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________________ २२ न्याय-दीपिका ग्रन्थकार धर्मभूषण और उनको परम्परा प्रस्तुत प्रायके कर्ता धर्मभूषण उपवन धर्मभूषणों से भिन्न ह प्रार जिनका उल्लय उसी विजयनगरके शिलालेख नं० २ में नागर नम्बरके धर्मभूषण के स्थान पर है तथा जिन्हें स्पष्टतया श्रीवर्द्धमान भट्टारक शिष्य बतलाया है। न्यायदीपिकाकारने स्वयं न्यायदीपिकाक अन्तिम पध और अन्तिम (नीसरे प्रकाशगत) गुपिपत्रावाक्यम अपन गुम्का नाम श्रीवर्द्धमान भट्टारक प्रकट किया है। मेर। अनुमान है कि मङ्गलाचरण पद्य में भी उन्होने 'श्रीवर्द्धमान' पदक प्रयोग द्वारा वर्द्धमान मोका पोर पाने गुरु बर्द्धमान गट्टार दोनोंक) स्मरण किया है ! यांकि अपने परापरगुस्का स्मरण करना सर्वथा उचित ही है। धांधर्मभूषण अपने गुरुके अत्यन्त अनन्य भान थे। थे न्याय दीपिका के उसी अन्तिम पद्य और पुणिवावाश्य में कहते हैं कि उन्हें अपने उक्न गुरकी कृपामे ही सरस्वतीका प्रवर्ष (सारस्थानोदय) प्राप्त हुआ था प्रोर उनकं वणीको स्नेहमयी भवित-सेवासे न्यायचीपिका की पूर्णता हुई है । अतः मङ्गनाचरणपद्यम प्रगने गुम बर्द्धमान भट्टारकका भी उनके द्वारा रमण किया जाना सर्वथा-माभव एव मङ्गन है । बिजयनगरके उस शिलालेखमें जो दशकसम्बत् १३०३ (१३८५ ई.) में उत्कोर्ण हुआ है, ग्रन्थकार को जो गुरु परम्परा दी गई है उसके मूचक शिलालेखगत प्रकृतके उपयोगी कुछ गद्यांवो यहां दिया जाता है : "यत्पादपङ्कजरजो रजो हरति मानमं । स जिनः श्रेयसे भूयाद् भूयसे काणालयः ॥१॥ धीमतारमगाम्भीरस्यामादामोधनाच्छनम् । जीयात त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ।। १-२ देखो, पृ० १३२ ।
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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