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________________ २०० न्याय-दीपिका केवलान्वयी है । जैसे- "प्रवृष्ट (पुण्य-पाप) प्रादिक किसी के प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे अनुमान से जाने जाते हैं। जो जो अनुमान से जाने जाते हैं वे वे किसी के प्रत्यक्ष हैं, जैसे-अग्नि मानि।' यहाँ 'अदृष्ट प्रादिक' पक्ष है, किसी के प्रस्पा' साध्य है, 'अनुमान से जाना 5 जाना' हेतु है, 'ग्नि प्रादि' मन्वय दृष्टान्त है। 'मनुमान से जाना जाना' हेतु पक्ष बनाये गये 'प्रवृष्ट प्राधिक' में रहता है और सपक्ष किये 'अग्नि प्रादि' में रहता है। प्रतः पक्षधर्मीय और सपासस्व है। तथा विपक्ष यहाँ कोई है नहीं, क्योंकि सभी पवायं पक्ष और सपक्ष के भीतर प्रा लिए हैं। इस कारण विपशव्यावृत्ति है ही नहीं। कारण, 10 ज्यावृत्ति अवधि (सीमा) को लेकर होती है और म्यावृत्ति को प्रषि विपक्ष है, वह यहाँ है नहीं। बाकी कथन अन्वयम्यतिरेको को तरह समझना चाहिए। ३. जो पक्ष में रहता है, विपक्ष में नहीं रहता और सपा से रहित है वह हेतु केवलव्यतिरेकी है। जो—जिन्दा शरीर जीव15 सहित होना चाहिए, क्योंकि वह प्राणादि वाला है । जो जो जीव सहित नहीं होता वह वह प्राणादि माला नहीं होता, जैसे-लोष्ठ ( मिट्टी का हेला ) । यहाँ 'जिन्दा शरीर' पक्ष है, 'जीवसहितत्व' साध्य है, 'प्राणादि' हेतु है और 'सोष्ठादिक' व्यतिरेकनुष्टान्त है। 'प्राणादि' हेतु पक्षभूत जिन्दा शरीर' में रहता है मोर विपक्ष 20 सोष्ठाविकसे व्यावृत्त है-वहाँ वह नहीं रहता है। तमा सपक्ष यहाँ है नहीं, क्योंकि सभी पदार्थ पक्ष और विपक्षके अन्तर्गत हो गये। बाकी कयन पहले की तरह जानना चाहिये । हस तरह इन तीनों हेतुमों में प्रादयध्यतिरेकी हेतु के हो पचिरूपता है। केवलावियो हेतु के विपक्षश्यावृत्ति नहीं है और 25 केवलयतिरेकीके सपक्षसत्त्व नहीं है। प्रतः अगायिकोंके मतानु
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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