SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न्याय-दीपिका १०. सन्निकर्ष जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि नयाधिक भोर दशेषिक सनिकर्षको प्रत्यक्षका स्वरूप मानते हैं । पर वह निर्दोष नहीं है। प्रथम तो, वह अजानरूप है और इ: यह विलित नाम के प्रति कमप्रमाण ही नहीं बन सकता है तब वह प्रत्यक्षका स्वरूप कैस हो सकता है ? दुसरे, सग्निकर्षको प्रत्यक्षका लक्षण मानने में अव्याप्ति नामका दोप प्राता है; क्योंकि चक्षुरिन्द्रिय बिना सनकर्षके ही रूपादिका ज्ञान कराती है । यहाँ यह कहना भी ठीक नहीं है कि वानिन्द्रिय अर्थको प्राप्त करके पज्ञान' कगती है । कारण, चक्षरिन्द्रिय दूर स्थित होकर हो पदार्थमान कराती हई प्रत्यक्षादि प्रमागास प्रतीत होती है । तीमा प्राप्नमे प्रत्यक्षज्ञानके अभावका प्रसङ्ग पाता है, क्योंकि प्राप्तके इन्द्रिय या इन्द्रियार्थसन्निकर्षपूर्वक ज्ञान नहीं होता । अन्यथा सर्वाना नहीं बन मकती है । कारण. तुम्मादि पदार्थों में इन्द्रियाअंसन्निकार्य सम्भव नहीं है। अतः सन्निका अध्याप्त होने तथा अज्ञानात्मक होनम प्रत्यक्षका नक्षण नहीं हो सकता है। ११. सांधपहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय और अनिन्द्रिय नन्य ज्ञानको सामवहारिक प्रत्यक्ष माना गया है। 'साट्यवहारिक उसे इसनिाा कहते हैं कि नाकाम दूसरे दर्शनकार इन्द्रिय और मन सापेक्ष ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं। नास्तान में ना जो ज्ञान परनिरपेक्ष एवं प्रात्ममात्र सापेक्ष तथा पूर्ण निगल है वही ज्ञान प्रत्यक्ष है । अतः लोकव्यवहारको गमन्वय करनेकी दृष्टि से अक्ष जन्य ज्ञानको भी प्रत्यक्ष कहने में कोई अनौचित्य नहीं है । सिद्धान्तकी भाषाम तो उस १ सर्वार्थ सि० १.२ । तथा न्याविनश्चय का. १६७। २ "साव्यबहारिक इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम्-लघी० स्वो०का० ४।
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy