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तीसरा प्रकाश
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भम्पया सिङ्गदर्शन ( धूमादि का देखना) और व्याप्ति के स्मरण प्रावि को सहायता से साविक इन्द्रियाँ ही मग्नि प्रादिक लिङ्गि (साध्य ) का ज्ञान उत्पन्न कर दें। इस तरह अनुमान भी पृथक प्रमाण न हो । यदि कहा जाय कि चक्षुराविक इन्द्रियाँ तो अपने विषय धूमादि के देखने मात्र में ही चरितार्थ हो जाती हैं, वे भग्नि प्रादि परोक्ष 5 प्र में प्रवृत्त नहीं हो सकतों, श्रतः श्रग्नि प्रादि परोक्ष अर्थों का ज्ञान करने के लिये अनुमान प्रमाण को पृथक मानना श्रवश्यक है, तो प्रत्यभिज्ञान ने क्या अपराध किया ? एकस्व को विषय करने के लिए उसको भी पृथक मानना जरूरी है । अतः प्रत्यभिज्ञान नामका पृथक् प्रमान है। यह स्थिर हुआ ।
'सादृश्यप्रत्यभिज्ञान उपमान नाम का पृथक् प्रमाण हैं ऐसा किन्हीं ( नैयायिक और मीमांसकों ) का कहना है। पर वह ठीक नहीं हैं; क्योंकि हमरण और अनुभवपूर्वक जोड़रूप ज्ञान होने से उसमें प्रत्यभिज्ञानता ( प्रत्यभिज्ञानपना) का उलंघन नहीं होता- वह उसमें रहती है । प्रतः यह प्रत्यभिज्ञान हो है । धन्यथा ( यदि सादृश्य- 1 faare शामको उपमान नाम का पृथक् प्रमाण माना जाय तो ) 'गाय से भिन्न भैसा है' इत्यादि बिसवृशता को विषय करने वाले सादृश्यज्ञान को मोर 'यह इससे दूर है' इत्यादि यापेक्षिक ज्ञान को भी पुन प्रसारण होना चाहिए | भ्रतः जिस प्रकार वैसादृश्याविज्ञानों में प्रत्यभिज्ञान का लक्षण पाया जाने से वे प्रत्यभिज्ञान है 2 उसी प्रकार सादृश्यविषयक ज्ञान में भी प्रत्यभिज्ञान का लक्षण पाया जाने से वह प्रत्यभिज्ञान ही है- उपभान नहीं। यही प्रामाणिक परम्परा है।
तर्क प्रमाण का निरूपण -
प्रत्यभिज्ञान प्रमाण हो । तर्क का क्या स्वरूप है ? व्याप्ति के