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________________ २२८ न्याय-दीपिका कथंचित एक ही है, अनेक नहीं है। तथा पर्यायरूप से—अवान्तरसप्तासामान्यरूप विशेषों की अपेक्षा से वस्तु कथंचित नाना (अनेक) ही है, एक नहीं है । तात्पर्य यह है कि तत्तत् नगाभिप्राय से ब्रह्मवाद ( सत्तावाद ) और क्षणिकवाद का प्रतिपादन भी ठीक है । यही प्राचार्य समन्तभद्र स्वामी ने भी निरूपण किया है कि "हे जिन ! अापके मत में अनेकान्त भी प्रमाण और नय से अनेकातरूप सिद्ध होता है, क्योंकि प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्तरूप है और अपित नपको अपेक्षा एकान्तरूप है। अनियत अनेक धर्मविशिष्ट ४ को विपनाने का काम है और नियत एक धर्मविशिष्ट वस्तु को बिषय करने वाला नय है। यदि इस जैन-सरणि-जनमत को नप-विवक्षा को न मानकर सर्वथा एक ही अद्वितीय ब्रह्म है, अनेक कोई नहीं है, कञ्चित्किसी एक अपेक्षा से भी अनेक नहीं है, यह प्राग्रह किया जायसर्वथा एकान्त माना जाय तो यह अर्थाभास है-मिश्या अर्थ है और इस अर्थ का फथन करने वाला वचन भी भागमाभास है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष से और 'सत्य भिन्न है सत्त्व भिन्न' है इस मागम से बाधितविषय है। इसी प्रकार 'सर्वथा भेद ही है, कम्चित् भी अभेव नहीं है। ऐसा कथन भी वैसा ही समझना चाहिए। अर्थात् सर्वथा भेद ( अनेक ) का मानना भी अर्थाभास है और उसका प्रतिपादक बचन भी प्राममाभास है, क्योंकि सदरूप से भो भेद मानने पर असत् का प्रसङ्ग पायेगा और उसमें प्रक्रिया नहीं बन सकती है। शङ्का-एक एक अभिप्राय के विषयरूप से भिन्न भिन्न सिद्धा होने वाले और परस्पर में साहवर्य को अपेक्षा न रखने पर मिथ्याभूत हये एकत्व, अनेकत्व प्रापि धर्मों का साहचर्यरूप समूह, भी
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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