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________________ २१३ न्याय-दीपिका प्रर्थात् प्रयोजनार्थक है, क्योंकि 'अर्थ हो - तात्पर्य ही वचनों में है' ऐसा धाचार्यवचन है। मतलब यह कि यहां 'अ' पद का अयं तात्पर्य विवक्षित है, क्योंकि वचनों में सात्पर्य ही होता है । इस तरह प्राप्त के वचनों से होने वाले अर्थ (तात्पर्य) ज्ञान को जो 5 आगम का लक्षण कहा गया है वह पूर्ण निर्दोष है। इसे"सम्मग्दर्शनजानचारित्राणि मोक्षमार्गः " [त० सू० १-१] सम्यमार्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता ( सहभाग ) मोक्ष का मार्ग है' इत्यादि वाक्यार्थज्ञान। सम्यग्दर्शनादिकः सम्पूर्ण कर्मों के क्षयरूप मोक्ष का मार्ग अर्थात् उपाय है न कि हैं । 10 प्रतएव भिन्न भिन्न लक्षण वाले सम्यग्दर्शनादि तोनों मिलकर ही मोक्ष का मार्ग हैं, एक एक नहीं, सिद्ध होता प्रमाण मे — वचन के प्रयोग के तात्पर्य से अर्थ में अर्थ है और इस प्रमिति होती है। 5 ऐसा अर्थ 'मार्ग' इस एक है। यहो उक्त वाक्य का संशयादिक की निवृत्तिरूप प्राप्त का लक्षण - प्राप्त किसे कहते हैं ? जो प्रत्यक्षज्ञान से समस्त पदार्थों का ज्ञाता ( सर्वज) है और परमहतोपदेशी है वह प्राप्त है। 'समस्त पदार्थों का ज्ञाता' इत्यादि हो प्राप्तं का लक्षण कहने पर भूतलियों में प्रतिव्याप्ति होती है, क्योंकि वे श्रागम से समस्त पदावों0 को जानते हैं। इसलिए 'प्रत्यक्षज्ञान से यह विशेषण दिया है । 'प्रत्यक्ष ज्ञान से समस्त पदार्थों का ज्ञाता' इतना हो भ्राप्त का लक्षम करने पर सिद्धों में प्रतिव्याप्ति है, क्योंकि वे भी प्रत्यक्षज्ञान से ही सम्पूर्ण पदार्थों के ज्ञाता हैं, अतः 'परम हितोपदेशी' यह विशेषण कहा है। परम हित निधेमस - मोक है और उस मोक्ष के 5 उपदेश में ही परहस्त को मुख्यरूप से प्रवृत्ति होती है, अन्य
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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