________________
न्याय-दीपिका इसमें नास्तिकतापरिहार, शिष्टाचारपरिपालन, पुण्यावाप्ति और निविनशास्त्र परिसमाप्तिको मङ्गलका प्रयोजन बताया है। कृतज्ञता. प्रकाशनको प्राचार्य विद्यानन्दने और शिष्यशिक्षाको प्राचार्य
अभयवेवने' प्रकट किया है । इनका विशेष खुलासा इस 5 प्रकार है :
१. प्रत्येक ग्रन्थकारके हृदय में प्रन्थारम्भके समय सर्व प्रथम यह कामना अवश्य होती है कि मेरा यह प्रारम्भ किया प्रन्यरूप कार्य निर्विघ्न समाप्त हो जाय । वैदिकदर्शममें 'समाप्तिकामो
मङ्गलमाचरेत्' इस वाक्य को श्रुति-प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करके 10 समाप्ति और मङ्गल में कार्यकारणभाव को स्थापना भी की गई है।
न्यायदर्शन और वैशेषिक दर्शन के पीछे के अनुयायियों ने इसका अनेक हेतुनों और प्रमाणों द्वारा समर्थन किया है। प्राचीन नयायिकों ने समाप्ति और मङ्गल में अव्यभिचारी कार्यकारणभाव
स्थिर करने के लिए विनयसको समाप्ति का द्वार माना है और 15 जहाँ मङ्गल के होने पर भी समाप्ति नहीं देखी जाती वहां मङ्गल
में कुछ कमो ( साधनवंगुण्यादि ) को बतलाकर समाप्ति और मङ्गन्स के कार्यकारणभाव को सङ्गति बिठलाई है। तथा जहाँ मङ्गल
१ "अभिमतफलसिद्धरम्पपाय: सुबोधः प्रभवति स च शास्त्रात् तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तरप्रसादात्मयुद्धनं हि कृतमुपकार साघवो विस्मरन्ति ।।"
–तस्वार्थ श्लो. पृ. २ । २ देखो, सन्मतितकंटीका पृ. २ । ३ देखो, सिद्धान्तमुक्तावली प, २, दिनकरी टीका पृ.६ ।