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प्रस्तावना
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थे । न्यायविन्दुके अतिरिक्त प्रमाणवातिक वादन्याय हेतुविन्दु, सन्तानान्सरसिद्धि, प्रमाणविनश्चय और सम्बन्धपरीक्षा प्रादि इनके बनाए हुए धन्य है | अभिनव धर्मभूषण न्यायविन्दु यादिके अच्छे अभ्यासी थे ।
१. दिग्नाग- ये बौद्ध सम्प्रदागके प्रमुख तार्किक विद्वानों से हैं। इन्हें बौद्धन्यायका प्रतिष्ठापक होनेका श्रेय प्राप्त है, क्योंकि अधिकांशतः बौद्धन्यायके सिद्धान्तों की नींव इन्होंने डाली थी । इन्होंने न्याय, वैशेषिक और भीमांसा श्रादि दर्शनोंके मन्तब्योग सोचनास्वरूप र अनेक प्रकरण ग्रन्थ रचे हैं। न्यायप्रवेश प्रमाणसमुच्चय, प्रमाणसमुच्चयवृत्ति हेतुचक्रडमरू, प्रालम्बनपरीक्षा और त्रिकालपरीक्षा मादि ग्रंथ इनके माने जाते हैं। इनमें न्यायप्रवेश और प्रमाणसमुच्चय मुद्रित भी हो चुके ।
१ उद्योतकर (६०० ई०) ने न्यायवा० पू० १२५, १६८ पर हेतुवात्तिक और हेत्वाभासवार्तिक नामके दो ग्रन्थोंका उल्लेख किया है, जो सम्भवतः दिग्नागके ही होना चाहिए, क्योंकि वाचस्पति मिश्रके तात्पर्यटीका ( पू० २८६ ) गत संदर्भको ध्यान से पढ़ने से वंसा प्रतीत होता है । न्यायवा० भूमिका पृ० १४१, १४२ पर इनको किसी बोर विद्वान के प्रकट भी किये हैं। उद्योतकरके पहले बौद्ध परम्परामें सबसे अधिक प्रसिद्ध प्रबल और अनेक ग्रन्थोंका रचनाकार दिग्नाग ही हुआ है जिसका म्यायवार्त्तिक में जगह जगह कदर्थन किया गया है ।
इन ग्रन्थोंके सम्बन्धमें मैंने माननीय पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य से दर्यात किया था। उन्होंने मुझे लिखा है- 'दिग्नागके प्रमाणसमुच्चयके अनुमानपरिच्छेदके ही वे श्लोक होने चाहिए जिसे उद्योतकर हेतुवात्तिक या हेत्वाभासवार्तिक कहते हैं । स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं मालूम होते यही "हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेन वर्णितः "इस कारिकाको स्ववृत्ति टोकामें कर्णकगोमिने लिखा है- " वर्णितः श्राचार्यदिग्नागेन प्रमाणसमुच्चयादिषु" । सम्भव है इसमें श्रादि शब्दसे हेतुचक्रडमरूका निर्देश हो ।' परन्तु उद्योतकरने जो इस प्रकार लिखा है- "एवं विरुद्धविशेषणविरुद्धविशेष्याच