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________________ सम्पादकीय (द्विसीय संस्करण) सन् १९४५ में वीर सेवामन्दिर में न्यायदीपिका का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुमा पा और अब तेईस वर्ष बाद उसका दूसरा संस्करण उसके द्वारा ही प्रकट हो रहा है, यह प्रसन्नता की बात है प्रथम संस्करण कई वर्ष पूर्व ही मप्राप्य हो गया था और उसके पुन: प्रकाशन की प्रेरणा हो रही थी। अत: इस द्वितीयसंस्करण के प्रकाशन से सम्यासियों और विज्ञासुभों की ग्रन्थ की अनुपलब्धि के कारण उत्पन्न कठिनाई एवं शान-बाधा निश्चम ही दूर हो जायेगी। वीर सेवामन्दिर का यह प्रकाशन अधिक लकत्रिय क्यों हा, यह सो इस अन्य के मध्येता स्वयं जान सकते हैं। किन्तु यहाँ जो उल्लेखनीय है वह यह कि इसकी प्रस्तावना, संशोधन, टिप्पण पोर परिशिष्टों से उन्हें भी लाभ हुआ है जो कालेजों मोर विश्वविद्यालयों में दर्शनविभाग के अध्यक्ष या प्राध्यापक हैं और जिन्हें जैन तशास्त्र पर लेपचार (व्याख्यान) देने पड़ते हैं। जयपुर में सन् १९३५ में अखिल भारतीय दर्शन परिषद् का अधिवेशन हुमा था। इसमें मैं भी हिन्दूविश्वविद्यालय की ओर से सम्मिलित हुमा मा। एक गोष्ठी के अध्यक्ष ये ग. राजेन्द्रप्रसाद कानपुर। सभी के परिचय के साथ मेरा भी परिचय दिया गया । गोरठी के बाद डा. राजेन्द्रप्रसाद बोले-'न्यायदीपिका का सम्पादन आपने ही किया है ?' मेरे 'हाँ' कहने पर उसकी प्रशंसा करने लगे और सम्पादन के सम्बन्ध में जो कल्पनाएं कर रस्सी थी उन्हें भी प्रकट किया। इस उल्लेख से इतना ही अभिधेय है कि बीरसलामन्दिर का यह संस्करण जैनाम्यासियों के अतिरिक्त जनेतर
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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