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________________ ५६ न्याय-दीपिका और इसलिए यह कहा जा सकता है पात्रस्वामीकी जो रचना ( त्रिलक्षणकदर्थन ) शान्तक्षत सामने रही वह कल देवके भी सामने अवश्य रही होगी । सतः यह मानना है कि बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षितके लिए जो उक्त वातिकका कर्त्ता निर्भ्रान्तिरूपसे पात्रस्वामी विवक्षित हैं वही अकलङ्कदेवको 'स्वामी' पदसे प्रभिप्रेत है। इसलिए स्वामी तथा अन्यथानुपपन्नत्व' पद (वात्तिक) का सहभाव और शान्तिरक्षितके सुपरिचित उल्लेख इस बातको माननेके लिए हमें सहायता करते हैं कि उपयुक्त पहली कारिका पात्रस्वामीकी ही होनी चाहिए | प्रकलङ्क और दान्तरक्षितके उल्लेखके या विद्यानन्दका उल्लेख माता है। जिसके द्वारा उन्होंने उक्त दातिकको दातिकारका बतलाया है। यह वातिककार राजवार्तिककार प्रकलङ्कदेव मालूम नहीं होते; क्योंकि उक्त यात्तिक ( कारिका) राजवातिकमें नहीं है, न्यायविनिश्चयमें है। विद्यानन्दने राजवासिक के पदवाक्यादिको ही राजवात्तिककार ( तत्त्वार्थवात्तिककार) के नामसे उद्धृत किया है, न्यायविनिश्चय श्रादिके नहीं । अतः विद्यानन्द का 'वार्तिककार' पदसे अन्यथानुपपत्ति' वार्तिकके कर्ता बालिककारपात्रस्वामीही अभिप्रेत हैं। यद्यपि वार्तिककारसे न्यायविनिश्चयकार अकलदेवका ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि न्यायविनिश्चयमें वह वार्तिक मूलरूपमें उपलब्ध है, किन्तु विद्यानन्दने न्यायविनिश्चयके पदवाबादिको 'न्यायविनिश्चय' के नामसे अथवा 'तदुक्तमकलदेव' आदिरूपसे ही सर्वत्र उद्धृत किया है। मतः वार्तिककारसे पात्रस्वामी हो विद्यानन्दको विवक्षित जान पड़ते हैं । यह हो सकता है कि वे 'पास्वामी' नामकी अपेक्षा वार्तिक और वासिककार नामसे अधिक परिचित होंगे, पर उनका अभिप्राय उसे राजवार्तिककारके कहने का तो प्रतीत नहीं होता। कुछ विद्वान् वातिककारसे राजवार्तिककारका ग्रहण करते हैं । देखो, न्यायकुमु० प्र० प्र० पृ० ७६ और मकल० टि० पृ० १६४ ।
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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