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________________ ६५ न्याय-दीपिका है। आवेशपरी भेनाचार्य हरिभद्रसूरिकी 'न्यायप्रवेशवृत्ति नामक टीका है और इस वृत्तिपर भी जैनाचार्य पाश्यंदेव कृत 'न्यायप्रवेशवृत्तिपंजिका नामकी व्याख्या है। दिग्नागका समय ईसाकी चौथी और पांचवीं शताब्दी ( ३४५-४२५३० ) के लगभग है । भा० धर्मभूषणने न्यायदीपिका १० ११६ पर इनका नामोल्लेख करके 'न याति' इत्यादि एक कारिका उद्घृत की है, जो सम्भवत: इन्हींके किसी अनुपलब्ध ग्रन्थकी होगी । द्रष्टव्याः । एषां तूदाहरणानि हेत्वाभासवासिके द्रष्टव्यानि स्वयं चाभ्यूहानि" (५० १६८ ) । इससे तो यह मालूम होता है कि यहाँ उद्योतकर किसी 'हेत्वाभासवातिक' नामक ग्रंथका ही उल्लेख कर रहे हैं जहाँ 'विरुद्ध विशेषणविरुद्ध विशेष्यों के उदाहरण प्रदर्शित किये हैं और वहांस जिन्हें देखनेका यहाँ संकेतमात्र किया है। 'हत्वाभासवासिके पदसे कोई कारिका या श्लोक प्रतीत नहीं होता। यदि कोई कारिका या श्लोक होता तो उसे उधृत भी किया जा सकता था। अतः 'हेत्वाभासवातिक' नामका कोई ग्रन्थ रहा हो, ऐसा उक्त उल्लेखसे साफ मालूम होता है । "...! इसी तरह उद्योतकरके निम्न उल्लेख से 'हेतुवासिक ग्रन्थ के भी होने की सम्भावना होती है- " यद्यपि हेतुवासिकं ब्रुवाणेनोक्तम्- सप्तिका - सम्भवे षट्प्रतिषेधादेकद्विपदपर्युदासेन मिलक्षणो हेतुरिति । एतदप्ययुक्तम् (१० १२८ ) यहाँ हेतुवातिककारके जिन शब्दोंको उद्धृत किया है वे गद्य में हैं । श्लोक या कारिकारूप नहीं है। अतः सम्भव है कि न्यायप्रवेशकी तरह 'हेतुवात्तिक गद्यात्मक स्वतन्त्र रचना हो और जिसका कर्णकगोमिने यादि शब्दसे संकेत भी किया हो। यह भी सम्भव है कि प्रमाणसमुच्चयके श्रनुमानपरिच्छेदको स्वोपज्ञ वृत्तिके उक्त पदवाक्यादि हों और उनकी मूल कारिकाओंको हेत्वाभासवातिक एवं हेतुशत्तिक कहकर उल्लेख किया हो। फिर भी जबतक 'हेतुचक्रडमरू' और प्रमाणसमुच्चयका प्रनुमानपरिच्छेद सामने नहीं भाता और दूसरे पुष्ट प्रमाण नहीं मिलते तबतक निश्चयपूर्वक प्रभी कुछ नहीं कहा जा सकता ।
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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