं रखा गया है जब कि प्रमाणनिर्णयमें प्रागमनिर्णय भी है। इसका कारण यह है कि वादिराजाचार्यने परोक्षके अनुमान और पागम ये दो भेद किये हैं तथा अनुमानके भी गौण और मुख्य अनुमान ये दो भेद करके स्मृति,प्रत्यभिज्ञान एवं तर्कको गौण अनुमान प्रतिपादित किया है और इन तीनों के वर्णन को तो
१ 'प्रकरणमिदमारम्यते-न्यायदा० पृ. ५ ।
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न्याय-दीपिका
परोक्ष-निर्णय तथा परोक्षके ही दूसरे भेद मागमके वर्णन को भागमनिवंग नाम दिया है । भा० धर्मभूषणने प्रागम जब परोक्ष है तब उसे परोक्षप्रकाश में ही सम्मिलित कर लिया है-उसके वर्णन को उन्होंने स्वतन्त्र प्रकापा का रूप नहीं दिया । तीनों प्रकाशोंमें स्थूलरूपसे विषय-वर्णन इस प्रकार है:
पहले प्रमाणसामान्यलक्षण-प्रकाशमें, अपमतः उद्दे शादि तीनके द्वारा अन्य-प्रवृत्तिका निर्देश, उन तीनों के लक्षण, प्रमागसामान्य का लक्षण, संशय, विपर्यय, मनव्यवसायका लक्षण, इन्द्रियादिकों को प्रमाण न हो सकनेका वर्णन, स्वत: परतः प्रामाण्यका निरूपण मौर बौडामाह, प्रामाकर तथा नयायिकोंके प्रमाण सामान्यलक्षणोंकी मालोचना करके जैनमतसम्मत सविकल्पक अगृहीतग्राही 'सम्यग्ज्ञानत्व' को ही प्रमाणसामान्य का निर्दोष स्वक्षण स्थिर किया गया है ।
दूसरे प्रत्यक्ष प्रकाशमें स्वकीय प्रत्यक्षकालक्षण, बोट पोर नैयायिकोंके निर्विकल्पक तथा सन्निकर्ष प्रत्यक्षलक्षणों की समालोचना, अर्थ पौर मालोको मानके प्रति कारणताका निराश,विषयको प्रतिनियामिका योम्यताका उपादान, सदुत्पत्ति भौर तदाकारता का निराकरण, प्रत्यक्ष भेदप्रभेदोंका निरूपण, प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्षका समर्थन और सर्वशसिद्धि प्रादिका विवेचन किया गया है।
तीसरे परोक्ष-प्रकाशमें, परोक्षका लक्षण, उसके स्मृति, प्रत्पमिशान, तकं, भनुमान और पागम इन पांच भेदोंका विशद वर्णन, प्रत्यभिज्ञानके एकत्वप्रत्यभिज्ञान, सादृश्यप्रत्यभिज्ञान भादिका प्रमाणान्तररूपसे उपपादन करके उनका प्रत्यभिज्ञानमें ही मन्तर्भाव होनेका सयुक्तिक समर्थन, साध्य. का लक्षण, साधनका अन्यथानुपपन्नत्व' लक्षण,रूप्य मोर पाश्चरूप्यका निराकरण, अनुमानके स्वार्थ पोर परार्थ दो भेदोका कपन, हेतु-भेदों के
१ देखो प्रमाणनिर्णय पृ० ३३ :
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न्यार-दीपिका
उदाहरण, हेत्वाभासोंका वर्णन, उपाहरण उदाहरणामास उपनय, उपनयाभास, निगमन, निगमनामात्र मादि भमुमान के परिवार का पन्छा कपन किया गया है। अन्तमें भागम मौर नयका वर्णन करते हुए अनेकान्त तथा सप्तभंगीका भी संक्षेप में प्रतिपादन किया गया है। इस तरह यह न्यायदीमिकामें वर्णित विषयोंका स्थूल एवं बाप परिषय है । अब उसके प्राभ्यन्तर प्रमेय-मागपर भी पोड़ासा तुलनात्मक विवेचन कर देना हम उपयुक्त समझते हैं । साकि न्यादीपिका के पाठकों के लिए उसमें परित ज्ञातव्य विषयों का एकत्र यथासम्भव परिषय मिल सके। (घ) विषय-परिचय१ मङ्गलाचरण
मंगलाचरणके सम्बन्ध में कुछ वक्तव्य अंश तो हिन्दी अनुवाद के पारम्भ में कहा जा चुका है। यहाँ उसके शेष भाग पर कुछ विचार किया जाता है।
यपि भारतीय वाङ्मयमें प्राय: सभी दर्शनकारोंने मंगलाचरणको अपनाया है और अपने अपने दृष्टिकोणसे उसका प्रयोषन एवं हेतु बताते हुए समर्थन किया है। पर जनदर्शनमें जितना विस्तृत, विशद मोर सूक्ष्म चिन्तन किया गया है उतना प्रायः मन्यत्र नहीं मिलता। तिलोयपण्णप्ति' में' यतिवृषभाचार्यने भोर 'अवसा' में श्री वीरनसस्वामी ने मंगलका बहुत ही सांगोपांग और व्यापक वर्णन किया है । उन्होंने पातु. विक्षेम, नय, एकार्य, निरुक्ति और अनुयोग के द्वारा मंगल का निरूपण करनेका निर्देश करके उक्त छहों के द्वारा उसका व्यास्थान किया है । 'मगि' धातुसे 'पल' प्रत्यय करनेपर मंगल शन्द निष्पन्न होता है। निक्षेपकी अपेक्षा कथन करते हुए लिखा है कि तस्यतिरिक्त द्रव्य मंगलके दो
१ तिलो प० गा.१-८ से १-३१, २ धवला १-१ ।
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प्रस्तावना
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भेद हैं— कर्मतदृष्यतिरिक्तद्रव्यमङ्गल और नोकमंतदुष्यतिरिक्तद्रव्यमङ्गल 1 उनमें पुण्यप्रकृति तीर्थंकर नामकर्म कर्मतद्व्यतिरिक्तद्रव्यमङ्गल है; क्योंकि बह् लोककल्याणरूप माङ्गल्यका कारण है । नोकर्मतद्व्यतिरिक्त द्रव्यमङ्गल के दो लौकिक और लोको जनमें लौकिकलोक प्रसिद्ध मङ्गल तीन प्रकारका है: -- सचित्त, प्रचित और मिश्र | इनमें सिद्धार्थ' अर्थात् पीले सरसों, जलसे भरा हुआ पूर्ण कलश, वन्दनमाला, छत्र, श्वेतवर्ण और दर्पण आदि प्रचित्त मङ्गल हैं । और बामकन्या तथा श्रेष्ठ जातिका घोड़ा आदि सचित्त मजब हैं । अलङ्कार सहित कन्या श्रादि मिश्र मङ्गल हैं। लोकोत्तर - प्रलोकिक मङ्गलके भी तीन भेद हैं: - सचित्त, प्रचित्त भौर मिश्र । धरहन्त आदिका श्रनादि अनन्त स्वरूप जीव द्रव्य सचित्त लोकोत्तर मङ्गल है | कृत्रिम, अकृत्रिम चैत्यालय आदि प्रचित्त लोकोशर मङ्गल हैं । उक्त दोनों सचित मौर
चित्त मंगलोंकों मिश्र मङ्गल कहा है । आगे मङ्गलके प्रतिबोधक पर्यायनामों को' बतलाकर मङ्गलको निरुक्ति' बताई गई है | जो पापरूप भलको गलावे - विनाश करे और पुण्य सुखको लावे प्राप्त करावे उसे मङ्गल कहते हैं। आगे चलकर मङ्गलका प्रयोजन बतलाते हुए कहा
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१ सिद्धत्थ-पुण्ण-कुंभो वंदणमाला व मंगलं छत्तं ।
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दो वण्णो दंसणो य कण्णा म जच्चस्सो ॥ बदला १-१-१पृ. २७ २ देखो बदला १-१-१, पृ. ३१। तिलो० प० गा० १-८ । ३ ' मलं गालयति विनाशयति दहति हन्ति विशोधयति विध्वंसयति इति मंगलम् ।’......‘अथवा मगं सुखं तल्लाति प्रदत्त इति वा मङ्गलम् ।' धवला ० १ १ १, पृ० ३२-३३ ।
'गालयदि विणासयदे घादेदि दहेहि हंति सोघयदे ।
विद्धसेदि मलाई जम्हा तम्हा य मंगलं भणिदं ।। तिलो०१० १-६ ॥
'अहषा मंगं सोक्खं लादिहु गेण्छेदि मंगलं तम्हा ।
एदेण कज्जसिद्धि मंगर गच्छेदि गंधकतारो ॥ तिलो० प० १-१५
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न्याय-दीपिका गया है कि पास्त्रके पादि, मध्य प्रौर पन्तमें बिनेन्द्रका मुषस्तवररूप मङ्गलका कथन करनेसे समस्त विघ्न उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार सूर्योदयसे समस्त अन्यका : इसके साथ ही तीने साना गान करनेका पृथक् पृथक् फल भी निर्दिष्ट किया है मोर लिखा है कि शास्त्र के माविमें मङ्गल करनेसे शिष्य सरलतासे शास्त्रक पारगामी मनते हैं। मध्यमें मङ्गल करनेसे निर्विघ्न विद्या प्राप्ति होती है पोर अन्तमें मङ्गल करनेसे विद्या-फलकी प्राप्ति होती हैं । इस प्रकार जनपरम्पराके दिगम्बर साहित्यमें शास्त्र में मङ्गल करनेका सुस्पष्ट उपदेश मिसता है । श्वेताम्बर भागम साहित्यमें भी मङ्गलका विधान पाया जाता है । दशवकालिकनियुक्ति ( गा० २ ) में त्रिविध मंगल करनेका निर्देश है। विशेषावश्यकमाण्य ( गा० १२-१४ ) में मंगलके प्रयोजनोंमें विघ्नविनाश मौर महाविद्याकी प्राप्तको बतलाते हुए आदि मंगलका निविघ्नरूपसे शास्त्रका पारंगत होना, मध्यमंगलका निविघ्नतया शास्त्र-समाप्ति की कामना और अन्त्यमंगलका शिष्य-अशिष्यों में शास्त्र-परम्पराका पाद रहना प्रयोजन बतलाया गया है। वृहत्कल्प-भाष्य ( गा० २० ) में मंगलके विघ्नविनाशके साथ शिष्य में शास्त्रके प्रति श्रद्धाका होना आदि प्रनेक प्रयोजन गिनाये गये हैं। हिन्दी अनुवादके प्रारम्भमें यह कहा ही
१ 'सत्यादि-मज्भ अवसाणएसु जिणतोत्तमंगसुचारो। ___णासइ णिस्सेसाई विघाइं रवि व तिमिराई ।।'-ति०प० १-३१ ।, २ 'पढ़ने मंगलवयणे सिस्सा सत्यस्स पारगा होति । मझिम्मे गीविघं विज्जा विमा फलं चरिमे ।।
-तिलो० ५० १.२६ । पबला १.१-२, पृ. ४० । ३ यद्यपि 'कषायपाहुर' मोर 'चुणिसूत्र के प्रारम्भमें मंगल नहीं किया है तथाहि वहाँ मंगल न करने का कारण यह है कि उन्हें स्वयं मंगल रूप मान लिया गया है।
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प्रस्तावना
जा चुका है कि हरिभा गो- देवानन्द पानि ताशकने दरले नम्-मयों में भी मंगल करने का समर्थन भौर उसके विविध प्रयोजन बतलाये हैं।
उपर्युक्त यह मंगल मानसिक, वाचिक और कायिकके भेद से तीन प्रकार का है । वाचिक मंगल भी निबर और अनिषद्ध रूप से दो तरह का है। ओ ग्रन्थके आदिमें ग्रन्थकारके द्वारा श्लोकादिकको रचनारूपसे इष्ट-देवता-नमस्कार निबद्ध कर दिया जाता है वह वाचिक निबद्ध मंगल है और जो लोकादिककी रचना के बिना ही जिनेन्द्र-गुण-स्तवन किया जाता है वह अनिबद्ध मगल है ।
प्रकृत न्यायदीपिकामें अभिनय धर्मभूषणने भी अपनी पूर्व परम्पराका अमुसरण किया है और मंगलाचरणको निबद्ध किया है ।
२. शास्त्रको निविष प्रवृत्ति
शास्त्रकी विविध ( उद्देश. सक्षण-निर्देश और परीक्षारूप )प्रवृत्तिका कथन सबसे पहले वास्स्यायनके 'न्याय भाष्य' मे दृष्टिगोचर होता है। प्रशस्तपादभाष्यको टीका 'कन्दसी' में श्रीधरने उस त्रिविध प्रवृत्तिमें उद्देश पौर लमणरूप विविध प्रवृत्तिको माना है और परीक्षाको मनियत कहकर निकाल दिया है। इसका कारण यह है कि श्रीधरने जिस प्रशस्तपाद भाष्यपर अपनी कंदली टीका लिलो है वह भाष्य और उस भाष्यका प्राधारभूत वैशेषिकर्शनसूत्र पदार्थों के उद्देश और लक्षणरूप हैं, उनमें परीक्षा नहीं है। पर वात्स्यायनने जिस न्यायसूत्रपर अपना न्यायभाष्य लिखा है उसके सभी सूत्र उद्देश, लक्षण और परोक्षात्मक हैं । इसलिये वात्स्या
१ देखो, धवला :-१-१, पृ० ४१ और प्राप्तपरीक्षा पृ० ३ ।
२ न्यायभाष्य पृ० १७, न्यायबीपिका परिशिष्ट पृ० २३६ । 'पदायंग्युत्पादनप्रवृत्तस्य शास्त्रस्य उभयथा प्रवृत्तिः-उद्देशो लक्षणञ्च । परीक्षायास्तु न नियमः । -कन्दली पृ. २६ ।
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न्माय-दीपिका पनने विविध प्रति और श्रीपर ने विविध प्रवृत्ति को स्थान दिया है। शास्त्र-प्रवृत्तिके पौये भेदरूपसे विभाग को भी मानने का एक पक्ष रहा है जिसका उल्लेख सर्वप्रथम उच्चोतकर' मोर जयन्तभट्टने किया है और उसे उद्देषामें ही शामिल कर लेनेका विधान किया है । भा० प्रमाचन्द्र' मौर ईमपन्द्र' भी यही कहते हैं । इस तरह वात्स्यायनके द्वारा प्रदर्शित त्रिविष रवृत्ति का ही पक्ष स्थिर रहता है। न्यायदीपिकामें प्रभाचन्द्र और हेमचन्द्र के दाग बगुला यही मिति प्रतिमा दाया गया है !
३. लक्षणका लक्षण
दार्शनिक परम्परामें सर्वप्रथम स्पष्ट तौरपर वात्स्यायनने लक्षणका लक्षण निर्दिष्ट किया है और कहा है कि जो वस्तु का स्वरूप-व्यवच्छेदक धर्म है वह लक्षण है। न्यायवासिकके कर्ता उपोतकरका भी यही मत है। न्यायमंजरीकार जयन्तभट्ट सिर्फ 'व्यवच्छेदक के स्थान में 'व्यवस्था
'उद्दिष्टविभागश्च न त्रिविषायां शास्त्रप्रवृत्तावन्तर्भवतीति । तस्मादुरिष्टविभागो युक्तः ; न ; उद्दिष्टविभागस्योद्देश एवान्तर्भावात् ।' न्यायवा० पृ० २७, २८ । २ ननु च विभागलक्षणा चतुर्थ्यपि प्रवृत्तिरस्त्येव". उद्देशरूपानपामात्तु उद्देश एवं प्रसो। सामान्यसंशया कीर्तनमुद्दे पाः, प्रकारभेदसंज्ञया कीर्तनं विभाग इति'-.-स्यायमंः पृ० १२ । ३ देखो, म्पायकुमुद पृ. २१ । ४ प्रमाणमो० पृ. २ । ५ 'उद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवन्दको धर्मो लक्षणम्-न्यायभा० पृ. १७ । ६ लक्षणस्येतरव्यवच्छेदहेतुत्वात् । लक्षणं खलु लक्ष्यं समानासमानजातीयेभ्यो व्यवसित्ति'-न्यायवा. पृ० २८, 'पर्यायशब्दाः कथं लक्षणम् ? व्यवच्छेदहेतुत्वात् । सर्व हि समयमितरव्यवच्छेदकमेतेश्च पर्यायशन्दैनन्यिः पदार्थाभिधीयत इत्यसाधारणत्वाल्लक्षणम्---ग्यायवा० पृ. ७६, 'इतरेतरविशेषकं सक्षणमुच्यते'-- न्यायथा पृ० १०८ |
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प्रस्तावना
पक' कादको रखकर वात्स्यायनका ही अनुसरण करते हैं । कन्दलीकार श्रीघर भी वात्स्यायनके 'तत्त्व' शब्दके स्थानमें 'स्वपरजातीय' और 'व्यबच्छेदक' की जगह 'व्यावत्तंकशब्दका प्रयोग करके करीब करीब उन्होंके लक्षणके लक्षणको मान्य रखते हैं। तकदीपिकाकार उक्त कयनोंसे फलित
ये भगाधारण सर्गको लक्षणका लक्षण मानो हैं मालदेव स्व. तन्त्र ही लक्षणका लक्षण प्रणयन करते हैं और वे उसमें 'धर्म' या 'प्रसाधारण धर्म' शम्दका निवेश नहीं करते । पर व्यावृतिपरक लक्षण मानना उन्हें इष्ट है । इससे लक्षणके लक्षणकी मान्यतायें दो फलित होती हैं। एक तो लक्षणके लक्षण में प्रसाधारण घर्म का प्रवेश स्वीकार करनेवाली और दूसरी स्वीकार न करनेवाली । पहली मान्यता मुख्यतया न्याय वैशेषिकों की है और जिसे जन-परम्परामें भी क्वचित् स्वीकार किया गया है । दूसरी मान्यता अकलङ्क-प्रतिष्ठित्त है और उसे प्राचार्य विद्यानन्द' तथा न्यायदीपिकाफार प्रादिने अपनाई है। न्यायदीपिकाकारने तो सप्रमाण इसे ही पुष्ट किया है और पहली मान्यताकी आलोचना करके उसमें दूषण भी दिखाये हैं। अन्यकारका कहना है कि यद्यपि किसी वस्तुका असाधारण विशेष धर्म उस वस्तुका इतर पदार्थो म्यावर्तक होता है, परन्तु उसे सक्षणकोटिमें प्रविष्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि दण्डादि जो कि असाधारणधर्म नहीं हैं फिर भी पुरुष के व्यावसक होते हैं और 'शावलेयत्व' आदि गवादिकों के असाधारणधर्म तो हैं, पर ज्यातक नही
१ 'उद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवस्थापको धो लक्षणम् –न्यायमं० पृ. ११ २ 'उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावतंको धर्मों लक्षणम्'-कन्दली० पृ. २६ । ३ एतद्दूषणत्रयरहितो धर्मों लक्षणम्। यथा गो. सास्नादिमत्वम् । स एवासाधारणधर्म इत्युच्यते'- तकदीपिका गृ० १४। ४ 'परस्परच्यतिकरे ति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्' तत्वार्थवा० पृ० १२ । ५ देखो, रिशिष्ट पृ. २४०। ६ देखो, परिशिष्ट पृ. २४० ।
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न्याय-वीपिका
हैं। इसलिए इतना मावही लक्षण करना ठीक है कि गो व्यावतक हैमिली हुई वस्तुओं से किसी एकलो जदा कराता है मालाण है। चाहे वह साधारण धर्म हो या चाहे असाधारण धर्म हो या धर्म भी न हो। यदि वह लक्ष्यका लक्ष्यतयोंसे व्यावृत्ति कराता. है तो लक्षण है और यदि नहीं कराता है तो वह लक्षण नहीं है इस तरह प्रकल-प्रतिष्ठित लक्षणके लक्षण को ही न्यायदीपिका में अनुप्राणित किया गया है !
प्रमानका सामान्यलक्षण...
दार्शनिक परम्परामें सर्वप्रपम कणादने प्रमाणका सामान्य लक्षण निर्दिष्ट किया है । उन्होंने निर्दोष शानको विद्या-प्रमाण कहा है ! न्यायदर्शनके प्रवर्तक गौतमके न्यायमूवमें तो प्रमाणसामान्यका लक्षण उपलब्ध नहीं होता। पर उनके टीकाकार मात्स्यायनने प्रषषय 'प्रमाम' शब्दसे फलित होनेवाले उपसम्बिसाधन (प्रमाकरण)को प्रमाणसामान्यका लक्षण सूचित किया है । उसोतकर', जयन्तभट्ट'मादि नैयायिकों ने वास्पारन के द्वारा सूचित किये इस उपनम्पिसाधनरूप प्रमाकरणको ही प्रमाण का सामान्य लक्षण स्वीकृत किया है । यद्यपि न्यायकुसुमाञ्जलिकार उदयनने यथार्यानुभवको प्रमाण कहा है तथापि वह उन्हें प्रमाकरणरूपही इष्ट है। इतना जरूर जान पड़ता है कि उनपर अनुभूतिको प्रमाण मानने वाले प्रभाकर और उनके प्रनुयायी विद्वानोंका प्रभाव है। क्योंकि उदयनके
१ 'मदुष्टं विद्या' सोषिकसू. ६-२-१२ । २ 'उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानि समालपानिर्वचनसामर्थ्यात् बोधव्यम् । प्रमीयतेऽनेनेति करणा
भिधानो हि प्रमाणशब्दः ।' भ्याया• पृ० १८ । ३ 'उपलब्धिहेतु: प्रमाणं..... "यदुपलग्धिनिमित्तं तत्प्रमाणं ।'- न्यायश. पृ. ५। ४ 'प्रमीयते येन तत्प्रमाणमिति करणाभिधायिनः प्रमाणशम्दात् प्रमाकरणं प्रमाणमवगम्यते । न्यायमं० पृ. २५ । ५ 'यथार्यानुभवो मानमनपेक्षतयेष्यने ।'-यापकु० ४.१ ।
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प्रस्तावना
पहले न्याय वैशेषिक परम्पप में प्रमाणसामान्यनक्षणमें 'अनुभव पदका प्रवेषा प्रापः उपलब्ध नहीं होता। उनके बादमें तो अनेक नैयायिकोंने' अनुमव ही प्रमाणसामान्यका लक्षण बतलाया है ।
मीमांसक परम्परामें मुख्यतया दो सम्प्रदाय पाये जाते है-१ भाट्ट पौर २ प्रभाकर | कुमारिल भट्टके अनुगामी भाट्ट और प्रभाकर गुरुक मतका अनुसरण करनेवाले प्राभाकर कहे जाते हैं 1 कुमारिलने प्रमाणके सामान्यलक्षणमें पाँच विशेषण दिये है। १ अपूर्वार्षविषयत्व र निश्चि. तस ३ बापवर्जितत्व ४ प्रदुष्टकारणारम्घरख और ५ लोकसम्मतस्व । कुमारिल का वह लक्षण इस प्रकार है :
तत्रापूर्षिविनाम निश्चितं बापनितम् ।
प्रष्टमारणार प्रमागं लोकसम्मतम् ॥ पिछले सभी भाट्टमीमांसकोंने इसी कुमारिल कत्तुं क लक्षाणको माना है और उसका समर्थन किया है। दूसरे दार्शनिकोंकी प्रासोबनाका विषय भी यही लक्षण हुमा है। प्रभाकरने' अनुभूति, को प्रमाण सामान्यका लक्षण कहा है।
सांख्यदर्शन में श्रोत्रादि-इन्द्रियोंकी वृत्ति ( व्यापार ) को प्रमाणका सामान्य लक्षण बतलाश गया है।
बौद्धदर्शनमें' प्रशातार्थके प्रकाशक ज्ञानको प्रमाणका सामान्य लक्षण बतलाया है। दिनापने विषयाकार प्रर्यनिश्चय मोर स्वसंविसिको प्रमाण१ 'बुद्धिस्तु द्विविधा मता अनुभूतिः स्मृतिदिच स्यादनमूश्चतुर्विधा ।'
-सियाम्तम. का. १ 'तद्वति तत्प्रकारकोऽनुभवोयथार्थः ।.'संवप्रमा ।' तर्कसं०पृ० ६८,६१ २ 'अनुभूतिश्प न: प्रमाणम् । बहती १-१.५। ३ 'अजाताडापक प्रमाणमिति प्रमाणसामान्यलक्षणम् ।।
---प्रमाणसमु० टी० पृ. ११
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१४
न्याय-दीपिका
का फल कह कर उन्हें ही प्रमाण माना है' । क्योंकि बौद्धदर्शनमें प्रमाण मौर फल भी भिन्न नहीं हैं भोर जो अज्ञाताप्रकाश रूप ही हैं। घमंकीत्तिने अविसंवादि पद और लगाकर दिग्नाग के ही लसग को प्रायः परित किया है। तत्वसंग्रहकार शान्तरक्षितने' सारूप्य और योग्यताको प्रमाण वर्णित किया है जो एक प्रकारसे दिग्नाग और धर्मकीसिके प्रमालसामान्यलक्षणका ही पर्यवसितार्थ है । इस तरह बौदोंके यहाँ स्वसंवेदी मशातार्थजापक भविसंवादि शानको प्रमाण कहा गया है ।
जन परम्परामें सर्व प्रथम स्वामी समन्तभद्र' और मा०सिद्धसेनने प्रमाणका सामान्यलक्षण निर्दिष्ट किया है और उसमें स्वपरावभासक, ज्ञान तथा बाधयिजित ये तीन विशेषण दिये हैं। भारतीय दाशिनिकोंमें समन्तभद्र ही प्रथम दार्शनिक हैं जिन्होंने स्पष्टतया प्रमाणके सामान्यलक्षणमें एयरपमासक' पप रखा हपछानियादी बौद्धमाशानको 'स्वरूपस्य स्वतो गतेः' कहकर स्वसंवेदी प्रकट किया है परन्तु ताकिक रूप देकर विशेषरूपसे प्रमाणके लक्षणमें 'स्व' पदका निवेश समन्तभद्रका ही स्वोपन जान पड़ता है। क्योंकि उनके पहले वैसा प्रमाणलक्षण देखनेमें नहीं पाता । समन्तभद्र ने प्रमाणसामान्यकर लक्षण 'युगपत्सर्वमासितत्त्वज्ञान' भी किया है जो उपर्युक्त लक्षणमें ही पर्यवसित है दर्शनशास्त्रोंके अध्ययनसे ऐसा मालूम होता है 'प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्' मदि जिसके द्वारा प्रमिति ( परिच्छित्तिविशेष ) हो वह प्रमाण है' इस अर्थमें
१ "स्वसंवित्तिः फल पात्र तद्रूपादर्थनिश्चयः । विषयाकार एवास्य प्रमाण तेन मीयते ।।"-प्रमाणसमु. १.१० । २ "प्रमाणमविसंवादि जानम्","प्रमाणवा० २-१ । ३ "विषयाषिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते। स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा।।"-सस्वसं० का १३४ । ४ "स्वपरावभासकं यया प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्"- स्वयम्भू० का. ६३ । ५.प्रमाणं स्वपराभासि शान शायविवर्जितम्।"--माया का१
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प्रस्तावना
प्रायः सभी दर्शनकारीने प्रमाणको स्वीकार किया है। परन्तु वह मिति किसके द्वारा होती है अर्थात् प्रमितिका करण कौन है ? इसे सबने अलग अलग बतलाया है । नैयायिक और वैशेषिकोंका कहना है कि मर्षप्ति इन्द्रिय और भयक सन्निकर्षसे होती है इसलिए सन्निकर्ष मितिका करण है। मीमांसक सामान्यतया इन्द्रियको,सांरूप इन्द्रियवृत्तिको और बौद्ध सारूप्य एवं योग्यताको प्रमितिकरण बतलाते हैं । समन्तभद्र ने 'स्वपरावभासक' शानको प्रमितिका अव्यवहितकरण प्रतिपादन किया है। समन्तमा के उत्तरवर्ती पूज्यपादने भी स्वपरावभासक ज्ञानको ही प्रांमतिकरम(प्रमाण) होनेका समर्थन किया है और सन्निकर्ष,इन्द्रिय तथा मात्र ज्ञानको प्रमिति करण(प्रमाण माननेमें दोषोदावन भी किया है। वास्तवमें प्रमिति - प्रमाणफल जब अज्ञाननिवृत्ति है तब उसका करण प्रज्ञानविरोधी स्व भौर परका अवभास करनेवाला शान ही होना चाहिए । समन्तमनके द्वारा प्रतिष्ठित इस प्रमाणलक्षण 'स्वपरावभासक' को प्रार्थिकरूपसे अपनाने हुए भी शाब्दिकरूपसे प्रकलङ्गदेवने अपना प्रात्माथंग्राहक व्यवसायात्मक जानको प्रमाणसक्षण निर्मित किया है । तात्पर्य यह कि समन्तभद्र के 'स्व' पदकी जगह 'पास्मा' और 'पर' पदके स्थान में 'मर्थ' पद एवं 'भवभासक' पदकी जगह 'व्यवसायात्मक' पदको निविष्ट किया है। तथा 'अर्थ' के विशेषणरूपसे कहीं "मनधिगत' कहीं 'भनिश्चित और कहीं 'अनिर्णीत" पदको दिया है । कहीं ज्ञान के विशेषगरूप से
१ घेखो, सर्वार्थसि० १-१०।। २ "व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्मायग्राहक मतम् ।"-- अघीय का०६० ३ "प्रमाणमविसंवादि लानं अनधिगतार्थाधिगमलक्षगवान् ।"
--पदा का. ३६ ४'लिगलिङ्गसम्बन्धज्ञान प्रमाण अनिविधतनिश्चयात् । पटश ११
५ "प्रकृतस्यापि न वै प्रामाण्यं प्रतिषेध्यं-अनिर्णीतनिर्णायकत्वात् ।" अष्टम का० १०१ ।
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'प्रविसंवादि पदको भी रखा है। य पद कुमारिस तथा पमंकीति से माये हुए मालूम होते हैं। क्योंकि उनके प्रमाणलक्षणोंमें वे पहलेसे ही विहित है । प्रकल देवके उत्सरवर्ती माणिक्यनन्दिने प्रकलङ्कदेवके 'प्रन विगत' पदके स्थानमें कुमारिलोक्त 'अपूर्वार्थ' और पारमा' पद स्थानमें समन्तभदोस्त 'स्व' पदका निवेश करके 'स्वापूर्थि' जैसा एक पद बना लिया है और 'दमवसायास्मक' पदको ज्योंका त्यों अपनाकर 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं शान' यह प्रमाणसामान्यका लक्षण प्रकट किया है। विद्यानन्दने यद्यपि संक्षेपमें 'सम्यग्जान' को प्रमाण कहा है' और पीछे उसे 'स्वार्थव्यवसायात्मक' सिद्ध किया है, अकलङ्क तथा माणिक्यनन्दिकी तरह स्पष्ट तौर पर 'अनधिगस' या 'मपूर्व' विशेषण उन्होंने नहीं दिया, तथापि सम्परज्ञानको अनधिगतार्थविषयक या अपूर्वार्थविषयक मानना उन्हें प्रनिष्ट नहीं है उन्होंने जो अपूर्वार्थका खण्डन किया है। यह कुमारिलके सर्वथा 'अपूर्वार्थ' का खण्डन है । कथंचिद् अपूर्थि तो उन्हें मभिप्रेत है । प्रकलदेवकी तरह स्मृत्यादि प्रमाणोंमें मपूर्थिता
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"प्रमाणमविसंवादिज्ञानम्" प्रष्टश का० ३६ । २ "स्वापूर्षिव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।',—परीक्षाम. १-१ । ३ "सम्पमानं प्रमाणम्"-प्रमागपरी० पृष्ट ५१ । ४ "किं पुनः सम्यरमान ? मभिधीयते-स्वार्थव्यवसामात्मकं सम्यशानं सम्यम्मानस्वात..."
-प्रमाणप० पृ० ५३ । ५ "तत्स्वार्थव्यवसायात्मकशानं मानमितीयता लक्षणेन गतार्थत्वात् व्यर्थमन्मद्विशेषणम् ॥"-तस्वायत्रलो. पृ० १७४ ।
६ "सकलदेशकालव्याप्तसाध्यासाधनसम्बदोहापोहलक्षणो हि तर्क: प्रमाणयितव्यः, तस्य कयाञ्चिपूर्वार्थत्वात् ।" "नचंतद् गृहीतग्रहणादप्रमाणमिति शमनीयम्, तस्य कथाञ्चिदपूर्थित्वात् । न हि तद्विषयभूतमेकं दव्यं स्मृतिप्रत्यक्षग्राह्य मेन तत्र प्रवर्तमान प्रत्यभिज्ञानं गृहीतग्राहि मन्येत तद्गृहीतातीलबर्तमानविवर्ततादात्म्यात् दध्यस्य कञ्चिदपूर्वाप
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का उन्होंने स्पष्टतया समर्थन किया है। सामान्यतया प्रमाणलक्षण में पूर्व पदको न रखनेका तात्पर्य यह है कि प्रत्यक्ष तो अपुर्वाग्राही होता ही है और अनुमानादि प्रत्यक्ष से गृहीत धर्मांशोंमें प्रवृत्त होनेसे अपूर्वाचंग्राहक सिद्ध हो जाते हैं । यदि विद्यानन्द को स्मृत्यादिक मपूर्वार्धविषयक इष्ट न होते तो उनकी प्रमाणता में प्रयोजक अपूर्वार्थताको वे कदापि न बतलाते । इससे स्पष्ट है कि विद्यानन्द भी प्रमाणको अपूवर्थिग्राहो मानते हैं । इस तरह समन्तभद्र और प्रकलङ्कदेव का प्रमाणसामान्यलक्षण ही उत्तरवर्ती जैन तार्किकोंके लिए श्रावार हुआ है ! भा० घर्मभूषणने न्यायदीपिका में विद्यानन्दके द्वारा स्वीकृत 'सम्यग्ज्ञानत्व' रूप प्रमाणके सामान्यलक्षणको ही अपनाया है और उसे अपनी पूर्वपरम्परानुसार सविकल्पक अगृहीतग्राही एवं स्वार्थव्यवसायात्मक सिद्ध किया है तथा धर्मकीति प्रभाकर भट्ट और नैयायिकोंके प्रमाणसामान्यलक्षणों की प्रालोचना को है ।
५. धारावाहिक ज्ञान
दार्शनिक प्रन्थों में धारावाहिक ज्ञानोंके प्रामाण्य और अप्रमाण्य की विस्तृत चर्चा पायी जाती है। न्याय-वैशेषिक पौर मीमांसक उन्हें प्रमाण मानते हैं। पर उनकी प्रमाणताका समर्थन वे अलग-अलग ढंगसे करते हैं। न्याय-वैशेषिका कहना है कि उनसे परिच्छित्ति होती है और लोकमें वे प्रमाण भी माने जाते हैं। अतः वे गृहीतग्राही होने पर भी त्वेsपि प्रत्यभिज्ञातस्य तद्विषयस्य नाप्रमाणत्वं लैंगिकादेरप्यप्रमाणत्वप्रसंगात् । तस्यापि सर्वथैवा पूर्वार्थत्वासिद्धेः ।" - प्रमाणप० पृ०७०। "स्मृतिः प्रमाणान्तरमुक्तं नचासावप्रमाणमेव सवादकत्वात् कथञ्चन पूर्वार्थसाहित्यात् प्रमाण१० पृ० ६७ । " गृहीतग्रहणात्तर्कोऽप्रमाण मिति चेत्र । तस्यापूर्वार्थवेदित्वादुपयोग विशेषतः ।। " - तत्वाश्लो० पृ० ११५ ।
१ " अनधिगतार्थग्रन्तृत्वं च धारावाहिकज्ञानानामधिगतगोचराणां
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प्रस्तावना
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प्रमाण ही हैं । भाट्टोंका मत है कि उनमें सूक्ष्म काल-भेद है। अतएव के अनधिगत सूक्ष्म काल-भेदको ग्रहण करनेसे प्रमाण हैं । प्रभाकर मतवाले' कहते हैं कि कालभेदका भान होना तो शक्य नहीं है क्योंकि वह अत्यन्त मूक्ष्म है। परन्तु हाँ, पूर्वजान से उत्तरशानों में कुछ अतिशय (वैशिष्ठ्य ) देखनेमें नहीं पाता। जिस प्रकार पहले भानका अनुभव होता है उसी प्रकार उत्तर ज्ञानोंका भी अनुभव होता है। इसलिए धारावाहिक ज्ञानोंमें प्रथम ज्ञानसे न तो उत्पत्तिकी अपेक्षा कोई विशेषता है और न प्रतीतिकी अपेक्षासे है । अत: वे भी प्रथम मानकी ही तरह प्रमाण हैं।
बौद्धदर्शनमें यद्यपि अधिगतार्थक ज्ञानको ही प्रमाण माना है मौर इसलिए अधिगतार्थक धारावाहिक शानोंमें स्वत: प्रप्रामाण्य स्थापित हो जाता है तथापि धर्मकीतिके टीकाकार भटने' पुरुषभदकी अपेक्षास लोकसिद्धप्रमाणभावानां प्रामाण्यं विहन्तीति नाद्रियामहे ।....."तस्मादर्यप्रदर्शनमात्रब्यापारमेव ज्ञानं प्रवत्तंक प्रापकं च । प्रदर्शनं च पूर्ववदुत्तरेषामपि विज्ञानानामभिन्नमिति कथं पूर्वमेव प्रमाणं नोत्तराण्यपि ।"न्यायवा तात्पर्य पृ० २१ ।
१ "धारावाहिककेष्वप्युत्तरोत्तरेषां कालान्तरसम्बन्धस्यागृहीतस्य ग्रहणाद् युक्तं प्रामाण्यम् । तस्मादस्ति कालभेदस्य परामर्शः । सदाधिक्याच्च सिद्धमुत्तरेषां प्रामाण्यम् ।"-शास्त्री० पृ. १२४-१२६ । २ "सन्नपि कालभेदोऽतिसूक्ष्मत्वान्न परामृष्यत इति चेत् ; महो सूक्ष्मदर्शी देवानाप्रियः !"--(शरस्त्रदो० पृ० १२५) पत्र पूर्वपक्षणोल्लेख:] "व्याप्रियमाणे हि पूर्वविज्ञानकारणकलापे उत्तरेषामप्युत्पत्तिरिति न प्रतीतित उत्पत्तितो वा धारावाहिकविज्ञानानि परस्परस्यातिशेरते इति युक्ता सर्वेषामपि प्रमाणता ।"--प्रकरणपं० पृ० ४३। ३ "यदकस्मिन्नेर नीलादिवस्तुनि धारावाहीनीन्द्रियज्ञानान्पुत्पद्यते तदा पूर्वगाभिन्नयोगक्षेमत्वात उत्तरेषामिन्द्रियन्नानानामप्रामाण्यप्रसङ्गः । न चैवम् मतोऽनेकान्द
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प्रस्तावना
उनमें प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वीकार किया है। क्षणभेददष्टा (योगी) की अपेक्षासे प्रमाणता और भणभेद अदृष्टा व्यावहारिक पुरुषों को अपेक्षासे अप्रमाणता वणित की है।
अनपरम्पराके श्वेताम्बर ताकिकोंने धारावाहिक शानों को प्रायः प्रमाण ही माना है उन्हें अप्रमाण नहीं कहा है। किन्तु अकलङ्क पोर उनके उत्तरवर्ती सभी दिगम्बर प्राचार्याने अप्रमाण बतलाया है । और इसीलिए प्रमाणके लक्षणमें अनधिगत या अपूर्वार्थ विशेषण दिया है । विद्यानन्दका कुछ भुकाय अवश्य उन्हें प्रमाण कहनेका प्रतीत होता है। परन्तु जब वे सर्वथा अपूर्वार्धत्वका विरोध करके कथंचित् अपूर्वार्थ स्वीकार कर लेते हैं तब यही मालूम होता है कि उन्हें भी धारावाहिक ज्ञानोंमें अप्रामाण्य इष्ट है । दूसरे, उन्होंने परिच्छत्तिविशेषके अभाव में जिस प्रकार प्रमाणसम्लव स्वीकार नहीं किया है। उसी प्रकार प्रमितिविशेषके प्रभावमें धारावाहिक ज्ञानोंको अप्रमाण माननेकामी उनका अभिप्राय स्पस्ट मालूम होता है। अतः धारावाहिक ज्ञानोंसे यदि प्रमितिविशेष उत्पन्न नहीं होती है
इति प्रमाणसंप्लववादी दर्शयन्नाह पूर्वप्रत्यक्षेण इत्यादि । एतत् परिहरति -तद् यदि प्रतिक्षणं क्षणविवेकशिनोऽधिकृत्योच्यते तदा भिन्नोपयोगितया प्रथक् प्रामाण्यात् नानेकान्तः। अथ सर्वपदार्थव्वेकस्वाध्यवसाथिन: सांव्यवहारिकान् पुरुषानभिप्रत्योच्यते तदा सकतमेव नीलसन्तानमेकमर्थ स्थिररूपं तत्साध्या चार्थक्रियामेकात्मिका मध्यवस्यन्तीति प्रामाण्यमप्पुत्तरेषामनिष्टमेवेति कुतोऽनेकान्तः ?" हेतुनिन्थ्टी० लि. पृ० ३१ ।
१ "गृहीतमगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यति । तन्न लोके न शास्त्रष विजाति प्रमाणताम् ॥'-तत्त्वार्थश्लो० पृ० १५४ । २ "उपयोगविशेषस्याभावे प्रमाणसमानवस्यानम्युपगमात् । सति हि प्रतिपतुरुपयोगविशेषे देशादिविशेषसमवधानादागमात्प्रतिपन्नमपि हिरण्यरेतसं स पुनरुनुमाना. प्रतिपित्सते ।"--प्रष्टस० पृ. ४ ।
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तो उन्हें अप्रमाण (म्यमाण नहीं) कहना अयुक्त नहीं है । न्यायदीपिकाकारने भी प्रथम घटादिज्ञानके अलावा उत्तरवर्ती अवशिष्ट घटादिज्ञानो. को अज्ञाननिवृत्तिरूप प्रमितिको उत्पन्न न करनेके कारण प्रप्रमाण हो स्पष्टतया प्रतिपादन किया है और इस तरह उन्होंने अकलछुमार्गका हो समर्थन किया है।
६. प्रामाण्यविचार
ऐसा कोईभी तर्क ग्रन्थ न होगा जिसमें प्रमाणके प्रामाण्याप्रामाण्यका विचार प्रस्फुटित न हुआ हो। ऐसा मालूम होता है कि प्रारम्भमें प्रामाण्य का विचार वेदोंकी प्रामाणता स्थापित करनेके लिए हुआ था। जब उसका तकके क्षेत्रमें प्रवेशमें हुआ तब प्रत्यक्षादि ज्ञानोंकी प्रामाणता और अप्रमाणताका विचार होने लगा। प्रत्येक दार्शनिकोंको अपने तर्क ग्रन्थमें प्रामाण्य और अप्रमाण्य तथा उसके स्वतः और परतः होनेका कथन करना अनिवार्य सा हो गया और यही कारण है कि प्रायः छोटेसे छोटे तर्कग्रन्थमें भी वह चर्चा आज देखने को मिलती है।
१ "प्रत्याक्षादिषु दृष्टार्थेषु प्रमाणेषु प्रामायनिश्चयमन्तरेणैव व्यवहारसिद्धस्तत्र कि स्वतः प्रामाण्यमुत परत इति विचारेण न न: प्रयोजनम्, अनिर्णय एक तत्र श्रेयान, अदृष्टं तु विषये वैदिकेष्वगणितविण. वितरणादिक्लेशसाध्येषु कर्ममु तत्प्रामाण्यावधारणमन्तरेण प्रेक्षावतां प्रबतनमनुत्रितमिति तस्य प्रामाण्यनिश्चमोवश्यकर्तव्यः, तत्र परत एव वेदस्य प्रामाण्यमिति वक्ष्यामः ।'–न्यापमं० पृ० १५५ । २ "सर्वविज्ञानविषयमिदं तावत्प्रतीक्ष्यताम् । प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः कि परतोऽथवा ॥"-मी० श्लोक चो० श्लो० ३३ । "प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा सर्वविज्ञानगोबरम्। स्वतो वा परतो वेति प्रथमं प्रविषिच्यताम् ।"न्यायमं० पृ. १४६ ।
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प्रस्तावना
न्याय-वैशेषिक' दोनोंको परतः, सांख्य' दोनोंको स्वतः, मीमांसक' प्रामाण्यको तो स्वतः पौर अप्रामाण्यको परत: तथा बौद्ध' दोनोंको किंचित् स्वतः पौर दोनोंको ही किंचित् परत; वणित करते हैं। जैनदर्शनमें अभ्यास और अनभ्यासदशामें उत्पत्ति तो दोनोंको परत: मौर शप्ति अभ्यासदशामें स्वत: तथा अनभ्यासदशामें परतः मानी गई है। धर्मभूषणने भी प्रमाणताको उत्पत्ति पर हो और श्यय शिक्षि) अभ्यस्तविषयमें स्वतः एवं मनम्यस्त विषयों परतः बतलाया है।
७. प्रमाणके भेव___ दार्शनिकरूपसे प्रमाणके भेदोंको गिनानेवासी सबसे पुरानी परम्परा कौन है ? और किसको है ? इसका स्पष्ट निर्देश तो उपलब्ध दार्शनिक साहित्यमें नहीं मिलता है किन्तु इतना जरूर कहा जा सकता है कि प्रमाण के स्पष्टतया चार भेद गिनानेवाले न्यायसूत्रकार गौतमसे भी पहले प्रमाणके अनेक भेदोंको मान्यता रही है। क्योंकि उन्होंने ऐतिह, प्रीपत्ति, सम्भव मौर अभाव इन चारका स्पष्टतश उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणताका निरसन किया है तथा शब्दमें ऐतिपका प्रोर
१ "द्वमपि परत इत्येष एव पक्ष: श्रेयान 'न्यायमं० पृ० १६० । कन्दली० पृ० २२० । २ "प्रमाणत्वाप्रमाणत्वं स्वतः सांख्याः समाश्रिताः।" -सर्वदर्श० पृ० २७६ । ३ "स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामामिति गम्यताम् । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमरोन पार्यते ।।"-मो० श्लो० सू० २ इलो. ४७ । ४ "उभयमपि एतत् किञ्चित् स्वतः किञ्चित् परत इति..."-- तस्वसं० ५० का० ३१२३ । ५ ' तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्प"--परीक्षामु० १-१३ ! "प्रामाण्यं तु स्वतः सिद्धमभ्यासात् परतोऽन्यया ॥"प्रमाणप- पृ० ६३ । ६ "प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि ।"न्यायस० १-१-३ ।
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अनुमानमें शेष तोनका अन्तर्भाव हो जानेका कथन किया है। प्रशस्तपादने भी अपने वैशेषिकदर्शनानुसार प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो ही प्रमाणोंका समर्थन करते हुए उल्लिखित प्रमाणोंका इन्हीं में अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। प्रसिद्धिके आधार पर इतना और कहा जा सकता है कि पाठ प्रम मा यतः स व रागाना है । कहा, प्रमाणको अनेकभेदरूप प्रारम्भसे ही माना जा रहा है और प्रत्येक दर्शनकारने कमसे कम प्रमाण माननेका प्रयत्न किया है तथा शेष प्रमाणोंको उसी अपनी स्वीकृत प्रमाणसंख्या में ही अन्तर्भाव करनेका समर्थन किया है । यही कारण है कि सात, छह, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रमाणवादी दार्शनिक जगतमें आविर्भूत हुए हैं। एक ऐसाभी मत रहा जो सात प्रमाण मानता श्रा' 1 छह प्रमाण माननेवाले जैमिनी अथवा भाट्ट, पांच प्रमाण माननेवाले प्राभाकर, चार प्रमाण कहनेवाले नैयायिक, तीन प्रमाण माननेवाले सांस्य, दो प्रमाण स्वीकृत करनेवाले वैशेषिक मौर बौद्ध तथा एक प्रमाण माननेवाले चार्वाक तो माज भी दर्शन शास्त्रकी चर्चाक विषय बने हुए हैं।
जैनदर्शनके सामने भी यह प्रश्न था कि वह कितने प्रमाण मानता है ? यद्यपि मत्यादि पौच जानोंको सम्यग्ज्ञान या प्रमाण माननेकी परंपरा प्रति सुप्राचीनकालसे ही प्रागमोंमें निबद्ध और मौखिक रूपसे सुरक्षित चली आ रही थी, पर जेनेतरोंके लिए वह अलोकिक जैसी प्रतीत होती थी-उसका दर्शनान्तरीय प्रमाणनिरूपण से मेल नहीं खाता था। इस
१ "न चतुष्ट्वमैतिह्मार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यात् ।"-यायसू. २-२-१ । "शब्द ऐतियानर्थान्तरभावादनुमानार्थापसिसम्भवाभावानर्यान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः ।"-म्पायसू० २-२-२। २ देखो, प्रशस्तपावभाज्य पृ० १०६-१११ ।
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प्रस्तावना
प्रश्न का उत्तर सर्वप्रथम' दार्शनिकरूपसे सम्भवतः प्रथम शताब्दिमें हुए तत्त्वार्थसूत्रकार प्रा० उमास्वातिने दिया है। उन्होंने कहा कि सभ्यज्ञान प्रमाण है और वह मूलमें दो ही भेदरूप है :–१ प्रत्यक्ष पौर २ परोक्ष । प्रा. उमास्यातिका यह मौलिक प्रमाणद्वयांवमाग इतना सुविचारपूर्वक और कौशल्यपूर्ण हुमा है कि प्रमाणोंका प्रानन्त्य भी इन्हीं दोमें समा जाता है। इनसे अतिरिक्त पृथक् तृतीय प्रमाण माननेको बिल्कुल प्रावश्यकता नहीं रहती है । जबकि वैशेषिक और बौद्धोंके प्रत्यक्ष तथा अनुमानरूप द्विविध प्रमाणविभागमें अनेक कठिनाइयां नाती हैं। उन्होंने प्रति संक्षेपमें, मति, स्मृति, संझा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (स) और अभिनिबोध (अनुमान) इनको भी प्रमाणान्तर होनेका संकेत करके और उन्हें मतिज्ञान कह कर पाये परोक्षम्' मूत्रके द्वारा परोक्षप्रमाणमें ही अन्तर्भूत कर लिया है। प्रा० उमास्वातिने इस प्रकार प्रमाणद्वयका विभाग करके उत्तरवर्ती जैनताकिकों के लिए प्रशस्त और
१ यद्यपि श्वेताम्बरीय स्थानाङ्ग और भगवती में भी प्रत्यक्ष-परोक्षरूप प्रमाणद्वयका विभाग निर्दिष्ट है, पर उसे श्रद्धेय ५० सुखलालजी नियुक्तिकार भद्रबाहु के बादका मानते हैं, जिनका समय विक्रमकी छठी शताम्दि है। देखो, प्रमाणमी. भा. टि. पृ. २० । पौर भद्रबाहुके समयके लिये देखो, श्वे. मुनि विद्वान् श्रीचतुरविजयजीका 'श्रीभद्रबाह' शीर्षक लेख 'अनेकान्त वर्ष ३ कि. १२ तथा 'क्या नियुक्तिकार भद्रवाह और स्वामी समन्तभद्र एक है?' शीर्षक मेरा लेख, "अनेकान्त' वर्ष ६ कि. १०-११ पृ. ३३८ । २ "तत्प्रमाणे" "प्राद्ये परोक्षम्"-"प्रत्यक्षमन्यत्"
-तत्वार्यसू० १-१०, ११, १२ । ३ "मतिः स्मृतिः संज्ञाचिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्"-तस्वार्यसू. १.१४ ।
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सरल मार्ग बना दिया। दर्शनान्तरों में प्रसिद्ध उपमानादिकको भी परोक्षमे ही अन्तर्भाव होनेका स्पष्ट निर्देशा उनके बादमें होने वाले पूज्यपादने कर दिया । अकलंकदेवने उसी मार्गपर चलकर परोक्ष-प्रमाणके भदोंको स्पष्ट संख्या बतलाते हुए उनकी सयुक्तिक सिद्धि को और प्रत्यकका लक्षण प्रणयन किया। प्रागे तो परोक्षप्रमाणोंके सम्बन्धमें उमास्वाति और
प्रकलङ्कने जो दिशा निर्धारित की उसीपर सब जनताकिक अनिरुद्ध • रूपसे चले हैं । प्रकलङ्कदेवके सामने भी एक प्रश्न उपस्थित हुअा। वह यह कि लोकमें तो इन्द्रियाश्रित ज्ञानको प्रत्यक्ष माना जाता है पर जनदर्शन उसे परोक्ष कहता है, मह लोकविरोध कमा ? इसका समाधान उन्होंने बड़े स्पष्ट और प्राञ्जल शन्दोंमें दिया है । वे कहते है'—प्रत्यक्ष दो प्रकारका है-- १ सांव्यवहारिक और २ मुख्य । लोकमें जिस इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षको प्रत्यक्ष कहा जाता है वह व्यवहारसे तथा देशत, बैशन होनेसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके रूपमें जनोंको इष्ट है। अत: कोई लोकविरोध नहीं है। अकल के इस बहुमुखी प्रतिभाके समाधानने सबको चकित किया। फ़िर तो जैन तर्कगंधकारोंने इसे बड़े भादरके साथ एक स्वरसे स्वीकार किया और अपने अपने ग्रन्थों में अपनाया । इस तरह मूत्रकार उमास्वातिने जो प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद निर्धारित किये थे उन्हें ही जैनतार्किकाने परिपुष्ट और समर्थित किया है ! यहाँ यह
१ "उमानार्थापत्त्मादीनामत्रवान्तर्भावात् ।" "मस उपमानागमादीनामबान्तर्भाव:'- सर्वार्थसिद्धि पृ० ६४ ।
२ "ज्ञानमाद्यं मतिः संजा चिन्ता चाभिनिबोधिकम् । प्राङ्नामयोजनात् शेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् ।।"-लघीयका ११ । "परोक शेषविज्ञानं प्रमाणे इति संग्रहः"— लघीय. का. ३ । ३ "प्रत्यक्षं विशदं शान मुरूपसंव्यवहारत:"-लषीय का० ३१
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प्रस्तावना
भी कह देना प्रावश्यक है कि समन्तभद्रस्वामीने', जो उमास्वातिके उत्तरवर्ती और पूज्यपादके पूर्ववर्ती हैं, प्रमाणके अन्य प्रकारसे भी दो भेद किये हैं-१ अक्रमभावि और २ कमभावि । केवलज्ञान प्रक्रममावि है
और शेष मस्यादि चार जान क्रममावि हैं। पर यह प्रमाणयका विभाग उपयोगके क्रमाक्रमकी अपेक्षाले है। समन्तभद्र के लिये भाप्तमीमांसा प्राप्त विवेचनीय विषय है। अतः प्राप्तके ज्ञानको उन्होंने मक्रममावि और प्राप्त भिन्न अनाप्त (छयस्थ) जीवोंके प्रमाणज्ञानको क्रमभावि बतलाया है इसलिये उपयोगभेद या व्यक्तिभेदकी दृष्टिसे किया गया यह प्रमाणद्वयका विभाग है। प्रा धर्मभूषणने सूत्रकार उमास्वाति निर्दिष्ट प्रत्यक्ष और परोक्षरूप ही प्रमाणके दो भेद प्रदर्शित किये हैं भौर उनके उसरभेदोंकी पूर्व परम्परानुसार परिगणना की है। जनदर्शन में प्रमाणके जो भेद-प्रभेद किये गये हैं वे इस प्रकार हैं:
१ "तत्त्वज्ञान प्रमाणं ते युगपत सर्वभासनम् । मभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥"
___ .-माप्तमौ का १०१।
२ "स्पर्शनादीन्द्रियनिमित्तस्य बहुबहुविक्षिप्रानिसृतानुक्तप्रवेषु तदितरेष्वर्थेषु वर्तमानस्य प्रतीन्द्रियमष्टचत्वारिंशभेदस्य व्यञ्जनावग्रहभेदरष्टः चत्वारिशता सहितस्य संख्याष्टाशीत्युत्तरदिशती प्रतिपातम्या । तथा पतिन्द्रियप्रत्यक्षं बह्वादिद्वादशप्रकारार्थविषयमवग्रहादिविकल्पमष्टचस्वारिशसंख्यं प्रतिपत्तव्यम् ।"-प्रमाणप० पृ०६५।
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सांव्यवहारिक
इन्द्रियप्रत्यक्ष अनिन्द्रियप्रत्यक्ष
.
१ २ ३ ४ ५
|
।
| ।।
स्प. रास. प्रा. चा.आ.
। ; । । ।
अ.४ अ.४ अ.४ प्र. ४. ४ बहु. १२
।
ब. १२.१२.१२ब १२ब १२
प्रत्यक्ष
४८ + ४८ + ४८+४+४८
पारमार्थिक
प्रमाण
। । । ४x१२=४८
अवग्र४ केवल अवधि मन:पर्यय
↓
संकल विकल एक सादृ वैसा आदि
= २४० + ४८ ( व्यंजन विग्रह के ) = २८८
२
५
T
स्मृति प्रत्यभि तर्क अनुमान प्रागम
२
परोक्ष
इन्द्रियप्र०
४८ अनि० प्र०
국회
|
अगवा. अंगम.
स्वार्थ पार्थ
न्याय- दोपिका
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प्रस्तावना
८. प्रत्यक्ष का लक्षण
दार्शनिक जगनमें प्रत्यक्षका लक्षण अनेक प्रकारका उपलब्ध होता है । नयायिक यौर वशेषिक सामान्यतया इन्द्रिय और अर्थके मन्निकर्षको प्रत्यक्ष कहते हैं। साध्य श्रोत्रादि इन्द्रियों की वृत्तिको और मीमांसक इन्द्रियोंक. नाफे साथ होने पर कसा होनेवाली मुनि (मान) को प्रत्यक्ष मानते हैं। बौद्धदर्शनमें तीन मान्यतायें है :--१ दसुबन्धुकी, २ दिग्नागकी और ३ धर्मकीत्तिकी। वसुबन्धुने' प्रर्थजन्य निर्विकल्पक वाबको, दिग्नागने' नामजात्यादिरूप कल्पनाम रहित निर्विकल्प मानको और धर्मकीत्तिने" निर्विकल्पक तथा अभ्रान्त ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है। सामान्यतया निर्विकल्पकको नभी बौद्ध ताकिकों ने प्रत्यक्ष ग्वीकार किया है। दर्शनान्तरोंमें और भी कितने ही प्रत्यक्ष-लक्षण किय गये हैं। पर वे सब इम सक्षिप्त स्थानपर प्रस्तुत नहीं किये जा सकते हैं।
जनदर्शनमें सबसे पहले सिद्धसेन' (न्यायावतारकार) ने प्रत्यक्षका लक्षण किया है। उन्हान अपरोक्षरूपसे अर्थका ग्रहण करनवाले शानको प्रत्यक्ष कहा है। इस लक्षणम अन्योन्याश्रय नामका दीप होता है । क्योंकि प्रत्यक्ष का लक्षण परोक्षघटित है और परोक्षका लक्षण
१ "इन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्नमव्यादेश्यमयभिचारि त्र्यवमायात्मक प्रत्यक्षम्"-न्यायसूत्र० १-१-४ । २ “नत्सम्प्रयोग पूफारम्बन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तन प्रत्यक्ष म्'-जैमिनि १-१-४। ३ "अर्थादिज्ञानं प्रत्यक्षम्'-प्रमाणस० पृ. ३२। ४ "प्रत्यक्षं कापनापौद नामजात्यासंयुत्तम् ।" प्रमाणसमु. १-। ५. "कल्पनापोटमभ्रान्तं प्रत्यक्षम्" -न्यायविन्दु० १० ११ ।
E "अपरोक्षतयाऽर्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशम् । प्रत्यक्षमितरद् शेयं परोक्षं गृहणेक्षया।" यायाव० का ४ ॥
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न्याय-दीपिका
( प्रत्यक्षभिन्नत्व) प्रत्यक्षघटित है। अकल देवने' प्रत्यक्षका ऐसा लक्षण
बनाया जिससे वह दोष नहीं रहा। उन्होंने कहा कि ज्ञान विशद हैस्पष्ट है वह प्रत्यक्ष है। यह लक्षण अपने आपमें स्पष्ट तो है ही, साथ में बहुत संक्षिप्त और व्याप्ति प्रतिव्याप्ति भादि दोषोंसे पूर्णतः रहिन भी है । मलका यह कल लक्षण जैनपरम्परामें इतना प्रतिष्ठित और व्यापक हुआ कि दोनो ही सम्प्रदायोंके श्वेताम्बर श्रीर दिगम्बर विद्वानों बड़े आदरभाव से अपनाया है। जहां तक मालूम है फिर दूसरे किसी जनताविकको प्रत्यक्षका अन्य लक्षण बनाना आवश्यक नहीं हुआ और यदि किसीने बनाया भी हो तो उसकी उतनी न तो प्रतिष्ठा हुई है और न उसे उतना अपनाया ही गया है। अकलदेवने अपने प्रत्यक्ष लक्षण में उपात्त वैशयका भी खुलासा कर दिया है। उन्होंने अनुमादिककी अपेक्षा विशेष प्रतिभास होनेको वैशय कहा है । आ० धर्मभूषणने भी कल प्रतिष्ठित इन प्रत्यक्ष और वैद्यके लक्षणोंको अपनाया है और उनके सुत्रात्मक कथनको और अधिक स्फुटित किया है ।
4
·
६. अर्थ और आलोकको कारणता
बौद्ध ज्ञानके प्रति अर्थ और आलोकको कारण मानते हैं। उन्होंन चार प्रत्ययों ( कारणों से सम्पूर्ण ज्ञानों (स्वसंवेदनादि) की उत्पत्ति वर्णित की है। वे प्रत्यय ये हैं : -१ समनन्तरप्रत्यय २ श्राधिपत्यप्रत्यय, ३ श्रालम्बनप्रत्यय और ४ सहकारिप्रत्यय पूर्वज्ञान उत्तरज्ञानकी
F
-
१ " प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानम्" लघीय० का० ३५ प्रत्यलक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जमा ।" न्यायवि० का ० ३ |
२ " श्रनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम् ।
तशयं मतं बुद्धेरवैशद्य मतः परम् ॥"
लघीय० कर० ४ ।
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प्रस्तावना
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उत्पत्ति कारण होता है इसलिए वह समनन्तर प्रत्यय कहलाता है । चक्षुरादिक इन्द्रियां श्राधिपत्यप्रत्यय कही जाती हैं। अर्थ (विषय) आलम्बन प्रत्यय कहा जाता है और आलोक यादि सहकारि प्रत्यय हैं । इस तरह बौद्धोंने इन्द्रियों के अलावा अर्थ और आलोकको भी कारण स्वीकार किया है । अर्थको कारणता पर तो यहाँ तक जोर दिया है कि ज्ञान यदि असे उत्पन्न न हो तो वह अर्थको विषयभी नही कर सकता है' । यद्यपि नैयायिक आदिने भी अर्थको ज्ञानका कारण माना है पर उन्होंने उतना जोर नहीं दिया। इसका कारण यह है कि न्यायिक प्रादि ज्ञान के प्रति सीधा कारण सन्निकर्षको मानते हैं। प्रयं तो सन्नि कर्ष द्वारा कारण होता है । अतएव जैन ताकिकोने नैयायिक आदिके अर्थकारणतावाद पर उतना विचार नहीं किया जितना कि वौद्धोंके अलोककारणतावाद पर किया है। एक बात और है, बौद्धोंने अर्थजन्यत्व अर्थाकारता और अर्याध्यवसाय इन तीनको ज्ञानप्रामाण्यके प्रति प्रयोजक बतलाया है और प्रतिकर्मव्यवस्था भी ज्ञानके प्रर्थजन्य होने में ही की है । यतः प्रावरणक्षयोपशम को ही प्रत्येक ज्ञानके प्रति कारण मानने वाले जैनोंके लिए यह उचित और आवश्यक था कि व बौद्धोंके इस मन्तव्य पर पूर्ण विचार करे और उनके प्रलोककारणत्वपर सबलताके साथ चर्चा चलाएं तथा जनदृष्टिसे विषय - विषय के प्रतिनियमनकी व्यवस्थाका प्रयोजक कारण स्थिर करें। कहा जा सकता है कि इस सम्बन्धमें सर्वप्रथम सूक्ष्म दृष्टि कल देवने अपनी सफल लेखनी चलाई है और अलोककारणता सयुक्तिक निरसन किया है। तथा त्वाबरण क्षयोपशमको विषय-विपीका प्रतिनियामक बता कर ज्ञानप्रामाण्य का प्रयोजक संवाद ( अर्थाव्यभिचार) को बताया है। उन्होंने
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१ "नाकरणं विषयः" इति वचनात् ।
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न्याय-दीपिका
संक्षेपमें कह दिया कि 'ज्ञान अर्थसे उत्पन्न नहीं होता ; क्योंकि जान तो _ 'यह अर्थ है नही जानता है अर्थने में उत्पन्न हुा' इस बातको वह नहीं जानता । यदि जानला होता तो किसीको विवाद नहीं होना चाहिए था। जैसे घट और कुम्हारको कार्यकारणभावमें किमीका विवाद नहीं है। दूसरी बात यह है कि अर्थ तो विषय (जेय) है वह कारण कैसे हो सकता है ? कारण तो इन्द्रिय और मन हैं | तीसरे, अर्थके रहने पर भी विपरीत ज्ञान देखा जाता है और अर्थाभावमे भी केशोप्डुकादि ज्ञान हो जाता है । इसी प्रकार प्रालोकभी जानके प्रति कारण नहीं है, क्योंकि प्रालोकाभावमें उल्लू अादिको ज्ञान होता है और पालोकसद्भावम संशयादि ज्ञान देखे जाते है । अतः अर्थादिक ज्ञानके कारण नहीं हैं। किन्तु प्रावरणक्षयोपशमापेक्ष इन्द्रिय और मन ही ज्ञानके कारण है । इसके साथ ही उन्होंने अर्थजन्यत्व आदिको ज्ञानको प्रमाणतामें अप्रयोजक बतलाते हुए कहा है कि 'नदुत्पत्ति, तादृप्य और १ "अयमथं इति ज्ञानं विद्याश्नोत्पत्तिमर्यतः ।।
अन्यथा न विवाद: स्यात् कुलालादिघटादिवत् ।।"-लघी० ५३ । "अर्थस्य तदकारणरवात् । तस्य इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तत्वात् पर्थस्य विषयत्वात् ।"--- लघी० स्वो० का० ५२ ।
"यबास्वं कर्मक्षयोपशमापेक्षिणी करणमनसी निमित्त विज्ञानस्य न बहिरादयः । नान नुढातान्वयव्यतिरेक कारणं नाकारणं विषयः' इति बालिशगीतम् तामसखगकुलानां तमसि सति रूपदर्शनमावरणविनोदात्, तविच्छेदान् पालोके सत्यपि संगयादिज्ञानसम्भवात् । काचाअपहतेन्द्रियाण! यांखादी पोताद्याकारज्ञानोत्पत्तेः मुमूर्याणां यथासम्भवमर्थे सत्यपि विपरीतप्रतिपत्तिसद्भावात् नार्थादयः कारण ज्ञानम्येति ।"-समी ५७ । १ "न तज्जन्म न ताद्रप्यं न तह च वमितिः सह ।
प्रत्येक बा भजन्तीह प्रामाण्यं प्रति हेतुनाम् ।। नार्थ: कारणं विज्ञानस्य कार्यकालमप्राप्य निवृत्तेः अतीततमक्त : न ज्ञान
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प्रस्तावना
३१
कारण
तदध्यवसाय ये तीनों मिलकर अथवा प्रत्येक भी प्रमाणता नहीं हैं । क्योंकि अर्थ ज्ञानक्षणको प्राप्त न होकर पहले ही नष्ट हो जाता है और ज्ञान अर्थ के अभाव में ही होता है, उसके रहते हुए नहीं होता, इसलिए तदुत्पत्ति ज्ञान-प्रामाण्य प्रयोजक नहीं है। ज्ञान अमूर्त है, इसलिए उसमें प्राकार सम्भव नहीं है । भूत्तिक दर्पणादिमं ही आकार देखा जाता है | अतः तदाकारता भी नहीं बनती है। ज्ञानमे अर्थ नहीं और न अज्ञानात्मक है जिससे ज्ञानके प्रतिभासमान होने पर श्रर्थका भी प्रतिभाग हो जाय । अतः तदध्यम उत्पन्नही ताज तीनों बनते ही नहीं तब वे प्रामाण्यके प्रति कारण कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते हैं। अतएव जिस प्रकार अयं अपने कारणोंसे होता है उसी प्रकार ज्ञान भी अपने (इन्द्रिय-क्षयोपशमादि ) कारणों ने होता है'। इसलिए संवाद (अव्यभिचार ) को ही ज्ञानप्रामाण्यका कारण मानना सङ्गत और उचित है।' देवा यह मयुक्तिक निरूपण हो उत्तरवर्ती माणिक्यनन्दि, विद्यानन्द, प्रभाचन्द आदि सभी जैन नैयायिकोंके लिए आधार हुआ है। धर्मभूषण ने भी इसी पूर्वपरम्पराका अनुसरण करके बौद्धोंके अर्थानिककारण वाद की सुन्दर समालोचना की है।
तत्कार्यं तदभाव एव भावात् तद्भावे चाऽभावान् भविष्य नार्थमारूप्यभूविज्ञानम् अमूर्त मूर्त्ता एव हि वर्पणादयः मुमुखादिप्रतिविम्बधारिणो दृष्टाः नामूर्त मूतंप्रनिविभून् प्रमुतं च ज्ञानम, मुत्तिधर्माभावात् । न हि ज्ञानेऽर्थोऽस्ति तदात्मको वा येन तस्मिन् प्रतिभासमाने प्रतिभासेत गब्दवत् । ततः तदध्यवसायो न स्यात् । कथमेतदविद्यमान त्रितयं ज्ञानप्रामाण्यं प्रत्युपकारकं स्वात् द्यलक्षणत्वेन ?" लघोष० स्वं ॥ ०
का० ५८ ।
१ "स्वहेतु जनितोऽप्यर्भः परिच्छेद्यः स्वतो यथा ।
तथा ज्ञानं स्वहेतुत्थं परिवात्मकं स्वतः । - लघीय० का ० ५६ ।
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न्याय-दीपिका
१०. सन्निकर्ष
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि नयाधिक भोर दशेषिक सनिकर्षको प्रत्यक्षका स्वरूप मानते हैं । पर वह निर्दोष नहीं है। प्रथम तो, वह अजानरूप है और इ: यह विलित नाम के प्रति कमप्रमाण ही नहीं बन सकता है तब वह प्रत्यक्षका स्वरूप कैस हो सकता है ? दुसरे, सग्निकर्षको प्रत्यक्षका लक्षण मानने में अव्याप्ति नामका दोप प्राता है; क्योंकि चक्षुरिन्द्रिय बिना सनकर्षके ही रूपादिका ज्ञान कराती है । यहाँ यह कहना भी ठीक नहीं है कि वानिन्द्रिय अर्थको प्राप्त करके
पज्ञान' कगती है । कारण, चक्षरिन्द्रिय दूर स्थित होकर हो पदार्थमान कराती हई प्रत्यक्षादि प्रमागास प्रतीत होती है । तीमा प्राप्नमे प्रत्यक्षज्ञानके अभावका प्रसङ्ग पाता है, क्योंकि प्राप्तके इन्द्रिय या इन्द्रियार्थसन्निकर्षपूर्वक ज्ञान नहीं होता । अन्यथा सर्वाना नहीं बन मकती है । कारण. तुम्मादि पदार्थों में इन्द्रियाअंसन्निकार्य सम्भव नहीं है। अतः सन्निका अध्याप्त होने तथा अज्ञानात्मक होनम प्रत्यक्षका नक्षण नहीं हो सकता है। ११. सांधपहारिक प्रत्यक्ष
इन्द्रिय और अनिन्द्रिय नन्य ज्ञानको सामवहारिक प्रत्यक्ष माना गया है। 'साट्यवहारिक उसे इसनिाा कहते हैं कि नाकाम दूसरे दर्शनकार इन्द्रिय और मन सापेक्ष ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं। नास्तान में ना जो ज्ञान परनिरपेक्ष एवं प्रात्ममात्र सापेक्ष तथा पूर्ण निगल है वही ज्ञान प्रत्यक्ष है । अतः लोकव्यवहारको गमन्वय करनेकी दृष्टि से अक्ष जन्य ज्ञानको भी प्रत्यक्ष कहने में कोई अनौचित्य नहीं है । सिद्धान्तकी भाषाम तो उस
१ सर्वार्थ सि० १.२ । तथा न्याविनश्चय का. १६७। २ "साव्यबहारिक इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम्-लघी० स्वो०का० ४।
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प्रस्तावना
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परोक्ष ही कहा गया है । जनदर्शन में संव्याहारिक प्रत्यक्षके जो मतिज्ञानरूप है, भेद और प्रभेद सब मिलकर ३३६ बताये गए हैं। जिन्हें एक नक्शे के द्वारा पहले बता दिया गया है। १२. मुख्य प्रत्यक्ष
दार्शनिक जगतमें प्रायः सभीने एक ऐसे प्रत्यक्षको स्वीकार किया है, जो लौकिक प्रत्यक्षसे भिन्न है और जिस अलौकिक प्रत्यक्ष', योगिप्रत्यक्ष या योगिज्ञान के नामसे कहा गया है। पद्यपि लिसी किसीन इस प्रत्यक्षमें मनकी अपेक्षा भी वणित को ई तचापि योगजधर्मका प्रामुख्य होने के कारण उसे अलौकिक ही कहा गया है। कुछ हो हो, यह अवश्य है कि प्रात्मामे एक अतीन्द्रिय ज्ञान भी सम्भव है। जैनदर्शनमें ऐसे ही प्रात्ममाय सापेक्ष साक्षात्मक अतीन्द्रिय ज्ञानको मुख्य प्रत्यक्ष या पारमार्थिक प्रत्यक्ष माना गया है और जिस प्रकार दूसरे वर्शनों में अलौकिक प्रत्यक्षके भी परिचित्तमान, तारक, कैवल्य या युक्त, युञान प्रादिरूपसे भेद पाये जाते है उसी प्रकार जनदर्शनमें भी विकल, सकल अथवा अवधि, मनःपर्षय और कंवलज्ञका रूपमे मुख्यप्रत्यक्षके भी भेद वणित किये गये है। विशेप यह कि नयायिक और वशषिक प्रत्यक्षानानको अलीन्द्रिय मानकर भी मका अग्नि कयन नित्यज्ञानात्रिकरण ईश्वरमें ही बतलाते हैं। पर जैनदर्शन प्रत्येक प्रात्मा में उसका सम्श्व प्रतिपादन करता है और उग विशिष्ट प्रात्मगुडिसे पंद्रा होनेवाला बतलाता है । प्रा० धर्मभूषणने भी अनेक युक्तियों के साथ मे ज्ञानका उपपादन एनं समर्थन किया है । १२. सर्वज्ञता---
भारतीय दर्शनशास्त्रों में सर्वज्ञताफा बहुत ही गापक और विस्तृत १ "एवं प्रत्यक्षं लौकिकालौकिकभेदेन द्विविधम् ।"-सिद्धान्तमु०पृ० ४७ । २ "तार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्त जें योगिप्रत्यक्षम् ।"-न्यायविन्दु पृ. २० ।
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न्याय-दीपिका
विचार किया गया है । चार्वाक और मीमांसक ये दो ही दर्शन ऐसे है जो सर्वज्ञता का निषेध करते हैं। शेष सभी न्याय-बैंपिक, योग-सांख्य, वेदान्त, वौद्ध और जैन दर्शन सर्वजताफा स्पष्ट विधान करते हैं । पार्शक इन्द्रियगोचर, भौतिक पदार्थोका ही अस्तित्व स्वीकार करते हैं, उनके मतमें परलोक, पुण्यपाप प्रादि अतीन्द्रिय पदार्थ नहीं हैं । भूतप्चतन्यके अलावा कोई नित्य अतीन्द्रिय प्रात्मा भी नहीं है। अतः चार्वाक दर्शनमें प्रतीन्द्रियार्थदर्शी सर्व प्रात्माका सम्भव नहीं है। मीमांसक परलोक, पुण्य-पाप, नित्य प्रात्मा प्रादि प्रतीन्द्रिय पदार्थोको माननं अवश्य है पर उनका कहना कि धर्मापति शादीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान बंदके द्वारा ही हो सकता है। पुरुष तो रागादिदोषों से युक्त हैं। चुकि रागादिदोष स्वाभाविक हैं और इसलिए वे आत्मा से कभी नहीं छूट सकते हैं। मतएव शगादि दोषों के सर्वदा बने रहने के कारण प्रत्यक्षसे धर्माधर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थोका यथार्थ ज्ञान होना सर्वथा असम्भव है । न्याय वोषिक ईश्वर में सर्वज्ञत्व माननेके मतिरिक्त दूसरे योगी प्रात्माओं में भी स्वीकार करते हैं । परन्तु उनका यह सर्वशत्व मोक्ष प्राप्तिके बाद नष्ट हो जाता है । क्योंकि वह योगजन्य होनेसे अनित्य है । हाँ, ईश्चरका सर्वज्ञत्व नित्य एवं शाश्वत है। प्रामः यही मान्यना सांस्य, योग और वेदान्तकी है। इतनी विशेषता है कि वे आत्मामें सर्वशत्व न मानकर बुद्धितत्वगे ही सर्वशत्व मानते हैं जो मुक्त अवस्था में छूट जाता है।
१ "चोदना हि भूतं भवन्तं भविप्यन्त सूक्ष्म व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थमवगर्मायनुमल म्, नान्यत् किश्चनेन्द्रियम् ।"-- शावरभा० १-१-२ । २ "अल्मविशिष्टानां तु योगिनां युक्तानां योगजधर्मानुगृहीतेन भनसा स्वात्मान्तरकाशदिक्कालपरमाणुवायुमनस्सु तत्समयेतगुणकर्मसामान्मविशेषेषु समवाये पावितथं स्वरूपदर्शनमुत्पद्यते । वियुक्तानां पुनः ..।"-प्रशस्तपा भा० पृ. १८७ ।
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प्रस्तावना
मीमांसक दर्शन' जहाँ केवल घमंजताका निषेध करता है और सर्वज्ञताके मानमें इष्टापत्ति प्रकट करता है वहाँ बौद्धदर्शनमें सर्वशताको अनुपयोगी बतलाकर धर्मज्ञता को प्रश्रय दिया गया है। यद्यपि मान्तरक्षित' प्रभृति बौद्ध ताकिकों ने सर्वज्ञताका भी साघन किया है। पर बह गौण है। मुख्यतया बौद्धदर्शन धर्मज्ञवादी ही प्रतीत होता है।
जैनदर्शनमें आगमग्रन्थों और तर्क ग्रन्थों में सर्वत्र धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनोंका ही प्रारम्भसे प्रतिपादन एवं प्रबल समर्थन किया गया है। षट्खण्डागमसूत्रोंमें सर्वजत्व और धर्मज्ञत्वका स्पष्टतः समर्थन मिलता है। प्रा. कुन्दकुन्दने प्रवचनसारमें विस्तृतरूपसे सर्वज्ञताकी सिद्धि की है। उत्तरवर्ती समन्तभद्र, सिद्धसेन, असाल, हरिभा, विधामन्य प्रति जन तार्किकोंने धर्मज्ञत्वको सर्वज्ञत्वके भीतरही गभित करके सर्वगत्व पर महत्वपूर्ण प्रकरण लिखे हैं । समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसाको तो प्रकलङ्कदेवने' 'सर्वज्ञ विशेषपरीक्षा' कहा है। कुछ भी हो, सर्वशताके
१ "धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽश्रीपयुज्यते सर्वमन्यविज्ञानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥"..-तस्व. का. ३१२८ । तत्त्वसंग्रहमें यह श्लोक कुमारिलके नामसे उद्धृत्त हुआ है। २ "तस्मादनुष्ठानगतं मानमस्प विचामताम् । कीटसंख्यापरिज्ञाने तस्य नः क्योपयुज्यते ।। हेयोपादेयतस्वस्य साम्पुपायस्य वेदक:.1 यः प्रमाणमसाविष्ठो न तु सर्वस्य वेदकः ॥"प्रमाणवा- २-३१, ३२ । ३ "स्वर्गापवर्गसम्प्राप्तिहेतुशास्तीति गम्यते । साक्षान्न केवलं किन्तु सर्वज्ञोऽपि प्रतीयते ।" सस्वसं० का ३३.६ । ४ "मुरुमं हि तावत् स्वर्गमोक्षसम्प्रापकहेतुजत्वसाघनं भगवतोऽस्माभिः क्रियते । यत्पुनः अशेषार्थपरिज्ञातृत्वसाधनमस्य तन् प्राणिकम् ।" तत्त्वसं० ५० पृ० ८३३ । ५ "सब्बलोए सव्वजीवे सव्वभागे सव्वं समं जाणदि पस्सदि..,"--खट्खं० पडिअणु० मू० ७८ । ६ देखो, प्रवचनसार, शातमीमीमामा । ७ देखो, अप्टा का. ११४ ।
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न्याय-दीपिका बन्ध मि अधिार विमान बनदर्शगने लिया और भारतीयदर्शनशास्त्रको तत्सम्बन्धी विपुल साहित्यसे समृद्ध बनाया है उतना अम्य दूसरे दर्शनने शायद ही किया हो ।
पक्रलदेवने' सवंशत्वके साधनमें अनेक युक्तियोंके साथ एक युक्ति बड़े मावी कही है वह यह कि सर्वज्ञके सद्भावमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है इसलिए उसका अस्तित्व होना ही चाहिए। उन्होंने जो भी वाधक हो सकते हैं उन सबका सुन्दर दृङ्गसे निराकरण भी किया है । एक दूसरी महत्वपूर्ण युक्ति उन्होंने यह दी है कि 'प्रान्मा 'ज्ञ'—ज्ञाता है और उसके शानस्वभावको ढकनेवाले प्रावरण दूर होते है । अतः आवरणोंके विच्छिन्न हो जानेपर ज्ञस्वभाव आत्माके लिए फिर ज्ञेय-जानने योग्य क्या रह जाता है ? अर्थात् कुछमी नहीं। अप्राप्यकारी ज्ञानसे सकन्नार्थपरिज्ञान होना अवश्यम्भावी है ? इन्द्रियाँ और मन मकलार्थपरिज्ञानमे मायक न होकर बाधक हैं ने जहाँ नहीं हैं और नाबरणाका पूर्णतः प्रभाव है वहाँ
कालिक और त्रिलोकवर्ती यावन् पदार्थों का साक्षात् ज्ञान होनमें कोई बाधा नहीं है। वीरसेनस्वामी' और प्राचार्य विद्यानन्दने' भी इसी आशयके एक महत्त्वपूर्ण श्लोकको उद्धृत करके ज्ञस्वभाव प्रात्मा सर्वज्ञताका उपपादन किया है जो वस्तुतः अकेला ही सर्वज्ञताको सिद्ध करनेमें समर्थ एवं पर्याप्त है। इस तरह हम देखते है कि जनपरम्पराम
१ देखो, अष्टा० का ३ । २ "ज्ञस्यावरणविच्छेदे त्रेयं किमवशिष्यते ।
अप्राप्यकारिणस्तस्मान् सर्वावलोकनम् ।।"-न्यावि. का. ४६५ । तथा देखो, का० ३६१, ३६२ । ३ देखो, जयपबला प्र० भा० पृ० ६६ । ४ देखो, अष्टस० पृ. ५० ।
५ 'शो शेये कथमज्ञः स्यादसत्ति प्रतिबन्धने । दाह्मऽग्निहको न स्यादसति प्रतिबन्धने ॥"
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पाय
मुस्प और निष्पाधिक एवं निरवधि सर्वजता मानी गई है। वह सांस्ययोमाविकी तरह जीवन्मुक्त अवस्था तक ही सीमित नहीं रहती, मुक्त प्रवस्थामें भी मन्तकाल तक बनी रहती है । क्योंकि ज्ञान प्रास्माका मूलभूत पिषी स्वभाव है और सर्वज्ञता प्रावरणाभावमें उसीका विकसिन पूर्णरूप है। इतरदर्शनोंकी तरह वह न तो मात्र यात्ममनः सयोगादि जन्य है और न योगविभुति ही है । या घमंभूषणने स्वामी समन्तभद्रकी सरणिसे सर्वशताका साधन किया है और उन्हींकी सर्वज्ञत्वनायिका सारिकापाका स्फुट विवरण किया है। प्रथम तो सामान्य सर्वनका समर्थन किया है। पान 'निर्दोषत्व' हेतुके द्वारा अरहन्त जिनको हो मर्वज सिद्ध किया है ।
१४. परोक्ष- -
जनदर्शनमें प्रमाणका दूसरा भेद परोक्ष है । यद्यपि बौद्धान' परोक्षा शब्दका प्रयोग अनुमानके विषयभूत अर्थमें किया है। क्योंकि उन्होंने दो प्रकारका प्रर्थ माना है—१ प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष तो साक्षाक्रियमाण है और परोक्ष उससे भिन्न है तथापि जैन परम्परा र 'परोक्ष' शब्दका प्रयोग प्राचीन समयसे परोक्ष ज्ञानमें ही होता चला आ रहा है । दूसरे प्रत्यक्षता और परोक्षला वस्जुनः ज्ञाननिाल धर्म है । भागको प्रत्यक्ष एवं परोक्ष होने से अर्थभी उपचारसे प्रत्यक्ष और परोक्ष कहा जाता है। यह अवश्य है कि जैन दर्शनके इस 'परोक्ष' शब्द का व्यवहार और उसकी परिभाषा दूसरों को कुछ विलक्षण-सी मालूम होगी परन्तु
१ "द्विविधो अर्थः प्रत्यक्ष; परोक्षाच । तत्र प्रत्यक्षविषयः साक्षादिक्रयमाणः प्रत्यक्षः । परोक्ष: गुनरमाक्षात्पररिच्छिद्यमानोनुमेयत्वादनुमानविषय: ।"-प्रमाणप० पृ० ६५ । न्यायवा तात्प० पृ० १५८ । २ "ज परदो विष्णाणं तं तु परोक्न त्ति भगिदमत्थेमु । जदि केवलेण पादं हृवदि हि जीवेण पञ्चवलं ॥"-प्रवचनसागा० ५८ ।
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न्याय-टीपिका
वह इतनी सुनिश्चित और वस्तुस्पर्शी है कि शब्द को तोड़ मरोड़े बिना हो सहजमें आधिक बोध हो जाता है । परोक्षकी जनदर्शनसम्मत परिभाषा विलक्षण इसलिए मालूम होगी कि लोकमें इन्द्रियव्यापार रहित भानको परोक्ष कहा गया है। जबकि जनदर्शन में इन्द्रियादि परकी अपेक्षासे होने वाले ज्ञानको परोक्ष कहा है। वास्तवमै 'परोक्ष' शब्दसे भी यही प्रथं ध्वनित होता है । इस परिभाषाको ही केन्द्र बनाकर प्रकलदेवने परोक्ष को एक दूसरी परिभाषा रची है। उन्होंने अविशद ज्ञानको परोम कहा है' । जान पड़ता है कि अकलङ्कदेवका यह प्रयत्न सिद्धान्त मनका लोकके साय समन्वय करनेकी दृष्टिसे हुअा है। बादमें तो अकलकदेवकृत यह परोक्ष-लक्षण जनपरम्परामें इतना प्रतिष्ठित हुमा है कि उत्तरवर्ती समी जैन तार्किकोंने उसे अपनाया है। यद्यपि सबकी दृष्टि परोक्षको परापेक्ष मानने की हो रही है।
प्रा. कुन्दकुन्दने परोक्षका लक्षण तो कर दिया था, परन्तु उसके भेदोंका कोई निर्देश नहीं किया था। उनके पश्चाद्वर्ती ग्रा० उमास्वातिने परोक्षके भेदोंको भी स्पष्टतया सूचित कर दिया और मतिज्ञान तथा अतशान ये दो भेद बतलाये । मतिज्ञानके भी मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता पौर अभिनिबोध ये पर्याय नाम कहे। कि मति मतिज्ञान सामान्यरूप है । अतः मतिज्ञानके चार भेद हैं। इनमें श्रुतको और मिला देनेपर परोसके फलतः उन्होंने पांचभी भेद सूचित कर दिए और पूज्यपादने उपमानादिक के प्रमाणान्तरत्वका निराकरण करते हुए उन्हें परोक्षमें ही अन्तर्भाव हो जानेका संकेत कर दिया। लेकिन परोक्षके पांच भेदोंकी सिलसिलेवार
१ देखो, सर्वार्षसि० १-१२ । २ सर्वार्थसि० १-११३ ३ "मानस्येव विशदनिर्मासिनः प्रत्यक्षस्वम्, इतरस्य परोक्षता ।"-लघीय स्वो० का० ३ | ४ परीक्षामु० २-१, प्रमानपरो• पृ० ६६ । ५ प्रबचनसा० १-५८ ।
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प्रस्तावना
म्यवस्था सर्वप्रथम अकरा देवने की है'। इसके बाद माणिक्यनन्दि मादि ने परोक्षफे पांच ही भेद वणित किये हैं । हो, आचार्य बादिराजने' अवश्य परोक्षके अनुमान और पागम ये दो भेद बतलाये हैं । पर इन दो मेंदोंकी परम्परा उन्हीं तक सीमित रही है. आगे नहीं चली, क्योंकि उत्तरकालीन किसीभी ग्रन्थकारने उसे नहीं अपनाया। कुछ भी हो, स्मृति, प्रत्यभिमन. तर्क, अनुमान और यागम इन्हें सगैने निर्विवाद परोक्ष-प्रमाग स्वीकार किया है। अभिनव धर्म भूषणने भी इन्ही पांच भेदांका कवन किया है।
१५. स्मृति
यद्यपि अनुभूतार्थविषयक कानके रूपमें स्मृनिको सभी दर्शनोंने स्वौकार किया है । पर जैनदर्शनके सिवाय उसे प्रमाण कोई नहीं मानते हैं। साधारणतया सबका कहना यही है कि स्मृति अनुभव के द्वारा गृहीत विषयमें ही प्रवृत्त होती है, इसलिए गृहीतग्राही होनेसे वह प्रमाण नहीं है। न्याय-वैशेषिक, मीमांसक और बौद्ध सरका प्रायः यही अभिप्राय है। जैनदार्शनिकोंका कहना है कि प्रामाण्यमें प्रयोजक अविसंवाद है। जिस प्रकार प्रत्यक्षसे जाने हुए प्रथमें विसंवाद न होने से वह प्रमाण माना जाता हैं उसी प्रकार स्मृति से जाने हुए अर्थमें भी कोई विसंवाद नहीं होता और जहाँ होता है वह स्मृत्याभास है । अतः स्मृति प्रमाणही होना
१ लघीय. का. १. और प्रमाणसं, का २ । २ "तच्च (परोक्ष) द्विविधमनुमानमागमश्चेति । अनुमानमपि द्विविधं गौणमुविकल्पान् । तर गौणमनुमान विविधम्, स्मरणम्, प्रत्यभिज्ञा, तश्चेति ......!"-प्रमानि० पृ० ३३ । ३ “स प्रमाणादयोऽनषिगतमर्थ समान्यतः प्रकारतो वाऽधिगममन्ति, स्मृतिः पुनर्न पूर्वानुभवमर्यादामतिकामनि, तद्विषया तदूनविषया का न तु तदधिकविषया, सोऽयं वृत्त्यन्सराद्विशेषः स्मृतेरिति विमृशति ।" तस्वशा० १-११। ४ देखो, प्रमाणपरीक्षा पृ० ६६ ।
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न्याय-दीपिका
चाहिए । दूसरे, विस्मरणादिरूप समारोपका वह व्यवच्छेद करती है इत्तलिए भी वह प्रमाण है। तीसरे अनुभव तो वर्तमान अर्थको ही विषय करता है और स्मृति अजीत अर्थको विषय करनी है। अतः स्मृति कथंचिद् अगृहीतग्राही हानसे प्रमाण ही है । १६. प्रत्यभिज्ञान
पूर्वोत्तरविवतंत्री वस्तुको विषय करवाने प्रत्ययको प्रत्यभिज्ञान कहते है। प्रत्यत्रमश, संज्ञा और प्रत्यभिज्ञा ये मोके पर्याय नाम हैं । बौद्ध भिक्षणिकवादी हैं इनाना व उसे प्रमाण नहीं मानते है । उनका कहना है कि पूर्व और उत्तर अवस्याग्राम रहनेवाला जन्न काई एवस्त्र है नहीं तब उसको विपच करनेवाला एक ज्ञान में हो सकता है ? अत: यह वही है' यह आन सादृश्य विषयक है । नयवा प्रत्यक्ष और स्मरणरूप दो जानोंका नमुच्चय है । 'यह अंगको निपय करनेबाला ज्ञान र प्रत्यक्ष है और 'वह' यंशको ग्रहण करनेवाला जागम्मरण है. इस तरह ब दा जान हैं । अताव यदि एकल्लविषयक नान हो भी तो बन भ्रान्त है-- अप्रमाण है । इसके विपरीत गाय-शपिक सौर मीमांमक जो कि स्थिरवादी हैं, एकत्र विषयक ज्ञानको प्रत्यभिज्ञानात्मक प्रमाण नो मानते हैं। पर वे उस ज्ञानको स्वतंत्र प्रमाण न मानकर प्रत्यक्ष नमाण स्वीकार करते हैं' । जनदर्शनका मन्तव्य है कि प्रत्यभिज्ञान न तो बौद्धोंकी तरह अप्रमाण
१ "ननु च नदे।त्यतीतप्रतिभामम्य स्मरणरूपत्वान्, इमिति संत्रेदनस्य प्रत्यक्षरूपत्वान् संवेदनदिनयमेततम् तादृशमेवेदमिति स्मरणप्रत्यक्षसंवेदनद्वितयवत् । तनो नैकंज्ञानं प्रत्यभिज्ञायं प्रतिपद्यमान सम्भवति ।" --प्रमाणप० पृ. ६६ । २ देखो, न्यायदी. पृ० ५८का पुटनोट। ३ "स्मरणप्रत्यक्षजन्मस्य पूर्वोत्तरविवर्तवत्यैकद्वयविषयस्य प्रत्यमित्रानस्यकस्य सुप्रतीतत्वात् । न हि तदिति स्मरणं तथाविषद्रव्यव्यवसायास्मक तस्यातीत
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प्रस्तावना
है और न न्याय-बैशेषिक आदिकी तरह प्रत्यक्ष प्रमाण ही है । किन्तु वह प्रत्यक्ष और स्मरणके अनन्तर उत्पन्न होनेवाला और पूर्व तथा उत्तर पर्यायों में रहनेवाले वास्तविक एकात्य, सादृश्य यादिको विपय करनेवाला स्वतन्त्र ही परोक्ष-प्रमाणविशेप है। प्रत्यक्ष लो मार वर्तमान पर्यायको ही विषय करता है और स्मग्ण अतोन पर्यायको ग्रहण करता है । अत: उभयपर्वावती एकत्वादिकका जाननेवाला मंकलनात्मकः (जोड़रूप) प्रत्यभिज्ञान नामका जुदा ही प्रमाण है। यदि पूर्वोत्तरपर्यायव्यापी एकरवका अपलाप किला जायेगा तो कहीं भी एकत्व का प्रत्यय न होनसे एक सन्तानकी भी सिद्धि नहीं हो सकेगी। अतः प्रत्यभिज्ञानका विषय एकस्वादिसः थास्तविक होने वह प्रमाण ही है-अप्रमाण नहीं । श्रीर विराट् प्रतिभास न होने से उसे प्रत्यक्ष प्रमाण भी नहीं कहा जासवाता है । किन्नु स्पष्ट प्रतीति होने से वह परोदा प्रमाणका प्रत्यभिमान नामक भेदविशेष है । इसके एकवा अभिजान, मादश्यप्रत्यभिज्ञान, वैसादृश्यप्रत्मभिवान प्रादि भनेक भद जनदर्शन में मान गये हैं। यहां यह ध्यान देन योग्य है कि प्राचार्य निधागदने' प्रत्यभिजानके एकात्वध्रत्यभिज्ञान और सादृश्यप्रत्यभिज्ञान ये दो झो भर अनलाय है । लेकिन दूसरे सभी जैनतानिकोंने निग्गिन अनेक-यास यधिक भेद गिनाये हैं। इसे एक मान्यताभेद ही कहा भाराबाता है । मभवानी । कल्य, नादृश्य और वैसादृश्य विषयक तीन प्रत्यभिजानाको सदरणदाता कण्ठीत कहा है
विवर्त्तमात्रगोचमत्वात् । नापीमति संवेदनं तस्य वर्तमानविवर्तमाविपयत्वात । लाम्यामुपजन्यं तु संकलनज्ञान तदनुवादपुरस्सर द्रव्यं प्रत्यवमृशन् ततोऽन्यदेव प्रत्यभिज्ञानमेकत्वविषयं तदपतये क्वचिंदकान्वयाव्यवस्थानात् सन्तानकत्वसिद्धिपि न स्यात् ।'-प्रमाणप० पृ ६६, ७० ।
१ देखो, तस्वार्थश्लो० पृ० १६०, प्रष्टस पृ. २७६, प्रमाणपरी० पृ० ६६ ।
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म्याय-दीपिका
और यथाप्रतीति अन्य प्रत्यभिज्ञानों को भी स्वयं जानने की सूचना की है। इससे यह मालूम होता है कि प्रत्यभिज्ञानों की दो या तीन आदि कोई निश्चित संख्या नहीं है। अकलङ्कदेव', माणिक्यनन्दि और लघु मनन्दवीर्यने' प्रत्यभिज्ञानके बहुभेदों की ओर स्पष्टतया संकेत भी किया है। इस उपर्युक्त विवेचनसे यही फलित होता है कि दर्शन और स्मरणसे उत्पन्न होनेवाले जितने भी संकलनात्मक ज्ञान हों वे सब प्रत्यभिज्ञान प्रमाण समझना चाहिए । भले ही वे एकसे अधिक क्यों न हों, उन सबका प्रत्य भिज्ञानमें ही यन्तर्भाव हो जाता है। यही कारण है कि नैयायिक जिस सायत्यिक ज्ञानसे वह जैनदर्शन में सादृश्यप्रत्यभिज्ञान है। उपमानको पृथक् प्रमाण माननेकी हालत में वैसादृश्य, प्रतियोगित्व, दूरत्व आदि विषयक ज्ञानों को भी उसे पृथक् प्रमाण मानने का आपादन किया गया है'। परन्तु जैनदर्शन में इन सबको संकलनात्मक होनेसे प्रत्यभिज्ञानमें ही प्रन्तर्भाव कर लिया है ।
१७. तर्क
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सामान्यतया विचारविशेषका नाम तक है। उसे चिन्ता, कहा, ऊहापोह प्रादि भी कहते हैं। इसे प्रायः सभी दर्शनकारोन माना है। न्यायदर्शन में वह एक पदार्थान्तररूपसे स्वीकृत किया गया है। तर्कके प्रामान्य और प्रत्रामायके सम्बन्ध में न्यायदर्शनका' अभिमत है कि तर्क न तो प्रमाणचतु
१ देखो, लघीय० का २१ । २ परीक्षामु० ३-५ - १० । ३ प्रमेयर० ३ १० |
४ "उपमानं प्रसिद्धार्थसाधर्म्यात् साध्यसाधनम् ।
यदि किविशेषेण प्रमाणान्तरमिष्यते ॥
प्रमितोऽर्थः प्रमाणानां बहुभेदः प्रसज्यते ।" न्यायवि० का० ४७२ | तथा का० १६,२० । ५ देखो न्यायसूत्र १-१-१ । ६ "तक न प्रमाणसंग्रहीतो न प्रमाणान्तरमपरिच्छेदकत्वात्प्रमाणविषयविभागात्तु
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प्रस्तावना
प्टयके अन्तर्गत कोई प्रमाण है और न प्रमाणान्तर है क्योंकि वह अपरिसछेदक है। किन्तु परिच्छेदकप्रमाणोंके विषयका विभाजक—युक्तायुक्त विचारक होनेसे उनका यह अनुपाहक--सहकारी है। तात्पर्य यह कि प्रमाणसे जाना हुआ पदार्थ तर्कके द्वारा पुष्ट होता है। प्रमाण अहाँ पदार्थोको जानते हैं वहाँ तकं उनका पोषण करके उनकी प्रमाणताके स्थितीकारणमें सहायता पहुंचाता है। हम देखते हैं कि न्यायदर्शनमें तर्कको प्रारम्भमें सभी प्रमाणोंके सहायकरूपसे माना गया है। किन्तु पीछे उदयनाचार्य वर्खमानोपाध्याय' प्रादि पिछले नैयायिकोंने विशेषतः अनुमान प्रमाणमें ही व्यभिचारशङ्काके निवत्तंक और परम्परया व्याप्ति
प्रमाणानामनुग्राहकः । यः प्रमाणानां विषमस्तं विभजते । कः पुर्विभागः? युक्तायुक्तविचारः । इदं युक्तमिदमयुक्तिमिति 1 यत्तत्र युक्तं मवति तदनुजानाति नस्ववधारयति । अनवधारणात् प्रमाणान्तरं न भवति ।"न्यायवा० पृ. १७ ।
१ "तर्कः प्रमाणसहायो न प्रमाणमिति प्रत्यक्षसिद्धत्वात् ।"-न्याय. वा० ता परिशु०पृ. ३२७ । "तथापि तकस्यारोपिताव्यवस्थितसत्त्वीपापिकसत्वविषयस्वेनानिश्चायकतया प्रमारूपत्वाभावात् । तथा च संशयानच्युतो निर्णयं चाप्राप्तः तक इत्याहुः अन्यत्राचार्याः । संगयो हि दोलामितानेककोटिकः । तर्फस्तु नियतां कोटिमालम्ब्यते 1" तात्पर्यपरिशु० पृ० ३२६ । २ "अनभिभलकोटावनिष्टप्रसंगेनानियतकोटिसंशयादिनिवृत्तिस्पोऽनुमितिविषयविभागस्तकेंण क्रियते ।"-तात्पर्यपरिशु पृ० ३२५ ।। "तकः शङ्कावधिर्मतः ।' 'यावदाशङ्क तर्कप्रवनः । तेन हि वर्तमानेसोपाधिकोटौ तदायत्तव्यभिचारकोटी वाऽनिष्टमुपनगनफ्छा विच्छिद्यते । विच्छिनविपक्षेच्छश्च प्रमाता भूयोदर्शनोपलब्धसाहचर्य लिङ्गमनाकुसोऽधितिष्ठति ।"-न्यायकु. ३-७ । ३ "तर्कसहकृतभूयोदर्शनजसंस्कारसपिवप्रमाणेन व्याप्तिते ।"-न्यापकुसु. प्रकाश. ३-७ ।
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न्याय-वापिका ग्राहकरूपसे तर्कको स्वीकार किया है । तथा व्याप्तिमें ही तर्कका उपयोग बतलाया है। विश्वनाथ पञ्चाननका कहना है कि हेतुमें मनयोजकस्वादिकी शङ्काकी निवृत्ति के लिए तर्क अपेक्षित होता है। जहाँ हेतुमें मप्रयोजकत्वादिको शङ्का नहीं होती है वहां तर्क अपेक्षित भी नहीं होता है। तसंग्रहकार अग्नम्भट्टते' तो तर्कको अयथार्यानुभव (अप्रमाण) ही बतलाया है । इस तरह न्यायदर्शन में तर्कको मान्यता अनेक तरह की है पर उसे प्रमाणरूपमें किसीने भी स्वीकार नहीं किया । बौद्ध तर्कको व्याप्तिग्राहक मानते तो हैं पर उसे प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्प कहकर अप्रमाण स्वीकार करते हैं । मीमांसक' ऊहके नामसे तकको प्रमाण मानते हैं।
जनताकिक प्रारम्भसे ही तकने प्रामाण्पको स्वीकार करते हैं और उसे सकलदेशकाल व्वापी अविनाभावरूप व्याप्तिका ग्राहक मानते आये हैं । व्याप्तिग्रहण न तो प्रत्यक्षसे हो सकता है। क्योंकि यह सम्बद्ध और वर्तमान अर्थको ही ग्रहण करता है और व्याप्ति सर्वदेशवालके उपमहारपूर्वक होती है । अनुमानस भी व्याप्तिका ग्रहण सम्भव नहीं है । कारण, प्रकृत अनुमानसे भी व्याप्तिका ग्रहण माननेपर अन्योन्याश्रय और अन्य अनुमानसे माननेपर अनवस्था दोष पाता है । अतः स्याप्तिक ग्रहण करनेके लिए तर्कको प्रमाण मानना आवश्यक एवं अनिवार्य है । धर्मभूषणने भी तर्फको पृषक प्रमाण माक्तिक सिद्ध किया है। १८. अनुमान--
यद्यपि चार्वाक सिबाय न्याय-वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक और बाद सभी दर्शनोंने अनुमानको प्रमाण माना है और उसके स्वार्थानुमान
१ "तत्र का व्याप्तिर्यत्र तर्कोपयोगः । न तावत् स्वाभाविकत्वम्।" -न्यायकुसु० प्रकाश० ३.७। २ देखो, न्यायमूत्रवृत्ति १-१-४० । ३ देखो, सर्कसं० पृ. १५६ । ४ "त्रिविधश्च ऊदः मंत्रसामसंस्कारविषयः।" -- शावरभा० ६-१-१ ।
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प्रस्तावना
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तथा परार्थानुमान ये दो भेद भी प्रायः सभीने स्वीकार किये हैं । पर लक्षणके विषय में सबको एकवाक्यता नहीं है । नैयायिक पाँचरूप हेतुसे धनुमेयके ज्ञानको अथवा अनुमितिकरण ( लिङ्ग परामर्श ) को अनुमान मानते हैं। वंशेषिक', सांख्य' और बौद्ध त्रिरूप लिङ्गसे अनुमेयार्थज्ञानको अनुमान कहते हैं । मीमांसक' प्रभाकरके अनुगामी) नियतसम्वन्ध कदर्शनादि चतुष्टय कारणों (चतुर्लक्षण लिए) से साध्यज्ञान को अनुमान वर्णित करते हैं।
जैन दार्शनिक अविनाभावरूप एकलक्षण साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमान प्रतिपादन करते हैं। वास्तव में जिस हेतुका साध्य के साथ मवि - नाभाव ( विना - साध्य के प्रभाव में -अ-साधनका न-भाव होना श्रर्थात् अन्यथानुपपत्ति निश्चित है उस साध्याविनाभावि हेतुसे जो साध्यका ज्ञान होता है वहीं अनुमान है। यदि हेतु साध्यके साथ अविनाभूत नहीं है
१ देखो, म्यापका० १-१-५। २ "लिङ्गदर्शनान् सञ्जायमानं लैङ्गिकम् । लिंगं पुनः - यदनुमेयेन सम्बद्धं प्रसिद्धं च तदन्विने तदभावे च नास्त्येव तल्लिगमनुमापकम् ॥ यदनुमेयेनार्थेन देशविशेष कालविशेषे वा सहचरितमनुमेयधर्मान्विते चान्यत्र सर्वस्मिन्नेकदेशे वा प्रसिद्धमनुमेयविपरोते च सर्वस्मिन् प्रमाणतोऽसदेव तदप्रसिद्धार्थस्यानुमापकं लिङ्ग भवतीति । " - प्रशस्तपा० भा० पृ० १०० । ३ माठ० ० ५ । ४ अनुमानं लिंगादर्यदर्शनम् लिङ्ग पुनस्त्रिरूपमुक्तम् । तस्माद्यदनुमेयेऽखें ज्ञानमुत्पद्यतेऽग्निरव प्रनित्यः शब्दः इति वा तदनुमानम् ।"— न्यायप्र० पृ० ७ । ५ "ज्ञातसम्बन्aनियमस्यैकदेशस्य दर्शनात् । एक देशान्तरे बुद्धिरनुमानमबाधिते ॥ तस्मात्पूर्णमिदमनानुकारणपरमणनम् — नियतसम्बन्धैकदेशदर्शनं सम्बन्धनियमस्मरणं चाबाधकञ्चादातिविषयत्वं पेति ।" प्रकरणपजि० पु० ६४, ७६
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न्याय-दीपिका तो यह साध्यका अनुमापक नहीं हो सकता है और यदि साध्यका अविनाभावी है तो नियमसे वह साध्यका मान करायेगा । अतएव बन ताकिकोंने त्रिरूप या पञ्चरूप आदि लिंग से जनित शानको पनुमान न कह कर अविनाभावी साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमानका लक्षण कहा है। प्राचार्य धर्मभूषणने भी अनुमानका यही लक्षण बतलाया है और उसका सयुक्तिक विशद व्याख्यान किया है।
१६. अवयवमान्यता__ परार्थानुमान प्रयोगके अवयवोंके सम्बन्धमें उल्लेखयोग्य और महत्व की न है, जो ऐतिहासिक दुष्टिस जानने योग्य है । दार्शनिक परम्परा में सबसे पहिले गौतमने' परार्थानुमान प्रयोगके पांच भवयोंका निर्देश किया है और प्रत्येकका स्पष्ट कयन किया है। वे अवयय ये हैं-१ प्रतिमा २ हेतु, ३ उदाहरण, ४ उपनय और निगमन । उनके टीकाकार वात्स्यायनने नैयायिकोंकी दशावयवमान्यताका भी उल्लेख किया है। इससे कम या और अविफ अवयवोंकी मान्यताका उन्होंने कोई संकेत नहीं किया। इससे मालूम होता है कि वात्स्यायनके सामने सिर्फ दो मान्यताएं थीं, एक पवावयवकी, जो स्वयं सूत्रकारको है और दूसरी दशाक्यदोंकी, जो दूसरे
१ "लिङ्गात्साध्याविनाभावाभिनिवोपकलसणात् । लिङ्गिवीरनुमान तत्फलं हानादिबुद्धयः ।।"--लधीय. का. १२ । "साधनात् साध्यविनानमनुमानम् .।"--ज्यापवि. का० १७० । "साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम् ।"-परीक्षाम० ३-१४ । प्रमाणपरी० पृ०७० ।
२ "प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनर्यानगमनान्यवयवाः ।" स्यामसुत्र १-१.३२ ३ "दशावयवानित्ये के नैयायिका वाक्ये संचाते—जिमासा संशयः शल्यप्राप्ति: प्रयोजन संशयव्युदास इति ।"-म्यापवास्था मा० १-१.३२ ।
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प्रस्तावना
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किन्हीं नैयायिकोंकी है भागे चलकर हमें उद्योतकरके न्यायवार्तिक में खण्डन सहित तीन अवयवोंकी मान्यताका निर्देश मिलता है। यह मान्यता बौद्ध विद्वान् दिग्नागकी है। क्योंकि वात्स्यायन के बाद उद्योतकरके पहले दिग्नागने' ही अधिक से अधिक तीन अवयव स्वीकृत किये हैं । सांख्यविद्वान् माठर यदि दिग्नागके पूर्ववर्ती है तो तीन अवयवोंकी मान्यता माठरकी' समझना चाहिए। वाचस्पति मिश्र दो श्रवयव ( हेतु चोर दृष्टान्त) की मान्यताका उल्लेख किया है औौर तोन भवयवनिषेधको सरह उसका निषेध किया है। यह की मान्यता रोद्ध तार्किक धर्मकीर्तिकी है, क्योंकि हेतुरूप एक श्रवयवके अतिरिक्त हेतु भोर दृष्टान्त दी Marathi भी धर्मकीतिने' ही स्वीकार किया है तथा दिग्नागसम्मत पक्ष, हेतु और दृष्टान्तमें से पक्ष ( प्रतिज्ञा ) को निकाल दिया है। मतः वाचस्पति मिश्रने धर्मकी निकी ही घवयव मान्यताका उल्लेख किया है और उसे प्रतिज्ञाको माननेके लिए संकेत किया है। यद्यपि जैनविद्वा
१ "अपरे व्यवमचमिति x x x व्यवयवमपि वाक्यं यथा न भवति तथोपनयनिगमनयोरर्थान्तरभावं वर्णयन्तो वक्ष्यामः । " न्यश्यवा० पृ. १०७, १०६ । २ " पक्षहेतुदृष्टान्तवचनहि प्राश्निकानामप्रतीतोऽर्थः प्रतिपाच इति ........ एतान्येव त्रयोऽवयवा इत्येच्यन्ते ।" - न्यायप्र० पृ० १.२ । ३ " पक्षहेतुदृष्टान्ता इति व्यवयवम् ।" - मरठरवृ० का० ५४ "ষयवग्रहणमुपलक्षणार्थम्, द्वघवयवमपीत्यपि दृष्टव्यम्.....त्र्यवयवमपीत्यपिना दूधवयवप्रतिषेध समुच्चिनोति उपनयनिगमनयांरित्यत्र प्रतिज्ञाया पीति दृष्टव्यम् |" -- च्यापषा० तत्प० पू० २६६, २६७ । ५ प्रथवा तस्यैव साघनस्य यन्त्रानं प्रतिज्ञोपनयनिगमनादि।" - वादन्या० १० ६१ । "तद्भाषभाषी हि दृष्टान्ते तदवेदिनः । स्याप्येते विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवलः । " प्रमाणवा ० १ १२६ ।
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न्याय-दीपिका
नौने' भी दो पर पदों को माना है गर उनी पस. यु. मान्यतासे भिन्न है । ऊपरकी मान्यतामें तो हेतु और दृष्टान्त थे दो अवयव हैं और जैन विद्वानों की मान्यतामें प्रतिज्ञा और हेतु ये दो अवयव है । जैन तार्किकोंने प्रतिज्ञाका समर्थन प्रौर दृष्टान्तका' निराक ग किया है। तीन अवयवोंकी मान्यता सांस्यों (माटर का. ५) और बौद्धोंके अलावा मीमांसकों (प्रकरण पु. ८१-८५) की भी है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि लघु अनन्तवीर्य (प्रमेयर० ३-३६) और उनके अनुमा हेमचन्द्र (प्रमाणगी. २-१-८) मोमांसदोंकी चार अवयव मान्पनाका भी उल्लेख करते है यदि इनका उल्लेत चीक है ता कहना होगा कि चार अवयनोंको मानने वाले भी कोई मीमांसद रहे हैं। इस तरह हम देखते हैं कि दशावयव और पञ्चावयवको मान्यता नैयायिकों की है । चार और तीन अवायोंकी मीमांसकों, तीन अवयवोंकी सांस्मों, तीन, दो और एक अवयवोंकी चौद्धों और दो अवयवों की मान्यता नोंकी है । वादिदेवपूरिने धर्म कोसिकी तरह विद्वानके लिए अनेने हेतुका भी प्रयोग बनलाया है । पर अन्य सभी दिगम्बर और श्वेताम्बर विद्वानोंने पनि मानगोग के कमने कम दो अजयत्र अवश्य स्वीकृत किये हैं। प्रतिपाकिचन गेघर तो तीन, चार और पविभी अन्नयन माने है। प्रा. धर्मभूषणने पूर्व परम्परानुसार वादकमानी अपेक्षा दो और वीतरागकथाकी प्रोपेक्षा अधिक अवयवों के भी प्रयोगका समर्थन किया हैं।
१ "एसवय मेवानुमानांग नोदाहरणम् ।"--परोक्षामु० ३-३७ । २ देखो, परीक्षामु० ३-३४ । ३ देखो, परोक्षामु० -१८-४३ । ४ नियुक्तिकार भद्रबाहुने (दशः नि० गा० १३७) भी वशावयौंका कथन किया है पर वे नैयायिकोंसे भिन्न हैं। ५ देखा, स्वाहावरत्नाकर पृ. ५४८
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प्रस्तावना
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२०. हेतुका लक्षण
हेतुके लक्षणसम्बन्धमें दार्शनिकोंका भिन्न भिन्न मत है । वैशेषिक', सांख्य और बौद्ध' हेतुका रूप्य लक्षण मानते हैं। यद्यपि हेतुका विरूप लक्षण अधिकांशतः बौद्धोंका ही प्रसिद्ध है, वशेषिक और सांख्योंका नहीं । इसका कारण यह है कि रूप्यके विषयमें जितना सूक्ष्म और विस्तृत विचार बौद्ध विद्वानोंने किया है तथा हेतुबिन्दु जैसे तद्विषयक स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना की है। उतना वैशेषिक और सांख्य विद्वानोने न तो विचार ही किया है मौर न कोई उस विषयके स्वतन्त्र ग्रंथ ही लिखे हैं। पर हेतुके रूप्यको मान्यता वैशेषिक एवं सांस्योंकी भी है। और वह बोड़ोंकी अपेक्षा प्राचीन है। क्योंकि बौडोंकी घरूप्यकी मान्यता तो वसुबन्धु और मुख्यतया दिग्नागसे, ही प्रारम्भ हुई जान पड़ती है । किन्तु वैशेषिक और सांख्योंके रुप्यकी परम्परा बहुत पहलेसे चली प्रारही है । प्रशस्तपादने अपने प्रशस्तपादभाष्य (पृ. १०० में काश्यप पोर(कणाद! कथित दो पद्योंको उद्धृत किया है, जिनमें पक्षषमत्व, सपक्षसत्त्व भौर
१ देखो, प्रस्तावना पृ० ४५ का फुटनोट । २ सांख्यका० माठर वृ० ५। ३ "हेतुस्विरूपः । कि पुनस्त्ररूप्यम्? पक्षधर्मत्वम्, सपक्षे सत्यम, विपक्षे घासत्वमिति ,"-म्यापप्र० पृ० १। यही वजह है कि तर्कग्रन्थों में बौद्धाभिमत ही रूप्य का विस्तृत खण्डन पाया जाता है भौर 'त्रिलक्षणकदर्थन' जैसे ग्रन्थ रचे गये हैं। ५. ये दिग्नाग (४२५A.D.) के पूर्ववर्ती हैं और लगभग तीसरी चौथी शताब्दी इनका समय माना जाता है । ६ उद्योतकरने 'काश्यपीयम्' शब्दोंके साथ न्यायवात्तिक (पृ० ६६) में कणादका संशयलक्षणयाला 'सामान्य प्रत्यक्षान्' आदि मूत्र उद्धृत किया है । इससे मालूम होता है कि काश्यप कणादका ही नामान्तर या, बो क्शेषिकदर्शनका प्रणेता एवं प्रवर्तक है।
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न्याय-दीपिका
विपक्षश्यावृत्ति इन तीन रूपोंका स्पष्ट प्रतिपादन एवं समर्थन है मौर माठरने अपनी सांख्यकारिकावृत्तिमें उनका निर्देश किया है । कुछ भी हो, यह अवश्य है कि त्रिरूप लिङ्ग को वशषिक, सांस्य और बौद्ध तीनोंने स्वीकार किया है।
नयामिक' पूर्वोक्त तीन रूपोंमें अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व इन दो रूपोंको और मिलाकर पांवरूप हेतुका कथन करते हैं। यह रूप्य
और पाँच रूप्यकी मान्यता अत्ति प्रसिद्ध है और जिसका खण्डन मण्डन न्यायग्रन्थों में बहुलतया मिलता है। किन्तु इनके अलावा भी हेतुके द्विलक्षण, चतुर्लक्षण और पलक्षण एवं एकलक्षणकी मान्यतामोंका उल्लेख तर्क ग्रन्थोंमें पाया जाता है। इनमें चतुलक्षणको मान्यता संभवत: मीमांसकोंकी मालूम होती है, जिसका निर्देश प्रसिद्ध मीमांसक विदान प्रभाकरानुयायी शालिकानाथने किया है । उद्योतकर' मोर वाचस्पति मिश्रके' अभिप्रायानुसार पंचलक्षण की तरह द्विलक्षण, विलक्षण और
१ "गम्यतेऽनेनेति लिङ्गम्; तच्च पञ्चलक्षणम्, कानि पुनः पञ्चलक्षणानि ? पक्षधर्मत्वम्, सपक्षधर्मत्वम्, विपक्षाच्यावृत्तिवाधितविषयस्वमसत्प्रतिपनत्वं चेति । ....एतैः पंचभिलक्षणरुपपन्न लिङ्गमनुमापर्क भवति ।"-न्यायमं• पृ० १०१ । न्यायकलि० पृ. २ । न्यामवा० ता. पृ० १७१ । २ देखो, प्रस्तावना पृ० ४२ का फुटनोट । ३ "साध्ये व्यापकत्वम्, उदाहरणे चासम्भवः । एवं द्विलक्षणस्विलक्षणय हेतुलं. म्यते ।"-न्यायवा० पृ० ११६ । "ष शब्दात् प्रत्यक्षागमाविरुद्ध चैत्येवं चतुर्लक्षणं पंचलक्षणमनुमानमिति ।"-न्यायवा० पृ० ४६ । ४ “एतदुक्तं भवति, प्रावितविषयमसत्प्रतिपक्षं पूर्ववदिति ध्रुव कूत्वा शेषदित्येका विधा सामान्यतोदृष्टमिति द्वितीया, शेषवत्सामान्यतोदृष्टमिति तृतीया, तदेवं त्रिविषमनुमानम् । तत्र चतुसंक्षणं द्वयम् । एकं संचलक्षमिति ।" --स्यायवा ता० पृ० १७४ ।
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प्रस्तावना
चतुलक्षणकी मान्यताएं नैयायिकोंकी ज्ञात होती हैं । यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि जयन्तभट्ट'ने पञ्चलक्षण हेतुका हो समर्थन किया है, उन्होंने प्रपञ्चलक्षणको हेतु नहीं माना। पिछले नैयायिक शङ्करमिश्रने' हेतुकी गमकतामें जितने रूप प्रयोजक एवं उपयोगी हों उतने रूपोंको हेतुलक्षण स्वीकार किया है और इस तरह उन्होंने अन्य यव्यतिरेकी हेतुमें पांच और केपलान्वयी सथा केवलब्यतिरेकी हेतुओंमें चार ही रूप गमकतोपयोगी बतलाये हैं । यहां एक खास बात और ध्यान देनेकी है यह यह कि जिस अविनाभावको जनताकिकोंने हेतुका लक्षण प्रतिपादन किया है, उसे अपन्तभट्ट और वाचस्पतिने पंच लक्षणों में समाप्त माना है। अर्थात् अविनामावके वाराही सर्व रूपोंके ग्रहण हो जाने पर जोर दिया है, पर के अपनी पंचलक्षण या आर लक्षणवाली नैयायिक परम्पराके मोहका त्याग नहीं कर सके | इस तरह नैयायिकोंके यहां कोई एक निश्चित पक्ष
१"केवलान्वयी हेतु स्त्येव अपश्चलक्षणस्य हेतुस्वाभावात् । केवलज्यतिरेको तु क्वचिद विषयेऽन्वयव्यतिरकमूलः प्रवर्तते नात्यन्त मन्वयबाह्यः।" -न्यायकलि० पृ. १० । २ "केवलान्वयिसाध्यको हेतुः केवलान्वयो । अस्य 4 पक्षसत्त्वसपक्षसत्वाबाधितासत्प्रतिपक्षितत्वानि चत्वारि रूपाणि गमकस्वोपयिकानि । अन्वयन्यतिरेकिणस्त हेतोविपक्षासत्वेन सह पंच । केवलम्यतिरेकेणः सपक्षसत्वयतिरेवेण चत्वारि । तथा च यस्य हेतोर्यावन्ति रूपाणि गमकतापयिकानि स हेतुः ।".--शेषिक उप० पू०१७। ३ "एतेषु पंचलक्षणेषु अविनाभावः समाप्यते । अविनाभायो व्याप्निनियमः प्रतिबन्धः साध्याविनाभाबित्यमित्यर्थः ।"-- न्यायकलि० पृ. २ ॥ ४ "यद्ययविनाभाव: पंचसु चतष का रूपेषु लिङ्गस्य समाप्यते इत्यविनाभावेनैव सर्वाणि लिङ्गरूपाणि सगृह्यन्ते, नथापीह प्रसिद्धसच्छन्दाभ्यां द्वयोः सङ्ग्रहे गोवलीवदन्यायेन तत्परित्यज्य विपक्षव्यतिरेकासप्रतिक्षत्वावाघितविषयत्वानि सङ्गृह्णाति ।"--न्यायवा ता. पृ० १५८ ।
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न्याय-दीपिका
रद्दा मालूम नहीं होता । हाँ, उनका पत्रिरूप हेतुलक्षण प्रषिक एवं मुख्य प्रसिद्ध इसीजिये उसांक जान है।
बौद्ध विद्वान धर्मकीर्तिने 'अपरे' शब्दोंके साथ, जिसका श्रचंटने' 'नैयायिक और मीमांसकों आदि अर्थ किया है। हेतुकी पंचलक्षणों के साथ ज्ञातत्वको मिलाकर बड़लक्षण मान्यता का भी उल्लेख किया है। यध्यपि यह षड्लक्षणवाली मान्यता न तो नैयायिकों के यहाँ उपलब्ध होती है और न मीमांसकों के यहाँ हो पाई जाती है फिर भी सम्भव है कि प्रचंट के सामने किसी नैयायिक या मीमांसकादिका हेतुको षड्लक्षण माननेका पक्ष रहा हो और जिसका उल्लेख उन्होंने किया है। यह भी सम्भव है कि प्राचीन नैयायिकोंने जो ज्ञायमान लिङ्गको भर माट्टोंने ज्ञातिता को अनुमिति कारण माना है और जिसकी प्रालोचना विश्वनाथ पंचाननने" की है उसीका उल्लेख श्रचंटने किया हो ।
एकलक्षणकी मान्यता प्रसन्दिग्वरूपसे जैन विद्वानोंकी है, जो अविनाभाव या अन्यथानुपपत्तिरूप है और कल देवके भी पहिले से चली आ रही है। उसका मूल सम्भवतः समन्तभद्रस्वामीके 'सममेव साध्यस्य साम्यदविरोधितः' ( प्राप्तमी० का० १०६ ) इस वाक्यके 'अविशेषत:
१ "पलक्षणो हेतुरित्यपरे नयायिकमीमांसकादयो मन्यन्ते । कानि पुनः षड्रूपाणि हेतोस्तैरिष्यन्ते इत्याह श्रीणि वैतानि पक्षषमन्वियव्यतिरेकास्पाणि, तथा भवाधितविषयत्वं चतुर्थं रूपम् तथा विवक्षितंकसंख्यत्वं म्हपान्तरं तथा ज्ञातत्वं च ज्ञानविषयत्वं च न ज्ञातो हेतुः स्वसत्तामात्रेण गमको युक्त इति ।"- हेतुवि० पृ० ६८ हेतुवि० टी० पृ० २०५ । २ " प्राचीनास्तु व्याप्यत्वेन जायमानं लिङ्गमनुमितिकरणमिति वदन्ति । तद्दूषयति मनुमायां जायमानं लिङ्ग तु करणं न हि ।" - सि० ० मु० पृ० ५० | "भाट्टानां मते ज्ञानमतीन्द्रियम् । ज्ञानजन्या ज्ञातता प्रत्यक्षा तथा ज्ञानमनुमीयते ।" - सि० मु० पृ० ११६ ।
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प्रस्तावना
पदमें सन्नहित है। अकलङ्कदेवने' उसका वैसा विवरण भी किया है। और विद्यानन्दने' तो उसे स्पष्टतः हेतुलक्षणका ही प्रतिपादक कहा है। प्रकलङ्कके पहिले एक पात्रकारी या पात्रस्वामी नाम के प्रसिद्ध नारा भी हो गये हैं जिन्होंने श्रेष्यका कदन करनेके लिए 'त्रिलक्षगकरधन' नामक ग्रन्थ रचा है और हेतुका एकमात्र 'अन्यषानुपपन्नत्व लक्षण स्थिर किया है। उनके उत्तरवर्ती सिखसेन' प्रकला, वीरसेन', कुमारनन्दि, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र, वादिराज, वादिदेवमूरि और हेमचन्द्र आदि सभी जनतार्किकोंने अन्यथानुपपन्नाव (अविनाभाथ) को ही हेतुका लक्षण होनेका सबलताके साथ समर्थन किया है । वस्तुतः अविनाभाव ही हेतुकी गमतामें प्रयोजक है 1 नवाञ्चय तो गुप्त एवं गानिनाभावका ही विस्तार हैं । इतना ही नहीं दोनों अव्यापक भी हैं। कृत्तिकोदयादि हेतु पक्षधर्म नहीं है फिर भी अविनाभाव रहनेसे गमक देखे जाते हैं। आ० वर्मभूषणने भी रूप्य और पाचरूप्यकी सोपपत्तिक आलोचना करके 'प्रन्ययानुपपन्नत्वं' को ही हेतुलक्षण सिद्ध किया है और निम्न दो कारिकाभोंके द्वारा अपने वक्तव्यको पुष्ट किया है :
१ "सपक्षेणैव साध्यस्य साधादित्यनेन हेतोस्त्रलमण्यम्, अविरोधात् इत्यन्यथानुपपसि च दर्शयता केवलस्य विलक्षणस्यासाघनत्वमुक्तं तत्पुत्रत्वादिवत् । एकलक्षणस्य तु गमकस्वं "नित्यत्वकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते" इति बहुलमन्यथानुपपत्तेरेव समाश्रयणात् ।- मष्टाः पापामी० का० १०६ । २ "भगवन्तो हि हेतुलक्षणमेव प्रकाशयन्ति, स्याद्वादस्य प्रकाशितत्यात् ।"--मष्टस• पृ० २८६ । ३ सिद्धसेनने 'अन्यथा. नुपपन्नत्व' को 'मन्यथानुपपन्नत्वं हेतोलक्षणमीरितम्' (न्यायवाका० २१) शब्दों द्वारा वोहराया है मौर 'इरितम्' शब्दका प्रयोग करके उसको प्रसिद्धि एवं अनुसरण स्थापित किया है । ४ देखो, षषला. पु०१३, पृ० २४६ ।
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न्याय-दीपिका
अन्यथानुपपन्नत्वं पत्र तत्र अयेण किम् । नान्यथानुषपन्नत्वं यत्र तत्र प्रयेण किम् ।। अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र कि तत्र पञ्चभिः ।। इनमें पिछली कारिका प्राचार्य विद्यानन्दकी स्वोपज्ञ है और वह प्रमाणपरीक्षामें उपलब्ध है। परन्तु पहली कारिका किसकी है ? इस सम्बन्ध में यहाँ कुछ विचार किया जाता है।
इसमें सन्देह नहीं कि यह भारिया भाग वगन लि रची गई है और वह बड़े महत्वकी है। विद्यानन्दने अपनी उपर्युक्त कारिका भी इसीके आधार पर पांचरूप्यका स्वण्डन करनेके लिए बनाई है। इस कारिकाके कर्तृत्वसम्बन्ध में ग्रन्थकारोंका मतभेद है। सिद्धिविनिश्चय टीकाके का अनन्तवीर्यने उसका उद्गम सीमन्धरस्वामीसे बतलाया है। प्रभाचन्द्र और वादिराज' कहते हैं कि उक्त कारिका सोमन्धरस्वामीके समवशरणसे लाकर पावतीदेवीने पात्रकेशरी अथवा पावस्वामीके लिए समर्पित की थी । विद्यानन्द उसे वात्तिककारको कहते हैं । वादिदेवसूरि' और शांति रक्षित' पात्रस्वामीकी प्रकट करते हैं । इस तरह इस कारिका के कत्तुं त्वका अनिर्णय बहुत पुरातन है।
देखना यह है कि उसका कर्ता है कौन ? उपर्युक्त मभी ग्रन्यकार ईसाकी आठवीं शताब्दीसे ११वीं शताब्दीके भीतर हैं और शान्तरक्षित (७०५-७६३ ई.) सबमें प्राचीन हैं। शान्तरक्षितने पात्रस्वामीके नामसे और भी कितनी ही कारिकानों तथा एदवाक्यादिकोंफा उल्लेख करके उनका भालोचन किया है। इससे वह निश्चितरूपसे मालूम हो
१ सिद्धिविनि० टी० पृ. ३००A । २ देखो, गद्यकशकोशगत पानमेशरीको कथा । ३ न्यायवि० वि० २-१५४ पृ. १७७ । ४ तसा. हलो पृ० २०४ । ५ स्या० रत्ना० पृ० ५२१ । ६ तस्वसं० पृ० ४०६ ।
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प्रस्तावना
जाता है कि शान्तरक्षितके सामने पात्रस्वामीका कोई अन्य प्रवश्यही रहा है। जैनसाहित्य में पात्रस्वामीकी दो रचनाएँ मानी जानी है-१ विलक्षपदयन और दूसरी पात्रकेशरीस्तोत्र 1 इनमें दूसरी रचना तो उपलब्ध है, पर पहली रचना उपलब्ध नहीं है। केवल ग्रन्थान्तरों आदिमें उसके उल्लेख मिलते हैं। 'पात्रकेशरीस्तोत्र' एक स्तोत्र ग्रन्थ है और उसमें माप्तस्तुतिके बहाने सिद्धान्तमतका प्रतिपादन है । इममें पाप्रस्वामीके नाम से शांतिरक्षितके द्वारा तत्त्वसंग्रहमें उद्धृत कारिकाएं, पद, वाक्यादि कोई नहीं पाये जाते । अतः यही सम्भव है कि वे त्रिलक्षणकदर्थनके हों; क्योंकि प्रथम तो ग्रन्थका नाम ही यह बताता है कि उसमें त्रिसक्षणका कदधनखण्डन–किया गया है। दूसरे, पात्रस्वामीको अन्य तीसरी मादि कोई रचना नहीं सूनी जाती, जिसके वे कारिकादि सम्भावनास्पद होले । तीसरे, अनन्तवीर्यको चर्चासे मालूम होता है कि उस समय एक प्राचार्यपरम्परा ऐसी भी थी, जो 'अन्यथानुपपत्ति' वात्तिकको विलक्षणकदधनका बतलाती थी । चौथे, वादिगजक' उल्लेख और श्रवणवेलगोलाकी मल्लिषेणास्तिगत पात्र केशरी विषयक प्रशंसापद्य' से भी उक्त वात्तिकादि घिसक्षमकदर्थनके जान पड़ते हैं। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि पात्रकेशरी मामके एक ही विद्वान् जैन साहित्यमें माने जाते हैं और जो दिग्नाग (४२५ ई.) के उत्तरवर्ती एवं प्रकलङ्कके पूर्वकालीन है । प्रकलङ्कने उक्त बातिकको न्यायविनिश्चय (का. २२३ के रूपमें ) में दिया है पौर सिद्धि विनिश्चयके 'हेतुलक्षणसिद्धि' नामके छठवें प्रस्तावके प्रारम्भमें उसे स्वामी का 'भमलालीढ' पद कहा है। प्रकलदेव शान्तरक्षितके' समकालीन है।
१ देखो, न्यायवि० वि० । २ "महिमा स पात्रकेरिगुरोः परं भवति यस्प भक्त्यासीत् । पद्मावती सहाया त्रिसक्षणकदर्थनं कर्तुम् ॥" ३ शान्तरशितका समय ७०५ से ७६२ और प्रकलङ्कदेवका समय ७२० # ७५०० माना जाता है। देखो, प्रकलङ्कम० की प्र० पृ. ३२ ।
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और इसलिए यह कहा जा सकता है पात्रस्वामीकी जो रचना ( त्रिलक्षणकदर्थन ) शान्तक्षत सामने रही वह कल देवके भी सामने अवश्य रही होगी । सतः यह मानना है कि बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षितके लिए जो उक्त वातिकका कर्त्ता निर्भ्रान्तिरूपसे पात्रस्वामी विवक्षित हैं वही अकलङ्कदेवको 'स्वामी' पदसे प्रभिप्रेत है। इसलिए स्वामी तथा अन्यथानुपपन्नत्व' पद (वात्तिक) का सहभाव और शान्तिरक्षितके सुपरिचित उल्लेख इस बातको माननेके लिए हमें सहायता करते हैं कि उपयुक्त पहली कारिका पात्रस्वामीकी ही होनी चाहिए | प्रकलङ्क और दान्तरक्षितके उल्लेखके या विद्यानन्दका उल्लेख माता है। जिसके द्वारा उन्होंने उक्त दातिकको दातिकारका बतलाया है। यह वातिककार राजवार्तिककार प्रकलङ्कदेव मालूम नहीं होते; क्योंकि उक्त यात्तिक ( कारिका) राजवातिकमें नहीं है, न्यायविनिश्चयमें है। विद्यानन्दने राजवासिक के पदवाक्यादिको ही राजवात्तिककार ( तत्त्वार्थवात्तिककार) के नामसे उद्धृत किया है, न्यायविनिश्चय श्रादिके नहीं । अतः विद्यानन्द का 'वार्तिककार' पदसे अन्यथानुपपत्ति' वार्तिकके कर्ता बालिककारपात्रस्वामीही अभिप्रेत हैं। यद्यपि वार्तिककारसे न्यायविनिश्चयकार अकलदेवका ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि न्यायविनिश्चयमें वह वार्तिक मूलरूपमें उपलब्ध है, किन्तु विद्यानन्दने न्यायविनिश्चयके पदवाबादिको 'न्यायविनिश्चय' के नामसे अथवा 'तदुक्तमकलदेव' आदिरूपसे ही सर्वत्र उद्धृत किया है। मतः वार्तिककारसे पात्रस्वामी हो विद्यानन्दको विवक्षित जान पड़ते हैं । यह हो सकता है कि वे 'पास्वामी' नामकी अपेक्षा वार्तिक और वासिककार नामसे अधिक परिचित होंगे, पर उनका अभिप्राय उसे राजवार्तिककारके कहने का तो प्रतीत नहीं होता।
कुछ विद्वान् वातिककारसे राजवार्तिककारका ग्रहण करते हैं । देखो, न्यायकुमु० प्र० प्र० पृ० ७६ और मकल० टि० पृ० १६४ ।
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प्रस्तावना
अब अनन्तवीर्य और प्रभाचन्द्र तथा वादिराजके उल्लेख पाते हैं । सो वे मान्यताभेद या प्राचार्यपरम्पराश्रुतिको लेकर है । उन्हें न तो मिथ्याकहा जा सकता है और न विमत । हो सकता है कि पात्रस्वामीने अपने हण्टदेव सीमन्धरस्वामीके स्मरणपूर्वक और पद्मावतीदेवीकी सहायतासे उक्त महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट अमलालीढ़-निर्दोषपद (वासिक) की रचना की होगी और इस तरहपर अनन्तवीर्य प्रादि प्राचार्योन कतृत्व विषयक अपनी अपनी परिचितिके अनुसार उक्त उल्लेख किये हैं। यह कोई असम्बद्ध, काल्पनिक एवं अभिनव बाल नहीं है । दिगम्बर परंपरा में ही नहीं श्वेताम्बर परम्परा, वैदिक और बौद्ध सभी भारतीय परम्परामोंमें है। समस्त द्वादशांग श्रुत, मनःपर्यय प्रादि ज्ञान, विभिन्न विभूतियां मंत्रसिद्धि, ग्रन्थसमाप्ति, सङ्कटनिवृत्ति आदि कार्य परमात्मस्मरण, आत्म-विशुद्धि, तपोविशेष, देवादिसाहाय्य प्रादि यथोचित कारणों से होते हुए माने गये हैं। अत: ऐसी बातोंके उल्लेखोंको बिना परीक्षाके एकदम अन्धभक्ति या काल्पनिक नहीं कहा जा सकता । श्वेताम्बर विद्वान् माननीय पं० सुखलालजीका यह लिखना कि "इसके (कारिकाके प्रभाव के कायन प्रताकिक भक्तोंने इसकी प्रतिष्ठा मनगढन्त ढङ्गसे बढ़ाई।
और यहाँ तक वह बढ़ी कि खुद तर्कग्रन्थ लेखक प्राचार्यभी उस कल्पित उनके शिकार बने इस कारिकाको सीमन्धरस्वामीके मुखमें से अन्धमक्ति के कारण जन्म लेना पड़ा। इस कारिकाके सम्भवत: उद्भावक पात्रस्वामी दिगम्बर परम्पराके ही हैं। क्योंकि भक्तपूर्ण उन मनगढन्त कल्पनानोंकी सृष्टि केवल दिगम्बरीय परम्परा तकही सीमित है।" (प्रमाणमी. भा० पृ० ८४) केबल अपनी परम्पराका मोह और पसमाहिता के अतिरिक्त कुछ नहीं है। उनकी इन पंक्तियों और विचारोंके सम्बन्धमें विशेष कर अन्तिम पंक्तिमें कुछ लिखा जा सकता है। इस संक्षिप्त स्थान पर हमें उनसे यही कहना है कि निष्पक्ष विचारके स्थान पर एक विद्वान्को निष्मान विधार ही प्रकट करना चाहिए । दूसरोंको भ्रममें डालना एवं
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एवं स्वयं भ्रामक प्रवृत्ति करना ठीक नहीं है ।
२१ हेतु-भेद
दार्शनिक परम्परा में सर्वप्रथम कणादने हेतुके भेदोंको गिनाया है । उन्होंने देतुके पांच भेद प्रदर्शित किये हैं। किन्तु टीकाकार प्रशस्तपाद' उन्हें निदर्शन मात्र मानते हैं 'पांच ही हैं' ऐसा ग्रवधारण नहीं बतलाते । इससे यह प्रतीत होता है कि वैशेषिक दर्शनमें हेतुके पांचसे भी अधिक भेद स्वीकृत किये गये हैं। न्यायदर्शनके प्रवर्तक गौतमने और सांख्यकारिकाकार ईश्वरकृष्णने पूर्ववत् शेषवत् तथा सामान्यतोदृष्ट ये तीन भेद कहे हैं । मीमांसक हेतुके कितने भेद मानते हैं, यह मालूम नहीं हो सका । बौद्ध दर्शनमें* स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि ये तीन भेद हेतुके बतलाये हैं। तथा अनुपलब्धिके ग्यारह भेद किये हैं। इनमें प्रथमके दो हेतुको विधिसाधक और अन्तिम धनुपलब्धि हेतुको निषेधसाधक हो वर्णित किये हैं' ।
जैनदर्शनके उपलब्ध साहित्यमें हेतुओंके भेद सबसे पहले प्रकलदेव
१ "अस्वेदं कार्यं कारणं संयोगि विरोधि समवायि चेति लैङ्गिकम् ।" - वैशेषि० सू० ६-२-१ । २ "शास्त्रे कार्यादिग्रहणं निदर्शनार्थं कृत नावधारणार्थम् । कस्मात् ? व्यतिरेकदर्शनात् । तद्यथा प्रध्वर्यु रोधावयन् व्यवहितस्य हेतुलिङ्गम् चन्द्रोदयः समुदवृद्धेः कुमुदविकाशस्य च जलप्रसादोगस्त्योदयस्येति । एवमादि तत्सर्वमस्येदमिति सम्बन्धमात्रवचनात् सिद्धम् । " - प्रशस्तपा० पृ० १०४ ३ "अथ तत्पूर्वकं विविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टं च 1" न्यायसू० १-१-५ । ४ " त्रीष्येव लिङ्गानि" "अनुपलब्धिः स्वभावकार्ये त्रेति । न्यायवि० पृ० ३५ ॥ ५ “सा च प्रयोगभेदावेकादशप्रकारा । " - न्यायवि० पृ० ४७, ६ अत्र at वस्तुसाधनी " " एकः प्रतिषेधहेतुः "म्यश्ववि० पृ० ३६ ।
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प्रस्तावना
के प्रमाणसंग्रहमें मिलते है । उन्होंने' सद्भावसाधक ६ और सद्भावप्रतिषेषक ३ इस तरह नौ उपलब्धियों तथा असद्भावसाधक ६ अनुपलब्धियों का वर्णन करके इनके और भी अवाकर मदीका सक्त कर इन्हींम अन्तर्भाव हो जानेका निर्देश किया है। साथ ही उन्होंने धमकीतिके इस कथनका कि 'स्वभाव और कार्यहतु भावसावक ही हैं तथा अनुपलब्धि ही प्रभावसाधक है निरास करके उपलब्धिरूप स्वभाव और कार्य हेतुको भी प्रभावसाधक सिद्ध किया है। अकलङ्कदेव के इसी मन्तय्य को लेकर माणिक्यनन्दि', विद्यानन्द तथा वादिदेवसूरिने' उपलब्धि मोर अनुपलब्धिरूपसे समस्त हेतुभोंका संग्रह करके दोनोंको विधि और निषेधसाधक बतलाया है और उनके उत्तर भेदोंको परिगणित किया है । मा. धर्मभूषणने भी इसी प्रपनी पूर्वपरम्परा के अनुसार कतिपय हेतु-भेदोंका वर्णन किया है। न्यायदीपिका और परीक्षामुख के अनुसार हेतुमों के निम्न भेद हैं:
१ "सत्प्रवृत्तिनिमित्तानि स्वसम्बन्धोपलब्धयः ।। तथासद्व्यवहाराय स्वभावानुपलब्धयः । सद्वृत्तिप्रतिषेधाय तद्विरुद्धोपलब्धयः ।।"--प्रमाणसं का
२६, ३० । तथा इनकी स्वोपज्ञवृत्ति देखें। २ "नानुपलब्धिरेव प्रभाव साधनी...।"-प्रमाणसं का० ३० ।
३ देखो, परीक्षामा ३-५७ से ३-६३ तकके सूत्र । ४ देखो, प्रमागरो पृ. ७२-७४ । ५ देखो, प्रमाणनयतत्त्वालोक का तृतीय परिच्छेद । ६ प्रमाणपरीक्षानुसार हेतुभेदों को वहीं से जानना चाहिए ।
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न्याय-दीपिका
[न्यापदीपिकाके अनुसार]
विधिरूप
प्रतिषेधरूप
विधिसाधक प्रतिषेधसाधक विधिमा० प्रतिषेधसाधक
कार्यरूप कारणरूप विशेषरूप पूर्वचर उत्तरचर सहचर
__=+१+२-६
[ परीक्षामुखके अनुसार ]
हेतु
उपलब्धि
अनुपलब्धि
विहदो
अविरुद्धो० विरुद्धानु० मविरुद्धानु०
व्या.कार्य कार०पूर्व उ० सह० । कार्य कारण स्वभाव
व्याप्य कार्य कारण पूर्व उ० सह ।
। । । । । । । स्वभा.व्याप.कार्य.कारण पूर्वच, उत्तर सहचर.
-६+६+३+७-२२
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प्रस्तावना
२२. हेत्वाभास
नैयायिक हेतुके पांच रूप मानते हैं । अत: उन्होंने एक एक रूपके अभावमें पांच हेत्वाभास माने हैं। वोपिक' और बौद्ध' हेतुर्क तीन रूप स्वीकार करते हैं। इसलिए उन्होंने तीन हेत्वाभास माने हैं। पक्षधर्मस्वके अभावसे प्रसिद्ध, सपक्षमत्त्व के प्रभावसे विरुद्ध और विपक्षासत्वक यभावसे सन्दिाघ अथवा अनकान्तिक ये तीन हेत्वाभास वर्णित किये हैं। सांस्य' भी कि हेतुको रूप्य मानते हैं। अतः उन्होंने भी मुख्यतया सीन ही हेत्वाभास स्वीकृत किये हैं। प्रास्तपादने एक अनध्यवसित नामके चौथे हेत्वाभासका भी निर्देश किया है जो नया ही मालूम होता है मोर प्रशस्तपादका स्वोपज्ञ है क्योंकि वह न तो न्यायदर्शनके पांच हेत्वाभासोंमें है, कणादकथित सीन हमापाती है और न १ पूर्ववर्ती किसी सांख्य या बौद्ध विद्वान्ने बतलाया है । हो, दिग्नागने' प्रनकान्तिक हेत्वाभासफे भेदोंमें एक विरुद्धाव्यभिचारी जरूर बतलाया है जिसके न्याय
१ "सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्यसमातीतकाला हेत्वाभासाः।"न्यायल० १-२-४ । "हेतोः पञ्च लक्षणानि पक्षधर्मत्वादीनि उक्तानि । तेषामेककापाये पंच हेत्वाभासा भवन्ति । प्रसिद्ध-विरुद्ध-अनेकान्तिक-कालारपयापदिष्ट-प्रकरणसमाः ।"-न्यायकलिका पृ० १४। ग्यापमं० पृ. १०१ । २ "अप्रसिद्धोजपदेशोऽसन् सन्दिग्धश्चानपदेशः ।" ० ० ३-१-१५ । “यदनुमेयेन सम्बद्धं प्रसि च तदन्विते । तदभावे च नास्येव तल्लिङ्गमनुमापकम् ॥ विपरीतमतो यत् स्यादेकेन द्वितयेन वा बिरुदासिद्धसन्दिग्धमलिङ्गकाश्यशेऽववीत् ॥"-- प्रशस्स० पृ० १०० । ३ "प्रसिदानकान्तिविरुद्धा हेत्वाभासाः ।" ल्यायप्र. पृ० ३। ४ "मन्ये हेत्वाभासाः चतुर्दश प्रसिद्धानकान्तिकविरुद्धादयः ।"--माठरवृ. । ५ "एतेनासिद्धविरुवसन्दिग्धानध्यवसितवचनानामनपदेशत्वमुक्त भवति । - प्रशस्तपा० भ० पृ० ११६ । ६ देखो, न्यायप्रवेश पृ० ३.
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न्याय-दापिका
प्रवेशगत वर्णन और प्रशस्तपादभाष्यगत अनध्यवसितके वर्णनका पाशम प्रायः एक है और स्वयं जिसे प्रशस्तपादने' असाधारण कहकर मनध्यवसित हेत्वाभास अथवा विरुद्ध हेत्वाभासका एक भेद बतलाया है । कुछ भी हो, इतना अवश्य है कि प्रास्तपादने देशेषिकदर्शन सम्मत तीन हेत्वाभासोंके अलावा इस चौथे हेत्वाभासकी भी कल्पना की है । अज्ञात नामके हेत्वाभासको भी माननेका एक मन रहा है । हम पहले कह पाए हैं कि अर्चदने नैयायिक और मीमांसकों के नाम ज्ञातव्य सहित पहलक्षण हेतु का निर्देश किया है । सम्भन्न है जातत्त्वरूपके अभावमं अजाननामका हेत्वाभास भी उन्हों के द्वारा वहिप न हुआ हो। अकलदेव इस हत्याभासका उल्लेख करक असिद्धमे प्रस्ताव किया है। उनके अनुगामी माणिक्यनन्दि प्रादिन भी उसे प्रसिद्ध हेत्वाभासाम्पसे उदाहृत किया है।
जन विद्वान हतका केवल एकहीं अन्यथानुपपन्नत्व-अन्यथानुपपत्तिरूप मानते हैं । अत: यथार्थमें उनका हेत्वाभारा भी एक ही होना चाहिए । इस सम्बन्ध मुश्मन अकलङ्कदवने बड़ी योग्यतामे उन र दिया है । वे कहते हैं कि वस्तुतः हत्वाभास एक ही हैं और वह है अकिश्चित्कर अथवा प्रसिद्ध । विरुद्ध, प्रसिद्ध और सन्दिग्ध ये उसीक विस्तार है । चूंकि अन्यथानुपपत्तिका प्रभाव अनेक प्रकारसे होता है इसलिए हेत्वा
१ देखो, प्रशस्तफा० भा० ११८, ११६ 1
२ "साध्येऽपि कृतकत्वादिः अशातः साधनाभासः । तदसिद्धलक्षणेन अपरो हेत्वाभासः, सर्वत्र साध्यार्थासम्भवाभावनियमासिदः अर्धज्ञाननिवृत्तिलक्षणत्वात् ।"-प्रमाणसं० स्वो० का ४४ । ३ परीक्षामु. ६.२७,२८ । ४ "साधनं प्रकृताभावेऽनुपपन्न ततोऽपरे । विरुद्धासिद्धसन्दिग्धा प्रकिञ्चिस्फरविस्तराः ।"-न्यायवि. का. २६६ | "प्रसिद्धश्चाक्षुपत्वादिः मान्दानित्यत्वसाधने । अन्यथासम्भवाभावभेदारस बहुधा स्मृत: विरुवासिद्धसन्दिग्धरकिश्चित्करविस्तरैः–न्यायषि का० ३६५, ३६६ ।
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प्रस्तावना
मासके प्रसिद्ध, बिरुद्ध, व्यभिचारी और अकिचिस्कर ये चारभी भेद हो सकते हैं या प्राकञ्चित्कारको सामान्य और शेषको उसके भेद मानकर तीन हेत्वाभास भी कहे जा सकते हैं । अब जो हरी लिसणामक होनेपर भी अन्यश्वानुपपन्नत्वसे रहित हैं वे सब अकिञ्चित्कर हेत्वाभास है'। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि अकलङ्कदेवने पूर्व से प्रसिद्ध इस अकिंचितत्कर हेवाभासको कलाना कहांसे की है ? क्योंकि वह न तो कणाद और दिग्नाग कथित तीन हेन्याभासोंमें है और न गौतमस्वीकृत पांच हेत्वाभासोंमें है ? श्रद्धेय प. स्त्रलालजीका कहना है कि 'जयन्त. मट्टने अपनी न्यायमंजरी (पृ० १६३ ) मे अन्यथासिद्धापपर्याय अप्रयोजक नामक एक नए हेत्वाभासको माननेका पूर्व पक्ष किया है जो वस्तुतः जयन्तके पहिले कभीसे चला पाता हुअा जान पड़ता है । 'प्रतएव यह सम्भव है कि अप्रयोजक या अन्यथासिद्ध माननेवाले किसी पूर्ववर्ती तार्किक अन्यके प्राधारपर ही प्रकलङ्कने अकिंचिकर हेत्वाभासको अपने ढङ्गसे नई सृष्टि की हो।' निःसन्देह पण्डितजीकी सम्भावना और समाधान दोनों हृदयको लगते है । जयनाभट्टन' इस हेलाभासके सम्बन्धमें कुछ विस्तारसे बहुत मुम्बर विचार किया है । वे पहले तो उभे विचार करने करने
--- . ...- --.-. ..-- १ "अन्यथानुपपन्नत्वराहता ये विलक्षणाः ।
अकिरिका रकान् सर्वोस्तान् वयं सङ्गिगमहे ।।-ग्यावि० का० २७० । २ प्रमाणमो० भा० टि. पृ० १७ । ३ देखो, न्यायमं० पृ. १६३.१६६ (प्रभग प्रकरण) । ४ "प्रास्ता तहि पाट एकात्र हत्वाभाम: सम्पग हेनतां तावस्याफ्ननग्रेन नाश्नुने एच न च नवनर्भवतीति बलात् षष्ट एवावतिष्यते । कथं विभागमूसमिति चंद्, अतिक्रमिष्याम उन मूगम्, अनतिकामन्तः सुस्पष्टमपीममप्रयोजक हेत्वाभासमपह्नवीमहि न चैव युक्तमसो बरं मूत्रातिकमो न वस्त्वतिकम इति । xxx 'नदेनं हेस्वाभासमसिद्धवर्ग एव निक्षिपाम:" xxx अथवा सर्वहेत्वाभामानवृत्तमिव
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सराज
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न्याय-दोपिका
साहसपूर्वक छठवाही हेत्वाभास मान लेते हैं और यहां तक कह देते हैं। कि विभागसूमका उलंघन होता है तो होने दो सुस्पष्ट दृष्ट प्रायोजक (मन्यथासिद्ध) हेत्वाभासका अपह्नव नहीं किया जा सकता है पौर न वस्तुका उलंघन । किन्तु पीछे उसे असिसवर्ग में ही शामिल कर लेते हैं। अन्तमें 'मथवा' के साथ कहा है कि अन्यथासिद्धत्व (अप्रयोजकस्व) समी हेत्वभासवृत्ति सामान्यरूप है, छठवाँ हेत्वाभास नहीं । इसी अन्तिम मभिमतको न्यायकलिका (पृ. १५)में स्थिर रला है । पण्डितजीको सम्माबनासे प्रेरणा पाकर जन मैंने 'अन्यथासिद्ध'को पूर्ववर्ती ताकिक अन्योंमें खोजना प्रारम्भ किया तो मुझे उद्योतकरके न्यायवात्तिकमे अन्यपासिख हेत्वाभास मिल' गया जिसे उद्योतकरने प्रसिद्धके भेदोंमें गिनाया है। वस्तुतः अन्यथासिद्ध एकप्रकारका प्रप्रयोजक या सकिंचित्कर हेत्वाभासही है। जो हेतु अपने साध्यको सिद्ध न कर सके उसे प्रत्यषासिद्ध अथवा अकिचिरकर कहना चाहिए । भलेही वह तीनों अथवा पाँचों रूपोंसे युक्त क्यों न हो। अन्यथासिद्धत्व भन्यथानुपपन्नत्वके पभाव-प्रन्ययाउपपन्नत्यसे अतिरिक्त कुछ नहीं है । यही वजह है कि प्रकलङ्कादेवने सर्वलक्षणसम्पन्न होने पर भी अन्यथानुपपन्नत्वरहित हेतुओं को प्रकिरिकर हेत्वाभासकी संज्ञा दी है । अतएव ज्ञात होता है कि उद्योतकरके अन्यथासिद्धत्वमें से ही अकलङ्कने अकिंचित्कर हेत्वाभास की कल्पना की है । भा० माणिक्यनन्दिने इसका चौथे हत्वाभासके रूपमें वर्णन किया है' पर वे उसे हेस्वाभासके
मन्यथासिद्धत्वं नाम रूपमिति न षष्ठोऽयं हेत्वाभासः । -पृ. १६६ ।
"अप्रयोजकरवं च सर्वहेत्वाभासानामनुगत रूपम् । अनित्याः परमाप्पवो भूसंस्वात् इति सर्वलक्षणसम्पन्नोऽप्यप्रयोजक एव ।" २ "सोऽयममिदत्य भवति प्रज्ञापनीयधर्मसमानः, पाश्रयासिदः, अथवासिबनेति।" --पृ० १७५ । ३ परीक्षामुख ६-२१ ।
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क्षणके विचार समयमें ही हेत्वाभाम मानते हैं। वादकालमें नहीं । उस समय तो पक्ष में दोष दिखा देनेसे ही व्युत्पन्नप्रयोगका दृपिल बतलाते हैं । तात्पर्य यह कि वे किञ्चित्करको स्वतन्त्र हेत्वाभास माननेमें खास जोर भी नहीं देते। वेताम्बर विद्वानाने असिद्धादि पूर्वोक्त तीन ही हेत्वाभास स्वीकृत किये हैं, उन्होंने प्रकिचित्करको नहीं माना । माणिक्यनन्दिने अकिचित्करको हेत्वाभास माननेकी जो दृष्टि बतलाई है उस दृष्टिसे उसका मानना उचित है । वादिदेवसूरि' और यशोविजयने " यद्यपि अकिचित्करका खण्डन किया है पर वे उस दृष्टिको मेरे ख्याल में श्रीफल कर गये हैं । ग्रन्यथा वे उस दृष्टिसे उसके औचित्यको जरूर स्वीकार करते । आ० घर्मभूषणने अपने पूज्य माणिक्यनन्दिका अनुसरण किया है और उनके निर्देशानुसार अकिंचित्करको चोथा हेत्वाभास बताया है।
प्रस्तावना
इस तरह न्यायदीपिका श्राये हुए कुछ विशेष विषयोंपर तुलनास्मक विवेचन किया है। मेरी इच्छा थी कि आगम, नय सप्तभंगी, अनेकान्त प्रादि शेष विषयोंपर भी इसी प्रकारका कुछ विचार किया जाने पर अपनी शक्ति, साधन, समय और स्थानको देखते हुए उसे स्थगित कर देना पड़ा।
१ " लक्षण एवासी दोपा व्युत्पन्न प्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् । " परीक्षा० ६-३८२ व्यायाव० का० २२, प्रमाणनय० ६-४७ ॥ ३ स्याद्वादरना० पृ० १२३० । ४ जैनतर्कभा० पृ० १८ ।
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पायदोपिका में उल्लिखित अन्य और ग्रन्थकार__प्राधर्मभूषणने अपनी प्रस्तुत रचनामें अनेक ग्रन्थ और ग्रन्यकारोंका उत्लेख किया है तथा उनके कथनसे अपने प्रतिपाद्य विषयको पुष्ट एवं प्रमाणित किया है। प्रतः यह उपयुक्त जान पड़ता है कि उन ग्रन्थों और प्रन्थकारोंका यहाँ कुछ परिचय दे दिया जाय । प्रयमतः न्यायदीपिकामें उल्लिखित हुए निम्न जनेतर अन्य और ग्रन्थकारोंका परिचय दिया जाता है :---
(क) ग्रन्थ-१ ग्यायविन्दु ।
(ख) प्रन्यकार--१ विग्नाग, २ शालिकामाच, ३ उदयन पोर ४ वामन ।
म्यारविन्दु-यह बौद्ध विद्वान धर्मकीत्तिका रचा हुआ मोट-न्यायका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसमें तीन परिच्छेद हैं। प्रयम परिच्छेदमें प्रमाणसामान्यलक्षणका निर्देश, उसके प्रत्यक्ष प्रौर अनुमान इन टो भेदोंका स्वीकार एवं उनके लक्षण, प्रत्यक्षके भेदों आदिका वर्णन किया गया है । द्वितीय-परिच्छेदमें अनुमानके स्वार्थ, परार्थ भेद, स्वार्थका लक्षण, हेतुका
रूप्य लक्षण और उसके स्वभाव, कार्य तथा अनुपलब्धि इन तीन भेदरों प्रादिका कथन किया है । और तीसरे परिच्छेद में परार्थ मनुमान हैत्वाभास, दृष्टान्त, दृष्टान्ताभास प्रादिका निरूपण किया गया है। त्यायदीपिका पृ० १०पर इस प्रत्यके नामोल्लेख पूर्वक दो वाक्यों और १० २५ पर इसके 'कल्पनापोढमनान्तम्'प्रत्यक्षलक्षणकी समालोचना की गई है । प्रत्यक्षके इस लक्षणमें जो 'अभ्रान्त' पद निहित है वह खुद धमकीतिका ही दिया हुआ है। इसके पहले बौद्धपरम्परामें 'कल्पनापोड' मात्र प्रत्यक्षका लक्षण स्वीकृत था। धर्मकीत्ति बौद्ध दर्शनके उनायक युगप्रधान थे । इनका मस्तिस्व समय ईसाकी सातवीं शताब्दि (६३५१०) माना जाता है। ये नालन्दा विश्वविद्यालयके माचार्य धर्मलके शिष्य
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प्रस्तावना
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थे । न्यायविन्दुके अतिरिक्त प्रमाणवातिक वादन्याय हेतुविन्दु, सन्तानान्सरसिद्धि, प्रमाणविनश्चय और सम्बन्धपरीक्षा प्रादि इनके बनाए हुए धन्य है | अभिनव धर्मभूषण न्यायविन्दु यादिके अच्छे अभ्यासी थे ।
१. दिग्नाग- ये बौद्ध सम्प्रदागके प्रमुख तार्किक विद्वानों से हैं। इन्हें बौद्धन्यायका प्रतिष्ठापक होनेका श्रेय प्राप्त है, क्योंकि अधिकांशतः बौद्धन्यायके सिद्धान्तों की नींव इन्होंने डाली थी । इन्होंने न्याय, वैशेषिक और भीमांसा श्रादि दर्शनोंके मन्तब्योग सोचनास्वरूप र अनेक प्रकरण ग्रन्थ रचे हैं। न्यायप्रवेश प्रमाणसमुच्चय, प्रमाणसमुच्चयवृत्ति हेतुचक्रडमरू, प्रालम्बनपरीक्षा और त्रिकालपरीक्षा मादि ग्रंथ इनके माने जाते हैं। इनमें न्यायप्रवेश और प्रमाणसमुच्चय मुद्रित भी हो चुके ।
१ उद्योतकर (६०० ई०) ने न्यायवा० पू० १२५, १६८ पर हेतुवात्तिक और हेत्वाभासवार्तिक नामके दो ग्रन्थोंका उल्लेख किया है, जो सम्भवतः दिग्नागके ही होना चाहिए, क्योंकि वाचस्पति मिश्रके तात्पर्यटीका ( पू० २८६ ) गत संदर्भको ध्यान से पढ़ने से वंसा प्रतीत होता है । न्यायवा० भूमिका पृ० १४१, १४२ पर इनको किसी बोर विद्वान के प्रकट भी किये हैं। उद्योतकरके पहले बौद्ध परम्परामें सबसे अधिक प्रसिद्ध प्रबल और अनेक ग्रन्थोंका रचनाकार दिग्नाग ही हुआ है जिसका म्यायवार्त्तिक में जगह जगह कदर्थन किया गया है ।
इन ग्रन्थोंके सम्बन्धमें मैंने माननीय पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य से दर्यात किया था। उन्होंने मुझे लिखा है- 'दिग्नागके प्रमाणसमुच्चयके अनुमानपरिच्छेदके ही वे श्लोक होने चाहिए जिसे उद्योतकर हेतुवात्तिक या हेत्वाभासवार्तिक कहते हैं । स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं मालूम होते यही "हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेन वर्णितः "इस कारिकाको स्ववृत्ति टोकामें कर्णकगोमिने लिखा है- " वर्णितः श्राचार्यदिग्नागेन प्रमाणसमुच्चयादिषु" । सम्भव है इसमें श्रादि शब्दसे हेतुचक्रडमरूका निर्देश हो ।' परन्तु उद्योतकरने जो इस प्रकार लिखा है- "एवं विरुद्धविशेषणविरुद्धविशेष्याच
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न्याय-दीपिका
है। आवेशपरी भेनाचार्य हरिभद्रसूरिकी 'न्यायप्रवेशवृत्ति नामक टीका है और इस वृत्तिपर भी जैनाचार्य पाश्यंदेव कृत 'न्यायप्रवेशवृत्तिपंजिका नामकी व्याख्या है। दिग्नागका समय ईसाकी चौथी और पांचवीं शताब्दी ( ३४५-४२५३० ) के लगभग है । भा० धर्मभूषणने न्यायदीपिका १० ११६ पर इनका नामोल्लेख करके 'न याति' इत्यादि एक कारिका उद्घृत की है, जो सम्भवत: इन्हींके किसी अनुपलब्ध ग्रन्थकी होगी । द्रष्टव्याः । एषां तूदाहरणानि हेत्वाभासवासिके द्रष्टव्यानि स्वयं चाभ्यूहानि" (५० १६८ ) । इससे तो यह मालूम होता है कि यहाँ उद्योतकर किसी 'हेत्वाभासवातिक' नामक ग्रंथका ही उल्लेख कर रहे हैं जहाँ 'विरुद्ध विशेषणविरुद्ध विशेष्यों के उदाहरण प्रदर्शित किये हैं और वहांस जिन्हें देखनेका यहाँ संकेतमात्र किया है। 'हत्वाभासवासिके पदसे कोई कारिका या श्लोक प्रतीत नहीं होता। यदि कोई कारिका या श्लोक होता तो उसे उधृत भी किया जा सकता था। अतः 'हेत्वाभासवातिक' नामका कोई ग्रन्थ रहा हो, ऐसा उक्त उल्लेखसे साफ मालूम होता है ।
"...!
इसी तरह उद्योतकरके निम्न उल्लेख से 'हेतुवासिक ग्रन्थ के भी होने की सम्भावना होती है- " यद्यपि हेतुवासिकं ब्रुवाणेनोक्तम्- सप्तिका - सम्भवे षट्प्रतिषेधादेकद्विपदपर्युदासेन मिलक्षणो हेतुरिति । एतदप्ययुक्तम् (१० १२८ ) यहाँ हेतुवातिककारके जिन शब्दोंको उद्धृत किया है वे गद्य में हैं । श्लोक या कारिकारूप नहीं है। अतः सम्भव है कि न्यायप्रवेशकी तरह 'हेतुवात्तिक गद्यात्मक स्वतन्त्र रचना हो और जिसका कर्णकगोमिने यादि शब्दसे संकेत भी किया हो। यह भी सम्भव है कि प्रमाणसमुच्चयके श्रनुमानपरिच्छेदको स्वोपज्ञ वृत्तिके उक्त पदवाक्यादि हों और उनकी मूल कारिकाओंको हेत्वाभासवातिक एवं हेतुशत्तिक कहकर उल्लेख किया हो। फिर भी जबतक 'हेतुचक्रडमरू' और प्रमाणसमुच्चयका प्रनुमानपरिच्छेद सामने नहीं भाता और दूसरे पुष्ट प्रमाण नहीं मिलते तबतक निश्चयपूर्वक प्रभी कुछ नहीं कहा जा सकता ।
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प्रस्तावना
२. माणिकनार—ये प्रभाकरमतानुयायी मीमांसक दार्शनिक विज्ञान में एक प्रसिद्ध विद्वान् हो गये हैं। इन्होंने प्रभाकर गुरुके सिद्धान्तोंका बसे जोरोंके साथ प्रचार और प्रसार किया है । उन (प्रभाकर के वृहती नामके टोका-ग्रन्थपर, जो प्रसिद्ध मीमांसक शवरस्वामीके शाररमाष्पकी व्याख्या है, इन्होंने 'ऋविमला' नामकी पंजिका सिखी है। प्रमाकरके सिद्धान्तोंका विवरण करनेवाला इनका 'प्रकरणपंजिका नामका वृहद् ग्रन्थ भी है। ये ईसाकी आठवीं शताब्दीके विद्वान् माने जाते हैं। न्यायदीपिकाकारने पृ० १९ पर इनके नामके साय 'प्रकरणपंजिका' के कुछ वाक्य उद्धृत किये हैं।
३. उदयन-ये न्यायदर्शनके प्रतिष्ठित प्राचार्यों में हैं। नायिक परम्परामें ये 'प्राचार्य के नामसे विशेष उल्लिखित हैं । जो स्थान बौद्धदर्शनमें धर्मकोत्ति और जनदर्शनमें विद्यानन्दस्वामीको प्राप्त है वही स्थान न्यायदर्धनमें उदयनाचार्यका है । ये शास्त्रार्थी और प्रतिभाशाली विद्वान थे । न्यायकुमुमांजली, प्रात्मतत्वविवेक, लक्षणावली, प्रशस्तपादभाष्यको टीका किरपावली और वाचस्पति मिश्रको न्यायवात्तिकतात्पर्यटीकापर लिखी गई तात्पर्यपरिशुद्धि टीका, न्यायपरिशिष्ट नामकी न्यायमूत्रवृत्ति
आदि इनके बनाये हुए ग्रन्थ हैं। इन्होंने अपनी लक्षणावनी' शक सम्बत् ६०६ (६८४ ई०) में समाप्त की है। अतः इनका अस्तित्वकाल दशवीं शताब्दी है। न्यायदीपिका (पृ. २१) में इनके नामोल्लेखके साथ 'न्मायकुसुभांजलि' (४-६) के 'तन्मे प्रमाणं शिवः' वाक्यको उद्धृत किया गया है। और उदयनाचार्यको 'योगाग्रसर लिखा है । अभिनव धर्मभूषण इनके न्यामकुसुमांजलि, किरणावली प्रादि ग्रन्थोंके अच्छे अध्येता थे। न्यायदी० पृ० ११० पर किरणावली (पृ० २६७, ३००,३०१) गत
१ "तर्काम्बरारूप्रमितेष्वतीतेषु शकान्ततः । वर्षेष्वदयनश्चक्रे सुबोधां लक्षणावलीम् ।।"-सकाना० पृ० १३
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न्याय-दीपिका
निरुपाधिक सम्पन्धरूप व्याप्तिका भी सण्डन किया गया है। यद्यपि किरणावली और न्यायदीपिकागत लक्षणमें कुछ शम्दभेद है। पर दोनोंकी रचनाको देखते हुए भिन्न प्रग्यकारकी रचना प्रतीत नहीं होते। प्रत्युत किरणावलीकारकी ही वह रचना स्पष्टतः जान पड़ती है। दूसरी बात यह है कि अनोपाधिक सम्बन्धको व्याप्ति मानना उदयनाचार्यका मत माना गया है। वैशेषिकदर्शनसूत्रोपस्कार (प.० ६०) में 'नाप्यनौपाधिक: सम्बन्धः' शब्दोंके साथ पहिले पूर्व पक्षमें भनीपाधिकरूप व्याप्तिलक्षणको प्रालोचना करके बादमें उसे ही सिद्धान्तमत स्थापित किया है। यहाँ 'नाप्यनोपाधिक:' पर टिप्पण देते हुए टिप्पणकारने 'भाचार्यमतं दूषयन्नाह' लिखकर उसे प्राचार्य (उदयनाचार्य) का मत प्रकट किया है। मैं पहले कह पाया हूँ कि उदयन प्राचार्यके नामसे भी उल्लेखित किये जाते हैं। इससे स्पष्ट मालूम होता है कि प्रनोपाधिक-निरूपापित सम्बन्धको व्याप्ति मानना उदयनाचार्यका सिद्धान्त हैं और उसीको न्यायदीपिकाकारने पालोचना की है । उपस्कार प्रौर किरणावलीगत व्याप्ति तथा उपाधिके लक्षणसम्बन्धी संदर्भ भी शब्दश: एक हैं, जिससे टिप्पणकारके अभिप्रेत 'आचार्य' पदसे उदयनाचार्म ही स्पष्ट ज्ञात होते हैं। यद्यपि प्रशस्तपादभाष्यकी व्योमवती टीकाके रचयिता व्योमशिवाशर्ष मी प्राचार्य कहे जाते हैं, परन्तु उन्होंने व्याप्तिका उक्त लक्षण स्वीकार नहीं किया। बल्कि उन्होंने सहचरित सम्बन्ध अथवा स्वाभाविक सम्बन्धको व्याप्त मानने की प्रोरही संकेत किया है। वाचस्पति मिन्नने भी मनापाभिक सम्बन्धको व्याप्ति न कहकर स्वाभाविक सम्बन्धको व्याप्ति कहा है।
४. वामन-इनका विशेष परिचय यथेष्ट प्रयत्न करनेपर भी मालम नहीं हो सका । न्यायदीपिकाके द्वारा उद्धृत किये गए वाक्यपरसे
१ देखो, म्योमवती टीका पृ. ५६३, ५७ | देखो म्यापारिक तात्पर्यटीका पु. १६५, ३४५ ।
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प्रस्तावचा
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इतना जरूर मालूम हो जाता है कि वे अच्छे ग्रन्थकार और प्रभावक विद्वान् हुए हैं। न्यामदीपिका पृ० १२४ पर इनके नामके उल्लेखपूर्वक इनके किसी ग्रन्थका 'न शास्त्रमसद्द्रव्यंष्वयंवत्' जाक्य उद्धृत किया गया है ।
अब जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकारोंका संक्षिप्त परिचय दिया जाता है । धभूषणने निम्न जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकारोंका उल्लेख किया है ।
(क) ग्रन्थ १ तत्वार्थसूत्र, २ प्राप्तमीमांसा, ३ महाभाष्य, ४ अनेन्द्रव्याकरण, ५ प्राप्तमीमांसाविवरण ६ राजवातिक और राजधातिकभाष्य ७ न्यायविनिश्चय परीक्षा-मुख, ६ तत्वार्थश्लोकवातिक तथा भाष्य, १० प्रमाण परीक्षा, ११ पत्र-परीक्षा, १२ प्रमेय कमलमार्तड और १३ प्रमाणनिर्णय ।
,
(ख) ग्रन्थकार - १ स्वामी समन्तभद्र, २ कलदेव ३ कुमारनदि ४ माणिक्यनन्ति और ५ स्याद्वाद विद्यापति ( वादिराज ) ।
१. तत्थासूत्र यह श्राचार्य उमास्वाति अथवा उमास्वामीको अमर रचना है। जो बोड़ेसे पाठभेदके साथ जैनपरम्पराकै दोनों ही दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंमें समानरूपले मान्य हैं और दोनों ही सम्प्रदायोंके विद्वानोंने इसपर अनेक बड़ी बड़ी टीकाएँ लिखी हैं। उनमें भा० पूज्यपादकी तस्वार्थवृत्ति ( सर्वार्थसिद्धि), प्रकलंकदेवका तत्वार्थवार्तिक, विद्यानन्दका तत्वार्थश्लोकवात्तिक, धुनसागरसूरिकी तत्त्वार्थवृति और श्वेताम्बर पपम्प में प्रसिद्ध तत्वार्थभास ये पांच टीकाएं तो तत्वार्थ सूत्र की विशाल, विशिष्ट श्रीर महत्वपूर्ण व्याख्याएं हैं। प्राचार्य महोदयने इस छोटीसी दशाध्यायात्मक अनूठी कृतिमें समस्त जैन तत्वज्ञानको संक्षेपमें 'गागरमें सागर की तरह भरकर अपने विशाल और सूक्ष्म ज्ञानभण्डारका परिचय दिया है । यही कारण है कि जैन परम्परामें तत्त्वा
—
सूत्रका बहुत बड़ा महत्त्व है और उसका वही स्थान है जो हिन्दूसम्प्र दाय में गीताका है । इस ग्रन्थरत्नके रचयिता मा० उमास्वाति विक्रमकी
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न्याय-दीपिका
पहली शताब्दीके विद्वान हैं । ज्यापदीपिकाकारने तत्वार्थसूत्र के अनेक सूत्रोंको न्यायदी (१० ४,३४,३६,३८,११३,१२२) में बड़ी श्रद्धाके साथ उल्लेखित किया है और उसे महागास्त्र तक भी कहा है, जो उपयुक्त ही है। इतना ही नहीं, न्यायदीपिकाकी भव्य इमारत भी इसो प्रतिष्ठित तत्त्वार्थसूत्रके 'प्रमाणनयरधिगम: सूत्रका प्राशय लेकर निर्मित की गई है।
प्राप्तमीमांसा–स्वामी समन्तभद्रकी उपलब्धि कृतियोंमें यह सरसे प्रधान और असाधारण कृति है । इसे 'देवागमस्तोत्र भी कहते हैं । इसमें दश परिच्छेद और ११४ पद्य (कारिकाएँ) हैं। इसमें प्राप्त (सर्वन) को मीमांसा-परीक्षा की गई है। जैसा कि उसके नामसे ही प्रकट है। मर्थात् इसमें स्याद्वादनायक जैन तीर्थकरको सर्वश सिद्ध करके उनके स्यावाद (अनेकान्त ) सिद्धान्तको सयुक्तिक सुन्यवस्था की है और स्याद्वादविद्वेषी एकान्तवादियों में प्राप्ताशा (माया) बतलाकर उनक एकान्त सिद्धान्तोंकी बहुत ही सुन्दर युक्तियों के साथ पालोचना की है। जैनदश्चनके आधारभूत स्तम्भ ग्रन्थों में प्राप्नमीमांसा पहला ग्रन्थ है। इसके ऊपर भट्ट प्रकलङ्कदेवने 'अष्टशती' विवरण (भाष्य), आ० विद्यानन्दने 'प्रष्टसहस्री' (आप्तमीमांसालंकार या देवगमालंकार) और वसुनन्दिने 'देवागमवृत्ति' टीकाएं लिखी हैं। ये तीनों टीकाएं उपलब्ध भी हैं। पण्डित जयनन्दजीकृत इनकी एक टीका हिन्दी भाषामे भी है । श्रीमान् पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने इसकी दो और अनुपलब्ष टीकाओं को सम्भावना की है। एक तो वह जिसका संकेत प्रा. विद्यानन्दने प्रष्टसहस्त्रीके अन्तमं 'मत्र शास्त्रपरिसमाप्तो केचिदिदं मंगलवचनमनुतन्यते' इस वाक्यमें पाए हुए 'केचित् शब्दके द्वारा किया है । और
१ देखो, स्वामीसमन्तभन्न । स्वेताम्बर विद्वान् श्रीमान् पं. सुखलालजी इन्हें भाष्पको स्वोपन माननेके कारण विकमकी तीसरीसे पांचवीं शताब्दीका अनुमानित करते हैं । देखो, मानविन्दुको प्रस्तावना ।
१ स्वामीसमन्तभन्न पृ० १९६, २०० ।
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प्रस्तावना
दूसरी 'देवागमपचवार्तिकालंकार' है, जिसकी सम्भावना युक्त्यनुशासनटीका ( पृ० ६४ ) के ' इति देवागमपद्यवातिकालंकारे निरूपितप्रायम् ।' इस वाक्य में पड़े हुए 'देवागमपद्मवातिकालंकारे' पदसे को है परन्तु पहली टीकाके होनेकी सूचना तो कुछ ठीक मालूम होती है, क्योंकि मा० freraन्द भी उसका संकेत करते है। लेकिन पिछली टीकाके सद्भावका कोई प्रचार या उल्लेख अब तक प्राप्त नहीं हुप्रा । वास्तवमें बात यह है कि आ० विद्यानन्द 'देवागमपद्य वार्तिकालंकारे' पदके द्वारा अपनी पूर्वरचित दो प्रसिद्ध टीकाओं - दिवागमालंकार ( प्रष्टसहस्री और पद्य - वार्तिकालंकार ( इलोकवार्तिकालंकार) का उल्लेख करते हैं और उनके देखने की प्रेरणा करते हैं । पद्यका अर्थ श्लोक प्रसिद्ध ही है और अलंकार शब्दका प्रयोग दोनोंके साथ रहने से समस्यन्त एक वचनका प्रयोग मी असंगत नहीं है । अतः 'देवानमपद्यवार्तिकालंकार' नामको कोई प्राप्तमोमांसाकी टीका रही है, यह विना पुष्ट प्रमाणोंके नहीं कहा जा सकता । आ० अभिनव धर्मभूषणने आप्तमीमांसाकी अनेक कारिकाएं प्रस्तुत न्यायदीपिकामें बड़ी कृतज्ञता के साथ उद्धृत की है।
महाभाष्य — ग्रन्थकारने न्यायदीपिका पुं० ४१ पर निम्न शब्दोंके साथ महाभाष्यका उल्लेख किया है :
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'तदुक्तं स्वामिभिर्महाभाष्यस्यादावाप्तमीमांसा प्रस्तावे -'
परन्तु आज यह ग्रन्थ उपलब्ध जैन साहित्यमें नहीं है । मतः विचारणीय है कि इस नामका कोई ग्रंथ है या नहीं? यदि है तो उसको उपलब्धि आदिका परिचय देना चाहिए और यदि नहीं है तो प्रा० धर्म भूषणने किस आधार पर उसका उल्लेख किया है? इस सम्बन्धमें घपनी प्रोरसे कुछ विचार करने के पहले मैं कह दूं कि इस ग्रन्थके अस्तित्व विषयमें जितना अधिक ऊहापोह के साथ सूक्ष्म विचार पोर अनुसन्धान मुस्तारसी० ने किया है उतना शायद ही अबतक दूसरे विद्वान्ने किया हो । उन्होंने
GALLAR
१ देखो, स्वामीसमन्तभद्र ५० २१२ से २४३ तक ।
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न्याय-दीपिका अपने 'स्वामीसमन्तभद्र' ग्रन्थ के ३१ पेजोंमें अनेक पहलुमोंसे चिन्तन किया है और वे इस निष्कर्षपर पहुंचे हैं कि स्वामीसमन्तभद्र रचित । महाभाष्य नामका कोई ग्रन्थ रहा जरूर है पर उसके होनेके उल्लेख मन । तक तेरहवीं शताब्दीके पहले नहीं मिलते हैं। जो मिलते हैं व १३वी, १४वीं और १५वीं शताब्दीके है । अतः इसके लिए प्राचीन साहित्यको टटोलना चाहिए। मेरी विधारणा
किसी ग्रन्थ या ग्रन्थकारके अस्तित्वको सिद्ध करनेके लिए अधिकाशतः निम्न साधन अपेक्षित होते हैं :
(१) ग्रन्थोंके उल्लेख , (२) शिलालेखादिकके उल्लेख । (३) जनश्रुति-परम्परा।
१. जहाँ तक महाभाष्यके अन्योल्लेखोंकी बात है और वे अब तक जितने उपलब्ध हो सके हैं उन्हें मुख्तारसा ने प्रस्तुत किये ही हैं। हाँ, एक नया ग्रन्थोल्लेख हमें और उपलब्ध हुपा है । वह अभयचन्द्रमूरिकी स्याद्वादभूषणनामक लघीयस्त्रमतात्पर्यवृत्ति का है, जो इस प्रकार है :
"परीक्षितं विरचितं स्वाभिसमन्तभनाधः मूरिभिः । कथं त्यक्षेण विस्तरेण । क्व अन्यत्र तत्वायं महाभाष्यादी...".-सघी० ता. १०६७। __ ये अभयचन्द्रसूरि तथा 'गोम्मटसार' की मन्दप्रबोधिका टोका और प्रक्रियासंग्रह (व्याकरणविषयक टीकाग्रन्थ) के कर्ता अभयचन्द्रसूरि यदि एक हैं और जिन्हें डा० ए० एन० उपाध्ये' तथा मुख्तारमा०' ईसाकी १३वीं और वि०की १४वीं शताब्दीका विद्वान् स्थिर करते है तो उनके इस
१ देखो, अनेकान्त वर्ष ४ किरण १ पृ. ११६ । २ देखो, स्वामीसमन्तभद्र पृ० २२४ का फुटनोट ।
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प्रस्तावना
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उल्लेख से महामाष्यके विषयमें कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता। प्रथम तो यह, कि यह उल्लेख मुख्तारसा. के प्रदर्शित उल्लेखों के समसामयिक है, उसका शृङ्खलाबद्ध पूर्वाधार अभी प्राप्त नहीं है जो स्वामीसमन्सभा के समय सक पहुँचाये । दूसरे यह, कि अभयचन्द्रसूरि इस उल्लेखके विषयमें अभ्रान्त प्रतीत नहीं होते। कारण, वे प्रकलङ्कदेवकी लघीयस्त्र यगत जिस कारिकाके 'मन्यत्र' पदका 'स्वामीसमन्तभवाविसरि' शब्दका अध्याहार करके तत्वामहाभाष्य' व्याख्यान करते हैं वह सूक्ष्म समीक्षण करने पर अकलङ्कदेवको अभिप्रेत मालूम नहीं होता। बात यह है कि प्रकलङ्कदेव वहाँ 'अन्यत्र' पदके द्वारा कालादिलक्षणको जाननेके लिये अपने पूर्वरचित तरवार्थ राजवात्तिकभाष्यकी सूचना करते जान पड़ते हैं, जहां (रावपातक ४-४२) उन्होंने स्वयं कालादि पाटका विस्तारसे विचार किया है।
मद्यपि प्रक्रियासंग्रहमें भी अभयचन्द्र सूरि ने सामन्तभद्री महामाष्यका उल्लेख किया है और इस तरह उनके ये दो उल्लख हो जाते हैं। परन्तु इनका पूर्वाधार क्या है? सो कुछ भी मालूम नहीं होता। अत: प्राचीन साहित्य परसे इसका अनुसन्धान करने की अभी भी प्रावएकता बनी हुई है।
२. अबतक जितने भी शिलालेखों प्रादिका संग्रह किया गया है उनमें महाभाष्य या तत्वार्थमहाभाप्यका उल्लेखयाला कोई शिलालेखादि उपलब्ध नहीं है | जिससे इस ग्रंथके अस्तित्व विषयमें कुछ सहायता मिल सके । तत्त्वार्थसूत्रके तो शिलालेख मिलते भी हैं पर उसके महाभाष्यका कोई शिलालेख नहीं मिलता।
३.जनश्रुति-परम्परा जरूर ऐसी चली आ रही है कि स्वामी समन्तभदने तत्वार्थसूत्रपर 'गन्धरस्ति' नामका भाष्य लिखा है जिसे महाभाष्य और १ अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी । सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन ।।-शि. १०८ । श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तस्वार्थसूर्य प्रकटीचकार । यन्मुक्तिमार्गावरणोधतानां पायमध्यभवति प्रजानाम् ॥-शि०१०५(२५४)
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न्याय-वीपिका
तस्वार्षमाष्य या तत्त्वामहाभाष्य भी कहा जाता है और प्रात्ममीमांसा उसका पहला प्रकरण है। परन्तु जनतिका पुष्ट पोर पुराना कोई पाषार नहीं है । मालूम होता है कि इसके कारण पिछले पंपोल्लेख ही है ममी गत ३१ अक्तूबर(सन् १९०४) में कलकत्ता में हुए वीरशासनमहोत्सवपर श्री संस्करण सेठी मिले । उन्होंने कहा कि गन्धहस्ति महाभाष्य एक बगह सुरक्षित है और वह मिल सकता है । उनको इस बातको सुनकर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई पौर प्रेरणा की कि उसकी उपलब्धि मादिकी पूरी कोशिश करके उसकी सूचना हमें दें । इस कार्य में होनेवाले व्ययके भारको उठाने के लिये बोरसेवा मन्दिर, सरसावा प्रस्तुत है । परन्तु उन्होंने माज तक कोई सूचना नहीं की । इस तरह जनश्रुतिका आधारभूत पुष्ट प्रमाण नहीं मिलने से महाराष्यका अस्तित्व संदिग्ध कोटिमें भाज भी स्थित है।
मा० अभिनव धर्मभूषणके सामने अमयचन्द्र सूरिके उपर्युक्त उल्लेख रहे हैं और उन्हींके आधारपर उन्होंने न्यायदोपिकामें स्वामिसमम्तमद्रकृत महाभाष्यका उल्लेख किया जान पड़ता है । उन्हें यदि इस एन्यकी प्राप्ति हुई होती तो वे उसके भी किसी वाक्यादिको जरूर उदृत करते मोर अपने विषयको उससे ज्यादा प्रमाणित करते । पत: यह निश्चयरूपसे कहा जा सकता है कि प्राचार्य धर्मभूषण यतिका उल्लेख महाभाष्यको प्राप्तिहालतका मालूम नहीं होता। केवल जनश्रुतिके आधार और उसके मी माधारभूत पूर्ववर्ती पन्धोलेसोंपरसे किया गया जान पड़ता है।
४. बनेनम्याकरण--यह माचार्य पूज्यपादका, जिनके दूसरे नाम देवनन्दि और जिनेन्द्रबुद्धि, प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण व्याकरमान्य
१ "यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्धपा महत्या स जिनेन्दबुद्धिः । श्रीपूज्यपादोज्यानि देवसाभियंत्पूषितं पादयुगं यदीपम ।।"
अवन. शि. नं.४० (४)
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प्रस्तावना
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है। श्रीमाम् पं० नाथूरामजी प्रेमीके शब्दोंमें यह पहला जैन म्याकरम' है । इस ग्रंथकी जनपरम्परामें बहुत प्रतिष्ठा रही है। भट्टाकलदेव भादि अनेक बड़े बड़े प्राचार्योंने अपने ग्रन्थों में इसके सूत्रोंका बहुत उपयोग किया है । महाकवि वनजय ( नाममालाक कता तो इस अपश्चिम रत्न' (बेजोड़ रत्न) कहा है' । इस प्रन्थपर अनेक टोकाएं लिखी गई हैं। इस समय केवल निम्न चार टीकाएं उपलब्ध हैं :-अभयनन्दिकृत महावृत्ति, २ प्रभाचन्द्रकृत शम्दाम्भोजभास्कर, ३ प्रार्य श्रुतिौतिकृत पंचवस्तु प्रक्रिया मोर ४ पं. महाचन्द्रकृत लघुजनेन्द्र । इस ग्रंथ के कर्ता मा० पूज्यपादका समय ईसाकी पांचवी और विक्रमको छठी शताब्दी माना जाता है । जनेन्द्रध्याकरणके अतिरिक्त इनकी रची हुई–१ तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि), २ समाधितन्य, ३ इष्टोपदेश, ४ और दशभक्ति (संस्कृत) ये कृतियां उपलब्ध हैं । सारसंग्रह, शब्दावतारन्यास, जैनेन्द्रन्यास और वैद्यकका कोई ग्रंथ ये अनुपलब्ध रचनाएं, है जिनके अन्यों, शिलालेखों प्रादिमें उल्लेख मिलते हैं । अभिनव धर्मभूषणने न्यायदीपिका पृ०११ पर इस ग्रंथके नामोल्लेखके बिना और पृ० १३ पर नामोल्लेख करके दो सूत्र उदृत किये हैं।
प्राप्तमीमांसाविवरण-ग्रंथकारने न्यायदीपिका पृ० ११५ पर इस का नामोल्लेख किया है और उसे श्रीमदाचार्यपादका बसलाकर उसमें कपिलादिकोंकी आप्ताभासताको विस्तारसे जाननेको प्रेरणा की है । यह माप्तमीमांसाविवरण प्राप्तमीमांसापर लिखीगई अकलङ्कदेवकी 'अष्टशतो' नामक विवृत्ति और प्राचार्य विद्यानन्दरचित प्राप्तमीमांसालंकृति-पष्ट.
२ इस. ग्रन्थ और ग्रन्यकारके विशेष परिचयके लिये 'चन साहित्य और इतिहासके देवनन्दि और उनका जनेन्द्रव्याकरण निबन्ध और सम घितन्त्रको प्रस्तावना देखें । ३ "प्रमाणामकलवस्य पूज्यपादस्य सक्षम। धनराजयकवे काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् । "-माममाला ।
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सावना
___ अह प्रत्येक विषयको अन्तिम व्यवस्था अनेकान्तका आश्रय लेकर करताहै ।
तस्वार्थ सूत्र की समस्त टोका राजवात्तिक प्रधान टीका है । या श्रीमान् पं० सुखलालजीके शब्दोंम यों कह सकते हैं कि "राजवानिक गद्य, नरल
और विस्तृत होनेसे तत्वार्थ के सपूर्ण टीका ग्राधाकी गरज अकेला ही पूरी करता है ।" वस्तुतः जनदर्शनका बहुविध एवं प्रामाणिक अभ्यास करनेक लिए केवल राजवात्तिकका अध्ययन पर्याप्त है। न्यायदोषिकाकारने न्या. दी. पृ०३१ और ३५ पर राजवात्तिकका तथा १०६ और ३२ पर उनके भाष्यका जुदा जुदा नामोल्लेख करके कुछ वाक्य उद्धृन किये हैं।
न्यायविनिश्चय-यह प्रकलङ्कदेवकी उपलब्ध दार्शनिक कृतियोमें अन्यतम कृति है। इसमें तीन प्रस्ताव (परिच्छेद) है और तीनों प्रस्तावोंकी मिलाकर कुल ४८० कारिकाएँ हैं। पहला प्रत्यक्ष प्रस्ताव है जिसमें दर्शनान्तरीय प्रत्यक्षलक्षणोंकी पालोचनाके साथ अनसम्मत प्रत्यक्ष-लक्षणका निरूपण किया गया है और प्रासगिक कतिपय दूसरे विषयोंका भी विवेचन किया गया है। दूसरे अनुमान प्रस्ताव में अनुमानका लक्षण साधन, साधनाभास, साध्य, माझ्याभास आदि पनुमानके परिकरका विवेचन है और तीसरे प्रस्तावमें प्रवचनका स्वरूप प्रादिका विशिष्ट निश्चय किया गया है। इस तरह इस न्यायविनिम्नयम जनन्यायकी रूपरेखा बांधकर उसकी प्रस्थापना की गई है। यह ग्रन्थ भी अकलदेवके दूसरे ग्रंथोंवोही तरह दुर्बोच और गम्भीर है। इसपर प्रा. स्पाद्वादविद्यापति वादिराजसूरिकी न्यायविनिश्चर्याववरण अथवा न्यायविनिश्चयालंकार नामकी वैदुष्यपूर्ण विशाल दी का है । प्रकलङ्कदेवको भी इसपर स्वोपज्ञ विवृत्ति होनेकी सम्भावना की जाती है, क्योंकि लघीयस्त्रय और प्रमाणसंग्रहपर भी उनकी स्वोपज्ञ विवृनियाँ है । तथा कतिपय वैसे उल्लेग्न भी मिलने है। न्यायविनिश्चय मूल प्रकलङ्कग्रन्थषयमें मुद्रित हो चुका है। वादिराज मूरिकृत टोका अभी प्रमुद्रित है। मा. पर्मभूषणने इस ग्रन्थके नामोल्लेखके साथ न्यायदीपिका प० २४ पर
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न्याय-दीपिका
इसकी प्रपंकारिका मौर पृष्ठ ७० एक पूरी कारिका उद्धृत की है।
परीक्षामुस-यह प्राचार्य माणिक्यनन्दिवी असाधारण भौर पपूर्व कृति है । तथा जैनन्यायका प्रथम सूत्रग्रन्थ है। यद्यपि अफलादेव जनन्यायकी प्रस्थापना कर चुके थे और अनेक महत्वपूर्ण स्फुट प्रकरण भी लिख चुके थे। परंतु गौतमके न्यायमूत्र, दिग्नागके न्यायप्रवंश, न्यापमुख मादिकी तरह जैनन्यायको मुत्रनल कारमाला 'गायत्र' गण जनपरम्परामें अब तक नहीं बन पाया था। इस कमीको पुमिको सर्वप्रथम मा माणिक्यनन्दिने प्रस्तुत 'परीक्षामुख' लिम्बकर किया । माणिक्यनन्दिकी यह अकेली एक ही अमर रचना है ,जो भारतीय न्यायसूत्रग्रन्थों में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। यह प्रपूवं अन्य संस्कृत भाषामें निबद्ध है। छह परिम्दोंमें विभक्त है और इसकी सूत्रसंख्या सब मिलाकर २०७ है । सूत्र बड़े सरल, सरस तथा नपे तुले हैं। सायमें गम्भीर, तलस्पी पौर भगौरवको लिए हुए हैं। प्रादि और भन्तमें दो पद्य है । प्रकसंकदेवके द्वारा प्रस्थापित जनन्यायको इसमें बहुत ही सुन्दर हुंगसे ग्रथित किया गया है । लघु अनन्तवीर्यने तो इसे अकलंकक वचनरूप समुद्रको' मषकर निकाला गया 'यापियामृत-न्यायविद्याका अमृत बतलाया है। इस ग्रन्धरलका महत्व इमोसे क्यापित हो जाता है कि इसपर अनेक महत्वपूर्ण टीकाएं लिखी गई है। प्राः प्रमाचन्द्रने १२ हजार फ्लोकप्रमाण 'प्रमेयकमलमासंण्ड' नामकी विशालकाय टीका
१ प्रकलङ्कके वचनोंसे परीक्षामुख' का उद्धृत हुप्रा है, इसके लिए मेरा परीक्षामूलसूत्र और इसका उद्गम' शीर्षक लेख देखें । 'अनेकान्स' वर्ष ५ मिरण ३-४ पृ. ११६-१२८ ।
२ "मकसपषोऽम्भोयरुदने येन धीमता । न्यायविचामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्विने ।।"प्रमेयर० प्र०३।
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प्रस्तावना
लिखी है । इनके पीछे १२ चौं शताब्दीके विद्वान् लघु प्रनन्तवीर्यने प्रसन्न रचनाशलीवाली 'प्रमेपरत्नमाला' टीका लिखी है । यह टीका है तो छोटी, पर इतनी विशद है कि पाठकको बिना करिनाईके सहज ही मर्थबोध हो बाता है। इसकी शब्दरचनासे हेमचन्द्राचार्य भी प्रभावित हुए हैं भोर उन्होंने अपनी प्रमाणमीमांसा : नथा .. उनका अनुहारमा किया है। न्यायदीपिकाकारने परीक्षामुखके अनेक मूत्रोंको नामनिर्देश पर बिना नामनिर्देशके उद्धृत किया है। वस्तुतः मा० वर्मभूषणने इस सूत्र• ग्रन्थका जूव ही उपयोग किया है । श्यापदीपिकाके आधारभूत अन्योंमें परीक्षामुखका नाम लिया जा सकता है ।
तरवार्यश्लोकवातिक और भाध्य-प्रा. उमास्वातिके तत्वाधमूत्रपर कुमारिलके 'मीमांसारलोकवात्तिक' और घमंकीतिके 'प्रमाणवात्तिक' की तरह पद्यात्मक विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्नोकवात्तिक रचा है और उसके पद्मवात्तिकोंपर उन्होंने स्वयं गद्य में भाष्य लिखा है जो तस्वार्थनाकवात्तिकभाष्य' और 'श्लोकवातिकभाष्य' इन नामोंसे कथित ता है। प्राचार्यप्रवर विद्यानन्दने इसमें अपनी दार्शनिक विद्याका पूरा ह। खजाना खोलकर रख दिया है और प्रत्येकको उसका प्रानन्दरसास्वाद लेने. के लिये निःस्वार्थ आमंत्रण दे रखा है इलोकवातिकके एक सिरेसे दूसरे सिरे तक चले जाइये, रावत्र तार्किकता और गहन विचारणा ममव्याप्त है। कहीं मीमांसादर्शनके नियोग भावनादिपर उनके सूक्ष्म एवं विशाल पाणिष्टत्यकी प्रखर किरणें अपना तीक्षण प्रकाश डाल रही हैं तो कहीं न्यायदर्शन. के निग्रहस्यानादिरूप प्रगाढ तमको निष्कासित कर रहीं हैं और कहीं । दर्शनकी हिममय चट्टानोंको पिपला पिघला कर दूर कर रही है । तरह श्लोकवात्तिकमें हमें विद्यानन्दके अनेकमुख पाहित्य और . प्रज्ञलाके दर्शन होते हैं । यही कारण है कि जनताकिकोंमें प्राचार्य i... नन्दका उन्नत स्थान है । लोकवात्तिक के अलावा विद्यानन्दमहोदय, ५२. सहस्री, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, प्राप्तपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा और
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८२
न्याय-दीपिका
युक्त्यनुशासनालङ्कार मादि दार्शनिक रचनाग उनको बनाई हुई है। इनमें विद्यानन्दमहोदय, जो श्लोकवानिककी रचनामे भी पहलेकी' विशिष्ट रचना है और जिसको उल्लेख तत्त्वार्थक्लोफवालिक { पृ० २७२, ३८५) तथा प्रष्टसहस्त्री ( पृ०२८६, २६० ) में पाये जाते हैं, अनुपलब्ध है । पोषकी रचनः लक्ष्य हैं श्री सत्यशासनप रामाको छोड़कर मुद्रित भी हो चुकी हैं। पा० विद्यानन्द अकालङ्कदेवके उत्तरकालीन और प्रभाचन्द्राचार्यके पूर्ववर्ती है। अतः इनका अस्तिन्व-मगय नवमी शनाब्दी माना जाता है । अभिनव धर्ममूषणने न्यारदीपिकाम इनके श्लोकात्तिक मौर भाष्यका कई जगह नामोल्लेख करके उनके वाक्यों को उद्धृत किया है।
प्रमाणपरीक्षा-विद्यानन्दको ही यह अन्यतम कृति है। यह प्रकलकदेवके प्रमाणसंग्रहादि प्रमाणविषयक प्रकरणों का प्राथय लेकर रची गई है । यद्यपि इसमें परिच्छेद-भेद नहीं है तथापि प्रमाणमात्रको भपना प्रतिपद्य विषय बनाकर उसका अच्छा निमपण किया गया है । प्रमाणका सम्यग्ज्ञानत्व लक्षण करके उसके भेद, प्रभेदों, प्रमाणका विषय तथा फल और हेतुओं की इसमें शुन्दर एवं विस्तृत चर्चा की गई है। हेतु-भेदोंके निदशंक कुछ संग्रहश्लोकोंको तो उद्धृत भी किया है । जो पूर्ववर्ती किन्हीं जैनाचार्याक ही प्रतीत होते हैं। विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवासिक' पौर मष्टसहस्त्री की तरह यहाँ भी प्रत्यभिज्ञानके दोही भेद गिनाये हैं। जबकि मक
१ पूर्ववर्तित्वके लिए 'तत्त्वार्यसूत्रका मंगलाचरण' शीर्षक मेरा द्वितीय लेख देखें, अनेकान्त वर्ष ५ किरण १०-११ पृ ३८० | देलो, न्यायशुमुद द्वि० भा० की प्रस्तावना पृ. ३० और स्वामी समन्तभद्र पृ० ४८ । ३ 'तद्विधकत्वसादृश्यगोमरत्वेन निश्चतम्'--त. श्लो. पृ० १६. । ४ तदेवेदं तत्सद्दामेवेदमित्येकत्वसरदृश्यविपयस्थ द्विविषप्रत्यभिज्ञानस्य ' '-प्रष्टस. पृ० २७६ । ५ द्विविधं हि प्रस्पभिमान' प्रमाणप० पृ. ६६।
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प्रस्तावना
नई प्रौर माणिक्यनन्दिने' दोसे ज्यादा वाहे हैं और यही मान्यता अनपरम्परामें प्राय: सर्वत्र प्रतिष्ठित हुई है. इससे मालूम होना है कि प्रत्यभिज्ञानके दो भेदोंकी मान्यता विद्यानन्दकी अपनी है । प्रा. धर्मभूषणने पृ० १७ पर इस ग्रन्थवी नामोल्लेख के साथ एक कारिका उद्धत की है।
पत्रपरीक्षा-यह भी प्राचार्य विद्यानन्दको रचना है । इसमें दर्शनात पलक्षणों सालोगना जाष्टिो मा बल मुन्दर लक्षण किया है तथा प्रतिज्ञा और हेतु इन दो अवयवोंको ही अनुमानान बतलाया है । न्यायदीपिका पृ० ८१ पर इमग्रन्यका नामोल्लेख हुमा है और उसमें अवयवोंके विचारकको विनारसे जानने की सूचना की है।
प्रमेयकमलमार्तण्ड-यह प्रा. माणिक्यनन्दिके 'परीक्षामुख' सूत्रप्रन्थपर रचा गया प्रभाचन्द्राचार्यका बृहत्काय टोकाग्रंथ है। इसे पिछले लघु अनन्तवीर्य ( प्रमेय रत्नमालाकार } ने 'उदारचन्द्रिका' को उपमा दी और अपनी कृति--प्रमेयरलमालाको उसके सामने जुगुनके सदृश बतलाया है इससे प्रमेयकमलमार्तण्डका महत्व ख्यापित हो जाता है । निःसन्देह मात्तंण्डके प्रदीप्त प्रकाशमें दर्शनान्तरीय प्रमेय स्फुटतया भासमान होते हैं। स्वतत्त्व, परतत्व और यथार्थता, अयथार्थताका निणंच करने में कठिनाई नहीं मालूम होती । इस ग्रन्थके रचयिता प्रा. प्राचन्द्र ईसाकी १० वीं और ११वीं शताब्दी ( १८०से १०६५ ई० ) के विद्वान् माने जाते है। इन्होंने प्रमेयकमलमार्तण्डके अलावा न्यायकुमुदचन्द्र, तत्त्वार्यवृत्तिपदविवरण, शाकटायनन्यास, शब्दाम्भोजभास्कर प्रवचनसारस रोजभास्कर, गद्यकथाकोश. रलकरण्द्वश्रावकाचारटीका और समाधितंत्रटीका मादि अन्योंकी रचना की है। इनमें गद्यकथाकोश स्वतन्त्र कृति है मौर शेष
१ देखो, लघीयका० २१ १ २ देखो, परीक्षामु० ३.५ से ३.१० । ३ देखो, न्यायकुमुद वि. मा. प्र. पृ० ५८ तथा प्रमेयकमनमातंग प्रस्ता० पृ. ६७ ।
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न्याय-दीपिका
टीका कृतियाँ हैं । धर्मभूषणने न्यायदीपिका १०३० पर तो इस पंपका केवल नामोल्लेख और ५.४ पर नामोल्लेखके साथ एक वाक्यको भी। उमृत किया है।
प्रमाण-निर्णय-न्यायविनिश्चयविवरणटीकाके कर्ता भा० वादिराजसूरिका यह स्वतन्त्र तार्किक प्रकरण ग्रंय है। इसमें प्रमाणलक्षणनिर्णय, प्रत्यक्ष निर्णय, परोक्षनिर्णय और भागमनिर्णय ये चार निर्णय (परिच्छेद) हैं, जिनके नामोंसे ही ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट मालम हो जाता है। न्या. बी पृ०
नाभाल्लखके साथ एक वाक्यको उद्धृत किया है।
कारुण्यकलिका-यह सन्दिग्य ग्रन्थ है । न्यायदीपिकाकारने पृ० १११ पर इस ग्रन्थका निम्न प्रकारसे उल्लेख किया है
'प्रपञ्चितमेतदुपाधिनिराकरणं कारकलिकायामिति विरम्यते' परन्तु बहुत प्रयत्न करनेपर भी हम यह निर्णय नहीं कर सके कि यह अन्य जनरचना है या जनेतर । प्रथया स्वयं ग्रन्थकारकी ही न्यायदोपिकाके अलावा यह अन्य दुसरी रचना है । क्योंकि अब तकके मुद्रित जैन और जनेतर ग्रन्थोंकी प्राप्त सूचियोंमें भी यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। पत: ऐसा मालूम होता है कि यह या तो नष्ट हो चुका है या किसी लायोरीमें असुरक्षित रूपमें पड़ा है। यदि नष्ट नहीं सुना और किसी लायबरीमें है तो इसकी खोज होकर प्रकाशमें आना चाहिए। यह बहुत ही महत्वपूर्ण और अच्छा अन्य मालूम होता है। न्यायदीपिकाकारके उल्लेखसे विदित होता है कि उसमें विस्तारसे उपाधिका निराकरण किया गया है। सम्भव है गदाधरके 'उपाधिवाद' ग्रन्थका भी इसमें खण्डन हो।
स्वामीसमन्तभव--ये वीरशासनके प्रभावक, सम्प्रसारक और खास युगके प्रवर्तक महान् पापाय हुये हैं सुप्रसिख तार्किक भट्टाकलदेवने इन्हें कलिकालमें स्थानावरूपी पुष्पोदपिके वीर्षका प्रभावक बताया
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प्रस्तावना
है। प्राचार्ग जिनसेनने इनके वचनोंको भ० वीरके वचनतुल्य प्रकट किया है और एक शिलालेखमें' तो भ० वीरके तीर्थकी हजारगुणी वृद्धि करनेवाला भी कहा है । आ० हरिभद पोर विद्यानन्द जैसे बडे बडे आचार्योने उन्हें याविमुख्य' 'माग्रस्तुतिकार 'स्यामादन्यायमार्गका' प्रकाशक' आदि विशेषणों द्वारा स्मृत किया है इसमें सन्देह नहीं कि उनरवर्ती प्राचार्योने जितना गुणगान स्वामी समन्तभद्रका किया है उतना दूसरे प्राचार्यका नहीं किया । वास्तवमें स्वामी समन्तभद्र ने वीरशासनको जो महान् सेवा की है वह जनवाङ्मयके इतिहासमें सदा स्मरणीय एव ममर रहेगी। प्राप्तमीमांसा (देवागमस्तोत्र), गुक्त्यनुशासन, स्वयम्भूस्तोत्र रत्नकरण्डश्रावकाचार और जिनशतक (जिनस्तुतिशतक) ये पांच उपलब्ध कृतियाँ इनकी प्रसिद्ध है । तत्वानुशासन, जीवसिद्धि, प्रमाणपदार्थ, कमप्राभृलटीका प्रऔर गन्धहस्तिमहाभाष्य इन ५ ग्रन्थों के भी इनके द्वारा रखे जानेके उल्लेख ग्रन्थान्तरों में मिलते हैं। परन्तु अभी तक कोई उपलब्ध नहीं हुया । गन्धहस्तिमहाभाष्य (महाभाष्य) के सम्बन्ध में पहिले विचार कर पाया है। स्वामीसमन्तभद्र बौद्ध विद्वान नागार्जुन (१८१ई०) के समकालीन या कुछ ही समय बादके पौर दिग्नाग (३४५४२५६०) के पूर्ववर्ती विद्वान् है। अर्थात् इनका अस्तित्व-समय प्राय: ईसाको दूसरी और तीसरी शताब्दी है कुछ विद्वान इन्हें दिग्नाम (४२५ई. और धर्मकीति ( ६३५ई०) के उत्तरकालीन अनुमानित करते है।
१ देखो, अष्टशती पृ० २१ २ देखो,हरिवंशपुराण १.३० । ३ देखो, वेलूर ताल्लुकेका शिलालेख नं० १७ । ४ इन अन्योंके परिचयके लिये मुल्तार सा० का हवामीसमन्तभद्र' ग्रन्थ देग्नें । ५ देखो, 'नागार्जुन मौर स्वामीममन्तभद्र' तथा 'स्थामोसमन्तभद्र और दिग्नागमें पूर्णवर्ती कौम' शीर्षक दो मेरे निवन्ध 'अनेकान्त' वर्ष ७ किरण १-२ और वर्ष ५ कि० १२ । ६ देखो, न्यायकुमुद द्वि० भा० का प्रावकथन और प्रस्तावना ।।
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न्याय-पीपिका
मर्थात् ५वों और सातवीं शताब्दी बतलाते हैं । इस सन्बन्ध जो उनकी दलीलें हैं उनका युक्तिपूर्ण विचार अन्यत्र किया है। पर इस संक्षिप्त स्थानपर पुनः विचार करना शक्य नहीं है। न्यायदीपिकाकारले न्यायदीपिकामें अनेक जगह स्वामी समन्तभद्रका नामोल्लेख किया है और उनके प्रसिद्ध दो स्तोत्रों-देवागमस्तोष प्राप्तमीमांसा) और स्वयम्भूतोत्र. से अनेक कारिकानों को उद्धृत किया है।
भट्टाकलदेव ये 'जनन्यायके प्रस्थापक' के रूपमें स्मृत किये जाते हैं जैनपम्पराके सभी दिगम्बर भौर श्वेताम्बर साकिक इनके द्वारा प्रतिष्ठित 'न्यायमार्ग' पर ही चले हैं। मागे जाकर तो इनका यह 'न्यायमार्ग' 'भकलङ्कन्याय के नामसे प्रसिद्ध हो गया । तत्वार्थवातिक, प्रष्टशती, न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय और प्रमाणसंग्रह प्रादि इनकी महत्वपूर्ण रचनाएं हैं । ये प्रायः सभी दार्शनिक कृतिर्श है और तत्त्वार्यवात्तिकभाष्यको छोड़कर सभी गूद्ध एवं दुरवगाह हैं । मनन्तवीर्यादि टीकाकारोंने इनके पदोंकी व्याख्या करनेमें अपनेको असमर्थ बतलाया है। वस्तुत: अकलङ्कदेवका वाङ्मय अपनी स्वाभाविक जटिलताके कारण विद्वानों के लिए बाज भी दुर्गम और दुर्बोध बना हुआ है। जबकि उन पर टीकाएं भी उपलब्ध हैं। जैन साहित्यमें ही नहीं, बल्कि भारतीय दर्शनसाहित्यमें प्रकलङ्कदेवकी सर्व कृतियाँ अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। इनकी कतिपय कृतिमोंका कुछ परिचय पहले करा पाये हैं । श्रीमान् पं. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने इनका अस्तित्वकाल अन्तःपरीक्षा प्रादि प्रमाणोंके प्राधारपर ईसाकी आठवीं शताब्दी ( ७२०से७८० ई.) निर्धारित किया है' ! न्यायदीपिकामें धर्मभूषणजीने कई जगह इनके नाम
१ देखो, 'क्या स्वामीसमम्तमा धर्मकोतिके उत्तरकालीन है?' नामक मेरा लेख, अंगसिद्धान्तभास्कर भा० ११ किरण १ । २ देखो, यकसमन्यत्रयको प्रस्तावना पृ० ३२ ।
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ちら
प्रस्तावना
का उल्लेख किया है और तस्वार्थवार्तिक तथा न्यायविनिश्चयसे कुछ वाक्योंको उद्धृत किया है ।
कुमारनच्चि भट्टारक - यद्यपि इनकी कोई रचना इस समय उपलब्ध नहीं है, इससे इनका विशेष परिचय कराना अशक्य है फिर भी इतना जरूर कहा जा सकता है कि ये आ० विद्यानन्दके पूर्ववर्ती विद्वान हैं और अच्छे तार्किक हुए हैं। विद्यानन्दस्वामीने अपने प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा और तत्वार्थश्लोकवात्तिकमें इनका और इनके 'बादन्याय' का नामोल्लेख किया है तथा उसकी कुछ कारिकाएं भी उद्धृत की हैं। इससे इनकी उत्तरावधि तो विद्यानन्दका समय है अर्थात् वीं शताब्दी है । और अकल देवके उत्तरकालीन मालूम होते हैं, क्योंकि अकलङ्क देवके समकालीनका अस्तित्व परिचायक इनका अब तक कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है । अतः अकलङ्कदेवका समय (वीं शताब्दी) इनकी पूर्वावधि है । इस तरह ये वीं वीं सदी के मध्यवर्ती विद्वान जान पड़ते है । चन्द्रगिरि पर्वतपर उत्कीर्ण शिलालेख नं० २२७ (१३६) में इनका उल्लेख है जो है वीं शताब्दीका अनुमानित किया जाता है'। इनका महत्वका 'वादन्याय' नामका तर्कग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं जिसके केवल उल्लेख मिलते हैं । प्रा० धर्मभूषणने न्यायदी० पृ० ६६ और ८२ पर 'तयुक्तं कुमार विभट्टारक: कहकर इनके वादन्यायकी एक कारिकाके पूर्वार्द्ध और उत्तरार्धको अलग अलग उद्धृत किया है ।
माणिक्यनन्विये कुमारनन्दि भट्टारककी तरह तरह नन्दिसंघके प्रमुख प्राचार्य में हैं। इनकी एकमात्र कृति परीक्षमुख है। जिसके सम्बन्धमें हम पहले प्रकाश डाल आए हैं। इनका समय १०वीं शताब्दी के लगभग माना जाता है । ग्रन्थकारने न्यायदीपिकामें कई जगह इनका नामोल्लेख किया है । एक स्थान ( पृ० १२० ) पर तो 'भगवान' और
१ देखो, जैनशिलालेखसं० पृ० १५२, ३२१ ।
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न्याय-दीपिका
'भट्टारक' जसे महनीय विशेषणों सहित इन नामा उल्लेख करके परीक्षामुखके सूत्रको उद्धृत किया है।
स्यानादविद्यापति- यह प्राचार्य वादिराजमुवी विशिष्ट उपाधि थी जो उनके स्यावादविद्याके अधिपतित्व –अगाध पाण्डित्यको प्रकट करती है। ग्राम वादिराज अपनी इस उपाधि इन ने अभिन्न एवं तदात्म जान पड़ते हैं कि उनकी इस उपाधिसे ही पाठक वादिराजसूरिको पान लेते हैं . ही गार है कि न्यायाची परवविधरके सन्धिवाक्योंम 'स्याद्वादविधापति' उपाधिके द्वारा ही वे अभिहित हुग है'। न्यायदीपिकाकारने भी न्यायदोका पृ० २४ और ७० पर इसा उपापिसे उनका उल्लेख किया है और पृ० २४ पर तो इगो नामके साथ एक वाक्यको भी उद्धृत किया है। मालूम होता है कि 'ज्यावनिश्चय' जैसे दुरुह तकंग्रंथपर अपना वृहत्काय विवरण लिम्बनेके उपलक्षम ही इन्हें गुरूजनो अथवा विद्वानों द्वारा उका गौरवपूर्ण स्यादविद्याके धनोप उच्च पदवी. से सम्मानित किया होगा । वादिराजमूरि केवल अपने समयके महान ताकिक ही नहीं थे, वल्यिा वे गन्न ग्रहद्भन पत्र प्राजाप्रघानी, वयाकरण और अद्वितीय उच्च कवि भी थे। गाजिनिश्चर्याववरण, पार्श्वनाथरिन, यशोधरनारत, प्रायनगंग पोर एकीभावस्तोत्र
आदि इनकी वृतियां है । इन्होंने अपना पयस्य नामि शकसम्बन ६४७ ११०२५ ई० में समान किया । ग्रन: । माकी ११वो मदीक पूर्वार्धके विद्वान हैं।
१ इगका एक नमुना इग प्रकार है-~-इन्यासागस्याद्वादविद्यापनि. विरचित न्यायविनिश्चयकारिकाविवरण प्रत्यक्षप्रस्ताव. प्रधम ।'--. लि. पत्र ३०६ ।
२ 'बादि गजमनु यानि कलाको बादि गजमनु नानिमिहः । वादिराजमनु कान्यकृतम्त वादिगजमन भव्य महायः ।।'
--एकोभावस्तोत्र २६॥
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प्रस्तावना
२. अभिनव धर्मभूपगा प्रासंगिक
जैनसमाजने अपने प्रतिष्टित महान पुरुषों-तीर्थक, राजानों, प्राचार्यो, श्रेष्ठिवरों, विद्वानों तथा तीर्थक्षत्रों, मन्दिरों और ग्रंथागारों मादिक इतिवृत्तको संकलन करनेकी प्रवृत्तिको योर बहुत कुछ उपेक्षा एवं उदासीनता रखी है। इसीसे घाज सत्र कुछ हाल हप भी इस विषयमें म दुनिया की नजरा अकिञ्चन समझ जाते हैं। यपि यह प्रकट हैं कि जैन इतिहासको सामग्री विपुजन्यमे भारतके कोने-कोने में सर्वत्र विद्यमान है पर वह दिखरी हुई असम्बद्धरूपमें पड़ी हुई है। यही कारण है कि जैन इतिहासको जानने के लिए या उने मम्बद्ध करनके लिए अपरिमित कठिनाइयो प्रानी है और अन्य माना पड़ा है। प्रसन्नताकी दात है कि कुछ दूरदर्गा श्रीमान् विद्वान वर्गका प्रव इस ओर ध्यान गया । और उन्होंने इतिहास तथा गाहित्यके सकलन, अन्यषण आदिका क्रियात्मक प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया है।
प्राज हम अपने जिन ग्रन्थकार थी अभिनव धर्मभूपण का परिचय देना चाहते हैं उनको जानने के लिये जो कुछ साधन प्राप्त है वे यद्यपि पूरे पर्याप्त नहीं हैं । उनके माता-पितादिका क्या नाम था : जन्म और स्वर्गवास कब, कहाँ हुमा? आदिका उनसे कोई पता नहीं चलता है । फिर भी सौभाग्य और सन्तोषकी बात यही है कि उपलब्ध साधनों से उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व, गुरुपरम्परा, और ममयका कुछ प्रामाणिक परिचय मिल जाता है । अत: हम उन्हीं शिलालेख, अन्योल्लेख आदि माघनोंपरसे ग्रन्थकारके सम्बन्ध में कुछ कहनके लिये प्रस्तुत हुए हैं। ग्रन्थकार और उनके प्रभिनव तथा यति विशेषए___ इस ग्रन्यके कप्ता अभिनव धर्मभूषण यति हैं। न्यायदीपिकाके पहले और दूससे प्रकाशके पुष्पिकावाक्यों में 'यति' विशेषण तथा तीसरे
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न्यास-दीपिका
प्रकागवे - त्या अभिनयं निपन इनके नामरे माय पाय जार हैं । जिससे मालूम होता है कि कायदीपिकाके रचयिता धर्मभूषण अभि. नब और यगि दानी कहलाने थे । जाग पड़ता है कि अपने पूर्ववर्ती मं. भूषणांसे अगनको व्यावृत्त कराने लिये 'अभिनव विशेषण लगाया है। क्योंकि प्रायः ऐसा देखा जाता है कि एक नामके अनेक व्यक्तियोंमें अपने को जुदा करने के लिये कोई उपनाम रग्य निया जाना है । अतः 'अभिनव म्यायोपिकाकारका एक ध्यानतंक विशेषण या उपनाम समझना चाहिए। जैन साहित्य में ऐसे और भी कई भावार्य हा है जो अपने नाम के साथ मि. नव विशेषण लगाते हुए पाये जाने है। जैसे अभिनव पण्डिलाचार्य (शक. १२३३ ) अभिनव शुभमुनि' अभिनव गुणभद्र' और अभिनय पतिदेव प्रादि । अतः पूर्ववर्ती अपने नामबालास ज्यातिके लिपे 'अभिनव' विशेपण यह एक परिपाटो है। 'यति विशेषण तो स्पष्ट ही है क्योंकि वह मुनिक निये प्रयुक्त किया जाना है । अभि. नव धर्मभूपण अपने गुरु थोवर्द्धमान भट्टारकके पट्टके उन पिकागे हात थे और वे कुन्दकुन्दाचार्यकी ग्राम्नाय में हुए है । इसलिये इम विभेपणके द्वारा यह भी निश्रान्त जात हो जाता है कि ग्रन्थकार दिगम्बर जैन मुनि थे पीर भट्टारकः नामसे लोकविशुन थे ।
१ देखो, शिलालेख० नं० ४२१ । २ देखो, जननिलालम्बसं० पृ० २०१. शिलाले० १०५ (२४.५) । ३ देखो, 'मी, पी एण्ड वरार केटलाग' रा० ३० हौसलालद्वारा सम्पादित । ४ दवा, जनशिलालेख म० पृ. ६४५ शिलालेख नं० ३६५ ( २५७ ) ।
५. " शिष्यत्तस्य गुरोरामोद्धमभूषणदेशिकः । भट्टारकमुनिः श्रीमान् अत्यत्रयविजितः ॥ "
___ --विजयनगरदिला. नं० २।।
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प्रस्तावना
धर्मभूषण नाम के दूसरे विद्वान् --
ऊपर कहा गया है कि ग्रन्थकारने दूसरे पूर्ववर्ती धर्मभपणाम भिन्नत्य ख्यापित करनेके लिए अपने नाम गाय 'अभिनव' विशेषण लगाया है । अतः यहां यह बना देना प्रावश्यक प्रतीत होता है कि जनपरम्परामें धर्मभूषण नामके अनेक विद्वान् हो गये है । एक धर्मभूषण वे हैं जो भट्टारक धर्मचन्द्र के पट्टपर बेटे थे और जिनका उल्लेख्य बारप्रान्नके मूतिलग्यों में बहुलतमा पाया जाता है। ये मूतिलेस पकसम्वत् १५२२, १५३५, १५७२ और १५७७ के उत्तीर्ण हुए हैं । परन्तु ये धर्मभूषण भ्यायोगिकाकारके उनरकालीन है। दूसरे गाम भवन व है जिनके प्रादेशानुसार केशववर्गीन अपनी झोम्मदमारकी जीवतत्वप्रदीपिका नामक टीका शकसम्बत् १२८१ (१३५६ ई०) में बनाई है। तीसरे धर्मभुषण वे हैं जो अमरीतिके गुम थे तथा विजयनगरके मिलालेख नं. २ में उल्लिखित तीन धर्मभूषणोंमें पहले नम्वरपर जिनका उल्लेख है और जो ही सम्भवतः बिन्ध्यगिरि पर्वतके मिलानन्य न० १११ (२७४) में भी अमरकोत्तिके गुरुरूपस उल्लिखित हैं। यहां उन्हें 'कलि कालमर्वज' भी कहा गया है। चौथे धर्मभूषण वे है जो अमरकात्तिके शिष्य और विजयनगर शिलालेख नं० २ गत पहले धनंभूषण प्रदिप है एवं सिंहनन्दीतीके मचर्मा हैं तथा रिजपनगर शिलानर नं. २ के ११वें पद्य में दूसरे नं० के धर्मभुषण हाम उल्लिग्दिन है ।
१'सहस्रनामाराधना' के कर्ता देवेन्दकालिने भी 'राह्मनामाराधना' मे इन दोनों विद्वानोंका अपने गुरु और प्रारम्पम उल्लंग्य किया है । देखो, जैनसिद्धान्तभवन पारासे प्रकाशित प्रशस्ति सं० १० १४ ।
२ देखो, छा० ए० एन० उपाध्यका 'गोम्मटसारको जोवतस्व. प्रदीपिका टोका' शीर्षक लेव 'मनेकान्त' वर्ष ४ किरण १ प. ११८।
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न्याय-दीपिका
ग्रन्थकार धर्मभूषण और उनको परम्परा
प्रस्तुत प्रायके कर्ता धर्मभूषण उपवन धर्मभूषणों से भिन्न ह प्रार जिनका उल्लय उसी विजयनगरके शिलालेख नं० २ में नागर नम्बरके धर्मभूषण के स्थान पर है तथा जिन्हें स्पष्टतया श्रीवर्द्धमान भट्टारक शिष्य बतलाया है। न्यायदीपिकाकारने स्वयं न्यायदीपिकाक अन्तिम पध और अन्तिम (नीसरे प्रकाशगत) गुपिपत्रावाक्यम अपन गुम्का नाम श्रीवर्द्धमान भट्टारक प्रकट किया है। मेर। अनुमान है कि मङ्गलाचरण पद्य में भी उन्होने 'श्रीवर्द्धमान' पदक प्रयोग द्वारा वर्द्धमान मोका पोर पाने गुरु बर्द्धमान गट्टार दोनोंक) स्मरण किया है ! यांकि अपने परापरगुस्का स्मरण करना सर्वथा उचित ही है। धांधर्मभूषण अपने गुरुके अत्यन्त अनन्य भान थे। थे न्याय दीपिका के उसी अन्तिम पद्य और पुणिवावाश्य में कहते हैं कि उन्हें अपने उक्न गुरकी कृपामे ही सरस्वतीका प्रवर्ष (सारस्थानोदय) प्राप्त हुआ था प्रोर उनकं वणीको स्नेहमयी भवित-सेवासे न्यायचीपिका की पूर्णता हुई है । अतः मङ्गनाचरणपद्यम प्रगने गुम बर्द्धमान भट्टारकका भी उनके द्वारा रमण किया जाना सर्वथा-माभव एव मङ्गन है ।
बिजयनगरके उस शिलालेखमें जो दशकसम्बत् १३०३ (१३८५ ई.) में उत्कोर्ण हुआ है, ग्रन्थकार को जो गुरु परम्परा दी गई है उसके मूचक शिलालेखगत प्रकृतके उपयोगी कुछ गद्यांवो यहां दिया जाता है :
"यत्पादपङ्कजरजो रजो हरति मानमं । स जिनः श्रेयसे भूयाद् भूयसे काणालयः ॥१॥ धीमतारमगाम्भीरस्यामादामोधनाच्छनम् । जीयात त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ।।
१-२ देखो, पृ० १३२ ।
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प्रस्तावना
श्रीमूलसंजनि नन्दिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणेतिसंजः। तत्रापि सारस्वतनाम्नि गच्छे स्वच्छाशयोऽभूदिह एप्रनन्दी ॥३॥ प्राचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वकृग्रीवो महामुनिः । एलाचार्यो गृद्धपिच्छ इति तन्नाम पञ्चधा ।।४।। केचित्तदन्वये चारुमुनयः सनयो गिराम् । जलधाविय रत्नानि बभूवृदिश्यतेजसः ।।५।। तमामीच्चारचारित्ररत्न रत्नाकरो गुरुः । धर्मभूषणयोगीन्द्रो भट्टारकपदाचितः ।।६।। भाति भट्टारको धर्म भूषणो गणभूषणः । यद्याः कुसुमागोदे गमनं भ्रमरायते ॥७॥ शिप्यस्तस्य गुरोरासीदनगलत्तपोनिधिः । श्रीमानमरकोमि देशिकाग्रेसर: शमी ॥८॥ निगपक्षपुटकबाट घटपित्यानिलनिरोधितो हृदये । अविचलितबोधदीपं तमममरकीत्ति भजे तमोहरणम् ॥६॥ के.पि स्वोदरपूरणे परिणता विद्याविहीनान्तराः । योगीमा भुवि सम्भवन्तु बहवः किं तैरनन्तैरिह ।। पीरः स्फूजप्ति दुर्जयातनुमदध्वंसी गुणज्जिनरावार्योऽमरीति शिप्यगणभृच्छीसिंहनन्वीवती ॥१०॥ श्रीधर्मभूषोऽजनि तस्य पट्टे धीसिहनन्द्यार्यगुरोस्मधर्मा । भट्टारक: श्रीजिनधर्महस्तम्भायमानः कुमुदेन्दुकोतिः ॥११॥ पर्छ तस्य मुनेरासीढईमानमुनीश्वरः । धोमिहनन्दियोगिन्द्रचरणाम्भोजषट्पदः ॥१२॥ शिष्यत्तस्य गुरोरासोद्धमभूषणदेशिकः ।
भट्टारकमुनिः श्रीमान् शल्यत्रयविजितः ॥१३॥" इन पद्यों में मभिनव धर्मभूषणको इस प्रकार गुरुपरम्परा बसलाई गई हैर इसके मागेके लेख में १५ पच पोर हैं जिनमें राजवंशका ही वर्षन है।
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न्याय-दीपिका
मूलम', मन्दिस-बलात्कारगणके मारस्वतगच्छमें
पद्मनन्दी (कुन्दकुन्दाचार्य)
धर्म भूपण भट्टारका
अमरकीनि- यायं (जिनके शिष्यों के शिक्षक दीमक
सिदनन्दी बनी थे) थींवर्मभूपण भट्टारक II (मिहनन्दोवनीके सपर्मा)
बळमान मुनीश्यर: (निदानन्दीयतीके वरणगेवका )
धर्मभूषण यति ! (ग्रन्थकार) यह शिलानेन शकसम्वत् १३०७ में उत्तीर्ण हुआ है। इसी प्रकार का मिलानेव' :१: 1. जो विध्यागी पर्वतके अखण्ड वागिलुके पूर्वकी और ग्थिन चट्टान पर खुदा हुना है और जो गक सं० १२६५ में उत्कीर्ण हुपा है। उममें इस प्रकार परम्रा दी गई है :
१ "थीम परमगम्भीर-स्यावादामोध-लाञ्छनं ।
जीवान् बलोक्यनाथम्य शासनं जिन-शासनं ॥१॥ श्रीमुल-सङ्घपयः पयोधियर्द्धनमुघाकराः श्रीक्लात्कारगणकमल-कलिकाकलाप-विवचन दिवाकराः' 'वनवा "तकोतिरेवानमियाः राय-भुजसुवाम....''प्राचार्य महा वादिबादीश्वर राय-वादि-पितामह सकनविद्वज्जन-चक्रवत्ति देवेन्द्रविशाल-कीति-देवा लमिप्या: भट्टारकश्रीशुभकोतिदेवारमायाः कलिकाल गच्चंत्र-भट्टारक-धम्म भूषगवेवाः नत्यिप्या: श्रीअमरकोाचार्याः नरिमाया: मानि तिनपाणां प्रथमानल......... रमित नुन-पा........... यमुल्लासकः ....... देमक'चायपत्रिपुना याचवा''... 'करण-मानण्डमण्ड लानां भट्टारक
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प्रस्तावमा
मूलसंघ–लाकारगण कीर्ति ( बनवासिके )
देवेन्द्र विशालकात्ति
शुभकीतिदेव भट्टारक
धर्मभूषणदेव
अमरकीत्ति प्राचार्य
धर्मभूषणदेव'
वर्द्धमानस्वापी इस दोनों लेखोंको मिलाकर ध्यानसे पढ़ने से विदित होता है कि प्रथम धर्मभूषण, प्रमरकीति प्राचार्य धर्मभूषण द्वितीय और बईमान ये चार विद्वान सम्भवतः दोनों के एक ही हैं। यदि मेरी यह सम्भावना ठीक है तो यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है वह यह कि विन्च्यगिरिके लेख (शक १२६५ ) में वर्द्धमानका तो उल्लेख है पर उनके शिष्य (पट्ट के उत्तराधिकारी) तृतीय धर्मभूषणका उल्लेख नहीं है । जिससे जान पड़ता है कि उस समय तक तृतीय धर्मभूषण वर्द्धमानके पट्टाधिकारी नहीं बन मके होंगे और इसलिये उक्त शिलालेखमें उनका उल्लेख नहीं पाया ! धर्मभूषण देवानां...."तत्त्वार्थ-वाद्धिवर्द्धमान-हिमांशुना...."यमानस्वामिना कारिनोऽहं [पं] प्राचार्यणां ... स्वस्तिशक-वर्ष १२६५ परि. धावि संवत्सर वैशाख-शुश ३ बुधवारे ।"-उवृत जैनशि०५०२२३ में।
प्रो० होरालालजीने इनकी निषथा बनवाई जानेका समय पर सम्वत् १२६५ दिया है ! देखा, शिलालेखसं० पृ. १३६ । ...
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न्यात-दीपिका
किन्तु इस शिलालेख के कोई १२ वर्ष शदशक सं० १३०३ (१३८५६०) में उत्कीर्ण हुए विजयनगरके इल्लिखित शिलालेय नं. २ में उनका (तृतीय धर्मभूषणका) स्पष्टतया नामोल्लेख है। अत: यह सहजम अनुशन हो सकता है कि वे अपने गुरु वर्द्ध मानके पदाधिकारी शक सम्वत् १२६५से १३०७ में किसी ममय बन चुके थे । इस नाह अभिनव धर्मभूपणके साक्षात् गुर श्रीवर्द्धमानमुनीचर और प्रथम द्वितीय धर्मभूषण थे । अमरकीति दादागुरु और प्रथममभरण परदादा रथे । प्रौर एमोसे मेरे याल में उन्होंने अपने इन पुर्वदना गुज्य प्रगुरु (द्वितीय थर्मभूषण तथा परदादागुम (प्रथमधर्मभपण) रो पनाही न नया व मनाने के लिये अपनेको अभिनव विशेषणमे बिरोपित किया जान पड़ना है जो कुछ हो, यह आवश्य है कि अपने गृहके प्रभावशानी या माय माय । समय-विचार
__यद्यपि अभिनव धर्मभूगणी निमित तिथि बनाना कठिन है नयापि सो साधार प्राप्त है उनपर करके रामयका लगभग निचय होजाता है। अतः यहाँ उनके समयका विचार किया जाता है।
विध्य गिरिका जो शिलालेप प्राप्त है वह भय नम्बर १२९५ का उत्तीर्ण किया हुया है । मैं पहले बनला आया कि इसमें प्रथम और द्वितीय इन दो ही धर्मभूगणों का उन्म है, और द्वितीय पर्यभूषण शिम वर्द्धमानका अन्तिमझपरो उस्लोप है । नृतीय धर्मगका उल्लंत्र उममें नहीं गाया जाता । प्रो० होलान जो गम.. वो इनवानुमार द्वितीय धर्मभूपणको निपद्या (निःगही) स. १२६५म वनवाई गई हैं। प्रतः द्वितीय धर्मभूषणका अस्तित्वसमग शकाम ०१२६५तक ही समझना चाहिए । मेरा अनुमान है कि केशदवर्गीको अपनी गोम्मटसार की जीवसत्त्वप्रदीपिका टीका बनानेकी प्रेरणा एवं प्रदेश चिन धर्मभूषणसे मिला के धर्मभूषण भी यही द्वितीय धर्मभषण होना चाहिये । क्योंकि इनक
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प्रस्तावना
__पट्टका समय यदि २५ वर्ष भी हो तो इनका पट्टार बैठने का ममय शक
सं० १२५० के लगभग पहुंच जाता है उस समय या उसके उपगन्त वेशववर्णी को आयुक्त टोकाके लिखने में उनसे आदेश एवं प्रेरणा मिलना असम्भन नहीं है । कि केशववर्णीने अपनी उमटीका मनमः १२८१ में पूर्ण की है। अतः उस जैसी विशाल टीकाके लिखनेके लिए ११ वर्ष जितना समझ का लगना भी आवश्यक एवं मगन है । प्रथम व नृतीय धर्मभाषण केवीके टीकाप्रेरक प्रनीत नहीं होते। क्योंकि नृतीय धर्मभुषण जीवतत्व प्रदीपिकाके ममाप्ति काल (क० १२८१ ) मे कारीब १६ वर्ष वान गृम्पट्ट के अधिकारी हा जान पड़ते हैं पोर उम समय ने प्रायः २० वर्ष के होंगे अनः जी० न० १० के रचनारम्भसमयमें तो उनका अस्तित्व ही नहीं होगा तब वे नजयवर्णीके टीका-प्रेरक
से हो सकते ? और प्रथम धर्मभूषण भी उनके टीकाप्रेग्क मम्भव प्रतीत नहीं होने । कारण, उनसे पर अमरकोनि और अगरफीनिके
पर द्वितीय धमभूषण (शक १२७०-१२६५) बैठे है । अन: अमरकीर्तिका पट्टसमय अनुमानतः शकस० १२४५-१२७० और प्रथम श्रमभुषणका शव.सं. १२२५--१२४५ होता है । ऐसी हालत में यह सम्भव नहीं है कि प्रथम धर्मभूषण शकसं. १२२०-१२४५ में केशववर्णीको जीवतत्त्वप्रदीपिकाके निखने का आदेश दें और वे ६१ या ३६ को जैसे इतने बड़े लम्बे समय में उसे पूर्ण करें। अनार व यही प्रतीत होना हैं कि द्वितीय धर्मभूषण (शक १२७०-१२६५)हो बेमववर्णी (गक.. १२८१) के उक्त दीकाके लिखनेमें प्रेरक रहे हैं । अस्तु ।
पीछे में यह निर्देश कर अाया है कि नृतीय धर्मभूषण ( ग्रन्धकार ) शकसं० १९९५ में और शकसं०१३०७ के मध्य में किसी समय अपने बद्धमानगुरुके पट्टपर आसीन हुए हैं । अतः यदि वे पट्टपर बैठने के समय (करीब शक १३०० में) २० वर्ष के हो, जैसा कि मम्भव है तो उनका जन्मसमय शकम० १२८० (१३५८ ई.) के करीब होना चाहिए। विजय
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नगर शाखाज्य स्वामी प्रथम देवराय और उनकी मी नीमादेवी जन गुफे शिवधर्म पर जिन्हें अपना गुरु मन त जिनसे प्रभावित र प्रभावना में प्रश्नही धर्माधिकार है। पद्मावीवस्तीके एक गाजविराजपरमेश्वर देवराय प्रथम बर्जमानमनि भूपण गुरुके, जो करे विद्वान थे, नया में नमस्कार किया कर थे। बानका समर्थन क याने यादिमहाशास्त्र को गमाद करनेवाले कवि मग ग्रन्थगत निम्न को होता है:'राजापि परञ्चदेवराय भूपालमॉलजिमः । श्रवमाननवल्लभनयधभूषणमुखी जयति क्षमादय' ।।"
प्रसिद्ध है कि विजेचनगर नरेश प्रथम
पर की
१०४० २० एक
हो 'राजाधि मे रुपि । इनका राज्य समय सम्भवत. है यद्वितीय २०१८१३ से १८४६ कि मानके
या
के द्वारा सम्मानित मानके शिष्य
TH मान जा । :
जिग्य वर्तण व्रत (कार) ही देवराय
खं प्रथम व द्वितीय
भूषण नही क्योंकि
१ प्रशस्तिस० १२५ से
२-३ देवो. डा० भास्कर श्रानन्द
Mediaeval Jainism' P. 300 301 (Ma aż 30 मा० ने द्वितीय देवराव ( १०१६ - १९०६ ई० ) की तरह प्रथम देवरायके समय का नि नहीं किया दो ही धर्मपण गयी है और उनमें प्रथम का समय १३७८ ई० श्रीर दूसरे का २० १८०३ बनते हैं तथा इस झमेले में पड़ गए हैं कि कौन से धर्मभूषण का सम्मान देवराय प्रथमके द्वारा हुआ था ? (देखो मिडि यावल जैनिज्म १० ३०) |होता है कि उन्हें विजयनगर का
1
aat
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प्रस्तावना
नहीं थे । प्रथम धर्मभपणता मीनिक और दिनाय नमभण अमरकात्तिके शिष्य थे । अतएव यह निश्चयपुवक कहा जा सकता है कि अभिनव धर्मभूमण देव रायप्रथमो समकालीन हैं । अर्थात अन्य कारका अन्तिमकाल ई० १४१८ होना चाहिये । यदि यह मान लिया जाय नो उनका जीवनकाल ई० १३५८ने १४१८ ई० गक समझना नाहिय । अभिनव धर्मभूषण जैसे प्रभावशाली विद्वान जैन साधुरे लिये ६० वर्ष की उग्र पाना कोई ज्यादा नहीं है। हमारी मम्भावना यह भी है कि ने दवाय द्वितीय (१४१६-१४४६ ३०) ओर उनक थेट पक के द्वारा भा प्रणुत रहे हैं। हो सकता है कि ये अन्य धर्मभयग हो, जा . इनना अवश्य है वि ने देबराय प्रमग ममत्रान्टिय निचिदम्पग ।
ग्रंथकारन न्यायदीपिका (०२१) में 'बालिशाः पादाक साथ सायाके सर्वदर्शनसंग्रहास एक पंक्ति उन यी । गागा गमबाप.ग. :: १३वीं शताब्दी वा उलगर्व माना जाता है । क का 25:.. का उनका एक दानपत्र मिला है जिमग व इसी गमयक विद्वानमा । न्यायदीपिकाकारका बालिशाः' परका प्रयोग उन मायण ममकरना होने की ओर संकेत करता है । साथ ही दाना विद्वान नजदीक ही नी. एक ही जगह --विजयनगरके हिनयान, भी थे ग़न्दिा पपू गम्भ है कि धर्मभूषण और गायण मम मागयिक ग । या १०-५. मग पीक होंगे । अतः न्यायदीपिकावे इस पसनी पुर्वान नि डाका १२८ से १३४० या १६५८१२१८ ममय ही गिल वान शिलालेख नं० २ अादि प्राप्त नहीं हो सका । अन्यथा वम निपत : न पहुँचते ।
प्रशस्तिसं०१० १४५में इनका समय ई० १४२६.१ १.५१ दिया :२ इसके लिये जैनसिद्धान्तभवन पारासे प्रकाशित प्रशस्ति सं० में न कराये गये वर्द्धमान मुनीन्द्र 'दशभक्त्यादिमहाशास्त्र' देखना चाहिये । ३ देखो, सर्वदर्शनसंग्रहको प्रस्तावना पृ० ३२ ।
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न्याय-दीपिका
होता है । अर्थात् ये ईसाकी १४ वीं सदीने उत्तटाचं पोर १५वीं सदौके प्रयम पादके विद्वान् हैं। ___ डा० के० बी० पाठक और मुख्तार सा इन्हें शकसं० १३०७ (ई० १३८५)का विद्वान् बतलाते हैं जो विजयनगरके पूर्वोक्त शिलालेख २० २ के अनुसार सामान्यता ठीक है । परन्तु उपर्युक्त विशेष विद्यारसे ई० १४१८ तक इनको उत्तरावधि निश्चित होती है । सा सतीशचन्द्र विद्या भूषण 'हिस्टरी ग्राफ दि मिडियावल स्कूल ऑफ इंडियन लॉजिक' में इन्हें १६०० A. D. का विद्वान् सूचित करने है । पर वह ठीक नहीं है । जैसा कि उपयुक्त विवचनस प्रकट है । मुख्तारसा० ने भी उनके इस समयको गलत ठहराया है।
आचार्य धर्मभूषणके प्रभाव एवं व्यक्तित्वमूचक जो उल्लेख मिलते हैं, उनसे मालूम होता है कि वे अपने समय के सबसे बड़े प्रभावक और व्यक्तित्वशाली जैनगुरु थे। प्रथम देवराय, जिन्हें राजाधिराजपरमेश्वर की उपाधि श्री, धर्मभूषणके चरणों में मस्तक झुकाया करते थे। एमावतीयस्ती के शासनलेख्नमें उन्हें बड़ा विद्वान् एवं वक्ता प्रकट किया गया है : साथ में मुनियों और राजाओंसे पूजित बतलाया है। इन्होंने विजयनगर के राजघराने में जैनधर्मकी अतिशय प्रभावनाकी है। मैं तो समझता हूँ कि इस राजघराने में जैनधर्मकी महती प्रतिष्ठा हुई उसका विशेष श्रेय इन्हीं मभिनव धर्मभूषणजीको है जिनकी विद्वत्ता और प्रभावकं सब कायल थे। इससे स्पष्ट है कि ग्रंथकार असाधारण प्रभावशाली व्यक्ति थे ।
जैनधर्मको प्रभावना करना उनके जीवन का बत था ही, किन्तु ग्रंथरचनाकार्य भी उन्होंने अपनी अनोखी शक्ति और विद्वत्ताका बहुत ही सुन्दर उपयोग किया है । अाज हमें उनकी एक ही अमर रचना प्राप्त है
और वह अकेली यही प्रस्तुत न्यायदीपिका है। जो जैनन्यायके वाङ्मय में अपना विशिष्ट स्थान रखे हुए है और ग्रन्थकारको घवलकीतिको प्रक्षुण्ण १-२ स्वामी समन्तभद गृ. १२६ । ३-४देखो मिडियावल जैनिज्म' २६६
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बनाये हुए है । उनकी विद्वत्ताका प्रतिबिम्ब उसमें स्पष्टतया पालोकित हो रहा है। इसके सिवाय उन्होंने और भी कोई रचना की या नहीं इसका कुछ भी पता नहीं चलता है। पर मैं एक मम्भावना पहिले कर पाया है कि इस ग्रन्यका इस प्रकारसे उल्लेख किया है कि जिसमें लगता है कि प्रन्याकार अपनी ही दूसरी रचना की उनका इजित कर रहे हैं। यदि सपमुझमें यह ग्रन्थ ग्रन्थकारकी रचना है तो मालूम होता है कि वह न्यायदीपिकासे भी अधिक विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ होगा। अन्य पकवा इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थका अवश्य ही पता चलना चाहिए। ___ग्रन्थकारफे प्रभाव और कार्यक्षेत्रसे यह भी प्रायः मालूम हाना है कि उन्होंग कर्णाटकदेशके उपर्युक्स विजयनगरको हो अपनी जन्म-भूमि बनायी होगी और वहीं उनका शरीर त्याग एवं ममाघि हुई होगी। क्योंकि व गुरु परम्पराम चले आ विजयनगक भट्टारकी गार ग्रागीन हुा थे । यदि मह ठीक है तो कहना होगा कि उनके जन्म प्रार ममाचिका स्यान भी विजयनगर है।
उपसंहार भम प्रकार ग्रन्धकार अभिनय धर्मभूषण पार उनकी प्रग्नुत प्रार कृनिक मम्बन्धम एतिहासिक दृष्टिले दा शब्द लिखनका प्रथम साहस किया । इतिहाम एक ऐमा विषय है जिमम निन्ननको आवश्यकता हममा बनी रहती है और इसीलिये सच्चा ऐतिहामिक प्रपन कथन एव विचारको अन्तिम नहीं मानता । इसलिए मम्भव है कि धर्मभूपागजीक तिहासिक जीवनपरिचयमें अभी परिपूर्णता न आ पाई हो । फिर भी उपलब्ध साधनोंपररी जो निष्कर्ष निकाले जा सके हैं उन्हे विद्वानों के समक्ष विशेप विचारके लिये प्रस्तुत किया है । इत्यलम् । चैत्र कृष्ण १० वि० २००२ ।
दरबारीलाल जैन, कोठिया ता. ३-४-४५, देहली ।
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सानुवादन्यायदीपिकाको विषय-सूची
विषय ३. प्रथम-प्रकाश
संस्कृत हिन्दी १. मंगलाचरण और ग्रन्थप्रतिज्ञा २. प्रमाण और नयके विवेचन की भूमिका ४ १३८ ३. उद्देशादिरूपसे ग्रन्थकी प्रवृत्तिका कन्यन ५ ४. प्रमाणके सामान्यलक्षणका कथन
१४४ ५. प्रमाणके प्रामाण्यका कथन
१४६ ६. बौद्धके प्रमाण-लक्षण की परीक्षा
१५३ ७. भाट्टोंके प्रमाण-लक्षणको परीक्षा १८ ८. प्राभाकरोंके प्रमाण-लक्षणको परीक्षा १६
६. नैयायिकोंके प्रमाण-लक्षणवी परीक्षा २० २. द्वितोय-प्रकाश
१०. प्रमाणके भेद और प्रत्यक्षका लक्षण २३ १५६ ११. बौद्धों के प्रत्यक्ष-लक्षणका निराकरण २५ १५७ १२. योगाभिमत सन्निकर्षका निराकरण २६ १६० १३. प्रत्यक्षके दो भेद करके सांव्यवहारिक
प्रत्यक्ष का लक्षण और उसके भेदों का
निरूपण १४. पारमार्थिक प्रत्यक्षका लक्षण और उसके
भेदोंका कथन १५. अवधि आदि तीनों ज्ञानोंको अतीन्द्रिय
प्रत्यक्ष न हो सकनेकी शङ्का और समाधान ३७ १६६
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४४
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विषय १६. प्रसङ्गवश शङ्का-समाधानपूर्वक सर्वज्ञको
सिद्धि १७. सामान्य से सर्वज्ञको सिद्ध करके अहंन्तमें
सर्वज्ञताकी सिद्धि ३. तृतीय-प्रकाश १८. परोक्ष प्रमाणका लक्षण १६. परोक्ष प्रमाणके भेद और उनमें झानान्तर
की सापेक्षता का कथन २०. प्रथमत: उद्दिष्ट स्मृतिका निरूप.. ५३ १७४ २१. प्रत्यभिज्ञानका लक्षण और जमले जनाका निरूपण
१७६ २२. तर्क प्रमाणका निरूपण २३. अनुमान प्रमाण का निरूपण २४. साधनका लक्षण २५. साध्यका लक्षण २६. अनुमानके दो भेद और स्वार्थानुमानका निरूपण
१८: २७. स्वार्थानुमानके अङ्गोंका कथन
१८६ २८. धर्मीकी तीन प्रकारसे प्रसिद्धिका निरूपण ७३ १८७ २६. परार्थानुमानका निरूपण
७५ १८६ ३०, परार्थानुमानकी अङ्गसम्पनि और उसके
अवयवोंका प्रतिपादन ३१. नैयायिकाभिमत पाँच अवयवोंका निराकरण १६० ३२. विजिगीषुकथामें प्रतिज्ञा और हेतुरूप दो
ही अवयवोंकी सार्थकताका कथन
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विषय ३३. वीतरागकथामें अधिक अवयवोंके बोले जानेके औचित्यका समर्थन
८२ १६४ ३४. बौद्धोंके रूप्य हेतुका निराकरण ८३ १६४ ३५. नैयायिकसम्मत पाँचरूप्य हेतुका कथन
और उसका निराकरण ३६. अन्यथानुपपत्तिको ही हेतु-लक्षण होने की सिद्धि
६४ २०४ ३७. हेतुके भेदों और उपभेदों का कथन ६५ २०५ ३८. हेत्वाभासका लक्षण और उनके भेद ३६. उदाहरणका निरूपण ४०, उदाहरणके प्रसङ्गमे उदाहरणाभासका
कथन ४१. उपनय, निगमन और उपनयाभास तथा
निगमनाभासके लक्षण ४२. मागम प्रमाणका लक्षण
२१२ २१७ ४३. प्राप्तका लक्षण
११३ २१८ ४४. अर्थका लक्षण और उसका विशेष कथन ११६ २२० ४५. सत्त्वके दो भेद और दोनों में अनेकान्तास्मकताका कथन
१२२ २२३ ४६. नयका लक्षण, उसके भेद और सप्तमङ्गी का प्रतिपादन
१२५ २२५ ४७. नन्थकार का अन्तिम निवेदन १३२ २३०
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श्रीसमन्तभद्राय नमः भीमदमिनव-धर्मभूषण-पति-विरचिता
न्याय-दीपिका [प्रकाशाख्यटिप्पशोपेठा] १. प्रमाणसामान्यप्रकाशः
-*:श्रीवर्द्धमानमहन्तं नत्वा बाल-प्रबुद्धये । विरच्यते मित-स्पष्ट-सन्दर्भ-न्यायदीपिका ॥१॥
प्रकामाख्य-टिप्पणम् महावीरं जिनं नत्वा बालानां सुख-बुद्धये ।
'दीपिकाया' विशेषार्थः 'प्रकाशेन' प्रकाश्यते ॥१॥ १ प्रकरणारम्भे, स्वकृतनिर्विघ्नपरिसमात्यर्थम्, गिप्टाचारपरिपालनार्थम्, शिष्यशिक्षार्थम्, नास्तिकतापरिहारार्थम, कृतज्ञाप्रकाशनार्थ वा प्रकरणकारः श्रीमदभिनवधर्मभूषणनामा यतिः स्वोटदेवतानमस्कारात्मक मङ्गलं विदधाति-श्रीवर्टमाति ।
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न्याय-दीपिका
श्रीवद्धमानमहंन्सं चतुर्विशतितमं तीर्थकर महावीरम् । अथवा, प्रिया -अनन्त चतुष्टयस्वरूपान्तरङ्गलक्षणया समवसरणादिहिरङ्गावभावया व लक्ष्म्या-, वर्द्धमान:--वृद्धेः परमप्रकर्ष प्राप्तः, अर्हन् परमात्समूह५.: 1 नवाल, फारामासा निशंस्था प्रगम्यत्यर्थः । वासानो मन्दबुद्धीनाम् । बालास्त्रिविधा: प्रोक्ताः--मतिकृताः, कालकृताः, गरीरपरिमाणकृताश्चेति । तत्रेह मतिकृता बाल। गृहन्ने नान्ये, तेषां व्यभिचारात्। कश्चिदष्टवर्षीयोऽपि निखिलज्ञानसंयमोपपन्न: सर्वज्ञः, कुब्धको वा सकनशास्त्रज्ञो भवति । न च तो व्युत्पाद्यौ । अथ मतिकृता अपि बालाः किल्लक्षणा इति चेत्; उच्यते ; अव्युत्पन्न संदिग्ध-विपर्यास्तास्तत्त्वज्ञानरहिता बालाः । अथवा, ये यत्रानभिज्ञास्ते तर बालाः । अथवा, महणघारणपटवो बालाः, न स्तनन्धयाः । अथवा, अघीतम्याकरण-काव्य-कोशा अनधोतन्यायशास्त्रा बाला: । तेषां प्रबुद्ध ये प्रकर्षण समयादिव्यवच्छेदेन बोधाथम् । मितो मानयुक्तः परिमितो वा। स्पष्टो व्यक्तः । सन्दर्भो रचना यस्यां सा चासो 'न्यापदीपिका'-प्रमाण-नयात्मको न्यायस्तस्य दीपिका प्रकाशिका | समासतो न्यायस्वरूपम्यूत्पादनपरो अन्यो 'न्यायदीपिका' इति भावः । विरस्यते मया धर्मभूषणयतिना इति क्रियाकारकसम्बन्धः । ___ ननु मङ्गलं न करणीयं निष्फलत्वात् । न हि तस्य किञ्चित्फसमुपलभ्यते । न च निर्विघ्नपरिसमाप्तिस्तत्फलमुपलभ्यत एवेति वाच्यम् समाप्तेर्मङ्गलफलत्वानुपपत्तेः । तथा हि-मङ्गलं समाप्ति प्रति न कारणम्, अन्वय-व्यतिरेकन्यभिचाराम्याम् । सर्वत्र झन्वयव्यतिरेकविधया कार्यकारणभावः समधिगम्यते । कारणसत्त्वे कार्यसत्त्वमन्वयः, कारणामावे कार्याभावो व्यतिरेकः । न चेमौ प्रकृले सम्भवतः, भङ्गलसत्त्वेऽपि माममार्गप्रकाशायी समाप्त्यदर्शनात् । मङ्गलाभावेऽपि च परोक्षामुलाको समाप्तिदर्शनात् । अतोऽन्दयव्यभिचारो व्यतिरेकव्यभिचारश्च । कारणसत्त्वे कायासत्वमन्वयव्यभिचारः । कारणाभावे कार्यसस्य च व्यत्तिरेकभिचार इति न घेतसि विधेयम्; मङ्गलस्य सफसत्वसिद्ध : निष्फलत्वानुपपत्तेः । तद्यपा
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१. प्रमाणसामान्यप्रकाशः
मङ्गलं समलम् विष्टाचारक
सिद्ध:, तच्च फल ग्रन्थारम्भ कर्तुर्हृदि प्रारब्धमिदं कार्य निर्विघ्नतया परिसमस्यताम्' इति कामनाया अवश्यम्भावित्वात् निविघ्नसमाप्ति: कयनं । यच्चवितम् - श्रन्वयव्यतिरेकव्यभिचारान्यामिति तदयुक्तम मोक्षमार्गप्रकाश विघ्नवाहुल्येग मङ्गलम् च नत्वेन समाप्त्यदर्शनान् । प्रचुरचैत्र हि मङ्गलस्य प्रत्तुरविननिराकरणकारणत्वम् । किञ्च यावन्याधनसामस्यभावान्न तत्र समाप्तिदर्शनम् । सामग्री जनिका हि कार्यरय नक कारणम्' इति । तथा चोक्तं श्रीवादिराजाचार्यः समग्रस्यैव हेतुत्वात् । समस्य व्यभिचापि दोषाभावात् । अन्यथा न पावकस्यापि घुमतुत्वमाद्रेन्धनादिविकलस्य व्यभिचारान् । तस्मान् -
ग्रन्धनादिसहकारिसमग्रतायां यत्करोति नियमादिह धूममग्निः । लहविशुद्धयतिशयादिसमग्रतायां
निर्विघ्नतादि विदधाति जिनस्तवोऽपि ॥'
— न्यायविनिश्चयवि०लि० प० २ तो मोक्षमार्ग प्रकाशादौ कारणान्तराभावान्न परिसमाप्तिः । ततो तान्वयव्यभिचारः । नापि परोक्षामुखा व्यतिरेकव्यभिचारः, तत्र बाचिकस्य निवरूपस्य स्थावरज्यतिवद्धस्य वाचिकस्य मानसिकस्य कायिकस्य वा तस्य सम्भवात् । मङ्गलं हि मनोवचः कायात् त्रिवा भिद्यते । वात्रिकमपि निवद्धाऽनिवद्धरूपेण द्विविधम्। यतैरेवोक्तम्'नाग्यसति तस्मिन् तद्भवस्तस्य निबद्धस्याभावेऽप्यनिवद्धस्य तस्य परमगुरुनृ'मानुस्मरणात्मनो मङ्गनस्यावश्यम्भावात् तदस्तित्वस्य च तत्कार्यादेवानुमानात् । धूमादेः प्रदेशा दिव्यवहितपावकाद्यनुमानवत् । नङ्गलसामग्रीर्वकत्यस्य च क्वचित्तत्कार्यस्य वैकल्या देवानुमानाद्माभावात् तदुत्पादनसमर्थदहना भावानुमानवत् । --- न्यायविनश्चयवि. लि. प २ विद्यानन्दस्वामिभिरयुक्तम् तस्य ( मङ्गलस्य ) शास्त्र निबद्धस्यानिवद्धस्य वा वाचिकस्य
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न्याय - दीपिका
[ प्रमाण-नय- विवेचनस्य पीटिका ]
६ १ " प्रमाणनयैरधिगमाः" इति महाशास्त्रतस्वार्थ सूत्रम् [१-६ ] | तत्खलु परमपुरुषार्थं 'निःश्रेयससाधनसम्यग्दर्शनादि'विषयभूतजीवादि तत्त्वाधिगमोपायनिरूपणपरम् । प्रमाणानथाभ्यां हि विवेचिता' जीबादयः सम्यगधिगम्यन्ते । तद्वधतिरेकेण जीवाद्यधिगमे प्रकारान्तरासम्भवात् । तत" एव जीवाद्यधिगमोपायभूती प्रमाणनयावपि विवेक्तव्यो" । तद्विवेचनपराः " प्राक्तनग्रन्थाः " सन्त्येव, तथापि ते2 केचिद्विस्तृता: ", केचिद्
मानसस्य वा विस्तरतः संक्षेपतो या शास्त्रकारंवश्यकरणात् । तदकरणे तेषां तत्कृतोषकारविस्मरणादसाधुत्वप्रसङ्गात् । साधूनां कृतस्योपकारस्याविस्मरणप्रसिद्धेः । न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति' इति वचनात् । ' - प्राप्तपरी० पृ० ३ । परमेष्ठिगुणस्तोत्ररूपस्य मङ्गलस्य पुण्यावाप्तिरधर्मप्रध्वंसः फलमिति तु तत्त्वम् । यतो प्रन्यादी मङ्गलमवश्यमाचरणीयमिति ।
१ मोक्षशास्त्रापरनामधेयम् । २ सूत्रम् । ३ चत्वारः पुरुषार्थ:धर्मार्थकाममोक्षा:, तेषु परमः पुरुषार्थी मोक्षः, स एव निश्रेयसमित्युच्यते । सकलप्राणिभिर्मुख्यसाध्यत्वेनाभीष्टत्वान्मोक्षस्य परमपुरुषार्थत्वमिति भावः । ४ श्रादिपदात्सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रं च गृह्येते । ५ प्रत्रादिपदेनाऽजोवास्त्रत्रबन्धसंवरनिर्जरामोक्षतत्वानि गृहीतव्यानि । ६ पृथक्कृताः त्रिश्लेषिता इत्यर्थः । ७ ज्ञायन्ते । प्रमाणनमाभ्यां विना । ६ प्रमाणनयातिरिक्त-तृतीयादिप्रकारस्याभावात् । १० प्रकारान्तरासम्भवादेव । ११ व्याख्यातव्यो । १२ प्रमाण- नयव्याख्यानतत्पराः । १३ प्रकल-ি प्रणीता न्यायविनिश्चयावयः । प्रमेयक मलमार्तण्ड-न्यायकुमुद
प्रत्यो हि पाठो नास्ति । 2 प म सु प्रतिषु 'ते' पाठो नास्ति ।
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१. प्रमाणसामान्यत्रकाशः
गम्भीरा' इति न तत्र बालाना' मधिकारः । ततस्तेषां सुखोपायेन प्रमाणन्नयात्मकन्याय स्वरूपप्रतिबोधकशास्त्राधिकारसम्पत्तये 'प्रकरणमिदमाद
[ त्रिविधायाः प्रकरणप्रवृत्तेः कथनम् ]
$ २ इह हि प्रमाण- नयविवेचनमुद्देश लक्षणनिर्देश- परीक्षाद्वारेण' क्रियते । अनुद्दिष्टस्य' लक्षणनिर्देशानुपपत्तेः । प्रनिर्दिष्टलक्षणस्य परीक्षितुमशक्यत्वात् । श्रपरीक्षितस्य विवेचनायोगात् । लोकशास्त्रयोरपि तथैव " वस्तुविवेचनप्रसिद्धेः ।
९ ३ तत्र" विवेक्तव्यनाममात्रकथन मुद्देशः । व्यतिकीर्णचन्द्र-न्यायविनिश्चय विवरणादयः ।
१ न्यायविनिश्चय- प्रमाणसं ग्रहश्लोक वातिकादयः । २ प्रोक्तलक्ष णानाम् । ३ प्रवेशः । ४ अक्लंशेन । ५ निपूर्वादिणगतावित्यस्माद्धातोः करणे घञ्प्रत्यये सति न्यायशब्दसिद्धिः, नितरामियते ज्ञायतेऽर्थोऽनेनेति न्यायः, अर्थपरिच्छेदकोगायो न्याय इत्यर्थः । स च प्रमाण-नयात्मक एव 'प्रमाणनये रधिगमः' इत्यभिहितत्वादिति, लक्षण-प्रमाण-नय-निक्षेपचतुष्टयात्मको न्याय इति च । लक्षण प्रमाणाभ्यामर्थसिद्धिरित्यतो लक्षणप्रमाणे न्याय इत्यन्ये । प्रमाणरथं परीक्षणं न्याय इत्येकं । पञ्चा arearraयोगो न्याय इत्यपि केचित् । ६ न्यायदीपिकाव्यम् । प्रकरणे ८ अत्रे बोध्यम्-- उद्देशस्य प्रयोजनं विवेचनीयस्य वस्तुनः परिज्ञानम् | लक्षणस्य व्यावृत्तित्र्यंवहारो वा प्रयोजनम् । परीक्षायादच लक्षणे दोषपरिहारः प्रयोजनम् । अत एव शास्त्रकारा उद्दे लक्षणनिर्देश - परीक्षाभिः शास्त्रप्रवृत्ति कुर्बाणा दृष्टाः । ९ श्रकृतोई शस्य पदार्थस्य । १० उद्देशादिद्वारेण । ११ उद्देशादिपू मध्ये १२ विवेचन
७ मन
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न्याय-दीपिका
वस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षपन्हुर्षादिकारवाद पर व्यतिकरे' सति येनाऽन्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्" [ तत्त्वार्थवा० २०८ ] इति ।
६४ द्विविचं लक्षणम् 2, ग्रात्मभूतमनात्मभूतं चेति । तत्र यस्तुस्वरूपानुप्रविष्टं तदात्मभूतम् याउनेण्यम् । श्रप्यं ग्ने स्वरूप सदग्निमवादिभ्यो' व्यावर्तयति । तद्विपरीतम "नात्मभूतम्, यथा दण्डः पुरुषस्य । दण्डिनमानयेत्युक्तं हि दण्ड: पुरुषाननुप्रविष्ट एवं पुरुषं व्यावर्तयति । इयन्द्वाप्यम् "तत्रान
एवं विवे
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योग्यन्य नाममात्रनिरूपणम्, यथा घदविवंचना चवति ।
यन् तलक्षणमिति तत्त्वार्थवात्तिककाराः
१ परस्परमिलितानां वस्तु व्यावृतिजन भवः । अत्र लक्ष'नं लक्ष्यं यतन्य लक्षणम् । श्रीमद्भट्टकिल देवाः । प्रा भट्टारकी देवः प्रयोज्या पूज्यनामतः ।" आ० ० १ । ३ समाधानया परस्परविजन व्यनिकर इनि एवं यत्रान्योन्यव्यतिकरे सति इति भावः । ४ परस्परमिलितपदार्थव्यावृत्तिकारकेण । ५ तथोमध्ये ६ कथचिदष्विवाम्यतादात्म्यग्रम्वन्धाः वच्छिन्न धर्मस्यात्मभूतलक्षणम् । जनदिभ्यः ।
प्रविष्टं तदनात्मभूतम् भवति हि दण्डः पुरुषस्य लक्षणम नाळत्मभूतः पुरुषादन्यत्राप्युपलम्यमानत्वात् । अत एवात्मभूतलक्षणादेनात्मभूतलक्षणरच भेदः । कयञ्चद्विष्वक्भापायस योगादिसम्बन्धावच्छिन्नस्यानात्मभूतलक्षणत्वम् । १० प्रदण्डिनः सादात् पृथक्करोति ।
-
1 'तद्धिविनम्' इति मा प्रतिपाठः । 2 'लक्षण' इति पाठ: आ प्रती नास्ति । 4 'चेति' द त पाठः । 35 'तद्ममु प्रतिषु पाठः ।
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१. प्रमाणसामान्यप्रकाराः
भूतमग्नेरोष्ण्यमनात्मभूतं देवदत्तस्य दण्डः" [ राजवा भा० २-- ] इति ।
५ 'असाधारगधर्मवचनं लक्षणम्' इति केचिन'; तदनुपनम् लक्ष्यमिवचनस्य लक्षणधर्मवचन सामानाधिकरण्यामाबप्रसङ्गात्', दण्डादेतद्धर्मम्यापि लक्षणत्वाच्च । किञ्चान्याप्ताभिधानस्य लक्षणाभासस्यापि" तथात्वात् । नया हि-त्रयो लक्षणाभासभेदाः, अव्याप्तमतिव्याप्तमसम्भबि चनि। तत्र लक्ष्यकदेशवृत्त्यव्याप्तम्यथा गोः गावलेयत्वम् । “लक्ष्यालक्ष्यवृत्त्यनिव्याप्तम्, यथा तस्यत्र पशुन्यम् । वाधिनलक्ष्यवृत्त्यसम्भवि. यथा नरस्य विराणित्वम् । अत्र हि लक्ष्यकबेशवलिनः पूनरल्याप्तम्या
१ मेगायिकाः, हेमचन्द्राचार्या वा। २ नदयुक्तम्, मदोपत्रान् । यत्र हि नक्षणम्य नक्षणे यो दोषा: सम्भवन्ति---अध्यातिनिञ्चानिरमम्भनदत्तेनि । तत्र लक्ष्यमित्रचनादिना सम्भवो दोष उनः । दण्डारस्वादिनाउन्याप्तिः प्रदगिना । किम्चेन्यादिना मानिन्याप्तिः कथिता । एतच्च परिशिष्टे स्पाटम् । अत्रासाबाग्णवं दितानित्वं ग्राह्यम्, लक्ष्येतरानिमित्यर्थः । ३ सामानाधिकरण्य द्विधा -प्रायं शाम्दश्च । तत्राधिकरणबृत्तित्वमार्यम्, यथा रूप रमत्रोः । शाब्दं स्नेकार्थप्रतिपादकत्व सति सामानविभक्तिकत्वं भिन्न प्रतिनिमित्तानामेकस्मिन्न वृत्तिला वा, यथा नौन कमलमिन्यत्र । प्रकृने शाददं मामानाधिकरण्य ग्राह्य वचनशब्दप्रयोगात् । वननेग हि वचनस्य गाब्द-मामानाधिकरण्यम् । तच्चालाघारणधर्मवचनस्य लक्षणत्वेऽसम्भत्रि । शपं परिशिष्टे दृष्टव्यम् । ४ पुरुपानसाधारणधर्मस्थापि-दण्डादि पुरुषस्यासाधारणघमंस्तथापि लक्षणं भवतीति भावः । ५ सदोषलक्षणं लक्षणाभासम् । ६ असाधारणधर्मस्वात् । ७ यस्य लक्षणं क्रियते तत्तक्ष्यं तद्भिन्नमलक्ष्यं ज्ञेयम ।
] 'असाधारण धर्मो लक्षणम्' इति म प प्रत्योः पाठः ।
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न्याय-दीपिका साधारणधर्मत्वमस्ति, न तु लक्ष्यभूत गोमात्रा व्यावर्तकत्वम् । तस्माद्यथोक्तमेव लक्षणम् , तस्य कथनं लक्षणनिर्देश:।।
६ विरुद्धनानायुक्तिप्राबल्यदौर्बल्यावधारणाय प्रवर्तमानो विचार: परीक्षा।सा खल्वेवं चेदेवं स्यादेवं चेदेवं न स्यादित्येव? प्रवर्तते।
७ प्रमाणनययोरप्युद्द शः सूत्र' एव कृत: । लक्षणमिदानी निर्देष्टव्यम् । परीक्षा च यथोचित्यं भविष्यति । 'उद्देशानुसारेण' लक्षणकथनम्' इति न्यायात्प्रधानत्वेन' प्रथमोद्दिष्टस्य प्रमाणस्य तावल्लक्षणमनुशिष्यते ।
१ गोत्वावच्छिन्नसकलगौः २ व्यतिकीर्णवस्तुष्यावृत्ति हेतुरित्येव । ३ "लक्षितस्य लक्षणमुपपद्यते नवेति विचार: परीक्षा'—(तर्कसं पदक. पृ० ५)। ४ 'प्रमाणनयरधिगमः' इति तस्वार्थमूत्रस्य पूर्वोल्लिखिते सूत्रे । ५ यथावसरम् । ६ उद्देशकमेण, ययोदे शस्तथा निर्देवा इति भावः । ७ अथ प्रमाणनययोमध्ये प्रमाणापेक्षया नयस्पाल्पान्तरत्वात्प्रथमतस्तस्पकोई शः कर्त्तम्योऽत पाह प्रधानत्वेनेति । ननु लथापि कथं प्रमाणस्य प्रधानत्वं ? येन प्रथम तदुद्दिश्यत इति चेदुच्यते प्रमाणस्याभ्यहितत्त्वाप्रधानत्वम्, अभ्यहितत्त्वं प 'प्रमाणप्रकाशितेष्वर्थेषु नयप्रवृत्तर्व्यवहारहेतुत्वात् । यतो हि प्रमाणप्रकाशिनेष्वर्थेषु नयप्रवृत्तिर्व्यवहारहेनुर्भवति नान्येष्वतोऽयहितत्वं प्रमाणस्य । अथवा समुदायविषयं प्रमाणमवयविषया नयाः । तथा चोक्तम्- "सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीनः" इति' ।- (तत्वार्थवा १.६) । ८ कथ्यते ।
[ 'मात्रस्य' इति द प्रतिपाठः । 2 खल्वेवं वेदेवं स्यादेवं न स्पादित्येवं' इति प्रा प्रतिपाठः । प म प्रतिपु 'न' पाठ नास्ति 3 'यथोचितं' । इति व प्रतिपाठः।
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१. प्रमाणसामान्यप्रकाशाः
[ प्रमाणसामान्यस्य लक्षणकथनम् ] ८ सम्यग्ज्ञानं प्र...' . अत्रमा लक्ष्यं मन्यमानत्वं तस्य लक्षणम् । गोरिव सास्नादिमत्वम् , अग्नेरिवौष्ण्यम् । अत्र' सम्यक्पदं संशयविपर्ययानध्यबसायनिरासाय क्रियते, अप्रमाणवादेतेषां' ज्ञानानामिति ।
तथा हि विरुद्धानेककोटिस्पशि' ज्ञानं संशयः, यथा स्थाणुर्वा पुरुषो वेति । स्थाणुपुरुष साधारणोद्धतादिधर्मदर्शनासद्विशेषस्य वक्रकोटरशिरःपाण्यादेः साधकप्रमाणाभावादनेककोटधवलम्बित्व ज्ञानस्य । विपरीतककोटिनिश्चयो विपर्ययः, यथा शुक्तिकायामिदं रजतमिति ज्ञानम् । अत्रापि सादृश्यादिनिमित्तबशाच्छक्तिविपरीते रजते निश्चयः । किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः ,यथा पथि। गच्छतस्तृणस्पर्शादिज्ञानम् । इद' हि नानाकोट्यवलम्बनाभावान्न संशयः । विपरीतककोटिनिश्च
१ यावत्सम्यग्जानवृत्तिः सामान्यम्पो धर्मः सम्यग्ज्ञानत्वम् । २ 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाण' मित्यत्र । ३ संशयादीनाम् । ४ कोटि -पक्षः, अवस्था वा । ५ उभयवृत्तिः सामान्यरूप ऊतादिधर्मः माघारण: । ६ स्थाणपुरुषविशेषस्य, स्थाणोविशेषो वक्रकोटगदिः । पुस्पस्य तु गिर:पाण्यादिरिति भावः । ७ तदभाववति तत्प्रकारकं ज्ञानं विषययः, पथा रजतत्वाभाववति शक्तिशकले रजतत्वप्रकारकं 'शुक्ती व रजतम्' इति ज्ञानमित्याशयः । ८ अादिपदेन चाकत्रिक्यादिग्रहणम् । ६ अनिश्चयस्वरूप संशय-विपर्ययभिन्नजातीयं ज्ञानम् । १० अनभ्यवसायाख्यज्ञानस्य
1 'पथि' इति पाठो म प्रतो नास्ति ।
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१०
न्याय-दीपिका
याभावान्न विपर्यय इति पृथगेव । एतानि च स्वविषयप्रमितिजनकत्वाभावादप्रमाणानि ज्ञानानि भवन्ति, सम्यग्ज्ञानानि तु न भवन्तीति सम्यक्पदेन व्युदस्यन्ते' । ज्ञानपदेन' प्रमातुः प्रमितेश्च' व्यावृत्तिः । अस्ति हि निर्दोषत्वेन तत्रापि सम्यक्त्वं न तु ज्ञानत्वम् ।
११० ननु प्रमितिकर्तुः प्रभातुर्ज्ञातृत्वमेव न ज्ञानत्वमिति यद्यपि ज्ञानपदेन व्यावृत्तिस्तथापि प्रमितिर्न व्यावर्त्तयितुं शक्या, तस्या अपि सम्यग्ज्ञानत्वादिति चेत् भवेदेवम्' ; यदि भावसाधन
संशय-विपर्ययाभ्यां ज्ञानान्तरत्वं प्रसाधयति इदमिति, इदम् -- श्रनध्यव सायाख्यं ज्ञानम् । इदमत्र तात्पर्यम् संशयं नानाकोट्यवलम्बनात्, विपर्यये च विपरीतककोटिनिश्चयात्। अनध्यवसाये तु नैकस्या अपि कोनिश्चयो भवति । ततस्तदुभयभिन्नविषयत्येन कारणस्वरूपभेदेन च ताभ्यामिदं ज्ञानं भिन्नमेव । तथा चोक्तम् - अस्य ( श्रध्यवसायस्य ) चानवधारणात्मकत्वेऽपि कारणस्वरूपादिभेदान्न संशयता । अप्रतीतविशेषविषयत्वेनाऽपि अस्य सम्भवादुभयविशेषानुस्मरणजसंशयतो भेद एदेत कन्वलीकाराः । -- प्रशस्तपा० टि० पृ० ६१ ।
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१ संशय विपर्ययाभ्याम् । २. संशयादीनि । ३ निराकियन्ते । ४ सम्यक्पदस्य कृत्यं प्रदश्यं ज्ञानपदस्य कृत्यं प्रदर्शयति जानपदेनेति । ५ ननु ज्ञानपदेन यथा प्रमातुः प्रमितेश्च व्यावृत्तिः कृता तथा प्रमेयस्य कथं न कृता तस्यापि ज्ञानत्वाभावात् इति चेत्तस्थापि चशब्दाद् ग्रहणं बोध्यम् । यद्यपि स्वपरिच्छेद्यपेक्षया ज्ञानस्य प्रमेयत्वमस्त्येव तथापि घटपटादिबहिरर्थापेक्षया प्रमेयत्वं नास्तीत्यतो मुक्तं चशब्दात्तस्य ग्रहणम् । ६ प्रमातरि प्रमितो प्रमेये च । ७ भावसाधनपक्षे | ८ प्रमिते रव्यावर्तनम् । ६ शतिमात्रं ज्ञानमिति ।
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१. प्रमाणसामान्यप्रकाश:
मिह ज्ञानपदम् । करणसाधनं खल्वेतज्ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानमिति । "करणाधारे चानट" [जैनेन्द्रघ्या २।३।११२] इति करणेऽप्यनटपरययानुशासनात'! भारसाधन न मानपन प्रमितिमाह! ।अन्यद्धि भावसाधनात्करणसाधन2 पदम् । एवमेव 'प्रमाणपदमपि प्रमीयतेऽनेनेति करणसाधन कर्त्तव्यम् । 'अन्यथा सम्यग्ज्ञानपदेन सामानाधिकरण्याघटनात् । तेन प्रमितिक्रियां प्रति यत्करण तत्रमाणमिति सिद्धम् । तदुक्तं प्रमानिरर्णये-"इदमेव हि प्रमाणस्य प्रमाणत्वं यत्प्रमितिक्रियां प्रति साधकतमत्वेन' करणत्वम्" [प्रत्यक्षनिर्णय पृ० १] इति ।
११ नन्वेव मप्यक्षलिङ्गादा वतिव्याप्तिलक्षणस्य", तश्रापि" प्रमितिरूपं फलं प्रति करणत्वात् दृश्यते हि चक्षुषा
१ विघानात् । २ शानपदवत् । ३ 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' इत्यत्र प्रमाणलक्षणे प्रयुक्तं 'प्रमाणम्' इति पदम् । ४ प्रमाणपदं करणसाधन नो चेत् । ५ प्रोक्तलक्षणशाब्दसामानाधिकरण्यानुपपत्तेः । ६ सुनिश्चितम् । ७ अतिशयेन सापकमिति साधकतमं नियमन कार्योत्पादकमित्यर्थः । ८ संशयादौ प्रमावादौ च प्रोक्तप्रमाणलक्षणस्य श्यावृतावपि, अथ च प्रमाणपदस्य करणसाधनत्वेऽपि । ६ मादिपदेन मादेर्ग्रहणम । १० अयमाशयः-यदि 'प्रमितिक्रियां प्रति यत्करणं तत्प्रमाणम् इति प्रमापार्थः कक्षीक्रियते तहि प्रमितिरूपं फलं प्रति करणत्वेनाक्ष-सिमादेष प्रमाणवनसङ्गात् । प्रक्षलिङ्गादिः-इन्द्रिय-चूम-शब्दादिः । ११ अक्षलिङ्गादौ ।
1 प्रमि तिराह इति प्रा प्रतिपाठः । 2 सापनपत्र' इति प प्रतिपाठः।
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न्याय - दीपिका
J
प्रमोयते, घूमेन प्रमीयते शब्देन प्रमीयत इति व्यवहार ! इति चेत्; न; अक्षादेः प्रमिति प्रत्यसाधकतमत्वात् ।
६१२ तथा हि- प्रमितिः प्रमाणस्य फलमिति न कस्यापि विप्रतिपत्तिः । सा नाजाननिवनिरूपा तदुत्पत्ती करणेन सता तावदज्ञानविरोधिना भवितव्यम् । न चाक्षादिकमज्ञानविरोधि4, अनत्वात् । तस्मादज्ञानविरोधिनश्चेतनधर्मस्यैव " करणत्वमुचितम् । लोकेऽप्यन्धकारविधटनाय तद्विरोधी प्रकाश' एवोपास्यते' न पुनर्घटादिः, तद" विरोधित्वात् ।
१३ किञ्च, अस्वसंविदितत्वादक्षा देनार्थप्रमिती साधकतमत्वम्, स्वावभासनाशक्तस्य पराव भासकत्वायोगात् 5 । ज्ञानं तु स्वपरावभासक" प्रदीपादिवत्प्रतीतम् । तनः स्थितं प्रमिताव - साधकलमत्वादकरण मादय इति ।
६ १४ चक्षुषा प्रमीयत इत्यादिव्यवहारे पुनरुपचारः शरणम्,
१ समातेनेति । २ वादिनः प्रतिवादिनो ना। ३ विवादः । ४ प्रमिति । ५ प्रति। ६ भवता । " ज्ञानरूपस्य | प्रदोपादिः । अतिप्यते । १० नान्धकारेण सह घटारविरोधाभावात् ।
११ स्वपरपरिष्दकम् । १२ प्रमिति प्रति न करणम् ।
....
1 ' इति व्यवहार' भा प्रतो नास्ति 2 तयुत्पत्ती तु' इति व प्रतिपाठः । 3 'भवता' इति पार्टी म प मु प्रतिषु श्रधिकः 14 दिकं तद्विरोधि' इति व प्रनो पाठः। 5 पटवत्' इत्यधिकः पाठो म
प्रत्योः ।
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१. प्रमाणसामान्यप्रकाश:
उपचारप्रवृत्तौ च सहकारित्वं निबन्धनम् । न हि महकारित्वेन 'तत्साधकमिद'मिति करणं नाम, 'साधक विशेषम्यागिशयवतः करणत्वात् । तदुक्तं जनेन्द्रे-"साधकनमं करणम्' [ १५११४] इति।। तस्मान्न लक्षणम्याक्षादातिव्याप्तिः ।
१५ प्रथापि' धारावाहिकबुद्धिष्वतियाग्निम्तामा सम्यरझानत्वात् । न च तासामाईतमते प्रामाण्याभ्युपगम इति; उच्यते; एकस्मिन्नेव घटे घटविषयाज्ञानविघटनार्थमाचे ज्ञान प्रवृत्ते तेन घटमिती सिद्धायां पुनर्घटोऽयं घटोऽयमित्येवमुत्पन्नान्युत्तरोत्तरज्ञानानि खलु धारवाहिकज्ञानानि भवन्ति । न ह्य', तेषां3 प्रमिति प्रति साधकतमत्वम्, प्रथमजामेनंब प्रमिने: सिद्धस्वात् । कथं तत्र लगभतिव्यानात : ते गृहीतामाहत्या ।
१६ ननु 'पटे दृष्टे पुनरन्यव्यासङ्गेन" पश्चात् घट एव दृष्टे पश्चात्तनं ज्ञानं पुनरप्रमाणं प्राप्नोति धारावाहिक नदिति चेत् ;न;
१ 'मुख्यभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचार: प्रवनत इति नियमात् । २ प्रमितिसाधकम् । ३ अक्षादिकम् । ४ अनाघारणमाघकम्य ज्ञानस्य । ५ अत्रातिशयों नाम नियमन कार्यापादकत्वम् । ६ अक्षालजादावतिव्याप्तिवारणेऽपि । ७ धारावाहिकबुद्धीनाम् । 5 अाधन घटज्ञानेन । ६ बाराबाहिकजानानाम् । १० धारावाहिव बुदिपु । ११ पाग. वाहिकजानानाम् । १२ अन्यस्मिन् कार्ये व्यापृतं चित्तम्माभ्यामनियासरः । बुद्धेस्यत्र संचारो विषयान्तयाटव वा व्याङ्गः ।
___ 'इति पाठो मुद्रितप्रतिषु नास्ति । 2 'भवन्ति म प म प्रतिषु नास्ति । 3 'एषां' इति म प म प्रतिष पाठः ।
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न्याय-दीपिका 'दृष्टस्यापि मध्ये समारोपे सत्यदृष्टत्वात्' । तदुक्तम् – “दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक्” [परीक्षा० १-५] इति ।
१७ "एतेन निविकल्पक सत्तालांचनरूपे दर्शनेऽप्यत्तिश्याप्ति: परिहता। तस्याव्यवसायरूपत्वेन प्रमिति प्रति करणत्वाभावात् । निराकारस्य। ज्ञानात्वाभावाच्च । "निराकारं दर्शन साकारं ज्ञानम्" [सर्वार्थसि. २-६] इति प्रवचनात् । तदेवं? प्रमाणस्य सम्यग्ज्ञानमिति लक्षणं नाऽतिव्याप्तम् । नाऽप्यव्याप्तम्, लक्ष्ययोः प्रत्यक्षपरोक्षयोपियवृत्तः । नाऽप्यसम्मावि, 'लक्ष्य. वृत्तेरबाधितत्वात् ।
[प्रमाणस्य प्रामाण्यनिरूपणम्] ११८ किमिदं"प्रमाणस्य प्रामाण्यं नाम ? प्रतिभातविष
१ शावस्यापि । २ संशयविपर्ययागघ्यवसायविस्मरणलक्षणे ३ ज्ञातपदार्थोऽपि सति संशये, विपर्यये, अनम्यवसाये, विस्मरणे दाऽज्ञाततुल्यो भवति । अतस्तद्दिषयक ज्ञान प्रमाणमेवेति भावः । अक्षतिगशब्दधारावाहिकबुद्धिष्वतित्र्याप्तिनिराकरणेन । ५ निर्विकल्पकदर्शनस्य । ६ अनिश्चयात्मकत्वेन । ७ अागमात् । ८ यावल्लक्ष्येषु वर्तमानत्वं व्याप्यवृत्तित्वम् । ६ लक्ष्ययोः प्रत्यक्षपरोक्षयोः । १० तदेव हि सम्यक् लक्षणं यदव्याप्त्यादिदोषत्रयशून्यमित्यभिप्रेत्य ग्रन्यकृता दोषत्रयपरिहारः कृतः । ११ प्रामाण्यं स्वतोऽप्रामाण्यं परत इति मोमासकः, अप्रामाण्यं स्वत: प्रामाण्यं परत इति ताथागताः, उभमं स्वत इति साल्पाः, उभयमपि परत इति नंयायिक-वैशेषिकाः, उभयमपि कश्चित्स्वतः कश्चित्परत इति
1 म पम प्रतिषु 'दर्शनस्य इत्यधिकः पाठः । 2 मप मु प्रतिषु 'तस्मात्' इति पाठः ।
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१. प्रमाणसामान्यप्रकाश:
याऽव्यभिचारित्वम! । 'तस्योत्पत्ति: कथम् ? स्वत एवेति मोमांसकाः । प्रामाण्यस्य स्वत उत्पत्तिरिति ज्ञानसामान्यसामग्रीमात्रजन्यत्वमित्यर्थः । तदुक्तम्--"ज्ञानोत्पादकत्वनतिरिक्तजन्यत्व' मुत्पत्तो स्वतस्त्वम् [ ] इति । 'न ते मीमांसकाः, ज्ञानसामान्यसामग्रयाः संशयादावपि ज्ञानविशेष सत्त्वात् । वयं तु ब्रूमहे ज्ञानसामान्यसामग्रथाः साम्येऽपि संशयादिरप्रमाणं सम्यग्ज्ञानं प्रमाणमिति विभागस्तावदनिबन्धनो न भवति । ततः संशयादी यथा हेत्वन्तर मप्रामाण्ये दोषादिकमङ्गीक्रियते" तथा प्रमाणेऽपि2 "प्रामाण्यनिबन्धनमन्यदवश्यमभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथा प्रमाणाप्रमाण विभागानुपपत्ते:" 1 स्याहारिनो जैमा इत्येवं वादिना विप्रतिपत्तेः सद्भावात्संशयः स्यात्तन्निराकरणाय प्रामाण्याप्रामाण्यविचारः प्रक्रम्यते किमिदमिति ।
१ प्रामाण्यस्य । २ येनैव कारणेन ज्ञानं जन्यते तेनैव तत्प्रामाप्रयमपि न तद्भिन्नकारणेनेति भानः । ३ ज्ञानस्योत्पादको यो हेतुः कारणं तदतिरिक्तजन्यत्वं ज्ञानोत्पादककारणोत्पाद्यत्वमित्यर्थः । ४ समापत्ते ति, मीमांसका:-विचारकुशलाः । ५ समग्राणां भावः- एककार्यकारित्वं सामग्री-यावन्ति कारणानि एकस्मिन् कार्य व्याप्रियन्ने तानि सर्वाणि सामग्नोति कध्यन्ते । ६ मिथ्याज्ञाने । ७ जनाः । - कारणः । ६ एकस्माद्धेतोरन्यो हेतुः हेत्वन्तरं जानसामान्यकारणाद्भिन्नकारणमित्ययः । १० स्वीक्रियते, भवता मीमांसकेन । ११ गुणादिकम् --नमल्यादि. कम् । १२ गुणदोषकृतप्रामाण्याप्रामाण्यानम्युपगमे । १३ इदं ज्ञानं प्रमाणमिदमप्रमाणमिति विभागो न स्यात् ।
'प्रमाग्य' इत्यधिक: पाठ: म प्रती। 2. 'मपि' इति प्रा प्रतो नास्ति।
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साप-दीपिका
$ १६ 'एवमप्यप्रामाण्यं परतः प्रामाण्यं तु स्वत इति न' वक्तव्यम् ; विपर्ययेऽपि समानत्वात् । शक्यं हि वक्तुमप्रामाण्यं स्वतः प्रामाण्यं तु परत इति । तस्मादप्रामाण्यवत्प्रामाण्यमपि परत' एवोत्पद्यते। न हि पटसामान्य सामग्री रक्तपटेहेतुः । तदन्न ज्ञानसामान्यसामग्री प्रमाणज्ञाने हेतु:, भिन्नकार्ययोभिन्न कारण. प्रभवत्वावश्यम्भावादिति ।
३२० कथं तस्य ज्ञाप्तिः? अभ्यस्ते विषये स्वतः,अनभ्यस्ते तु परत: । कोज्यमभ्यस्तो विषय: को वाऽनभ्यस्त: ? उच्यते; परिचितस्वग्रामतटाकजलादिरभ्यस्त:, तहयतिरिक्तोऽनभ्यस्तः । किमिदं स्वत इति ? कि नाम परत इति ? ज्ञानज्ञापकादेव प्रामाण्यज्ञप्तिः! स्वत इति 1 ततोऽतिरिक्ताज्ज्ञप्तिः परत इति ।
२१ तत्र तावदभ्यस्ते विषये2 जलमिति: ज्ञाने जाते ज्ञानस्वरूपज्ञप्तिसमय एव तद्गतं प्रामाण्यमपि ज्ञायत एव । 'अन्यथा. तर"अण एव निःशङ्कप्रवृत्तिरयोगात्। अस्ति हि जलज्ञानोतरक्षण एव निःशङ्कप्रवृत्तिः। अनभ्यस्ते नु विषये जलज्ञाने जाते जल
१ प्रामाण्याप्रामाण्याभिन्न कारणसिद्ध । २ जैन उत्तरति नेति। ३ निर्भलतादिगुणभ्यः । ४ ज्ञानप्रामाग्यं भिन्नकारणजन्य भिन्नकार्यस्त्रादप्रमाण्यवदित्यनुमानमत्र बोध्यम् । ५. प्रामाण्यस्य । ६ निश्चयः । ७ परिचिते । ८ अगरिचिने । है जानस्वरूपज्ञप्तिसमये प्रामाण्यनिश्चयों नो नेतू । १० जलज्ञानानन्तरसमये । ११ जले सन्दहरहता प्रवृत्तिनं
। म प म प्रतिषु 'प्रमाण्यस्य इति पाठः । 2 म म 'अयस्तविवये' इति पास: । 3 म प मु 'जलमिदमिति' पाठः । 4प मु 'निःका' पाठः।
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१. प्रमाणमामान्यनजाग. ज्ञान मम जातमिति ज्ञानस्वरूपनिर्णयपि प्रामाण्यानणं योऽन्यत' एक. 'अन्यथोत्तरकाल सन्देहानुपपत्तः । अस्ति हि सन्देहा 'जलज्ञानं मम जातं तत्ति जलमन मरीचिका' इति । ततः कमलपरिमाशिशिर मम्प्रचारमानिभिग्जधारयनि-प्रमाण प्राकतनं जनजान कमलयरिगलायन्यथानापन दति । .
.२ "उत्पत्तिवत्रामाणपन्य ज्ञप्ति पन्नाधान योगाः । तत्र प्रामाण्यम्योत्पत्तिः परत इनि युवतम् । ज्ञप्तिः एलरभ्यस्तविषये स्वत एवेति स्थितत्वात् ज्ञप्तिर्गप परत "एवेत्यवचार. णानुपतिः । ततो व्यवस्थितमेतत्प्रामाण्यमुलक तौ रन एव, जप्तौ तु कदाचित्स्वत: "कदाचित्परत इति । तदुक्त प्रमाणपरीक्षायां शामिन प्रति-- "प्रमाणा दि-संसिद्धि "रन्यथाऽनित्र सङ्गनः । प्रामाण्य तु स्वत: सिद्धमभ्यासात् गरता न्यथा ।। | अ.प.पृ.६३ । स्थान । बारजानान्तागरप्रिन्याशानामा । : अन.:-+ ग्रनिन विध प्रामः:ोन्य-नो न यार । : बालाना. . : गदालम। ५ मामम । ३ । ७ स्था मनग्यापति पन । दोनशाब्देन नैयायिक शेपित गृह18 उपनिजामः । १० मिनन वात । ११ अन्यनित्तिरूपफल्द जानकावधारणपरक का प्रयगानम्भवान । १२ सम्यग् नितिनम् । १३ प्रन्या मनमायाम् । १४ ग्रनभ्यामदायाम् । तिमभिप्रत्य । १६ सम्बन्जनात् । १५ हादीविनम्र मन्धक प्रकारेण सिजिप्तिलक्षणा मन्नतिप्राप्तिलक्षामा वा । उत्पनिनक्षणा तु सिधिनि विवक्षिता, ज्ञापकप्रकरणा। । १८ प्रमाणाभासात् । १६ इष्टसंसिद्धय - भावः । २० अभ्यामदशायाम् । २१ अनभ्यासदशायाम् । ! 'मन्द' इत्यधिकः पाठो मुद्रितप्रतिषु । 2 'नुपपत्तः इति द प्रतिपारः ।
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१८
न्याय-दीपिका
२३. तदेवं सुव्यवस्थितेऽपि प्रमाणस्वरूपे दुरभिनिवेशवशंगर्तः सौगतादिभिरपि कल्पितं प्रमाणलक्षणं सुलक्षणमिति येषां भ्रमस्ताननुतीम:' । तथा हि---
[ सोगतीयप्रमाणलक्षणस्य समोक्षा ]
६२४. “ प्रविसंवादि ज्ञानं प्रमाणम्" [ प्रमाणवा० २- १] इति बौद्धाः । तदिदमविसंवादित्वमसम्भवित्वादलक्षणम् । बौद्धन हि प्रत्यक्षमनुमानमिति प्रमाणद्वयमेवानुमन्यते । तदुक्तं स्यायबिन्दी — "द्विविधं सम्यग्ज्ञानम्", "प्रत्यक्षमनुमानं च" [ न्यायबिन्दु पृ० १० ] इति । न तावत्प्रत्यक्षस्याविसंवादित्वम्, तस्य निविकल्पकत्वेन स्वविषयानिश्चायकस्य समारोपविरोधित्वाभावात्' । नाऽप्यनुमानस्य' तन्मतानुसारेण' 'तस्याज्यपरमार्थभूतसामान्य गोचरत्वादिति" ।
[कुमारिलमट्टीयप्रमाणलक्षणस्य समीक्षा ]
२५. “अनधिगततथाभूतार्थनिश्चायकं प्रमाणम्" [ शास्त्र
१ मिथ्यात्वाभिप्रायः । २ जनानाम् १३ उपकुर्मः ३४ न निर्दो पलक्षणम् । ५ बौद्धताकिकधर्मकीतिविरचिते न्यायविन्दुनाम्नि ग्रन्थे । ६ यन्न समारोपविरोधि तन्नादिसंवादि, यथा संशयादि, तथा च प्रत्यक्षम्, तस्मान्न तदविसंवादीति भावः । ७ अविसंवादित्यमिति सम्बन्धः । ८ बौद्धमतानुसारेण । अनुमानस्यापि । १० अयमत्राशयः --- बौद्धमते हि द्विविधं प्रमेयं विशेषाख्यं स्वलक्षणमन्यापोहाख्यं सामान्यं च । तत्र स्वलक्षणं परमार्थभूतं प्रत्यक्षस्य विषयः स्वेनासाघारणेन लक्षणेन लक्ष्यमा णत्वात्, सामान्यं त्वपरमार्थभूतमनुमानस्य विषयः परिकल्पितत्वात् । तषा
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१. प्रमाणसामान्यप्रकाशः
दी० पृ० १२३ ] इति भाट्टाः । तदप्यव्याप्तम् तैरेव प्रमाणत्वेनाभिमतेषु धारावाहिकज्ञाने पवनधिगतार्थे निश्चायकत्वाभावान् । उत्तरोत्तरक्षण विशेष विशिष्टार्थावभासकृत्वेन तेषामनधिगतार्थनिश्चायकत्वमिति नाशङ्कनीयम्, क्षणानामतिसूक्ष्माणामाल"क्षयितुमशक्यत्वात् ।
·
६
[ प्रभाकरीयप्रमाणलक्षणस्य समीक्षा ] २६. अनुभूति: प्रमाणम्" | वृहती ) १-१-५ ] इति प्राभाकराः । तदप्यसङ्गतम् ; अनुभूतिशब्दस्य भावसाधनत्वे करणलक्षणप्रमाणाव्याप्तेः 'करणसाधनत्वे तु भावलक्षणप्रमाणाव्याप्तेः करणभावयोरुभयोरपि तन्मले प्रामाण्याभ्युपगमात् । तदुक्तं शालिकानाथेनं
irde
"यदा भावसाधनं तदा संविदेव प्रमाणं करणसाधनत्वे त्वात्म-मनः सन्निकर्षः [ प्रकरणम० प्रमाणपा० पृ० ६४ ] इति । चापरमार्थभूतसामान्यविषयत्वादनुमानस्य नाविसंवादित्वमिति भावः ।
१ गृहीतार्थविषयकाभ्युत्तरोत्तरजायमानानि ज्ञानानि धारावाहिकहानानि तेषु । २ ननुत्तरोत्तरज/यमानधारावाहिकशानानां तत्तत्क्षणविशि ष्टघटाद्यर्थनिश्चायकत्वेन गृहीतार्थविषयकत्वमेव ततो न तैरख्याप्तिरिति शङ्कितुर्भावः । ३ शङ्का न कार्या । ४ आदर्शयितुम् । ५ ' प्रमाणमनुभूतिः' - प्रकरणमज्जि० पृ० ४२ । ६ प्रभाकरमतानुसारिणः । ७ अनुभवोऽनुभृतिरित्येवंभूते । अनुभूयतेऽनेनेति अनुभूतिरित्येवंरूपे । प्राभाकरागां मते । १० प्रभाकर मतानुसारिणा शालिकानाचेन यदुक्तं तत्प्रकरणपजिकायामित्थं वर्त्तते यदि प्रमितिः प्रमाणं इति भावसाधनं मानमाचीयते
1 ब प्रती 'लक्षयितुम' इति पाठः ।
―
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ग्याय-दीपिका
[नैयायिकानां प्रमाणलक्षणस्य ममीक्षा] २७. "प्रमाकरणं प्रमाणम्" [ न्यायमं प्रमा० ० २५ ] इति नैयायिकाः । तदपि प्रमादकृनं लक्षणम् ; ईश्वराय एव 'तदङ्गीकृते। प्रमाणे च्याते: । अधिकरण' हि महेश्वरः प्रमायाः, न तु करणम् । न चायमनुक्तो पालम्भः, "तन्मे प्रमाणं शिवः"
तवा संविदेव मानम् । तस्याश्च व्यवहारानुगुणस्वभावत्वाकानोपादानोपेक्षाः फलम् । प्रमोयतेऽनेनेति करणसाधने प्रमाणशब्दे प्रात्म-मनःसन्निकपात्मनो बानस्य प्रमाणत्वे लबालभामिनी फल (लं ) मंविदव बाह्मव्यवहारोपमागिनी सती"-प्रमाणपा० प० प्र० ६४।
१ वात्स्यायन-जयन्तभट्टादयस्ताकिकाः । यथा हि 'प्रमीयतेऽनेनेति करणार्थाभिधान: प्रमाणशब्दः, -ग्यायभा० १.१.३, 'प्रमीयते येन तप्रमाणमिति करणार्थाभिधायिनः प्रमाणब्दात् प्रमाकरणं प्रमाणमवगम्यते'–न्यायम० प्रमाण. पृ० २५ । २ प्रमाकरणं प्रमाणमिति नयायिकाभिमतमपि । ३ सदोषम् । ४ महेश्वरे । ५ नैयाधिकरयुपगते । ६ प्राथयः । ७ तत्प्रमायाः नित्यत्वात्करणत्वासम्भवात् । र अनायमाशयः---उपालम्भो दोषः (ग्रारोपात्मकः), स च 'महेश्वरः प्रमाणम्' इत्येवरूपो नानुक्तो भवता न स्वीकृत इति न, अपि तु महेश्वरस्य प्रमाणत्वं स्वीकृतमेव 'तन्मे प्रमाणं शिवः' इति वचनान्, तथा चेश्वराश्यप्रमाणस्य प्रमाणा अधिकरणत्वेन प्रमाकरणत्वाभावादव्याप्तिदोषकाधन अन्यकृता सङ्गतमनेति भावः । ६ सम्पूर्णः इलोकस्वित्थ वृत्तंते -
साक्षात्कारिणि नित्ययोगिनि परदारानपेक्षस्थिती भूतार्थानुभचे निविष्टनिखिलप्रस्ताविवस्तुक्रमः । सेशादृष्टिनिमित्तष्टिविगमप्रभ्रष्टाङ्कासुषः शकोन्मेषकलाभिः किमपरस्तन्मे प्रमाणं शिवः ॥ 1 'ईश्वराध्ये तदङ्गीकृत एव' इति म प म प्रतिषु पाठः
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१. प्रमाणसामान्यप्रकाश:
|न्यायकुसु० ४-६ ] इति 'योगाग्रसरेणादयनेनोक्तत्वात । तत्पर हाराय' कंचा' बालिशाः साधनाश्रययोरन्यतरत्वे' माति प्रमाच्याप्तं प्रमाणम्' सत्रदशना पृ० २३५ ] इति वक्ष्यन्ति तथापि साधनाश्रयान्यनरपर्यालोचनाया साधनमाथयों वेति फलति । तथा च "परम्पराव्याप्तिलक्षणस्य ।
१२८ 'अन्यान्यगि पराभिभूतानि प्रमाणामामान्य लक्षणा
१ योगाः नया विकारात मोगर प्रधानः प्रमुग्धा वा नेन । २ महश्वरेऽच्याप्तिदीपनिरावारणाय । ३ सायणमाषवाचार्याः । ४ सर्ववर्शनसंपहे 'साधनाश्रयाव्यतिरियनत्वे' इनि पाठः । नदीकाकृतः च नथेच व्याम्यातः । यथा हि-'यादानुभवः प्राणा, नरयाः साधनं करणम । अाश्रय मामा । तदुभयापेक्षया भिन्न यन्न भवति ताभुतं मद्यत्पमया नित्यराम्बई नप्र. माणमित्यर्थः । ५ प्रमासाधन-प्रमाश्रययोमध्ये प्रमासाधन प्रमाणं प्रमा. श्रयो वेति विचार क्रियमाणे । ६ लाघमाश्रिययोग्यतरम्य प्रमाणावाङ्गीकारे । ७ अ भाष:-प्रमासाशनस्य प्रमाणत्वाङ्गीका प्रमाश्रय प्रमाण:म्याप्तिः, प्रमाथपम्य च प्रमाणत्वस्वीकारे प्रगासाधन प्रमाण वाप्तिः, यता ह्यन्यतरस्य प्रमाण परिकल्पनात् । उभापरिकल्पने चासम्भावत्व स्पष्टमंद न हि प्रमाण-नान्युपगतस्यकस्य (रान्तिकस्य महेश्वरस्य वा कन्यचिदपि प्रमासाधनत्यं प्रासश्रयत्वं चांभप सम्भव । इत्थं च नैयायिकाभिमनमपि प्रभाकरणं प्रमाणमिति प्रमाणलक्षणं न समीचीनमिति प्रतिपादित बोडब्धम् । ____E. 'इन्द्रियवृत्तिः प्रमाणम्' इति सांख्याः, 'अव्यभिचारिणीममंदियामर्थापलब्धि विदधती बोयाबोधस्वभावा मामग्री (कारकसाकल्य प्रमाणम्' ( न्यायमं० प्रमा० ० १४ ) इति उरग्नयायिका: ( जयन्तभट्टादयः ) इत्यादीन्यपि परोक्तानि प्रमाणसामान्यलक्षणानि सन्ति, परं तेषां प्रमाण
1 'प्रमाणस्य' इति म प म प्रतिषु पाठः ।
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न्याय -सीपिका
'न्यलक्षणत्वादुपेक्ष्यन्ते' | 'तस्मात्स्वपरावभासनसमर्थं सविकल्पमगृहीतग्राहक * सम्यग्ज्ञानमेवाज्ञानमर्थं
निवर्तयत्प्रमाण
मित्यार्हत' मतम् ।
इति श्रीपरमार्हताचार्य-धर्मभूषण-यति-विरचितायां न्यायदीपिकायां प्रमाणसामान्य लक्षणप्रकाशः प्रथम- ॥१॥
२२
P
त्वस्यैवाघटनान्न परीक्षार्हाणि अपि तूपेक्षाहण्येव ततो न तान्यत्र परीक्षितानि अन्यकृता । नन्वियिवृत्तेः कारकसाकल्यादेवी प्रमाणत्वं कथं न घटते ? इति चेत् उच्यते इन्द्रियाणामज्ञान रूपत्वानवृत्तेरप्यज्ञानरूपत्वेन प्रमाणत्वायोगात् । ज्ञानरूपमेव हो प्रमाणं भवितुमर्हति तस्यैवाऽज्ञाननिवत्तं कत्त्वात्प्रदीपादिवत् । इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां प्रतिहि तदुद्घाटना (दव्यापारः, स च जडस्वरूपः ततो न तेनाज्ञाननिवृत्तिः सम्भवति घटादिवत् । तस्मादिन्द्रियवृत्तेरज्ञाननिवृत्तिरूपप्रमां प्रति करणत्वाभावान्न प्रमाणत्वमिति भावः ।
"
एवं कारकस्साकल्यस्य । ऽप्यबोधस्वभावस्याज्ञानरूपत्वेन स्व-पज्ञानकरणं साधकत मत्वाभावान्न प्रमाणत्वम् । अतिशयेन साधकं साधकतमम्, साधकतमं च करणम् । करणं खत्वसाधारणं कारणमुच्यते । तथा च सकलानां कारकाणां साधारणागा स्वभावानां साकल्यस्य परिसमाप्त्या सर्वत्र वर्तमानस्य सामस्त्यस्य – कथं साधकन मन्त्रमिति विचारणीयम् ? साधकतमत्वाभावे च न तस्य प्रमाणत्वम् रत्र - पराच्छिनी साबकतमस्यैव प्रमाण घटनात् । तेनैव ज्ञाननिवृत्तिः सम्पादयितुं शक्येत्यलं विस्तरेण । ततः सम्यग्जानं प्रमाणम् इत्येतदेव प्रमाणस्य सम्यक् लक्षणम् ॥
१ लक्षणाभासत्वान्, लक्षणकोटों प्रवेष्टुमयोग्यत्वादिति भावः । २ न परीक्षाविषयीक्रियन्ते । ३ उपसंहारे 'तस्मात्' शब्दः। ४ प्रपूर्वार्थनिश्चायकम् । ५ घटादिपदार्थेष्वज्ञाननिवृत्ति कुर्वत । ६ जैनम् । ७ शासनम् ।
1 'न्यलक्ष्मत्वा' इति व मा प्रतिपाठः ।
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१. अदरकाशः
-::[प्रमाणं द्विघा विभज्य प्रत्यक्षस्य लक्षणकथनम् |
१. अथ' प्रमाणविशेषस्वरूपप्रकाशनाय प्रस्तुयते । प्रमाण द्विविधम् .--प्रत्यक्षं परोक्ष चेति । तत्र विशदप्रतिभामं प्रत्यक्षम् । इह प्रत्यक्ष लक्ष्यं विशदप्रतिभासत्वं लक्षणम् । यस्य प्रमाणभूतस्य ज्ञानस्य प्रतिभासो विशदस्तत्प्रत्यक्षमित्यर्थः ।
१. प्रमाणसामान्यलक्षणनिरूपणानन्तमिदानी प्रकरणकार प्रमाणविशेषरवरूपप्रतिपादनार द्वितीयं प्रकाां प्रारभने प्रति । २ पूर्वोक्नलक्षणलक्षितम् । ३ विभागम्यावघागणफलत्वात्तेन द्विप्रकारभेष, न न्यूनं नाधिकमिति बोध्यम् । चाकाद्यभिमनसकलप्रमाण भेदानामत्रवाना. भावात् । न प्रत्यक्षमेव प्रमाणमिति चार्वाकाः, प्रत्यक्षमनुमान चेति में एव प्रमाण अति बौद्धाः वैशेषिकाश्च, प्रत्यक्षानुमानोपमानान प्राप्येव प्रमाणानीति सांख्याः, नानि च शान्दं चति चलायंव इति नायिकाः, महाभीपत्त्या न पश्नति प्राभाकराः, सहानुपन्नभ्या च पट इनि भाट्टाः बेदान्तिनश्च, मम्मान नियाभ्यां पहाटीमणानीति पौराणिकाः । तथा वागतम्. .
प्रत्यक्षमेक चार्वाकः कारणात्सौगताः पुनः । अनुमानं च तव सांख्याः शाब्दं च ते अपि ।।१।। न्यायकदेशिनोऽप्येवमुपमानं च केन च । अर्थापत्त्या सहैतानि चत्वार्यालः प्रभाकराः ।।२।। प्रभावषष्ठान्येतानि भाट्टा वेदान्तिनस्तथा । सम्भवंतिपयुक्तानि तानि पौराणिका जगुः ॥३॥ तदेतेषां सर्वेषां यथायथं प्रत्यक्ष परोक्षप्रमाणयोरेवान्तर्भाव इति हिविश्व
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न्याय-दीपिका
३२. किमिदं विशदप्रतिभासत्वं नाम ? उच्यते-ज्ञानावरणस्य' क्षयाद्विशिष्टक्षयोपशमाद्वा 1 शब्दानुमानाद्य' सम्भव यन्नमंल्यमनुभवसिद्धम, दृश्यते खल्बग्निरस्तीत्याप्त'वचनाद्मादि लिङ्गाच्चावन्नाजानादयं मग्निरित्युत्तन्नस्यन्द्रियकस्य ज्ञानस्य विशेषः । स एव नर्मल्यम्, वैशयम, स्पष्टत्वमिन्यादिभिः शब्दरभिधीयते । नदुक्तं भगवद्भिरकलदेवाय विनिश्खये
"प्रत्यक्षलक्षण प्राहः स्वाटे माकारमञ्जमा।" [का० ३] इति । विवृतं च स्यानादविद्यापतिना"-"निर्मल निभासत्व
मित्यनेन सूचितम् । विद्यानन्दस्वामिनायुक्तम्-पत्र प्रमाणलक्षणं व्यवमायास्मकं सम्यग्ज्ञानं परीक्षितम्, नन्प्रत्यक्ष परोक्षं चेनि संक्षेपाद् द्वितयमेव म्यवतिष्ठते, सकलप्रमाणभेदानामवैवान्तावादिति विभावनाल ।' 'स्याटादिनां तु संक्षेपात्प्रत्यक्ष-परोक्षविकल्पात्प्रमाणद्वयं सिद्ध्यत्येन, नत्र सकलप्रमाणभेदाना रांग्रहादिति'-प्रमाणपरी० पृ० ६३-६४,६७ । एनच प्रमेयकमलमार्तडेऽपि (२-१) प्रपञ्चतो निरूपितम् ।।
१ ज्ञानप्रतिवन्धकं ज्ञानाबरणाम्यं कर्म, तम्य सर्वथा क्षयाविशेषक्षयोपगमाठा । २ आदिपदादुपमानापित्त्यादीनां मंग्रहः । ? विश्वसनीयः पुरुषा प्राप्तः, यथार्थवक्ता इति यावत् । ४ अत्रादिपदेन कृतकान्व-शिशपाल्बादीनां परिग्रहः । ५ पुरो दृश्यमान: । ६ इन्द्रियबन्यम्य । - अनमानाद्य पेक्षया विशेषप्रतिभासनरूपः । तदुक्तम्-अनुमानाद्यतिरेकेण विशेष प्रतिभासनम् । तवैशचं मत बुझे:--निघीय० का०४। ८ विशेषः । १ अस्याः कारिकाया उतरार्षमिदमस्ति- 'द्रव्य-पर्यायमामान्यविशेषान्मवेदनम् ।' १० व्याख्यातं न्यायिनिश्चयविवरणे । ११ श्रीमदादिराजाचायण ।
'शाब्द' इति प्रा प्रतिपाठः ।
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२. प्रत्यक्ष-प्रकाशः
मेव स्पष्टत्वम्, स्वानुभवप्रसिद्ध चतत्मबग्यापि परीक्षकस्येति नातीव निर्बाध्यते न्वार्यावनिक वि० का इति । नम्मात्मुष्ठक्तं विशदप्रतिभासात्मक ज्ञान प्रत्यक्षमिनि ।
[नौगतीमत्रपक्षम्य निरासः | ३. 'कल्पनापोडमभ्रान्त 'प्रत्यक्षम्" | न्यायविन्दु पृ. ११] इति ताथागताः । अत्र टिकापनापोदादेन मविकल्पकस्य व्यावृत्तिः, अभ्रान्तमिति पदेन त्वाभासस्य' । तथा च समीचीन निर्विकल्प के प्रत्यक्षांमत्युक्त भवति तदेतद् बानचेष्टितम् ; निविकल्पकस्य प्रामाण्यमेव दुर्लभम्, ममारोपाविरोधिन्वान्, कुतः प्रत्यक्षत्वम् ? व्यबसायात्मकस्यैव प्रामाण्यव्यस्थापनान् ।
तथा चोक्तम–'विशदनानात्मत्र प्रत्यक्षम, प्रत्यक्षबात, यन न विशदज्ञानात्मक नन्न प्रत्यक्ष वाऽनुमानादिज्ञानम्, प्रत्यक्षं व विवादाव्यासितम्, नत्मादिगदनानात्मकमिति ।'-प्रमाणपरी० ए० अभिलापसंसर्गयोग्यप्रनिभासप्रनीति: कल्पना, नया हितम. न्यायबिन्तु पृ० १३. नाम-जात्यादियोजना बा कल्पना, नया मोहा, वल्पनास्वभावान्यमित्यर्थः । 'लत्र यन्न भ्राम्यति तदभ्रान्तम्' न्यायविन्दुरोका पृ० १२ । ३ 'प्रत्यक्षं कल्पनापीढम् । यज्जानमा पादौ नाम-जात्यादिकम्पनारहितं तदक्षमक्षं प्रति वतने इति प्रत्यक्षम्'-'यायप्र० पृ. ७, 'प्रत्यक्ष कल्पनापोद्धं नाम-जात्याद्यसंयुतम् -प्रमाणसं. का० ३ ! अनदं बोध्यम्-'कल्पनापोई प्रत्यक्षम्' इति दिग्नागस्य प्रत्यक्षलक्षणम्, अभ्रान्तविशेषणमहिन सुधर्मकोत्तः । ४ तथामत: सुगनी बुद्ध इत्यनन्तरम्, तदनुमायिना ये ते तापागता बोद्धाः । ५ व्यवच्छदो निरास इति यावत् । ६ मिथ्याज्ञानस्य । ७ फलितलक्षण प्रदर्शयति तथा घेति । ८ निश्चयात्मकस्यैव शामस्य । ६ 'सन्निश्चयात्मकं समारोपविरुखस्वादनुमानवत्' (परीक्षा० १-३)
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४. 'ननु निर्विकलाकमेत प्रत्यक्षापमाणमर्थ जत्वाल । नदेव हि परमार्थसत्स्वलक्षणजन्यं न तु गविकल्पकम् , तस्यापरमार्थभूतसामान्यविषयत्वेनार्थजवाभावादिति चेत् ;न'; मर्थस्यालोकबज्ज्ञानकारणत्वानुपपत्तेः । तद्यथा-अन्वयव्यतिरेकगम्यो हि कार्यकारणभावः । नत्रालोकस्ताबन्न जानकारणम् तदभानेपि नक्तञ्चराणां मार्जारादीनां ज्ञानोलानेः, तद्भावेऽगि[२]'घुकादीनां तदनुत्पतेः । विद्वदथोंऽपि न जानकारणम्, "तदभावेऽपि केशमशकादिज्ञानोत्पने;"। तथा च कृतोऽर्थजत्व ज्ञानस्य ? तदुक्तं परीक्षामुखे "नार्थालोको कारणम्" [२-६] इति । प्रामाण्यस्य चार्थाश्यभिचार एव "निबन्धन न त्वर्थजन्यत्वम्,
इत्यादिना निश्च या मकस्य॑व ज्ञानस्य प्रमाण्यं व्यवस्थापितम् ।
१ बौद्धः शत नन्विति । २ परमायभूनेन म्वलक्षणेन जन्यं 'घरमार्थोऽकृत्रिममनागेपिन रूपम्, नास्तीति परमार्थनन् । य एवार्थः सन्निघानान्निधानाभ्यां स्फुटमस्फुर च प्रतिभासं करानि परमार्थमन् स एव । स एव च प्रत्यक्षविपया यतस्तम्मात्तये व बलक्षणम्'--न्यायिक टी० पृ० २३, 'यदक्ष गगमयं नदेव स्वलक्षामिति, मामान्यलक्षणं च ततो विनम् -प्रमाण पृ० ६ । : जैन जान । ४ अन्वयव्यतिरेकाभ्यां बिना न कार्यकारणभावावगम इत्येतत्प्रवर्मनाथं 'हि' शब्दः । ५ पालानाभावेऽपि । ६ आलोकमभावेऽपि । उलू कादीनाम् । ८ जानीपत्यभायात् । ६ अालोकत्रन् । १० अर्थाभावेऽपि । ११ केगोण्डुकादिजानल्य भावान । १२ सदभानवद्वतिन्वं व्यभिचारदिभन्नो व्यभिचारः । तपदेनाप्रार्थों ग्राह्यः । १३ कारगं प्रयोजकमित्यर्थः ।
1 एतदेव हि' इति र प्रतिपाय: ।
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२. प्रत्यक्ष प्रकाश:
२७
स्वसंवेदनस्य विषयाजन्यत्वेऽपि प्रामाण्याभ्युपगमात् । न हि किञ्चित्स्वस्मादेव जायते ।
$ ५. 'नन्वतज्जन्यस्य ज्ञानस्य । कथं 'तत्प्रकाशकत्वम् ? इति येत्; 'घटाद्यजन्यस्यापि प्रदीपस्य तत्प्रकाशकत्वं दृष्ट्वा सन्तोष्टव्यमायुष्मता' । अथ कथमयं विषयप्रतिनियम:' ? यदुत 'घटज्ञानस्य घट एव विषयो न पट:' इति । श्रर्थजत्वं हि विषयप्रतिनियमकारणम्. तज्जन्यत्वात् तद्विषयमेव चैतदिति । तत्तु भवता नाऽभ्युपगम्यते इति चेत्; योग्यतैव विजयप्रतिनियमकारयमिति ब्रूमः । का नाम योग्यता ? इति2 1 उच्यते-- स्वावरणक्षयोपशमः । तदुक्तम् — "स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थ व्यवस्थापयति परीक्षा० २-६] इति ।
१०
१ बोर्द्धः २ २ अत्र वौद्धः पुनराशङ्कते नन्विति । ३ श्रयं भावः - -यदि ज्ञानं अर्थान्नोत्पद्यते तह कथमयं प्रकाशकं स्यात् ? तदेव हि ज्ञानमर्थप्रकाशकं यदर्थजन्यम्, प्रजन्यत्वे तु तस्यार्थो विषयो न स्यात् 'नाकारणं * विषय:' इति वचनात् ४ उत्तरयति - घटाद्यजन्योऽपि हि यथा प्रदीपः घटादिप्रकाशको भवति तथा ज्ञानमप्यर्याजन्यं सत् प्रर्थप्रकाशक मित किमनुपपन्नम् ? अर्थस्य जानकारणत्वनिरासस्तु पूर्वमेव कृतस्ततो नात्र किञ्चिद्वचनीयमस्ति । ५ सन्तोषः करणीयो भवता । ६ अमुकज्ञानस्य अमुक एक विषयो नान्य इति विषयप्रतिनियमः, स न स्याद्यदि ज्ञानस्यार्थ - जन्यत्वं नो भवेदिति शङ्काया माशयः ७ अर्थजन्यत्वम् | जैनेन । ६ जैना: । १० प्रतिनियतार्थव्यवस्थापको हि तत्तदावरणक्षयोपशमोऽयंग्रहणशक्तिरूपः । तदुक्तम् -- 'तल्लक्षणयोग्यता च शक्तिरेव । संव ज्ञानस्य 1 आप भु प्रतिषु 'अन्यस्य' इति पाठः । 2 व प्रतौ 'इति' पाठो नास्ति :
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न्याय-दीपिका
२६. 'एतेन तदाकारत्वात्त प्रकाशकत्वम्' इत्यपि प्रत्युक्तम्'। अतदाकारस्थापि प्रदीपादेस्तत्प्रकाशकत्वदर्शनात् । ततस्तदाकार'बत्तजन्यत्वमप्रयोजक प्रामाण्ये । 'मविकल्पक विषयनस्य
- .- - - - प्रतिनिस्तार्थव्यवस्थायामङ्गम् नार्थोः परयादि ।'-- प्रमंयक -१०. 'योग्यताविशेषः पुनः प्रत्यक्षरंगब स्त्रविषयज्ञानावरण-धीर्यान गयक्षचोचसमविशेप एद'-प्रमाणपरीक्षा पृ० ६५ ।
अ नाया निनावरणन. योग्यतायाःच प्रतिनियनान्यस्थापक. बसमभन । निराम् : इत्थं च नदाकारा नज्जन्यन्न चाभयमपि प्रामाण्ये न प्रयोजना नि ! यम । ४ याचागम - मश्किला सस्कारमानभु-मामान्यांनाएयामितितन्न सुतम् ; गविना कम्य मतमामा न्यम्य प्रमाणाधिनवानगरमार्थत्वमेव । जि न कनागि प्रमाणन बाध्य नःपरमामत', यथा भवभिमत ग्वन गम्. प्रमाणावाधिन न मामान्यम्,
मागरमाश्रयन् । किञ्च, गर्थव दि विशेषः बलक्षण :बिनासाधरणा रूपेण मायान्यागविना विमदम्परिणामात्मना दान तथा मामालम स्वनामधान गण सगरमामना विषायम्भदिना नयर इन कर लक्षणपन विगंपाद् [मनः यथा त बर: वामायां कुर्वन् व्यानिशान-६३णार्थक्रियामागे या भागान्यपि स्वाम पक्रयामन्वयमान लक्षणां वं- कामर्थन याकार न म्यान् नम्बाह्या पुनर्वाह-दाहायत्रियां यथा न सामान्य वर्ग भागत नशा विगंगा वचन:, मामान्यविशेषात्मना बस्नुनों गचादेनोपयागात् । इन्यक्रिया काग्दिनापि तयोर भदः सिद्धः ।'-अप्टस पृ. १५१ । नती यततं धमकानिना
यदेवाकियाकारि तदेव परमायंसत् । अम्पत्संवृतिसत् प्रोक्ते ते स्वसामान्यलक्षणे ॥'
-प्रमाणवा० ३-३ इति ।
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२. प्रत्यक्ष-प्रकाशः सामान्यस्य परमार्थत्वमेव, अबाधितत्वात् । प्रत्युत सौगताभिमत एव स्वलक्षणे विवादः । तस्मान्न निर्विकल्पकरूपत्वं प्रत्यक्षस्य ।
नयायिवाभिमतम्य सन्निा नात्यान
७. 'मन्निकर्षम्य च योगाभ्युपगतस्याचेतनवान कुतः प्रमितिकरणत्वम्, कुतस्तरां प्रमाणत्वम्, कुतस्तमा प्रत्यक्षत्वम् ?
८. 'किन्च, सरप्रमितेरसन्निकुष्टमेव चक्षुर्जनक्रम. अप्राप्यकारित्वात्तस्य । ततः सन्निकपीभावःपि साक्षात्कारिप्रमोशन सन्निवर्षरूपतव प्रत्यक्षस्य । न चाप्राप्यकारित्वं चक्षुषाऽप्रसिद्धम् , प्रत्यक्षतस्तथ व प्रतीतेः । ननु प्रत्यक्षागम्यामपि चक्षुषो विषयप्राप्तिमनुमानेन साधयिष्याम: परमाण चन् । यथा प्रत्यक्षामिद्धो. ऽपि, परमाणुः कार्यान्यथानुषपन्यानमानेन' साध्यते नया 'नक्ष: प्राप्तार्थप्रकाशक बहिरिन्द्रियत्यान त्वगिन्दियवन इत्यनुमानाल निरस्तम्; 'सामान्यानक्षण वनक्षणादि भवाभावात्-ग्रप्टम० पृ० १०६
१ इन्द्रियायार्थयोः सम्बन्धः सन्निकर्पः । २ प्रमानिलिम्पसमा पनि करणत्वं प्रमितिकरणत्वम् । तन, गन्निकर्षम्य न मम्मति. जवात् । प्रमितिकरणत्वासम्भवे च न तम्य प्रमाणवम, प्रमाकरणस्यैव प्रमाणन्दाभ्युपगमात् । सदभात्रे च न प्रत्यक्षल्यमिति भावः । दोपान्तमाह किम्चेति । चक्षुहि असम्बद्ध मेव रूपजानस्य जनकं भवनि. अप्राप्ताथंग्रकाशक वात् । न हि चक्षुः पदार्थ प्राप्य प्रकार्यात, अपि नु दुगदेव । ४ अप्राप्यकारित्वस्यैव । ५ प्रत्यक्षणापरिच्छेद्याम् । ६ 'परमाणुररित छयणकाधिकार्यात्पत्त्यन्मधानुपपत्तः इत्यनेमानेन । '७ वहिःपदं मनायवच्छदार्थम्, मनो हि न बहिरिन्द्रियं तस्यान्तःकरणत्वात् । तचाप्राप्यकारोति । अत्र व्याप्ति.-यहहिरिन्द्रिय तत्त्राप्तार्यप्रकाशकम्, पथा स्पर्शनेन्द्रियम् । यन्न प्राप्तायंधका
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न्याय-दीपिका
प्राप्तिसिद्धिः । प्राप्तिरेव हि सन्निकर्षस्ततो न सन्निकर्षस्याव्याप्तिरिति चेत् ; न ; अस्यानुमानाभासत्वात् । तद्यथा___$E. चारित्यत्र कः पक्षोभिनत: ? कि लौकिकं चक्षुरुतालौकिकम् ? 'आये हेतोः 'कालात्यापदिष्टत्वम्, गोलकाख्यः स्य। लौकिकत्रक्षुषो विषयप्राप्ते: प्रत्यक्षबाधितत्वात् । द्वितीये' स्वाश्रयासिद्धि:, अलौकिकस्य चक्षुषोऽद्याऽप्यसिद्धेः । शाखासुधादीधिति समानकाल ग्रहणान्यथानुपपत्तैश्च चक्षुरप्राप्यकारोति निश्चीयते । तदेवं सन्निकर्षाभावेऽपि चक्षुषा रूपप्रतीतिर्जायत इति सन्निकर्षोऽव्यापक' त्वात्प्रत्यक्षस्य स्वरूपं न भवतीति स्थितम् ।
६१०. "अस्य च प्रमेयस्य प्रपञ्चः" प्रमेयकमलमार्तणे
शक तन्न बहिरिन्द्रिम्, यथा मनः, बहिरिन्द्रयं चेदं चक्षुः तस्मात्प्राप्तार्थप्रकाशकमिति भावः ।
१ सदोषानुमानत्वमनुमानाभासत्वम् । २ स्वीकृतो भवता योगेन। ३ प्रथमे पक्षे । ४ वाघितपक्षानन्तरं प्रयुक्तो हि हेतुः कालात्यापदिष्ट उच्यते । ५ उत्तरविकल्पे-अलौकिकं च रित्यभ्युपगमे। ६ किरणरूपस्य । । सुपादीधितिः-चन्द्रमाः । E शाखाचन्द्रमसोस्तुल्यकालग्रहणं दृष्टं ततो ज्ञायते चक्षुरप्राप्यकारीति । प्राप्यकारित्वे तु क्रमश एव नयोग्रहणं स्यात् न युगपत्, परं युगपत योग्रहणं सर्वजनसाक्षिकमिति भावः । ६ अव्याप्तिदोषदुष्टत्वात् । १० एतस्य सन्निकर्षाप्रामाण्यविचारस्य । ११ विस्तरः ।
1'क्षस्य' इति म म प्रत्योः पाठः। 2 'ग्रहणाद्यन्यथानु' इति प्राम प मु प्रतिपाठः । ३ मा म मु प्रतिष 'ब' पाठो नास्ति ।
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२. प्रत्यक्ष प्रकाश:
३१
[१-१ तथा २-४ ] सुलभः । संग्रहप्रन्थत्वात्तु नेह प्रतन्यते । एवं चन सौगताभिमतं निविकल्पं प्रत्यक्षम, नापि योगाभिमत इन्द्रियार्थसन्निकर्षः । किं तहि ? विशदप्रतिभास ज्ञानमेव प्रत्यक्षं सिद्धम् ।
[ प्रत्यक्षं द्विधा विभज्य सांभ्यवहारिकस्य लक्षणपुरस्सरं भेदनिरूपणम् ]
$ ११. तत्प्रत्यक्षं द्विविधम् 1 - सांव्यवहारिकं पारमार्थिक चेति । तत्र देशतो विशदं सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षम । यज्ज्ञानं देशतो विशदमीषन्निर्मल तत्सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमित्यर्थः । तच्चतुविधम् – अवग्रहः, ईहा, अवायः, धारणा चेति । 'तत्रेन्द्रियार्थसमवधानसमनन्तरसमुत्थसत्तालोचनान्तरभावी सत्तावान्तरजातिविशिष्ट वस्तुग्रहों" ज्ञानविशेषोऽवग्रहः - यथायं पुरुष इति । नाऽयं संशयः, विषयान्तरव्युदासेन स्वविषयनिश्चायकत्वात् । तद्विपरीतलक्षणो हि संशयः । "यद्राजवात्तिकम् - "अनेकार्थानिश्चिताऽपर्युदासात्मकः संशयस्तद्विपरीतोऽवग्रहः'
१ सुबोधः | २ अत्र न्यायकायाम् । ३ विस्तार्यते । ४ प्रत्यक्षमिति सम्बन्धः । ५ सांध्यवहारिकप्रत्यक्षम् । ६ अवग्रहादिषु मध्ये ७ इन्द्रियार्थयोः समवधानं सन्निपातः सम्बन्ध इति यावत्, तत्पश्चादुत्पन्नो यः सत्तालोचनरूपः सामान्यप्रतिभासस्तस्यानन्तरं जायमानः श्रथ चावान्तरसत्ताविशिष्टवस्तुग्राहको यो ज्ञानविशेषः सोज्वग्रह इति भावः । स्वदिtureन्यो विषयों विषयान्तरम् तम्य व्युदासो व्यवच्छेदस्तेन स्वविषयातिरिक्तविषयव्यवच्छेदेन । स्थविषयभूतपरमार्थककोटिनिश्चायको ह्यवग्रहः । १० अवग्रहात्सर्वथा विपरीतः संशयः । ११ अवग्रह- संदाययोर्भेदसाधकं तत्त्वार्थ राजवासिकीथं लक्षणं प्रदर्शयति यदिति । १२ प्रयमर्थः - नानार्थ
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1 ' तत्कियत्प्रकारं तद्विविधं ' इति म प्रतिपाठः ।
3
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न्याय-दीपिका
[ १-१५-६ । इति । 'भाष्यं च--"संशयो हि निर्णयविरोधी नत्ववग्रहः" । १-१५-१० ] इति । अवाहनहोतार्थसमुद्भुतसंशयनिराशाय यतनमीहा' । तद्यथा-गुरुप इति निश्चितेऽर्थे किमयं दाक्षिणात्य उत्तौदीय' इति संशये सति दक्षिणात्येन भवितव्यमिति तन्निरासायेहान्य ज्ञानं जायत इति। भाषादिविपनानाद्याथा भ्याबरम नमवायः, यथा दाक्षिणात्य एवायमिटि । 'कालान्तराविरमरणयोग्यतया तत्यंब
विषयः, निश्चया मनाः, विषयानर व्यवछेदकसशायः । अवग्रहस्तु तद्विपरीत:-एवार्थविषयकः, निश्चयात्मकः, विषयान्ताव्यवच्छेदकाचेति ।
१ तत्त्वार्थ राजवानिकभाप्यम् । २ मति संशये पदार्थग्य निर्णयों न भबति, अवहे तु भवन्यति मात्रः । ६ मन वयमीहाया नानवम् । यता ही हाथा इच्छापयाच्नेष्टात्मकत्वाला; मेकम : ईहा जिज्ञासा, मा च विचारापा, विचारश्च ज्ञानम्. नातो चिोष । नया पोक्तम्
हा अहा तर्क: परीक्षा विचारणा जिनामा इन्धनान्तम ।' तत्त्वार्थाघि० भा० १-१५. 'ईहा-धारणयारपि नानात्मक मुन्ना जोगदिया. पात् ।'-लघीय० स्वोज्ञिवि० का ६, जानन (ज्ञानी मनापामा संस्कारात्मा न धारण। '। इति स भापती ना न यतिष्ठते । विशेषवेदाम्यह दुस्यात्यत्तनान ।। ४. प्रजाना-मायां तु नका. स्येह (हितस्य वा । ज्ञानोपादानना न स्मापारिख मान्न च।तस्वार्यश्लोकपा० १.१५-१९, २०, २२, हा च पद्यपि वाटोच्यते तथापि चेतनस्य रोति ज्ञानम्पनि युक्तं प्रत्यक्षभेदःवमग्या:'--प्रमाणमी. १-१-२७, 'ईहा-धारणयोज्ञानीपादानत्वात् ज्ञानरूपतान्नया'-प्रमाणमी. १-१-३६ । ४ दक्षिणदेशीयः । ५ उत्तरदेशीयः । ६ अनुभवकालाद्भिन्न. कालः कालान्तरमागामिसमय इत्यवः ।
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प्रमश
:
ज्ञानं धारणा' । यद्बशादुत्तरकालेऽपि स। इत्येवं स्मरणं जायते ।
६१२. ननु पूर्वपूर्वज्ञानगृहीतार्थग्राहकत्वादेतेषां धारावाहिकवदप्रामाण्यप्रसङ्ग इति चेत् ; न; विषयभेदेनागृहीतग्राहकत्वात् । तथा हिन्योऽवग्रहस्य विषयो नासाबोहायाः, य: पुनरीहाया नायमबायस्य, यश्चावायस्य नेष2 धारणाया इति परिशुद्धपतिभाना' सुलभमेवैतत् । 'तदेतदवग्रहादिचतुष्टयमपि यदेन्द्रियेण जन्यतेतदेन्द्रियप्रत्यक्षमित्युच्यते,यदापुनरनिन्द्रियेण तदाऽनिन्द्रियप्रत्यक्षं गीयते । इन्द्रियाणि स्पर्शन-रसन-वाण-चक्षुःश्रोत्राणिपञ्च, अनिन्द्रियं तु मनः। तद्वयनिमित्तकमिदं 'लोकसंव्यवहारे प्रत्यक्षमिति प्रसिद्धत्वात्सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमुच्यते । तदुक्तं परीक्षामुखे3
१ 'स्मृतिहेतुर्धारणा, संस्कार इति यात्' लघी०स्वोपविवृ०का०६। ननु धारणायाः कथं ज्ञानत्वम्, संस्काररूपत्वात् ? न च संस्कारस्य ज्ञानरूपतेति चेत् ; तन्न ; उक्तमेव पूर्वम्-'ईहा-धारणयोरपि ज्ञानात्मकत्वम्, तदुपयोगविशेषात्' इति । 'अस्य ह्यज्ञानरूपत्वे ज्ञानरूपामृतिजनकत्वं न स्यात्, न हि सत्ता सत्तान्तरमनृवियति' (प्रमाणमी १-१-२६) । 'मवग्रहस्य ईहा अवायस्य च धारणा व्यापारविशेषः, न च चेतनापादानो व्यापारविशेष; अचेतनो युक्तोऽतिप्रसङ्गात्' (न्यायकुमु० पृ. १७३) । २ अवग्रहादीनाम् । ३ विशुद्धबुद्धीनाम् । ४ अवग्रहादिचतुष्टयस्यापि इन्द्रियानिन्द्रियजन्यस्वेन द्विवियत्वं प्रदर्शयति तवेतदिति ! ५ कथ्यते । ६ लोकस्य यः समीचीनो बाधारहितः प्रवृत्ति-निवृत्तिरूपो व्यवहारस्तस्मिन् । ७ संव्यवहारप्रयोजनक सौव्यवहारिकम्-अपारमाधिकमित्यर्थः ।
1 'स एवेत्येवं' द प प्रतिपाठः । 2 'नव' इति म प्रतिपाठः 4 3 मा ___ म मु प्रतिषु 'परीक्षामुखे' इति पाठो नास्ति ।
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न्याय - दीपिका
“इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकम्" (२-५ ) इति । इदं चामुख्यप्रत्यक्षम्, उपचारसिद्धत्वात् । वस्तुतस्तु परोक्षमेव, मतिज्ञानत्वात् । कुतो तु खल्वेतन्मतिज्ञानं परोक्षमिति ? उच्यते"आये परोक्षम् " [ तत्वार्थसू० १-११] इति सूत्रणात् 1 | श्राद्ये मति श्रुतज्ञाने परोक्षमिति हि सूत्रार्थ: । उपचारमूलं' पुनरत्र देशतो वैशद्यमिति कृतं विस्तरेण ।
३४
[ पारमार्थिकप्रत्यक्षं नक्षयित्वा तद्भ ेदानां प्ररूपणम् ]
१३. सर्वतो विशदं पारमार्थिकप्रत्यक्षम् । यज्ज्ञान साकल्येन' स्पष्टं तत्पारमार्थिकप्रत्यक्षम्, मुख्य प्रत्यक्षमिति यावत् । 'तद् द्विविधम् - विकलं सकलं च । तत्र कतिपयविषयं विकलम् । तदपि द्विविधम्-अवधिज्ञानं मन:पर्ययज्ञानं च21 तत्रावधिज्ञानावरणक्षयोपशमाद्वीर्यान्तरायक्षयोपशमसहकृताज्जातं रूपिद्रव्यमात्रविषयमधिज्ञानम् । मनः पर्ययज्ञानावरण-वीर्यान्तरायक्षयोप
I
५
१ ननु यदि प्रकृतं ज्ञानममुख्यतः प्रत्यक्षं नहि मुख्यतः किं स्यादित्वत श्राह वस्तुस्थिति २ इन्द्रियानिन्द्रयजन्यज्ञानस्यापचारतः प्रत्यक्षत्वकथने निमित्तम् । ३ सामस्त्येन । ४ पारमार्थिकप्रत्यक्षम् । विकन्नमपि प्रत्यक्षम् । ६ अवधिः सीमा मर्यादा इति यावत् । स विषयो वन्य ज्ञानभ्य तदवधिज्ञानम् । अत एवेदं ज्ञानं सीमाज्ञानमपि कथ्यतं । 'अवायन्त राजनीत्यवायाः पुद्गलाः तान् दधाति जानातीत्यवधिः X X अवधानम् अवधिः । कोऽर्थ ? अस्ताद्बहुतरविषयग्रहणादवविरुच्यते देवा सत्ववधिज्ञानेन
| सूत्रभणनात्' इति म प्रतिपाठः 1 2 'चेति राम्रा प्रतिषु ।
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२. प्रत्यक्ष- प्रकाश:
शमसमुत्थं परमनोगतार्थविषयं मन:पर्ययज्ञानम्' । मतिज्ञानस्येवावधिमन:पर्यययोरवान्तरभेदाः ' तत्त्वार्थ राजबात्तिक-लोकवासिकभाष्याभ्यामवगन्तव्याः ।
३५
सप्तमनरकपर्यन्तं पश्यन्ति । उपरि स्तोकं पश्यन्ति निजविमानध्वजदण्डपर्यन्तमित्यर्थः ।'—तस्वार्थ० ० १ ६ अवाग्धानात् (पुद्गलपरिक्षानातू) अवच्छिन्नविषयत्वाद्वा (रूपविषयत्वाद्वा) अवधि । सर्वा० ९-९ । १ परिकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते साहचर्यात्तम्य पर्ययणं परिगमनं मन:पर्ययः । सर्वार्थ ० १ ३ । २ प्रभेदाः । ३ तदित्थम् — 'अनुगाम्यननुगामिवर्द्धमानहीयमानावस्थितानवस्थितभेदात् षनियोऽवधिः X X पुनरपरेऽवस्त्रयो भेदा: - देशावधिः, परमावधिः सर्वावधिश्चेति । तत्र देशावधिस्त्रधा — जघन्यः, उत्कृष्टः प्रजघन्योत्कृष्टदचेति । तथा परमाधिरपि त्रिघा ( जघन्यः, उत्कृष्टः, श्रजघन्यो कृष्टपच) 1 सर्वावधिरविकल्पत्वादेक एव । उत्सेवांगुलासंख्येयभागक्षेत्रो देशावधिर्जघन्यः । उत्कृष्टः कृत्स्नलोक: । तयोरन्तराले संस्थेयविकल्प जघन्योत्कृष्टः । परमावधिजंधन्य एकप्रदेशाधिकलोकक्षेत्रः । उत्कृष्टोऽसंख्येयलोकक्षेत्रः, अजघन्योत्कृष्टी मध्यमक्षेत्रः 1 उत्कृष्टपरमावधिक्षेत्राद्वहिरसंख्यातक्षेत्रः सर्वावधिः । वर्द्धमान:, हीयमानः अवस्थितः अनवस्थितः अनुगामी, अननुगामी, श्रप्रनिपाती, प्रतिपातीत्येतेऽष्टी भेदा देशावर्धर्भवन्ति । हीयमान प्रतिपातिभेदवय इतरे षड्भेदा भवन्ति परमावधेः । अवस्थितोऽनुगाभ्यननुगाम्यप्रतिपातीरयेले चत्वारो भेदाः सर्वावधेः । तत्त्वार्थवा० १,२२,४ । 'अनुगाम्यननुगामी वर्द्धमानो होयमानोऽवस्थितोऽनवस्थित इति पत्रिकल्पोऽवधिः संप्रतिमाताप्रतिपातयोरवान्तर्भावात् । देशावविः परमावधिः सर्वाविविरिति च परमागमप्रसिद्धानां पूर्वोक्तयुक्त्या सम्भावितानामत्रोपग्रहात् । तत्त्वार्थश्लो० भा० १-२२-१० स मन:पर्ययां द्वेषा । कुतः ? सूत्रोक्त विकल्पान् 1 ऋजुमतिविपुलमतिरिति XX प्राथ ऋजुमतिमनः पर्यमस्त्रधा । कुतः १ ऋजुमनोत्राषकायविषयभेदात् । ऋजुमनस्कृतार्थेजः ऋजुवाक्कृतार्थज्ञः,
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1
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न्याय-दीपिका
१४. सर्वद्रव्यपर्यायविषयं सकलम' । तच्च 'घातिसंघात. निरवशेषघातन 1समुन्मीलितं केवलज्ञानमेव । "सर्वद्रव्यपर्यायषु केवलस्य" [तत्वार्यसू० १-२६] इत्याज्ञापितत्वात् ।
६१५. तदेवमवधि-मन:पर्यय केवलज्ञानत्रयं सर्वतो वैशद्यात् पारमार्थिक3प्रत्यक्षम् । सर्वतो वैशद्यं 'चात्ममात्रसापेक्षत्वात् ।
ऋजुकायकृतार्थश्चेति ३.........द्वितीयो विपुलमतिः षोता भिद्यते । कुतः? ऋजुवक्रमनोवाक्कायविषयभेदात् । ऋजुविकल्या: पूर्वोक्ताः, वऋविकल्पाश्च ततिपरीता योज्या:'-तस्वार्थवा० १,२३,६-८ । एवमेव एलोकवात्तिके (१-२३) मनःपर्ययभेदाः गोता. .
पारमार्थिकप्रत्यक्षमिति सम्बन्धः । २ सकलप्रत्यक्षम् । ३ पासिका मानावरण-दर्शनावरण-मोहनीयान्तरायकर्मणां संपातः समूहस्तस्य निरवशेषेण सामस्त्येन घातनात् क्षयात्समुन्मीलितं वातमित्यर्थः । ४ 'सर्वपर्ण निरवशेषप्रतिपत्त्यर्थम् । ये लोकालोभिन्नास्त्रिकालविण्या द्रव्यपर्याया अनन्ताः, तेषु निरवशेषेषु केवलज्ञानविषयनिबन्ध इति प्रतिपत्त्यर्थ सर्वग्रहणम् । पावाल्लोकालोकस्वभावोऽनन्तस्तावन्तोऽनन्तानन्ता यद्यपि स्मुस्तानपि ज्ञातुमस्य सामथ्र्यमस्तीत्यपरिमितमाहात्म्यं केवलज्ञानं वेदित. व्यम् ।' तत्त्वार्थवा० १,२६६ 1 ५ विषयनिबन्ध: (सम्बन्धः) इति शेषः । ६ मात्मानमेवापेक्ष्यतानि श्रीणि ज्ञानान्युत्पद्यन्ते, नेन्द्रियानिन्द्रियापेक्षा प्रवास्ति । उक्तं च-......'अत एवाक्षानपेक्षाऽञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषो यथाऽलोकानपेक्षा ।'--- अष्टश का० ३; न हि सर्वार्थः सकृदक्षसम्बन्धः सम्भवति साक्षात्परम्परया वा । ननु चावधि-मनःपर्ययजानिनोदेशतो विरतव्यामोहयोरसवदर्शनयोः कथमक्षानपेक्षा संलक्षणीया? तदावरण
1 म मु प्रत्यो: 'घातनात्' इति पाठः । 2 'इत्यादिशापितत्वात्' इति व ५ प्रतिपाठः । 3 'पारमाथिक प्रत्यक्ष' इति म मु प्रतिपाठः ।
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२. प्रत्यक्ष - प्रकाशः
$ १६. 'नन्वस्तु केवलस्य पारमार्थिकत्वम् अवधि - मन:पर्यययोस्तु न युक्तम्, विकलत्वादिति चेत्; न; साकल्य-वैकल्ययोरत्र विषयोपाधिकत्वात्' । तथा हि सर्वद्रव्यपर्यायविषयमिति केवल सकलप् । अवधि-मनः पर्ययौ तु कतिपयविषयत्वाकिलो । नेतावता तयोः पारमार्थिकत्वच्युतिः । केबलवत्तयोरपि वैशन स्वविषये साकल्येन समस्तीति तावपि पारमार्थिकावेत्र' |
[ अवध्यादिवयरयातीन्द्रियप्रत्यक्षत्वप्रतिपादनम् ]
६ १७. कश्चिदाह-'प्रक्षं नाम चक्षुरादिकमिन्द्रियम्, तत् क्षयोपशमातिशयवशात्स्वविषये परिस्फुटत्वादिति ब्रूमः । श्रष्टस० पृ. ५० 1
१ अवधिमनः पर्ययोः पारमार्थिकत्वाभावमा शतं नन्विति । २ समाधत्तं नेति । श्रयं भावः - श्रत्र हि केवलस्य यत्सकलप्रत्यक्षत्वमवधिमनःगर्ययोश्च विकलप्रत्यक्षत्वमुक्तं तद्विषयकृतम् । सकलरूप्यरूपिपदार्थ विषयस्वेन केवलं सकलप्रमुच्यते, रिमात्रविषयत्वेन चावधिमनः पर्ययी विकलप्रत्यक्षौ कथ्येते । ततो न तयोः पारमार्थिकत्वहानिः । पारमार्थिकत्वप्रयोजकं हि स्वविषये साकल्येन वंशम्, तच्च केवलवत्तयोरषि विद्यत एवेति । ३ विषय उपाधिनिमित्तं ययोस्तो विषयोपाधिको विषयनिमित्तको तयोर्भावि स्वत्त्वं तस्मात् विषयोपाधिकत्वात् विषयनिमित्तकत्वादित्यर्थः । ४ पारमाथिकत्वाभावः । ५ एवकारेणापारमार्थिकत्वव्यवच्छेद:, तेन नापारमाथिको इति फलति । ६ 'यक्षमक्षं प्रतीत्योत्पद्यते इति प्रत्यक्षम् अक्षाणि इन्द्रियाणि -- प्रशस्त० भा० पृ. ६४ । ' अक्षमक्षं प्रति वर्त्तत इति प्रत्यक्षम् - न्यायप्र० पृ. ७ । ये खलु 'इन्द्रियव्यापारजनितं प्रत्यक्षं – ग्रक्षमक्ष प्रति यद्वत्तते तत्प्रत्यक्षमित्यभ्युपगमात् (सर्वार्थ० १-१२ ) इति प्रत्यक्षलक्षणमामनन्ति तेषामियं शङ्का, ते च वंशेषिकादयः ७ इन्द्रियमाश्रित्य |
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न्याय-दीपिका प्रतीत्य 'यदुत्पद्यते तदेव प्रत्यक्षमुचितम्, नान्यत्" [ ] इति; 'तदसत् ; प्रात्ममात्रसापेक्षाणाधिमना के सलाना. तर मिन्द्रियनिरपेक्षाणामपि प्रोत्वाविरोधात् । स्पष्टत्वमेव हि प्रत्यक्षत्वप्रयोजक नेन्द्रियजन्यत्वम् । अत एव हि मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानां ज्ञानत्वेन 'प्रतिपन्नानां मध्ये "पाद्यं परोक्षम्" [तत्त्वार्यसू० १-११] "प्रत्यक्षमन्यत्" [तत्त्वार्थमू० १-१२] इत्याद्ययोर्मतिश्रुतयोः परोक्षत्वकथनमन्येषां त्ववधिमनःपर्ययकेवलानां 'प्रत्यक्षत्ववाचोयुक्ति:।
१८. कथं पुनरेतेषां प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वम्" ? इति चेत्; रूढित" इति ब्रूमः ।
१ यज्ज्ञानम् । २ नेन्द्रियनिरपेक्षम, तथा च नावध्यादिषयं प्रत्यक्षमिति शङ्कितुराशयः । ३ तदयुक्तम् । ४ प्रत्यक्षतायां निबन्धनम् । ५ यतो हि 'यदि इन्द्रियनिमित्तमेव ज्ञानं प्रत्यक्षमिप्यते, एवं सत्याप्तस्य प्रत्यक्षज्ञानं न स्यात् । न हि तस्येन्द्रियपूर्वोऽर्थाधिगमः।-सर्षि १-१२। ६ स्पष्टत्वस्य प्रत्यक्षत्वप्रयोजकत्वादेव, पत एव स्पष्टत्वं प्रत्यावश्योजक तत एव इत्यर्थः । ७ अभ्युपगतानामवगतानामिति थावत् । ८ प्रत्यक्षत्वप्रतियादनं सङ्गत सूत्रकाराणाम् । यदाह अफसरोवोप 'आधे परोक्षमपरं प्रत्यक्ष प्राहुराज सम् ।'—ज्यायवि. का. ४७४ । ६ मधिमनःपर्ययकेवलानाम् । १० कथनयोग्यता, व्यपदेश इति यावत् । ११ अक्षमशं प्रति यहर्तते तत्प्रत्यक्षमितीमं प्रत्यक्षशब्दस्य व्युत्पत्त्यर्थमनाश्रित्यार्थसाक्षात्कारिस्वरूपप्रवृत्तिनिमित्तसद्भावात् । 'अक्षावितत्व च व्युत्पत्तिनिमित्तं शब्दस्य (प्रत्याशब्दस्य), न तु प्रवृत्तिनिमित्तम् । अनेन त्वमाश्रितत्वेन एकार्थसमवेतमर्थसाक्षात्कारित्वं लक्ष्यते तदेव च शब्दस्य (प्रत्यक्षणम्दस्य)प्रवृत्ति
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:... प्रत्यक्ष-प्रकाशः
२६
१६. अथवा' अक्षणोति व्याप्नोनि जानातीत्यक्ष आत्मा, सन्मात्रापेक्षोत्पत्तिक प्रत्यक्षमिति किमनुपपन्नम्। ? तहिं इन्द्रियजन्यमप्रत्यक्ष प्राप्तमिति चेत् ; हन्त विस्मरणशीलत्वं वत्सस्य' । अवोचाम खल्वीपचारिक प्रत्यक्षरवमक्षजज्ञानस्य । ततस्तस्याप्रत्यक्षत्त्वं कामं प्राप्नोतु, का नो हानिः । “एतेन 'प्रक्षेभ्यः
निमित्तम् । ततश्च यत्किञ्चिदर्थस्य साक्षात्कारिजान तत्प्रत्यक्षमुच्यते । यदि चाक्षाविान्वमेव प्रवृत्तिनिर्मिनं म्यादिन्दियनानमेव प्रत्यक्षमुल्येत, न मानसादि, यथा गच्छतीति गौः इति गमनक्रियाया व्युत्पादितोऽपि गोशब्दो गमनक्रियोपलक्षितमेकार्थसमवेतं गोत्र प्रवृत्ति निमित्तीकरोति तथा च गच्छति अगच्छति च गवि मोशम्द: सिद्धो भवति'-न्याबिन्दुदी० पृ० ११ । तथा प्रकृतेऽपि प्रक्षजन्यऽनक्षजन्ये च ज्ञाने प्रत्यक्षशब्दः प्रवर्तते। प्रतो युक्तमेवावध्यादित्रयाणामिन्द्रियनिरपेक्षाणामपि प्रत्यक्षशब्दवाच्यस्वम्, स्पष्टत्वापरनामार्थसाक्षात्कारित्वस्य तत्र प्रवृत्ति निमित्तसद्भावादिति भावः ।
१ यद्ययमाग्रहः स्याद्यधुत्पनि निमितनैद भाव्यमिति तदा तदप्याह अथवेति । यथोक्तं श्रीप्रभावन्त्र रपि–'यदि वा, व्युत्पत्तिनिमित्तमप्यत्र विद्यत एव । तथा हि-प्रमशब्दोऽयमिन्द्रियवत् प्रात्मन्यपि वसते, पक्ष्योति ध्याप्नोति जानातीति अक्ष प्रास्मा इति व्युत्पत्तेः । तमेव क्षीणोपशान्तावरणं क्षीणावरणं या प्रति नियतस्य ज्ञानस्य प्रत्यक्षशब्दातिशयता सुषटव ।'--- ग्यापकु. पृ० २६ । २ नायुक्तमिति भावः ! ३ बालस्य, विस्मरणशीलः प्रायो माग्न एव भवति, अत उक्तं वत्सस्पेति । ४ इन्द्रियजन्यज्ञानस्य । ५ इन्द्रियजज्ञानस्य । ६ यथेष्टम् । ७ अस्माकम् –जैनानाम् । ८ 'अक्षमक्ष प्रतीत्य यदुत्पद्यते तत्प्रत्यक्षं' इति, 'अक्षमक्षं प्रति वत्तंत इति प्रत्यक्षम्' इति वा प्रत्यक्षलक्षणनिरसनेन ।
! मा प्रतो 'किमनुपपन्नम्' इति पाटो नास्ति ।
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न्याय-दीपिका
परावृत्त परोक्षम्” [ ] इत्यपि प्रनिविहितम्, अवैशद्यस्यैव परोक्षलक्षणत्वात्' ।
२०. मादेतत् अनि न्यामतपतिसाहसम् । 'असम्भावितत्वात् । यद्यसम्भावितमपि कल्प्येत. गगनकुसुमादिकमपि कल्प्यं स्यात् ; न। स्थात् ; गगनकुमुमादेरसिद्धत्वान्, 'प्रतीन्द्रियप्रत्यक्षस्य तु प्रमाण सिद्धत्वात् । तथा हि-केवलज्ञानं तावत्किञ्चिज्ञानां कपिलादीनामसम्भवदप्यत: सम्भवत्येव । सर्वज्ञो हि स भगवान् ।
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१ व्यावृत्तं रहितति मावत् । 'अक्षम्मा हि परावृत्त परीक्षम्'- . तस्वाइलो०पृ० १८३ । २ निरस्तम् । ३ पदाहाऽकसकदेवः—'इतरम्य (अविशदनिभासिनो ज्ञानस्य) परोक्षता' - लघो० म्वो वि० का ३ । ४ अतीन्द्रियप्रायक्षाभावमाशङ्कने स्यादेतदिति । ५ लोके खन :न्द्रियरुत्पन्नमेव ज्ञान प्रत्यक्षमुच्यते प्रसिद्धं च, नरिवन्द्रियनिरपक्षम, तदम्मरण नदुत्रानं रसम्भवादिति भानः । ६ इन्द्रियनिरपेक्षम्यापि प्रत्यक्षज्ञानस्परिपत्तं. सम्भवात् । न हि सूक्ष्मान्तरितद्वराविषयकं ज्ञानमिन्दिय: मम्भवति, नेपा सन्निहितदेशविषयकत्वात्सम्बद्धवर्तमानार्थग्राहकत्वाच्च, 'माबद्धं वर्तमान च गृह्यते चक्षुरादिना' (मी इनो० सू. ४ दला० ८४) इति भावस्क. वचनात् । न च तज्ज्ञानं प्रत्यक्षमेव नास्ति, चोदनाप्रमनवान् । 'चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्त विप्रकाष्टमित्येवंजातीयक मधमदगमयितुमन्न पुरुषविशेषान्' (शाबरभा. १-१-२) इति वाच्यम, तज्ज्ञानम्यावशयन परोक्षत्वात् । न हि शब्दप्रभवं ज्ञानं विजदं साक्षापं च । प्रत्यक्षज्ञानं तु विशदं साक्षाद्रूपं च । प्रत एष तयोः साक्षात्वे नासाक्षात्वेन भेदः ।
1 मा प्रतो 'इति चेन्न' इति पाठः । 2 म म प्रत्यो: 'गगनकुममादि पाठः ।।
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२. प्रत्यक्ष-प्रकायाः
[प्रासङ्गिकी सर्वसिद्धिः | ६ २१. 'भनु सर्वज्ञत्वमेवाप्रसिद्धं किमुच्यते' सर्वज्ञोऽहनिति, क्वचिदप्यप्रसिद्धस्य' विषयविशेष व्यवस्थापयितुमशक्तेरिति चेत्न; सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः, अनुमेयत्वात्, अग्न्यादिवत, इत्यनुमानात्सर्वज्ञत्वसिद्धेः ।. नदुक्तं "स्वामिभिमहाभाष्यस्यादावाप्तमीमांसाप्रस्तावे
मूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोजन्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ।।
का इति। । ॐ २२. सूक्ष्मा: स्वभावविप्रकृष्टाः परमाण्वादय:, अन्तरिताः कालविप्रकृष्टा रामादयः, दुरादेशविप्रकृष्टा मेर्वादयः । एते तथा चोक्तं समन्तभवस्वामिभिः–'स्याादकेवलज्ञान सर्वतत्वप्रकाझाने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च.....' प्राप्तमी० १०५। मम्मति च मूक्ष्मादीनां साक्षापं ज्ञानम् । साक्षालतेरेव सर्वव्यपर्यायान् परिच्छित्ति (केवतास्येन प्रत्यक्षण केवलो), नान्यनः (नागमात्) इति (अष्टर० का १०५) इति वचनात् । अतोनोन्द्रिय प्रत्यक्षमस्तीनि युज्यते।
१ सशाभाववादी मीमांसकश्चार्वाकश्चात्र गते नन्विति । २ भवता जैनेन । ३ कपिलादीनां मध्ये कस्मिश्चिदपि अप्रतीतस्य सर्वज्ञत्वस्य । ४ व्यक्तिवियोये प्रहति । ५ समन्तभद्राचार्यः । ६ देवागमाभिघाप्नमोमासाप्रकरणे । ७ व्यवहिताः कालागेक्षयेत्पर्थः ।
| द म मुनिषु 'इनि' पाठो नास्ति 1 2 म मु प्रत्योः 'दूरार्थाः' पाठः ।
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न्याय-दीपिका
स्वभावकालदेशविप्रकृष्टाः पदार्थी मित्वेन विवक्षिताः । तेषां कस्यचित्प्रत्यक्षत्वं साध्यम् । इह प्रत्यक्षत्वं प्रत्यक्षज्ञान विषयत्वम्, विषयिधर्मस्य' विषय प्युपचार)ते. । अनुमयत्वादिति हेतु । अग्न्यादिदृष्टान्तः । अग्न्यादाक्नुमेयत्वं कस्यचित्प्रत्यक्षत्वेन सहोपलब्धं परमाण्वादावपि कस्यचित्प्रत्यक्षात्य साधयत्येव । न चावादावनुमेयत्वमसिद्धम्], 'सर्वेषामप्यनुमेयमात्रे' विवादाभावात् ।।
२२. 'अस्त्वेव सूक्ष्मादीनां प्रत्यक्षत्वसिद्धिद्वारेण कस्यचिदशेषविषयं प्रत्यक्षज्ञानम् । तत्पुनरतीन्द्रियमिति कथम् ? इत्थम्यदि 'तज्ज्ञानमैन्द्रियिकं स्यात् अशेषविषयं न स्यात्, इन्द्रियाणां स्वयोग्यविषय एव ज्ञानजनकत्वशक्तेः । सूक्ष्मादीनां च तदयोग्य
१ अत्रानुमाने । ३ शानधर्मस्य प्रनि भामस्य, अयमाशयः– 'सूक्ष्मादया: कास्यचित्प्रत्यक्षाः' इत्यत्र सूक्ष्मादीनां यत्प्रत्यक्षरवमुक्तं तद्धि प्रत्यनज्ञानवृत्तिधर्मो न तु मूक्ष्मादिपदार्थ वृत्तिस्तत्कथं सूक्ष्मादीनां प्रत्यक्षत्वप्रतिपादन श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्याणां सङ्गतम् ? अस्येदं समाधानम्-प्रत्यक्षत्वमत्र प्रत्यक्षजानविषयत्वं विवक्षितम्, तथा च सूक्ष्मादीनां प्रत्यक्षज्ञानविषयत्वे. नोपचारतस्तेषां प्रत्यक्षत्वमुक्तं 'घटः प्रतिभासते, पटः प्रतिभासते, घटनाना, पटज्ञानम्' इति भवति हि व्यवहारो न च घटस्य प्रतिभाम: पटस्य का प्रतिभासः, तस्य जानधर्मत्वात् । एवं न घटम्य ज्ञानं पटम्य वा ज्ञानम्, तस्यात्मनिष्ठत्वेन घटपटादिनिष्यत्वासम्भवान्, पात्मनो हि तद् गुणस्तथापि तथा व्यवहारो भवत्येव । एव प्रकृतेऽपि शघ्यम् । ३ वादिप्रतिवादिनाम् । ४ अण्वादेरनुमानविषयतायाम् । ५ पुनरगि मनोन्द्रियप्रत्यक्षाभावमाशहूते परत्वेवमिति । ६ सर्वनानम् । ७ इन्द्रियजम् । ८ इन्द्रियायोग्यविषय. स्वात, न हीन्द्रियाणि सकृत्सवाय ज्ञानमुपजनयितुमलम्, सम्बद्धवर्तमानापं
। म मु प्रत्याः 'प्रसिद्धं पायः ।
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२. प्रत्यक्ष-प्रकाराः
त्यादिति । तस्मात्सिद्धं तदशेषविषयं ज्ञानमन्द्रियकमंच' इति।।
विषयत्वात् । किञ्च, इन्द्रियाणि सकृत्सवायंसाक्षात्करण बाधकामंत्र प्रावरणनित्रचनत्वात् । तद्वतम्-- 'भावन्द्रियाण्यामावरणनिवन्धनवान । कापतो ज्ञानावरणसंक्षये हि भगवानतीन्द्रियप्रन्य भाक् मित्र. । न न सकलावरणसंक्षये भावेन्द्रियाणामावरणनिबन्धनानां मम्भव . कारणामा कार्यानुपपत्तेः' प्रष्टस० पृ० ४५ । थीमाणिक्यनन्यायाह 'माव पन्य करणजन्यत्वे च प्रतिबन्धसम्भवान् परोक्षा०२-१३ : प्रकलदेव वृतम
कश्चित् स्वप्रदेशेषु स्यास्कर्मपटताम्छता । संसारिणां तु जीवानां यत्र ते चक्षुरादयः ।। साक्षात्क विरोधः कः सर्वधारमात्म्य :' । सत्यम तया सर्व यथाभूता भविष्यति ॥'
न्यायदि० २६१.६ । अथ 'न कश्चिद्भवदन्द्रियप्रत्यक्ष भागृपलब्धी यता भगवांम्नधा सम्भाव्यते ; इत्यपि न गवा थेयसो; तस्य भवभूना प्रभुत्वा 1 न हि भवभृत्माम्ये दृष्टो धर्मः सकल भदभूप्रभा सम्भावयितुं शक्यः, तम्य मंगारि जनप्रकृनिमभ्यतीतत्वात्' (अष्टम • पृ. ५) । कथं समाग्जिमप्रकृतिमन्य. तीनोमी ? इत्यत ग्राह
मानुषी प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः । नेन नाथ परमासि देवता थेयसे जिनवृष प्रसीद नः ।।
म्वभूम्नांत्र का ० ७५ । तस्तदशेपविपयं ज्ञानमतीन्द्रियमव, अशे पविय यन्वान्यथानुपपनि ध्येयम् । प्रत्यक्ष विशदज्ञानात्मक 'प्रत्यक्षवात्' इति नन् 'विशप मिग कृत्वा सामान्य हेतुं त्रुवतां दोपासम्भवान्' (प्रमाणप० पृ. ६.७/1 १ इन्द्रियेभ्यो निष्म्रान्तम्-प्रतीन्द्रियमित्यर्थः ।
} म मु 'प्रतीन्द्रियकर्मव' इनि पाठः ।
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न्याय-दीपिका
अस्मिश्नार्थे' सर्वेषां सर्वनवादिनांन विवादः। यद्बाह्या प्रप्याहू ... .''अदष्टादयः कस्यचित्प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात् ।" [ इति ।
[सामान्यतः प्रसिद्धस्य सार्वज्यस्याहंसि प्रसाधनम् ]
२४. नन्वस्त्वेवमशेषविषयसाक्षात्कारित्वलक्षणमनीन्द्रियप्रत्यक्षज्ञानम्, तच्चाहत इति कथम् ? कस्यचिदिति सर्वनाम्न: सामान्यज्ञापकत्वादिति चेत् ; सत्यम् ; 'प्रकृतानुमानात्सामान्यत: सर्वज्ञत्वसिद्धिः । अर्हत एतदिति। पुनरनुमानान्तरात् । तथा हिअहन् सर्वज्ञो भवितुमर्हति, निर्दोषत्वात्, यस्तु न सर्वज्ञो नासो निर्दोषः, यथा रथ्यापुरुष इति केवलव्यतिरेकिलिङ्गकमनुमानम् ।
१ विपये, अनुभमत्यादिहेतुना मूक्ष्मादीनां कचित्प्रत्यक्षत्रमावन इति यावत् । २ जनेतरा नैयायिकादयः । ३ यथा हि . स्वर्गादयः कम्यचित्प्रत्यक्षाः .... 'वस्तुवादागमविपयत्वान, यद्वन्तु यच्च कथ्यते तत्कम्यचित्प्रत्यक्ष भवति,यथा घटादि-न्यायवा० १-१-५. 'अमः कस्यचित्प्रत्यक्ष: प्रमेयत्वान् वागावदिति. यस्य प्रत्यक्षः म योगी'-प्रमाणसं० पृ०६ । * अदाशब्देन पुण्यागय मुच्यने, अदृष्टमादिर्यप ने अदृष्टादयः पुण्यपापादयोतीन्द्रियार्थाः । ५. 'सूक्ष्मान्तरितदूराथीः कस्यनित्यत्यक्षा अनुमयत्वान्' इत्यस्मादनुमानान् । ६ मयंजनम् । ७ वक्ष्यमाणादायम्मादनुमानान् । ८ अनुमानान्तरमेव प्रदर्शयनि तथा हीति । व्यतिरेकन्यानिकालिङ्गात् यदनुमानं क्रियते तद्वय तिरेकिलिङ्गकानुमानमुच्यते । साभ्याभावे मापना. भात्रप्रदर्शनं व्यतिरेक ब्याग्निः । नया च प्रकृतेनुमान रार्वज्ञन्वरूपमाघ्याभाव निर्दोषत्वरूपसाधनाभाव: प्रदर्शितः । नत इदं व्यनिकिलिङ्गकानुमानम् । नवाशुबोधजनकमन्वयिलिङ्गकमेवानुमानं वाच्यम्, न केवलन्यनिरकि
। 'एव तदिति इति व प्रतिपाठः ।
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.. प्रत्यक्ष प्रकाश:
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५. आवरण रागादयो दोपास्तभ्या निष्क्रान्तन्वहिनिदोपत्वम् । तत्खलु सर्वदागरेण। नोयो, विपिर. दिदोषरहितत्वविरोधात् । तनो निर्दोपत्वमहनि विद्यमानं सार्वःय साधयत्येव । निर्दोषत्वं पुनरहपरमेष्ठिनि युवित-शास्त्राविधिवाक्त्वात्सिद्धयति । युक्ति-नाम्याविरोधिवाक्वं च तदभिमनम्य मुक्ति-संसारतत्कारण त] स्वस्याने कधर्मात्मक चेतनातन तत्त्व. स्य च 'प्रमाणाबाधितत्वात्सुव्यवस्थितमेव ।
लिङ्गकम्, सस्य वक्रत्वेनाश बोवजनकलाभावात् 'ऋजमागण मियन्तं वा हि वक्रेण साधयेत्' (वैशेत मूत्राप०३-१-१) इति वचनान । सञ्च. व्यतिरेकिणि लिङ्गिनि बहूनि दूपणानि सम्भवन्ति । नथा.
'साध्याप्रसिद्धिषम्य व्यर्थतोपनयस्य च । अन्वयेव सिदिश्च व्यतिरेकिणि दूषणम् ।।'
__ -गः सूत्रोप २-१-१ इति । ततो न तल्लिङ्गकमनुमान युक्तमिति चेन्न; व्याप्तिमतिरकिणोऽपि लिङ्गरयान्वधिवदाशुबोषजनकत्वात् । व्यानिशून्यरय तुभयन्यायगमकल्वात् । अत एकान्तायन सर्वत्र गाम्यनिदरापगमारल्याद्वादिभि.। यदुक्तम् .-'वहिातिमन्तरेणान्तरित्या सिद्धम् । यत एयमवान्यत्रापि प्रधाना' प्राप्तमी वृ. ६ | सा न प्रवन केवन व्यनिरनिन्दिगवानुमान विद्यन पत्र । तन्नो नोक्तदोपः ।
१ निषितम् । २ अर्हदभिमनग्य । : प्रमाणन बाधितमममय बान् । तथा हि-तत्र तावद्भगवतोभमनं मोक्षदन्य न प्रयोग बाध्या. तम् तविषयवन सद्बाधकरवायोगान् । नान्यनुमानन 'नाग्नि कवा मोक्ष
| मा म म 'राधामन्तरण' पार: । ' मा म म निपु न ननाचननात्मक' पायः । 3 मा म प म प्रताप चपाटो नास्ति ।
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न्याय-दीपिका
२६. 'एवमपि सर्वशवहन एवेदिकम् ? करिसी मपि सम्भाव्यमानत्वादिति चेत् : उच्यते-कपिलादयो न सर्वज्ञा: सदोषत्वात् । सदोषत्वं तु तेषां न्यायागमविरुद्धभाषित्वात् । तच्च तदभिमतमुक्तचादितत्त्वस्य सर्वथैकान्तस्य च 'प्रमाणबाधित.
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मदुगल भकप्रमाणपञ्चकाविषयत्वान्, कूर्मगेमादियन इत्यादिरूपण, तस्य मिथ्यानुमानत्वात्, मावस्यानुमानागमाभ्यामस्तित्व व्यस्थापनात् । तद्यथा'क्वचिदात्मनि दोपावरणयोनिस्शेषा हानिरस्ति, अतिशायनात् क्वचित कनकपायाणादौ किट्टिमादिमलक्ष यवत् इत्यनुमानान्सकलकभक्षयस्वभावग्य मोक्षस्य प्रसिद्धः । 'बन्धहेल्वभाव-
निराम्यां स्नकर्मविप्रमाक्षी मोक्षः इत्यागमाच्च तत्सिद्धेः। तथा मोक्षकारणतत्त्वमपि न प्रमाणेन वाध्यते, प्रत्यक्षतो कारणामाक्षाप्रती र नेन तवाघनायोगान् । नाऽप्यनुमानेन, तस्य गोक्षकारणल्यैव प्रसाधकस्यात् । सकारणको मोक्ष प्रनिनियतवालादित्वात् पटादिदिति । तम्याकारणवत्रे सर्वदा मर्चव नत्सद्धावपमङ्गः स्थान, 'परापेक्षारहितत्वात् । अागमेनापि मोक्षकालावं न बाध्यन, प्रत्युत तम्म नत्साधकत्वात् । 'मम्यग्दर्शनजानचाग्त्रिाणि मोक्षमार्गः (तत्वार्थमू०१-१) पनि बचनात् । एवं संसारतत्त्वं संसारकाग्णनत्वमने कान्नात्मकवस्नुतन्व । प्रमाणे नावाध्यमान बौद्धन्ममिति संक्षेपः । विस्तग्नम्वष्टमासया (देवागमाल वारे) विद्यानन्दस्वामितिम पित्रम्
१ निर्दोषत्वन हनुना अर्हत: सर्वशवमिद्रावपि । २ न्यायोनमानम्, प्रागमः शास्त्रम्, ताभ्यां विरुद्धभाषिणो विपर्गनवादिनः, नणं भावम्नन्व नम्मान् । ये न्यायागमविगद्धापिगरते न निर्दोषाः, यथा दुर्वद्यादव., नया चान्य कपिनादयः' प्रष्टस पृ०६६। 5 न्यायागमविरुद्धभाषिवं च । ४ कपिलाद्यभिमनमुनिसंसारतत्कारणवत्त्वस्य । ५ नित्यायेकान्नस्य । ६ प्रमाणन बाध्यत्वात्, नद्यथा---कपिन्नम्य तावन् ‘नदा दृष्टः स्वरूपेऽव
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त्वात् । तदुक्तं 'म्बामिभिरेव . .
'स त्वमेवासि निदोषो युत्रित-शास्त्राविगंधिवाफ ।
अविरोधो 'यदिष्टं ते 'प्रसिद्धन न वाच्यते ।। स्थानम् (योगमू० १-३)स्वरूप बशन्यमाश्रयस्थानमा मनो भिमलम्, तत्प्रमाणन बाध्यते; चनन्यांवरूपं नन्तनानादी स्वम्पवरगनम्म्य गोक्षत्वप्रसाधनात् । न हि अनन्तज्ञानादिकमान्मनास्वम् न वादि. विरोधात् । अथ सर्वनलादि प्रधानस्त्र स्वम्पम्, ना-मन नि चन्न नम्बाचेतनत्वान्न रार्वज्ञत्यादि तरवापर, अाकापवत् । नानाय च नानननेधाः,स्वसंवेदनम्वरूपवानुभव दान देनमारा -1 , ग्रांप बनलनानादिर्नान्यविरोपेवर थानाग मशिवप्नती: । पनन बमगुगाच्छेदो मोक्ष इति वर्शषिकाः, अननसबमेव मुचन- नानादिम. त्यानन्दकास्वभावाभिध्यविनमोक्ष दांग वंदान्तिनः निर्वाचनमान :पादो मोक्ष इति बौद्धाः, तशं सराप मोश्चतत्व प्रमान याचिन यम; अनन्तनानाविस्वागनरेत्र मानिनः । एम कपिला भापित मोक्ष कारणनत्वं ससारतत्त्वं संसारकाग्णनन्त न्यायागमविन्द बोल. व्यम् । इत्यष्टसनच!: संक्षेपो विस्त'तनु तत्रैव दृढव्य ।
१ प्रकरणराारः स्वोक्तमेव समन्तभद्रानाम्य कयनेन सह गङ्गमर्यान नडुक्तमिति । २ समन्तभद्राचार्यः । ३'प्रमाणवान मामान्यता य. सर्व जा वीतरागश्य सिद्धः स त्वमेवाहन, शक्तिशास्त्राविधिनायन्धान यो वर यक्तिशास्त्राबिधिवाक् म नत्र निषा दृष्टो. यथा पर्वाचद न्या: । म भिान्वरः । युक्तिगात्राविधिवाक् च भगवान मक्तिमयाग्न पर, तस्मान्निोप इति' अष्टस०प०६२ । अनि , यम्मादिर मागतिक नत्त्वं ते प्रसिद्धेन प्रमाणन न वाध्य न । ना .... 'यत्र बन्याभिमन नन्वं प्रमाणन न बाध्यने म नत्र यत्रितशाम्बाधिगंधिया यथा गम्ञान-कारणतत्त्वे भिन्नर, वाध्यते च भगन भिनन मक्षिगंमाग्नबाण
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न्याय - दीपिका
तत्त्वम्, तस्मात्तत्र त्वं युक्तिशास्त्रावियत्रिवाक् इति विषयम्य ( भगवतो मुक्त्यादितत्त्वस्य ) युक्तिशास्थाविरोधित्वमि देविपविण्या भगवद्वाचो युक्तिशास्त्राविरोधित्वसाधनं ( समर्थितं प्रतिपत्तव्यम् ) अष्टस० पृ० ७२ ।
ननु इष्टं इच्छाविषयीकृतमुच्यते इच्छा च वीतमोहस्य भगवतः कथं सम्भवति ? तथा च नासौ युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्; तन्न इटं मत शासनमित्युपचर्यते तथा च उपचारेण संयोगिध्यानवत्तदभ्युपगमे दोषाभावात् । अनुपचारतोऽयि भगवतोऽप्रमत्तेच्छास्यीकारं न दोषः । तदुक्तम् – श्रप्रमत्ता विवक्षयं प्रन्यथा नियमात्ययात् ।
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इष्टं सत्यं हितं वक्तुमिच्छा दोषवती कथम् ? ॥ न्यायवि० ० का ० ३५६
वस्तुतस्तु भगवतो वीतमोहल्वान्मोहपरिणामरूपाया इच्छायास्तत्रासम्भवात् । तथा हि-- नेच्छा सर्वविदः शासनप्रकाशननिमित्त प्रणष्टमोहत्वात् । यस्येच्छा शासन प्रकाशननिमित्तं न स प्रणष्टभोहो यया किचिज्ज्ञः, प्रणष्टमोहश्च सर्ववित्प्रमाणनः साधितस्तस्मान्न तयेच्छा शासनप्रकाशननिमित्तम् ।' अष्टस० पृ० ७२ । न चेच्छामन्तरेण वाक्प्रवृत्तिनं सम्भवतीति वाच्यम्, नियमाभावात् । 'नियमाम्युपनमें सुषुत्यादावपि निरभिप्रायप्रवृत्तिनं स्यात् । न हि सुन गोत्रस्खलनाद वाख्यवहारादिहेतुरिच्छास्ति अष्ट००७६ ततो न यरिच्छापूर्वकवनियम तय सुषुप्यादिना व्यभिचारात् श्रपि तु 'चैतन्य-करणपाटयोरेव साधकत्वम् (यष्टश०. अप्टस ० ० ७३ ) नाकप्रवृत्ती, संबित्करणपाटनयोः स एव वाक्प्रवृत्तेः सत्त्वं तदभावे चासत्वम् । तस्माच्चैवत्यं करणपाठव च वाचो हेतुरेव नियमतो न विवक्षा, विवक्षामन्तरेणापि सुपुत्यादी तनात् । किञ्च इच्छा वाक्प्रवृत्तिहेतुर्न 'तत्प्रकर्णप्रकर्पानुविधानाभावाद् बुद्धघादिवत् । न हि यथा बुद्धेः शक्तेश्च प्रकर्ष वाण्याः प्रकर्षोऽपकर्ये वापकर्षः प्रतीयत तथा दोषजातेः ( इच्छामा : ) अपि तत्प्रकर्पे वाचोऽपकर्षात् तदपक एव तत्प्रकर्षात्
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२. प्रत्यक्ष-प्रकाश:
'त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । प्राप्ताभिमानदग्धानां स्वस्ट दष्टेन बाध्यते।। प्राप्तमी.का.-७]
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पतो धक्नुषिजाईनः (इच्छा) अनुमीयत। xxx 'विज्ञानगुणदोषान्यामय बावनगणदोषवत्ता व्यवतिष्ठाने, न पुनर्विवक्षातो दोषजातेर्वा । तदुत्ताम्-- .
विज्ञानगुणवोषाभ्यां वाग्वत्सगुण दोषता 1 बाञ्छन्तो वा न यवतार: शास्त्राणां मन्दबुद्धयः॥प्रष्टस.पृ०७३ । अन्यच्चोक्तम्--
विवक्षामन्तरेणापि वाग्वमिर्जातु मोक्ष्यते : वाछन्तो वा न वक्तार: शास्त्राणां मन्दबुद्धयः ।। प्रशा येषु पटोयस्यः प्रायो वचनहेतवः । विवक्षानिरपेक्षास्ते पुरुषार्थ प्रचक्षते ।।
..-न्यात्रि. 2 ५.४-५५ । ४ तनः सावूक्तं तवेष्टं सामन मतमिनि । ५ प्रमाणेन अनित्यत्वाद्यकान्तघमण वा । ६ अनेकान्तात्मक नवेष्टं तन्वं नानित्यत्वाकान्नधर्मण बाध्यत तम्यामिहत्वात्, प्रमाणन: मिद्धमेव हि कम्यचिद् बाधक भवनि । न चानित्यन्वाकान्त तत्वं प्रमाणन: मिदम, नतो न तनवाने. कान्तशामनस्य बाधक्रमिति भावः ।
१ नमतं वदीयमनकान्लात्मक नन्य तज्ज्ञान च तदेवामृतं सनी बाह्या वहिष्कृताम्तेपाम. पर्वकालवादिनां मर्वप्रकारनित्यत्वानिन्यत्वाकधर्म चीकूर्वनाम, 'क्यमानाः इत्यागमान-1 दबानां सस्मीभूतानां कपिलादीनां नेट सदाकान्तनाच प्रत्यक्षगंध याभ्यन, अतः किमनुमानादिविहितमाधाप्रनिन ? गवलप्रमाण ज्या वात्प्रत्यक्षस्य । 'न हि दृष्टाज्येष्ठ गरिष्ठमिट नाम' ३ नमः प्रवक्षनाथा प्रदर्शन का नमानादिवाषा प्रदर्शिता भवनीयवयम् ।
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न्याय-दीपिका
६२७. इति कारिकाद्वयेन एतयोरेव 'परात्माभिमततत्त्वबाधाबाधयोः समर्थन प्रस्तुत्य "भावकान्ते' [का०६] इत्युप. ऋम्य "स्यात्कारः सत्यलाञ्छन:'' [का० ११२] इत्यन्त प्राप्त. मीमांसासन्दर्भ इति कृतं' विस्तरेण ।
२८. तदेवमतीन्द्रियं केवलज्ञानमहंत 1एवेति सिद्धम् । 'तद्वचनप्रमाण्याच्चावधिमन:पर्यययोरतीन्द्रिययोः सिद्धिरित्यती- । न्द्रियप्रत्यानिनवद्यम् । ततः स्थित साम्यवहारक पारमार्थिक चेति द्विविधं प्रत्यक्षमिति ।
इति श्रीपरमाहंताचार्य-धर्म भूषण-यति-विरचितायां न्यायोपिकायां प्रत्यक्षप्रकाशो द्वितीयः ।।२।।
१ पराभिमते कपिलायभिमते सत्त्वे सर्वथकान्तरूपे बाघा, प्रात्माभिमते जनाभिमते तत्त्रेऽनेकान्तरूपेवाघा बायाभावस्तयोः । २ प्रस्तावभूनं कृत्वा ।
'भावकान्ते पदार्थानामभावानामपलवात् । सर्वात्मकमनायन्तमस्वरूपमतावकम् ॥६॥ 'सामान्यषाग् विशेषे चेन्न शब्दार्थी मृषा हि सा ।
अभिप्रेतविशेषाप्तेः स्यात्कारः सत्यलाञ्छनः ।।११२।। इति सम्पूर्ण कारिके । ५ अलम् । ६ वक्तुः प्रामाण्यात् वचनप्रामाण्यम्' इति न्यायादर्हत: प्रामाण्यसिद्धेः तदुपदिाप्टावतीन्द्रियावक्मिनःपर्यमावपि सिजाविति प्रतिपत्तव्यम् ।
__] द प प्रत्योः 'एव' पाठो नास्ति।
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३. परोक्षप्रकाश:
-:* :
। परोक्षप्रमाणस्य लक्षणम् | १. 'अथ परोक्षप्रमाणनिरूपणं प्रक्रम्यते । अविशदप्रतिभाम परोक्षम् । अत्र परोक्षं लक्ष्यम्, अविशदप्रतिभासत्वं लक्षणम् । यस्य ज्ञानस्य प्रतिभासो विशदो न भवति तत्परोक्षप्रमाणमित्यर्थः । देशद्यमुक्तलक्षणम्'। 'ततोऽन्यदवंशद्यमस्पष्टत्वम् । 'तदप्यनुभवसिद्धमेव ।
६२. सामान्यमाविषयत्त्वं परोक्षप्रमाणलक्षणमिति केचित'; तन्न ; प्रत्यक्षस्येव परोक्षस्यापि सामान्य विशेपात्मकवस्तुविषयत्वेन तस्य लक्षणस्याऽसम्भवित्वात् । तथा हि-घटादिविषयेषु प्रवर्त्तमानं प्रत्यक्षं प्रमाण तदगत सामान्याकार" घटत्वादिक "व्याक्त्ताकारं व्यक्तिरूपं। च "युगपदेव प्रकाशयदुपलब्ध",
१ द्वितीयप्रकाशे प्रत्यक्षप्रमाणं निरूप्यंदानीमिह परोक्षप्रमाणत्य निरू. पणं प्रारभते प्रति । २ स्पष्टत्वं वैशद्यं तदेव नमत्यमित्युक्तं पूर्व वैशद्यलक्षणम् । ३ वैशद्यान् । ४ विपरीतम् । ५ अवैशद्यपि, यथा नमत्यं स्पष्टत्वमनुभवासद्धं तथाऽस्पष्टत्वमनमल्यमप्यनुभवसिद्धमेवेति भावः । ६ बौद्धाः । ७ सामान्यमाविषयत्वमिति परोक्षलक्षणस्य । ८ असम्भवदोषदुष्टत्वात्, तथा च तस्य लक्षणाभासत्वमिति भावः । ६ परोक्षस्य सामान्यविशेषात्मकवस्तुविषयत्वमेव, न सामान्यमात्रविषयमिति प्रदर्शयनि सया होति । १० घटादिनिष्ठम् । ११ अनुगताकारम् । १२ अघटादिभ्यो व्यवच्छेदात्मकम् । १३ सहव । १४ अनुवृत्ताकारण्यावृत्ताकारोभयं विषयी
1'च विशेषरूप' इति प्रा प्रतिपाठ ।
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न्याय-दीपिका
तथा परोक्षमपीति न सामान्यमाविषयत्व परोक्षलक्षणम्, अपित्ववैशमेव1 । सामान्य-विशेफ्योरेकत रविपयत्वे तु प्रमाणस्वस्यैवाउनुपपत्ति:2, सर्वप्रमाणानां सामान्य-विशेषात्मकवस्तुविषयत्वाभ्यनुज्ञानात्'। तदुक्तम् -"सामान्यविशेषात्मा तदा विषयः"--[परीक्षा० ४-१] इति । तस्मात्सुष्टक्त प्रविशदावभासनं परोक्षम्' इति ।
कुर्वत् दृष्टम् ।
१ इति शब्दोऽत्र हत्वयं वर्तते, तथा च इति हतारित्यस्मात् कारणादित्यर्थः । २ असम्भवः । ३ अभ्युपगमात् । ४ प्रदं बोध्यम् - 'परोक्षमविशदनानात्मकं परोक्षत्वान, यन्नाविशदज्ञानात्मक तन्न परोक्षम्, यथाऽतीन्द्रियप्रत्यक्षम्, परोक्षं च विवादाध्यासित मानम्, तस्माद. विशदज्ञानात्मकम्'-प्रमाण ० ६६ । 'बुताऽस्य परीक्षत्वम् ? परायत्तत्वात् पराणीन्द्रियाणि मनन प्रकाशोपदेशादि च बाह्य निमित्त प्रतीत्य तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्यात्मन उत्पद्यमान मतिश्रुतं परोक्ष. मित्याख्यायते'-- सर्वार्थ १-११, न , परोक्षण धमय न प्रमीयत परोक्षत्वादिति वाच्यम्, तत्यापि प्रत्यक्षस्यव सामान्यविशपात्मजावाविषयत्वाभ्युपगमात् । नाम्यस्याज्ञानम्प-नाप्रमाणता वा. 'तन्त्रमाण (तत्त्वार्थमू. १-१०) इति व बनेन पक्षपक्षमायाप प्रमागवा पगमान् । तदुक्तम् -
'ज्ञानानुवर्तनात्तत्र नाज्ञानरम परोक्षता । प्रमाणस्वानुवत्तेर्न परोक्षस्याप्रमाणता ।'
- न्वायनी १.१२. 1
-- - - - । द प्रती एव दर्शन को नारिन । 2 व ती 'तः इति पाठः ।
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३. परोक्ष-प्रकाशः
[परोक्षप्रमाणं पञ्चधा विभज्य नस्य प्रत्ययान्तरसापेक्षत्वप्रतिपादनम्]
६३. 'तत् पञ्चविधम्-स्मृतिः, प्रत्यभिज्ञानम्, तर्कः, अनुमानार, समश्चेति । परिक्षारय प्रत्ययान्तरसापेक्षत्वेनवोत्पत्ति:2। तद्यथा-स्मरणस्य प्राक्तनानुभवापेक्षा, प्रत्यभिज्ञानस्य स्मरणानुभवापेक्षा, तकस्यानुभव-स्मरण-प्रत्यभिज्ञानापेक्षा, अनुमानस्य च लिङ्गदर्शनाद्य' पेक्षा, प्रागमस्थ शब्दश्रवण-सङ्केतग्रहणाद्यपेक्षा, प्रत्यक्षस्य तु न तथा स्वातन्त्र्येणवोत्पत्तेः । स्मरणादीनां प्रत्ययान्तरापेक्षा तु तत्र तत्र निवेदयिष्यते ।
स्मृतनिरूपणम्] ४. तत्र च4 का नाम स्मृतिः? तदित्याकारा प्रागनुभूतवस्तुविषया स्मृतिः, यथा स देवदत्त इति । अत्र हि प्रागनुभूत एव देवदत्तस्तत्तया प्रतीयते । तस्मादेषा प्रतीतिस्तत्तोल्लेखिन्यनुभूतविषया च, अननुभुते विषये तदनुत्पत्तेः । "तन्मूलं चानुभवो धारणारूप एवं अवग्रहाद्यनुभूतेऽपि धारणाया प्रभावे स्मृतिजननायोगात् । धारणा हि तथाऽत्मानं संस्करोति, यथाऽसावारमा कालान्तरेऽपि तस्मिन विषये ज्ञानमुत्पादयति । तदेतद्धारणाविषये समुत्पन्नं तत्तोल्लेखिज्ञानं स्मतिरिति सिद्धम् ।
१ परोक्षप्रमाणम् । २ भानान्नगवेक्षन । ३ प्रादिगदेन व्यानियहणादेरिग्रहः । ४ प्रत्ययानरनिरपेक्षत्वेनंद । ५ ययायमरम् ! ६ लदोवस्तता तया, 'तत्' शब्दोल्लेखेन । ७ स्मले. कारणम् । ८ एक्कारेणा
| प्रती 'अरय' इति पाठो नास्ति । 27 'नेः' पाकः 1 3 'प्रत्यक्ष' इति मुदितप्रतिषु पारः । 4 'च' इति मुद्रितप्रतिषु नास्ति ।
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૪
न्याय-दीपिका
६ ५. नन्वेवं धारणागृहीत एव स्मरणस्योत्पत्ती 'गृहीतग्राहित्वादप्रामाण्यं प्रसज्यत' इति चेत्; न'; 'विषयविशेषसद्भावादीहादिवत् । यथा ह्यवग्रहादिगृहीतविषयाणामहादीनां विषयविशेषसद्भावात्स्वविषयसमारोपव्यवच्छेदकत्वेन प्रामाण्यं तथा स्मरणस्यापि धारणागृहीतविषयप्रवृत्तावपि प्रामाण्यमेव । धारपाया होदन्तावच्छिन्नो' विषयः, स्मरणस्य तु तत्तावच्छिन्नः । तथा च स्मरण स्वविषयास्तरणादिसपारिव्यवच्छेदकत्वात्प्रमाणमेब' । तदुक्तं प्रमेयकमलमार्त्तण्डे - "विस्मरणसंशयविपर्यासलक्षण: समारोपोऽस्ति तन्निराकरणाच्चास्या: स्मृतेः प्रामाण्यम्" [ ३-४] इति ।
P
वग्रहाद्यनुभवत्रयस्य व्यवच्छेदः श्रवग्रहादयो दृढात्मकाः । धारणा तु दृढात्मिका, ग्रतः सैव स्मृतेः कारणं नावग्रहादयः 'स्मृतिहेतुर्षारणा' इति वचनादिति भावः ।
१ गृहीतस्यैव ग्रहणात् २ प्रसक्तं भवति । ३ समाधत्तं नेति । ४ विषयभेदस्य विद्यमानत्वात् । तथा हि-' न खलु यथा प्रत्यक्ष विशदाकारतया वस्तुप्रतिभास: तथैद स्मृती, तत्र तस्या ( तस्य ) वैशद्याप्रतीतेः '
- प्रमेयक ० ३-४ 'किञ्च, स्मृतेः वर्तमानकालावच्छेदेनाधिगतस्यार्थस्यातीत कालावच्छेदेनाधिगते रवांशाधिगमोपपत्तेः । स्याद्वादर० ३-४ । यतो न गृहीतग्राहित्वं स्मरणस्येति भावः । ५ स्वेषामहादीनां विषयो ज्ञेयस्तस्मिन्नुत्पन्नो यः संशयादिलक्षणः समारोपस्तद्व्यवच्छेदकत्वेन तन्निराकारकत्वेन । ६ वर्त्तमानकालावच्छिन्नः । ७ भूतकालावच्छिन्नः । ८ प्रत्रेदमनुमानं बोध्यम् - स्मृतिः प्रमाणं समारोपव्यवच्छेदकत्वात्, यदेवं तदेवं यथा प्रत्यक्षम् समारोपव्यवच्छेदिका व स्मृतिः, तस्मात्प्रमाणमिति ।
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३. परोक्ष-प्रकासः
६६. 'यदि चानुभूते प्रवृत्तमित्येतावता स्मरणमप्रमाणं स्यात् तहि अनुमितेऽग्नो पश्चात्प्रवृत्तं प्रत्यक्षमप्यप्रमाणं स्यात् ।
७. 'अविसंवादित्वाच्च प्रमाणं स्मतिः प्रत्यक्षादिवत् । न हि स्मृत्वा निक्षेपादिषु प्रवर्तमानस्य विषयविसंवादोस्ति । 'यत्र त्वस्ति विसंवादस्तत्र स्मरणस्याभासत्वं प्रत्यक्षाभासवत् । तदेवं “स्मरणाख्यं पृथक प्रमाणमस्तीति सिद्धम् ।
१ अथ मितेरप्रामाण्यवादिनो नयायिकादयः कथयन्ति–'प्रतीतः पूर्वानुभूत इत्यतीतविश्या स्मृतिः, अत एव राा न प्रमाणमयंगारच्छेदे पूर्वानुभवपारतन्त्र्यात्' इति कन्दलीकारः, 'न प्रमाणं स्मृतिः पूर्वप्रतिपत्ति व्यपेक्षणात् । स्मृतिहि तदित्युपजायमाना प्राची प्रतीतिमनुरुद्धय माना न स्वातन्त्र्येणार्थ परिच्छिनत्तीति न प्रमाणम्'.... प्रकरणपन्जि. पृ० ४२ । २ 'अनुभूतार्थविषयत्वमारोणास्याः प्रामाण्यानम्युपगमेऽनुमाननाधिगतेऽग्नी यत्प्रत्यक्षं तदप्यप्रमाणं स्यात् ।'–प्रमेयक० ३-४, स्यावावर० ३-४, 'अनुभूतेनार्थेन सालम्बनत्वोपपत्तः । अन्यथा प्रत्यक्षरयाप्यनुभूतार्थविषयत्वादप्रामाण्यामनिवार्य स्यात् । स्वविषयावभासन स्मरणेऽप्यविशिष्टमिति ।' प्रमेयर० २-२, प्रमाणमो० १-२-३ । ३ 'न च तस्या विसंवादादप्रामाग्यम्, दत्तमहादिविलोपापत्तः ।' प्रमेयर० २-२, 'सा च प्रमाणम्, प्रविसंवादकत्वान, प्रत्यक्षवत् ।'—प्रमाणप० पृ. ६६, प्रमाणमी० १.२-३, न चासावप्रमाणम्, संवादकलात्, यत्संवादकं तत्प्रमाणं यथा प्रत्यक्षादि, संवादिका च स्मृतिः, तस्मात्प्रमाणम् -प्रमेयक० ३-४ । ४ भूगर्भादि. स्थापितेष्वर्थेषु । ५ जनस्य । ६ विषयाप्राप्तिः । ७ पत्र तु बिसंवाद: सा स्मृत्याभासा प्रत्यक्षाभासवत् ।'-प्रमाणप० पृ. ६६, स्याद्वादर० ३.४ ।
कि ज्य, स्मृतेरप्रामाण्येऽनुमानवार्ताऽपि दुर्लभा, तया व्याप्तेरविषयी. करणे तदुत्थानायोगादिति । तत इदं वक्तव्यम् स्मृत्तिः प्रमाणम्,
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न्याय दोषिका
| प्रत्यभिज्ञानस्य निरुपण ।
९. अनुभवस्मृतिहेतुकं सङ्कलनात्मक ज्ञान प्रत्यभिज्ञानम् । उदन्तोलले विज्ञानमनुभव.. तत्सोल्लेविज्ञान स्मरणम् । नदुभयसमुत्थं पुत्र सादृश्य-वैलक्षण्यादिविषयं यत्मलनरूप ज्ञानं जायते तत्प्रत्यभिज्ञानभिति ज्ञातव्यम् । यथा स एवायं जिद: गोसदृश गवयः', दोविलक्षण मन्दि
५.३
4
३. अत्र हि पुर्वमन्नदाहरणे जिनदनभ्य पूर्वोतरदशाव्यापक प्रत्यभिज्ञानस्य विषयः । न मे करन प्रत्य भिज्ञानम् । द्वितीये तु पुर्वानुभूतगोनियोगिक गवयनिय सादृश्यम् । तदिदं मादयप्रत्यभिज्ञानम् (तीये तु पुनः प्राग भूलगोप्रतियोगिक महिषनिष्ठं सादृश्यम् । यदिदं वैमादृश्य
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अनुमानप्रामाण्यान्यथानुपनर्मित - प्रमेयर : प्रमाणमी. १८७। १ नं विप्रित्यर्शनमा – रोमो दन्तुरः घामो वामनः पृथुलोचनः । यस्तत्र त्रिपिप्राणस्तं चंत्रमवधारयेः ॥
२ दमेकत्वप्रत्यभिज्ञानस्योदाहरणमभिजानम्यांशह शणम् । ४ इदं वेलदरम्ययत्यभिम
२ च्यापमा वत्तमानम् । ७ उदाहरण गात्वावच्छिन्न प्रतियोगिताम् ९ गवयो वन्यपशुविशेष तस्मिन् वर्तमान म, गवयत्वायच्छि नानुयोगिताकमित्यर्थः । वेदं बोध्यम् - यन्निरूपणात्रीनं निरूपणं यस्य तत्तत्प्रतियांगि अथवा यस्य सादृस्यादिकं प्रदश्यते स प्रतियोगी, यस्मिञ्च प्रदश्यंते सोऽनुयोगी इति भावः । १० प्रत्यभिज्ञानस्य विषय इति शेषः । ११ प्रापि प्रत्यभिज्ञानस्य विषय इति सम्बन्धनीयम ।
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३. परोक्ष-प्रकाश:
प्रत्यभिज्ञानम् । एवमन्येऽपि प्रत्यभिज्ञानभेदा यथाप्रतोति स्वयमप्रेक्ष्याः । अत्र' सर्वत्राऽप्यनुभवस्मृतिसापेक्षत्वानद्धे तुकत्वम् ।
१०. "केचिदाहुः—अनभवस्मृतिव्यतिरिक्तं प्रत्यभिज्ञान नास्तीति ; नदसत; अनुभवस्य वर्तमानकालत्ति विवर्तमाव
१ तदित्यम्इदमल्पं महद् दूरमासन्न प्रांशु नेति वा । व्य पेक्षातः समक्षेऽर्थे विकल्पः साधनान्तरम् ।।
..-नपी० का १ । 'इदमस्माद् दुरम्' 'वृक्षोऽयमियद-परीक्षा :, 2-१० । प्रत्यत्र- .
पयोउम्बुभेदी हसः स्यात् षट्पादंभ्रं मरः स्मृतः । सप्तपरंतु तत्वज्ञविज्ञेयो विषारच्छदः ।। पञ्चवर्ण भवेद्रले मेरफास्यं पृथुस्तनी। युवतिश्चक,गोऽपि गण्डकः परिकीतितः ।।
शरभोऽप्यष्टभिः पादः सिंहश्चा रुसतावितः । इत्येवमादिशब्दश्रवणानाविधानव मगलादावन नया नया .. यति यदा तदा नत्राङ्कलनमपि प्रत्यभिज्ञानमुपनाम कमाया रणन्याविशेषात् ।' प्रमेयर० ६.१०। - निननीयाः । : प्रन्यमान वंश । ४ बौदाः । तेषामगमाशयः - 'नम पर्वापरावस्याविषय पृगमानना कम् ? विषयभेदान, परोक्ष्यापरीश्यलक्षविरामंग गर्गाच । नथा । नदिति परोक्षमिदगिज़ साक्षात्कार: . . न्यायवा० तात्पर्यटोce . नम्माद् द्वे पल जाने-स इति स्मरणम्. अयम् इत्यनुभव.'-न्यायम १८४६ । अत्र बौद्धानां पूर्वपश्शनालखः । 'मनु तदिति म्ममिदग्मिनि प्रत्यक्षमिति शानद्वयमेव, न ताभ्यां विभिन्न प्रत्यभिज्ञानावरं वयं प्रतिपद्ममानं प्रमाणान्तरमुपलभामः -प्रमेयर० २.. । ५ विग्नः पर्गर ।
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नहाय-दीपिका प्रकाशकत्वम्, स्मृतेश्चातीतविवर्तद्योतकत्वमिनि तावदस्तगतिः कथं नाम तयोरतोतवनमानसालि क्य-सदिश्यादिविपयागाहित्वम् लस्मादस्ति म्मत्यनुभवातिरियन नदनन्तरभाविसङ्कलनजानम् । तदेव प्रत्यभिज्ञानम् ।
११. अपरे' त्वेकन्यप्रन्यभिजावभभ्युपगम्यापि नस्य 'प्रत्योतिर्भाव कल्पयन्ति । ता -यदिन्द्रियान्वयव्यतिरेकानविधाथि नत्प्रत्यक्षमिनि लाबा सिद्धम्, इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानविधायि चेदं प्रत्यभिज्ञानम्. नर मान्प्रत्यक्षमिति ; तन्न ; इन्द्रियाणा वर्तमानदशापरामर्शमात्रोपक्षीणन्येन वनमानानीतदनाव्यापकक्यावगाहित्याघटनात् । न ह्यविषयप्रवृनिरिन्द्रियाणां युक्तिमती', चक्षुपा रमादेरपि प्रतीतिप्रसङ्गान । '
१२. ' ननु सत्यमेतदिन्द्रियाणां वनमानदशावगा हित्वमे. वति तथापि नानि शहकारि समबधानमामाशा द्वयव्यापि
१ वैशेषिकायमः । २ यलम् --'गारू] भव-नामस्य मानावं प्रयामः म वर्गमन्दिरजस्व एवं भक्]XX पश्चाज्जयमानपीन्द्रियार्थन्निकर्षणभवतया प्रत्यक्ष भवत्येव Xxविवादास्यमिता विकल्याः (प्रत्यभिज्ञानरूपाः) प्रत्याः अव्यभिचारित्र सतीन्द्रियार्थन्निक जवा-न्याय वा तात्पर्षटो पृ० १८३, 'एवं पुर्वज्ञानावशभितम्य स्तरभाविपणमतीलमर्यावर इति मानगा प्रायभिज्ञा . . न्याय मं० ० ४६१. नरन्द्रियार्थसम्बन्धात्प्रापूर्ध्व नाग यत्रमतेः । विज्ञान जाकी सर्व प्रत्यक्षमिनि गम्यताम् ।।' मो. इसो गू० ४ टलां० २३३ । : ज एव चशेषिकाय पुनराशङ्कत नन्विति । ४ समवधान सन्निपात बत्र मल नि याव 1 । ५ दशाहय पर्योत्तरावस्थे व्याप्य यतमान ।
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३. परोक्ष-प्रकाशः
न्येकत्वेऽपि 'प्रतोति जनयन्तु, अजनसंस्कृतं चक्षुरिव 'व्यवहितेऽर्थे । न हि चक्षुषो व्यवहितार्थ। प्रत्यायन'सामर्थमस्ति, अजनसंस्कारवशात्तु तथात्वमुपलव्यम् । तद्वदेव स्मरणादि' सहकृतानीन्द्रियाण्येव दशाद्वयव्यापकमेकत्वं प्रत्याययिष्यन्तीति कि 'प्रमाणान्तरकल्पनाप्रयासेनेति । तदप्यसत्; सहकारिसहस्र"समवधानेऽप्यविषयप्रवृत्तेरयोगात्। मनमो हि अहनसंस्कार. दिः सहकारी स्वविषये रूपादावेव प्रवलको न त्वविषये रसादो। "अविषयश्च पूर्वोत्तरावस्थाव्यापकमेकत्वमिन्द्रियाणाम् । नस्मा. तत्प्रत्यायनाय "प्रमाणान्तरमन्वेषणीयमेव, “सर्वयापि विषयविशेषद्वारेण प्रमाणभेदव्यवस्थापनात् ।
१३. "किञ्च, अस्पष्टवेयं तदेवेदमिति प्रतिपत्तिः, तस्मादपि न तस्या: प्रत्यक्षान्तर्भाव इति । अवश्यं चैतदेवं 2विज्ञेयं चक्षु
-..
१ ज्ञानम् । २ अन्तरिते । ३ प्रत्यायनं ज्ञापनम् । ४ - वहितार्थप्रत्यायनसामर्थ्यम् । ५ दृष्टम् । ६ चक्षुग्वि । ७ प्रादिपदेन पूर्वानुभवस्य परिग्रहः 1 ८ ज्ञापयिाप्यन्ति । ६ प्रमाणान्तरं प्रत्यभिजानाश्यम् । १० मिलितेऽपि । ११ इन्द्रियाणामविषयमेव प्रदर्शयति अविषयश्चेति । १२ एकत्वज्ञापनाय 1 १३ प्रत्यभिजाननामकम् । १४ सर्ववपि दर्शनषु, सवरपि वादिभिः 1 स्त्र-स्वदर्शने विषयभेदमाश्रित्यव प्रमाणमैदम्यवरथा कृति भावः । १५ युक्त्यन्तरेण प्रत्यभिज्ञानस्य प्रत्यक्षान्त. भविं निराकरोति किञ्चेति—सपनाममिति हि कानमस्पष्टमेव, प्रत्यक्ष तु न तथा, सस्य स्माटत्वात् । ततोऽपि न तस्य प्रत्यक्षतर्भाव इति भावः ।
1 द 'थ' पारः । 2 द प 'जयं' पारः ।
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६०
न्याय-दीपिका
रादेरक्यप्रतीतिजननसामथ्र्य नास्तीति । 'अन्यथा लिङ्गदर्शन व्याप्तिस्मरणादिसहकृतं चक्षरादिकमेव बह्नयादिलिङ्गिनानं जनयेदिति नानुमानमपि पृथक् प्रमागं स्यात् । 'म्वविषय मात्र एव चरितार्थत्वाच्चक्षुरादिकमिन्द्रियं न लिङ्गिनि प्रनित प्रगल्भमिति चेत् प्रकृतेन किमपराद्धम् ? नत: मिथनं प्रत्यभिजानास्यं पृथक् प्रमाणमस्तीति ।
१४. सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमुपमानाम्यं पृथक् प्रमाणमिति केचित्' कथयन्ति : तदसत; म्मत्यनभत्रपूर्बकगडुलनज्ञानत्वेन
१ कागद क्यप्रतीरिजननोकरगं । २ नन नागारपच एव परोदप्यमाने मतादीन परक्षे बजादी दिङ्गिति प्रनित मामध्यमरित, नता-नुमान गर ग़ानि न : प्रत्याभानि-यनसमान म, नाति दिइदन्नलिपि वा दबदनामी नक्ष नन परोक्षे कन्य कुमारगया गावाच्या पनी मान-दादा। तदपाः
सया (ट्रव्यसंविया) याजवतीनेषु 'पर्यायष्यस्ति संस्मतिः । केन तयापिनि द्रव्ये प्रत्यभिज्ञास्य पार्यते ॥ बालकोऽहं य एवासं स एव च कुमारकः । युवानो मध्यमो वृद्धोधनाऽस्मीति प्रतीतितः ।।
–तत्त्वार्थश्लोकवा० १, १३, ८५-१६ ।
एतदेवाह स्वविषय । ३ समर्थम् । ४ प्रत्यभिज्ञानेन । ५ नैयायिकाः मीमांसकारच, तत्र तावन्मीमांसकाः—'ननु गोदर्शनाहितसंस्कारस्य ज्ञानस्योपमानरूपत्वाने प्रत्यभिज्ञानता। सादृश्यविशिष्टो हि विशेषों (गोलक्षणो धर्मी ) विशेषविशिष्टं वा सादृश्यमुपमानस्यैव प्रमेयम्
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३. परोक्ष-प्रकाश,
प्रत्यभिज्ञानत्वानतिकसे । अन्यथा गॉमिक्षको सिपाहविसदृशत्वप्रत्ययस्य, इदमस्माद् दूरमित्यादेश्न प्रत्ययस्य सपनियोगिकस्य पृथक् प्रमाणत्वं स्यात् । ततो 14सादृश्यादिप्रत्ययवन् साद श्यप्रत्ययस्यापि प्रत्यभिज्ञाननक्षणाप्रान्तत्वेन प्रत्यभिज्ञानस्वमेवेति प्रामाणिकपद्धतिः ।
प्रमेयक० ३-१० । उक्तं च ...
वृश्यमानाद्यदन्यत्र विज्ञानमुपजायते । सादृश्योपाधिवत्तज्जरुपमानमिति स्मृतम् ।। तस्माद्यस्मयंते तत्स्यात्सादृश्येन विशेषितम् । प्रमेयमपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम् ।। प्रत्यक्षेणाऽवयुद्धेऽपि सादृश्य गवि च स्मृते । विशिष्टस्यान्यतः सिद्धरुपमानप्रमाणता ।।
-मी० श्ला० उ. ६६-६८ । अनि प्रत्यभिज्ञानस्योपमानरूपतां निरूपयन्ति, 'तदसमीक्षिताभिशनम्, एकत्व-सादृश्यप्रतीत्योः सङ्कलनज्ञानरूपतया प्रत्यभिजानतानतिमान् । 'स एवायम् इति हि यथा उत्तरपर्यायस्य पूसंपविणकताप्रतीतिः प्रत्यभिज्ञा. तथा मादृश्यप्रतीतिरपि 'अनेन सदा' इति (प्रत्यभिजा), अविशेषान्'
-प्रमेयक० ३.१० । काश्चमन्यथा वैलक्षण्यप्रतीतिरपि प्रमाणान्तरं न स्यात् नैयायिकास्तु 'पागमाहितसंस्कारस्मृत्यपेक्षं साम्प्यज्ञानमुपमानम् । यदा ह्यनेन श्रुतं भवति 'यथा गरिवं मवयः इति । प्रसिद्ध गो-गवयसाधम्म पुनर्गवा साधम्य पश्यतोऽस्य भवत्यय गवय इति समाख्यासम्बन्धप्रतिपत्तिः' . न्यायवा० १-१-६ । समाख्यासम्बन्धप्रतिपत्तिश्चोपभानमिति प्रतिपाद
1 'वसदृश्य' द प्रतिपाठः ।
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न्याय-दीपिका
[ तर्कस्य निरूपणम् ]
$ १५ श्रस्तु प्रत्यभिज्ञानम्, कस्तहि तर्कः ? व्याप्तिज्ञानं तर्कः । साध्यसाधनयोर्गम्यगमकभाव प्रयोजको' 'व्यभिचारगन्धासहिष्णुः सम्बन्धविशेषो व्याप्तिरविनाभाव इति च व्यपदिश्यते । 'तत्सामर्थ्यात्वल्वग्न्यादि धूमादिरेव गमयति न तु घटादि: 'तदभावात् । तस्याश्चाविनाभावापरनाम्याः 2 व्याप्तेः प्रमितो यत्साधकतमं तदिदं तख्यं प्रमाणमित्यर्थः । तदुक्तं श्लोकवत्तिकभाष्ये"साध्यसाधनसम्बन्धाज्ञाननिवृत्तिरूपे हि फले साधकतमरतर्कः ""
६२
तथा
यन्तिः तन्नः वैलक्षण्यादिप्रत्ययानामपि प्रमाणान्तरत्वानुषङ्गात् । चोक्तं श्रीमद्भट्टालकदेव -
उपमानं प्रसिद्धार्थ साधम्र्म्यात् साध्यसाधनम् । सम्पति प्रमाणं किं स्यात् संशिप्रतिपावनम् ॥ प्रत्यक्षार्यान्तरापेक्षा सम्बन्ध प्रतिपद्यतः । तत्प्रमाणं न चेत्सर्वमुपमानं कुतस्तथा ॥ - तयोय० का० १६ २०१ अतः यथैव हि एकदा घटमुपलभ्ववतः पुनस्तस्यैव दर्शन स एवायं घट:' इति प्रतिपत्तिः प्रत्यभिज्ञा तथा 'गोसदृशो गवयः' इति सङ्कतकाले गोसदृशगवया भिवानयोर्वाच्यवाचक सम्वन्यं प्रतिपद्य पुनर्गवयदर्शनात्तत्प्रतिपत्तिः प्रत्यभिज्ञा किन्नेष्यते ?-- प्रमेयक० ३ १० 1
1
१ प्रसाधकः । २ व्यभिचारशून्यः ३ नियमरूपः १४ व्याप्तिबलात् । ५ ज्ञापयति । ६ व्याप्तेरभावात् । ७ श्लोकवात्तिकभाष्ये यदुक्तं तत्कि - चिशब्दभेदने वर्त्तते - 'प्रमाण तर्कः साक्षात्परम्परमा च स्वार्थनिश्चयने
——-
द नी 'च' नास्ति । 2 'नाम्नो' इति द प म प्रतिपाठः ।
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परोक्ष-प्रकाशः
1१-१३-११५] इति । ऊह इति तर्कस्यच 'व्यपदेशान्तरम् । स च तर्कस्तां व्याप्ति सकलदेश-कालोपसंहारेण विषयोकरोति ।
१६. किमस्योदाहरणम् ? उच्यते-यत्र यत्र धूमवत्त्वं तत्र तत्राग्निमत्त्वमिति । अथ' हि घुमे सति भूयोऽन्युपलम्भे अग्न्य - भावे च घूमानुपलम्भे। सर्वत्र सर्वदा धूमोऽग्नि न व्यभिचरति" इत्येवं सर्वोपसंहारेणाविनाभाविज्ञानं पश्चादुनं ताब्यं प्रत्यक्षादेः पृथगेव । 'प्रत्यक्षस्य2 'सन्निहितदश एव 'धुमाग्निसम्बन्धप्रकाशमान्न व्याप्तिप्रकाशकत्वम् । सपिसंहारवती हि व्याप्तिः ।
६ १७. ननु यद्यपि प्रत्यक्षमात्रं व्याप्तिविषयीकरण 'शक्तं न भवति तथापि विशिष्ट प्रत्यक्षं तत्र' शक्तमेव । तथा हिन्महान
फले साधकतगत्वात्प्रत्यक्षवत् । स्वविषयभुतस्य साध्यसापनसम्बन्धाज्ञाननिवृत्तिरूपे साक्षात्स्वार्थनिश्चयने फले साधकतमस्तकः, परम्परया तु स्वार्थानुमाने हानोपादानोपेक्षाज्ञाने वा प्रसिद्ध एवेति ।'
१ नामान्तरम् । २ रात्र देशकालावच्छेदन । ३ अग्मिन्नुरलेसे । ४ घूमोन्यभावे न भवति. अपि स्वग्निसद्भाव एव भवति. दर्शन भाव । ५ 'न हि प्रत्यक्षं यावान् कश्चिद्धमः चालान्तरे देगान्तरे च पाकम्मंत्र कार्य नान्तिरस्येतीयनों व्यापारान् वर्तुं समर्थम्, भन्निहिन विषयवलोत्पतेरविचारकत्वात् लघी. स्वोपजवि. का. १५. प्रष्टस. पृ० २८०, प्रमाणप० पृ. ७०, प्रमेयक० ३.१३ । ६ ममोपनिनि योग्य देश एव महानसादी, न दूरवत्तिनि परोक्ष देवा । ७ नियनघमान्दी: सम्बत्यज्ञाप. नात् । ८ प्रत्यक्षसागान्यम् । ६ समयम् । १५ व्याग्निबायीकरण ।
! 'अन्यभावे च धूमानुपलम्भ' इति पाठी मुद्रितप्रतिषु नास्ति । '2 'प्रत्यक्षस्य हि इलि म प प्रतिपाठः !
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न्याय-कीपिका
सादी तावत्प्रथम धमाऽन्योदर्शनमेक प्रत्यक्ष म, तदनन्तरं भयो भूयः प्रत्यक्षाणि प्रवर्नन्ते तानि च प्रत्याणि न सर्वाणि व्याप्तिविषयीकरणसमर्शनि, अनि तिताम्निम्मरणतत्सजातीयत्वानुसन्धानरूपप्रत्यभिज्ञानसहकनः कोणि प्रत्यक्षविशेषो व्याप्ति सर्वोपसंहारवतीमपि। गलाति । तथा च म्मरणप्रत्यभिज्ञानसहकृते प्रत्यक्षविशेष व्याप्तिविषयी कर शसमर्थ कि तर्काख्येन पृथकप्रमाणेनेति केचित् ; तेऽपि न्यायमार्गानभिज्ञाः; 'सहकारिसहस्रसमबधानेऽप्यविषयप्रवृत्तिनं घटत इत्युक्तत्वात् । तस्मात्प्रत्यक्षेण व्याप्तिग्रहणमसञ्जसम् । इदं तु समञ्जसम्स्मरणम्, प्रत्यभिज्ञानम्, भूयोदर्शनरूपं प्रत्यक्ष च मिलित्वा तादृशमेकं ज्ञानं जनयन्ति यचाप्तिग्रहणसममिति । तकश्च स एव । अनुमानादिकं तु व्याप्तिग्रहणं प्रत्यसम्भाध्यमेव ।
- - १ पुनः पुनः । २ अनिर्दिष्टनामा । : नयादिकादयः । ४ समाचतं तेऽपोति । ५ प्रत्यक्षस्य पुगेत्तिघमणियाविषयत्व पि नापुगेलिसकलधुमल्लियक्तिविषयत्वम्, तासां नदयोन्यया । सहकारिणाविषये प्रत्यक्षस्य प्रवर्तकनाघटनाच । ६ न य नमानादिनः थ्याप्तिग्रहण सम्भवति, अन्योन्याश्रयादिदोपाल । अनुमानन र व्याग्निप्रहाण वेहि प्रकृतानुमाननानुमानान्तरेण वा 'प्रकृतानुमानन चदिनरेनगश्रयः । तथा हि-सत्यां व्याप्तिपनिपतात्रनुमान यात्मनाभस्तदाःमना व सति व्याप्तिप्रतिपत्तिरिति । अनुमानान्तरण न्याप्तिप्रतिपाताभूमानापरीपच्याप्तिपकिपत्तिरप्यनुमानान्तरणेत्येवमनरम्या स्यात् ! नना नानुभानाद्वयाग्निग्रहणम् । नाऽप्यागमादेः, तम्य भिन्नविषयत्वात् । यदुक्तम् नापनुमानेन (व्याप्ति
] 'सोपसंहारवतीमपि' इति पादा मुनि तातिए नाम्नि ।
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३. परोक्ष-प्रकाशः
$ १६. बौद्धास्तु 'प्रत्यक्ष पृष्ठभावी विकल्पः व्याप्ति गृह्णातीति मन्यन्ते । त एवं पृष्टव्याः स हि विकल्पः किमप्रमाणमुल प्रमाणमिति । यद्यप्रमाणम् कथं नाम तद्गृहीतायां व्याप्तौ समाश्वास: ? अथ प्रमाणम्, कि प्रत्यक्षमथवाऽनुमानम् ? न तावत्प्रत्यक्षम्, अस्पतिसत्वात् । कृष्ण पानुमानम्, विनाक पेक्षत्वात् । 'ताभ्यामन्यदेव किञ्चित्प्रमाणमिति चेदागतस्तहि तर्कः । तदेवं तख्यिं प्रमाणं निर्णीतम् ।
६५
[ अनुमानस्व निरूपणम् ]
१७. इदानीमनुमानमनुवण्यते । साधनात्साम्यविज्ञान मनुमानम् । इहानुमानमिति लक्ष्यनिर्देशः, साधनात्साध्यविज्ञानग्रहणम्), प्रवृतापरानुभान कल्पना यामि नरंतराश्रयत्वावस्थाऽवतारात् । आगमादेरपि भिन्नविपयत्न सुप्रसिद्धत्वान्न तदपि न प्रतिपत्तिरिति'प्रमेयर ० ०३-१८ । श्रीमद्भट्टा कलङ्क राम्
श्रविकल्पधिया लिङ्गं न किञ्चित् सम्प्रतीयते । नानुमानादसिद्धत्वात्प्रमाणान्तरमाञ्जसम् ।।
लपीका० ११
अतः सुष्टुतं ग्रन्थकृता श्रनुमानादिक तु व्याप्तिग्रहणं प्रत्यसम्भारुपमेव' इति ।
.....
१ निर्विकल्पकप्रत्यक्षान्तर जायमानः । २ प्रामाण्यम् । प्रत्यक्षानुमानाभ्याम् । ४ 'सावनत्साविज्ञानमनुमानं ... न्यायवि० क० १७० 'सानात्साध्यविज्ञानमनुमानम् - परीक्षामु० ३ १४, साधना साध्यविज्ञानमनुमानं विदुर्बुधाः । तस्वार्थइलो० १-१३-१२० ।
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न्याय-दीपिका मिति लक्षणकथनम् । साधनाद्धमादेलिङ्गात्साध्येऽग्न्यादौ लिङ्गिनि यद्विज्ञानं जायते तदनुमानम्, 'तस्यैवाऽग्नाद्यव्युत्पत्तिविच्छित्तिकरणत्वात्। न पुनः साधनज्ञान मनुमानम्, 'तस्य साधनाट्युत्पत्तिविच्छेदमाशोपक्षीणत्वेन साध्याज्ञान निवत्तंकत्वायोगात् । 'ततो यदुक्तं नैयायिक:-लिङ्गपरामर्शोऽनुमानम्' [न्यायवा० १-१-५ अमृतम्] इत्यनुमानला गम् तदविनीतविलासितामात निवेदितं भवति । 'वयं त्वनुमानप्रमाणस्वरूपलाभे व्याप्तिस्मरणसहकृतो लिङ्गपरामर्श: कारणमिति मन्यामहे, स्मृत्यादि "स्वरूप लाभेऽनुभवादिवत् । तथा हि-धारणाख्योऽनुभवः स्पृती हेतुः । तादास्विकानुभव-स्मृती प्रत्यभिज्ञाने। स्मृतिप्रत्यभिज्ञानानुभवाः साध्य
१ साध्यज्ञानस्य॑व । २ अग्न्यादेरव्युत्पत्तिरमानं तस्या विच्छितिनिरासस्तस्करणत्वात् साध्यज्ञानस्य, अतः साधनाज्जायमानं साध्यज्ञानमेवानुमानमिति भावः । ३ सायनज्ञानस्य । ४ साधनसम्बाध्यज्ञाननिराकरणमात्रेजैव कृतार्थलेन । ५ यतश्च साधनशानं नानुमानं तत: । ६ 'प्रपरे तु मन्यन्ते लिङ्गपरामर्शोऽनुमानमिति । वयं तु पश्यामः सर्वमनुमानमनुमितेस्तन्नान्तरी यकत्वात् । प्रधानोपसर्जनाताविवक्षायां लिङ्गपरामर्श इत्ति न्याय्यम् 1 कः पुनरत्र न्यायः ? आनन्तर्गप्रतिपत्तिः । यस्माल्लिङ्गपरामर्शादनन्तरं शेषार्थप्रतिपत्तिरिति । तस्माल्लिङ्गपरामर्शो न्याय्य इति ।न्यायपा० पृ० ४५ । लिङ्गपरामर्शो लिङ्गज्ञानमित्यर्थः । ७ यदिनीत रविपारिभिविलसितं परिकल्पितमत एव तदयुक्तमिति भावः । ८ जनाः । & लिङ्गजानमनुमानस्योत्पत्तो कारणम्, न तु स्वयमनुमानमित्यर्थः । १. प्रादिपदेन प्रत्यभिज्ञादीनां ग्रह्णम् ।
1 'करणं' इति म प्रतिपाठः।
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३. परोक्ष-प्रकाशः
६७
साधनविषयास्त 'तद्वल्लिङ्गज्ञानं व्याप्तिस्मरणादिसहकृत मनुभानोत्पत्तौ निबन्धनमित्येतत्सुसङ्गतमेव' |
१८. 'ननु भवतां मते साधनमेवानुमाने | हेतुनं तु साधनज्ञानं 'साधनात्साध्य विज्ञानमनुमानम्' इति वचनादिति चेत्; न; साघनादित्यत्र निश्चयपथप्राप्ताद्धूमादेरिति विवक्षणात् श्रनिश्चयपथप्राप्तस्य घुमादेः साधनत्वस्यैबाघटनात् । तथा चोक्तं तत्त्वार्थश्लोकवात्तिके2- "साधनात्साध्य विज्ञानमनुमानं विदुर्बुधाः" [१-१३-१२० ] इति । साधनाज्ज्ञायमानाद्भूमादेः साध्येऽन्यादौ लिङ्गिनि यद्विज्ञानं तदनुमानम् । श्रज्ञायमानस्य तस्य साध्यज्ञानजनकत्वे हि सुप्तादीनामगृहीतधूमादीनामप्यग्न्यादिज्ञानोत्पत्ति 3प्रसङ्गः । तस्माज्ज्ञायमानलिङ्गकारणकस्य' साध्यज्ञानस्यैव
-
१ स्मृत्यादिवत् । २ श्रस्मदीयं कथनं सुयुक्तमेव । ३ नैयायिकः शङ्कते नन्विति । ४ जैनानाम् । ५ पूर्व निरूपणान् । ६ अत एवाकलङ्क देवैरुक्तमू-
लिङ्गात्साध्याविनाभावाभिनिदोर्घकलक्षणात् ।
लिङ्गिधीरनुमानं तत्फलं हानादिबुद्धयः ॥ लघी ० का ० १२ :
७ साधनस्य ८ जनानाम् । ६ ज्ञायमानं लिङ्ग कारणं यस्य तज्ज्ञायमानलिङ्गकारणकं तस्य साध्याविना नावित्वेन निर्णीतसाधन हेतुकस्येत्यर्थः । अत्रेदं बोध्यम् - न हि वयं केवलं लिङ्गमनुमाने कारणं मन्यामहे अपि त्वन्यथानुपपन्नत्वेन निश्चितमेव, अज्ञायमानस्य लिङ्गस्यानुमितिकारणत्वासम्भवात् । अन्यथा यस्य कस्याप्यनुमितिः स्यात् । एतेन यदुक्तं नैयायिकैः
1 'अनुमान हेतु:' इति द प प्रत्योः पाठः । 2 ' श्लोकवातिके' इति मुतिप्रतिषु पाठः । 3 'ज्ञानोत्पाद' इति व प्रतिपाठः ।
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पावागापिका
साध्यान्युत्पत्तिनिरासकत्वेनानुमानत्वम्, न तु 'लिङ्गपरामशदि. रिति बुधाः प्रामाणिका' विदुरिति 'वात्र्तिकार्थः ।
अनुमायां जायमानं लिङ्ग तु कारण न हि ।
अनायतादिखिङ्गन न स्पावनुमितिस्तदा । यद्यनुमितो लिङ्ग करणं स्मासदाऽनागतेन विनष्टेन वा लिङ्गन (इयं यज्ञशाला वल्लिमती भविष्यति, भाविघमात् । इयं यज्ञशाला बह्निमत्यासीत्, भूतधूमात् [सिद्धान्तमु टिप्पण] इत्येवंरूपेण) अनुमितिर्न स्यादनुमितिकरणस्य लिङ्गस्य तदानीमभादात'--सिद्धान्तमुक्तावली १७; तन्निरस्तम् लिङ्गस्य ज्ञायमानस्य करणत्वानभ्युपगमेऽज्ञायमानादपि लिङ्गादनुमितिप्रसङ्गात । किन्त्र, वर्तमानलेन प्रतीतस्यैव लिङ्गस्यानुमिति हेतुत्वम्, न भविष्यत्वेनातीतत्वेन वा भाव्यतीतयोलिङ्गत्वस्यवाघटनात् । न हि कश्चित्प्रेक्षावान् भाविधमात्भाविवह्निमतीतचूमादतीतर्वाह वाऽनुमिनोति । तस्माज्ञायमानलिङ्गका रणकस्यैव साध्वमानस्थानुमानत्वमिति ध्येयम् ।
१ नयायिकाभिमतस्य । २ अकलङ्कदेवा न्यायविनिश्चये (का. १७०) । ३ साघनात्साध्यविज्ञानमित्यादितत्त्वार्यश्लोकवात्तिकोयवात्तिकस्यार्थः । बार्तिकलक्षणं तु--
'उक्तानुक्तद्विरुक्तानां चिन्ता यत्र प्रसज्यते । तं ग्रन्थं वात्तिकं प्राहुत्तिकजा मनीषिणः ॥
-पराशरोपपुराण अ० १८ । 'उक्तानुफ्तद्विरुक्तानां विचारस्य निबन्धनम् । हेतुभिश्च प्रमाणेश्च एतद्वात्तिकालक्षणम् ॥'
'उक्तानुक्तदुरुक्तानां चिन्ताकारि तु वासिकम् ।'-हैमकोश । 'वात्तिके हि सूत्राणामनुपपत्तिघोदना तत्परिहारो विशेषाभिधानं प्रसिद्धम् ।'
-तत्त्वार्षश्लोकवात्तिक पृ० २ ।
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न्याय-दीपिका
त्वादेरपि साध्यत्वप्रसङ्गात् । अनभिप्रेतस्य साध्यत्वे त्वतिप्रसझात्' । प्रसिद्धस्य साध्यत्वे पुनरनुमा नवयात् । तदुक्तं न्यायविनिश्चये
"साध्यं शक्यमभिनतमप्रसिद्ध ततोऽपरम् । साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः" ।।१७२।। इति। ।
२१. अयमर्थ:2–यच्छक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं तत्साध्यम् । ततोऽपरं साध्याभासम् । किं तत्? विरुद्धादि । विरुद्धं प्रत्यक्षादिवाधितम् । प्रादिशब्दादनभिप्रेतं प्रसिद्ध चेति । कुत एतत् ? साधनाविषयत्वत:--साधनेन गोचरीक मशक्यत्वा दित्यकलङ्कदेवानाममिप्रायलेशः। तदभिप्रायसाकल्यं तु 'स्यादविद्या
१ स्वेष्टसाधनायोगात । अत एवाह—'अनिष्टाध्यक्षादिबाधितयोः साध्यत्वं मा भूदितीष्टाबाधितवचनम्'-परीक्षा० ३-२२ । २ साघनाह हि साध्यम्, साधनं चासिद्धस्यव भवति न सिद्धस्य, पिष्टपेषणानुषङ्गात् । तथा चासिद्धस्थ साधनमेवानुमानफलम्. सिद्धस्य तु साध्यत्वे तस्य प्रागेव सिद्धत्वेनानुमानवैफल्यं स्पादेवेति भावः । यदुक्तं स्यावादविद्यापतिना... 'प्रसिद्धादन्यदसिद्धम्, तदेव साध्यम् । न प्रसिद्धम्. तत्र साधनवैफल्यात् । प्रसिद्धिरेव हि साधनस्य फलम्, सा च प्रागेव सिद्धति'--पायवि० वि० २, पृ० है । इ शक्यादिलक्षणात्साध्याद्विपरीतम् । ४ अभिप्रायस्य संक्षेपः। ५ अकलङ्कदेवानामभिप्रावलामस्त्यम् । ६ श्रीमद्वादिराजाचार्यो न्यायविनिएषयविवरणकारः।
14 व प्रत्योः 'इति' पाठो नास्ति । 2 'अस्पायमर्थः' इति पा प्रतिपाठः । 3 "कि तत् ?' इति व प प्रत्योर्मास्ति ।
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३. परोक्ष प्रकाश:
| पसिर्वदा । साधनसाध्यद्वयमधिकृत्य श्लोकवात्तिक च2
'अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं तत्र साधनम् । साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धमुदाहृतम् ।।
1१-१३-२२१] इति । ६ २२. तदेवमविनाभावनिश्चयकलक्षणात्साधनाच्छक्याभिताप्रसिद्धरूपस्य साध्यस्य ज्ञानमनुमानमिति सिद्धम् ।
[अनुमानं द्विधा विभज्य स्वार्थानुमानस्य निरूपणम् ]
२३. तदनुमानं द्विविधम्-स्वार्थ परार्थ च । तत्र स्वयमेव "निश्चितात्साधनात्साध्यज्ञानं स्वार्थानुमानम् । 'परोपदेशमनपेक्ष्य स्वयमेव निश्चितात्पादन निमार सानादे: साधनादुत्पन्नं पर्वतादी धर्मिण्यग्न्यादेः माध्यस्य ज्ञान स्वार्थानु
१ आश्रित्य । २ तस्यार्थरलोकवात्तिकम् । ३ अन्यथानुपपत्तिरविनाभाषः, सा एवैका लक्षणं स्वरूपं यस्य तसथा साधनम्, न पक्षधर्मत्यादित्रितयलक्षणं पञ्चलक्षणं वा बौद्ध-नवायिकाभिमतम् । ४ उक्तलक्षणलक्षिसम् । ५ प्रत्यक्षादिना ज्ञातात् । ६ प्रतिशादिवाक्यप्रयोगम् । ७ हेतुग्रहणसम्बन्धस्मरणपूर्वकं जायमानं साध्यज्ञानं स्थानुमानम्, यथा गृहीतधूमस्य स्मृतव्याप्तिकस्य 'पर्वतो वह्निमान्' इति ज्ञानम् । अत्र हेतुग्रहणसम्बन्धस्मरणयोः समुदितयोरेव कारणत्ववसेयम्'-जैनतकंभा० पृ० १२ ॥ अनुमाता हि पर्वतादो धूमं दृष्ट्वा महानसादी गृहीतन्याप्ति स्मृत्वा च 'पर्वतोऽयं वह्निमान्' इत्यनुमिनोति । ययमनुमिति: परोपदेशमनपेक्ष्य स्वयमेव निश्चितात्सायनाद्भवति तत्स्वार्थानुमानमिति भावः ।
--. 1 "विवेद' इति मु प्रतिपाठः । २ 'च' इति व प्रती नास्ति ।
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न्याय-दोपिका मानमित्यर्थः । यथा-पर्वतोऽयमग्निमान् धमवत्त्वादिति । 'अयं हि स्वार्थानुमानस्य ज्ञानरूपस्यापि शब्देनोल्लेखः । यथा 'अयं घट:' इति शब्देन प्रत्यक्षस्य' । 'पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्त्वात्' इत्यनेन प्रकारेण प्रमाता जानातीति स्वार्थानुमानस्थितिरित्यवगन्तव्यम् ।।
[स्वार्धानुमानस्याङ्गप्रतिपादनम्] ६२४. अस्य च स्वार्थानुमानस्य त्रीगयङ्गानि-'धर्मी, साध्यम्, साधनं च । तत्र साधन 'गमकत्वेनाङ्गम् । साध्यं तु गम्यत्वेन । धर्मी पुन: सत्यधर्माधारत्वेन । 'आधारविशेपनि ठतया हि साध्यसिद्धिरनुमानप्रयोजनम्, धर्ममात्रस्य तु व्याप्तिनिश्चयकाल एव सिद्धत्वात् 'यत्रसत्र घूमबत्त्वं तत्र तत्राग्नि मत्वम्' इति ।
६ २५. "अथवा2, पनो हेतुरित्य नहयं स्वार्थानुमानस्य, साध्यधर्मबिशिष्टस्य बर्मिण: पक्षस्यात् । तथा च स्वार्थानुमानस्य धाममाध्यसाधनभेदात् योण्यङ्गानि पक्षसाधनभेदादाङ्ग यं बेति सिद्धम्,
१ ननु स्वार्थानुमानस्य भानरूपत्वात्कथं तस्य पर्वतोऽयमग्निमान् धुमवत्वात्' इति शन्देनोल्लेखः इत्यत आह अयमिति । अनुभाता येन प्रकारेण स्वार्थातुमानं करोति तत्प्रकारप्रदर्शनार्थमेव ज्ञानरूपस्यापि तस्य' शब्दविध मोल्लेख: । भवति हि यथा 'इदं मदीचं पुस्तकम् इति शब्देन प्रत्यक्षस्याप्युल्लेखः । ततो न कोऽगि दोष इति । २ उल्लेख इति पूर्वण सम्बन्धः । ३ पक्ष: । ४ ज्ञापकत्वेन । ५ जाप्यत्वेन । ६ धर्मिण: स्वार्थीनुमानाङ्गत्वे युक्तिः । ७ प्रकारान्तरेण स्वार्थानुमानस्याङ्गप्रतिपादनार्थमाह अथवेति ।
! म मु प्रतिषु स्थितिरवगन्तव्या' इति पाठः । 2 'अथवा इति पाठी मुद्रितप्रतिषु नास्ति ।
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७.
३. परोक्ष-प्रकाशः 'विवक्षाया 'वैचित्र्यात् । 'पूर्वत्र हि धमिधर्मभेदविवक्षा, उत्तरत्र तु! 'तत्समुदायविवक्षा । स एष धमित्वेनाभिमतः प्रसिद्ध एव । तदुक्तमभियुक्त:--"प्रसिद्धो धर्मी" [परीक्षा ३-२७] इति ।
[घमिणस्विधा प्रसिद्धेनिरूपणम्] ६२६. प्रसिद्धत्वं च र्मिणः क्वचित्प्रमाणात, क्वचिद्विकल्पात', क्वचित्प्रमाण-विकल्पाभ्याम् । तत्र 'प्रत्यक्षाद्यन्यतमावधृतत्वं प्रमाणप्रसिद्धत्वम् । अनिश्चितप्रामाण्याप्रामाण्यप्रत्ययगोचरत्वं विकल्पप्रसिद्धत्वम् । तद्वयविषयत्वं प्रमाणविकल्पप्रसिद्धत्वम् ।
२७. "प्रमाणसिद्धो धर्मी यथा-धूमवत्वादग्निमत्त्वे साभ्ये पर्वतः । स खलु प्रत्यक्षेणानुभूयते । विकल्पसिद्धो धर्मी यथाअस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासम्भवद्बाधकप्रमाणत्वादित्यस्तित्वे साध्ये सर्वज्ञः । अथवा, खरविषाणं नास्तीति नास्तित्वे साध्ये खरविषाणम् । सर्वज्ञो ह्यस्तित्व सिद्धेः प्राग् न प्रत्यक्षादिप्रमाण
१ प्रतिपादनेच्छायाः। २ भिन्नत्वात् । ३ अङ्गत्रयप्रतिपादने । ४ अङ्गत्यवचने । ५ धर्ममिणोरक्यविवक्षा, यतो हि तत्समुदायस्य पक्षस्ववचनात् । ६ अनुमाने । ७ प्रतीतेः । ८ प्रत्यक्षादीनामन्यतमेन प्रमाणेनाचघृतस्वम्, निश्चितत्वमित्यर्थः । ९ प्रमाणविकल्पोभयविषयत्वम् । १. उक्तानां त्रिविधर्मिणां क्रमेणोदाहरणानि प्रदर्शयति प्रमाणेति । ११ पर्वतः ।
1 र प्रती 'तु' स्थाने 'च' पाठ: + 2 'प्रनिदिचतप्रामाण्यप्रत्यय' इति व प्रतिपाठः।
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७४
न्याय-दीपिका
सिद्ध:, अपि तु प्रतीतिभात्रसिद्ध इति विकल्पसिद्धोऽयं धर्मी । तथा स्वरविषाणमपि नास्तित्वसिद्धेः प्राविकल्पसिद्धम्' । 'उभयसिद्धो धर्मी यथा-रिणामी उत्पा
हि वर्तमानः प्रत्यक्षगम्यः भूतो भविष्यश्च विकल्पगम्यः । स सर्वोऽपि धर्मीति प्रमाण-विकल्पसिद्धो वर्मी । प्रमाणोभयसिद्धयोर्धमिणोः साध्ये कामचारः " । विकल्पसिद्धे तु धर्मिणि 'सत्तासत्तयोरेव साध्यत्वमिति नियमः । तदुक्तम्- “विकल्पसिद्धे "तस्मिन् सत्तेतरे' साध्ये" [ परीक्षा २-२८ ] इति ।
ני
२८. तदेवं परोपदेशानपेक्षिणः । साधनाद् "दृश्यमानाद्धमिनिष्ठतया साध्ये यद्विज्ञानं तत्स्वार्थानुमानमिति स्थितम् । तदुक्तम्
१ सम्भावनामात्रसिद्धः सम्भावना प्रतीतिर्विकल्प इत्येकार्थकाः । २ तथा चाह: श्रीमाणिक्यनन्दिनः 'विकल्पसिद्ध तस्मिन् सत्तेत्तरे साध्ये' 'अस्ति सर्वशो नास्ति खरविषाणम्' – परीक्षा० २ २८, २६ । ३ प्रमाण विकल्पसिद्धः । ४ ग्रत्र वाब्दत्वेन निखिलशब्दानां ग्रहणम्, तेषु वत्तंमानशब्दाः श्रावणप्रत्यक्षेण गम्याः सन्ति भूता भविष्यन्तश्च प्रतीतिसिद्धाः सन्ति, श्रतः शब्दस्योभयसिद्धधमित्वमिति भावः । ५ अनियमः । ६ सत्ता अस्तित्वम् श्रसत्ता नास्तित्वम् ते द्वे एवात्र विकल्पसिद्धे धर्मिणि साच्ये भवतः, 'अस्ति सर्वज्ञ' इत्यादी सत्ता साध्या, 'नास्ति खरविषाणम्' इत्यादी 'चासत्ता साध्या इत्येवं नियम एव न प्रमाणोभय सिद्धषमवत्कामचारस्तत्रेत्यदसेयम् । ७ धर्मिणि । सत्तासत्तं । भवत इति क्रियाध्याहारः । १० एतत्पदप्रयोगात् साधनस्य वर्तमानकालिकत्वं प्रकटितं बोद्धव्यम्, तेन्द भूतभाविघूमादेर्भूतभाविवह्न्यादिसाध्यं प्रति साघनत्वं निरस्तम् ।
1 'परोपदेशानपेक्षेण' इति प्रा प्रतिपाठः |
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३. परोक्ष-प्रकाश परोपदेशाभावेऽपि साधनात्साध्यबोधनम् । यद्रष्टुर्जायते स्वार्थमनुमानं तदुच्यते ॥[ ] इति ।
[परार्थानुमानस्य निरूपणम् । A २६८. परोपदेशमपेक्ष्य यत्साधनात्साध्यविज्ञानं तत्परानुमानम् ।। 'प्रतिज्ञा-हेतु रूपपरोपदेशवशात् श्रोतुरुत्पन्नं साधनात् साध्यविज्ञानं परार्थानुमानमित्यर्थः । यथा-पर्वतोऽयमग्निमान् भवितुमहति धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति वाक्ये केनचित्प्रयुक्ते तद्वाझ्यार्थ 'पर्यालोचयत: 'स्मृतव्याप्तिकस्य श्रोतुरनुमानमुपजायते ।
३०. परोपदेशवाक्यमेव परार्थानुमानमिति केचित्; त एवं प्रष्टव्याः तत् कि मुख्यानुमानम् अथ। 'गौणानुमानम् इति ? न तावन्मुल्यानुमानम्, वाक्यस्याज्ञानरूपत्वात् । गौणानुमान 'तद्वाक्यमिति त्वनुमन्यामहे', 'तत्कारणे "तद्वयपदेशोपपत्तेरायु:समित्या दिवत् ।
१ अनुमातुः । २ कोऽसी परोपदेश इत्याह प्रतिमाहेतुरूपेति । ३ वि. चारयतः । ४ महानसे पूर्वगृहीतव्याप्ति स्मरतः । ५ नैयायिकादयः । ६ औपचारिकानु मानम् । ७ परोपदेशवाक्यम् । ८ वयं जनाः । ६ परार्थीनुमानकारणे' परोपदेशवाक्ये । १० परार्थानुमानव्यपदेश घटनात्, तत उपचारादेव परोपदंशवाक्यं परार्थानुमानम् । परमार्थतस्तु तज्जन्यं ज्ञानमेव परार्थानुमान मिति । यदाह श्रीमाणिक्यनन्दो-'पराई तु तदर्थपरामशिवचनाज्जातम्'-परीक्षा० ३-५५, 'तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात्'-परोक्षा० ३-५६:
म मु 'अथवा' इति पाठ: 1 2 म मु 'रायुर्वं घृतं इति पाठः ।
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न्याय-दीपिका [परानुमानप्रयोजकवाक्यस्य प्रतिज्ञा-हेतुरूपाययबद्यस्य प्रतिपादनम्]
३१. तस्यतस्य परार्थानुमानस्याङ्गसम्पत्तिः स्वार्थानुमानवत् । परार्थानुमानप्रयोजकस्य च वाक्यस्य ! गाबवयवो-प्रतिज्ञा हेतुश्च । तत्र धर्म-धर्मिसमुदायरूपस्य पक्षस्य वचनं प्रतिज्ञा। यथा-पर्वतोऽयमग्निमान्' इति । साध्याविनाभाविसाधनवचनं हेतुः । यथा-'घूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेः' इति तथैव घूमवत्त्वोपपत्तेः' इति वा । अनयोर्हेतुप्रयोगयोरुक्तिवैचिश्यमात्रम् । पूर्वत्र धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेरित्ययमर्थः-धूमवत्त्वस्याग्निमत्त्वाभावेऽनुपपत्तेरिति निषेधमुखेन कथनम्। द्वितीये' तु धूमवत्त्वोपपत्तेरित्ययमर्थः-अग्निमत्वे सत्येव बमवत्वस्योपपत्तरिति विधिमुखेन प्रतिपादनम्।। अर्थस्तु: न भिद्यते, "उभयत्राऽप्यविनाभाविसाधनाभिधानाविशेषात् । अतस्तयोर्हेतुप्रयोगयोरन्यतरएव वक्तव्यः, उभयप्रयोगे पौनरुक्त्यात् । तथा चोक्तालक्षणा प्रतिज्ञा, एतयोरन्यतरो हेतुप्रयोगश्चेत्यययबद्वयं परार्थानुमानवाक्यस्येति स्थितिः, व्युत्पन्नस्य श्रोतुस्तावन्मात्रेणेवानुमित्युदयात् । श्रीहेमचन्द्राचायोऽम्याह—'यथोक्तसाधनाभिधानजः परार्यम्' 'वचनमुपपारात्'-प्रमागमो० २,१, १-२ ।
१ केवलं कथन भेदः । २ हेतुप्रयोगे । ३ हेतुप्रयोगे । ४ हेतुप्रयोगदयेऽपि । ५ एकतर एव । ६ प्रतिज्ञाहेतुतयेनैव ।
1६ प प्रत्यो, 'च वाक्यस्य' इति पाठो नास्ति । 2 वप प्रत्योः 'च' पाठः । ३ मा मु म प्रतिषु 'प्रतिपादनम्' इति पाउः। 4 मा मुम प्रतिषु 'कथनम्' पाठः । 5 'अर्यतस्तु' इति व प्रतिपाठः ।
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३. परोक्ष-प्रकाश
७७
[नैयायिकाभिमतपल्यावयदानां निरासः] ३२. 'नैयायिकास्तु परार्थानुमानप्रयोगस्य यथोक्ताभ्यां द्वाभ्यामवयवाभ्यां सममुदाहरणमुपनयो निगमनं चेति पञ्चावयबानाहुः । तथा च ते सूत्रयन्ति "प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः" [न्यायसू० १-१-३२] इति । तांश्च ते लक्षणपुरस्सरमु
m4
१ अवयवमान्यतामभिप्रेत्य दार्शनिकानां मतभेदो वर्तते । तथा हिनयायिकास्तावत् मूले प्रदर्शितान् प्रतिज्ञादीन् पञ्चावयत्रान् प्रतिपेदिरे । नेपायि फैकदेशिनः 'पूर्वोक्ताः पञ्च, जिज्ञासा, संशयः, शक्यप्राप्तिः, प्रयोजनम्, संशययुदासः' (न्यापभा० १.१.३२) इति दशावयवान् वाक्ये संचक्षते । मीमांसकाः 'सत्राबाधित इति प्रतिझा, ज्ञातसम्बन्धनिममस्येत्यनेन दृष्टान्तवचनम्, एकदेशदेशनादिति हेत्वभिधानम्, तदेवं त्र्यवयवसाधनम्' (प्रकरणपडिज. पृ० ८३) इत्येतान् व्यवयवान् मन्यन्ते । सांख्या: 'पक्षहेतुदृष्टान्ता इति श्यवयवं साधनम्' (सांख्य माठरव. का. ५) प्रतिपादयन्ति । बौद्धताकिंदिग्नागः 'पक्षहेतुदृष्टान्तवचन हि प्राश्निकानामप्रतीतोऽर्थः प्रतिपाद्यतेXXXएतान्येव त्रयोऽवयवा इत्युच्यन्ते' (न्याय पृ० १४, १६) इति प्ररूपयति । केचिन्मीमांसकाः प्रतिक्षाहेलदाहरणोपनयान् चतुरोऽवयत्रान् कथयन्ति (प्रमेयर० ३-३६) । धर्मकोतिस्तन्मतानुसारिणों वौद्धाश्च हेतु दृष्टान्ताविति द्वाववयवों (प्रमाणवा० १-२८, वादन्या० पृ० ६१), 'तेतरेव हि केवल:' (प्रमाणवा० १-२८) इति केवलं हेतुरूपमेकमवयवमपि च निरूपयन्ति । वैशेपिवाश्च 'अवयवाः पुनः प्रतिनापदेशनिदर्शनानुसन्धानप्रत्याम्नायाः' (प्रशारतपादमा० पृ० ११४) इत्युक्तान् पश्चावयवान् मेनिरे । स्यावादिनी जैनास्स्तु 'एसवयमेवानुमानाङ्ग नोदाहरणम्' (परीक्षा० ३-३७) इति प्रलिजाहेतुङपावयद्वयमेव मन्यन्त इति विवेकः ।
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७६
न्याय-दीपिका
दाहरन्ति च।। तद्यथा-पक्षवचनं प्रतिज्ञा, यथा-पर्वतोऽयमग्नि मानिति । साधनत्वप्रकाशार्थ2 पञ्चम्यन्तं लिङ्गवचनं हेतु:, यथाचूमवत्वादिति । व्याप्तिपूर्वकदृष्टान्तवचनमुदाहरणम्, यथा-यो यो धूमवानसावसावग्निमान्, यथा महानस इति साधोदाहरणम् । यो योऽग्निमान्न भवति स स धूमवान भवति, यथा महाह्रद इति बोदाहरणम् ! पूनरोदाहरणभेदे हेतोरन्वयव्याप्तिः प्रदश्यते, द्वितीये तु व्यतिरेकव्याप्तिः । तद्यथा-अन्वयव्याप्तिप्रदर्शनस्थानमन्वयदृष्टान्तः', व्यतिरेकव्याप्तिप्रदर्शनप्रदेशो व्यतिरेकदृष्टान्तः । एवं दृष्टान्तद्वैविध्यात्तद्ववचनस्योदाहणस्यापि वैविध्यं बोध्यम् । अनयोश्चोदाहरणयोरन्यतरप्रयोगेणैव पर्याप्तत्वादितराप्रयोगः। दृष्टान्तापेक्षया पक्षे 3 हेतोरुपसहारवचनमुनयः", तथा
१ साधनसद्भावपूर्वकसाध्यसद्भावप्रदर्शनमन्वयध्याप्तिः । २ साध्याभावपूर्वकसाधनाभावप्रदर्शन स्पतिरेकव्याप्तिः । ३ 'यत्र प्रमीज्यभयोजकभावेन साध्यसाधनयोधर्मपारस्तित्वं च्याप्यते स साघम्यदृष्टान्तः । यद्यत् कुतकं तत्तदनित्यं दृष्ट म्, या घट इनि'-न्यायकलि. पृ० ११ । ४ 'यत्र साध्याभावप्रयुक्तो हेत्वभावः ख्याप्यने म वैघHदृष्टान्तः । यानित्यत्वं नास्ति तत्र कृतकत्वमपि नास्ति, यथा आकाम इति (न्यायकलि. पृ० ११) एतदुभयमधिकृत्य कश्चिदुक्तम्-'साध्येनानुगमो हेतोः साध्याभावे च नास्तिता इति' (न्यायवासिक पृ० १३७) । ५. 'साधम्यवघम्दाहरणानुसारेण तथेति, न तथेति वा साध्यमिणि हतारूपसंहार उपनय:न्यायकलि० पृ. १२ ।
1 मुद्रितप्रतिषु 'च' पाठो नास्ति। 2 मुम 'प्रकाशनार्थ' । म 'पक्षहेतो' ।
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३. परोक्ष-प्रकाश:
७६ चायं धूमवानिति । हेतुपूर्वक पुन:1 पक्षवचनं निगमनम्', तस्मादग्निमानेवेति । एते पञ्चावयवाः परार्थानुमानप्रयोगस्य । 'तदन्यतमाभावे वीतरागकथायां विजिगीषुकथायां च2 नानुमितिरुदेतीति नैयायिकानामभिमतिः ।
३३. तदेतदविमृश्याभिमननम् ; वीतरागकथायां4 प्रतिपाद्याशयानुरोधेनावयवाधिक्येऽपि विजिगीषुकथायां प्रतिज्ञाहेतुरूपावयवद्वयेनैव पर्याप्तेः किमप्रयोजनैरन्य रवयवः ।
[विजिगीषुकथायां प्रतिज्ञाहेतुरूपाववयद्वयस्यैव सार्थक्यमिति]
३४. तथा हि-वादिप्रतिवादिनोः स्वमतस्थापनार्थं जयपराजयपर्यन्तं परस्परं प्रवर्त्तमानो 'वाग्व्यापारो विजिगीषुकथा । गुरुशिष्याणां विशिष्टविदुषां वाऽ रागद्वेषरहितानां तत्त्वनिर्णय
१ द्विविवे हेतो द्विविवे च दृष्टान्ते द्विविधे चोपनये तुल्यमेव हेत्वपदेशेन पुनः साधर्योगसंहरणान्निगमनम् न्यायकलि पृ० १२ । २ ते इमे प्रतिज्ञादयो निगमनान्ताः पञ्चावयवाः स्वप्रतिपत्तिषत्परप्रतिपत्ति मुत्पादयितुमिच्छता यथानिदिष्टक्रमकाः प्रोक्तव्याः । एतदेव साधनवाक्यं परार्थानुमानमाचक्षते ।' ---ग्यायकलि. पृ० १२ । ३ प्रतिज्ञादीनामेकतमस्याऽप्यभावे । ४ 'वादिप्रतिवादिनो: पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः कया । सा द्विविधा-वीतरागकथा विजिगीषकथा चेति । ---न्यायसार पृ० १५ । ५ वचनप्रवृत्तिः ।
1 मुक्तिप्रती 'पुनः नास्ति । 2 प्रा म मु प्रतिषु 'वा' पाठः । 3म मु प्रतिषु 'मतम्'। 4 व ५ प्रत्यो: 'वीतरागकथायां तु इति पाठः । 57 'वा' पाठो नास्ति ।
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न्याय-दीपिका पर्यन्तं परस्परं प्रवर्तमानो वाग्व्यापारी वीतरागकथा' । तत्र' विजगीषुकथा वाद इति चोच्यते । केचिद्वीतरागकथा वाद इति कथयन्ति, तत्पारिभाषिकमेव। न हि लोके गुरुशिष्यादिवाग्व्यापारे यादव्यवहारः, विजिगीषुवाग्व्यवहार एव वादसिद्धेः); यथा स्वामिसमन्तभद्राचार्यः सर्वेसर्वथैवान्तवादिनो वादे जिता इति । तस्मिश्च वादे परार्थानुमानवाक्यस्य प्रतिज्ञा हेतुरित्यवयवद्वयमेवोपकारकम्, नोदाहरणादिकम् । तद्यथा-लिंगवचनात्मकेन हेतुना तावदवश्यं भवितव्यम्, लिङ्गज्ञानाभावेऽनुमितेरेबानुदयात् । पक्षवचनरूपया प्रतिज्ञयाऽपि भवितव्यम्, अन्यथाऽभिमतसाध्यनिश्चयाभावेसाध्यसन्देहवतः श्रोतुरनुमित्यनुदयात् । तदुक्तम्-"एतद्वय मेवानुमानाङ्गम् [परीक्षा ३.३७इति । अयमर्थ:-एतयोः प्रतिज्ञा
१ जयपराजयाभिप्राय रहिता तत्त्वजिज्ञासया नियमाणा तस्वचर्चा वीतरागकथा इति भावः । २ उभवामध्ये । ३ यथोक्तम्
प्रत्यनीकव्यवच्छेदप्रकारेणंव सिद्धये । वचनं साधनादीनां वारः सोऽयं जिगीषतोः ।। न्यायविका० ३८२ ।
४ नैयाधिकाः-'गादिभिः सह वाद: x x x गुवादिभिः सह वादोपदेशा.. यस्मादयं तत्त्व बुभुत्सुगुर्वादिभि: राह त्रिविधं (अनधिमततत्त्वावबोधग, संगनिवृत्तिम, अध्यचसिताभ्यभृज्ञानम् । फलमाकाङ्क्षन् वादं करोति ।'–न्यायवा० १० १४६ । यत्र वीलरामा वीतरागणव सह तत्त्वनिर्णयार्थं साधनोपालम्भी करोति सा नीताकया वादसंज्ञोच्यते ।' -न्यायसार पृ० १५ १ ५ कथनमात्रम्, न त वास्तधिकम् । ६ प्रतिज्ञाया प्रभावे 1 ७ एतद्द्यमेवानुमानाङ्ग नादाहरणम्' इत्युपलब्धसूत्रपाठः ।
I र 'सिद्धेः' पाठः । 2 व सर्वे' पाठो नास्ति ।
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३. परोम-प्रकाश
१ हेल्लोयमेवानुमानस्य परार्यानुमानस्याङ्गम् । वाद इति शेषः । एवकारेणावधारणपरेण गोदाहरणादिकमिति सूचित' भवति । 'व्युत्पन्नस्मैव हि वादाभिकारः, प्रतिज्ञाहेतुप्रयोगामात्रेणेवोदाहरणादिप्रतिपाद्यस्यास्य गम्यमानस्य व्युत्पन्नेन ज्ञातुं शक्यत्वात् । गम्यमानस्याऽप्यभिषाने पोनरुक्त्यप्रसङ्गादितिः ।
३५. 'स्यादेतत्, प्रतिक्षाप्रयोगेऽपि पीनरुक्त्यमेव, तदभिघयस्य पक्षस्यापि 'प्रस्तावादिना गम्यमानस्वात् । तथा च लिङ्गअचन लक्षणो हेतुरेक एवं वादे प्रयोक्तव्य' इति वदन् बोदपशुरात्मनो "दुर्विदग्धत्व4 मुद्घोषयति" ।' हे मात्रप्रयोगे व्युत्पास्यापि साध्यसन्देहानिवृत्तेः । तस्मादवश्यं प्रतिज्ञा प्रयोक्तव्या। तदुक्तम्-"साध्यसन्देहापनोदार्थ गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम्' परीक्षा ३-३४] इति । तदेवं वादापेक्षया परार्थानुमानस्य प्रतिज्ञाहेतुरूपमवयवद्वयमेव, न न्यूनं न चाधिमिति स्थितम् । "प्रपञ्चः पुनरक्यवविचारस्य पत्रपरीक्षायामीक्षणीयः ।
१ इतरव्यवच्छेदकेन । २ शापितम् । ३ वादकरणसमयस्यव वक्तुः । ४ वचने । ५ पुनर्वचनं पौनक्रयम् । ६ सौगत: शहते। ७ प्रतिज्ञायाः प्रतिपाद्यस्य । ५ प्रकरणव्याप्तिप्रदर्शनादिना । ६ प्रतिज्ञामन्तरेण केवलस्प हेतोरेव प्रयोगः करणीयः, 'हेतुरेव हि केवलः' इति धर्मकीतिवचनात् । १० जाडयम् ११ प्रकटयति ! १२ साध्यस्य सन्देहो न निवर्तते । १३ साध्यसंशनिवृत्त्यर्थम्। १४ विजिगीषुकथामाश्रित्य । १५ विस्तरः । १६ वृष्टव्यः ।
प प्रत्योः 'प्रतिमाहेतुमाने' इति पाठः । 2 में 'इति' नास्ति । 38 'वचन'नास्ति 14 पमु'दुर्विदापता' पाठः। 5 'नाधिक इति मु प्रतिपाठः ।
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न्याय-दीपिका । [वीतरागकथायामविकावयवप्रयोगस्यौचित्यसमर्थनम्]
३६. बीतरागकथायां तु प्रतिपाद्याशयानुरोधेन' प्रतिशाहेतू द्वाववयवी, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणानि यः, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाश्चत्वारः, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि वा पञ्चेति यथायोग2 प्रयोगपरिपाटी'। तदुक्तं कुमारनन्दिभद्दारकैः
"प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधत:"-[वादन्याय...] इति ।
तदेवं प्रतिज्ञादिरूपात्परोपदेशादुत्पन्नं' परार्थानुमानम् । रामाला
परोपदेशसापेक्ष साधनात्साध्यवेदनम्। श्रोतुर्यज्जायते सा हि परार्थानुमितिर्मता ॥[ ] इति ।
तथा च रवार्थ परार्थं चेति द्विविधमनुमानं साध्याविनाभाव. निश्चर्यकलक्षणाद्धेतोरुत्पद्यते ।
१ प्रतिपाद्याः शिष्यारतेषामाशयोऽभिप्रायरतदपेक्षया । २ परार्थानुमानवाक्यावयदवयनसमुदायः प्रयोगपरिपाटी । अत्राय भावः-वीतरागकथायामश्यवप्रवोगस्य न कश्चिन्नियमः, तत्र यावद्भिः प्रपोगः प्रतिपायो बोवनीयो भवति तावन्तस्ते प्रयोक्तव्याः । दृश्यन्ते खलु केचिद् द्वाम्यामवश्वाम्यां प्रकृतार्थ प्रतिपद्यन्ते, केचन थिभिरवयवः, अपरे चतुभिरवयवः, अन्ये पञ्चभिरवयवः, प्रत उक्तं 'प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोषतः' इति । अत एव च पगनुग्रहप्रवृत्त: शास्त्रकारः प्रतिपाद्यावबोधनदृष्टिभिस्तथैव प्ररूपणात् । व्युत्पन्न प्रजानां तु न तथा नियमः, तेषां कृते तु प्रतिज्ञाहेतुरूपाययवद्वयस्यैव पर्याप्तत्वादस्ति तादृनिममः । ३ ज्ञानम् । ४ साध्यज्ञानम् ।
{द 'वा' नास्ति । 2 म मु'यथायोग्य पाठः ।
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३. परोक्ष-प्रकापाः [बौद्धाभिमलत्ररूप्यहेतुलक्षणस्य निरासः] 5 ३७. इत्थमन्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुरनुमितिप्रयोजक इति 'प्रथितेऽप्याहते। मते तदेतदविनान्येऽन्यथाऽप्याहुः । तत्र तावत्ताथागताः 'पक्षधर्मत्वादित्रितयलक्षणाल्लिङ्गादनुमानोत्थानम्' इति वर्णयन्ति । तथा हि-पक्षधर्मत्वम्, सपक्षे सत्त्वम्, वि. पक्षाद्वधावत्तिरिति हेलोस्त्रीणि म्पाणि । तत्र साध्यधर्मविशिष्टो धर्मी पक्षः, यथा धुमध्वजानुमाने पर्वतः, तस्मिन् व्याप्य वर्तमानत्वं हेतोः पक्षधर्मत्वम् । साध्यसजातोयधर्मा धर्मी सपक्षः, यथा तव" महानसः तस्मिन् सर्वत्रकदेशे वा वर्तमानत्वं हेतोः सपक्षं सस्थम् । साध्यविरुद्धधर्मा धर्मी विपक्षः, यथा तत्रैव ह्रद:3, तस्मात्सर्वस्माद्
१ जनक इत्यर्थः । २ प्रसिद्ध । ३ सौगतादयः । ४ अरूप्यादिकम् । ५ अयमभिनायो बौद्धानान्–नान्यथानुपपत्तिनियमनिश्चयकलक्षणं साघनम्, अपि तु पक्षधर्मवादिरूपश्ययुक्तम्, तेनवासिद्धत्वादिदोषपरिहारात् । उक्तं च ।
हेलोस्त्रिावपि रूपेषु निर्णयस्तेन वर्णितः । प्रसिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविषमतः ॥
प्रमाणवा० १.१६ । 'हेतुस्त्रिरूपः । कि पुनम्त्ररूयम् पक्षधर्मत्वम्, सपक्षे सत्वम्, विपक्षे चासत्त्वमिति ।' न्यायप्रः पृ० १ । प्रश्न न्यायबिन्दुटी० पृ० ३१,३३ । वावन्याय० पृ.६० । तत्त्वसं० पृ. ४०४ इत्यापि दृष्टव्यम् । ६ घूमध्वजो वह्निः, धूमस्व तज्ज्ञापकत्वात् । ७ धूमध्दज्ञानुमाने । ८ हृदादिसर्वविपक्षात् ।
म मु 'अर्हतमते' पारः। 2 व प लक्षणलिङ्गा' इति पाठः। ३ मा म मु 'महाहृदः' इति पाठः ।
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न्याय-दीपिका
व्यावृत्तत्वं हेतोविपक्षाद् व्यावृत्तिः । तानीमानि त्रीणि रूपाणि मिलितानिः हेतोर्लक्षणम् । 'अन्यतमाभावे हेतोराभासत्वं स्यादिति ।
६३८. "तदसङ्गतम् ; कृत्तिकोदयादेहेतोरपक्षधर्मस्य' शकटोदयादिसाध्यगमकत्वदर्शनात् । तथा हि-शकटं मुहूर्तान्ते उदेअति कृत्तिकोदयादिति । अत्र हि-शकटं धर्मी1, मुहन्तिोदय:2 साध्यः, कृत्तिकोदयो हेतुः । न हि कृत्तिकोदयो हेतुः पक्षीकृते शकटे वर्तते, अतो न पक्षधर्मः । तथाप्यन्यानुपपत्तिबलाच्छकटोदयाख्यं साध्यं गमयत्येव' । तस्माद् बौखाभिमतं हेतोर्लक्षणमव्याप्तम्।
[नयायिकाभिमलपानरूप्यहेतुलक्षणस्य निरासः] ६३६. नैयायिकास्तु पाञ्चरूप्य हेतोर्लक्षणमाचक्षते । तथा हि१ विपक्षावृत्तित्त्वं विपक्षाद् व्यावृत्तिः। २ प्रोक्तस्पत्रयाणामेकैकापाये। ३ तन्नामको हेत्वाभासः स्यादिति भावः । तथा च पक्षधर्मस्वाभावेऽसिद्धत्वम्, सपक्षसत्त्वविरहे विरुद्धत्वम्, विपक्षापावृत्त्यभावे पानेकान्तिकस्वमिति । ४ ग्रन्थकारः समाधत्ते तसङ्गसमिति । ५ पक्षेऽवर्तमानस्य । ६ पक्षधर्मत्वाऽभावेऽपि । ७ किञ्च, 'उपरि वृष्टिरभूत्, अधोपूरान्यथानुपपत्तेः' इत्यादापि पक्षधमत्वं नास्ति तयापि गमकत्वं सर्वरभ्युपगम्यते, अन्यथानुपपत्तिसद्भावात् । मतः सैव हेतोः प्रधान लक्षणमस्तु ? कि - रूप्येग। ८ मन्याप्तिदोषदूषितम् । अपि च, 'बुद्धोऽसर्वशो वक्तृत्वादे रथ्यापुरुषवत्' इत्यत्र पक्षधर्मत्वादिष्पवयसद्भावेनातिव्याप्तम् ।
1 मुसकटः पक्ष:' पाठः । 2 म म 'मुहूर्तान्ते उदयः' पाठः ।
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२५
३. परोक्ष-प्रकाशः पक्षधर्मत्वम्, सपक्षे सत्त्वम्, विपक्षायावृत्तिः अबाधितविषयत्वम्, असत्प्रतिपक्षत्वं चेति पञ्च रूपाणि । 'तवाद्यानि' श्रीयुक्तलक्षणानि । साध्यविपरीतनिश्चायकप्रबलप्रमाणरहितत्वमबाधितविषयत्वम् । तादृशसमबलप्रमाणशून्यत्वमसत्प्रतिपक्षत्वम् । तद्यथा -पर्वतोऽयमग्निमान्, धूमवत्वात्, यो यो धूमवानसा।वसावग्निमान्, यथा महानसः, यो योऽग्निमान्न भवत्ति स धमवान्न भवति, यथा महाह्रदः, तथा चायं धूमवांस्तस्मादग्निमानेवेति । 'अत्र ह्यग्निमत्त्वेन माध्यधर्मेण विशिष्टः पर्वतास्यो धर्मी पक्षः, घूमवत्त्वं हेतुः । तस्य च तावत्पक्षधर्मत्वमस्ति, पक्षीकृते पर्वते वर्तमानत्वात् । सपक्षे सत्त्वमप्यस्ति, सपक्षे महानसे वर्तमानत्वात् । 'ननु केषुचित्सपक्षेषु धूमबत्त्वं न वर्तते, अङ्गारावस्थापनाग्निमत्सु प्रदेशेषु धूमाभावात्, इति चेत् ; म ; सपक्षकदेशवृत्तेरपि हेतुस्वात्, सपक्षे सर्वत्रकदेशे वा वृत्तिहेतो: सपक्षे सत्त्वमित्युक्तत्वात्। विपक्षायावृत्तिरप्यस्ति, धूमवत्त्वस्य सर्वमहाह्रदादिविपक्षव्यावृत्तेः । 'अबाधितविषयल्लमप्यस्ति, घूमवत्त्वस्य हेतोर्यों विषयोऽग्निमत्वास्यं साध्यं तस्य प्रत्यक्षादि प्रमाणाबाधितत्वात्। असप्रतिपक्षत्वमप्यस्ति, अग्निरहितत्वसाधकसमबलप्रमाणासम्भ
१ तेषु । २ पक्ष वर्मत्वादीनि । ३ वह्नयनुमाने । ४ घूमवत्त्वस्य । ५ यौगं प्रति परः शङ्कते नन्विति । ६ धूमवत्वै पक्षधर्मत्वादित्रयं समर्थ्याबाधितविषयत्वमसत्प्रतिपक्षत्वं चापि शेपरू पद्वयं समयति प्रकरणकारोबाधितेत्यादिना । ७ आदिपदादनुमानागमादिग्रहणम् । ८ न विद्यते
1 म मु प्रतिषु 'स स' इति पाठः । 2 मा म म "विपक्षावया' इति पाठः ।
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न्याय-दीपिका वात् । तथा च पाञ्चरूप्य1 सम्पत्तिरेव घूभवत्यस्य स्वसाध्यसापकत्वे' निबन्धनम् । एवमेव सर्वेषामपि' सखेतूनां रूपपञ्चकसम्पत्तिरूहनीया'।
४०. तदन्यतमविरहादेव खलु पञ्च हेत्वाभासा प्रसिद्धवि. रुद्धानकान्तिक-कालात्ययापदिष्टप्रकरणसमाख्याः सम्पन्नाः। तथा' हि-अनिश्चितपक्षवृत्तिरसिद्धः, यथा-'अनित्यः शन्दश्चाक्षुषत्वात्' । प्रत्र हि चाक्षुषत्वं हेतुः पक्षीकृते शब्दे न वर्तते, श्रावण स्वाच्छब्दस्य। तथा च पक्षधर्मविरहादसिद्धत्वं चाक्षुषत्वस्य । साध्यविपरीतव्याप्तो विरुद्धः, यथा-'नित्यः शब्दः कृतकत्यात्' इति । कृतकत्वं हेतु: साध्यभूतनित्यत्वविपरीतेनानित्यत्वेन 'व्याप्सः3, सपक्षे4 गगनादावविद्यमानोऽ विरुद्धः । “सव्यभिचारोऽनकान्तिकः, यथा-अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात्' इति । प्रमेयत्वं प्रतिपक्षो यस्म सोऽसत्प्रतिपक्षस्तस्य भावस्तत्त्वम. प्रतिद्वन्द्विहेतुरहितत्यमिस्यर्थः। न ह्यत्र 'पर्वतो नाग्निभान् अमुकत्वात्' इत्येवंभूतम्निरहितत्वसाधक किश्चित् समबलप्रमाणं वसंते । ततोऽसत्प्रतिपक्षत्वं घूमवस्वस्य ।
१ उक्तमेवोपसंहरति तथा चेति । २ स्वपदेन घुमवत्त्वं तस्य साध्यं लिस्तत्प्रसाषन । ३ कृतकत्वादीनाम् । ४ विचारणीया । ५ पक्षधर्मत्वादीनामेककापायात् । ६ सानेवोपदर्शयति । ७ न निश्चिता पक्षे वृत्तिर्यस्य सोऽसिदः । ८ 'साच्याद् (नित्यत्वादे.) विपरीतं यत् (मनित्यत्वादि) तेन सह व्याप्तो व्याप्तिमान् हेतुः स विस्लो हेवामास: 1 E नियमेन वर्तमानः । १. साध्यासस्वे हेतुसत्त्वं व्यभिचारस्तेन सहितः सन्यभिचारः। साध्याभावववृत्तिहेतुयेमिनारीत्यर्थः । 14 पञ्वरूप' पाठः। 2 मा प म म 'स्व' नास्ति । ३ म 'व्याप्तत्वात्' पाठः । 4 म 'सपने च' पाठः । 5 में 'वविद्यमानत्वात् पाठः ।
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३. परोक्ष-प्रकाशः हि हेतुः: साध्यभूतमनिस्यत्वं व्यभिचरति, गगनादौ विपक्षे नित्यत्वेनापि सह वृत्तः । ततो विपक्षायावृत्त्यभावादनकान्तिकः21 'बाधितविषयः 'कालात्ययापदिष्ट: । 'यथा--'अग्निरनुष्णः पदार्थत्वात्' इति । अत्र हि पदार्थत्वं हेतुः स्वविषयेऽनुष्णत्वे उष्णत्वग्राहकेण प्रत्यक्षेण बाधिते प्रवर्त्तमानोऽबाधितविषयत्वाभावात्कालात्ययापदिष्ट: । 'प्रतिसाधनप्रतिरुद्धोध हेतु: 'प्रकरणसम:, 'यथा--'अनित्यः शब्दो नित्यधर्मरहितत्वात् इति । अत्र
१ अनित्यत्वाभाववति । २ प्रत्यक्षादिना बाधितो विषयः सायं यस्य हेतोः स बाधितविषयः कालात्ययापदिष्टो नाम । ३ एतन्नामकश्चतुओं हेत्वाभासः। तथा चोक्तम्---'प्रत्यक्षापमविरुद्धः कालात्ययापदिष्टः । मवाधितपरपक्षपरिग्रहो हेतुप्रयोगकाल तमतीत्यासावपदिष्ट इति । अनुष्योऽग्निः कृतकत्वात् घटवदिति प्रत्यक्षविरुद्धः । प्राह्मणेन सुरा पेया द्रवद्रव्यस्वात् क्षीरवत् इत्यागमविरुद्धः ।'-यायकलि. पृ० १५ । ४ कालात्य. यापदिष्टमुदाहरति यति । ५ विरोधिसाधन प्रतिसाधनम्, तेन साध्य प्रस्मायनं प्रति रुद्धोऽसमर्थीकृतो यो हेतुः स प्रकरणसमो नाम पञ्चमो हेत्वाभासः । ६ जयन्तभट्टस्तु प्रकरणसममित्यं लक्षति—विशेषाग्रह्मात् प्रकरणे पक्षे संशयो भवति--नित्यः शब्दोऽनित्यः शब्दो वेति । तदेव विशेषाप्रणं प्रान्त्या हेतुत्वेन प्रयोज्यमानं प्रकरणसमो हेत्वाभासो भवति । प्रनित्यः शम्दो नित्यधर्मानुपलब्धेः घटवदिति, नित्यः शम्दोऽनित्यधर्मानुपलम्धेराकापावदिति । न बानमोरन्यतरदापि साधनं बलीयः मदिसरस्य बापकमुच्येत ।'-पायकलि. पृ० १५ । ७ असत्प्रतिपक्षापरनामप्रकरणसममुदाहरणद्वारा दर्शयति यति ।
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14 मा प्रत्योः 'हेतुः' नास्ति । 2 4 'कम्'। 3 विरुखो' पाठः ।
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न्याय-दीपिका
हि नित्यधर्मरहितत्वादिति हेतु: प्रतिसाधनेन प्रतिरुद्धः1 । कि तत्प्रतिसाधनम् इति चत; नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मरहितत्वादिति नित्यत्वसाधनम् । तथा नासत्प्रतिपक्षत्वाभावात्प्रकरणसमत्वं नित्यधर्मरहितत्वादिति हेतोः । तस्मात्पाञ्चरूप्यं हेतोलक्षणमन्यतमाभावे हेत्वाभासत्वप्रसङ्गादिति सुक्तम् । 'हेतुलक्षणरहिता हेतुवदवभासमाना: खलु हेत्वाभासाः । पञ्चरूपान्यतमगुन्यत्वाद्धेतुलक्षणरहितत्वम्, कतिपयरूपसम्पत्तहेतुवदवभासमानत्वम्' [ ] इति वचनात् ।
४१. सपि नयाचिमाभिमतमनुपम कृतिकोयत्य पक्षधर्मरहितस्यापि शकटोदयं प्रति हेतुत्वदर्शनात्पाञ्चरूप्यस्याव्याप्तेः ।
६४२. 'किञ्च, केवलान्वयिकेवलव्यतिरेकिणोर्हेत्वोः पाञ्चरूप्याभावेऽपि गमकत्वं तेरेवाङ्गीक्रियते । तथा हि-ते मन्यन्ते "त्रिविधो हेतुः-अन्वयव्यतिरेकी, केवलान्वयौ, केवलव्यतिरेकी
१ 'पहेतवो हेतुबदवभासमानाः हेत्वाभासा:-न्यायकलि• पृ० १४ । २ रूप्यवत्पाञ्चरूप्यमपि। ३ नंयायिकमतानुसारेणक पुनरब्याप्ति दर्शयति किम्वेति । ४ 'अन्वयी, व्यतिरेको, अन्वयव्यतिरेको चेति । तत्रात्वयव्यतिरेकी विवक्षिततज्जातीयोपपत्ती विपक्षावृत्तिः, यथा—अनित्यः बाब्द: सामान्यविशेषवत्त्वे सत्यस्मदादिवाकरणप्रत्यक्षत्वाद् घटवदिति । भन्वयी विवक्षिततज्जातीयवृत्तित्वे सति विपक्षहीनो, यथा सर्वानित्यत्वमादिनामनित्यः शब्दः कृतकल्लादिति । अस्य हि विपक्षो नास्ति । व्यतिरेकी विवक्षितव्यापकत्वे सति सपक्षाभावे सति विपक्षावृत्तिः, यथा नेदं जीवच्छरीरं निरात्मकमप्राणादिमस्वप्रसङ्गादिति-न्यायवा० पृ० ४६ ।
1 रविरुषः पाठः।
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३. परोक्ष-प्रकाश:
देति । जल पासपोहोकार निदेशी गथा-'शब्दोऽनित्यो भवितुमर्हति कृतकत्वात्, यद्यत्कृतकं तत्तदनित्यं यथा घटः, यद्यदनित्यं न भवति तत्तत् कृतकं न भवति। यथाऽऽकाशम्, तथा चायं कृतकः, तस्मादनित्य एवेति'। अत्र शब्द 'पक्षीकृत्यानित्यत्वं साध्यते । तत्र कृतकत्वं हेतुस्तस्य पक्षीकृतशब्दधर्मत्वात्पक्षधर्मत्वमस्ति । सपक्षे घटादो वर्तमानत्वाद्विपक्षे गगनादवदर्तमानत्वादन्वयव्यतिरेकित्वम् ।
४३. पक्षसपक्षवृत्तिविपक्षरहितः केवलान्वयी । यथा-'प्रदष्टादयः कस्यचित्प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात्, यद्यदनुमेयं तत्तत्कस्यचित्प्रत्यक्षम्, यथाऽनन्यादि' इति । अत्रादृष्टादयः पक्षः, कस्यचित् प्रत्यक्षत्वं साध्यम्, अनुमेयत्वं हेतुः अग्न्याद्यन्वयदृष्टान्त: । अनुमेयत्वं हेतुः पक्षीकृतेऽदृष्टादौ वर्तते, सपक्षभूतेऽग्न्यादौ वर्तते । तत: पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं चास्ति । विपक्षा: पुनरत्र नास्त्येव, सर्वस्यापि पक्षसपक्षान्तर्भावात्तस्माद्विपक्षाद्वपावृत्तिर्नास्त्येव । 'व्यावृत्तेरवधिसापेक्षत्वात्, अवधिभूतस्य च विपक्षस्थाभावात् । शेषमन्वयव्यतिरेकिवद् द्रष्टव्यम् ।
१ मिणं कृत्वा । २ श्यावृत्तिब यघिमपेक्ष्य भवति, अवधिकच विपक्षः, स पात्र नास्त्येव । ततोऽवधिभूतयिपक्षाभावान्न विपक्षच्यावृष्टि केवलान्वयिनि हेताविति भावः ।
1 मा 'यत्कृतकं तदनित्यं यथा घटः मदनित्यं न भवति तत्कृतकं न भवति' इति पाठः । 2 व पक्षान्तर्भावा-' पारः ।
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न्याय-दीपिका
$ ४४. पक्षवृत्तिविपक्षव्यावृत्तः सपक्षरहितो हेतुः केवलव्यतिरेकी । यथा-'जीवच्छरीर सात्मकं भवितुमहति प्राणादिमत्त्वात्, यद्यत्सात्मक न भवति तनप्राणादिमन्न भवति यथा लोष्ठम् इति । अत्र जीवच्छी पक्षः, सात्मकत्वं साध्यम्, प्राणादिमत्त्वं हेतः, लोष्ठादिय॑ तिरेक दृष्टान्तः । प्राणादिमत्त्वं हेतु: पक्षीकृते जीवच्छरीरे वर्तते। विपक्षाच्च लोलादेविनते । सपक्षाः पुनरत्र नास्त्येव, सर्वस्यापि ! पक्षविपक्षान्तर्भावादिति । शेषं पूर्ववत् ।
६सामशेष नमाण हेतुना मोऽन्वयध्यतिरेकिण एव पाञ्चलप्यम्, केवलान्वयिनो विषनव्या2वृनेरभावात्, केवलव्यतिरेकिणः सपक्षे3 सत्त्वाभावाच्च नैयापिकमतानुसारेणैव पाञ्चरूप्यव्यभिचारः । अन्यथानुपपत्तेस्तु सर्वहेतुभ्याम्तत्वाद्धेतुलक्षणत्वमुचितम्, तदभावे हेतोः स्वसाध्यगमकत्वाघटनात् ।।
४६. यदुक्तम्-'असिद्धादिदषपञ्चकनिवारणाय पञ्चरूपाणि [ ] इति, तन्न; अन्यथानुपपत्तिमत्त्वेन निश्चितत्वस्यवास्मदभिमतलक्षणस्य 'तनिवारकत्व सिद्धेः । 'तथा हिसाध्यान्यथानुपपत्तिमत्त्वे सति निश्चयपथप्राप्तत्वं खलु हेतोर्लक्ष
१ अत्र व्यभिचारपदेनाध्याप्तिदोषो विवक्षितः । २ अन्यथानुपपत्तेरभावे 1 ३ प्रसिद्धादिदोषव्यवच्छेदकत्व प्रसिद्धः । ४ ननु कथमेकेनान्यथानुपपत्तिलक्षणेनासिद्धादिपञ्चहेत्वाभासानां निराकरणम् ? इत्यत पाह तपा हीति ।
1 द 'पक्षान्त --' 12 ा प म मु 'विपक्षव्यावृत्यभावात' 3 मु 'सपक्षसत्वाभाषात्'।
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गा-प्रकार
णम्, “पाध्याबिनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः" [परीक्षा० ३.१५] इति वचनात् । न 'चैतदसिद्धस्यास्ति । शब्दानित्यत्वसाधनायाभिप्रेतस्य चाक्षुषत्वादे: स्वरूपस्य वाभावे कुतोऽन्यथानुपपत्तिमत्वेन निश्चयपथप्राप्तिः ? ततः साध्यान्यथानुपपतिमत्त्वेन निश्चयपथप्राप्त्यभावादेवास्य हेत्वाभासस्वम्, न तु पक्षधर्मत्वाभावात्, 'अपक्षधर्मस्यापि कृत्तिकोदयादेर्यथोक्त लक्षणसम्पत्तेरेव सखेतृत्वप्रतिपादनात् । विरुवादेस्तवभाव:' स्पष्ट एव । न हि विरुद्धस्य व्यभिचारिणो वाभि निपयस्य सत्मलिष्क्षम्य वाय. थानुपपत्तिमत्वेन निश्चयपथप्राप्तिरस्ति । तस्माद्यस्यान्यथानुपपत्तिमत्त्वे सति योग्यदेशनिश्चयपथप्राप्तिरस्तीति स एव सबेतुरपरस्सदाभास इति स्थितम् ।
७. किंच', 'गर्भस्थो मैत्रीतनयः2 श्यामो भवितुर्महति, मंत्रीतनयत्वात, सम्प्रतिपनमंत्रीतनयवत्' इत्यत्रापि श्रेसप्य
१ साध्यान्यथानुपपत्तिमत्वे सति निश्चयपथप्राप्तत्वम् । २ 'शब्दोऽनित्यपचाक्षुषत्वात्' इत्यत्र शन्देऽनित्यत्वसाधनाय प्रयुक्तस्य चाक्षुषत्वहेतोः स्वरूपत्वमेव नास्ति । यतो हि शब्दस्य श्रोत्रग्राह्यत्वम्, न तु चाक्षुषत्वम् । मतो न चाक्षुषत्वादेरन्ययानुपपन्मत्वम् । तदभावादेब चास्यासिद्धत्वमिति नेयम् । ३ पक्षधर्मरहितस्य । ४ साध्यान्यथानुपपत्तिमरवे सति निश्चयपथप्राप्तत्वलक्षगसद्भावावेव। ५साध्यान्यथागुपपत्तिमस्वे सति निश्चयपथप्राप्तस्वाभावः । ६ रूप्पपाञ्चलप्ययोरतिव्याप्तिप्रदर्शनार्थमाह किम्वेत्यादि ।
1 प्रतौ 'वा' स्थाने 'च' पाठः। 2 मार प्रत्योः सर्वत्र 'मैन' स्थाने 'मैत्री' शब्दः प्रयुक्तः । जनतभाषायां (पृ. १८) स्त्रीलिङ्गवाचको "मित्रा' शम्दः प्रयुक्तः ।
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न्याय-दीपिका
पाञ्चाप्ययोबौद्ध-योगाभिमतयोरतिव्याप्तेरलक्षणत्वम् । तथा हि-परिदृश्यमानेषु पञ्चसु मैत्रीपुत्रेषु श्यामतामुपलभ्य तद्गर्भगतमपि। विवादापन पक्षीकृत्य श्यामत्वसाधनाय प्रयुक्तो मैत्रीतनयत्वाख्या हेतुराभास इति तावत्प्रसिद्धम्, अश्यानत्वस्थापि तत्र सम्भावितत्वात्। तत्सम्भावना च श्यामत्वं प्रति मैत्रीतनयत्वस्यान्यथानुपपत्त्यभावात्' । 'तदभावाश्च सहक्रमभावनियमाभावात् ।
४८. यस्य हि? धर्मस्य येन धर्मेण सहभावनियमः स तं गमयति । यथा शिशरात्वस्य वृक्षत्वेन सहभावनियमोऽस्तीति शिशपात्वं हेतुर्वक्षत्वं गमयति । यस्य च3 क्रमभावनियमः स तं ममयति । यथा धूमस्याग्न्यनन्तरभावनियमोऽस्तीति धूमोनि गमयति 1 "न हि मैत्रीतनयत्वस्य हेतुत्वाभिमतस्य श्यामत्वेन साध्यत्वाभिमतेन सहभावः क्रमभावो वा 4नियमोऽस्ति, येन मैत्रीतनयत्वं हेतुः श्यामत्वं साध्यं गमयेत् ।।
१ लक्षणाभासत्वम् । २ मैत्रीगर्भस्थम् । ३ असद्धेतुः । ४ गर्भस्थे मैत्रीतनये । ५ न हि श्यामत्वेन सह मैत्रीतनयत्वस्यान्यथानुपपत्तिरस्ति, गौरत्वेनापि तस्य वृत्तिसम्भवात् । ६ अन्यथानुपपत्त्यभावः, अन्यथानुपपत्तिरविनाभावः । स च द्विविधः-सहभावनियमः क्रमभावनियमश्च । तदेतद्द्विविधस्याप्यवाभावादिति भावः । ७ ननु मंत्रीतनयत्वस्य श्यामत्वेन सहभावः क्रमभावो वा नियमोऽस्तु, तथा च मंत्रीतनयत्वं श्यामत्वं गमयेदेव इत्याशायामाह नहोत्यादि ।
1 द प प्रा तद्भार्यागर्भगतमपि' पाठः । 2 दहि' नास्ति । 3 मा म 'यस्य यत्क्रमभावनियमः' / 'यस्य येन क्रम...'। 4 मा पम प्रतिषु 'नियतो' पाठः ।
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३. परोक्ष-प्रकाशः ४६. यद्यपि सम्प्रतिपन्नमंत्रीपुत्रेषु श्यामत्वमैत्रीतनयत्वयोः सहभावोऽस्ति तथापि नासो नियतः । मंत्रीतनयत्वमस्तु श्यामत्वं भाऽस्तु इत्येवंरूपे विपक्षे बाघकाभावात् । विपक्षे बाफप्रमाण. बलात्खलु हेतुसाध्ययोाप्तिनिश्चयः1 । व्याप्तिनिश्चयतः सहभावः क्रममावो वा । “सहक्रममावनियमोऽविनाभावः" [परीक्षा ३-१६] इति वचनात् । 'विवादाध्यासितो वृक्षो भवितुमर्हति शिशपात्यात् । या या शिशपास स वृक्षः, यथा सम्प्रतिपन्न इति। प्रत्रहि हेतुरस्तु साध्यं मा भूदित्येतस्मिन् विपक्षे सामान्य-विशेषभावभङ्गप्रसङ्गोगामि वृक्षत्वं हिमाद्विशेष! न हि विशेष: सामान्याभावे सम्भवति। न चवं मंत्रीतनयत्वमस्तु श्यामत्वं माऽस्तु इत्युक्ते किञ्चिबाधकमस्ति । तस्मान्मैत्रीतनयत्वं हेत्वाभास एव । तस्य2 तावत्पक्षधर्मत्वमस्ति, पक्षीकृते
१ नियमेन वर्तमानः । २ व्यभिचारशङ्कायाम् । ३ तन्निवर्तकानुकूलतर्काभावात् । अवायम्भाव: 'हेतुरस्तु साध्यं माऽस्तु' इत्येवं व्यभिचारशङ्कायां सत्यां यदि तन्निवत्तक 'यदि साध्यं न स्यासहि हेतुरपि न स्यात् वह्वयमावे घूमाभाववत्' इत्येवंभूतं विपक्षनाषक प्रमाणमस्ति तदाऽसौ हेतुः सद्धेतुर्भवति, विपक्षबाषकप्रमाणाभावे च न सहेतुः, तथा च 'मैत्रीसनयस्वमस्तु श्यामत्वं मास्तु' इत्यत्र ग्यामत्वाभावे मैत्रीसनयत्वस्यासत्वापादने न खलु यदि श्यामस्व न स्यात्तहि मंत्रीतनयत्वमपि न स्यात्' इत्येसंभूतं किञ्चिद्विपक्षवाषक वर्तते, यतः गर्भस्थे मैत्रीतनये मैत्रीतनयत्वस्य सत्त्वेऽपि श्यामत्वस्य सन्दिग्धत्वादिति । ४ पूर्वोक्तमेव स्पष्टयति विवावाम्यासित्तेत्यादिना ।
नियमः। 24 'तत्र तावत्प' पाठः ।
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न्याय-दीपिका गर्भस्थे तत्सद्भावात् । सपक्षेषु सम्प्रतिपन्नपुत्रेषु। तस्य विधमानस्वात्सपक्षे सत्त्वमप्यस्ति । विपक्षेभ्यः पुन रश्यामेभ्यश्चत्रपुत्रेभ्यो व्यावर्त्तमानत्वाद्विपक्षाद्वयावृत्तिरस्ति। 'विषयबाधाभावादबाधितविषयत्वमस्ति । न हि गर्भस्थस्य श्यामत्वं केनचिद् बाध्यते । प्रसत्प्रतिपक्षत्वमप्यस्ति, प्रतिकूलसमबलप्रमाणाभावात् । इति पाश्चरूप्यसम्पत्तिः । —रूप्यं तु'सहस्रशतन्यायेन2 सुतरां सिद्धमेव।
[अन्यथानुपपन्नत्वमेव हेतोलक्षणमित्युपपादनम् । ५८. ननु च न पाञ्चरूप्यमानं हेतोर्लक्षणम् । किं तहिं ? "अन्यथानुपपत्त्युपलक्षितमेव लक्षणमिति3 चेत् तर्हि संवैका तल्लक्षणमस्तु4 'तदभावे पाञ्चरूप्यसम्पत्तावपि मैत्रीतनयत्वादी न हेतुत्वम् । तत्सद्भावे पाञ्चरूप्याभावेऽपि कृत्तिकोदयादी हेतुस्वमिति । तदुक्तम्
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र प्रयेण किम् ।। नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥
[ ] इति बौखान प्रति । १ गोरेभ्यः । २ विषयः साध्यम्, तच्चात्र श्यामस्वरूपम्, तस्य प्रत्यक्षादिना बाधाभावात् । ३ यथा सहस्र शतमायात्येव तथा मैत्रीतनयत्वेपाचरूप्यप्रदर्शिते रूप्यं प्रदर्शितमेवेति बोध्यम् । ४ अन्यथानुपपत्तिविशि ष्ट मेन पाञ्चरूप्यं हेतोलक्षणमित्यर्थः । ५ अन्मयानुपपत्तिरेवान्यनिरपेक्षा ६ कारणमाह तवभावे इति, तथा च हेतोः स्वसाध्यगमकत्वे अन्यथानुपपन्नामेव प्रयोजकम्, न रूप्यं न च पाश्चरूप्यमिति ध्येयम्। ७ कारिफेयं
] म 'सम्प्रतिपन्नेषु' 12 प्रा मु 'सहस्र शतन्यायेन'। 3 मु 'अन्यभानुपपत्त्युपलक्षणमिति' पाठः । 4 ए 'सवैकान्ताल्लक्षणमस्तु' पाठः । म [ष- 'सबैकान्तलक्षणमस्तु' इति पाठः ।
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३. परोक्ष-प्रकाशः
F५१. योगी प्रति तु
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः । मान्यथानुपपाय व मप्रति गमिः ।।
[प्रमाणपरी० पृ० ७२] इति । [हेतुं विधिप्रतिषेधरूपाम्यां द्विघा विभज्य तयारवान्तर भेदानां कथनम्]
५२. 'सोऽममन्यथानुपपत्तिनिश्चयैकलक्षणों हेतुः संक्षेपतो द्विविधः—'विधिरूपः, प्रतिषेधरूपश्चेति । विधिरूपोऽपि द्विविधःविधिसाधकः प्रतिषेधसाघकश्चेति । तत्राद्योऽनेकधा । तद्यथाकश्चित्कार्यरूपः, यथा-'पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्त्वान्यथानुप• पत्तेः' इत्यत्र घूमः । धूमो ह्यग्नेः कार्यभूतस्तदभावे'ऽनुपपद्यमानोऽग्नि गमयति । कश्चित्कारणरूपः, यथा--'वृष्टिभविष्यति तत्त्वसंग्रहकृता पात्रस्वामिकतुं का निर्दिष्टा । सिद्धिविनिश्चयटीकाकृता तु भगवत्सीमन्धरस्वामिनः प्रदर्शिता । न्यायविनिश्चयविवरणे आराधनाकथाकोशे च भगवत्सीमन्धरस्वामिसकाशादानीय पद्मावतीदेव्या पानस्वामिने समर्पितेति समुल्लिखतम् । समुद्धता च निम्नग्रन्थेषु___ तत्त्वसं० पृ० ४०६, न्यायविनि० का० ३२३, सिद्धिविनि० टी० २, पृ० ३७२, धवला पु. १३, पृ. २४६, तत्त्वार्थश्लो० पृ. २०३, २०५ । प्रमाणप० पृ० ७२, जनतर्फवात्तिक पृ. १३५, सूत्रकृताङ्गटी० पृ० २२५, प्रमाणमी पृ० ४०. सन्मतिटी० पृ. ५६०, स्मा० रत्ना. पृ० ५२१, इत्थं यं कारिका जैनपरम्परायां सर्वत्र प्रतिष्ठिता ।
१ हेतुलक्षणं विस्तरतः प्रदर्याधुना तत्प्रकारनिरूपणार्यमाह सोऽयमिति। २ सद्भावात्मकः । ३ विधिसाधकः। ४ भग्न्यभावे । ५ अनुपपन्नः ।
1 मुद्रितप्रतिषु 'यौगान्' इति पाठः ।।
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न्याय-दीपिका
'विशिष्टमेघान्यथानुपपत्तेः' इत्यत्र मेघविशेष: । मेघविशेषो हि वर्षस्य कारणं स्वकार्यभूतं वर्ष गमयति ।
६५३ 'ननु कार्य कारणानुमापकमस्तु, कारणाभावे कार्यस्यानुपपत्तेः । कारणं तु कार्याभावेऽपि सम्भवति, यथा-घूमाभावेऽपि
१ यथा चोक्तम्'गम्भीरगाँजतारम्भनिभिन्नगिरिगह्वराः । स्वङ्गतडिल्लतासङ्गापिसङ्गोत्तुङ्गविग्रहाः ॥'-न्यायम० पृ.१२६ । 'रोलम्बगवसण्यालतमालमलिनस्विषः (तमसन्निभाः) ।
ष्टि व्यभिचरतोह नैवंप्राया. पयोमुचः ।।-षड्दर्श० २० । ईदृशाः खलु विशिष्टमेधा वृष्टि गमयन्त्येत्रेति भाव: ।
२ सौगतः शङ्कते नन्विति, तेषामयमाशयः--नावश्यं कारणानि कार्य वन्ति भवन्तीति नियमः, अतश्च कारणं न कार्यस्य गमकं व्यभिचारात्, कार्य तु कारणसत्त्वे एव भवति तदभावे च न भवति, अतस्तत्तु गमकमिष्टम्; तन्न युक्तम् 'यथव हि किञ्चित् कारणगुद्दिश्य किञ्चत्कार्यम्, तर्थव किञ्चित् कार्यमुद्दिश्य किश्चित् कारणम् । यद्वदेवाजनक प्रति न कार्यत्वम्, तद्वदेवाजन्यं प्रति न कारणमिति नानयोः कश्चिद्विशेषः । अपि च रसादेकसामप्रयनुमानन रूपानुमानमिच्छता न्यायवादिनेष्टमेव कारणस्य हेतुत्वम् । यदाह
एकसाममधीनस्य रूपादे रसतो गतिः । हेतुधर्मानमानेन घूमेन्धनविकारवत् ।।
(प्रमाणवा० १-१०) न च ममपि यस्य कस्पचित् कारणस्म हेतुत्वं झूमः । अपि तु मस्य न मन्त्रादिना शक्तिप्रतिबन्धो न वा कारणान्तरबैंकल्यम् ।'-प्रमाणमीर
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३. परोक्ष-प्रकाश: सम्भवन बह्निः सुप्रतीतः । अत एव वह्निर्न घूमं गमयतीति चेत् तन्न; उन्मीलितशक्तिकस्य' कारणस्य कार्यान्यभिचारित्वेन कार्य प्रति हेतुत्वाविरोधात् ।
५४. कश्चिांद्वशेष पर, चां-वृक्षोऽय शशास्वान्यथानुपपत्तेरित्यत्र [शिशपा] । शिशपा हि वृक्षविशेषः सामान्यभूतं वृक्षं गमयति । न हि वृक्षाभावे वृक्षविशेषो घटत इति । कश्चित्पूर्वचरः, यथा-उदेष्यति सकट कृत्तिकोदयान्यथानुपपत्तेरित्यत्र कृत्तिकोदयः। । कृत्तिकोदयान्तरं मुहूर्तान्ते नियमेन शकटोदयो जायत इति कृत्तिकोदयः पूर्वचरी हेतु: शकटोदयं गमयति । कश्चिदुत्तरचरः, यथा-उदगाद्भरणि: प्राक्, कृत्तिकोदयादित्यत्र कृत्तिकोदयः । कृत्तिकोदयो हि भरण्युदयोत्तरचरस्तं गमयति । कश्चित्सहचरः, यथा-मातुलिङ्गं रूपवद्भवितुमर्हति रसवत्त्वान्यथानुपपत्तेरित्यत्र रसः । रसो हि नियमेन रूपसहचरितस्तदभावेऽनुपपद्यमानस्तद् गमयति ।
१-२--१२ । 'रसादेकसामग्रघनुमानेन रूपानुमानमिच्छद्विरिष्टमेव किषित कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबन्ध-कारणान्तरावैकल्ये।' -परीक्षामु. ३...६ । किञ्च, अस्त्यत्र छाया छत्रादित्मादी छत्रादेविशिष्टकारणस्य छायादिकार्यानुमापकत्वेन हेतुत्वमवश्यं स्वीकार्यमस्ति । ततो न कारणहेलोपनवः कर्तुं शक्य इति भावः ।
१ प्रकटितसामर्थ्यस्य । २ विशेषो व्यायः ।
1 व 'कृत्तिकोदयः' नास्ति ।
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न्याय-दीपिका
५५. एतेषूदाहरणेषु भावरूपानेवाग्न्यादीन् साधयन्तो धमादयो हेतवो भावरूपा एवेति विधिसाधक-विधिरूप: एता एवा विरुद्धोपलब्धय इत्युच्यन्ते । एवं विधिरूपस्य हेतोविषिसाधकाख्य प्रायो भेद उदाहृतः ।
५६. द्वितीयस्तु निषेधसाधकाख्यः, विरुखोपलब्धिरिति तस्यैव नामान्तरम् । स यपा-नास्य मिथ्यात्वम्, आस्तिक्यान्यथानुपपत्तरित्यत्रास्तिश्यम् । प्रास्तिक्यं हि सर्वज्ञवीतरागप्रणीतजीवादितस्वापरुचिलक्षणम् । तन्मिथ्यात्ववतो न सम्भवतीति मिथ्यात्वामावं साधयति । यथा वा, नास्ति वस्तुनि सर्वथैकान्तः, भनेकान्तात्मकत्वान्यथानुपपत्तरित्यत्रानेकान्तात्मकत्वम2 । प्रनेकान्तारमकत्वं हि पस्तुन्यबाधितप्रतीतिविषयत्वेन प्रतिभासमान सौनसर्मपरिकल्पितसर्वकाम्साभावं साधयत्येव ।
६५७. 'ननु किमिदमनेकान्तात्मकत्वं यद्वलाद्वस्तुनि सर्वथैकान्ताभावः साध्यते इति चेत् ; उच्यते ; सर्वस्मिन्नपि जीवादिवस्तुनि भावाभावरूपत्वमेकानेकरूपत्वं नित्यानित्यरूपस्वमित्येवमादिकमनेकान्तात्मकत्वम् । एवं विधिरूपो हेतुर्दशितः।
१ साध्यं साधनं चोभयमपि सनावात्मकम् । प्रत एवोरिलखिता हेतवो विषिसायक-विषिरूपा इति कथ्यते । २ अविरुदेन साध्येन सहोपलम्पन्द्र इस्पविरुद्धोपलब्धयः । ३ एकान्तवादी शकते मन्विति। ४ हेतोसभेदयोविधि-प्रतिषेषरूपयोविषिल्पः प्रथमभेदः । ५ व्याख्यातः ।
14प 'मत' पाठान्तरम् । 21 हेतुः' इत्यधिको पाठः ।
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३. परोक्ष प्रकाश ५८. सिन्धर पोऽपित के ... विधिशावल, नि. षेधसाधकश्चेति। तत्राद्यो यथा, अस्त्यत्र प्राणिनि सम्यक्त्वं विपरीताभिनिवेशाभावात् । अत्र विपरीताभिनिवेशाभावः प्रतिषेधरूपः सम्यक्त्वसद्भाव साधयतीति प्रतिषेधरूपो विधिसाधको हेतुः ।
६. ५६. 'द्वितीयो यथा, नास्त्यत्र' धूमोऽग्न्यनुपलब्धेरित्य आग्न्यभावः प्रतिषेधरूपो धूमाभावं प्रतिषेधरूपमेव साधयतीति प्रतिषेधरूपः प्रतिषेधसाधको हेतुः । तदेवं विधिप्रतिषेधरूपतया द्विविधस्य हेतोः 'कतिचिदवान्तरभेदा उदाहृताः । विस्तरतस्तु परीक्षामुखतः प्रतिपत्तव्या:2 । इत्थमुक्तलक्षणा" एव3 हेतवः साध्यं गमयन्ति । "नान्ये, हेत्वाभासत्वात् ।
[हेत्वाभासानां चातुविध्यमुक्त्वा तेषां निरूपणम्] ६०. "के ते हेत्वाभासा: इति चेत् ; उच्यते; हेतुलक्षण१ हेतोदितीयभेदं प्रदर्शयति प्रतिषति । २ विधि सद्भावं साधयतीति विधिसाधकः । ३ प्रतिषेधमभावं साधयतीति प्रतिषेधसापकः । ४ सम्यक्त्वस्य विपरीतं मिथ्यात्वं तस्याभिनिवेशो मिथ्यकान्ताग्रहस्तदसस्वात् । मिथ्यात्वाभिनिवेशाभावो हि नियमेन जीवे सम्यक्त्वास्तित्वं साधपति, इति भावः । ५ प्रतिषेधसाधको हेतुः । ६ अस्मिन्प्रदेशे । ७ कतिपयाः प्रभेदाः । + उदाहरणद्वारा प्रदर्शिताः । ६ अत्र परीक्षामुखस्य ३-५६ सूत्रमारम्प ३-६२ पर्यन्तसूत्राणि द्रष्टव्यानि । १० अन्यथानुपपरस्वविशिष्टाः । ११ अन्यथानुपपत्तिविरहिताः । १२ हेत्वाभासान प्रदर्शयति के से, इति ।
1 म 'प्रतिषेधरूप:'। 24 प्रतो 'प्रतिज्ञातव्याः' इति पाठ: 3 मप मा म प्रतिषु 'एव' पाठो नास्ति ।
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ध्याय-दीपिका रहिता हेतुवदवभासमाना हेत्वाभासाः । ते चतुविधा:-प्रसिद्धविरुद्धानकान्तिकाकिञ्चित्करभेदात् । 'तत्रानिश्चयपथप्राप्तोऽसिद्धः । अनिश्चयपथप्राप्तिश्च हेतोः स्वरूपाभावनिश्चयात् स्वरूपसन्देहाच्न । स्वरूपाभावनिश्चये स्वरूपासिद्धः, स्वरूपसन्देहे सन्दिग्धासिद्धः । तत्राद्यो यथा-परिणामी शब्द: चाक्षुषत्वादिति । शब्दस्य हि श्रावणत्वाच्चाक्षुषत्वाभावो निश्चित इति स्वरूपासिजश्चाक्षुषत्वहेतु: । द्वितीयो यथा, धूमवाष्पादिविवेकानिश्चये कश्चिदाह-'अग्निमानयं प्रदेशो धूमवत्त्वात्" इति । अत्र हि धूमवत्त्वं हेतुः सन्दिग्धासिद्धः, तत्स्वरूपे सन्देहात् ।।
१ तदुक्सं श्रीमद्भट्टाकलङ्कः
अन्यथानुपपरवरहिता ये विम्मिताः । हेतुत्वेन परस्तेषां हेत्वाभासत्वमीक्ष्यते ।।
प्यायवि० का० ३४३ । २ तथा चोक्तम्-'हेत्वाभासा प्रसिद्धविरुद्धानकान्तिकाकिञ्चित्कराः।' -परीक्षा० ६-२१ । एतेषां संक्षेपलक्षणानि
स विरुद्धोन्यथाभावावसिनः सर्वधाप्रत्ययात् ॥ व्यभिचारी विपक्षेऽपि सिऽकिञ्चित्करोऽखिला।
प्रमाणसं० का ४८, ४९ ३ हेत्वामासानां चतुर्भे देषु प्रथमोद्दिष्टमसिद्ध लक्षयति तत्रेति । ४ मदुक्तं श्रीमाणिपयनन्विभिः-'अविद्यमानसत्ताक: (स्वरूपासिद्धः) परिणामी शब्दश्चाक्षुषत्वात् ।'-परीक्षा० ६-२३ । ननु कुतोऽस्य चाक्षुषत्वहेलोरांसद्धस्वमिति चेत्तदप्याह 'स्वरूपेणासरवात्'-परीका ६-२४ इति । ५ उफ्तम्च परीक्षामुखकृता-'अविद्यमाननिश्चयो (सन्दिग्पासिद्धः)
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३. परोक्ष-प्रकाशः
६१. साध्यविपरीतव्याप्तो हेतु । विरुद्धः । यथाऽपरिणामी
परिणामित्वविरोधिना परि
शब्दः कृतकत्वादिति । कृतकत्वं
१०१
णामित्वेन व्याप्तम् ।
६२. पक्षसपक्ष विपक्षवृतिरनैकान्तिकः । स द्विविध:निश्चित विपक्षवृत्तिकः शङ्कितविपक्षवृत्तिकश्च । तत्राद्यो यथा, धूभवानयं प्रदेशोऽग्निमत्त्वादिति । श्राग्निमत्त्वं पक्षीकृते सन्दिमानधूमे पुरोवर्तिनि प्रदेशे वर्त्तते, सपक्षे धूमवति महानसे च2 वर्तते, विपक्षे घूमरहितत्वेन निश्चितेऽङ्गारावस्थापश्नाग्निमति प्रदेश वर्त्तते इति निश्चयान्निश्चित विपक्ष वृत्तिकः । द्वितीयो यथा
1
मुग्धबुद्धि प्रत्यग्निरन घूमात्' इति । तस्य वाष्पादिभावेन भूतसङ्घाते सन्देहात् परीक्षा० ६-२६ ।
१ 'साध्याभावव्याप्ती हेतुविरुद्धः । यथा - शब्दो नित्यः कृतकस्बादिति । कृतकत्वं हि नित्यत्वाभावेनाऽनित्यत्वेन व्याप्तम्सर्कसं० पृ० ११२ विपरीत निश्चिताविनाभावो विरुद्धोऽरिणामी शब्दः कृतकत्वात्'–परीक्षा० ६ २६ । २ यः स्वोत्सी परव्यापारमपे
सकृनक उच्यते । शब्दोऽपि साल्वादिपरिस्पन्दव्यापारमपेश्य जन्यते । अतस्तस्य कृतकत्वं सुब्यक्तमेव । यच्च कृतकं सरगरिणामि दृष्टं यथा घटपटादि तथा चात्र कृतकत्वं साध्यभूतापरिणामित्वविपरीतेन परिणा मित्वेन सह् व्याप्तत्वाद्विरुद्धमिति भावः । ३ 'विपक्षेऽप्यविरुद्धवृतिरनेकान्तिक: ' -- परीक्षा० ६-३० । ४ उदाहरणान्तरम् - निश्चितवृत्तिरनित्यः शब्द: प्रमेयत्वात् घटवत् - - परीक्षा० ६ ३१ । 'आकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयात् परीक्षा ६-३२ ।
1 प म सु 'हेतुः' नास्ति ।
2 व 'च' नास्ति ।
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१०२
न्याय-दीपिका गर्भस्थो मैत्रीतनयः श्यामो भवितुमर्हति मैत्रीतनयत्वादितरतत्तनयवदिति । अत्र मैत्रीतनयत्वं हेतु: पक्षीकृते गर्भस्थे वर्तते, सपक्षे इतरतत्पुत्रे वर्तते, विपक्षे अश्याम वर्ततापीति शङ्खाया अनिवृत्तेः शक्षितविपक्षवृत्तिक: । अपरमपि शङ्कितविपक्षवृत्तिकस्योदाहरणम्-अर्हन् सर्वज्ञो न भवितुमर्हति वक्तृत्वात् रथ्यापुरुषवदिति। वक्तृत्वस्य हि हेतोः पक्षीकृते अर्हति, सपक्षे रथ्यापुरुष यथा वृत्तिरस्ति तथा विपक्षे सर्वशेऽपि वृत्तिः सम्भाव्येत 3, वक्तृत्वज्ञातत्वयोरविरोधात् । यद्धि येन सह विरोधि तत्खलु तहति न वर्तते । न ५ बबन-ज्ञानयोलकि विरोधोऽस्ति, प्रत्युत ज्ञानवत एव बचनसौष्ठवं स्पष्ट दृष्टम् । ततो ज्ञानोत्कर्षचति सर्वशे वचनोत्कर्षे काऽनुपपत्तिरिति ? ___६३, 'अप्रयोजको4 हेतुरकिञ्चित्करः । स द्विविध:-सिद्धसाधनो बाधितविषयश्चेति। तत्राद्यो यथा, शब्दः श्रावणी भवितुमर्हति शब्दत्वादिति । अत्र श्रावणत्वस्य साध्यस्य शब्दनिष्ठत्वेन सिद्धत्वाद्धेतुरकिचित्करः। बाधितविषयस्त्वनेकधा। कश्चित्प्रत्यक्ष
बाधितविषयः, यथा-अनुष्णोऽग्निद्रव्यत्वादिति । अत्र द्रव्यत्वं • हेतुस्तस्य विषयत्वेनाभिमतमनुष्णत्वमुष्णत्वग्राहकेण स्पार्शनप्रत्यक्षेण बाधितम् । ततःकिञ्चिदपि कर्तुमशक्यत्वादकिंचित्करो
१ ननु कि नामाप्रयोजकत्वमिति चेत्, अन्यथासिद्धत्वमप्रयोजकत्वम्, साध्यसिद्धि प्रत्यसमर्चवनित्यर्थः ।।
1Rप मु प्रतिषु 'वत्तंते नापोति' पाठः। 24 म म 'न भवति' । 3ममु सम्भाव्यते' प 'सम्भाव्येति' पाठः। 4 म 'भथाप्रयोजको' । 54 4 'स्पर्शनेन प्रत्यक्षेण'।
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३. परोक्ष-प्रकार: द्रव्यत्वहेतुः । कश्चित्पुनरनुमानवामितभिषयः, यथा-प्रारिमाणी शब्दः कृतकत्वादिति । अत्र परिणामी शब्दः प्रमेयत्वादित्यनुमानेन बाधितविषयत्वम् । कश्चिदागमबाधितविषयः, यथाप्रेत्यासुखप्रदो धर्मः पुरुषाश्रितत्यादधर्मवदिति । अत्र धर्मः सुखप्रद इत्यागमस्तेन बाधितविषयत्वं हेतोः। कश्चित्स्वबचनबाधितविषयः, यथा-मे माता बन्ध्या पुरुषसंयोगेऽप्यगर्भवात्प्रसिद्धवन्ध्यावत् । एवमादयोऽप्यकिञ्चित्कर विशेषा: स्वयमूह्याः' । तदेवं हेतुप्रसङ्गाद्धत्वाभासा 'प्रवभासित्ताः ।
[उदाहरणस्य निरूपणम् ६६४. ननु व्युत्पन्नं प्रति यद्यपि प्रतिज्ञाहेतुभ्यामेव पर्याप्त ___ तथापि बालबोधार्थ । मुदाहरणादिकमध्यभ्युपगतरमाचा:'। उदा
१ एतत्सर्वमभिप्रेत्य सूत्रमाहुः-'मिद्धे प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुरफिञ्चित्कर:'-परीक्षा० ६-३५ । २ चिन्तनीयाः । ३ प्रकाशिता निरूपिता इत्यर्थः । ४ तथा हि-'प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगोपगमात् । यथैव हि कस्यचित्प्रतिबोध्यस्यानरोधेन साधनवाक्ये सन्धाऽभिधीयते (तथा) दृष्टान्तादिकमपि — पत्रपरी० पृ० ३ । कुमारनन्दिभट्टारफेरप्युक्तम्---
प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगेषु पुनर्यथा। प्रतिक्षा प्रोभ्यते तास्तथोदाहरणादिकम् ।। पत्रपरी. पृ. ३ उद्धृतम् ।
श्रीमाणिक्यनराशायाह 'बालव्युत्पत्त्यर्थं तत्त्रयोपगमे शास्त्र एवासी, न वादेऽनुपयोगान ।' परीक्षा० ३-४६ । श्रीपशोबिजयसरिणाऽयुक्तम्
। द 'योयनार्थ'। म 'मम्युपगन्तत्य', न 'मभ्युनगत' ।
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न्याय-दीपिका
हरणं च सम्यग्दृष्टान्तवचनम् । कोऽयं दृष्टान्तो नाम इति चेत्; उच्यते व्याप्तिसम्प्रतिपत्तिप्रदेशो दृष्टान्तः । व्याप्तिर्हि साध्ये वादी सत्येव साधनं धूमादिरस्ति, असति तु नास्तीति साध्यसाधन नियतसाहचर्य । लक्षणा । एतामेव 2 साध्यं विना साधनस्याभावादविनाभावमिति च व्यपदिशन्ति । तस्याः सम्प्रतिपत्तिर्नाम वादिप्रतिवादिनोर्बुद्धिसाम्यम्', सैषा यत्र सम्भवति स सम्प्रतिप्रदेशो महानसादिधूमति नियमेनाग्यादिरस्ति श्रग्न्याद्यभावे नियमेन धूमादिनस्तीति सम्प्रतिपत्तिसम्भवात् । तत्र महानसादिरन्वयदृष्टान्तः । श्रत्र साध्यसाध
J
'मन्दमतींस्तु व्युत्पादयितुं दृष्टान्तादिप्रयोगोऽप्युपयुज्यते -- जनतर्कभाषा पृ. १६ १ 'सम्यग्दृष्टान्ताभिधानमुदाहरणम् – क्यापसार पृ० १२ । 'दृष्टान्तवचनमुदाहरणम्' - न्यायकलिका पृ० ११ । २ यथा चोक्तमसम्बन्धो यत्र निर्मासः साध्यसाधनभयोः ।
--
स दृष्टान्तः तदाभासाः साध्या विविकलादयः ॥
-न्यायविनि० का ० ३०० १
३ 'लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्त: ' - न्याय -: सू० १-१-२५ । 'तत्र दृष्टान्तो नाम यत्र मूर्खाविदुषां बुद्धिसाम्यं' - चरकसं० पृ० २६३ । 'दृष्टान्तवचनं हि यत्र पृथग्जनानामार्याणां च बुद्धिसाम्यं तदा वक्तव्यम् । दृष्टान्तो द्विविधः सम्पूर्ण दृष्टान्त प्रांशिकदृष्टान्तश्च' – उपायहृवम पृ० ५ । ४ 'दुष्टान्तो द्वेधा श्रन्वयव्यतिरेकभेदात् ' 'साध्यव्याप्तं साधनं यत्र प्रदश्यंते सोऽन्वयदृष्टान्तः - परीक्षा० ३-४७, ४८ 'दृष्टान्तो द्विविधः साधम्र्येण वैधम्र्मेण च । तत्र साधर्म्येण तावत्,
1 म म नियतता साहचर्य' । २ प भ म 'एनामेव' ।
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३. परोक्ष-प्रकाशः
१०५
नयोर्भावरूपान्वयसम्प्रतिपत्तिसम्भवात् । हूदादिस्तु व्यतिरेकदष्टान्तः, अप माध्यमामानयोग्भावरूपव्यतिरेकसम्प्रतिपत्तिसम्भवात् । दृष्टान्तौ चैती, दृष्टावन्तौ धमों साध्यसाधनरूपी यत्र स दृष्टान्त इत्यर्थानुवृत्तेः ।
६६५. उक्तलक्षणस्य दृष्टान्तस्य यत्सम्यवचनं तदुदाहरणम् । न च वचनमात्रमयं दृष्टान्त इति । किन्तु दृष्टान्तत्वेन वचनम् । तद्यथा-यो यो धूमवानसावसावग्निमान्, यथा महानस इति । यत्राग्निास्ति तत्र धूमोऽपि नास्ति, यथा महाह्रद इति च । एवंविधेनैव वचनेन दृष्टान्तस्य दृष्टान्सत्वेन प्रतिपादनसम्भवात् ।
[उदाहरणप्रसङ्गादुदाहरणाभासस्य कथनम्] ६६६. उदाहरणलक्षणरहित उदाहरणवदवभासमान उदाहरणाभास: । उदाहरणलक्षणराहित्य! द्वेषा सम्भवति, दृष्टान्तस्यासभ्यग्वचनेनादृष्टान्तस्य सभ्यग्वचनेन वा । तत्राधं यथा, यो यत्र हेतोः सपक्ष एवास्तित्वं स्याप्यते । तद्यथा-यत्कृतकं तदनित्यं दृष्टम्, यथा घटादिरिति ।'–ग्यायप्र० पृ० १,२ । यत्र प्रयोज्यप्रयोजकभावेन साध्यसाधनधर्मयोरस्तित्वं स्याप्यते स साधर्म्यदृष्टान्तः ।'म्यापलिका पृ० ११ ।
१ 'साध्याभावे साधनाभावो यत्र कथ्यते स व्यतिरेकदृष्टान्त:'परीक्षा० ३-४६ । 'यत्र साध्याभावप्रयुक्तो हेयभावः ख्याप्यते स वैधर्मदृष्टान्त'-न्यायकलिका पृ० ११ । "वैधयेणापि, यत्र साध्याभावे हेतोरभाव एव कथ्यते । तद्यथा-यन्नित्यं तदकृतक दृष्टम्, यथाऽऽकापामिति ।-न्यायप्र० पृ. २ । . 1 मम 'च' अधिकः ।
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न्याय-दीपिका
योऽग्निमान्। स स घूमवान्, यथा महानस इति2, यत्र पर घूमो नास्ति तत्र तत्राऽग्निर्नास्ति, यथा महारुद इति च व्याप्यव्यापकयोपरीत्येन कथनम् ।
६७. ननु किमिदं व्याप्यं व्यापकं नाम इति चेत्ः उच्यते; साहचर्यनियमरूपां' व्याप्तिक्रियां प्रति यत्कर्म तद्वयाप्यम्, विपूर्वादापेः कर्मणि ण्यविधानावयाप्यमिति सिद्धत्वात् । तत्तु व्याप्यं धूमादि । एतामेव व्याप्तिक्रियां प्रति यत्कर्तृ तद्वघापकम्, ध्यापेः कर्तरि पवुलि4 सति व्यापकमिति सिद्धेः । एवं सति धूम
१ 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वहिरिति साहधर्यनियमो व्याप्तिः' --सर्कसं० पृ० ६१ । २ अत्रेदं वोध्यम्साहनयनियमरूपां व्याप्तिमाश्रित्य व्याप्यव्यापकयोव्युत्पत्तिमुखेन लक्षणं प्रदर्शयता ग्रन्थकता च्याप्तेरुभयधर्मत्वं प्रकटितम् । प्रमाणमीमांसाकृताऽपि तथंवोक्तम्—'त्र्याप्तिः' इति यो व्याप्नोति यश्च व्याप्यते तयोरुभयोधम: । तत्र यदा व्यापकषर्मतया विवक्ष्यते तदा ध्यापकस्य गम्यस्य व्याप्ये धर्म सति, यत्र धर्मिणि ब्याप्यमस्ति तत्र सर्वत्र भाव एव व्यापकस्य स्वगतो धर्मो व्याप्तिः । ततश्च व्याप्यभावापेक्षा व्याप्यस्यैव व्याप्तताप्रतीतिः । 'यदा तु व्याप्यधर्मतया व्याप्तिर्विवक्ष्यते तदा व्याप्पस्य वा गमकस्य तत्रच व्यापके गम्ये सति यत्र धर्मिणि व्यापको. ऽस्ति तत्रैव भावः, न तदभावेऽपि व्याप्तिरिति ।-प्रमाणमी०पू. ३८ । इत्थं च व्याप्तेयायव्यापकोभयधर्मत्वेऽपि ध्याप्पस्यैव धूमादेर्गमकत्वम्, व्यापकस्यैव च बलमादेर्गम्यत्वम्, विशिष्टव्याप्तिसद्भावात् । व्याप्यस्य
प्रा म मु प 'वह्निमान्' । मग्रेतनव्याप्तिस्थाग्निशब्दप्रयोगापेक्षया प्रतेरेव 'अग्निमान्' पाठो मूले निक्षिप्तः । 2 व 'इत्यादि । 3 मम प 'एनामेव' । 4 म 'वो', र 'दुण्णि' ।
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१०७
३. परोक्ष-प्रकाशः मग्निव्यर्थोप्नोति, यत्र धूमो वर्तते तत्र नियमेनाग्निवर्तते इति, यावत्सवंत्र धूमवात नियमेनाग्निदर्शनात् । धूमस्तु न तथाऽग्नि व्याप्नोति, तस्याङ्गारावस्थस्य घूमं विनापि वर्तनात्।। यत्राग्नि. वर्तते तत्र नियमेन घूमो2 वर्त्तते इत्यसम्भवात्।
६६८, 'नन्वाट्रॅन्धनमग्नि ब्याप्नोत्येव धूम इति चेत् ; 'प्रोमिति झूमहे । यत्र यत्राविच्छिन्नमूलो3 धूमस्तत्र तत्राग्निरिति यथा, तथैव यत्र यत्राऽन्धनोऽग्निः तत्र तत्र धूम इत्यपि सम्भवात् । वह्निमात्रस्य' तु धूमविशेष प्रति व्यापकत्वमेव,
व्यापकेनैव सहोपलब्धेः, व्यापकस्य तु व्याप्याभावेऽपलब्धेरिति भावः । इदं च चौद्धविदुषाऽचंटेनापि हेतुविन्दुटीकायां निहंगितम् । व्याप्मव्यापकमधिकृत्यात्र श्लोक: ;
व्यापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं सन्निष्ठमेव च । साष्पं व्यापकमित्याः साधन व्याप्यमुख्यते ॥'
प्रमाणमी० दि• पृ० ३७ । १ अथ नायं नियमः यत् 'अग्निरेव श्रमं व्याप्नोति, न धूमोऽग्निम्' इति, धूमस्याऽप्याऽऽर्दैन्धनाग्निव्यापकत्वदर्शनात् 'यत्राऽन्धनोऽग्निवत्तंते तत्र नियमेन घूमो वर्त्तते' इति, यायत्सर्वयाऽऽन्धनवति घूमोपलब्धेः, तथा चाग्नेरपि धूमवद्वयाप्यत्वम्, ततश्च तस्यागि गमकर्व स्वीकार्यमित्याशयेन शकते नन्विति । २ समाधत्ते प्रोमिति । घान्धनस्याग्नघूमच्याप्यत्वेऽपि वह्निसामान्यस्य तु व्यापकत्वमेव । ततो नोक्तदोप इति भावः । ३ वह्निसामान्यस्य । ४ न व्याप्यत्वमित्यर्थः ।
या वर्तमानात्', म म 'वर्तमानत्वात्' 2 मा म म 'तत्र धूमोऽपि नियमेन' । 3 द 'यत्र यत्रानवच्छिन्नमूली' । 4 द 'तथा' ।
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१०८
न्याय - दीपिका
अनुमानस्य तावन्मात्रा! पेक्षत्वात् । ततो यो यो घूमदानसावसावग्निमान् यथा महानस इत्येवं सम्यग्दृष्टान्तवचनं वक्तव्यम् । विपरीतवचनं तु दृष्टान्ताभास एवेत्ययमसम्यग्वचन रूपोऽन्वयदृष्टान्ताभासः । व्यतिरेकव्याप्ती तु व्यापकस्याग्नेरभावो व्याप्यः, व्याप्यस्य धूमस्याभावो व्यापकः । तथा सति यत्र यत्राजन्यभावस्तत्र तत्र धूमाभावो यथा ह्रद इत्येवं वक्तव्यम् । विपरीतकथनं तु, असम्यग्वचनत्वादुदाहरणाभास एव । 'अदृष्टान्तवचनं2 तु, अन्वयव्याप्ती व्यतिरेकदृष्टान्तवचनम्, व्यतिरेकव्याप्तावन्दयहृष्टान्तवचनं च, उदाहरणाभासौ | स्पष्टमुदाहरणम् ।
६ ६९. नतु गर्भस्थो मैत्रीतनयः 3 श्यामः, मैत्रीतनयत्वात्, साम्प्रत मैत्रीतनयवत् इत्याद्यनुमानप्रयोगे पञ्चसु मंत्रीतनयेष्यन्वयदृष्टान्तेषु यत्र यत्र मैत्रीतनयत्वं तत्र तत्र श्यामत्वम् इत्यन्वयव्याप्तेः, व्यतिरेकदृष्टान्तेषु गौरेष्वमंत्रीतनयेषु सर्वत्र 'यत्र यत्र
१ पर्वतो वह्निमान् धूमात्' इत्यनुमाने वह्निसामान्यस्यापेक्षणात्, न तु वह्निविशेषस्य । नातो कश्चिद्दोष इति भावः । २ प्रन्वयदृष्टान्ताभासो द्विविधः – दृष्टान्तस्यासम्यग्वचनमदृष्टान्तस्य सम्यग्वचनं च तत्रायमाद्यः ॥ ३ अन्वयदृष्टान्ताभासस्य ( उदाहरणाभासस्य ) द्वितीयभेदमदृष्टान्तस्य सम्यग्वचनाख्यं दर्शयति प्रवृष्टान्तेति । ४ अनयोरुदाहरणाभासयोरुदाहरणं स्पष्टमेवेत्यर्थः ।
1 'अनुमातुस्तावन्मात्रा' इति म मु पाठः । 2 मु 'प्रदृष्टान्तवचनं' नास्ति । तत्र त्रुटितोऽयं पाठः । 3 मु 'मंत्रीतनयः' नास्ति । 4 प 'सम्मत '
पाठ: ।
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१०६
३. परोक्ष-प्रकाशः श्यामत्वं नास्ति तत्र तत्र मैत्रीतनयत्वं नास्ति' इति व्यतिरेकठ्याप्तेश्च सम्भारनिश्चितमापने मातादीननये पक्षे मायभूतश्यामत्वसन्देहस्य गुणत्वात्। सम्यमनुमान प्रसज्येदिति चेत्न; दृष्टान्तस्य विचारान्तरबाधितत्वात् ।
७०.तथा हि-साध्यत्वेनाभिमतमिदं हि श्यामवरूपं2 कार्य सत स्वसिद्धये कारणमपेक्षते। तच्च कारण न तावन्मैत्रीतनयत्वम्, विनाऽपि तदिदं पुरुषान्तरे' श्यामत्वदर्शनात् । न हि कुलालादिकामन्तरेण सम्भविन: पटस्य कुलालादिकं कारणम् । एवं' मैत्री. तनयत्वस्य श्यामत्वं प्रत्यकारणत्वे निश्चिते यत्र यत्र मंत्रीतनयत्वं नतत्र तत्र श्यामत्वम्, किन्तु यत्र तत्र श्यामत्वस्य कारणं विशिष्टनामकर्मानुगृहीतशाकाद्याहारपरिणामस्तत्र तत्र तस्य कार्य श्यामत्वम्, इति सिद्ध 'सामग्नीरूपस्य विशिष्टनामकर्मानुगृहीतशाकाद्याहारपरिणामस्य श्यामत्वं प्रति व्याप्यत्वम् । स तु पक्षे न
१ अतो गर्भस्थे श्यामत्वस्य सन्देही गौणः, स च न मैत्रीतनयत्वहेतोः समीचीनत्वे बाधकः । तथा च तत्समीचीनमेंवानुमानमिति शङ्कितुर्भावः । २ मैत्रीतनयत्वम् । ३ मैत्रीपुत्रभिन्नपुरुष । ४ ततो न मैत्रीतनयत्वमन्तरेण जायमानं श्यामत्वं प्रति मैत्रीतनपत्वं कारणमिति भाव: 1 ५ इत्थं च । ६ इमामत्वजनिका सामग्री, सा चा विशिष्टनामकर्मानुगृहीतशाकाद्याहारपरिणामः, तत्सत्त्वे एव श्यामत्वसत्त्वम्, लदभावे च तदभाव इति भाव: । ७ विशिष्टनामकर्मानुगृहीतशाकाद्याहारपरिणामः । ८ गर्भस्थे मैत्रीननये ।
- - -.म 'गोणत्या'। 2 इ मा म मु 'श्यामरूपं । 3 प्रा प मम कुनालचक्रादिकमन्तरेणापि' ।
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न्याय-दीपिका
निश्चीयत' इति सन्दिग्धासिद्धः । मैत्रीतनयत्वं तु श्रकारणत्वादेव । श्यामत्वं कार्यं न गमयेदिति :
-
१ ७१. 'केचित् 2 "निरुपाधिकः सम्बन्धो व्याप्तिः "" ] इत्यभिवाय "साधनाव्यापकत्वे सति साध्यसमव्याप्तिरूपाधिः" [ ] इत्यभिदधते । सोऽयमन्योन्या
E
१ श्यामत्वसामग्रयन्तर्गतविशिष्टनाम कम दिरतीन्द्रियत्वान्निश्चयासम्भवात् । २ मैत्रीतनयत्वस्य व्यामत्वं प्रति कारणत्वाभावादेव । ३ ननु नाकरणत्यान्मैत्रीतनयत्वं श्यामत्वं प्रत्यगमकम् अपि तु व्याप्यभावात् । व्याप्तिहि निरुपाधिकः सम्बन्धः । स चात्र नास्त्येव, शाकपाकजत्वोपाविसस्थेन मंत्रीतनयत्वस्य निरुपाधिकत्वासम्भवादिति केषाञ्चिदाशयं प्रदर्शयन्नाह केचिदिति । केचित् नयामिकादय इत्यर्थः । ४ 'ननु कोऽयं प्रतिबन्धो नाम ? प्रनोपाधिकः सम्बन्ध इति ब्रूमः । - किरणावली पृ० २६७ । अनौपाचिकः सम्बन्धो व्याप्तिः । धनोपाधिकत्वं तु यावत्स्वच्यभिचारिव्यभिचारिसाध्य सामानाधिकरण्यम्, यावत्स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगिप्रतियोगिकात्यन्ताभावसमानाधिकरणसाध्य सामानाधिकरण्यं वा । यावत्साधनाव्यापकाव्याप्यसाध्यसामानाधिकरण्यमिति निरुक्तिद्वयार्थः । - देशेषिकसूत्रोपस्कार पृ० ६२ । ५ 'साधने सोपाकिः साध्ये निरुपाधिरेवोपाषिस्वेन निश्वेयः । x x x उपाधिलक्षणं तु साध्यव्यापकत्वे सति सरधनाभ्यापत्यमित्युक्तमेव । --किरणावली पृ० ३००, ३०१ । 'नन्वनोपाधिकत्वमुपाधिविरहः, उपाधिरेव दुष्परिकलनीय इति चेन्न साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वस्योपाधित्वात् । तदुक्तम्- साधने सोपाधि: साध्ये निरुपाधिरपाथिः । - वैशेषिकसूत्रोपस्कार पृ० १३ | 'साध्यव्यापकरवे सति साधनाव्यापकत्वमुपाधिः । साध्यसमानाधिकरणा इत्यन्ताभावा
1 म 'अकारणादेव' | 2 मु कश्चित् । 3मु 'अभितं ।
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३. परोक्ष-प्रकाश:
श्रयः । प्रपञ्चितमेतदुपाधिनिराकरणं कारुण्यकलिकायामिति विरम्यते।
लपनतिगमनयोस्तदाभासयोश्च लक्षणकयनम ७२. साधनवत्तया पक्षस्य दृष्टान्तसाम्यकथनमुपनयः-तथा चार्य धूमवानिति । साधनानुवादपुरस्सरं साध्यनियमवचनं निग
प्रतियोगित्वं साध्यश्यापकरवं । साधनवन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगिस्वं साधनाऽव्यापकत्वम् । यथा-'पर्वतो धूमवान् बलिमत्त्वात्' इत्यत्राऽन्धनसंयोग उपाधिः । तथा हि-'यत्र घूमस्तत्राऽऽन्धनसंयोगः' इति साध्यय्यापकत्वम्, 'यत्र वह्निस्तत्राऽऽन्धनसंयोगो नास्ति' प्रयोगोलके प्रान्धनसंयोगाभावादिति साधनाऽव्यापकत्वम् । एवं साध्यव्यापकत्वे सति साधनाऽव्यापकत्वादान्धनसंयोग उपाधिः।-तकंसं० पृ. ११४ । 'उपाधिश्चसुविधः केवलसाध्यव्यापकः, पक्षधर्मावच्छिन्नसाध्यव्यापकः, साधनाबख्छिन्नसाध्यब्यापकः, उदासीनधर्मावच्छिन्नसाध्यव्यापकश्चेति । प्राय:भाधनसंयोगः । द्वितीयो यथा-'वायुः प्रत्यक्ष: प्रत्यक्षस्पनियत्वात्' इत्यत्र बहिर्दव्यत्वावच्छिन्न प्रत्यक्षत्वव्यापकमुद्भूतरूपवत्त्वम् । तृतीयो यया .-'प्रागभावो विनाशी जन्यत्वात्' इत्यत्र जन्यत्वावच्छिन्नानित्यवत्यापक भावरकम् । चतुर्थस्तु 'प्रागभावो विनाशी प्रमेयत्वात्' इत्यत्र जन्यत्वावच्छिन्नानित्यत्वरयापकं भावत्वम् ।'-तकनी० पृ० ११४-११६ ।
१ व्याप्तिलक्षणस्योपाधिगर्भवादुपाधिलक्षणस्य च व्याप्तिघटितस्वात् । तथा च व्याप्तिग्रहे सति उपाधिग्रहः स्यात् उपाधिग्रहे ष सति व्याप्तिग्रहः स्यादित्मेवमन्योन्याश्रयः । यथा चोक्सम्-नाप्यनोपाधिक: सम्बन्धः, उपाधेरेव दुर्वचत्वात् । सुबचत्वेऽपि दुर्गहत्वात्, सुग्रहत्वेऽप्यन्मोन्याश्रयात् । साध्यव्यापकत्वे सति साघनाध्यापकत्वादेर्याप्तिाहाघीनग्रहत्वात् ।'-वैशेषिकसूत्रोप० पृ० ६० ।
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११२
न्याय-दीपिका मनम्-तस्मादग्निमानेवेति । अनयोर्व्यत्ययेन' कथनमनयोराभास: 1 अवसितामनुमानम् ।
परोक्षप्रमाणभेदस्मागमस्य निरूपणम्] ७३. 'अथागमो लक्ष्यते2 । प्राप्तवाक्यनिबन्धनमर्थज्ञानमागम: । अत्रागम इति लक्ष्यम् । अवशिष्ट लक्षणम् । अर्थमानमित्येवतावत्युच्यमाने प्रत्यक्षादावतिव्याप्तिः, अत उक्तं वाक्यनिबन्धनमिति । वाक्यनिबन्धमर्थज्ञानमित्युच्यमानेऽपि यादच्छिकसंवादिषु विप्रलम्भवाक्यजन्येषु सुप्तोन्मत्तादिवाक्यजन्येषु वा नदीतीरफलसंसर्गादिज्ञानेष्वतिव्याप्तिः, प्रत उक्तमाप्तेति । प्राप्तवाक्यनिबन्धनज्ञानमित्युच्यमानेऽप्याप्तवाक्यकर्मके श्रावणप्रत्यक्षेतिव्याप्तिः, अत उक्तमर्थेति । अर्थस्तात्पर्यरूढः6 [प्रयोजनारुढ] इति यावत् । अर्थ एव? 'तात्पर्यमेव वचसि [ ]
१ विपरीतक्रमण, क्रमभङ्ग नेत्यर्थः । २ नितिम् । ३ विस्तरतोऽनुमानं प्ररूप्याधुना क्रमप्राप्तमागमं लक्षयति प्रयेति । ४ 'प्राप्तवचनादिनिवन्धनमर्थज्ञानमागम:' । परीक्षा-2-4 प्राप्तस्य शाक्यं वचनं तन्निबन्धन यस्यार्थज्ञानस्येत्याप्तवाक्यनिबन्धनमर्थज्ञानमिति । अत्र 'माप्तशब्दोपादानादगौरर्षयत्वव्यवच्छेदः । अर्थज्ञानमित्यनेनान्यापोहज्ञानस्याभिप्रायसूचनस्य च निरासः ।-प्रमेयर पृ. १२५ । ५ प्राप्तो यथार्थवक्ता । ६ उक्तं च-'अर्थजान मित्येतावत्युच्यमाने प्रत्यक्षादातिव्याप्तिरत उक्तं वाक्यनिबन्धनमिति 1 वास्यनिबन्धनमयनानमित्युच्यमानेऽपि यादृच्छिकसंचादिषु विप्रलम्भ
1 मु 'इत्यवसिज'। 2 व लिख्यो'। 3 द 'तत्रागम'। 4 म भु 'तावदुच्यमा' । 5 द 'यादग्विसंवादिविप्रलम्भ'। 6 म मु प 'ताल्पयंस्प'। 7 मु 'सर्थ एव' नास्ति ।
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३, परोक्ष-प्रकाशः इत्यभियुक्तवचनात् । तत प्राप्तवाक्यनिबन्धनमर्थज्ञानमित्युक्तमागमलक्षणं निर्दोषमेव । यथा-"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:" [तत्त्वार्थसू० १-१] इत्यादिवाक्यार्थज्ञानम् । सम्यगदर्शनादीनि1 मोक्षस्य सकलकर्मक्षयस्य मार्ग उपायः, न तु मार्गाः । ततो भिन्नलक्षणानां दर्शनादीनां त्रयाणां समुदितानामेव मार्गत्वम्, न तु प्रत्येकमित्ययमर्थो मार्ग इत्येकवचनप्रयोगतात्पर्य2 सिद्धः । अयमेव वाक्यार्थः । अथवा प्रमाणगामा पेशणदिनिलिः प्रमितिः।
[प्राप्तस्य लक्षणम्] । ७४. 'कः पुनरयमाप्तः इति चेत् ; उच्यते; प्राप्तः प्रत्यक्षप्रमितसकलार्थत्वे सति परमहितोपदेशकः । प्रमितेत्यादावेवोच्यमाने श्रुतकेवलिष्वतिव्याप्तिः, तेषाभागमप्रमितसकलार्थत्वात्। वाक्यजन्येषु गुप्तोन्मत्तादिवाक्यजन्येषु वा नदीतीरफलसंसर्गादिजानेष्वतिध्याप्तिः, अत उक्तमाप्तेति । प्राप्तवाक्यनिबन्धनज्ञानमित्युच्यमानश्याप्तवाक्यकर्मके (कारणे) श्रावणप्रत्यक्षेतिव्याप्तिरत उक्तमति । प्रर्यस्तात्पर्यरूदः, प्रयोजनारूढ पति यावत् । तात्पर्यमेव वचसीत्यभियुक्तवचनात् वचसा प्रयोजनस्य प्रतिपादकत्वात्।'-प्रमेयक टि• पृ०३६१ प्रमेयर० टि० पृ० १२४ ॥
१ प्राप्तस्य स्वरूप जिज्ञासमानः परः पृच्छति कः पुनरयमाप्त इति । २ 'तत्राप्तिः साक्षात्करणादिगुण: "सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः" इत्यादिना साधितः'।-प्रष्टश प्रष्टस• पृ०२३६ । तमा विशिष्टो यो:सावाप्त इति भावः । ३ श्रुतोवलिनो हि श्रुतेन सकलार्यान् प्रतिपद्यन्ते ।
मुप 'दीन्यनेकानि', म 'दीन्येतानि'। 2 मु 'प्रयोगस्तात्पर्य । 3 म 'साध्यसंग यानिनिवृनिः' ।
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११४
न्याय-दीपिका प्रत उक्तं प्रत्यक्षेति । प्रत्यक्षप्रमितसकलार्थ इत्येतावत्युच्यमाना 'सिव्वतिव्याप्तिः । अत उक्तं परमेत्यादि2 । परमाहित3 निःश्रेयसम्, तदुपदेश एवाहंतःप्रामुख्येन प्रवृत्तिः । 'अन्यत्र तु प्रश्नानुरोपादुपसर्जनत्वेनेति भाव: । नवंविधः सिद्धपरमेष्ठी, तस्यानुपदेशकत्वात् । ततोऽनेन विशेषणेन तत्र नातिव्याप्तिः । आमासद्भावे . प्रमाणमुपन्यस्तम् । नयापिकाद्यभिमतानामाप्ताभासानामसर्वज्ञ. त्वात्प्रत्यक्षप्रमितेत्यादिविशेषणेनव निरास:।
६७५. ननु नैयायिकाभिमत प्राप्तः कथं न सर्वज्ञः इति चेत्; उच्यते; तस्य 'ज्ञानस्यास्वप्रकाशकत्वादेकत्वाच्च विशेषणभूतं स्वकीयं ज्ञानमेव न जानातीति तद्विशिष्टमात्मानं 'सर्वज्ञोऽहम्' इति कथं जानीयात् ? एवमनात्मज्ञोऽयमसर्वज्ञ एव । प्रपञ्चितंच
१ अशरीरिणो मुक्तात्मानः सिद्धा: सिद्धपरमेष्टिन इत्युच्यन्ते । उक्त च'गिकम्मा अढगुणा किसूणा परमवेहवो सिद्धा।
सोयागठिबा जिम्मा उप्पाव-अमेहि संजुता ॥ तव्यसं० १४ । २ निःश्रेयसातिरिक्त विषमे । ३ अमुख्येन, गौणरूपेणेत्यर्थः । ४ द्वितीयप्रकाशे । ५. व्यावृत्तिः, ततो न तत्राप्यतिय्याप्तिरिति भावः । ६ नमायिका हि ज्ञानं ज्ञानान्तरवेचं मन्यन्ते । ततो तेराप्तत्वेनाभिमतो महेश्वरः स्वज्ञानस्याप्रवेदनातद्विशिष्टस्यात्मनोऽप्यज्ञानान्न सर्वज्ञ इति भावः।
1 व 'इत्युच्यमाने' मु 'इत्येतावदुच्यमाने' | 2 व 'परमेति'। 3 मु परमं हितं' 4 म 'सम्भवति' इत्यधिकः पाठः ।
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११५
परोक्ष-प्रकाशः सुगताबोनामाप्ताभासत्वमाप्तमीमांसाविवरण'श्रीमवाचार्यपादै'रिति विरम्यते । वाक्यं तु 'तन्त्रान्तरंसिमिति नेह लक्ष्यते ।
१ अष्टशत्याम् । २ थीमजूट्टाकलकुवः। आप्तमीमांसालङ्कारे (मष्टसहस्रघां) च श्रीविद्यानन्दस्वामिभिरित्यपि बोध्यम् । ३ तदित्यम्'पदानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यम् । -प्रष्टश अस० पृ० २८५ । 'वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायः पदम् । पदानां तु परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यम् । -न्यायकुमु० पृ० ४३७ । प्रमेयक- पृ० ४५८ । 'यस्य प्रतिपत्तुर्यावत्सु परस्परापेशेषु पदेषु समुदितेषु निराकाक्षत्वं तस्य तावत्सु वाक्यत्व सिद्धिरिति प्रतिपत्तव्यम् ।'प्रमेयक पृ० ४५८ । 'वाक्यं विशिष्टपदसमुदायः । यदाह
पाना संह तिर्वाक्यं सापेक्षाणां परस्परम् । साल्पताः कल्पनास्तत्र पश्चात्सन्तु यथायथम् ॥'
न्यायाव० टी० टि० पू० । 'वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां संहतिः पदम्, पदानां तु धाक्यमिति ।प्रमागनयत० ४-१०।
परस्तु वाक्पलक्षमित्थमभिमतम्-'पाख्यातं साव्ययं सकारक स-कारक-विशेषणं वाक्यसंजं भवतीति वक्तव्यम्, अपर पाह–पाल्पातं सविशेषणमित्येव । सर्वाणि छतानि विशेषणानि ! एकतिङ्, एकति वाक्यसंश भवतीति वक्तव्यम् ।' पात० महाभा० २-१-१ । 'तिङ्-सुबन्त. घपो वाक्यं क्रिया वा कारकान्विता ।'-अमरको० । 'पूर्वपदस्मृत्यपेक्षोछन्त्यपदप्रत्ययः स्मृत्यनुग्रहेण प्रतिसन्धीयमानो विशेषप्रतिपत्तिहेतुवाक्यम् ।-न्यायमा पृ० १६ । 'यानद्भिः पदरधारिसमाप्तिः तदेक वाक्यम् ।'-वारन्याय० पृ० १०८ । 'पदसमूहो वावयम् । -न्यासमा पृ० ६३७ ! न्यायवा० ता. पृ० ४३४ । 'नाक्यं पदगमुहः, यथा—गामा
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न्याय-दीपिका
[ अर्थस्य लक्षणम् ] ७६. 'अथ कोऽयमर्थो नाम ? उच्यते; अर्थोऽनेकान्तः । अर्थ इति लक्ष्यनिर्देशः, अभिषेय इति यावत् । अनेकान्त इति
नय शुक्ला दण्डनेति ।'-तर्कसं० पृ० १२२ । 'प्रथात्र प्रसङ्गात्मीमांसकवाक्यलक्षणमर्थद्वारेण प्रदर्शयितुमान
साकाझावयव भेदे परानाकालशम्बकम् । कर्मप्रधान पुणवदेकार्थ वास्यमिष्यते ॥ वाक्यप० २-४ । मिषः साकाङ्क्षाशम्दस्थ व्यूहो वाक्यं चतुर्विधम् । सुप्तिसत्रयो नयमतिव्याप्यावियोषतः ।।
यादृशशब्दानां यादृशार्थविषयताकान्वयबोधं प्रत्यनुकूला परस्पराकाङ्क्षा तादृशशब्दस्तोम एष तथाविधार्थे वाक्यम्।'-शब्दश० श्लो.१३ ।
'वाक्यं स्यायोग्यताकासासक्तियुक्तः पदोच्चयः।-साहि०व० २-१ । "पदानामभिषित्सार्थग्रन्थनाकारः सन्दर्भो वाक्यम् ।'-काव्यमो० पृ० २२ । प्रन्यदपि वाक्यलक्षणं कश्चिदुक्तम्
माल्यातशब्दः (१) सङ्घातो(२) जाति: सातवत्तिनी (३)। एकोऽमवयवः शब्दः (४) कमो(१) बुरा अनुसंहती (६,७) ॥ पदमाद्यं (4) पदं चान्त्य (६) पदं सापेक्षमित्यापि(१०)। वापयं प्रति मतिमिन्ना बाषा न्यायवेदिनाम् ।।
-वाक्यप० २-१, २। तत्र पूर्वोक्तमेव 'पदानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्ष: समुदायो वाक्यम् इति वाक्यलक्षणं समीचीनम् । अन्येषां तु सदोषत्लादिति प्रतिपत्तव्यम् ।
४ न्यायदीपिकायाम् । १ अर्थरय स्वाप प्रतिपादयितुमाह प्रथेति ।
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३. परोक्ष-प्रकाश:
११७ लक्षणकथनम् । 'अनेके अन्ता धर्माः सामान्य-विशेष-पर्याय-गुणा। यस्येति सिद्धोऽनेकान्त: । तत्र सामान्यमनुवृत्तिस्विरूपम्। तद्धि घटत्वं पृथुबुध्नोदराकारः3, गोत्वमिति सास्नादिमत्वमेव । तस्मात्र व्यक्तितोऽत्यातनयन्नित्यमेवमनेकवृत्ति । अन्यथा
१ मनेकान्तस्य व्युत्पत्तिमुखेन लक्षणं निवघ्नाति अनेके इति । २ अनुगताकारप्रतीतिविषमित्यर्थः । अत्रायं विशेष:-'सामान्यं द्विविषम् अवतासामान्यं तिर्यक्सामान्यं चेति । तवोर्वतासामान्य क्रमभाविपु पर्यायवेकत्वान्वयप्रत्ययग्राह्य द्रव्यम् । तिर्यक्सामान्य नानाद्रव्येषु पर्यायेषु च सादृश्यप्रत्ययग्राह्य सदृशपरिणामरूपम् ।' युक्त्यनुशा० टी० पृ. ६० । 'सामान्य द्वेधा तिर्यगृध्वंताभेदात् । ४-३ । सदृशपरिणामस्तियंक खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् । ४-४ । परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्यता भृदिव स्थासादिषु'।४-५॥ परीक्षामुख । ३ 'सामान्य द्विविधं परमपरं च । तत्र पर सत्ता, अपरं सत्ताव्याप्यं द्रव्यत्वादि । तत्र नित्यमनेकव्यक्तिवृति सामान्यम्, नित्यत्वे सति स्वाश्रयान्योन्याभावसामानाधिकरण वा । परमपि सामान्यमपरमपि तथाऽपरं तु सामान्यं विशेषसंज्ञामपि लभते ।'-शेविकोपर पृ० ३४ । तन्न युक्तम्-नित्यकरूपस्य गोत्वादेः कम-योगपद्याभ्यामक्रियाविरोधात् । प्रत्येक परिसमाप्त्या व्यक्तिषु वृत्ययोगाच्चानेक सदृशपरिणामात्मकमेवेति तिर्यकसामान्यमुक्तम् ।'-प्रमेयर० ४-४, १० १७६ । 'तच्चाऽनित्यासर्वगतस्वभावमभ्युपगन्तव्यम्, नित्यसर्वगतस्वभावस्वेऽयंक्रियाकारित्वायोगात् । तत् (सामान्य) सर्वसर्वगतं स्वव्यक्तिसर्वगत वा ? न तावत्सर्वसर्वगतम् ; व्यक्त्यन्तरालेऽनुपलम्यमानत्वादयक्तिस्वास्मवत् । 'नापि स्वयक्तिसर्वगतम् ; प्रतिव्यक्ति परिसमाप्तत्वेनास्याऽने
1 'पर्याया गुणा' । 2 म प म 'अनुवृत्त' । 3 मा प 'प्युबुझ्नोदराद्याकारः'।
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न्याय-दीपिका
कस्वानुषङ्गाद्वयक्तिस्वरूपवत् ।
काटेवाभ्यां नयनापनेसासमय । किञ्च, एकत्र व्यक्ती सर्वात्मना वर्तमानस्यान्यत्र वृत्तिनं स्यात् । तत्र हि दृस्तिस्तद्दे शे गमनात्, पिण्डेन सहोत्पादात्, तद्देशे सद्भावात, अंशवस्या वा स्यात् ? न तावद् गमनादन्यत्र पिण्टे तस्य वृत्तिः; निष्क्रियत्वोपगमात् । किञ्च, पूर्वपिण्डारिरपागेन तत्तत्र गच्छेत, अपरित्यागेन वा ? न तावत्परित्यागेन, प्राक्तनपिण्डस्य गोत्वपरित्यक्तस्थागोरूपताप्रसङ्गात् । नाप्यपरित्यागेन, अपरित्यक्तप्राक्तनपिण्डस्यास्मानंशस्य रूपादेरिव गमनासम्भवात् । न ह्मपरित्यक्तपूर्वाधाराणां रूपादीनामाधारान्तरसंक्रान्तिदंष्टा। नापि पिण्डेन सहोत्पादात्, तस्यानित्यत्वानुषङ्गात् । नापि तई से सस्वात्, पिण्डोत्पत्तः प्राक् तत्र निराधारस्यास्थावस्थानाभावात् । भावे वा स्वाथयमात्रवृत्तित्वविरोषः । नाप्यंशवत्तया, निरंशत्वप्रतिज्ञानात् । ततो व्यक्त्यन्तरे सामान्यस्याभावानुपङ्गः । परेषाँ प्रयोग: 'ये यत्र नोत्पन्ना नापि प्राग. वस्थायिनो नापि पश्चादन्यतो देशादामतिमन्तस्ते तत्राऽसन्तः, यथा खरोतमाङ्ग तद्विषाणम्, तथा च सामान्यं तच्छुन्यदेशोत्पादवति घटादिके वस्तुनि' इति । उक्तं च
न याति न च तत्रासीस्ति पश्चान्न बांशवत् । जहाति पूर्व नाधारमहो व्यसनसन्ततिः ॥'-प्रमेयक पृ० ४७३ । किञ्च, इदं सामान्य व्यक्तिभ्यो भिन्नं चेत्, तत् व्यक्त्युत्पत्ती उत्पद्यते न वा ? यात्पद्यते, तद्वदेवानित्यत्वम् । नोटाद्यते चेत्, तत् उत्पत्तिप्रदेशे विद्यते न दा? यदि विद्यते, व्यक्त्युत्पत्तेः पूर्वमपि गृह्यत । अथ तद्दे शे तत् नास्ति, उत्पन्ने तु व्यक्तिविशेषे व्यक्त्यन्तराद् प्रागच्छति । ननु ततः सत् प्रागच्छत् पूर्वव्यक्ति परित्यज्य आगच्छति न वा ? प्रथमपक्षे तस्याः तग्रहितत्वप्रसङ्गः । अधापरित्यज्य, तत्रापि कि व्यक्त्या सहवागच्छति कि वा केनचिदंशेन तव तिष्ठति केनचिदागच्छति ? प्रथमविकल्पे शावले. येऽपि 'बाहुलेयोऽयम्' इति प्रतीति: स्यात् । द्वितीयविकल्पस्त्वयुक्तः,
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३. परोक्ष-प्रकाशः
न याति न च तत्रास्ते न पश्चादस्ति 'नांशचत् । । 'जहाति पूर्व नाधारमहो ' व्यसनसन्ततिः ॥ [
६
1
इति दिग्नागदर्शित 2 दूषणगणप्रसरप्रसङ्गात्' । पृथुबुध्नोदराकारादिदर्शनानन्तरमेव 'घटोऽयं घटोऽयं गौरयं गौरयम्'
११६
निरंशत्वेनास्यांशवत्तया प्रवृत्त्यसम्भवात् । सांशत्वे चास्य व्यक्तिवदनित्य
प्रसङ्गः । वायकुमु० पृ० २८७, २८८ । 'क्वचिदेकत्र नित्यात्मन्याश्रये सर्वात्मना वृत्तं सामान्यं समवायश्च तावत् उत्पित्सुप्रवेशे प्राग्नासीवनाश्रितप्रसङ्गात्, नान्यतो याति सर्वात्मना पूर्वाधारपरित्यागादन्यथा तदभाव5. पङ्गात् नाप्येकदेशेन सांगत्वाभावात्, स्वयमेव परचायति स्वप्रत्ययबारित्वात् श्राश्रयविनाशे च न नश्यति नित्यत्वात् प्रत्येकं परिसमाप्तं व्याहतमेतत् । - अध्टस. १. २१६ । एतदुक्तानेव दोषान् दिग्नागोक्तकारिकया मूले दीपिकाकारों दर्शयति न यातीति ।
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१ गोत्वादिसामान्यं हि व्यक्त्यन्तरं न गच्छति निष्क्रियत्वोपगमात् । २ व्यक्तिदेशं यत्र गोपिण्ड उत्पद्यने तत्र न गोपिण्डोत्पादात्पूर्य विद्यते, देशस्यापि तस्य गोल्यापत्तेः । ३ न वा गोपिण्डोत्पादानन्तरं तेन सहोत्पद्यते, तस्य नित्यत्वाभ्युपगमात् । ग्रन्यथाऽनित्यत्वानुषङ्गात् । ४ न चांशसहित निरंगत्व प्रतिज्ञानात्, अन्यथा सांगत्यप्रसङ्गात् । ५ न च प्राक्तनमाधार गोपिण्डं त्यजति तस्यागोत्वापत्तेः । ६ तदेवं गोत्वादिसामान्यस्य नित्यकसर्वगतत्वाभ्युपगमे एतं पणनं परिमुच्यते सोध्यं योगः । ग्रहो आश्चर्यं कष्टं वा एतेषामपरिहार्ये व्यसनसन्ततिः दूषण परम्परा, वृधा स्थितिरितियावत् । ७ कारिथं धर्मकीर्तिविरचिते प्रमाणवासिकेऽपि (१-१५३ ) मूलरूपेणोपलभ्यते । परमत्र ग्रन्थकृता नामोल्लेख पुरस्सर दिग्नागस्योक्ता । ततः सम्भवति दिग्नागस्यैव कस्यचिद् ग्रन्थस्येयं कारिका स्यादिति । ८ दिग्नागे1 प 'नाशवत्' । 2 मु 'दुषित' ।
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१२०
न्याय-दीपिका
इत्याद्यनुवृत्तप्रत्ययसम्भवात्' । 'विशेषोऽपि 'स्थूलोऽयं घटः, सूक्ष्मः' इत्यादिव्यावृत्तप्रत्ययालम्बन। घटादिस्वरूपमेव । 'तथा चाह भगवान् माणिक्यनान्दभट्टारक:-"सामान्य-विशेषात्मा तदर्थः" [परीक्षा० ४-१] इति ।
७७. "पर्यायो द्विविधः-अर्थपर्यायो व्यञ्जनपर्यायश्चेति । तत्रार्थपर्यायो भूतत्वभविष्यत्वसंस्पर्शरहितशुद्धवर्तमानकालावरच्छिन्नं वस्तुस्वरूपम् । तदेतदृजुसूत्रमयविषयमामनन्त्यभियुक्ताः । एतदेकदेशावलम्बिनः खलु सौगता: क्षणिकवादिनः । व्यन्जन व्यक्तिः प्रवृत्तिनिवृत्तिनिवन्धनं जलानयनाद्यर्थक्रियाकारित्वम्, तेनोपलक्षितः पर्यायो व्यञ्जनपर्याय:, मृदादे; [यथा] पिण्डस्थास-कोश-कुशूल-घट-कपालादयः4 पर्यायाः ।
नोक्तकारिकया दर्शितानि दूपणानि, तेषां गणः समूहस्तस्य प्रसरो विस्तरस्तस्य प्रसङ्गस्तस्मादित्यर्थः ।
१ अनुगतप्रतीतिभावात् । ततो घटत्वादिसामान्यं घटादिव्यक्तेः कथविभिन्नमेवेत्यवसेयम् । २ तदुक्तं परीक्षामुखे-'विशेषश्च ।४-६। पर्यायव्यतिरेकभेदात् ॥४-७। एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्याया प्रास्मनि हर्षविषादादिवत् ।४-८। अर्थान्तरगतो विसदृशारिणामो व्यतिरेको गो-महिषादिवत् १४-६१३ स्वोक्तमेव प्रमाणयति तथा चाहेति । ४ संक्षेपत्तः सामान्य विशेषं च निरूप्य पनि निरूपयितुमाह पर्यायति ।
1 मु 'वलम्वनं'। 2 प म 'कालत्वाव' । 3 मा 'निबन्धमजलानय. नाचयक्रियाकारिखे', म प म निबन्धनजलानयनाद्यर्थक्रियाकारित्व' । 48 'कपालमालादयः' ।
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३. परोक्ष-प्रकाशः
३७८, 'यावद्रव्यभाबिनः सकलपर्यायानुवतिनो गुणाः
तुल-रूप -- हविर मरम्बन्धिनो हि वस्तुस्वादयः पिण्डादिपर्यायाननुवर्तन्ते, न तु पिण्डादयः स्थासादीन् । तत! एव पर्यायाणां गुणेभ्यो भेदः'। 'यद्यपि सामान्य विशेषी पर्यायो तथापि सङ्केतग्रहणनिवन्धनत्वाच्छन्दव्यवहारविषयत्वाच्नागम?
१ गुणं लक्षयति यावदिति । २ वस्तुत्वप्नमयत्यादयः सामान्यगुणाः । रूपरसादयो विशेषगुणाः । तेषां लक्षणं तु
सर्वेष्वविशेषेण हि ये द्रव्येषु च गुणाः प्रवर्तन्ते । ते सामान्यगुणा इह यथा सदादि प्रमाणतः सिद्धम् ।। तस्मिन्नेव विवक्षितवस्तुनि मग्ना इहेवमिति चिज्जाः। जानादयो पया ते द्रव्यप्रतिनियमिता विशेषगुणाः ।।
-अध्यात्मक०२-७, ८ । ३ गुणपर्याययोः को भेदः? इत्यत्रोच्यत्ते, सहभाविनो गुणाः, क्रमभाबिनः पयाँया इति । गुणा हि द्रव्येण सह विकालावच्छेदेन वर्तन्ते, न तु पायाः, तेपा क्रमवत्तित्वादिति भावः । तथा फोक्तम्
अन्चयिनः किल नित्या गुणाश्च निर्गुणावयवा ह्यनन्तांशाः । एमाश्रया विमाशप्रादुर्भावाः स्वशक्तिभिः शश्यन् ।। व्यतिरेकिगो ह्यनित्यास्तत्काले द्रव्यतन्मयाश्चापि । ते पर्षापा द्विविधा द्रव्यावस्थाविशेषधांशाः ।।
--अध्यात्मक० २-६, ६ । ४ ननु सामान्यविशेषावपि पर्यायावेव, तत्कश्रमत्र तयोः पर्यायेभ्यः पृथग निर्देश इत्यत प्राह यद्यपोति । सामान्यविधी सपि पर्यायावेव सथाप्याऽऽगमप्रकरणानुरोधात्तयोः पृथनिर्देशकर्तव्यस्यावश्यकत्वादिनि ।
1 द 'मत' । 2 मु 'निबन्धनस्य शब्दव्यवहारविपयत्वादागम'।
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१२२
न्याय-दीपिका
प्रस्तावे तयोः पृथग्निर्देशः । । तदनयोर्गुणपर्याययोः द्रव्यमाश्रयः, "गुणपर्ययवद् द्रव्यप्” [ तत्त्वार्थसू० १ ३८ ] इत्याचार्यानुशासनात्' । तदपि सस्वमेव "सत्त्वं द्रव्यम्" [ ] इत्यकलङ्कीयवचनात् 21
[सत्वं द्विधा विभज्य द्वयोरप्यनेकान्तात्मकत्वप्ररूपणम् ] १७६. 'तदपि जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं चेति संक्षेपतो द्विविघम् । 'द्वयमप्येतदुत्पत्तिविनाशस्थितियोगि “उत्पादव्ययश्राव्ययुक्तं सत्" [ तत्वार्थमृ० ५-३० ] इति निरूपणात् । तथा हि-जीव
१ उपदेशात् । २ भगवता श्री उमास्वातिनाऽप्युक्तम्— 'सद्रव्यलक्षणम्' - तवायंसू० ५-२६ । ३ त्वमपि । ४ जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं चापि । ५ समन्तभद्र स्वामिभिरपि तथैव प्रतिपादनात् । तथा हि
घट-मौलि सुवर्णार्थी नाशोत्पाद स्थितिष्वयम् । शोक- प्रमोद - माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ पयोव्रतो न दध्यति न पयोऽत्ति रधिव्रतः । अगोरसव्रतो नोभे तस्मात्तस्वं प्रयात्मकम् ॥
י
-
-- प्राप्तभी० १० का ० ५६, ६०१
इदमत्राकूतम् सर्वं हि वस्तुजातं प्रतिसमयमुत्पादव्यय प्रौव्यात्मकं ममनुभूयते । पदार्थो हि जनस्य घटविनाशे शोक, मुकुटाचिनो मुकुटत्वादेहः, सुवर्णाचिनश्च सुवर्णसत्त्वे माध्यस्थ्यं जायमानं दृश्यते । न चैत निर्हेतुकं सम्भवति तेन विज्ञायते सुवर्णादिवस्तु उत्पादादित्रयात्मकम्, तदन्तरेण शोकाद्यनुपपतेरिति । एवं यस्य पये दुग्धमेवाहं भुजे इति यतं
| द 'तनयो' | 2 था प 'इत्याकरजवचनात्', पासुन
'इत्याकरजवचनात् '
ते पाटो निक्षिप्तः । स च युक्तः प्रतिभाति । -सम्पा०
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३. परोक्ष-प्रकाशः
१२३ द्रव्यस्य स्वर्गप्रापकपुण्योदये सति मनुष्यस्वभावस्य ध्ययः, दिव्य1. स्वभावस्योत्पादः, चैतन्यस्वभावस्य ध्रौव्यमिति । जीवद्रव्यस्य 'सर्वथैकरूपत्वे2 पुण्योदयवैफल्यप्रसङ्गात् । सर्वथा भेदे पुण्यवामन्यः फलबानन्य इति पुण्यसम्पादनवैयर्यप्रसङ्गात्' । उपरोपकारेऽप्यात्मसुकृतार्थ मेव प्रवर्तनात्4 तस्माज्जीवद्रव्यरूपेणाभेदो मनुष्य देवपर्यापारको भेद इति प्रतिनियालिदलविरोधी भेदाभेदी प्रामाणिकावेव।
नियमः, नासो दध्यत्लि-दधि भुंक्त । यस्य च दम्यहं भुजे इति व्रतम् नासो पोत्ति-दुग्ध भुक्ते । यस्य चागोरसमह भुजे इति व्रतम्, नासाबुभयमत्ति । कुतः ? गोरसपण तयारकत्वात् । दुग्धन्नतस्य दधिरूपेणाभावात्, दचित्रतस्य पयोमपणाभावात्, अगोरसत्रतस्य दधिदुग्धरूपेणाभावात् । तस्मात्तत्त्व बस्नु प्रयात्मवां स्थित्युत्पतिव्ययात्मकं सुघटमेतदनेकान्ते जैनमते दति ।'प्राप्तमो० ऋ० का० ६० । श्रीपण्डितप्रबरराजमल्लेनाप्युक्तम्
कश्चित्पर्यविगमव्येति वश्यं ा देति समकाले । अन्यः पर्ययभवर्षमारेण शाश्वतं द्रव्यम् ॥
-प्रध्यात्मक० २-१६ । १ पर्यायेभ्यः सर्वथाभेदे । २ मनुष्यादिपर्याय म्यो जीवन व्यस्य कथञ्चिदप्यन्वयाभात्रे कृतस्य फलाभावादकृतस्य च फल प्राप्ते: पुण्यसम्पादन व्यर्थमेव स्यात् । कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गश्च स्यादिति भाव: । ३ . मावतृभूयमानौ भेदाभेदी मिथ्याभूतो विरुद्धौ वा। तया चोक्तं श्री
I म मु 'देव'। 2 म प 'कान्तरूपे', मु 'कान्तरूपत्वे' । । म 'कारोऽप्या', म 'कारस्याप्या' । 4 4 'प्रर्तमानात्', मु 'प्रवर्त्तमानत्वात्' । 5म 'मनुष्यपर्यायदेवपर्याय' । 6 व 'प्रतिनियम' ।
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१२४
न्याय-दीपिका ६८०, तर्थवाजीवस्या मृद्रव्यस्यापि मृदः पिण्डाकारस्य व्ययः, पृथुबुध्नोदराकारस्योत्पादः, मृद्रूपस्य ध्रुवत्वमिति सिद्धमुत्पादादियुक्तत्वमजीवद्रव्यस्य2 ! स्वामिसमन्तभद्राचार्याभिमतानुसारी वामनोऽपि सदुपदेशात्प्राक्तनमज्ञानस्वभावं हन्तुमुपरितनमर्थज्ञानस्वभावं स्वाकर्तुं च यः समर्थ प्रात्मा स एव शास्त्राधिकारीत्याह "न शास्त्रमसद्व्यश्वर्थवत्"[ ]इति । तदेवमनेकान्तात्मक वस्तु प्रमाणवाक्यविषयत्वादर्थत्वेनावतिष्ठते । तथा च प्रयोगः–'सर्वमनेकान्तात्मकं सत्त्वात् । यदुक्तसाध्यं न, तन्नोक्तसाधनम्, यथा गगनारविन्दमिति ।
६८१. ननु यद्यप्यरविन्दं गगने नास्त्येव तथापि सरस्यस्तीति ततो न सत्त्वरूपहेतुबळ्यावृत्तिरिति 5 चेत्; तहि तदेतदरविन्दमधिकरणविशेषापेक्षया सदसदात्मकमनेकान्तमित्यन्वयदृष्टान्तत्व' भवतंव प्रतिपादितमिति सन्तोष्टव्यमायुध्मता । 'उदाहृतवाक्ये.
भद्राचार्यः
प्रमाणगोचरौ सन्तो भेदाभेदी न संवृती। तावकन्नाविरुद्धौ ते गुणमुख्यविवक्षया ॥
___-प्राप्तमो० का ३६ । १ यदुक्तम्'त व्यपर्यायान्माऽर्थो बहिरनमश्च तत्त्वतः।' '
-लधोय० का ७ । २ अरविन्दस्येति शेषः । ३ प्रत्यक्षेणानुमानेन च वस्तुनोऽनेकान्ता1 मु तथैवाजीवद्रव्यस्यापि' २ म म मजीवस्य'। 3 मु 'भिमतमतानु'। 4 ग्राम म 'सत्वहेतु' । 5 व मु 'इति' नास्ति ।
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२. पक्षि प्रकाशः
१२५ नापि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां मोक्षकारणत्वमेव, न संसारकारणत्वमिति विपयविभागेन कारणाकारणात्मकत्वं प्रतिपाद्यते । 'सर्व वाक्यं सावधारणम् इति न्यायात । एवं प्रमाणसिद्धमने5 कान्तात्मक बस्तु।
[नयं स्त्ररूपतः प्रकारतश्च गिाय सप्तभङ्गीप्रतिपादनम्
८२. नया विभज्यन्ते। । ननु कोऽयं नयो नाम2 ? उच्यते; प्रमाणगृहीनार्थकदेशग्राही 'प्रमातुरभिप्रायविशेप:3 | "नयो ज्ञातुरभिप्रायः [लघीयका० ५२] इत्यभिधानात् । स नयः संक्षेपेण वैधा'--द्रव्यार्थिक कारः पर्यायाथिकनयश्चेति । तत्र दव्याशिकमयः
हमवत्वं प्रसाध्यागमेनापि तत्प्रसाधनार्थमा उदाहुतेति । अयं भान:'सम्यग्दर्शनज्ञानवारिपाणि मोक्षमार्गः' इत्यागमो यथा सम्यग्दर्शनादिअगाणां समुदितानां मोक्षकारणत्वं प्रतिपादयति तथा संसारकारणत्वाभावमपि । तथा चागमादपि सम्यग्दर्शनादीनां कारणाकारणात्मकत्वमनेकान्तस्वरू प्रतिपादितं बोद्धव्यम् । १ श्रुतज्ञानिनः । अभिनायो विषक्षा । २ सम्पूर्ण श्लोवारित्वत्थम्
जानं प्रमाणमात्मादेरुपायो न्यास इष्यते ।
नयो ज्ञातुरभिप्रायो मुक्तिोऽयपरिग्रहः ॥ ___३ 'नयों द्विविधः-प्रत्याश्रिकः गर्यायाथिकश्च । पर्यापाथिकनयेन पर्यायतत्वमधिगन्तव्यम् । इतरेषां नामस्थापनाद्रव्याणां द्रव्याधिकेन, सामान्यात्मकल्यात् ।'-मधिगि०१-६। यथोक्तं श्रीविद्यानन्दस्वामिभिःसंक्षेषाद् द्वौ विशेषेण द्रव्यपर्यायगोचरौ।'.-त० श्लो० पृ० २६८ । _ ----
1 द 'अव नयं विभन्नति' पाठः। 2 व 'नाम नयः। 3 मम 'नयः' इत्यधिक. पाठः ।
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भ्याय-दीपिका
द्रव्यपर्यायरूपमेकानेकात्मकमनेकान्तं प्रमाणप्रतिपन्नमर्थ विभज्य पर्यायाथिकनयविषयस्य भेदस्योपरार्जनभावेनावस्थानमात्रमभ्यनुजानन् । स्वविषयं द्रव्यमभेदमेव व्यवहारयति, "नयान्तरविषयसापेक्षः सन्त्रयः"[ ]इत्यभिधानात् । यथा सुवर्णमानरेति । अत्र हाशिम दयापिणा सवर्णद्रव्यानयनचोदनायां काटकं कुण्डल केयूर चोपनयन्नुपनेता कृती भवति, सुवर्णरूपेण कटकादीनां भेदाभावात् । द्रव्याथिकनयमुपसजनीकृत्य प्रवर्तमानपर्यायार्थिफनयमबलम्ब्य कुण्डलमानयेत्युक्ते न कटकादौ प्रवर्तते, कटकादिपर्यायात् कुण्डलपर्यायस्य भिन्नत्वात् । ततो द्रव्याथिकनयाभिप्रायेण सुवर्ण स्यादेकमेव.। पर्यायाथिकनयाभिप्रायेण स्यादनेकमेव । नामे गोभयनयाभिप्रायेण स्यादेकमनेकं च । युगपदुभयःनयाभिप्रायेग स्यादवक्तव्यम्, बुगपत्प्राप्तेन नयद्वयेन विविक्तस्वरूपयो रेकत्वानेकत्वयोविमर्शासम्भवात् । न हि युगपदुपनतेन शब्दद्वयेन घटस्य प्रधानभूतयो रूपवत्त्वरसवत्वयोविविक्तस्वरूपयोः प्रतिपादनं शक्यम् । तदेतदवक्तव्यस्वरूपं तत्तदभिप्रायरूप.
'स द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च । द्रवति द्रोयति अगुवत् इति द्रव्यम्, तदेवार्थोऽस्ति यस्य सो म्याधिकः ।' लघीय. का. स्वी३०। १ उक्तं चमेवाभेवात्मके शेये भेदाभेदाभिसन्धयः । थे तेऽपेक्षानपेक्षरम्या लक्ष्यन्ते नयदुर्नयाः ॥-- लधोप०का. ३० ।
14 'मभ्यनुजानानः' । 2. मु 'कटकादिपर्यायस्य ततो भिन्ना [त्। 3 द'च' नास्ति । 4 व एवं च युगपभय'। 5 मा म मु 'का' (सत्वयो।
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. ३. परोक्ष-प्रकाशः
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नतेनैकत्वादिना समुचितं स्यादेकमवतव्यम्, स्यादनेकमवक्तव्यम, स्यादेकानेकमवक्तव्यमिति स्यात् । संघा नयविनियोगपरिपाटी सप्तमङ्गीत्युच्यते, भङ्गशब्दस्य वस्तुस्वरूपभेदवाचकत्वात् सप्तानां भङ्गानां समाहारः सप्तभङ्गीति' सिद्धेः।
८३. नन्वेकत्र वस्तुनि सप्तानां भङ्गानां कथं सम्भव: इति चेत् ; यथैकस्मिन् रूपवान् घट: रसवान् गन्धवान स्पर्शबानिति
१ मनु केयं सप्तभङ्गी इति चेन्; उच्यते; 'प्रश्नवशादेका वस्तुन्यविरोन विधिनिषेधरल्पना गप्नाङ्गो-नस्वार्थवासिक १-६ । 10 न्यायविनिश्चऽपि थीमदकलदेवष्क्तम्
द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषविभागतः ।
स्याद्विधिनिषेधाभ्यां सप्तमङ्गी प्रवर्तते ।।४५१॥ ' धीयशोजिजयोऽप्याह-'एकत्र वस्तुन्येककधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात्काराङ्कितः सप्तधा 15 वाक्यप्रयोगः सप्तभङ्गी । इयं च सप्तभङ्गी वस्तुनि प्रतिपर्याय सप्तत्रिधधर्माणां सम्भवात् सप्तविधसंशवोत्यापितसप्तविजिज्ञासामूलराप्तविधप्रश्नानुरोधादुपपद्यते ।'-जनतर्कभा० पृ० १६ । 'ननु एकत्राऽपि जीवादिवस्तुनि विधीयमाननिषिध्यपानानन्तधर्मसद्भावात्त कल्पनाऽनन्तभड़ी स्यान् (न तु सप्तमजी): इति चेन्न; अनन्तानामपि सप्तमङ्गीनामिष्ट- 20 त्वात, तवकल्वानेकत्वादिकल्पनयाऽपि सप्तानामेव भङ्गानामुपपत्तेः, प्रतिपाद्यपदनानां तावतामेव सम्भवान्, प्रश्नवशादेव सरतभङ्गीति नियमवचनात् । सप्तविथ एव तत्र प्रश्नः कुत इति चेत्, सप्तत्रिजिज्ञासाघटनात् । सापि सप्तविधा कृत इति नेन्, सप्तधा संयोत्पनः । सप्तर्षव संशयः कथमिति चेन्, द्विपयवस्तुघभसप्तविधत्वात ।'–प्रष्टस• पृ० 25 .१२५, १२६ । २ नेते वस्निष्ठाः सप्त धर्मा इत्यत्रोच्यते (१) मत्त्वम्,
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न्याय - दीपिका
पृथग्व्यवहारनिबन्धना। रूपवत्त्वादिस्वरूपभेदाः सम्भवन्ति तथैवेति सन्तोष्टव्यमायुष्मता ।
६ ८४. एवमेव परमद्रव्यार्थिकनयाभिप्रायविषयः परमद्रव्यं सत्ता2, तदपेक्षया "एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म, नेह नानास्ति किञ्चन", सद्रूपेण वेतनानामचेतनानां च भेदाभावात् । भेदे तु सद्विलक्षणत्वेन तेषामसत्त्वप्रसङ्गात् ।
१२५
८५. ऋअवयस्तु परमार्थिकः स हि भूतत्वभषिष्यत्वाभ्यामपरामृष्टं शुद्धं वर्तमान कालावच्छिन्नवस्तुस्वरूपं 3 परामृशति । तन्नयाभिप्रायेण बौद्धाभिमतक्षणिकत्वसिद्धिः । एते नयाभिप्रायाः सकलस्वविषयाशेषात्मक मनेकान्तं प्रमाणविषयं विभज्य व्यवहारयन्ति । स्यादेकमेव वस्तु द्रव्यात्मना न नाना4, स्यासानंद पर्यायात्मना नैकमिति । तदेतत्प्रतिपादितमाचार्यसमन्तभद्रस्वामिभिः
'अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाण- नयसाघनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽपितातयात् ॥
[ स्वयम्भू० १०६ ] इति ।
(२) असत्त्वम्, (३) क्रमागतोभयं सत्त्वासत्त्वाख्यम्, (४) सहापितोभयमवक्तव्यत्वरूपम्, (५) सत्त्वसहित मत्र क्तव्यत्वम्, (६) असत्त्वसहितमवकाव्यत्वम्, (७) सत्त्वासत्त्वविशिष्टमनस्त्वमिति ।
१ ननु सर्वस्य वस्तुनोऽनेकान्तात्मकत्वेऽनेकान्तस्याप्यनेकान्तारमकत्वं
1 'निबन्धन' 2 मु 'परमद्रव्यसत्ता' 3 म मु 'वस्तुरूपं' | 4 म ग स्यादेकमेव द्रव्यात्मना वस्त नो नाना'
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३. परोक्ष-प्रकाशः
१२६ 'अनियतानेकधर्मवद्वस्तुविषयत्वात्प्रमाणस्य, नियतकधर्मवद्वस्तुविषयत्वाच्च नयस्य । यद्येनामाईती सर्राणमुल्लध्य सर्वथकमेवाद्वितीयं नाश नेह नानास्ति निनाद. काचिदपि ! गना नेत्याग्रहः स्यात्तदेतदर्थाभासः । एतत्प्रतिपादक वचनमपि2 आगमाभासः, प्रत्यक्षेण "सत्यं भिदा तत्त्वं भिदा' [ ] इत्यादिनाऽऽगमेन च बाधितविषयत्वात् । सर्वथा भेद एव, न कथञ्चिदप्यभेद इत्यत्राप्येवमेव विज्ञेयम्', सद्रूपेणापि भेदेऽसत:
परिकल्पनीयम्, तथा चानवस्था इत्यवाह अनेकान्तोऽप्यनेकान्त इति । इदमत्राकृतम्-प्रमाणनयसाधनत्वेनानेकान्ताऽप्यनेकान्तात्मकः । प्रमाणविषयापेक्षया नेकान्तात्मकः, विवक्षितनविषयापेक्षया एकान्तात्मकः। एकान्तो द्विविधः--सम्यगेकान्त: मिध्येकान्तश्च । तत्र सापेक्षः सम्यगेकान्तः, स एव नयविषयः । अपरस्तु निरपेक्षः, स न नयविषयः, अपि तु बुनयविषयः; मिथ्याख्यत्वात् । तदुक्तम्-'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत' इति । तथा चानकान्तग्याप्यनेकान्तात्मकत्वमविरुद्धम्, प्रमाणप्रतिपन्ने वस्तन्यनवस्थादिदोपानवकाशादिति ध्येयम् ।। १ प्रमाणनययोः को भेदः ? इत्यात प्राह अनियतेति । उक्तं च
"प्रर्थस्थानेकरूपस्प घी: प्रमाणं तदंशाधीः ।
नयो धर्मान्तरापेक्षा दुर्नयस्तन्निराकृतिः ॥' २ तस्यापि प्रत्यक्षादिना बाधितत्वाश्याभासत्वं बाध्यमिति भावः । अमर
1 द 'तत्कथंचिदपि । 2 प्राप पालप्रतिपादकमपि वचन', मम 'एनत्यतिपादकतिवचन।
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न्याय-दीपिका अर्थक्रियाकारित्वासम्भवात् ।
८६. ननु प्रतिनियताभिनायगोचरतया पृथगात्मनां परस्परसाहचर्यान पेक्षायां । मिश्याभूतानामेकत्वानेकत्वादीनां2 धर्माणां साहचर्यलक्षणसमुदायोऽपि मिथ्र्यवेति चेत्, तदङ्गीकुर्महे, परस्परोपकार्योपकारकभावं बिना स्वतन्त्रतया नरपेक्ष्यापेक्षायां पटस्वभावविमुख तन्तुसमूहस्य शीतनिवारणाद्यर्थक्रियावदेकत्वानेकत्वादोनामर्थ क्रियायां सामर्थ्याभावात् कथञ्चिन्मिध्यात्वस्यापि सम्भवात् । तदुक्तमाप्तमीमांसाया स्वामिसमन्तभद्रा- : चायःमिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यकान्ततास्ति नः ।
पापेक्षयाऽपि घटादिवस्तूनां सर्वथा भेदेऽमत्त्वप्रसङ्गात् । तथा च खपुष्पवदेव तत्सर्व स्यात् । तदुक्तम्
सदात्मना च भिन्न चेत् ज्ञानं शेयात् द्विषाऽप्यसत् । शानाभावे कथं मयं बहिरन्तश्च ते विषाम् ।।
—प्राप्तमी० का ३० । १ अर्थक्रियाकारित्वं हि सतो लक्षणम् । असत्त्वे च तम्न स्वादिति भावः । २ अनेकान्ततत्वे दूषणमुद्रादयन् पर: शङ्कते नन्विति । ३ स्वोक्तमेव प्रकरगफारः श्रीमत्समन्तभनस्वामिवचनेन प्रमाणयत्ति तदुक्तमिति । ४ अस्माः कारिकाया अयमर्थः—ननु एकत्वानेकत्व-नित्य
1 म साहब नगेक्षाणां' । 2 मु 'मेकत्वादीनां' । ३ प विमुक्तसन्तु. समूहस्य', म 'विमुक्तस्य तन्तसमूहस्य :
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३. परोक्ष-प्रकाश 'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु ते ऽयंकृत् ॥१०॥इति 1
५७. ततो "नयप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिः' इति सिद्धः सिद्धान्तः । पर्याप्तमाममप्रमाणम् ।
त्वानित्यत्यादीनां सर्वथैकान्तरूपाणां धर्माणा मिथ्यात्यात्तत्समुदायरूप स्याद्वादिभिरम्युपगतोऽनेकान्तोऽपि मिध्यव स्यात् । न हि विषणिकाया विषत्वे तत्समूहम्याक्षित्वं कैदिचदम्यूपगम्यते । नन्न युक्तम् मिथ्यासमूहस्य जनरनभ्युपगमान् । मिथ्यात्वं हि निरपेक्षत्वम्, तमच नास्माभिः स्वीमियते, मापेक्षाणामेव धर्माणां समूहल्यानंकान्तत्वाभ्युगगमात् । तत एव चार्थक्रियाकारित्वम्, अर्थवियाकारित्वाच्च देषां वस्तुत्यम् । कम-योगपद्याभ्यां घनेकान्न एवायंक्रिया व्याप्ता, नित्यक्षणिकायेकान्ते तदनुपपत्तेः । तथा च निरपेक्षा नया मिध्या–अर्थक्रियाकारित्वाभावादसम्यक्, प्रवस्तु इत्यर्थः 1 सापेक्षास्तु ते वस्तु-सम्यक्, अर्थक्रियाकारित्वादिति दिक् ।
१ निरपेक्षत्वं प्रत्यनीकधर्मस्य निराकृति: सापेक्षत्वमुपेक्षा, अन्यया प्रमाणनयाविशेषप्रसङ्गात् । धर्मान्तरादानोगेक्षाहानि-लक्षणस्यात् प्रमाणनय-. दुर्नयानां प्रकारान्तरासम्भवाच्च । अष्टश०का० १०८ । २ ते सापेक्षा नयाः। ३ प्रक्रियाकारिणो भवन्तीति क्रियाध्याहारः । ४ पूर्वोक्तमेवोपसहरति ततो इनि । ५ नयाब्दस्याल्पात रत्वात् 'प्रत्यासनेर्बलीयान्' इति न्या. याच्च पूर्वनिपानो बोध्यः । ६ यः खलु 'प्रमाणनयरधिगमः' इति मिलातः प्रकरणादावुपन्यस्तः म सिद्ध इति भावः । . भागमाल्यं पक्ष प्रमाणं ययेप्सितं नमाप्तम् ।
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म्यार-दीपिका
'मद्गुरोर्वर्द्धमानेशो वर्द्धमानदयानिधेः । श्रोपावस्नेहसम्बन्धात् सिद्धयं न्यायदीपिका2 ॥२॥ इति श्रीमहलमानभट्टारकाचार्य गुरुकारुण्यसिद्धसारस्वतोदयश्रीमदभिनवधर्मभूषणाचार्यविरचितायां न्यापरीपिकायां परोक्षप्रकाशस्तृतीयः3 ॥३॥ समाप्तेयं न्यायदीपिका ।
-::
१ ग्रन्थकारा: श्रीमदभिनवधर्मभूषण यतयः प्रारब्धनिर्वहणं प्रकाशयनाहुर्मगुरोरिति । सुगममिदं पद्यम् । समाप्तमेतत्प्रकरणम् ।
जैनन्याय-प्रवेशाय शालानां हितकारकम् । दीपिकायाः प्रकाशाक्यं टिप्पणं रचितं मया ॥१॥ दिसहस्रकवर्षाब्बे हपाते विक्रमसंजके । भावस्य सितपञ्चम्यां सिद्धमेसस्सुबोधकम् ।।२।। मतिमान्धात्प्रमादावा यदत्र स्खलनं पचिन् ।
संशोम्यं तखि विनिः मन्तध्यं गुणदृष्टिभिः ।।३॥ इति श्रीमदभिनवधर्मभूषणपतिविरचिताया न्यायदीपिकाया न्यायतीर्थ जनदर्शनशारित्र-न्यायाचार्यपण्डितवरनारीलालेन रचितं प्रकाशास्यं टिप्पणं समाग्नम् ।
-::
14 'यद्गुरो पाठः । 2 पद्यमिदं म प मु प्रतिषु नोपलभ्यते 1 3 श्रा पर 'परोक्षप्रकाशस्तृतीयः' पाठो नास्ति । तत्र 'पागमप्रकाशः' इति पाठो वर्त्तते ।-सम्पा
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श्री-समन्तभद्राय नमः श्रीमदभिनव-धर्मभूषण-यति-विरचित
न्याय-दीपिका
हिन्दी अनुवाद
पहला प्रकाश
मंगलाचरण और ग्रन्थ-प्रतिमापन्य के प्रारम्भ में मंगल करना प्राचीन भारतीय प्रास्तिक परम्परा है । उसके भनेक प्रयोजन और हेतु माने जाते हैं । १ निविघ्नशास्त्र-परि-समाप्ति २ शिष्टाचार-परिपालन ३ नास्तिकता परिहार ४ कृतज्ञता प्रकाशन प्रौर ५ शिष्य-शिक्षा। इन प्रयोजनों को संग्रह करने वाला निम्नलिखित पद्य है, जिसे पण्डित प्राशावरजी ने अपने अनगारधर्मामृत को टोका में उद्धृत किया है :
नास्तिकत्वपरीहारः शिष्टाचारप्रपालनम् । पुण्यावाप्तिश्च निविघ्नं शास्त्रादावाप्तसंस्तवात् ।।
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न्याय-दीपिका इसमें नास्तिकतापरिहार, शिष्टाचारपरिपालन, पुण्यावाप्ति और निविनशास्त्र परिसमाप्तिको मङ्गलका प्रयोजन बताया है। कृतज्ञता. प्रकाशनको प्राचार्य विद्यानन्दने और शिष्यशिक्षाको प्राचार्य
अभयवेवने' प्रकट किया है । इनका विशेष खुलासा इस 5 प्रकार है :
१. प्रत्येक ग्रन्थकारके हृदय में प्रन्थारम्भके समय सर्व प्रथम यह कामना अवश्य होती है कि मेरा यह प्रारम्भ किया प्रन्यरूप कार्य निर्विघ्न समाप्त हो जाय । वैदिकदर्शममें 'समाप्तिकामो
मङ्गलमाचरेत्' इस वाक्य को श्रुति-प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करके 10 समाप्ति और मङ्गल में कार्यकारणभाव को स्थापना भी की गई है।
न्यायदर्शन और वैशेषिक दर्शन के पीछे के अनुयायियों ने इसका अनेक हेतुनों और प्रमाणों द्वारा समर्थन किया है। प्राचीन नयायिकों ने समाप्ति और मङ्गल में अव्यभिचारी कार्यकारणभाव
स्थिर करने के लिए विनयसको समाप्ति का द्वार माना है और 15 जहाँ मङ्गल के होने पर भी समाप्ति नहीं देखी जाती वहां मङ्गल
में कुछ कमो ( साधनवंगुण्यादि ) को बतलाकर समाप्ति और मङ्गन्स के कार्यकारणभाव को सङ्गति बिठलाई है। तथा जहाँ मङ्गल
१ "अभिमतफलसिद्धरम्पपाय: सुबोधः प्रभवति स च शास्त्रात् तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तरप्रसादात्मयुद्धनं हि कृतमुपकार साघवो विस्मरन्ति ।।"
–तस्वार्थ श्लो. पृ. २ । २ देखो, सन्मतितकंटीका पृ. २ । ३ देखो, सिद्धान्तमुक्तावली प, २, दिनकरी टीका पृ.६ ।
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पहला प्रकाश
के बिना भी अन्य-समाप्ति देखी जाती है वहाँ अनिबद्ध ब्राधिक अथवा मानसिक या जन्मान्तरीय मङ्गत को कारण माना जाता है । नवीन नैयायिकों का मत है कि मङ्गल का सीधा फस तो विश्नध्वस है और समाप्ति ग्रन्थकर्ता को प्रतिभा, बुद्धि और पुरुषार्थ का फल है। इनके मत से विघ्नध्वंस और मङ्गल में कार्यकारण• 5 भाव है।
जम तार्किक प्राचार्य विद्यानन्द ने किन्हीं जनरनार्य के नाम से निर्विघ्नशास्त्रपरिसमाप्ति को और वादिराज' प्रादि ने निविघ्नता को मङ्गाल का फल प्रकट किया है।
२. मङ्गस करना एक शिष्ट कर्तव्य है। इससे सदाचार का 10 पालन होता है। अतः प्रत्येक शिष्ट ग्रन्थकार को शिष्टाचार परिपालन करने के लिए अन्य के प्रारम्भ में मङ्गल करना आवश्यक है। इस प्रयोजन को पा० हरिभद्र और विद्यानन्द ने भी माना है।
३. परमात्मा का गुण-स्मरण करने से परमात्मा के प्रति अन्यफर्सा की भक्ति और श्रद्धा सथा मास्तिक्यबुद्धि स्यापित होती है।। और इस तरह नास्तिकता का परिहार होता है । प्रतः ग्रन्थकर्ताको ग्रन्थ के आदि में नास्तिकता के परिहार के लिए भी मङ्गल करना उचित और पावश्यक है।
४. अपने प्रारम्प प्रग्य की सिद्धि में अधिकांशतः गुरुजन ही निमित्त होते हैं। चाहे उनका सम्बन्ध ग्रन्य-सिद्धि में साक्षात् हो 24 या परम्परा । उनका स्मरण अवश्य ही सहायक होता है। यदि उनसे या उनके रचे शास्त्रों से मुदोष न हो तो प्रन्य-निर्माण नहीं
१ मुक्तावली पृ० २, दिनकरी पृ६ । २ तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक पृ० १।। ३ न्यायविनिश्चयविवरण लिस्त्रितप्रति पत्र २४ अनेकान्तजयपताका पृ०२। ५ तत्त्वार्थश्लो० पृ० १, माप्तप० १०३।
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न्याव-दीपिका
।
हो सकता। इहालिये प्रत्येक कृतन ग्रन्थकार का कर्तव्य होता है कि वह अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में कृतज्ञता-प्रकाशन के लिए परापर गुवनों का स्मरण करे। अतः कृतज्ञता प्रकाशन भी मङ्गल का
एक प्रमुख प्रयोजन है। इस प्रयोजन को प्रा. विद्यानन्दादि ने 5 स्वीकार किया है।
५. प्रन्थ के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण को निबद्ध करने से शिष्यों, प्रशिष्यों और उपशिष्यों को मङ्गल करने को शिक्षा प्राप्ति होती है। अतः शिष्या अपि एवं कुर्युः' अर्थात् शिष्य- समुदाय भी
शास्त्रारम्भ में मतल करने की परिपाटो को कायम रक्खे, इस 10 बात को लेकर शिष्य-शिक्षा को भी मङ्गल के अन्यतम प्रयोजन रूप में
स्वीकृत किया है। पहले बतला पाए हैं कि इस प्रयोजन को भी जैनाचार्यों ने माना है।
इस तरह जनपरम्परा में मंगल करने के पांच प्रयोजन स्वीकृत किए गए हैं। इन्हीं प्रयोजनों को लेकर ग्रन्थकार थी अभिनव धर्म15 भूषण भी अपने इस प्रकरण के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण करते हैं
और प्रन्थ-निर्माग (न्याय-बीपिका के रमने) की प्रतिज्ञा करते हैं:
वीर, प्रतियोर, सन्मति, महावीर और बर्द्धमान इन पांच नाम विशिष्ट अन्तिम तीर्थंकर श्री पर्द्धमान स्वामी को अथवा "अन्त
रङ्ग और बहिरङ्ग' विभूति से प्रकर्ष को प्राप्त समस्त जिनसमूह को 20 नमस्कार करके मैं (अभिनव धर्मभूषण) न्यायस्वरुप जिज्ञासु बालकों
(मन्द जनों) के बोधार्थ विशन, संक्षिप्त भोर सुबोध ग्याय-दीपिका' (न्याय-स्वरूप को प्रतिपादक पुस्तिका) ग्रन्थ को बनाता हूँ।
प्रमाण और नमके विवेचन की भूमिका
'प्रमाणनपरधिगमः' [त० सू०१-६] यह महाशास्त्र तत्त्वार्थ25 सूत्र के पहले प्रध्याय का छठवां सूत्र है। यह परमपुरुषार्थ मोक्ष
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सम्यग्ज्ञान
के कारणभूत' सम्यग्दर्शन, और सम्यक्चारित्र के विषय जीव श्रज्जीव, प्रखव, वय, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तत्त्वों का ज्ञान करानेवाले उपायों का प्रमाण और नयरूप से निरूपण करता है; क्योंकि प्रमाण और नय के द्वारा ही जीवादि पदार्थों का विश्लेषण पूर्वक सम्यक्ज्ञान होता है । प्रमाण और नय को छोड़कर जीवाविकों के जानने में अन्य कोई उपाय नहीं है' । इसलिए जीवादि तत्त्वज्ञान के उपायभूत प्रमाण और नय भी विवेचनीय व्याख्येय हैं। यद्यपि इनका विवेचन करनेवाले प्राचीन ग्रन्थ विद्यमान हैं* तयापि उनमें कितने हो ग्रन्थ विशाल हैं और कितने ही अत्यन्त गम्भीर हैं छोटे गम्भीर है---छोटे होनेपर भी अत्यन्त गहन और दुरूह हैं। अतः उनमें बालकों का प्रवेश सम्भव नहीं है । इसलिए उन बालकों को सरलता से प्रमाण और नयरूप न्याय के स्वरूप का बोध करानेवाले शास्त्रों में प्रवेश पाने के लिए यह प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है ।
पहला प्रकाश
उद्देशादिरूपसे ग्रन्थ की प्रवृत्ति का कथन
P
इस ग्रन्थ में प्रमाण और नय का व्याख्यान उद्देश लक्षणनिर्देश तथा परीक्षा इन तीन द्वारा किया जाता है। क्योंकि विवेच नीप वस्तु का उद्देश – नामोल्लेख किए बिना लक्षणकथन नहीं
—
--------
1
१' सम्यग्दर्शनज्ञानचारिज्ञाणि मोक्षमार्गः त० सू० १-१ २ 'जीवाजीवाम्लवबन्धसंवर निजं रामोक्षास्तत्त्वम् त० सू० १-४ । ३ लक्षण और निक्षेपका भी यद्यपि शास्त्रों में पदार्थों के जानने के उपायरूपसे निरूपण है तथापि मुख्यतया प्रमाण और नय हो अधिगम के उपाय हैं। दूसरे लक्षणके ज्ञापक होनेसे प्रमाणमें ही उसका अन्तर्भाव हो जाता है और निक्षेप नयोंके विषय होने से नयोंमें शामिल हो जाते हैं । ४ ग्रकलङ्कादिप्रणीत न्यायविनिश्चय आदि । ५ प्रमेयकमलमार्त्तण्ड वगैरह । ६ न्यायविनिश्चय आदि ।
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न्याय-दीपिका हो सकता और लक्षणकयन किए बिना परीक्षा नहीं हो सकती
या परीक्षा हु कि त्रिन---जिर्णपात्रक वर्णन नहीं हो सकता। लोक और शास्त्र में भी उक्त प्रकार से (उद्देश, लक्षणनिर्वेद और परीक्षा द्वारा ) ही वस्तु का निर्णय प्रसिद्ध है। 5 प्रियेचनीय वस्तु के केवल नामोल्लेन करने को उद्देश्य कहते हैं ।
जैसे 'प्रमाणनौरधिगमः' इस सूत्र द्वारा प्रमाण और नय का उद्देश्य किया गया है। मिली हुई अनेक वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को प्रग करनेवाले हेतुको (चिन्ह को) लक्षण कहते हैं। जैसा कि
श्री अकसकदेव के राजवात्तिक में कहा है-'परस्पर मिली हुई 0 वस्तुओं में से कोई एक वस्तु जिसके द्वारा प्यावत्त ( अलग ) की
जाती हैं उसे लक्षण कहते हैं।' ___ लक्षण के दो भेद हैं...-..भामभूत और २ अनात्मभूत । यो प्रस्तु के रूप में मिला इमा हो. उसे आत्मभूत लक्षण कहते हैं.। जैसे अग्नि की उष्णता। यह उण ता अग्नि का स्वरूप होती
१ स्वर्णकार जैसे सुवर्ण का पहिले नाम निश्चित करता है फिर परिभाषा बांधता है और खोटे खरेके के लिए मसान पर रखकर परीक्षा करता है तब वह इस तरह सुवर्ण का ठीक निर्णय करता है । २ 'त्रिविघा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिः-उद्देशो लक्षणं परीक्षा चेति । तत्र नामवेमेन पदार्थमात्रस्याभिधानं उद्देशः । तत्रोद्दिष्टस्य तस्वष्यवच्छेदको धर्मो लक्षणम् । लक्षितस्य यथा लक्षणमुपपद्यते नवेति प्रमाण रवधारणं परीक्षा ।—ज्यायभा० १-१-२ ।
३ लक्षण के सामन्यलक्षण और विशेष लक्षण के भेदसे भी दो भेद माने गए हैं। यथा—'तद् द्वेषा सामान्यलक्षणं विशेषलक्षणम् च ।' प्रमाणमी. पृ० २ । न्यायदोपिकाकार को ये भेद मान्य है। जैसा कि ग्रन्थ के व्याख्यान से सिद्ध है । पर उनके यहां कयन न करने का कारण
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पहला प्रकाश
हुई अग्निको जलाबि पदार्थों से जुदा करती है । इसलिए उष्णता धग्नि का श्रात्मभूत लक्षण है। जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ न हो उससे पृष्पक हो उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे दण्डो पुरुष का दण्ड । 'दण्डी को लाभों ऐसा कहने पर दण्ड पुरुष में न मिलता हुआ ही पुरुष को पुरुषभिन्न पदार्थों से पृथक 5 करता है । इसलिए पुरुष का प्रभूला है। अंत तत्वार्थ राजदात्तिकभाष्य में कहा है: -- 'अग्नि को उष्णता प्रात्मभूत लक्षण है और देवदत्त का दण्ड अनात्मभूत लक्षण है ।' आत्मभूत और धनरभूत लक्षण में यही भेद है कि प्रात्मभूत लक्षण वस्तु के स्वरूपमय होता है और अनात्मभूत लक्षण वस्तु के 10 स्वरूप से भिन्न होता है और वह वस्तु के साथ संयोगादि सम्बन्ध से सम्बद्ध होता है ।
'असाधारण धर्म के कथन करने को लक्षण कहते है ऐसा किन्हीं ( नैयायिक और हेमचन्द्राचार्य) का कहना है पर वह ठीक नहीं है । क्योंकि लक्ष्यरूप धमिवचन का लक्षण रूप धर्मवचन के साथ सामा- 15 नाधिकरण्य ( शाब्द सामानाधिकरण्य) के प्रभाव का प्रसङ्गः प्राता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है:
यदि असाधारण धर्म को लक्षण का स्वरूप माना जाय तो लक्ष्यचचम और लक्षणवचन में सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता । यह नियम है कि लक्ष्य लक्षणभावस्थल में लक्ष्यवचन और 20 लक्षणवचने में एकार्थप्रतिपादकत्वरूप सामानाधिकरण्य अवश्य होता है। जैसे 'ज्ञानी जीवः' अथवा 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' इनमें यह है कि श्रात्मभूत और अनात्मभूत लक्षणों के कथन से ही उनका कथन हो जाता है। दूसरे, उन्होंने राजवातिककार की दृष्टि स्वीकृत की है जिसे माचार्य विद्यानन्द ने भी अपनाया है। देखो, स० श्लो० पृ० ३१८
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न्याय-दीपिका
शाम्ब सामानाधिकरण्य है। यहाँ 'जीवः' लक्ष्यवचन है। क्योंकि जीवका लक्षण किया जा रहा है। और 'ज्ञानी' लक्षणवचन है: क्योंकि वह जीव को अन्य अजीवादि पदार्थों से ज्यावृत्त कराता है । 'ज्ञानवान्
जीव है इसमें किसी को विवाब नहीं है। अब यहां देखेंगे कि 5 'जीवः' शब्द का जो अर्थ है वही 'शानी' शब्द का अर्थ है। और
जो शानी' शब्द का अर्थ है वही 'जीवः' शब्द का है। अतः दोनों का वाच्यार्थ एक है। जिन दो शब्दों-पदों का वाच्यार्थ एक होता है उनमें शान्दसामानाधिकरण्य होता है। जैसे 'नील कमलम् यहाँ
स्पष्ट है। इस तरह 'जानी' लक्षणवचन में और 'जीवः' लक्ष्यवचन10 में एकार्थप्रतिरादकरवरूप शब्दसामानाधिकरण्य सिद्ध है। इसी प्रकार
'सम्याज्ञान प्रमाणम्' यहाँ भी जानना चाहिए। इस प्रकार जहाँ कहीं भी निर्दोष लक्ष्यलक्षणभाव किया जावेगा वहाँ सब जगह शाब्वसामानाधिकरण्य पाया जायगा । इस नियम के अनुसार
'असाधारणपर्मवननं लक्षणम्' यहाँ असाधारणधर्म जब लक्षण होगा 15 तो लक्ष्य धर्मी होगा और लक्षणव वन धर्मोवचन तथा लक्ष्यवचन
धर्मीवचन माना जायगा । किन्तु लक्ष्यरूप धर्मोवचन का और लक्षणरूप धर्मवचन का प्रतिपाद्य अर्थ एक नहीं है । धर्मवचन का प्रतिपाद्य अर्थ तो धर्म है और धर्मवचन का प्रतिपाद्य अर्थ
धर्मी है। ऐसी हालत में दोनों का प्रतिपाच अर्थ भिन्न भिन्न होने से 20 धीरूप लक्ष्यवचन और धर्मरूप लक्षणवचन में एकार्यप्रतिपाद
कत्वरूप सामानाधिकरण्य सम्भव नहीं है और इसलिए उक्त प्रकार का लक्षण करने में शाम्बसामानाधिकरण्याभावप्रयुक्त असम्भव दोष प्राता है।
प्रव्याप्ति दोष भी इस लक्षण में प्राता है । दण्डावि प्रसाधा25 रण धर्म नहीं हैं, फिर भी वे पुरुष के लक्षण होते हैं। अग्नि की
उष्णता, बीथ का ज्ञान प्रावि जैसे अपने लक्ष्य में मिले हुए होते
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पहला प्रकाश
हैं इसलिए वे उनके असाधारण धर्म कहे जाते हैं । वैसे दण्डादि पुरुष में मिले हुए नहीं हैं—उससे पृथक हैं और इसलिए वे पुरुष के असाधारण धर्म नहीं हैं । इस प्रकार सक्षण रूप लक्ष्य के एक देश अनात्मभूत दण्डादि लक्षण में प्रसाधारण धर्म के न रहने से लक्षण (असाधारण धर्म) प्रव्याप्त है।
5 ___इतना ही नहीं, इस लक्षण में प्रतिव्याप्ति दोष भी आता है। शावलेयत्वादि रूप प्रयाप्त नाम का लक्षणाभास भो असाधारणधर्म है। इसका खुलासा निम्न प्रकार है :
मिथ्या अर्थात्-सदोष लक्षण को लक्षणाभास कहले हैं। उसके सीन भेद हैं :-१ अव्याप्त, २ अलियास प्रौर ३ मम्मा!ि सभा के 10 एक वेश में लक्षण के रहने को प्रयाप्त लक्षणाभास कहते हैं । जैसे गायका शावलेयत्व । शावलेयत्व सब गायों में नहीं पाया जाता वह मुछ ही गायों का धर्म है, इसलिए अच्याप्त है । लक्ष्य और प्रलक्ष्य में लक्षण के रहने को प्रतिय्याप्त लक्षणाभास कहते हैं । जैसे पाय का ही पशुत्व ( पशुपना लक्षण करना। यह 'पशुत्व गायों के 15 सिवाय प्रश्चावि पाश्नों में भी पाया जाता है इसलिए 'पशुत्व' प्रतिव्याप्त है। जिसकी लक्ष्य में बत्ति बाधित हो अर्थात जो लक्ष्य में बिलकुल ही न रहे वह असम्भवि त्वक्षणाभास है। जैसे मनुष्य का लक्षण सोंग । सौंग किसी भी मनुष्य में नहीं पाया जाता। अतः वह असम्भवि लागाभास है। यहाँ लक्ष्य के एक देश 20 में रहने के कारण ‘शावलेयत्व' प्रच्याप्त है, फिर भी उसमें प्रसाधारणधमत्व रहता है-'शावलेयत्व' गाय के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं रहता- गाय में ही पाया जाता है। परन्तु वह लक्ष्यभूत समस्त गापों का घातक – अषादि से जुदा करनेवाला नहीं हैकुछ ही गायों को व्यावृत्त कराता है । इसलिए अलक्ष्मभूत प्रयाप्त 25 लक्षणाभास में असाधारणधर्म के रहने के कारण अतिव्याप्ति भी
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न्याय-दीपिका
है। इस तरह असाधारण धर्म को लक्षण कहने में असम्भव, अव्याप्ति और प्रतिव्याप्ति ये तीनों ही दोष पाते हैं। प्रतः पूर्वोक्त (मिली हुई अनेक वस्तुओं में से किसी एक वस्तु के अलग करानेवाले हेतुको लक्षण कहते हैं। ही लक्षण दोष है।
मना लक्षण-निर्देश है। __विरोधी नाना युक्तियों को प्रबलता और दुर्बलता का निर्णय करने के लिए प्रवृत्त हुए विचार को परीक्षा कहते हैं । वह परीक्षा यदि ऐसा हो तो ऐसा होना चाहिए और यदि ऐसा हो तो ऐसा नहीं होना चाहिए' इस प्रकार से प्रवृत्त होती है।
प्रमाण के सामान्य समणका कयन
प्रमान और नयका भी उद्देश सूत्र 'प्रमाणनयरपिगमः') में हो किया गया है। अब उनका लक्षण -निर्देश करना चाहिए। और परीक्षा पपावसर होगी । 'उद्देश के अनुसार लक्षण का कथन होता है इस न्याय के अनुसार प्रधान होने के कारण प्रथमतः सहिष्ट प्रमाण का पहले लक्षण किया जाता है। ___ 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' अर्यात-सच्चे ज्ञान को प्रभाण कहते हैं-मो सान यथार्थ है वहीं प्रमाण है । यहां 'प्रमाग' लक्ष्य है। क्योंकि उसका लक्षण किया जा रहा है और 'सम्यग्ज्ञानत्व' (सस्था जानपना ) उसका लक्षक है। क्योंकि वह 'प्रमाण' को प्रमानभिन्न पदायों से व्यावृत्त कराता है। गाय का जमे 'सास्नावि' और अग्नि का जैसे 'उष्णता' लक्षण प्रसिद्ध है। यहां प्रमाण के लक्षण में जो 'सम्यक' पद का निवेश किया गया है वह संशय, विपर्यय और प्रनष्यवसाय के निराकरण के लिए किया है; क्योंकि ये तीनों मान अप्रमाण हैं-मिथ्याज्ञान हैं। इसका खुलासा निम्न प्रकार
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विरुद्ध अनेक पक्षोंका प्रदगाहन करनेवाले शानको संशय कहते हैं। जैसे—यह स्थाणु ( कुंठ } है या पुरुष है ? यहाँ 'स्थाणुत्व, स्थाणुस्वाभाव, पुरुषत्व और पुरुषत्वाभाच' इन चार अथवा 'स्थानत्व और पुरुषस्व' इन दो पक्षोंका प्रवगाहन होता है। प्रायः संध्या प्रादिके समय माद प्रकाश होनेके कारण दूरसे मात्र स्थाणु और पुरुष दोनों में सामान्यरूपसे रहनेवासे ऊंचाई प्रादि साधारम धर्मोके देखने और स्थानुगत टेढ़ापन, कोटरत्व प्रावि तथा पुरुषगत शिर, पर प्रादि विशेष धकि साधक प्रमाणोंका प्रभाव होनेसे नाना कोटियोंको अवगाहन करनेवाला यह संशय जान होता है।
विपरीत एक पक्षका निश्चय करनेवाले ज्ञानको विपर्यय कहते हैं। जैसे—सोपमें 'यह चांदी है' इस प्रकारका मान होना। इस मानमें सवृशता धादि कारणोंसे सोपसे विपरीत चांदीमें निश्चय होता है। अतः सोपमें सीपका जान न करनेवाला और चाँदीका निश्चय करनेवाला यह शान विपर्यय माना गया है। ___क्या हैं इस प्रकारके श्रनिश्चयरूप सामान्य ज्ञानको प्रनष्यव. साप कहते हैं। जैसे—मार्गमें चलते हुए तुण, कंटक आदिके स्पर्श हो जानेपर ऐसा मान होना कि 'यह क्या है। यह मान नाना पकोंका अवगाहन न करनेसे न संशय है और विपरीत एक पक्षका निश्चय न करनेसे न विपर्यय है । इसलिए अपत दोनों मानोंसे यह मान पृषक ही है।
ये तीनों मान अपने गृहीत विषयमें प्रमिति—पयार्थताको उत्पन्न न करमेके कारण अप्रमाण हैं, सम्यमान नहीं है । अतः 'सम्यक' परसे इनका व्यवच्छेद हो जाता है । और 'ज्ञान' पबसे प्रमाता, प्रमिति और ' शबसे प्रमेषको व्याबत्ति हो मातो है । यद्यपि निर्दोष होनेके कारण 'सम्ममाव
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उनमें भी है, परन्तु 'मानल' (जानपना! उनमें नहीं है। इस तरह प्रमाणके लक्षणमें दिये गये 'सभ्यर' और 'ज्ञान' ये दोनों पद सार्थक हैं।
शङ्का-प्रमाता प्रमितिको करनेवाला है। प्रतः वह ज्ञाता ही है, 5 ज्ञानरूप नहीं हो सकता। इसलिए ज्ञान पदसे प्रमाताको तो व्यावृत्ति
हो सकती है। परन्तु प्रमिति की व्यावृत्ति नहीं हो सकती । कारण, प्रमिति भी सम्यग्नान है।
समाधान-यह कहना उस हालतमें ठीक है जन मान पद यहाँ भावसापन हो। पर 'ज्ञग्यतेऽनेनेति मानम्' अर्थात् जिसके द्वारा जामा 10 जावे वह ज्ञान है । इस प्रकारको ध्युत्पत्तिको लेकर जान पद करण
साधन इष्ट है। 'करणाधारे चानट्' [१.३-११२] इस जैनेन्द्रग्याकरणके सूत्रके अनुसार करणमें भी 'मनट' प्रत्ययका विधान है। भावसाधनमें मानपक्षका अपं प्रमिति होता है। और भावसापनसे
करणसाधन पद भिन्न है। फलितार्थ यह हुआ कि प्रमाणके लक्षणमें 15 ज्ञान पब करणसाधन विवक्षित है, भावसापन नहीं। अतः मान पदसे प्रमितिको व्यावृत्ति हो सकती है।
इसी प्रकार प्रमाणपद भी 'प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्' इस व्युत्पत्तिको लेकर करणसाधन करना चाहिए। अन्यथा 'सम्यग्
सानं प्रमाणम् यहाँ फरणसापनरूपसे प्रयुक्त 'सम्यग्ज्ञान' परके 20 साथ 'प्रमाण' पदका एकार्थप्रतिपावकत्वरूप समानाषिकरण्य
नहीं बन सकेगा। तात्पर्य यह कि 'प्रमाण' पदको फरणसाधन न मानने पर और भावसाधन मानने पर 'प्रमाण' पवका अर्थ प्रमिति होगा और 'सम्यग्मान' पदका प्रथं प्रमाणशान होगा
और ऐसी हालतमें दोनों पदोंका प्रसिपाप अयं भिन्न-भिन्न होनेसे 25 शाम्ब सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता। अतः 'प्रमाण' परको
करणसाधन करना चाहिए। इससे यह बात सिस- हो गई कि
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प्रजाननिवृत्ति अथवा अर्थपरिच्छेदरूप प्रमितिक्रिया में जो करण हो वह प्रमाण है। इसी घातको प्राचार्य वादिराजने अपने 'प्रमागनिर्णय' [पृ० १ ] में कहा है :--'प्रमाण वही है जो प्रमितिक्रियाके प्रति साधकतमरूपसे करण ( नियमसे कार्यका उत्पादक ) हो।
शाखा-- इस प्रकारसे (सम्यक और शान पर विशिष्ट) प्रमाणका लक्षण माननेपर भी इन्द्रिय और लिङ्गादिकों में उसकी प्रतिव्याप्ति है। क्योंकि इन्द्रिय और लिङ्गानि भी जाननेरूप प्रमित्तिक्रिया करण होते हैं। 'अखिसे जानते हैं, धूमसे जानते हैं, शब्दसे जानते हैं इस प्रकार का व्यवहार हम देखते ही हैं ?
10 समाधान-इन्द्रियाधिकोंमें लक्षणकी प्रतिय्याप्ति नहीं है। क्योंकि इन्द्रियादिक प्रमितिके प्रति साधकतम नहीं है। इसका खुलासा इस प्रकार है :__ मिति प्रमाणका फल ( कार्य ) है इसमें किसी भी (वारी प्रापवा प्रतिवादी ) व्यक्तिको विवाद नहीं है-सभीको मान्य है। 15 मौर वह प्रमिति अज्ञाननिसिस्वरूप है। अतः उसकी उत्पत्तिमें जो करण हो उसे अज्ञान-विरोधी होना चाहिए । किन्तु इन्द्रि यादिक प्रज्ञानके विरोधी नहीं हैं। क्योंकि प्रचेतन { जा ) हैं। प्रतः प्रज्ञान-विरोधी चेतनधर्म-जानको ही करण मानना युक्त है। लोकमें भी अन्धकारको दूर करनेके लिए उससे विस्त 20 प्रकाशको हो खोजा आता है, घटादिकको नहीं। क्योंकि घटाविक अन्धकार के विरोधी नहीं हैं- अन्धकारके साप भी वे रहते हैं और इसलिए उनसे अन्धकारको निवृत्ति नहीं होती। वह तो प्रकाशसे ही होती है।
दूसरी बात यह है, कि इग्निय वगैरह अस्वसंवेदी (अपनेको 25 म जाननेवाले ) होनेसे पदार्थोफा भी ज्ञान नहीं कर सकते हैं।
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जी स्वयं अपना प्रकाश नहीं कर सकता है वह दूसरेका भी प्रकाश नहीं कर सकता है। घटको तरह। किन्तु ज्ञान दीपक धाविकी तरह अपना तथा अन्य पदार्थोंका प्रकाशक है, यह अनुभवसे सिद्ध है । मतः यह स्थिर हुमा कि इन्द्रिय वगैरह पदायकि ज्ञान कराने में साधकतम 5 न होनेके कारण करण नहीं है ।
'आँखसे जानते हैं इत्यादि व्यवहार तो उपचारले प्रवृत्त होता है और उपचारकी प्रवृत्ति में सहकारिता निमित्त है। अर्थात् इन्द्रियाबिक अर्वपरिस्वेदज्ञानके सहकारी होनेसे उपचारसे परिच्छेदक मान लिये जाते हैं। वस्तुतः मुख्य परिच्छेवक तो ज्ञान ही है। अतः इन्द्रियादिक 10 सहकारी होनेसे प्रमिति क्रियामें मात्र साधक हैं, साधकतम नहीं। शौर इसलिए करण नहीं हैं। क्योंकि प्रतिशयवान् साधकविलेव (प्रसाधारण कारण } ही करण होता है। सा कि जैमेव व्याकरण [ ११२ ११३ ] में कहा है- 'साधकतमं करणम्' अर्थात् प्रतिपायविशिष्ट साधकका नाम करम है। छतः इन्द्रियादिक में लक्षण की
15 प्रतिव्याप्ति नहीं है ।
शङ्का इन्द्रियाविकोंमें लक्षणकी प्रतिव्याप्ति त होनेपर भी पारावाहिक शानों में प्रतिव्याप्ति है; क्योंकि वे सम्यक् ज्ञान हैं। किन्तु उन्हें शार्हत मत --- संन दर्शन में प्रमाण नहीं माना है ?
समाधान - एक ही घट ( पड़े) में घटविषयक
ज्ञानके निरा200 करन करने के लिए प्रवृत्त हुए पहले घटनानले घटकी प्रमिति (सम्यक् परि) हो जानेपर फिर 'यह घट है, यह घट है इस प्रकार उत्पन्न हुए ज्ञान धारावाहिक ज्ञान हैं। ये ज्ञान प्रज्ञान - निवृत्तिरूप प्रमितिके प्रति साधकतम नहीं हैं; क्योंकि प्रज्ञानकी निवृत्ति पहले ज्ञानसे ही हो जाती है। फिर उनवें लक्षणकी मतिव्याप्ति कैसे हो 25 सकती है ? क्योंकि यह गृहीतग्राही है-ग्रहण किये हुए ही अर्थको प्रण करते हैं।
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पहसा प्रकाश शाका-परि गृहीतमाही जामको प्रप्रमान मानेंगे तो घटको कान लेने के बाद दूसरे किसी कार्य में उपयोगके लग जामेपर पीछे घटके हो देखनेपर जापान इमा पश्चाद्वर्ती मान अप्रमाण हो जायगा । क्योंकि पारावाहिक मानकी तरह वह भी गृहीतग्राही है-अपूर्वार्थपाहा नहीं है ?
समाधान—मही; खाने गये भी पदार्थमें कोई समारोप-संशय प्रादि हो जानेपर यह परार्य भइष्ट नहीं जाने गयेके ही समान है। कहा भी है—'दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् [ परीक्षा० १-५ ] अर्थात् ग्रहण किया हम्मा भी पदार्य संमाय भाविक हो जाने पर ग्रहण नहीं किये हएके तुल्य है।
10 उक्त लक्षणको इन्द्रिय, लिङ्ग, शम्न और धारावाहिक ज्ञानमें प्रतिव्याप्तिका निराकरण कर बेनेसे निर्विकल्पक सामान्यावलोकनरूप दर्शनमें भी अतिव्याप्तिका परिहार हो जाता है। क्योंकि वर्शन अनिश्चयस्वरूप होनेसे प्रमितिके प्रति करन नहीं है। दूसरी बात यह है, कि वर्शन निराकार (अनिश्चयात्मक) होता है और निराकारमें 15 शानपना नहीं होता। कारण, "वांन निराकार (निविकल्पक) होता है और शान साकार ( सविकल्पक ) होता है ।" ऐसा मागमका वचन है। इस तरह प्रमानका 'सम्यक् जान' यह सक्षण प्रतिमाप्त नहीं है। और न अव्याप्त है। क्योंकि प्रत्यक्ष और परोक्षरूप अपने दोनों सयोंमें व्यापकस्पसे विद्यमान रहता है। तथा 20 प्रसम्मयी भी नहीं है, क्योंकि लक्ष्म ( प्रत्यक्ष और परोक्ष ) में उसका रहना बाधित नहीं है-वहां वह रहता है । अतःप्रमाणका उपर्युक्त लक्षण बिल्कुल निर्दोष है।
प्रमानके प्रामाश्यका रूपम--
शा-प्रमाणका यह प्रामाण्य क्या है, जिससे 'प्रमाणे प्रमाण 25 कहा जासा है, अप्रमाण नहीं ?
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समाधान-जाने हुए विषयमें व्यभिचार (अन्यथापन) का न होना प्रामाण्य है। अर्थात् ज्ञानके द्वारा पदार्थ जैसा माना गया है वह वैसा ही सिद्ध हो, अन्य प्रकारका सिद्ध म हो, यही उस ज्ञानका प्रामाण्य (सच्चापन) है। इसके होनेसे ही ज्ञान प्रमाण कहा जाता 5 है और इसके न होनेसे शामण महलाता है।
शङ्का-प्रामाण्यको उत्पत्ति किस प्रकार होती है ?
समाधान - मीमांसक कहते हैं कि 'स्वतः' होती है। 'स्वतः उत्पत्ति' कहनेका मतलब यह है कि ज्ञान जिन कारणोंसे पंदा
होता है उन्हीं कारणोंसे प्रामाण्य उत्पन्न होता है-उसके लिए 10 भिन्न कारण (गुणादि) अपेक्षित नहीं होते । कहा भी है 'नामके
कारणों से अभिन्न कारणोंसे उत्पन्न होना उत्पत्तिमें स्वतस्त्व है।' पर उनका यह कहना विचारपूर्ण नहीं है क्योंकि शानसामान्यकी उत्पावक सामग्री ( कारण ) संशय प्रादि मिथ्यामानों में भी
रहती है। हम तो इस विषय में यह कहते हैं कि ज्ञानसामान्यकी 15 सामग्री सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान दोनों में समान होनेपर भी 'संशयादि अप्रमाण हैं और सम्यग्ज्ञान प्रमाण है, यह विभाग (भेद) विना कारणके महीं हो सकता है। अतः जिस प्रकार संशयादिमें अप्रमाणसाको उत्पन्न करनेवाले काचकामलादि दोष और धाकचिक्य प्राविको शानसामान्यकी सामग्रीफे अलाश कारण मानते हैं। उसी प्रकार प्रमाणमें भी प्रमाणताके उत्पावक कारण जानकी सामान्यसामग्रीसे भिन्न निर्मलता आदि गुणोंको अवश्य मानना चाहिये । अन्यथा प्रमाण और अप्रमाणका भेद नहीं हो सकता है।
शङ्का-प्रमाणता और अप्रमाणताके भिन्न कारण सिद्ध हो 25 भी आयें तथापि प्रप्रमाणता परसे होती है और प्रामाणता तो स्वतः
ही होती है?
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१५१ समाधान-ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि यह बात तो विपरीत पक्षमें भी समान है। हम यह कह सकते हैं कि 'अप्रमाणता तो स्वतः होती है और प्रमाणता परसे होती हैं। इसलिए अप्रमाणताकी तरह प्रमाणता भी परसे ही उत्पन्न होती है। जिस प्रकार वस्त्रसामान्यकी सामग्री लाल वस्त्रमें कारण नहीं होतो- उसके लिए पूसरी 5 ही सामग्री आवश्यक होती है उसी प्रकार ज्ञानसामान्यकी सामग्री प्रमाणपमात्र कारण नहीं हो सकी है। इन दो मिनमा अवश्य हो भिन्न भिन्न कारणोंसे होते हैं ।
शङ्का-प्रामाण्यका निश्चय कसे होता है ?
समाधान-अभ्यस्त विषयमें तो स्वतः होता है और अनम्यस्त 10 विषयमें परसे होता है । तात्पर्य यह है कि प्रामाण्यको उत्पसि तो सर्वत्र परसे ही होती है, किन्तु प्रामाण्यका निश्चय परिचित विषय में स्वतः पौर अपरिचित विषयमें परतः होता है।
शाडा--अभ्यस्त विषय क्या है ? और अनभ्यस्त विषय क्या है ?
समाधान--परिचित-कई बार जाने हुए अपने गांवके तालाबका 15 जल वगैरह अभ्यस्त विषय हैं और अपरिचित नहीं आने हुए दूसरे गांवके तालाबका जल वगैरह अनभ्यस्त विषय हैं।
शंका-स्वतः क्या है और परतः क्या है !
समाधान—जानका निश्चय करानेवाले कारणोंके द्वारा हो प्रामाण्यका निश्चय होना 'स्वतः' है और उससे भिन्न कारणोंसे 20 होना 'परत: है। ___ उनमेंसे अभ्यस्त विषयमें 'जल है' इस प्रकार ज्ञान होनेपर ज्ञानस्वरूपके निश्चयके समयमें ही ज्ञानगत प्रामाणताका भी निश्चय अबश्य हो जाता है। नहीं तो दूसरे ही क्षणमें अलमें सन्देहहित प्रवृत्ति नहीं होती, किन्तु जलज्ञानके याद ही सन्वेहरहित प्रवृत्ति 25 अवश्य होती है। अतः अभ्यासवनामें तो प्रामाण्यका निश्चय
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स्वतः ही होता है। पर प्रनम्यासदशामें जलझान होनेपर 'जलजान मुझे हा इस प्रकारसे मानके स्वरूपका मिश्चय हो जाने पर भी उसके प्रामाच्यका निश्चय अन्य (अभिमानान अपवा
संवावज्ञान) से ही होता है। यदि प्रामाण्यका मिनचय प्रन्यसे न 5 हो-स्वतः ही हो तो जलनामके बाद सन्देह नहीं होना चाहिये।
पर सन्देह अवश्य होता है कि 'मतको जो जलका मान प्रमा है यह जल है या बालूका ढेर ?'। इस सन्देह के पार हो कमलोंको गन्ध, ठण्डी हयाके याने भारिसे जिज्ञासु पुरुष निश्चय करता
है कि 'मुझे जो पहले अलका सान हुआ है वह प्रमाण है-सच्चा है, __10 क्योंकि जलके बिना कमलको गन्ध प्रावि नहीं पा सकती है।'
प्रतः निश्चय हुआ कि अपरिचित क्शामें प्रामाभ्यका निर्णय परसे ही होता है।
नयामिक और शेषिको की मान्यता है कि पतिकी तरह
प्रामाण्यका निश्चय भी परसे ही होता है। इसपर हमारा कहना ___ 15 है कि प्रामाम्यकी उत्पति परसे मानमा ठीक है। परन्तु प्रामाण्य
का निश्चय परिचित विषयमें स्वतः ही होता है यह जब सयुक्तिक निश्चित हो गया तब 'प्रामायका निश्चय परसे ही होता है ऐसा अवधारण ( स्वतस्त्वका निराकरण नहीं हो सकता है। प्रतः
यह स्थिर हुमा कि प्रमाणताकी उत्पत्ति तो परसे ही होतो 20 है, पर शप्ति (निश्चय) कमी ( अम्यस्त विषयमें ) स्वत: और कभी
(अनम्यस्त विषयमें) परतः होती है। यही प्रमाणपरीक्षामें ज्ञप्तिको लेकर कहा है :
"प्रमाणसे पदार्थोका ज्ञान तथा अभिसवितकी प्राप्ति होती है मौर प्रमाणाभाससे नहीं होती है। तथा प्रमाणताका निश्चय अम्पास25 बचा स्वतः मोर भनभ्यासरशामें परतः होता है।"
इस तरह प्रमाणका लक्षण सुव्यवस्थित होनेपर भी जिम
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लोगोंका यह भ्रम हैं कि बौदाविकोंका भी माना हुमा प्रमाणका लक्षण पास्तविक लक्षण है। उनके उपकार के लिए यहाँ उनके प्रमाणलक्षगोंको परीक्षा की जाती है। बौद्धोंके प्रमाण-लक्षणको परीक्षा___ जो ज्ञान प्रविसंवावी है-विसंवादरहित है वह प्रमाण है 5 ऐसा बौद्धोंका कहना है, परन्तु उनका यह कहना ठीक नहीं है। इसमें असम्भव दोष माता है। वह इस प्रकारसे है-बौखों ने प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही प्रमाण माने हैं। न्यायविन्युमें कहा है "सम्बाजान (प्रमाग) के दो भेद हैं-१ प्रत्यक्ष और २ अनुमान !" उनमें न प्रत्यक्षमें अविसंवादीपना सम्भव है, क्योंकि वह 10 निर्विकल्पक होनेसे अपने विषयका निरुचायक न होनेके कारण संशयाविरूप समारोपका निराकरण नहीं कर सकता है। और न अनुमानमें भी भविसंवादीपना सम्भव है, क्योंकि उनके मतके अनुसार यह भी प्रवास्तविक सामान्यको विषय करनेवाला है। इस सरह बोडोंका वह प्रमागका लक्षण प्रसम्भव दोषसे दूषित होनेसे सम्पक 15 लक्षण नहीं है। भाटोंके प्रमाण-लक्षणको परीक्षा___ो पहले नहीं जाने हुए यथार्थ प्रयंका निश्चय करानमाला है वह प्रमाण है ऐसा भाट्ट-मीमांसकों को मान्यता है। किन्तु उनका भी यह लक्षण अय्याप्ति वोषसे दूषित है। क्योंकि 20 उन्होंके द्वारा प्रमाणरूपमें माने हुए धारावाहिकमान अपूर्वार्षपाही नहीं हैं। यदि यह प्राशंका की जाय कि धारावाहिक ज्ञान अगले अगले लगसे सहित मर्मको विषय करते है इसलिए मनाविषयक ही हैं। तो यह भाशंका करना भी ठीक नहीं है। कारण, सण मस्यन्त सूक्ष्म है उनको ललित कला-जानना 25
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सम्भव नहीं है । यतः धारावाहिकज्ञानों में उक्त लक्षणकी श्रव्याप्ति
निश्चित है ।
प्राभाकरोंके प्रमाण-लक्षण को परीक्षा
प्राभाकर प्रभाकर मतानुयायी 'अनुभूतिको प्रमाणका लक्षण 5 मानते हैं; किन्तु उनका भी यह लक्षण युक्तिसङ्गत नहीं है; क्योंकि 'अनुभूति' शब्दको भावसाधन करनेपर करणरूप प्रमाण में और करण साधन करनेपर भावरूप प्रमाण में प्रव्याप्ति होती है । कारण, करण और भाव दोनों को हो उनके यहाँ प्रमाण माना गया है। जैसा कि शालिकानाथने कहा है-
'जब प्रमाण शब्दको 'प्रमितिः किया जाता है उस समय 'ज्ञान' ही इस प्रकार करणसाधत कर
प्रमाणम्' इस प्रकार भावसाधन प्रमाण होता है और 'प्रमोयतेऽनेन' मारना कप प्रमाण होता है।' अतः अनुभूति ( अनुभव ) को प्रमाणका लक्षण मानने में अध्याप्ति दोष स्पष्ट है । इसलिए यह लक्षण भी सुलक्षण
15 नहीं है ।
10
नमाथिकोंके प्रमाण-लक्षणकी परीक्षा --
'प्रमाके प्रति जो करण है वह प्रमाण है' ऐसी नैयायिकोंकी मान्यता है । परन्तु उनका भी यह लक्षण निर्दोष नहीं है; क्योंकि उनके द्वारा प्रमाणरूप में माने गये ईश्वरमें ही वह थव्याप्त है । 20 कारण, महेश्वर प्रमाका प्राश्रय है, करण नहीं है । ईश्वरको प्रमाण माननेका यह कथन हम अपनी प्रोरसे प्रारोपित नहीं कर रहे हैं। किन्तु उनके प्रमुख प्राचार्य उदयनने स्वयं स्वीकार किया है कि 'तन्मे प्रमाणं शिवः' प्रर्थात् 'यह महेश्वर मेरे प्रमाण हैं'। इस अव्याप्ति दोषको दूर करनेके लिये कोई इस प्रकार 25 व्याख्यान करते हैं कि 'जो प्रमाका साधन हो प्रया प्रभाका प्राश्य हो यह प्रमाण है ।' मगर उनका यह व्याश्यान युक्तिसङ्गत नहीं है ।
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क्योंकि प्रमासाधन और प्रमाश्रय में से किसी एकको प्रमाण माननेपर मक्षणको परस्परमें अव्याप्ति होती है। प्रमासाधन' रूप जव प्रमाणका लक्षण किया जायगा सम प्रमालय' रूप प्रमाणलक्ष्यमें लक्षण नहीं रहेगा और जब 'प्रमाश्रय' रूप प्रमाणका लक्षण माना जायगा तब 'प्रमासाधन' रूप प्रमाणलक्ष्यमें लक्षण घटित नहीं होगा। 5 तया प्रमाभय और प्रमासाधन दोनोंको सभी लक्ष्योंका लक्षण माना जाय तो कहीं भी सक्षण नहीं जायगा। सन्निकर्ष प्रादि केवल प्रमासाधनं हैं, प्रमाणके आश्रय नहीं हैं और ईश्वर केवल प्रमाका प्राश्रय है प्रमाका साधन नहीं है क्योंकि उसकी प्रमा (ज्ञान) नित्य है। प्रमाका साधन भी हो और प्रमाका प्राश्रय भी हो ऐसा 10 कोई प्रमालय नहीं है। श्रतः भवापिकोंका भी उक्त लक्षण सुलक्षण नहीं है।
और भी दूसरों के द्वारा माने गये प्रमागके सामान्य लक्षण हैं। जैसे सांख्य इन्द्रियव्यापार' को प्रमाणका लक्षण मानते हैं । अरन्यायिक 'कारकसाकल्य' को प्रमाण मानते हैं, मादि । पर ये सब विधार 15 करनेपर सुलक्षण सिद्ध नहीं होते । अतः उनकी यहाँ उपेक्षा कर दी गई है । अर्थात् उनको परीक्षा नहीं की गई।
अतः यही निष्कर्ष निकला कि अपने तथा परका प्रकाश करनेवाला सविकल्पक और प्रपूर्थिग्राहो सम्पन्जान ही पदार्थोके अज्ञानको दूर करने में समर्थ है। इसलिए वही प्रमाण है। इस तरह जनमत 2c सिद्ध हुआ। इस प्रकार श्रीजनाचार्य धनभूषण यति विरचित न्यायदीपिकामें प्रमाणका सामान्य लक्षण प्रकाश करनेवाला पहला प्रकाश
पूर्ण हुआ।
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दूसरा रकार
प्रमाणविशेषका स्वरूप बतलानेके लिये यह दूसरा प्रकाश प्रारम्भ किया जाता है। प्रमाणके भेद और प्रत्यक्ष का लक्षण
प्रमाणके दो भेद हैं:- प्रत्यक्ष और २ परोक्ष । विशद प्रतिभास 5 ( स्पष्ट जान ) को प्रत्यक्ष कहते हैं।' यहाँ 'प्रत्या' लक्ष्य है। 'विशवप्रतिभासत्व' लक्षण है। नात्पर्य यह कि जिस प्रमाणभूत ज्ञानका प्रतिभास (पर्थप्रकाश) निर्मल हो यह नान प्रत्यक्ष है ।
शाका-'विशदप्रतिभासत्व' किसे कहते हैं ? ।
समाषान-शानावरणकर्मके सर्वथा अपसे अथवा विशेष10 अयोपशमसे उत्पन्न होनेवाली मोर शब्द तथा प्रनुमानादि प्रमाणों
से नहीं हो सफमेवाली जो अनुभवसिद्ध निर्मलता है वही निर्मलता 'विशवप्रतिभासत्व' है। किसी प्रामाणिक पुरुषके 'अग्नि है' इस प्रकारके वचनसे और 'यह प्रवेश प्रग्निवाला है, क्योंकि घुमा है।
इस प्रकारके धूमावि लिङ्गसे उत्पन्न हए शानको प्रपेक्षा 'यह अग्नि है 15 इस प्रकारके उत्पन्न इन्द्रियमानमें मिशेषता (अधिकता) देखी जाती
है। वहीं विशेषता निर्मलता, विशावता और स्पष्टता इत्यादि पादों द्वारा कही जाती है। अर्थात् ये उसी विशेषताके बोषक पर्याय नाम हैं। तात्पर्य यह कि विशेषप्रतिभासनका नाम विवाय
प्रतिभासत्य है। भगवान् भाकल देवने भी 'न्यायविनिश्चय' 0 में कहा है :
स्पष्ट, यथार्थ और सविकल्पक जामको प्रत्यक्षका लमन कहा है।' इसका विवरण (व्यायाम) स्पाद्वाप विद्यापति श्रीवादिराजने
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दूसरा प्रकाश
१५७ म्यायविनिश्चयविदरम' में इस प्रकार किया है कि "निर्मलप्रतिभासत्व ही स्पष्टस्य है और वह प्रत्येक विचारकके अनुभवमें प्राता है। इसलिये इसका विशेष व्याल्यान करना प्रावश्यक नहीं है"। अतः विशवप्रतिभासात्मक ज्ञानको जो प्रत्यक्ष कहा है वह बिल्कुल ठीक है। बोडोंके प्रत्यक्ष लक्षणका निराकरण
बोर कल्पना-पोड-निविकल्पक और प्रधान्त-भ्रान्तिरहित जानको प्रत्यक्ष' मानते हैं। उनका कहना है कि यहाँ प्रत्यक्ष लकाणमें खो वो पर दिये गये हैं। उनमें 'कल्पनापोढ पदसे सविकल्पकको लौर भान्त' परमे मियानातोली व्यामि को 10 गई है। फलितार्य यह हा कि जो समीचीन मिविकल्पक जाम है यह प्रत्यक्ष है। किन्तु उनका यह कथन बालचेष्टामात्र हैसयुक्तिक नहीं है। क्योंकि निर्विकल्पक संशयाविरूप समारोपका विरोधी ( निराकरण करनेवाला ) न होनेसे प्रमाण हो नहीं हो सकता है। कारण, निश्चयस्वरूप मानमें ही प्रमाणता व्यवस्थित 15 ( सिद्ध होती है। तब वह प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है।
शा-निर्विकल्पक हो प्रत्यक्ष प्रमाण है, क्योंकि वह मर्मसे उत्पन्न होता है। परमार्थसत्-वास्तविक है और स्वलक्षणजन्य है। सविकल्पक नहीं, क्योंकि वह प्रपरमार्थभूत सामान्यको विषय करनेसे 20 अर्थजन्य नहीं है ? ___ समाधान नहीं; क्योंकि अयं प्रकाशकी तरह मानमें कारण नहीं हो सकता है । इसका खुलासा इस प्रकार है :
अन्वय { कारणके होनेपर कार्यका होना ) और व्यतिरेक (कारको प्रभावमें कार्यका न होमा ) से कार्यकारण भाष जामा 25
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शाग-दीपिका
जाता है। इस व्यवस्थाके अनुसार प्रकाश ज्ञानमें कारण नहीं है क्योंकि उसके प्रभावमें भी रात्रिमें विचरनेवाले बिल्ली, चूहे प्रादिको जान पैदा होता है और उसके सद्भावमें भी उल्लू वगैरह
को शान उत्पन्न नहीं होता है। अतः जिस प्रकार प्रकाशका शानके 5 साथ अन्यय और व्यतिरेक न होनेसे यह जानका कारण नहीं हो
सकता है उसी प्रकार प्रर्य ( पदार्थ ) भा ज्ञानके प्रति कारण नहीं हो सकता है । क्योंकि अथंके प्रभावमें भी केशमशकादिशान उत्पन्न होता है। (और आर्यके रहनेपर भी उपयोग न होनेपर
मन्यमनस्क या सुप्तादिकों को ज्ञान नहीं होता ) ऐसी दशामें ज्ञान 10 अर्थजन्य कसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है। परीक्षा
मुखमें भी कहा है –'अर्थ और प्रकाश ज्ञानके कारण नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि प्रमाणतामें कारण अर्याव्यभिचार ( अर्थके प्रभाव में जानका न होना) है, अर्थजन्यता नहीं। कारण, स्वसंवेदन
प्रत्यक्ष विषयजन्य न होनेपर भी प्रमाण माना गया है। यहां यह 15 नहीं कहा जा सकता कि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष चूंकि अपनेसे उत्पन्न
होता है इसलिए वह भी विषयजन्य हो है, क्योंकि कोई भी वस्तु अपनेसे ही पंदा नहीं होती। किन्तु अपनेसे भिन्न कारणोंसे पैदा होती है।
शङ्का-यदि ज्ञान अर्थ से उत्पन्न नहीं होता तो वह अर्थका 20 प्रकाशक कैसे हो सकता है ?
समाधान-बीपक घटादि पदार्थोसि उत्पन्न नहीं होता फिर भी वह उनका प्रकाशक है, यह देखकर पापको सन्तोष कर लेना चाहिये । प्रर्यात् दीपक जिस प्रकार घटादिकोंसे उत्पन्न न होकर
भी उन्हें प्रकाशित करता है उसी प्रकार ज्ञान भी अर्थसे उत्पन्न म 25 होकर उसे प्रकाशित करता है ।
वाता-जानका विषयके साथ यह प्रतिनियम कैसे बनेगा कि
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दूसरा प्रकाश घटज्ञान का घट ही विषय है, पट नहीं है ? हम तो ज्ञान को अर्थजन्य होने के कारण अर्थजन्यता को शानमें विषयका प्रतिनियामक मानते हैं और जिससमान पैदा होता है उसोको विषय करता है, अन्य को नहीं, इस प्रकार व्यवस्था करते हैं। किन्तु उसे अाप नहीं मानते हैं ?
समाधान - हम योग्यता को विषय का प्रतिनियमक मानते हैं। जिस शान में जिस प्रर्य के प्रहण करने की योग्यता (एक प्रकार की शक्ति) होती है वह शान उस ही अर्थ को विषय करता है - अन्य को नहीं।
शंका-योग्यता किसे कहते हैं ?
समाधान-अपने प्रावरण (मानको ढकने वाले कर्म) के क्षयोपसमको योग्यता कहते हैं। कहा भी है :-'अपने प्रावरण कर्म के अयोपशमरूप योग्यता के द्वारा ज्ञान प्रत्येक पदार्थ की व्यवस्था करता है। तात्पर्य यह हुआ कि प्रात्मा में घटज्ञानावरण कर्म के हटने से उत्पन्न हुमा घटशान घट को ही विषय करता है, पट को नहीं । इसी 15 प्रकार दूसरे पटादिज्ञान भी अपने अपने क्षयोपशम को लेकर अपने अपने ही विषयों को विषय करते हैं। प्रतः ज्ञान को अयंजन्य मानना अनावश्यक और प्रयुक्त है।
'मान प्रर्य के प्राकार होने से अर्थ को प्रकाशित करता है। यह मान्यता भी उपर्युक्त विजेशन से स्पंडित हो जाती है। क्योंकि दीपक, 20 मणि मादि पदार्थों के प्राकार न होकर भी उन्हें प्रकाशित करते हुये देखे जाते हैं। अतः अर्थाकारता और प्रर्यजन्यसा ये दोनों ही प्रमाणता में प्रयोजक नहीं हैं। किन्तु अर्थाव्यभिचार ही प्रयोजक है। पहले जो सपिकल्पक के विषयभूत सामान्य को प्रपरमार्थ बता कर सरिकस्पक का खाउन किया है वह भी ठीक नहीं है। क्योंकि किसी 25
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न्याय-दीपिका
प्रमाणसे बाधित न होने के कारण सविकल्प का विषय परमार्ष (वास्तविक) ही है। बल्कि बौद्धों के द्वारा माना गया स्वलक्षण ही आपत्ति के योग्य है । अतः प्रत्यक्ष निर्विकल्पकरूप नहीं है -सविकल्पकरूप ही है।
यौनाभिता सनिक का निराकरण --
नयायिक और बोषिक सग्निकर्ष ( इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध ) को प्रत्यक्षा मानते हैं। पर वह ठीक नहीं है। क्योंकि सन्निकर्ष प्रचेतन है। यह प्रमिति के प्रति करण कसे हो सकता है ?
प्रमिति के प्रति जब करण नहीं, तब प्रमाण जैसे ? और जब प्रमाण 10 ही नहीं, तो प्रत्यक्षा कैसे ?
दूसरी बात यह है, कि चक्षु इन्द्रिय रूपका नान सलिकर्ष के दिमा हो कराती है, क्योंकि यह अप्राप्य है । इसलिए सन्निकर्ष के प्रभाव में भी प्रत्यक्ष ज्ञान होने से प्रत्यक्षा में सन्निकरूपता ही नहीं है । चक्षु इन्द्रिय को जो यहाँ अप्राप्पकारी कहा गया है वह भसिस नहीं है । कारण, प्रत्यक्षा से चक्षु इन्द्रिय में प्राप्यकारिता ही प्रतीत होती है। ____ शंका-यद्यपि चक्षु इन्द्रिय की प्राप्पकारिता (पदार्थ को प्राप्त करके प्रकाशित करना ) प्रत्यक्षा से मालूम नहीं होती तथापि उसे
परमाण की तरह अनुमान से सिद्ध करेंगे। जिस प्रकार पर20 भाषु प्रत्यक्ष से सिद्ध न होने पर भी 'परमाणु है, क्योंकि स्कन्धादि
कार्य अन्यथा महीं हो सकते' इस अनुमान से उसको सिडि होतो है उसी प्रकार 'चक्षु इरिश्रय पदार्थ को प्राप्त करके प्रकाश करने वाली है, क्योंकि वह बहिरिन्द्रिय है ( बाहर से देखो जाने वाली
इन्द्रिय है ) जो बहिरिन्द्रिय है वह पदार्थ को प्राप्त करके ही 25 प्रकाश करती है, जैसे स्पर्शन इन्द्रिय' इस अनुमान से चप में
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दूसरा प्रकाश प्राप्यकारिता की सिद्धि होती है और प्राप्पकारिता हो सन्निकर्ष है। प्रतः चक्षु इन्द्रिय में सन्निकर्ष की प्रत्याप्ति नहीं है। अर्थात् चक्षु इन्द्रिय भी सन्निकर्ष के होने पर ही रूपज्ञान कराती है। इसलिए सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष मानने में कोई दोष नहीं है ?
समाधान नहीं; यह अनुमान सम्यक् भनुमान नहीं है---- 5 मानाभास है । वह इस प्रकार है :
इस अनुमान में 'स' परसे कौनसी चक्षु को पक्ष बनाया है ? लौकिक (गोलकाप) चक्षुको अथवा अलौकिक (किरणरूप) चको ? पहले विकल्प में, हेतु कासात्ययापविष्ट (बाधितविषय) नामका हेत्वा. भास) है। क्योंकि गोलकरूप लौकिक चा विषय के पास जाती हुई 10 किसी को भी प्रतीत न होने से उसकी विषय-प्राप्ति प्रत्यक्ष से बाधित है। दूसरे विकल्प में, हेतु प्राश्रयासिद्ध है; क्योंकि किरणरूप अलौकिक वक्ष प्रभो तक सिद्ध नहीं है। दूसरी बात यह है, कि वृक्ष को शाखा मौर चन्द्रमा का एक ही काल में प्रहण होने से चल भप्राप्यकारी ही प्रसिद्ध होती है। अतः उपर्युक्त अनुमानगत हेतु कालात्ययापविष्ट 15 मौर प्रापयासिद्ध होने के साथ ही प्रकरणसम (सत्प्रतिपा) भी है। इस प्रकार सन्निकर्ष के बिना भी चक्षु के द्वारा रूपशान होता है। इसलिए सन्निकर्ष प्रव्याप्त होने से प्रत्यक्ष का स्वरूप नहीं है, यह बात सिद्ध हो गई।
इस सन्निकर्ष के प्रप्रमाण्य का विस्तृत विचार प्रमेयकमलमास 20 में [१-१ तथा २-४ ] अच्छी तरह किया गया है। संग्रहप्रन्थ होने के कारण इस लघु प्रकरण न्याप-दीपिका में उसका विस्तार नहीं किया। इस प्रकार न बौद्धाभिमत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है और न यौगों का इन्द्रियार्थसन्निकर्ष । तो फिर प्रत्यक्षा का सक्षण क्या है ? विधवप्रतिभासस्वरूप ज्ञान ही प्रत्यक्ष है, यह भले प्रकार सिंस 25 हो गया।
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प्रत्यक्ष के दो भेद करके सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का लक्षण और उसके भेदों का निरूपण
वह प्रत्यक्ष दो प्रकार का है-१ सौम्यवहारिक और २ पारमाथिक । एकदेश स्पष्ट ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं । 5 तात्पर्य यह कि भो ज्ञान कुछ निर्मल है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष
है। उसके घार भेद हैं-१ अवग्रह, २ ईहा, ३ मयाय मौर ४ धारणा । इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध होने के बाव उत्पन्न हुए सामान्य अवभास (दर्शन) के अनन्तर होने वाले और अवान्तरससा
जाति से युक्त वस्तु को ग्रहण करने वाले ज्ञानविशेष को अवग्रह 10 कहते हैं। अंसे 'पह पुरुष है। यह जान संशय नहीं है, क्योंकि
विषयान्तर का निराकरण करके अपने विषय का ही निश्चय कराता है। और संशय उससे विपरीत लक्षण बाला है। जैसा कि रणवार्तिक में कहा है-"संशय नानाविषयक, अनिश्चयात्मक और
मन्य का प्रव्यवच्छेदक होता है। किन्तु प्रवाह एकार्थविषयक, 15 निश्चयात्मक मोर अपने विषय से भिन्न विषय का व्यवच्छेदक होता
है।" राजवात्तिकभाष्य में भी कहा है-"संशय निर्णय का विरोधी है, परन्तु अवाह नहीं है।" फलितार्थ यह निकला कि संशपक्षानमें पदार्थ का निश्चय नहीं होता और अपग्रह में होता है। अत: अपग्रह
संशयमान से पृथक् है। 20 अवग्रह से जाने हुये अर्थमें उत्पन्न संशयको दूर करने के लिये
शस्ताका जो अभिलाषात्मक प्रयत्न होता है उसे ईहा कहते हैं। जैसे प्रवग्रह शान के द्वारा यह पुरुष हैं। इस प्रकार का निश्चय किया गया था, इससे यह 'दक्षिणी' है अथवा 'उत्तरीय' इस प्रकार के सन्देह होने
पर उसको दूर करने के लिये यह दक्षिणी होना चाहिये' ऐसा ईहा 25 नाम का जान होता है।
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दुसरा प्रकाश भाषा, भेष और भूषा आदि के विशेष को जानकर मथार्थता का निश्चय करना अवाय है । जैसे 'यह दक्षिणी ही है।
अत्राय से निश्चित किये गये पदार्थ को कालान्तर में न भूलने की शक्ति से उसी का ज्ञान होना धारणा है । जिससे भविष्य में
भो 'वह इस प्रकार का स्मरण होता है । तात्पर्य यह कि 5 पदार्थका निश्चय होने के बाद जो उसको न भूलने रूप से संस्कार ( वासना ) स्थिर हो जाता है और जो स्मरण का अनक होता है वही धारणाजान हैं। प्रतएव धारणा का दूसरा नाम संस्कार भी है।
शङ्का-ये ईहादिक ज्ञान पहले पहले ज्ञान से ग्रहण किये 10 ये पदार्थ को ही ग्रहण करते हैं, अतः धारावाहिक ज्ञान की तरह अप्रमाण है ?
समाधान नहीं; भिन्न विषय होने से प्रगृहीताग्राही हैं। प्रात -पूर्व में ग्रहण नहीं किये हुये विषय को हो ग्रहण करते हैं । यथाओ पदार्थ प्रवाह शान का विषय है वह ईहा का नहीं है । और जो 15 ईहा का है यह अवाय का नहीं है । तथा जो अवाय का है यह धारणा का नहीं है। इस तरह इनका विषयभेद बिल्कुल स्पष्ट है और उसे बुद्धिमान अच्छी तरह जान सकते हैं।
ये प्रवग्रहादि चारों ज्ञान जम इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न होते हैं तब इनित्यप्रत्यक्ष कहे जाते हैं। और जब मनिन्द्रिपान के द्वारा 20 पैदा होते हैं तब प्रनिन्त्रियप्रत्यक्ष कहे जाते हैं । इम्तियां पांच हैं-१ स्पर्शन, २ रसना, ३ नाण, ४ चक्षु, और ५ श्रोत्र । अमिन्द्रिय
१ 'स्मृति हेतुधारणा, संस्कार इति यावत्-लधी स्वोपविष का०६। वैशेषिकदर्शन में इसे धारणाको) भावना नामका संस्कार कहा है और उसे स्मृतिजनक माना है।
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૬×
न्याय-दीपिका
केवल एक मन है । इन दोनों के निमित से होनेवाला यह अवग्रहाविरूप ज्ञान लोकव्यवहार में 'प्रत्यक्ष' प्रसिद्ध है। इसलिये यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। परीक्षामुख में भी कहा है- "इन्द्रिय और मन के निमिरा से होने वाले एक देश स्पष्ट ज्ञान 5 को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं।" श्रौर यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मुख्य प्रत्यक्ष है— गौण रूपसे प्रत्यक्ष है, क्योंकि उपचार से सिद्ध होता है। वास्तव में हो नही है। विज्ञान है
शरण
मतिज्ञान परोक्ष है ।
शङ्का - मतिज्ञान परोक्ष कैसे है ?
समाधान -"प्रयं परोक्षम्" [ त० सू० १ - ११ ] ऐसा सूत्र -मागम का वखन है। सूत्र का अर्थ यह है कि प्रथम के दो शान -मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं । यहाँ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को जो उपचार से प्रत्यक्ष कहा गया है उस उपचार में निमित 'एकवेश स्पष्टता' है । अर्थात् इन्द्रिय और अनिन्द्रियजन्य शरद 15 कुछ स्पष्ट होता है, इसलिये उसे प्रत्यक्ष कहा गया है। इस सम्बन्ध में और अधिक विस्तार की अवश्यकता नहीं है । इतना विवेचन पर्याप्त है ।
पारमार्थिक प्रत्यक्ष का लक्षण और उसके भेदों का कथन
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सम्पूर्णरूप से स्पष्ट ज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं । जो 20 ज्ञान समस्त प्रकार से निर्मल है वह पारमार्थिक प्रत्यक्ष है । उसी को मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं ।
उसके दो भेद हैं- एक सकल प्रत्यक्ष और दूसरा विकल प्रत्यक्ष उनमें से कुछ पदार्थों को विषय करने वाला ज्ञान विकल पारमार्थिक है। उसके भी दो भेद हैं-१ प्रवधिज्ञान और २ 25 मन:पर्ययज्ञान । अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोप
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गुसरा प्रकाश
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वापसे उत्पन्न होने वाले तथा मूत्तिक द्रव्य मात्रको विषय करने वाले शान को अवधि ज्ञान कहते हैं। मनःपर्ययज्ञानावरण और वोर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुये और दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जाननेवाले ज्ञान को मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। मतिज्ञान की तरह प्रधि और मनःपर्ययज्ञान के भी भेद और प्रभेव है, उन्हें तत्त्वार्थ- 5 राबवात्तिक और श्लोकवात्तिकभाष्य से जानना चाहिये।
समस्त वक्ष्यों और उनकी समस्त पर्यायों को जानने वाले जान को सफल प्रत्यक्ष कहते हैं। यह सकल प्रत्यक्ष ज्ञानावरग मावि धातियाकों के सम्पूर्ण नाश से उत्पन्न केवलज्ञान ही है। क्योंकि “समस्त तुम्यों और समस्त पर्यायों में केवल जान की प्रवृत्ति है' सा तत्त्वार्थ- 10 सूत्र का उपवेश है।
इस प्रकार अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों मान सब तरह से स्पष्ट होने के कारण पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं। सब सरह से स्पष्ट इसलिये हैं कि ये मात्र आत्मा की अपेक्षा लेकर उत्पन्न होते हैं-इन्द्रियादिक पर पदार्थ की अपेक्षा नहीं लेते।
15 शङ्काकेवलज्ञान को पारमायिक कहना ठीक है, परन्तु अवधि और मनःपर्यय को पारमार्थिक कहना ठीक नहीं है । कारण, वे दोनों विकल (एकदेश) प्ररपक्ष हैं ? __ समाधान --- नहीं; सफसपना और विकलपना यहाँ विषय को अपेक्षा से है, स्वरूपतः नहीं। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- 20 चूंकि केवलज्ञान समस्त द्रव्यों और पार्यों को विषय करने वाला है, इसलिये वह सकल प्रत्यक्ष कहा जाता है। परन्तु अषि और मनःपर्यय कुछ पदार्थों को विषय करते हैं, इसलिये वे विकल कहे जाते हैं। लेकिन इतने से उनमें पारमार्थिकता को हानि नहीं होती। क्योंकि पारमार्थिकता का कारण सकलाविषपता नहीं है-पूर्व 25
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निर्मलता है और वह पूर्ण निर्मलता केवलज्ञान की तरह अवधि और मनः पर्यय में भी अपने विषय में विद्यमान है। इसलिये वे दोनों भी पारमायिक हो हैं ।
अवधि आदि तोनों ज्ञानों को प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष न हो सकने की 5 शङ्का और उसका समाधान
शङ्का- -अक्ष नाम चक्षु श्रादि इन्द्रियों का है, उनकी सहायता लेकर जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे ही प्रत्यक्ष कहना ठीक है, अन्य (इन्द्रियनिरपेक्ष अवधिज्ञानादिक) को नहीं ?
समाधान – यह शङ्का ठीक नहीं है। क्योंकि प्रात्मा मात्र की 10 अपेक्षा रखने वाले और इन्द्रियों की अपेक्षा न रखने वाले भी अवधि, मनः पर्यय और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष कहने में कोई विरोष नहीं है। कारण, प्रत्यक्षता का प्रयोजक स्पष्टता हो है, इन्द्रियजन्यता नहीं। और वह स्पष्टता इन तीनों ज्ञानों में पूर्णरूप से है । 15 इसीलिये मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल इन पाँच ज्ञानों में 'आद्ये परोक्षम्' [ ० सू० १-११ ] सू० १-१२ ] इन दो सूत्रों द्वारा प्रथम के ज्ञानों को परोक्ष तथा श्रवधि, मन:पर्यय और
को प्रत्यक्ष कहा है ।
और 'प्रत्यक्षमन्यत्' [ १० मति और श्रुत इन दो केवल इन तीनों शानों
शङ्का - फिर ये प्रत्यक्ष शब्द के वाच्य कैसे है ? अर्थात् इनको 20 प्रत्यक्ष शब्द से क्यों कहा जाता है ? क्योंकि प्रक्ष नाम तो इन्द्रियों का है और इन्द्रियों की सहायता से होने वाला इन्द्रियजन्य ज्ञान हो प्रत्यक्ष शब्द से कहने योग्य है ?
समाधान - हम इन्हें रूढि से प्रत्यक्ष कहते हैं । तात्पर्य पह फि प्रत्यक्ष शब्द के व्युत्पत्ति ( यौगिक) प्रथं की अपेक्षा न करके प्रवधि 25 आदि ज्ञानों में प्रत्यक्ष शब्य को प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्ति में
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निमित्त' स्पष्टता है। और वह उक्त तीनों ज्ञानों में मौजूद है। अतः जो ज्ञान स्पष्ट है यह प्रत्यक्ष कहा जाता है ।
अथवा व्युत्पत्ति अर्थ भी इनमें मौजूद है । 'प्रक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीति प्रक्ष आत्मा' अर्थात् जो व्याप्त करे—जाने उसे पक्ष कहते हैं और वह आत्मा है। इस व्युत्पत्ति को लेकर अक्ष शब्द का अर्थ 5 श्रात्मा भी होता है। इसलिये उस प्रक्ष- - श्रात्मा मात्रको अपेक्षा लेकर उत्पन्न होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहने में क्या बाधा है ? अर्थात् कोई बाधा नहीं है ।
शङ्का – यदि ऐसा माना जाय तो इन्द्रियजन्य ज्ञान अप्रत्यक्ष कहलायेगा ?
समाधान- हमें खेद है कि श्राप भूल कि इन्द्रियजन्य ज्ञान उपचार से प्रत्यक्ष हैं। हो, इसमें हमारी कोई हानि नहीं है
जाते हैं। हम कह श्राये हैं भतः वह वस्तुतः अप्रत्यक्ष
10
इस उपर्युक्त विवेचन से 'इन्द्रियनिरपेक्ष ज्ञानको परोक्ष' कहनेकी मान्यता का भी खण्डन हो जाता है । क्योंकि अविशदता 15 ( अस्पष्टता) को ही परोक्ष का लक्षण माना गया है। तात्पर्य यह १ व्युत्पत्तिनिमित्त से प्रवृत्तिनिमित्त भिन्न हुआ करता है । जैसे गोशब्दका व्युत्पत्तिनिमित्त 'गच्छतीति गौ' जो गमन करे वह गो है, इस प्रकार 'गमनक्रिया' है और प्रवृत्तिनिमित्त 'गोत्य' है । यदि व्युत्पत्तिनिमित्त (गमनक्रिया) को ही प्रवृत्ति में निमित्त माना जाय तो बैठी या खड़ी गाय में गोशब्द की प्रवृत्ति नहीं हो सकती और गमन कर रहे मनुष्यादिमें भी गोशब्दकी प्रवृत्ति का प्रसङ्ग आयेगा । अतः गोशब्दकी प्रवृत्ति में निमित्त व्युतातिनिमित्तने भिन्न गोत्व' है । उसी प्रकार प्रकृत में प्रत्यक्ष वशब्दकी प्रवृत्तिमं व्युत्पत्तिनिमित्त 'क्षाश्रितत्त्र' से भिन्न 'स्पटत्व' है । मतः अवधि श्रादि तीनों ज्ञानों को प्रत्यक्ष कहने में कोई बाधा नहीं है ।
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कि मिस प्रकार इन्द्रिपसारेक्षता प्रत्यक्षता में प्रयोजक नहीं है। उसी प्रकार इन्द्रियनिरपेक्षता परोक्षता में भी प्रयोजक नहीं है। किन्तु प्रत्यक्षता में स्पष्टताकी तरह परोक्षता में अस्पष्टता कारण है।
शङ्का-'प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है' यह कहना बड़े साहस की बात है; 5 क्योंकि वह असम्भव है । यदि असम्भव की भी कल्पना करें तो माकाश के फूल अरदि को भी कल्पना होनी चाहिए ?
समाधान नहीं; आकाश के फूल प्रादि अप्रसिद्ध हैं। परन्तु प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है। वह इस प्रकार से है
'केवलज्ञान' जो कि अतीन्द्रिय है, अल्पज्ञानी कपिल प्रादि के असम्भव 10 होने पर भी प्ररहन्त के अवश्य सम्भव है। क्योंकि मरहन्त भगवान सर्वश हैं।
प्रसङ्गवश शङ्का-समाधान पूर्वक सर्वश की सिद्धि-.. __ शङ्का-सर्वजता ही जब अप्रसिद्ध है सब प्राप यह कसे कहते
हैं कि 'महन्त भगवान सर्वन है ? क्योंकि जो सामान्यतया कहीं भी ___ 15 प्रसिद्ध नहीं है उसका किसी खास जगह में व्यवस्थापन नहीं हो सकता है ?
समाधान—नहीं; सर्वज्ञता अनुमान से सिद्ध है। वह अनुमान इस प्रकार है-सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ किसी के
प्रस्पक्ष हैं, क्योंकि अनुमान से जाने जाते हैं। जैसे अग्नि प्रादि 20 पदार्थ । स्वामी समन्तभद्र ने भी महाभाष्य के प्रारम्भ में प्राप्तमी
१ महाभाष्यसे सम्भवतः ग्रन्थकार का आशय गन्धहस्तिमहाभाष्य से जान पड़ता है क्योंकि अनुश्रुति ऐसी है कि स्वामी समन्तभद्रने 'तत्त्वार्थसूत्र' पर 'गन्धहस्तिमहाभाष्य' नामको कोई बृहद् टोका लिखी है और प्राप्तमीमांसा जिसका प्रादिम प्रकरण है । पर उसके अस्तित्वमें विद्वानोंका मतभेद है । इसका कुछ विचार प्रस्तावनामें किया है। पाठक यहां देखें ।
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मांसा प्रकरण में कहा है-"क्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ किसीके प्रत्यक्ष हैं, क्योकि वे अनुमानसे जाने जाते हैं। जैसे अग्नि आदि । इस अनुमान से सर्वज्ञ भले प्रकार सिद्ध होता है।"
सूक्ष्म पदार्थ ये हैं जो स्वभाव से विप्रकृष्ट हैं-दूर हैं, जैसे परमाणु आदि । अन्तरिम वे हैं जो काल से विप्रकृष्ट हैं, जैसे राम 5 श्रादि । दूर के हैं जो देवा से विप्रकृष्ट है, जैसे मेरु आदि । ये 'स्वभाव काल और देश से विप्रकृष्ट पदार्थ' यहाँ धर्मा (पक्ष) हैं। "किसी के प्रत्यक्ष हैं' यह साध्य है। यहाँ 'प्रत्यक्ष' शव का अर्थ 'प्रत्यक्षजान के विषय' यह विवक्षित है, क्योंकि विषयो ( जान ) के धर्म (जानमा) का विषय में भी उपचार होता है । 'अनुमान से जाने जाते हैं यह 10 हेतु है । 'अग्नि प्रादि' दृष्टान्त है । 'अग्नि प्रावि' दृष्टान्त में 'अनुमान से जाने जाते हैं यह हेतु किसी के प्रत्यक्ष हैं' इस साध्य के साथ पाया जाता है। प्रतः वह परमाणु . वगैरह सूक्ष्मादि पदार्थों में भी किसी की प्रत्यक्षता को अवश्य सिद्ध करता है । तात्पर्य यह कि जिस प्रकार अग्नि प्रादि अनुमान से जाने जाते हैं। प्रतएव वे किसी के 15 प्रत्यक्ष भी होते हैं। उसी प्रकार मुश्मादि अतीन्द्रिय पदार्थ चूंकि हम लोगों के द्वारा अनुमान से जाने जाते हैं प्रतएव वे किसी के प्रत्यक्ष भी है और जिसके प्रत्यक्ष हैं वही सर्वज्ञ है । परमाणु भादि में 'अनुमान से जाने जाते हैं। यह हेतु प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि उनको अनुमान से जानने में किसी को विवाद नहीं है। अर्थात्-सभी मतवाले इन पदार्थों 20 को अनुमेय मानते हैं। ____अङ्गा-सूक्ष्मादि पदार्थों को प्रत्यक्ष सिद्ध करने के द्वारा किसी के सम्पूर्ण पदार्थों का प्रत्यक्षज्ञान हो, यह हम मान सकते हैं। परन्तु वह प्रतीनिय है-इन्द्रियों को अपेक्षा नहीं रखता है, यह कैसे ?
समाधान- इस प्रकार से यदि वह कान इन्द्रियजन्य हो तो 25
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न्याय-दीपिका
सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाला नहीं हो सकता है। क्योंकि प्रद्रिया अपने योग्य विषय' (सन्निहित और वर्तमान अर्थ } में हो जान को उत्पन्न कर सकती हैं। और सूक्ष्मावि पदार्थ इन्द्रियों के योग्य विषय
नहीं है। अतः वह सम्पूर्ण पदार्थ विषयक शान अनन्निधिक हो है5 इन्द्रियों की अपेक्षा से रहित भतीन्द्रिय है, यह बात सिद्ध हो जाती
है। इस प्रकार से सर्वस के मामले में किसी भी सर्वज्ञवादी को विवाद नहीं है। जैसा कि चूसरे भी कहते हैं- "पुण्य-पापादिक किसी के प्रत्यक्ष है। क्योंकि वे प्रमेय है।" ।
सामाग्य से सर्वत्र को सिद्ध करके अहंन्त के सर्वज्ञता की सिद्धि10 गङ्गा-सम्पूर्ण पदार्थों को साक्षात् करने वाला अतीन्द्रिय
प्रत्यसन्नान सामान्यतया सिद्ध हो; परन्तु वह परहन्त के है यह कसे पाकि किसी के यह सर्वनाम शब्द है और सर्वनाम शब्द सामान्य का सापक होता है ?
समाधान- सत्य है । इस अनुमाम से सामान्य सर्वज्ञ की ____15 सिद्धि की है। "परहन्त सर्वश हैं। यह हम अन्य अनुमान से सिद्ध
करते हैं। वह अनुमान इस प्रकार है-'प्ररहन्त सर्वज्ञ होने के योग्य हैं, क्योंकि वे निर्दोष हैं, जो सर्वक नहीं है यह निर्दोष महीं है. जैसे रथ्यापुरुष ( पागल )।' यह केवलयतिरेको हेतु जन्य
अनुमान है। 20 पावरण और रागादि मे दोष है और इनसे रहित का नाम
निर्दोषता है। वह निदोषता सर्वशता के बिना नहीं हो सकती है। क्योंकि जो किञ्चिज्ज है- अल्पशानी है उसके प्रावरणादि दोषों का प्रभाव नहीं है। प्रतः परहन्त में रहने वाली यह निर्दोषता उनमें १ 'सम्बद्ध वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना' –मो०श्लोमूत्र ४ श्लोक ८४ ।
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दूसरा प्रकाश
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सर्वशता को अवश्य सिद्ध करती है। और यह निदोषता परहस्त परमेष्ठी में उनके युक्ति और शास्त्र से प्रतिरोधी बम होने से सिद्ध होती है। मुक्ति और शास्त्र से विरोधी पचन भी बनके द्वारा माने गये मुक्ति, संसार और मुक्ति तथा संसार के कारण तत्व और अनेकधर्मयुक्त चेतन तथा प्रचेसन तब के प्रत्यमावि प्रमाण से 5 गाषित न होने से अच्छी तरह सिद्ध होते हैं। तारपर्य यह कि प्ररहन्त के द्वारा उपदेशित तत्वों में प्रत्यक्षादि प्रमाणों से कोई बाधा नहीं भाती है। अतः वे यथार्थवमता है। और यथार्थवक्ता होने से निर्दोष है। तथा निर्वोष होने से सर्वत्र है।
शाका-इस प्रकार प्ररहन्त के सर्वमता सिद्ध हो जाने पर भी 10 वह परहन्त के ही हैं, यह फैसे ? क्योंकि कपिल प्रावि के भी यह सम्भव है ?
समाधान-कपिल प्रादि सर्वझ नहीं है। क्योंकि वे सदोष है। पौर सोच इसलिए हैं कि वे युक्ति और शास्त्र से विरोधी कथन करने वाले हैं। युक्ति और शास्त्र से विरोधी कपन करने वाले भी 15 इस कारण है कि उनके द्वारा माने गये मुक्ति आदिक तरब और सर्वथा एकान्त सत्त्व प्रमाण से बाधित हैं। अतः वे सर्वा नहीं है। अरहन्त ही सर्वत हैं। स्वामी समन्तभद्र ने ही कहा है-हे महन् ! वह सर्वन पाप हो हैं, क्योंकि प्राप निर्दोष हैं। निर्दोष इसलिये हैं कि युक्ति और प्रागम से मापके वचन प्रविरुद्ध है—युक्ति तथा आगम से 20 सनमें कोई विरोध नहीं पाता। और वचनों में विरोध इस कारण नहीं है कि माएका इच्ट ( मुक्ति प्रादि तत्त्व } प्रमाण से बाधित महीं है। किन्तु तुम्हारे अनेकान्त मतरूप अमृत का पान नहीं करने माले तथा सर्वथा एकान्त तत्त्व का कथन करने वाले और अपने को प्राप्त समझाने के अभिमान से दग्ध हुए एकान्तवावियों का इष्ट (अभि• 2: मत सस्व) प्रत्यन से बाधित है।"
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१७२
न्याय-दीपिका
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रंग दोनों के द्वारा पतस्व में बाधा और स्वाभिमत तस्य में प्रभाषा इन्हीं दो के समर्थन को लेकर 'भावेकारसे इस कारिका के द्वारा प्रारम्भ करके 'स्यात्कार: सत्यलाञ्जनः ' इस कारिका तक प्राप्तमीमांसा की रचना की गई है। अर्थात् - 5 अपने द्वारा माने गये तत्व में फंसे बाघा नहीं है ? और एकान्तवादियों के द्वारा माने तत्व में किस प्रकार बाधा है ? इन दोनों का विस्तृत विवेचन स्वामी समन्तभद्र में 'प्राप्तमीमांसा' में 'भावैकान्ते' इस कारिका ९ से लेकर 'स्यात्कार: सत्यलाञ्छन: ' इस कारिका ११२ तक किया है। अतः यहाँ और प्रषिक विस्तार नहीं किया जाता ।
10
इस प्रकार प्रतीद्रिय केवलज्ञान अरहन्त के हो है, यह सिद्ध हो गया । और उनके वचनों के प्रमाण होने से उनके द्वारा प्रतिपादित प्रतीन्द्रिय अवधि और मन:पर्ययज्ञान भी सिद्ध हो गये । इस तरह प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष निर्दोष (निर्वाध ) है – उसके मानने में कोई दोष या धावा नहीं है। अतः प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ये दो 15 भेद सिद्ध हुये ।
इस प्रकार श्रीजंनाचार्य धर्मभूषन यति विरचित न्यायदीपिका में प्रत्यक्ष प्रमाणका प्रकाश करनेवाला पहला प्रकाश पूर्ण हुआ।
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तीसरा प्रकाश
दूसरे प्रकाश में प्रत्यक्ष प्रमाण का निरूपण करके इस प्रकाश में परोक्ष प्रमाण का निरूपण प्रारम्भ किया जाता है।
परोक्ष प्रमाण का सक्षण -- .
मविशव प्रतिभास को परोक्ष कहते हैं। यहाँ 'परोक्ष' लक्ष्य है, : 'प्रविशवप्रतिमाप्तत्व' लक्षण है। तात्पर्य यह कि जिस शाम का 5
प्रतिभास विशद- स्पष्ट नहीं है वह परोक्ष प्रमाम है। वियता का लक्षण पहले स्तला भाये हैं, उससे भिन्न प्रविशवता है। उसी को अस्पष्टता कहते हैं। यह प्रविशता भी विशषता की तरह अनुभव से मानी जाती है। ___ "जो नान केवल सामान्य को विषय करे यह परोक्ष है ऐसा 10 कोई (बोड) परोक्ष का लक्षण करते हैं। परन्तु यह नोक नहीं है। पोंकि प्रत्पल को तरह परोक्ष भी सामान्य और विशेषरूप वस्तु को विषय करता है। और इसलिये बह लक्षण प्रसम्भव शेप मुक्त है। जिस प्रकार प्रत्यक्ष घटादि पदार्थों में प्रवृत्त होकर उनके घटत्वाविक सामान्याकार को और घट व्यक्तिकप ग्यवच्छेवास्मक विशेषा. 15 कारको एक साथ ही विषय करता हुमा उपलब होता है उसो प्रकार परोक्ष भी सामान्य और विशेष दोनों माकारों को विषय करता हुआ उपलब्ध होता है। इस कारण केवल सामान्य को विषय करना' परोक्ष का लक्षण नहीं है, अपि तु प्रविशता हो परोक्ष का लक्षण है। सामान्य और विशेष में से किसी एक को 23 विषय करने वाला मानने पर सो प्रमाणता ही नहीं बन सकती है। पयोंकि सभी प्रमाण सामान्य भौर विशेष दोनों स्वरूप वस्तु को विषय करने वाले माने गये है। कहा भी है--सामान और विशेष
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न्याय -दीपिका
रूप वस्तु प्रमाणका विषय है।" अतः अविशद ( अस्पष्ट ) प्रतिभास को जो परोक्ष का लक्षण कहा है वह बिल्कुल ठीक है ।
परोक्ष प्रमाण के भेद और उनमें ज्ञानान्तर की सापेक्षता का
कथन
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5
उस परोक्ष प्रमाण के पांच भेद हैं-१ स्मृति, २ प्रत्यभिज्ञान ३ सर्क, ४ अनुमान और ५ प्रागम। ये पाँचों ही परोक्ष प्रमाण नामान्तर की अपेक्षा से उत्पन्न होते हैं । स्मरण में पूत्रं अनुभव की अपेक्षा होती है, प्रत्यभिज्ञान में स्मरण और अनुभव की, तर्क में अनुभव, स्वरण और प्रत्यभिज्ञानको अनुमान में लिङ्गदर्शन, 10 व्याप्ति स्मरण आदि को और प्रागम में शब्दश्रवण, सङ्केतग्रहण ( इस शब्द का यह है, इस प्रकार के संकेत के ग्रहण) आदि की अपेक्षा होती है। किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण में ज्ञानान्तर की अपेक्षा नहीं होती, वह स्वतन्त्र रूप से -- शामान्तर निरपेक्ष ही उत्पन्न होता है । स्मरण आणि की यह शानस्तरापेक्षा उनके अपने अपने निरूपण के 15 समय बतलायी जायसे ।
प्रथमतः उद्दिष्ट स्मृति का निरूपण
स्मृति किसे कहते हैं ? 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाले और पहले अनुभव किये हुये पदार्थ को विषय करने वाले ज्ञान को स्मृति कहते हैं जैसे 'वह देवदत्त' । यहाँ पहले अनुभव किया हुआ 20 ही देवदत्त 'वह' शब्द के द्वारा जाना जाता है । इसलिये यह ज्ञान 'वह' शब्द से उल्लिखित होने वाला और अनुभूत पदार्थ को विषय करने वाला है। जिसका अनुभव नहीं किया उसमें यह ज्ञान नहीं होता। इस ज्ञान का जनक अनुभव हैं और वह अनुभव धारणारूप ही कारण होता है; क्योंकि पदार्थ में अवग्रहादिक ज्ञान हो जाने पर भी 25 धारणा के प्रभाव में स्मृति उत्पन्न नहीं होती । कारण, वारणा
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आत्मा में उस प्रकार का संस्कार पैदा करती है, जिससे वह कालाम्सर में भी उस अनुभूत विषय का स्मरण करा देती है । इसलिये धारणाके विषय में उत्पन्न हुआ 'वह' शब्द से उल्लिखित होने वाला यह ज्ञान स्मृति है, यह सिद्ध होता है ।
शङ्का – यदि धारणा के द्वारा प्रहण किये उत्पन्न होता है तो गृहीतग्राही होने से उसके आता है ?
विषय में हो स्मरण 5 प्रप्रमाणता का प्रसङ्ग
समाधान --- नहीं: ईहा श्रादिक की तरह हमरणमें भी विषयभेव मौजूद है। जिस प्रकार भवग्रहादिक के द्वारा ग्रहण किये हुए अयं को विषय करने वाले ईहादिक ज्ञानों में विषयभेव होने से अपने विषय सम्बन्धी 10 संशयाविरूप समाशेष को दूर करने के कारण प्रमाणता है उसी प्रकार
विषय में प्रवृत्त होने
स्मरण में भी धारणा के द्वारा ग्रहण किये गये पर भी प्रमाणता ही है। कारण, धारणा का विषय हदन्ता से मुक्स अर्थात् 'यह' है- 'यह' शब्द के प्रयोग पूर्वक उल्लिखित होता है और स्मरण का तसा से युक्त अर्थात् 'वह' है-'वह' शस्त्र के द्वारा निविष्ट 15 होता है। तात्पर्य यह है कि शरणा का विषय तो वर्तमान कालीन है और स्मरण का विषय भूतकालीन है। अतः स्मरण अपने विषय में उत्पन्न हुये अस्मरण प्रावि समारोपको दूर करने के कारण प्रमाण ही है-अप्रमाण नहीं। प्रमेयकमलमार्तण्ड में भी कहा है- "विस्मरण, संशय और विपर्ययरूप समारोप है और उस समारोप को दूर करने 20 से यह स्मृति प्रमाण है ।"
'स्मरण अनुभूत विषय में प्रवृत्त होता है' इतने से यदि वह प्रमाण हो तो धनुमान से आती हुई अग्नि को जानने के लिये पीछे प्रवृत हुआ प्रत्यक्ष भी श्रप्रमाण ठहरेगा । अतः स्मरण किसी भी प्रकार प्रमाण सिद्ध नहीं होता ।
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प्रत्यक्षादिककी तरह स्मृति अविसंवादी है- विसंवाद रहित है, इसलिए भी वह प्रमाण है। क्योंकि स्मरण करके यथास्थान रक्खी हुई वस्तुनों को ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होने वाले व्यक्ति को स्मरण के विषय (पदार्थ) में विसंवाद – भूल जाना या प्रत्यत्र प्रवृत्ति करना 5 नहीं होता । जहाँ विसंवाद होता है वह प्रत्यक्षाभास की तरह स्मरणाभास है। उसे हम प्रमाण नहीं मानते। इस तरह स्मरण नामका पृथक प्रमाण है, यह सिख हुमा ।
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प्रत्यभिज्ञान का लक्षण और उसके भेदों का निरूपण
अनुभव और स्मरणपूर्वक होने वाले जोड़रूप ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान 10 कहते हैं। 'यह' का उल्लेख करने वाला ज्ञान अनुभव है और 'वह' कर उल्लेख ज्ञान स्मरण है। इन दोनों से पैदा होने वाला तथा पूर्व और उत्तर अवस्थाओं में वर्तमान एकस्व सादृश्य और वैलक्षण्य प्राविको विषय करने वाला जो जोड़रूप ज्ञान होता है वह प्रत्यभिज्ञान
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है, ऐसा समझना चाहिए। जैसे वही 15 गवय ( जङ्गली पशुविशेष) होता है, इत्यादिक प्रत्यभिज्ञान के उदाहरण हैं ।
यह जिनदत्त है, गो के समान गाय से भिन्न भैसा होता है,
यहाँ पहले उदाहरण में, जिनदत को पूर्व और उत्तर अवस्था श्रोंमें रहने वालो एकता प्रत्यभिज्ञान का विषय है । इसीको एकत्वप्रत्यभिज्ञान कहते हैं। दूसरे उदाहरण में, पहले अनुभव को हुई
20 गाय को लेकर गवय में रहने वाली सदृशता प्रत्यभिज्ञान का विषय है । इस प्रकार के ज्ञान को साबुश्यप्रत्यभिज्ञान कहते है। तीसरे उदाहरण में, पहले अनुभव की हुई गाय को लेकर भंसा में रहने वाली विसदृशता प्रत्यभिज्ञान का शिष्य है। इस तरह का ज्ञान प्रत्यभिज्ञान कहलाता है । इसी प्रकार और भी प्रत्यभिज्ञान के 25 भेव अपने अनुभव से स्वयं विचार लेना चाहिये। इन सभी प्रत्य
सावुइय
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भिज्ञानों में अनुभव और स्मरण को अपेक्षा होने से उन्हें अनुभव और स्मरणहेतुक माना जाता है ।
किन्हों का कहना है कि अनुभव और स्मरण से भिन्न प्रत्यभिज्ञान नहीं है। ( क्योंकि पूर्व और उत्तर श्रवस्यानों को विषय करने बाला एक ज्ञान नहीं हो सकता है। कारण, विषय भिन्न है । दूसरी 5 बात यह है कि 'वह' इस प्रकार से जो ज्ञान होता है यह तो परोक्ष है और 'यह' इस प्रकार से जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष हैइसलिये भी प्रत्यक्ष और परोक्षरूप एक ज्ञान नहीं हो सकता है, किन्तु वे अनुभव और स्मरणरूप दी ज्ञान है | )
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है; क्योंकि अनुभव तो वर्तमानकालीन पर्याय को हो विषय करता 10 है और स्मरण भूतकालीन पर्याय का द्योतन करता है। इसलिये ये दोनों प्रतीत और वर्तमान पर्यायों में रहने वाली एकता, सदृशता प्रादि को कैसे विषय कर सकते हैं ? अर्थात् — नहीं कर सकते है ।
'अतः स्मरण और अनुभव से भिन्न उनके बाद में होने एकता, सक्षता मादि को विषय करने वाला जो होता है वही प्रात्यभिज्ञान है ।
वाला तथा उन जोड़रूप ज्ञान 15
स्वीकार करके
अन्य ( दूसरे वैशेषिकादि ) एकत्वप्रत्यभिज्ञान को भी उसका प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव कल्पित करते हैं।
वह इस प्रकार
से है- जो इन्द्रियों के साथ अन्वय और व्यतिरेक रखता है यह
प्रत्यक्ष है । अर्थात् जो इन्द्रियों के होने पर होता है और उनके 20 प्रभाव में नहीं होता वह प्रत्यक्ष है, यह प्रसिद्ध है । और इन्द्रियों का अन्वय तथा व्यतिरेक रखने वाला यह प्रत्यभिज्ञान है, इस कारण यह प्रत्यक्ष है। उनका भी यह कथन ठीक नहीं है; क्योंकि इन्द्रियाँ वर्तमान पर्याय मात्र के विषय करने में ही उपक्षीण ( चरितार्थ हो जाने से वर्तमान और प्रतीत अवस्थाओं में रहने वाले 25
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एकरवको विषय नहीं कर सकती हैं। इन्द्रियों को विषय में प्रति मानना योग्य नहीं है। अन्यथा चक्षु के द्वारा रसादि का भी जान होने का प्रसङ्ग प्राधेगा।
शा—यह ठोक है कि इन्द्रियां वर्तमान पर्याय मात्र को ही 5 विषय करती हैं तथापि वे सहकारियों की सहायता से वर्तमान पौर
प्रतीत अवस्थाओं में रहने वाले एकरन में भी नान करा सकती हैं। जिस प्रकार अञ्जन के संस्कार से चक्षु व्यवधान प्राप्त (ढके इपे) पदार्थ को भी जान लेती है। प्रद्यपि चक्षु के व्यहित पदार्थ को जानने
को सामर्थ्य (शक्ति) नहीं है। परन्तु अमन संस्कार की सहायता 10 से वह उसमें देखी जाती है । उसी प्रकार स्मरण आदि की सहायता ले
इन्द्रिया हो दोनों प्रवस्थानों में रहने वाले एकत्व को जान लेंगी । प्रतः उसको जानने के लिए एकरवप्रत्यभिज्ञान नाम के प्रमाणान्तर को कल्पना करना अनावश्यक है ?
___समाधान - यह कहना भी सम्पक नहीं है। क्योंकि हजार सह15 कारियों के मिल जाने पर भी प्रविषय में – जिसका जो विषय नहीं है,
उसकी उसमें प्रति नहीं हो सकती है। घर के अञ्जन संस्कार मावि सहायक उसके अपने विषय रूपावि में हो उसको प्रवृत्त करा सकते हैं, रसादिक विषय में नहीं। और इम्नियों का विषय है पूर्व
तथा उसर अवस्थाओं में रहने वाला एकस्व । अतः उसे जानने के लिये 20 पृषक प्रमाण मानना ही होगा। सभी जगह विषय-भेद के द्वारा ही प्रमाण के भेव स्वीकार किये गये हैं।
दूसरी बात यह है कि 'बाही ग्रह है' यह मान अस्पष्ट हो है स्पष्ट नहीं है। इसलिए भी उसका प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव नहीं
हो सकता है। और यह निश्चय ही जानना चाहिये कि वक्षु 25 माविक इन्द्रियों में एकस्वज्ञान उत्पन्न करने की सामर्थ्य नहीं है।
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भम्पया सिङ्गदर्शन ( धूमादि का देखना) और व्याप्ति के स्मरण प्रावि को सहायता से साविक इन्द्रियाँ ही मग्नि प्रादिक लिङ्गि (साध्य ) का ज्ञान उत्पन्न कर दें। इस तरह अनुमान भी पृथक प्रमाण न हो । यदि कहा जाय कि चक्षुराविक इन्द्रियाँ तो अपने विषय धूमादि के देखने मात्र में ही चरितार्थ हो जाती हैं, वे भग्नि प्रादि परोक्ष 5 प्र में प्रवृत्त नहीं हो सकतों, श्रतः श्रग्नि प्रादि परोक्ष अर्थों का ज्ञान करने के लिये अनुमान प्रमाण को पृथक मानना श्रवश्यक है, तो प्रत्यभिज्ञान ने क्या अपराध किया ? एकस्व को विषय करने के लिए उसको भी पृथक मानना जरूरी है । अतः प्रत्यभिज्ञान नामका पृथक् प्रमान है। यह स्थिर हुआ ।
'सादृश्यप्रत्यभिज्ञान उपमान नाम का पृथक् प्रमाण हैं ऐसा किन्हीं ( नैयायिक और मीमांसकों ) का कहना है। पर वह ठीक नहीं हैं; क्योंकि हमरण और अनुभवपूर्वक जोड़रूप ज्ञान होने से उसमें प्रत्यभिज्ञानता ( प्रत्यभिज्ञानपना) का उलंघन नहीं होता- वह उसमें रहती है । प्रतः यह प्रत्यभिज्ञान हो है । धन्यथा ( यदि सादृश्य- 1 faare शामको उपमान नाम का पृथक् प्रमाण माना जाय तो ) 'गाय से भिन्न भैसा है' इत्यादि बिसवृशता को विषय करने वाले सादृश्यज्ञान को मोर 'यह इससे दूर है' इत्यादि यापेक्षिक ज्ञान को भी पुन प्रसारण होना चाहिए | भ्रतः जिस प्रकार वैसादृश्याविज्ञानों में प्रत्यभिज्ञान का लक्षण पाया जाने से वे प्रत्यभिज्ञान है 2 उसी प्रकार सादृश्यविषयक ज्ञान में भी प्रत्यभिज्ञान का लक्षण पाया जाने से वह प्रत्यभिज्ञान ही है- उपभान नहीं। यही प्रामाणिक परम्परा है।
तर्क प्रमाण का निरूपण -
प्रत्यभिज्ञान प्रमाण हो । तर्क का क्या स्वरूप है ? व्याप्ति के
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मानको मर्म करते है। साधा और कान में च और गमक (गोप्य और बोषक) भाव का सापक और व्यभिचार की गन्प से रहित सो सम्बन्धविशेष है उसे व्याप्ति कहते हैं। उसी को प्रविमा
भाव भी कहते हैं । उस व्याप्ति के होने से भग्न्याविक को धूमादिक हो 5 मनाते हैं, घटादिक नहीं। क्योंकि घटाबिक की प्रग्न्यादिक के साथ
पाप्ति (अविनाभाव) नहीं है । इस अविनाभावरूप ध्याप्ति के मान में जो साधकतम है वह पह तर्फ नाम का प्रमाण है। श्लोकवात्तिक भाष्य में भी कहा है - "साध्य और साधन के सम्बन्धविषयक प्रज्ञान को
दूर करने रूप फल में जो साधकतम है वह तर्क है।" 'हा' भी 10 तक का ही दूसरा नाम है। वह तर्क उक्त व्याक्तिको सर्वदेश और
सर्वकाल की अपेक्षा से विषय करता है।
शङ्का-इस तर्क का उदाहरण क्या है ?
समाधान—'जहाँ जहाँ धूम होता है वहाँ वहाँ पग्नि होती
है' यह तर्क का उदाहरण है। यहां धूम के होने पर अनेक बार ____15 अग्नि की उपलब्धि और अग्नि के प्रभाव में धूम को अनुपालगिष
पाई जाने पर 'सब जगह और सब काल में पुत्रो अग्नि का व्यभिबारी नहीं है-अग्नि के होने पर ही होता है और अग्नि के प्रभाव में नहीं होतर' इस प्रकार का जो सर्वदेश और सर्वकालरूप से अधिना
भाष को ग्रहण करने वाला बाद में ज्ञान उत्पन्न होता है वह सर्क 20 नाम का प्रत्यक्षाविक से भिन्न ही प्रमाण है। प्रत्यक्ष निकटवर्ती
हो षम और प्रनि के सम्बन्ध का ज्ञान कराता है, अतः वह ज्याप्ति का ज्ञान नहीं करा सकता। कारण, व्याप्ति सवंदेवा और सर्वकाल को लेकर होती है।
शङ्का-मद्यपि प्रत्यक्षसामान्य ( साधारण प्रत्यक्ष ) व्याप्ति को ___25 विषय करने में समर्थ नहीं है तथापि विशेष प्रत्यक्ष उसको विषय
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१८१ करने में समय है ही। वह इस प्रकार से रसोईशाला प्रावि में धूम पौर अग्नि को सबसे पहले देखा, यह एक प्रत्यक्ष मा। इसके पाव भनेकों बार और कई प्रत्यक्ष हुये; पर वे सब प्रत्यक्ष व्यापि को विषय करने में समर्थ नहीं हैं। लेकिन पहले पहले के अनुभव किये धूम और अग्नि का स्मरण तथा तरसजातीय के अनुसन्धानरूप 5 प्रत्यभिज्ञान से सहित होकर कोई प्रत्यक्ष-विशेष सर्वदेशकाल को भी लेकर होने वाली गिने ग्रह कार अम।। है । और यदि स्मरण तथा प्रत्यभिज्ञान से सहित प्रत्यक्ष-विशेष हो जब व्याप्ति को विषय करने में समर्थ है, तब तर्क नामके पृथक् प्रमाण के मानने की क्या प्रावश्यकता है ?
10
समाधान—ऐसा कथन उनकी न्याय-मार्ग की अनभिमता को प्रकट करता है। क्योंकि 'हजार सहकारियों के मिल आने पर भी मविषय में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है' यह हम पहले कह पाये हैं । इस कारण प्रत्यक्ष के द्वारा व्याप्ति का ग्रहण बतलाना सङ्गत नहीं है। किन्तु यह सङ्गत प्रतीत होता है कि स्मरण, प्रत्यभिमान 15 और अनेकों बार का हुमा प्रत्यक्ष ये तीनों मिस कर एक वैसे शाम को उत्पन्न करते हैं जो व्याप्ति के प्रहण करने में समर्थ है और वही तर्क है। अनुमान प्रादि के द्वारा तो व्याप्ति का ग्रहण होमा सम्भव ही नहीं है। तात्पर्य यह कि अनुमान से यदि व्याप्ति का ग्रहण माना जाय तो यहाँ दो विकल्प उठते हैं—जिस अनुमान को 20 व्याप्ति का ग्रहण करना है उसो अनुमान से व्याप्ति का प्रहण होता है या अन्य दूसरे अनुमान से ? पहले विकल्प में अन्योन्याश्रय रोष प्राता है, क्योंकि व्याप्ति का ज्ञान जब हो जाय, तब अनुमान अपना स्वरूप लाभ करे और अनुमान जब स्वरूप लाभ कर ले, तब व्याप्सिका शान हो, इस तरह दोनों परस्परापेश हैं। अन्य दूसरे अमाम से 25
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व्याप्ति का हान मानने पर अमवस्था दोष झाता है, क्योंकि दूसरे धनुमान को व्याप्ति का ज्ञान सम्य तृतीय अनुमान से मानना होगा, तृतीय अनुमान की व्याप्ति का ज्ञान अन्य चौये अनुमान से माना बायेगा, इस तरह कहीं भी व्यवस्था न होने से अनवस्था नाम का 5 बोध प्रसक्त होता है। इसलिए प्रभुमान से व्याप्ति का प्रहण सम्भव नहीं है। और न प्राणमादिक प्रमाणों से भी सम्भव है, क्योंकि उन सबका विषय भिन्न भिन्न है। और विषयभेव से प्रमाणभेद की व्यवस्था होती है। अतः व्याप्ति को ग्रहण करने के लिए तर्क प्रमाण का सामना श्रावश्यक है।
'मिविकल्पक प्रत्यक्ष के अनन्तर जो विकल्प पैदा होता है वह
व्याप्ति को ग्रहण करता है' कि वह विकल्प श्रप्रमाण है उसके द्वारा गृहीत व्याप्ति में तो वह प्रत्यक्ष है प्रथवा अनुमान ? प्रत्यक्ष तो हो नहीं सकता; क्योंकि
ऐसा बौद्ध मानते हैं; अथवा प्रमाण ? प्रमाणता कैसे ?
उनसे हम पूछते हैं यदि सप्रमाण है तो और यदि प्रमाण है,
15 वह अस्पष्टज्ञान है और अनुमान भी लिङ्गदर्शन आदि की अपेक्षा नहीं होती। कोई प्रमाण है, तो वही तो तर्क है। इस निर्णय हुआ ।
नहीं हो सकता; कारण, उसमें यदि इन दोनों से भिन्न ही प्रकार तक नाम के प्रमाण का
10
अनुमान प्रमाण का निरूपण
अब अनुमान का वर्णन करते हैं। साधन से साध्य का साम होने को अनुमान कहते हैं। यहाँ 'अनुमान' यह लक्ष्य निर्देश है और 'साधन से साध्य का ज्ञान होना' यह उसके लक्षण का कवन है। तात्पर्य यह कि साधन - धूमादि लिङ्ग से साध्य-अग्नि माविक लिङ्गी में जो मान होता है यह अनुमान है। 25 ज्ञान ही अग्नि सादि के प्रमान को दूर करता है।
20
क्योंकि यह साध्य साधनलान अनुमान
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नहीं है. प्योंकि वह तो साधन सम्बन्धी पशामके ही दूर करने में परितार्थ हो जाने से साध्य समाधी मजान को दूर नहीं कर सकता है। प्रतः यायिकों में प्रभुमान का जो लक्षण कहा है कि "लिङ्गनाम अनुमान है" वह सङ्गत नहीं है। हम तो स्मरण प्रादि की उत्पत्ति में अनुभव आदि की तरह व्याप्ति स्मरण से सहित लिङ्गजान को 5 अनुमान प्रमाण की उत्पति में कारण मानते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है-जिस प्रकार धारणा नाम का अनुभव स्मरण में कारण होता है, तात्कालिक अनुभव तथा स्मरण प्रत्यभिज्ञान में और साध्य तथा साधनविषयक मरण, प्रत्यभिमान और अनुभव तर्क में कारण होते हैं उसी प्रकार व्याप्तिस्मरण प्रादि में माहित होकर लिहमाम 10 अनुमान की उत्पत्ति में कारण होता है वह स्वयं अनुमान नहीं है। यह कथन सुसङ्गत ही है।
शा-प्रापके मतमें--जनदर्शनमें साधनको हो अनुमानमें कारण माना है, साधन के ज्ञान को नहीं, क्योंकि "साधन से साध्य के शान होने को अनुमान कहते हैं। ऐसा पहले कहा गया है ?
15 समाधान नहीं; 'साधन से इस पद का अर्थ "निश्चय पथ प्राप्त धूमारिक से' यह विवक्षित है। क्योंकि जिस घूमाविक साइन का निश्चय नहीं प्रा है। अर्थात्-जिसे जाना नहीं है वह साधन ही नहीं हो सकता है। इसी बात को तत्वार्थश्लोकवात्तिक में कहा है-"साधन से साध्य के जात होने को विद्वानों ने अनुमान कहा 20 है।" इस वात्तिक का अयं यह है कि साधन से ---अर्थात माने हए षमादिक लिङ्ग से साध्य में अर्थान् —अग्नि प्राषिक लिङ्गी में ओ जान होता है यह अनुमान है। क्योंकि जिस धूमाविक लिङ्गको नहीं जाना है उसको साध्य के ज्ञान में कारण मानने पर सोये हुये अथवा जिन्होंने धूमाविक लिङ्ग को ग्रहण नहीं किया उनको भी 25
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अग्नि प्रादि का काम हो जावेगा। इस कारण जाने इये साधन से होने वाला साय का ज्ञान हो सायविषयक प्रशाम को दूर करने से अनुमान है, लिङ्गज्ञानाविक नहीं। ऐसा अकलङ्काधि प्रामाणिक विद्वान कहते हैं। तात्यय यह है कि मायमान यम को अनुमान में 5 कारण प्रतिपादन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन दर्शन में साधन को अनुमान में कारण नहीं माना, अपितु साधनज्ञान को ही कारण माना है।
साधन का लक्षण -
यह साधन क्या है, जिससे होने वाले साध्य के ज्ञान को अनु10 मान कहा है ? अर्थात्-सरधन क्या लक्षण है ? इसका असर यह
है-जिसकी साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति (अविनाभाव) निश्चित है उसे साधन कहते हैं। सात्पर्य यह कि जिसकी साध्य के प्रभाव में नहीं होने रूप व्याप्ति, अविनाभाव प्रादि नामों वाली साध्यान्यथानुप
पत्ति-- साध्य के होने पर ही होना और साध्य के प्रभाव में नहीं 15 होना--तकं नाम के प्रमाण द्वारा मिर्णीत है वह साधन है । श्री कुमार.
नन्दी भट्टारक ने भी कहा है---"अन्यथानुपपत्तिमात्र जिसका लक्षण है उसे सिङ्ग कहा गया है।"
साध्य का लक्षण
वह साध्य क्या है, जिसके अविनाभाव को साधन का लक्षण 20 प्रतिपादन किया है। ? अर्थात्-साध्य का क्या स्वरूप है ? सुनिये
शक्य, अमित और अप्रसिद्ध को साध्य कहते हैं। शाक्य यह है जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित न होने से सिद्ध किया जा सकता है। अभिप्रेत वह है जो वानी को सिद्ध करने के लिए अभिमत है
इष्ट है। और प्रसिद्ध वह है जो सन्देहाविक से युक्त होने से 25 अनिश्चित है। इस तरह जो शक्य, अभिप्रेत और अप्रसिद्ध है वहीं
साध्य है।
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P
यदि प्रशक्य ( बाधित ) को साध्य माना जाय तो प्रनि में प्रनुष्णता ( उष्णता का प्रभाव ) आदि भी साध्य हो जायगी । अनभिप्रेत करे साध्य माना जाय तो प्रतिप्रसङ्ग नामका दोष आवेगा । तथा प्रसिद्ध को साध्य माना जाय, तो अनुमान व्यर्थ हो जायगा, साध्य की विधि के लिये तुम बिक जाता है 5 और वह साध्य पहले से प्रसिद्ध है। अतः शक्यादिरूप ही साध्य है । न्यायविनिश्चय में भी कहा है :--
साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम् ।
साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः ॥ १७२ ॥
बाधित को प्रसिद्ध का क्योंकि ये
इसका अर्थ यह है कि जो शक्य है, अभिप्रेत है और प्रप्रसिद्ध 10 है वह साध्य है और जो इससे विपरोत है वह साध्याभास है । यह साध्याभास कौन है ? विरुद्धादिक है । प्रत्यक्षादि से विरुद्ध कहते हैं । 'आदि' शब्द से अनभिप्रेत और ग्रहण करना चाहिए। ये तीनों साध्याभास क्यों हैं ? तीनों ही साधन के विषय नहीं हैं । अर्थात् साधन के विषय नहीं किये जाते हैं। इस प्रकार यह अक्कलदेव के प्राय का संक्षेप है। उनके सम्पूर्ण अभिप्राय को तो स्याद्वावविद्या पति श्री वादिराज जानते हैं । अर्थात् – प्रकलङ्कदेव की उक्त कारिका का विशव एवं विस्तृत व्याख्यान श्री वादिराज ने न्यायविनिश्चय के व्याख्यानभूत अपने न्यायविनिश्चयविवरण में किया है । कसजूदेव के पूरे प्राशय को तो वे ही जानते हैं। यहाँ सिर्फ उनके अभिप्राय के अंशमात्र को दिया है। साधन और साध्य दोनों को लेकर इलोकवालिक में भी कहा है जिसका अन्यथानुपपत्तिमात्र लक्षण है, प्रर्थात् जो न त्रिलक्षणरूप है और न पञ्चलक्षणरूप है, केवल प्रविनाभावविशिष्ट है यह साधन तथा जो शक्य है, अभिप्रेत है 25
अतः 20
है
द्वारा ये 15
अभि
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और अप्रसिद्ध है उसे साध्य कहा गया है।"
इस प्रकार अधिनाभाव निश्चयरूप एक लक्षण वाले साधन से शक्य, अभिप्रेत मौर मप्रसिखरूप साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं, यह सिद्ध हुप्रा । 5 वह अनुमान दो प्रकारका है-१ स्वार्थानुमान और २ परार्या
नुमान । जनगें स्वयं हो जाने हुए साधन से साध्य के शान होने को स्वार्यानुमान कहते हैं। प्रर्यात् –पूसरे के उपवेश (प्रतिज्ञादिवाक्यप्रयोग ) की अपेक्षा न करके स्वयं ही निश्चित किये और
पहले तर्क प्रमाण से जाने गये तथा व्याप्ति के स्मरण से सहित 10 धूमारिक साधन से पर्वत प्रादिक धमों में अग्नि प्रादि साध्य का
जो ज्ञान होता है वह स्वार्थानुमान है। जैसे—यह पर्वत अग्नियाला है; क्योंकि पूम पाया जाता है। यद्यपि स्वार्थामुमान ज्ञानरूप है तथापि समझाने के लिये उसका यह शब्द द्वारा उल्लेख किया गया
है। जैसे 'यह घर है' इस शब्द के द्वारा प्रत्यक्ष का उल्लेख किया 15 जाता है। पर्वत श्रग्निवाला है, क्योंकि धम पाया जाता है। इस
प्रकार अनुमाता मानता है— अनुमिति करता है, इस तरह स्वार्थानुमान की स्थिति है। अर्थात् - स्वानुमान इस प्रकार प्रवृत्त होता है, ऐसा समझना चाहिए।
स्वार्थानुमान के प्रङ्गों का कथन10 इस स्वार्थानुमान के तीन अङ्ग हैं--१ धमों, २ साध्य और
३ साधन । साधन साप्य का गमक (ज्ञापक) होता है, इसलिए वह गमकरूप से प्रङ्ग है । साध्य साधन के द्वार। गम्य होता है- . माना जाता है, इसलिए वह गम्परूप से अन्न है। और धों
साष्य-धर्म का प्राधार होता है, इसलिए वह साध्यधर्म के प्राधार 25 रूप से अङ्ग है। क्योंकि किसी भाषारविशेष में साध्य को सिद्धि
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१८७ करमा अनुमान का प्रयोजन है। केवल धर्म को सिद्धि तो च्याप्ति निश्चम के समय में ही हो जाती है। कारण, जहाँ जहाँ धूम होता है जहां वहाँ अग्नि होती है। इस प्रकार की प्याप्ति के प्राण समय में साध्यधर्म-अग्नि ज्ञात हो हो जाती है। इसलिए केवल धर्म को सिद्धि करना अनुमान का प्रयोग नहीं । ति पयंत प्राच- 5 वाला है अथवा 'रसोईशाला अग्निवाली है। इस प्रकार 'पर्यत' या 'रसोईशाला' में वृतिरूप से अग्नि का ज्ञान अनुमान से ही होता है। अतः प्राधारविशेष (पर्वतादिक) में रहने रूप से साध्य (अग्न्यादिक) की सिद्धि करना अनुमान का प्रयोजन है। इसलिए धर्मी भो स्वार्थानुमान का प्रङ्ग है।
10 अथवा स्वार्थानुमान के दो अङ्ग है- पक्ष और २ हेतु । क्योंकि साध्य-धर्म से युक्त धर्मों को पक्ष कहा गया है। इसलिए पा के कहने से धर्म और धर्मी दोनों का ग्रहण हो जाता है। इस तरह स्वार्थानुमान के धर्मी, साध्य और साधन के भेव से तीन अङ्गः अथवा पक्ष और साधन के भेद से वो अङ्ग है. यह सिद्ध हो गया। 15 यहाँ दोनों जगह विवक्षा का भेद है। जब स्वार्थानमान के तीन अङ्ग कथन किये जाते हैं तब धर्मो और धर्म के भेद की विवक्षा है
और अन्य को अङ्ग कहे जाते हैं तब धर्मी और धर्म के समुदाय की विवक्षा है । तात्पर्य यह कि स्वार्थानुमान के सोन या दो अष्ट्रों के कहने में कुछ भी मिरोष प्रयवा अर्थभेद नहीं है । केवल कथन का 2५: भेद है। उपर्युक्त यह धर्मों प्रसिद्ध ही होता है-अप्रसिन नहीं। इसी बात को दूसरे विद्वानों ने कहा है-"प्रसिद्धो धर्मी' अर्थात धमी प्रसिद्ध होता है।
धर्मों को तीन प्रकार से प्रसिद्धि का निरूपणधर्मी को प्रसिद्धि कहीं तो प्रमाण से, कहीं विकल्प से और 5
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कहीं प्रमाण तथा विकल्प दोनों से होती है। प्रत्यक्षारिक प्रमाणों में से किसी एक प्रमाण से धर्मों का निश्चय होना 'प्रमाणसिद्ध धर्मो' है। जिसकी प्रमाणता या अप्रमाणता का निश्चय नहीं हुमा है ऐसे ज्ञान से
जहाँ धर्मों की सिद्धि होती है उसे 'विकल्पसिद्ध धर्मों' कहते हैं। और 5 जहां प्रमाण तया विकल्प दोनों से धर्मों का निर्णय किया जाता है वह 'प्रमाणविकल्पसिद्ध पौं' है।
प्रमाणसिख धर्मों का उदाहरण-'धुम से अग्नि को सिद्धि करने में पर्वत' है । क्योंकि इस प्रत्यक्ष से बाल का है:
विकल्पसिख धर्मों का उदाहरण इस प्रकार है-'सवंत है, 10 क्योंकि उसके सद्भाव के बाषक प्रमाणों का प्रभाव अच्छी तरह
निश्चित है, अर्थात् --उसके अस्तित्व का कोई गाधक प्रमाण नहीं है।' पहाँ सद्भाव सिद्ध करने में सज' रूप धर्मी विकल्पसिय पर्मा है। अथवा 'स्वरविषाण नहीं है, क्योंकि उसको सिद्ध करने वाले प्रमाणों
का प्रभाव निश्चित है' यहाँ प्रभाष सिद्ध करने में खरविषाग' 15 विकस्पसिद्ध धर्मों है । 'सर्वज्ञ' सद्भाव सिद्ध करने के पहले प्रत्यक्षादिक
किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है, किन्तु केवल प्रतीति (कल्पना)से सिट है, इसलिए वह विकरुपसिद्ध प्रमों है। इसी प्रकार 'खरविधान प्रसद्भात्र सिद्ध करने के पहले केवल कल्पना से सिद्ध है, अतः वह भी
विकल्पसिद्ध धर्मी है। 20 उभयसिद्ध धमों का उदाहरण-शब्द परिणमनशील है. क्योंकि
वह किया जाता है-तालु आदि की क्रिया से उत्पन्न होता है।' यहाँ शब्द है। कारण, वर्तमान शब्द तो प्रत्यक्ष से जाने जाते हैं, परन्तु भूतकालीन और भविष्यत्कालीन शब्द केवल प्रतोति से सिद्ध हैं
और वे समस्त शब्द यहाँ धर्मी हैं, इसलिए 'शब्द' रूप धर्मा प्रमाण 25 तथा विकल्प दोनों से सिद्ध अर्थात् --उभरसिद्ध धर्मों है। प्रमाण
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१८६ सिद्ध और उभयसिद्ध धर्मों में साध्य यथेच्छ होता है-उसमें कोई नियम नहीं होता। किन्तु विकल्पसिद्ध धमीं में सद्भाव और असद्भाव ही साध्य होते हैं, ऐसा नियम है। कहा भी है-"विकल्पसिद्ध प्रमों में सत्ता और प्रसत्ता ये दो ही साध्य होते हैं।" इस प्रकार दूसरे के उपदेश की अपेक्षा से रहित स्वयं जाने गये साधन से पक्ष में रहने रूप से 5 साध्य का जो ज्ञान होता है यह स्वार्थानमान है, यह दृढ़ हो गया। कहा भी है---"परोपदेश के बिना भी दृष्टा को साधन से जो साध्य का काम होता है उ स्थापित करते हैं।'
परार्थानुमान का निरूपणवूसरे के उपवेश को अपेक्षा लेकर जो साधन से साध्य का ज्ञान 10 होता है उसे परार्थानुमान कहते हैं । तारपर्य यह कि प्रतिज्ञा और हेतुरूप परोपदेश की सहायता से श्रोता को जो साधन ले साध्य का शान होता है यह परार्थानुमान है। जैसे-'यह पर्वत पग्निवाला होने के योग्य है, क्योंकि धूम वाला है।' ऐसा किसी के साक्य-प्रयोग करने पर उस वाक्य के अर्थ का विचार और पहले प्रहण को हुई व्याप्ति का 15 स्मरण करने वाले श्रोता को अनुमान शान होता है । और ऐसे अनुमान नान का ही नाम परार्शनमान है।
'परोपदेश वाक्य ही परार्थानुमान है । अर्थात जिस प्रतिशादि पञ्चावयवरूप वाक्य से सुनने वाले को अनुमान होता है वह वास्प ही परार्थानुमान है ।' ऐसा किन्हीं (नयायिकों) का कहना है । पर उनका 20 यह कहना ठीक नहीं है। हम उनसे पूछते हैं कि वह वाक्य मुख्य अनुमान है अपवा गोण अनुमान ? मुल्य अनुमान तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि वाक्य प्रजानरूप है। यदि वह गौण अनुमान है, तो 'उसे हम मानते हैं, क्योंकि परार्थानुमान नान के कारण–परानुमान वाच्य में परार्थानुमान का व्यपदेश हो सकता है। जैसे--'यो मायू. 25
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हैं इत्यादि व्यपदेश होता है । तात्पर्य यह कि परार्थानुमान वाक्य परार्थानुमान ज्ञान के उत्पन्न करने में कारण होता है, अतः उसको उपचार से परायांनुमान माना गया है।
परार्थानुमान को प्रशासम्पत्ति और उसके प्रत्ययों का 5 प्रतिपादन...
इस परार्थानुमान के अङ्गों का कथन स्वार्थानमान की तरह जानना चाहिए । अर्थात्-उसके भी धर्मों, साध्य प्रौर मापन के भेद से तीन अथवा पक्ष और हेतु के भेद से दो अङ्ग हैं। और परा
धानुमान में कारणीभूत शक्य के दो अवयव है-१ प्रतिशा और ___ 10 २ हेतु । धर्म और धर्मों के समुदाय रूप पक्ष के कहने को प्रतिज्ञा
कहते हैं। जैसे-'यह पर्वत अग्नि वाला है।' साध्य के अविनाभाषी साधन के बोलने को हेतु कहते हैं। जैसे-धूम वाला अन्यथा हो नहीं सकता' अथवा 'अग्नि के होने से ही धूम वाला है। इन दोनों
हेतु-प्रयोगों में केवल कथन का भेद है। पहले हेतु-प्रयोग में तो 15 'धूम अग्नि के बिना नहीं हो सकता' इस तरह निषेधरूप मे कयन
किया है और दूसरे हेतु-प्रयोग में 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है' इस तरह सद्भावरूप से प्रतिपादन किया है। अर्थ में भेद नहीं है । दोनों ही जगह अविनाभावी साधन का कयन समान है। इसलिए
उन दोनों हेतुप्रयोगों में से किसी एक को हो बोलना चाहिए । 20 दोनों के प्रयोग करने में पुनरुक्ति पालो है। इस प्रकार पूर्वोक्त
प्रतिज्ञा और इन दोनों हेतु प्रयोगों में से कोई एक हेतु-प्रयोग, ये दो ही परार्यानुमान वाक्य के अवयव हैं—प्रङ्ग हैं; क्योंकि व्युत्पन्न (समझदार) श्रोता को प्रतिज्ञा और हेतु इन दो से ही मनुमिनि
अनुमान ज्ञान हो जाता है । 25 यायिकाभिमत पाँच प्रवयवों का निराकरण
नैयायिक परार्थानुमान घाक्य के उपर्युक्त प्रतिक्षा और हेतु
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इन वो अवयवों के साथ उदाहरण, उपनय तपा निगमन इस तरह पास अवयव कहते हैं । जैसा कि वे सूत्र द्वारा प्रकट करते हैं :
"प्रतिमाहेन्दाहरणोपनयनिगमानान्यवयवाः" [न्यायस० १५११६२)
अर्थात-प्रतिमा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पांच अवयव है । उनके वे लक्षणपूर्वक उदाहरण भी देते हैं—पक्ष के प्रयोग 5 करने को प्रतिज्ञा कहते हैं । जैसे—यह पर्वत अग्नि वाला है । साषनाता (सापनपनर) बसलाने के लिए पञ्चमी विभक्ति रूप से लिन के कहने को हेतु कहते हैं। जैसे- क्योंकि धूमवाला है। व्याप्ति को विमलाते हुए दृष्टान्त के कहने को उदाहरण कहते हैं। जैसे--- मो जो पूमवाला है वह वह अग्निवाला है। जैसे-रसोई का घर । यह साधम्यं 10 उपाहरण है । जो जो अग्निवाला नहीं होता वह वह धूमवाला नहीं होता। जैसे-तालाब । यह बंधयं उदाहरण है। उदाहरण के पहले भेव में हेतु की अन्वमव्याप्ति ( साध्य की मौजूदगी में साधन की मौजूदगी ) दिखाई जाती है और दूसरे भेद में व्यतिरेकग्याप्ति (साध्य की गैर मौजूदगी में साषन की गैर मौजूदगी) यतलाई 15 जाती है। जहां अस्वमव्याप्ति प्रदर्शित की जाती है उसे मन्वय दृष्टान्त कहते हैं और जहाँ व्यतिरेकव्याप्ति दिखाई जाती है उसे व्यतिरेक दृष्टान्त कहते हैं। इस प्रकार दृष्टान्त के वो भेद होने से दृष्टान्त के कहने प उदाहरण के भी दो भेद जानना चाहिए । इन दोनों उदाहरणों में से किसी एक का ही प्रयोग करना पर्याप्त . (काफी) है, अन्य दूसरे का प्रयोग करना अनावश्यक है। दृष्टान्त को प्रपेक्षा लेकर पक्ष में हेसु के वोहराने को उपनय कहते हैं । जैसेइसीलिए यह पर्वत धूमवाला है। हेतुपुरस्सर पक्ष के कहने को निगमन कहते हैं। जैसे-धूमवाला होने से यह अग्निवाला है। ये पांचों अवयव परापानुमान प्रयोग के हैं। इनमें से कोई भी एक न हो तो 2:
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न्याय-दीपिका वीतराग कथा में और विजिगीषुकथा में अनुमिति उत्पन्न नहीं होती, ऐसा यायिकों का मानना है ।
पर उनका यह मानना विधापूर्ण है। याक पोतदानया में शिष्यों के अभिप्राय को लेकर अधिक भी अवश्य बोले जा सकते हैं । 5 परन्तु विजिगीषुकथा में प्रतिज्ञा और हेतुरूए दो ही अवयव बोलना पर्याप्त है, अन्य अवयवों का बोलना वहां अनावश्यक है। इसका खुलासा इस प्रकार है
वादी और प्रतिवादी में अपने पक्ष को स्थापित करने के लिए जीत-हार होने तक जो परस्पर {प्रापस) में वचनप्रवृत्ति (चर्चा) 0 होती है वह विजिगीषुकथा कहलाती है। और गुरु तथा शिष्यों में
प्रथया रागद्वेष रहित विशेष विद्वानों में तत्त्व ( यस्सुस्वरूप ) के निर्णय होने तक जो आपस में चर्चा की जाती है वह वीतरागकपा है । इनमें विजिगीषुकया को वाद कहते हैं। कोई (गैयायिक) वीत.
रागकयर को भी वार कहते हैं। पर वह स्वग्रहमान्य हो है, क्योंकि 5 लोक में गुरु-शिष्य प्रारि को सौम्यचर्चा को याद ( शास्त्रार्थ ) नहीं
कहा जाता। हो, हार-जीत को चर्चा को अवश्य बाद कहा जाता है। जैसे स्वामी समन्तभद्राचार्य ने सभी एकान्तवादियों को बाद में जोत लिया। अर्थात्-विजिगीषुकथा में उन्हें विजित कर लिया।
और उस याद में परार्थानुमान वाक्य के प्रतिमा और हेतु ये दो ही ) अवयव कार्यकारी हैं। उदाहरणादिक नहीं। इसका भी स्पष्टीकरण
इस प्रकार है–सबसे पहले लिङ्गवचनरूप हेतु प्रवश्य होना चाहिये, क्योंदि लिङ्ग का शान न हो, तो अनुमिति ही उत्पन्न नहीं हो सकती है। इसी प्रकार पक्ष-वचनरूप प्रतिज्ञा का भी होना आवश्यक
है। नहीं तो, अपने इष्ट साध्य का किसी प्राचारविशेष में निश्चय नहीं । होने पर साध्य के सन्देह वाले प्रोता को अनुमिति पैसा नहीं हो
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सकती। कहा भी है- “ एतद्द्वयमेवानुमानाङ्गम" [परीक्षा० ३-३७ ] इसका अर्थ यह है कि प्रतिक्षा और हेतु पे दो ही अनुमान अर्थात् परार्थानुमान के अङ्ग ( श्रवयव) हैं। यहाँ सूत्र में 'वावे' शब्द को और जोड़ लेना चाहिए। जिसका तात्पर्य यह है कि विजिगीषुरुष्षा में परार्थानुमान के प्रतिनर और हेतु ये दो हो अङ्ग हैं। यहाँ सूत्र में 5 अवधारणार्यक एवकार शब्द के प्रयोग द्वारा उदाहरणाविक काव्य
छेद किया गया है। अर्थात् उदाहरण भाविक परार्थानुमान के अवयव नहीं हैं, यह प्रकट किया गया है। क्योंकि वाद ( शास्त्रार्थ ) का अधिकार व्युत्पन्न को ही है और व्युत्पन्न केवल प्रतिज्ञा तथा हेतु के प्रयोग से ही जाने जानेवाले उदाहरण श्रादि के प्रतिपाद्य अर्थ को जानने में 10 समर्थ है। उसको जानने के लिए उदाहरणादिक की आवश्यकता नहीं है । यदि गम्यमान ( जश्ना जानेवाले) अर्थ का भी पुनः कथन किया जाये, तो पुनस्तता का प्रसङ्ग पाता है । तात्पर्य यह कि प्रतिज्ञा और हेतु के द्वारा जान लेने पर भी उस अर्थ के कथन के लिए उदाहरणाविक का प्रयोग करना नक्क्त है। प्रसः उदाहरणाबिक परार्थानुमान 15 के श्रङ्ग नहीं हैं।
शङ्का-यदि ऐसा है तो प्रतिज्ञा के कहने में भी पुनरुक्तता भाती है; क्योंकि प्रतिक्षा द्वारा कहा जाने वाला पक्ष भी प्रकरण, व्याप्तिप्रदर्शन भावि के द्वारा ज्ञात हो जाता है। इसलिए लिङ्ग-वचनरूप एक हेतु का ही विजिगीषुकथ्था में प्रयोग करना चाहिये ।
20
समाधान-बौद्धों का यह कमन ठौक नहीं है। इस प्रकार कहकर वे अपनी जड़ता को प्रकट करते हैं; क्योंकि केवल हेतु के प्रयोग करने पर व्युत्पन्न को भी साध्य के सन्देह की निवृति नहीं हो सकती है। इस कारण प्रतिक्षा का प्रयोग अवश्य करना चाहिए । कहा भी है---"साध्य ( साध्यथमं के प्राकार) का सदेह दूर करने के 25
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न्या-दीपिका लिए प्रकरण मावि के द्वारा जाना पया भी पन बोलना चाहिए।" इस प्रकार वाद की अपेक्षा से परार्यानुमान के प्रतिमा पीर हेतुम को ही प्रवपद हैं, म कम हैं और न अधिक, यह सिद्ध हमा। इस तरह
अवयवों का मह संक्षेप में विखार किया, विस्तार से पश्परीक्षा से 5 जानना चाहिए ।
वीतरारकपा में अधिक प्रवपवों में बोले जाने के मौचित्य का समपन
वीतरागफया में तो शिष्यों के माशयानुसार प्रतिमा भोर हेतु में वो भी अवपन है । प्रतिमा, हेतु प्रौर उबाहरण पे सोन भी है। प्रतिमा 10 हेतु, उदाहरण और उपनय ये चार भी हैं तथा प्रतिक्षा हेतु सदाहरण,
उपनय और निगमन पे पांच भी हैं। इस तरह यथायोग मते प्रयोगों की यह व्यवस्था है। इसी बात को बीकुमारधि मट्टारक ने कहा है कि प्रयोगों के बोलने की व्यवस्था प्रतिपायों के अमिमायानुसार
करनी चाहिये-जो जितने अवयमों से समम सके उसे उतने मवयों 15 का प्रयोग करना चाहिये।"
इस प्रकार प्रतिक्षा प्रादिरूप परोपवेन से उत्पन्न हुमा भान परामुमान कहलाता है। कहा भी है-बो दूसरे के प्रतिभावित उपदेश की अपेक्षा लेकर श्रोता को सापन से साम्य का ज्ञान होता है
पह परार्धानुमान माना गया है।" 20 इस तरह अनुमान के स्वार्ष और पराप रे से भेव हैं और ये
दोनों ही अनुम्मन साध्य के साप जिसका प्रविनाभाष निश्चित है ऐसे हेतु से उत्पन्न होते हैं।
बौखों के सप्य हेतु का निराकरण
इस प्रकार उपर्युक्त विवेसम से यह प्रतिक हो जाता है कि 25 अन्यपानुपपत्ति विशिष्ट हेतु अनुमिति में कारण है। तथापि इस
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का विचार न करके दूसरे ( बौखादिक ) अन्य प्रकार भो हेतु का लक्षण कहते हैं। उनमें बौद्ध पक्षधर्मस्व प्रादिक तीन लक्षणबाले हेतु से अनुमान को उत्पत्ति णिस करते हैं। वह इस प्रकार से है—पक्ष-धर्मत्व, सपक्ष-सत्त्व और विपक्ष-व्यावृति ये तीन हेतु के रूप (लक्षण} हैं। उनमें साध्यधर्म से विशिष्ट धमों को पा कहते 5 हैं । जैसे अग्नि के अनुमान करने में पर्वत पक्ष होता है । उस पल में व्याप्त होकर हेतुफा रहना पक्षधमत्व है। अर्थात् - हेतु का पहला रूप यह है कि उसे पत्र में रहना चाहिये । साय के समान धर्मवाले धर्मों को सपा कहते हैं। जैसे अग्नि के अनुमान करने में ही महानस ( रसोई का घर ) सपक्ष होता है । उस सपक्ष में सब 10 जगह अषका एक जगह हेतु का रहना सपक्ष-सत्त्व है। यह हेतु का सरा स्प है। साध्य से विरोधी धर्म वाले धर्मो को विपक्ष कहते हैं। जैसे अग्नि के अनुमान करने में ही तालाव दिपक्ष है। उन सभी विपक्षों से हेतु का व्यावृत्त होमा अर्थात् उनमें नहीं रहता विपक्षप्यावृत्ति है। यह हेतु का तीसरा रूप है। ये तीनों कप मिल कर 15 हेतु का लक्षण है। यदि इनमें से कोई एक भी न हो तो वह हेत्वाभास है-प्रसम्यग् हेतु है।
उनका यह वर्णन सङ्गत नहीं है। क्योंकि पक्ष-धर्मस्व के बिना भी कृसिकोडयाविक हेतु शकटोवयारि साध्य के शापक देने जाते हैं। यह इस प्रकार से 'शकट नक्षत्र का एक मुहूर्स के बाद उदय होगा, 20 क्योंकि इस समय कृतिका नक्षत्र का उदय हो रहा है।' इस अनुमान में 'शकट नक्षत्र' षों (पक्ष ) है, एक मूहर्स के बाव उदय' साप्य है मोर कसिका नक्षत्र का उपप' हेतु है। किन्तु 'कृतिका नक्षत्र का उदय' कप हेतु पलभूत 'कट' नक्षत्र में नहीं रहता, इसलिए वह पक्षधर्म नहीं है । अर्थात्-'कृत्तिका नक्षत्र का स्वप' रूप हेतु पक्षपर्म से 25
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न्याय-दीपिका रहित है। फिर भी वह अन्यथानुपपत्ति के होने से (कृत्तिका के उपय हो जाने पर ही शकट का उदय होता है और कृत्तिका के उदय न होने पर शकट का उदय नहीं होता है ) शकर के उदयरूप साध्य का
मान कराता हो है। अतः बौद्धों के द्वारा माना गया हेतु का चरप्प 5 लक्ष | अव्याप्ति दोष सहित है ।
नयाधिकसम्मत पचिहत्य हेतु का कथन ग्रोर उसका निराकरण
नयायिक पांचरूपता को हेतु का लक्षण कहते है। वह इस तरह से है-पक्षधर्मत्व, सपक्षमस्व, विपक्षम्यावृत्ति, प्रवाषितविषयत्व और 10 असत्प्रतिपक्षत्व ये पांच रूप हैं। उनमें प्रथम के तीन रूपों के लक्षण
कहे जा चुके हैं। शेष दो के लक्षण यहाँ कहे आते हैं। साध्य के प्रभाव को निश्चय कराने वाले बलिष्ठ प्रमाणों का न होना पनाधितविषयत्व है और साध्य के प्रभाव को निश्चय कराने वाले समान बस
के प्रमाणों का न होना असरप्रतिपक्षस्व है। इन सबको उदाहरण द्वारा 15 इस प्रकार समझिपे --यह पर्वत अग्निवाला है, क्योंकि घूमधासा है, जो
जो धूम वाला होता है वह वह अग्निवाला होता है, जैसे-रसोईघर, जो जो अग्निवाला नहीं होता, वह वह मवाला नहीं होता, जैसे - तालाब, चूंकि यह धूमवाला है, इसलिए अग्निवाला जरूर हो है।
इस पांच अवयवरूप अनुमान प्रयोग में अग्निरूप बाध्यधर्म से युक्त 20 पर्वतरूप धर्मों पक्ष है, 'धूम' हेतु है। उसके पक्षषमता है, क्योंकि वह
पक्षभूत पवंत में रहता है। सपक्ष सत्व भी है, क्योंकि सासभूत रसोईघर में रहता है।
शङ्का-किन्हीं सपक्षों में धूम नहीं रहता है, क्योंकि भङ्गाररूप अग्निवाले स्थानों में पुत्रों नहीं होता । अतः सपक्षसस्व हेतु का 25 रूप नहीं है।
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समाधान-नहीं; सपक्ष के एक देश में रहने वाला भी हेतु है
क्योंकि पहले कह आये हैं कि
में
क्योंकि धूमहेतु का
जगह हेतु का रहना सपक्ष सत्त्व है।' वाले स्थानों में धूप के न रहने पर भी रसोई घर आदि सपक्षों में रहने से उसके सपक्षसत्व रहता ही है। विपक्षध्यावृत्ति भी उसके 5 है, क्योंकि धूम तालाब आदि सभी विपक्षों से व्याक्त है- वह उनमें नहीं रहता है। अबाधितविषयत्व भी है, जो अग्निरूप साध्य विषय है यह प्रत्यक्षादिक नहीं है । प्रसत्प्रतिपक्षत्व भी है, क्योंकि अग्नि के प्रभाव का साधक तुल्य बल वाला कोई प्रमाण नहीं है । इस प्रकार पाँचों रूपों का 10 सद्भाव ही धूम हेतु के अपने साध्य की सिद्धि करने में प्रयोजक ( कारण ) है । इसी तरह सभी सम्यक् हेतुनों में पांचों रूपों का सद्भाव समझना चाहिए ।
प्रमाणों से बाधित
r
इनमें से किसी एक रूप के न होने से ही प्रसिद्ध, विरुद्ध अनंकान्तिक, कालात्ययापदिष्ट और प्रकरणसम नाम के पाँच हेत्वाभास 15 प्रापन्न होते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है
जम
इसलिए अङ्गाररूप प्रग्नि
१. पक्ष में जिसका रहना अनिश्चित हो वह श्रसिद्ध हेत्वाभास है । जैसे— 'शब्द अनित्य ( नाशवान् ) है, क्योंकि च इन्द्रिय से जाना जाता है। यहाँ 'चक्षु इन्द्रिय से जाना जाना' हेतु पक्षभूत शब्द में नहीं रहता है। कारण, शब्द श्रोत्रेन्द्रिय से जाना जाता है। 20 इसलिए पक्षधर्मस्व के न होने से 'चक्षु इन्द्रिय से जाना जाता हेतु प्रसिद्ध हेत्वाभास है ।
२. साध्य से विपरीत-- साध्याभाव के साथ जिस हेतु की व्याप्ति हो वह विरुद्ध हेत्वाभास हैं। जैसे— 'शब्द नित्य है, क्योंकि वह फुलक है— किया जाता है' यहाँ 'किया जाना' रूप हेतु अपने साध्यभूत 25
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नित्यत्व से विपरीत प्रनित्यत्व के साथ रहता है और सपा प्रकाशादि में नहीं रहता । अतः विरुवा है !
३. जो हेतु व्यभिचार सहित (व्यभिचारी) हो - साध्य के प्रभाव में भी रहता हो वह अनैकान्तिक हेत्वाभास है । जैसे—' प्रनित्य 5 है, क्योंकि वह प्रमेय है यहाँ 'प्रमेयत्व' -- प्रमेयपना हेतु अपने साध्यअनित्यत्व का व्यभिचारी है। कारण, आकाशादिक विपक्ष में नित्यत्व के साथ भी वह रहता है। अतः विपक्ष से व्यावृत्ति न होने से अनैकान्तिक हेत्वाभास है ।
5
—
४. जिस हेतुका विषय - साध्य प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित हो वह 10 कालात्ययापदिष्टहेत्वाभास है । जैसे ठण्डी है, क्योंकि वह पदश्यं है' यहाँ 'पदार्थत्व' हेतु अपने विषय 'ठण्डापन' में, जो कि अग्नि की गर्मी को ग्रहण करने वाले प्रत्यक्ष से बाधित है, प्रवृत्त है। प्रतः श्रबाधित विषयता न होने के कारण 'पदार्थत्व' हेतु कालात्ययापदिष्ट है ।
५. विरोधी साधन जिसका मौजूद हो वह हेतु प्रकरणसम अथवा सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास है। जैसे- 'शब्द अनित्य है, क्योंकि वह नित्यधर्मरहित है' यहाँ 'नित्यधर्मरहितत्व' हेतु का प्रतिपक्षी साधन मौजूद है। वह प्रतिपक्षी साधन कौन है ? शब्द नित्य है, क्योंकि
यह अनित्य के धर्मो से रहित है' इस प्रकार नित्यता का साधन करना, ( उसका प्रतिपक्षी साधन है । अतः प्रसत्प्रतिपक्षता के न होने से नित्यधर्मरहितत्व' हेतु प्रकरणसम हेत्वाभास है ।
इस कारण पाँचरूपता हेतु का लक्षण है । उनमें से किसी एक
के न होने पर हेतुके हेत्वाभास होने का प्रसङ्ग आयेगा, यह ठीक
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ही कहा गया है। क्योंकि जो 'हेतु के लक्षण से रहित हों और हंतु के
5 समान प्रतीत होते हों वे हेत्वाभास हैं। पांच रूपों में से किसी एक के
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१६ म होने से हेतुलक्षण से रहित है और कुछ रूपों के होने से हेतु के समान प्रतीत होते हैं ऐसा बधान है।
नयायिकों के द्वारा माना गया हेतु का यह पांचरूपता लक्षण भी मुक्तिसङ्गत नहीं है, क्योंकि पक्षधर्म से शून्य भी कृतिका का उदय शकट के उपयरूप साध्य का हेतु देखा आता है। प्रतः पांचरूपता 5 प्रव्याप्ति दोष से सहित है।
जूसरी बात यह है, कि नपायिकों ने हो केवलान्वयी पोर केवलव्यतिरेकी इन दोनों हेतुनों को पांचहपता के बिना भी गमक ( शापक ) स्वीकार किया है। यह इस प्रकार से है उन्होंने हेतु के तीन भेद माने हैं...१ अन्वयव्यतिरेको, २ केवलान्वयो मोर 10 ३ केवलम्यतिरेकी।
१. उनमें जो पौध रूपों से सहित है वह अन्वयव्यतिरेकी है। बसे—'शम्ह प्रनित्य है, क्योंकि इतक है—किया जाता है, जो जो किया जाता है वह वह अनिरय है, जैसे घड़ा, जो जो मनित्य नहीं होता वह वह किया नहीं जाता, मैसे-पाकाश, भौर किया जाता है यह शर, 15 इसलिए अनिरय हो है।' यहाँ शरद को पक्ष करके उसमें प्रनित्यता सिद्ध की जा रही है। अनित्यता के सिद्ध करने में किया जाना' हेतु है। वह पलभूत शब्द का धर्म है। अतः उसके पक्षधर्मस्व है। सपा पटाविकों में रहने पौर विपक्ष प्रकाशादिक में न रहने से सपासत्त्व और विपक्ष व्यापत्ति भी है। हेतु का विषय साध्य (अनित्यत्व) 20 किसी प्रमाण से बाषित न होने से प्रवाधितविषयत्व और प्रतिपक्षी साभन न होने से असत्प्रतिपक्षत्व भी विद्यमान है। इस तरह किया मामा हेतु पांचों रूपों में विशिष्ट होने के कारण मन्वयव्यति
२. जो पल मौर सपक्ष में रहता है सपा विपक्ष से रहित है वह 25
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केवलान्वयी है । जैसे- "प्रवृष्ट (पुण्य-पाप) प्रादिक किसी के प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे अनुमान से जाने जाते हैं। जो जो अनुमान से जाने जाते हैं वे वे किसी के प्रत्यक्ष हैं, जैसे-अग्नि मानि।' यहाँ 'अदृष्ट प्रादिक' पक्ष है, किसी के प्रस्पा' साध्य है, 'अनुमान से जाना 5 जाना' हेतु है, 'ग्नि प्रादि' मन्वय दृष्टान्त है। 'मनुमान से जाना
जाना' हेतु पक्ष बनाये गये 'प्रवृष्ट प्राधिक' में रहता है और सपक्ष किये 'अग्नि प्रादि' में रहता है। प्रतः पक्षधर्मीय और सपासस्व है। तथा विपक्ष यहाँ कोई है नहीं, क्योंकि सभी पवायं पक्ष और सपक्ष के
भीतर प्रा लिए हैं। इस कारण विपशव्यावृत्ति है ही नहीं। कारण, 10 ज्यावृत्ति अवधि (सीमा) को लेकर होती है और म्यावृत्ति को प्रषि
विपक्ष है, वह यहाँ है नहीं। बाकी कथन अन्वयम्यतिरेको को तरह समझना चाहिए।
३. जो पक्ष में रहता है, विपक्ष में नहीं रहता और सपा से रहित है वह हेतु केवलव्यतिरेकी है। जो—जिन्दा शरीर जीव15 सहित होना चाहिए, क्योंकि वह प्राणादि वाला है । जो जो जीव
सहित नहीं होता वह वह प्राणादि माला नहीं होता, जैसे-लोष्ठ ( मिट्टी का हेला ) । यहाँ 'जिन्दा शरीर' पक्ष है, 'जीवसहितत्व' साध्य है, 'प्राणादि' हेतु है और 'सोष्ठादिक' व्यतिरेकनुष्टान्त
है। 'प्राणादि' हेतु पक्षभूत जिन्दा शरीर' में रहता है मोर विपक्ष 20 सोष्ठाविकसे व्यावृत्त है-वहाँ वह नहीं रहता है। तमा सपक्ष
यहाँ है नहीं, क्योंकि सभी पदार्थ पक्ष और विपक्षके अन्तर्गत हो गये। बाकी कयन पहले की तरह जानना चाहिये ।
हस तरह इन तीनों हेतुमों में प्रादयध्यतिरेकी हेतु के हो पचिरूपता है। केवलावियो हेतु के विपक्षश्यावृत्ति नहीं है और 25 केवलयतिरेकीके सपक्षसत्त्व नहीं है। प्रतः अगायिकोंके मतानु
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२०१ सार ही पाचलप्य हेतुका लक्षम प्रयाप्त है। पर अन्यधानपत्ति सभी ( केवलान्वयी मादि ) हेतुषों में व्याप्त है— रहती है। इसलिये उसे ही हेतुका लक्षण माममा ठीक है। कारण उसके बिना हंस अपने साभ्यका गमक (जापक ) नहीं हो सकता है।
जो यह कहा गया था कि प्रसिद्ध माविक पच हेत्वाभासोंके 5 निवारण करने के लिये पांच रूप हैं, वह ठीक नहीं है। क्योंकि प्रन्यषा. नुपपत्ति विशिष्टरूपसे निश्चलपना हो, जो हमने हेतुलक्षम माना है, उन असिवादिक हत्वाभासोंका निराकरण करनेवाला सिड होता है । तात्पर्य यह कि केवल एक अन्यथानुपपत्तिको ही हेतु का सक्षम मानने से मसिदाविक सभी बोषों का वारण हो जाता है । 10 वह इस प्रकार से है :____ो साध्य का प्रविनाभावो है--साध्य के होने पर ही होता है पौर साध्य के बिना नहीं होता तथा निश्चमपप को प्राप्त है मीत मिसका ज्ञान हो चुका है वह हेतु है, क्योंकि "जिसका सायके साथ भविनाभाव निश्चित है वह हेतु है" ऐसा पक्ष्म 15 है और यह अविनाभाव प्रसिद्ध नहीं है। दको अनित्यता सिक करने के लिये जो 'सनु इन्द्रियका विषय' हेतु बोला जाता है बह पाद का स्वरूप हो नहीं है । अर्थात् शब्दमें बक्षु इगिय की विषपता ही नहीं है तब उसमें अन्यथानुपपत्तिविशिष्टरूपसे निश्चयपवाप्ति प्रति-अविनामावका निश्चय कैसे हो सकता है ? 20 प्रांत-गहीं हो सख्ता है। प्रतः साम्य के साब मणिनाभाव का निवप न होने से ही 'बलु इनिम का विषय' हेतु प्रसिद्ध हेत्वाभास है, न कि पामर्मता के प्रभाव होने से। कारण, पाषर्मता के बिमा भी कृतिकोवयादि हेतुओं को उक्त पन्यमानुपपत्तिल्म हेतुलाण के एने से ही ससु-सम्पद हेतु कहा गया है। और 25
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fearfar हेत्वाभासों में अन्यथानुपपत्ति का प्रभाव प्रकट ही है । क्योंकि स्पष्ट हो विरुद्ध, व्यभिचारी, वातिविषय और सत्प्रतिपदा के प्रभाव का निश्चय नहीं है। इसलिए जिस हेतु के अन्यथानुपपम्नश्व का योग्य देश में निश्चय है वही सम्पर्क हेतु है उससे भिन्न 5 हेवाभास है, यह सिद्ध हो गया ।
पुत्र श्याम अन्य मौजूद
दूसरे, 'गर्भ में स्थित मंत्री का चाहिए, क्योंकि वह मंत्री का पुत्र है, तरह ।' यहाँ हेत्वाभास के स्थान में fusों के पाञ्चरूप्य हेतुरक्षण की प्रतिव्याप्ति है, 10 और पाञ्चरूप्य हेतु का लक्षण नहीं है । इसका
भी बौद्धों के
प्रकार हैं :---
( काला ) होना मंत्री के पुत्रों की रूपय और नैया
इसलिए रूप्य स्पष्टीकरण निम्न
मंत्री के मौजूद पांच पुत्रों में कालेपन को देखकर मंत्री के गर्भस्थ पुत्र को भी जो कि विवादग्रस्त है, पक्ष करके उसमें कालेपन को सिद्ध करने के लिए जो 'मंत्री का पुत्रपना' हेतु प्रयुक्त किया जाता 15 है वह हेत्वाभास है- सम्यक् हेतु नहीं है, यह प्रसिद्ध ही है। क्योंकि उसमें गोरेपन की भी सम्भावना को जा सकती है। और वह सम्भावना 'कालेपन' के साथ 'मंत्रो का पुत्रमा' की अन्यथानुपपत्ति ( श्रविनाभाव ) न होने से होती है । अन्यथानुपपत्ति का अभाव इसलिए है कि कालेपन के साथ मंत्री के पुत्रने कर न तो सहभाग 20 नियम है और न क्रमभाव नियम ।
जिस धर्म का जिस धर्म के साथ सहभाव नियम - एक साथ होने का स्वभाव होता है वह उसका जापक होता है । अर्थात- वह उसे जनाता है। जैसे शिशपात्व का वृक्षत्व के साथ सहभाव नियम हैं, इसलिए शिशपात्थ हेतु वृक्षत्व को जगाता है। और जिसका
25 जिसके साथ *मभाव नियम — क्रम से होने का स्वभाव होता है वह
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तीसरा प्रकाश उसका शरन कराता है। अंसे-धुएं का अग्नि के यार होने का नियम है, इसलिए धुमा अग्नि का मान कराता है । प्रकृत में मंत्री के पुत्रपने हेतु का कालेपन' साध्य के साथ न तो सहभाव नियम है और न कमभाष मियम है जिससे कि मंत्री का पुत्रपना' हेतु कालेपन' साध्य का ज्ञान कराये।
5
यपि विद्यमान मंत्री के पुत्रों में कालेपम' और मित्रो का पुत्रपन' का सहभाव है—दोनों एक साथ उपलब्ध होते हैं, पर वह सहभाव नियत नहीं है-नियमरूप में नहीं है, क्योंकि कोई यदि यह कहे कि गर्भस्य पुत्र में मंत्रो का पुत्रपन तो हो, किन्तु 'कालापन' न हो, तो इस प्रकार विपक्ष ( व्यभिधारशा ) में 10 कोई बाधक नहीं है---उक्त व्यभिचार की शकुर को दूर करने वाला अनुकूल तर्क नहीं है। अर्थात् यहाँ ऐसा तक नहीं है कि यदि कालापन न हो तो मंत्री का पुत्रपन' भी नहीं हो सकता है क्योंकि मैत्रीपुर में मंत्री के पुत्रपन' के रहने पर भी 'कालापन' सबिग्ध है।
और विपक्ष में बाधक प्रमाणों-ज्यभिचारशङ्कानिवत्तक अनुकूल 15 सको के बल से ही हेतु और साध्य में व्याप्ति का निश्चय होता है। तथा ग्याप्ति के निश्चय से सहभाव अथवा कमभाष का निर्णय होता है। क्योंकि "सहभाव और कमभाव नियम को अविनामरव कहते है" ऐसा वचन है। विवाद में पड़ा हुया पदार्थ वृक्ष होना चाहिए, क्योंकि वह शिशपा (शोशम) है, जो भो शिशा होती है वह बह वृक्ष 20 होता है। जैसे—शात शिशपा वृक्ष । यहाँ यदि कोई ऐसी व्यभिचारशाखा करे कि हेतु (शिशपा) रहे साध्य (नाव) न रहे तो सामान्यवियोषभाव के नाश का प्रसङ्गरूप बाषक मौजूद है। प्रर्थात् उस व्यभिचारशका को दूर करने पाला अनुकूल तर्क विमान है। मावि कुलाव न हो तो शिशपा नहीं हो सकती; कयोंकि अमाव 25
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न्याय-पीतिः
भङ्ग होने का
सामान्य है और शिशपा उसका विशेष है और विशेष सामान्य के बिना नहीं हो सकता है। इसलिए यहाँ सामान्य विशेषभाव के प्रसङ्गरूप बाधक मौजूद है । किन्तु 'मंत्री का पुत्रपभ हो कालापन म हो' ऐसा कहने में (व्यभिचारशङ्का प्रकट करने में ) कोई बाधक नहीं 5 है, पर्यात उस व्यभिचारशङ्का को दूर करने वाला कोई अनुकूल तर्क - कि यदि कालापन न हो तो मंत्री का पुत्रपन नहीं हो सकता है— नहीं है, क्योंकि गोरेपन के साथ भी मंत्री के पुत्रपन का रहना सम्भव है । अतः 'मंत्री का पुत्रपन' हेतु हेत्वाभास हो है । प्रर्थात् वह सन्दिग्धानंकान्तिक है। उसके पक्षधर्मता है, क्योंकि पर10 भूल गर्भस्थ मंत्रीपुत्र में रहता है। समक्ष किये गये मौजूद मंत्रीपुत्रों में रहने से सपक्ष सत्त्व भी है। और विपक्ष गोरे यंत्र के पुत्रों से व्यावृत होने से विपक्षव्यावृति भी है। कोई बाधा नहीं है, इस लिए प्रथाधित विदयता भी है, क्योंकि गर्भस्थ पुत्र का कालापन किसी प्रमाण से बाधित नहीं है। मसत्प्रतिपक्षता भी है, क्योंकि 15 विरोधी समान बल वाला प्रमाण नहीं है। इस प्रकार 'मंत्री के पुत्रपन' में पाँचों रूप विद्यमान हैं तोन रूप तो 'हमार में सौ के म्याय से स्वयं सिद्ध है। अर्थात् - जिस प्रकार हजार में सौ प्राही जाते हैं उसी प्रकार मंत्री पुत्रपन में पांच रूपों के बिला बेने पर तीन रूप भी प्रदर्शित हो जाते हैं ।
अन्यथानुपपत्ति को ही हंतु-लक्षण होने की सिद्धि-
यहां यदि कहा जाय कि केवल पाँचरूपता हेतु का लक्षण नहीं है, किन्तु श्रभ्यामुपपति से विशिष्ट ही पश्चिरूपता हेतु का लक्षण है। तो उसी एक प्रत्यथानुपपति को ही हेतु का लक्षण मानिये; क्योंकि प्रत्ययानुपपत्ति के प्रभाव में पचिरूपता के रहने पर भी 25 'मंत्री का पुत्रपैन' भादि हेतुयों में हेतुता नहीं है और उसके सद्भाव
20
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तीसरा प्रकाश
२०५ में पांचरूपता के न होने पर भी 'कृत्तिकोदय' प्रावि में हेतुला है। कहा भी है :
"अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र येण किम् ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥" [ ] बहाँ अग्यथानुपपति है वहाँ तीन रूपों के मानने से क्या ? पोर 5 यहाँ प्रन्ययानुपपत्ति नहीं है वहाँ तीन रूपों के सद्भाव से भी क्या ? तात्पर्य यह कि ग्रहष्य अन्यथानुपपति के बिना अभिमत फल का सम्पादक नहीं है-व्यथं है। यह रूप्य को मानने वाले बोडों के लिए उत्तर है। और पांच रूपों को मानने शले नयापिकों के लिए तो निम्न उत्तर है :
10 "अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र कि तत्र पञ्चभिः ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः'।" [प्रमाणप० पृ० ७२] महा अन्यथानुपपत्ति है वहां पांच रूपों के मानने से क्या ? और जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहाँ पनि रूपों के सद्भाव से भी क्या ? मसलब यह कि अन्यथामुपपत्ति के बिना पांच रूप सर्वथा अन्यथा- 15 सिद्ध हैं-निष्फल हैं
हेतु के भेदों और उपभेदों का कयन-- यह प्रन्ययानुपपत्ति के निश्चपरूप एक लक्षण वाला हेत संक्षेप में दो तरह का है-१ विषिरूप पोर २ प्रतिषेषरूप । विषिरूप हेतु के भी दो भेद हैं-१ विधिसापक मौर २ प्रतिषेष- 2
१ यह कारिका प्रमाण-परीक्षा में कुछ परिवर्तनके साथ निम्न प्रकार उपलब्ध है :
अन्यथानुपपन्नत्वं रूपः किं पञ्चभिः कृतम् । नान्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पञ्चभिः कृतम् ॥
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न्याय-दीपिका सापक । इनमें से पहले विषिसापक के अनेक भेद हैं-(१) कोई कार्यरूप है, जैसे—'यह पर्वत अग्निवाला है, क्योंकि धूमवाला अम्पमा नहीं हो सकता' यहाँ 'धूम' कार्यरूप हेत है। कारण, म पनि का
कार्य है और वह उसके बिना न ता हुआ अग्नि का माम कराता 5 है। (२) कोई कारणरूप है, जैसे-'वर्षा होगी, क्योंकि विशेष बादल अन्यथा हो नहीं सकते' यहाँ विशेष मादल' कारण हेतु है। क्योंकि विशेष बादल वर्षा के कारण है और अपने कार्यभूत वर्ष का बोष कराते हैं।
शङ्का-कार्य सो कारण का नापफ हो सकता है, पर्योकि 10 कारण के बिना कार्य नहीं होता। किन्तु कारण कार्य के प्रभाव में
भी सम्भव है, जैसे-धम के बिना भी अग्नि देखी जाती है। प्रतएव भग्नि घूम की गमन नहीं होती! पद कार में माता ठीक नहीं है?
समाधान-नहीं। जिस कारण को शक्ति प्रकट है-प्रतिहत 15 है वह कारण कार्य का व्यभिचारी नहीं होता-नियम से कार्य का
जनक होता है। अतः ऐसे कारण को कार्य का मापक हेतु माननेमें कोई विरोध नहीं है। (३) कोई विशेषरूप है, जैसे- 'पह पक्ष है। मयोंकि शिधापा अभ्यथा हो नहीं सकती।' यहां शिशपा' विशेष
रूप हेतु है। क्योंकि शिशपा वृक्षविशेष है, मह अपने सामान्य20 भूत पक्ष का जापन करती है। कारण वृक्षविशेष वृक्षसामान्य
के बिना नहीं हो सकता है। (४) कोई पूर्वचर है, से– 'एक महल के बाद शकट का उदय होगा, क्योंकि कृत्तिका का डाय अन्यथा हो नहीं सकता' । 'यहाँ कृत्तिका का उदय' पूर्वचर हेतु है।
क्योंकि कृतिका के उदय के बाप मुहर्स के अन्त में नियम से शकट 25 का उदय होता है। और इसलिए इतिका का उपय पूर्वपर हेतु
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तीसरा प्रकाश
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होता हमा. शकट के उपप को जनाता है। (५) कोई उत्तरपर है, जैसे-एक मुहूर्त के पहले भरणिका उदय हो चुका; क्योंकि इस समय कृतिका का उरय अन्यथा हो नहीं सकता' यहाँ 'हरिराका का अस्य उत्तरवर हेतु है। कारण, कृत्तिका का उदय भरगि के उत्प के बार होता है और इसलिए वह उसका उत्सरबर होता हुमा उसको 5 जनाता है। (६) कोई सहा , माग बितौर मी रूपवान् होना चाहिए, क्योंकि रसवान् अन्यचा हो नहीं सकता महाँ 'रस' सहचर हेतु है। कारण, रस नियम से रूप का सवारी है.-साप में रहने वाला है और इसलिए वह उसके प्रभाव में नहीं होता हुआ उसका शापन कराता है।
10 ____ इन उदाहरणों में सवावरूप हो प्राण्याविक साथ्य को सिद्ध करने वाले धूमादिक साधन सद्भावरूप ही हैं। इसलिए ये सब विधिसाधक विधिरूप हेतु है। इन्हीं को अविरुद्धोपलग्धि कहते हैं। इस प्रकार विधिरूप हेतु के पहले भेद विषिसाधक का जवाहरणों द्वारा निरूपण किया ।
15
दूसरा भेद निषेषसापक नामका है। विरुद्धोपलषि भी उसी का दूसरा नाम है। उसफा ग्वाहरण इस प्रकार है-'इस जीप के मिष्यात्व नहीं है, क्योंकि प्रास्तिकता अन्यथा हो नहीं सकती। यहाँ 'मास्तिकता' निषेषसाधक हेत है, क्योंकि प्रास्तिकता सर्वज्ञ वीतराग केारा प्रतिपादित तस्वार्थों के प्रशानरूप है। 20 वह प्रदान मियाव वाले (मिश्यावृष्टि) जीव के नहीं हो सकता, मानिए मह मिमित जोग में मिभ्यय के मभाव को सिद्ध करता है। अथवा, इस हेतु का दूसरा उदाहरण पह है-'वस्तु में सर्वचा एकान्त नहीं है, क्योंकि ममेकान्तास्मता अन्यथा हो नहीं सकती यहाँ 'मनेकान्तारमकता' निषेषसावक हेतु है। कारण, 25
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स्याय-दीपिका
अनेकान्तात्मकता वस्तु में प्रवामितरूप से प्रतीत होती है और सलिए वह पोसारिकल्पित सर्वपा एकान्त के प्रभाष को अवश्य सिट करती है।
पाडा-पह अनेकान्तास्मकता क्या है, जिसके बल से वस्तु में 5 सर्वथा एकान्त के प्रभाव को सिद्ध किया जाता है?
समाधान-सभी जीवावि वस्तुओं में जो भाव-प्रभावरूपता. एकअनेकरूपता और नित्य-अनित्यरूपता इत्यादि अनेक धर्म पाये जाते हैं उसो को अनेकान्तात्मकता अथवा अनेकान्तरूपता कहते हैं। इस तरह
विधिरूप हेतु का दिग्दर्शन किया। __J0 प्रतिषेधरूप हेतु के भी दो भेद है.-१ विधिप्ताषक और
२ प्रतिषेषसापक। उनमें विधिसाधक का उदाहरम इस प्रकार है'इस जीव में सम्यवस्व है, क्योंकि मिष्या अभिनिवेश नहीं है।' यहाँ 'मिथ्या अभिनिवेश नहीं है। यह प्रतिवेषरूप हेतु है और वह
सम्यादर्शन के सद्भाव को सापता है, इसलिए वह प्रतिषेषरूप रिषि___15 साधक हेतु है।
पूसरे प्रसिषेषरूप प्रतिषेषसाषक हेतु का उदाहरण यह है'यहाँ धुमां नहीं है, क्योंकि अग्नि का प्रभाव है।' यहाँ 'मग्नि का मभाव' स्वयं प्रतिसेपहप है और वह प्रतिधरूप ही धूम के
प्रभाव को सिद्ध करता है, इसलिए 'पग्नि का प्रभाव' प्रतिवेष20 कप प्रतिषसापक हेतु है। इस तरह घिषि और प्रतिषरूप से
दो प्रकार के हेतु के कुछ प्रभेदों का उदाहरण द्वारा वर्णन किया। विस्तार से परीक्षामुख से जानना चाहिए। इस प्रकार प्रोत लक्षण वाले ही हेतु साध्य के गमक है, अन्य महीं । प्रतियो
अन्यथानुपपत्ति लक्षण वाले नहीं हैं ये साष्य के गमक नहीं है, जोकि 25 वे हेत्वाभास हैं।
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तीसरा प्रकाश
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हेत्वाभास का लक्षण और उनके भेद
हेत्वाभास किन्हें कहते हैं ? सोहको लक्षति है. मनु हेतु जैसे प्रतीत होते हैं उन्हें हेत्वाभाप्त कहते हैं । ये चार प्रकार के है१ प्रसिद्ध, २ विरुद्ध, ३ अनेकान्तिक और ४ प्रकिञ्चित्कर।
(१) प्रसिद्ध—जिसको साध्य के साथ व्याप्ति अनिश्चित है । वह प्रसिद्ध हेत्वाभास है। हेतु को यह अनिश्चितता हेतु के स्वरूप के प्रभाव का निश्चय होने से और स्वरूप में संशय होने से होती है। स्वरूपाभाव के निश्चय में स्वरूपसिद्ध है और स्वरूप के सन्देह में सन्दिाधासिद्ध है। उनमें पहले का उदाहरण यह है-'शब्द परिणममशील है, क्योंकि यह चक्षु इन्द्रिय का विषय है।' यह 10 'चा इन्द्रिय का विषय हेतु स्वरूपासिद्ध है। क्योंकि शम्न श्रोत्रेनिय का विषय है, चक्ष इन्द्रिय का नहीं। प्रतः शन्च में चक्षु इन्द्रिय की विषपता का प्रभाव निश्चित है इसलिए वह स्वरूपासिद्ध है। दूसरे का उदाहरण यह है-धूम अथवा भाप यादि के निश्चय किये बिना ही कोई यह कहे कि 'यह प्रदेश अग्नि वाला है, क्योंकि वह 15 घूम वाला है।' यहां 'धूम' हेतु सन्दिन्यासिद्ध है। कारण, उसके स्वरूप में सन्देह है।
(२) विरुड-जिस हेलु को साध्य से विरुख (साध्याभार) के साय व्याप्ति हो वह विरुद्ध हेस्वाभास है। जैसे -- शब्द अपरिगमनशील है, क्योंकि किया जाता है। यहां किया जाना' हेतु को पाप्ति 20 अपरिणममशील से विरुद्ध परिणमनशीलता के साथ है। प्रतः वह विश्व हेत्वाभास है।
(३) प्रकान्तिक-जो पक्ष, सपक्ष और विपक्ष में रहता है वह मनंकान्तिक हेस्वाभास है। बह दो प्रकारका है—१ निश्चितविपक्षवृत्ति और २ शक्तिविपक्षसि । उनमें पहले का उदाहरण 25
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न्याय-दीपिका
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है,
यह है यह प्रवेश घूमवाला है, क्योंकि वह मग्निवाला है।' यहाँ 'अग्नि' हेतु पक्षभूत सन्दिग्ध धूमवाले सामने के प्रवेश में रहता है और सपक्ष घूम वाले रसोईघर में रहता है तथा विपक्ष घूमरहित रूप से निश्चित प्रङ्गारस्वरूप अग्नि वाले प्रवेश में भी रहता है, 5 ऐला निश्चय है । यतः वह निश्चिसविपक्षवृत्ति धनंकान्तिक है । दूसरे शङ्कितविपक्षवृत्ति का उदाहरण यह है-'गर्भस्थ मंत्री का पुत्र श्याम होना कहिए, क्योंकि मैगी के सर पुत्रों की तरह' यहाँ 'मंत्री का पुत्रपमा' हेतु पक्षभूत गर्भस्थ मंत्री के पुत्र में रहता है, सपक्ष दूसरे मेत्रीपुत्रों में रहता है, धौर विपक 10 श्याम - गोरे पुत्र में भी रहे इस प्रङ्कर को निवृत्ति न होने से प्रत् विपक्ष में भी उसके रहने की शङ्का बनी रहने से वह शतपिकावृति है। शङ्कितविपक्षवृत्ति का दूसरा भी उदाहरण है – 'अरहन्त सर्वश नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे वक्ता हैं, जैसे--- रम्यापुष' । यहाँ 'वक्तापन' हेतु जिस प्रकार पक्षाभूत अरहन्त में और सपक्षभूत रम्यापुरुव 15 में रहता है उसी प्रकार सर्वज्ञ में भी उसके रहने की सम्भावना की काय, क्योंकि वक्ता पन और ज्ञातापन का कोई विरोध नहीं है। जिसका जिसके साय विशेष होता है वह उस वाले में नहीं रहता है और वचन तथा ज्ञान का लोक में विशेष नहीं है, बल्कि
शान वाले ( ज्ञानी } के हो वचनों में चतुराई अच्वा सुन्दरता 20 स्पष्ट देखने में प्राती है । श्रतः विशिष्ट ज्ञानवान् सर्वश में विशिष्ट वक्तापन के होने में क्या भापति है ? इस तरह वक्तापन की विपक्षभूत सर्वेश में भी सम्भावना होने से वह शङ्कितविक्षत नाम का मनैकान्तिक हेत्वाभास है।
(४) किश्चित्कर- जो हेतु साध्यको सिद्धि करनेमें प्रयोजक25 असमर्थ है उसे प्रकिञ्चित्कर हेत्वाभास कहते हैं । उसके दो
.
I
1
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तीसरा प्रकाश
२११ भेद हैं--१ सिद्धसाधन और २ धामितविषय। उनमें पहले का उदाहरण यह है—' शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय होना चाहिए, क्योंकि वह शब्द है'। यहां 'श्रोत्रेन्द्रिय की विषयता' रूपसाध्य शब्द में आबनप्रत्यक्ष से ही सिद्ध है। अतः उसको सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया 'Tarrrा' हेतु सिद्धसाधन नाम का अकिञ्चित्कर 5 हेत्वाभास है । बाचितविषय नामका प्रकिञ्चित्कर हेत्वाभास अनेक प्रकार का है। कोई प्रत्यक्षवाधितविषय है। जैसे— 'अग्नि अनुष्ण-ठंडी है, क्योंकि वह द्रव्य है। यहाँ 'व्यत्व' हेतु प्रत्यक्षवातिविषय है। कारण उसका को ठंडापन दिन है वह उपग्राहक स्पर्शनेन्द्रिय अन्य प्रत्यक्ष से बाधित है। अर्थात् प्रग्नि को 10 छूमे पर वह उष्ण प्रतीत होती है, ठंडी नहीं। अतः 'वव्यत्व' हेतु कुछ भी साध्यसिद्धि करने में समर्थ न होने से प्रकिञ्चित्कर है। कोई अनुमानबाधित विषय है । जैसे- 'शब्द अपरिणामी है, क्योंकि वह किया जाता है' यहाँ 'किया जाता' हेतु 'शब्द परिणामी है, क्योंकि वह प्रमेय है इस अनुमान से वातिविषय है । इस 15 सिये वह अनुमानबाधितविषय नामका किञ्चित्कर हेत्वाभास है । कोई श्रागमबाधित विषय है । जैसे– 'धनं परलोक में दुःख का देने वाला है, क्योंकि यह पुरुष के प्राश्रय से श्रधर्म' यहाँ 'धर्म सुख का देने वाला है' ऐसा श्रागम से उक्त हेतु बाधित विषय है । कोई स्ववचनवाषित विषय है। 20 जैसे – मेरी माता बन्ध्या है, क्योंकि पुरुष का संयोग होने पर भी गर्भ नहीं रहता है। जिसके पुरुष का संयोग होने पर भी गर्भ नहीं रहता है वह बन्ध्या कहो जाती है, जैसे— प्रसिद्ध बन्ध्या स्त्री यहाँ हेतु अपने वचन से वापितविषय हैं, क्योंकि स्वयं मोबून
होता है, जैसे
TST
धागम है, इस
हं और माता भी मान रहा है फिर भी यह कहता है कि 25
मेरी माता बन्ध्या है । मतः हेतु स्ववचनवाधितविषय नामका
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न्याय - दीपिका
पवितकर हेत्वाभास है। इसी प्रकार और भी प्रकिञ्चित्कर के भेव स्वयं विचार लेना चाहिए। इस तरह हेतु के प्रसङ्ग से हेत्वाभासों का निरूपण किया ।
२१२
उदाहरण का निरूपण
5
-
यद्यपि व्युत्पन्न जाता के लिए प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही मबयह पर्याप्त हैं तथापि व्युत्पन्नों के ज्ञान के लिए उदाहरणादिक को भी प्राचार्यों ने स्वीकृत किया है । यथार्थ वृष्टान्त के कहने को उदा हरण कहते हैं। यह दृष्टान्त क्या है ? जहाँ साध्य और साधन की व्याप्ति दिखलाई ( जानी जाती है उसे दृष्टान्त कहते हैं । और 10 साध्य श्रग्नि प्राविक के होने पर ही साधन धूमादिक होते हैं तथा उनके नहीं होने पर नहीं होते हैं, इस प्रकार के साहचर्य रूप साध्यसाधन के नियम को व्याप्ति कहते है। बिना साधन के न होने से वादी की बुद्धिसाम्यता को 15 यह सम्प्रतिपति ( बुद्धिसाम्यता ) जहाँ सम्भव हँ वह सम्प्रतिपत्ति प्रवेश कहलाता है। जैसे— रसोईशाला आदि प्रथवा
इस व्याप्ति को ही साध्य के प्रविनाभाव कहते हैं। वादी और प्रतिस्याप्ति को सम्प्रतिपत्ति कहते हैं
--
तालाब प्रारि । क्योंकि यहीं 'धूमाविक के होने पर नियम से अग्न्यादिक पाये जाते है और अत्यादिक के प्रभाव में नियम से धूमादिक नहीं पाये जाते' इस प्रकारको सम्प्रतिपत्ति—बुद्धिसाम्यता सम्भव है। उनमें 20 रसोईशाला आदि अन्वयदृष्टान्त है, क्योंकि वहाँ साध्य और साधन के सद्भावरूप श्रन्वयबुद्धि होती है। और तालाब आदि यतिरेकवृष्टान्त हैं, क्योंकि वहाँ साध्य और साधन के प्रभावरूप व्यतिरेक का ज्ञान होता है। ये दोनों ही दृष्टान्त है, क्योंकि साध्य प्रौर साधनम अन्त- अर्थात् धर्म जहाँ देखे जाते हैं वह दृष्टान्त 25 कहलाता है, ऐसा 'वृष्टाम्स' शब्द का प्रयं उनमें पाया जाता है ।
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तीसरा प्रकाश.
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इस उपयुक्त दृष्टान्त का जो सम्यक् वचन है-प्रयोग है वह उवाहरण है। केवल 'वचन' का नाम उदाहरभ नहीं है, किन्तु दृष्टान्तरूप से जो वचन-प्रयोग है वह उदाहरण है। जैसे-जो जो घूमघाला होता है वह वह अग्नि वाला होता है, जैसे रसोई घर,
और हाँ अग्नि नहीं है वहाँ घूम भी नहीं है, असे तालाब ।' 5 हस प्रनारेमचन्द के नानदी दृष्टान्ट का दृष्टान्तम्प से प्रतिपादन होता है।
उदाहरण के प्रसङ्ग से उदाहरणाभास का कथन
जो उदाहरण के लक्षण से रहित है किन्तु उदाहरण सा प्रतीत होता है वह उदाहरणाभास है। उदाहरण के लक्षण की रहितता 10 (प्रभाव) दो तरह से होती है--१ दृष्टान्त का सम्यक् वचन ने होना और २ जो दृष्टान्त नहीं है उसका सम्पा बचन होना । उनमें पहले का उदाहरण इस प्रकार है-'जो जो अग्नि वाला होता है वह यह धूम वाला होता है, जैसे- रसोईघर । जहाँ जहाँ घूम नहीं है यहां वहां अग्नि नहीं है, जैसे--सालाम ।' इस तरह म्याप्य :
और व्यापक का विपरीत ( उल्टा ) कपन करना वृष्टान्त का प्रसम्यादान है।
शा-व्याप्य और व्यापक किसे कहते हैं ?
समाधान—साहचपं नियमहर व्याप्ति क्रिया का जो कर्म है उसे ज्याप्य कहते हैं, क्योंकि "वि पूर्वक 'भाप्' धातु से कम 2 अर्थ में 'ग्यत' प्रत्यय करने पर 'व्याप्य' शरद निष्पन्न होता है। तात्पर्य यह कि 'जहाँ जहाँ धूम होता है वहां यहाँ पनि होती है इस प्रकारके साथ रहने के नियम को व्याप्ति कहते है, और इस भ्याप्ति का जो कर्म है--विष्य है वह व्याप्य कहलाता है। वह व्याप्य माविक है, क्योंकि घूमादिक बहपादि के द्वारा
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न्याय-दीपिका व्याप्त ( विषय ) किये जाते हैं। तथा इसी व्याप्ति कियाका मो फर्ता है उसे व्यापक कहते हैं, क्योंकि 'वि' पूर्वक 'पाप' पातु से कर्ता अर्थ में 'एबुल' प्रत्यय करने पर व्यापक' शम्व सिद्ध होता है।
वह व्यापक भग्न्यादिक हैं। इसीलिए अग्नि धूम को व्याप्त करती 5 है, क्योंकि 'महाँ जहाँ धूम होता है वहां यहाँ पग्नि नियम से होतो
है' इस तरह धूम वाले सब स्थानों में नियम में भग्नि पाली जामी है। किन्तु धूम अग्नि कर वसा व्याप्त नहीं करता, क्योंकि अंगारापन्न अग्नि धूम के बिना भी रहती है। कारण, जहां अग्नि है वहाँ
नियम से धूम भी है' ऐसा सम्भव नहीं है। 10 शला-धूम गोले ईन्धन थाली अग्नि को व्याप्त करता ही है ।
अर्थात् वह उसका व्यापक होता है, तब आप कैसे कहते हैं कि धूम अग्नि का व्यापक नहीं होता ?
समाधानगोले ईन्धनवाली अग्नि का धूम को व्यापक मानना हमें इष्ट है। क्योंकि जिस तरह 'जहाँ जहाँ अविच्छिन्नमूल घूम 15 होता है वहाँ वहाँ अग्नि होती है। यह सम्भव है उसी तरह जहाँ
जहां गोले ईन्धन वाली अग्नि होतो है वहाँ वहाँ धूम होता है यह भी सम्भव है । किन्तु अग्निसामान्य धूम-विशेष का व्यापक हो है - प्याप्य नहीं; कारण कि 'पर्वत अग्नि वाला है, क्योंकि वह धूम
वाला है। इस अनुमान में अग्नि-सामान्य को ही अपेक्षा होती है 20 आन्धन वाली अग्नि या महानसीय, पर्वतीय, धस्वरीय और
गोष्ठीय आदि विशेष अग्नि की नहीं। इसलिये धूम पग्नि का व्यापफ नहीं है, अपितु अग्नि ही धूम को व्यापक है। प्रतः 'जो जो धूमषाला होता है वह अग्निवाला होता है, जैसे—रसोई का घर
इस प्रकार दृष्टान्त का सम्यक वचन बोलना चाहिए । किन्तु 25 इससे विपरीत बचन बोलना इप्टाम्साभास है। इस तरह यह
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तीसरा प्रकाश
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असम्यक् बचनरूप प्रत्यय दृष्टान्ताभास (मन्वय उदाहरणाभास) है। प्पतिरेकस्याप्ति में तो व्यापक-अग्न्यादिक का प्रभाव व्याप्प होता है और पाप्य-धूमाविक का प्रभाव व्यापक होता है। मतएक '
जह अग्नि का है नहीं गन' प्रस्ताव है, जैसे -तालाब' इस प्रकार दृष्टान्त का सम्यक वचन बोलना चाहिए। 5 इससे विपरीत कपन करना असम्पक वचमरूप व्यतिरेक उपाहरणाभास है। 'मदृष्टान्तवचन' (मो दृष्टान्त नहीं है उसका सम्यक पचन होना ) नाम का दूसरा उदाहरणाभास इस प्रकार है - अन्वयव्याप्ति में म्यतिरेक दृष्टान्त कह देना और म्पतिरेकम्याप्ति में अन्वय दृष्टान्त बोसना, उदाहरणाभास है। इन दोनों के 10 उदाहरण स्पष्ट हैं।
शङ्का -'गर्भस्थ मंत्री का पुत्र श्याम होना चाहिये, क्योंकि वह मंत्री का पुत्र है, जो जो मंत्री का पुत्र है वह बह श्याम है, जैसे उसके दूसरे पुत्र इत्यादि मनुमानप्रयोग में मन्वयदृष्टान्त स्वरूप पाँच मंत्रोपुत्रों में 'जहाँ जहाँ मैत्री का पुत्रपना है वहाँ वहाँ श्यामता है यह 15 मन्वयपाप्ति है और व्यतिरेक दृष्टान्तस्वरूप गौरवर्ण प्रमंत्रीपुत्रों में सब जगह 'जहां जहां श्यामता नहीं है वहाँ वहाँ मंत्रो का पुत्रपा नहीं है' यह व्यतिरेकण्याप्ति सम्भव है। अतः गर्भप मैत्रीपुत्ररूप पक्ष में जहां कि साधन निश्चितरूप से है, साष्यभूस श्यामता का सन्देह गौण है और इसलिए यह अनुमान भी सम्यक हो आवेगा--- 20 प्रति दृष्टान्स का उपयुक्त लक्षण मानने पर मंत्रीतनयस्वहेतुक श्यामस्वसाध्यक प्रस्तुत अनुमान भी समीचीन अनुमान कहा जायेगा, कारण कि उसके अन्दर दृष्टान्त और म्यतिरेक दृष्टान्त दोनों ही सम्यक दृष्टान्तवचनहप हैं ?
समाधान नहीं; प्रकृत दृष्टान्त प्रम्य विचार से बापित है। 25
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न्याय-दीपिका
वह इस प्रकार से है-साध्यरूप से माना गया यह स्यामतारूप कार्य अपनी निष्पत्ति के लिए कारण की अपेक्षा करता है। यह कारण मंत्री का पुत्रपना तो हो नहीं सकता, क्योंकि उसके बिना भी दूसरे
पुरुषों में, जो मंत्री के पुत्र नहीं हैं, श्यामता वेली जाती है। अतः जिस 5 प्रकार कुम्हार, चाफ प्रादि कारणों के बिना ही उत्पन्न होने वाले
वस्त्र के कुम्हार प्राविफ कारण नहीं है उसी प्रकार मंत्री का पुत्रपना श्यामता का कारण नहीं है, यह निश्चित है। प्रतएव जहां नहीं मंत्री का पुत्रपना है यहां वहां श्यामता नहीं है, किन्तु जहाँ जहाँ
प्यामता का कारण विशिष्ट नामकर्म से सहित शाकावि प्राहाररूप 10 परिणाम है वहां वहां उसका कार्य श्यामता है। इस प्रकार सामग्री
कप विशिष्ट नामकर्म से सहित शाकादि पाहार परिणाम श्यामता का च्याप्य है-कारण है । लेकिन उसका गर्भस्य मंत्रीपुत्रास पक्ष में निश्चय नहीं है, अतः वह सन्निग्यामिद है ! और मंत्री का
पुत्रपना तो श्यामता के प्रति कारण ही नहीं है, इसलिए वह ___15 पयामतारूप कार्य का गमक नहीं है। प्रतः उपर्युक्त अनुमान सम्प
अनुमान नहीं है।
'जो उपाधि रहित सम्बन्ध है वह व्याप्ति है, और जो सामनका प्रव्यापक तथा साध्य का व्यापक है वह उपाधि है' ऐसा जिन्हीं
(भैयायिकों) का कहना है। पर बह ठीक नहीं है। क्योंकि व्याप्ति का 20 उक्त लक्षण मानने पर प्रन्योन्याश्रय वोष प्राता है। तात्पर्य यह कि
उपाधि का लक्षण व्याप्तिटिस है और व्याप्ति का लक्षण उपाषिषटित है। प्रतः व्याप्ति जब सिद्ध हो जावे सब उपाषि सिद्ध हो और अब उपाधि सिद्ध हो जाये तब व्याप्ति सिद्ध हो, इस तरह उपाधि
रहित सम्बन्ध को व्याप्ति का लमण मानने में अन्योन्याषय मामा 25 वोष प्रसक्त होता है। इस उपाधि का निराकरण कारयकलिका में
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तीसरा प्रकाश
२१५ विस्तार से किया गया है। प्रतः विराम लेते हैं-उसका पुनः खान यहाँ नहीं किया जाता है।
उपनय, मिगमन पौर उपनयाभास तथा निगमनाभास के लक्षण
साधनवान रूप से पक्ष को दृष्टान्त के साथ साम्पता का कथन 5 करना उपनय है। जो-इसीलिए यह धूम दाम्मा है। साधन की वोहराते हुए साध्य के निश्चयरूप वचन को निगमन कहते है। जसे-धूम वाला होने से यह अग्नि वाला ही है। इन दोनों का प्रययाक्रम से-उपनय की अगह निगमन और निगमन को जगह उपनय का-कथन करना उपनयाभास और निगमनाभास हैं। अनुमान प्रमाण 10 समाप्त हुना।
पागम प्रमाण का लक्षणप्राप्त के वचनों से होने वाले प्रर्यशान को प्रागम कहते हैं। यहां प्रागम' यह लक्ष्य है और शेष उसका लक्षण है। 'प्रयंज्ञान को प्रागम कहते हैं। इतना ही यदि प्रागम का लक्षण कहा जाय 15 तो प्रत्यक्षादिक में प्रतिध्याप्ति है, क्योंकि प्रत्यक्षाविक भी प्रर्षमान हैं। इसलिए 'वचनों से होने वाले' यह पद-विशेषण दिया है। 'वधनों से होने वाले' अर्थशान करे प्रागम का लक्षण कहने में भी स्वेच्छापूर्वक ( जिस किसी के ) कहे हुए भ्रमजनक पचनों से होने वाले प्रथया सोये हुए पुरुष के और पागल प्रदि के वाक्यों से 20 होने वाले 'नदी के किनारे फल है।' इत्यादि नानों में प्रतिव्याप्ति है, इसलिए 'प्राप्त' यह विशेषण दिया है। प्राप्त के वचनों से होने वाले ज्ञान को' मागम का लक्षण कहने में भी प्राप्त के पास्यों को सुनकर जो श्रावण प्रत्यक्ष होता है उसमें लक्षण की प्रतिष्याप्ति है. अतः 'अर्थ' यह पर दिया है। 'अर्थ' पद तात्पर्य में रूह है। 25
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न्याय-दीपिका
प्रर्थात् प्रयोजनार्थक है, क्योंकि 'अर्थ हो - तात्पर्य ही वचनों में है' ऐसा धाचार्यवचन है। मतलब यह कि यहां 'अ' पद का अयं तात्पर्य विवक्षित है, क्योंकि वचनों में सात्पर्य ही होता है । इस तरह प्राप्त के वचनों से होने वाले अर्थ (तात्पर्य) ज्ञान को जो 5 आगम का लक्षण कहा गया है वह पूर्ण निर्दोष है। इसे"सम्मग्दर्शनजानचारित्राणि मोक्षमार्गः " [त० सू० १-१] सम्यमार्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता ( सहभाग ) मोक्ष का मार्ग है' इत्यादि वाक्यार्थज्ञान। सम्यग्दर्शनादिकः सम्पूर्ण कर्मों के क्षयरूप मोक्ष का मार्ग अर्थात् उपाय है न कि हैं । 10 प्रतएव भिन्न भिन्न लक्षण वाले सम्यग्दर्शनादि तोनों मिलकर ही मोक्ष का मार्ग हैं, एक एक नहीं, सिद्ध होता प्रमाण मे
—
वचन के प्रयोग के तात्पर्य से अर्थ में
अर्थ है और इस
प्रमिति होती है।
5
ऐसा अर्थ 'मार्ग' इस एक है। यहो उक्त वाक्य का संशयादिक की निवृत्तिरूप
प्राप्त का लक्षण -
प्राप्त किसे कहते हैं ? जो प्रत्यक्षज्ञान से समस्त पदार्थों का ज्ञाता ( सर्वज) है और परमहतोपदेशी है वह प्राप्त है। 'समस्त पदार्थों का ज्ञाता' इत्यादि हो प्राप्तं का लक्षण कहने पर भूतलियों में प्रतिव्याप्ति होती है, क्योंकि वे श्रागम से समस्त पदावों0 को जानते हैं। इसलिए 'प्रत्यक्षज्ञान से यह विशेषण दिया है । 'प्रत्यक्ष ज्ञान से समस्त पदार्थों का ज्ञाता' इतना हो भ्राप्त का लक्षम करने पर सिद्धों में प्रतिव्याप्ति है, क्योंकि वे भी प्रत्यक्षज्ञान से ही सम्पूर्ण पदार्थों के ज्ञाता हैं, अतः 'परम हितोपदेशी' यह विशेषण कहा है। परम हित निधेमस - मोक है और उस मोक्ष के 5 उपदेश में ही परहस्त को मुख्यरूप से प्रवृत्ति होती है, अन्य
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२९६ विषय में तो प्रश्न के अनुसार गौणरूप से होती है। सिर परमेष्ठी ऐसे नहीं हैं-वे निःथेयस का न तो मत्यरूप से उपदेश देते हैं
और न गोणरूप से, क्योंकि वे भनुपदेशक हैं। इसलिए 'परमहितोपवेशी' विशेषण कहने से उनमें प्रतिव्याप्ति नहीं होती । प्राप्त के साल में प्रमाण पहले ही ( द्वितीय प्रकाशमें ) प्रस्तुत कर 5 माये हैं। नैयायिक प्रावि के द्वारा माने गये प्राप्त सर्व न होने से प्राप्ताभास हैं-सम्ये प्राप्त नहीं हैं । अतः उनका व्यवच्छेद (निराकरण) 'प्रत्यक्षशान से सम्पूर्ण पदार्थों का नाता' इस विशेषण से ही हो जाता है।
शमा-नयायिकों के द्वारा माना गया प्राप्त क्यों सर्वज 10
समाधान -- नेपायिकों ने जिसे प्राप्त माना है वह अपने जान कर जासा नहीं हैं, क्योंकि उनके यहां ज्ञान को अस्वसदेवी-शानातरोध माना गया है। दूसरी बात यह है कि उसके एक हो जान है उसको आमने पासा झानान्तर भी नहीं है। अन्यथा उनके अभिमत प्राप्त में 15 वो मानों के सद्भाव का प्रसङ्ग प्रायेगा और दो शाम एक साथ हो नहीं सकते, क्योंकि सजातीय वो गुण एक साथ नहीं रहते ऐसा नियम है। प्रतः अब यह विशेषणभूत अपने ज्ञान को ही नहीं जानता है तो उस मानविशिष्ट प्रात्मा को ( मएने को ) कि 'मैं सहूँ" ऐसा कैसे जान सकता है? इस प्रकार अब बह भनात्मर है तब 20 प्रसर्वश ही है-सर्वन नहीं है। भोर सुगतादिक सच्चे प्राप्त नहीं है, इसका विस्तृत निरूपण प्राप्तमीमांसाविवरण–प्रष्टशती में श्रीमकललेव ने सपा प्रष्ट सहस्रो में श्रीविद्यानन्द स्वामी ने किया है। प्रत, यहाँ और अधिक विस्तार नहीं किया गया। बाल्यका
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लक्षण' दूसरे शास्त्रों में प्रसिद्ध है, इस कारण उसका भी यहाँ तक्षण नहीं किया जाता है।
अर्थ का लक्षण और उसका विशेष कथन
अर्थ किसे कहते हैं ? अनेकान्त को
कहते हैं । श्रर्थात् जो
5 प्रनेकान्त स्वरूप हैं उसे अर्थ कहते हैं । यहाँ 'अर्थ' यह लक्ष्य का निवेश है, उसी को अभिधेय अर्थात् कहा जाने वाला भी कहते हैं । 'श्रनेकान्त' यह लक्षण का कथन हैं। जिसके अथवा जिसमें पक शन्त अर्थात् धर्म सामान्य विशेष पर्याय और गुण पाये जाते हैं उसे श्रनेकान्त कहते हैं । तात्पर्य यह कि सामान्यादि अनेक धर्म घाले ३० पदार्थ को अनेकान्त कहते हैं । 'घट घट' 'भौगी' इस प्रकार के अनुगत व्यवहार के विषयभूत सदृश परिणामात्मक 'घटत्व' 'गोल' प्रादि धनुगत स्वरूप को सामान्य कहते हैं। वह 'घटत्व' स्थूल कम्बुग्रीवादि स्वरूप तथा गोत्व' साना प्रावि स्वरूप ही हैं। अतएव घटत्वादि सामान्य घटादि व्यक्तियों से न सर्वथा भिन्न है, व नित्य है 15 और न एक तथा अनेकों में रहने वाला है। यदि वैसा माना जाय ती अनेकों दुषण आते हैं, जिन्हें दिग्नाग ने निम्न कारिका के द्वारा प्रदर्शित किया है :—
१ परस्पर में अपेक्षा रखने वाले पदों के निरपेक्ष समूह को वाक्य कहते हैं। जैसे- 'गाय का लायो' यहां 'गाय को' और 'लाली' में दोनों पद एक-दूसरे की अपेक्षा रखते हैं तभी वे विवक्षित पर्व का बोध कराने में समर्थ है तथा इस अर्थ के बोध में अन्य वाक्यान्तर की अपेक्षा नहीं होती इसलिए उक्त दोनों पदों का समूह निरपेक्ष भी है।
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२२१ म याति' न च तत्रास्त्रे न पश्नादन नांशवन् ।
जहाति पूर्व नाधारमही व्यसनसन्ततिः । or -वह गोदि हाम: गोवानि नितरों से पवि सर्वथा भिन्न, नित्य, एफ और अनेकवृत्ति है तो जय एक गो उत्पन्न हुई तब उसमें गोम्ब कहाँ से प्राता है ? अन्यत्र से प्रा नहीं सकता, क्योंकि उसे निष्किप माना है। उत्पन्न होने के पहले गोत्व वहां रहता नहीं, क्योंकि गोत्व सामान्य गौ में ही रहता है। अन्यथा, देश भी गोत्व के सम्बन्ध से गौ हो जायेगा। गोपिण्ड के साय उत्पन्न भी नहीं हो सकता, क्योंकि उसे नित्य माना है, अन्यथा उसके प्रनित्यता का प्रसङ्ग प्रायगा । अंशवान है नहीं, क्योंकि उसे निरंश स्वीकार किया 10 है। नहीं तो सांशत्व का प्रप्त पायेगा । यदि वह पूर्व पिण्ड को छोड़ कर नूतन गो में प्राता है तो यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पूर्व पिण्ड का त्याग नहीं माना है। अन्यथा पूर्व गोपि3गौ, प्रगो-पोत्वशून्य हो जायगा, फिर उसमें 'गो' स्ववहार नहीं हो सकेगा। इस तरह गोत्वादि सामान्य को व्यक्ति से सर्वथा भिन्न, नित्य 15 और एक मानने में अनेक विध दूषण प्रसक्त होते हैं। प्रतः स्यूल और कम्जुनीवा प्रादि प्राकार के तथा सास्ना प्रादि के देखने के बाद ही यह 'घट है' 'यह गो है' इत्यादि अनुगत प्रत्यय होने से सदश परियामरूप ही घटस्व-गोवादि सामान्य है और वह कञ्चित् भिन्नअभिन्न, नित्य-अनित्य और एक-अनेक कप है। इस प्रकार के 20
१ नावाति' पाठान्तरम् ।
२ कारिका का शब्दार्थ यह है कि 'गोत्वादि सामान्य दुसरी गो में अन्यत्रसे जासा नहीं, न वहाँ रहता है, न पीछे पैदा होता है, न अशावाला है, और न पहले के अपने प्राश्रयको छोड़ता है फिर भी उसकी स्थिति हैबह सम्बद्ध हो जाता है। यह कैसी व्यसनसन्तति—कदाग्रहपरम्परा है।'
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सामान्य के मानने में उपर्युक्त कोई भी दूषण नहीं प्राता है। विशेष भी सामान्य की ही तरह यह स्यूस घट है' 'यह छोटा है' इत्यारि श्यावृस प्रतीति का विषयभूत स्टादि व्यक्तिस्वरूप ही है । इसी बात
को भगवान माणिक्यनन्दि भट्टारक ने भी कहा है कि --"वह प्रय 5 सामान्य और विशेषम है।"
परिणमन को पर्याय कहते हैं। उसके दो भेद हैं ---१ अर्थपर्याय प्रौर २ व्यञ्जनपर्याय । उनमें भूत और भविष्य के उल्लेख रहित केवल वर्तमानकालीम वस्तुस्वरूप को अर्थपर्याय कहते हैं
अर्थात् वस्तुओं में प्रतिक्षण होने पालो पर्यायों को प्रर्थपर्याप कहते हैं । 10 प्राचार्यों ने इसे ऋजसूत्र नय का विषय माना है। इसी के एफ देश को
मानने वाले क्षणिकवादी बौद्ध हैं। व्यक्ति का नाम व्यञ्जन है, और जो प्रवृत्ति-निवृति में कारणभूत जल के ले प्राने प्राविरूप प्रपंक्मिाकारिता है वह व्यक्ति है, उस व्यक्ति से युक्त पर्याय को व्यंजमा
पर्याय कहते हैं। अर्याल जो पदार्थों में प्रवृत्ति और नित्ति जनक 15 जलानयन प्राधि प्रक्रिया करने में समर्थ पर्याय है उसे व्यंजनपर्याय
कहते हैं। जैसे- मिट्टी माथि का पिड, स्थास कोश, कुशूल, घट और कपाल मादि पर्याय हैं।
जो सम्पूर्ण द्रव्य में व्याप्त होकर रहते हैं और समस्त पर्यापों के साथ रहने वाले हैं उन्हें गुण कहते हैं । और वे वस्तुस्व, रूप, 20 गन्ध और स्पर्श प्रावि है। अर्थात् वे गण दो प्रकारके हैं-१ सामान्य
मुग और २ विशेषगण । जो सभी द्रव्यों में रहते हैं वे सामान्य गण हैं और वे वस्तुरव, प्रमेयत्व प्रादि हैं। तथा जो उसो एक बज्य में रहते हैं ये विशेषगुण कहलाते हैं 1 जैसे-रूप-रसादिक । मिट्टी के साथ
सदैव रहने पाले वस्तुत्व ३ रूपावि तो पिण्डावि पर्यायों के साथ भी 25 रहते है, किन्तु पिण्डादि स्थासाविक के साय नहीं रहते हैं। इसी
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२२३ लिये पर्यायों का गुणों से भैर है। अर्थात् पर्याय प्रौर गुण में यही भेद हे कि पर्याय शमवर्ती होती है भोर गुण सहभावो होते है तथा वे द्रव्य और पर्याय के साथ सर्वक रहते हैं। यद्यपि सामान्य और विशेष भी पर्याय है और पर्यायों के कथन से उनका भी कपन हो जाता है-उनका पृषक् कथन करने की प्रावश्यकता 5 नहीं है, तथापि सङ्केतज्ञान में कारण होने और जुदा जुदा शम्दव्यवहार होने से इस प्रागम प्रस्ताव में (पागम प्रमाण के निरूपण में) सामान्य और विशेष का पर्यायों से पथक निर्देश किया है। इन सामान्य और विशेषरूप गुण तथा पर्यायों का प्राश्रय द्रष्य है। क्योंकि "ओ गुण और पर्याय वाला है वह वध है" ऐसा 10 माचार्य महाराज का श्रादेश (उपवेश) है। बह द्रव्य भी 'सस्व' अर्थात् सत् ही है। क्योंकि "जो सच है वह द्रव्य है" ऐसा प्रका लवेव का वचन है। ब्रा भी संक्षेप में दो प्रकारका हैजीव प्रत्य और अजीव द्रब्य । और के दोनों हो तथ्य उत्पत्ति, बिमाश तथा स्थितिवान हैं, क्योंकि "जो उत्पाद, स्यय और धोव्य 15 से सहित है वह सत् है" ऐसा निरूपण किया गया है। इसका खुलासा इस प्रकार है :-जीव द्रव्य के स्वर्ग प्राप्त कराने वाले पुण्य कर्म ( देवगति, देवायु आदि ) का उदय होने पर मनुष्य स्वभाष का विनाश होता है, दिव्य स्वभाव का उत्पाद होता है और बैतन्य स्वभाव स्थिर रहता है। जीव द्रव्य यदि मनुष्यादि पर्यापों 20 से सर्वथा एकरुप ( अभिन्न ) हो तो पुण्य कर्म के उचय का कोई फल नहीं हो सकेगा; क्योंकि वह सदैव एकसा ही बना रहेगामनुष्य स्वभाव का विनाश मोर देव पर्याय का उत्पाद ये भिन्न परिणमन उसमें नहीं हो सकेंगे। और यदि सर्वथा भिन्न हो तो पुण्यवान-पुण्यकर्ता दूसरा होगा और फलवान—फलभोक्ता दूसरा, 25 इस तरह पुण्य कर्म का उपार्जन करमा भो म हो जायगा । परोप
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इस कारण जीव द्रव्य की पर्याय की अपेक्षा से भेव है, भेव और अभेद के मानने में हैं--प्रमाणयुक्त हैं ।
कार में भी जो प्रवृत्ति होती हैं वह अपने gष्य के लिए ही होती है। अपेक्षा से प्रभेद है और मनुष्य तथा देव इस प्रकार भिन्न भिन्न नयो की कोई विरोध नहीं है,
दृष्टि से दोनों प्रामाणिक
के भी मिट्टी के
पिण्डाकार कर
इसी तरह मिट्टीरूप जीव विनाश, कम्बुग्रोवर प्रादि आकार की उत्पत्ति और मिट्टीरूप की स्थिति होती है। अतः यह सिद्ध हुआ कि अजीव द्रव्य में भी उत्पत्ति, विनाश और स्थिति ये तीनो होते हैं। स्वामी समन्तभद्र के मत का अनुसरण करने वाले वामन ने भी कहा है कि समीचीन उपदेश से पहले के प्रज्ञान स्वभाव को नाश करने और आगे के तत्वज्ञान स्वभाव के प्राप्त करने में जो समर्थ प्रात्मा है वही शास्त्र का अधिकारी है। जैसा कि उसके इस वाक्य से प्रकट है "न शास्त्रमसद्रव्यं वयंवत्" श्रर्थात् शास्त्र असद् द्रच्त्रों में जीव प्रज्ञान स्वभाव के दूर करने श्रीर तत्त्वज्ञान स्वभाव के प्राप्त करने में समर्थ नहीं है उसमें ) प्रयोजनवान् नहीं है- कार्यकारी नहीं है । इस प्रकार अनेकान्तस्वरूप वस्तु प्रमाणवाक्य का इसलिए वह श्रयं सिद्ध होती है। अतएव इस प्रकार अनुमान करना चाहिए कि समस्त पदार्थ प्रकिान्त स्वरूप है, क्योंकि वे सत् हैं, जो अनेकान्तस्वरूप नहीं है वह सत् भी नहीं है, जसे अकाश
:
विषय है और
का कमल ।
-
-
जो
{
शङ्का मद्यवि कमल श्राकाश में नहीं है तथापि तालाब में है । अतः उससे ( कमल से ) 'सत्य' हेतु की व्यावृत्ति नहीं हो सकती है ?
समाधान --- यदि ऐसा कहो तो यह कमल अधिकरण विशेषकी अपेक्षा से सत् और असत् दोनों रूप होने से धनेकान्तस्वरूप
P
1
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सिद्ध हो गया और उसे अन्वयदृष्टान्त प्रापन हो स्वीकार कर लिया । इससे ही प्रारको सन्तोष कर लेना चाहिए। तात्पर्य यह कि इस कहने से भी वस्तु अनेकान्तात्मक प्रसिद्ध हो जाती है।
पहले जिस 'सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः' वाक्व का उदाहरण दिया गया है उस वाक्य के द्वार भी 'सम्यादर्शन, सम्यग्ज्ञान 5
और सम्यक्चारित्र इन तीनों में मोक्षकारणता ही है, संसारकारणता नहीं इस प्रकार विषयविभागपूर्वक ( अपेक्षाभेदसे ) कारणता और प्रकार णता का प्रतिपादन करने से वस्तु अनेकान्त स्वरूप कही जाती है। यद्यपि उक्त वाक्य में अवधारण करने वाला कोई एक्कार जैसा शब्द नहीं है तथापि "मर्व वाक्यं सावधारणा" अर्थात 10 - 'सभी वाक्य प्रयघारण सहित होते हैं। इस न्याय से उपर्युक्स याक्य के द्वारा भी सम्यग्दर्शनादि में मोक्षकारणता का विधान और संसारकारणता का निषेध स्पष्ट सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार प्रमाण–प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रागम-से यह सिद्ध प्रा कि वस्तु अनेकान्तस्वरूप है।
15 नयका लक्षण, उसके भेव और सप्तभङ्गो का प्रतिपादन
प्रमाण का विस्तार से वर्णन करके अब नयों का विश्लेषण पूर्वक कपन किया जाता है। नय किसे कहते हैं ? प्रमाण से जाने हुये पदार्थ के एक वेश (अंश) को ग्रहण करने वाले शाता के अभिप्रायविशेष को नय कहते हैं। क्योंकि माता का अभिप्राय नय 20 है" ऐसा कहा गया है। उस नय के संक्षेप में दो भेद हैं.--१ द्रव्याथिक पौर २ पर्यायाधिक । उनमें दय्याथिक नय प्रमाण के विषयभूत द्रव्य-पर्यायात्मक, एकानेकात्मक अनेकान्तरूप पर्थ का विभाग करके पर्यायाथिक नय के विषयभूत भेद को गौन करता हुमा उसकी स्थिति मात्र को स्वीकार कर अपने विषय द्रव्य को प्रभेट- 25
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रूप व्यवहार कराता है, अन्य नय के विषय का निषेध नहीं करता । इसीलिए "दूसरे नय के विषय की ममेक्षा रखने बासे नय को सत् नय—सम्यक् नय अथवा सामान्य नय" कहा है। जैसे—यह कहना कि 'सोना लामो'। यहाँ ख्यायिकनप के अभिप्राय से 'सोना 5 लामो' के कहने पर साने बालर का, कुण्डल, केयर इनमें से किसी
को भी ले माने से कृतार्थ हो जाता है, क्योंकि सोनेरूप से कड़ा प्रावि में कोई भेद नहीं है। पर जब पर्यायायिकनय की विवक्षा होतो है तब तव्याथिक नय को गौण करके प्रवृत्त होने वाले पर्यापार्षिक
मय को अपेक्षा से 'कुण्डल साम्रो' यह कहने पर लाने वाला कहा 10 प्रादि के लाने में प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि कड़ा प्रादि पर्याय से कुण्डल पर्याय भिन्न है। प्रतः प्रत्याधिक नय के अभिप्राय (विचक्षा)
सोमा काम्वा एकरप ही है, पर्यायाधिक नय के प्रभिप्राप से कञ्चित् अनेकरूप ही है, मोर कम से दोनों नयों के मभिप्राय से
कञ्चित् एक और अनेकरूप है। एक साथ दोनों नयों के अभि15 प्राय से कथंचित् प्रवक्तव्यस्वरूप है। क्योंकि एक साय प्राप्त हुये वो
नयों से विभिन्न स्वरूप वाले एकत्व और अनेकत्य का विचार अथवा कथन नहीं हो सकता है। जिस प्रकार कि एक साथ प्राप्त हुये दो शब्दों के द्वारा घट के प्रधानभूत भिन्न स्वरूप वाले रूप भोर रस इन दो
धमों का प्रतिपादन नहीं हो सकता है। अतः एक साध प्राप्त दम्यार्मिक 20 और पर्यायाधिक वोनों नयों के अभिप्राय से सोना कथंचित प्रात्तव्य
स्वरूप है। इस प्रवक्तव्यस्वरूप को प्याथिक, पर्यायायिक मौर इक्यापिक-पर्यायाथिक इन सीन नयों के अभिप्राय से क्रमशः प्राप्त हए एकत्वादि के साथ मिला बेने पर सोना कयंचित् एक और
प्रवक्तव्य है, कचित् अनेक और प्रवक्तव्य है तथा कयंचित् एक, 25 अनेक और प्रवक्तव्य है, इस तरह तीन नाभिप्राय और हो जाते
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२२७ हैं, जिनके द्वारा भी सोने का निरूपण किया जाता है। मयों के कथन करने को इस शैली (व्यवस्था) को ही सप्तभङ्गी कहते हैं। यहाँ 'भा' शब्द वस्तु के स्वरूपविशेष का प्रतिपादक है। इससे यह मिह हुआ कि प्रत्येक वस्तु में नियत सात स्वरूप-विशेषों का प्रतिपावन करने वाला शम्दसमूह सप्तभङ्गो है।
5 शङ्का-एक वस्तु में सात भङ्गों ( स्वरूप प्रपवा धर्मों ) का सम्भव कैसे है ? __समाधान-जिस प्रकार एक ही घटादि में घट रूप वाला है, रस वाला है, गन्ध वाला है और स्पर्श वाला है, इन युद्ध-अवे व्यवहारों के कारणभूत रूपवत्त्व (रूप) प्रादि स्वरूपभेद सम्भव है उसो 10 प्रकार प्रत्येक वस्तु में होने वाले एक, अनेक, एकानेक, प्रवक्तम्प मादि व्यवहारों के कारणभूत एकत्य, अनेकत्व प्रादि सात स्वरूप भी सम्भव है।
इसी प्रकार परम द्वण्यापिक नयके अभिप्राय का विषय परमअय्यसत्ता--महासामान्य है। उसकी अपेक्षा से एक ही परितोय !5 ब्रह्म है, यहाँ नाना-अनेक कुछ भी नहीं है" इस प्रकार का प्रतिपादन किया जाता है। क्योंकि सद्रूप से चेतन और प्रवेतन पवायों में भेव नहीं है। यदि भेव माना जाप तो सद् से भिन्न होने के कारण वे सब असत् हो जाएंगे।
ऋजसूत्रनय परमपर्यायाधिक नय है। वह भूत और भविष्य के 20 स्पर्श से रहित शुद्ध --- केवल वर्तमानकालीन बस्तुस्वरूप को विषय करता है। इस नय के अभिप्राय से ही बौडों मिकवाव को सिवि होती है। ये सब नयाभिप्राय सम्पूर्ण प्रपने विषपभूत प्रशवात्मक अनेकान्त को, जो प्रमाग का विषय है, विभक्त करके सोकम्पक हार को कराते हैं कि बस्तु सम्परूप से सत्तासामान्य को अपेक्षा से 25
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कथंचित एक ही है, अनेक नहीं है। तथा पर्यायरूप से—अवान्तरसप्तासामान्यरूप विशेषों की अपेक्षा से वस्तु कथंचित नाना (अनेक) ही है, एक नहीं है । तात्पर्य यह है कि तत्तत् नगाभिप्राय से ब्रह्मवाद ( सत्तावाद ) और क्षणिकवाद का प्रतिपादन भी ठीक है । यही प्राचार्य समन्तभद्र स्वामी ने भी निरूपण किया है कि "हे जिन ! अापके मत में अनेकान्त भी प्रमाण और नय से अनेकातरूप सिद्ध होता है, क्योंकि प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्तरूप है और अपित नपको अपेक्षा एकान्तरूप है।
अनियत अनेक धर्मविशिष्ट ४ को विपनाने का काम है और नियत एक धर्मविशिष्ट वस्तु को बिषय करने वाला नय है। यदि इस जैन-सरणि-जनमत को नप-विवक्षा को न मानकर सर्वथा एक ही अद्वितीय ब्रह्म है, अनेक कोई नहीं है, कञ्चित्किसी एक अपेक्षा से भी अनेक नहीं है, यह प्राग्रह किया जायसर्वथा एकान्त माना जाय तो यह अर्थाभास है-मिश्या अर्थ है और इस अर्थ का फथन करने वाला वचन भी भागमाभास है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष से और 'सत्य भिन्न है सत्त्व भिन्न' है इस मागम से बाधितविषय है। इसी प्रकार 'सर्वथा भेद ही है, कम्चित् भी अभेव नहीं है। ऐसा कथन भी वैसा ही समझना चाहिए। अर्थात् सर्वथा भेद ( अनेक ) का मानना भी अर्थाभास है और उसका प्रतिपादक बचन भी प्राममाभास है, क्योंकि सदरूप से भो भेद मानने पर असत् का प्रसङ्ग पायेगा और उसमें प्रक्रिया नहीं बन सकती है।
शङ्का-एक एक अभिप्राय के विषयरूप से भिन्न भिन्न सिद्धा होने वाले और परस्पर में साहवर्य को अपेक्षा न रखने पर मिथ्याभूत हये एकत्व, अनेकत्व प्रापि धर्मों का साहचर्यरूप समूह, भी
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जो कि अनेकान्त है, मिय्या ही है। तात्पर्य यह कि परस्पर निरसेना एकस्वादिक एकान्त जब मिथ्या हैं तब उनका समूहरूप अनेकान्त भी मिथ्या ही कहलायेगा, वह सम्यक् कैसे हो सकता
समाधान-वह हमें इष्ट है। जिस प्रकार परस्पर के उपकार्य-5 उपकारकभाव के बिना स्वतन्त्र होने से और एक दूसरे की अपेक्षा न करने पर वस्त्ररूप अवस्था से रहित सन्तुनों का समूह शीतनिवारण { ४ण्ड को दूर करना ) प्रादि कार्य नहीं कर सकता है उसी प्रकार एक दूसरे की अपेक्षा न करने पर एकत्वादिक धर्म भी यथार्य जान कराने प्रादि प्रक्रिया में समर्थ नहीं हैं, इसलिए उन पर- 10 स्पर निरपेक्ष एकत्वादि पो में कचित् मिथ्यापन भी सम्भव है। प्राप्तमीमांसा में स्वामी समन्तभद्राचार्य ने भी कहा है कि 'मिथ्याभूत एकान्तों का समूह यदि मिथ्या है तो वह मिश्या एका. न्तता-परस्पर निरपेक्षता हमारे ( स्यावादियों के ) यहाँ नहीं है। क्योंकि जो नय निरपेक्ष हैं वे मिथ्या है--सम्यक नहीं हैं और 15 जो सापेक्ष हैं-एक दूसरे की अपेक्षा सहित हैं वे वस्तु हैं—सम्यक नय हैं और वे ही प्रक्रियाकारी हैं।' तात्पर्य यह हुमा कि निरपेक्ष नयों के समूह को मिथ्या मानना तो हमें भी इस्ट है, पर स्यावादियों ने निरपेक्ष नयों के समूह को अनेकान्त नहीं माना किन्तु सापेक्ष नयों के समूह को अनेकान्त माना है। क्योंकि वस्तु प्रत्यमादि 20 प्रमाणों से अनेक धर्मात्मक ही प्रतीत होती है, एक धर्मात्मक महीं।
प्रतः यह सिद्धान्त सिद्ध हुमा कि 'नय और प्रमाण से पातुकी सिधि होती है-पदार्थों का यथावत् निर्णय होता है। इस प्रकार मागम प्रमाण समाप्स हमा।
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२३.
प्याय-दीपिका
प्रकार का अन्तिम मिवेदन
मेरे पाल गुरुवर्य श्रीमान् पर्द्धमान भट्टारक के श्रीचरणों के प्रसार से यह न्याय-बीपिका पूर्ण हुई। इस प्रकार धीमान प्राचार्य वर्षमान भट्टारक गुरुको कृपासे सरस्वती के प्रकर्ष को प्राप्त श्रीअभिनव धर्मभूषना. चार्य-बिरचित न्यायोपिका में परोक्षप्रमाण का प्रकाश करने वाला तीसरा प्रकामा पूर्ण सा।
न्यायदीपिका समाप्त हुई।
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परिशिष्ट
--.: .-- १. न्यायकोपिका में आये हुए अवतरण-वाक्यों की सूची
अवतरण-वाक्य पृष्ठ अवतरण-वान्य पृष्ठ अक्षं नाम वक्षुरादिक- ३७ गुणपर्ययवद्र्व्यम् प्रक्षेभ्य : परावृत्तं परोक्षम् ३६ ज्ञानोत्पादकहेत्वनतिरिक्तअदृष्टादयः कस्यविन्- ४४ सत्रारमभूतमग्ने रोष्ण्यअनधिगततथाभूतार्थ- १८ तन्मे प्रमाणं शिवः अनुभूतिः प्रमाणम् १६ तात्पर्यमेव वसि अनेकार्थनिश्चता
३१ त्वन्मतामृतबाह्यानां अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः १२८ दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक अन्यथानुपपत्त्येक- ६६ द्विविधं सम्यग्ज्ञानम् । अन्यथानुपपत्त्येक- ७१ न याति न च तवास्ते मन्यथानुपपन्नत्वं ६४ नपान्तरविषयसापेक्षः १२६ अन्यथानुपपन्नत्वं ६५ नयो ज्ञातुरभिप्रायः प्रविसंवादिज्ञानं प्रमाणम् १८ न शास्त्रमसद्रव्येषु १२४ प्रसिद्धादिदोषपञ्चक- १० नालोको कारणम् २६ म.ये परोक्षम् २४, ३८ निमंसप्रतिभासत्वमेव ૨૪ इदमेव हि प्रमाणस्य ११ निराकारं दर्शनं साकारं ज्ञानम् १४ इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्त ३४ निष्पाषिकः सम्बन्धो व्याप्तिः११० उत्पादव्यय प्रौव्ययुक्तं सत् १२२ परस्परस्यतिकरे सति एतद्द्वयमेवानुमानाङ्गम् . परोपदेशसापेक्ष करणाधारे चानद् ११ परोपदेशाभावेजप कल्पनापोडमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् २५ प्रपिशाहेतूदाहरणो
१२५
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२३२
ग्याय-दीपिका
पृष्ठ
अवतरण-वाक्य पृष्ठ प्रवतरण-वाश्य प्रत्यक्षमन्यत्
३८ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रणि प्रत्यक्षलक्षण पद १४ सम्मान पर प्रमाकरण प्रमाणम् २० संशयो हि निर्णयविरोधी प्रमाणनयरधिगमः
४ सापकतम करणाम्। प्रमाणादिष्टसंसिद्धि- १७ साधनात्साध्यविज्ञानप्रमोगपरिपाटी तु ८२ साधनाव्यापकत्वे सति प्रसिद्धो धर्मी
७३ साधनाश्रययोरन्यतरत्वे भावकान्त
५० साध्यसन्देहापनोदार्थ मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न १३० साध्यसाधनसम्बन्धायदा भावसाचनं
१९ साध्यं शक्यमभिप्रेतलिङ्गपरामशोऽनुमानम् ६६ साध्याविनामावित्वेन विकल्पसिद्धे तस्मिन् ७४ सामान्यविशेषात्मा तदर्थः ५२,१२० विस्मरणसंशय
५४ मूक्ष्मान्तरितरार्थी ४१ स त्वमेवाऽसि निदीपो ४७ स्पाकार; सत्यलाञ्छनः सत्यं भिदा सरनं भिदा १२९ स्वावरणक्षयोपशमसत्त्वं द्रव्यम्
१२२ हेतुलक्षणरहिताः ८८ २. न्यायदीपिका में उल्लिखित ग्रन्थों की सूचीग्रंथनाम
पृष्य अंघनाम प्राप्त-मीमांसा ४१,५०,१३० तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकभाष्य प्राप्तमीमांसाविवरण ११५ तत्वार्थसूत्र कारुण्यकलिका १११ न्याबिन्दु जैनेंद्र
१३ न्यायविनिश्चय २४,७. तत्वाराजवात्तिकभाष्य ३५ पर-परीक्षा तत्वाश्लोकवासिक ६७ परोक्षा-मुख २६,३३ ६६
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परिशिष्ट
११ महाभाष्य
ग्रंथनाम
पृष्ठ ग्रंथनाम प्रमाण-निर्णय प्रमाण-परीक्षा
राजवातिक प्रमेय-कमल-मार्तण्ड ३०,५४ भाष्य (तत्त्वार्थराजवात्तिक
यलोकवात्तिक भाप्य)
६.३२ श्लोकवात्तिकभाप्य
३. न्यायबीपिका में उल्लिखित अन्यकारों की सूची
पृष्ठ
१२२ २४, ७०
प्रन्थकारनाम प्रकलङ्क प्रकल देव उदयन कुमारनन्दिभट्टारक दिग्नाग माणिक्यनन्दि भट्टारक वात्तिककारपाद बामन
६१, २२
ग्रंथकारनाम शालिकानाथ श्रीमदाचार्यपाद ११५ समन्तभद्रस्वामि १२८ स्याद्वादविद्यापति
२०७० स्वामी
४१,४७ स्वामिसमन्तभद्राचार्य ८०,१२४,
१३०
१२०
१२४
४ न्यायवोपिका में पाये हुये न्यायवाक्य
न्यायवाक्य
पृष्ठ न्यायवाक्य 'उद्देशानुसारेण लक्षणकथनम् ८ 'सहस्रशतन्याय' "सर्व काक्यं सावधारणम्' १२५
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न्याय-दीपिका
४५ बाध
५ न्यायदीपिकागत विशेष नामों तथा शम्दों को सभी नाम शब्द
पृष्ठ नाम शब्द अभियुक्त
७३,११३ प्रामाणिक अहंत ४०, ४१, ४४ ४५, ४६ प्रामाणिकपद्धति
०१.२ पालिश अहत्परमेष्ठी आगम ४६,११२,११२,१२६,१३१ बुध भागमाभास १२६, बौद्ध
१८, ६५, ८४, आचार्य
६२, ६४, १२८ ग्राचार्यानुशासन १२२ भाट्ट याप्त ४६, ११२, ११३ महाशास्त्र पाहत
२२. ८३ मीमांसक आहतमत औदीच्य
३२ योग १ ७, ३१, १२, १५ कपिल
४०, ४६ योगाग्रसर तन्त्रान्तर वाथागत २५, ८३ बर्द्धमान
१, १३२ दाक्षिणात्य
__ ३२ शास्त्र नयायिक २०, ६६, ७७, ७६, श्रुतकेवलि
८४, ८, ११४ सिद्ध, सिद्धपरमेष्ठी नैयायिकमत
. सिद्धान्त परमहितोपदेशक
११३ सुगत प्रवचन
१४ सौगत १८, २९, ३१ प्राभाकर
१६ संग्रहगन्ध
५, १२४
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परिशिष्ट
२३५ ६. न्यायदीपिका-गत वार्शनिक एवं लाक्षणिक शब्दों की सूची
पृष्ठ
शब्द नाम यकिदिवत्कर अतिव्याप्त प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष भनथ्यवसाय
६२, १०४
अनभ्यस्त अनात्मभूत अनिन्द्रिय प्रनिन्द्रियप्रत्यक्ष अनुभव अनुमान अनेकान्त अनेकान्तात्मकत्व अनेकान्तिक अन्तरित अन्यथानुपपत्ति अन्वयदृष्टान्त अन्वयव्यतिरेकी अनाधितविपयत्व अप्रसिद्ध अभिप्रेत अभ्यस्त अमुख्य प्रत्यक्ष अर्थ
पृष्ठ शब्द नाम १०२ अर्थपर्याय
७ अलक्ष्य ४० अवग्रह
६ अवाय १६ अवधिज्ञान ६ अविनाभाव ३३ अविशदप्रतिभासत्व ३३ प्रवेशद्य ५७ अब्याप्त ६५ असत्प्रतिपक्षस्व ११७ असम्भव
६८ प्रसिद्ध ८६, १.१ प्रामम
४१ आत्मभूत ६६ प्राप्त ७६न्द्रिय
८६ इन्द्रियप्रत्या
५ ईहा ६६ उदाहरण ६६ उदाहरणाभास १६ वहा ३४ उपनय ११६ उपनयाभास
___७८, ११:
११२
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न्याय-दीपिका
राब्द नाम उभयसिद्धधर्मी ऊह ऋजुसूत्रनय एकत्वप्रत्यभिज्ञान
७२, ८३
१२६
करण
७५
कालात्ययादिष्ट केवलज्ञान केवलव्यतिरेको केवलान्बयी क्रमभावनियम गुण
७६.
प्रानन्द ना
७४ न्याय ६३ पक्ष १२८ पक्षप्रमत्व ५६ पयायायिक १३ परत: ८७ परमपयायाधिक ३६ परार्थानुमान ६० परीक्षा ८६ परोक्ष ६२ पारमार्थिक १२१ प्रकरणसम ६२ प्रतिज्ञा ४१ प्रत्यक्ष १२२ प्रत्यभिज्ञान १२५ प्रमाण १०४ प्रमाणसिद्धधर्मों ७३ प्रमिति ३२ प्रामाण्य १३ मनःपर्यशान
१२५ मुख्य प्रत्यक्ष ८६, १११ युक्ति
११२ योग्यता
४५ लक्ष्य १४, २५ वस्तु
२४ लक्षण
हरार्थ
न्यायिक दृष्टान्त
धर्मों धारणा
धारावाहिक नय निगमन निगमनाभास निर्दोषत्व निर्विकल्पक नर्मल्य
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परिशिष्ट
२३७
१०० २६, ३०
विपक्ष
शब्द नाम
पुष्ट शब्द नाम नाद
म सन्दिाधासिद्ध विकल
३४ सन्निकर्ष विकल्पसिद्धधर्मी
७३ सपक्ष
८३ सपक्षसत्व विजिगीषकथा
७६ सप्तभनी विपक्षव्यावृत्ति
८३ समारोप विपर्यय
६ सविकल्पक বিকল্প
८ , १०१ सहभावनियम विशदप्रतिभासत्व
२४ संशय विशेष
१२० स्वादृश्यप्रत्यभिज्ञान वीतरागकथा
७९ साधन वाद्य
२४ साध्य वैसादृश्यप्रत्यभिज्ञान ५३ साध्याभास व्यञ्जनपर्याय
१२० सांव्यवहारिक वतिरेकदृष्टान्त
७६ सूक्ष्मार्थ व्यनिरे कस्याप्ति
७८ सामान्य व्यापक
१०६ स्पष्टत्व व्याप्ति ६२, ६३, १०४ स्मृति ज्याजिसम्प्रतिपत्ति १०४ स्वतः ध्याप्य
१०६ स्वरूपासिद्ध शक्य
६६ स्वार्थानुमान सकलप्रत्या
१२२ हेत्वाभास
१००
७६, ७८.६०
सत्
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२३८
न्याय-दीपिका
७. 'असाधारणधर्मवचनं लक्षणम्' ननु असाधारणधर्मवचनं लक्षणं कथं न समीचीनमिति चेन, उच्यते; तदेव हि सम्यक् लक्षणं यदकिशोषल्या यम्।। का लक्षणेऽच्याप्यादिदोषत्रयाभावः । तथा हि-अशेषरपि वादिभिर्दण्डी, कुण्डली, वासस्वी देवदत्त इत्यादी दण्डादिक देवदत्तस्म लक्षणमुररीकियते । परं दण्डादेरसाधारणधर्मत्वं नास्ति, तस्य पृथम्भूतत्वेनापृथग्भूतत्वासम्भवात् । अपृथग्भूतस्य चासाधारणधर्मत्वमिति तवाभिप्राय: । तथा च लक्ष्यकदेशेऽनात्मभूतलक्षणे दण्डादौ असाधारणमंत्वस्याभावादव्यातिरित्येव सात्पर्यमाश्रियोक्तं प्रथकृता "दण्डादेरतद्धर्मस्थापि लक्षणत्वादिति"।
किश्चाव्याप्ताभिधानस्य लक्षणाभासस्यापि शावलेयत्वादेसाधारणधर्मत्वातिव्याप्तिः । गोः शावलेयन्त्रम्, जीवस्य भव्यत्वं, मतिज्ञा नित्वं वान गवादीनां लक्षणमिति सुप्रतीतम्, शावलेयत्वस्य सर्वत्र गोप्ववृत्तः । भव्य. लस्य मतिज्ञानित्वस्य वा सर्वजीतेष्ववत्तमानत्वादध्याप्तः । परन्तु शावले. यवस्पं भव्यत्वादेर्वाऽसाधारणघमंत्वमस्ति । यतो हि तैपां गवादिभ्यो भिन्नेष्यवृत्तित्वात्। तदिनरावृत्तित्वं ह्यसाधारणमिति । ततः शावले. यत्यादावव्याप्ताभिधाने लक्षणाभासे प्रसाधारणधर्मस्यातित्र्याप्तिरिनि बोध्यम् ।
अपि च लक्ष्यमिवचनस्य लक्षणधर्मवचनेन सामानाधिकरप्याभावप्रसङ्गात् । तथा हि--सामानाधिकरण्यं द्विविधम् - शाब्दमार्थ च । पथोईयोरेका वृत्तिस्तयोरार्थ सामानाधिकरण्यम्, यथा रूप-रमयोः । ययोदयोः अब्दयोश्चक: प्रतिपाद्योऽर्थस्तयोः यान्दसामानाधिकरण्यम्, यथा घट. कलशशब्दयोः । सर्वत्र हि लक्ष्य-लक्षणभावस्थते लक्ष्यवचनलक्षणवचनयोः शान्दसामानाधिकरण्यं भवति, ताभ्यां प्रतिपाद्यस्यास्यकत्वात् । यथा उष्णोऽग्निः, ज्ञानी जीवः, सम्यग्ज्ञान प्रमाणम्, इत्यादौ उष्णः, मानी, सम्यमानम्, एतानि लक्षणवचनानि । अग्निः, जीवः, प्रमाणम्, एतानि म लक्ष्पचनानि । पत्र लक्षणवचनप्रतिपाद्यो योऽर्थः स एव लक्ष्यवचन
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परिशिष्ट
प्रतिपाद्यो न भिन्नोऽर्थस्तत्प्रतिपाद्यः । एवं लक्ष्यवचनप्रतिपाद्यो योऽर्थ: म एव लक्षणवचनप्रतिपाद्यो न भिन्नः, यतो हि उष्ण इत्युक्ते अनिरित्युक्न भवति, अग्निरित्युक्ते उष्ण इत्युक्तं भवति, इत्यादि बोध्यम् । ननश्चे सिद्ध यत्र कुत्रापि लक्ष्यलक्षणभाव: क्रियेत तत्र सर्वनाप लक्षणवचनलक्ष्यबचनयोः पशाब्दसामानाधिकरण्यम् । इत्थं च प्रकृते अमाचारणधर्मस्प लक्षणत्वस्वीकारे लक्षणवचनं धर्मवचनं लक्ष्यवचनं च भिवयनं स्यात् । न च लक्षणवचनरूपधर्मवचन-लक्ष्यवचनस्पर्मिवचनयोः भाब्दयामानाधिकरण्यमस्ति, ताभ्यां प्रतिपाद्याधस्य भिन्नत्वात् । धर्मवचनप्रतिपाद्यो हि धर्मः, धमिवचनप्रतिपाद्यश्च वर्मी, तो च परस्परं सर्वथा भिन्नौ । तथा पासाधारणधर्मस्य लक्षणत्वे न कुत्रापि लक्ष्यलक्षणभावस्थले लक्ष्यवचनलझणवचनयोः शाब्दसामानाधिकरण्यं सम्भवति, ततश्च शान्दसामानाघिकरण्याभाषप्रयुक्तासम्भवदोषः समापतत्येव । तस्मान्न साधारणामाधारणधर्ममुखेन लक्षणकरणं यौक्तिकम्, अपि तु परस्परव्यतिकरे येनान्मत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणमित्यकलङ्कम् ।
८. न्यायदीपिकायाः तुलनात्मकटिप्पणानि पृ. ५ पं० ५ 'उद्देश-लक्षणनिर्देश-परीक्षाद्वारेण' । तुलना-विविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्ति:-उद्दे को लक्षणं परीक्षा घेत्ति । तत्र नामयन पदार्थमावास्याभिधानमुद्देशः । तत्रोद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धो लक्षणम् । लक्षितस्य ययालक्षणमुपपद्यते न वेत्ति प्रमाण रवधारणं परीक्षा' -- न्यायभर० १-१-२। ___'नामधेयेन पदार्थानामभिधानमद्देशः । उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावतको धर्मो लक्षणम् । लक्षितस्य ययालक्षणं विचार: परीक्षा--- कन्दली पृ० ३६ । ___ 'त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्ति:--उद्देशो लक्षणं परीक्षेति नामधेयेन पदार्थाभिघाममुद्देशः, उद्दिष्टस्य तत्वव्ययस्थापको धर्मो लक्षणम, लक्षितस्य तल्लक्षणमुपपद्यते न वेति विचार: परीक्षा-न्यायमं० पृ० ११ ॥
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२४०
म्याय-दीपिका
___ 'विधा हि शास्त्राणां प्रवृत्ति:-उद्देशः, लक्षणम्, परीक्षा चेति । तत्र नाममात्रेणार्थानामभियानमुद्देशः । उद्दिष्टस्प स्वरूपव्यवस्थापको धर्मों लक्षिणम् । अ६ अस्व लक्षितस्य च यथावल्लक्षणमुपपद्यते न वा' इति प्रमाणतोऽर्थावधारणं परीक्षा'-न्यायकुमुद पृ० २१ ।
'मी हि शास्त्रस्य प्रश्नत्ति:-उद्देशो लक्षणं परीक्षा च । तत्र नामधेयमात्रकीत्तनमुद्दे श:...। उद्दिष्टस्यासाधारणधर्मवचनं लक्षणम् ।। लक्षितस्य पदमित्वं भवति नत्थं इति न्यायत: परीक्षणं परीक्षा'-प्रमाणमो० पृ० २।
'तदेतद्व्युत्याद्यद्वयं प्रति प्रमाणस्योद्दे शलक्षणपरीक्षा प्रतिगायन्ते, दशास्त्रप्रवृत्तेस्त्रिविधल्वात् । तत्रार्थस्य नाममात्रकथनमुद्देशः, उद्दिष्टस्यासाधारणस्वरूपनिरूपणं लक्षणम् । प्रमाणबलात्तल्लक्षणविप्रतिपनिपक्षनिरासः परीक्षा'-लघीय० तारपर्य० पृ० ६ ।
'नाममात्रैण वस्तुसंकीर्तनभुट्टे शः । यथा 'द्रव्यम्' 'गुणाः' इति । असाधारणधमों लक्षणम् । यथा गन्धत्वं पृथिव्याः । लक्षितम्य लक्षणं सम्भवति न वेति विचारः परीक्षा'—सर्कसंग्रहपकृत्य पृ० ५।
पृ० ६ पं० १ 'परस्परध्यतिकरे'। तुलना-'परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम् । हेम-श्यामिकयोवर्णादिविशेषवन्'-- तस्वार्यश्लोक पृ० ३१८ ।
पृ० ६ पं० ४ 'द्विविध' । तुलना---'सद्विविधम्, यात्मभूतमनारमभूतविकल्पात् । तत्रात्मभूतं लक्षणमग्नेरुष्णगुणवत्। अनात्मभूत देवदत्तस्य दण्डवत्'-तस्वार्थश्लोक पृ० ३१८ ।
पृ० ६ पं० २ सम्यग्ज्ञान' । तुलना-'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं प्रमाणत्या. न्यथानुपपत्तेः'-प्रमाणपरीक्षा पृ० १, प्रमाणनि० पृ. १ ।
प० ६ ० ६ संशय:' । तुलना-'संशयस्तावत प्रसिद्धानेकविशेषयोः सादृश्यमात्रदर्शनादुभयविशेषानुस्मरणादधर्माच्च किस्विदिति उमयावलम्बी विमर्शः संशयः-प्रशस्तपादभा० पृ० ५५, २६ ।
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परिशिष्ट
भानाविनशः संशय,'- ७ , अमरजीभयकोटिस्पर्शी प्रत्ययः संशयः। ननुभयस्य भावे वस्तुनि उभयान्तपरिमर्शनशीलं ज्ञानं सर्वात्मना शेत इवात्मा यस्मिन् सति स संशयः, यथा अन्यकारे दूगदूध्वकिारवस्तूपलम्भात् साधक-बाघकप्रमाणाभावे मति 'स्थाणुर्दा पुरुषो वा' इति प्रत्ययः ।' प्रमाणमी० पृ० ५।
पृ०१ पं०७ स्थाणुपुरुष' । तुलना---स्थाणुपुरूपयोगीतामात्रमादृश्यदर्शनात वादिविशेषानुपलब्धितः स्थाणुत्वादिसामान्यविशेपानभिव्यक्तावुभयविशेषानुस्मरणादुभयाकृष्यमाणस्यारमनः प्रत्ययो दोलायने 'विःनु खल्वयं स्थाणुः स्यात्पुरुपो वा इति'--प्रशस्तपा० भा०प० ८६, ७ ।
पु० ६ पं०९ 'विपरीतक' । तुलना-'मतस्मिस्तदेवेति विपर्ययः,यथा गव्येवाश्व: ।-प्रशस्तपा० भा० पृ० ८८ । 'प्रतस्मिस्तदेवेति विपर्ययः । यत् ज्ञाने प्रतिभासते तद्रूपरहिते वस्तुनि 'तदेव' इति प्रत्ययो विपर्यासरूपस्वाद्विपर्ययः, यथा धातुवैषम्यान्मधुरादिषु द्रव्येषु तिक्तादिप्रत्ययः, तिमिरादिदोषात् एकस्मिन्नपि चन्द्रे विचन्द्रादिप्रत्ययः । नौयानात् अगच्छत्स्वपि गच्छत्प्रत्ययः, प्राशुभ्रमणादलातादायक्रेऽपि चक्रप्रत्यय इति'प्रमाणमी० पृ० ५ ।
पृ० ६ पं०११ "किमित्या'। तुलना-"किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः, प्रशस्तपा० भा० पू० ६ । 'विशेषानुल्लेख्यनम्यवसायः । दूरान्धकारादिवशादसाधारणधर्मादमशरहितः प्रत्ययः अनिश्चयात्मकत्वादनध्यबसायः, यया 'किमेतत्' इति-प्रमागभी० पृ० ५।
पृ० ११ पं. १० 'नन्वेव' । तुलना-'ननु च तस्त्रियायामस्त्येवाचेत. नस्यापीन्द्रियलिङ्गादेः करणत्वम्, पापा प्रमीयते, धूमादिना प्रमीयते इति । तत्रापि प्रमितिक्रियाकरणत्वस्य प्रसिद्धेरिति'-प्रमाणनिः पृ० १ 'लोकरता. बद्दीपेन मया दृष्टं चक्षुषाऽवगतं घूमेन प्रतिपन्न शब्दाग्निश्चितमिति व्यवहरति ।'-न्यायवि. वि. १-२, पृ० ५७ ।
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२ ४२
न्याय-दीपिका
पृ० १२ पं० १३ पुनरुपचारः' तुलना--प्रवेतनस्य स्विन्द्रियलिङ्गादेस्तव करणत्वं गवाक्षादेरिवोपचारादेव । उपचारश्च तद्द्व्यवच्छित्तौ सम्यग्ज्ञानस्येन्द्रियादिसहायतया प्रवृत्तेः - प्रमाणनि० १० २ ।
पृ० १६ पं० ७ 'अभ्यस्ते' । तुलना--'तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च'परीक्षामु० १-१३ । 'स्वयमभ्यस्तविषये प्रमाणस्य स्वतः प्रामाण्यसिद्धः सकलविप्रतिपत्तीनामपि प्रतिपतुरभावात् प्रन्यथा तस्य प्रमेवे निस्संशयं प्रयन्ययोग | वरूण क निश्चयात् । नग्निश्चयनिमित्तस्य च प्रमाणान्तरस्याभ्यस्तविषये स्वतः प्रमाणत्वसिद्ध रनवस्था परस्पराश्रयणयोरनवकाशात् । 'प्रमाणप० पृ० ६३ ।
१० १६० १ प्रमाणत्वेनाभिमते । तुलना - 'ध्याप्रियमाणे हि पूर्वविज्ञानकारणकलापे उत्तरेषामप्युत्पत्तिरिति न प्रतीतित उतरत्तितो वा धारावाहिकविज्ञानानि परस्परस्यातिशेरत इति युक्ता सर्वेषामपि प्रमापता ।' प्रकरण१० पृ० ४३, बृहती पृ० १०३ ।
१० १६ ० ३ 'उत्तरोत्तरक्षण' । तुलना--' न च तत्तत्कालकलाविशिष्टतया तत्राप्यनधिगतार्थत्वमुपपादनीयम्, क्षणोपाधीनामनाकलनात् । न चाज्ञातेष्वपि विशेषणेषु तज्जनितविशिष्टता प्रकाशते इति कल्पनीयम्. स्वरूपेण तज्जननेऽनागतादिविशिष्टतानुभवविरोधात् । - न्यायकुसु० ४-१, पू. २ । 'न च कालभेदेनानधिगतगोचरत्वं धारावाहिकज्ञानानामिति युक्तम् । परमसूक्ष्माणां कालकलादिभेदानां पिशितलो बने रस्मादृशं रनाकलनात् । - न्यायवासिक तात्पर्य० पृ० २१ । 'धारावाहिकेष्वपि उत्तरोत्तरेषां कालान्तरसम्बन्धस्यागृहीतस्य ग्रहणाद् युक्तं प्रामाण्यम् । सन्नपि कालमेवोऽतिसूक्ष्मत्वान्न परामृश्यत इति शास्त्रदी० पृ० १२४ (अत्र पूर्वपक्षेणोल्लेखः) । ' धारावाहिकज्ञानानामुत्तरेषां पुरस्तात्तनप्रतीतार्थविषयतया प्रामाण्यापाकरणात् । न च कालभेदावसायितया प्रामाभ्योपपत्तिः । सतोऽपि काल भेदस्या तिसौक्ष्म्यादन व ग्रह्णात् ।- प्रकरणप० पृ० ४० ।
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परिशिष्ट
पृ० २०५० ५ 'न तु करणं' । तुलना - 'न तत् (ईश्वरज्ञानं) प्रमाकरणमिति विप्यत एव, प्रमया सम्बन्धाभावाः । तदाश्रयस्य तु प्रमा. तृत्वमेतदेव यत् तत्पमवायः ।'-न्यायकुमु. ४-५, पृ. २५
पृ. २३ पं० ३ 'विशवप्रतिभासं'। तुलना-'प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं...' -लघीय. का. ३, प्रमाप्पसं० का० २, परीक्षामु० २.१, तत्त्वार्यश्लो. पृ. १८१ । 'विशदज्ञानात्मक प्रत्यक्षं प्रत्यक्षत्वात्, यत्त न विशदलानास्मकं तन्न प्रत्यक्षम्, यथाऽनुमानादिज्ञानम्, प्रत्यक्षं च विवादाध्यासितम्, तस्माद्विशदज्ञानात्मकम् ।-प्रमाणप० १० ६७ । प्रमेयक० २-३ । 'तत्र यस्पष्टवभासं तत्प्रत्यक्षम् ।'-.-न्यायाय वि. लि. ५० ५३९ । प्रमाणनि० १० १४ । “विशदः प्रत्यक्षम्'-प्रमागमो० पृ० है 1 ___ पृ. २४ पं० ५ वंशचं' । तुलना --'प्रतीत्यन्त राव्यवधानेन विशेष वसया वा प्रतिभामनं वंशथम् ।' -परीक्षामु० २-४ । 'अनुमानाधिक्यन विशेषप्रकाशनं स्पष्टतम्'--प्रमाणनयत २-३ । जनतर्फभा० पृ० २ । प्रमाणान्तरानपेक्षेदन्तया प्रतिभासा वा वैशद्यम् ।' -प्रमागमी० पृ० १० ।
पृ० २६ पं० ४ 'अन्वयन्यतिरेवा' । मुलना-'तदन्तव्यतिरकानुविधानाभावाच्च केशोण्डकज्ञान वन्नवतश्चरज्ञानवच्च'—परीक्षामु० २.७।
पु० २७ पं. ३ 'घटाजन्यस्यापि'। तुलना - अनजन्यमपि तत्यकाशक प्रदीपवत्'-परीक्षामु. २-८ । 'न खलु प्रकाश्यो घटादि: स्वप्रकाश प्रदीपं जनयति, स्वकारणकलापादेवास्योगत्ते:'-प्रमेपकर २-६ ।
१०२६ पं० ६ 'चक्षुषो विषयप्राप्ति' । तुलना-'स्पर्शनेन्द्रियादिवच्चक्षुषोऽपि विषयप्राप्यकारिवं प्रमाणात्प्रसाध्यते । तथा डि-प्राप्तार्थप्रकाशकं चक्षुः बाह्यन्दियत्वात्स्पर्शनन्द्रियादिवत् ।'-प्रमेयक० २.।। 'अस्स्येव चक्षुषस्तद्विषयेण सन्निकर्षः, प्रत्यक्षस्य तवासत्त्वेऽपि अनुमानतस्तदवगमात् । तच्चेदमनुमानम्, चक्षुः सन्निकृप्टमर्थ प्रकाशयति वायन्द्रियत्वात्स्वगादिवत्'-प्रमाणनि १० १८ । न्यायकुमु• पृ. ७५ ।
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ग्याय-दीपिका
पृ० ३०५० ३ 'चक्षुरित्यत्र' । तुलना-'चक्षुश्चात्र धमित्वेनोपान गोलफस्त्रभाव रश्मिरूपं वा ? तत्राद्यविकल्पे प्रत्यक्षबाधा; अर्थ देशपरिहारेण पारीरप्रदेश एवास्योपलम्भात. अन्यथा तद्रहितत्त्वेन नयनपक्ष्मप्रदेशस्योपलम्भ: स्यात् । अथ रश्मिरूपं चक्षुः, तहि पमिणोऽसिद्धिः। न खलु रश्मयः प्रत्यक्षतः प्रतीयन्ते, प्रवत्तत्र तत्स्वरूपाप्रतिभासनात् ।' प्रमेयक० २.४ । 'यत्र न तावद्गोलकमेव चक्षुस्तविषयसन्निकपंप्रतिशानस्य प्रत्यक्षेण बाधनात्तेन तत्र तदभावस्यैव प्रतिपत्तेतोश्च तद्वामितकम. निर्देशानन्तरं प्रयुक्ततया कालात्ययापदिष्टतोपनिपातात् ।.., रश्मिपरिकरितमिति चेन्न, तस्याद्याप्यसिद्धत्वेन रूपादौनमित्यादिहतोराश्यासिद्धदोपात् ।'—प्रमाणनि० पृ. १८
पृ ३१ पं० ६ 'तत्प्रत्यक्षं द्विविध' तुलना- प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं मुख्यसंध्यवहारतः'-लघीय. काः २ । 'तच्चोस्तप्रकारं प्रत्यक्षं मुख्यसाव्यवहारिकप्रत्यक्षप्रकारेण द्विप्रकारम्'-प्रमेयक पृ० २२६ । तच्च प्रत्यक्ष द्विविध सांव्यवहारिक मुख्यं चति'-प्रमाणनि० पृ० २३ ।
पृ० ३२ पं० १ अवग्रहः' ! तुलना-'विषयविमिमनिपालानन्तर. माद्यग्रहणमवग्रहः' - लघीय. स्वो का० ५। 'तत्राव्यक्त पथास्वमिन्द्रिः विषयाणामालोचनावधारणमत्रग्रहः'-तत्त्वार्याधिक भा० १-१५॥ 'विपयविधिसग्निपातसममानन्तरमाद्यग्रहणमवग्रहः । विषयविषयि सन्निपाते सति दर्शनं भवति, तदनन्तरमर्थस्य ग्रहणमवग्रहः ।'—सार्थसिद्धि १-१५ । तत्त्वार्थवा० १-१५ । पबला पु० १, पृ. ३५४ । प्रमाणप० पृ० ६८ । प्रमाणमी० पृ० १-१.२६ ।
पृ० १२ पं० ३ 'ईहा' । तुलना-विशेषाकांक्षा ईहा-सघीय. का. ५ । 'अवगृहीतेथें विषयार्थकदेशाच्छेषानुगमनं निश्चयविशेषजिज्ञासा चेष्टा ईहा ।'-तस्वार्थाषि० भा० १-१५ । अवगृहीतेऽयं तद्विशेषाकाक्षणमीहा"- सर्वार्थसि० १-१५ । तस्वार्थवा. १-१५ । तस्वासो पृ. २२० । प्रमाणप० पृ० ६८ प्रमाणमी० १-१ २७ । जनतभा० ५० ५ ।
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पांना
पृ० ३२ १० ६ 'अवायः' । नुनमा - 'अबायाँ विनिश्चय. ---लपोय का० ५ । 'विशेषनिर्ज्ञानाद्याथात्म्यावगमनमवायः ।'--सर्वायसि० १.१५ । तत्त्वार्थवा० १-१५ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० २२० । प्रमाणप० पृ०६८ । प्रमाणमी० १-१.२८ । जैनतर्फभा० पू० ५।
पु० ३३ पं० १ 'धारणा' । 'धारणा स्मृतिहेनु:' - लषोय. का) ६ । धारणा प्रतिपत्तियथास्वं मत्यवस्थानमवधारणं च धारणाप्रतिपत्तिः अबघारणमवस्थान निश्चयोऽवगमः अवबोध इत्यनर्थान्तरम् । तत्वार्धाधिक ira १-१५ । 'प्रथत्तस्य कालान्तरे विस्मरण कारणं वारणा'—सर्वासित १-१५ । तत्वार्यवा० १.१५ प्रमाणप० पृ० ६८ । प्रमाणमो. १.१.२६ । जनसभा०प० ५ । 'महोदय व कालान्त र विस्मरणकारणं हि धारणाभिधानं शानम् | मनन्नवीर्योऽगि तथानिर्णीतस्य कानान्तरे तयंव स्मरणहेतुः संस्कारो धारणा इति'—स्या० रत्ना० पृ० ३४६ ।
१० ३८ पं० ६ 'कथं पुनरेतेषां'। सुलना –कयं पुनरलक्षाश्रितम्य झानस्यामं प्रत्यक्षव्यपदेश इति चन्न, अक्षाथितत्वं प्रत्यक्षाभिधानस्य पुपत्तिनिमित्तं गतिक्रियेव गोशब्दस्य ! प्रवृतिनिमित्तं वेवार्थसमकायिनाक्षाभितत्वेनोपलक्षितमयंसाक्षात्कारित्वं मतिक्रियोगलक्षिरमोत्ववर गोशब्दस्य अन्यद्धि राब्दस्य व्युत्पत्तिनिमितं अन्यद्वान्यम् । अन्यथा गन्छन्वेव गौनारित्युच्येत नान्या व्युत्पत्तिनिमित्ताभावान् । 'तथेहकेवलजाने व्युत्पनिनिमित्तस्यामाथितत्वस्याभावेऽषि प्रनिनिमित्तस्यार्थसाक्षात्कारित्वस्य भावात् प्रत्यक्षाभियानप्रवृत्ति रविरुद्धा।'-लघुसज्ञ०१० ११६ । न्यायकु० प० २६ ।
पृ० ३६ पं० १ ‘अक्ष्णोति' तुलना-'अक्ष्णोति व्याप्नोति जानानीयक्ष पात्मा, तमेव प्राप्तक्षयोपशम प्रक्षीणावरणं वा प्रतिनियनं प्रत्यक्षम् ।' सर्वार्थसि. १.१२ । तस्यार्यवा० १.१२ । तत्त्वार्थलो० १.१२ । प्रमाणप. पुरा ६८ । न्यायकु पृ० २६ । 'न क्षीयते इत्यक्षी जीवस्त प्रति वर्तते इति प्रत्यक्षम्'-प्रमाल. पृ० ४ ।
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न्याय-दीपिका
१. ३६ पं. २ विस्तारणलव । तुलना--विस्मरणशोलो देवानां. प्रियः प्रकरणं न लक्षयति''-वादन्याय पृ०७६ ।।
पृ० ३६ पं० ५. 'अक्षेभ्यः परावृत्त । तुलना-व्यतीन्द्रियविषयव्यापार परोक्षम्'- सर्वार्थसि० १-१२ । : पु० ५१ पं०३ 'परोक्षम्' । तुलना-जरदो विण्णाण तंतु परोक्ष त्ति भगिदमत्थेसु'-प्रवचनसागा०५६ | पराणोन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशीपदेशादि च बाह्यनिमित्तं प्रतीत्य तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्य पात्मनः उत्पद्यमान मतिश्रुतं परोक्षामित्याख्यायते ।'-सर्वार्थसिक १:११ । 'उपात्तानुपात्तपरप्राधान्यारवगमः परोक्षम्'-तत्त्वार्यवा०प०३८ । 'इतरस्य परोक्षता -लघो० स्वरे० का० ३ । 'उपातानुपातपाघान्यादवगमः परोक्षम् । उपातानीन्द्रियाणि मनश्च, अनुपात्तं प्रकाशोपदेशादि, तत्प्राधान्यादवगमः परोक्षम् । यथागति शक्त्युपेतस्यापि स्वयं गन्तुमसमर्थस्य यष्टघाद्यबलम्बनप्राधान्य गमनम् तथा मतिश्रुतावरणक्षयोपशमे सति शस्वभावस्थात्मनः स्वयमानुपलन्धुमसर्थस्य पूर्वोक्तप्रत्ययप्रधानं ज्ञानं परायत्तत्वात् परोक्षम् ।'-घवला पु. ६. पृ. १४३-४४ । 'पराणिन्द्रियाणि अालोकादिश्च, परेषामायत्त ज्ञान परी क्षम्'-धवला पु. १३, पृ. २१२ । 'अक्षाद् प्रात्मनः परावृनं परोक्षम्, ततः परिन्द्रियादिभिरुक्ष्यते सिक्यते अभिवद्धयते इति परोक्षम् । तत्त्वार्यश्लो पु० १२२ । 'परोक्षविशदज्ञानात्मकम्'–प्रमाणप० प० ६६ । 'परोक्षामितरत्-परीक्षामु० ३.१ । पररिन्द्रियलिङ्गशक्षा सम्बन्धोऽस्येति परोक्षम् ।'-प्रमालक्ष० पृ० ५ । 'भवति परोक्षं सहायसापेक्षम् । पञ्चाध्यायी श्लो० ६६६ । 'अविशदः परोक्षम् ।'-प्रमाणमी० पृ० ३३।
पृ० ६५ पं० १ प्रत्यक्षपृष्ठभावी' । तुलना—'यस्यानुमानमन्तरेण सामान्य न प्रतीयले भवतु तस्यायं दोषोऽस्माकं तु प्रत्यक्षपृष्ठभाविनाऽपि विकल्पेन प्रकृतिविभ्रमात् सामान्य प्रतीयते ।'-हेतुषि० टी० लि. प० २५ B I 'देशकालव्यक्तिव्याप्त्या च व्याप्तिहच्यते । यत्र यत्र धूमस्तत्र तर अग्निरिति । प्रत्यक्षपृष्ठश्च विकल्पो न प्रमाणे प्रमाणव्यपारानुकारी
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________________ परिशिष्ट 247 स्वसौ इष्यते ।'-मनोरपन० पू०७ / 'प्रत्यक्षपृष्ठमाक्निो विकल्पस्यापि तद्विषयमात्राध्यवसायत्वात् सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्राहकत्वाभाव: / ' प्रमेय50 3-13 / 'अथ प्रत्यक्षपृष्ठमाविविकल्पात् साकल्येन साध्यसाधनभावप्रतिपत्तेर्न प्रमाणान्तरं तदर्थ मृग्यमित्यपरः ।-प्रमेयर० 10 37 / 'ननु पदि निर्विकल्पकं प्रत्यक्ष विचारक तहिं तत्पृष्ठभावी विकल्पो व्याप्तिं गृहीष्यसीति गे, , निरिकतीन टन प्रहरी कागेन होसत्वात् निर्विकल्पकगृहीतार्थविषयत्वाद्विकल्पस्य ।'-प्रमाणमी. पृ०३७ / 'प्रत्यक्षपुष्ठभाषिविकल्परूपत्वान्नायं प्रमाणमिति बौद्धाः / ' जनतर्कभा० पृ०११ / पृ० 65 पं० 2 स हि विफल्प:' / तुलना-'तरिकल्पनानं प्रमाणमन्यथा वेति ? प्रथमपो प्रमाणान्तरमनुमन्तव्यम्, प्रमाणद्वयेऽनन्तर्भावात् / उत्तरपक्षे तु न ततोऽनुमान व्यवस्था / न हि व्याप्तिमानस्याप्रामाण्ये तत्पूकमनुमानं प्रमाणमास्कन्दति सन्दिग्घादिलिङ्गादप्युत्पद्यमानस्य प्रामाण्य प्रसङ्गात् ।'–प्रमेयर० पृ० 38 / 'स तहि प्रमाणमप्रमाणं वा ? प्रमागत्वे प्रत्यवानुमानातिरिक्तं प्रमाणान्तरं तितिक्षिसव्यम् / अप्रामाण्ये तु ततो ध्याप्तिग्रहणश्रद्धा पण्डात्तनयदोहृदः ।'-प्रमाणमी० पृ० 37 / पृ० 130 50 5 स्वतन्त्रतया' / तुलना-'ते एते गुणप्रधानतया परस्परतन्त्राः सम्यग्दर्शनहेतवः पुरुषार्थक्रियासाधनसामर्थ्यात्तन्त्वादय इव यथोपायं विनिवेश्यमानाः पटादिसंज्ञाः स्वतन्त्राचासमर्थाः "निरपेक्षेषु तन्त्यादिषु पटाविकार्य नास्तीति / ' सर्वार्थसि. 1-33 / तत्त्वार्थवा०१-३३ "मियोऽनपेक्षा: पुरुषार्यहेतुनशा न थांशी पृथर्गास्त तेभ्यः / परस्परेशाः पुरुषार्थहेतुर्दष्टा नयारतददासि कियायाम् / / ' “अपत्यनुसा. का० 51 / पू० 130 पं०७ "मिथ्यात्वस्यापि तुलना—एवमेते शब्दसमभिरूदेवभूतनयाः सापेक्षाः सम्यक् परस्परमनपेक्षास्तु मिय्येति प्रतिपादयति इतोऽन्योन्यमपेक्षायां सन्तः शन्दादयो नया: / ... निरपेक्षा: पूनस्ते स्युस्सदाभासाविरोषतः // सस्वार्थश्लो०५० 274 /