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म्याय-दीपिका
और यथाप्रतीति अन्य प्रत्यभिज्ञानों को भी स्वयं जानने की सूचना की है। इससे यह मालूम होता है कि प्रत्यभिज्ञानों की दो या तीन आदि कोई निश्चित संख्या नहीं है। अकलङ्कदेव', माणिक्यनन्दि और लघु मनन्दवीर्यने' प्रत्यभिज्ञानके बहुभेदों की ओर स्पष्टतया संकेत भी किया है। इस उपर्युक्त विवेचनसे यही फलित होता है कि दर्शन और स्मरणसे उत्पन्न होनेवाले जितने भी संकलनात्मक ज्ञान हों वे सब प्रत्यभिज्ञान प्रमाण समझना चाहिए । भले ही वे एकसे अधिक क्यों न हों, उन सबका प्रत्य भिज्ञानमें ही यन्तर्भाव हो जाता है। यही कारण है कि नैयायिक जिस सायत्यिक ज्ञानसे वह जैनदर्शन में सादृश्यप्रत्यभिज्ञान है। उपमानको पृथक् प्रमाण माननेकी हालत में वैसादृश्य, प्रतियोगित्व, दूरत्व आदि विषयक ज्ञानों को भी उसे पृथक् प्रमाण मानने का आपादन किया गया है'। परन्तु जैनदर्शन में इन सबको संकलनात्मक होनेसे प्रत्यभिज्ञानमें ही प्रन्तर्भाव कर लिया है ।
१७. तर्क
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सामान्यतया विचारविशेषका नाम तक है। उसे चिन्ता, कहा, ऊहापोह प्रादि भी कहते हैं। इसे प्रायः सभी दर्शनकारोन माना है। न्यायदर्शन में वह एक पदार्थान्तररूपसे स्वीकृत किया गया है। तर्कके प्रामान्य और प्रत्रामायके सम्बन्ध में न्यायदर्शनका' अभिमत है कि तर्क न तो प्रमाणचतु
१ देखो, लघीय० का २१ । २ परीक्षामु० ३-५ - १० । ३ प्रमेयर० ३ १० |
४ "उपमानं प्रसिद्धार्थसाधर्म्यात् साध्यसाधनम् ।
यदि किविशेषेण प्रमाणान्तरमिष्यते ॥
प्रमितोऽर्थः प्रमाणानां बहुभेदः प्रसज्यते ।" न्यायवि० का० ४७२ | तथा का० १६,२० । ५ देखो न्यायसूत्र १-१-१ । ६ "तक न प्रमाणसंग्रहीतो न प्रमाणान्तरमपरिच्छेदकत्वात्प्रमाणविषयविभागात्तु