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________________ प्रस्तावना ३१ कारण तदध्यवसाय ये तीनों मिलकर अथवा प्रत्येक भी प्रमाणता नहीं हैं । क्योंकि अर्थ ज्ञानक्षणको प्राप्त न होकर पहले ही नष्ट हो जाता है और ज्ञान अर्थ के अभाव में ही होता है, उसके रहते हुए नहीं होता, इसलिए तदुत्पत्ति ज्ञान-प्रामाण्य प्रयोजक नहीं है। ज्ञान अमूर्त है, इसलिए उसमें प्राकार सम्भव नहीं है । भूत्तिक दर्पणादिमं ही आकार देखा जाता है | अतः तदाकारता भी नहीं बनती है। ज्ञानमे अर्थ नहीं और न अज्ञानात्मक है जिससे ज्ञानके प्रतिभासमान होने पर श्रर्थका भी प्रतिभाग हो जाय । अतः तदध्यम उत्पन्नही ताज तीनों बनते ही नहीं तब वे प्रामाण्यके प्रति कारण कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते हैं। अतएव जिस प्रकार अयं अपने कारणोंसे होता है उसी प्रकार ज्ञान भी अपने (इन्द्रिय-क्षयोपशमादि ) कारणों ने होता है'। इसलिए संवाद (अव्यभिचार ) को ही ज्ञानप्रामाण्यका कारण मानना सङ्गत और उचित है।' देवा यह मयुक्तिक निरूपण हो उत्तरवर्ती माणिक्यनन्दि, विद्यानन्द, प्रभाचन्द आदि सभी जैन नैयायिकोंके लिए आधार हुआ है। धर्मभूषण ने भी इसी पूर्वपरम्पराका अनुसरण करके बौद्धोंके अर्थानिककारण वाद की सुन्दर समालोचना की है। तत्कार्यं तदभाव एव भावात् तद्भावे चाऽभावान् भविष्य नार्थमारूप्यभूविज्ञानम् अमूर्त मूर्त्ता एव हि वर्पणादयः मुमुखादिप्रतिविम्बधारिणो दृष्टाः नामूर्त मूतंप्रनिविभून् प्रमुतं च ज्ञानम, मुत्तिधर्माभावात् । न हि ज्ञानेऽर्थोऽस्ति तदात्मको वा येन तस्मिन् प्रतिभासमाने प्रतिभासेत गब्दवत् । ततः तदध्यवसायो न स्यात् । कथमेतदविद्यमान त्रितयं ज्ञानप्रामाण्यं प्रत्युपकारकं स्वात् द्यलक्षणत्वेन ?" लघोष० स्वं ॥ ० का० ५८ । १ "स्वहेतु जनितोऽप्यर्भः परिच्छेद्यः स्वतो यथा । तथा ज्ञानं स्वहेतुत्थं परिवात्मकं स्वतः । - लघीय० का ० ५६ ।
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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