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________________ सम्पादकीय १५ प-यह पं. परमानन्दजीको प्रति है । जो १६ ॥ पत्रों में समाप्त है । वि. सं. १९५७ में सीताराम शास्त्रीकी लिखी हुई है। इसकी प संज्ञा रक्खी है। ये चारों प्रतियां प्राय: पुष्ट कागज पर हैं और अच्छी दक्षामें है । प्रस्तुत संस्करणको आवश्यकता और विशेषताएं पहिले संस्करण अधिकांश स्खलित और मशुद्ध थे तथा न्यायदीपिका की लोक जताशन कलकत्ताकी जैनन्यामप्रथमा परीक्षामें वह बहुत समय से निहित है । इषर माणिकचन्द परीक्षालय और महासभा के परीक्षालय में भी विशारदपरीक्षा में सन्निविष्ट है। ऐसी हालत में न्यायदीपिका जैसी सुन्दर रचनाके म व Best शुद्ध एवं सर्वोपयोगी संस्करण निकालनेकी अतीव श्रावश्यकता थी । उसीकी पूर्तिका यह प्रस्तुत प्रयत्न है। मैं नहीं कह सकता कि कहाँ तक इसमें सफल हुआ हूँ फिर भी मुझे इतना विश्वास है कि इसमें अनेकोंको लाभ पहुँचेगा प्रोर जैन पाठशालाशों के प्रध्यापकोंके लिये बड़ी सहायक होगी। क्योंकि इसमें कई विशेषताएँ हैं । पहली विशेषता तो यह है कि मूलग्रन्थको शुद्ध किया गया है। प्राप्त सभी प्रतियों के श्राधारसे अशुद्धियोंको दूर करके सबसे अधिक शुद्ध पाठको मूलमें रखा है और दूसरी प्रतियों के पाठान्तरों को नीचे द्वितीय फुटनोटमें जहाँ आवश्यक मालूम हुआ दे दिया है। जिससे पाठकों को शुद्धि शुद्धि ज्ञात हो सके। देहलीकी प्रतिको हमने सबसे ज्यादा प्रमाणभूत और शुद्ध समझा है । इसलिये उसे प्रादर्श मानकर मुख्यतया उसके ही पाठों को प्रथम स्थान दिया है। इसलिये मूलग्रन्थको अधिक से अधिक शुद्ध बनानेका यथेष्ट प्रयत्न किया गया है। अवतरण वाक्यों के स्थान को भी ढूंढ़कर ] ऐसे ब्रेकेटमें दे दिया है अथवा खाली छोड़ दिया है। दूसरी विशेषता यह है कि न्यायदीपिकाके कठिन स्थलोंका खुलासा करनेवाले विवरणात्मक एवं संकलनात्मक 'प्रकाशाख्य ं संस्कृतटिप्पणीकी साथमें योजना की गई है जो विद्वानों और छात्रों के लिये खास उपयोगी सिद्ध होगा : [
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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