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पहला प्रकाश
के बिना भी अन्य-समाप्ति देखी जाती है वहाँ अनिबद्ध ब्राधिक अथवा मानसिक या जन्मान्तरीय मङ्गत को कारण माना जाता है । नवीन नैयायिकों का मत है कि मङ्गल का सीधा फस तो विश्नध्वस है और समाप्ति ग्रन्थकर्ता को प्रतिभा, बुद्धि और पुरुषार्थ का फल है। इनके मत से विघ्नध्वंस और मङ्गल में कार्यकारण• 5 भाव है।
जम तार्किक प्राचार्य विद्यानन्द ने किन्हीं जनरनार्य के नाम से निर्विघ्नशास्त्रपरिसमाप्ति को और वादिराज' प्रादि ने निविघ्नता को मङ्गाल का फल प्रकट किया है।
२. मङ्गस करना एक शिष्ट कर्तव्य है। इससे सदाचार का 10 पालन होता है। अतः प्रत्येक शिष्ट ग्रन्थकार को शिष्टाचार परिपालन करने के लिए अन्य के प्रारम्भ में मङ्गल करना आवश्यक है। इस प्रयोजन को पा० हरिभद्र और विद्यानन्द ने भी माना है।
३. परमात्मा का गुण-स्मरण करने से परमात्मा के प्रति अन्यफर्सा की भक्ति और श्रद्धा सथा मास्तिक्यबुद्धि स्यापित होती है।। और इस तरह नास्तिकता का परिहार होता है । प्रतः ग्रन्थकर्ताको ग्रन्थ के आदि में नास्तिकता के परिहार के लिए भी मङ्गल करना उचित और पावश्यक है।
४. अपने प्रारम्प प्रग्य की सिद्धि में अधिकांशतः गुरुजन ही निमित्त होते हैं। चाहे उनका सम्बन्ध ग्रन्य-सिद्धि में साक्षात् हो 24 या परम्परा । उनका स्मरण अवश्य ही सहायक होता है। यदि उनसे या उनके रचे शास्त्रों से मुदोष न हो तो प्रन्य-निर्माण नहीं
१ मुक्तावली पृ० २, दिनकरी पृ६ । २ तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक पृ० १।। ३ न्यायविनिश्चयविवरण लिस्त्रितप्रति पत्र २४ अनेकान्तजयपताका पृ०२। ५ तत्त्वार्थश्लो० पृ० १, माप्तप० १०३।