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न्याव-दीपिका
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हो सकता। इहालिये प्रत्येक कृतन ग्रन्थकार का कर्तव्य होता है कि वह अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में कृतज्ञता-प्रकाशन के लिए परापर गुवनों का स्मरण करे। अतः कृतज्ञता प्रकाशन भी मङ्गल का
एक प्रमुख प्रयोजन है। इस प्रयोजन को प्रा. विद्यानन्दादि ने 5 स्वीकार किया है।
५. प्रन्थ के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण को निबद्ध करने से शिष्यों, प्रशिष्यों और उपशिष्यों को मङ्गल करने को शिक्षा प्राप्ति होती है। अतः शिष्या अपि एवं कुर्युः' अर्थात् शिष्य- समुदाय भी
शास्त्रारम्भ में मतल करने की परिपाटो को कायम रक्खे, इस 10 बात को लेकर शिष्य-शिक्षा को भी मङ्गल के अन्यतम प्रयोजन रूप में
स्वीकृत किया है। पहले बतला पाए हैं कि इस प्रयोजन को भी जैनाचार्यों ने माना है।
इस तरह जनपरम्परा में मंगल करने के पांच प्रयोजन स्वीकृत किए गए हैं। इन्हीं प्रयोजनों को लेकर ग्रन्थकार थी अभिनव धर्म15 भूषण भी अपने इस प्रकरण के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण करते हैं
और प्रन्थ-निर्माग (न्याय-बीपिका के रमने) की प्रतिज्ञा करते हैं:
वीर, प्रतियोर, सन्मति, महावीर और बर्द्धमान इन पांच नाम विशिष्ट अन्तिम तीर्थंकर श्री पर्द्धमान स्वामी को अथवा "अन्त
रङ्ग और बहिरङ्ग' विभूति से प्रकर्ष को प्राप्त समस्त जिनसमूह को 20 नमस्कार करके मैं (अभिनव धर्मभूषण) न्यायस्वरुप जिज्ञासु बालकों
(मन्द जनों) के बोधार्थ विशन, संक्षिप्त भोर सुबोध ग्याय-दीपिका' (न्याय-स्वरूप को प्रतिपादक पुस्तिका) ग्रन्थ को बनाता हूँ।
प्रमाण और नमके विवेचन की भूमिका
'प्रमाणनपरधिगमः' [त० सू०१-६] यह महाशास्त्र तत्त्वार्थ25 सूत्र के पहले प्रध्याय का छठवां सूत्र है। यह परमपुरुषार्थ मोक्ष