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________________ दूसरा प्रकाश १७१ सर्वशता को अवश्य सिद्ध करती है। और यह निदोषता परहस्त परमेष्ठी में उनके युक्ति और शास्त्र से प्रतिरोधी बम होने से सिद्ध होती है। मुक्ति और शास्त्र से विरोधी पचन भी बनके द्वारा माने गये मुक्ति, संसार और मुक्ति तथा संसार के कारण तत्व और अनेकधर्मयुक्त चेतन तथा प्रचेसन तब के प्रत्यमावि प्रमाण से 5 गाषित न होने से अच्छी तरह सिद्ध होते हैं। तारपर्य यह कि प्ररहन्त के द्वारा उपदेशित तत्वों में प्रत्यक्षादि प्रमाणों से कोई बाधा नहीं भाती है। अतः वे यथार्थवमता है। और यथार्थवक्ता होने से निर्दोष है। तथा निर्वोष होने से सर्वत्र है। शाका-इस प्रकार प्ररहन्त के सर्वमता सिद्ध हो जाने पर भी 10 वह परहन्त के ही हैं, यह फैसे ? क्योंकि कपिल प्रावि के भी यह सम्भव है ? समाधान-कपिल प्रादि सर्वझ नहीं है। क्योंकि वे सदोष है। पौर सोच इसलिए हैं कि वे युक्ति और शास्त्र से विरोधी कथन करने वाले हैं। युक्ति और शास्त्र से विरोधी कपन करने वाले भी 15 इस कारण है कि उनके द्वारा माने गये मुक्ति आदिक तरब और सर्वथा एकान्त सत्त्व प्रमाण से बाधित हैं। अतः वे सर्वा नहीं है। अरहन्त ही सर्वत हैं। स्वामी समन्तभद्र ने ही कहा है-हे महन् ! वह सर्वन पाप हो हैं, क्योंकि प्राप निर्दोष हैं। निर्दोष इसलिये हैं कि युक्ति और प्रागम से मापके वचन प्रविरुद्ध है—युक्ति तथा आगम से 20 सनमें कोई विरोध नहीं पाता। और वचनों में विरोध इस कारण नहीं है कि माएका इच्ट ( मुक्ति प्रादि तत्त्व } प्रमाण से बाधित महीं है। किन्तु तुम्हारे अनेकान्त मतरूप अमृत का पान नहीं करने माले तथा सर्वथा एकान्त तत्त्व का कथन करने वाले और अपने को प्राप्त समझाने के अभिमान से दग्ध हुए एकान्तवावियों का इष्ट (अभि• 2: मत सस्व) प्रत्यन से बाधित है।"
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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