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न्याय-वापिका ग्राहकरूपसे तर्कको स्वीकार किया है । तथा व्याप्तिमें ही तर्कका उपयोग बतलाया है। विश्वनाथ पञ्चाननका कहना है कि हेतुमें मनयोजकस्वादिकी शङ्काकी निवृत्ति के लिए तर्क अपेक्षित होता है। जहाँ हेतुमें मप्रयोजकत्वादिको शङ्का नहीं होती है वहां तर्क अपेक्षित भी नहीं होता है। तसंग्रहकार अग्नम्भट्टते' तो तर्कको अयथार्यानुभव (अप्रमाण) ही बतलाया है । इस तरह न्यायदर्शन में तर्कको मान्यता अनेक तरह की है पर उसे प्रमाणरूपमें किसीने भी स्वीकार नहीं किया । बौद्ध तर्कको व्याप्तिग्राहक मानते तो हैं पर उसे प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्प कहकर अप्रमाण स्वीकार करते हैं । मीमांसक' ऊहके नामसे तकको प्रमाण मानते हैं।
जनताकिक प्रारम्भसे ही तकने प्रामाण्पको स्वीकार करते हैं और उसे सकलदेशकाल व्वापी अविनाभावरूप व्याप्तिका ग्राहक मानते आये हैं । व्याप्तिग्रहण न तो प्रत्यक्षसे हो सकता है। क्योंकि यह सम्बद्ध और वर्तमान अर्थको ही ग्रहण करता है और व्याप्ति सर्वदेशवालके उपमहारपूर्वक होती है । अनुमानस भी व्याप्तिका ग्रहण सम्भव नहीं है । कारण, प्रकृत अनुमानसे भी व्याप्तिका ग्रहण माननेपर अन्योन्याश्रय और अन्य अनुमानसे माननेपर अनवस्था दोष पाता है । अतः स्याप्तिक ग्रहण करनेके लिए तर्कको प्रमाण मानना आवश्यक एवं अनिवार्य है । धर्मभूषणने भी तर्फको पृषक प्रमाण माक्तिक सिद्ध किया है। १८. अनुमान--
यद्यपि चार्वाक सिबाय न्याय-वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक और बाद सभी दर्शनोंने अनुमानको प्रमाण माना है और उसके स्वार्थानुमान
१ "तत्र का व्याप्तिर्यत्र तर्कोपयोगः । न तावत् स्वाभाविकत्वम्।" -न्यायकुसु० प्रकाश० ३.७। २ देखो, न्यायमूत्रवृत्ति १-१-४० । ३ देखो, सर्कसं० पृ. १५६ । ४ "त्रिविधश्च ऊदः मंत्रसामसंस्कारविषयः।" -- शावरभा० ६-१-१ ।