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न्याय-दीपिका
उनमें भी है, परन्तु 'मानल' (जानपना! उनमें नहीं है। इस तरह प्रमाणके लक्षणमें दिये गये 'सभ्यर' और 'ज्ञान' ये दोनों पद सार्थक हैं।
शङ्का-प्रमाता प्रमितिको करनेवाला है। प्रतः वह ज्ञाता ही है, 5 ज्ञानरूप नहीं हो सकता। इसलिए ज्ञान पदसे प्रमाताको तो व्यावृत्ति
हो सकती है। परन्तु प्रमिति की व्यावृत्ति नहीं हो सकती । कारण, प्रमिति भी सम्यग्नान है।
समाधान-यह कहना उस हालतमें ठीक है जन मान पद यहाँ भावसापन हो। पर 'ज्ञग्यतेऽनेनेति मानम्' अर्थात् जिसके द्वारा जामा 10 जावे वह ज्ञान है । इस प्रकारको ध्युत्पत्तिको लेकर जान पद करण
साधन इष्ट है। 'करणाधारे चानट्' [१.३-११२] इस जैनेन्द्रग्याकरणके सूत्रके अनुसार करणमें भी 'मनट' प्रत्ययका विधान है। भावसाधनमें मानपक्षका अपं प्रमिति होता है। और भावसापनसे
करणसाधन पद भिन्न है। फलितार्थ यह हुआ कि प्रमाणके लक्षणमें 15 ज्ञान पब करणसाधन विवक्षित है, भावसापन नहीं। अतः मान पदसे प्रमितिको व्यावृत्ति हो सकती है।
इसी प्रकार प्रमाणपद भी 'प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्' इस व्युत्पत्तिको लेकर करणसाधन करना चाहिए। अन्यथा 'सम्यग्
सानं प्रमाणम् यहाँ फरणसापनरूपसे प्रयुक्त 'सम्यग्ज्ञान' परके 20 साथ 'प्रमाण' पदका एकार्थप्रतिपावकत्वरूप समानाषिकरण्य
नहीं बन सकेगा। तात्पर्य यह कि 'प्रमाण' पदको फरणसाधन न मानने पर और भावसाधन मानने पर 'प्रमाण' पवका अर्थ प्रमिति होगा और 'सम्यग्मान' पदका प्रथं प्रमाणशान होगा
और ऐसी हालतमें दोनों पदोंका प्रसिपाप अयं भिन्न-भिन्न होनेसे 25 शाम्ब सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता। अतः 'प्रमाण' परको
करणसाधन करना चाहिए। इससे यह बात सिस- हो गई कि