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न्यात-दीपिका
किन्तु इस शिलालेख के कोई १२ वर्ष शदशक सं० १३०३ (१३८५६०) में उत्कीर्ण हुए विजयनगरके इल्लिखित शिलालेय नं. २ में उनका (तृतीय धर्मभूषणका) स्पष्टतया नामोल्लेख है। अत: यह सहजम अनुशन हो सकता है कि वे अपने गुरु वर्द्ध मानके पदाधिकारी शक सम्वत् १२६५से १३०७ में किसी ममय बन चुके थे । इस नाह अभिनव धर्मभूपणके साक्षात् गुर श्रीवर्द्धमानमुनीचर और प्रथम द्वितीय धर्मभूषण थे । अमरकीति दादागुरु और प्रथममभरण परदादा रथे । प्रौर एमोसे मेरे याल में उन्होंने अपने इन पुर्वदना गुज्य प्रगुरु (द्वितीय थर्मभूषण तथा परदादागुम (प्रथमधर्मभपण) रो पनाही न नया व मनाने के लिये अपनेको अभिनव विशेषणमे बिरोपित किया जान पड़ना है जो कुछ हो, यह आवश्य है कि अपने गृहके प्रभावशानी या माय माय । समय-विचार
__यद्यपि अभिनव धर्मभूगणी निमित तिथि बनाना कठिन है नयापि सो साधार प्राप्त है उनपर करके रामयका लगभग निचय होजाता है। अतः यहाँ उनके समयका विचार किया जाता है।
विध्य गिरिका जो शिलालेप प्राप्त है वह भय नम्बर १२९५ का उत्तीर्ण किया हुया है । मैं पहले बनला आया कि इसमें प्रथम और द्वितीय इन दो ही धर्मभूगणों का उन्म है, और द्वितीय पर्यभूषण शिम वर्द्धमानका अन्तिमझपरो उस्लोप है । नृतीय धर्मगका उल्लंत्र उममें नहीं गाया जाता । प्रो० होलान जो गम.. वो इनवानुमार द्वितीय धर्मभूपणको निपद्या (निःगही) स. १२६५म वनवाई गई हैं। प्रतः द्वितीय धर्मभूषणका अस्तित्वसमग शकाम ०१२६५तक ही समझना चाहिए । मेरा अनुमान है कि केशदवर्गीको अपनी गोम्मटसार की जीवसत्त्वप्रदीपिका टीका बनानेकी प्रेरणा एवं प्रदेश चिन धर्मभूषणसे मिला के धर्मभूषण भी यही द्वितीय धर्मभषण होना चाहिये । क्योंकि इनक