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न्माय-दीपिका पनने विविध प्रति और श्रीपर ने विविध प्रवृत्ति को स्थान दिया है। शास्त्र-प्रवृत्तिके पौये भेदरूपसे विभाग को भी मानने का एक पक्ष रहा है जिसका उल्लेख सर्वप्रथम उच्चोतकर' मोर जयन्तभट्टने किया है और उसे उद्देषामें ही शामिल कर लेनेका विधान किया है । भा० प्रमाचन्द्र' मौर ईमपन्द्र' भी यही कहते हैं । इस तरह वात्स्यायनके द्वारा प्रदर्शित त्रिविष रवृत्ति का ही पक्ष स्थिर रहता है। न्यायदीपिकामें प्रभाचन्द्र और हेमचन्द्र के दाग बगुला यही मिति प्रतिमा दाया गया है !
३. लक्षणका लक्षण
दार्शनिक परम्परामें सर्वप्रथम स्पष्ट तौरपर वात्स्यायनने लक्षणका लक्षण निर्दिष्ट किया है और कहा है कि जो वस्तु का स्वरूप-व्यवच्छेदक धर्म है वह लक्षण है। न्यायवासिकके कर्ता उपोतकरका भी यही मत है। न्यायमंजरीकार जयन्तभट्ट सिर्फ 'व्यवच्छेदक के स्थान में 'व्यवस्था
'उद्दिष्टविभागश्च न त्रिविषायां शास्त्रप्रवृत्तावन्तर्भवतीति । तस्मादुरिष्टविभागो युक्तः ; न ; उद्दिष्टविभागस्योद्देश एवान्तर्भावात् ।' न्यायवा० पृ० २७, २८ । २ ननु च विभागलक्षणा चतुर्थ्यपि प्रवृत्तिरस्त्येव". उद्देशरूपानपामात्तु उद्देश एवं प्रसो। सामान्यसंशया कीर्तनमुद्दे पाः, प्रकारभेदसंज्ञया कीर्तनं विभाग इति'-.-स्यायमंः पृ० १२ । ३ देखो, म्पायकुमुद पृ. २१ । ४ प्रमाणमो० पृ. २ । ५ 'उद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवन्दको धर्मो लक्षणम्-न्यायभा० पृ. १७ । ६ लक्षणस्येतरव्यवच्छेदहेतुत्वात् । लक्षणं खलु लक्ष्यं समानासमानजातीयेभ्यो व्यवसित्ति'-न्यायवा. पृ० २८, 'पर्यायशब्दाः कथं लक्षणम् ? व्यवच्छेदहेतुत्वात् । सर्व हि समयमितरव्यवच्छेदकमेतेश्च पर्यायशन्दैनन्यिः पदार्थाभिधीयत इत्यसाधारणत्वाल्लक्षणम्---ग्यायवा० पृ. ७६, 'इतरेतरविशेषकं सक्षणमुच्यते'-- न्यायथा पृ० १०८ |