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________________ तीसरा प्रकाश १८६ सिद्ध और उभयसिद्ध धर्मों में साध्य यथेच्छ होता है-उसमें कोई नियम नहीं होता। किन्तु विकल्पसिद्ध धमीं में सद्भाव और असद्भाव ही साध्य होते हैं, ऐसा नियम है। कहा भी है-"विकल्पसिद्ध प्रमों में सत्ता और प्रसत्ता ये दो ही साध्य होते हैं।" इस प्रकार दूसरे के उपदेश की अपेक्षा से रहित स्वयं जाने गये साधन से पक्ष में रहने रूप से 5 साध्य का जो ज्ञान होता है यह स्वार्थानमान है, यह दृढ़ हो गया। कहा भी है---"परोपदेश के बिना भी दृष्टा को साधन से जो साध्य का काम होता है उ स्थापित करते हैं।' परार्थानुमान का निरूपणवूसरे के उपवेश को अपेक्षा लेकर जो साधन से साध्य का ज्ञान 10 होता है उसे परार्थानुमान कहते हैं । तारपर्य यह कि प्रतिज्ञा और हेतुरूप परोपदेश की सहायता से श्रोता को जो साधन ले साध्य का शान होता है यह परार्थानुमान है। जैसे-'यह पर्वत पग्निवाला होने के योग्य है, क्योंकि धूम वाला है।' ऐसा किसी के साक्य-प्रयोग करने पर उस वाक्य के अर्थ का विचार और पहले प्रहण को हुई व्याप्ति का 15 स्मरण करने वाले श्रोता को अनुमान शान होता है । और ऐसे अनुमान नान का ही नाम परार्शनमान है। 'परोपदेश वाक्य ही परार्थानुमान है । अर्थात जिस प्रतिशादि पञ्चावयवरूप वाक्य से सुनने वाले को अनुमान होता है वह वास्प ही परार्थानुमान है ।' ऐसा किन्हीं (नयायिकों) का कहना है । पर उनका 20 यह कहना ठीक नहीं है। हम उनसे पूछते हैं कि वह वाक्य मुख्य अनुमान है अपवा गोण अनुमान ? मुल्य अनुमान तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि वाक्य प्रजानरूप है। यदि वह गौण अनुमान है, तो 'उसे हम मानते हैं, क्योंकि परार्थानुमान नान के कारण–परानुमान वाच्य में परार्थानुमान का व्यपदेश हो सकता है। जैसे--'यो मायू. 25
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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