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तीसरा प्रकाश
२०५ में पांचरूपता के न होने पर भी 'कृत्तिकोदय' प्रावि में हेतुला है। कहा भी है :
"अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र येण किम् ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥" [ ] बहाँ अग्यथानुपपति है वहाँ तीन रूपों के मानने से क्या ? पोर 5 यहाँ प्रन्ययानुपपत्ति नहीं है वहाँ तीन रूपों के सद्भाव से भी क्या ? तात्पर्य यह कि ग्रहष्य अन्यथानुपपति के बिना अभिमत फल का सम्पादक नहीं है-व्यथं है। यह रूप्य को मानने वाले बोडों के लिए उत्तर है। और पांच रूपों को मानने शले नयापिकों के लिए तो निम्न उत्तर है :
10 "अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र कि तत्र पञ्चभिः ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः'।" [प्रमाणप० पृ० ७२] महा अन्यथानुपपत्ति है वहां पांच रूपों के मानने से क्या ? और जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहाँ पनि रूपों के सद्भाव से भी क्या ? मसलब यह कि अन्यथामुपपत्ति के बिना पांच रूप सर्वथा अन्यथा- 15 सिद्ध हैं-निष्फल हैं
हेतु के भेदों और उपभेदों का कयन-- यह प्रन्ययानुपपत्ति के निश्चपरूप एक लक्षण वाला हेत संक्षेप में दो तरह का है-१ विषिरूप पोर २ प्रतिषेषरूप । विषिरूप हेतु के भी दो भेद हैं-१ विधिसापक मौर २ प्रतिषेष- 2
१ यह कारिका प्रमाण-परीक्षा में कुछ परिवर्तनके साथ निम्न प्रकार उपलब्ध है :
अन्यथानुपपन्नत्वं रूपः किं पञ्चभिः कृतम् । नान्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पञ्चभिः कृतम् ॥