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________________ न्याय-दीपिका हो सकता और लक्षणकयन किए बिना परीक्षा नहीं हो सकती या परीक्षा हु कि त्रिन---जिर्णपात्रक वर्णन नहीं हो सकता। लोक और शास्त्र में भी उक्त प्रकार से (उद्देश, लक्षणनिर्वेद और परीक्षा द्वारा ) ही वस्तु का निर्णय प्रसिद्ध है। 5 प्रियेचनीय वस्तु के केवल नामोल्लेन करने को उद्देश्य कहते हैं । जैसे 'प्रमाणनौरधिगमः' इस सूत्र द्वारा प्रमाण और नय का उद्देश्य किया गया है। मिली हुई अनेक वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को प्रग करनेवाले हेतुको (चिन्ह को) लक्षण कहते हैं। जैसा कि श्री अकसकदेव के राजवात्तिक में कहा है-'परस्पर मिली हुई 0 वस्तुओं में से कोई एक वस्तु जिसके द्वारा प्यावत्त ( अलग ) की जाती हैं उसे लक्षण कहते हैं।' ___ लक्षण के दो भेद हैं...-..भामभूत और २ अनात्मभूत । यो प्रस्तु के रूप में मिला इमा हो. उसे आत्मभूत लक्षण कहते हैं.। जैसे अग्नि की उष्णता। यह उण ता अग्नि का स्वरूप होती १ स्वर्णकार जैसे सुवर्ण का पहिले नाम निश्चित करता है फिर परिभाषा बांधता है और खोटे खरेके के लिए मसान पर रखकर परीक्षा करता है तब वह इस तरह सुवर्ण का ठीक निर्णय करता है । २ 'त्रिविघा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिः-उद्देशो लक्षणं परीक्षा चेति । तत्र नामवेमेन पदार्थमात्रस्याभिधानं उद्देशः । तत्रोद्दिष्टस्य तस्वष्यवच्छेदको धर्मो लक्षणम् । लक्षितस्य यथा लक्षणमुपपद्यते नवेति प्रमाण रवधारणं परीक्षा ।—ज्यायभा० १-१-२ । ३ लक्षण के सामन्यलक्षण और विशेष लक्षण के भेदसे भी दो भेद माने गए हैं। यथा—'तद् द्वेषा सामान्यलक्षणं विशेषलक्षणम् च ।' प्रमाणमी. पृ० २ । न्यायदोपिकाकार को ये भेद मान्य है। जैसा कि ग्रन्थ के व्याख्यान से सिद्ध है । पर उनके यहां कयन न करने का कारण
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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