________________
प्रस्तावना
पक' कादको रखकर वात्स्यायनका ही अनुसरण करते हैं । कन्दलीकार श्रीघर भी वात्स्यायनके 'तत्त्व' शब्दके स्थानमें 'स्वपरजातीय' और 'व्यबच्छेदक' की जगह 'व्यावत्तंकशब्दका प्रयोग करके करीब करीब उन्होंके लक्षणके लक्षणको मान्य रखते हैं। तकदीपिकाकार उक्त कयनोंसे फलित
ये भगाधारण सर्गको लक्षणका लक्षण मानो हैं मालदेव स्व. तन्त्र ही लक्षणका लक्षण प्रणयन करते हैं और वे उसमें 'धर्म' या 'प्रसाधारण धर्म' शम्दका निवेश नहीं करते । पर व्यावृतिपरक लक्षण मानना उन्हें इष्ट है । इससे लक्षणके लक्षणकी मान्यतायें दो फलित होती हैं। एक तो लक्षणके लक्षण में प्रसाधारण घर्म का प्रवेश स्वीकार करनेवाली और दूसरी स्वीकार न करनेवाली । पहली मान्यता मुख्यतया न्याय वैशेषिकों की है और जिसे जन-परम्परामें भी क्वचित् स्वीकार किया गया है । दूसरी मान्यता अकलङ्क-प्रतिष्ठित्त है और उसे प्राचार्य विद्यानन्द' तथा न्यायदीपिकाफार प्रादिने अपनाई है। न्यायदीपिकाकारने तो सप्रमाण इसे ही पुष्ट किया है और पहली मान्यताकी आलोचना करके उसमें दूषण भी दिखाये हैं। अन्यकारका कहना है कि यद्यपि किसी वस्तुका असाधारण विशेष धर्म उस वस्तुका इतर पदार्थो म्यावर्तक होता है, परन्तु उसे सक्षणकोटिमें प्रविष्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि दण्डादि जो कि असाधारणधर्म नहीं हैं फिर भी पुरुष के व्यावसक होते हैं और 'शावलेयत्व' आदि गवादिकों के असाधारणधर्म तो हैं, पर ज्यातक नही
१ 'उद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवस्थापको धो लक्षणम् –न्यायमं० पृ. ११ २ 'उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावतंको धर्मों लक्षणम्'-कन्दली० पृ. २६ । ३ एतद्दूषणत्रयरहितो धर्मों लक्षणम्। यथा गो. सास्नादिमत्वम् । स एवासाधारणधर्म इत्युच्यते'- तकदीपिका गृ० १४। ४ 'परस्परच्यतिकरे ति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्' तत्वार्थवा० पृ० १२ । ५ देखो, रिशिष्ट पृ. २४०। ६ देखो, परिशिष्ट पृ. २४० ।