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प्राक-कथन न्या को सर दर्शन :य सानियते वस्तुतस्लमनेमेति वर्शनम् अथवा 'दृश्यते निर्णायत वं वस्तुतस्त्वमिति वर्षानम् इन दोनों व्युत्पसियोंके साधारपर दुर धानुसे निष्पन्न होता है। पहली
त्पत्तिके आधारपर दर्शन शब्द तर्क-वितर्क, मन्थन या परीक्षास्वरूप उस विचारधाराका नाम है जो तत्त्वोंके निर्णयमें प्रयोजक हुषा करती है। पूसरी व्युत्पत्तिके प्राधारपर दर्शन शब्दका अर्थ उल्लिखित विचारधाराके द्वारा निर्णीत तत्त्वोंकी स्वीकारता होता है। इस प्रकार दर्शन शब्द दार्शनिक जगत्में इन दोनों प्रकारके अर्थोमें व्यवहुत हुआ है अर्थान भिन्न-भिन्न मतोंकी जो तत्त्वसम्बन्धी मान्यतामें हैं उनको और जिन ताकिका मुद्दोके प्राधारपर उन मान्यताओंका समर्थन होता है उन ताकिक मुद्दोंको दर्शनशास्त्रके अन्तर्गत स्वीकार किया गया है ।
सबसे पहिले दर्शनोंको दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता हैभारतीय दर्शन और प्रभारतीय (पाश्चात्य) दर्शन । जिनका प्रादुर्भाव भारतवर्ष हुया है के भारतीय और जिनका प्रादुर्भाव भारतवर्ष के बाहर पाश्चात्य देशों में हुआ है वे प्रभारतीय (पाश्चात्य) दर्शन माने गये हैं। भारतीय दर्शन भी दो भागोंमें विभक्त हो जाते हैं-वैदिक दर्शन मोर प्रवैदिक दर्शन | वैदिक परम्पराके अन्दर जिनका प्रादुर्भाव हुमा है तथा जो वेदपरम्पराके पोषक दर्शन हैं वे वैदिक दर्शन माने जात हैं और वैदिक परम्परासे भिन्न जिनकी स्वतन्त्र परम्परा है तथा जो वैदिक परम्पराके विरोधी दर्शन हैं उनका ममावेश अवैदिक दर्शनों में होता है। इस सामान्य नियमके आधारपर वैदिक दर्शनों में मुख्यनः सांख्य, वेदान्त, भीमांसा, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन माते हैं और जैन, बौद्ध तथा चार्वाक दर्शन, अवैदिक दर्शन ठहरते हैं ।