________________
पहला प्रकाश
१४७
प्रजाननिवृत्ति अथवा अर्थपरिच्छेदरूप प्रमितिक्रिया में जो करण हो वह प्रमाण है। इसी घातको प्राचार्य वादिराजने अपने 'प्रमागनिर्णय' [पृ० १ ] में कहा है :--'प्रमाण वही है जो प्रमितिक्रियाके प्रति साधकतमरूपसे करण ( नियमसे कार्यका उत्पादक ) हो।
शाखा-- इस प्रकारसे (सम्यक और शान पर विशिष्ट) प्रमाणका लक्षण माननेपर भी इन्द्रिय और लिङ्गादिकों में उसकी प्रतिव्याप्ति है। क्योंकि इन्द्रिय और लिङ्गानि भी जाननेरूप प्रमित्तिक्रिया करण होते हैं। 'अखिसे जानते हैं, धूमसे जानते हैं, शब्दसे जानते हैं इस प्रकार का व्यवहार हम देखते ही हैं ?
10 समाधान-इन्द्रियाधिकोंमें लक्षणकी प्रतिय्याप्ति नहीं है। क्योंकि इन्द्रियादिक प्रमितिके प्रति साधकतम नहीं है। इसका खुलासा इस प्रकार है :__ मिति प्रमाणका फल ( कार्य ) है इसमें किसी भी (वारी प्रापवा प्रतिवादी ) व्यक्तिको विवाद नहीं है-सभीको मान्य है। 15 मौर वह प्रमिति अज्ञाननिसिस्वरूप है। अतः उसकी उत्पत्तिमें जो करण हो उसे अज्ञान-विरोधी होना चाहिए । किन्तु इन्द्रि यादिक प्रज्ञानके विरोधी नहीं हैं। क्योंकि प्रचेतन { जा ) हैं। प्रतः प्रज्ञान-विरोधी चेतनधर्म-जानको ही करण मानना युक्त है। लोकमें भी अन्धकारको दूर करनेके लिए उससे विस्त 20 प्रकाशको हो खोजा आता है, घटादिकको नहीं। क्योंकि घटाविक अन्धकार के विरोधी नहीं हैं- अन्धकारके साप भी वे रहते हैं और इसलिए उनसे अन्धकारको निवृत्ति नहीं होती। वह तो प्रकाशसे ही होती है।
दूसरी बात यह है, कि इग्निय वगैरह अस्वसंवेदी (अपनेको 25 म जाननेवाले ) होनेसे पदार्थोफा भी ज्ञान नहीं कर सकते हैं।