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न्याय-दीपिका
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रंग दोनों के द्वारा पतस्व में बाधा और स्वाभिमत तस्य में प्रभाषा इन्हीं दो के समर्थन को लेकर 'भावेकारसे इस कारिका के द्वारा प्रारम्भ करके 'स्यात्कार: सत्यलाञ्जनः ' इस कारिका तक प्राप्तमीमांसा की रचना की गई है। अर्थात् - 5 अपने द्वारा माने गये तत्व में फंसे बाघा नहीं है ? और एकान्तवादियों के द्वारा माने तत्व में किस प्रकार बाधा है ? इन दोनों का विस्तृत विवेचन स्वामी समन्तभद्र में 'प्राप्तमीमांसा' में 'भावैकान्ते' इस कारिका ९ से लेकर 'स्यात्कार: सत्यलाञ्छन: ' इस कारिका ११२ तक किया है। अतः यहाँ और प्रषिक विस्तार नहीं किया जाता ।
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इस प्रकार प्रतीद्रिय केवलज्ञान अरहन्त के हो है, यह सिद्ध हो गया । और उनके वचनों के प्रमाण होने से उनके द्वारा प्रतिपादित प्रतीन्द्रिय अवधि और मन:पर्ययज्ञान भी सिद्ध हो गये । इस तरह प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष निर्दोष (निर्वाध ) है – उसके मानने में कोई दोष या धावा नहीं है। अतः प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ये दो 15 भेद सिद्ध हुये ।
इस प्रकार श्रीजंनाचार्य धर्मभूषन यति विरचित न्यायदीपिका में प्रत्यक्ष प्रमाणका प्रकाश करनेवाला पहला प्रकाश पूर्ण हुआ।