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प्रस्तावना
जाता है कि शान्तरक्षितके सामने पात्रस्वामीका कोई अन्य प्रवश्यही रहा है। जैनसाहित्य में पात्रस्वामीकी दो रचनाएँ मानी जानी है-१ विलक्षपदयन और दूसरी पात्रकेशरीस्तोत्र 1 इनमें दूसरी रचना तो उपलब्ध है, पर पहली रचना उपलब्ध नहीं है। केवल ग्रन्थान्तरों आदिमें उसके उल्लेख मिलते हैं। 'पात्रकेशरीस्तोत्र' एक स्तोत्र ग्रन्थ है और उसमें माप्तस्तुतिके बहाने सिद्धान्तमतका प्रतिपादन है । इममें पाप्रस्वामीके नाम से शांतिरक्षितके द्वारा तत्त्वसंग्रहमें उद्धृत कारिकाएं, पद, वाक्यादि कोई नहीं पाये जाते । अतः यही सम्भव है कि वे त्रिलक्षणकदर्थनके हों; क्योंकि प्रथम तो ग्रन्थका नाम ही यह बताता है कि उसमें त्रिसक्षणका कदधनखण्डन–किया गया है। दूसरे, पात्रस्वामीको अन्य तीसरी मादि कोई रचना नहीं सूनी जाती, जिसके वे कारिकादि सम्भावनास्पद होले । तीसरे, अनन्तवीर्यको चर्चासे मालूम होता है कि उस समय एक प्राचार्यपरम्परा ऐसी भी थी, जो 'अन्यथानुपपत्ति' वात्तिकको विलक्षणकदधनका बतलाती थी । चौथे, वादिगजक' उल्लेख और श्रवणवेलगोलाकी मल्लिषेणास्तिगत पात्र केशरी विषयक प्रशंसापद्य' से भी उक्त वात्तिकादि घिसक्षमकदर्थनके जान पड़ते हैं। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि पात्रकेशरी मामके एक ही विद्वान् जैन साहित्यमें माने जाते हैं और जो दिग्नाग (४२५ ई.) के उत्तरवर्ती एवं प्रकलङ्कके पूर्वकालीन है । प्रकलङ्कने उक्त बातिकको न्यायविनिश्चय (का. २२३ के रूपमें ) में दिया है पौर सिद्धि विनिश्चयके 'हेतुलक्षणसिद्धि' नामके छठवें प्रस्तावके प्रारम्भमें उसे स्वामी का 'भमलालीढ' पद कहा है। प्रकलदेव शान्तरक्षितके' समकालीन है।
१ देखो, न्यायवि० वि० । २ "महिमा स पात्रकेरिगुरोः परं भवति यस्प भक्त्यासीत् । पद्मावती सहाया त्रिसक्षणकदर्थनं कर्तुम् ॥" ३ शान्तरशितका समय ७०५ से ७६२ और प्रकलङ्कदेवका समय ७२० # ७५०० माना जाता है। देखो, प्रकलङ्कम० की प्र० पृ. ३२ ।