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________________ प्रस्तावना है और न न्याय-बैशेषिक आदिकी तरह प्रत्यक्ष प्रमाण ही है । किन्तु वह प्रत्यक्ष और स्मरणके अनन्तर उत्पन्न होनेवाला और पूर्व तथा उत्तर पर्यायों में रहनेवाले वास्तविक एकात्य, सादृश्य यादिको विपय करनेवाला स्वतन्त्र ही परोक्ष-प्रमाणविशेप है। प्रत्यक्ष लो मार वर्तमान पर्यायको ही विषय करता है और स्मग्ण अतोन पर्यायको ग्रहण करता है । अत: उभयपर्वावती एकत्वादिकका जाननेवाला मंकलनात्मकः (जोड़रूप) प्रत्यभिज्ञान नामका जुदा ही प्रमाण है। यदि पूर्वोत्तरपर्यायव्यापी एकरवका अपलाप किला जायेगा तो कहीं भी एकत्व का प्रत्यय न होनसे एक सन्तानकी भी सिद्धि नहीं हो सकेगी। अतः प्रत्यभिज्ञानका विषय एकस्वादिसः थास्तविक होने वह प्रमाण ही है-अप्रमाण नहीं । श्रीर विराट् प्रतिभास न होने से उसे प्रत्यक्ष प्रमाण भी नहीं कहा जासवाता है । किन्नु स्पष्ट प्रतीति होने से वह परोदा प्रमाणका प्रत्यभिमान नामक भेदविशेष है । इसके एकवा अभिजान, मादश्यप्रत्यभिज्ञान, वैसादृश्यप्रत्मभिवान प्रादि भनेक भद जनदर्शन में मान गये हैं। यहां यह ध्यान देन योग्य है कि प्राचार्य निधागदने' प्रत्यभिजानके एकात्वध्रत्यभिज्ञान और सादृश्यप्रत्यभिज्ञान ये दो झो भर अनलाय है । लेकिन दूसरे सभी जैनतानिकोंने निग्गिन अनेक-यास यधिक भेद गिनाये हैं। इसे एक मान्यताभेद ही कहा भाराबाता है । मभवानी । कल्य, नादृश्य और वैसादृश्य विषयक तीन प्रत्यभिजानाको सदरणदाता कण्ठीत कहा है विवर्त्तमात्रगोचमत्वात् । नापीमति संवेदनं तस्य वर्तमानविवर्तमाविपयत्वात । लाम्यामुपजन्यं तु संकलनज्ञान तदनुवादपुरस्सर द्रव्यं प्रत्यवमृशन् ततोऽन्यदेव प्रत्यभिज्ञानमेकत्वविषयं तदपतये क्वचिंदकान्वयाव्यवस्थानात् सन्तानकत्वसिद्धिपि न स्यात् ।'-प्रमाणप० पृ ६६, ७० । १ देखो, तस्वार्थश्लो० पृ० १६०, प्रष्टस पृ. २७६, प्रमाणपरी० पृ० ६६ ।
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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