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न्याय-दीपिका
प्रमाणसे बाधित न होने के कारण सविकल्प का विषय परमार्ष (वास्तविक) ही है। बल्कि बौद्धों के द्वारा माना गया स्वलक्षण ही आपत्ति के योग्य है । अतः प्रत्यक्ष निर्विकल्पकरूप नहीं है -सविकल्पकरूप ही है।
यौनाभिता सनिक का निराकरण --
नयायिक और बोषिक सग्निकर्ष ( इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध ) को प्रत्यक्षा मानते हैं। पर वह ठीक नहीं है। क्योंकि सन्निकर्ष प्रचेतन है। यह प्रमिति के प्रति करण कसे हो सकता है ?
प्रमिति के प्रति जब करण नहीं, तब प्रमाण जैसे ? और जब प्रमाण 10 ही नहीं, तो प्रत्यक्षा कैसे ?
दूसरी बात यह है, कि चक्षु इन्द्रिय रूपका नान सलिकर्ष के दिमा हो कराती है, क्योंकि यह अप्राप्य है । इसलिए सन्निकर्ष के प्रभाव में भी प्रत्यक्ष ज्ञान होने से प्रत्यक्षा में सन्निकरूपता ही नहीं है । चक्षु इन्द्रिय को जो यहाँ अप्राप्पकारी कहा गया है वह भसिस नहीं है । कारण, प्रत्यक्षा से चक्षु इन्द्रिय में प्राप्यकारिता ही प्रतीत होती है। ____ शंका-यद्यपि चक्षु इन्द्रिय की प्राप्पकारिता (पदार्थ को प्राप्त करके प्रकाशित करना ) प्रत्यक्षा से मालूम नहीं होती तथापि उसे
परमाण की तरह अनुमान से सिद्ध करेंगे। जिस प्रकार पर20 भाषु प्रत्यक्ष से सिद्ध न होने पर भी 'परमाणु है, क्योंकि स्कन्धादि
कार्य अन्यथा महीं हो सकते' इस अनुमान से उसको सिडि होतो है उसी प्रकार 'चक्षु इरिश्रय पदार्थ को प्राप्त करके प्रकाश करने वाली है, क्योंकि वह बहिरिन्द्रिय है ( बाहर से देखो जाने वाली
इन्द्रिय है ) जो बहिरिन्द्रिय है वह पदार्थ को प्राप्त करके ही 25 प्रकाश करती है, जैसे स्पर्शन इन्द्रिय' इस अनुमान से चप में
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